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भारी थकान और नींद के झोंके के बीच मेरी आंखें खुल ही नहीं रही थी. बीस मिनट हो गए थे, डीटीसी 212 का कहीं कोई अता-पता न था. जब से उसे पता चला है कि मैं उस पर कहानी लिखने लगा हं, फुलकर कुप्पा हो गई, आए दिन नए-नए नखरे शुरु हो गए हैं. कभी पीछे से ही इतनी भरकर आती है कि मैं उसे देखकर ही जल जाउं, कभी बीच में "ये बस आगे नहीं जाएगी" की घोषणा से दगाबाजी की हाइट..सच में बस की जात ही ऐसी है कि लॉयल हो ही नहीं सकती. लगा, बैग से सुबह का अखबार निकालूं और बस स्टैंड पर ही बिछाकर सो जाउं. खैर
हारकर मैंने ऑटोवाले को हाथ देना शुरु किया और आखिर में एक मान गया. मैंने उसे जगह बतायी और मीटर ऑन करवाकर बैठ गया. रास्ता पता है..उसने कहा- हां भइया, कौन नहीं जानता है वहां का रास्ता ? मैं इत्मिनान हो गया और इस इत्मिनान होने के बीच कब मुझे नींद आ गयी, पता नहीं चला.

लीजिए भइया, आ गया. मैंने हड़बड़ाकर आंखें खोली. मैं एम्स इमरजेंसी के सामने था. ये कहां ले आए तुम ? 
कहां ले आए मतलब ? अरे, मैंने तुम्हें कब कहा था एम्स लाने ? तो आप नहीं बोले थे तो क्या हमको सपना आया था, हद ही करते हैं. मैंने जहां जाने कहा था, दोहराया और फिर सिचुएशन समझायी कि कैसे और किस तरह से तुमसे जाने के लिए कहा था.

एम्स के सामने मुझे आज से कोई दस साल पहले अप्रैल की वो दुपहरी याद आ गयी. जेएनयू गया था, फार्म के बारे में पता करने. कब गर्मी लग गयी और मैं बेहोश हो गया था, पता ही नहीं चला.तब जेएनयू के उन साथियों ने मुझे एम्स इमरजेंसी में भर्ती करा दिया जो आमतौर पर नए लोगों को फार्म भरने में मदद करते हैं. मैंने तुरंत ऑटोवाले से कहा- भइया, मुझे जल्दी ले चलो यहां से.

जानते हैं, भइया..हमको एक बार शक हुआ कि कहीं आप कैम्प जाने तो नहीं बोले हैं..फिर देखें कि आपका आंख ही नहीं खुल रहा है तो सोचे कि हो सकता है आपको पेट में,माथा में दरद उठा होगा तो एम्स इमरजेंसी में जाने बोल रहे हैं. बीच में मन किया कि पूछ लें लेकिन पीछे मुड़कर देखें तो आंख आपका खुल ही नहीं रहा था. हिम्मत नहीं पड़ा. अब क्या करें ?

करोगे क्या, ससुराल लाए हो तो अब मायका भी तुम ही पहुंचाओ. मतलब ? मतलब ये कि अब मेरा घर कैम्प छोड़ दो. ठीक है लेकिन भइया आप एकदम से ऐसे कैसे हो गए, हम तो डर ही गए थे. मैंने कहा थकान से, नींद से बस, अब चलो..

चल तो लेंगे भइया लेकिन जान है तो जहान है, पहिल कुछ पी लीजिए..खैर लिम्का पीने के बाद घर की तरफ रवानगी हुई. रास्ते भर में उसकी कुछ-कुछ बात करने, छेड़ने की कोशिश लेकिन मैं जो कि अक्सर ऑटोवाले से खूब बातें किया करता हूं, कहा- दोस्त ऐसा है न कि आज मेरा बिल्कुल भी बोलने का मन नहीं कर रहा है. तुम बस चलो. ठीक है भइया.

