.

तहलका बेचते हैं सैंडविच ब्ऑय

Posted On 11:12 am by विनीत कुमार | 3 comments


जिस मूल्य को लेकर तहलका काम कर रहा है, जिस बात को लेकर वह इलीट लोगों के बीच ट्रू जर्नलिज्म का ढोल पीट रहा है, आपको नहीं लगता कि वह औरों से भी घटिया काम कर रहा है। अब बताइए तहलका को क्या जरुरत पड़ गयी है कि जहां भी रेडलाइट है वहां वह सैंडविच ब्ऑय से मैगजीन बिकवाए। आपको क्या लगता है कि जिस रेडलाइट पर ये बच्चे तहलका के इश्यू लेकर आपसे-हमसे घिघियाते फिरते हैं, क्या कभी तरुण तेजपाल की नजर नहीं पड़ती होगी। वो तो अपनी एसी गाड़ी से आराम से गुजर जाते होंगे.

एक न्यूज एजेंसी में काम करनेवाले मेरे एक साथी ने जब अपनी झल्लाहट मेरे सामने रखी तो अचानक से कोई तर्क मेरे दिमाग में नहीं सूझ रहा था कि मैं क्या बोलूं। मैं अब तक सिर्फ इतना जानता हूं कि तहलका एक हद तक ट्रू जर्नलिज्म कर रहा है. आप तहलका के मुकाबले बाकी के मीडिया हाउस में देख लीजिए- आदिवासी, गुजरात नरसंहार में तबाह हुए मुसलमानों, देश के किसानों और हाशिए पर के लोगों की कितनी नोटिस ली जाती है। मेरा दोस्त अड़ा हुआ था. चलो मान लिया कि वो उन सब की नोटिस ले रहा है जिनतक नेता भी इस लोभ से कि वोट मिलेंगे, नहीं पहुंचते, पत्रकारों की कौन बात करे।

मैंने एक ही बात कही- देखो, मामला ऐसा है कि अब जो भी मीडिया हाउस,संस्थान या इन्टल लोग अच्छी बातें कहते और लिखते हैं, वो दरअसल समाज के भले के लिए कह रहे हैं, इससे सामाजिक जागरुकता आएगी, ऐसा उनके दिमाग में नहीं होता। यह सब लिखना और कहना उनके लिए नॉलेज प्रोड्यूस करना है, विचारों का उत्पादन भर है औऱ वो उत्पादन भर के लिए ही जिम्मेदार हैं। मसलन एक पत्रकार भ्रष्टाचार के विरोध में देशभक्ति पैदा करने के लिए जिम्मेदार है। उसकी रिपोर्टिंग में कितना प्रोफेशनलिज्म हैं कि वह ऑडिएंस के बीच यह भाव पैदा कर सके, उसकी काबलियत बस इतने भर से तय होती है कि ऐसा करने में वो किस हद तक सफल हो पाया है। जरुरी नहीं है कि वह खुद भी ऐसा ही व्यवहार करे। जो विचार और संदेश वो आंडिएंस को दे रहा है, उसे खुद भी मानने के लिए बाध्य नहीं है। अगर वो ऐसा नहीं करता है तो उसकी प्रोफेशनलिज्म मारी जाएगी।

प्रोफेशनलिज्म एरा की एक बहुत बड़ी शर्त है कि लोग जिस चीज का उत्पादन कर रहे हैं उसको लेकर भावुक न हो जाएं। तुमने देखा है नोएडा और गाजियाबाद के किसी फैक्ट्री के मजदूर को कि वह जूते बनाने के बाद उसको लेकर भावुक हो गया हो। ऐसा है कि वह अगर नाइकी के जूते बना रहा है तो बाध्य है कि वो भी उसी कंपनी के जूते पहने ? उसका काम वहीं से खत्म हो जाता है तब वह बिकने लायक जूते बना देता है, दैट्स ऑल। फिलहाल अगर इस लिहाज से तहलका के सैंडविच ब्ऑय द्वारा बेचे जाने की बात को देखो तो मुझे नहीं लगता कि तुम्हें तरुण तेजपाल पर बहुत गुस्सा आएगा।....कहने को तो मुझे जो लगा, मैंने अपने दोस्त को कह दिया लेकिन इसी कड़ी में एक बात और याद आ गयी।

मेरे एरिया के तहलका डिस्ट्रीब्यूटर ने बातचीत में एक बार मुझे बताया कि तहलका चार लाख से कम के विज्ञापन नहीं लेती है। उसके बताने का भाव कुछ इस तरह से था कि वह बाकी के मीडिया हाउस से तहलका को अलग करना चाह रहा हो। मतलब ये कि यह कोई हिन्दी चैनल नहीं है कि तीस रुपये की चड्डी से लेकर चालीस रुपये के हवाई चप्पल तक का विज्ञापन ले ले। तिसपर कि अभी हाथरस के शर्तिया इलाज का विज्ञापन आना बाकी है।..तहलका की औकात समझने-समझाने के लिए इतना काफी था।..और वैसे भी किसी भी मैगजीन, अखबार और चैनल की हैसियत इसी से बनती ही है कि वह किस-किस मंहगे उत्पादों के विज्ञापन जुटा ले रहा है।

अब बारी पत्रकारों को दी जानेवाली सैलरी पर थी। मैंने कहा कि- सुना है, यहां काम करनेवालों को मोटी रकम मिलती है। इतनी कि कोई पत्रकार चाहे तो रबर की तरह दो-चार महीने में गाड़ी की साइज बढ़ा सकता है। अबकी मेरे दोस्त का पारा और गरम हो गया। लीजिए, अब देखिए। दुनियाभर की चीजों पर पैसा खर्च करने के लिए तहलका के पास पैसा है लेकिन डिस्ट्रीव्यूशन सिस्टम दुरुस्त करने के लिए पैसा नहीं है। आप सोचिए न कि जिस गरीब और अनाथ बच्चों की अंदर स्टोरी छपी होती है, मोटे विज्ञापनों के दम पर एकदम चिकने झकझक कागजों पर, उसे देखकर बच्चों पर क्या बितती होगी। मैंने भी जोड़ा- और कभी-कभी तो कवर पेज पर ऐसे ही बच्चों की तस्वीरें भी होती है। ट्रू जर्नलिज्म का फंड़ा ही है-देश की एक लाचार तस्वीर।

नोट- सैंडविच ब्ऑय मार्केटिंग का शब्द है। कम उम्र के बच्चों का ऐसा समुदाय जिसे मार्केटिंग एजेंसियां रेडलाइट या फिर भीडभाड़ इलाके में मैगजीन या किताबें बेचने के लिए पकड़ती है। इसके जरिए माल बेचना आसान होता है। संभव हो इसमें कमीशन को लेकर बचत भी ज्यादा होती हो। दिल्ली में तो मैंने कई जगहों पर फूल की जगह पाइरेटेड आर्गुमेंटेटिव इडियन, गॉड ऑफ स्माल थिंग्स सहित तहलका, आउटलुक और इंडिया टुडे जैसी पत्रिकाएं बच्चों को बेचते हुए देखा है। यहां पर आप मैगजीन की गुणवत्ता के कारण नहीं, इन बच्चों से पिंड छुड़ाने के लिए खरीदते हैं। आप पाठक की हैसियत से नहीं दाता की हैसियत से खरीदते हैं क्योंकि ये बच्चें बेचते नहीं लगभग भीख मांगते हैं। अब कोई कहे कि तहलका सहित बाकी पत्रिकाएं भीख मांगने की संस्कृति को बढ़ावा दे रहे हैं तो ये तो वो ही जानें।

