.

साल 2001 में जब अरविंद राजगोपाल की किताब इंडिया आफ्टर टेलीविजन आई तो पढ़ने-लिखनेवाले लोगों के बीच हंगामा मच गया. राजगोपाल ने बहुत ही बारीक विश्लेषण करते हुए ये तर्क स्थापित किए थे कि इस देश में दक्षिणपंथ का मुख्यधारा की राजनीति में जो उभारा हुआ है, बाबरी मस्जिद विध्वंस के दौरान साम्प्रदायिक ताकतों का निरंतर विस्तार हुआ, उसके लिए कहीं न कहीं दूरदर्शन पर प्रसारित रामायण जैसे टीवी सीरियल भी जिम्मेदार रहे हैं. ऐसे सीरियलों ने दक्षिणपंथी राजनीति के लिए माहौल बनाने का काम किया और टीवी में स्थायी रूप से भारतीय संस्कृति के नाम पर इनकी पकड़ मजबूत होती चली गई.
दिलचस्प है कि इस किताब की जबरदस्त चर्चा हुई लेकिन तथाकथित प्रगतिशील लोगों ने भी इस किताब को बहुत अधिक सराहा नहीं. राजनीतिक स्तर पर तो वो राजगोपाल की बात से फिर भी सहमत हुए कि दक्षिणपंथ राजनीति का निरंतर विस्तार हो रहा है लेकिन इसके लिए टीवी जिम्मेदार है, ऐसा मानने के लिए तैयार नहीं हुए. इसकी बड़ी वजह ये भी रही है कि वो टीवी को इतना गंभीर माध्यम मानने को तैयार नहीं थे, उसे ये क्रेडिट देना नहीं चाहते थे कि वो समाज और राजनीति की दिशा तय होने लग जाए. नतीजा ये किताब कम से उन लोगों के बीच से बिसरती चली गई जो टीवी को उथला या सतही माध्यम मानते रहे हैं. लेकिन
साल 2012 में कृष्णा झा और धीरेन्द्र के. झा की लिखी किताब "अयोध्या दि डार्क नाइटः दि सिक्रेट हिस्ट्री ऑफ रामाज एपीयरेंस इन बाबरी मस्जिद" से गुजरें और खासकर इसमे जो उद्धरण शामिल किए गए हैं, वो राजगोपाल के तर्क को मजबूत करते हैं. इस किताब में बाबरी मस्जिद विध्वंस के संदर्भ में अलग से टीवी के कार्यक्रम की चर्चा नहीं है लेकिन सरकार की उन नीतियों और तर्क पर जरूर चर्चा शामिल है, जिन पर गौर करें तो उनमे प्रसारण नीति अपने आप शामिल हो जाते हैं. इस दौर की प्रसारण नीति, राजनीति और सरकार के रवैये को समझने के लिए भास्कर घोष की लिखी किताब दूरदर्शन डेज कम महत्वपूर्ण नहीं है.( राजीव गांधी को भक्ति भाव से याद किए जाने के बावजूद). खैर,
साल 2012-13 में शुरु हुए टीवी कार्यक्रमों को एक बार दोबारा से राजगोपाल के तर्क के साथ रखकर समझने की कोशिश करें तो ये समझना और भी आसान हो जाता है कि इस देश में दक्षिणपंथी पार्टी की जो सरकार 2014 में सत्ता में आई, टीवी पर ये दो साल पहले ही आ गई थी. महाराणा प्रताप, रानी लक्ष्मीबाई, पृथ्वीराज चौहान, देवों के देव महादेव, जीटीवी का रामायण ऐसे दर्जनभर टीवी सीरियल हैं जो कि वहीं काम दो-ढाई साल पहले से करते आए हैं जो काम दक्षिणपंथी पार्टी एक्सेल शीट पर कर रही थी और जो काम इकॉनमिक टाइम्स जैसा अखबार सेन्सेक्स की खबरें छापकर कर रहा था.
कुल मिलाकर कहानी ये है कि मनोरंजन की दुनिया को हम जिस हल्के अंदाज में निबटा देते हैं, इस देश की राजनीति का बड़ा सुर वही से साधने का काम होता आया है. राजनीति में इसका इस्तेमाल माल राजनीति के लिए किया जाए तो वो देशभक्ति हो जाती है और इसी इन्‍डस्ट्री के लोग सही अर्थों में राजनीति करने लगें तो वो असहिष्णु करार दे दिए जाते हैं.
( जाहिर है, इस असहिष्णुता की शुरूआत कांग्रेस से ही हुई है. झा की किताब का पन्ना लगाया है, आप चाहें तो बड़ा करके नेहरू का वो उद्धरण पढ़ सकते हैं जिसे कि उन्होंने मई 1950 में राज्य के मुख्यमंत्रियों से बेहद ही खिन्न भाव से कहा था-
ये बड़े अफसोस की बात है कि जो कांग्रेस धर्मनिपेक्षता के लिए जानी जाती है, वो इतनी जल्दी इसका अर्थ भूल जाएगी..बिडंबना ही है कि जो जिन चीजों पर जितना अधिक बात करता है, वो उतना ही कम उसका अर्थ समझता है, उसे उतना ही कम व्यवहार में लाता है..

| | edit post
मैंने उस वक्त जितनी बार दीपक चौरसिया को देखा, नौकिया ग्यारह सौ के साथ ही देखा. दो-दो फोन लेकिन वही. पुण्य प्रसून के साथ भी मामूली मोबाईल. शम्स ताहिर खान के मोबाईल पर तो कभी नजर ही नहीं गई. वो अपने जीवन में, अपनी शैली में वैसे भी बेहद सादगी पसंद इंसान है. मयूर विहार फेज वन का वो इलाका जिसे अब सेल्फीप्रधान मीडियाकर्मचारी लो स्टेटस की जगह मानते हैं, बड़े आराम से आपको घूमते-टहलते मिल जाएंगे. जिस वक्त ये लोग नोकिया ग्यारह सौ और उसके आसपास की मोबाईल से अपना काम करते, उसी वक्त बाजार में एक से बेहतरीन मंहगे मोबाईल मौजूद थे. ब्लैकबेरी की जबरदस्त क्रेज थी लेकिन  मामूली मोबाईल इनका खुद का चुनाव था, कहीं कोई मजबूरी नहीं.

ये देश के वो मीडियाकर्मी हैं जिन्हें राह चलते लोग पहचानते हैं. आप इनकी स्टोरी-एंकरिंग की क्वालिटी का विश्लेषण न भी करें तो भी सिलेब्रेटी टीवी चेहरे हैं. पूरे देश में इन्हें लोग जानते-पहचानते हैं. हमने कभी भी इन तीनों को न तो सिलेब्रेटी जैसा व्यवहार करते देखा और न ही कभी किसी सिलेब्रेटी के पीछे दौड़ लगाते. हां ये जरूर है कि तीनों अपनी सेल्फ को लेकर कॉन्शस रहनेवाले लोग.  अब मुझे नहीं पता कि ये कौन सा मोबाईल रखते हैं लेकिन हां इतना तो जरूर है कि इस सेल्फी सर्कस में कभी दिखाई नहीं दिए. स्मार्टफोन होंगे भी तो वो इनकी पत्रकारिता का एक हिस्सा होगा, न कि सत्ता के आगे लोट जाने की चटाई.

मैं 2007-08 की अपनी इन्टर्नशिप, ट्रेनी औऱ नौकरी के दिनों को याद करता हूं और आज इस नजारे से गुजरता हूं तो क्लासरूम में अपनी ही कही बात से लड़खड़ाने लग जाता हूं- पत्रकारिता करने के लिए बहुत अधिक संसाधन नहीं चाहिए, एक मामूली मोबाईल जिससे तस्वीर ली जा सके, रिकॉर्डिंग हो सके और टाइपिंग हो सके बस..इसके आगे आप जो भी करेंगे वो संचार क्रांति का हिस्सा होगा, उससे सूचना क्रांति कभी नहीं आएगी.

आज जब इस तमाशे से गुजरता हूं तो लगता है कि जिन संसाधनों से बेहतरीन वैकल्पिक पत्रकारिता की जा सकती है, स्टोरी की लागत में कटौती की जा सकती है, उसे इन मीडिया कर्मचारियों ने कितनी बुरी तरह टीटीएम के काम में लगा दिया. ऐसे नजारे देखने के बाद भी आपके मन में सवाल रह जाते हैं कि आखिर मीडिया को लेखकों का पुरस्कार लौटाना, प्रतिरोध में सरकार से असहमत होते हुए अपनी बात कहना क्यों रास नहीं आता ? आखिर जिस चेहरे के साथ सेल्फी खिंचाने के लिए वो लंपटता और मवालियों की हद तक जा सकते हैं, आखिर वो अपने इस प्रतीक पुरूष की छवि ध्वस्त होते कैसे देख सकते हैं ? #मीडियामंडी
| | edit post
जी न्यूज के दागदार संपादक सुधीर चौधरी को 16 दिसंबर 2012 में हुए दिल्ली गैंगरेप की पीडिता के दोस्त का इंटरव्यू के लिए साल 2013 का रामनाथ गोयनका सम्मान कल दिया गया. ये सम्मान सुधीर चौधरी के उस पत्रकारिता को धो-पोंछकर पवित्र छवि पेश करती है जिसके बारे में जानने के बाद किसी का भी माथा शर्म से झुक जाएगा.
पहली तस्वीर में आप जिस महिला के कपड़े फाड़ दिए जाने से लेकर दरिंदगी के साथ घसीटने,बाल नोचने के दृश्य दे रहे हैं, ये शिक्षक उमा खुराना है. इन पर साल 2007 में लाइव इंडिया चैनल ने स्टिंग ऑपरेशन किया और लोगों को बताया कि ये महिला शिक्षक जैसे पेशे में होकर छात्राओं से जिस्मफरोशी का धंधा करवाती है. चैनल ने इस पर लगातार खबरें प्रसारित की.
नतीजा ये हुआ कि दिल्ली के तुर्कमान गेट पर बलवाईयों ने इस महिला को घेर लिया..कपड़े फाड़ दिए और मार-मारकर बुरा हाल कर दिया. पुलिस की सुरक्षा न मिली होती तो इस महिला की जान तक चली जाती. बाकी देश के लाखों लोगों की निगाह में ये शिक्षक ऐसी गुनाहगार थी जिसका फैसला लोग अपने तरीके से करने लग गए थे. लेकिन
जल्द ही पता चला कि चैनल के रिपोर्टर प्रकाश सिंह ने कम समय में शोहरत हासिल करने के लिए जिस स्टिंग ऑपरेशन को अंजाम दिया था वो पुरी तरह फर्जी है. उस वक्त चैनल के प्रमुख यही सुधीर चौधरी थे और उन्होंने अपने रिपोर्टर को क्रिमिनल बताते हुए साफ-साफ कहा कि इसने हमें धोखे में रखा और इस खबर की हमें पहले से जानकारी नहीं थी. चैनल एक महीने तक ब्लैकआउट रहा. प्रकाश सिंह थोड़े वक्त के लिए जेल गए..फिर छूटकर दूसरे न्यूज चैनल और आगे चलकर राजनीतिक पीआर में अपना करिअर बना लिया और इधर खुद सुधीर चौधरी तरक्की करते गए.
इस फर्जी स्टिंग ऑपरेशन के देखने के बाद जनता ने शिक्षक उमा खुराना के साथ जो कुछ भी किया, उसकी कोई भरपाई नहीं हुई..अब वो कहां हैं, क्या करती हैं, किस हालत में है इसकी मीडिया ने कभी कोई खोजखबर नहीं ली लेकिन अब जबकि सुधीर चौधरी को महिलाओं के सम्मान के लिए ये अवार्ड मिला है तो कोई जाकर उनसे अपने चिरपरिचत अंदाज में पूछे कि आपको ये खुबर सुनकर कैसा लग रहा है तब आपको अंदाजा मिल पाएगा कि महिलाओं का सम्मान कितना बड़ा प्रहसन बनकर रह गया है. 
बाकी जी न्यूज के इस दागदार संपादक पर बोलने का मतलब देशद्रोही होना तो है ही. ‪#‎मीडियामंडी‬
| | edit post
करीब पैंतीस मिनट के इंतजार के बाद जिस ऑटो रिक्शा ने मेरी बताई जगह पर जाने के लिए हामी भरी, साथ में अपनी शर्त भी रख दी- आईटीओ से जाएंगे, हमें जमना घाट पर कुछ सामान देना है, सुबह के अर्घ्य के लिए..