घर के सामने उसने ऑटो लगा दिए. काफी बिल आ गए थे. सौ की जो नोट मैंने उपर की जेब में बैठते वक्त रखी थी, उससे कुछ नहीं होनेवाला था. मैं बाकी पैसे कॉलेज बैग से निकालने लगा.
एगो बात बोले भइया- हमको एक जरा भी एम्स से आपके घर तक का भाड़ा लेने का मन नहीं कर रहा है. बस स्टैंड से एम्स तक के भाड़ा में ही आप घर पहुंच जाते. बाकी ये है कि हम जान-बूझके ऐसा नहीं किए. हम आपको देखें कि आंख ही नहीं खोल रहे हैं तो सोचें कि मन खराब हो गया है आपका तो कैंप की जगह एम्स सुन लिए औ जल्दी में पहुंचा दिए.

अरे पागल हो, पहुंचा दिए तो पहुंचा दिए..क्या हो गया इसमे. कोई और मौका होता तो मैं गुस्सा हो जाता या फिर यही काम वो कॉलेज जाते समय करता और क्लास में देर हो जाती तो शायद अपने को संभाल नहीं पाता. लेकिन ओह, कॉलेज से एम्स के बीच क्या नींद आयी थी..मैं भीतर से बिल्कुल शांत हो गया था और  दुपहरी बहुत प्यारी लगने लग रही थी..

नहीं भइया फिर भी..आप भी तो जो भी कुछ करते होंगे, हाड़-पसीना का ही कमाई होगा न. कुछ करते होंगे तभी न एतना थक गए थे कि होश ही नहीं रहा आपको. आप ऐसा कीजिए न जेतना बिल हुआ है उसका आधा दीजिए.

बिल सचमुच ज्यादा आ गए थे और मुझे भी भारी पड़ रहा था. कायदे से उसके इस प्रस्ताव पर खुश हो जाना चाहिए था लेकिन मेरे मन एक बात बार-बार जोर मार रही थी कि इस चिलचिलाती भरी दुपहरी में इसकी ऑटो में सोने का जो सुख मिला है वो सौ-डेढ़ सौ रुपये के आगे कितनी बड़ी चीज है. मैंने तब दूसरे अंदाज में कहा- पता है, तुम्हारे इस ऑटो में आज मुझे बहुत अच्छी नींद आयी. तुम ऐसे सोचो कि मैं किसी कमरे में रुककर सोता तो उसे किराये देता न..तो तुम घर पहुंचाने और ऑटो में सोने का किराया समझकर ये पैसे रख लो और फिर उससे पैसे देने को लेकर उसी तरह की नोक-झोंक होने लगी जैसे दीदी घर से विदा होती और मेरी शर्ट की जेब में सौ-सौ के ढेर सारे नोट ठूंसना चाहती और मैं शर्म से लेता नहीं. मां की बात याद आती- बूड़बक, लड़का होके पैसा लेता है बहिन से. बहिन को देना चाहिए, लेना नहीं चाहिए.
( कहानी डीटीसी 212 इर्द-गिर्द)

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"दरिंदों की दिल्ली" जैसे स्लग और स्पेशल पैकेज चलाने के पहले न्यूज चैनल दिल्ली के बाहर बैठकर टीवी देखनेवाली लाखों मांओं और बेटी के पिता पर पढ़नेवाले असर पर के प्रति जरा भी समझ रख पाते तो वो इन पंक्तियों का विकल्प जरुर ढूंढ़ते. वो शहर को पुरुषविहीन बनाने पर ही सुरक्षित होगी स्त्री जैसी समझ से आगे निकलकर सीरियस हो पाते. ऐसा करके वो न जाने कितनी मांओं की आंखों की नींद छीनने का काम करते हैं, पति के लताड़ लगाए जाने का मौका देते हैं- कहा था, यहीं पढ़ाओ, मत भेजो लेकिन नहीं दिल्ली ही भेजेंगे पढ़ने..और भेजो और अब चिंता में रतजग्गा करो.