| | edit post
जनसंख्या वृद्धि के लिए स्त्रियां ही जिम्मेवार है, इस विषय के विरोध में बोलते हुए जैसे ही मेरे मुंह से निकला कि - मैं मानती हूं कि, तभी सेमिनार हॉल में बैठे लोग ठहाके मारने लग गए। कुछ की तो हंसी रुकने ही नहीं पा रही थी कि लड़का होकर भी मानती हूं कैसे बोल गया। पीछे से एक भाई जो कि शायद मेरे विरोध में बोलने वाला था, जोर से चिल्लाया- अजी जब आपको स्त्रीलिंग-पुल्लिंग का ज्ञान नहीं है तो फिर आप बोलने कैसे चले आए. पहले जाकर आप पता कीजिए कि आप मानता हूं वाले बिरादरी से हैं या फिर मानती हूं वाले बिरादरी से। उसकी इस बात पर लोग फिर ठहाके मारने लग गए। अधिकांश लोगों के चेहरे पर भाव इस तरह से थे कि- नहीं ऐसा इसने महज भावावेश में बोल दिया है। ऐसा कैसे हो सकता है कि उसे इतना भी ज्ञान न हो। मंच से उतरने के बाद लोगों ने यही कहा कि- बोलते तो बहुत जोरदार हो, लेकिन अपना लिंग कैसे भूल गए।
खैर, उस समय तो मैंने संभाल लिया। मैंने सीधे कहा- अध्यक्ष महोदय, जो समाज एक क्रिया में पुरुष की जगह स्त्री के प्रयोग हो जाने पर इतने ठहाके लगा रहा है, विरोध कर रहा है, आप उस पुरुष प्रधान समाज से इस बात की उम्मीद कैसे कर सकते हैं कि वह स्त्रियों के पक्ष में काम करेगा, स्त्रियों की जगह अपने को रखकर देखेगा। सच्चाई तो यह है कि पितृसत्तात्क समाज स्त्रियों के पक्ष में किसी भी तरह के बदलाव का विरोधी है, वह इसे पचा ही नहीं पाता कि कोई हम जैसा युवा, स्त्री-भावना को ध्यान में रखकर सोचे, समझे। अपना काम भी बन गया था। जजेज मेरी इस वाक् पटुता पर बहुत खुश थे। अंत में उन्होंने कहा भी था कि- हालांकि इसने मानती हूं का प्रयोग गलत किया है लेकिन जिस तरह बात को संभाला है, उसकी मैं कायल हूं। और वैसे भी हर पुरुष के भीतर एक स्त्री तो होती ही है और कभी-कभी पुरुष न बोलकर भीतर की स्त्री बोलने लग जाए तो इसमें बेजा क्या है। मुझे कुछ साहित्य सहित ४०० रुपये मिले थे।
उस दिन मैं रांची यूनिवर्सिटी के सेमिनार हॉल में वाद-विवाद प्रतियोगिता में बोल रहा था, जिसका विषय था- जनसंख्या वृद्धि के लिए देश की स्त्रियां जिम्मेवार है। मेरी ही तरह कॉलेज के करीब ३५ लोग बोल रहे थे। तब झारखंड बोलकर कोई अलग राज्य नहीं था, सब बिहार ही था। शुरु मे जब चार-पांच लोगों ने बताया कि - हां स्त्रियां ही जनसंख्या वृद्धि के लिए जिम्मेवार है, तो मैं एकदम से भड़क गया. मैं वहां बोलने भी नहीं गया था। मैं बस रांची वीमेंस कॉलेज की एक रीडर के साथ गया था जो कि स्त्री-विमर्श पर एक पत्रिका निकालती थी- नारी संवाद। पत्रिका के नए अंक का लोकार्पण था और उन्होंने मेरे एचओडी को कहा था कि जेवियर्स से भी कुछ बच्चों को आने बोलिए। कॉलेज आइडी लेकर गया था, इसलिए मैम की थोड़ी सी पैरवी के बाद मुझे बोलने का मौका मिल गया।
मैं खुश था और मैम भी खुश थी। वहां से ले जाकर मुझे गाड़ी में बिठाया और सीदे चुरुवाले के यहां ले गयी। जमकर खाया और लिफाफे से निकालकर आधे पैसे मैने दिए। उसने मजाक में कहा- स्त्रियों की तरफदारी करने पर चार सौ मिले है, एक स्त्री पर कुछ खर्च करना तो बनता ही है। बाद में उसने सारा किस्सा हमारे हिन्दी के बांग्लाभाषी एचओडी को सुनाया, जिनका मानना था कि वहां तो लोगों ने स्त्रीलिंग के प्रयोग पर ठहाके लगा दिए लेकिन सच्चाई यही है कि एक आम बिहारी का लिंग ज्ञान बहुत ही कमजोर होता है।

पांच लेडिस आ रहा है, उसको पुलिस पकड़कर धुन दिया, बस चला तब हमको ध्यान आया कि अरे, बेग तो लिए ही नहीं। बिहार में लेडिस, पुलिस, बस के लिए पुल्लिंग का प्रयोग आम बात है। इस प्रयोग के लोग इतने अभ्यस्त हैं कि कोई व्याकरणिक रुप से सही होते हुए भी इसके लिए स्त्रीलिंग का प्रयोग करता है तो वहां के लोगों को सुनने में अटपटा लगता है। दिल्ली से जाने पर मेरी कोशिश होती है कि ऐसा ही करुं तो कुछ लोग व्यंग्य भी कर देते हैं- बुझ गए कि तुम दिल्ली में रहते हो। अब बेसी मत छांटो और फिर मैं उसी रंग में रंग जाता हूं।
इसके ठीक उलट दूसरी स्थिति यह भी है कि कोई भी आम बिहारी जब दिल्ली में नया-नया आता है तब वो लिंग, श और स को लेकर ओवर कॉन्शस होता है। मेरा एक जूनियर साथी अभी तक इस फेर में सुमन को शुमन बोलता है। मेरे टोकने पर तर्क देता है-जाने दीजिए, शलजम को सलजम तो नहीं बोलते। इसके अलावे कई ऐसे शब्दों का प्रयोग करता है जो कि पुल्लिंग होते हैं। आप कह सकते हैं कि दिल्ली आने से वह भाषा के स्तर पर वो स्त्री प्रधान समाज रचने लग जाते हैं। दिल्ली आने पर अधिकांश चीजें स्त्री रुप में दिखने लग जाती है
लिंग की बात मुझे इसलिए सूझी कि मेरी एक दोस्त ने फोन पर कहा कि- यार, तुम बड़े डिवेटर रहे हो, स्कूल में बच्चों को एक डिवेट तैयार करानी है, कुछ माल-मटेरियल मेल कर दो और साथ में जोड़ दिया कि- चिंता मत करना लड़कों के लिए मैं मानती हूं कि जगह मानता हूं खुद कर लूंगी। बुरा मान गए. मैंने हंसते हुए कहा- अरे नहीं, सच्चाई यही है कि मैं जब भी कोई लेख किसी को छपने देता हूं तो एक बार जरुर कह देता हूं, लिंग का मामला आप अपने स्तर से देख लेंगे। मेरे एक- दो दोस्त जो कि पत्रिका निकालने का काम करते हैं, सबकुछ हो जाने पर हंसते हुए कहते हैं- यार, सारा काम हो गया, अब एकबार किसी गैरबिहारी से प्रूफरीडिंग करानी है।
| | edit post