रास्ते में अचानक फुल वॉल्यूम में केलवा के पात पर, हो दीनानाथ( शारदा सिन्हा ) और मारवौ रे सुगवा धनुख से( अनुराधा पौडवाल) बजाती हुई गाड़ी सर्र से गुजर जाती और हम थोड़े वक्त के लिए नास्टैल्जिक हो जाते..घर में कभी किसी ने छठ किया नहीं है लेकिन घाट पर से नारियल का गोला लेकर मां के साथ लौटना हर बाहर भीतर तक भिगो देता है.. समझ गया अब शारदा सिन्हा की खुदरा-खुदरा आवाज के बीच एकमुश्त लव-गुरु और जिएं तो जिएं कैसे, बिन आपके टाइप के गाने में कोई मजा बचा नहीं है..लिहाजा कान से इपी निकालकर, समेटकर वापस बैग में रख लिया.

आईटीओ पहुंचते ही मेरी नीयत बदल गई. आधी रात में कंबल लपेटकर बैठे, ओढ़कर अध-मरी स्थिति में अपने डीयू-जेएनयू के दोस्तों को लांघकर गुजरने की हिम्मत नहीं हुई. नजदीक जाते ही दीनानाथ, मौका मिलेगा तो हम बता देंगे जैसे गीत-गाने बहुत पीछे रह गए थे और अब कान में बेहद स्पष्ट, दमदार एक ही आवाज सुनाई दे रही थी- अपनी कुर्सी के लिए जज्बात को मत छेड़िए..
आइटीओ मेट्रो से सटे करीब दो दर्जन छात्रों से घिरा एक शख्स अपनी रौ में डफली पर थाप देते हुए गा रहा था..आज रात दिल्ली में चारों तरफ से गानों की आवाज आ रही है..आप बहुत कोशिश करेंगे तो बीच-बीच में एकाध शब्द पकड़ में आ जाएंगे लेकिन आइटीओ की सड़कों पर ( जो कि अखबारों के दफ्तर से भरा इलाका है, रात ) पिछले सोलह-सत्रह दिनों से वही गीत, वही कविता, वही सारे शब्द बहुत साफ सुनाई दे रहे हैं जो कि पाठ्यक्रम से, क्लासरूम से जो कवि और कविता एक-एक करके खिसकाए जाने लगे हैं या तो पाठ्यक्रम में होकर भी चुटका-कुंजी के ठिकाने लगा दिए गए हैं, वो इन दिनों आइटीओ की सड़कों पर अपने वास्तविक अर्थ में मौजूद हैं. कला की जो परिभाषा आर्ट गैलरी में जाकर कैद हो जा रही है वो आधी रात गए लैम्पपोस्ट की रोशनी में अपनी जरूरत खुलकर राहगीरों को बता दे रही है..
थोड़े वक्त के लिए आप भूल जाइए कि ये जिस बात को लेकर यूजीसी का, मानव संसाधन विकास मंत्रालय और केन्द्र सरकार का जिस बात को लेकर विरोध कर रहे हैं, वो किस हद तक जायज है. आप सत्ता और सरकार के ही पक्ष में खड़े रहिए, हितकारी तो यही है. लेकिन आधी रात को जो गतिविधियां यहां चल रही होती है( स्वाभाविक रूप से दिन में भी होती हैं), उनसे गुजरने पर आप महसूस करेंगे कि ये उपरी तौर पर भले ही विरोध है, आपको ये भी राष्ट्र का अपमान नजर आए लेकिन जिस जुनून के साथ यहां गीत गाए जाते हैं, कविता की जो पंक्तियां लिखी-टांगी और दोहराई जाती है, संप्रेषण के लिए जिन पारंपरिक तरीके का इस्तेमाल किया जा रहा है, उन सबसे गुजरने के बाद एकबारगी आपको जरूर लगेगा कि कला की, कविता की हिफाजत असल में ऐसे ही मौके और जगहों पर संभव है.
बात-बात में जो हमारी संस्थाएं, अलग-अलग प्रदेश की सरकार करोड़ों रूपये विज्ञापन और पीआर प्रैक्टिस पर झोंक देती हैं, आप अपनी बात रखने के इनके तरीके पर गौर करेंगे तो पाएंगे कि प्रतिरोध का असल अर्थ, अपनी बात लोगों तक पहुंचाने का सही जरिया वो शब्द ही है जिन पर कि हम धीरे-धीरे बहुत कम यकीं करने लगे हैं. कविता को निबटाकर जुमले,नारे और विज्ञापन की पंचलाइन पर उतर आए हैं. ऐसे प्रतिरोध शब्दों के प्रति यकीन की तरफ लौटने की कार्रवाई है, कविता की जरूरत और कला को आर्ट गैलरी के कैदखाने और ड्राइंगरूम की हैसियत से बाहर निकालकर ठहरकर सोचने के लिए है...बाकी ये हमारी-आपकी तरह के कोजी कमरे का मोह त्यागकर सड़क किनारे जैसे-तैसे सोए पड़े हैं, इनकी मांगे पूरी होती है तो सुविधा उठाने के काबिल इनसे पहले हम-आप होंगे.
| | edit post
साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाकर और उनका समर्थन करनेवाले लोगों ने देश का नाम खराब किया है. देश को अहिष्णु बताकर दुनिया के सामने उसकी इज्जत कम की है. #प्रतिरोध कार्यक्रम के जरिए इन्होंने दुनिया के आगे एक पाखंड रची है जो कि सीधे-सीधे सरकार के,राष्ट्र के और इस देश की जनता के खिलाफ है..

राष्ट्र की इस खराब हुई छवि को पहले की तरह बेहतर करने, पहले की तरह विशाल हृदय का देश और सरकार बताने के लिए #मार्चफॉरइंडिया का आयोजन किया गया. जिस भाषा और भाव के साथ इसकी पहल की गई है, हम जैसे आंख चीरकर, टकटकी लगाए बेहतर कल की उम्मीद करनेवाले लोग लगभग आश्वस्त हो गए थे कि पुरस्कार लौटाकर जिनलोगों ने इस देश का अपमान किया है, उन्हें आज ये एहसास हो जाएगा कि वो गलत हैं..साहित्य अकादमी का वापस करना, देश की अखंड संस्कृति पर चोट करना है..लेकिन

