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स जैसी पत्रिका के 25 साल के इतिहास को इतने लिजलिजे और पनछोट तरीके से याद किया जाएगा, ये देख-सुनकर भारी निराशा हुई। हम हंस की रजत जयंती कार्यक्रम से लौटकर सदमे में हैं। हंस की वार्षिक संगोष्ठी, हिंदी साहित्य से जुड़ा अकेला कार्यक्रम होता है, जिसका इंतजार हमें मेले-ठेले की तरह कई दिनों पहले से होता है। इसकी बड़ी वजह तो ये है कि हिंदी और मीडिया के वे तमाम भूले-बिसरे चेहरे एक साथ दिख जाते हैं जिनकी हैसियत, जिंदगी और चैनल बदल चुके होते हैं और दूसरा कि संगोष्ठी में कुछ गंभीर बातें जरूर निकल कर आती हैं, जिस पर कि आगे विचार किया जाना जरूरी होता है। अबकी बार तो और भी 25 साल होने पर कार्यक्रम का आयोजन किये जाने का मामला था, सो लग रहा था कि कुछ अलग, बेहतर और गंभीर बातचीत होगी। निर्धारित समय से करीब एक घंटे बाद यानी छह बजे कार्यक्रम शुरू होने पर ये धारणा और भी मजबूत हो गयी कि अबकी बार तो हंस की यादगार संगोष्ठी होने जा रही है। वक्ता के तौर पर अकेले नामवर सिंह को अपनी बात रखनी थी, तो हम निश्चिंत थे कि हर साल से अलग इस बार एक-दूसरे से नूराकुश्ती होने के बजाय एक रौ में सिर्फ उन्हें ही सुनने को मिलेगा। लेकिन…
कार्यक्रम की शुरुआत की औपचारिक घोषणा के साथ ही हमारी सारी उम्मीदों पर अजय नावरिया ने पानी फेर दिया। घर जाकर ईमानदारी से अगर वो इस पर सोच रहे होंगे कि उन्होंने ज्यादा बोल दिया और पता नहीं क्या-क्या बोल दिया, तो तैयारी के साथ संयमित और संक्षिप्त बोलने के अभ्यास का मन जरूर बना रहे होंगे। उन्हें ऐसा करने में शायद लंबा वक्त लगे। उन्होंने कार्यक्रम की भूमिका ही कुछ इस तरह से रखी कि लगा कि आगे का सारा मामला बहुत ही बोझिल होने जा रहा है। राजेंद्र यादव स्कूल से दीक्षित हुए अजय नावरिया ने इस बात का बार-बार दावा किया कि हंस जैसी पत्रिका ने साहित्यिक लोकतंत्र बहाल किया। लेकिन यादवजी के स्कूल से निकले इस शख्स की भाषा और प्रयोग किये गये शब्द इतने सामंती, मर्दवादी ठसक, बजबजाये हुए, परंपरागत और घिसे-पिटे होंगे, इसे सुनकर मेरी तरह लोगों का भी कलेजा छलनी हो रहा होगा। आज से ठीक दो साल पहले जब नामवर सिंह ने हंस के युवा विशेषांक और अजय नावरिया के संपादन का लगभग माखौल उड़ाते हुए दोहा पढ़ा था – ‘नये युग का नया नजरिया, पेश कर रहे हैं अजय नावरिया’, तो हमें नामवर सिंह पर भारी गुस्सा आया था। गुस्सा तब और बढ़ गया, जब उन्होंने राजेंद्र यादव को लगभग आगाह करने के अंदाज में कहा था – इन लौंडों को ज्यादा सिर पर न चढ़ाओ, ये तुम्हारे किसी काम नहीं आएंगे, काटकर ले जाएंगे और तुम्हें पता तक नहीं चलेगा। लेकिन इस बार जब अजय नावरिया का मंच संचालन देखा और उसमें लगातार आत्मश्लाघा के अंदाज में खुद को प्रोजेक्ट करने की छटपटाहट देखी, तो लगा कि बाबा ने उस वक्त शायद ठीक ही कहा था।
