खैर, उस समय तो मैंने संभाल लिया। मैंने सीधे कहा- अध्यक्ष महोदय, जो समाज एक क्रिया में पुरुष की जगह स्त्री के प्रयोग हो जाने पर इतने ठहाके लगा रहा है, विरोध कर रहा है, आप उस पुरुष प्रधान समाज से इस बात की उम्मीद कैसे कर सकते हैं कि वह स्त्रियों के पक्ष में काम करेगा, स्त्रियों की जगह अपने को रखकर देखेगा। सच्चाई तो यह है कि पितृसत्तात्क समाज स्त्रियों के पक्ष में किसी भी तरह के बदलाव का विरोधी है, वह इसे पचा ही नहीं पाता कि कोई हम जैसा युवा, स्त्री-भावना को ध्यान में रखकर सोचे, समझे। अपना काम भी बन गया था। जजेज मेरी इस वाक् पटुता पर बहुत खुश थे। अंत में उन्होंने कहा भी था कि- हालांकि इसने मानती हूं का प्रयोग गलत किया है लेकिन जिस तरह बात को संभाला है, उसकी मैं कायल हूं। और वैसे भी हर पुरुष के भीतर एक स्त्री तो होती ही है और कभी-कभी पुरुष न बोलकर भीतर की स्त्री बोलने लग जाए तो इसमें बेजा क्या है। मुझे कुछ साहित्य सहित ४०० रुपये मिले थे।
उस दिन मैं रांची यूनिवर्सिटी के सेमिनार हॉल में वाद-विवाद प्रतियोगिता में बोल रहा था, जिसका विषय था- जनसंख्या वृद्धि के लिए देश की स्त्रियां जिम्मेवार है। मेरी ही तरह कॉलेज के करीब ३५ लोग बोल रहे थे। तब झारखंड बोलकर कोई अलग राज्य नहीं था, सब बिहार ही था। शुरु मे जब चार-पांच लोगों ने बताया कि - हां स्त्रियां ही जनसंख्या वृद्धि के लिए जिम्मेवार है, तो मैं एकदम से भड़क गया. मैं वहां बोलने भी नहीं गया था। मैं बस रांची वीमेंस कॉलेज की एक रीडर के साथ गया था जो कि स्त्री-विमर्श पर एक पत्रिका निकालती थी- नारी संवाद। पत्रिका के नए अंक का लोकार्पण था और उन्होंने मेरे एचओडी को कहा था कि जेवियर्स से भी कुछ बच्चों को आने बोलिए। कॉलेज आइडी लेकर गया था, इसलिए मैम की थोड़ी सी पैरवी के बाद मुझे बोलने का मौका मिल गया।
मैं खुश था और मैम भी खुश थी। वहां से ले जाकर मुझे गाड़ी में बिठाया और सीदे चुरुवाले के यहां ले गयी। जमकर खाया और लिफाफे से निकालकर आधे पैसे मैने दिए। उसने मजाक में कहा- स्त्रियों की तरफदारी करने पर चार सौ मिले है, एक स्त्री पर कुछ खर्च करना तो बनता ही है। बाद में उसने सारा किस्सा हमारे हिन्दी के बांग्लाभाषी एचओडी को सुनाया, जिनका मानना था कि वहां तो लोगों ने स्त्रीलिंग के प्रयोग पर ठहाके लगा दिए लेकिन सच्चाई यही है कि एक आम बिहारी का लिंग ज्ञान बहुत ही कमजोर होता है।