#मार्चफॉरइंडिया में एनडीटीवी की महिला पत्रकार के साथ बदतमीजी की, अपशब्दों का प्रयोग किया.
हम उम्मीद करते हैं ये देश और दुनिया के बाकी लोग इसे महिला का अपमान न मानकर एक कांग्रेसी चैनल की मीडियाकर्मी को सही रास्ते पर लाने के रूप में लेगा. हम उम्मीद करते हैं कि इससे राष्ट्र का अपमान नहीं हुआ होगा..ऐसी स्थिति में मीडियाकर्मी को फेसबुक पर अपनी बात अपडेट करने, संस्थान को बताने के बजाय चुप मार जाना चाहिए था..मीडिया के पेशे में इतना सब होना तो आम बात है.
| | edit post
मिट्टी में मिल गई ओपन मैगजीन की साखः
उदय प्रकाश की कहीं कोई चर्चा नहीं
2G स्पेक्ट्रम घोटाला और मीडिया के दिग्गज चेहरे की गिरती साख को लेकर ओपन मैगजीन की जो लोकप्रियता और क्रेडिबिलिटी बनी थी, वो पिछले दो सालों में तेजी से गिरती रही है. कुछ नहीं तो आप इसकी वेबसाइट पर जाकर प्रिंट एडिशन कवर पेज पर एक नजर मार लें, आपको अंदाजा लग जाएगी कि इसने सरकार के कामकाज और गड़बड़ियों को ढंकने और उल्टे महिमामंडित करने के लिए कितनी स्पेशल स्टोरी की है ? वैचारिक स्तर पर तेजी से हुई गिरावट के बीच भी ये पत्रिका ढांचे के स्तर पर कम से कम पत्रकारिता को बचाकर प्रकाशित होती रही थी...लेकिन
25- 31अक्टूबर अंक में लेखकों के साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाए जाने और उस पर चली बहस को लेकर जो कवर स्टोरी प्रकाशित की है वो न केवल पूरी तरह एकतरफी है बल्कि पत्रकारिता के ढांचे के स्तर पर बुनियादी शर्तों की धज्जियां उड़ाती जान पड़ती है. मसलन इस पूरे प्रकरण में उदय प्रकाश जिन्होंने सबसे पहले पुरस्कार वापसी की घोषणा, खत सहित पुरस्कार राशि लौटाकर की, का कहीं कोई नाम नहीं है.. पहला नाम नयनतारा सहगल और उसके बाद अशोक वाजपेयी और फिर बाद के लोग.
दूसरा कि एस प्रसन्नाराजन और सिद्धार्थ सिंह की इसी कवर पेज के अन्तर्गत दो अलग-अलग स्टोरी प्रकाशित हुई है. एस प्रसन्नाराजन को मैं पहले कॉलम से पढ़ता आया हूं. फूकोयामा से लेकर आर्ची ब्राउन, शशि थरूर की किताब की जानकारी और बेहतरीन समीक्षा का कायल रहा हूं..लेकिन प्रसन्नाराजन ने भी अपनी करीब हजार से भी ज्यादा शब्दों की इस स्टोरी( The Banality of Dissent) में घटनाक्रम को तोड़-मरोड़कर पेश किया और उदय प्रकाश की कहीं कोई चर्चा नहीं की.
सिद्धार्थ सिंह की स्टोरी ( Behind The Moral Howl) का उपशीर्षक ही कुछ इस तरह से है- What's their problem-Narendra Modi or intolerance. पूरे लेख में वही सारे तर्क हैं जो राकेश सिन्हा जैसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक के विचारक और बीजेपी प्रवक्ता टेलीविजन चैनलों पर बोलते आए हैं. ये फिर भी वैचारिक सहमति-असहमति का सवाल है लेकिन सिंह ने भी अपनी स्टोरी में न ही पहली बार उदय प्रकाश के सम्मान वापस करने की चर्चा की और न ही किसी ऐसे साहित्यकार की बात की जो कि पुरस्कार लौटाए जाने के पक्ष में राय रखते हों.
इधर पत्रिका ग्राफिक्स की शक्ल में जिन लेखकों की तस्वीर के साथ उनकी बात शामिल की है, उनमे से एक भी लेखक ऐसे नहीं हैं जो साहित्य अकादमी के रवैये के प्रति असहमति और पुरस्कार लौटानेवाले लेखकों के पक्ष में अपनी राय रखते हों. जाहिर है पत्रिका ने एक भी ऐसे लेखक से बात नहीं की या फिर अगर संपर्क किया हो और उसने बात करने से मना कर दिया हो तो उसकी भी चर्चा नहीं है.
कवर स्टोरी में इस बात की गहन पड़ताल है कि किस लेखक का किस राजनीतिक पार्टी से संबंध रहा है..सिंह का लेख तो इस निष्कर्ष तक जा पहुंचा है कि सबसे सब सोवियत संघ के कम्युनिस्ट माइंड सेट के लेखक हैं लेकिन उन्होंने खुद क्या कहा, इसे शामिल नहीं किया.
अगर कनेक्शन जोड़कर ही हमे लेखकों को पढ़ना है तो उन पर लिखे ऐसे लेख, कवर स्टोरी को पढ़ने के साथ-साथ ये सवाल तो करना ही होगा कि सीइएटी टायर, सारेगम, स्पेंसर के संस्थान से निकलनेवाली इस पत्रिका ने यदि 2G स्पेक्ट्रम पर स्टोरी प्रकाशित करते हुए पहले पन्ने को ये कहते हुए ब्लैंक छोड़ दिया था कि देश में आपात्काल जैसी स्थिति है तो हमें तो पूरी पत्रिका और इस कवर स्टोरी को इसी एंगिल से पढ़ा जाना चाहिए.  ‪#‎मीडियामंडी‬
| | edit post
मुन्नवर राणा साहब ! न्यूज चैनल के टीआरपी के बताशे बनानेवाले लोग आपकी शायरी, मुशायरा के लिए कम सास-बहू सीरियल के मेलोड्रामा पैदा करने की ताकत रखने के लिए ज्यादा याद रखेंगे..आपको शायद यकीं न हो लेकिन आपने पिछले चार-पांच दिनों में न्यूज चैनलों पर जो कुछ भी जिस अंदाज में कहा वो न्यूज चैनलों की डीएनए से हूबहू मेल खाते हैं.
चैनल के जिन चेहरे ने साहित्य को बासी और उबाऊ चीज मानकर आज से दस साल पहले ही चलता कर दिया वो हैरत में पड़े होंगे कि इसमे भी ऐसे-ऐसे शख्स मौजूद हैं जो कॉमेडी सर्कस से लेकर सास-बहू और साजिश जैसा मजा पैदा कर सकते हैं..आपका रोना सच्चा हो सकता है, जार-जार रोईए, देश की बर्बादी के आंसू इतनी जल्दी वैसे भी थमने नहीं चाहिए लेकिन चैनलों के हाथ खुद को टप्पू के पापा टाइप का चरित्र बनने से न भी रोक पाते हों तो कम से कम साहित्य को कॉमेडी सर्कस मत बनने दीजिए..आप बड़े शायर हैं लेकिन आप अकेले साहित्य की दुनिया के सिरमौर नहीं हैं. कभी तो न्यूजरूम के अलावा अकेले में भी बैठकर रोईए..रोते हुए आप महसूस करेंगे कि चैनलों पर रोने से दुनिया हंसती है, अकेले बैठकर रोने से मन हल्का होता है.
ये देश जिस दौर से गुजर रहा है उसमे आपके आंसू से कहीं ज्यादा उस व्यवस्था के प्रति कठोरता से जूझने, प्रतिरोध करने की जरूरत है जिससे इस बात की ठीक-ठीक समझ बन सके कि लेखक कभी हमारे खित्ते का नहीं हो सकता..वो कई बार खुद के खित्ते के खिलाफ जाकर भी लेखकीय धर्म को बचा ले जाता है.
क्या ये अकारण तो नहीं है कि जिस साहित्य अकादमी पुरस्कार को आपके पहले दर्जनों लेखकों ने लौटा दिए, आज टीवी स्क्रीन पर कहीं नहीं है..इसकी वजह आप भी जानते हैं.. वो अपनी बात रखना जानते हैं.बातों से तमाशे का मजा देने का हुनर नहीं आता. कुदरत ने ये हुनर आपको बख्शा है, इसे सहेजकर रखिए..चैनल से इसके लिए अनुबंध कीजिए..इसी काम के लिए बाकी के प्रोडक्शन हाउस लाखों ले लेते हैं. 
आपसे ये एंकर सवाल की शक्ल में दनादन गोली दाग रहे हैं, आप पलटकर इनसे कभी क्यों नहीं पूछते कि मैंने अपने साहित्य में जिस हिन्दुस्तान की कल्पना की है, आपने कभी अपने चैनल के जरिए कोई ऐसी कल्पना की है..हमारे लेखक साहित्य में जिस हिन्दुस्तान को दर्ज करते हैं क्या आप भी कर सकते हैं ? आपके चैनल पर समाज का सिर्फ सत्ता संस्करण क्यों मौजूद है ?
आपके लिखे से गुजरकर हम जैसे लाखों पाठकों की आंखों में आंसू छलक जाते हैं लेकिन जब टीवी पर आपकी आंखों में आंसू छलकते हैं तो वो चैनलों के प्रोमो मटीरियल बनकर रह जाते हैं..अपने सच्चे आंसू को टीआरपी के बताशे में मत बदलने दीजिए प्लीज.
| | edit post
अम्मा आपको बहुत दुआएं देतीं हैं भैया,बहुत याद करती हैं..फिर जल्दी आना मिलने लखनऊ..
रुबीना दीदी ने फोन पर जब इतना कहा तो अपने आप आखों में आंसू छलक आए..फफककर रो पड़ा.

ज़रीना बेगम ये नास्तिक आपके लिए प्रार्थना भी नहीं कर सकता. वो पहली मुलाकात में बस आपको एकटक देखता रहा..चेहरे की झुर्रियों में आपकी ठुमरी,रियाज़ और बेगम अख़्तर का अक्स पढ़ता रहा. आप कितना कुछ बोलना चाहती थीं हमसे लेकिन बेबस नज़र आयीं..आपके लड़के ने हमें बताया- अम्मा के आगे अभी तबला-हारमोनियम देय दो तो गाने लग जांगी...फिर कहने लगे,अम्मा ठीके थीं,जब पता पड़ा कि बिजली बिल जमा नहीं करने पर ये घर नीलाम हो जागा तो चिंता में घुलने लगीं.
ज़रीना बेगम,हमें नहीं पता है कि लेखक के,कलाकार के सम्मान में,उसके संघर्ष की आत्मा से गुजरते हुए उनकी कैसे मदद की जाती है..कई बार हम भावुक होकर उलटा उन्हें ठेस पहुंचाकर आ जाते हैं..उस वक़्त भी मेरे मुंह से अनायास निकल गया- तो आप इनकी नज़र के सामने तबला,हारमोनियम और गायन से जुडी चीजें क्यों नहीं रखते? इन्हें अच्छा लगेगा. बाद में अपने प्रति ही हिकारत हुई. एक बार फिर..
आपके कमरे,दीवारों पर टंगी चीजें और आहाते के एक हिस्से को रसोई की शक्ल देने की कोशिश पर नज़र गयी. अखिलेश यादव ने आपको जिस सम्मान से नवाज़ा है, वो भी उसी थैले में खूंटी पर टंगी है. आप पर की गयी तहलका,ओपन,एक्सप्रेस और तमाम मैगज़ीन-अखबारों की रिपोर्ट,बेगम अख़्तर के साथ की आपकी तस्वीरें,भारतीय संस्कृति परिषद् का सम्मान-पत्र,एक-एक करके दीदी ऐसे निकाल रहीं थीं जैसे मेरी माँ बॉक्स पलंग से आज से पचास साल पहले नाना की तरफ से दिए कांसा-पीतल के बर्तन दिखाती हैं.
आपके हिस्से जो भी है,सब अतीत है..सुख के सारे क्षण उसी में सिमट गए गए हैं. आपके वर्तमान में कितनी वेदना है,तड़प है अजीना बेगम. दुनिया आपके गायन को,ठुमरी को,बेगम अख्तर की आखिरी शिष्या की आवाज़ बताकर करोड़पति बन गए..एकाध को छोड़कर किसी ने पलटकर देखा तक नहीं..फिर भी आपको किसी से कोई शिकायत नहीं है. 

शिकायत है तो उस जुनूनी हिमांशु( Himamshu Bajpayee से जो बहुत कम शब्दों में अपना परिचय लखनऊ का आशिक बताकर करता है. आपको लगता है वो आपसे शायद नाराज़ है सो मिलने नहीं आया कई दिनों से. उससे कोई शिकायत नहीं जो आपसे सीखने,इंटरव्यू करने एक कलाकार की हैसियत से,पत्रकार की हैसियत से आए लेकिन आदमी बनकर कभी लौटे नहीं.
आपसे मुलाकात के बाद मुझे बेचैनी थी सीधे अपने कमरे में जाने की जिससे कि मैं दरवाजा बंद करके जी भरकर रो सकूँ..मेरा मन था विधान सभा के आगे जाकर जोर से चिल्लाकर कहने की- अखिलेश साहब, आपको याद है आपने कभी बेगम अख्तर के सम्मान में लाखों रूपये खर्च करके कार्यक्रम कराया था,बड़ी मुश्किल से उनकी आखिरी शिष्या आयीं थी सम्मान लेने? कभी पलटकर आपके कारिंदों ने सुध भी ली.
मतदाता आप जैसे को मंत्री,विधायक बनाते हैं और कलाकार के जरिए आपकी सरकार खुद को ब्रांड लेकिन इन कलाकारों का,मतदाता का क्या होता है,कभी तो पीछे मुड़कर देखिये...
लखनऊ के वाशिंदे,आपने तीन दिनों में मेरे ऊपर जितना प्यार लुटाया,आपसे बड़ी उम्मीद बंधी है..लिखते हुए लग रहा है- आप निराश नहीं करेंगे. आपकी, हमारी ज़रीना बेगम की हालत बेहद खराब है. वो के के हॉस्पिटल,(नबीउल्लाह रोड,लखनऊ सिटी स्टेशन) की इमरजेंसी वार्ड में भर्ती है. आप एक बार उस परिवार से मिलें, उनके साथ हों,डेढ़ घंटे की मुलाकात के भरोसे मैं कह सकता हूँ, बहुत ही खुद्दार लोग हैं ये. कभी इन्हें शिकायत नहीं रही कि उत्तर प्रदेश के कई मुख्यमंत्री और देश के प्रधानमंत्री रह चुकी शख्सियत से व्यक्तिगत पहचान रही है ज़रीना बेगम की,कभी कुछ करने को नहीं कहा.लेकिन
इस वक़्त उन्हें कई स्तर पर ज़रूरत है..आप आगे आएं..आप साथ नहीं होंगे तो तो इनकी आवाज़ ताउम्र आपके बीच एक कचोट बनकर मौज़ूद रहेंगी बस..
| | edit post

