उमेश चतुर्वेदी ने अपनी पोस्ट *किस करवट बैठेगी ब्लॉगिंग की दुनिया **! के जरिए ब्लॉग को लेकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के प्रति आशंका जतायी है। उमेश चतुर्वेदी का साफ मानना है कि वे ऐसा करके सु्प्रीम कोर्ट के फैसले पर किसी भी प्रकार के सवाल खड़े नहीं कर रहे लेकिन एक मौजू सवाल है कि अगर सरकार और स्टेट मशीनरी द्वारा ब्लॉग को रेगुलेट किया जाता है, ब्लॉग जो कि दूसरी अभिव्यक्ति की खोज के तौर पर तेजी से उभरा है तो क्या लोकतांत्रिक मान्यताओं को गारंटी देनेवाली अवधारणा खंडित नहीं होती। मेनस्ट्रीम की मीडिया को किसी भी तरह से रेगुलेट किए जाने की स्थिति में इसे लोकतंत्र की आवाज को दबाने और कुचलने की सरकार की कोशिश के तौर पर बताया जाता है तो ब्लॉग में जब सीधे-सीधे देश की आम जनता शामिल है और आज उसे भी रेगुलेट कर,दुनियाभर की शर्तें लादने की कोशिशें की जा रही है तो इसे क्या कहा जाए। क्या स्टेट मशीनरी वर्चुअल स्पेस की इस आजादी को बर्दाश्त करने की स्थिति में नहीं है। पेश है उमेश चतुर्वेदी की चिंता और सवालों के जबाब में मेरी अपनी समझ-
सरकार औऱ सुप्रीम कोर्ट क्या, रोजमर्रा की जिंदगी में टकराने वाले लोग भी ब्लॉगिंग की आलोचना
इसलिए करते हैं कि उसमें गाली-गलौज औऱ अपशब्दों के प्रयोग होने लगे हैं। कई बार शुरु किए मुद्दे
से हटकर पोस्ट को इतना पर्सनली लेने लग जाते हैं कि विमर्श के बजाय अपने-अपने घर की बॉलकनी
में आकर एक-दूसरे को कोसने, गरियाने औऱ ललकारने का नजारा बन जाता है। कई लोगों ने ब्लॉग में
रुचि लेना सिर्फ इसलिए बंद कर दिया है कि इसमें विचारों की शेयरिंग के बजाय झौं-झौं शुरु हो गया है।
ब्लॉग की इस स्तर पर समीक्षा करनेवाले लोगों की बौद्धिक क्षमता पर मैं यहां कोई सवाल खड़ा नहीं कर रहा।
लेकिन,
आज ब्लॉगिंग की जो भी आलोचना की जा रही है और जिसकी आड़ में सरकार इसके उपर नकेल कसने
का मन बना रही है वो बहाने का बहुत ही छोटा हिस्सा है। जो लोग इस काम से लगातार जुड़े हैं उन्हें पता है
कि ब्लॉगिंग में सिर्फ लोगों को कोसने औऱ गरियाने के काम नहीं होते। इसने अभी तक तो इतने आधार
जरुर पैदा कर दिए हैं जिसके बूते इसे सामाजिक जागरुकता, तात्कालिकता औऱ खबरों की ऑथेंटिसिटी के
का माध्यम बड़ी आसानी से साबित किए जा सकते हैं। यही काम अगर सरकार प्रोत्साहन देने की नियत से
एक बार ब्लॉग की दुनिया की छानबीन करती तो नतीजे कुछ और ही सामने आते लेकिन पहलेही इसे नकेल
कसने के लिहाज से देखने-समझने की कोशिशें की जा रही है तब तो नतीजे भी सरकार की मर्जी के हिसाब से
ही आएंगे।
दूसरी बात, जहां तक इसे अनर्गल और फालतू के बकवास से बचाने के लिए ऐसा किए जाने की पहल है जैसा कि
वो चैनलों के संदर्भ में तर्क देती आयी है तो एक बार न्यूज चैनलों औऱ सरकारी फैसलों पर नजर डालना अनिवार्य
होगा। तब निजी समाचार चैनलों ने अपने आंख खोले ही थे, वो ब्लॉग से भी ज्यादा शुरु था, ब्लॉग तो कम से कम
नर्सरी क्लास में जाने लायक हो भी गया है, न्यूज चैनल तो हाथ-पैर फेंककर खेलना सीख ही रहे थे कि सरकार
किसी भी हालत में इसे प्रसारण को लेकर अनुमति देने के पक्ष में नहीं थी। रेगुलेट करने के मामले में आज के
मुकाबले उसका पक्ष बहुत ही कमजोर रहा।
मैं एक बार फिर दोहराना चाहूंगा कि कंटेट को लेकर सरकार अगर इतनी ही चिंतित और पारदर्शी है और रहती
आयी है तो निजी चैनलों के लाख कोशिशों के बावजूद दूरदर्शन की साख बनी रहती। लेकिन इतना आप भी जानते
हैं कि पारदर्शी और लोककल्याणकारी प्रसारण सामग्री का मतलब माध्यम के सरकारी भोंपू बन जाना नहीं है।
हमलोग और बुनियाद जैसे टीवी सीरियलों को लेकर हम एक घड़ी के लिए नास्टॉलजिक हो जाते हैं औऱ दूरदर्शन
को एक साफ-सुथरा और निजी चैनलों के मुकाबले बेहतर माध्यम मानने लग जाते हैं लेकिन शांति, स्वाभिमान, वक्त
रफ्तार से लेकर अभी तक चलनेवाले सीरियलों पर हमारा ध्यान कभी भी नहीं जाता। अक्सर मौजूदा सरकार से जुड़ी
खबरों के साथ खुलनेवाले बुलेटिनों पर हम सीरियसली गौर नहीं कर पाते। ऐसा कहकर मैं किसी भी रुप में सरकारी
माध्यम जिसे कि जनहित के माध्यम कहे जाते हैं औऱ निजी प्रयासों को एक-दूसरे के आमने-सामने खड़ी करने की कोशिश
नहीं कर रहा, बल्कि उन कारणों को समझने की कोशिश कर रहा हूं जिसके आधार पर अक्सर सरकार एक हाथ से नकेल और दूसरे हाथ से ढोल पीटने का काम करती आयी है। ब्लॉग के साथ कुछ ऐसा ही करने की योजना है।
जहां तक ब्लॉग पर होनेवाली कारवाइयों जो कि अभी संभावना के तौर पर ही है, फिर भी इसके विरोध में खड़े होने का सवाल है,ये निजी चैनलों की तरह इतना आसान नहीं है। ब्लॉग से सिर्फ सरकार ही नहीं बल्कि काफी हद तक मेनस्ट्रीम की मीडिया भी परेशान है, इसलिए वो इसके बचाव में खुलकर सामने आएंगे, इसे लेकर आश्वस्त नहीं हुआ जा सकता। बलॉग के आने के बाद मेनस्ट्रीम की मीडिया के बारे में जितना कुछ लिखा गया है, जितनी आलोचना हुई है औऱ हो रही है, शायद पहले कभी नहीं हुआ। ब्लॉग के पक्ष में ब्लॉगरों को अपनी लड़ाई अपने स्तर पर ही लड़नी होगी, हां डॉट कॉम( कई जो ब्लॉग की ही पैदाइश हैं) साथ होंगे।
वैसे एक अच्छी बात है कि इस माध्यम से देश और दुनिया के जितने अधिक प्रोफेशन के लोग जुड़े हैं( काम करने के स्तर पर), दूसरे प्रोफेशन और स्वयं मेनस्ट्रीम मीडिया में भी नहीं है, जाहिर है वकील भी। इसलिे दावे और चुनौतियों का आधार तैयार होने में बहुत मुश्किलें नहीं आएगी। बाकी हम जैसे ब्लॉगर जंतर-मंतर पर, शास्त्री भवन के आगे पक्ष में नारे लगाने औऱ महौल बनाने के लिए हमेशा से तैयार हैं।
विनीत
परसों दीवान(सीएसडीएस-सराय की मेल लिस्ट)पर उमेश चतुर्वेदी(टेलीविजन पत्रकार औऱ ब्लॉगर) ने ब्लॉग को लेकर सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले के प्रति चिंता जाहिर करते हुए लिखा-
*किस करवट बैठेगी ब्लॉगिंग की दुनिया **!