पांच लेडिस आ रहा है, उसको पुलिस पकड़कर धुन दिया, बस चला तब हमको ध्यान आया कि अरे, बेग तो लिए ही नहीं। बिहार में लेडिस, पुलिस, बस के लिए पुल्लिंग का प्रयोग आम बात है। इस प्रयोग के लोग इतने अभ्यस्त हैं कि कोई व्याकरणिक रुप से सही होते हुए भी इसके लिए स्त्रीलिंग का प्रयोग करता है तो वहां के लोगों को सुनने में अटपटा लगता है। दिल्ली से जाने पर मेरी कोशिश होती है कि ऐसा ही करुं तो कुछ लोग व्यंग्य भी कर देते हैं- बुझ गए कि तुम दिल्ली में रहते हो। अब बेसी मत छांटो और फिर मैं उसी रंग में रंग जाता हूं।
इसके ठीक उलट दूसरी स्थिति यह भी है कि कोई भी आम बिहारी जब दिल्ली में नया-नया आता है तब वो लिंग, श और स को लेकर ओवर कॉन्शस होता है। मेरा एक जूनियर साथी अभी तक इस फेर में सुमन को शुमन बोलता है। मेरे टोकने पर तर्क देता है-जाने दीजिए, शलजम को सलजम तो नहीं बोलते। इसके अलावे कई ऐसे शब्दों का प्रयोग करता है जो कि पुल्लिंग होते हैं। आप कह सकते हैं कि दिल्ली आने से वह भाषा के स्तर पर वो स्त्री प्रधान समाज रचने लग जाते हैं। दिल्ली आने पर अधिकांश चीजें स्त्री रुप में दिखने लग जाती है
लिंग की बात मुझे इसलिए सूझी कि मेरी एक दोस्त ने फोन पर कहा कि- यार, तुम बड़े डिवेटर रहे हो, स्कूल में बच्चों को एक डिवेट तैयार करानी है, कुछ माल-मटेरियल मेल कर दो और साथ में जोड़ दिया कि- चिंता मत करना लड़कों के लिए मैं मानती हूं कि जगह मानता हूं खुद कर लूंगी। बुरा मान गए. मैंने हंसते हुए कहा- अरे नहीं, सच्चाई यही है कि मैं जब भी कोई लेख किसी को छपने देता हूं तो एक बार जरुर कह देता हूं, लिंग का मामला आप अपने स्तर से देख लेंगे। मेरे एक- दो दोस्त जो कि पत्रिका निकालने का काम करते हैं, सबकुछ हो जाने पर हंसते हुए कहते हैं- यार, सारा काम हो गया, अब एकबार किसी गैरबिहारी से प्रूफरीडिंग करानी है।
RADIO ACTIVE : FM stations did their bit to help stunned Delhities on terror weekend
रेडियो सिटी की जॉकी सिमरन को एक ऑडिएंस ने फोन करके बताया कि आपलोगों ने बहुत अच्छा काम किया है। आप इस मुश्किल घड़ी में भी लोगों का हौसला बनाए रखा। आपकी हंसी बहुत अच्छी है और आपको पता है आपकी तस्वीर इंडियन एक्सप्रेस में छपी है। सिमरन फिर हंसती है...औऱ थैंक्यू कहती है।आप क्या कहते हैं कि इस तीन साल में एफएम का विरेचन हुआ है औऱ न्यूज चैनलों को हर बात में झौं-झौं करने की आदत पड़ गयी है। भटके हुए देश में क्या चैनल भी खबरों से हमें भटकाने की कोशिश करते हैं।
मैं अपना जरुरी काम छोड़कर उसे लेने गया था और अब तय कर लिया था कि इसे कमरे तक नहीं लाना है. मैंने उसे कहा- अब तुझसे मिल लिया, तू यहां से जहां जाना चाहता है जा। उसने चिल्लाकर पूछा- पर कहां। मैंने कहा- जहन्नुम लेकिन मेरे से मिलने दोबारा मत आना.