मेरी कई ऐसी दोस्त जो पिछले आठ साल से-दस साल से बिंदास दिल्ली का जीवन जी रही है, उनकी माएं कुछ महीनों से परेशान रहने लगी है. एक दोस्त मजाक में कहती है- मां को अब मेरी बुढ़ाउती आ जाने पर चिंता सता रही है कि मैं यहां सुरक्षित नहीं हूं. अब जबकि रेगुलर जिम जाती हूं, जरा कोई टच भी करे तो हाथ तोड़कर हाथ में दे दूंगी तब. तब वो बेफिक्र थी जब मुझे पांच किलो गैस सिलेंडर भरवाने में पांच बार सोचना पड़ता था, अक्सर दोस्तों से उधार लेती या घर से पैसे आने का इंतजार करती. तब फिटनेस सेंटर जाने के बारे में सोच भी नहीं सकती थी. लेकिन

आखिर इसी दरिंदों के शहर में ( चैनल के मुताबिक) मेरी दोस्त जैसी हजारों लड़कियां ग्रेजुएट हो गई न. रोज वहशी नजरों को झेलकर इतना ताकतवर हो गई न आज कोई चूं करे तो जुबान खींचकर हाथ में धर देगी. आज से कोई तीन साल पहले न्यूज चैनल की मेरी एक दोस्त ने इसी गर्मी के मौसम में फोन किया था. उसकी पहली लाइन थी- आज पता है क्या हुआ, मैंने विश्वद्यालय मेट्रो स्टेशन पर एक ठरकी को बुरी तरह धुन दिया. स्साला, पीछे से हाथ दे दिया. जब झाड़ा तो कहा- सॉरी गलती से चला गया. मैंने टोका- गलती से चला गया..उसने कहा- गया तो गलती से ही लेकिन...लेकिन के आगे बहुत ही अश्लील बात कही थी..बस दिया वहीं पर जमाकर. भीड़ लग गयी लोगों की. उसने मुझसे किसी भी तरह की मदद नहीं मांगी. आवाज में थोड़ा कंपन था और हांफ भी रही थी. मैंने चिंता में पूछा भी था- अभी तुम कहां हो ? मैं, अभी माउनटेन ड्यू पी रही हूं, क्योंकि डर के आगे जीत है..हा हा हा..वो आज भी इसी शहर में पिछले आठ साल से बिंदास चैनल में एंकरिंग करती हुई जिंदगी जी रही है. ऐसी मेरी कई दोस्त है.

लड़की ! तुम्हें मैं कैसे यकीन दिलाउं कि दिल्ली दरिंदों का शहर नहीं है. इसी दिल्ली में तुम्हारी जैसी मेरी दर्जनों दोस्त बिंदास रहती है, अपने मन का करती है, बोलती-लिखती है. जब वो इस शहर में नई-नई आयी थी तो सहमी सी कि मुंह से वकार तक नहीं निकलते थे, उनमे से कई अभी जंतर-मंतर, आइटीओ पर धरना प्रदर्शन करती मिल जाएगी, न्यूज चैनलों में यौन हिंसा के खिलाफ न्यूज पढ़ती, स्क्रिप्ट लिखती मिल जाएगी. इस शहर ने उसे गहरा आत्मविश्वास दिया है उन्हें. ये सब उतना ही बड़ा सच है, जितना बड़ा कि अगर तुम्हारी मां मेरा ब्लॉग पढ़ लेगी, मीडिया पर लिखी मेरी पोस्टें पढ़ेगी तो कभी नहीं चाहेगी कि तुम मीडिया में जाओ. तुम्हारे पापा क्या पता तुम्हें चाहे जो कर लो पर मीडिया में न जाने की नसीहतें देंगे..लेकिन ये सब लिखने के बावजूद में रोज सैंकड़ों तुम जैसी लड़कियों को मीडिया में जाने, काम करने और बेहतर होने का पाठ पढ़ाकर आता हूं. कोई भावना में आकर नहीं, न ही सिर्फ अपनी रोजी-रोटी के लिए. इसलिए भी कि ये सच में तुम्हारी दुनिया है जिस पर हम जैसों ने कब्जा किया हुआ है, मैं खुद के लूटे जाने और तुम्हें छीनने की ट्रेनिंग देने में कामयाब हो सकूं तो सच में मुझे अच्छा लगेगा.