ब्लॉगिंग पर सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले
ने ब्लॉगरों के मीडिया के सबसे शिशु माध्यम और उसके कर्ताधर्ताओं के सामने धर्मसंकट
खड़ा कर दिया है। अपनी भड़ास निकालने का अब तक अहम जरिया माने जाते रहे ब्लॉगिंग
की दुनिया सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से कितना मर्यादित होगी या उस पर बंदिशों का दौर
शुरू हो सकता है - सबसे बड़ा सवाल ये उठ खड़ा हुआ है। चूंकि ये फैसला सुप्रीम कोर्ट की
ओर से आया है, लिहाजा इस पर सवाल नहीं उठ रहे हैं।
इस लेख का मकसद इस फैसले की मीमांसा करना नहीं है - लेकिन इसके बहाने उठ रहे
कुछ सवालों से दो-चार होना जरूर है। इन सवालों से रूबरू होने से पहले हमें आज
के दौर के मीडिया की कार्यशैली और उन पर निगाह डाल लेनी चाहिए। उदारीकरण की
भले ही हवा निकलती नजर आ रही है – लेकिन ये भी सच है कि आज मीडिया के सभी
प्रमुख माध्यम – अखबार, टीवी और रेडियो बाजार की संस्कृति में पूरी तरह ढल
चुके हैं। बाजार के दबाव में रणनीति के तहत सिर्फ आर्थिक मुनाफे के लिए
पत्रकारिता को आज सुसभ्य और सुसंस्कृत भाषा में कारपोरेटीकरण कहा जा रहा है।
यानी कारपोरेट शब्द ने बाजारीकरण के दबावों के बीच किए जा रहे कामों को एक
वैधानिक दर्जा दे दिया है। जाहिर है – इस संस्कृति में उतना ही सच, आम लोगों
के उतने ही दर्द और परेशानियां सामने आ पाती हैं, जितना बाजार चाहता है। भारत
में दो घटनाओं को इससे बखूबी समझा जा सकता है। राजधानी दिल्ली से सटे नोएडा के
निठारी से लगातार बच्चे गायब होते रहे – लेकिन कारपोरेट मीडिया के लिए ये बड़ी
खबर नहीं बने। लेकिन उसी नोएडा के एक पॉश इलाके से नवंबर 2006 में एक बड़ी
सॉफ्टवेयर कंपनी एडॉबी इंडिया के सीईओ नरेश गुप्ता के बच्चे अंकित का अपहरण कर
लिया गया तो ये मीडिया के लिए सबसे बड़ी खबर बन गई। इसके ठीक दो साल बाद मुंबई
में ताज होटल पर जब आतंकियों ने हमला कर दिया तो उस घटना के साथ भी मीडिया ने
कुछ वैसा ही सलूक किया – जैसा अंकित गुप्ता अपहरण के साथ हुआ। जबकि ऐसी आतंकी
घटनाएं उत्तर पूर्व और कश्मीर घाटी में रोज घट रही हैं। नक्सलियों के हाथों
बीसियों लोग रोजाना मारे जा रहे हैं। लेकिन इन घटनाओं के साथ मीडिया उतना
उतावलापन नहीं दिखाता –जितना अंकित अपहरण या ताज हमला जैसी घटनाओं को लेकर दिखाता रहा है।
मीडिया के ऐसे कारपोरेटाइजेशन के दौर में कुछ अरसा पहले ब्लॉगिंग नई हवा के
झोंके के साथ आया और वर्चुअल दुनिया में छा गया। ब्लॉगिंग पर दरअसल वह दबाव
नहीं रहा – जो कारपोरेट मीडिया पर बना रहता है। इसलिए ब्लॉगरों के लिए सच्चाई
को सामने लाना आसान रहा। इसके चलते ब्लॉगिंग कितनी ताकतवर हो सकती है – इसका
अंदाजा तकनीक और आधुनिकता की दुनिया के बादशाह अमेरिका में हाल के राष्ट्रपति
चुनावों में देखा गया। ये सच है कि अमेरिकी लोगों को बराक हुसैन ओबामा का
बदलावभरा नेतृत्व पसंद तो आया। लेकिन ये भी उतना ही सच है कि उन्हें लेकर
लोगों का मानस सुदृढ़ बनाने में ब्लॉगरों की भूमिका बेहद अहम रही। अमेरिकी
राष्ट्रपति चुनावों के बाद एक सर्वे एजेंसी ने अपनी एक रिपोर्ट जारी की है। इस
रिपोर्ट के मुताबिक तकरीबन साठ फीसदी अमेरिकी वोटरों को ओबामा के प्रति राय
बनाने में ब्लॉगिंग ने अहम भूमिका निभाई। इस सर्वे एजेंसी के मुताबिक वोटरों
का कहना था कि मीडिया के प्रमुख माध्यमों पर उनका भरोसा नहीं था, क्योंकि उन
दिनों ये सारे प्रमुख माध्यम वही बोल रहे थे, जो ह्वाइट हाउस कह रहा था।
ब्लॉगरों की ताकत इराक और अफगानिस्तान में बुश के हमले की हकीकत दुनिया के
सामने लाने में दिखी। आप याद कीजिए उस दौर को – तब इंबेडेड पत्रकारिता की बात
जोरशोर से उछाली जा रही थी। क्या अमेरिकी – क्या भारतीय – दोनों मीडिया के
दिग्गज इसकी वकालत कर रहे थे। जिन भारतीय अखबारों और चैनलों को अमेरिकी सेनाओं
के साथ इंबेडेड होने का मौका मिल गया था – वे अपने को धन्य और इस व्यवस्था को
बेहतर बताते नहीं थक रहे थे। सारा लब्बोलुआब ये कि इन हमलों को जायज ठहराने के
लिए बुश प्रशासन और अमेरिकी सेना जो भी तर्क दे रही थी – दुनियाभर का कारपोरेट
मीडिया इसे हाथोंहाथ ले रहा था। लेकिन अमेरिकी ब्लॉगरों ने हकीकत को बयान करके
भूचाल ला दिया। ये ब्लॉगरों की ही देन थी कि बुश कटघरे में खड़े नजर आने लगे।
उनकी लोकप्रियता का ग्राफ लगातार गिरता गया। और हालत ये हो गई कि 2008 आते
–आते जार्ज बुश जूनियर अपने प्रत्याशी को जिताने के भी काबिल नहीं रहे।
भारत में ब्लॉगिंग की शुरूआत भले ही बेहतर लक्ष्यों को हासिल करने को लेकर ही
हुई – लेकिन उतना ही सच ये भी है कि बाद में ये भड़ास निकालने का माध्यम बन
गया। पिछले साल यानी 2008 की शुरुआत और 2007 के आखिरी दिनों में तो आपसी
गालीगलौज का भी माध्यम बन गया। हिंदी के दो मशहूर ब्लॉगरों के बीच गालीगलौज आज
तक लोगों को याद है। दो हजार छह के शुरूआती दिनों में तो दो-तीन ब्लॉग
ऐसे थे –जिन पर पत्रकारिता जगत के बेडरूम की घटनाओं और रिश्तों को
आंखोंदेखा हाल की तरह बताया जा रहा था। किस पत्रकार का किस महिला रिपोर्टर से
संबंध है – ब्लॉगिंग का ये भी विषय था। जब इसका विरोध शुरू हुआ तो ये ब्लॉग ही
खत्म कर दिए गए।
दरअसल कोई भी माध्यम जब शुरू होता है तो इसे लेकर पहले कौतूहल होता है। फिर
उसके बेसिर-पैर वाले इस्तेमाल भी शुरू होते हैं। इस बीच गंभीर प्रयास भी जारी
रहते हैं। नदी की धार की तरह माध्यम के विकास की धारा भी चलती रहती है और इसी
धारा से तिनके वक्त के साथ दूर होते जाते हैं। हिंदी ब्लॉगिंग के साथ भी यही
हो रहा है। आज भाषाओं को बचाने, देशज रूपों के बनाए रखने, स्थानीय संस्कृति की
धार को बनाए रखने को लेकर ना जाने कितने ब्लॉग काम कर रहे हैं। तमाम ब्लॉग
एग्रीगेटरों के मुताबिक हिंदी में ब्लॉगों की संख्या 10 हजार के आंकड़े को पार
