वो खून से तर-बतर था। उस बंदे के मुंह से आवाज नहीं निकल रही थी। पुलिस थाने में जब कांस्टेबल ने उससे पूछा कि तुम क्या चाहते हो। हम तो जिसे तुमलोगों ने मारा है उसे बंद करने जा रहे है. बंदा सिसक रहा था, डरा और घबराया हुआ था. धीरे से बोला, हम कुछ नहीं चाहते हैं. सर हम समझौता करना चाहते हैं. आप मेरा इलाज करा दीजिए,बस. समझौते के लिए आए लोगों ने कहा कि- जब इलाज ही कराना चाहते हो तो यहां क्यों बैठे हो, समझौते कर अभी तेरा इलाज करा देते हैं।
यह घटना है दिल्ली विश्वविद्यालय के ग्वायर हाल हॉस्टल में कल रात हुई मारपीट और उसके बाद पास के थाने मौरिसनगर की.
हुआ यूं कि कॉमन रूम में कुछ लोग आइपीएल मैच देख रहे थे। कुछ लोग आगे की कुर्सी पर खुलेआम पी रहे थे और मैच देख रहे थे। पीछे बैठा एक बंदा ईश्वर भी था। ईश्वर पहले इस हॉस्टल का रेसीडेंट रह चुका है और फिलहाल गेस्ट स्टेटस पर यहां टिका हुआ है. पढ़ने में होशियार वो चाहता तो डीयू से आगे रिसर्च के लिए रुक सकता था लेकिन उसकी आर्थिक स्थिति बहुत खराब थी, इसलिए हरियाणा के एक स्कूल में नौकरी लग जाने के बाद वहां चला गया।..और अब दिल्ली में आकर पीएच.डी. में रजिस्ट्रेशन की कोशिशें कर रहा है। तब तो मैं हॉस्टल में नहीं रहा, जब ईश्वर यहां का रेसीडेंट था लेकिन लोग बता रहे थे कि आजतक उसकी किसी ने आवाज तक नहीं सुनी। खैर,
जिस बंदे ने उसके नाक फोड़ दिए, उसके नाक से भी खून निकले और वो भी अपने को विकटिम बता रहा था। उसने पुलिस के सामने बयान दिया कि ईश्वर टीटी की टेबल पर बैठा था और मैंने उसे बस इतना कहा कि- स्साला, तुम्हें पता है ये टेबुल मंहगी आती है, चल नीचे उतर कर बैठ जा. इतने में ही उसने मुझे पंच मार दिया और बाद में जो कुछ भी हुआ, आप सब जानते हैं।
ईश्वर ने उसके इस बयान को सुधारते हुए कहा कि नहीं- इसके कहने पर मैं उतरकर कुर्सी पर बैठ गया था लेकिन उसके बाद भी ये मुझे गालियां दिए जा रहा था। मां-बहन की गालियां और मैं सुनता जा रहा था और अंत में मुझे तेज गुस्सा और मैंने उसे एक हाथ दे मारा। बाद में इसने मिलकर बहुत मारा। ईश्वर दिल्ली में रहकर भी गाली सुनने का अभ्यस्त नहीं रहा है.ये बात उसकी सजा के लिए काफी है।
घटना के समय तो लोगों ने बीच-बचाव की कोशिश की लेकिन जब मामला नहीं बना तो बात पुलिस स्टेशन तक पहुंच गयी और जब पुलिस स्टेशन तक पहुंच गयी तो देखिए वहां का नजारा।
पहले दोनों को मेडिकल चेकअप के लिए हिन्दूराव हॉस्पीटल में ले जाया गया। वहां से पुलिस रिपोर्ट और उन दोनों को साथ में लेकर आयी। रिपोर्ट में इस बात की पुष्टि नहीं हुई कि जो बंदा दो घंटे पहले खुलेआम कॉमन रूम में बैठकर पी रहा था, उसने अल्कोहल ले रखी थी। ये अलग बात है कि बात करने के क्रम में उसके मुंह से अब भी शराब की गंध आ रही थी औऱ बैठी पुलिस को कोई भी अजूबा नहीं लग रहा था.
रिपोर्ट लेकर बैठी पुलिस दोनों बंदे,गवाह,हॉस्टल ऑथिरिटी और हमलोग उस पीछे वाले कमरे थे। इस बात के लिए माहौल बनाया जा रहा था कि समझौता हो जाए। ईश्वर डरकर समझौते के लिए पहले से ही तैयार बैठा था। लेकिन दूसरा बंदा सुकांत वत्स इस बात के लिए तैयार ही नहीं था। तब थाने के मक्खन सिंह ने आवाज लगायी- जा भाई,रस्सी ले आ। अरेस्ट पेपर तैयार किए जाने लगे। सुकांत की तरफ से समझौते के लिए आए लोग मक्खन सिंह को समझाने में लग गए। लेकिन मक्खन सिंह का चिल्लाना जारी था. इधर सुकांत इस बात की रट लगाए जा रहा था कि नहीं हमें बंद ही होना है।
थोड़ी देर बाद दो प्रभावी लोग कमरे में दाखिल होते हैं। लोगों ने बताया कि उनमें से एक पेशे से वकील है. आते ही मक्खन सिंह की ओर मुखातिब हुआ और कहा- क्या हो गया भाई, यही क्या दोस्ती-यारी में झगड़ा। मक्खन सिंह का गुस्सा अचानक से गायब हो गया, हां में हां मिलाते हुए कहा, हां जी बस,बस। वो बंदा मक्खन सिंह की कुर्सी के पीछे खड़ा हो गया और कई बार मक्खन सिंह के कंधे पर हाथ रखते हुए बात करने लगा. माहौल को हल्का करने की कोशिशें करने लगा,ताकि लगे कि कुछ हुआ ही नहीं है, बस दोस्ती-यारी का झगड़ा है. इसी क्रम में पास खड़े कांन्सटेबल को कहा- बाकी लोगों को कहिए बाहर जाए, बेकार में भीड़ लगाए से क्या फायदा. एक-दो लोग जो घटना के समय थे, रह जाएं। कांस्टेबल हरकत में आए और हमलोगों को थोड़ा पुश करते हुए, इतना ही पुश किया कि लगे कि हमलोग भेड़-बकरी हैं और कहा- निकलिए आपलोग यहां से। हमने कहा, आराम से बात कीजिए, आप ऐसे कैसे हमसे बात कर सकते हैं। उनका सीधा जबाब था- के कर लेगा। धीरे-धीरे हम सारे लोग कमरे से बाहर आ गए। कांस्टेबल का मन इतने में भी नहीं भरा था, वो हमें थाने से बाहर निकालकर ही दम मार पाए।
करीब बीस मिनट तक पुलिस के लोग हमलोगों को बातों में उलझाए रखा, अपनी शेखी बघारते रहे। औऱ ये भी बताते रहे कि ये दिल्ली है,भई, अगर यही मामला हरियाणा थाने में होता, तब पता चलता। हमें बाहर निकालनेवाली ये पुलिस हमसे इतनी औपचारिक हो गयी कि अपने दोस्तों-यारों की बात करने लग गयी।
बीस-पच्चीस मिनट के बाद पुलिस ने घोषणा कि- चलो भाई, चलो सब अपने-अपने ठिकाने, एक बज गए। जाओ जाकर सो जाओ, मामला निबट गया है।
वाकई में समझौता हो गया था। दोनों बाहर निकल रहे थे। और ईश्वर पुलिस के सामने मिली धमकी कि-आगे कुछ किया तो देख लिये, लिए भारी कदमों से बाहर निकल रहा था.
लौटेने पर देखा कि ह़ॉस्टल के बाहर वो बंदा जो कि अंदर बंद होने की इच्छा रख रहा था, प्रोवोस्ट से सीधे-सीधे शब्दों में कह रहा था- सर हमें न्याय नहीं मिला है, मैं आगे तक देख लूंगा।...
वाकई समझौते की यह रात थी जिसमें दिल्ली पुलिस को एक बार फिर सफलता मिली।
|
|
यह घटना है दिल्ली विश्वविद्यालय के ग्वायर हाल हॉस्टल में कल रात हुई मारपीट और उसके बाद पास के थाने मौरिसनगर की.
हुआ यूं कि कॉमन रूम में कुछ लोग आइपीएल मैच देख रहे थे। कुछ लोग आगे की कुर्सी पर खुलेआम पी रहे थे और मैच देख रहे थे। पीछे बैठा एक बंदा ईश्वर भी था। ईश्वर पहले इस हॉस्टल का रेसीडेंट रह चुका है और फिलहाल गेस्ट स्टेटस पर यहां टिका हुआ है. पढ़ने में होशियार वो चाहता तो डीयू से आगे रिसर्च के लिए रुक सकता था लेकिन उसकी आर्थिक स्थिति बहुत खराब थी, इसलिए हरियाणा के एक स्कूल में नौकरी लग जाने के बाद वहां चला गया।..और अब दिल्ली में आकर पीएच.डी. में रजिस्ट्रेशन की कोशिशें कर रहा है। तब तो मैं हॉस्टल में नहीं रहा, जब ईश्वर यहां का रेसीडेंट था लेकिन लोग बता रहे थे कि आजतक उसकी किसी ने आवाज तक नहीं सुनी। खैर,
जिस बंदे ने उसके नाक फोड़ दिए, उसके नाक से भी खून निकले और वो भी अपने को विकटिम बता रहा था। उसने पुलिस के सामने बयान दिया कि ईश्वर टीटी की टेबल पर बैठा था और मैंने उसे बस इतना कहा कि- स्साला, तुम्हें पता है ये टेबुल मंहगी आती है, चल नीचे उतर कर बैठ जा. इतने में ही उसने मुझे पंच मार दिया और बाद में जो कुछ भी हुआ, आप सब जानते हैं।
ईश्वर ने उसके इस बयान को सुधारते हुए कहा कि नहीं- इसके कहने पर मैं उतरकर कुर्सी पर बैठ गया था लेकिन उसके बाद भी ये मुझे गालियां दिए जा रहा था। मां-बहन की गालियां और मैं सुनता जा रहा था और अंत में मुझे तेज गुस्सा और मैंने उसे एक हाथ दे मारा। बाद में इसने मिलकर बहुत मारा। ईश्वर दिल्ली में रहकर भी गाली सुनने का अभ्यस्त नहीं रहा है.ये बात उसकी सजा के लिए काफी है।
घटना के समय तो लोगों ने बीच-बचाव की कोशिश की लेकिन जब मामला नहीं बना तो बात पुलिस स्टेशन तक पहुंच गयी और जब पुलिस स्टेशन तक पहुंच गयी तो देखिए वहां का नजारा।
पहले दोनों को मेडिकल चेकअप के लिए हिन्दूराव हॉस्पीटल में ले जाया गया। वहां से पुलिस रिपोर्ट और उन दोनों को साथ में लेकर आयी। रिपोर्ट में इस बात की पुष्टि नहीं हुई कि जो बंदा दो घंटे पहले खुलेआम कॉमन रूम में बैठकर पी रहा था, उसने अल्कोहल ले रखी थी। ये अलग बात है कि बात करने के क्रम में उसके मुंह से अब भी शराब की गंध आ रही थी औऱ बैठी पुलिस को कोई भी अजूबा नहीं लग रहा था.
रिपोर्ट लेकर बैठी पुलिस दोनों बंदे,गवाह,हॉस्टल ऑथिरिटी और हमलोग उस पीछे वाले कमरे थे। इस बात के लिए माहौल बनाया जा रहा था कि समझौता हो जाए। ईश्वर डरकर समझौते के लिए पहले से ही तैयार बैठा था। लेकिन दूसरा बंदा सुकांत वत्स इस बात के लिए तैयार ही नहीं था। तब थाने के मक्खन सिंह ने आवाज लगायी- जा भाई,रस्सी ले आ। अरेस्ट पेपर तैयार किए जाने लगे। सुकांत की तरफ से समझौते के लिए आए लोग मक्खन सिंह को समझाने में लग गए। लेकिन मक्खन सिंह का चिल्लाना जारी था. इधर सुकांत इस बात की रट लगाए जा रहा था कि नहीं हमें बंद ही होना है।
थोड़ी देर बाद दो प्रभावी लोग कमरे में दाखिल होते हैं। लोगों ने बताया कि उनमें से एक पेशे से वकील है. आते ही मक्खन सिंह की ओर मुखातिब हुआ और कहा- क्या हो गया भाई, यही क्या दोस्ती-यारी में झगड़ा। मक्खन सिंह का गुस्सा अचानक से गायब हो गया, हां में हां मिलाते हुए कहा, हां जी बस,बस। वो बंदा मक्खन सिंह की कुर्सी के पीछे खड़ा हो गया और कई बार मक्खन सिंह के कंधे पर हाथ रखते हुए बात करने लगा. माहौल को हल्का करने की कोशिशें करने लगा,ताकि लगे कि कुछ हुआ ही नहीं है, बस दोस्ती-यारी का झगड़ा है. इसी क्रम में पास खड़े कांन्सटेबल को कहा- बाकी लोगों को कहिए बाहर जाए, बेकार में भीड़ लगाए से क्या फायदा. एक-दो लोग जो घटना के समय थे, रह जाएं। कांस्टेबल हरकत में आए और हमलोगों को थोड़ा पुश करते हुए, इतना ही पुश किया कि लगे कि हमलोग भेड़-बकरी हैं और कहा- निकलिए आपलोग यहां से। हमने कहा, आराम से बात कीजिए, आप ऐसे कैसे हमसे बात कर सकते हैं। उनका सीधा जबाब था- के कर लेगा। धीरे-धीरे हम सारे लोग कमरे से बाहर आ गए। कांस्टेबल का मन इतने में भी नहीं भरा था, वो हमें थाने से बाहर निकालकर ही दम मार पाए।
करीब बीस मिनट तक पुलिस के लोग हमलोगों को बातों में उलझाए रखा, अपनी शेखी बघारते रहे। औऱ ये भी बताते रहे कि ये दिल्ली है,भई, अगर यही मामला हरियाणा थाने में होता, तब पता चलता। हमें बाहर निकालनेवाली ये पुलिस हमसे इतनी औपचारिक हो गयी कि अपने दोस्तों-यारों की बात करने लग गयी।
बीस-पच्चीस मिनट के बाद पुलिस ने घोषणा कि- चलो भाई, चलो सब अपने-अपने ठिकाने, एक बज गए। जाओ जाकर सो जाओ, मामला निबट गया है।
वाकई में समझौता हो गया था। दोनों बाहर निकल रहे थे। और ईश्वर पुलिस के सामने मिली धमकी कि-आगे कुछ किया तो देख लिये, लिए भारी कदमों से बाहर निकल रहा था.
लौटेने पर देखा कि ह़ॉस्टल के बाहर वो बंदा जो कि अंदर बंद होने की इच्छा रख रहा था, प्रोवोस्ट से सीधे-सीधे शब्दों में कह रहा था- सर हमें न्याय नहीं मिला है, मैं आगे तक देख लूंगा।...
वाकई समझौते की यह रात थी जिसमें दिल्ली पुलिस को एक बार फिर सफलता मिली।
तीन-चार मुलाकातों में कनकलता हमलोगों से यही कहती रही कि- मकान-मालिक, उसके दोनों बेटों और बहुओं ने जो गालियां हमें दी है, मैं आपको बता नहीं सकती। सचमुच में इन गालियों को हमारे सामने उसने नहीं रखा। इसके लिए उसने कीवर्ड खोज निकाला-अपशब्द कहे। हम अपनी तरफ से अंदाजा लगा रहे थे कि इनलोगों को वो लिंग आधारित, बाप-दादाओं को लेकर और उसकी जाति को लेकर गालियां दी होगी।
संवेदनशीलता के स्तर पर यह सुनकर कि बहुत ही अश्लील शब्द कहे होंगे, इस हम समझ सकते हैं, जरुरी नहीं कि इसे एक सभ्य समाज में दोहराया जाए, हम चुप लगा जाते हैं। हम भी अंदाजा लगाकर चुप मार गए। लेकिन बात जब कानूनी मसले के तौर पर आ जाती है तो ये जानना जरुरी हो जाता है कि- ठीक-ठीक उनलोगों ने क्या गालियां दीं। अपूर्वानंद सर ने जब उसे ये बात समझायी कि जब आप कहेंगीं कि उसने मुझे बहुत गंदी-गंदी गालियां दी, बहुत ही अश्लील शब्द कहें, तो इसका सीधा अर्थ लगाया जाएगा कि आपको किसी भी तरह की गाली नहीं दी गयी। इसलिए जब मैं उससे और उसकी और उसके भाई-बहनों की बातों को सुनकर हादसानामा लिख रहा था तो उसे पहली बार वो सारी गालियां बतानी पड़ गयी।
वो सारी बातें बताती जाती लेकिन जब उनलोगों द्वारा बोले गए शब्दों को बताने की बारी आती जिसे कि उद्धरण चिन्हों के भीतर लिखना होता, तब वो कहती, लाइए लिख देती हूं। फिर सबकुछ कागज पर लिख देती। टाइप करते समय भी जब मैंने कहा कि देखो, तुमने अपनी बहुत सारी बातें तो कागज पर लिख दी लेकिन मुझे देखकर टाइप करने की आदत बिल्कुल भी नहीं है। ऐसा करो, तुम धीरे-धीरे बोलती जाओ और मैं टाइप भी करता जाउंगा और जहां जरुरत हुई, एडीट भी करता जाउंगा। उस वक्त भी वो बोलती जाती और जैसे ही गालियां आती, कागज हमें पकड़ा देती। मैं गालियों को देख-देखकर टाइप करता। जितनी भी गालियां उस हादसानामा में शामिल थीं, वो संज्ञा या फिर विशेषण के रुप में प्रयोग नहीं किए गए थे। उन गालियों से एक क्रियात्मक अर्थ का बोध होता था। वो गालियां मकान-मालिक और उनके बेटों के हवशी चरित्र को बयान करते हैं। उन गालियों में इन लड़कियों से जो बदला लेने की भावना है वो मार-पीटकर नहीं है। मैं बीच-बीच में पूछता भी कि- इतनी गंदी-गंदी गालियां दी उनलोगों ने। सवाल आपके मन में भी उठ सकते हैं कि तथाकथित ये सभ्य लोग जिनमें उनका एक लड़का स्कूल टीचर भी है, ऐसी गालियां कैसे दे सकता है? कनकलता बड़े ही स्वाभाविक ढंग से कहती- ये लोग लड़ाई के समय अपने बेटों और बहुओं को ऐसी ही गालियां देते हैं। औऱ वो भी बहुओं के सामने। कई बार मैं खुद अपनी कानों से सुन चुकी हूं।..तो क्या ये समझा जाए कि गालियां देते समय संबंधों को लेकर कोई एतराज नहीं होता और इस स्तर पर बहू होने के वावजूद भी लड़के की पत्नियां कनकलता से कम बड़ी दुश्मन नहीं हो जाती। ये चीजे उस पुरुष प्रैक्टिस में है इसलिए इसे आप स्त्री विशेष के बजाए स्त्री-समाज के स्तर पर देख सकते हैं।
मैंने गौर किया कि जब मैं गालियां को टाइप कर रहा होता, उसका ध्यान मॉनिटर से हटकर कहीं और चला जाता, कुछ और ही सोचने लग जाती। जिन गालियों को हम रोजमर्रा की जिंदगी में अभिव्यक्ति की शैली मानकर धडल्ले से इस्तेमाल करते हैं, उससे गुजरना एक लड़की के लिए कितना असह्य हो जाता है, ये सब मुझे पहली बार एहसास हो रहा था।
जब बी मेट में गीत यानि करीना कपूर को यानि एक स्त्री को जब साजिद गुस्सा निकालने और मन हल्का करने के लिए गाली बकना सीखाता है तो पहली मर्तबा उसे वैसा करने में कितना कष्ट होता है, प्रोड्यूसर ने दिखाया है। लेकिन वही गीत जब बोल्ड होकर, तेरी मां की बोलती है तो हम दर्शक ताली बजाने लग जाते हैं। हम खुश होते हैं कि देख पुरुष, नहले पे दहला। तो क्या हम गीत के बोल्ड होने और गाली बकने पर खुश होते हैं या फिर महज गाली बकने की अदा पर फिदा होते हैं।
स्त्रियों की हिचक तोड़ने, उसके भीतर के भय को खत्म करने के लिए ये गालियां और उसके बकने का अभ्यास,हो सकता है स्त्री के बोल्ड होने और अपने अधिकारों के लिए लड़ने के प्रस्थान बिन्दु हो सकते हैं। लेकिन जो स्त्री,कोई एक्ट्रेस अपने अधिकारों के लिए गाली के अलावे कोई और प्रस्थान बिन्दु तय करना चाहती है तो उसका विकल्प क्या है और क्या उसके इस पहल पर दर्शक उतनी ही तालियां बजाएंगे। हो सकता है कि उसके उस पहल को भी लोग अदा मानकर तालियां पीटने लग जाएं। क्योंकि जिनकी मानसिकता का विकास सिर्फ दामिनी और गदर जैसी फिल्मों को देखकर हुआ है, उनके लिए ये स्वाभाविक भी है। लेकिन बाकी का क्या?