तुम हजार लड़कियों से मैं कभी मिला नहीं, शायद मिलना भी न हो सके. लेकिन जब कभी तुम्हारी नजर मेरी एफबी वॉल या मेरे ब्लॉग पर पड़े, उसकी कुछ अपडेट्स, पोस्टें अपनी मां को जरुर पढ़वाना. सिर्फ उन्हें यकीन दिलाने के लिए नहीं कि कुछ दोस्त भी हैं दिल्ली में मेरे, अपने लिए भी...और तुमने जो मई के बाद, बारहवीं के बाद दिल्ली से ग्रेजुएट होने का मन बनाया है न, उस पर कायम रहना. माइग्रेशन का अधिकार और मजबूरी सिर्फ लड़कों की नहीं है. तुम इसी शहर में आकर पढ़ना. तुम सिर्फ टीवी स्क्रीन पर चल रही खबरों को देखकर घबरा मत जाना. तुम्हें तो पता ही है कि टीवी सीरियल की कहानी सच नहीं होती, मेलोड्रामा होते हैं. ये चैनल मेलोड्रामा ही पैदा कर रहे हैं. यकीन करोगी, मैं अक्सर देर रात बल्कि आधी रात अपने घर से बाहर निकलता हूं और शहर के एक कोने से ठीक उलट दूसरे कोने तक जाता हूं.

 जैसे मयूर विहार से सीध करोलबाग. करोलबाग से बसंत विहार..मुझे अक्सर लड़कियां दिख जाती है जो मेरी तरह शार्ट पहनकर, बेपरवाह ऑटो में बैठी इपी लगाए एफएम सुनती हुई गुजर रही होती है. उनमे से कुछ मेरी ऑटो से रेस लगाती हुई, खुद गाड़ी ड्राइव करती हुई..ये सिर्फ क्लास तक सीमित नहीं है. इसी तरह बसों में भी, रेलवे स्टेशन पर भी. जब चैनल तुम्हारे हितैषी बनकर शहर को दरिंदा बताते हैं न तो मै महसूस करता हूं कि ऐसा बताकर वो दरअसल एक नए किस्म की दरिंदगी को बढ़ावा देते हैं जिसमे वो वेवजह उन चीजों को तार-तार करते हैं, जिसके होने से तुम यकीन के साथ जी सकती हो. वो अगर ऐसा नहीं करेंगे, घटना को टीवी सीरियल में, सोनी के एफआइआर, क्राइम पेट्रोल या सीआइडी में तब्दील नहीं करेंगे तो मनोरंजन चैनलों को पीट कैसे सकेंगे. तुम्हें तो पता ही होगा कि वो मनोरंजन चैनलों के आगे बहुत हताश होते हैं...आखिर में तुम्हें कैसे यकीन दिलाउं कि ये दिल्ली दरिंदों का शहर नहीं है. मेरे पास अक्सर इसके सुंदर,खूबसूरत और मानवीय होने के नमूने आते रहते हैं, किसी अखबार की कतरन से नहीं खुद मेरी आंखों के सामने की घटनाओं से. मैं लगातार वो सब तुमसे साझा करता रहूंगा लेकिन प्लीज तुम इस शहर की चाहे जैसी भी छवि अपने भीतर बनाओ, वो कतई न बनाओ जो चैनल दिखा-बता रहे हैं..तुम इन खबरों से चिंतित होने के बजाय इनके धंधे के प्रति थोड़ी समझ गहरी कर लेती हो तो तुम असल दरिंदों की शक्ल भी पहचान सकोगी. फिर सोचो न अगर दिल्ली दरिंदों का शहर है तो इन्हीं दरिंदों के बीच ये चैनल भी तो हैं न..जब ये मसीहा बनकर तुम्हारे सामने हाजिर हैं तो कुछ तो सच में ऐसे लोग हैं ही न जो इलइडी स्क्रीन पर इनकी तरह अपनी प्रोमो नहीं चलाते लेकिन तुम्हारे हौसले को जिंदा रखेंगे.










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दिल्ली में पांच साल की बच्ची के साथ हुई  घटना को लेकर एक बार फिर न्यूज चैनलों पर मेलोड्रामा और टीवी सीरियल की शक्ल में अहर्निश खबरें और पैकेज पेश किए जाने की कवायदें जारी हैं. एक बार फिर भारी मेकअप के बीच एंकरिंग तो छोडिए, फील्ड पीटूसी देने का सिलसिला जारी है. इनमें इंडिया न्यूज जैसे चैनल की आवाज कुछ ज्यादा ही उंची है जिसका संबंध मॉडल जेसिका लाल के हत्यारे से है. वो पूरी दिल्ली को दरिंदा बता रहा है और इसका खात्मा करने पर ही शहर को सुरक्षित होने के विकल्प प्रस्तावित कर रहा है. जाहिर है, ऐसे में ये शहर पुरुषविहीन होगा. लेकिन इन टीवी सीरियल की शक्ल में पेश की जा रही खबरों और पैकेज के बीच का सबसे बड़ा और कड़वा सच है कि नोएडा फिल्म सिटी जो खबरों की मंडी है, वहां भी यही सबकुछ होता है जिसके लिए पूरे देश में चैनल क्रांति की अलख जगाने निकला है. लिहाजा पेश है कुछ फेसबुक अपडेट्स-