Posted On 10:48 pm by विनीत कुमार | 0 comments

जिन मिश्र बंधु की हिंदी साहित्य का इतिहास और मिश्र बंधु विनोद जैसी ऐतिहासिक किताबें पढ़कर हम बड़े हुए, उन्हीं मिश्र बंधु की ये हवेली है.
लाइब्रेरी में अब इनकी किताबें धूल चाटती हैं और हवेली को व्यवस्था के दीमक चाट गए..ऐसे लोगों ने इस हवेली पर ऐसा कब्ज़ा जमाया कि आसपास कोई ये जाननेवाला नहीं कि वो हिंदी साहित्य की दुनिया में क्या मायने रखते हैं.
बाकी उत्तर प्रदेश टूरिस्ट स्पॉट तो है ही.
‪#‎दरबदरलखनऊ‬
| | edit post
लखनऊ का रिफह-ए-आम क्लब, ये वो जगह है जहां 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ के प्रथम अधिवेशन की अध्यक्षता करते हुए प्रेमचंद ने साहित्य का उद्देश्य, जनपक्षधरता और साहित्य को राजनीति के आगे चलनेवाली मशाल कहकर सभा को संबोधित किया था. रिफह-ए-आम का मतलब ही है जन कल्याण.
उस दौरान अंग्रेजों /रईसों का जो एमबी क्लब था जिसमे कुर्ता-पाजामा पहनकर भीतर घुसने तक की इजाजत नहीं थी, रिफह-ए-आम उसके विरोध में बनाया गया था. यही वो क्लब है जहां 1920 में सभा करके महात्मा गांधी ने लखनऊ वालों से असहयोग आंदोलन में जुड़ने की अपील की थी. खिलाफत काॅन्फ्रेंस भी यहीं हुई थी. हिमांशु वाजपेयी ने अपनी तहलका की रिपोर्ट उपेक्षा का दर्द( http://tehelkahindi.com/rifah-e-aam-club-lucknow/) में इन सबकी विस्तार से चर्चा की है.
देर शाम हिमांशु के साथ जब हमने वहां का नजारा देखा तो आत्मा कलप उठी. मुख्य द्वार बजबजाती ऐसी नालियां, सडांध और कीचड़ हैं कि एकदम से उबकाई आने लगी. उसी से सटे दर्जनों परिवार टहनियां,तिनके बटोरकर खाना पका रहे थे..सबों के बच्चे उसी गंदगी में लोट रहे थे. गुलजार की मुंशी प्रेमचंदः एक तकरीर में जिस खादी ग्रामोद्योग के कपड़े में होरी, झुनिया, गोबर चकाचक दिखते हैं, उनसे बिल्कुल उलट. गंदगी, गरीबी और लाचारी का अंबार.
असल में ये जो एमसीडी की कूड़ेदान से भी बदतर स्थिति इस पूरे परिसर की हुई है, उसकी बड़ी वजह है कि इसके भीतर शादी-ब्याह के जलसे होने लगे हैं. बांड्री वॉल जहां-तहां से तोड़ दी गई है. सामने शामियाने लगे होते हैं और जहां से ये इमारत शुरु होती है, वहां खाना बनाने-पकाने का काम. बर्तन धोने से लेकर साग-सब्जी के छिलके पोलिथीन सब यहीं छोड़ दिया जाता है. लोग आगे से दावत का मजा लेते हैं और हाथ पोंछकर निकल लेते हैं..लेकिन एक बार भी जाकर देख लें कि किस तरह से कीचड़ के बीच आलू छीले जा रहे हैं, दूध उबाले जा रहे हैं तो खाना तो दूर, उल्टियां कर दें.
दूसरी बात ये कि ये पूरा परिसर दादागिरी,जोर-जबरदस्ती और कब्जे का बुरी तरह शिकार हो गया है. सबने अपने-अपने तरीके से इस परिसर पर कब्जा जमा लिया है. स्वच्छ भारत की जो कंठीमाला लेकर देखभर में घुमा जा रहा है और जिस गांधी के चश्मे को इसकी लोगो बनायी गई है, एक बार कोई इसे देख ले तो चित्कार कर उठेगा. ये वो देश है जो अपने इतिहास पर तो रेस्टलेस तरीके से गर्व करता है लेकिन उसकी ऐतिहासिकता जहां सुरक्षित रहनी चाहिए वो इस हालत में है कि आपके दिमाग में बस एक ही सवाल उठेगा- आखिर आजाद होकर भी हमने क्या कर लिया ? १९३६ के होरी महतो की हालत २०१५ में आकर भी वैसी की वैसी ही है. ‪#‎दरबदरलखनऊ‬
| | edit post
अंग्रेजी प्रकाशकों की नकलचेपी करते नए-नए फैशनेबुल हुए हिन्दी प्रकाशक लोकार्पण( बुक रिलीज) पर जितने पैसे खर्च कर रहे हैं, संजनाजी की पूरी दूकान में उस लोकार्पण में हाईटी पर खर्च किए जानेवाली रकम जितनी भी पूंजी नहीं लगी होगी..न तो उन्हें आक्सफोर्ड बुक सेंटर या इंडिया हैबिटेट, इंडिया इंटरनेशनल की सुरक्षा मिली है..इनकी न तो एफबी पर पेज है और न ही बाकी प्रकाशकों की तरह लाइक-कमेंट में अपना बाजार देख पाती हैं. जो है, सब धरातल पर, कुछ भी वर्चुअल नहीं.
आए दिन मंडी हाउस में कमाई का जरिया ढूंढती पुलिस और मंडराते ठेकेदारों के निशाने पर होती हैं. उन्हें हमेशा इस बात का डर होता है कि एक पेड़ के नीचे चंद फैली किताबें, स्कूटी पर टंगा थैला, सीट पर फैली बिल-बुक, कैल्कुलेटर भर से दूकान की शक्ल लेती ये जगह छिनी जा सकती है, उनकी इस दूकान को तहस-नहस किया जा सकता है. लेकिन
संजनाजी( संजना तिवारी ) जिस आत्मीयता से अपने पाठक-ग्राहकों से बात करती हैं, आवाज में जितनी स्थिरता और यकीं है, वो न बड़े-बड़े प्रकाशकों के मालिक, उनकी सेल्स टीम और न ही लेखकों को फ्लाईओवर सपने दिखाते डिलिंग एजेंट में कभी दिखाई दिए. संजनाजी की हिन्दी और उनकी भाषा अगर आप और हम जैसे लोग जो इसकी कमाई खाते हैं, पूरा कारोबार इसी हिन्दी पर टिका है, शर्म से सिर झुका लेंगे. दस मिनट बातचीत कर लेंगे तो आपको अंदाजा लग जाएगा कि हम हिन्दी के लोग जिन क्षेत्रीय भाषाओं को बचाने और हिन्दी का झंड़ा बुलंद करने की ऐंठन में रहते हैं, उसी अकड़ के बीच से हम भाषा के स्तर पर कितने तंग हो गए हैं.
हमने संजनाजी की शॉप पर करीब बीस मिनट बिताए जिनसे से दस मिनट उनकी बातें गौर से सुनता रहा. मैं उन्हें पिछले चौदह सालों से जानता हूं..सो कई पुरानी बातें भी जानना चाह रहा था. इस दस मिनट में उन्होंने जितनी बातें की, मैंने नोट किया कि कम से कम पच्चीस ऐसे शब्द हैं जिसका इस्तेमाल मैंने पिछले पांच-छह सालों से किया ही नहीं. जिनमे दस-बारह तो ऐसे हैं जिन्हें कि एक से एक हिन्दी सेमिनारों और पुस्तक परिचर्चा तक में नहीं सुना. हिन्दी बोलते-बरतते, उसी से रोटी-पानी का जुगाड़ करते हुए हम उससे कितने दूर होते चले गए हैं. इतना दूर कि जब वो बोल रहीं थी तो लग रहा था सामने नित्यानंद तिवारी की क्लास का छात्र खड़ा हो. इतनी सधी हुई आवाज में हिन्दी के शब्दों का उच्चारण, ठहरकर उसका चयन अच्छे से अच्छे हिन्दी के शिक्षकों में दिखाई नहीं देता. बात-बात में शमशेर की कविता की पंक्तियां, आषाढ़ का एक दिन के दृश्य की चर्चा..
संजनाजी सिर्फ किताबें बेचती नहीं हैं. उन किताबों में छपे शब्दों, छिपे भावों को जीती हैं. यकीन न हो तो आप जाकर कोई भी किताब उठाकर उसके बारे में पूछिएगा. उस किताब का हिन्दी साहित्य में महत्व और उसके लिखे जाने की प्रासंगिकता पर जिस गंभीरता से बात करेंगी, आपको सहज अंदाजा लग जाएगा कि आप आलोचना के नाम पर फर्जीवाडे और प्रायोजित दुनिया से निकलकर एक ऐसी जगह पर आ पहुंचे हैं जहां किताब के बारे में प्रकाशक को खुश करने या बिक्री बढ़ाने के लिए कोई उसके बारे में नहीं कह रहा है बल्कि रचनाकार की रचना की उस जमीन तक पहुंचाने के लिए कह रहा जिसकी जिम्मेदारी उस हर शख्स को है, जिसके हाथ से वो पाठ, वो रचना गुजरती है.
संजनाजी किताबों को पाठकों के हाथ में थमाते हुए उसके प्रति गहरी संवेदना और लगाव भी सौंपने का काम कर रही हैं. वो उस किताब के बारे में इतना कुछ बता देती हैं कि यदि आप राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के छात्र नहीं है जिसे कि सिलेबस की मांग के तहत खरीदनी ही हैं तो आप मन भी बदल सकता है कि रहने देते हैं जब मूल बातें जान ही लीं..ये भी संभव है कि उन्हें सुनने के बाद सिर्फ अपने लिए नहीं, अपने उन तमाम नजदीकी लोगों के लिए एक प्रति खरीदना चाहें जिनका साहित्य के प्रति थोड़ा भी लगाव है.
संजनाजी के साथ और उनकी इस दूकान के आसपास जितनी देर तक रहा, एक मिनट खाली बैठा नहीं देखा..हमसे भी वो एक तरफ बात करती जा रही थीं तो दूसरी तरफ मेरे दोस्त की खरीदी किताबों के लिए बिल बना रहीं थीं. एक के बाद एक पाठक-ग्राहक उनके पास आते रहे.
आज से चौदह साल पहले जब उनसे श्रीराम सेंटर की बुक शॉप पर पहली मुलाकात से लेकर ज्ञानपीठ प्रकाशन, दरियागंज की मुलाकात, इतनी सारे संदर्भ और मुद्दे थे कि दो घंटे भी बैठ जाता तो बातें खत्म नहीं होती..लेकिन लगातार आ रहे लोगों को देखकर खुद ही थोड़ा बुरा लग रहा था कि ये इनके काम का समय है...शाम को ही ज्यादा लोग आते हैं तो विदा लिया.
पूंजी की कमी और पुलिस के डर से इस अस्थायी दूकान में संजनाजी बहुत ज्यादा किताबें नहीं रखतीं..ज्यादातर वो किताबें जिन्हें राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के लोग बतौर पाठ्य पुस्तक या अपने मतलब के लिए जरुरी मानते हैं..लेकिन संजनाजी किताबें खरीदने लगभग रोज दरियागंज जाती हैं. उनके पाठक-ग्राहक उनसे फोन पर किताब का नाम लिखवा देते हैं और वो उन्हें अगले दिन उपलब्ध करा देतीं हैं.
...अच्छा संजनाजी, अभी आपके काम का समय है. किसी दिन दोपहर के वक्त आता हूं जब कम लोग होंगे..मेरी भी एक किताब आनेवाली है, लप्रेक की..लेकर आउंगा छपने पर..अच्छा वो जो रवीश की इश्क में शहर होना है, आयी है, उसी श्रृंखला में ? हां, ठीक है. वैसे मैंने आपकी मंडी में मीडिया भी रखी थी..जरूर आइएगा.
आप जो मुझसे और बाकी लोगों से किताब कहां मिलेगी की बात इनबॉक्स किया करते हैं न, मैं आपको इनबॉक्स में इनका नंबर दूंगा, आप अपनी जरुरत की किताबें इनसे खरदीएगा..आपको किताब के अलावा भी बहुत कुछ पढ़ने-समझने को मिलेगा.
चलते-चलते मैंने संजनाजी की इस अस्थायी दूकान की तरफ एक बार फिर से नजर डाली. स्कूटी की हैंडल में टंगा उनका बैग औरसीट पर बिल बुक और कैल्कुलेटर.. बार-बार एक भी चीज कचोट रही थी- दिनभर में उन्हें कितनी बार बैग हटाकर दूसरी स्कूटी या बाईक की हैंडल में टांगना पड़ता होगा और कितनी बार सीट से ये चीजें उठानी पड़ती होगी..दिल्ली की कितनी स्कूटी-बाईक थोड़े वक्त के लिए संजनाजी के लिए कैश काउंटर बनती होंगी. 
‪#‎दरबदरदिल्ली‬
| | edit post