कर गई है। इनमें ऐसे भी ढेरों ब्लॉग हैं – जो राजनीतिक से लेकर सामाजिक
रूढ़ियों पर चुभती हुई टिप्पणियां करते हैं।
जिस ब्लॉग पर टिप्पणियों को लेकर सुप्रीम कोर्ट का ये फैसला आया है – वह केरल
के एक साइंस ग्रेजुएट अजीत का ब्लॉग है। उसने अपनी सोशल साइट पर शिवसेना के
खिलाफ एक कम्युनिटी शुरू की थी। इसमें कई लोगों की पोस्ट, चर्चाएं और
टिप्पणियां शामिल थीं। इसमें शिवसेना को धर्म के आधार पर देश बांटने वाला
बताया गया था। जिसकी शिवसेना ने महाराष्ट्र हाईकोर्ट में शिकायत की थी। जिसके
बाद हाईकोर्ट ने अजीत के खिलाफ नोटिस जारी किया था। अजीत ने सुप्रीम कोर्ट से
शिकायत की कि ब्लॉग और सोशल साइट पर की गई टिप्पणी के लिए उसे जिम्मेदार
ठहराया नहीं जा सकता। लेकिन चीफ जस्टिस के.जी.बालाकृष्णन और जस्टिस पी सतशिवम
की पीठ ने कहा कि ब्लाग पर कमेंट भेजने वाला जिम्मेदार है,यह कहकर ब्लागर बच
नहीं सकता है। यानी किसी मुद्दे पर ब्लाग शुरू करके दूसरों को उस पर मनचाहे और
अनाप-शनाप कमेंट पोस्ट करने के लिए बुलाना अब खतरनाक है।
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से अनापशनाप लेखन पर रोक तो लगेगी। लेकिन असल सवाल
दूसरा है। राजनीति विज्ञान और कानून की किताबों में कानून के तीन स्रोत बताए
गए हैं। पहला – संसद या विधानमंडल, दूसरा सुप्रीम कोर्ट के फैसले और तीसरा
परंपरा। ये सच है कि जिस तरह ब्लॉगिंग की दुनिया में सरकारी और सियासी
उलटबांसियों के परखच्चे उड़ाए जा रहे हैं। उससे सरकार खुश नहीं है। वह
ब्लॉगिंग को मर्यादित करने के नाम पर इस पर रोक लगाने का मन काफी पहले से बना
चुकी है। सूचना और प्रसारण मंत्रालय के गलियारों से रह-रहकर छन-छन कर आ रही
जानकारियों से साफ है कि सरकार की मंशा क्या है। कहना ना होगा कि सुप्रीम
कोर्ट के इस फैसले से सरकार को अपनी मुखालफत कर रही वर्चुअल दुनिया की इन
आवाजों को बंद करने का अच्छा बहाना मिल जाएगा। जिसका इस्तेमाल वह देर-सवेर
करेगी ही।
मुंबई हमले के दौरान टेलीविजन पर आतंकवादी के फोनो ने पहले से खार खाए बैठी
सरकार को अच्छा मौका दे दिया। टेलीविजन चैनलों पर लगाम लगाने के लिए उसने केबल
और टेलीविजन नेटवर्क कानून 1995 में नौ संशोधन करने का मन बना चुकी थी। लेकिन
टेलीविजन की दुनिया इसके खिलाफ उठ खड़ी हुई तो सरकार को बदलना पड़ा। लेकिन
हैरत ये है कि ब्लॉगरों के लिए अभी तक कोई ऐसा प्रयास होता नहीं दिख रहा।
ब्लॉगर साथियों, उमेशजी के तर्कों के समर्थन औऱ जबाब में मैंने अपनी तरफ से दीवान को
एक भेल भेजा है, यहां पोस्ट की लंबाई बहुत अधिक हो जाने के कारण आज प्रकाशित नहीं
कर रहे हैं। फिलहाल ब्लॉग के समर्थन में महौल बनाएं,मेल कल प्रकाशित कर दूंगा।
विनीत
स्क्रीन पर स्त्रीः स्त्री सत्ता या टीआरपी की कठपुतलियां
Posted On 10:29 am by विनीत कुमार | 2 comments
मूलतः मीडिया मंत्र,मार्च 2009 में प्रकाशित
स्क्रीन पर की स्त्री, पुरुष पत्रकारों-प्रोड्यूसरों के लिखे-कहे शब्दों के आगे गुलामबंद होती हैं, ये विमर्श उन लड़कियों के लिए चौंकानेवाली हो सकती है जो कि मीडिया कोर्स के दौरान अपने को पर स्क्रीन पर देखना चाह रहीं हैं। स्क्रीन के जरिए मुक्ति की तलाश में है। इस लिहाज से नाइट्स एंड एंजिल्स (शाहरुख खान की क्रिकेट टीम के लिए चीयर लीडर्स के चुनाव के पर आधारित रियलिटी शो) की एक प्रतिभागी नताशा ने जब कहा कि वो या तो मॉडल बनना चाहती है फिर जर्नलिस्ट तो हमें बिल्कुल भी अटपटा नहीं लगा।( एनडीटीवी इमैजिन,नाइट्स एंड एंजिल्स 10.17 बजे रात,28.02.08) मेरे मन में ये सवाल एकदम से नहीं आया कि मॉडल और जर्मलिस्ट का एक-दूसरे से क्या संबंध है। हमें इन दोनों प्रोफेशन के बीच के अंतर्विरोध से ज्यादा उनके बीच की समानता का ध्यान आया। जाहिर है इस वक्त हमें स्त्री पत्रकार के तौर पर कलम घिसती हुई, खट-खट कीबोर्ड पर स्क्रिप्ट लिखती हुई, अखबार के एडिटोरियल पन्नों से जूझती हुई किसी लड़की या स्त्री की छवि ध्यान में नहीं आया। स्त्री-पत्रकार की जो छवि हमारे सामने बनी वो मॉडल से बहुत आस-पास की छवि थी। स्त्री पत्रकार की इस छवि को देखने,सुनने और इन्ज्वॉय करने के हम धीरे-धीरे अभ्यस्त हो चले हैं।
रवीश कुमार ने खबर,एंकर और भाषा पर सवाल उठाते हुए लिखा है कि- कहना यह चाह रहा हूं कि महिला एंकरों की भाषा भी उनकी नहीं है। कोई लिख देता है और उन्हें बोलना पड़ता होगा। चीख चीख कर। घुस कर मारो पाकिस्तान को,क्या कोई लड़की लिखती? ( क्या ये जेंडर का प्रॉब्लम है ? )... एक दिन हिंदी न्यूज़ चैनलों में काम कर रहीं लड़कियों को आगे आना ही होगा। दावा करना ही होगा। उन्हें लिखने के लिए कीबोर्ड पर जगह बनानी होगी। (फरवरी 14,08 http://naisadak.blogspot.com)। रवीश कुमार के इस सवाल के बहाने चोखेरबाली ने स्क्रीन पर मौजूद स्त्री-पत्रकारों के उपर अपनी टिप्पणी करते हुए लिखा -कंटेंट पर स्त्री का नियंत्रण नही है, डिसीज़न मेकिंग की बात तो दूर वह अपनी बात अपने शब्दों मे भी नहीं कह पा रही है ,एंकरिंग फिर भी सुलभ है जो किसी रैम्प पर किसी और के बनाए परिधानो की प्रदर्शनी के लिए किए जाने वाले कैट वॉक जैसा है। झलकती है तो केवल स्त्री की दर्शनीयता,कमनीयता ....उसकी योग्यता नहीं ...(सुजाता, स्त्री का कंटेंट पर कोई नियंत्रण नही है, फरवरी 20, 08, http://blog.chokherbali.in)।)
इस लिहाज से हम बात करें तो टेलीविजन पत्रकारिता की दुनिया में ये स्त्री-पत्रकारों की अधूरी उपस्थिति है। स्क्रीन पर सबसे ज्यादा स्त्री पत्रकार होने के वाबजूद भी पत्रकारिता के बाकी हिस्सों से वो बेदखल है। स्त्री-विमर्श के चश्मे से ये फ्रैक्चरड जर्नलिज्म का हिस्सा है।