1. मैं उस दिन का बेसब्री से इंतजार कर रहा हूं जिस दिन हमारे साथियों के हाथ के बैनर,मुर्दाबाद के नारे, हल्लाबोल के नारे सरकारी महकमे,दिल्ली पुलिस कार्यालय से मुड़कर उन चैनलों की ऑफिस के आगे भी बढ़ेगे जहां वो सबकुछ होता है, जो शहर और देश के बाकी हिस्से में होते हैं और उतनी ही बर्बरता से मामले को दबाया जाता है.

2. टीवी सीरियल को वूमेन स्पेस कहा जाता रहा है क्योंकि यहां पुरुष के मुकाबले स्त्री पात्रों की संख्या लगभग दुगुनी है. यही बात आप न्यूज चैनलों के संदर्भ में भी कहा जा सकता है. दुगुनी नहीं भी तो चालीस-साठ का अनुपात तो है ही लेकिन वो इस मीडिया मंडी में सुरक्षित तो छोड़िए इतनी भी आजाद नहीं है कि वो अपने उन इलाकों पर स्टोरी कर सके जहां से देशभर की स्त्रियों की सुरक्षा को लेकर बड़ी-बड़ी बातें हो रही है लेकिन उसके साथ भी यहां वही सबकुछ होता है जो कि इससे बाहर के इलाके में हो रहा है.

3. आप नोएडा फिल्म सिटी में काम करनेवाली मीडियाकर्मियों से पूछिए क्या वो शाम को ऑफिस से निकलती हुई सुरक्षित महसूस करती है, आपको गहरी निराशा होगी. शराब के नशे में धुत्त, चैनल की गाड़ियां मोबाइल बार में तब्दील हो जाती है. जितने भद्दे और घिनौने कमेंट अपने चैल की मीडियाकर्मियों को लेकर होती है, पास से गुजरना किसी यातना से गुजरने जैसा है. ऐसे में जब स्क्रीन पर इन चैनलों के भीतर से बड़ी-बड़ी बातें प्रसारित होते देख रहा हूं तो लग रहा है कितने सारे हिन्दी सिनेमा एख साथ प्रोड्यूस कर रहे हैं ये चैनल..

4. नोएडा फिल्म सिटी न्यूज चैनलों की मंडी है. आपको वहां एकाध को छोड़कर बाकी सब सभी राष्ट्रीय चैनलों की ऑफिस,दर्जनों ओबी और कैब मिल जाएंगे..कायदे से नोएडा फिल्म सिटी से सुरक्षित जगह दिल्ली-एनसीआर में कोई दूसरी नहीं होनी चाहिए..लेकिन

शाम होते ही चैनलों की ये मंडी शराबियों के अड्डे में तब्दील हो जाती है. चैनलों की ऑफिस से जो भी लड़कियां बाहर निकलती है, पूरी तरह चेहरे ढंककर निकलती है ताकि कोई देखकर फब्तियां न कसे, छेड़ने न लग जाए. इधर देश और दुनियाभर की महिलाओं,स्त्रियों की सुरक्षा का दावा करनेवाले,चैनलों का पट्टा लटकाए राष्ट्रीय चैनल के मीडियाकर्मी "मैंने तो कहा एक बार टांग तो खोलो.." जैसी भद्दी टिप्पणियां करते सहज मिल जाएंगे. गाड़ियों पर चैनल के स्टीगर लगे होते हैं और डिक्की खोलकर उसमे सज जाती है गिलासें, बोतलें और आसपास की रेडियों का चखना. अजीब दहशत सा माहौल बन जाता है. अगर आपकी आंखें बंद करके सीधे वहां पहुंचाया जाए तो आप किसी भी हालत में ये नहीं महसूस कर पाएंगे कि ये चैनलों की मंडी है. आपको बमुश्किल महिला मीडियाकर्मी वहां घूमती मिलेगी..
अब जबकि गला फाड़-फाड़कर तमाम चैनल बता रहे हैं कि बलात्कारियों,दरिंदों की ये दिल्ली/एनसीआर है तो कोई नोएडा फिल्म सिटी पर स्टोरी करे, अंदाजा लग जाए कि सामान्य तो छोड़िए, महिला मीडियाकर्मी कितनी सुरक्षित हैं.