स्त्री छवि की पुश-बैक

Posted On 10:40 am by विनीत कुमार | 1 comments

"यू ऑर श्यो अबाउट दिस ? आय एम श्यो अबाउट अस एंड आइ डोन्ट वॉन्ट टू हाइड एनिथिंग मोर"…
ऑनलाइन शॉपिंग वेंचर मिन्त्रा डॉट कॉम ने बोल्ड इज बियूटिफुल के तहत लेसबियन पर आधारित देश का पहला विज्ञापन जारी किया तो देखते ही देखते सोशल मीडिया पर ये वीडियो वायरल हो गई. ये स्वाभाविक ही था क्योंकि एक तरफ दुनियाभर में समलैंगिकता को लेकर अलग-अलग दृष्टिकोण से बहस चल रही हो और भारत जैसे देश में बहस का आधार नैतिकता और संस्कृति रही हो वहां ये विज्ञापन इस संबंध को बेहद स्वाभाविक और साहसिक तरीके से डिफेंड करता है. लिहाजा, एक-एक करके इस पर देश के प्रमुख समाचारपत्रों, वेबसाइट ने फीचर प्रकाशित किए.

इस विज्ञापन में घर से बाहर रहनेवाली जिन दो स्त्री के आपसी रिश्ते को बेहद खुलेपन और सामाजिक रुप से स्वीकार करने की साहस तक दिखाया गया है, इस पर दूसरे कई एंगिल से बहस हो सकती है लेकिन दो अलग-अलग पृष्ठभूमि से आनेवाली स्त्री के पारिवारिक पसंद-नापसंद को ध्यान में रखकर संतुलन बनाने की जो कोशिशें दिखाई जाती हैं, वो बेहद दिलचस्प है. आपको पूरे प्रसंग में चेतन भगत के लिखे उपन्यास और उस पर बनी फिल्म टू स्टेट्स का ध्यान हो आएगा.. विज्ञापन में अपनी मेट की इच्छा और पसंद पर शॉर्ट हेयर कट रखनेवाली महिला उसकी मां के आगे उसी की तरह दिखने की कोशिश में उसका कुर्ता  पहनती है, उनके लिए कॉफी बनाने की बात करती है..

लेकिन हर मोर्चे पर उनके नापसंद किए जाने की संभावना के बाद निराश हो जाती है..और यही वो बिन्दु है जहां माता-पिता के इन चीजों के पसंद-नापसंद किए जाने की संभावना के बीच इस समलैंगिक रिश्ते, बोल्ड इज बियूटिफुल और तब मिन्त्रा डॉट कॉम की प्लेसिंग की जाती है..यानी महिलाओं की ऐसी दुनिया जो फैशन के स्तर पर चुनाव करते वक्त भले ही अपने या अपनी मेट के माता-पिता की पसंद का ख्याल करती हो लेकिन जिंदगी के फैसले लेते वक्त  खुद की और एक-दूसरे को अंतिम सत्य मानती हैं. यहां आकर मिन्त्रा के प्रोडक्ट से ज्यादा उसे इस्तेमाल करनेवाले चरित्र यूनिक दिखाए जाते हैं. इस विश्वास के साथ कि यदि दर्शक ने इस छवि को अपना लिया तो प्रोडक्ट उसके पीछे-पीछे अपने आप चले आएंगे. 

गौर करें तो समलैंगिकता के इस सवाल से थोड़ा हटकर पिछले साल के कुछ उन विज्ञापनों पर गौर करें तो दूरदर्शन के आदिम विज्ञापनों ने आधुनिक स्त्री, कुशल और स्मार्ट पत्नी-बहू और मां की जो छवि स्थिर कर दिए थे, उन्हें ध्वस्त करते नजर आते हैं. दूरदर्शन पर सालों से प्रसारित विज्ञापनों में वो स्त्री आधुनिक और कुशल है जो पति की शर्ट की कॉलर पर घिसनेवाली टिकिया में अठन्नी-सिक्के बचा लेती है, छुन्नू-मुन्नू के धब्बे लगे कपड़े के दाग छुड़ाना जानती हैं, रोहन को ऐसे साबुन से नहलाती है कि कभी बीमार नहीं होता. ऐसी हेल्थड्रिंक देती हैं कि हमेशा टॉप करता है, गर्लचाइल्ड के लिए ऐसी सेनेटरी नैपकिन चुनती है कि वो दिनभर टेंशन फ्री रहती हैं..अादि-आदि.


इस हिसाब से देखें तो पिछले कुछ सालों से प्रसारित विज्ञापनों ने तथाकथित इन आधुनिक  लेकिन स्त्रियों को घर के कामकाज से मुक्त एक ऐसी दुनिया की ओर ले जाते हैं जहां वो चूल्हें-चौके, साफ-सफाई के काम से मुक्त है. वो पत्नी के पहले बॉस है और पति उसके मातहत काम करता है( संदर्भ एयरटेल), वो ऐसा जीवनसाथी चुनती है कि उसके साथ-साथ पिछली शादी से हुई पांच-छह साल की बेटी को भी अपना लेता है( तनिष्क जूलरी), वो आत्मविश्वास से इतनी लवरेज है कि एक दिन ऐसे मुकाम पर पहुंचेगा कि होनेवाला जीवनसाथी खुद चलकर आएगा( फेयर एंड लवली). ऐसे विज्ञापनों की संख्या तेजी से बढ़ रही है जहां स्त्रियां खुलेपन और हैसियत के मामले में बहुत आगे जा चुकी है  जिसे सामाजिक स्तर पर हासिल करने में पता नहीं कितने साल लग जाएं.

दिलचस्प है कि ऐसे विज्ञापनों की जब खेप आती है तो विज्ञापन जिसे बाजार की चालबाजी कहकर नजरअंदाज किया जाता रहा है,  उसे खींचकर विमर्श की चौखट तक लाया जाता है. इन पर एक के बाद एक स्त्री विमर्श और सशक्तिकरण के फॉर्मूले फिट किए जाते हैं और इस सुकून के साथ निष्कर्ष तक पहुंचा जाता है कि ऐसे विज्ञापनों से आनेवाले समय में सामाजिक स्तर पर भी स्त्रियों की स्थिति मजबूत होगी. विज्ञापन में जो स्त्री छवि एक्सक्लूसिव है, वो असल जिंदगी में दिखने लगेगा और तब इसके तार स्वाभाविक रुप से लोकतंत्र के साथ जुड़ जाएंगे. लेकिन 