स्त्री-पत्रकार से अलग, स्क्रीन पर स्त्री की एक दूसरी छवि है। ये स्त्री, पुरुष पत्रकारों की लिखी स्क्रिप्ट पढ़ने और उसके कहने पर सवाल पूछने से अलग काम करती है। ये डांसिग क्वीन बनकर नाचती है, वर्चुअली बिग बॉस बनने की कवायद में जुटी है ,इंडियन ऑयडल में पुरुष पार्टिसिपेंट को धक्के देकर आगे आती है। पितृसत्ता में रचे-पगे समाज और लगातार तीन बार पुरुषों को ही इंडियन ऑयडल के तौर पर चुननेवाली ऑडिएंस को झुठलाती हुई सवाल करती है- मुझे अभी भी भरोसा नहीं हो रहा कि मैं देश की इंडियन ऑयडल हूं।( सोनी इंटरटेनमेंट टेलीविजन,इंडियन ऑयडल-4, सौरभी डेब्बरमाः 1 मार्च 08)। संभव है ये टेलीविजन के चोचले से ज्यादा कुछ नहीं। यह भी संभव है कि तीन बार तक पुरुषों को इंडियन ऑयडल का खिताब देने के बाद जजेज के बीच एक लड़की के इंडियन ऑयडल होने की तमान्ना का जागना, रियलिटी शो को बेवजह महान साबित करने जैसा हो।( सोनाली बेन्द्रेः मैंने पहले से ही कहा था कि इस बार गर्ल इंडियन ऑयडल बने तो बहुत खुश होउंगी और तभी मैंने सोचा था कि अगर इस बार गर्ल इंडियन ऑयडल बनती है तो मेरा फेवरिट ब्रैंड बॉच है, गिफ्ट करुंगी। एंड दिस इज द टाइम टू लव यू, टू हैव ओमेगा। सोनी इंटरटेनमेंट टेलीविजन,इंडियन ऑयडल, सौरभी डेब्बरमाः 1 मार्च 08)। ये सब ढोंग है, सब बरगलाने की कोशिशें हैं, सब पाखंड है, सब टीआरपी के लिए है, सब बाजारवादी ताकतों का खेल है, मान लिया।
स्क्रीन पर स्त्री की एक तीसरी छवि है। यह छवि है टेलीविजन सीरियलों में जज़्बातों और कहानी के प्लॉट के हिसाब से चरित्र निबाहती हुई स्त्रियों की। यहां वो ऑडिएंस के सामने कोई गाने नहीं गाती,एकाध बार की बात को छोड़ दें तो नाचती भी नहीं है। वो सिर्फ प्रोड्यूसर के इशारे पर दहाड़ मारकर रोती है,अपनी चूडियां फोड़ती है, घोषित करती है कि उसका सबकुछ लूट गया, अब उसकी जिंदगी का कोई मतलब नहीं रहा है। ( खबर- न्यूज 24,आनंदी के घर मातम,1 मार्च 09,11.27 बजे ) पुरुष प्रोड्यूसरों के इशारे पर एक स्त्री, दूसरी स्त्री को जीना हराम कर देती है, औऱत ही औऱत की दुश्मन है के मुहावरे को मजबूत करती है।( इन्दु, पति को बचाती,अपनी जेठानी द्वारा सतायी गयी पात्र. देहलीज,एनडीटी इमैजिनः9.11 बजे रात, 4 मार्च 08)। इसलिए चलिए टीवी सीरियल को वूमेन स्पेस कहने के वाबजूद भी स्त्री का इससे कुछ भला न होने की बात को भी मान लिया।
न्यूज चैनलों में, संभव है वो पुरुषों की तरह ललकारनेवाली भाषा का इस्तेमाल नहीं कर सकतीं। ये भी संभव है कि वो कमजोर कंटेंट के वाबजूद स्क्रिप्ट के दम पर उसे देश और दुनिया की सबसे बड़ी खबर बनाने के काबिल न हों। लेकिन क्या दूसरों की लिखी स्क्रिप्ट को पढ़नेवाली एंकर पर, प्रोड्यूसर के मुताबिक सवाल करनेवाली एंकर पर, स्टूडियों में बैठे पुरुष एंकर औऱ फील्ड में मौजूद स्त्री-संवाददाता पर पत्रकारिता के नाम पर पुरुषों के विचार, विश्लेषण, भाषा औऱ प्रस्तुति के स्तर पर गुलाम होने का तोहमत लगाया जा सकता है। नाचती हुई स्त्री, पुरुषों के विरोध में संवाद बोलती हुई स्त्री को, सीरियलों में प्रोड्यूसर के कहने पर मर जानेवाली स्त्री को टीआरपी की कठपुलियां भर ही समझा जा सकता है। एंकर बनने की चाहत रखनेवाली मीडिया कोर्स की लड़कियों को गुलाम मानसिकता का शिकार बताया जा सकता है। इन सब पर नए सिरे से सोचना जरुरी है। यहां ये बिल्कुल नहीं कहा जा रहा है कि जो लोग स्त्री के पक्ष में बहस चला रहे हैं, उन्हें स्त्रियों की स्थिति के बदलाव की समझ नहीं है। लेकिन एक बड़ी सच्चाई है कि स्त्रियों की स्थिति में बदलाव और मुक्ति की बात सिर्फ लोकसभा टीवी पर होनेवाले जेंडर डिस्कोर्स की तर्ज नहीं किए जा सकते। दिक्कत ये है कि, बात स्क्रीन पर स्त्री की हो या फिर किसी दूसरे प्रोफेशन में मौजूद स्त्रियों की। स्त्रियों के संदर्भ में जब भी हम बात करते हैं तो उसकी प्रजेंस के बजाय उसकी भूमिका पर पूरी तरह फोकस हो जाते हैं।
लेकिन वर्चुअल स्पेस में आते ही विश्लेषण का ये आधार बहुत पर्याप्त साबित नहीं होता। वर्चुअल स्पेस की सबसे बड़ी शर्त है प्रजेंस और उससे जुड़ी ऑडिएंस की मानसिकता की समझ। हम जैसे माथापच्ची करनेवाली जमात के अलावा भी देश में तीन-चार जेनरेशन हमेशा से मौजूद है जो कि टेलीविजन स्क्रीन पर स्त्री किस रुप में मौजूद है, इस बहस में न जाकर उसकी मौजूदगी को ही सबसे बड़ी ताकत मानती है। ये हमारे-आपके और उन तमाम लोगों के लिए खोखली बात है औऱ हो सकती है जो ये मानते हैं कि केवल स्क्रीन पर ज्यादा से ज्यादा स्त्रियों के आ जाने से कुछ नहीं होगा। सामाजिक विकास औऱ स्त्री-समाज के हौसले में इससे कोई इजाफा नहीं होने जा रहा। हमें ये भी देखना होगा कि वो किस रुप में आ रही है। लेकिन, ऑडिएंस के लिए इसका बहुत अधिक मतलब नहीं है।
देश की एक बड़ी ऑडिएंस आज भी इस प्रभाव से मुक्त नहीं हैं जिनके लिए स्क्रीन पर स्त्रियों का ही बड़ी है। टेलीविजन, ऑडिएंस की इसी मानसिकता की समझ के आधार पर काम करता है। स्क्रीन पर स्त्री की उपस्थिति( प्रजेंस/होने) से सत्ता की ताकत हासिल होती महसूस की जाती है। थोड़ी देर के लिए आप इस बहस से बाहर निकलिए कि स्त्री-पत्रकार दूसरों की लिखी स्क्रिप्ट पढ़ती है, एकरिंग के नाम पर कैटवॉक जैसा कुछ करती है, वो नए स्पेस में भी पितृसत्ता के कब्जे में है, आपको एक नया मंजर दिखाई देगा। आप पाएंगे कि निजी टेलीविजन चैनलों के आने के बाद से स्त्री-पत्रकारों की स्क्रीन पर मौजूदगी औऱ उसकी फ्रिक्वेंसी पहले से बहुत अधिक बढ़ी है। सात से आठ घंटे तक चलनेवाले सीरियलों में स्त्री का अनुपात पुरुषों के मुकाबले कहीं अधिक है। उसकी इस उपस्थिति के पीछे विरोध में कई तर्क जुटाए जाते सकते हैं। लेकिन बाकी बातों के साथ-साथ इतना तो मानना ही होगा कि टेलीविजन स्क्रीन तेजी से वूमेन स्पेस के रुप में बदल रहा है। एक सौरभी डेब्बरमा के इंडियन ऑयडल बनने से,एक सपना अवस्थी पर जुनून चढ़ने से औऱ एक किरण के कचहरी चलाने से दबायी जाती रही स्त्री-समाज के बीच पनपने वाले आत्मविश्वास को नजरअंदाज तो नहीं ही किया जा सकता।