धनतेरस की शाम थी। मेरा दोस्त कुमार कुणाल दिल्ली आजतक के लिए लेडी हार्डिंग मेडिकल कॉलेज से लाइव रिपोर्टिंग कर रहा था। बहुत भावुक था वो। नीचे हॉस्टल गेट पर सभी के लिए एक-एक पैकेट मोमबत्ती,मिठाई का डिब्बा,माचिस और बाकी दूसरी चीजें रखी थी। गार्ड साहब हॉस्टल के हर रेसीडेंट को बता रहे थे- सर,लीजिए ये आपके लिए है। मेस सेक्रेटरी ने कहा है-हॉस्टल का कोई भी बंदा हो तो उसे एक-एक पैकेट लेने के लिए बोलना। बहुत कम ही लोगों ने लिया था पैकेट। बम विस्फोट के बाद किसी का मन नहीं हो रहा था की मिठाई खाए। इन सबके बीच मैं मोमबत्ती का पैकेट लेकर कॉमन रुम में कान में एफएम लगाए सुन रहा था और साथ ही कुणाल की रिपोर्टिंग भी देख रहा था।टीवी पर बार-बार बम बिस्फोट में मारे गए परिजनों के फुटेज दिकाए जा रहे थे। उन्हें रोते हुए दिखाया जा रहा था। कुणाल बता रहा था कि फलां पास से मोमबत्ती लाने गया था सो अभी तक नहीं आया। सब लोग बदहवाश एक-दूसरे को खोज रहे थे. चारो ओर अफरातफरी मची थी। दस मिनट तक लगातार देखता रहा था मैं। शुरु-शुरु में तो टीवी देखते हुए भी ध्यान एफएम पर था। आवाज आ रही थी- रेडियो मिर्ची सुन रहे हैं आप और अगला गाना है.....कजरारे-कजरारे। मैं टीवी की फुटेज और एफएम में कोई संतुलन नहीं बना पा रहा था. एक पर लगातार बम बिस्फोट की खबरें,चीखते-चिल्लाते लोग और दूसरे पर रेडियो मिर्ची सुननेवाले ऑलवेज खुश का दावा। मन पूरी तरह भन्नाया हुआ था। एक बार तो मन में आया कि बंद कर दूं इसे, बड़ा ही बेशर्म माध्यम है। यहां लोगों की जान जा रही है और ये लगातार बेमतलब की बातें और गाने सुनाए जा रहा है। लेकिन मैंने दो घंटे तक एफएम बंद नहीं किया।मैं इंतजार कर रहा था कि अब इसके बाद वो दिल्ली बम धमाके के बारे में कुछ बात करेंगे, कुछ अफसोस जताएंगे। जो लोग एफएम सुन रहे हैं उन्हें कुछ जानकारियां देंगे। लेकिन गाने चलते रहे और दिल्ली बम बिस्फोट पर कोई बात नहीं हुई। पहली बार मुझे वाकई बहुत गुस्सा आ रहा था एफएम पर। मैं कुछ और तो नहीं इसकी जिंदादिली माहौल बनाने का कायल रहा हूं। दिल्ली में जब भी मन उदास हुआ है, डिप्रेशन आया है,एफएम ने मु्झे बहुत साथ दिया है। दिल्ली से बाहर जाने पर सबसे ज्यादा यहां के एफएम को मिस करता हूं। लेकिन आज इधर से या उधर से किसी भी तर्क के सहारे एफएम के इस रवैये को मैं जस्टीफाई नहीं कर पा रहा था। जिंदादिली के नाम पर क्या केवल खुश ही हुआ जा सकता है। जीवन की सच्चाई के बीच से खुशी को इस तरह बीन-बीनकर अलग कर लेना और बाकी दर्द को,तकलीफ को ऐसे ही छोड़ देना इतना आसान है। एफएम कुछ ऐसा ही कर रहा था। अंत में भारी मन से मैंने एफएम बंद कर दिया और देर रात तक टीवी से चिपका रहा।अबकी बार दिल्ली में दूसरी बार हुए बम बिस्फोट के वक्त मैं देश-दुनिया से कटा बिल्कुल एकांत में पड़ा था। पिछले पांच दिनों से भारी थकान और कमजोरी की स्थिति में भी लोगों का लगातार आना-जाना बना हुआ था। फोन पर इतनी व्यस्तता बढ़ गयी थी कि मैं झल्ला-सा गया था। दिल्ली में हो,जरा दरियागंज से फलां-फलां चीजें खरीद लेना. गया से मामू आ रहे हैं,दो दिन रहेंगे जरा देख लेना। दिनभर की चिड़चिड़ाहट औऱ रात होने पर दर्द के एहसास के बीच मैं बुरी तरह पिस रहा था। इन सबके बीच कब दे रहे हो विनीत लेख, बेटा लेट हो रहा हूं या फिर यार इस बार क्या हो गया। अंत में मैंने मोबाइल बंद किया, एक बैग में कुछ कपड़े डाले औऱ दूसरे बैग में पढ़ने-लिखने की चीजें और पंकज भैय्या के पास इस विश्वास से चला गया कि डॉक्टर हैं-मुझे राहत मिल जाएगी,वहां जाने से।पिछले चार साल में पहली बार हुआ है कि मैंने चार दिनों तक टीवी नहीं देखा, रेडियो नहीं सुना, बॉलकनी से उठाकर अखबार तक नहीं पढ़ा। भैय्या की नाइट शिफ्ट चल रही थी और वो सुबह आते ही सो जाते। मैं बालकनी तक जाता ही नहीं,अखबार उठाने। कम्प्यूटर पर मेल नहीं खोलता। दिनभर भसर करने का शौकीन मैं किसी से बात नहीं करना चाह रहा था, किसी के बारे में जानना नहीं चाह रहा था। चार दिनों तक बस लेख लिखता रहा।पांचवे दिन वहां से सारा सामान लेकर वापस अपने हॉस्टल आया। दस बजे पहुंचने पर पता चला कि आज दिल्ली में शाम को बम बिस्फोट हुआ है। मैं टीवी देखता इसके पहले सिमकार्ड डालकर मोबाइल फोन ऑन किया और फिर से एफएम सुनने लगा। सभी चैनलों पर ऑडिएंस से कहा जा रहा था- आपको किसी के बारे में कोई भी जानकारी लेनी हो,कुछ भी बताना हो,हमें फोन करें। आपको किसी भी तरह की मदद चाहिए रेडियो मिर्ची आपके साथ है। लगभग सारे चैनलों पर इसके बारे में कुछ न कुछ बातें की जा रही है। कॉलर अगर फोन कर रहे हैं तो पहली ही बात कह रहे हैं-दिल्ली के लोगों का दिल बड़ा है, हम आतंकवादियों के नापाक इरादे को पूरा नहीं होने देंगे। हालांकि सारी बातों में जज्बातों के अलावे कुछ भी नहीं था। फिर भी एफएम सुनते हुए लग रहा था कि अबकी बार धमाके का असर एफएम पर भी हुआ है। सारे जॉकी पीडितों के प्रति संवेदना व्यक्त कर रहे हैं।टीवी देखना अगले ही दिन संभव हो सका. पहले तो स्टार,फिर जी और फिर बाकी के सारे चैनलों पर एक ही बात- तीन-तीन ड्रेस बदले थे शिवराज पाटिल ने उस दिन औऱ फिर एंकर का थोक के भाव में फोन लाइन और फील्ड पर मौजूद रिपोर्टरों से सवाल। सब पाटिल पर आकर अटके थे। हादसे की खबर को राजनीतिक खबर बनाने की प्रक्रिया बड़ी तेजी से चल रही थी। लोगों की कराह फील्ड से आकर डेस्क तक ही रह जाते। स्टूडियो तक आने तक में दम तोड़ जाते। इसके बीच मरनेवाले, उनके परिवारवालों और सरकारी कार्यवाइयों से जुड़ी खबरों का स्पेस कम हो रहा था। अगले दिन अखबार ने फ्रंट पर पाटिल को भी छापा। चैनल तीन बिंडो काटकर पीटिल की तीन ड्रेस दिखाने में लगे रहे।आज इंडियन एक्सप्रेस ने खबर छापी है-
RADIO ACTIVE : FM stations did their bit to help stunned Delhities on terror weekend
रेडियो सिटी की जॉकी सिमरन को एक ऑडिएंस ने फोन करके बताया कि आपलोगों ने बहुत अच्छा काम किया है। आप इस मुश्किल घड़ी में भी लोगों का हौसला बनाए रखा। आपकी हंसी बहुत अच्छी है और आपको पता है आपकी तस्वीर इंडियन एक्सप्रेस में छपी है। सिमरन फिर हंसती है...औऱ थैंक्यू कहती है।आप क्या कहते हैं कि इस तीन साल में एफएम का विरेचन हुआ है औऱ न्यूज चैनलों को हर बात में झौं-झौं करने की आदत पड़ गयी है। भटके हुए देश में क्या चैनल भी खबरों से हमें भटकाने की कोशिश करते हैं।
| | edit post

