भारी थकान और नींद के झोंके के बीच मेरी आंखें खुल ही नहीं रही थी. बीस मिनट हो गए थे, डीटीसी 212 का कहीं कोई अता-पता न था. जब से उसे पता चला है कि मैं उस पर कहानी लिखने लगा हं, फुलकर कुप्पा हो गई, आए दिन नए-नए नखरे शुरु हो गए हैं. कभी पीछे से ही इतनी भरकर आती है कि मैं उसे देखकर ही जल जाउं, कभी बीच में "ये बस आगे नहीं जाएगी" की घोषणा से दगाबाजी की हाइट..सच में बस की जात ही ऐसी है कि लॉयल हो ही नहीं सकती. लगा, बैग से सुबह का अखबार निकालूं और बस स्टैंड पर ही बिछाकर सो जाउं. खैर
हारकर मैंने ऑटोवाले को हाथ देना शुरु किया और आखिर में एक मान गया. मैंने उसे जगह बतायी और मीटर ऑन करवाकर बैठ गया. रास्ता पता है..उसने कहा- हां भइया, कौन नहीं जानता है वहां का रास्ता ? मैं इत्मिनान हो गया और इस इत्मिनान होने के बीच कब मुझे नींद आ गयी, पता नहीं चला.
कहां ले आए मतलब ? अरे, मैंने तुम्हें कब कहा था एम्स लाने ? तो आप नहीं बोले थे तो क्या हमको सपना आया था, हद ही करते हैं. मैंने जहां जाने कहा था, दोहराया और फिर सिचुएशन समझायी कि कैसे और किस तरह से तुमसे जाने के लिए कहा था.
एम्स के सामने मुझे आज से कोई दस साल पहले अप्रैल की वो दुपहरी याद आ गयी. जेएनयू गया था, फार्म के बारे में पता करने. कब गर्मी लग गयी और मैं बेहोश हो गया था, पता ही नहीं चला.तब जेएनयू के उन साथियों ने मुझे एम्स इमरजेंसी में भर्ती करा दिया जो आमतौर पर नए लोगों को फार्म भरने में मदद करते हैं. मैंने तुरंत ऑटोवाले से कहा- भइया, मुझे जल्दी ले चलो यहां से.
जानते हैं, भइया..हमको एक बार शक हुआ कि कहीं आप कैम्प जाने तो नहीं बोले हैं..फिर देखें कि आपका आंख ही नहीं खुल रहा है तो सोचे कि हो सकता है आपको पेट में,माथा में दरद उठा होगा तो एम्स इमरजेंसी में जाने बोल रहे हैं. बीच में मन किया कि पूछ लें लेकिन पीछे मुड़कर देखें तो आंख आपका खुल ही नहीं रहा था. हिम्मत नहीं पड़ा. अब क्या करें ?
करोगे क्या, ससुराल लाए हो तो अब मायका भी तुम ही पहुंचाओ. मतलब ? मतलब ये कि अब मेरा घर कैम्प छोड़ दो. ठीक है लेकिन भइया आप एकदम से ऐसे कैसे हो गए, हम तो डर ही गए थे. मैंने कहा थकान से, नींद से बस, अब चलो..
चल तो लेंगे भइया लेकिन जान है तो जहान है, पहिल कुछ पी लीजिए..खैर लिम्का पीने के बाद घर की तरफ रवानगी हुई. रास्ते भर में उसकी कुछ-कुछ बात करने, छेड़ने की कोशिश लेकिन मैं जो कि अक्सर ऑटोवाले से खूब बातें किया करता हूं, कहा- दोस्त ऐसा है न कि आज मेरा बिल्कुल भी बोलने का मन नहीं कर रहा है. तुम बस चलो. ठीक है भइया.
घर के सामने उसने ऑटो लगा दिए. काफी बिल आ गए थे. सौ की जो नोट मैंने उपर की जेब में बैठते वक्त रखी थी, उससे कुछ नहीं होनेवाला था. मैं बाकी पैसे कॉलेज बैग से निकालने लगा.
एगो बात बोले भइया- हमको एक जरा भी एम्स से आपके घर तक का भाड़ा लेने का मन नहीं कर रहा है. बस स्टैंड से एम्स तक के भाड़ा में ही आप घर पहुंच जाते. बाकी ये है कि हम जान-बूझके ऐसा नहीं किए. हम आपको देखें कि आंख ही नहीं खोल रहे हैं तो सोचें कि मन खराब हो गया है आपका तो कैंप की जगह एम्स सुन लिए औ जल्दी में पहुंचा दिए.
अरे पागल हो, पहुंचा दिए तो पहुंचा दिए..क्या हो गया इसमे. कोई और मौका होता तो मैं गुस्सा हो जाता या फिर यही काम वो कॉलेज जाते समय करता और क्लास में देर हो जाती तो शायद अपने को संभाल नहीं पाता. लेकिन ओह, कॉलेज से एम्स के बीच क्या नींद आयी थी..मैं भीतर से बिल्कुल शांत हो गया था और दुपहरी बहुत प्यारी लगने लग रही थी..
नहीं भइया फिर भी..आप भी तो जो भी कुछ करते होंगे, हाड़-पसीना का ही कमाई होगा न. कुछ करते होंगे तभी न एतना थक गए थे कि होश ही नहीं रहा आपको. आप ऐसा कीजिए न जेतना बिल हुआ है उसका आधा दीजिए.
बिल सचमुच ज्यादा आ गए थे और मुझे भी भारी पड़ रहा था. कायदे से उसके इस प्रस्ताव पर खुश हो जाना चाहिए था लेकिन मेरे मन एक बात बार-बार जोर मार रही थी कि इस चिलचिलाती भरी दुपहरी में इसकी ऑटो में सोने का जो सुख मिला है वो सौ-डेढ़ सौ रुपये के आगे कितनी बड़ी चीज है. मैंने तब दूसरे अंदाज में कहा- पता है, तुम्हारे इस ऑटो में आज मुझे बहुत अच्छी नींद आयी. तुम ऐसे सोचो कि मैं किसी कमरे में रुककर सोता तो उसे किराये देता न..तो तुम घर पहुंचाने और ऑटो में सोने का किराया समझकर ये पैसे रख लो और फिर उससे पैसे देने को लेकर उसी तरह की नोक-झोंक होने लगी जैसे दीदी घर से विदा होती और मेरी शर्ट की जेब में सौ-सौ के ढेर सारे नोट ठूंसना चाहती और मैं शर्म से लेता नहीं. मां की बात याद आती- बूड़बक, लड़का होके पैसा लेता है बहिन से. बहिन को देना चाहिए, लेना नहीं चाहिए.
( कहानी डीटीसी 212 इर्द-गिर्द)
( कहानी डीटीसी 212 इर्द-गिर्द)