दूसरी बात, जब हम टेलीविजन के संदर्भ में बात कर रहे होते हैं तो क्या सिर्फ इस बात पर टिक कर रह जाना कि जो कुछ बोला जा रहा है सिर्फ उसका ही असर होता है, बाकी चीजों का कोई खास मतलब नहीं होता। अगर ऐसा होता तो फिर आए दिन खबरों को प्रस्तुत किए जाने के पीछे की तिगड़मों का कोई सेंस ही नहीं होता। टेलीविजन में स्क्रिप्ट एक जरुरी मसला है,इसके साथ ही स्क्रीन पर स्त्री की मौजूदगी भी उसी समाचार का हिस्सा है। दूरदराज के किसी इलाके में जहां पढ़ाई के बजाय पर्दे की पहुंच है, स्कूल पहुंचने से पहले केबल नेटवर्क और डिश पहुंच रहे हैं वहां का असर मौजूदगी के स्तर पर है, स्त्री के पीछे लगे इशारों का नहीं। अधिकांश घरों के अंदर जो कि देश के पुरुषों के लिए लीजर प्लेस हैं और स्त्रियों के लिए वर्किंग प्लेस, क्या वहां मसाला कूटती हुई स्त्री, बच्चों की टिफिन औऱ पति की शर्ट प्रेस करती स्त्री, हलाल होती स्त्री टीवी देखने पर स्त्री-पत्रकारों को,प्रोड्यूसर के इशारे पर बिलखती स्त्री को शब्दों की गुलाम स्त्री मानकर देखती है या फिर स्क्रीन पर पहुंच जाने से ताकतवर मानकर हसरत भरी नजरों से देखती है ? सब जानते हैं कि टेलीविजन का सच, असल जिंदगी के सच से अलग है लेकिन उसका असर सच है। इसलिए, बलिया, सिवान,दरभंगा और जबलपुर जैसे देश के इलाकों से आनेवाली लड़कियां ये जानते हुए भी कि उसे एंकर के नाम पर महज आठ हजार-दस हजार रुपयों पर दस-दस बारह-बारह घंटे तक काम करना पड़ सकता है, जी-जान से मीडिया के लिए लगती है। क्यों। क्या, आप इन पर किसी भी हालत में गुलामपसंद होने की तोहमत लगा सकते हैं? वो समझ रही है कि चैनल के भीतर स्त्री-पत्रकारों की स्थिति बहुत बेहतर न होने की स्थिति में भी, स्त्री-भाषा के सीमित हो जाने पर भी बाहर की दुनिया में उसका स्पेस बढ़ता है। स्क्रीन के स्पेस के जरिए समाजिक हैसियत बढ़ती है। आप इसे गलत कहें या सही लेकिन स्क्रीन पर की स्त्रियों के भले के लिए जैसे आप और हम सोचते हैं, वो नहीं सोचती इसलिए उसके लिए हमारा विमर्श जरुरी भी नहीं है। रवीश कुमार की इस इच्छा के साथ कि खबरों की स्क्रिप्ट पर स्त्री-पत्रकारों की दखल बढ़े,मेरे जैसे बाकी लोग भी यहीं चाहते हैं, बल्कि हम तो ये भी चाहते है कि फोकस टीवी जैसे चैनलों की संख्या और बढ़े लेकिन ये मानने को तैयार नहीं हैं कि स्क्रीन पर की स्त्री पत्रकार कैटवॉक के अंदाज की स्त्रियां हैं, प्रोड्यूसर के निर्देश पर एक्ट करनेवाली स्त्रियां अंततः गुलाम होती स्त्रियां हैं। ये अलग बात है कि इस तरह के काम भी आसान नहीं है, मुहावरे से भले ही हम इसे फूहड़ और हल्का साबित करने की लाख कोशिशें कर लें। सारी स्त्रियों के बूते है भी या नहीं, बेहतर हो वो खुद तय करें। सच्चाई ये है कि स्क्रीन पर मौजूद स्त्री, स्क्रीन के जरिए ही सत्ता, शोहरत और सामाजिक हैसियत हासिल करने की राह पर डटीं हैं। इसके जरिए ही वो पितृसत्ता द्वारा बनाए गए सींकचों को ध्वस्त करने की कोशिशों में जुटी हैं जो कि मुक्ति की राह में आर्थिक स्वतंत्रता से भी आगे की चीज जान पड़ती है।......
आपकी अदालत( रात दस बजे 21 मार्च,इंडिया टीवी) में रजत शर्मा ने संजय दत्त से सवाल किया कि क्या आपने भाषण तैयार कर लिया है। लखनउ के लोगों से आप क्या बोलेंगे। संजय दत्त का सीधा-सा जबाब था- बोलूंगा एक जादू की झप्पी दे दो। आठ-नौ साल की एक लड़की ने(अपने मां-बाप के उकसाने और ब्रीफ किए जाने पर)ने अपनी इच्छा जाहिर की- जिस तरह से आपने लगे रहो मुन्नाभाई में कहा- गुडमार्निंग मुंबई,उसी तरह से एक बार गुडमार्निग लखनऊ बोलिए न। संजय दत्त ने कहा- अभी बोलूं। लड़की ने कहा हां- लखनऊ के जो लोग आपको देख रहे हैं वो ऐसा करने से आपको ही वोट देंगे। संयय दत्त ने ऐसा ही किया। पूरे शो में रजत शर्मा ये दुहराते नजर आए- मुन्नाभाई पर आरोप है कि,मुन्नाभाई के बारे में कहा जाता है कि...। कल के शो में इंडिया टीवी ने संजय दत्त की जो इमेज बनायी उसमें मुन्नाभाई फैक्टर हावी रहा।
मुन्नाभाई एमबीबीएस और लगे रहो मुन्नाभाई, इन दो फिल्मों के बनाए जाने के बाद संजय दत्त की पर्सनल इमेज मुन्नाभाई के आगे सप्रेस होती नजर आती है. टेलीविजन पर जैसे ही संजय दत्त से जुड़ी खबर आती है कि एंकर,प्रोड्यूसर द्वारा उस पर मुन्नाभाई की लेप चढ़ानी शुरु हो जाती है। इस लेप से संजय दत्त को काफी हद तक राहत ही मिलती है। ऑडिएंस उन मामलों की तरफ फोकस नहीं हो पाता जिसकी वजह से वो कचहरी औऱ जेल आने-जाने के झमेले में पड़ते रहे हैं। टेलीविजन पर कोई भी खबर हो अगर उसमें संजय दत्त कॉन्टेक्सट्स है तो वहां मुन्नाभाई है। संजय दत्त की जगह का अधिक से अधिक स्पेस मुन्नाभाई घेर लेता है। वो चाहे गाने के तौर पर हो, संबोधन के तौर पर हो, स्क्रिप्ट के तौर पर हो या फिर जबाब-सवाल के तौर पर हो। लेकिन सच ये है कि संजय दत्त से जुड़े सवाल, उसके पर्सनल एफर्ट और एप्रोच ऑडिएंस के सामने नहीं आने पाते।
टेलीविजन पर संजय दत्त से जुड़ी खबरों को देखकर आप ये सवाल कर सकते हैं कि क्या मुन्नाभाई से पहले संजय दत्त का कोई इतिहास नहीं है,कोई ऐसी फिल्म नहीं है जिसकी चर्चा की जाए, कोई ऐसे गाने नहीं है जिसे बैग्ग्राउंड के तौर पर इस्तेमाल किए जा सकते हैं। सबकुछ मु्न्नाभाई से ही क्यों शुरु होता है। चाहे वो संजय दत्त के जेल जाने का मामला हो या फिर समाजवादी पार्टी में शामिल होने का। ये एक जरुरी सवाल है कि अगर संजय दत्त को मुन्नाभाई से अलग करके दिखाना हो ते टेलीविजन के पास उसे दिखाने के लिए क्या कुछ है। ऐसा दिखाया जाना मुन्नाभआई की पॉपुलरिटी को भुनाना है,ये बात कोई भी आम ऑडिएंस समझ सकती है लेकिन कल को अगर बात-बात में मुन्नाभाई देख-सुनकर बोर होने लगे तब ये मामला सिर्फ टेस्ट का नहीं रह जाएगा।