गुंडे,मवालियों और बाजार के दलालों के बीच हिन्दी एक असहाय स्त्री की तरह खड़ी है। अगर आप इन दिनों हिन्दी के नाम पर मर्सिया पढ़नेवालों पर गौर कर रहे हैं तो अपनी हिन्दी को लेकर इससे कोई अलग छवि नहीं बनने पाती है। हाय हिन्दी,आय हिन्दी करके कराह रहे, तड़प रहे हिन्दी मठाधीशों से हिन्दी अखबार भरा पड़ा है। इन सबके बीच हिन्दी के जिन मठाधीशों को सालभर तक कोई नहीं पूछता,हिन्दी पखवाड़े के लिए कोई बड़ा मठाधीश नहीं मिल पाने की स्थिति में इन्हें ही पकड़ लिया गया है। आखिर हिन्दी पखवाड़ा है,किसी न किसी से तो मातमपुर्सी करवानी ही है। ये वही स्थिति है जब पितृपक्ष में फुर्सत में रहे ब्राह्मणों की क्राइसिस हो जाती है जबकि श्राद्ध कराना जरुरी होता है। क्या किया जाए। तब दो ही उपाय बचते हैं-या तो जाति से ब्राह्मण रहे बुतरु पंडिजी को ही पकड़ लिया जाय,मंत्र भले ही न पढ़ पाते हों,हाथ से छू तो देंगे कम से कम। या फिर उम्र पार कर चुके लोथ पंडिजी को ही पकड़ लिया जाए,जीवन भर श्राद्ध कराया है,कुछ तो जस होगा ही। हिन्दी पखवाड़े के दौरान हिन्दी के माठाधीशों की ऐसी ही क्राइसिस हो जाती है तब लोथ(जो चलने-फिरने लायक नहीं होते, यहां जो पढ़ने और अपडेट होने की स्थिति में नहीं होते) मठाधीश को पकड़ लिया जाता है। हिन्दी में बुतरु को शामिल करने का प्रचलन अभी शुरु नहीं हुआ है। लोग लोथ से ही काम चला लेते हैं। खैर,लिफाफे की जोर से ये मठाधीश कुछ न कुछ तो बोल जाते हैं,आयोजक बुलाते समय आपस में बात करते हैं-अरे,कुच्छो न कुच्छो तो बोलेंगे ही,बुला लीजिए,अब अंतिम समय में कहां अपडेट बाबा को खोजें,सब तो चैनल और अखबार ने तो पहले ही हथिया लिए हैं। लेकिन इनका बोलना वैसा ही होता है,जैसा कि पूर्णिमा में सत्यनारायण स्वामी की कथा का पढ़ा जाना। सालों से वही कहानी,न कथानक के स्तर पर कोई बदलाव और न ही कंटेट के स्तर पर कोई नयापन। कोई मठाधीश चाहे तो एक ही बात का लेमिनेशन कराके रख ले और एक सभा करके तय कर ले कि हर साल इसी बात को मंत्र की तरह दुहराया जाएगा। हिन्दी को सती-सावित्री और बाजार के दलालों से मुक्त रखने के लिए यह उपाय जोरदार है।दूसरी स्थिति है उनलोगों की जो हिन्दी को एक ऐसी स्त्री के रुप में देख रहे हैं जिसे कल तक रोटी-भात के पैसे नहीं होते थे,आज वो सप्ताह में आराम से एकबार फेशियल करा रही है। बाकी के कॉस्ट्यूम्स और हर्बल से भरा है बैनिटी बॉक्स। हिन्दी न केवल फल-फूल रही है बल्कि बाजार के सहयोग से धीरे-धीरे मॉड और स्लीम होती जा रही है। हिन्दी की इस फीगर पर अपनी राष्ट्रपति की भी नजर गयी और उन्होंने बताया कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने हिन्दी को बड़े पैमाने पर अपनाया है,वे विज्ञापनों में हिन्दी का प्रयोग करने लगे हैं। इसका श्रेय प्रवासी भारतीयों को जाता है जिन्होंने हिन्दी का विस्तार किया। मेरी तरफ से प्रवासी भारतीयों को शुक्रिया जिन्होंने हिन्दी को ऐसा लुक दिया। हालांकि हिन्दी के इस नए रुप पर खुश होनेवाले लोगों की संख्या अभी बहुत ही कम है, जो खुश हो रहे हैं उन्हें हिम्मत जुटानी पड़ रही है कि अगर कोई उन्हें बाजारवादी भी कह देंगे तो रिएक्ट करने के बजाए चुपचाप अपना काम करते रहना है।इसी हो-हल्ले के बीच जहां मैंने खुद हिन्दी पर कुछ भी पढ़ना-गुनना छोड़ दिया। मेले-ठेले से मुझे बहुत तकलीफ होती है,कौन रगड़ मार के चला जाए, इसलिए दोने बाजार में खरीदने के बाद घर लाकर ही खाना पसंद करता हूं। सब सामान जुटा रहा हूं और फुर्सत से पढ़ने की सोच रहा था कि इसी बीच शंभूनाथ ने लिख दिया कि हिन्दी के विकास में जितने रोड़े हिन्दी अधिकारी अटकाते हैं उससे कम रोड़े हिन्दी के मास्टर लोग नहीं अटकाते(जनसत्ता,१५ सितंबर,०८), तब सोचा, नहीं भाई इत्मीनान वाला फंडा छोड़ों,कुछ अभी हो चख लो, नहीं तो सेरा जाने पर(ठंडा होने को सेरा जाना कहते हैं) मजा नहीं आएगा। सो दिल्ली हादसों के बीच हिन्दी को लेकर बैठ गया।
| | edit post

स्त्री अभी संतान नहीं होने पर बांझ कहलाने के दर्द से मुक्त भी नहीं हो पायी है कि पुरुष समाज ने उसके दर्द को बढ़ाने के लिए एक और मुहावरा गढ़ लिया है। सबके बारे में पूछने के बाद उसने मेरे साथ पढ़नेवाली एक लड़की के बारे में पूछा और मेरा जबाब सुनकर उसने सीधे कहा कि- जिस लड़की के अब तक भी कोई ब्ऑयफ्रैंड नहीं है वो समझो ठूंठ है।