अतिलोकतांत्रिक परिवेश की उपस्थिति कई बार कैसे उच्छृंखलता और उथलेपन में तब्दील हो जाती है, ये साफ तौर पर झलक जा रहा था। दूसरा कि ये सही है कि राजेंद्र यादव स्कूल ने आलोचना की धार के आगे तारीफ करने की कला नहीं सिखायी लेकिन अजय नावरिया ने वाजिब तरीके से तारीफ करने की कला को चमचई और चाटुकारिता के पर्याय के तौर पर कैसे सीख लिया, ये अलग ही गंभीर मसला है। राजेंद्र यादव को लेकर वो जिस तरीके से बात कर रहे थे, उससे हम न केवल बोर हो रहे थे बल्कि खुद राजेंद्र यादव बहुत ही असहज महसूस कर रहे थे और उन्हें बार-बार ऐसा करने से रोक रहे थे। लेकिन अजय नावरिया उनके इस संकेत का विस्तार थेथरई में कर जाते हैं और सुन लीजिए, सुन लीजिए कहकर आगे भी जारी रहते हैं।
मामला तब हद के पार हो जाता है जब वो राजेंद्र यादव की तुलना सुकरात से करने लग जाते हैं। ये पूरे कार्यक्रम का बड़ा ही भद्दा हिस्सा था। राजेंद्र यादव के बारे में वो कुछ इस तरह से बातें कर रहे थे जैसे कि उम्र ढल जाने पर लोग घर के बूढ़े-बुजुर्गों से मजे लेने लग जाते हैं। माफ कीजिएगा, इतने बड़े मंच से राजेंद्र यादव से मजे लेने के अंदाज में अजय नावरिया ने जिस तरह से परिचय कराया, उससे इस संगोष्ठी के स्तर में काफी गिरावट आयी। आपसी बातचीत का मामला अलग होता है लेकिन संगोष्ठी की अपनी एक गरिमा होती है, जो कि उन्होंने पूरी तरह खत्म कर दी।
तीसरी बात कि इस मौके पर हंस से जुड़े लोगों जिनमें कि कार्यालय के लोग भी शामिल थे, उन्हें सम्मानित किया गया। सम्मान के तौर पर किसे क्या दिया गया, ये सार्वजनिक तौर पर बताकर उन्हें भले ही लग रहा होगा कि उन्होंने एक बार फिर लोकतांत्रिक सोच का परिचय दिया है लेकिन ऐसा करते हुए अजय नावरिया भूल गये कि खैरात देने और सम्मानित करने की भाषा अलग होती है।
बहरहाल, संचालन के नाम पर अजय नावरिया ने लंबे-लंबे पकाऊ संस्मरण और चमचई के अंदाज में राजेंद्र यादव को हंस के 25 साल के अनुभवों को साझा करने के लिए आमंत्रित किया।
राजेंद्र यादव को बोलने में अब काफी तकलीफ होने लगी है और जब वो लंबी-लंबी सांस लेते हुए बड़ी मुश्किल से बोल रहे थे, तो हमें ग्लानि और बेचैनी हो रही थी कि हम फिर भी उनसे सुनने के लिए बेचैन हो रहे हैं। राजेंद्र यादव ने जो कुछ भी कहा, वो हंस के संपादक की हैसियत से उसका ईमानदार आत्मकथन था…
हमने इतने सालों में क्या कमाल किया, क्या झंडे गाड़े, मेरा इस पर बोलना उचित नहीं है, बाकी लोग बोलते रहेंगे लेकिन कुल मिलाकर मैं बहुत खुश नहीं हूं। हंस निकालने के पहले मेरी योजना कंस निकालने की थी जो कि अब भी है…
इस तरह से अपनी बातचीत की शुरुआत करते हुए उन्होंने हंस निकालने की योजना कैसे बनी, क्या परेशानियां आयीं और मकान-मालिक से लेकर पाठकों तक ने किस तरह से मदद की, इस संबंध में बातें की। राजेंद्र यादव का उदास मन से निकला वक्तव्य दरअसल जुलाई के हंस के संपादकीय में कही गयी बातों का दोहराव ही था और जो लोग घर से पढ़कर इसे गये थे, उन्हें महसूस हो रहा होगा कि यादवजी ने कुछ नया नहीं कहा।