विज्ञापन में स्त्री छवि एकरेखीय और हमेशा आगे की तरफ नहीं बढ़ती. वो बार-बार पीछे की ओर लौटती है. इतना पीछे कि समलैंगिक संबंध को सहज माननेवाली स्त्री के बरक्स ऐसी स्त्री छवि शामिल की जाती है जो न केवल टिपिकल अरेंज मैरिज में यकीन रखती हैं बल्कि अपने ही जीवनसाथी के साथ उस संकोच के साथ पेश आती है जिससे भारतीय सिनेमा के दर्शक छोड़ न,कोई देख लेगा..क्या कर रहे हो, मां-बाबूजी आते ही होंगे जैसे संवादों और सुहागरात के बिस्तर से उतरकर धरती में समा जानेवाले शर्मीलेपन से बड़ी मुश्किल से मुक्त हुआ है.
कोका कोला की विदाई सीरिज विज्ञापन में आलिया भट्ट जो कि अपनी अब तक की सारी फिल्मों में बिंदास और खुलेपन के लिए टीनएजर्स के बीच पॉपुलर है, एक ऐसी ब्याहाता की छवि लिए शामिल है जो अपने पति के साथ तभी सहज हो पाती है जब वो उसकी पसंद-नापसंद जाहिर करने की बात करता है..और तब एयरटेल,तनिष्क,फेयर एंड लवली और अब मिन्त्रा ने विज्ञापन में स्त्री की जो छवि बनाई, उससे धड़ाम से गिरकर वहां पहुंचती है जहां "पिया वही जो कोक मन भाए" की जमीन तैयार है. अब आप कर लीजिए विज्ञापन के जरिए स्त्री की खुलती नई दुनिया की बात.
मूलतः प्रकाशित- लाइव इंडिया पत्रिका
| | edit post
प्रिया और टुम्पा जिसे शायद ये भी नहीं पता कि एक्स्ट्रा को कैरिकुलर एक्टिविटी किसे कहते हैं और यदि यही आवाज किसी कॉन्वेंट स्कूल में पढ़ रही बच्ची की होती तो आज कहां होती ? उसने शायद ही कभी डांस या सिंगिंग फ्लोर का नाम सुना हो..उसके पास जो हुनर है, उसका रास्ता सीधे सारेगमप लिटिल चैम्प्स की तरफ खुलता है. वो बस इतना जानती है कि दरी-चटाई पर बैठी होने के बीच उनकी मैम गाने कहेगी तो पहले थोड़ा लजाते-शर्माते हुए लेकिन फिर बस गा देना है.
बृजकिशोर नेत्रहीन बालिका विद्यालय,रांची में पढ़ाई कर रही टुम्पा जिसकी यूट्यूब पर मूल वीडियो की दो लाख से भी ज्यादा हिट्स मिल चुके हैं और न्यूज चैनलों और अन्य वीडियो को शामिल कर लें तो पांच लाख से भी ज्यादा. आप रियलिटी शो में शामिल किसी बच्चे की वीडियो हिट्स पर गौर करें, शायद ही किसी की हिट्स महज तीन-चार दिनों में इतनी होगी.
प्रिया जो कि पूर्णिया, बिहार में स्कूली पढ़ाई कर रही है..बेंच क्या ढंग की दरी-चटाई भी नहीं है बैठने के लिए..टेलीविजन के रियलिटी शो के बच्चे की तरह बोलने में होशियार नहीं है. फर्राटेदार अंग्रेजी क्या हिन्दी तक ट्यून्ड नहीं है कि गायन भले ही बी ग्रेड की हो लेकिन भाषणबाजी में नंबर वन..वो लजाती है, मासूमियत और एनोसेंसी उससी पूरी बॉडी लैंग्वेज में है. अभी कुछ ही घंटे पहले उसकी वीडियो अपलोड हुई और हिट्स तेजी से बढ़ रहे हैं.
यूट्यूब पर इन दोनों को जो लोग भी सुन रहे हैं और किसी भी रियलिटी शो की वोट से कई गुना ज्यादा हिट्स मिल रहे हैं, उसके लिए किसी ने बार-बार टीवी स्क्रीन पर अपील नहीं की है. रियलिटी शो के आयोजक से लेकर जजेज और खुद प्रतिभागी की पूरी मशीनरी इसके पीछे नहीं लगी है. हम इन्हें सुन रहे हैं क्योंकि ये आवाज कला और दैत्याकार बाजार व्यवस्था के बीच सेंध लगा रही है. ये आवाज ये साफ-साफ इशारा कर रही है कि गायन की जो आखिरी उपलब्धि रियलिटी शो में सेलेक्ट हो जाना हो गया है जिसके पीछे देश के लाखों बच्चे सहित उनके गार्जियन बेतहाशा भाग रहे हैं..जिसके पीछे ट्रेनिंग सेंटर के नाम पर सैंकड़ों दूकानें खुल गई हैं, कला की दुनिया उससे इतर भी आबाद है. ये दोनों और इनकी आवाज एक ही साथ उन कई मान्यताओं को ध्वस्त करती हैं जिसकी फेर में पड़कर पांच-छह साल के बाकी बच्चे तनाव और डिप्रेशन के शिकार हो रहे हैं.
प्रिया और टुम्पा की इस कला के पीछे स्कूल का कोई दावा नहीं है. स्वाभाविक भी है कि जो स्कूल बैठने तक ही बेंच मुहैया नहीं करा सकता, वो किस मुंह से क्रेडिट ले..लेकिन सोचिए जरा उन पब्लिक स्कूलों के बारे में जहां इससे कई गुना कमतर बच्चे किसी शो, प्रतियोगिता के लिए चुन लिए जाते हैं तो उनके नाम पर वो अपनी कैसी ब्रांडिंग करते हैं, फीस बढ़ाने से लेकर आयोजकों से गलबईयां करके कैसे अपना ढांचा मजबूत करते हैं कि आगे चलकर प्रतिभाओं के लिए उसी स्कूल में पढ़ना मुश्किल हो जाता है.
इन ऑर्गेनिक हुनरमंदों का( ग्राम्शी के ऑर्गेनिक इन्टलेक्चुअल से साभार) सोशल मीडिया जैसे मंच पर जहां एक समय के बाद रिश्तेदारियां और रैकेट काम नहीं करते, प्रोत्साहित करना बेहद जरूरी है जिससे कि हम न केवल इन प्रतिभाओं को बल्कि धंधेबाजों के बीच बुरी तरह फंसी प्रतिभाओं का आत्मविश्वास वापस ला सकें..ये मंच भी आखिर काफी हद तक लोकप्रियता का लोकतंत्र तो रचता ही है.
प्रिया को सुनने के लिए चटकाएं-https://www.youtube.com/watch?v=aLQmcVFEWgM
टुम्पा को सुनने के लिए चटकाएं- https://www.youtube.com/watch?v=zOl6N0TTAjA
| | edit post
आप मेरी बात पर यकीन मत कीजिए लेकिन सच तो यही है कि मध्यप्रदेश का ये बेशर्म मंत्री टेक्नीकली प्रधानसेवक का लघु संस्करण है. वो आजतक के पत्रकार अक्षय सिंह की मौत के सवाल पर बेशर्मी से सिर्फ ये नहीं कह रहा है कि हमसे बड़ा पत्रकार कौन है बल्कि साथ में ये भी बता रहा है कि पत्रकारों को हम क्या समझते हैं, हमारे सामने औकात क्या है ?
याद कीजिए, प्रधानमंत्री का पत्रकारों के साथ दीवाली मिलन एपीसोड और जी न्यूज के संपादक सुधीर चौधरी की प्रधानमंत्री के साथ सेल्फी ट्विट. सुधीर चौधरी ने जिस अंदाज में प्रधानमंत्री के साथ सेल्फी की बात ट्वीट की और फर्स्ट ट्विट का दावा पेश किया, क्या उसमे मध्यप्रदेश के इस बेशर्मी मंत्री कैलाश विजयवर्गीय की बेशर्मी का एक हिस्सा शामिल नहीं है. जी न्यूज ने इस मिलन की जो कवरेज दी, उसमे ये बात भी शामिल थी कि ये चैनल और संपादक की बड़ी उपलब्धि है.
आज आप इस मंत्री पर शब्दों के कोडे बरसा सकते हैं, एक के बाद एक चैनल माइक तान सकते हैं लेकिन एक मंत्री को इस बेशर्मी तक पहुंचने में क्या सुधीर चौधरी जैसे दर्जनों मीडियाकर्मियों ने खाद-पानी का काम नहीं किया ? आपने दीवाली मिलन के दौरान पत्रकारों के आगे नरेन्द्र मोदी की बॉडी लैंग्वेज पर गौर किया होगा..साफ महसूस कर रहे होंगे कि मैं सिर्फ इस देश को ही नहीं, देश के इन संपादकों-पत्रकारों को भी चलाता हूं जिसका भरपूर प्रमाण आगे पत्रकारों ने दे भी दिया.
नेताओं,मंत्रियों के साथ चाय-बीड़ी करने और मिलन को उपलब्धि बताने की मीडियाकर्मियों के बीच जो आपाधापी मची रहती है, वो इनके सामने ऐसे पेश आते हैं कि कैलाश विजयवर्गीय क्या, किसी भी दूसरे नेता-मंत्री को ये आत्मविश्वास पैदा हो जाए कि उनके आगे पत्रकार-संपादक क्या हैं ?
मैं कल रात जयपुर में चल रहे दो दिवसीय जर्नलिज्म टॉक से होकर आया हूं. मैंने बहुत करीब से देखा कि सेशन के दौरान आम आदमी पार्टी के राघव चढ्ढा से लोगों ने सवाल किए, सेशन के बाद कुछ मीडियाकर्मी हाथ मिलाने-फोटो खिंचाने, कुछ देर साथ खड़े रहने के लिए मरे जा रहे थे. सवाल इसका है ही नहीं कि कौन नेता सही है या कौन गलत लेकिन पेशे का हवाला देकर आप उनसे दोस्ती गांठेंगे तो वो ऐसी बेशर्मी करने का दुस्साहस बेहद स्वाभाविक है.

दूसरी बात, आप चले जाइए मीडिया की नौकरी के किसी इंटरव्यू में. बातचीत की शुरुआत ही इस सिरे से होती है कि आप किस नेता, किस मंत्री को पर्सनली जानते हो.. ये पर्सनली जानना साथ में चाय-शराब से आगे तक की भी हो सकती है. मैं कई दिग्गज पत्रकारों से मिलता हूं. दस मिनट की मुलाकात में ही बता देते हैं कि कौन नेता, कौन मंत्री उनके यहां आ चुका है और किस-किस की पार्टी में वो फैमिली मेंबर की तरह शरीक होता है.
आज आपको कैलाश विजयवर्गीय की ये बेशर्मी बुरी लग रही है जो कि स्वाभाविक भी है लेकिन आप कभी मीडियाकर्मियों के अपने चाल-चलन पर गौर कीजिएगा, लगेगा ये ऐसा करने के लिए शह देते आए हैं..इस भोथरे मंत्री ने घासलेटी बेशर्मी दिखाई, बाकी कई बारीकी से करते हैं लेकिन भाव कुछ अलग नहीं होता, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तक का नहीं. ‪#‎मीडियामंडी‬
| | edit post
डॉ.चन्द्रप्रकाश द्विवेदी निर्देशित फिल्म "मोहल्लाअस्सी" अभी पूरी तरह तैयार हुई भी है या नहीं, नहीं मालूम लेकिन प्रोमो के आधार पर दिल्ली हाईकोर्ट ने इस फिल्म के रिलीज होने पर पाबंदी लगा दी है. भारतीय नागरिक गुलशन कुमार की याचिका पर सुनवाई करते हुए कोर्ट फिलहाल इस नतीजे पर पहुंची कि प्रोमो में जिस तरह बनारस और संस्कृति को दिखाया गया है, इससे लोगों की धार्मिक भावना आहत होने की पूरी संभावना है.

इससे पहले पिछले शुक्रवार इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनउ पीठ ने प्रोमो को लेकर सेंसर बोर्ड को एक नोटिस जारी किया ही जिसमे इसी भावना के आहत होने की बात कही गयी थी. फिल्म अभिनेता सन्नी देओल पर लोगों की भावना को ठेस पहुंचाने के कारण एफआइआर तो दर्ज हो ही गई है.

साल २००४ में काशीनाथ सिंह की आयी किताब काशी का अस्सी पर आधारित इस फिल्म के आने के पहले ही इस तरह के विवाद और प्रतिबंध को लेकर जब आप सोचते हैं तो पहला सवाल दिमाग में यही आता है कि क्या याचिकाकर्ता गुलशन कुमार ने इन बारह-तेरह सालों में एक बार भी इस किताब को हाथ में लेकर देखा होगा कि इसमे लिखा क्या है ? पूरी किताब तो छोड़ ही दीजिए, भूमिका और शुरुआत के एकाध पेज ही पढ़ लेते तो अंदाजा लगा लेते कि जिस भारतीय संस्कृति( संभवतः हिन्दू संस्कृति) पर उन्हें गुमान है और प्रोमो से उनकी भावना आहत हुई है, उस संस्कृति में लिथड़े लोगों की पहचान कुछ इस तरह है- जमाने को लौडे पर रखकर चलना बनारसियों की आइडेंटिटी है.
यकीन मानिए, गुलशन साहब और उनके जैसे बाकी संवेदनशील नागरिकों के लिए काशी का अस्सी का एक ही पन्ना काफी है. उन्हें न तो प्रोमो तक पहुंचने की नौबत आती और न ही चंद्रप्रकाश द्विवेदी तब उस सूरत में होते कि इस पर फिल्म बना सकें..तब तक काशी का अस्सी की एक-एक प्रति शाहजहांपुर के पत्रकार गजेन्द्र सिंह की तरह पेट्रोल झिड़कर जला दी जाती. वैसे भी जिस देश में जीते-जागते इंसान को जिंदा जला दिया जाना पांच-सात मिनट का काम हो, वहां एक किताब की प्रतियां जलाने में क्या मुश्किल आ सकती है ?

कोर्ट की नियत और फैसला सर माथे पर लेकिन क्या गुलशन कुमार जैसे छुई-मुई नागरिक से ये सवाल करना नहीं बनता कि जनाब आपने उस किताब को कभी हाथ में लेकर देखा जिस पर ये फिल्म बनी है ? ..और यदि सचमुच उनकी नजर से ये किताब गुजरी है तो उनकी धार्मिक भावना की दाद देनी होगी कि पिछले बारह-तेरह सालों तक वो सुरक्षित रही और अब फिल्म की शक्ल में आने पर ऐसी सुलगनी शुरु हुई कि सीधे फिल्म के रिलीज होने के पहले ही उसे चिता बनाने पर आमादा है.

इस पूरे प्रकरण में जो दूसरा सवाल बनता है वो ये कि हम सचमुच अपने साहित्य को कितना कम जानते हैं, हम उससे कितने कटे हैं ? चंद आलोचकों और स्वयभूं मठाधीशों की लॉबी को छोड़ दें जो आपस में ही थै-थै करती फिरती है तो साहित्य में जो कुछ भी लिखा जा रहा है, वो कितना कम बल्कि नहीं ही लोगों तक पहुंच पा रहा है. रचना तो छोड़िए, जिंदगी भर तक लेखक लिखते-लिखते मर-खप जाता है, कुछेक पत्रिकाओं जिनका प्रसार हजार के भीतर है, का टुकड़ा बनकर रह जाता है.. काशीनाथ सिंह ने २००४ में काशी का अस्सी लिखा..लेकिन उस पर नए सिरे से चर्चा तब शुरु हुई( खासकर मेनस्ट्रीम मीडिया में) जब कि उन्हें रेहन पर रग्घू के लिए साहित्य अकादमी मिला और इस नाम से भी एक लेखक है, सामान्य पाठक-दर्शक को इसकी जानकारी तब हुई जब डॉ. चन्द्रप्रकाश द्विवेदी द्वारा इस पर फिल्म बनाने की बात मीडिया में आनी शुरु हुई...और अब तो सूचना की एक परत चढ़ जाने के बाद अलग से काशनाथ सिंह की इस फिल्म के संदर्भ में चर्चा भी नहीं होती. विवादों की परतें इतनी मोटी हो गई हैं कि लेखक काशीनाथ सिंह तो बहुत नीचे दब गए. साहित्य और लिखने-पढ़ने की दुनिया जिस तेजी से हमारी रोजमर्रा की जिंदगी से कटते चले जाएंगे, हम ऐसी बेहूदगियों के अंबार के बीच खड़े होंगे कि सांस लेने में मुश्किल होने लगेगी.