5. मॉडल जेसिका लाल की हत्या की सजा काट रहे मनु शर्मा के खानदान का चैनल इंडिया न्यूज अभी स्पेशल स्टोरी चला रहा है- दरिदों की दिल्ली. एंकर दमखम से, वीओ की दैत्याकार आवाज आ रही है- जब तक दरिंदों का खात्मा नहीं होगा, दिल्ली दरिंदों की रहेगी. एक के बाद एक बॉक्स पॉप से ये साबित करने की कोशिश की जा रही है कि इस शहर में सिर्फ दरिंदे, लड़कियों को छेड़नेवाले रहते हैं..लेकिन हत्यारे के चैनल पर ये सब देखना किसी अश्लील फिल्म देखने से कम तकलीफदेह नहीं है.

6. टीवी सीरियल को वूमेन स्पेस कहा जाता रहा है क्योंकि यहां पुरुष के मुकाबले स्त्री पात्रों की संख्या लगभग दुगुनी है. यही बात आप न्यूज चैनलों के संदर्भ में भी कहा जा सकता है. दुगुनी नहीं भी तो चालीस-साठ का अनुपात तो है ही लेकिन वो इस मीडिया मंडी में सुरक्षित तो छोड़िए इतनी भी आजाद नहीं है कि वो अपने उन इलाकों पर स्टोरी कर सके जहां से देशभर की स्त्रियों की सुरक्षा को लेकर बड़ी-बड़ी बातें हो रही है लेकिन उसके साथ भी यहां वही सबकुछ होता है जो कि इससे बाहर के इलाके में हो रहा है.

7. आप में सो जो लोग भी दिल्ली की ताजा घटना को लेकर टीवी टॉक शो में जा रहे हों, चैनल के लोगों से अपील कीजिए कि लड़की के लिए किसी की बेटी,किसी की बहन,किसी की पत्नी जैसे जुमले का इस्तेमाल बंद करने की अपील कीजिए. ये बहुत ही घटिया और घिनौना प्रयोग तो है ही..साथ ही आप नागरिक के बजाय बहन,बेटी,पत्नी को वेवजह क्यों घसीटते हैं..ये सब करनेवाले लोग बहन,बेटी..तक का ख्याल नहीं करते..आप संबंधों को एंटी वायरस की तरह इस्तेमाल न करें.

8. 
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मन तो कियापलटकर कहूं- नहीं-नहींदिल्ली भूकंप से नहीं हिली थी. वो तो काउच से खिसकर मेरी तरफ हग करने के लिए बढ़ी थी कि न्यूज चैनलों को बर्दाश्त नहीं हुआ तो हो-हो करने लगे कि दिल्ली में भूकंप आ गया. बत्तख कहीं के..जितना भूकंप दिल्ली में आया नहींउससे दस गुना बलिया-बक्सर-भटिंडा में टीवी स्क्रीन ने पैदा कर दिया. क्या पता जिनके घर एलइडी हैउनके यहां तो लावा ही फूटने लगे होंगे..समझ नहीं आता इन पैनल प्रोड्यूसरों के गांव-घर में कोई चिंता करने और होली-दीवाली पर अगोरनेवाली बूढ़ी मां,काकी,दादी है भी या नहीं. मेरी मां ने तो अब तक गंड़े-ताबीज की म्यूजियम में एकाध चक्कर लगा लिए होंगे. पीतल के दीए घिस-घिसकर ठाकुरजी के आगे जलाए होंगेसलामत रखियो हमर बुतुरु के दीनानाथ.