कनकलता औऱ उसकी छोटी बहन गीत नहीं बनना चाहती क्योंकि उसने प्रस्थान बिन्दु के तौर पर गाली नहीं चुना है तो क्या वो बोल्ड भी नहीं हो सकती। प्रोड्यूसर का जबाब तो साफ होगा- बिल्कुल नहीं। आपकी क्या राय है।
|
|
संवेदनशीलता के स्तर पर यह सुनकर कि बहुत ही अश्लील शब्द कहे होंगे, इस हम समझ सकते हैं, जरुरी नहीं कि इसे एक सभ्य समाज में दोहराया जाए, हम चुप लगा जाते हैं। हम भी अंदाजा लगाकर चुप मार गए। लेकिन बात जब कानूनी मसले के तौर पर आ जाती है तो ये जानना जरुरी हो जाता है कि- ठीक-ठीक उनलोगों ने क्या गालियां दीं। अपूर्वानंद सर ने जब उसे ये बात समझायी कि जब आप कहेंगीं कि उसने मुझे बहुत गंदी-गंदी गालियां दी, बहुत ही अश्लील शब्द कहें, तो इसका सीधा अर्थ लगाया जाएगा कि आपको किसी भी तरह की गाली नहीं दी गयी। इसलिए जब मैं उससे और उसकी और उसके भाई-बहनों की बातों को सुनकर हादसानामा लिख रहा था तो उसे पहली बार वो सारी गालियां बतानी पड़ गयी।
वो सारी बातें बताती जाती लेकिन जब उनलोगों द्वारा बोले गए शब्दों को बताने की बारी आती जिसे कि उद्धरण चिन्हों के भीतर लिखना होता, तब वो कहती, लाइए लिख देती हूं। फिर सबकुछ कागज पर लिख देती। टाइप करते समय भी जब मैंने कहा कि देखो, तुमने अपनी बहुत सारी बातें तो कागज पर लिख दी लेकिन मुझे देखकर टाइप करने की आदत बिल्कुल भी नहीं है। ऐसा करो, तुम धीरे-धीरे बोलती जाओ और मैं टाइप भी करता जाउंगा और जहां जरुरत हुई, एडीट भी करता जाउंगा। उस वक्त भी वो बोलती जाती और जैसे ही गालियां आती, कागज हमें पकड़ा देती। मैं गालियों को देख-देखकर टाइप करता। जितनी भी गालियां उस हादसानामा में शामिल थीं, वो संज्ञा या फिर विशेषण के रुप में प्रयोग नहीं किए गए थे। उन गालियों से एक क्रियात्मक अर्थ का बोध होता था। वो गालियां मकान-मालिक और उनके बेटों के हवशी चरित्र को बयान करते हैं। उन गालियों में इन लड़कियों से जो बदला लेने की भावना है वो मार-पीटकर नहीं है। मैं बीच-बीच में पूछता भी कि- इतनी गंदी-गंदी गालियां दी उनलोगों ने। सवाल आपके मन में भी उठ सकते हैं कि तथाकथित ये सभ्य लोग जिनमें उनका एक लड़का स्कूल टीचर भी है, ऐसी गालियां कैसे दे सकता है? कनकलता बड़े ही स्वाभाविक ढंग से कहती- ये लोग लड़ाई के समय अपने बेटों और बहुओं को ऐसी ही गालियां देते हैं। औऱ वो भी बहुओं के सामने। कई बार मैं खुद अपनी कानों से सुन चुकी हूं।..तो क्या ये समझा जाए कि गालियां देते समय संबंधों को लेकर कोई एतराज नहीं होता और इस स्तर पर बहू होने के वावजूद भी लड़के की पत्नियां कनकलता से कम बड़ी दुश्मन नहीं हो जाती। ये चीजे उस पुरुष प्रैक्टिस में है इसलिए इसे आप स्त्री विशेष के बजाए स्त्री-समाज के स्तर पर देख सकते हैं।
मैंने गौर किया कि जब मैं गालियां को टाइप कर रहा होता, उसका ध्यान मॉनिटर से हटकर कहीं और चला जाता, कुछ और ही सोचने लग जाती। जिन गालियों को हम रोजमर्रा की जिंदगी में अभिव्यक्ति की शैली मानकर धडल्ले से इस्तेमाल करते हैं, उससे गुजरना एक लड़की के लिए कितना असह्य हो जाता है, ये सब मुझे पहली बार एहसास हो रहा था।
जब बी मेट में गीत यानि करीना कपूर को यानि एक स्त्री को जब साजिद गुस्सा निकालने और मन हल्का करने के लिए गाली बकना सीखाता है तो पहली मर्तबा उसे वैसा करने में कितना कष्ट होता है, प्रोड्यूसर ने दिखाया है। लेकिन वही गीत जब बोल्ड होकर, तेरी मां की बोलती है तो हम दर्शक ताली बजाने लग जाते हैं। हम खुश होते हैं कि देख पुरुष, नहले पे दहला। तो क्या हम गीत के बोल्ड होने और गाली बकने पर खुश होते हैं या फिर महज गाली बकने की अदा पर फिदा होते हैं।
स्त्रियों की हिचक तोड़ने, उसके भीतर के भय को खत्म करने के लिए ये गालियां और उसके बकने का अभ्यास,हो सकता है स्त्री के बोल्ड होने और अपने अधिकारों के लिए लड़ने के प्रस्थान बिन्दु हो सकते हैं। लेकिन जो स्त्री,कोई एक्ट्रेस अपने अधिकारों के लिए गाली के अलावे कोई और प्रस्थान बिन्दु तय करना चाहती है तो उसका विकल्प क्या है और क्या उसके इस पहल पर दर्शक उतनी ही तालियां बजाएंगे। हो सकता है कि उसके उस पहल को भी लोग अदा मानकर तालियां पीटने लग जाएं। क्योंकि जिनकी मानसिकता का विकास सिर्फ दामिनी और गदर जैसी फिल्मों को देखकर हुआ है, उनके लिए ये स्वाभाविक भी है। लेकिन बाकी का क्या?
कनकलता औऱ उसकी छोटी बहन गीत नहीं बनना चाहती क्योंकि उसने प्रस्थान बिन्दु के तौर पर गाली नहीं चुना है तो क्या वो बोल्ड भी नहीं हो सकती। प्रोड्यूसर का जबाब तो साफ होगा- बिल्कुल नहीं। आपकी क्या राय है।
कल जब एक प्रोफेसर ने हमसे सवाल किया कि- क्या सचमुच में अविनाश और यशवंत इतने बड़े फिगर हैं कि आपलोग दुनियाभर के मुद्दों को छोड़कर उनके पीछे हो लेते हैं, तो एकबारगी तो हमें भी लगा कि क्या ये दोनों चैनलों के लिए क्रिकेट, सेक्स और सिनेमा की तरह ही अटेंशन एलिमेंट हैं।..और हम जैसे लोग पीछे-पीछे तुरही बजाते हुए इनपर पैकेज बनाना शुरु कर देते हैं या फिर ब्लॉग में इसेक अलावे भी कुछ है जो हमारे प्रैक्टिस में है और जिसके बारे में मेरी पिछली पोस्ट पर टिप्पणियां आयीं कि आप अपने हिसाब से लिखते जाइए, पाठक वर्ग तैयार कीजिए, हम तो चैनलों से भी दूर हैं और अविनाश और यशवंत के पचड़ों से भी।
प्रोफेसर साहब ने बड़े ही हल्के किन्तु रोचक ढंग से हमारे सामने एक सवाल रख दिया कि- हो सकता है ये दोनों लोग आपलोगों के हिसाब से बड़े फिगर हों भी तो आप उन कुछ घटनाओं और पोस्टों की तरफ क्यों नहीं जाते, उन्हें क्यों नहीं खोजते, जिसकी वजह से आप ऐसा महसूस करते हैं या फिर उनका नाम आते ही आपलोग उनके पीछे हो लेते हैं।
अगर ऐतिहासिकता और पुरानेपन के लिहाज से बात करें तो एक बात तो बिल्कुल साफ है कि इन दोनों के साथ ये तथ्य काम नहीं करता कि ये सबसे पुराने हैं और इसलिए लोगों का ध्यान इनके उपर चला जाता है। इनसे पुराने,सम्मानित और कई दूसरे ब्लॉगर हैं जो कि लगातार लिखते आ रहे हैं। इसलिए इस पर तो आकर बात बनती ही नहीं है। फिर अटेंशन एलिमेंट क्या है?
यशवंत की भाषा, जिसे कि भाषाई उपद्रवता भी आप कह सकते हैं क्योंकि उनकी पोस्ट को पढ़ते हुए आपको एक अलग किस्म का एहसास होगा कि- अच्छा है बंदा लिखकर ही अपनी बात कह रहा है, नहीं तो साक्षात होता तो मामला लप्पड़-थप्पड़ और कॉलर पकड़-पकड़ी तक आ जाती। वैसे भी गाली-गलौज के बाद का स्वाभाविक विकासक्रम यही है। इसके साथ ही लोगों की कमीज उतारने की बेचैनी और मनोहरश्याम जोशी के पात्र की तरह सू-सू करते हुए धार पर होड़ लगाने की प्रतियोगिता कि- किसकी धार कितनी देर तक और लम्बी जाती है, एक अटेंशन बनाती है। जो बंदा ब्लॉग और पत्रकारिता की दुनिया में कच्चा-कच्चा है, एक घड़ी के लिए मोहित हो जाता है कि इसे कहते है हिम्मत और लिखते हुए कुछ कर गुजरने की ताकत। यशवंत के साथ-साथ ब्लॉग के बाकी साथियों की मानसिकता भी इसी किस्म की रही और भड़ास अटेंशन बनाए रखा। या यों भी कह लें कि इसी किस्म की मानसिकता के लोग यशवंत के साथ हुए और अटेंशन बनाए रखा. इसके अलावा मीडिया जगत में हुए हलचलों के लिए यहां एक अलग से स्पेस रहा और लोगों का ध्यान इसकी ओर गया। बड़ी खबर और ब्रकिंग न्यूज के नाम पर जो चैनलों में बासीपन आ गया है, इसे पढ़ते हुए हुए थोड़ी देर के लिए तो राहत जरुर मिल जाती कि नहीं कुछ ताजा माल भी तैयार हो रहा है। और इससे भी मजे कि बात कि मीडिया, खबरों के नाम पर जिस तरह से चटखारे लेती है, पहली बार भड़ास और यशवंत ने खबर बनानेवालों की स्थितियों पर चटखारे लेने लगे। तबादले की भाषा आप देखिए, आपको अंदाजा लग जाएगा कि ये सिर्फ खबर भर नहीं है, पूरा का पूरा मजे का मसाला है।.. तो क्या ये कहा जा सकता है कि यशवंत और भड़ास के ये अटेंशन एलिमेंट रहे और मन हल्का करने के चक्कर में सबकुछ जिसे देखकर आज चोखेरबालियों सहित कईयों को एक सड़न का एहसास हो रहा है, हमारे सामने पसरता गया।
इधर अविनाश के साथ कौन-सा अटेंशन एलिमेंट काम कर रहा है? एक बार दिल्ली से बहुत दूर के ब्लॉगर साथी दिल्ली आए तो हमसे भी मिलने चले आए। वो अविनाश के नाम पर पहले से ही बहुत खीजे हुए थे, हमसे मिलने के बाद जो उन्होंने अपनी बात रखी, उससे और भी साफ हो गया कि वो उनसे किताना खुन्नस खाए बैठे हैं। उन दिनों मैं मोहल्ला पर लिखनेवालों की टीम से अपना नाम हटाए जाने पर अविनाश भाई बोल-बोलकर लगातार पोस्ट लिख रहा था और उनको एक सही ब्लॉगर मिल गया था जिससे अपने मन की बात कही जा सकती थी।
ब्लॉग की दुनिया में आने पर मेरे साथ एक बेहतर स्थिति रही है कि मैं यहां संबंधों की गठरी और ऐतिहासिकता का बोझ लेकर यहां नहीं आया. अगर मैं इस बात का दावा करुं कि ब्लॉग लिखने के पहले मैं एक भी व्यक्ति को पहले से पर्सनली नहीं जानता था तो शायद बात झूठी नहीं होगी। कुछ के नाम पहले से सुन रखे थे लेकिन व्यक्तिगत तौर पर मिलना ब्लॉग लिखने के बाद ही हुआ। खैर, इस बातचीत में साथी ने जो बात कही,उससे लग रहा था किवो अविनाश और मोहल्ला के अटेंशन एलिमेंट की बात कर रहे हैं।
उनका कहना था कि- अविनाश जब मोहल्ला लेकर आए तो काम्युनिस्टों की पूरी टीम लेकर आए। बातचीत से लग रहा था कि शायद वो इसलिए भी अविनाश के विरोधी हैं। उसके बाद तो पूछिए मत। मैंने पूछा भी नहीं। काम्युनिस्टों को लेकर आए मतलब क्या, वो गरीब किसान, मजदूर और समाज के दूसरे शोषितों की बात करने लग गए। कला और विचारधारा के नाम पर एक खास तरह के ग्लोबल पैटर्न को फॉलो करने लग गए। यानि शुरुआती दौर में ब्ल़ॉग पर जो लोग लिख रहे थे कि किसके घर में किस दाल की छौंक लगी है, उससे अलग होते गए। लेकिन मुझे तो ऐसा कुछ दिखाई नहीं देता। अगर ब्लॉग को धीरे-धीरे एक पर्सनल, वेरी-वेरी पर्सनल माध्यम बनाते जाने, जैसा कि मेरे एक टीचर ने मुझसे कहा, का मामला है तो ये आरोप अविनाश भाई पर भी उतना ही जायज ठहरता है और अगर कल को कोई इस बात पर बहस छेडे कि किस-किसने ब्लॉग को पर्सनल बनाया है तो उसमें इनका भी नाम होगा। हम तो इससे उनको बरी नहीं कर सकते। जाहिर है साथी,अविनाश भाई के संदर्भ में जिस काम्युनिस्ट होने की बात कर रहे थे उसमें कहीं से भी उसके साकारात्मक पक्ष शामिल नहीं थे। यानि काम्युनिज्म यहां थे ही नहीं। इसलिए अटेंशन का ये एलिमेंट यही खारिज हो जाता है और अभी तक काम्युनिज्म, दक्षिण पंथ या फिर कोई भी विचारधारा अटेंशन का एलिमेंट नहीं बन पायी है। चोखेरबाली को आप विचारधारा का ब्लॉग नहीं कह सकते क्योंकि वो प्रैक्टिस पर आधारित है न कि विचारधारा पर। ये अच्छा है या खराब बता नहीं सकता। लेकिन अविनाश भाई का एटेंशन एलिमेंट कॉम्युनिज्म नहीं हैं, ये तो साफ है।..
तो फिर क्या है अविनाश और मोहल्ला का अटेंशन एलिमेंट, पढ़िए हमारी अगली पोस्ट में।
|
|
प्रोफेसर साहब ने बड़े ही हल्के किन्तु रोचक ढंग से हमारे सामने एक सवाल रख दिया कि- हो सकता है ये दोनों लोग आपलोगों के हिसाब से बड़े फिगर हों भी तो आप उन कुछ घटनाओं और पोस्टों की तरफ क्यों नहीं जाते, उन्हें क्यों नहीं खोजते, जिसकी वजह से आप ऐसा महसूस करते हैं या फिर उनका नाम आते ही आपलोग उनके पीछे हो लेते हैं।
अगर ऐतिहासिकता और पुरानेपन के लिहाज से बात करें तो एक बात तो बिल्कुल साफ है कि इन दोनों के साथ ये तथ्य काम नहीं करता कि ये सबसे पुराने हैं और इसलिए लोगों का ध्यान इनके उपर चला जाता है। इनसे पुराने,सम्मानित और कई दूसरे ब्लॉगर हैं जो कि लगातार लिखते आ रहे हैं। इसलिए इस पर तो आकर बात बनती ही नहीं है। फिर अटेंशन एलिमेंट क्या है?
यशवंत की भाषा, जिसे कि भाषाई उपद्रवता भी आप कह सकते हैं क्योंकि उनकी पोस्ट को पढ़ते हुए आपको एक अलग किस्म का एहसास होगा कि- अच्छा है बंदा लिखकर ही अपनी बात कह रहा है, नहीं तो साक्षात होता तो मामला लप्पड़-थप्पड़ और कॉलर पकड़-पकड़ी तक आ जाती। वैसे भी गाली-गलौज के बाद का स्वाभाविक विकासक्रम यही है। इसके साथ ही लोगों की कमीज उतारने की बेचैनी और मनोहरश्याम जोशी के पात्र की तरह सू-सू करते हुए धार पर होड़ लगाने की प्रतियोगिता कि- किसकी धार कितनी देर तक और लम्बी जाती है, एक अटेंशन बनाती है। जो बंदा ब्लॉग और पत्रकारिता की दुनिया में कच्चा-कच्चा है, एक घड़ी के लिए मोहित हो जाता है कि इसे कहते है हिम्मत और लिखते हुए कुछ कर गुजरने की ताकत। यशवंत के साथ-साथ ब्लॉग के बाकी साथियों की मानसिकता भी इसी किस्म की रही और भड़ास अटेंशन बनाए रखा। या यों भी कह लें कि इसी किस्म की मानसिकता के लोग यशवंत के साथ हुए और अटेंशन बनाए रखा. इसके अलावा मीडिया जगत में हुए हलचलों के लिए यहां एक अलग से स्पेस रहा और लोगों का ध्यान इसकी ओर गया। बड़ी खबर और ब्रकिंग न्यूज के नाम पर जो चैनलों में बासीपन आ गया है, इसे पढ़ते हुए हुए थोड़ी देर के लिए तो राहत जरुर मिल जाती कि नहीं कुछ ताजा माल भी तैयार हो रहा है। और इससे भी मजे कि बात कि मीडिया, खबरों के नाम पर जिस तरह से चटखारे लेती है, पहली बार भड़ास और यशवंत ने खबर बनानेवालों की स्थितियों पर चटखारे लेने लगे। तबादले की भाषा आप देखिए, आपको अंदाजा लग जाएगा कि ये सिर्फ खबर भर नहीं है, पूरा का पूरा मजे का मसाला है।.. तो क्या ये कहा जा सकता है कि यशवंत और भड़ास के ये अटेंशन एलिमेंट रहे और मन हल्का करने के चक्कर में सबकुछ जिसे देखकर आज चोखेरबालियों सहित कईयों को एक सड़न का एहसास हो रहा है, हमारे सामने पसरता गया।
इधर अविनाश के साथ कौन-सा अटेंशन एलिमेंट काम कर रहा है? एक बार दिल्ली से बहुत दूर के ब्लॉगर साथी दिल्ली आए तो हमसे भी मिलने चले आए। वो अविनाश के नाम पर पहले से ही बहुत खीजे हुए थे, हमसे मिलने के बाद जो उन्होंने अपनी बात रखी, उससे और भी साफ हो गया कि वो उनसे किताना खुन्नस खाए बैठे हैं। उन दिनों मैं मोहल्ला पर लिखनेवालों की टीम से अपना नाम हटाए जाने पर अविनाश भाई बोल-बोलकर लगातार पोस्ट लिख रहा था और उनको एक सही ब्लॉगर मिल गया था जिससे अपने मन की बात कही जा सकती थी।
ब्लॉग की दुनिया में आने पर मेरे साथ एक बेहतर स्थिति रही है कि मैं यहां संबंधों की गठरी और ऐतिहासिकता का बोझ लेकर यहां नहीं आया. अगर मैं इस बात का दावा करुं कि ब्लॉग लिखने के पहले मैं एक भी व्यक्ति को पहले से पर्सनली नहीं जानता था तो शायद बात झूठी नहीं होगी। कुछ के नाम पहले से सुन रखे थे लेकिन व्यक्तिगत तौर पर मिलना ब्लॉग लिखने के बाद ही हुआ। खैर, इस बातचीत में साथी ने जो बात कही,उससे लग रहा था किवो अविनाश और मोहल्ला के अटेंशन एलिमेंट की बात कर रहे हैं।
उनका कहना था कि- अविनाश जब मोहल्ला लेकर आए तो काम्युनिस्टों की पूरी टीम लेकर आए। बातचीत से लग रहा था कि शायद वो इसलिए भी अविनाश के विरोधी हैं। उसके बाद तो पूछिए मत। मैंने पूछा भी नहीं। काम्युनिस्टों को लेकर आए मतलब क्या, वो गरीब किसान, मजदूर और समाज के दूसरे शोषितों की बात करने लग गए। कला और विचारधारा के नाम पर एक खास तरह के ग्लोबल पैटर्न को फॉलो करने लग गए। यानि शुरुआती दौर में ब्ल़ॉग पर जो लोग लिख रहे थे कि किसके घर में किस दाल की छौंक लगी है, उससे अलग होते गए। लेकिन मुझे तो ऐसा कुछ दिखाई नहीं देता। अगर ब्लॉग को धीरे-धीरे एक पर्सनल, वेरी-वेरी पर्सनल माध्यम बनाते जाने, जैसा कि मेरे एक टीचर ने मुझसे कहा, का मामला है तो ये आरोप अविनाश भाई पर भी उतना ही जायज ठहरता है और अगर कल को कोई इस बात पर बहस छेडे कि किस-किसने ब्लॉग को पर्सनल बनाया है तो उसमें इनका भी नाम होगा। हम तो इससे उनको बरी नहीं कर सकते। जाहिर है साथी,अविनाश भाई के संदर्भ में जिस काम्युनिस्ट होने की बात कर रहे थे उसमें कहीं से भी उसके साकारात्मक पक्ष शामिल नहीं थे। यानि काम्युनिज्म यहां थे ही नहीं। इसलिए अटेंशन का ये एलिमेंट यही खारिज हो जाता है और अभी तक काम्युनिज्म, दक्षिण पंथ या फिर कोई भी विचारधारा अटेंशन का एलिमेंट नहीं बन पायी है। चोखेरबाली को आप विचारधारा का ब्लॉग नहीं कह सकते क्योंकि वो प्रैक्टिस पर आधारित है न कि विचारधारा पर। ये अच्छा है या खराब बता नहीं सकता। लेकिन अविनाश भाई का एटेंशन एलिमेंट कॉम्युनिज्म नहीं हैं, ये तो साफ है।..