सम्मान के दौरान अर्चना वर्मा को बोलने के लिए आमंत्रित किया गया।
अर्चना वर्मा ने बहुत ही कम समय में जिस एक संस्मरण का जिक्र किया, उसकी चर्चा जरूरी है। वो हंस के स्त्री विशेषांक का संपादन कर रही थीं और उन्होंने राजेंद्र यादव की ही रचना को लौटा दी। आगे चलकर अर्चना वर्मा का जब भी परिचय कराया जाता, तो कहा जाता कि इन्होंने राजेंद्र यादव की रचना लौटा दी थी। अर्चना वर्मा ने कहा कि इसका श्रेय मेरे निजी साहस से ज्यादा इस बात को जाता है कि हंस में राजेंद्र यादव ने कैसा लोकतांत्रिक माहौल तैयार किया था। इस तरह के प्रसंगों को खोज-खोजकर और हर बात के पीछे हंस के ऊपर लोकतंत्र की वर्क छिड़कने की बचकानी कोशिशें अजय नावरिया लगातार कर भी रहे थे… ऐसा प्रोजेक्शन शायद राजेंद्र यादव के न चाहते हुए भी हंस की परंपरा का हिस्सा बन गया हो।
गौतम नवलखा भी हंस की शुरुआत के दिनों में जुड़े थे और उन्हें भी मंच पर बिठाया गया था। उन्होंने कहा कि राजेंद्र यादव की ये बात अक्सर याद आती है कि हंस में छपने के लिए तुम्हें हिंदी में लिखना होगा, भले ही तुम जैसे-तैसे लिखो, गलतियां होती हैं, होने दो और मेरी हिंदुस्तानी भाषा के प्रति दिलचस्पी बढ़ी… वैसे गौतम नवलखा बहुत ही अच्छी और प्रभावित करनेवाली हिंदी बोल रहे थे।
टीएम ललानी जो हंस से जुड़े लोगों को सम्मानित करने के लिए विशेष तौर पर आमंत्रित किये गये थे, उनके बारे में बताया गया कि अपने रोजगार, राजनीति और दुनियाभर के ताम-झाम के बीच भी हंस और राजेंद्र यादव से उनके रिश्ते जीवंत बने रहे। राजेंद्र यादव ने कहा कि हालांकि ये दूसरे धार्मिक कार्यक्रमों के लिए जितनी उदारता से दान और चंदे देते रहे हैं, उतनी उदारता से हंस के लिए नहीं, लेकिन भावनात्मक स्तर का सहयोग लगातार बना रहता। ललानी साहब ने मंच से एक बात कही और इस बात का व्यक्तिगत तौर पर मुझ पर बहुत ही अलग किस्म का असर हुआ। मैं अभी भी इस संदर्भ से अपने को अलग नहीं कर पा रहा हूं। ललानी ने कहा कि आज मन्नू भंडारी को भी सम्मानित किया जाना चाहिए था, हम अब भी कर सकते हैं। उनके ऐसा कहने पर हमने नजरें घुमायी। सबसे आगे की कतार में बैठीं मन्नू भंडारी ने हाथ जोड़ दिये। हमें मन्नू भंडारी के मंच तक आने का रत्तीभर भी इंतजार और भरोसा नहीं था और ऐसा करके उन्होंने आपका बंटी, त्रिशंकु और महाभोज जैसी रचनाएं पढ़कर जो छवि हमारे मन में उनके प्रति बनी थी, उसे ध्वस्त होने से बचा लिया। इस संदर्भ में सारा आकाश मंच से खिसककर मन्नू भंडारी की झोली में छिटक गया था। हमें भीतर से एक टीस के बावजूद सुकून मिला।