अभी तो बड़ी आसानी से टेलीविजन,रजत शर्मा और खुद सजय दत्त बात-बात में जादू की झप्पी लेते-देते नजर आते हैं,देखे और दिखाए जाते हैं क्योंकि मौजूदा हालात में तीनों को इससे फायदा है। चुनाव को देखते हुए टेलीविजन को अपने रंग,तेवर और अंदाज बदलने हैं। सालों भर सॉफ्ट स्टोरी में तर रहे टेलीविजन पर जब ज्यादा से ज्यादा पॉलिटिकल न्यूज आने लग जाएं तो टेलीविजन की सेल्फ क्रिएटिविटी भंग होने लगती है। ऐसे में उसके लिए जरुरी होता है कि वो नेताओं के उटपटांग बयानों को,रैलियों में नेताओं के करतबों को,नेताओं के झमेलों और जूते फेंकनेवाले,चेहरे पोतनेवाले जज्बाती ऑडिएंस की तलाश जारी रखे। वो टेलीविजन में मसखरईपने को बचाए रखने की कोशिश करे। इस लिहाज से बात-बात में जादू की झप्पी, जय हो जैसे कूट शब्दों का प्रयोग करनेवाले को अपने भीतर शामिल करे, जिन शब्दों का कोई निश्चित अर्थ न हो लेकिन झमेला पैदा करने की भी स्थिति न बने, ऑडिएंस को मजा आए। रजत शर्मा को तत्काल फायदा है कि वो लम्बे समय बाद नए एपिसोड लेकर उतरे हैं, कल ही ब्लॉग पर एक टिप्पणीकार ने लिखा कि आपकी अदालत के पुराने एपिसोड देखकर उबकाई आती है, वो अब नए सिरे से जुड़ें. मुन्नाभाई की ऑडिएंस आपकी अदालत की तरफ शिफ्ट हो औऱ दुकान फिर से जम जाए। संजय दत्त को सीधा फायदा है कि वो ऐसे कार्यक्रमों के जरिए अखबार,मैगजीन,रिपोर्टों और सरकारी फैसले के असर को कम करते हुए ऑडिएंस के बीच जो कि अब एक हद तक वोटर भी होने जा रहे हैं,इमोशनल सपोर्ट हासिल कर सके। उससे सारे सवाल अगर मुन्नाभाई की हैसियत से न कि संजय दत्त की हैसियत से पूछे जाते हैं तो इसमें उसका फायदा ही फायदा है, वो जिस रुप में चाहे जबाब दे सकता है, कैजुअली।
लेकिन लम्बे समय में अगर ऑडिएंस औऱ संजय दत्त के रिश्ते को समझें तो भारी नुकसान है। संजय दत्त की पहचान मुन्नाभाई से शुरु होने और उसी के कलेवर में आगे बनते जाने से संजय दत्त का इतिहास, उसके संघर्ष, उसकी वास्तविकता, ऑडिएंस की नजरों से धीरे-धीरे ओझल होते जाने की बड़ी संभावना है। एक अभिनेता की हैसियत से देखें तो संजय दत्त की पहचान सिर्फ मुन्नाभाई नहीं है, उसे एक बेहतर एक्टर सिर्फ इसी ने नहीं बनाया है, उसके पीछे की खलनायक जैसी दर्जनों फिल्में हैं जिसके किसी भी स्क्रिप्ट की चर्चा और इस्तेमाल खबरों के पैकेज में नहीं होते। ये संजय दत्त के अभिनेता कद को कितना बौना बना देता है, ये बात फिलहाल नेता बनने की छटपटाहट में संजय दत्त को शायद समझ नहीं आ रहा। लेकिन टेलीविजन की ताकत के आगे संजय दत्त माने मुन्नाभाई,उसे संजय दत्त का पासंग भर बनाकर रख देता है। संभवतः इसलिए सवाल जबाब के क्रम में एनडीटीवी पर उमाशंकर सिंह जब क्रिकेटर मदनलाल को कांग्रेस में आने को बार-बार पॉलिटिक्स में आना शब्द का इस्तेमाल करते हैं तो वो झल्ला जाते हैं। मदनलाल साफ कहते हैं- आप इसे पॉलिटिक्स में आना क्यों कहते हैं,ये समाज सेवा है। मैं देश के लिए भले ही क्रिकेट खेलता रहा लेकिन मेरे भीतर समाज सेवा की इच्छा बनी रही.मदनलाल अपने को समाज सेवी के तौर पर स्थापित करने की कोशिश में लगे रहे जबकि उमाशंकर ने पीटीसी और सवालों में राजनीति के पिच और क्रिकेट के पिच के बीच ही मदनलाल को रखा। ये बताने के लिए मदनलाल या तो खिलाड़ी हैं या तो पॉलिटिसियन हो सकते हैं, समाजसेवी.......।
आप लाख कोशिशें कर लीजिए, आप लाख हाथ-पैर मार लीजिए, टेलीविजन आपकी एक छवि तैयार करता है, ये छवि आपके मुताबिक होने के बजाय टेलीविजन के मुताबिक होता है जिसे ऑडिएंस को नए सिरे से समझना होता है, बनाए गए लोगों की छवि को तोड़ना या फिर जस्टिफाई करना होता है, ओवरटेक करना होता है। लेकिन कोई ये कह दे कि हमारी छवि को समझना टेलीविजन के बूते की बात नहीं है तो वो पाखंड रच रहा है,वह अपनी ताकत टेलीविजन के इस खेल को समझने में ही लगाए तो बेहतर है।..
फेसबुकवा रोज पूछता है स्साला,दिमाग में क्या चल रहा है
Posted On 11:51 am by विनीत कुमार | 6 comments
तुम,रवीश और युनूस इ सब फेसबुक पर आकर सेंटिया क्यों जाते हो। कोई मजहब को गैरजरुरी बताने लग जाते हो और कोई लिखते हो-हर आदमी एक उड़ाता हुआ बगूला था तुम्हारे शहर में हम किससे गुफ्तगू करते।
मौज में होता हूं तो ऑनलाइन रहे दोस्तों,सरजी और मैडमजी लोगों को छेड़ देता हूं। अभी गिरि(गिरीन्द्रनाथ झा)मिल गया। पूछा,फेसबुक पर रोज इस तरह से क्या सब लिखते हो। अब मेरे उपर इनलोगों का असर देखिए कि मैं भी लिख आया-आजकल देख रहा हूं कि सब सेंटी हो जा रहे हैं, इन्फैक्ट मैं भी,पता नहीं मौसम का असर है क्या। गिरि ने चैटबॉक्स पर ही जबाब दिया- क्या करें भइया, इ स्साला फेसबुकवा रोज पूछता है कि तुम्हारे दिमाग में क्या चल रहा है। दिल्ली जैसे शहर में घर से दूर,कोई बूढ़ा-बुजुर्ग पूछता नहीं कि कहां जा रहे हो, क्या सब चल रहा है तुम्हारें मन में,आगे का क्या प्लान है तो सोचते हैं इसी पर लिख दें। कम से कम तसल्ली तो रहे कि सोचने-समझने की कैपसिटी अभी खत्म नहीं हुई है। गिरि की बात समझ में आ गयी औऱ कुछ पुरानी यादें भी पाइपलाइन में लगकर खड़ी हो गयी कि इस पोस्ट में हमें भी शामिल करो।
इधर पेसबुक पर ही अविनाश ने लिखा-हमारे इलाके में थोड़ा अश्लील संदर्भ में ही सही, एक शब्द है - घंटा। कभी कभी किसी के सवाल पर जी चाहता है, कहें - घंटा, माइंड में क्या चलेगा? । अब गिरि अविनाश की दीवार पर लिख आया-घंटा बजाया भी जा सकता है.......घंटा..। फेसबुक पर जाते ही अक्सर एक लाइन याद आती है- बात निकली है तो दूर तलक जाएगी। कई बार तो एक बात को लेकर,एक ही साथ कई लोग अपनी-अपनी राय सूत्रधार की दीवार पर जाकर खोंसने लग जाते हैं तो लगता है कि किसी के अपने घर से बाहर खटिया,चौकी औऱ अब फोल्डिंग बेड निकालने भर की देरी नहीं होती कि लोग आकर बैठ जाते हैं। ये संचार की सबसे मजबूत मानसिकता है. आप गांव या कस्बों में जाइए और घर से फोल्डिग निकालिए औऱ फिर भी लोग नहीं बैठ रहे हैं, दो-चार मिनट रुककर नहीं बोल-बतिया ले रहे हैं तो समझिए की वो इलाका शहर होने की कगार पर है। जिस तरह गांव में कोई भी खटिया-मचिया घर से बाहर निकालता है तो निकालनेवाले को भी एग्जेक्ट पता नहीं होता कि कौन आएगा,कौन आकर बैठेगा, लेकिन कोई तो आएगा, ये उम्मीद बनी रहती है।