फोन आने के दस मिनट बाद भागकर मैं उसे विश्वविद्यालय मेट्रो स्टेशन पर मिलने गया था। अभी वही से आ रहा हूं। मिलने क्या गया था, तय था कि आज वो पूरा दिन मेरे साथ बिताएगा. हांलाकि मैंने उसे अपनी परेशानी पहले ही बता दी थी कि- देख काम में लगा हूं, कल तक मुझे हर हाल में पूरा करके देना है। उसने कहा कि उपन्यास तो होगा न गुरु कि मीडिया के चक्कर में सब बेच-बाच दिए. तुम अपना काम करना, मैं एकाध उपन्यास पढ़ लूंगा। अभी से लेकर शाम तक तो माल-ताल नापने में ही निकल जाएगा। मैंने काह-चलो ठीक है और मैं स्टेशन लाने चला गया.मिलते ही उसकी बेचैनी दुनियाभर के लोगों के बारे में जानने की थी. डेढ़ साल बाद वो मुझसे मिल रहा था. सबके बारे में पूछ रहा था कि कौन किस अखबार में गया, किस चैनल में कौन खप गया। लेकिन उसकी दिलचस्पी सबसे ज्यादा उन लड़कियों में थी जिसे कि वो एंकर आइटम कहा करता. दो-तीन मिनट में सहके बारे में पूछ लेने के बाद अब एक-एककर के सिर्फ लड़कियों के बारे में पूछ रहा था। उसे सारे लड़कियों की याद रौल नंबर से याद थे.तीन-चार लड़कियों के बारे में जब मैंने बताया कि ये लोग अच्छी जगह पर हैं। एड एजेंसी में है, बढ़िया पैसा मिल रहा है। दो-तीन नेशनल चैनल में है और अच्छा कर रही है तो उसका मन एकदम से उदास हो गया। कहने लगा- वो लोग अब अपने को क्या घास देगी. यही होता है, लड़की के तरक्की कर लेने और लड़के के पीछे रह जाने से। स्साला छह-पांच की गुंजाइश ही खत्म हो जाती है. आगे उसका सवाल था- तुमसे बतियाती है कि नहीं. एक के बारे में मैंने कहा कि वो मिली थी अपने ब्ऑयफ्रैंड के साथ कमलानगर में. उसके बाद वो जिद करने लगी और तब हमसब मिलकर मोमोज खाए। वो चिढ़ गया। हम आज तक नहीं समझ पाए तुमको कि जिसके ऑल रेडी ब्ऑयफ्रैंड है उसके साथ तुमको समय बिताने में क्या मजा मिलता है और वो भी तब जबकि वो भी साथ में हो। तुम पैदा ही लिए हो कन्यादान के लिए। मैं सिर्फ हंस रहा था।

अच्छा छोड़, उसका क्या हुआ जो बात-बात में तुमसे कहती थी- ऐ हीरो और चिकोटी काट के भाग जाती थी। मैंने कहा- वो भी मस्त है। अरे मस्त है काम में कि कहीं और. कुछ मामला बना कि नहीं। वो तो बहुत छुछुआते फिरती थी. मैंने कहा- ऐसा नहीं है, वो मिलनसार किस्म की लड़की है, सबसे बात करना चाहती है. हां बेटा बोल ले, छू-छा का मजा तो ले ही लेते थे तुम भी। अब मैं न चाहते हुए भी थोड़ा-थोड़ा सुलग रहा था. एक तो इस बात पर कि वो जब भी मिलता है या फिर फोन पर बात होती है- सिर्फ लड़की को लेकर बैठ जाता है और फिर लड़ाई पर ही बात खत्म होती है. मैं बार-बार उसके बारे में सोचता हूं कि बातें करना बंद कर दूं लेकिन सेंटी होकर रोने-गाने लग जाता है। उसके इस बात पर कि बेरोजगार हूं तभी तो लतियाते हो, मैं फिर से बोलने लग जाता हूं.


उसका फोन आता है कि नहीं। मैंने पूछा- किसका। अरे उसी का जब सबकी वैलीडिटी खत्म हो गयी थी, सब किसी ने किसी से लसक गयी थी तब उसने तुमसे बोलना शुरु किया था। तुमसे तो कुछ नहीं होगा, चैनल में किसी से कुछ हुआ कि नहीं. फोन तो अब भी करती ही होगी. मैंने कहा हां लेकिन इस बारे में कभी बात नहीं हुई. उसका भी एतना मेहनत करना अकारथ चला गया. और ससुरे तुम अब मास्टरी करोगे और दम भर माल लेकर भौजी लाओगे. मैंने फिर कहा-यार तुम्हार मन नहीं उबता है, ये सब बकबास करके. अरे, मन उबता है, इसी से तो मन लगा रहता है, दिन कट जाता है, नहीं तो बेकार आदमी के लिए दिन काटना पहाड़ है भई। वो कहावत सुनी है न- थैंक गॉड, मेड गर्ल्स.अब मैं पक रहा था, इसलिए बात बदलना चाह रहा था।

मैंने कहा- और बता कहीं कुछ रिज्यूमे भेजा, कहीं बात चल रही है भी नहीं। उसने मेरी तरफ गौर से देखा और कहा- स्साले तुम एकदम ढंडेकिस्म के आदमी हो। अबे अगर कोई लड़की सुंदर है, पैसे कमा रही है और फिर भी किसी लड़के से टांका नहीं भिड़ा है तो वो ठूंठ है ठूंठ। यही बात मैं तेरे लिए भी कह सकता था लेकिन तू दोस्त है, ऐसा कहकर मर्दानगी पर कालिख नहीं पोतना चाहता। और ये जो तू मस्त-वस्त कह रहा है न, ये सब कुछ नहीं होता।
मैं अपना जरुरी काम छोड़कर उसे लेने गया था और अब तय कर लिया था कि इसे कमरे तक नहीं लाना है. मैंने उसे कहा- अब तुझसे मिल लिया, तू यहां से जहां जाना चाहता है जा। उसने चिल्लाकर पूछा- पर कहां। मैंने कहा- जहन्नुम लेकिन मेरे से मिलने दोबारा मत आना.
| | edit post

देश में कोई समस्या हो या फिर कोई सवाल इसके पहले कि उसके कारण और जबाब तैयार हैं। खबरिया चैनल बाकी के कामों के साथ-साथ जबाब देने का काम भी बहुत फुर्ती से करते हैं। दुनियाभर के लोगों से सवाल पूछने वाले चैनल आपदा के समय दोहरे स्तर का काम करते हैं। एक तो सवाल पूछने का और दूसरा कि जबाब देने का। ऐसे समय में सवाल पूछने से ज्यादा जबाब देने का काम तेजी से होने लग जाता है।

कोसी में जो कुछ भी हो रहा है उसका सीधा जबाब है इनके पास कि बिहार सरकार ने बचाव के लिए कोई काम नहीं किया। लालू प्रसाद ने जैसे ही इसे स्टेट क्राइम कहा, बाकी के खबरिया चैनल इसके आस-पास के शब्द ढ़ूंढ़ने शुरु कर दिए और किसी को नहीं कुछ मिला तो सीधा इसका हिन्दी तर्जुमा ही सामने रख दिया और जिसको बहुत मिल गया उसने लालू और नीतिश दोनों को सामने भिड़ा दिया। कोसी-बाढ़ में आम आदमी का अनाज,पशु और फसलें डूबी हैं, लोगों की जिंदगी डूबी है, पटना और दिल्ली से जानेवाले कैमरे और ओबी थोड़े ही डूबे हैं। चैनल तो अपनी औकात दिखा ही सकते हैं। असहाय तो वहां की जनता है जो न तो अपनी कुछ दिखा सकती है और न इनकी कुछ देख सकती है। देख सकते हैं तो सिर्फ हम जैसी जनता जिनका कि बाढ़ क्या बारिश में एक रुमाल तक नहीं भींगा है। आराम से हम अपने कमरे में पड़े हैं और सुरक्षा का भाव बीच-बीच में हमारे चेहरे पैर तैर जा रहा है कि- चलो, हम तो बचे हुए हैं। इसलिए चैनल जो कुछ भी दिखा रहे हैं वो हम जैसे दर्शकों के लिए दिखा रहे हैं जिनका कहीं कुछ नुकसान नहीं हुआ है। और जब कहीं कुछ नुकसान नहीं हुआ है तो फिर तो सिर्फ बाढ़ ही क्यों, बाकी की खबरें क्यों नहीं। यकीन मानिए, खबरिया चैनल ज्यादा देर तक संवेदना के स्तर पर खबरें पेश करने का माद्दा खो चुके हैं। उन्हें घुटन होने लगती है जब ज्यादा देर तक आम आदमी की परेशानियों के बारे में बात करनी पड़ जाती है।