इन चैनलों का असर ये कि सलामती के जिन रिश्तेदारों ऑब्लिक शुभचिंतकों के फोन आ रहे हैं जैसे सबके सब इंडिया टीवी,आजतक के स्ट्रिंगर हो गए हों..सबके सब हमसे टिक-टैक लेने में हों. कब हुआक्या तीव्रता रहीदिल्ली में माहौल कैसा हैकोई मरा कि नहींसरकार की तरफ से कोई बयान आया कि नहीं. पता नहीं ये मेरे रिश्तेदारों का आलम है कि पूरा खानदान ही घर-गृहस्थी में नहीं न्यूजरुम में फंसा जान पड़ता है..आप भी गौर कीजिएगा ऐसी प्राकृतिक आपदा के दौरान रिश्तेदारों के फोन आनेवाली भाषा पर और मिलान कीजिएगा चैनलों की भाषा से..संभव है एकृ-एक पंक्ति माध्यम-तर्जुमा लगे.

और अगर मेरे जैसा सुस्त या इन विपदाओं के प्रति उदासीन शख्स मिल जाए तो उनकी वही प्रतिक्रिया होती है जैसे मुंबई के एक मामूली खोपचे में आग लगने पर इधर दिल्ली में पप्पू की छत गिरने और पांच व्यक्ति के मर जाने पर होती थी..आ जा बेटा सीलमपुर से..तेरी स्टोरी मर गई..मर गईसर यहां तो बड़ी हालत खराब है. पप्पू के घर में कुछ पांच लोग मर गए हैंपूरी छत परिवार के उपर गिरी हैकोहराम मचा है.घर के बाकी बचे लोगों का बुरा हाल है..सेंटी मत बन बेटा,आ जा. शाहरुख खान ने डीडीएलजे बना दीअब तू आ जा. सीलमपुर में कौन देखता है हमारा चैनल.मुंबई की खबर टॉप पर हैतेरी स्टोरी मर गई.. कमोवेश यही हाल रिश्तेदारों का मेरा जवाब सुनकर होता है.

अच्छातुमको कुछ पता ही नहीं चला. यहां तो आजतक,इंडिया टीवीएबीपी सब दिखा रहा है कि दिल्ली में हालत खराब है. भारी भूकंप आया है. चारो तरफ हंगामा मचा हुआ है. तुम ठीक तो हो न..ठीकमस्त हैं और फिर इस चैता में कौन चिरकुट मस्त नहीं रहेगा..वो हमारी सलामती पर उदास हो जाते हैं..चैनलों की मेरी बात से फोटो कॉपी जैसी मिलान करने लगते हैं कि दोनों एक ही तरह की बात करेगा लेकिन कॉपी मिलती नही और मेरे सही-सलामत होने पर भी उन्हें मजा नहीं आता. मजा तब आता जब मैं कहता- कोहरामअभी देखकर आ रहा हूं कि बजीराबाद पुल ककड़ी जैसा टूटकर दो टुकड़ा हो गया है और उसके बीच तीन आदमी मूली जैसा अटक गया है. हरे रंग का कपड़ा पहना था तो हवा चलने से ऐसा लग रहा है कि मूली का पत्ता लहलहा रहा है..जिस बस में बैठे थे. सामने एक औरत बैठी थी. हाथ में मंगल बाजार से कलछी लेकर चढ़ी थी और भूकंप में बस ऐसा हिलोरा मारा कि कलछी छातिए में खचाक..