आखिर ये कैसे संभव है कि जिन छपे हुए शब्दों से लोगों की धार्मिक भावना आहत नहीं होती, उन्हीं शब्दों के सिनेमा में आते ही ऐसी भावना आहत होती है कि मीडिया विवादों क्या, दंगे के अखाड़े में तब्दील हो जाता है..दुनियाभर की जरुरी खबरों से समझौते कर इस पर पिल पड़ती है और कोर्ट की तत्परता मुखर हो उठती है. कहीं ऐसा तो नहीं कि हम साहित्य,सिनेमा तो छोड़िए लोगों की मेहनत तक की कद्र करना नहीं जानते और अपने निकम्मेपन के बीच से लोगों के बीच खास दिखने का फॉर्मूला गढ़ने लग जाते हैं. पीआर एजेंसी, उनकी स्ट्रैटजी पर अगर सरकार चलती है तो फिर भी बात समझ आती है कि उन्हें लोकतंत्र को मैनेजमेंट की शक्ल में बदलने की जल्दीबाजी है लेकिन आम नागरिक और उसके साथ-साथ कोर्ट की सहमति जिस पर कि हमारी गहरी आस्था और यकीन है ? ये कहीं हमारे व्यक्त की जानेवाली दुनिया को समेटकर व्यक्त हो रही दुनिया की शक्ल खतरनाक बनाने की ओर बढ़ते कदम तो नहीं है ? ..नहीं तो इसी दिल्ली शहर में दिनभर में एक नागरिक मां-बहन से शुरु होनेवाली गालियों को इतनी बार सुनता है कि आत्मग्लानि से मर जाए. हम इस बहाने एक माध्यम को दूसरे माध्यम से और एक व्यावसायिक तंत्र को दूसरे तंत्र से पिटते देख रहे हैं.
| | edit post
आज ट्विटर पर दिनभर कविता कृष्णन और मधु किश्वर के बीच तूफान मचा रहा. कविता कृष्णन ने हैशटैग #selfiewithdaughter पर आपत्ति दर्ज करते हुए इस बात का विरोध तो किया ही कि जो नरेन्द्र मोदी अपने ही राज्य की महिला का पीछा करवाते रहे हों, उन्हें अपनी बेटी के साथ सेल्फी भेजने का क्या तुक है ? लिहाजा ये व्यक्ति भरोसे लायक नहीं है लेकिन इसके साथ #LameDuck का जब इस्तेमाल किया तो तूफान मच गया.

कविता कृष्णन को एक के बाद एक गालियां पड़नी शुरु तो हुई हीं, साथ ही ट्विटर पर अति एक्टिव और नरेन्द्र मोदी का लगातार पक्ष लेती रहीं मधु किश्वर भी मैंदान में उतर आईं. किश्वर ने कमान थोड़ी पीछे से खींची और वामपंथ, माओवाद से शुरु करते हुए कृष्णन के साथ व्यक्तिगत स्तर पर जवाब देना शुरु किया. उसके बाद के जो जवाबी हमले शुरु हुए कि वो आज की प्राइम टाइम की स्टोरी तक की नींव साबित हुई. अब स्थिति ये है कि टेलीविजन चैनलों से लेकर अखबारों तक की वेबसाइट पर ये स्टोरी फ्लैश हो रही है और सोशल मीडिया पर ट्रेंड तो हो ही रही है.

इंडिया टुडे जो कि पहले हेडलाइंस टुडे हुआ करता था, उस पर टाइम्स नाउ की टीआरपी और बूम का दवाब साफ दिख रहा है. #lalitgate से टाइम्स नाउ को जो बढञत मिली है, सभी चैनलों को बहुत पीछे छोड़ दिया है. लिहाजा उसने अपनी स्टूडियो में कविता कृष्णन और मधु किश्वर को एक साथ बुलाया और बातचीत क्या ? शो का ढांचा ही इस तरह रखा कि बैठकर बात करने के बजाय खड़े होकर तसल्ली से तू-तू मैं-मैं, उंगली-हाथ नचा-नचाकर एक-दूसरे पर पिल पड़ सकें.
हम जैसे दर्शक जब इस शो को देख रहे थे जिसके टीवी की आधी रिमोट सास-बहू सीरियलों में अटकी रहती है, लगा ही नहीं कि हम देश की दो प्रमुख फेमिनिस्ट को देख-सुन रहे हैं..ऐसा लग रहा था कि गोपालपुर, मौजपुर की दो आंटी इस बात पर लड़ एक-दूसरे को मां-बहन की गालियां दे रही है कि रात में कचरे की पॉलिथीन मेरे दरवज्जे पर क्यों फेंक दी ?
टेलीविजन आपको थोड़ा आक्रामक बनाता है, आपकी पर्सनालिटी को शार्ट टेम्पर्ड करता है. ये आप पैनलिस्ट की कुर्सी पर बैठते हुए महसूस करेंगे लेकिन जब कुर्सी ही न हो और आपको खड़े होकर मुकाबला करना हो तब आपकी पर्सनालिटी को पूरी तरह डैमेज करके बेहद औसत और काफी हद तक घटिया शक्ल दे देता है. राहुल कंवर ने जो कुछ भी किया, वो एंकर का सस्तापन है, ये हम सब जानते हैं लेकिन कविता कृष्णन और मधु किश्वर, सिर्फ अंग्रेजी में बोलते रह जाने से सभ्य तो नहीं कहलाए जा सकते न ?

और इन सबके बीच बाउजी यानी आलोकनाथ जिनके संस्कार को लेकर कुछ महीने पहले सोशल मीडिया पर जोक्स ट्रेंड होने शुरु हुए थे और उसके बाद कई चैनलों पर प्राइम टाइम में स्टोरी भी हुई थी, वो सिगरेट भी अगरबत्ती से सुलगाते हैं, पत्नी को भी बेटी बोलते हैं टाइप..उन्होंने ट्विटर पर कविता कृष्णन को bitch कहा. इन दिनों मीडिया की मौज है, छप्पर फाडकर खबरें आ रही हैं और वो भी बिना किसी लागत की लेकिन दर्शक इन पर्सनॉलिटी के रवैये को देखकर तार-तार हो जा रहा है.
| | edit post
लीजिए, हमने आपको आज से दस तीन पहले ही कहा था कि ललित मोदी मामले में खबरें जिस तरह से आकार ले रही है और एक के बाद एक नाम सामने आ रहे हैं, बहुत संभव है कि जल्द ही मीडिया से जुड़े लोगों के नाम भी आएंगे..ऐसा इसलिए कि मीडिया तो मोहल्ले में होनेवाले क्रिकेट तक ( याद कीजिए एफएम चैनल के कॉन्टेस्ट मोहल्ला क्रिकेट लीग) का प्रायोजक होता है और वहां भी उसकी गर्दन घुसी रहती है तो इतने बड़े मामले में वो इससे मुक्त कैसे                                                                                       रह सकता है ? ...और देखिए

अब प्रभु चावला का नाम खुलेआम मीडिया में आने शुरु हो गए हैं और वो भी उसी इंडिया टुडे ग्रुप ने ट्विट किया है जहां से उन्हें २जी स्पेक्ट्रम मामले में इनका नाम आने के बाद साख मिट्टी में मिलती नजर आयी. उसके बाद वो सीधी बात की तर्ज पर तीखी बात शुरु की लेकिन अपनी धार पूरी तरह खो चुके और अब दि न्यू इंडियन एक्सप्रेस के सर्वेसर्वा हैं.



हालांकि ये मामला अभी बहुत ही शुरुआती स्तर पर है लेकिन अपने बचाव में एबीपी न्यूज को जो कुछ कहा, उससे इतना तो स्पष्ट है कि ललित मोदी के प्रति उनका सॉफ्ट कॉर्नर है और कुछ
नहीं तो दोस्ती निभाने के अंदाज में अपनी बात रख रहे हैं..प्रभु चावला पर आरोप है कि उन्होंने भारत से ललित मोदी को जाने में मदद की.
| | edit post
माफ कीजिएगा, मैं इनका ऑपरेशन करके अपने पेशे का अपमान नहीं कर सकता. मैं आपके हालात, इनके और कुंवारेपन के बारे में जान चुका हूं इसलिए मैंने इनका ऑपरेशन नहीं किया..आप घबराए नहीं.- फिल्म मास्टरजी( १९८५) का संवाद पहली पत्नी के एक बच्चे को जन्म देने और गुजर जाने के बाद राधा( श्रीदेवी) से दूसरी शादी करके अपनी पत्नी बना लिए जाने के वाबजूद मास्टरजी( राजेश खन्ना) राधा को लेकर कभी सहज नहीं रहे. हमेशा इस बात पर शक किया कि पता नहीं ये मेरे बेटे के साथ न्याय कर पाएगी या नहीं और इसलिए उनदोनों के बीच कभी पति-पत्नी के संबंध नहीं बन पाए. राधा को बार-बार जिस फ्रेम में शामिल किया जाता है, फिल्म देखते हुए आपको कृष्णा सोबती की मित्रो मरजानी का ध्यान आएगा. जीवन से बेहद असंतुष्ठ एक स्त्री लेकिन मास्टरजी को विश्वास दिलाने के लिए परिवार नियोजन योजना के तहत अपना ऑपरेशन कराने के लिए भरतपुर तक चली जाती है लेकिन डॉक्टर ऑपरेशन नहीं करते.

इमरजेंसी को लेकर वर्चुअल स्पेस से लेकर मेनस्ट्रीम मीडिया में इंदिरा गांधी और संजय गांधी को लेकर जो स्टोरी चल रही है, उसमे कल से परिवार नियोजन वाले मसले को भी प्रमुखता से शामिल किया जा रहा है जिसमे तत्कालीन सरकार के उन निर्देशों का हवाला दिया जा रहा है जिसमे कहा गया था कि इस प्रोजेक्ट को सफल बनाने में जिसने आनाकानी की, उसकी तनख्वाह तक काट ली जाएगी. संजय दुबे( Sanjay Dubey) ने सत्याग्रह डॉट कॉम पर एक स्टोरी भी लगायी है जिसमे विस्तार से बताया है कि आपातकाल के दौरान संजय गांधी के सिर पर नसबंदी का ऐसा जुनून क्यों सवार हो गया था कि वे इस मामले में हिटलर से भी 15 गुना आगे निकल गए? इस दौरान ६२ लाख लोगों की नसबंदी हुई और जिनमे करीब दो हजार लोगों की जान चली गईं. इस मामले में संजय गांधी हिटलर से भी १५ गुना आगे निकल गए. इसी कड़ी में एक दूसरी स्टोरी प्रकाशित की है जिसमे रुखसाना और परिवार नियोजन की विस्तार से चर्चा है. रुखसाना को संजय गांधी ने मुस्लिम समुदाय के लोगों को ज्यादा से ज्यादा तादाद में नसबंदी के लिए राजी करने का काम सौंपा था. इसके बाद उन्होंने कहर ढा दिया.