चैनल के फेशियल कोसी-बाढ़ में दो-तीन के भीतर धुल गए। कल से कोसी और बाकी के जगहों पर बाढ़ के पानी का स्तर कमना शुरु हुआ और टॉप स्टोरी में बिहार के बाढ़ की खबरें सीधे चौथे-पांचवें नंबर पर आ गयी। पहले नंबर पर बहनजी आ गयी, असली नोट- नकली नोट का भय आ गया और टाटा को टा टा, नैनो को ना ना आ गया। इस बीच न्यूज २४ को देखा तो थोड़ी देर के लिए संतोष हुआ कि चलो, कोई तो अभी तक टिके हुए हैं, अभी तक बाढ़ पर ही टिका हुआ है। लेकिन कुछ ही देर बाद समझा कि इसने राहत लेकर चलो बिहार का जो पैकेज बनाया है उसमें खबर और प्रचार एक-दूसरे में गुंथा हुआ है। बदहाली को भुनाने की भनक आपको सहज ही मिल जाएगी।


आप यकीन मानिए जैसे ही बाढ़ का पानी नीचे उतरता जाएगा, टीवी स्क्रीन से बाढ़ की खबरें उतरती चली जाएगी। खबरिया चैनलों के हिसाब से फिर कोई खबर ही नहीं रह जाएगा। पुर्नवास, महामारी, बेकारी, संबंधो को याद करती पथराई आंखे, ये सबके सब साहित्य कविता, समाजशास्त्र औऱ पुर्नवास के लिए काम करनेवाले एनजीओ के जिम्मे चला जाएगा, जो अगली बार तक के लिए फिर मीडिया के लिए शब्द गढ़ेंगे, आंकड़े जुटाएंगे। इस बार तो आंकड़ें को मामले में सारे चैनल चूक गए, अबकि बार आंकड़ों को लेकर हांक लगाएंगे कि इतने आदमी मरे थे। फिर हमें सुखद लगेगा, उनके ज्ञान को लेकर संतोष होगा कि पढ़-लिखकर आए हैं सब कवरेज करने। प्रशासन और आपदा प्रबंधन से जुड़े लोग तो आगे की तैयारी जब करेंगे तब करेंगे, मीडिया के लिए तो साहित्य, एनजीओ और समाजशास्त्रियों ने अभी से ही काम करने शुरु कर दिए हैं।

ये खबरिया चैनल मानकर चलते हैं कि इनका काम इमरजेंसी का है, बाकी ओपीडी का काम साहित्य और अखबार में कॉलम लिखनेवाले विशेषज्ञों का है। अपने पास दुनियाभऱ की खबरों को कवर करने का काम है, अकेले बिहार थोड़े ही है। खबरिया चैनलों के इस वर्किंग कल्चर को अगर आप समझ रहे हैं तब आप कोसी के कहर के पहले की कहानी को भी आसानी से समझ जाएंगे। जिस बात को ये मीडिया चैनल बार-बार दोहरा रहे हैं कि- जब प्रशासन को पता होता है कि हर साल बाढ़ आते हैं तो इसने इसकी व्यवस्था पहले से क्यों नहीं की। लोगों को क्यों नहीं बताया कि वो बचाव के लिए वैकल्पिक व्यवस्था तैयार रखें। चैनल के लिए बहुत आसान है कि वो सारी बातें सरकार पर थोप दे। हम ये नहीं कह रहे हैं कि वो जो कुछ भी कह रहे हैं, गलत है। हम बस ये कह रहे हैं कि खबर के नाम पर जो कुछ भी कर रहे हैं, वो गलत है।

चलिए हम मान लेते हैं कि व्यवस्था के नाम पर सरकार ने कुछ भी नहीं किया। आप खबरिया चैनलों की भाषा में कहें तो सोती रही सरकार, बाढ़ के बढ़ते रहे आसार। लेकिन सूचना के स्तर पर आपने क्या किया। आप बिहार के बाढ़ से लेकर दूसरी सामाजिक समस्याओं को लेकर सालभर में कितनी खबरें दिखाते हैं। देश की बदहाली पर कितनी मार्मिकता से बात करते हैं। इंडिया टीवी जैसे चैनल ने ये पता लगा लिया कि पुष्पक विमान की रफ्तार इंडियन एयरवेज के विमानों से १६७ कि।मी। ज्यादा थी और इतना पता नहीं कर पाए कि कोसी में बाढ़ कब आ सकती है। रावण के स्वर्ग की सीढ़ी तैयार पड़ी है और चैनल को सस्ते दामों में नाव तैयार करने की विधि की जानकारी नहीं। अगर एनडीटीवी और दिल्ली के दो-चार पत्रकारों को छोड़ दें तो बाकी के कितने लोग हैं जो ये दावा कर सकते हैं कि उन्होंने बिहार में बाढ़ की संभावना पर कहीं कुछ लिखा है। लगभग सारे चैनलों में बिहार के लोग हैं और सालभर में एक बार अपने घर जरुर जाते हैं। किसने कोशिश की होगी कि दस-पन्द्रह दिनों की छुट्टी में स्थितियों का जायजा लेकर दिल्ली आने पर एक फीचर ही लिख दें। बिहार जाकर भी सिरी फोर्ट में होनेवाले कार्यक्रमों की खबरें रखनेवाले लोगों को पैकेज बनाते समय एक बार तो जरुर सोचना चाहिए कि वो जिन फुटेज का इस्तेमाल कर रहे हैं, अधिक से अधिक करुणा और संवेदना पैदा करने के लिए, उनमें कभी सांसे भी हुआ करती थी।


अभी कुछ दिनों पहले लोकसभा चैनल ने न्यूज चैनलों के कंटेट पर पूरा पैकेज चलाया था और विशेषज्ञों की राय भी ली। निष्कर्ष में यही बात सामने आयी कि पूरे बुलेटिन में चार प्रतिशत भी ऐसी खबरें नहीं होती है जिसका संबंध रुरल एरिया और वहां की सामाजिक स्थिति से है। आज बाढ़ आने पर चार-पांच दिनों के भीतर जो आपने दिन-रात बिहार के गांवो की तस्वीरें दिखायी, वो ग्रामीण इलाके की पत्रकारिता नहीं है। वो तो बस हमारे और आपके मन के विरेचन के लिए है। प्राइम टाइम से खबरें गायब हो रही हैं। कहीं कोई रिसर्च औऱ होमवर्क करके कोई खबर नहीं। अधिकांश खबरें मनोरंजन चैनलों से उठाए गए जिसमें कि साभार और प्रोग्राम के हिसाब से बस स्लग जोड़ दिया जाता है।