तो फिर क्या है अविनाश और मोहल्ला का अटेंशन एलिमेंट, पढ़िए हमारी अगली पोस्ट में।
मेरे एक ब्लॉगर साथी ने कहा कि अविनाश और यशवंत पर कोई भी लिख दे, उसकी पोस्ट हिट हो जाएगी और उसके ब्लॉग को लोग जानने लगेंगे। तो क्या एक तरीका ये है कि जितने भी नौसिखुए ब्लॉगर हैं जिनकी पोस्ट इस अंतर्जाल में खो जाती है, वो लोगों को अपनी ओर ध्यान खींचने के लिए अविनाश, मोहल्ला, भड़ास और यशवंत के उपर लिखें।
हो सकता है हिन्दी ब्लॉगिंग की दुनिया में यह बात एक फार्मूले की तरह काम आए। वैसे भी इस भीड़-भाड़ वाले इलाके में लोगों की समझ यही बनती है कि जितनी उंची हांक लगाओगे, ग्राहक उतने अधिक आएंगे। ये अलग बात है कि बाद में तुम्हारा माल देखकर बिदक जाएं। लेकिन एक बार अटेंशन तो बनेगा ही। यानि अब तक साहित्य या मीडिया में हम जिस प्रभाव की बात करते रहे हैं वो अब एटेंशन में शिफ्ट हो गया है।चैनल भी ऐसा ही कुछ करते हैं। हो न हो ब्लॉगर की मानसिकता भी इसी को देखकर बनी है। जरुरी नहीं कि सबकी, बहुत थोड़े की ही, लेकिन बनी तो सही है जिसमें मैं भी शामिल हूं।
आप सबको याद होगा कि इंडिया टीवी ने इंडस्ट्री में इन्ट्री कैसे मारी थी। वो भी लोगों पर एकदम से अपना प्रभाव बनाने की फिराक में नहीं थी। वो सिर्फ इतना चाहती थी कि एक बार लोग उनकी तरफ एटेंशन लें।॥और फिर देखिए की लोगों के जेहन में एक नाम बस गया कि इंडिया टीवी बोलकर भी कोई चैनल है। आप उसकी खबरों की गुणवत्ता और कंटेंट पर मत जाइए। लेकिन इतना तो आप भी समझते हैं कि जब भी बात की जाती है कि- अजी अब तो खबरों के नाम पर सांप-संपेरे, भूत-प्रेत और सेक्स दिखाए जाते हैं तो किस चैनल पर अटेंशन बनाकर बात की जाती है। आप देखिए कि कैसे उसने बातों ही बातों में खबर के लिए मुहावरा ही बदल दिया और हम इस्तेमाल करने लग गए। अच्छा- खराब छोड़ दीजिए, लेकिन इस चैनल ने अपना एक अटेंशन तो बनाया ही है लोगों के बीच में। आज वो टीआरपी के खेल में शामिल हैं, तमाम फूहड़पन के बाद भी तो आप कह सकते हैं कि उसने अपना प्रभाव जमा लिया है।
चैनल भी इस बात को समझने लगी है कि अब जो ऑडिएंस की पीढ़ी तैयार हो रही है उसमें फ्लोटेड ऑडिएंस की संख्या ज्यादा है। आप कह सकते हैं कि ऑडिएंस अब रिलॉयवल नहीं रह गए हैं। जहां आपने इधर-उधर किया या फिर आपने नहीं तो किसी और चैनल ने बेहतर तरीके से इधर-उधर कर दिया तो ऑडिएंस आपके चैनल से तुरंत कूदकर कहीं और चली जाएगी। अब ऑडिएंस की वो पीढ़ी धीरे-धीरे खत्म होती जा रही है जो कि सालों से एक ही चैनल पर अपनी पसंद बनाए हुए है। ऐसे में चैनल प्रभाव से ज्यादा अटेंशन पर काम करता है। प्रभाव जिसका कि असर लम्बे समय तक होता है और इसके बदौलत चैनल लंबी पारी खेल सकता है, जबकि अटेंशन का संबंध तात्कालिकता से है। जिस भी चैनल ने अपने यहां तात्कालिता को डाला, ऑडिएंस तुरंत वहां शिफ्ट हो जाएगी। चैनलों के लिए तात्कालिता एक जरुरी और निर्णायक एलीमेंट है।इसलिए आप देखेंगे कि चैनल प्रभाव से ज्यादा एटेंशन पर काम करते हैं। रोज के अटेंशन के लिए रोज अटेंशन एलिमेंट खोजने होंगे। इसलिए खबरों के नाम पर आपको जो कुछ भी हमें नसीब होता है वो स्वाभाविक ही है।
प्रभाव, जिसके लिए होमवर्क करने होते हैं, खबरों के प्रति संजीदा होना होता है, एक-एक खबर पर रिसर्च करना होता है, इनपुट्स डालने होते हैं। अच्छी-खासी मेहनत तरनी पड़ती है। जबकि सच्चाई ये है कि हिन्दी चैनल दूसरे किस्म की मेहनत के अभ्यस्त हो चले हैं। वो एक पैकेज बनाने के लिए फिल्मों की पचास सीडी देख जाएंगे, एफेक्ट्स डालने के लिए कलर, टोन और पूरी म्यूजिक गैलरी घूम आएंगे। मोन्टाज के लिए पूरी शिफ्ट लगा देंगे। ऐसा नहीं है कि चैनल्स मेहनत कम करते हैं, बल्कि पहले से कई गुना ज्यादा करते हैं। नहीं तो खबरों में इतनी रोचकता कहां से आने पाती। लेकिन वो एसेंस आपको नहीं मिलेंगे जिसके अभाव में आप निराश होते हैं। तो आप कह सकते हैं कि चैनल अटेंशन के लिए काम करते हैं, प्रभाव के लिए नहीं, और फिर स्थायी प्रभाव के लिए तो बिल्कुल भी नहीं। यहां एक झलक आप देख लीजिए हमें की होड़ है, बस दस सेकेंड।
तकनीकी चकमक के साथ-साथ अटेंशन का एक तरीका और भी है। कंटेंट के स्तर पर क्रिकेट, सेक्स, भूत-प्रेत, धर्म और स्टंट तो है ही। ये सारी ऐसी चीजें हैं जिसके लिए कोई हिन्दी चैनल कुछ भी न करे, सिर्फ अंग्रेजी चैनलों से मटीरियल लेकर हिन्दी में अनुवाद भर कर दे तो भी ठीक-ठीक ऑडिएंस जुटा लेगी। और ये हो भी रहा है। ये फिक्स एलीमेंट हैं। जो भी इसे चलाएगा, उस पर लोगों का अटेंशन तो बनेगा ही। बहुत नहीं भी तो और खबरों से ज्यादा ही। जैसे इमैजिन ने यह सोचकर रामायण चलाया कि चाहे कितना भी सामाजिक बदलाव आ जाए, हमेशा एक पीढ़ी रहेगी जो कि रामायण देखेगी ही, कुछ वैसा ही। इस चक्कर में आप देखेंगे कि जिन सैंकड़ों चैनलों के होने के होने पर सैंकड़ों अलग-अलग मुद्दे और खबरें होनी चाहिए, वो सबके सब फिक्स एलीमेंट की तरफ चले गए हैं। क्रिकेट की खबर है तो सब पर वही, क्राइम है तो सब पर वही। थोड़ा बहुत ट्रीटमेंट बदलता है जिसे कि आप अटेंशन एलीमेंट के तौर पर समझते हैं।
तो क्या अविनाश, यशवंत, मोहल्ला और भड़ास चैनल के फिक्स एलीमेंट की तरह हो गए है। क्या ये चैनलों की तरह क्रिकेट, क्राइम और सेक्स एलीमेंट की तरह हैं। इन पर बात करने का मतलब है अपने ब्लॉग को लेकर अटेंशन की मानसिकता में शामिल हो जाना। इन पर कोई भी लिख दे और कैसे भी लिख दे, गलत स्पेलिंग के साथ, अशुद्ध वाक्य के साथ, कमजोर फैक्ट्स के साथ रीडर्स सुधारकर अपनी सुविधानुसार पढ़ लेगी। तो क्या फिर हिन्दी ब्ल़ॉगिंग भी हिन्दी चैनलों की राह पर चल निकला है।
|
|
हो सकता है हिन्दी ब्लॉगिंग की दुनिया में यह बात एक फार्मूले की तरह काम आए। वैसे भी इस भीड़-भाड़ वाले इलाके में लोगों की समझ यही बनती है कि जितनी उंची हांक लगाओगे, ग्राहक उतने अधिक आएंगे। ये अलग बात है कि बाद में तुम्हारा माल देखकर बिदक जाएं। लेकिन एक बार अटेंशन तो बनेगा ही। यानि अब तक साहित्य या मीडिया में हम जिस प्रभाव की बात करते रहे हैं वो अब एटेंशन में शिफ्ट हो गया है।चैनल भी ऐसा ही कुछ करते हैं। हो न हो ब्लॉगर की मानसिकता भी इसी को देखकर बनी है। जरुरी नहीं कि सबकी, बहुत थोड़े की ही, लेकिन बनी तो सही है जिसमें मैं भी शामिल हूं।
आप सबको याद होगा कि इंडिया टीवी ने इंडस्ट्री में इन्ट्री कैसे मारी थी। वो भी लोगों पर एकदम से अपना प्रभाव बनाने की फिराक में नहीं थी। वो सिर्फ इतना चाहती थी कि एक बार लोग उनकी तरफ एटेंशन लें।॥और फिर देखिए की लोगों के जेहन में एक नाम बस गया कि इंडिया टीवी बोलकर भी कोई चैनल है। आप उसकी खबरों की गुणवत्ता और कंटेंट पर मत जाइए। लेकिन इतना तो आप भी समझते हैं कि जब भी बात की जाती है कि- अजी अब तो खबरों के नाम पर सांप-संपेरे, भूत-प्रेत और सेक्स दिखाए जाते हैं तो किस चैनल पर अटेंशन बनाकर बात की जाती है। आप देखिए कि कैसे उसने बातों ही बातों में खबर के लिए मुहावरा ही बदल दिया और हम इस्तेमाल करने लग गए। अच्छा- खराब छोड़ दीजिए, लेकिन इस चैनल ने अपना एक अटेंशन तो बनाया ही है लोगों के बीच में। आज वो टीआरपी के खेल में शामिल हैं, तमाम फूहड़पन के बाद भी तो आप कह सकते हैं कि उसने अपना प्रभाव जमा लिया है।
चैनल भी इस बात को समझने लगी है कि अब जो ऑडिएंस की पीढ़ी तैयार हो रही है उसमें फ्लोटेड ऑडिएंस की संख्या ज्यादा है। आप कह सकते हैं कि ऑडिएंस अब रिलॉयवल नहीं रह गए हैं। जहां आपने इधर-उधर किया या फिर आपने नहीं तो किसी और चैनल ने बेहतर तरीके से इधर-उधर कर दिया तो ऑडिएंस आपके चैनल से तुरंत कूदकर कहीं और चली जाएगी। अब ऑडिएंस की वो पीढ़ी धीरे-धीरे खत्म होती जा रही है जो कि सालों से एक ही चैनल पर अपनी पसंद बनाए हुए है। ऐसे में चैनल प्रभाव से ज्यादा अटेंशन पर काम करता है। प्रभाव जिसका कि असर लम्बे समय तक होता है और इसके बदौलत चैनल लंबी पारी खेल सकता है, जबकि अटेंशन का संबंध तात्कालिकता से है। जिस भी चैनल ने अपने यहां तात्कालिता को डाला, ऑडिएंस तुरंत वहां शिफ्ट हो जाएगी। चैनलों के लिए तात्कालिता एक जरुरी और निर्णायक एलीमेंट है।इसलिए आप देखेंगे कि चैनल प्रभाव से ज्यादा एटेंशन पर काम करते हैं। रोज के अटेंशन के लिए रोज अटेंशन एलिमेंट खोजने होंगे। इसलिए खबरों के नाम पर आपको जो कुछ भी हमें नसीब होता है वो स्वाभाविक ही है।
प्रभाव, जिसके लिए होमवर्क करने होते हैं, खबरों के प्रति संजीदा होना होता है, एक-एक खबर पर रिसर्च करना होता है, इनपुट्स डालने होते हैं। अच्छी-खासी मेहनत तरनी पड़ती है। जबकि सच्चाई ये है कि हिन्दी चैनल दूसरे किस्म की मेहनत के अभ्यस्त हो चले हैं। वो एक पैकेज बनाने के लिए फिल्मों की पचास सीडी देख जाएंगे, एफेक्ट्स डालने के लिए कलर, टोन और पूरी म्यूजिक गैलरी घूम आएंगे। मोन्टाज के लिए पूरी शिफ्ट लगा देंगे। ऐसा नहीं है कि चैनल्स मेहनत कम करते हैं, बल्कि पहले से कई गुना ज्यादा करते हैं। नहीं तो खबरों में इतनी रोचकता कहां से आने पाती। लेकिन वो एसेंस आपको नहीं मिलेंगे जिसके अभाव में आप निराश होते हैं। तो आप कह सकते हैं कि चैनल अटेंशन के लिए काम करते हैं, प्रभाव के लिए नहीं, और फिर स्थायी प्रभाव के लिए तो बिल्कुल भी नहीं। यहां एक झलक आप देख लीजिए हमें की होड़ है, बस दस सेकेंड।
तकनीकी चकमक के साथ-साथ अटेंशन का एक तरीका और भी है। कंटेंट के स्तर पर क्रिकेट, सेक्स, भूत-प्रेत, धर्म और स्टंट तो है ही। ये सारी ऐसी चीजें हैं जिसके लिए कोई हिन्दी चैनल कुछ भी न करे, सिर्फ अंग्रेजी चैनलों से मटीरियल लेकर हिन्दी में अनुवाद भर कर दे तो भी ठीक-ठीक ऑडिएंस जुटा लेगी। और ये हो भी रहा है। ये फिक्स एलीमेंट हैं। जो भी इसे चलाएगा, उस पर लोगों का अटेंशन तो बनेगा ही। बहुत नहीं भी तो और खबरों से ज्यादा ही। जैसे इमैजिन ने यह सोचकर रामायण चलाया कि चाहे कितना भी सामाजिक बदलाव आ जाए, हमेशा एक पीढ़ी रहेगी जो कि रामायण देखेगी ही, कुछ वैसा ही। इस चक्कर में आप देखेंगे कि जिन सैंकड़ों चैनलों के होने के होने पर सैंकड़ों अलग-अलग मुद्दे और खबरें होनी चाहिए, वो सबके सब फिक्स एलीमेंट की तरफ चले गए हैं। क्रिकेट की खबर है तो सब पर वही, क्राइम है तो सब पर वही। थोड़ा बहुत ट्रीटमेंट बदलता है जिसे कि आप अटेंशन एलीमेंट के तौर पर समझते हैं।
तो क्या अविनाश, यशवंत, मोहल्ला और भड़ास चैनल के फिक्स एलीमेंट की तरह हो गए है। क्या ये चैनलों की तरह क्रिकेट, क्राइम और सेक्स एलीमेंट की तरह हैं। इन पर बात करने का मतलब है अपने ब्लॉग को लेकर अटेंशन की मानसिकता में शामिल हो जाना। इन पर कोई भी लिख दे और कैसे भी लिख दे, गलत स्पेलिंग के साथ, अशुद्ध वाक्य के साथ, कमजोर फैक्ट्स के साथ रीडर्स सुधारकर अपनी सुविधानुसार पढ़ लेगी। तो क्या फिर हिन्दी ब्ल़ॉगिंग भी हिन्दी चैनलों की राह पर चल निकला है।
आप अगर अपने मां-बाबूजी के पैर छूकर या फिर दोस्तों को हाथ हिलाकर नयी दिल्ली रेलवे स्टेशन से विदा करना चाहते हैं तो इसके लिए आपको 250 रुपये देने पड़ेगें। हो सकता है इस काम के लिए आपको बहुत जिल्लत भी उठानी पड़े।
कल रात भैया को छोड़ने नयी दिल्ली रेलवे स्टेशन गया। हम दोनों बहुत थके थे। लेकिन मेरे से ज्यादा खराब स्थिति भैया की थी। उन्हें एक बड़ा-सा जख्म हो गया था। मजबूरन हमें भी साथ जाना पड़ा। स्टेशन पहुंचने पर मैं प्लेटफार्म टिकट के लिए भटका। पुलिस से लेकर कुली तक पूछा तो सभी का एक ही जबाब था कि अब प्लेटफार्म टिकटें नहीं मिलती। मैं सबसे एक ही सवाल कर रहा था कि अगर टिकटें नहीं मिलती तो कोई प्लेटफॉर्म तक जाएगा कैसे। कोई तो बढ़ गया, किसी ने कहा-हमसे नहीं लालूजी से पूछिए तो किसी ने कहा, आप जाइए ही मत, जिनको यात्रा करनी है उन्हें जाने दीजिए। ऐसे कैसे हो सकता था कि मैं भइया को बिना ट्रेन में बिठाए लौट जाता।
इसी बीच मैंने एक अजीब नजारा देखा। एक पुलिसवाला जेनरल क्लास की टिकट काउंटर के पीछे किसी को पैसे लेकर दे रहा है। पहले तो मैंने सोचा कि हो सकता है इसे जाना नहीं होगा, इसलिए टिकट दे दिया होगा। लेकिन एकदम पास जाकर साइड में खड़ा हुआ तो उस बंदे को बोलते सुना कि- आप ज्यादा मांग रहे हैं। मैंने उस पुलिसवाले को गौर से देखा और मुझे भी जल्दी थी, आगे बढ़ गया। मैं बिना टिकट के उपर चढ़ गया और जो पुलिसवाले सामान चेक करते हैं, उनसे पूछा- भइया जब टिकटें मिलती ही नहीं तो हम जाएं कैसे। बंदे ने नोटिस की तरफ इशारा किया और अपने काम में लग गया।
नोटिस में साफ लिखा था कि- अगले आदेश तक प्लटफार्म टिकट नहीं मिलेगी और जो भी बिना टिकट के प्लेटफार्म पर आते हैं उन्हें २५० रुपये देने होगें। मैंने कहा, भाई साहब ये तो बहुत गड़बड़ है। उनका जबाब था, गड़बड़ क्या है, आप भी २५० रुपये दीजिए और जाइए। बगल में एक बंदा खड़ा था। उसने हंसते हुए कहा कि- हम भी २५० रुपये अभी दिया है। उसके हुलिए से साफ झलक रहा था कि वो २५० रुपये फाइन देने के बाद ऐसे हंसने की हैसियत नहीं रखता है। उसने पुलिसवाले से कहा- है तो दे दीजिए न और फिर हंसा। पुलिसवाले ने कहा- इनको कैसे दे दें, वो तो बहुत परेशान, दूसरे लोगों के लिए है। मुझे शक हुआ कि कहीं कोई और बात तो नहीं। मैं दुबारा पूछा-क्या ? दोनों ने एक साथ कहा- आपको कुछ नहीं कह रहे हैं। मजबूरन भइया को दो भारी बैग पकड़ाकर वापस उतरना पड़ा।
नीचे आकर पता नहीं मेरा क्या मन हुआ। जबसे मैंने पुलिसवाले को पैसे लेकर टिकट देते देखा था, तभी से मन में खटका हो रहा था। मैं नीचे उतरकर जेनरल टिकट काउंटर की लाइन में लग गया। भयानक भीड़ थी। सभी लाइनों में एक-दो पुलिसवाले दिख गए। तभी मेरे आगे खड़े एक पुलिसवाले ने पीछे मुड़कर देखा। ये वही पुलिसवाला था जो जिसे कि मैंने टिकट बेचते देखा था। मुझे देखते ही लाइन से बाहर हो गया और उल्टे मुझे ही कहने लगा-लाइन में रहिए और फिर दो-तीन बार यही बात दोहरायी। सभी लोग पहले से ही लाइन में लगे थे, उसे बोलने की कोई जरुरत नहीं थी। थोड़ी देर बाद मैं वापस आ गया।
मेरे दिमाग में ये सवाल अब भी बना हुआ है कि अगर ये पुलिसवाला ऑनड्यूटी था तो फिर टिकट क्यों कटा रहा था। औऱ अगर इसे कहीं जाना था तो फिर टिकट बेचकर, फिर से लाइन में क्यों खड़ा हो गया। सभी लाइनों पर एक-दो एक दो पुलिसवाले खड़े थे और टिकट खरीद रहे थे। कहीं ऑनड्यूटी पुलिसवाले की कमाई का जरिया जेनरल टिकट तो नहीं जिसे कि वो पीछ जाकर ज्यादा दामों पर बेचते हैं।
|
|
कल रात भैया को छोड़ने नयी दिल्ली रेलवे स्टेशन गया। हम दोनों बहुत थके थे। लेकिन मेरे से ज्यादा खराब स्थिति भैया की थी। उन्हें एक बड़ा-सा जख्म हो गया था। मजबूरन हमें भी साथ जाना पड़ा। स्टेशन पहुंचने पर मैं प्लेटफार्म टिकट के लिए भटका। पुलिस से लेकर कुली तक पूछा तो सभी का एक ही जबाब था कि अब प्लेटफार्म टिकटें नहीं मिलती। मैं सबसे एक ही सवाल कर रहा था कि अगर टिकटें नहीं मिलती तो कोई प्लेटफॉर्म तक जाएगा कैसे। कोई तो बढ़ गया, किसी ने कहा-हमसे नहीं लालूजी से पूछिए तो किसी ने कहा, आप जाइए ही मत, जिनको यात्रा करनी है उन्हें जाने दीजिए। ऐसे कैसे हो सकता था कि मैं भइया को बिना ट्रेन में बिठाए लौट जाता।
इसी बीच मैंने एक अजीब नजारा देखा। एक पुलिसवाला जेनरल क्लास की टिकट काउंटर के पीछे किसी को पैसे लेकर दे रहा है। पहले तो मैंने सोचा कि हो सकता है इसे जाना नहीं होगा, इसलिए टिकट दे दिया होगा। लेकिन एकदम पास जाकर साइड में खड़ा हुआ तो उस बंदे को बोलते सुना कि- आप ज्यादा मांग रहे हैं। मैंने उस पुलिसवाले को गौर से देखा और मुझे भी जल्दी थी, आगे बढ़ गया। मैं बिना टिकट के उपर चढ़ गया और जो पुलिसवाले सामान चेक करते हैं, उनसे पूछा- भइया जब टिकटें मिलती ही नहीं तो हम जाएं कैसे। बंदे ने नोटिस की तरफ इशारा किया और अपने काम में लग गया।
नोटिस में साफ लिखा था कि- अगले आदेश तक प्लटफार्म टिकट नहीं मिलेगी और जो भी बिना टिकट के प्लेटफार्म पर आते हैं उन्हें २५० रुपये देने होगें। मैंने कहा, भाई साहब ये तो बहुत गड़बड़ है। उनका जबाब था, गड़बड़ क्या है, आप भी २५० रुपये दीजिए और जाइए। बगल में एक बंदा खड़ा था। उसने हंसते हुए कहा कि- हम भी २५० रुपये अभी दिया है। उसके हुलिए से साफ झलक रहा था कि वो २५० रुपये फाइन देने के बाद ऐसे हंसने की हैसियत नहीं रखता है। उसने पुलिसवाले से कहा- है तो दे दीजिए न और फिर हंसा। पुलिसवाले ने कहा- इनको कैसे दे दें, वो तो बहुत परेशान, दूसरे लोगों के लिए है। मुझे शक हुआ कि कहीं कोई और बात तो नहीं। मैं दुबारा पूछा-क्या ? दोनों ने एक साथ कहा- आपको कुछ नहीं कह रहे हैं। मजबूरन भइया को दो भारी बैग पकड़ाकर वापस उतरना पड़ा।
नीचे आकर पता नहीं मेरा क्या मन हुआ। जबसे मैंने पुलिसवाले को पैसे लेकर टिकट देते देखा था, तभी से मन में खटका हो रहा था। मैं नीचे उतरकर जेनरल टिकट काउंटर की लाइन में लग गया। भयानक भीड़ थी। सभी लाइनों में एक-दो पुलिसवाले दिख गए। तभी मेरे आगे खड़े एक पुलिसवाले ने पीछे मुड़कर देखा। ये वही पुलिसवाला था जो जिसे कि मैंने टिकट बेचते देखा था। मुझे देखते ही लाइन से बाहर हो गया और उल्टे मुझे ही कहने लगा-लाइन में रहिए और फिर दो-तीन बार यही बात दोहरायी। सभी लोग पहले से ही लाइन में लगे थे, उसे बोलने की कोई जरुरत नहीं थी। थोड़ी देर बाद मैं वापस आ गया।
मेरे दिमाग में ये सवाल अब भी बना हुआ है कि अगर ये पुलिसवाला ऑनड्यूटी था तो फिर टिकट क्यों कटा रहा था। औऱ अगर इसे कहीं जाना था तो फिर टिकट बेचकर, फिर से लाइन में क्यों खड़ा हो गया। सभी लाइनों पर एक-दो एक दो पुलिसवाले खड़े थे और टिकट खरीद रहे थे। कहीं ऑनड्यूटी पुलिसवाले की कमाई का जरिया जेनरल टिकट तो नहीं जिसे कि वो पीछ जाकर ज्यादा दामों पर बेचते हैं।
टेन जेन देंगे। एफजीसी देंगे। सीटी देंगे। इस तरह के ऑफर जब लड़की के बाप ने मेरे दोस्तों को देने शुरु किए तो मेरे दोस्त सब चकरा गए, घबरा गए। थोड़ी देर के लिए डर भी गए।...और मुझे फोन करके बताने लगे कि क्या करें यार, बड़ी मुसीबत में फंसे हैं।
पहले तो मुझसे येसब जानना चाह रहे थे कि इन सारे संक्षिप्त शब्दों के मायने क्या हैं। उसके बाद उनसे बचने के उपाय भी पूछने लगे।
मेरे कई दोस्तों की नौकरी देश के अलग-अलग हिस्सों में लग चुकी है। कुछ की मल्टीनेशनल कंपनी में, कुछ की मीडिया में, कुछ की सिविल सर्विसेज में और कुछ लोग जो अबतक पढ़ा है, उसे पढ़ाने या यों कहिए कि दुहराने का काम करने लगे हैं। सरकार इसके लिए पैसे देती है और अब वो लेक्चरर की श्रेणी में आते हैं।
सामाजिक हैसियत अब उनकी ऐसी है कि अब वो बाजार में बिकने के लायक बन चुके हैं। उन सबके बाबूजी उनको फोन करके तबाह कर रहे हैं कि अब नहीं करोगे तो कब करोगे। अब तो नौकरी भी लग गई है। पुरुषों की स्मार्टनेस उसकी नौकरी लग जाने पर ही है। बल्कि उसकी स्मार्टनेस तब और बढ़ जाती है जबकि उसे नौकरी लग जाए। समाज की नजर भी उस पर तभी पड़ती है। नहीं तो इसके पहले वो समाज की नजर में नकारा, आवारा, बेकार और लड़कियों के पीछे छुछुआनेवाला जीव है। खैर, मेरे लगभग सारे दोस्त इस बिरादरी से बाहर हो गए हैं।
पापा के फोन मेरे पास भी आते हैं। लेकिन थोड़े अलग किस्म से। वो कहते हैं कि- सामने वाले गुप्ताजी कह रहे थे कि- आपका लड़का अबी तक कौन-सी पढ़ाई पढ़ रहा है। पच्चीस से उपर होने जा रहा है और अभी तक पढ़ ही रहा है। कहीं ऐसा न हो कि बाजार रेट ही गिर जाए। मेरे एमए करने तक रेट दिनोंदिन बढ़ता जा रहा था लेकिन लोगों को भय है कि अब रेट गिरने न लग जाए। क्योंकि एमए तक जो बड़ी नौकरी की उम्मीद बंधी थी, उनके हिसाब से अब बेरोजगारी में तब्दील होने लगी है। मेरे घर के टोले-पड़ोस में हल्ला है कि बेइज्जती की वजह से मैं घर वापस नहीं आ रहा हूं, नहीं तो मेरा मामला पूरी तरह साफ है. दबी जुबान से लोग कहने भी लगे हैं कि देखिएगा, ये लड़का भी अपने बाप-भाइयों की तरह इसी शहर में साड़ी बिलाउज बेचने आएगा। इएचडी और पीएचडी सब ढकोसला है।
पापा से मैंने सवाल किया कि दाम गिर जाएगा लेकिन लड़की मिलेगी कि नहीं, गुप्ताजी से जरा पता करके फोन कीजिएगा।
ओह..हो, मैं भी बस चालू हो जाता हूं. फिलहाल उनकी बात करुं जो कि गर्व से अपने साथ नौकरी लेकर घर की तरफ वापस गए हैं, जो बिकने के लायक हो चुके है और जिनके लिए आए दिन ऑफर आने लगे हैं।
मेरे दोस्त ने उपर बताए शब्दों को जब सुना तो लगा कि किसी दवाई का नाम लिया जा रहा है. या फिर किसी बैंक की बहुत बड़ी पॉलिसी होगी। लेकिन जब चर्चा हुई तो सारी बातें डिटेल में समझ में आ गई।
टेन जेन का मतलब है- जेन गाड़ी और दस लाख कैश
एफजीसी का मतलब है- फ्लैट,गाड़ी और कैश
सीटी का मतलब है- कैश और ट्रांसफर
मेरे कुछ दोस्तों की बहाली अल्टर जगह में हो गयी है। इसलिए लड़कीवाले उन्हें मनमुताबिक जगह में ट्रांसफर कराने के लिए तैयार हैं। बस उसे हां कहना है।
सारे के सारे दोस्त घरवालों का दबाब झेल रहे हैं। एक दो की मां ने मदर्स डे के नाम पर वचन मांग लिया है कि दो साल के भीतर पोते का मुंह देखना चाहते हैं। एक की मां का कहना है कि बस बहुरिया के हाथ से दो जून की रोटी नसीब हो जाए। सेंटी वाक्यों से लदे मेरे दोस्त परेशान हैं कि करें तो करें क्या, जाएं तो जाएं कहां।
बाबूजी लोगों का कहना है कि तुम जल्दी से कुछ करो। आए दिन लड़कीवोलों को टाइम देने पड़ते हैं, खातिरदारी करनी पड़ती है। समय और पैसे हवा और पानी की तरह बह रहे हैं। कुछ तो कीलियर करो ताकि हम उनको जबाब दें।
जबकि मेरे दोस्तों की स्थिति कुछ अलग ही है-
जिन्हें प्रेम विवाह करना है, उनके साथी का अगले साल फाइनल पेपर है, नेट में एपीयर होना है। अगले साल इनक्रीमेंट के इन्तजार में हैं। एक दोस्त चाहती है कि एक कमरे का भी कम से कम फ्लैट हो जाए ताकि पति से मामला बिगड़ जाए तो भी सुकून से रह सके। उसे ड़र है कि उसका पति इतना खुले विचार का होगा भी कि नहीं कि उसे नाइट शिफ्ट में मीडिया की नौकरी करने देगा।
प्रेम विवाह करनेवाली एक दोस्त अपने मां-बाप के साथ धोखा नहीं करना चाहती। लेकिन मां द्वारा नापसंद किए गए अपने वर को ठुकरा भी नहीं सकती। फिलहाल महौल बनाना होगा और उसके लिए वक्त चाहिए। जबकि इधर लड़के के मां को पोते को खेलाने की इच्छा उफान पर है।
एक- दो साथी अपने को खुलेआम बेचना नहीं चाहते। उन्हें तरीके की लड़की मिल जाए, बस। अपने बिजी लाइफ में अफेयर कर नहीं सकते। तरीके की लड़की उसके घरवाले खोज सकते हैं। लेकिन उन्हें लगता है कि बिना दहेज के शादी करने की बात करनेवाला उनका लड़का पगला गया है। जब आज एक फोर्थ ग्रेड का आदमी पांच लाख उगाह ले रहा है तो उसका लड़का सिक्स प्वाइंट फाइव के पैकेज पर है। इसे पगलाना नहीं कहेंगे तो क्या कहेंगे।
जिनके मां-बाबूजी मुझे पर्सनली जानते हैं, फोन पर कहते हैं- बेटा समझाओ अपने दोस्त को। अभी नहीं करेगा तो कब करेगा। अच्छा, दिल्ली में कोई चक्कर तो नहीं है बेटा इसका. पता चला हम इधर डोरा बांट रहे हैं और सीधे आशीर्वाद देने भर के रह जाएं, बताना।
एक की मां ने पूछा कि- पूनमिया से अभीओ बतियाता है क्या।
एक के बाबूजी ने कहा- तुम्हारी नौकरी लग जाती तो क्या तुम बंड़े ऐसे ही बैठे रहते बेटा. नाती-पोता का मुंह देखने का मन किसको नहीं होता है।...और देखो अपने दोस्त हरीशचन्द्र को, लड़कीवाले दे रहे हैं और इ मना कर रहा है। गांजा पी लिया है।
एक लड़कीवाले ने दबी जुबान से कह भी दिया कि बताइए जनाब, आपके दोस्त तीस हजार महीना पाते हैं औऱ हमसे दहेज नहीं लेगें। अजी मैं तो कहता हूं, जरुर कोई ऐब या अंदरुनी कमजोरी होगी। आपको पता नहीं चलता होगा या बताया नहीं होगा। यहां रेडीवाले मुंह फाडे रहते हैं।
सारे साथियों की स्थिति बड़ी गड्डमड्ड है। वो कुछ दिन और फ्री रहना चाहते हैं। ऐसे ही जीना चाहते है। शादी करना भी चाहते हैं तो भी अपनी शर्तों और सुविधा के हिसाब से। हमसे मदद मांगते हैं।
मदद के नाम पर मैं उनके लिए कमरे खोज सकता हूं। गवाह जुटा सकता हूं और गृहस्थी में दो-तीन तिनके जोड़ सकता हूं। उनके समर्थन में, दहेज के खिलाफ पोस्ट लिख सकता हूं। बाकी तय करना तो उनका ही काम है। बोलिए कुछ गलत कहा।..