जनसत्ता के अपने कॉलम कभी-कभार में अशोक वाजपेयी ने लिखा कि हंस पत्रिका की बाकी सामग्री जिस तरह से पढ़ी जाती थी, उसी तरह से संपादकीय भी, बाकी की पत्रिकाओं के संपादकीय इस तरह से नहीं पढ़े जाते थे, उस पत्रिका का कार्यक्रम बहुत ही बेतरतीब सा लगा। जहां-तहां से बिखरा हुआ और लोगों के बोलने में कहीं से कोई पूर्व तैयारी नहीं। हमने ऊपर इसलिए पनछोट शब्द का इस्तेमाल किया। एक तो सम्मानित किये जानेवाले कई लोग इस मौके पर नहीं आये, आसपास की खुसुर-पुसुर से निकलकर आ रहा था कि काफी लोग नाराज भी हैं। अब हमारी सारी उम्मीदें नामवर सिंह पर टिकी थीं और लग रहा था कि इन्होंने अगर उम्मीद के मुताबिक बोल दिया तो सारा मामला सहज हो जाएगा।
मेरे दुश्मन राजेंद्र यादव और हंस के प्रिय पाठकों… नामवर सिंह के इस संबोधन के साथ ही सभागार की डूबती नब्ज में अचानक से हरकत आ गयी। उबासी ले रहे श्रोता सतर्क हो गये और गौर से सुनने लगे…
ये आयोजन वैसे तो हंस के 25 साल पूरे होने का है, लेकिन ऐसा लगा रहा है कि ये हंस का नहीं बल्कि 82 साल के राजेंद्र यादव का जन्मदिन मनाया जा रहा है, ये बात शायद आप भी महसूस कर रहे होंगे। हंस और राजेंद्र यादव यहां आकर पर्याय हो गये है। खैर, बिना किसी आर्थिक मजबूती के इस तरह से पत्रिका निकलती रही, इसके लिए मैं सिर झुकाता हूं। राजेंद्र यादव के आगे नहीं, हंस के आगे…
नामवर सिंह ने बताना शुरू किया कि जिस हंस की शुरुआत प्रेमचंद ने 1930 में की, आगे जब पत्रिका बंद हो गयी, तो इसे दोबारा शुरू करने की हिम्मत अमृत राय ने भी नहीं की। बाद में माधुरी, सारिका जैसी दुनियाभर की पत्रिकाएं शुरू हुईं लेकिन हंस की तरफ किसी का ध्यान नहीं गया। कमलेश्वर अपने को तीसमार खां समझते थे, बाद में द टाइम्स ऑफ इंडिया की पत्रिका से जुड़े लेकिन हंस का कोई ध्यान नहीं आया। ये बड़ी ही हैरान करनेवाली बात है कि हंस का कहीं कोई नामलेवा नहीं, ये नाम किसी को ध्यान में नहीं आया कि दोबारा इसे शुरू किया जाए। राजेंद्र ने अक्षर प्रकाशन से किताबें निकालने के साथ, बिना किसी स्थायी साधन के 1986 में हंस निकालने का इरादा किया। कहा कि अब हंस निकालेंगे। इस आदमी की हिम्मत देखिए कि सिर्फ निकाला ही नहीं बल्कि 25 सालों तक चलाया भी। हिंदी में ये बात स्वर्ण अक्षरों में लिखी जाएगी। ये सिर्फ हंस की नहीं, राजेंद्र यादव की भी जयंती है।
नामवर सिंह ने जिस ऐतिहासिक मोड़ से हंस की साहित्यिक पत्रकारिता के बारे में बताना शुरू किया, तो लगा कि मामला बहुत आगे तक और बहुत ही गंभीर तरीके से जाएगा लेकिन नामवर सिंह इसकी लीक छोड़कर दूसरे सिरे की तरफ मुड़ गये।
अशोक वाजपेयी तो कविता के अलावा किसी दूसरी चीज को साहित्य मानते ही नहीं, पढ़ते भी हैं तो अंग्रेजी लेखकों को लेकिन ये राजेंद्र यादव और हंस का ही लोकतंत्र है कि उसने अशोक वाजपेयी से भी हंस पर लिखवाया। अशोक वाजपेयी ने तो कभी पूर्वग्रह में राजेंद्र यादव को नहीं छापा। नया ज्ञानोदय और हंस के बीच सौतिया डाह है और रवींद्र कालिया भी बहुत खुश नहीं रहते हैं लेकिन मौजूदा अंक में उनसे भी लिखवाया। अखिलेश जो कि तद्भव जैसी पत्रिका बड़ी मेहनत से निकालते हैं, राजेंद्र से असहमति रखते हैं, उन्हें भी हंस के इंस अंक के लिए लिखवाया और असहमति में ही सही लिखा। निंदक नीयरे राखिए, आंगन कुटी छवाय वाली जो बात कबीर ने कभी कही थी, उस पर इस पत्रिका और राजेंद्र यादव ने व्यावहारिक तौर पर अमल किया। ये लोकतंत्र है।