खबरों को लेकर जो घपलाबाजी हो रही है उसमें है हादसों का सच। पानी उतरने के साथ ही पति के बिछुड़ जाने पर भी उस महिला पर तीज का रंग चढ़ाने में है हादसों का सच। गणेश चतुर्थी के नाम पर उपर-नीचे सारी जगहों पर गणपति बप्पा मोरिया भर देने में है हादसों का सच और सूर्य ग्रहण के नाम पर दिन-रात पाखंड रचने में छिपा है हादसों का सच। खबरिया चैनलों ने नेताओं की जो छवि बना दी है उस छवि से कोई भी व्यक्ति नेता होते हुए तो नहीं ही उबर सकता लेकिन जनता अगर खबरों की घपलेबाजी के गणित को समझने लग जाए तो फिर खबरिया चैनलों को बहुत अधिक मशक्कत जरुर करनी पड़ जाएगी।
| | edit post
आप चाहें तो कह सकते हैं कि देश में सालभर में दो-तीन बार ऐसी घटनाएं हो जाती हैं जिसको लेकर मीडियाकर्मी
अपनी आत्मा की शुद्धि कर सकते हैं, खोई हुए संवेदना को वापस ला सकते हैं और भाषाई स्तर पर अपने को दुरुस्त कर सकते हैं। जिन्हें भरोसा है कि साहित्य अब भी मानवीय संवेदना को बचाने में मीडिया के मुकाबले ज्यादा कारगार है, वो इस बात का भी दावा कर सकते हैं कि हादसे की घड़ी में मीडिया के लोग बाजार की भाषा भूलकर साहित्य की भाषा अपनाने को मजबूर हो जाते हैं क्योंकि संवेदना साहित्य की भाषा में है, मीडिया की भाषा में नहीं। औऱ साहित्य की इस संवेदना को ले जाकर भले ही बाजार में भुना लें लेकिन साहित्य की भाषा मीडिया के लिए अब भी कम मतलब की नहीं है।

इन सबके बीच अगर आप लगातार कोसी के कहर के बीच न्यूज चैनलों को देख रहे हैं, फील्ड में घुसे उनके रिपोर्टरों को देख रहे हैं तो आपको अंदाजा लग जाएगा कि पिछले चार-पांच दिनों में लगभग सारे न्यूज चैनलों की भाषा अचानक से बदल गयी है, अखबार भाषा में मनुष्यता और आम आदमी की पक्षधरता तलाशते नजर आ रहे हैं। हेडरों के लिए रेणु का मैला आंचल इस्तेमाल करते नजर आ रहे हैं। वो साहित्यिक नजर आ रहे हैं। रघुवीर सहाय ने जब कहा कि-

सात सौ लोग मारे गए,

अखबार कहता है

टूटे हुए खंडहरर और शहतीर दूरदर्शन दिखाता है

मेरे भीतर से कई खबरें आतीं है हरहराकर।

तो वो बार-बार इस बात पर चिंता जता रहे होते हैं कि मानवीय संवेदना को सामने लाने में दूरदर्शन असमर्थ है। वो सिर्फ सूचना भऱ दे सकता है और वो भी वहीं की सूचना जहां तक कैमरे की पहुंच है। रघुवीर उस दूरदर्शन को असमर्थ बता रहे हैं जिसका काम ही है सामाजिक विकास और आम आदमी के दर्द को सामने लाना। सरकार की ओर से इसे करोड़ों रुपये इसी बात के मिलते हैं। औऱ आज अगर वो सैकड़ों प्राइवेट चैनलों को ध्यान में रखकर यही कविता लिख रहे होते तो पता नहीं दो ही पंक्ति में साबित कर देते कि वो संवेदना क्या कुछ भी व्यक्त करने में असमर्थ हैं।

रघुवीर को इस बात पर शायद ही भरोसा होता कि जो एंकर २२ डिग्री पर स्टूडियों में जाकर खबरें पढ़ता है वो भला कोसी में जाकर पीड़ितों के पक्ष में कुछ बोल सकता है। जो चैनल दिन-रात टीआरपी की तिकड़मों और विज्ञापन बटोरने में लगा होता है, वो भला इनके लिए कुछ राहत और बचाव कर सकता है. रघुवीर को कन्वीन्स करना इन मीडियाकर्मियों के लिए वाकई बहुत मुश्किल काम होता. औऱ आज भी जिनकी मानसिकता पूरी तरह रघुवीर और इसी तरह के दूसरे रचनाकारों से मिल-जुलकर बनी है वो सारे चैनलों के इस मानवीय प्रयास को पाखंड करार दे देगा।

रघुवीर ने कविता में कहा कि पत्रकारिता की तटस्थता पर मत जाओ, आंकड़े बाद में जुटा लेना। पहले उन खबरों का कुछ करो, जो भीतर से हरहराकर आ रही है, जिसे कि कितने भी मेगा पिक्सल के कैमरों हों, कैद नहीं किया जा सकता। आज के हिसाब से कहें तो जिस मंजर को किसी भी चैनल की ओबी वैन लाइव नहीं कर सकती। ये सवाल पत्रकारिता का नहीं, मानवता का है और जाहिर है कि इसमें इस बात से मतलब नहीं होता कि आप इसे सामने लाने के लिए मीडिया के टूल्स सामने ला रहे हो या फिर कुछ और। कोसी के कहर के बीच लगातार पैदा होती खबरों को मारकर अगर कुछ जानें बचा ली गईं तो रघुवीर के हिसाब से हरहराकर आती हुई भीतर की खबरों को जुबान मिल जाती है। कुछ जानों के बच जाने का मतलब है पत्रकारिता और मानवता के बीच एक द्वैत की स्थिति का आ जाना।

रघुवीर पत्रकारिता की तटस्थता के बीच संवेदना के स्तर की तलाश करते नजर आते हैं। तटस्थता औऱ उदासीनता के बीच फर्क करते हैं। उनकी ये चार पंक्तियां बार -बार इस बात की जिद करती है कि- खबरों की तटस्थता की बात बाद में करना, पहले भीतर से जो खबरें आ रहीं है, भीतर जो हलचल है, उसका क्या करें, उसका सोचो, आंकडों पर मत जाओ।

कल पूर्णिया से स्टार के लिए कवरेज कर रहे दीपक चौरसिया ने कहा कि आंकड़ों पर मत जाइए, ये देखिए की हम कितना कुछ कर पा रहे हैं इनके लिए। ये वही पत्रकार है जो हमेशा आंकड़ों की बात करता है, वीडियोकॉन टावर में बैठकर एक आंकड़ा सामनेवाले के आगे कर दिया करता और बस हां या न में जबाब मांगता रहा है। उसे आंकडों में ही हमेशा सच नजर आया। लेकिन आज उसके लिए आंकड़ों का कोई मतलब नहीं है. एक तो खुद उसके बूते का नहीं है कि वो आंकड़ें जुटा पाए. इंडियन डिजास्टर मैंनेजमेंट की २००६ के बाद बाढ़ को लेकर कोई मीटिंग नहीं हुई कि कहीं से कोई आंकड़े मिल सकें और पर्सनल लेबल पर कोई आंकड़े जुटाए नहीं जा सकते। इसलिए आप ये भी समझ सकते हैं कि किसी भी बड़े पत्रकार के लिए आंकड़ों को छोड़ने के अलावे कोई उपाय नहीं है, इसलिए इस बात को मानवता में कन्वर्ट कर रहा है।

भिवानी के अखाडे के बाद रवीश को मैंने सीधे नेपाल के उस इलाके में देखा जहां मछलियों के चक्कर में, हेरा-फेरी करने के लिए लोग बांध की शटर बार-बार उठाते हैं और जिससे उसका लीवर कमजोर होता है। रवीश झल्ला रहे हैं, परेशान हो रहे हैं, चेहरे पर आए पसीने का मिजाज भिवानी और दिल्ली के पसीने से ज्यादा गाढ़ा है। चेहरे को देखकर ही लगता है कि गए थे सिर्फ रिपोर्टिंग करने लेकिन देखते ही देखते वहां के लोगों के दर्द में शामिल हो गए। राहत शिविर की दुर्गति पर क्षुब्ध हो गए। रवीश एक बूढ़े पथराए चेहरे की तरफ ईशारा करके बताते हैं कि जो सौ किलो से भी ज्यादा अनाज अपने घर में छोड़ आया है, इस राहत शिविर की खिचड़ी के लिए बाट जोह रहा है।

स्टार न्यूज के पंकज सहरसा में बचपन के डूबने की बात बता रहे हैं और दो पंक्तियां दोहराते है-