टिप्पणी- पोस्ट के उपर टिप्पणी के साथ-साथ स्थिति विशेष को लेकर सुझाव आमंत्रित हैं।
|
|
पहले तो मुझसे येसब जानना चाह रहे थे कि इन सारे संक्षिप्त शब्दों के मायने क्या हैं। उसके बाद उनसे बचने के उपाय भी पूछने लगे।
मेरे कई दोस्तों की नौकरी देश के अलग-अलग हिस्सों में लग चुकी है। कुछ की मल्टीनेशनल कंपनी में, कुछ की मीडिया में, कुछ की सिविल सर्विसेज में और कुछ लोग जो अबतक पढ़ा है, उसे पढ़ाने या यों कहिए कि दुहराने का काम करने लगे हैं। सरकार इसके लिए पैसे देती है और अब वो लेक्चरर की श्रेणी में आते हैं।
सामाजिक हैसियत अब उनकी ऐसी है कि अब वो बाजार में बिकने के लायक बन चुके हैं। उन सबके बाबूजी उनको फोन करके तबाह कर रहे हैं कि अब नहीं करोगे तो कब करोगे। अब तो नौकरी भी लग गई है। पुरुषों की स्मार्टनेस उसकी नौकरी लग जाने पर ही है। बल्कि उसकी स्मार्टनेस तब और बढ़ जाती है जबकि उसे नौकरी लग जाए। समाज की नजर भी उस पर तभी पड़ती है। नहीं तो इसके पहले वो समाज की नजर में नकारा, आवारा, बेकार और लड़कियों के पीछे छुछुआनेवाला जीव है। खैर, मेरे लगभग सारे दोस्त इस बिरादरी से बाहर हो गए हैं।
पापा के फोन मेरे पास भी आते हैं। लेकिन थोड़े अलग किस्म से। वो कहते हैं कि- सामने वाले गुप्ताजी कह रहे थे कि- आपका लड़का अबी तक कौन-सी पढ़ाई पढ़ रहा है। पच्चीस से उपर होने जा रहा है और अभी तक पढ़ ही रहा है। कहीं ऐसा न हो कि बाजार रेट ही गिर जाए। मेरे एमए करने तक रेट दिनोंदिन बढ़ता जा रहा था लेकिन लोगों को भय है कि अब रेट गिरने न लग जाए। क्योंकि एमए तक जो बड़ी नौकरी की उम्मीद बंधी थी, उनके हिसाब से अब बेरोजगारी में तब्दील होने लगी है। मेरे घर के टोले-पड़ोस में हल्ला है कि बेइज्जती की वजह से मैं घर वापस नहीं आ रहा हूं, नहीं तो मेरा मामला पूरी तरह साफ है. दबी जुबान से लोग कहने भी लगे हैं कि देखिएगा, ये लड़का भी अपने बाप-भाइयों की तरह इसी शहर में साड़ी बिलाउज बेचने आएगा। इएचडी और पीएचडी सब ढकोसला है।
पापा से मैंने सवाल किया कि दाम गिर जाएगा लेकिन लड़की मिलेगी कि नहीं, गुप्ताजी से जरा पता करके फोन कीजिएगा।
ओह..हो, मैं भी बस चालू हो जाता हूं. फिलहाल उनकी बात करुं जो कि गर्व से अपने साथ नौकरी लेकर घर की तरफ वापस गए हैं, जो बिकने के लायक हो चुके है और जिनके लिए आए दिन ऑफर आने लगे हैं।
मेरे दोस्त ने उपर बताए शब्दों को जब सुना तो लगा कि किसी दवाई का नाम लिया जा रहा है. या फिर किसी बैंक की बहुत बड़ी पॉलिसी होगी। लेकिन जब चर्चा हुई तो सारी बातें डिटेल में समझ में आ गई।
टेन जेन का मतलब है- जेन गाड़ी और दस लाख कैश
एफजीसी का मतलब है- फ्लैट,गाड़ी और कैश
सीटी का मतलब है- कैश और ट्रांसफर
मेरे कुछ दोस्तों की बहाली अल्टर जगह में हो गयी है। इसलिए लड़कीवाले उन्हें मनमुताबिक जगह में ट्रांसफर कराने के लिए तैयार हैं। बस उसे हां कहना है।
सारे के सारे दोस्त घरवालों का दबाब झेल रहे हैं। एक दो की मां ने मदर्स डे के नाम पर वचन मांग लिया है कि दो साल के भीतर पोते का मुंह देखना चाहते हैं। एक की मां का कहना है कि बस बहुरिया के हाथ से दो जून की रोटी नसीब हो जाए। सेंटी वाक्यों से लदे मेरे दोस्त परेशान हैं कि करें तो करें क्या, जाएं तो जाएं कहां।
बाबूजी लोगों का कहना है कि तुम जल्दी से कुछ करो। आए दिन लड़कीवोलों को टाइम देने पड़ते हैं, खातिरदारी करनी पड़ती है। समय और पैसे हवा और पानी की तरह बह रहे हैं। कुछ तो कीलियर करो ताकि हम उनको जबाब दें।
जबकि मेरे दोस्तों की स्थिति कुछ अलग ही है-
जिन्हें प्रेम विवाह करना है, उनके साथी का अगले साल फाइनल पेपर है, नेट में एपीयर होना है। अगले साल इनक्रीमेंट के इन्तजार में हैं। एक दोस्त चाहती है कि एक कमरे का भी कम से कम फ्लैट हो जाए ताकि पति से मामला बिगड़ जाए तो भी सुकून से रह सके। उसे ड़र है कि उसका पति इतना खुले विचार का होगा भी कि नहीं कि उसे नाइट शिफ्ट में मीडिया की नौकरी करने देगा।
प्रेम विवाह करनेवाली एक दोस्त अपने मां-बाप के साथ धोखा नहीं करना चाहती। लेकिन मां द्वारा नापसंद किए गए अपने वर को ठुकरा भी नहीं सकती। फिलहाल महौल बनाना होगा और उसके लिए वक्त चाहिए। जबकि इधर लड़के के मां को पोते को खेलाने की इच्छा उफान पर है।
एक- दो साथी अपने को खुलेआम बेचना नहीं चाहते। उन्हें तरीके की लड़की मिल जाए, बस। अपने बिजी लाइफ में अफेयर कर नहीं सकते। तरीके की लड़की उसके घरवाले खोज सकते हैं। लेकिन उन्हें लगता है कि बिना दहेज के शादी करने की बात करनेवाला उनका लड़का पगला गया है। जब आज एक फोर्थ ग्रेड का आदमी पांच लाख उगाह ले रहा है तो उसका लड़का सिक्स प्वाइंट फाइव के पैकेज पर है। इसे पगलाना नहीं कहेंगे तो क्या कहेंगे।
जिनके मां-बाबूजी मुझे पर्सनली जानते हैं, फोन पर कहते हैं- बेटा समझाओ अपने दोस्त को। अभी नहीं करेगा तो कब करेगा। अच्छा, दिल्ली में कोई चक्कर तो नहीं है बेटा इसका. पता चला हम इधर डोरा बांट रहे हैं और सीधे आशीर्वाद देने भर के रह जाएं, बताना।
एक की मां ने पूछा कि- पूनमिया से अभीओ बतियाता है क्या।
एक के बाबूजी ने कहा- तुम्हारी नौकरी लग जाती तो क्या तुम बंड़े ऐसे ही बैठे रहते बेटा. नाती-पोता का मुंह देखने का मन किसको नहीं होता है।...और देखो अपने दोस्त हरीशचन्द्र को, लड़कीवाले दे रहे हैं और इ मना कर रहा है। गांजा पी लिया है।
एक लड़कीवाले ने दबी जुबान से कह भी दिया कि बताइए जनाब, आपके दोस्त तीस हजार महीना पाते हैं औऱ हमसे दहेज नहीं लेगें। अजी मैं तो कहता हूं, जरुर कोई ऐब या अंदरुनी कमजोरी होगी। आपको पता नहीं चलता होगा या बताया नहीं होगा। यहां रेडीवाले मुंह फाडे रहते हैं।
सारे साथियों की स्थिति बड़ी गड्डमड्ड है। वो कुछ दिन और फ्री रहना चाहते हैं। ऐसे ही जीना चाहते है। शादी करना भी चाहते हैं तो भी अपनी शर्तों और सुविधा के हिसाब से। हमसे मदद मांगते हैं।
मदद के नाम पर मैं उनके लिए कमरे खोज सकता हूं। गवाह जुटा सकता हूं और गृहस्थी में दो-तीन तिनके जोड़ सकता हूं। उनके समर्थन में, दहेज के खिलाफ पोस्ट लिख सकता हूं। बाकी तय करना तो उनका ही काम है। बोलिए कुछ गलत कहा।..
टिप्पणी- पोस्ट के उपर टिप्पणी के साथ-साथ स्थिति विशेष को लेकर सुझाव आमंत्रित हैं।
और एक बार फिर एक दलित भारतीय का सिस्टम से मोह भंग हुआ।..देश के और बेटियों के बाप की तरह एक और दलित लड़की के पिता को लगने लगा कि दलित के नाम पर जो कुछ भी किया जा रहा है वो सब पाखंड है। अगर वाकई दलितों की भलाई, समाज में दर्जा दिलाने और शोषण के खिलाफ कारवाई करने के कामों में तेजी आयी है तो कोई क्यों हमारी बच्ची को बेरहमी से पीटने और जलील करने के बाद भी छुट्टा घूम रहा है। सच मानिए दलितों के नाम पर राजनीति करने, घेराबेदी करने में और दलितों के लिए कुछ करने में बहुत फर्क है। ये बात अब हमको समझ में आने लगी है।
कल मैं कनकलता के बाबूजी से मिला। वही कनकलता जिसका जिक्र मैंने 5 मई की पोस्ट दलितों को गाली न भीदें, मार तो सकते ही हैं में किया था। जिसे कि मकान मालिक ने दलित जान लेने पर उसे और उसके भाई-बहनों को बुरी तरह पीटा था। मीडिया ने इसकी खबरें छापी और दिखाई भी थी।
कनकलता के बाबूजी सारा काम-धाम छोड़कर बोकारो से दिल्ली आ गए है और अभी तक जहां-तक की चक्कर लगा रहे हैं। उन्हें न्याय मिलता, इसके पहले ही कई कहानियां बन गयी।
पहली कहानी तो ये कि कनकलता और उसके भाई-बहन को मारने पर जो केस उसके मकान-मालिक के उपर बनी है वही केस उसके और उसके भाई -बहन के उपर भी लगी है। यानि कि इनलोगों ने भी मिलकर मकान-मालिक की पिटाई की है। इस बात से हैरान जब उसके बाबूजी ने थाने के लोगों से बातचीत की तो उनका जबाब था कि- छोटी लड़की तो फिर भी थोड़ी मजबूत है लेकिन बड़ी लड़की यानि कनकलता को देखकर नहीं लगता कि वो किसी को मार सकती है। काफी कमजोर है। लेकिन केस तो केस है और अब उसे अपने बाबूजी के साथ दोहरी लड़ाई लड़नी पड़ रही है। एक तो खुद को बचाने के लिए और दूसरा कि मकान मालिक को सजा दिलाने के लिए।
वस्तुस्थिति ये है कि माकान-मालिक और उनके घर के लोग खुल्ला घूम रहे हैं, उन्हें किसी बात का ड़र नहीं है। उल्टे,
इनलोगों को लोगों से धमकियां मिल रही हैं। बाहरी लोगों से दबाब बनाया जा रहा है। उन्हें समझौता कर लेने के लिए मजबूर किया जा रहा है। उन्हें कहा जा रहा है कि हम आपके बच्चों को उठवा लेंगे। राह चलते और थाने में जाकर कहा कि- केस करेगी, भगवान ने दलितों को न शक्ल ही दिया और न ही अक्ल।
इधर, बाप-बेटी का जहां-तहां चक्कर लगाते बुरा हाल है.बाबूजी को तो सबसे बड़ी हैरानी इस बात को लेकर है कि दिल्ली जैसे शहर में इतना सबकुछ हो गया और कोई कारवाई नहीं और उल्टे उन्हीं पर केस। दुखी होकर कहा- बताओ बेटा, एक लाख का ऑफर दे रहा है और कह रहा है कि कॉम्परमाइज कर लो। हम अपने बच्चों की इज्जत का सौदा करेंगे।
बेटी के साथ वो लगातार दूसरी जगहों के साथ-साथ लगातार यूनिवर्सिटी का चक्कर लगा रहे हैं। डूसू के लोगों से मिल रहे हैं जहां से उन्हें जबाब मिला है कि ये फैमिली मैटर है, इसमें वो क्या कर सकते हैं? शिक्षकों और विश्वविद्यालय प्रशासन से मिल रहे हैं। लेकिन इन सबसे एक टालू किस्म का जबाब मिल रहा है। कोई भी बात को सीरियसली नहीं ले रहा।
दलित-विमर्श के नाम पर सेमिनार में मंचों की रौनक बढ़ाने वाले लोग कटने लगे हैं। सहानुभूति और तर्क के अतिरिक्त उनके पास ऐसा कुछ भी नहीं है कि कनकलता की परेशानियों के बीच काम आए।
कितना खोखला है सबकुछ यहां, खाली दूर बैठकर देखने से ही लगता है कि दिल्ली में बहुत जागरुकता है, वहां लॉ- ऑर्डर ठीक से काम करता है। इस तरह की बातें जब उसके बाबूजी कर रहे थे तो हमारे पास कोई ठोस तर्क नहीं था कि हम उनकी बातों को काट सकें।
अब तक दसों लोगों के मां-बाप के सामने जो हम ढींग हांकते आए कि हमारी यूनिवर्सिटी में काफी कुछ बदल गया है. यहां हिन्दी में भी सिर्फ कविता-कहानी नहीं पढ़ाए जाते, अस्मिता विमर्श भी पढ़ाए जाते हैं, दलित मुद्दों पर रिसर्च का काम होता है और स्त्री- विमर्श के बारे में सबकुछ पढ़ना पड़ता है, सब बेकार लगने लगा। सब खोखला औऱ एक-दूसरे के परस्पर विरोधी।
पढ़ने-पढ़ाने के स्तर पर हम जो भी पढ़ लें। आइडेंटिटी पॉलिटिक्स से लेकर सोशल जस्टिस तक। लेकिन जब तक इसे महज कोर्स के रुप में देखते-समझते रहेंगे, तब तक दादू पढ़े या दलित विमर्श, क्या फर्क पड़ता है. जो कुछ भी हम पढ़ रहे हैं, सरकार जो भी स्लोगन बना रही है, अगर वो सबकुछ हमारी प्रैक्टिस में नहीं है तो फिर क्या मतलब है...। सही तो कहा बाबूजी ने कि सब पाखंड है।
...और इन सबके बीच अगर किसी के भी बाबूजी कहने लगें कि पूरे हिन्दुस्तान की हालत एक सी है, सब जगह दलाल बैठे हैं तो अपने प्रांत की शेखी बघारने, कोर्स अपडेट होने और दिल्ली मेरी जान कहने से पहले दस बार तो सोचना पड़ेगा ही और सोचना भी चाहिए।
|
|
कल मैं कनकलता के बाबूजी से मिला। वही कनकलता जिसका जिक्र मैंने 5 मई की पोस्ट दलितों को गाली न भीदें, मार तो सकते ही हैं में किया था। जिसे कि मकान मालिक ने दलित जान लेने पर उसे और उसके भाई-बहनों को बुरी तरह पीटा था। मीडिया ने इसकी खबरें छापी और दिखाई भी थी।
कनकलता के बाबूजी सारा काम-धाम छोड़कर बोकारो से दिल्ली आ गए है और अभी तक जहां-तक की चक्कर लगा रहे हैं। उन्हें न्याय मिलता, इसके पहले ही कई कहानियां बन गयी।
पहली कहानी तो ये कि कनकलता और उसके भाई-बहन को मारने पर जो केस उसके मकान-मालिक के उपर बनी है वही केस उसके और उसके भाई -बहन के उपर भी लगी है। यानि कि इनलोगों ने भी मिलकर मकान-मालिक की पिटाई की है। इस बात से हैरान जब उसके बाबूजी ने थाने के लोगों से बातचीत की तो उनका जबाब था कि- छोटी लड़की तो फिर भी थोड़ी मजबूत है लेकिन बड़ी लड़की यानि कनकलता को देखकर नहीं लगता कि वो किसी को मार सकती है। काफी कमजोर है। लेकिन केस तो केस है और अब उसे अपने बाबूजी के साथ दोहरी लड़ाई लड़नी पड़ रही है। एक तो खुद को बचाने के लिए और दूसरा कि मकान मालिक को सजा दिलाने के लिए।
वस्तुस्थिति ये है कि माकान-मालिक और उनके घर के लोग खुल्ला घूम रहे हैं, उन्हें किसी बात का ड़र नहीं है। उल्टे,
इनलोगों को लोगों से धमकियां मिल रही हैं। बाहरी लोगों से दबाब बनाया जा रहा है। उन्हें समझौता कर लेने के लिए मजबूर किया जा रहा है। उन्हें कहा जा रहा है कि हम आपके बच्चों को उठवा लेंगे। राह चलते और थाने में जाकर कहा कि- केस करेगी, भगवान ने दलितों को न शक्ल ही दिया और न ही अक्ल।
इधर, बाप-बेटी का जहां-तहां चक्कर लगाते बुरा हाल है.बाबूजी को तो सबसे बड़ी हैरानी इस बात को लेकर है कि दिल्ली जैसे शहर में इतना सबकुछ हो गया और कोई कारवाई नहीं और उल्टे उन्हीं पर केस। दुखी होकर कहा- बताओ बेटा, एक लाख का ऑफर दे रहा है और कह रहा है कि कॉम्परमाइज कर लो। हम अपने बच्चों की इज्जत का सौदा करेंगे।
बेटी के साथ वो लगातार दूसरी जगहों के साथ-साथ लगातार यूनिवर्सिटी का चक्कर लगा रहे हैं। डूसू के लोगों से मिल रहे हैं जहां से उन्हें जबाब मिला है कि ये फैमिली मैटर है, इसमें वो क्या कर सकते हैं? शिक्षकों और विश्वविद्यालय प्रशासन से मिल रहे हैं। लेकिन इन सबसे एक टालू किस्म का जबाब मिल रहा है। कोई भी बात को सीरियसली नहीं ले रहा।
दलित-विमर्श के नाम पर सेमिनार में मंचों की रौनक बढ़ाने वाले लोग कटने लगे हैं। सहानुभूति और तर्क के अतिरिक्त उनके पास ऐसा कुछ भी नहीं है कि कनकलता की परेशानियों के बीच काम आए।
कितना खोखला है सबकुछ यहां, खाली दूर बैठकर देखने से ही लगता है कि दिल्ली में बहुत जागरुकता है, वहां लॉ- ऑर्डर ठीक से काम करता है। इस तरह की बातें जब उसके बाबूजी कर रहे थे तो हमारे पास कोई ठोस तर्क नहीं था कि हम उनकी बातों को काट सकें।
अब तक दसों लोगों के मां-बाप के सामने जो हम ढींग हांकते आए कि हमारी यूनिवर्सिटी में काफी कुछ बदल गया है. यहां हिन्दी में भी सिर्फ कविता-कहानी नहीं पढ़ाए जाते, अस्मिता विमर्श भी पढ़ाए जाते हैं, दलित मुद्दों पर रिसर्च का काम होता है और स्त्री- विमर्श के बारे में सबकुछ पढ़ना पड़ता है, सब बेकार लगने लगा। सब खोखला औऱ एक-दूसरे के परस्पर विरोधी।
पढ़ने-पढ़ाने के स्तर पर हम जो भी पढ़ लें। आइडेंटिटी पॉलिटिक्स से लेकर सोशल जस्टिस तक। लेकिन जब तक इसे महज कोर्स के रुप में देखते-समझते रहेंगे, तब तक दादू पढ़े या दलित विमर्श, क्या फर्क पड़ता है. जो कुछ भी हम पढ़ रहे हैं, सरकार जो भी स्लोगन बना रही है, अगर वो सबकुछ हमारी प्रैक्टिस में नहीं है तो फिर क्या मतलब है...। सही तो कहा बाबूजी ने कि सब पाखंड है।
...और इन सबके बीच अगर किसी के भी बाबूजी कहने लगें कि पूरे हिन्दुस्तान की हालत एक सी है, सब जगह दलाल बैठे हैं तो अपने प्रांत की शेखी बघारने, कोर्स अपडेट होने और दिल्ली मेरी जान कहने से पहले दस बार तो सोचना पड़ेगा ही और सोचना भी चाहिए।
इंडियन ऑथिरिटी अभी तक जिन कलंकों को मानने से इन्कार करती आयी है, ये उससे भी बड़ा कलंक है। मुझे नेताओं से ज्यादा गुस्सा उन पत्रकारों पर आया। द टाइम्स ऑफ इंडिया भारत का सबसे बड़ा अखबार है और उसने जीविका के लिए भोपाल से दिल्ली आए लोगों के बार में एक शब्द नहीं लिखा.