नामवर सिंह राजेंद्र यादव को लेकर जो बोल रहे थे, वो भी उनकी तारीफ ही थी लेकिन वो अजय नावरिया की तरह फूहड़ नहीं थी। आलोचना के साथ-साथ तारीफ करने की भी शैली नामवर सिंह से सीखी जानी चाहिए।
शुरू के डेढ़ दशक में पत्रिका ने बहुत ही तेवर के साथ काम किया। लेकिन उसके बाद ढलान आने लग गयी। ऐसा होता है। हर कोई ढलान की तरफ बढ़ता है। आगे हम या राजेंद्र यादव ही पता नहीं ये बात कहने के लिए रह जाएंगे भी या नहीं। जीव-जंतुओं की तरह पत्रिका को भी कई योनियों से होकर गुजरना पड़ता है। हंस भी उसी तरह से गुजरा। उसे कभी कौआ बनना पड़ा, कभी बगुला और कभी कुत्ते की तरह चौकस रहना पड़ा। मुझे लगता है कि हंस में तीन योनि – कौआ, बगुला और कुत्ते के गुण हमेशा मौजूद रहे। मैं आप नये लोगों से एक बार फिर कहूंगा कि इस भीष्म (राजेंद्र यादव) के पास अभी भी मौका निकाल कर जाइए – लेकिन कहानी छपवाने के लिए नहीं, कहानी लिखने की कला सीखने के लिए।
नामवर सिंह पिछले दो-तीन बार से अपने आगे होने न होने की बात करने लगे हैं, एक बहुत ही भावनात्मक अप्रोच के साथ। राजेंद्र यादव के संदर्भ में उन्होंने इसी लहजे में बात कही। चलते-चलते उन्होंने कुछ इस तरह से कहा…
जो हो सकता है इससे वो किसी से हो नहीं सकता
मगर देखो तो जो हो सकता है, वो आदमी से हो नहीं सकता।
नामवर सिंह को सुनना अच्छा लगा लेकिन बहुत फायदेमंद नहीं रहा। खासकर उनलोगों के लिए जो कि साहित्यिक पत्रकारिता और हंस शीर्षक को ध्यान में रखकर सुनने आये थे। अशोक वाजपेयी पर ली गयी चुटकी, रोचक प्रसंग और काक चेष्टा जैसे सहज श्लोक से लोगों का ध्यान जरूर खींचा लेकिन जिस मुद्दे पर हम उनसे गंभीर व्याख्यान की उम्मीद कर रहे थे, ऐसा कुछ भी नहीं कहा। हंस ने किस तरह के विमर्श पैदा किये, उस समय की बाकी पत्रिकाएं क्या कर रही थीं, हिंदी पत्रिका का मुख्य स्वर क्या था, इन सब मसले पर कोई बात नहीं की। इस लिहाज से नामवर सिंह के व्याख्यान से कुछ निकल कर नहीं आया, हां थोड़े समय के लिए स्वस्थ मनोरंजन जरूर हो गया। नामवर सिंह अगर कायदे से साहित्यिक पत्रकारिता पर बोलते तो कुछ नहीं तो विश्वविद्यालय में हर साल 10-20 नंबर के सवाल का जवाब हल करने में मीडिया के छात्रों को मदद मिलती, लेकिन वैसा भी नहीं हो सका।
कुल मिलाकर देखें तो इस संगोष्ठी का निष्कर्ष ऐसा कुछ भी नहीं रहा, जिससे हम भरा-भरा महसूस कर पाते। हम इस उम्मीद में थे कि हंस ने 25 साल में जो बहसें खड़ी की हैं, जो विमर्श पैदा किये हैं, उस दौर में जो संपादकीय आये और उसे लेकर जो हंगामा खड़ा हुआ, उन पर पर संक्षेप में ही सही, बात होती लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। हंस ने कितने कहानीकार और लेखक पैदा किये, लेकिन एक का भी कहीं कोई जिक्र नहीं। सामयिकता का मोह हंस के इतिहास