मगर मुझको लौटा दो बचपन की यादें,

वो काग़ज की कश्ती, वो वारिश का पानी।

वो बताते हैं कि इन मासूम बच्चों का वो आंगन छूट गया है जहां वे खेलते।

इन चैनलों के संवाददाता पर्सनल लेवल पर कोसी की कराहों को कम करते नजर आते हैं। न्यूज २४ का कार्तिकेय शर्मा जो अब तक संसद के गलियारों में खबरें खोजता रहे, राजनीतिक पेंचों को दर्शकों के सामने पेश करते रहे, आज राहत के लिए लगाए गए हैलीकॉप्टर से हमें सूचनाएं दे रहे है, एक-एक पैकेट के पीछे भागते लोगों को कवर कर रहे हैं, उनके दर्द को बार-बार बयान कर रहें है।

सबके सब मीडियाकर्मी साहिकत्यिक भाषा बोलने लग गए हैं। आप कह सकतें हैं कि वो अपने जूनियर्स को लाख समझाते रहे हों कि आम भाषा का इस्तेमाल करो। आम का मतलब उपभोक्ता की भाषा। भले की मार्केटिंग का आदमी शब्दों को तय करता रहा हो कि किसके बदले कौन-सा शब्द बोलना हो लोकिन उनका भरोसा अब भी कायम है कि साहित्य और मानवीय संबंधों का गहरा संबंध है। दर्द, बेबसी औऱ खोती हुई उम्मीदों के बीच साहित्य की भाषा ही काम आ सकती है। चार-पांच दिन में बदली मीडिया औऱ मीडियाकर्मियों को चाहे तो कोई पाखंड कह ले, संवेदना का सौदा कह ले, कोसी क्या कुछ भी हो जिससे टीआरपी बढ़ती हो दिखाएंगे कह ले लेकिन हमें इस बात का संतोष होता है कि मीडिया में मानवीय संवेदना की गुंजाइश अभी पूरी तरह मरी नहीं है।

नोट- हालांकि इस बात का एक दूसरा पक्ष भी है जिसे देखेंगे अगले दिन
| | edit post


अशोक वाजपेयी के जनसत्ता के कभी-कभार कॉलम में साहित्य से अन्तर्लोक के गायब हो जाने की चिंता पर जब मैनेजर पांडेय ने चुटकी ली तो उनके साथ करीब सवा सौ लोगों ने भी मजे लिए। सब इस बात को लेकर वाजपेयीजी का मजाक बना रहा था कि वो साहित्य में दुनियाभर की समस्याओं को खोजने के बजाय अन्तर्लोक खोज रहे हैं। मतलब साफ है कि हिन्दी साहित्य का एक बड़ तपका है जो साहित्य को जीवन की वास्तविक चीजों से जोड़कर देखना चाहता है, वो चाहता है कि साहित्य जीवन से कोई अलग चीज न हो। इसलिए इनके बीच जो कोई भी साहित्य को किसी अलग आइवरी टावर पर बिठाने की कोसिश करता है, उसे आलोचना का शिकार होना पड़ता है। लेकिन


इस जीवन की वास्तविकता से क्या तुक है। क्या साहित्य में बाकी चीजों की तरह ये भी पहले से ही तय कर लिया गया है कि जीवन की वास्तविकता फलां-फलां होगी, व्यक्ति चाहे जो भी हों और परिस्थितियां चाहे जो भी हो। यानि साहित्य में वास्तविकता हमारे जीवन से न लेकर अलग से एक पैकेज के रुप में ली जा जाती है। मुझे साहित्य अकादमी में इस बात पर हैरत हुई कि क्या लेकचरशिप की पक्की नौकरी पाया श्रोता औऱ क्या कम से कम गेस्ट बेसिस पर नौकरी के लिए मार कर रहा श्रोता वक्ताओं के बाजार विरोधी बयान पर समान रुप से संतोष जाहिर कर रहा है। उसे भी लग रहा है कि सही बात है, बाजार है ही बहुत गड़बड़ चीज। लेकिन असल सवाल तो है कि साहित्य में जिस वास्तविकता और अनुभूत सत्य की बात की जाती है क्या बाजार उससे परे है। साहित्य ऐसे कैसे मानकर चलता है कि हमारे जीवन में बाजार हमारी दशाओं को तय ही नहीं करता। ट्रक की ट्रक हीन्दी की किताबें लिखी गयीं है जिसके मूल में रुपये-दो रुपये से लेकर हजार रुपये तक के अभाव के उपर कथानक गढ़े गए हैं।


कोई अगर ये कह दे कि बाजार से उसका कोई लेना-देना नहीं है। साहित्य पढ़-पढ़ाकर न तो वो बाजार को प्रभावित कर रहा है और न ही वो खुद बाजार से प्रभावित हो रहा है, कम से कम साहित्य ने उसे इतनी तो समझ दे ही दी है कि वो बाजार से दूर रहे तो या तो वो पाखंड रच रहा है या फिर दिमागी रुप से हारा हुआ इंसान है। तीसरी स्थिति ये भी हो सकती है कि वो अपने को इनोसेंट और मासूम कहलवाने की फिराक में हो। हिन्दी समाजी में एक ये भी बीमारी है कि वो हर बात में अपने को मासूम कहलवाना चाहते हैं। इसके लिए जरुरी होता है कि वो राजनीति में न होने की बात करें औऱ बाजार से अलग होने की बात करें। वो दुनियाभर की बातों को जानने का दावा करते हुए अंत में ये जोड़ देंगे कि- बाकी हमसे बाजार और पॉलिटिक्स की बात मत कीजिए। अपनी मां की भाषा में कहूं तो नौ जानते हैं लेकिन छह जानते ही नहीं। समझदार आदमी में तो एक ही बार में खारिज कर देगा कि अगर आज आप राजनीति और बाजार नहीं जानते तो फिर जानते क्या है ।


दरअसल हिन्दी समाज में बाजार को लेकर जितने तरह के भ्रम और विरोध पैदा किए गए हैं उससे आनेवाली पीढ़ी मुक्त ही नहीं हो पाती। वो इसे पुश्तैनी संस्कार मानकर चलती है। ये वो संस्कार हैं जो तमाम तरह की आधुनिकता के बावजूद बेन्टली की टाई लगाने के पहले जनेउ पहनने पर विवश करती है। हिन्दी समाज की नई पीढ़ी बाजार को लेकर कुछ इसी तरह का रवैया अपनाती है। जबकि सच्चाई ये है कि साहित्य और हिन्दी जितनी तेजी से बाजार के बीच जा रही है औऱ शुरु से ही जा रही है उतनी तेजी से उसका विरोध कभी रहा ही नहीं। लिखने के स्तर पर इसलिए रहा कि लोगों ने आपसी समझौते से तय कर दिया है कि बाजार के विरोध में लिखने से ही साहित्य का बाजार गर्म रहेगा, नहीं तो हम सब लालाओं के मैल करार दिए जाएंगे। लेकिन जीने के स्तर पर देखिए, जरा खोजकर बता दीजिए हमें हिन्दी का कौन आदमी बाजार विरोधी है औऱ बाजार के आगे नतमस्तक नहीं है।


नोट- पिछली पोस्ट में लोगों ने बाजार का अर्थ दूकान और मॉलभर से लिया जबकि ये बाजार का बहुत ही छोटा रुप है। बाजार जितना भौतिक रुप में मौजूद है, उतना ही अवधारणात्मक औऱ जीवन जीने के लिए एक पैटर्न भी। इस स्तर पर आकर यह चुनाव का मुद्दा हो जाता है कि हम कितना जरुरत के मुताबिक बाजार में रहें औऱ कितना पैटर्न के स्तर पर।....

| | edit post