( The fact that the Times of India, which is the biggest paper here, never said a word about the bhopal survivors coming to delhi...I find it more of scandal than the indian authorities who refused to receive them. i'm much angier at them than at the poiticians.
DOMINIQUE LAPIERRE, interview with Raghu Karanad, tehelka. vol 5 issue 20,page no-45, 24 MAY 08)
25 वर्षों से भोपाल और देश के दूसरे हिस्सों में लगातार काम करनेवाले, सिटी ऑफ ज्वॉय, फ्रीडम एट मिडनाइट और फाइव पास्ट मिडनाइट इन भोपाल के लेखक डॉमिनिक लैपीअरे ने देश के एक बड़े अखबार के रवैये पर टिप्पणी करके भारत में काम कर रही मीडिया के सच को हमारे सामने लाकर रख दिया.
लैपीयरे को इस साल पद्म भूषण से नवाजा गया है। वो पिछले पच्चीस साल से भोपाल, बंगाल और देश के दूसरे हिस्सों में लगातार सेवा का काम करते आ रहे हैं। हिन्दुस्तान की स्थिति और यहां की संभावनाओं पर किताब लिखते रहे हैं। हममें से सब ए सिटी ऑफ ज्वॉय के कायल रहे हैं। अपनी अभिव्यक्ति और काम के मामले में वो उतने ही भारतीय हैं जितने कि आप और हम। इसलिए अगर उनकी बात को एक भारतीय की भी बात के रुप में शामिल करके समझें तो मुझे नहीं लगता कि कोई परेशानी है।
लैपीअरे ने भोपाल गैस कांड के बाद अपनी जीविका के लिए भोपाल से पलायन कर दिल्ली आकर रोजी-रोजगार खोजनेवालों के बारे में बात करते हैं। उनकी परेशानियों को समझने की कोशिश करते हैं और इसी बीच उन्हें एक बड़ी सच्चाई हाथ लगती है कि द टाइम्स ऑफ इंडिया जैसे अखबार ने इन लोगों की परेशानियों के बारे में एक शब्द भी नहीं लिखा। आप इसे क्या कहेंगे। कोई चूक, नजरअंदाज कर जाना, अखबार में स्पेस की कमी होना या फिर ऐसी खबरों का कोई खास मतलब नहीं होना। या फिर कुछ और....
लेकिन लैपीअरे के हिसाब से ये कलंक है। उन कलकों से भी बड़ा कलंक जिसे कि सरकार या प्रशासन तंत्र पचाने की कोशिश करती है, दबाती है, मानने से इन्कार करती है या फिर जांच के नाम पर कालीन के नीचे दबा देती है...और जब पत्रकार भी कुछ इसी तरह की कोशिशें करते हैं तो लैपीअरे को नेताओं से ज्यादा गुस्सा पत्रकारों पर आता है।
नेताओं पर गुस्सा आना एक इस्ट्रीम पोजिशन है। उससे ज्यादा गुस्सा आपको किसी पर भी नहीं आ सकता. क्योंकि हमारे सामने उनकी छवि ऐसी है कि हम मानकर चलते हैं कि उनसे ज्यादा कोई भ्रष्ट नहीं है लेकिन लैपीअरे को उससे भी ज्यादा गुस्सा आता है इन पत्रकारों पर जो कि मुद्दों को दबाने का काम करते हैं। आप इन पत्रकारों को क्या कहेंगे.......?
|
|
( The fact that the Times of India, which is the biggest paper here, never said a word about the bhopal survivors coming to delhi...I find it more of scandal than the indian authorities who refused to receive them. i'm much angier at them than at the poiticians.
DOMINIQUE LAPIERRE, interview with Raghu Karanad, tehelka. vol 5 issue 20,page no-45, 24 MAY 08)
25 वर्षों से भोपाल और देश के दूसरे हिस्सों में लगातार काम करनेवाले, सिटी ऑफ ज्वॉय, फ्रीडम एट मिडनाइट और फाइव पास्ट मिडनाइट इन भोपाल के लेखक डॉमिनिक लैपीअरे ने देश के एक बड़े अखबार के रवैये पर टिप्पणी करके भारत में काम कर रही मीडिया के सच को हमारे सामने लाकर रख दिया.
लैपीयरे को इस साल पद्म भूषण से नवाजा गया है। वो पिछले पच्चीस साल से भोपाल, बंगाल और देश के दूसरे हिस्सों में लगातार सेवा का काम करते आ रहे हैं। हिन्दुस्तान की स्थिति और यहां की संभावनाओं पर किताब लिखते रहे हैं। हममें से सब ए सिटी ऑफ ज्वॉय के कायल रहे हैं। अपनी अभिव्यक्ति और काम के मामले में वो उतने ही भारतीय हैं जितने कि आप और हम। इसलिए अगर उनकी बात को एक भारतीय की भी बात के रुप में शामिल करके समझें तो मुझे नहीं लगता कि कोई परेशानी है।
लैपीअरे ने भोपाल गैस कांड के बाद अपनी जीविका के लिए भोपाल से पलायन कर दिल्ली आकर रोजी-रोजगार खोजनेवालों के बारे में बात करते हैं। उनकी परेशानियों को समझने की कोशिश करते हैं और इसी बीच उन्हें एक बड़ी सच्चाई हाथ लगती है कि द टाइम्स ऑफ इंडिया जैसे अखबार ने इन लोगों की परेशानियों के बारे में एक शब्द भी नहीं लिखा। आप इसे क्या कहेंगे। कोई चूक, नजरअंदाज कर जाना, अखबार में स्पेस की कमी होना या फिर ऐसी खबरों का कोई खास मतलब नहीं होना। या फिर कुछ और....
लेकिन लैपीअरे के हिसाब से ये कलंक है। उन कलकों से भी बड़ा कलंक जिसे कि सरकार या प्रशासन तंत्र पचाने की कोशिश करती है, दबाती है, मानने से इन्कार करती है या फिर जांच के नाम पर कालीन के नीचे दबा देती है...और जब पत्रकार भी कुछ इसी तरह की कोशिशें करते हैं तो लैपीअरे को नेताओं से ज्यादा गुस्सा पत्रकारों पर आता है।
नेताओं पर गुस्सा आना एक इस्ट्रीम पोजिशन है। उससे ज्यादा गुस्सा आपको किसी पर भी नहीं आ सकता. क्योंकि हमारे सामने उनकी छवि ऐसी है कि हम मानकर चलते हैं कि उनसे ज्यादा कोई भ्रष्ट नहीं है लेकिन लैपीअरे को उससे भी ज्यादा गुस्सा आता है इन पत्रकारों पर जो कि मुद्दों को दबाने का काम करते हैं। आप इन पत्रकारों को क्या कहेंगे.......?
महमूद फारुकी साहब ने कल रात जब दास्तान गोई में अय्यारी और जादूगरी का किस्सा सुनाया जिसमें चारों तरफ से सुरक्षा के नाम पर प्रहरी के घेर लेने पर जुडूम-जुडूम की आवाज आती थी तो मुझे बस एक ही बात समझ में आयी कि-
|
|
यदि देश की सुरक्षा यही होती है
कि बिना ज़मीर होना ज़िंदगी के लिए शर्त बन जाए
आंख की पुतली में 'हां'के सिवाय कोई भी शब्द
अश्लील हो
और मन बदकार पलों के सामने दंडवत झुका रहे
तो हमें देश की सुरक्षा से खतरा है
कि बिना ज़मीर होना ज़िंदगी के लिए शर्त बन जाए
आंख की पुतली में 'हां'के सिवाय कोई भी शब्द
अश्लील हो
और मन बदकार पलों के सामने दंडवत झुका रहे
तो हमें देश की सुरक्षा से खतरा है
फारुकी साहब की दास्तान गोई में भी कुछ ऐसा ही हो रहा था जहां जादूगर अय्यारों को कुछ इस तरह की सुरक्षा दे रहे थे कि अय्यार तबाह-तबाह हो गए। लेकिन ये जादूगर एक सुरक्षित मुल्क बनाने पर आमादा थे। फारुकी साहब के हिसाब से वो मुल्क-ए-कोहिस्तान बनाना चाह रहे थे। जहां के लिए सबसे खतरनाक शब्द था- आजादी।
हमारे देश की सरकार भी एक सुरक्षित मुल्क बनाने में जी-जान से जुटी है। वो देश के नागरिकों को सुरक्षा देना चाहती है। लेकिन बिना उनसे पूछे और बिना उनसे जानें कि उन्हें उस सुरक्षा की जरुरत है भी है या नहीं या फिर लोग आखिर सुरक्षा चाहते भी हैं तो किससे। बिना जनता की इच्छा के जो सुरक्षा मिलती है उसे आप क्या कहेंगे? छत्तीसगढ़ की सरकार तो मानकर चल रही है कि उनकी जनता बहुत तकलीफ में है और असुरक्षित भी। तकलीफ की बात तो बाद में देखेंगे लेकिन फिलहाल तो उन्हें सुरक्षित रखना जरुरी है। ये मौका थोड़े ही है कि जनता तय करे कि उन्हें सुरक्षा चाहिए कि नहीं। जब सरकार को पता है कि उसकी जनता सुरक्षित नहीं है तो फिर जानते हुए वो अपनी प्यारी जनता को मरने कैसे दे। यह मामला जनता की पसंद-नापसंद का नहीं है। ये मामला है जनता को बचाने का और ऐसी विपत घड़ी में बचाने के लिए छत्तीसगढ़ की सरकार के पास जो सबसे ज्यादा उम्दा तरीका है- वो है सलवा जुडूम। लेकिन सवाल है कि सरकार के रहते जनता को खतरा है भी तो किससे।
छत्तीसगढ़ की सरकार के मुताबिक वहां की जनता को, वहां के जगलों में बसनेवाले आदिवासियों को माओवादियों से खतरा है। वो आदिवासियों को सताते हैं। वो जल, जंगल जमीन और दूसरे साधनों पर कब्जा करके जनता को इन सबसे महरुम करते हैं। वो बिजली के खंभों को उखाड़ फेंकते हैं। यानि ये माओवादी जनता के विरोधी हैं इसलिए सरकार के विरोधी हैं औऱ जब इसने पूरे इलाकों में त्राहि मचा रखा है जहां कि जनता सुरक्षित नहीं है तो फिर कैसे उनके बीच छोड़ दिया जाए। इसलिए क्यों न सुरक्षा के मजबूत घेरे का इंतजाम किया जाए। सलवा जुडूम इसी मजबूती के घेरे का नाम है।
लेकिन असल सवाल है कि इस सुरक्षा घेरे में राज्य की जनता और आदिवासी वाकई सुरक्षित है। सरकार के हिसाब से सुरक्षा की परिभाषा में एक इँसान के सिर्फ सांस लेते रहना भर है तब तो वो वाकई सुरक्षित हैं। कोई उन्हें मार नहीं सकता। लेकिन सरकार से कोई पूछे कि बिना मतलब के सांसों के लेने औऱ चलने का क्या मतलब है। बस जिन्दा शब्द को बचाए रखने के लिए सरकार इतना सब कुछ कर रही है तो फिर मजबूरन सरकार को सुरक्षा की परिभाषा में फेरबदल करनी होगी।
सरकार सलवा जुडूम के जरिए जिस गांव और बस्ती से लोगों को बाहर निकालकर, उन्हें कैम्प औऱ शिविरों में डालकर वहां पर हथियार बंद दस्ते तैनात कर दिए हैं वहां सुरक्षित और असुरक्षिक के क्या मायने रह जाते हैं। जिस गांव में खेत लहलहाने चाहिए, पंगडंडियों पर लोगों का आना जाना बना रहता वहां पर सिर्फ औऱ सिर्फ दहशत औऱ दस्तों के जूतों के टापों के अलावे कुछ भी सुनाई नहीं देते. ऐसी सुरक्षा कायम करके सरकार आखिर साबित क्या करना चाहती है।
दूसरी तरफ सलवा जुडूम के नाम पर सैंकड़ों लोगों को गांव से निकाल-बाहर किया गया, मारा गया। 664 गांव के लोगों को जबर्दस्ती निकालकर उन्हें मात्र 27 कैम्पों में ठूंस दिया गया। उनके साथ जानवरों से भी बदतर बर्ताव किया गया। उनकी रोजी-रोटी छिन गयी। वो रातोंरात बेघर और बेरोजगार हो गए।.. उनके बच्चों की पढ़ाई छूट गयी। आप समझ सकते हैं कि सरकार के इस कदम से एक अच्छी-खासी पीढ़ी अभी से ही बेरोजगार पीढ़ी में कन्वर्ट होती जा रही है। इन सबके वाबजूद सरकार के हिसाब से ये सुरक्षित हैं, क्योंकि ये सांस लेने की स्थिति में हैं।
छत्तीसगढ़ सरकार की इस सुरक्षा नीति और सलवा जुडूम के खिलाफ जो कि मानव विरोधी नीति है, हजारों हाथ उठे हैं, हजारों लोगों ने आवाज बुलंद किए औऱ इसे खत्म करने की मांग की। सरकार को इन आवाजों के बीच एक आवाज सुनायी दी और उसने जल्द से जल्द इस आवाज को चुप करना चाहा। उस उठे हुए हाथ को नीचे करना चाहा। ये आवाज थी विनायक सेन की और उठे हाथ थे विनायक सेन की। आज वो जेल में हैं।
विनायक सेन सरकार की इसी सुरक्षा के खिलाफ आवाज उठाने के शिकार हुए। सरकार ने उनपर कई झूठे मुकदमें लगाए हैं। उन्हें दबाना चाहती है, उनकी आवाज को दबाना चाहती है. एक ऐसे सामाजिक कार्यकर्ता की आवाज को जिसके चिकित्सीय प्रयासों की कायल कभी खुद सरकार हुआ करती थी। एक ऐसे व्यक्ति की आवाज को दबाना चाहती है जिनके कामों की अगर काव्यात्मक अभिव्यक्ति दें तो-
या तो अ ब स की तरह जीना है या फिर सुकरात की तरह जहर पीना है..
नागरिक अधिकारों की बात करनेवाले, आदिवासियों के बीच चुपचाप इलाज करनेवाले विनायक सेन की गलती सिर्फ इतनी है कि वो जनता की तकलीफों की जड़ तक गए औ जब जड़ खोज निकाला तो पाया कि हमारे शोषक और सेवक की जड़े आपस में गुंथी पड़ी है. बस...
लेकिन फारुकी साहब के दास्तान गोई के शब्दों में- अय्यार एक ही थोड़े हैं जादूगर, किस-किस के चारो ओर सुरक्षा के फेरे डालोगे और उससे कब तक जुडूम-जुडूम की आवाज आती रहेगी?
हमारे देश की सरकार भी एक सुरक्षित मुल्क बनाने में जी-जान से जुटी है। वो देश के नागरिकों को सुरक्षा देना चाहती है। लेकिन बिना उनसे पूछे और बिना उनसे जानें कि उन्हें उस सुरक्षा की जरुरत है भी है या नहीं या फिर लोग आखिर सुरक्षा चाहते भी हैं तो किससे। बिना जनता की इच्छा के जो सुरक्षा मिलती है उसे आप क्या कहेंगे? छत्तीसगढ़ की सरकार तो मानकर चल रही है कि उनकी जनता बहुत तकलीफ में है और असुरक्षित भी। तकलीफ की बात तो बाद में देखेंगे लेकिन फिलहाल तो उन्हें सुरक्षित रखना जरुरी है। ये मौका थोड़े ही है कि जनता तय करे कि उन्हें सुरक्षा चाहिए कि नहीं। जब सरकार को पता है कि उसकी जनता सुरक्षित नहीं है तो फिर जानते हुए वो अपनी प्यारी जनता को मरने कैसे दे। यह मामला जनता की पसंद-नापसंद का नहीं है। ये मामला है जनता को बचाने का और ऐसी विपत घड़ी में बचाने के लिए छत्तीसगढ़ की सरकार के पास जो सबसे ज्यादा उम्दा तरीका है- वो है सलवा जुडूम। लेकिन सवाल है कि सरकार के रहते जनता को खतरा है भी तो किससे।
छत्तीसगढ़ की सरकार के मुताबिक वहां की जनता को, वहां के जगलों में बसनेवाले आदिवासियों को माओवादियों से खतरा है। वो आदिवासियों को सताते हैं। वो जल, जंगल जमीन और दूसरे साधनों पर कब्जा करके जनता को इन सबसे महरुम करते हैं। वो बिजली के खंभों को उखाड़ फेंकते हैं। यानि ये माओवादी जनता के विरोधी हैं इसलिए सरकार के विरोधी हैं औऱ जब इसने पूरे इलाकों में त्राहि मचा रखा है जहां कि जनता सुरक्षित नहीं है तो फिर कैसे उनके बीच छोड़ दिया जाए। इसलिए क्यों न सुरक्षा के मजबूत घेरे का इंतजाम किया जाए। सलवा जुडूम इसी मजबूती के घेरे का नाम है।
लेकिन असल सवाल है कि इस सुरक्षा घेरे में राज्य की जनता और आदिवासी वाकई सुरक्षित है। सरकार के हिसाब से सुरक्षा की परिभाषा में एक इँसान के सिर्फ सांस लेते रहना भर है तब तो वो वाकई सुरक्षित हैं। कोई उन्हें मार नहीं सकता। लेकिन सरकार से कोई पूछे कि बिना मतलब के सांसों के लेने औऱ चलने का क्या मतलब है। बस जिन्दा शब्द को बचाए रखने के लिए सरकार इतना सब कुछ कर रही है तो फिर मजबूरन सरकार को सुरक्षा की परिभाषा में फेरबदल करनी होगी।
सरकार सलवा जुडूम के जरिए जिस गांव और बस्ती से लोगों को बाहर निकालकर, उन्हें कैम्प औऱ शिविरों में डालकर वहां पर हथियार बंद दस्ते तैनात कर दिए हैं वहां सुरक्षित और असुरक्षिक के क्या मायने रह जाते हैं। जिस गांव में खेत लहलहाने चाहिए, पंगडंडियों पर लोगों का आना जाना बना रहता वहां पर सिर्फ औऱ सिर्फ दहशत औऱ दस्तों के जूतों के टापों के अलावे कुछ भी सुनाई नहीं देते. ऐसी सुरक्षा कायम करके सरकार आखिर साबित क्या करना चाहती है।
दूसरी तरफ सलवा जुडूम के नाम पर सैंकड़ों लोगों को गांव से निकाल-बाहर किया गया, मारा गया। 664 गांव के लोगों को जबर्दस्ती निकालकर उन्हें मात्र 27 कैम्पों में ठूंस दिया गया। उनके साथ जानवरों से भी बदतर बर्ताव किया गया। उनकी रोजी-रोटी छिन गयी। वो रातोंरात बेघर और बेरोजगार हो गए।.. उनके बच्चों की पढ़ाई छूट गयी। आप समझ सकते हैं कि सरकार के इस कदम से एक अच्छी-खासी पीढ़ी अभी से ही बेरोजगार पीढ़ी में कन्वर्ट होती जा रही है। इन सबके वाबजूद सरकार के हिसाब से ये सुरक्षित हैं, क्योंकि ये सांस लेने की स्थिति में हैं।
छत्तीसगढ़ सरकार की इस सुरक्षा नीति और सलवा जुडूम के खिलाफ जो कि मानव विरोधी नीति है, हजारों हाथ उठे हैं, हजारों लोगों ने आवाज बुलंद किए औऱ इसे खत्म करने की मांग की। सरकार को इन आवाजों के बीच एक आवाज सुनायी दी और उसने जल्द से जल्द इस आवाज को चुप करना चाहा। उस उठे हुए हाथ को नीचे करना चाहा। ये आवाज थी विनायक सेन की और उठे हाथ थे विनायक सेन की। आज वो जेल में हैं।
विनायक सेन सरकार की इसी सुरक्षा के खिलाफ आवाज उठाने के शिकार हुए। सरकार ने उनपर कई झूठे मुकदमें लगाए हैं। उन्हें दबाना चाहती है, उनकी आवाज को दबाना चाहती है. एक ऐसे सामाजिक कार्यकर्ता की आवाज को जिसके चिकित्सीय प्रयासों की कायल कभी खुद सरकार हुआ करती थी। एक ऐसे व्यक्ति की आवाज को दबाना चाहती है जिनके कामों की अगर काव्यात्मक अभिव्यक्ति दें तो-
या तो अ ब स की तरह जीना है या फिर सुकरात की तरह जहर पीना है..
नागरिक अधिकारों की बात करनेवाले, आदिवासियों के बीच चुपचाप इलाज करनेवाले विनायक सेन की गलती सिर्फ इतनी है कि वो जनता की तकलीफों की जड़ तक गए औ जब जड़ खोज निकाला तो पाया कि हमारे शोषक और सेवक की जड़े आपस में गुंथी पड़ी है. बस...
लेकिन फारुकी साहब के दास्तान गोई के शब्दों में- अय्यार एक ही थोड़े हैं जादूगर, किस-किस के चारो ओर सुरक्षा के फेरे डालोगे और उससे कब तक जुडूम-जुडूम की आवाज आती रहेगी?