लेकिन यहां तो आलम ही कुछ और था. नंदनगरी से एप्पी की बोतल लेकर जब चढ़ा तो थोड़ी ही दूर पर जाकर उस बोतल के भीतर बकार्डी जैसी खनक उठी. लगा ये डीटीसी 212 मेट्रो सुरंग में जाकर घुसेगी और रिठाला वाली ट्रेन से बहनापा करने लगेगी..सामने बैठे सारे लोग डिब्बाबंद होकर अमेरिका जा रहे हैं. लेडी कन्डक्टर टिकट देने के बजाए सोने की कीमत घटने पर तनिष्क की कूपन पकड़ा रही है..ये सब पांच मिनट से ज्यादा नहीं चला होगा कि बस उसी तरह बिहारी दिल्ली में रौ में आकर दौड़ने लगी थी..माल रोड तक आते-आते गांधी सेतु पर दौड़नेवाली बस जैसी रफ्तार. माल रोड से फिर साकेत.ओटो में क्या रवानगी थी. राग मालकोश गाती हुई सवा घंटे में साकेत. दुनिया चुस्की में डूबी थी तो हम क्यों पिछड़ जाते. चूसने लगे..दस मिनट में लगने लगा कि जिस दिल्ली में भूकंप के आने की खबर चैनलों पर फफूंदी की तरह पसरी हैहम उससे बाहर हो गए हैं. जो करना था कियावापस कमलानगर..लकधक में तैयार घूमती दर्जनों आंटीज-भाभीज. इन आंटीज और भाभीज को पटरी पर बिक रही ब्रा-पैंटी से लेकर छल्ली तक के प्रति जो आकर्षण देखता हूं तो जैसे राजीव गांधी सोचा करते थे कि अगर लाल मिर्च मंहगी होती है तो फिर सीधे वही क्यों नहीं उपजातेहरी क्यों उपजाते हो वैसे ही कि जब आंटीजी और भाभीज अपनी जिंदगी और इन छोटी-छोटी चीजों से इतनी खुश है तो इस देश में सारी लड़कियां सीधे आंटीज-भाभीज बनकर पैदा क्यों नहीं होती क्या असर होता है इनका उत्साह देखकर. मुझे कभी ये छल्ली-झल्ली खाने का मन नहीं होता. इतने मसाले की सुबह यमराज के आगे हाजिरी लगाने जैसी नौबत आ जाती है. लेकिन एक भाभी छल्ली के उपर ऐसे चमकीले दांत गड़ा दिए थे और वो पूरा नजारा इतना इरॉटिक लग रहा था कि सोचा- आज जाए बीस रुपये पानी में तो जाएखाउंगा नहीं लेकिन इनकी तरह दो बार कायदे से दांत गड़ा दिए तो पैसे वसूल. इधर-उधर देखकर दांत गड़ाए फिर लिफाफे में रख लिया. ये सोचकर कि चल बेटा, घर चल..आज तुझे बैचलर्स कीचन की सैर कराता हूं.

घर आया, दे छुड़ाए और मिक्सी ग्राइंडर में पीस डाला. दो चुटकी सूजी मिलायी और आधी मुठ्ठी बेसन. इधर गमले में उगे थोड़े से लाल साग और दो आलू. उधर इस छल्ली के मक्के की रोटी तैयार. तो जी हो गया डिनर मौजा ही मौजा. मैंने इस पूरे छह घंटे में किसी को अफरा-तफरी और उब-डूब में बात करते नहीं देखा..कारण सबके सब घर से बाहर थे और भूकंप कोई आइपीएल मैच तो था नहीं कि उसकी खबर रुककर टीवी दूकानों पर देखते. जो भी जानकारी मिल रही थी, कान में कनठेपी लगे एफएम से तो उसमे कहां मातमपुर्सी होती है..हर बात में तो भसड़. दंगे हो, भूकंप हो सबमे कपल मूवी टिकट, जनता कब्बाली और सानिया भाभी की तिजोरी लुटने-लूटाने की प्रतियोगिता..तो साबजी जो दिल्ली में नहीं रहते हैं..दिल्ली में रहते हुए भी घरों में पड़े थे..उनके कमरे और खोपचे में भूकंप ज्यादा घुस गया और हम जैसे लोग जो दिल्ली में ही नहीं संयोग से भूकंप के पांच-छह घंटे बात तक लगातार घर से बाहर शहर के एक हिस्से से दूसरे हिस्से में भटकते रहे, लगा ही नहीं कि हम किसी प्राकृतिक आपदा के शिकार हुए हैं और हमारे शुभचिंतकों को टिक-टैक करने की जरुरत है.. और वैसे भी इतने बड़े शहर में रहने पर इतनी काबिलियत तो हमारे भीतर होनी ही चाहिए कि जो हम किस्तों में जिंदगी के भूकंप झेलते हैं,ऐसे भूकंप आने पर उसका वार्षिक सम्मेलन मानकर कूल हो जाएं.

कभी चैनल से बाहर की जिंदगी पर यकीन कीजिए न, आपको फोटो कॉपी की स्पेलिंग मिलाने की नौबत नहीं आएगी. हम ये सबकुछ अपने रिश्तेदारों को बताना चाह रहे थे लेकिन जनाब वो तो हमारी सलामती की खबर जानकर ही उदास हो गए थे.
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