इन सबकी चर्चा अखबारी रिपोर्ट से लेकर तेजी से लिखी जा रही घटना आधारित किताबों में मिलेंगी लेकिन जब हम मास्टरजी फिल्म के डॉक्टर के संवाद से गुजरते हैं तो इस बात की उम्मीद जगती है कि उस जोर-जबरदस्ती के दौर में भी स्वविवेक से काम लेनेवालों की संख्या रही होगी और उन्होंने लोगों की बेहतरी का हवाला देकर सरकारी दमन के आगे अपने पेशे की ईमानदारी को प्रमुखता दी..आप कह सकते हैं ये तो सिनेमा की बात है, फिक्शन है लेकिन है तो ये भी सांस्कृतिक पाठ ही और जब आप टीवी के युद्धिष्ठिर को फिल्म संस्थान का उद्धारक मान ले रहे हैं ऐसे में इमरजेंसी के फीचर और रिपोर्ट से छूट गए ऐसे संदर्भों को तो शामिल कर ही सकते हैं. इससे कुछ नहीं तो कम से कम दमन के बीच भी विवेक के बचे रहने का आत्मसंतोष तो होता ही है. हां ये जरुरी है कि फेमिनिज्म एंगिल से इस फिल्म को देखा जाए तो आपको झोल ही झोल नजर आएंगे और फिल्म पर वही पितृसत्ता हावी नजर आएगी.. और क्या पता, संजय गांधी के रवैये को जायज ठहराने का इस फिल्म पर आरोप भी लग जाए.
| | edit post
चालीस साल पहले की वो सुबहः

ये दिलचस्प संयोग है कि आज से चालीस साल पहले मेरे जैसे देश के हजारों मीडिया-साहित्य के छात्रों ने जब आंखें खोली होगीं तो उन्हें सबसे पहले ये खबर सुनने को मिली होगी कि अब ऑल इंडिया रेडियो पूरी तरह ऑल इंदिरा रेडियो हो गया है और मैंने जब आंखें खोली तो सात दिन पहले ऑर्डर की गई किताब ठीक इसी दिन मिली जब हवा में इमरजेंसी का नया संस्करण घुला है..आखिर देर रात हम राजनाथ सिंह का ये बयान सुनकर ही तो सोए थे कि ये एनडीए की सरकार है, इस तरफ नए मंत्रियों से इस्तीफा नहीं लिया जाता.  ( संदर्भ- #lalitmodigate)

कल प्राइम टाइम में वो सारे चैनल जो भाजपा और रिलांयस इन्डस्ट्रीज के या तो मातहत हैं या एहसानों से लदे हैं, वसुंधरा राजे के हस्ताक्षर किए पेपर पर बवाल मचने और अच्छे दिन की सरकार के बुरी तरफ फंस जाने पर स्टोरी करने के बजाय इसी इमरजेंसी पर दनादन स्टोरी करते रहे. बात-बात में ब्रेकिंग न्यूज की लत के शिकार चैनलों को वर्तमान को दरकिनार करते हुए इतिहास के प्रति इतनी मोहब्बत कम ही देखने को मिलते हैं. नहीं तो यदि ललित मोदी-वसुंधरा राजे और इंदिरा गांधी की इमरजेंसी पर स्टोरी करते तो उन्हें तुलना करते हुए बहुत कुछ साम्य दर्शन हो जाते..ये मीडिया का वो दौर है जहां सरकार के निर्देश और धंधे इतने व्यवस्थित हो गए हैं कि इमरजेंसी के लिए किसी एक दिन की घोषणा की जरुरत नहीं रह जाती..वो अब एक प्रक्रिया का हिस्सा हो चुका है..देर रात तक जिस तरह चैनल के एंकर दहाड़ रहे थे कि इंदिरा गांधी ने इस तरह मीडिया पर कब्जा किया, कल की पीढ़ी ये सवाल नहीं करेंगे कि जब पूरा देश ये जानना चाह रहा था कि ललित मोदी-वसुंधरा राजे प्रकरण में जब एनडीए सरकार की साख पूरी तरह मिट्टी में मिल जा रही थी, उस वक्त नरेन्द्र मोदी क्यों चुप्पी साधे रहे और इस पर आप अधिकांश मीडिया ने एक लाइन की स्टोरी भी क्यों नहीं की ? और तो और एनडीए सरकार को इन दिनों राज्यसभा टीवी क्यों इतना खटक रहा है..राममाधव की बयानबाजी और उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी मामले में राज्यसभा टीवी कवरेज को जिस तरह जबरदस्ती घसीटा जा रहा है, वो सरकार की मंशा को काफी हद तक साफ कर देता है. विस्तार से पढ़ने के लिए चटकाएं-http://www.thehindu.com/news/national/under-attack-rajya-sabha-tv-says-its-not-government-mouthpiece/article7347640.ece  खैर

ऑल इंडिया रेडियो के ऑल इंदिरा रेडियो की कहानी को लेकर सेवंती निनन ने भी अपनी किताब through the magic window  में विस्तार से लिखा है लेकिन इंडियन एक्सप्रेस की पत्रकार कोमी कपूर ने अपनी किताब the emergency: a personal history में इसे और विस्तार से लिखा है. ये अलग बात है कि देशभर में जिस तरह से कांग्रेस विरोधी माहौल है, उसके बीच कोमी कपूर की किताब कपूर का असर करेगी, बाकी का काम अरुण जेटली की लिखी भूमिका कर देगी. लेकिन ऐतिहासिक संदर्भों को समझने के लिए ये एक जरुरी किताब तो है ही.
 वो लिखती हैं कि इंदिरा गांधी के बेटे संजय गांधी को इस बात की कोफ्त थी कि जयप्रकाश नारायण और आंदोलन को क्यों कवर किया जा रहा है और इंदिरा गांधी की रैलियों को क्यों नहीं दिखाया-बताया जा रहा है. संजय गांधी ने इस पर तत्कालानी सूचना एवं प्रसारण मंत्री इंदर कुमार गुजराल से बहसबाजी भी की. संजय गांधी को इस बात से नाराजगी थी कि २० जून १९७५ इंदिरा गांधी की वोट क्लब रैली की लाइव कवरेज क्यों नहीं हुई..गुजराल ने समझाने की कोशिश भी की कि बिना डायरेक्टर जनरल की अनुमति के इस तरह से राजनीतिक रैलियों की कवरेज नहीं की जा सकती लेकिन संजय गांधी ने बात नहीं मानी और ये मामला प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी तक चला गया.

२६ जून को इंदिरा गांधी और संजय गांधी ने इंदर कुमार गुजराल से स्पष्ट कहा कि वो जेपी आंदोलन को ज्यादा तूल न दें, कम से कम दिखाएं, उमड़ी भीड़ की कवरेज न दें आदि..आदि..लेकिन उसके तुरंत बाद ही २६ जून की सुबह पीएमओ के ज्वाइंट सेक्रेटरी पी एन बहल ऑल इंडिया रेडियो की न्यूजरूम में आए और चार्ज ले लिया. उन्होंने डायरेक्टर जनरल को एआइआर की एक टीम गठित करने की बात कही जो कि इंदिरा गांधी के संदेशों को रिकार्ड करके कार्यक्रम बनाएगी और आठ बजे सुबह न्यूज बुलेटिन के बदले ये कार्यक्रम दिखाया जाएगा.
| | edit post
वैसे तो फैशन औऱ लाइफ स्टाइल का बड़ा हिस्सा बाजार की चलन से डिसाइड होता है जिसके लिए टेलीविजन,अखबार,सिनेमा और अब एफएम चैनल भी दूत का काम करते हैं..देखते-देखते हमारे खाने-पीन,पहनने का अंदाज बदल जाता है..मैं खुद भी ग्रेजुएशन तक जिस मट्टीमार बैग्गी ट्राउजर पहनकर डॉ. कामिल बुल्के शोध संस्थान जाया करता था, अब उन्हीं ट्राउजर को देखकर हंसी आती है और लगता है कि जब मेरी उम्र साठ साल( अगर तब तक जी गया तो) हो जाएगी तब भी ये ट्राउजर आ जाएंगे बल्कि एक ही में दोनों पैर,बाकी एक की मजे से झोले सिलवा लूंगा...और बताइए ऐसी ढीली-ढाली ट्राउजर-जींस को ब्ऑयफ्रैंड जींस नाम दिया जा रहा है. खैर,
अब फैशन में मेडिकल साइंस और हेल्थ केयर की साझेदारी भी शुरु होने लगी है. एफएमसीजी प्रोडक्ट में तो ये शुरु से रहा है और एक से एक कीड़े,वैक्टीरिया आदि के कैरेक्टर गढे गए लेकिन अब ये पोशाकों तक अपनी बात ले जाकर कह रहे हैं और होते-होते अब बात स्कीनी जींस तक आ गई.
हालांकि अब हम इस बात से मुक्त हैं कि बिल्कुल टाइट स्कीनी जींस जिसमे कि प्रवक्ता पद के आवेदन हेतु जो हम बैंक-दर-बैंक जाकर ड्राफ्ट बनवाते हैं, वो भी न प्रवेश कर सके, पहनते हैं और हमें कोई नहीं कहता- छी..लड़कियोंवाली जींस पहनकर घूम रहा है..हम दिल्ली की इसी सड़ी गर्मी, ४५ डिग्री तापमान में भी थ्री डिग्री लुक के साथ शहर में घूम रहे हैं..मुझे याद है बीए सेकण्ड इयर में जब मैंने पहली बार स्कीन जींस पहनी थी जो कि रांची जैसे शहर में बिल्कुल कॉमन नहीं था तो लोगों के बीच कानाफूसी शुरु हो गई थी..लड़का चाल-चलन से गड़बड़ा गया है..हमको तो शक है कि विपरीती लिंगी को पसंद भी आएगी भी कि नहीं..
लेकिन हेल्थ केयर की मार देखिए कि हम सालों से जिस स्कीनी जींस को पहनते आए, मौउगा, देह पर खाली दू गो संतरा नय है, बाकी पीछे से एकदम लड़की हो गया है जैसे ताने सुनने के वाबजूद कमर से बांधे और टांगों से चिपकाए रहे, उसी स्कीनी जींस के बारे में कहा जा रहा है कि इससे "asphyxiation"नाम की बीमारी की पूरी संभावना है..गूगल पर जब इसके बारे में विस्तार से पढ़ा तो समझ आया कि ऐसा होना स्वाभाविक ही है क्योंकि जिस जींस से एक बैंक ड्राफ्ट तक न गुजर पाता हो, वहां से हवा गुजरना कितना मुश्किल है और ऐसे में इस बीमारी से आगे चलकर चलने-फिरने तक में दिक्कत हो सकती है..पक्षाघात तक हो सकता है..और भी बहुत कुछ..
लेकिन ऐसा है कि ये स्कीनी जींस मुझे हद से ज्यादा पसंद है...सो पैरलॉसिस अटैक भी हो तो भी इसी जींस को पहनकर घर में लेटे-पड़े रहेंगे..एक दर्जन चीजें तो पहले ही छोड़ चुका हूं और अब ये जान से प्यारी स्कीनी जींस भी..नो वे.
पूरी स्टोरी के लिए चटकाएं- http://www.thequint.com/WaterQooler/skinny-jeans-wont-but-must-die
| | edit post