ैसहादसों की खबर दिखाते समय चैनलों का चरित्र बिल्कुल अलग हो जाता है। वो और दिनों की अपेक्षा ज्यादा ऑडिएंस प्रो हो जाते हैं। ज्यादा संवेदनशील, भावुक और शायराना हो जाते हैं। ऐसे समय में वो न केवल सूचना देने का काम कर रहे होते हैं बल्कि समाजसेवी की भूमिका में आ जाते हैं। वो आपसे शांति बनाए रखने की बात करते हैं, रक्तदान दान करने की बात करते हैं, मदद के लिए आगे आने की बात करते हैं। जहां हादसे हुए हैं वहां की एतिहासिकता की याद दिलाकर आपको ज़ज्बाती बनाने की कोशिश करते हैं, वो अपनी एकरिंग से आपको एक्टिवेट करने का काम करते हैं। वो सबकुछ करते हैं जिससे आपको पूरा भरोसा हो जाए कि इस मुश्किल घड़ी मे वो आपके साथ हैं।
ऐसे समय में हम इतने बदहवास होते हैं, इतने घबराए होते हैं कि लगता है कोई हमारे साथ हो, हमें बैकअप दे और मीडिया सबसे पहले बैकअप देनी शुरु कर देती है। वो आपको बताने लग जाती है कि किस हेल्पलाइन पर आप सम्पर्क कर सकते हैं। सलामती के लिए स्क्रीन पर पट्टियां चलने लग जाती है। मरनेवालों के प्रति संवेदना व्यक्त करते हैं और घायलों को बचाने में सूचना और सम्पर्क के जरिए बचाने में लग जाते हैं।
एक घड़ी को आपको लगने लग जाएगा कि वाकई मीडिया जनपक्षधरता को लेकर चलनेवाली चीज है। बाकी के दिनों में आप खबर के नाम पर खली, रैम्प, क्रिकेट औऱ मसाले दिखाए जाने से चिढ़े रहते हैं, आज आप ठीक इसके उलट हो जाते हैं। आप मीडिया के प्रति सहानुभूति रखते हैं कि ये भी बेचारे क्या करें। बने रहने के लिए ये सब करना पड़ता है।
इधर हर एक खबर के बाद विज्ञापन दिखाने वाले चैनल भी सतर्क हो जाते हैं. वो घंटेभर तक बिना विज्ञापन दिखाए सिर्फ खबरें दिखाते रहते हैं। ताकि आपके भीतर खीज पैदा न हो, आप भटके नहीं और झल्लाकर चैनल न बदल दें। बिना विज्ञापन के जब आप सिर्फ खबर देख रहे होते हैं तो खबरों के प्रति एक रिदम बनती है, आप डिस्ट्रैक्ट नहीं होते और आप खबरों में खुद भी शामिल हो जाते हैं। तभी आप भी हादसे को लेकर भावुक, बेचैन और संवेदनशील भी होते हैं. और दिनों की तरह डेड बॉडी को देखकर नाक-भौं सिकोड़ने की कोशिश नहीं करते। इसके बजाए आपमें ये भाव जगने लगता है कि आज जयपुर में हुआ है तो हो सकता है, कल को दिल्ली में या फिर अपने ही शहर में हो जाए। आपकी चिंता का दायरा बढ़ता है और आप आज से साठ-सत्तर या फिर उससे भी पहले के इंसान बनने लग जाते हैं जहां मानवीयता एक मूल्य के रुप में मानी जाती रही है. साल में एक-दो मौके ऐसे आ ही जाते हैं जबकि हम सेल्फ से हटकर अदर्स पर आकर सोचना शुरु करते हैं। और ऐसे में चैनल भी आपको उसी ओर ले जाए तो आपको और भी अच्छा लगता है।
हादसे की इस घड़ी में आपकी मनःस्थिति और चैनल की रणनीति में कोई फर्क नहीं होता। आप भी सिर्फ और सिर्फ इंसानियत की बात सोचते हैं और चैनल भी. इसलिए दोनों को एक होने में वक्त नहीं लगता और फिर आपको पता भी नहीं चलता और ये चैनल आपकी भाषा बोलने लग जाते हैं और आप भावुक हो उठते हैं।
विज्ञापन नहीं होने की वजह से आपको चैनल को भी समझने का पूरा मौका मिलता है। क्योंकि इस बीच चैनल जो अपने कार्यक्रमों का विज्ञापन देते हैं वो आपको ठीक-ठीक समझ में आता है। वस्तु विज्ञापनों के बीच वो मिक्स नहीं होते। चैनल की सही पह इन्हीं हादसों के बीच बनती है। आप पूरी तरह आश्वस्त हो जाते हैं कि मीडिया जनपक्षधरता को तबज्जो देती है। ये चैनलों की महानता ही है कि इस दिन चड्डी, चप्पल और ठंड़ा न बेचकर हमें हालात से रुबरु कराती है।
इसके बाद मामला धीरे-धीरे बदलने लग जाता है। चैनल को जब ये भरोसा हो जाता है कि हमारी ऑडिएंस खबरों में पूरी तरह घुस चुकी है तो फिर उनका कुछ कलाबाजी करने का मन कर जाता है. क्योंकि जिस मीडिया की आदत में शामिल है, कलाबाजी दिखाना वो भला कितनी देर तक एक खबर को लेकर मौन बनी रहेगी।...और आप देखेंगे कि यहीं से हादसे की खबर कहीं और लग जाती है।
सबसे पहले सरकारी बयान शुरु होते हैं। राहत एवं बचाव कार्य के साथ मुआवजे की घोषणा हो जाए जिससे आम आदमी का गुस्सा थोड़ी देर के लिए थमे। सरकार के प्रति हमारा भरोसा बने। लेकिन फिर ऐसा न हो जाए कि आप पूरी तरह सरकार के भक्त ही हो जाएं। इसके लिए जरुरी है कि विपक्षी पार्टियों की बाइट सुनायी जाए। इससे आपको अंदाजा लग जाएगा कि गड़बड़ी कहां-कहां थी। आप इस बात का भी अंदाजा लगाने लग जाएंगे कि सरकारी लापरवाही के कारण ऐसा हुआ। अगर सरकारी सचेत रहती तो हमारे भाई और माताओं की जान जाने से बच जाती। आप इतने बौखलाए होते हैं कि आपका मन करता है कि अपना गुस्सा किस पर उतारें। आप विपक्षी पार्टियों की बाइट सुनकर सरकार के विरोध में चले जाते हैं। आपको लगने लग जाता है कि सरकार ने ही सब नरक किया है. आप कोसने लग जाते हैं, गरिआते हैं और आपका मन करता है कि सरकार को सड़क पर खींच लाएं और जनता की क्या औकात हैं उन्हें बताएं। लेकिन आप इतना ज्यादा टेंपर न हो जाएं कि आप देशद्रोही हो जाएं, अपने देश और वहां की सरकार के खिलाफ हो जाएं और बौखलाहट में देशविरोधी कारवाइयों को अंजाम न देने लग जाएं।
इसलिए तभी,
आप देखेंगे कि किसी आतंकवादी संगठन का नाम फ्लैश होने लग जाता है और उसके साथ किसी विदेशी शक्ति के हाथ होने की बात की जाने लगती है। आपका पूरा गुस्सा विदेशियों और आतंकवादी संगठनों पर शिफ्ट हो जाता है. आप पूरी तरह भारतीय होने लग जाते हैं। आप देश के लिए मर-मिटने को तैयार हो जाते हैं। चैनल जब आपसे ये कहता है कि इन आतंकवादियों के नापाक इरादों को हम कामयाब नहीं होने देगें। ये सवाल सिर्फ जयपुर का नहीं है पूरे देख का है तो एकबार फिर आप जोश से भर जाते हैं और आपमें नेशनल होने का बोध हो जाता है। चैनल आपकी इस पूरी मानसिकता के साथ चलता है या यों कहें कि चैनल और आप दोनों एकददूसरे की मानसिकता के साथ चलने लग जाते हैं।
लेकिन इसी बीच चैनल की जज्बाती एंकरिंग के बीच की मदद में आए सैंकड़ों हाथ, कोई मेडिकल स्टूडेंट जिसे की बचाव एवं सेवा कार्य में लगाया गया है, बड़े ही साफ शब्दों में कहने लग जाती है कि- नहीं मदद के लिए बहुत कम लोग आगे आ रहे हैं। हजार में से दस लोग आ रहे हैं खून देने और तब पीछे से आवाज आने पर फिर सुधार कर बोलती है कि नहीं दस भी नहीं आ रहे हैं। तब आपको एहसास होगा कि चैनल कुछ ज्यादा ही ज़ज्बाती हो गए। वो वस्तुस्थिति को धकेलकर मानवता का पाठ उच्चार रहे हैं।
ये सब करते-कराते हम, आप और चैनल खबरों से इतनी दूर चले जाते हैं, इतने साहित्यिक और भावुक हो जाते हैं। सच जानने के नाम पर इतने पॉलिटिकल होते चले जाते हैं कि हमारी सारी समझ मरनेवालों की संख्या, मुआवजे और दिया न रे बाबा के बीच उलझकर रह जाती है। सारा मामला इतना गोलमोल हो जाता है कि ही नहीं चल पाता, एक आम आदमी को समझ में ही नहीं आता कि को चैनल ने जो ज़ज्बाती घुट्टी दी है उसे लेना कैसे है और जो बातें होती रही उसका जमीनी अर्थ क्या है. ....और इतना थक भी तो जाते हैं कि इंसानी चीख शोर लगने लग जाते हैं।
घर के बाकी लोगों ने मजे लेने शुरु कर दिए थे। जिसकी चपेट में मां भी आ गयी। वो मजाक तो नहीं करती लेकिन जब घर में कोई नहीं होता तो बहुत ही गंभीर होकर पूछती, सही में कोई लड़की है क्या। मैं कहता, नहीं मां ऐसा कुछ भी नहीं है, होती तो बताता नहीं। मां जोर देकर कहती- नहीं बेटा, इस उमर में ऐसा होता है, कोई नई बात तो है नहीं। कुछ हुआ है तो बताने में क्या हर्ज है। मैं अपनी बात पर अड़ा रहता। आगे मां ऐसे सलाह देने लग जाती जैसे मैं सचमुच किसी लड़की के चक्कर में पड़ गया हूं और उसी की याद के कारण दिल्ली से आने पर खोया-खोया सा रहता हूं। सुस्त-सा पड़ा रहता हूं।
पहली बार मुझे मां की योग्यता पर शक हुआ। पहली बार लगा कि अब कोई टेक देनेवाला नहीं है। क्योंकि अब तक तो लगता रहा कि चाहे कुछ भी हो जाए, मां तो है ही, वो हमें अच्छी तरह समझती है।
लेकिन जब वो पापा पुराण सुनाने लग जाती तो मेरा भी दिल बैठने लग जाता। तुमसे क्या छिपा है, कितनी मुश्किल से सबसे लड़-झगड़कर भेजा है तुम्हें। कुछ नहीं भी करना तो कम से कम हमलोगों की लाज रख लेना बेटा। मैं फफक-फफककर रोने लग जाता। मेरे भीतर से एक साथ न जाने कितनी चीजें टूटने लग जाती औऱ लगता सबकुछ कलेजे पर आकर जमा हो गया है। मैं दिन-रात पड़ा रहता। दीदी लोग एक-दो बार मेरे कमरे में आती और कभी व्यंग्य से कभी दया से और कभी हिकारत से मेरी तरफ देखकर चली जाती।
मुझे अब समझ में आता है कि बीच-बीच में बच्चों के साथ-साथ मां-बाप की काउंन्सेलिंग कितनी जरुरी है। उस दौरान अगर मुझे किसी से नफरत होती तो मां से। बाकियों के बारे में सोचता कि ये तो शुरु से
ही ऐसे हैं। मां से ऐसी उम्मीद नहीं थी। गुस्सा तब और बढ़ जाता जब सोते हुए मेर माथे पर कोई भभूत लगाने लग जाती। करीब पन्द्रह दिन ऐसे ही कटे। अब घर के लोग बुरी तरह परेशान हो गए। दीदी ने कहा इसे डॉक्टर से दिखाओ और तब हमें डॉक्टर के पास ले जाया गया।
डॉक्टर के मुताबिक मैं डिप्रेशन का शिकार हो गया था। बताया कि इसका खास ख्याल रखिए। जो बात इसे पसंद नहीं बिल्कुल मत दुहराइए। इससे बहस मत कीजिए और जो कहे मान लीजिए। जो कहे खाने को वही दीजिए, अपनी तरफ से जिद मत कीजिए। साथ में खूब सारी दवाइयां लिख दी।
घर आकर इन सारी बातों को मां के सामने दुहराया गया। मैं तो अधमरा-सा पड़ा था। मां को सब जानकर बहुत अपसोस हुआ। दीदी को कोसती हुई बोला- हम तो हैं कि अनपढ़-गंवार, तुमलोग को भी पता नहीं था कि ऐसी भी कोई बीमारी है और दिनभर लड़की-लड़की बोलकर बच्चा को पगलाते रहे। वही कहें जब बीए तक में कुछ नहीं किया बेचारा तो अतरा में पतरा खोलेगा। उसके बाद लोगों ने चिढ़ाना बंद किया और मुझे मरीज का दर्जा मिल गया। कॉलोनी में दबी जुवान से ये भी सुनने को मिल जाता कि फलां बाबू का छोटका लड़का पगला गया है।
मां अपने लिए जितने भी पुण्य के काम करती। मेरे लिए पाप का काम करने के लिए उतनी ही तैयार रहती। मां कि नजर में पाप और पुण्य की पहचान एकदम साफ थी। इतनी साफ कि दिनभर माथा-पच्ची करते बाबाजी भी गश खा जाएं।
मां के हिसाब से सभी पापों में से एक पाप था-मांस, मछली खाना।छूना तक पाप समझती। लेकिन उस कार्तिक के महीने में जबकि मां रोज शाम को दिए जलाती,ये पाप कर गयी।
शाम को मुझे अचानक उबले हुए अंडे खाने का मन कर गया। मां को भी बताया। मां थोड़ी देर सोचती रही फिर चप्पल पहनकर गेट के बाहर चली गयी। ये भी नहीं बताया कि कहां जा रही है। मुझे लगा, कार्तिक के महीने में मेरी इस इच्छा को सुनकर शायद उसे बुरा लगा हो। करीब पच्चीस मिनट बाद हरी पत्तियों में लपेटे उबले अंडे लेकर खड़ी मिली.....और कहा, अब कम से कम बाहर तो आ जाओ,यहीं खा लो। मेरा मन किया कि मैं अंदर ही खा लूं और कहूं, ये सब ढोंग अपने पास रखो। लेकिन तब इतनी ताकत भी कहां थी देह में कि ऐसा कर सकूं। अंडे थमाने के बाद उस ठंड में खूब नहायी।...
मां की इन सब हरकतों से मैं अक्सर तय नहीं कर पाता कि मुझे करना क्या चाहिए। किस बात पर गुस्सा होना है और किस बात पर खुश पता ही नहीं चल पाता और नतीजा ये होता कि मां जिस उम्मीद से किसी काम को करती कि मैं खुश हो जाउँगा, मैं अक्सर नाराज हो जाता और बाद में एहसास होन पर पछताता।
घर से दिल्ली आने पर इतना कुछ भर देती कि लगेज उठाते हुए मन भन्ना जाता। और झल्लाते हुए कहता-इसे क्यों दे दिया, इतना तो घर में रहकर खाया हूं। मां सिर्फ इतना ही कहती- दिल्ली पहुंचते ही खाने का मन करेगा। और सचमुच में जो भी कष्ट होता, लाने में ही होता...जब एक-एक चीजों को खोलता तो आंखें भर जातीं, तभी मां का फोन आती...पॉलीछीन में अलग से नारियल का लड्डू डाल दिए थे, खाए थे। मैं पता नहीं क्यों भावुकता के बीच में ही व्यंग्य कर जाता कि- भेजी थी खाने के लिए तो क्या फेंक देते।
घर से निकलने के पहले कहता- लो अब आराम से रहना। मेरे चक्कर में तुम्हारे दस दिन बर्बाद हो गए। अब तुम्हारा पूजा-पाठ भी टाइम से होगा। मैं उसके आराध्य का जब तब मजाक उड़ाया करता हूं और वो कान पर हाथ सटाकर कहती है- सब माफ करिहो ठाकुरजी और खूब जोर-जोर से रोने लग जाती।
मां की बातें और मां की बातों का अंत नहीं है। लेकिन इतना तो जरुर है कि अगर मां को सिर्फ भावुक न होकर, तर्क पर, किताबी ज्ञान और डिग्रियों की गर्मी को साथ रखकर भी याद करुं तो भी मां से लगाव में रत्तीभर भी कमी नहीं आएगी। मेरी बात रखने के लिए वो हां में हां मिला भी दे तो भी चीजों को देखने और समझने का उसका अपना नजरिया है, न जाने कितने मुहावरे हैं, जिसे विश्लेषित करने के लिए मुझे न जाने कितने वाद पढ़ने पड़ जाएं और कितनी किताबों के रेफरेंस देने पड़ जाएं।
|
|
पहली बार मुझे मां की योग्यता पर शक हुआ। पहली बार लगा कि अब कोई टेक देनेवाला नहीं है। क्योंकि अब तक तो लगता रहा कि चाहे कुछ भी हो जाए, मां तो है ही, वो हमें अच्छी तरह समझती है।
लेकिन जब वो पापा पुराण सुनाने लग जाती तो मेरा भी दिल बैठने लग जाता। तुमसे क्या छिपा है, कितनी मुश्किल से सबसे लड़-झगड़कर भेजा है तुम्हें। कुछ नहीं भी करना तो कम से कम हमलोगों की लाज रख लेना बेटा। मैं फफक-फफककर रोने लग जाता। मेरे भीतर से एक साथ न जाने कितनी चीजें टूटने लग जाती औऱ लगता सबकुछ कलेजे पर आकर जमा हो गया है। मैं दिन-रात पड़ा रहता। दीदी लोग एक-दो बार मेरे कमरे में आती और कभी व्यंग्य से कभी दया से और कभी हिकारत से मेरी तरफ देखकर चली जाती।
मुझे अब समझ में आता है कि बीच-बीच में बच्चों के साथ-साथ मां-बाप की काउंन्सेलिंग कितनी जरुरी है। उस दौरान अगर मुझे किसी से नफरत होती तो मां से। बाकियों के बारे में सोचता कि ये तो शुरु से
ही ऐसे हैं। मां से ऐसी उम्मीद नहीं थी। गुस्सा तब और बढ़ जाता जब सोते हुए मेर माथे पर कोई भभूत लगाने लग जाती। करीब पन्द्रह दिन ऐसे ही कटे। अब घर के लोग बुरी तरह परेशान हो गए। दीदी ने कहा इसे डॉक्टर से दिखाओ और तब हमें डॉक्टर के पास ले जाया गया।
डॉक्टर के मुताबिक मैं डिप्रेशन का शिकार हो गया था। बताया कि इसका खास ख्याल रखिए। जो बात इसे पसंद नहीं बिल्कुल मत दुहराइए। इससे बहस मत कीजिए और जो कहे मान लीजिए। जो कहे खाने को वही दीजिए, अपनी तरफ से जिद मत कीजिए। साथ में खूब सारी दवाइयां लिख दी।
घर आकर इन सारी बातों को मां के सामने दुहराया गया। मैं तो अधमरा-सा पड़ा था। मां को सब जानकर बहुत अपसोस हुआ। दीदी को कोसती हुई बोला- हम तो हैं कि अनपढ़-गंवार, तुमलोग को भी पता नहीं था कि ऐसी भी कोई बीमारी है और दिनभर लड़की-लड़की बोलकर बच्चा को पगलाते रहे। वही कहें जब बीए तक में कुछ नहीं किया बेचारा तो अतरा में पतरा खोलेगा। उसके बाद लोगों ने चिढ़ाना बंद किया और मुझे मरीज का दर्जा मिल गया। कॉलोनी में दबी जुवान से ये भी सुनने को मिल जाता कि फलां बाबू का छोटका लड़का पगला गया है।
मां अपने लिए जितने भी पुण्य के काम करती। मेरे लिए पाप का काम करने के लिए उतनी ही तैयार रहती। मां कि नजर में पाप और पुण्य की पहचान एकदम साफ थी। इतनी साफ कि दिनभर माथा-पच्ची करते बाबाजी भी गश खा जाएं।
मां के हिसाब से सभी पापों में से एक पाप था-मांस, मछली खाना।छूना तक पाप समझती। लेकिन उस कार्तिक के महीने में जबकि मां रोज शाम को दिए जलाती,ये पाप कर गयी।
शाम को मुझे अचानक उबले हुए अंडे खाने का मन कर गया। मां को भी बताया। मां थोड़ी देर सोचती रही फिर चप्पल पहनकर गेट के बाहर चली गयी। ये भी नहीं बताया कि कहां जा रही है। मुझे लगा, कार्तिक के महीने में मेरी इस इच्छा को सुनकर शायद उसे बुरा लगा हो। करीब पच्चीस मिनट बाद हरी पत्तियों में लपेटे उबले अंडे लेकर खड़ी मिली.....और कहा, अब कम से कम बाहर तो आ जाओ,यहीं खा लो। मेरा मन किया कि मैं अंदर ही खा लूं और कहूं, ये सब ढोंग अपने पास रखो। लेकिन तब इतनी ताकत भी कहां थी देह में कि ऐसा कर सकूं। अंडे थमाने के बाद उस ठंड में खूब नहायी।...
मां की इन सब हरकतों से मैं अक्सर तय नहीं कर पाता कि मुझे करना क्या चाहिए। किस बात पर गुस्सा होना है और किस बात पर खुश पता ही नहीं चल पाता और नतीजा ये होता कि मां जिस उम्मीद से किसी काम को करती कि मैं खुश हो जाउँगा, मैं अक्सर नाराज हो जाता और बाद में एहसास होन पर पछताता।
घर से दिल्ली आने पर इतना कुछ भर देती कि लगेज उठाते हुए मन भन्ना जाता। और झल्लाते हुए कहता-इसे क्यों दे दिया, इतना तो घर में रहकर खाया हूं। मां सिर्फ इतना ही कहती- दिल्ली पहुंचते ही खाने का मन करेगा। और सचमुच में जो भी कष्ट होता, लाने में ही होता...जब एक-एक चीजों को खोलता तो आंखें भर जातीं, तभी मां का फोन आती...पॉलीछीन में अलग से नारियल का लड्डू डाल दिए थे, खाए थे। मैं पता नहीं क्यों भावुकता के बीच में ही व्यंग्य कर जाता कि- भेजी थी खाने के लिए तो क्या फेंक देते।
घर से निकलने के पहले कहता- लो अब आराम से रहना। मेरे चक्कर में तुम्हारे दस दिन बर्बाद हो गए। अब तुम्हारा पूजा-पाठ भी टाइम से होगा। मैं उसके आराध्य का जब तब मजाक उड़ाया करता हूं और वो कान पर हाथ सटाकर कहती है- सब माफ करिहो ठाकुरजी और खूब जोर-जोर से रोने लग जाती।
मां की बातें और मां की बातों का अंत नहीं है। लेकिन इतना तो जरुर है कि अगर मां को सिर्फ भावुक न होकर, तर्क पर, किताबी ज्ञान और डिग्रियों की गर्मी को साथ रखकर भी याद करुं तो भी मां से लगाव में रत्तीभर भी कमी नहीं आएगी। मेरी बात रखने के लिए वो हां में हां मिला भी दे तो भी चीजों को देखने और समझने का उसका अपना नजरिया है, न जाने कितने मुहावरे हैं, जिसे विश्लेषित करने के लिए मुझे न जाने कितने वाद पढ़ने पड़ जाएं और कितनी किताबों के रेफरेंस देने पड़ जाएं।
तुम जैसे पढ़े-लिखे आदमी के आगे हम जैसे अनपढ आदमी के बीन बजाने का कोई फायदा नहीं है। तुम वही करोगे जो तुम्हारा मन होगा। इतना कहने के वाबजूद भी वो फोन पर अक्सर दुनिया भर की नसीहतें झोंक देती हैं। खाने-पीने पर ध्यान देना,बिना बात के किसी से मत उलझना,पैसे बचाना मत जो मन आए खाना-पीना। कोई लादकर थोड़े ही ले जाता है। इधर भइया ने जबसे बताया है कि मैं इनटरनेट पर किसी-किसी के बारे में कुछ लिख देता हूं तो वो घबरा जाती है।
किसी के खिलाफ तुम लिखते हो तो वो तुमको चुम्मा थोड़े ही लेगा। कभी न कभी आंख पर चढ़ा लेगा. बेकार में काहे दुश्मनी मोल लेते हो. तुम बस अपने कोर्स का लिखा-पढ़ी करो। दुनिया का अखबार गलत-सलत छापता है,बेटी बहू के साथ बैठकर देखने लायक प्रोग्राम टीवी पर नहीं आता है तो क्या तुम सबको सुधार लेने का ठेका ले रखे हो। बहुत डरती है वो कि मेरे लिखने पर कोई दुश्मनी न निकाल ले।
आपकी जिंदगी में टीवी और रेडियो का कितना असर है , मैं नहीं जानता। लेकिन मेरे रोज की रुटिन का अच्छा-खासा समय टीवी और रेडियो के उपर जाता है. शाम के सात बजे के बाद मैं सिर्फ टीवी देखता हूं, उनके कार्यकर्मों की रिकॉर्डिंग करता हूं। मुझे बाहयात प्रोग्रामों को देखने पर भी संतोष मिलता है कि चलो आज भी किसी के खिलाफ जबरदस्ती का मोर्चा खोलने से बच गया। आज भी वेवजह किसी की शिकायत किसी से नहीं की। हॉस्टल से बाहर जितने समय तक रहता हूं, रेडियों सुनता हूं। ऐसा करने से एक अलग ढ़ंग का उत्साह बना रहता है। मेरे लिए एक थेरेपी है इन्हें सुनना और देखना. मेरे कई फैसले टीवी और रेडियो से तय होते हैं। कल की ही बात लीजिए न।...