यही हाल फेसबुक की दीवारों का है। जिसको जैसा लगा, जिस भी काम में व्यस्त है,दीवार पर लिख दिया कि भइया इन दिनों मैं तिमारपुर के बुधवार बाजार से पाइरेटेड सीडी लाने में व्यस्त हूं। अब कोई आकर दीवार पर जानकारी ठोक जाए कि लाल किला के पास ऐसी सीडी मिलनी बंद हो गयी है। कोई कहे,हम तो पायरेसी कल्चर को सपोर्ट करते हैं, इससे आर्ट औऱ सिनेमा को लेकर एक डेमोक्रेटिक स्पेस बनता है। अजय ब्रह्मात्मज के शब्दों में कहें तो ये तब तक नहीं रुकेगा जब तक देश की हर ऑडिएंस बिना कोई क्लास डिफरेंस के अपने मामूली सिनेमाघरों में रिलीज हुए दिन ही सिनेमा देखने का अधिकार नहीं पा लेती। कोई इसके विरोध में मोर्चा खोल जाए। इस लिहाज से फेसबुक वर्चुअल स्पेस का बतकुच्चन और खिस्सा-गलबात करने की जगह के रुप में आकार ले रहा है। अभी तो ये डेलीलाइफ की शेयरिंग है लेकिन लोगों की प्रतिक्रिया इसे ब्लॉग के मिजाज की चीज बनाने जा रही है। मजे की बात है कि इसमें तीन-चार लाइन से ज्यादा लिखना चाहें तो टाइप ही नहीं होता। मतलब साफ है- उतना ही कहो,जितना तुम्हारा सच है। मेनस्ट्रीम की मीडिया में एक शब्द इस्तेमाल होता है, स्टोरी आइडिया क्या, ट्रीटमेंट की बात बाद में। कॉन्सेप्ट पर बात करो। यहां फेसबुक में एक-दो लाइन में कॉन्सेप्ट बता दें,आपके मन में जो चल रहा है,बस वही बता दें,हो गया आपका काम। अब इसके पीछे पूरी रामकहानी न सुनाने लगें।
फेसबुक पर लिखी लोगों की रोज की लाइनों पर गौर करें, फिलहाल तो साइज के ही हिसाब से। मुझे अपने स्कूल की डायरी याद आती है जिसमे रोज पापा से साइन कराने होते थे कि सारा काम दुरुस्त किया है कि नहीं मैंने। उस डायरी पर पापा को साइन करना होता था और मां को पढ़ना होता था कि कहीं सिस्टर ने ये तो नहीं लिखा है कि फटे मोजे पहनाकर क्यों भेज दिया, लंच में रोज ग्लैक्सो बिस्कुट क्यों भेजती हैं, आदि-आदि। इन सब बातों के साथ-साथ मुझे उपर लिखी लाइनें भी ध्यान में आ रही है-साइज के हिसाब से। साइज में ये फेसबुक की ही साइज की हुआ करती थी. कंटेंट में उन लोगों की लाइनें लिखी होती जिन्हें पढ़कर,जीवन में उतारकर महान बना जा सकता है। अगर कोई बच्चा इन लाइनों पर गौर करे या फिर किसी के मां-बाप इन लाइनों को उन बच्चों के भीतर आचरण के तौर पर ठूंसना चाहे तो रोज दूध पीने के लिए चिक-चिक करनेवाला बच्चा दूध पीना शुरु कर दे और कहे- एक-नहीं, दो नहीं तीन गिलास दूध पिला दो लेकिन इन लाइनों को आचरण में मत ठूंसों- ऑनेस्टी इन दि बेस्ट पॉलिसी।
जिन लोगों ने सरस्वती शिशु मंदिर से पढ़ाई की है उऩकी डायरी में कुछ औऱ ही लिखा होता। उनकी डायरी के आस-पास गीता प्रेस की डायरी भी फटकती रहती जो अक्सर उनके गुरुजी इस्तेमाल किया करते । हर पन्ने पर गीता की एक श्लोक। मुझे नहीं पता कि डायरी पर लिखे इन आदर्श वाक्यों में असल जिंदगी में कितना असर होता है लेकिन मैं ये सोचता हूं कि अगर कोई स्कूल ऐसी डायरी बनाए जिसमें जीवन के सूत्र वाक्य फेसबुक से उठाकर छाप दे तो कितना नैचुरल होगा और अपीलिंग भी,लगेगा ही नहीं कि कोई पाखंड है, लाइक, रवीश कुमार की ये लाइन- आदर्श सब टूट गया, संघर्ष सब छूट गया।.
मोहल्ला की ताजा पोस्ट "‘आइए, दिल्ली चलकर मंगलेश डबराल राज्याभिषेक करें’" पर ब्लॉगर और पत्रकार जयंती कुमारी ने लिखा कि-
साधुवाद प्रकांड विद्वान अविनाश जी को। भई आप लोगों ने मोहल्ले के पाठकों को क्या समझ रखा है कि वे भी सभी आपकी ही तरह विद्वान ही होंगे। अरे पोस्ट करने से पहले ये तो बता दिया होता कि आखिर इस गाली-गलौज की वजह क्या है। और, संक्षिप्त में इन गाली-गलौज करनेवालों का ब्यौरा भी देना चाहिए था। कौन हैं विजय कुमार, कौन हैं मंगलेश डबराल, कौन हैं कर्मेदु शिशिर, अनूप सेठी। आप क्या समझते हैं कि इन लोगों को पूरी दुनिया जानती है और ये लोग इतने मशहूर हैं कि इनके बारे में कुछ भी लिखा-पढ़ा जाने लगे, तो लोग शाहरुख-अमिताभ विवाद की तरह इन्हें भी चटखारे लेकर पढ़ेंगे। असलियत तो यह है कि मैं भी इनमें से कुछ लोगों को बहुत ही कम जानती हूं। चूंकि मेरा ब्लॉग और मीडिया से ताल्लुक रहा है, इसलिए कुछ लोगों के नाम जानना कोई बड़ी बात नहीं।
मोहल्ला पर जिस मसले को लेकर पोस्ट लेकर लिखी गयी है फिलहाल उस बहस में न जाते हुए हम दूसरी बात कर रहे हैं।
अविनाश ने क्रम से चार साहित्यकारों का जिक्र इस पोस्ट में की है। विजय कुमार,अगर मैं गलत नहीं हूं तो अंधेरे समय में विचार,किताब के लेखक,मंगलेश डबराल हिन्दी के जाने-माने कवि और अखबार की दुनिया के एक बेहतर संपादक, कर्मेंन्दु शिशिर साहित्यकार-आलोचक। कर्मेन्दु शिशिर को रचना के स्तर पर बीए के दौरान मैंने दो किताब खरीदी थी, मतवाले की चक्की और मतलावे की बहक उन किताबों पर संपादक के रुप में इन्हीं का नाम था,सो बुकफेयर में मिलने पर फैमिलियर लगा। इसमें शिवपूजन सहाय और सूर्यकांत त्रिपाठी निराला के प्रयास से छपनेवाली पत्रिका मतवाला के हिस्से संपादित हैं। बाकी अधिक इनकों भी नहीं पढ़ा है। अनुप सेठी के बारे में सुना है कि साहित्यकार हैं लेकिन न तो कभी मिला हूं औऱ न ही इनकी कोई रचना ही पढ़ी है। अगर रचना और आलोचना सिलेबस में नहीं हो तो साहित्य पढ़ने की खदबदाहट मेरे भीतर कम ही उठती है, इसे आप मेरा कोढ़पना समझ कर फिलहाल वख्श दीजिए,प्लीज। खैर,