को इतनी जल्दी बिसार देगा, इसकी कल्पना हमें नहीं थी। वो सारे लोग और उनकी चर्चा सिरे से गायब थी, जिन्हें हमने नब्बे के दशक में पढ़ा। इस मौके पर राजकमल की ओर से तीन किताबों… 1) पचीस वर्ष पचीस कहानियां | शृंखला संपादक : राजेंद्र यादव | संकलन-संपादक : अर्चना वर्मा, 2) हंस की लंबी कहानियां | शृंखला संपादक : राजेंद्र यादव | संकलन-संपादक : अर्चना वर्मा, 3) मुबारक पहला कदम (हंस में प्रकाशित कथाकार की पहली कहानी) | शृंखला संपादक : राजेंद्र यादव | संकलन-संपादक : संजीव का लोकार्पण जरूर हुआ लेकिन इस पर कोई बात नहीं हुई। हम हंस की साहित्यिक पत्रकारिता के सफर को सुनने गये थे लेकिन हमें मौजूदा हंस बहुत ही बेतरतीब नजर आया, इतिहास की तो बात ही छोड़िए।
हंस की संगोष्ठी के लिए ये गर्व और संतोष देनेवाली बात होती है कि बिना कोशिश के जो श्रोताओं का हुजूम चला आता है, मीडिया, संस्कृति और साहित्य से जुड़े जिस तरह से लोग आते हैं, उनके बीच बहुत गंभीरता से कई मसले पर साझा-विमर्श किया जा सकता है लेकिन हंस की गोष्ठी इन श्रोताओं के होने का फायद नहीं उठा पाती। उनके बीच बात रखने से शायद असर भी हो लेकिन वो अक्सर चूक जाते हैं। ऐसे श्रोताओं को जुटाने में अच्छे-अच्छे आयोजकों के पसीने छूट जाते हैं। हंस को इन श्रोताओं का लाभ लेते हुए संगोष्ठी को गंभीर शक्ल देने की जरूरत है।
हर बार से अलग हंस की इस गोष्ठी को इस बार खुला और लोकतांत्रिक बनाने की कोशिश में मंच की तरफ से घोषणा की गई कि श्रोता सवाल-जबाब भी कर सकते हैं। पत्रकार उमाशंकर सिंह ने सवाल किया कि- हंस के अगले अंक के लिए इस बात की घोषणा है कि उत्तराखंड के मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक की कहानी छापी जा रही है,क्या हंस के 25 साल के बाद आगे पत्रिका की परिणति निशंक जैसे लोगों को छापकर ही होगी? ध्यान रहे कि पिछले कुछ महीनों से निशंक का नाम उत्तराखंड में घोटाले का पर्दाफाश करनेवाले पत्रकारों को कुचलने के तौर पर लगातार लिया जाता रहा है।.राजेन्द्र यादव ने उमाशंकर सिंह के सवाल का जबाब दिया कि हम अपने से अलग विचारधारा और समझ के लोगों को न छापकर उससे लेखक होने का अधिकार नहीं छिन सकते।..यादवजी का कहना बिल्कुल सही है लेकिन क्या हंस ने पिछले 25 सालों से सचमुच ऐसा किया है? अगर हां तो फिर निर्मल वर्मा हंस के लिए कभी कथाकार क्यों नहीं रहे। बहरहाल,ऐसे मौके पर हंस की रणनीति पर सवालिया निशान लगता ही है।..सिर्फ एक सवाल के बाद धन्यवाद ज्ञापन के लिए राजेन्द्र यादव को आमंत्रित किया जाता है। अगर इधर-उधर की ताम-झाम के बजाय ये सत्र लंबा होता तो गोष्ठी में जान आ जाती।
चलते-चलते हंस को एक सुझाव कि अब उसे प्रेमचंद जयंती के नाम पर संगोष्ठी आयोजन करने का दावा छोड़ देना चाहिए। जब आप ढाई-तीन घंटे की संगोष्ठी में सालों से एक बार भी प्रेमचंद और उनकी परंपरा का नाम तक नहीं लेते, तो उनके नाम पर संगोष्ठी आयोजित करने का क्या लाभ?