मुझे नहीं पता कि मदर्स डे का क्या इतिहास है। स्टार प्लस पर जब मंदिरा ने कहा कि ये हमारे कैलेंडर का सबसे इम्पार्टेंट डे है तो मैं चौक गया कि भई किस कलेंडर में लिखा है। घर में रहा तो ठाकुर पंचाग को पलटता या फिर एलआइसी के कलेंडर और यहां हूं तो मंत्रालय के कलेंडर लेकिन दोनों में से कहीं भी इसका कोई जिक्र नहीं है। लेकिन रात के दस बजे से साढ़े ग्यारह बजे तक स्टार प्लस ने मदर्स डे स्पेशल के नाम पर जो जीता वही सुपरस्टार में ऑडिएंस को सेंटी करने की कोशिश की, उसका शिकार मैं भी हो गया।
विनीत,राजा, अभिजीत सामंत की तरह मैं कोई सिलेब्रेटी तो नहीं बन पाया कि मैं स्क्रीन पर दूर बैठी मां को मैसेज दे सकूं लेकिन उन सबकी मां और मेरी मां कॉमन है क्योंकि उनकी तरह मेरी मां ने भी मुझे कुछ अलग, डिफरेंट और काबिल बनाने की कोशिशें की।...और अभिजीत की मां की तरह दस पैसे गिरने पर खोज के ला कहां गिराया है,पैसे का महत्व बताती रही।
पेश है मां से जुड़ी कुछ यादें, कुछ बातें।
मुझे याद है बचपन मैं जिस मोहल्ले में रहता था, जहां हमारा अपना घर था, वहां बहुत ही अमीर किस्म के लोग रहते थे। पापा की भी औकात कुछ कम नहीं रही थी। लेकिन मेरे होने के कुछ साल पहले इमरजेंसी की मार कुछ ऐसे पढ़ी थी कि पापा बताते हैं कि भारी नुकसान हुआ था। उनकी दूकान तक तोड़ दी गयी थी औऱ जिसका फायदा लोकल लोगों ने उठाया था और बहुत सारा माल लूट ले गए। पापा के शब्दों में कहें तो सबकुछ लुट गया था। तब घर में सिर्फ जरुरत के सामान आते। फालतू चीजें बंद कर दी गयी थी। घी फालतू चीजों में शामिल थी।
मैं बाकी बच्चों को भी घी और चीनी लगाकर रोल करके रोटी खाते देखता जिसे हमलोग बांसुरी बनाकर खाना कहते तो मेरा भी मन करता। मां के पास जाता तो कभी-कभी डालड़ा यानि वनस्पति घी दे देती । दिन में भात बनाती और उसके पानी यानि माड के उपर की परत जिसे कि हम छाली कहते वो दे देती। बहुत बेकार लगता और मैं रोटी सहित उसे फेंक देता तो मां बहुत मारती, फिर गोद में लेकर खूब रोने लग जाती। पापा को कई चीजों के बारे में कहते सुनता-इसके बिना मर नहीं जाएगा कोई.
मैं जिस स्कूल में पढ़ता था वहां लोग स्टील या अल्यूमीनियम के बक्से ले जाया करते। मेरा भी मन होता। बहुत रोने पर पापा ने टीन की लाकर दिया तो था लेकिन बरसात आने पर उसमें जंग लग गयी और गर्मी की छुट्टी के बाद देखा तो सारे कॉपी किताब खराब हो गए थे। पापा बहुत नाराज हुए थे कि सब बर्बाद कर दिया। तब मां ने लकड़ी का श्रृंगारदान जिसे दी अब बेनेटी बॉक्स कहती है, दे दिया था। देखने में तो बहुत खूबसूरत था। कुछ दिन ले भी गया लेकिन बाद में सर लोग बहुत हंसते, लड़कियां कहतीं, हमसे बदला-बदली करोगे और एक दिन फादर ने कहा-कल से इसे लेकर आए तो बाहर खड़ा कर दूगा।
मैट्रिक के बाद मैं बाहर जाना चाहता था। लेकिन घर में कोई भी राजी नहीं था. पापा की इच्छा थी कि यहीं रहकर पढ़े औऱ शाम को लौंडों की संगति में रहकर बर्बाद न हो जाए सो दुकान आ जाया करे. लेकिन मां अड़ गयी थी। उसने सारे मामा को देखा था- इंजीनियरिंग और मेडिकल निकालकर लाइफ बनाते। पापा से खूब बहस करके मां ने मुझे रांची भेज दिया।
एक बार सेंट जेवियर्स से मेरा एक दोस्त आया मेरे घर।.. और पापा ने उसे टॉयलेट के पास सिगरेट पीते देख लिया। फिर क्या था वहीं पर शुरु हो गए। लड़के को रांची भेजा और मैं डेढ़ महीने तक घर में झक मारता रहा। पापा का साफ कहना था कि हमें ऐसी पढ़ाई नहीं करानी है। बहुत ही अवसाद के दिन थे वो। तब छोटे भइया आगे आए थे।
डिवेट बोलने पर एक बार मेरी रंगीन तस्वीर छपी थी, दैनिक हिन्दुस्तान में। लिखा था- बीए हिन्दी, सेकेण्ड इयर, हिन्दी से विनीत कुमार। मां को बहुत सदमा लगा कि इतनी मेहनत और लात-जूता खाने पर मैं हिन्दी पढ़ रहा हूं। साइंस नहीं। बस एक लाइन कहा था मां ने. अब किस बूते तुम्हारे लिए लड़ेंगे, बताओ। क्या करोगे इसे पढ़कर। तब से मां का मन कचोटता रहा और मैं बताता रहा कि मां मैं पत्रकार बनूंगा।
मां नानी के यहां सबसे बड़ी थी सो नाना की दूकान पर रोज बैठती। इस क्रम में लोकल अखबारों के पत्रकार बड़ी ही दीन हीन दशा में विज्ञापन के लिए आते। कई पत्रकार एक ही साथ कुछ दूसरे काम भी करते। मां भी उससे कुछ न कुछ करवा लेती। इसलिए मां के सामने पत्रकार की हैसियत अच्छी नहीं थी। उसे लगता कि इसका सब दिन मांगकर गुजारा होगा। तब और उदास हो गयी थी। लेकिन मेरे प्रति विशेष लगाव बना रहता। घर में सबसे छोटा था. अनुशासन बरतने के नाम पर हर कोई दो-चार हाथ जब तब आजमा लेता, व्यंगय करता,ताने मारता और तब मां एकदम से बड़े भाई-बहनों और कभी-कभी पापा के सामने कर देती। सब्जी काटनेवाला हंसिया लाती और कहती- काटकर फेंक दो इसे करेजा भर जाएगा सबका....
सुस्त-सुस्त सा रहता है कहीं लड़की का तो चक्कर नहीं। पढ़िए अगली किस्त में
|
|
किसी के खिलाफ तुम लिखते हो तो वो तुमको चुम्मा थोड़े ही लेगा। कभी न कभी आंख पर चढ़ा लेगा. बेकार में काहे दुश्मनी मोल लेते हो. तुम बस अपने कोर्स का लिखा-पढ़ी करो। दुनिया का अखबार गलत-सलत छापता है,बेटी बहू के साथ बैठकर देखने लायक प्रोग्राम टीवी पर नहीं आता है तो क्या तुम सबको सुधार लेने का ठेका ले रखे हो। बहुत डरती है वो कि मेरे लिखने पर कोई दुश्मनी न निकाल ले।
आपकी जिंदगी में टीवी और रेडियो का कितना असर है , मैं नहीं जानता। लेकिन मेरे रोज की रुटिन का अच्छा-खासा समय टीवी और रेडियो के उपर जाता है. शाम के सात बजे के बाद मैं सिर्फ टीवी देखता हूं, उनके कार्यकर्मों की रिकॉर्डिंग करता हूं। मुझे बाहयात प्रोग्रामों को देखने पर भी संतोष मिलता है कि चलो आज भी किसी के खिलाफ जबरदस्ती का मोर्चा खोलने से बच गया। आज भी वेवजह किसी की शिकायत किसी से नहीं की। हॉस्टल से बाहर जितने समय तक रहता हूं, रेडियों सुनता हूं। ऐसा करने से एक अलग ढ़ंग का उत्साह बना रहता है। मेरे लिए एक थेरेपी है इन्हें सुनना और देखना. मेरे कई फैसले टीवी और रेडियो से तय होते हैं। कल की ही बात लीजिए न।...
मुझे नहीं पता कि मदर्स डे का क्या इतिहास है। स्टार प्लस पर जब मंदिरा ने कहा कि ये हमारे कैलेंडर का सबसे इम्पार्टेंट डे है तो मैं चौक गया कि भई किस कलेंडर में लिखा है। घर में रहा तो ठाकुर पंचाग को पलटता या फिर एलआइसी के कलेंडर और यहां हूं तो मंत्रालय के कलेंडर लेकिन दोनों में से कहीं भी इसका कोई जिक्र नहीं है। लेकिन रात के दस बजे से साढ़े ग्यारह बजे तक स्टार प्लस ने मदर्स डे स्पेशल के नाम पर जो जीता वही सुपरस्टार में ऑडिएंस को सेंटी करने की कोशिश की, उसका शिकार मैं भी हो गया।
विनीत,राजा, अभिजीत सामंत की तरह मैं कोई सिलेब्रेटी तो नहीं बन पाया कि मैं स्क्रीन पर दूर बैठी मां को मैसेज दे सकूं लेकिन उन सबकी मां और मेरी मां कॉमन है क्योंकि उनकी तरह मेरी मां ने भी मुझे कुछ अलग, डिफरेंट और काबिल बनाने की कोशिशें की।...और अभिजीत की मां की तरह दस पैसे गिरने पर खोज के ला कहां गिराया है,पैसे का महत्व बताती रही।
पेश है मां से जुड़ी कुछ यादें, कुछ बातें।
मुझे याद है बचपन मैं जिस मोहल्ले में रहता था, जहां हमारा अपना घर था, वहां बहुत ही अमीर किस्म के लोग रहते थे। पापा की भी औकात कुछ कम नहीं रही थी। लेकिन मेरे होने के कुछ साल पहले इमरजेंसी की मार कुछ ऐसे पढ़ी थी कि पापा बताते हैं कि भारी नुकसान हुआ था। उनकी दूकान तक तोड़ दी गयी थी औऱ जिसका फायदा लोकल लोगों ने उठाया था और बहुत सारा माल लूट ले गए। पापा के शब्दों में कहें तो सबकुछ लुट गया था। तब घर में सिर्फ जरुरत के सामान आते। फालतू चीजें बंद कर दी गयी थी। घी फालतू चीजों में शामिल थी।
मैं बाकी बच्चों को भी घी और चीनी लगाकर रोल करके रोटी खाते देखता जिसे हमलोग बांसुरी बनाकर खाना कहते तो मेरा भी मन करता। मां के पास जाता तो कभी-कभी डालड़ा यानि वनस्पति घी दे देती । दिन में भात बनाती और उसके पानी यानि माड के उपर की परत जिसे कि हम छाली कहते वो दे देती। बहुत बेकार लगता और मैं रोटी सहित उसे फेंक देता तो मां बहुत मारती, फिर गोद में लेकर खूब रोने लग जाती। पापा को कई चीजों के बारे में कहते सुनता-इसके बिना मर नहीं जाएगा कोई.
मैं जिस स्कूल में पढ़ता था वहां लोग स्टील या अल्यूमीनियम के बक्से ले जाया करते। मेरा भी मन होता। बहुत रोने पर पापा ने टीन की लाकर दिया तो था लेकिन बरसात आने पर उसमें जंग लग गयी और गर्मी की छुट्टी के बाद देखा तो सारे कॉपी किताब खराब हो गए थे। पापा बहुत नाराज हुए थे कि सब बर्बाद कर दिया। तब मां ने लकड़ी का श्रृंगारदान जिसे दी अब बेनेटी बॉक्स कहती है, दे दिया था। देखने में तो बहुत खूबसूरत था। कुछ दिन ले भी गया लेकिन बाद में सर लोग बहुत हंसते, लड़कियां कहतीं, हमसे बदला-बदली करोगे और एक दिन फादर ने कहा-कल से इसे लेकर आए तो बाहर खड़ा कर दूगा।
मैट्रिक के बाद मैं बाहर जाना चाहता था। लेकिन घर में कोई भी राजी नहीं था. पापा की इच्छा थी कि यहीं रहकर पढ़े औऱ शाम को लौंडों की संगति में रहकर बर्बाद न हो जाए सो दुकान आ जाया करे. लेकिन मां अड़ गयी थी। उसने सारे मामा को देखा था- इंजीनियरिंग और मेडिकल निकालकर लाइफ बनाते। पापा से खूब बहस करके मां ने मुझे रांची भेज दिया।
एक बार सेंट जेवियर्स से मेरा एक दोस्त आया मेरे घर।.. और पापा ने उसे टॉयलेट के पास सिगरेट पीते देख लिया। फिर क्या था वहीं पर शुरु हो गए। लड़के को रांची भेजा और मैं डेढ़ महीने तक घर में झक मारता रहा। पापा का साफ कहना था कि हमें ऐसी पढ़ाई नहीं करानी है। बहुत ही अवसाद के दिन थे वो। तब छोटे भइया आगे आए थे।
डिवेट बोलने पर एक बार मेरी रंगीन तस्वीर छपी थी, दैनिक हिन्दुस्तान में। लिखा था- बीए हिन्दी, सेकेण्ड इयर, हिन्दी से विनीत कुमार। मां को बहुत सदमा लगा कि इतनी मेहनत और लात-जूता खाने पर मैं हिन्दी पढ़ रहा हूं। साइंस नहीं। बस एक लाइन कहा था मां ने. अब किस बूते तुम्हारे लिए लड़ेंगे, बताओ। क्या करोगे इसे पढ़कर। तब से मां का मन कचोटता रहा और मैं बताता रहा कि मां मैं पत्रकार बनूंगा।
मां नानी के यहां सबसे बड़ी थी सो नाना की दूकान पर रोज बैठती। इस क्रम में लोकल अखबारों के पत्रकार बड़ी ही दीन हीन दशा में विज्ञापन के लिए आते। कई पत्रकार एक ही साथ कुछ दूसरे काम भी करते। मां भी उससे कुछ न कुछ करवा लेती। इसलिए मां के सामने पत्रकार की हैसियत अच्छी नहीं थी। उसे लगता कि इसका सब दिन मांगकर गुजारा होगा। तब और उदास हो गयी थी। लेकिन मेरे प्रति विशेष लगाव बना रहता। घर में सबसे छोटा था. अनुशासन बरतने के नाम पर हर कोई दो-चार हाथ जब तब आजमा लेता, व्यंगय करता,ताने मारता और तब मां एकदम से बड़े भाई-बहनों और कभी-कभी पापा के सामने कर देती। सब्जी काटनेवाला हंसिया लाती और कहती- काटकर फेंक दो इसे करेजा भर जाएगा सबका....
सुस्त-सुस्त सा रहता है कहीं लड़की का तो चक्कर नहीं। पढ़िए अगली किस्त में
संघ में बहुत सक्रिय थे तो मां-बाप ने सोचा कि शादी करा दो, सब ठीक हो जाएगा और तब हमारी शादी हो गयी। राजस्थान के एक विधायक ने राजस्थान में बाल-विवाह के मसले पर एनडीटीवी को ये बाइट दी है। जाहिर है विधायकजी बाल-विवाह की सारी जिम्मवेवारी अपने मां-बाप और परिवार के लोगों पर थोपते हुए अपने को दूध का धुला बताना चाह रहे हैं।
लेकिन विधायकजी से ये सवाल कौन करने जाए कि जब आप संघ में सक्रिय थे। अखंड भारत बनाने में जुटे थे, समाज को एक नयी दिशा देने में लगे थे और आपको लगता था कि संघ की कारवाइयों को तेज करने से समाज बदल सकता है तब आपको ये नहीं लगा कि हम अपने व्यक्तिगत प्रयास से अपनी शादी जो कि कानूनन गलत है, रोक सकते हैं। आपमें दुनिया को बदल देने की समझदारी है लेकिन जब अपनी बारी आयी तो आप सारी बात अपने घरवालों पर थोप आए। मंत्रीजी अगर आप ये भी कह देते कि घरवालों ने हमें हाफपैंट पहनाकर वहां भेज दिया तब आपके प्रति जरुर सहानुभूति रखते।
समाज में अक्सर ये देखा जाता है कि लड़के दुनियाभर के काम अपनी मर्जी से करेंगे। चाहे वो किसी विचारधारा को अपनाने की रही हो, करियर चुनने का रहा हो, अपने सम्पर्क बनाने का रहा हो। लेकिन जैसी ही बात शादी पर आती है तो इसका सारा ठिकरा मां-बाप पर फोड़ देते हैं। राजस्थान में ६५ विधायकों का बाल-विवाह हुआ है जिसमें ८ मंत्री भी शामिल हैं। यहां बाल-विवाह के खिलाफ कानून होने के वाबजूद भी ४८ प्रतिशत शादियां बाल-विवाह के अन्तर्गत आते हैं। एनडीटीवी की खबर के मुताबिक जिन लोगों को इस कानून को सख्ती से लागू करने में सहयोग देना चाहिए वो खुद बाल-विवाह के जोड़े को आशीर्वाद देने पहुंच जाते हैं।
अब देखिए, बचपन से ही समाज को सुधारने का संकल्प लेकर बढ़ने वाले ये नेता अपनी शादी के समय बाल-विवाह का विरोध नहीं कर सके क्योंकि ये मां-बाप का दिल दुखाना नहीं चाहते थे।॥और अब ये जानते हुए कि बाल-विवाह अपराध है, इसे इसलिए नहीं रोकते क्योंकि इससे उनकी वोट कट जाएगी। नतीजा ये हुआ है कि राजस्थान में समारोह की शक्ल में बाल-विवाह होते हैं। प्रशासन की नाक के नीचे होते हैं और नेताजी बादाम-केसर पीने और विवाहित जोड़ों को आशीर्वाद देने पहुंच जाते हैं। समाज को वो तपका जो कि पढ़ा-लिखा नहीं है। जिनके बीच सूचना-क्रांति की कोई पहुंच नहीं है और अगर पहुंच है भी तो जड़ परंपरा के आगे बेअसर है। ऐसे में उन्हें इस बात का एहसास कराने के लिए कि कौन सी चीजें उनके हित में नहीं है, समाज के प्रभावी लोग इस बारे में बताएं। शिक्षा का प्रसार पूरी तरह से जब होगा, तब होगा और कुछ रिवाज और अंध परम्परा शिक्षा के विस्तार के बाद भी खत्म हो जाएगी, आप पूरे दावे के साथ नहीं कह सकते। पढ़े-लिखे लोगों को भी इसमें शामिल होते देखकर तो ऐसा ही लगता है। ऐसे में समाज के प्रभावी लोगों की बातों का उनपर सीधा असर होता है। पल्स पोलियो के लिए अमिताभ बच्चन और एड्स के लिए विवेक ऑवराय को लाने के पीछे यही समझदारी काम करती है। अब समाज के ये प्रभावी नेता विरोध तो नहीं ही करते हैं, साथ ही आशीर्वाद देने जब बाल-विवाह के मंडप पर पहुंचते हैं तो इन लोगों के बीच क्या संदेश जाता है। यही न कि जब इतने बड़े-बड़े लोग इस शादी में आते हैं तो ये भला किस हिसाब से गलत हो सकता है। इसलिए प्रचार-प्रसार की धार भी ये नेता शामिल होकर भोथरे करते हैं। अगर ये सकारात्मक दिशा में जाकर काम करें और उस तरह की मानव विरोधी रिवाजों का विरोध करें तो सुधार की गुंजाइंश तो बनती ही है। लेकिन नहीं, वो ऐसा क्यों करने लगें।॥
वोट तो एक बड़ा फैक्टर है ही साथ में जब इस तरह के रीति-रिवाजों की बात आती है तब वो सरकार के लोग न होकर उस परिवेश और मानसिकता के लोग हो जाते हैं जहां ये सारी चीजें उपजती है। अपना दिखाने के फेर में, अपने बीच का होने का बताने में वो इन कार्यक्रमों में शामिल हो जाते हैं। बिहार और यूपी से जुड़ी उन खबरों में अक्सर आप देखते-सुनते होंगे कि विधायक बारगर्ल डांस में शामिल हुए, उनके आनंद लेने की क्लिपिंग्स मीडिया अक्सर दिखाती है। वहां तो उनका प्रभाव कायम हो जाता है। लोगों को भी लगता है कि ये बड़े हैं तो क्या हुआ, हैं तो अपने बीच के ही और अपनापा बना रह जाता है और इधर नेताजी का भी काम बन जाता है। जबकि नेताजी को ऐसे मौके पर समझने की जरुरत है कि वो उसी समय प्रशासन, व्यवस्था और सरकार का हिस्सा हैं। वो जो कुछ भी करेंगे उसका सीधा असर समाज पर होगा।
जिस मीडिया को वो दिन-रात गरियाते रहते हैं, उनपर नकेल कसने की बात करते नजर आते हैं, उसी मीडिया ने उन्हें इतना समझदार तो जरुर बना दिया है कि वो समझ सकें कि कौन सी बातें मानव विरोधी हैं और उनका समर्थन नहीं विरोध करनी चाहिए। इधर घरवाले ने कहा कि शादी कर लो तो कर लिया। घरवालों ने कहा कि दहेज कम देने पर लड़की को प्रताड़ित करो तो उस कारवायी में शामिल हो गए। इन सब कामों के लिए हम जिम्मवेवार नहीं। लेकिन कोई तर्क है आपके पास जो बता सके कि हर हाल में स्त्रियों के शोषण का सीधा जिम्मवेवार वो न होकर कोई और है। कम उम्र में शादी की वजह से बच्चा जनने के समय लड़कियों की मौत, अपरिपक्व अवस्था में यौन संबंध से स्वास्थ्य में लगातार गिरावट और दमघोंटू जिंदगी जीने के लिए मजबूर इन लड़कियों की कोई बाइट है जो नेताजी की तरह बता सके कि संघ में सक्रिय थे इसलिए शादी कर दी गयी।....और हम आगे जोड़ दें कि अखण्ड भारत के संकल्प के आगे इन छोटी-मोटी बातों पर ध्यान गया ही नहीं।
अब तो इस फार्मूले को भी फिट करने की स्थिति में भी नहीं हैं कि आप कह सकें कि एक स्त्री की पीड़ा को स्त्री ही समझ सकती है। अगर ऐसा होता तो राजस्थान में बाल-विवाह के आंकड़ों का ग्राफ बड़ी तेजी से गिर जाने चाहिए थे और अब तक खत्म भी हो जाते। लेकिन....लेकिन सत्ता का अपना ही चरित्र होता है, वो स्त्री-पुरुष के आधार पर विशलेषण किए जाने से परे है....