अशोक वाजपेयी के जनसत्ता के कभी-कभार कॉलम में साहित्य से अन्तर्लोक के गायब हो जाने की चिंता पर जब मैनेजर पांडेय ने चुटकी ली तो उनके साथ करीब सवा सौ लोगों ने भी मजे लिए। सब इस बात को लेकर वाजपेयीजी का मजाक बना रहा था कि वो साहित्य में दुनियाभर की समस्याओं को खोजने के बजाय अन्तर्लोक खोज रहे हैं। मतलब साफ है कि हिन्दी साहित्य का एक बड़ तपका है जो साहित्य को जीवन की वास्तविक चीजों से जोड़कर देखना चाहता है, वो चाहता है कि साहित्य जीवन से कोई अलग चीज न हो। इसलिए इनके बीच जो कोई भी साहित्य को किसी अलग आइवरी टावर पर बिठाने की कोसिश करता है, उसे आलोचना का शिकार होना पड़ता है। लेकिन
इस जीवन की वास्तविकता से क्या तुक है। क्या साहित्य में बाकी चीजों की तरह ये भी पहले से ही तय कर लिया गया है कि जीवन की वास्तविकता फलां-फलां होगी, व्यक्ति चाहे जो भी हों और परिस्थितियां चाहे जो भी हो। यानि साहित्य में वास्तविकता हमारे जीवन से न लेकर अलग से एक पैकेज के रुप में ली जा जाती है। मुझे साहित्य अकादमी में इस बात पर हैरत हुई कि क्या लेकचरशिप की पक्की नौकरी पाया श्रोता औऱ क्या कम से कम गेस्ट बेसिस पर नौकरी के लिए मार कर रहा श्रोता वक्ताओं के बाजार विरोधी बयान पर समान रुप से संतोष जाहिर कर रहा है। उसे भी लग रहा है कि सही बात है, बाजार है ही बहुत गड़बड़ चीज। लेकिन असल सवाल तो है कि साहित्य में जिस वास्तविकता और अनुभूत सत्य की बात की जाती है क्या बाजार उससे परे है। साहित्य ऐसे कैसे मानकर चलता है कि हमारे जीवन में बाजार हमारी दशाओं को तय ही नहीं करता। ट्रक की ट्रक हीन्दी की किताबें लिखी गयीं है जिसके मूल में रुपये-दो रुपये से लेकर हजार रुपये तक के अभाव के उपर कथानक गढ़े गए हैं।
कोई अगर ये कह दे कि बाजार से उसका कोई लेना-देना नहीं है। साहित्य पढ़-पढ़ाकर न तो वो बाजार को प्रभावित कर रहा है और न ही वो खुद बाजार से प्रभावित हो रहा है, कम से कम साहित्य ने उसे इतनी तो समझ दे ही दी है कि वो बाजार से दूर रहे तो या तो वो पाखंड रच रहा है या फिर दिमागी रुप से हारा हुआ इंसान है। तीसरी स्थिति ये भी हो सकती है कि वो अपने को इनोसेंट और मासूम कहलवाने की फिराक में हो। हिन्दी समाजी में एक ये भी बीमारी है कि वो हर बात में अपने को मासूम कहलवाना चाहते हैं। इसके लिए जरुरी होता है कि वो राजनीति में न होने की बात करें औऱ बाजार से अलग होने की बात करें। वो दुनियाभर की बातों को जानने का दावा करते हुए अंत में ये जोड़ देंगे कि- बाकी हमसे बाजार और पॉलिटिक्स की बात मत कीजिए। अपनी मां की भाषा में कहूं तो नौ जानते हैं लेकिन छह जानते ही नहीं। समझदार आदमी में तो एक ही बार में खारिज कर देगा कि अगर आज आप राजनीति और बाजार नहीं जानते तो फिर जानते क्या है ।
दरअसल हिन्दी समाज में बाजार को लेकर जितने तरह के भ्रम और विरोध पैदा किए गए हैं उससे आनेवाली पीढ़ी मुक्त ही नहीं हो पाती। वो इसे पुश्तैनी संस्कार मानकर चलती है। ये वो संस्कार हैं जो तमाम तरह की आधुनिकता के बावजूद बेन्टली की टाई लगाने के पहले जनेउ पहनने पर विवश करती है। हिन्दी समाज की नई पीढ़ी बाजार को लेकर कुछ इसी तरह का रवैया अपनाती है। जबकि सच्चाई ये है कि साहित्य और हिन्दी जितनी तेजी से बाजार के बीच जा रही है औऱ शुरु से ही जा रही है उतनी तेजी से उसका विरोध कभी रहा ही नहीं। लिखने के स्तर पर इसलिए रहा कि लोगों ने आपसी समझौते से तय कर दिया है कि बाजार के विरोध में लिखने से ही साहित्य का बाजार गर्म रहेगा, नहीं तो हम सब लालाओं के मैल करार दिए जाएंगे। लेकिन जीने के स्तर पर देखिए, जरा खोजकर बता दीजिए हमें हिन्दी का कौन आदमी बाजार विरोधी है औऱ बाजार के आगे नतमस्तक नहीं है।
नोट- पिछली पोस्ट में लोगों ने बाजार का अर्थ दूकान और मॉलभर से लिया जबकि ये बाजार का बहुत ही छोटा रुप है। बाजार जितना भौतिक रुप में मौजूद है, उतना ही अवधारणात्मक औऱ जीवन जीने के लिए एक पैटर्न भी। इस स्तर पर आकर यह चुनाव का मुद्दा हो जाता है कि हम कितना जरुरत के मुताबिक बाजार में रहें औऱ कितना पैटर्न के स्तर पर।....