|
|
लेकिन विधायकजी से ये सवाल कौन करने जाए कि जब आप संघ में सक्रिय थे। अखंड भारत बनाने में जुटे थे, समाज को एक नयी दिशा देने में लगे थे और आपको लगता था कि संघ की कारवाइयों को तेज करने से समाज बदल सकता है तब आपको ये नहीं लगा कि हम अपने व्यक्तिगत प्रयास से अपनी शादी जो कि कानूनन गलत है, रोक सकते हैं। आपमें दुनिया को बदल देने की समझदारी है लेकिन जब अपनी बारी आयी तो आप सारी बात अपने घरवालों पर थोप आए। मंत्रीजी अगर आप ये भी कह देते कि घरवालों ने हमें हाफपैंट पहनाकर वहां भेज दिया तब आपके प्रति जरुर सहानुभूति रखते।
समाज में अक्सर ये देखा जाता है कि लड़के दुनियाभर के काम अपनी मर्जी से करेंगे। चाहे वो किसी विचारधारा को अपनाने की रही हो, करियर चुनने का रहा हो, अपने सम्पर्क बनाने का रहा हो। लेकिन जैसी ही बात शादी पर आती है तो इसका सारा ठिकरा मां-बाप पर फोड़ देते हैं। राजस्थान में ६५ विधायकों का बाल-विवाह हुआ है जिसमें ८ मंत्री भी शामिल हैं। यहां बाल-विवाह के खिलाफ कानून होने के वाबजूद भी ४८ प्रतिशत शादियां बाल-विवाह के अन्तर्गत आते हैं। एनडीटीवी की खबर के मुताबिक जिन लोगों को इस कानून को सख्ती से लागू करने में सहयोग देना चाहिए वो खुद बाल-विवाह के जोड़े को आशीर्वाद देने पहुंच जाते हैं।
अब देखिए, बचपन से ही समाज को सुधारने का संकल्प लेकर बढ़ने वाले ये नेता अपनी शादी के समय बाल-विवाह का विरोध नहीं कर सके क्योंकि ये मां-बाप का दिल दुखाना नहीं चाहते थे।॥और अब ये जानते हुए कि बाल-विवाह अपराध है, इसे इसलिए नहीं रोकते क्योंकि इससे उनकी वोट कट जाएगी। नतीजा ये हुआ है कि राजस्थान में समारोह की शक्ल में बाल-विवाह होते हैं। प्रशासन की नाक के नीचे होते हैं और नेताजी बादाम-केसर पीने और विवाहित जोड़ों को आशीर्वाद देने पहुंच जाते हैं। समाज को वो तपका जो कि पढ़ा-लिखा नहीं है। जिनके बीच सूचना-क्रांति की कोई पहुंच नहीं है और अगर पहुंच है भी तो जड़ परंपरा के आगे बेअसर है। ऐसे में उन्हें इस बात का एहसास कराने के लिए कि कौन सी चीजें उनके हित में नहीं है, समाज के प्रभावी लोग इस बारे में बताएं। शिक्षा का प्रसार पूरी तरह से जब होगा, तब होगा और कुछ रिवाज और अंध परम्परा शिक्षा के विस्तार के बाद भी खत्म हो जाएगी, आप पूरे दावे के साथ नहीं कह सकते। पढ़े-लिखे लोगों को भी इसमें शामिल होते देखकर तो ऐसा ही लगता है। ऐसे में समाज के प्रभावी लोगों की बातों का उनपर सीधा असर होता है। पल्स पोलियो के लिए अमिताभ बच्चन और एड्स के लिए विवेक ऑवराय को लाने के पीछे यही समझदारी काम करती है। अब समाज के ये प्रभावी नेता विरोध तो नहीं ही करते हैं, साथ ही आशीर्वाद देने जब बाल-विवाह के मंडप पर पहुंचते हैं तो इन लोगों के बीच क्या संदेश जाता है। यही न कि जब इतने बड़े-बड़े लोग इस शादी में आते हैं तो ये भला किस हिसाब से गलत हो सकता है। इसलिए प्रचार-प्रसार की धार भी ये नेता शामिल होकर भोथरे करते हैं। अगर ये सकारात्मक दिशा में जाकर काम करें और उस तरह की मानव विरोधी रिवाजों का विरोध करें तो सुधार की गुंजाइंश तो बनती ही है। लेकिन नहीं, वो ऐसा क्यों करने लगें।॥
वोट तो एक बड़ा फैक्टर है ही साथ में जब इस तरह के रीति-रिवाजों की बात आती है तब वो सरकार के लोग न होकर उस परिवेश और मानसिकता के लोग हो जाते हैं जहां ये सारी चीजें उपजती है। अपना दिखाने के फेर में, अपने बीच का होने का बताने में वो इन कार्यक्रमों में शामिल हो जाते हैं। बिहार और यूपी से जुड़ी उन खबरों में अक्सर आप देखते-सुनते होंगे कि विधायक बारगर्ल डांस में शामिल हुए, उनके आनंद लेने की क्लिपिंग्स मीडिया अक्सर दिखाती है। वहां तो उनका प्रभाव कायम हो जाता है। लोगों को भी लगता है कि ये बड़े हैं तो क्या हुआ, हैं तो अपने बीच के ही और अपनापा बना रह जाता है और इधर नेताजी का भी काम बन जाता है। जबकि नेताजी को ऐसे मौके पर समझने की जरुरत है कि वो उसी समय प्रशासन, व्यवस्था और सरकार का हिस्सा हैं। वो जो कुछ भी करेंगे उसका सीधा असर समाज पर होगा।
जिस मीडिया को वो दिन-रात गरियाते रहते हैं, उनपर नकेल कसने की बात करते नजर आते हैं, उसी मीडिया ने उन्हें इतना समझदार तो जरुर बना दिया है कि वो समझ सकें कि कौन सी बातें मानव विरोधी हैं और उनका समर्थन नहीं विरोध करनी चाहिए। इधर घरवाले ने कहा कि शादी कर लो तो कर लिया। घरवालों ने कहा कि दहेज कम देने पर लड़की को प्रताड़ित करो तो उस कारवायी में शामिल हो गए। इन सब कामों के लिए हम जिम्मवेवार नहीं। लेकिन कोई तर्क है आपके पास जो बता सके कि हर हाल में स्त्रियों के शोषण का सीधा जिम्मवेवार वो न होकर कोई और है। कम उम्र में शादी की वजह से बच्चा जनने के समय लड़कियों की मौत, अपरिपक्व अवस्था में यौन संबंध से स्वास्थ्य में लगातार गिरावट और दमघोंटू जिंदगी जीने के लिए मजबूर इन लड़कियों की कोई बाइट है जो नेताजी की तरह बता सके कि संघ में सक्रिय थे इसलिए शादी कर दी गयी।....और हम आगे जोड़ दें कि अखण्ड भारत के संकल्प के आगे इन छोटी-मोटी बातों पर ध्यान गया ही नहीं।
अब तो इस फार्मूले को भी फिट करने की स्थिति में भी नहीं हैं कि आप कह सकें कि एक स्त्री की पीड़ा को स्त्री ही समझ सकती है। अगर ऐसा होता तो राजस्थान में बाल-विवाह के आंकड़ों का ग्राफ बड़ी तेजी से गिर जाने चाहिए थे और अब तक खत्म भी हो जाते। लेकिन....लेकिन सत्ता का अपना ही चरित्र होता है, वो स्त्री-पुरुष के आधार पर विशलेषण किए जाने से परे है....
हद है, मुसलमान होकर भी चिकन बनाना नहीं जानता। गए थे, बहुत नाम सुन रखा था, भरोसा करके कि कुछ खास होगा। साढ़े चार सौ रुपये बर्बाद हो गए।
ये दास्तान है हॉस्टल के हमारे दूसरे साथी की जो कुछ दिनों पहले मेस बंद होने की वजह से बाहर खाने गए थे। चांदनी चौक के उस रेस्तरां में जिसका उन्होंने बहुत नाम सुन रखा था। दि हिन्दू में रिव्यू भी पढ़ी थी उसने। लेकिन आज बहुत खुन्नस खाए हुए थे। उनका कहना बिल्कुल साफ था कि- अब गलती से भी कभी नहीं जाएंगे वहां और किसी को जाने की राय भी नहीं देंगे। मैंने उनसे कहा भी कि हो सकता है आज ऐसा हो गया हो, नाम तो मैंने भी सुना है बहुत वहां का। यहां तक कि लोग बताते हैं जब शाहरुख या रानी मुखर्जी दिल्ली आने पर तो वहां एक बार जरुर खाते हैं। कुछ तो बात होगी, तभी तो।..वो बंदा गरम था, अजी खास होगा कच्चू। चावल वैसा ही घटिया और चिकन की पीस, ओह नाम मत लीजिए। बेकार में इतना नाम है।
भाई साहब जिसका नाम ले रहे हैं,वाकई वो दिल्ली का मशहूर नॉनवेज रेस्तरॉ है। दिल्ली क्या नॉनवेज के शौकीन लोग दिल्ली के बाहर भी इसका नाम अलापते हैं। मैं कभी वहां गया ही नहीं। एक बार सीएसडीस-सराय के वर्कशॉप के तहत वहां जाना भी होता कि बैंग्लूर से आयी मीरा हमें परांठेवाली गली लेकर चली गयी। उसने कहा जब नॉनवेज खाना ही नहीं है तो वहां जाकर क्या करोगे। लोगों ने बताया कि नहीं वहां तो वेज भी मिलते हैं लेकिन उसका कहना था कि जब वेज ही खाना है तो फिर वहां क्यों। सो, मैं वहां गया नहीं.
बंदे की शिकायत रही कि मुसलमान होकर भी नॉनवेज ठीक से बनाना नहीं जानता जबकि मीरा की जिद थी कि जब वेज ही खाना है तो वहां क्यों जाओगे। इसका एक मतलब तो ये भी निकला कि मुसलमान को जरुरी तौर पर बढ़िया नॉनवेज बनाने आना चाहिए जबकि वो बेहतर वेज बना ही नहीं सकते. यानि खाने को लेकर समुदाय विशेष के प्रति लोगों का नजरिया बरकरार है।
इसी तरह आप कहते सुन जाएंगे कि- अजी मछली खानी हो तो बंगाली या मैथिल के हाथ की खाओ। जाहिर है इडली और सांभर-बड़े के लिए आप दक्षिण भारतीयों का नाम लेंगे।...और इसी तरह एक लम्बी फेहरिस्त होगी।
बाजार भी इसी मानसिकता को बेहतर तरीके से समझती है क्योंकि बाजार ग्राहकों की मानसिकता के हिसाब से चले बिना बिजनेस कर ही नहीं सकता। इसलिए आप देखेंगे कि दिल्ली में पंजाबी, हरियाणवी कल्चर की प्रमुखता के वाबजूद भी जब दही की बात आती है तो मदर डेरी की- मिष्टी दोई हो जाती है। बाकी चीजें और चीजों के नाम दिल्ली और उसके आस-पास के इलाकों के कल्चर के हिसाब से ही तय होते हैं।
इसकी एक बड़ी वजह तो ये होती है कि जो चीजें जहां प्रमुखता से इस्तेमाल होती है, उनका प्रोडक्शन होता है या फिर वहां के जीवन का एक हिस्सा है, बाजार उसे सतर्कता से अपने में शामिल कर लेता है और एक आम ग्राहक के विश्वास को विज्ञापन में बदल देता है.
मैं जब बिहार के कस्बों में जाता हूं तो लोग गलियों में खोंमचे लगाकर चिल्लाते दिख जाते हैं- मथुरा के पेड़े ले लो। ये लो इलाहाबादी अमरुद. जबकि दोनों में से वो चीजें वहां की नहीं होती. देखते-देखते बेचनेवाले और खरीदनेवाले के बीच एक प्रैक्टिस सी हो जाती है- वहां का नहीं भी होने पर वहां की बताकर बेचना और वहां की नहीं होने पर ये जानते हुए भी खरीदना. जब कभी कोई कहीं का नहीं बताकर सीधे-सीधे कहता है- मीठे, रसीले या फिर और कुछ तो कई लोगों को पूछते देखा है, कहां का है भईया, अमरुद इलाहाबादी है क्या और वो हां कहता है और खरीददार मुस्कराकर रह जाता है।
हिन्दुस्तान में चीजों के उत्पादन, बिक्री और उसकी खरीददारी पर आप एक नजर डालेंगे तो आपको अंदाजा लग जाएगा कि यहां का बाजार इसी स्थानीयता बोध,सामुदाय विशेष और जातिगत आधार पर निर्मित है। आप रेडिकल होकर कह सकते हैं कि जिस जातिवाद और क्षेत्रवाद को समाज का कलंक मानकर सोशल साइंटिस्ट खत्म करने की बात करते हैं, बाजार उसे दुर्गुण न मानकर कन्ज्यूमरिज्म के स्तर पर मजबूत करना चाहता है.
एक मुसलमान से किसी को लगाव भले ही न हो, एक बंगाली के विचारों से असहमति भले ही हो, मथुरा जाने पर पाकेटमारी का भय भले ही बना रहे लेकिन चिकन और मटन, मिष्टी दोई और रोसगुल्ला और पेड़े के प्रति विश्वसनियता की बात आती है तो आप इनके मुरीद हो जाते हैं। बाजार इस मानसिकता को लम्बे समय से मजबूत करता आया है। इसलिए पुश्तैनी बिजनेस का कॉन्सेप्ट लम्बे समय तक चलता रहा है।
एक पंडितजी की चाय अच्छी होने पर पूरे उत्तरांचल के लोगों को चाय बनाने में सिद्धस्थ मान लेते हैं।...और आप देखेंगे कि डीयू में सारे टी स्टॉल का नाम लगभग पंडितजी की कैंटीन के आसपास ही है। पुश्तैनी और जातिगत आधार पर बाजार का असर इतना है कि कोई राजस्थानी है औऱ उसके पुरखे लम्बे समय तक नमकीन का रोजगार करते आए तो वो ग्लोबल ब्रांडिंग भी उसी शर्त पर करता है। उत्पादन की तकनीक, पैकिंग और विज्ञापन के पूरी तरह बदल जाने के बाद भी पोस्टर या पैकेट के कोने में अपने परदादा की मूंछ पर ताव देती तस्वीर या फिर नाम डालता है। यही उनका लोगो है और ब्रांड प्रोमोशन के टूल्स भी।
जाति,समुदाय, प्रांत और क्षेत्र के एलिमेंट्स को लेकर बाजार जो काम करता है उसे आप क्या कहेंगे कि ये जाति, क्षेत्र और प्रांत की फीलिंग को मजबूत करता है। अगर ऐसा है तब तो चिकन खानेवाले बंदे की धारणा के टूटने के साथ ही जातिगत मानसिकता से मुक्त हो जाना चाहिए। बिहारी-बंगाली का भी झमेला खत्म हो जाना चाहिए।
दूसरी तरफ जिस बाजार की बात मानकर आप मिष्टी दोई और साउथ इंडियन रेस्तरां में जाकर छोटू न बोलकर अन्ना बोल रहे हैं तो भाषा और क्षेत्रवाद का झमेला भी खत्म हो जाना चाहिए. लेकिन ऐसा होता है। नहीं न...आप कोई राय बना ही नहीं सकते कि कहां, कहां बाजार इसे मजबूत करता है और कहां इसे धवस्त करता है लेकिन कुछ करता तो जरुर है। तब तक...
ये है मीना बाजार तू देख बबुआ।
|
|
ये दास्तान है हॉस्टल के हमारे दूसरे साथी की जो कुछ दिनों पहले मेस बंद होने की वजह से बाहर खाने गए थे। चांदनी चौक के उस रेस्तरां में जिसका उन्होंने बहुत नाम सुन रखा था। दि हिन्दू में रिव्यू भी पढ़ी थी उसने। लेकिन आज बहुत खुन्नस खाए हुए थे। उनका कहना बिल्कुल साफ था कि- अब गलती से भी कभी नहीं जाएंगे वहां और किसी को जाने की राय भी नहीं देंगे। मैंने उनसे कहा भी कि हो सकता है आज ऐसा हो गया हो, नाम तो मैंने भी सुना है बहुत वहां का। यहां तक कि लोग बताते हैं जब शाहरुख या रानी मुखर्जी दिल्ली आने पर तो वहां एक बार जरुर खाते हैं। कुछ तो बात होगी, तभी तो।..वो बंदा गरम था, अजी खास होगा कच्चू। चावल वैसा ही घटिया और चिकन की पीस, ओह नाम मत लीजिए। बेकार में इतना नाम है।
भाई साहब जिसका नाम ले रहे हैं,वाकई वो दिल्ली का मशहूर नॉनवेज रेस्तरॉ है। दिल्ली क्या नॉनवेज के शौकीन लोग दिल्ली के बाहर भी इसका नाम अलापते हैं। मैं कभी वहां गया ही नहीं। एक बार सीएसडीस-सराय के वर्कशॉप के तहत वहां जाना भी होता कि बैंग्लूर से आयी मीरा हमें परांठेवाली गली लेकर चली गयी। उसने कहा जब नॉनवेज खाना ही नहीं है तो वहां जाकर क्या करोगे। लोगों ने बताया कि नहीं वहां तो वेज भी मिलते हैं लेकिन उसका कहना था कि जब वेज ही खाना है तो फिर वहां क्यों। सो, मैं वहां गया नहीं.
बंदे की शिकायत रही कि मुसलमान होकर भी नॉनवेज ठीक से बनाना नहीं जानता जबकि मीरा की जिद थी कि जब वेज ही खाना है तो वहां क्यों जाओगे। इसका एक मतलब तो ये भी निकला कि मुसलमान को जरुरी तौर पर बढ़िया नॉनवेज बनाने आना चाहिए जबकि वो बेहतर वेज बना ही नहीं सकते. यानि खाने को लेकर समुदाय विशेष के प्रति लोगों का नजरिया बरकरार है।
इसी तरह आप कहते सुन जाएंगे कि- अजी मछली खानी हो तो बंगाली या मैथिल के हाथ की खाओ। जाहिर है इडली और सांभर-बड़े के लिए आप दक्षिण भारतीयों का नाम लेंगे।...और इसी तरह एक लम्बी फेहरिस्त होगी।
बाजार भी इसी मानसिकता को बेहतर तरीके से समझती है क्योंकि बाजार ग्राहकों की मानसिकता के हिसाब से चले बिना बिजनेस कर ही नहीं सकता। इसलिए आप देखेंगे कि दिल्ली में पंजाबी, हरियाणवी कल्चर की प्रमुखता के वाबजूद भी जब दही की बात आती है तो मदर डेरी की- मिष्टी दोई हो जाती है। बाकी चीजें और चीजों के नाम दिल्ली और उसके आस-पास के इलाकों के कल्चर के हिसाब से ही तय होते हैं।
इसकी एक बड़ी वजह तो ये होती है कि जो चीजें जहां प्रमुखता से इस्तेमाल होती है, उनका प्रोडक्शन होता है या फिर वहां के जीवन का एक हिस्सा है, बाजार उसे सतर्कता से अपने में शामिल कर लेता है और एक आम ग्राहक के विश्वास को विज्ञापन में बदल देता है.
मैं जब बिहार के कस्बों में जाता हूं तो लोग गलियों में खोंमचे लगाकर चिल्लाते दिख जाते हैं- मथुरा के पेड़े ले लो। ये लो इलाहाबादी अमरुद. जबकि दोनों में से वो चीजें वहां की नहीं होती. देखते-देखते बेचनेवाले और खरीदनेवाले के बीच एक प्रैक्टिस सी हो जाती है- वहां का नहीं भी होने पर वहां की बताकर बेचना और वहां की नहीं होने पर ये जानते हुए भी खरीदना. जब कभी कोई कहीं का नहीं बताकर सीधे-सीधे कहता है- मीठे, रसीले या फिर और कुछ तो कई लोगों को पूछते देखा है, कहां का है भईया, अमरुद इलाहाबादी है क्या और वो हां कहता है और खरीददार मुस्कराकर रह जाता है।
हिन्दुस्तान में चीजों के उत्पादन, बिक्री और उसकी खरीददारी पर आप एक नजर डालेंगे तो आपको अंदाजा लग जाएगा कि यहां का बाजार इसी स्थानीयता बोध,सामुदाय विशेष और जातिगत आधार पर निर्मित है। आप रेडिकल होकर कह सकते हैं कि जिस जातिवाद और क्षेत्रवाद को समाज का कलंक मानकर सोशल साइंटिस्ट खत्म करने की बात करते हैं, बाजार उसे दुर्गुण न मानकर कन्ज्यूमरिज्म के स्तर पर मजबूत करना चाहता है.
एक मुसलमान से किसी को लगाव भले ही न हो, एक बंगाली के विचारों से असहमति भले ही हो, मथुरा जाने पर पाकेटमारी का भय भले ही बना रहे लेकिन चिकन और मटन, मिष्टी दोई और रोसगुल्ला और पेड़े के प्रति विश्वसनियता की बात आती है तो आप इनके मुरीद हो जाते हैं। बाजार इस मानसिकता को लम्बे समय से मजबूत करता आया है। इसलिए पुश्तैनी बिजनेस का कॉन्सेप्ट लम्बे समय तक चलता रहा है।
एक पंडितजी की चाय अच्छी होने पर पूरे उत्तरांचल के लोगों को चाय बनाने में सिद्धस्थ मान लेते हैं।...और आप देखेंगे कि डीयू में सारे टी स्टॉल का नाम लगभग पंडितजी की कैंटीन के आसपास ही है। पुश्तैनी और जातिगत आधार पर बाजार का असर इतना है कि कोई राजस्थानी है औऱ उसके पुरखे लम्बे समय तक नमकीन का रोजगार करते आए तो वो ग्लोबल ब्रांडिंग भी उसी शर्त पर करता है। उत्पादन की तकनीक, पैकिंग और विज्ञापन के पूरी तरह बदल जाने के बाद भी पोस्टर या पैकेट के कोने में अपने परदादा की मूंछ पर ताव देती तस्वीर या फिर नाम डालता है। यही उनका लोगो है और ब्रांड प्रोमोशन के टूल्स भी।
जाति,समुदाय, प्रांत और क्षेत्र के एलिमेंट्स को लेकर बाजार जो काम करता है उसे आप क्या कहेंगे कि ये जाति, क्षेत्र और प्रांत की फीलिंग को मजबूत करता है। अगर ऐसा है तब तो चिकन खानेवाले बंदे की धारणा के टूटने के साथ ही जातिगत मानसिकता से मुक्त हो जाना चाहिए। बिहारी-बंगाली का भी झमेला खत्म हो जाना चाहिए।
दूसरी तरफ जिस बाजार की बात मानकर आप मिष्टी दोई और साउथ इंडियन रेस्तरां में जाकर छोटू न बोलकर अन्ना बोल रहे हैं तो भाषा और क्षेत्रवाद का झमेला भी खत्म हो जाना चाहिए. लेकिन ऐसा होता है। नहीं न...आप कोई राय बना ही नहीं सकते कि कहां, कहां बाजार इसे मजबूत करता है और कहां इसे धवस्त करता है लेकिन कुछ करता तो जरुर है। तब तक...
ये है मीना बाजार तू देख बबुआ।