जयंती कुमारी ने अविनाश पर आरोप लगाते हुए जो जबाब तलब किया है उसे समझना जरुरी है। अब मुझे नहीं पता कि जयंती कुमारी किस तरह के विद्वानों की बात कर रही हैं क्योंकि एक विद्वान हिन्दी के प्रख्यात और स्वनामधन्य दोनों स्तर के साहित्यकारों को जाने ही, ऐसा जरुरी नहीं है। कई बार हम बहुत ही प्रभावी व्यक्तित्व को नहीं जानते क्योंकि हमारा उससे कोई सीधा कन्सर्न नहीं होता। मसलन कोई शेयर मार्केट के दिग्गजों का नाम लेने लग जाए तो उसे हम अपनी नोटबुक पर टांकने और नाम लेनेवाले का टुकुर-टुकुर मुंह ताकने के अलावे कुछ नहीं कर सकते। लेकिन अविनाश की तरफ से कोई भी सफाई न देते हुए भी यहां मामला शेयर मार्केट का नहीं है। जो भी लोग ब्लॉगिंग कर रहे हैं उन्हें कुछ रचनाकारों के नाम आसपास तैरते रहते हैं और साहित्य की दुनिया से सीधे न जुड़ने की स्थिति में भी वो इन्हें पहचानते हैं। अब देखना ये है कि जिन रचनाकारों के नाम लिए गए वो ब्लॉग की दुनिया में कीतनी फ्रीक्वेंसी के साथ तैर रहे हैं। यानी किसी व्यक्तित्व के साथ फैमिलियर होने(पहचान के स्तर पर)के लिए एक तो उसके फील्ड से कन्सर्न होने और दूसरा ब्लॉग की दुनिया में उसका नाम लेनेवाले का होना जरुरी है। तीसरा कोई आधार नहीं है कि कोई ब्लॉगर या कमेंट करनेवाले उसे जाने ही जाने।
जयंती कुमारी ने जो सवाल उठाया है वो मैथ्स के सेट थ्योरी के जरिए समझना आसान होगा। कुछ इस तरह से कि कुछ लोग साहित्य से जुड़े है, कुछ लोग ब्लॉग से जुड़े हैं, कुछ लोग दोनों से जुड़े हैं,लेकिन कुछ लोग ऐसे हैं जो केवल ब्लॉग से जुड़े हैं तो बताइए कि कुल कितने लोग साहित्य के लोगों को जानते हैं। अविनाश ने अगर इन लोगों का परिचय नहीं लिखा है तो संभव है कि वो मानकर चल रहे हैं कि ये इतने बड़े नाम हैं कि इनका अलग से कोई परिचय देने की जरुरत नहीं है। यह साहित्यकारों के सम्मान में है। ऐसा करके अविनाश ने डेस्कटॉप पर बैठे-बैठे पाठक की समझदारी और जानकारी का जायजा लेने का काम कर रहे हों,ऐसा है या नहीं, इसके सहित जयंती कुमारी के सवाल का जबाब अविनाश ही दें तो बेहतर होगा।
मैं बस इतना समझ पा रहा हूं कि अविनाश जिस उम्मीद से कि जो साहित्य औऱ ब्लॉग पढ़ते है वो इन रचनाकारों को जानते होगें उसमें जयंती कुमारी जैसी ब्लॉगर-पत्रकार सवाल उठाती है। इसके जरिए मैं दूसरे सवाल उठाना चाहता हूं।
एनडीटीवी इमैजिन पर एक प्रोग्राम आता है-ओय इट्स फ्राइडे। फरहान अख्तर इसमें हॉस्ट के तौर पर आते हैं। एक बार फरहान अपने स्पेशल गेस्ट रितिक रौशन को लेकर आते हैं, स्टूडियो के बाहर गेटकीपर उन्हें रोक लेता है। उसका कहना था कि बिना पास के आप अंदर नहीं जा सकते। रितिक को गुस्सा आया, उसके कहा- तुम जानते हो मैं कौन हूं.गेटकीपर ने कहा-नहीं। रितिक ने गॉगल्स उतारी- मैं रितिक हूं। गेटकीपर ने कहो न प्यार है का गाना ऐ मेरे दिल तू गाए जा के स्टेप किए और कहा,लो मैं भी हो गया रितिक, यहां सब ऐसे ही आते हैं। फरहान ने कहा,अरे ये आज के हमारे स्पेशल गेस्ट हैं। गेटकीपर ने फरहान से पूछा-तब तुम कौन हो. बाद में राजू लाइटवाले ने कहा-आने दे अपना दोस्त है। गेटकीपर ने कहा- तो ऐसा बोल न कि राजू के दोस्त हैं,तब से कहे जा रहा है रितिक हैं। ये सब सच नहीं चुटकुला था, महज ऑडिएंस को हंसाने के लिए।
लेकिन जयंती कुमारी ने जो सवाल खड़े किए हैं,अगर साहित्यकार इस बात को समझें तो उन पर ये जबरदस्त चुटकुला है। तीन-चार लेख लिखकर,दो-तीन कविताएं लिखकर और एकाध कहानियां लिखकर( जरुरी नहीं कि वो छपी भी हो)हम जैसे जो तुर्रम खां बने फिरते हैं,यह चुटकुला नहीं,आंख खोल देनेवाली घटना है। भईया,जो आदमी जिंदगी भर कविता,आलोचना,साहित्य और हिन्दी के पीछे अपने को झोंक दिया,पाठक उसे भी नहीं जान रही है तो हमारी तो बत्ती लगी समझो। पांच-पांच सौ रुपये के दो मनीऑर्डर लेते ही,पोस्ट ऑफिस के कागजों पर साइन करते ही अपने को जब प्रेमचंद की औलाद समझने लगते हैं,जयंती का ये सवाल उस खुशफहमी को चकनाचूर कर देता है। हमारी औकात बताने के लिए उसने बहुत बेहतर काम किया है। हम बाकियों की तरह ये नहीं कह सकते कि जिसे कुछ भी आता-जाता नहीं वो ही ऐसे सवाल करेगा कि कर्मेन्दु शिशिर कौन है।
बाकियों की तरह मैं ये भी नहीं कह सकता कि साहित्य के लोग, नाम हो जाए की लालसा से दूर हैं,वो स्वांतःसुखाय के लिए लिखते हैं, ये फालतू बात है। हर रचनाकार नाम और उसके जरिए सत्ता कायम करने के लिए लिखता है, लिखना अपने आप में सत्ता कायम करने की प्रक्रिया है जिसमें पैसे-कौड़ी से लेकर राज्य सभा तक की उम्मीदें शामिल हैं। मैं भी मम्मट का काव्य उद्देश्य पढ़कर आया हूं,मुझे भी कुछ-कुछ पता है। अब जयंती मुझसे सवाल करे कि ये मम्मट कौन है,बताए देता हूं- काव्यशास्त्र सिद्धान्त के बहुत बड़े विद्वान जिनके सिद्धान्त आज भी काफी हद तक प्रासंगिक हैं।
सच बात तो ये है कि ब्लॉग में नामचीन लोगों को रिडिफाइन करने की जरुरत है जो कि जयंती जैसे पाठकों के सवालों को देखते हुए जरुरी जान पड़ता है। यहां तक कि प्रिंट,ओरल कम्युनिकेशन और मठवाद के जरिे स्थापित हो गए हैं,किए गए हैं, ब्लॉग की दुनिया में उन्हें ने सिरे से परिचित कराने की जरुरत हैं।
मैंने तुम्हें देखते ही
अंदाजा लगा लिया था कि
हो न हो तुम निभाकर आयी हो
एक प्रमिका की किरदार
एक ऐसे व्यक्ति के साथ जो
कहता है अपने को तुम्हार प्रमी
नहीं,नहीं तुम्हारा पहला प्रेमी
लेकिन है वो हवशी,
धरती का सबसे बड़ा हवशी।
जिसकी कठोर हाथें
गयी होंगी तुम्हारे कोमल होठों के उपर
और फिर उसने वही सब कुछ किया होगा
जैसे एक बच्चा मचल उठता है
रंगीन कागज में लिपटे खिलौने को देखकर
टुकड़े-टुकड़े कर डालता है थर्मकॉल के पीस को
जिसके भीतर खिलौने के,
लम्बे समय तक सेफ रहने की गारंटी थी।
चिथड़े-चिथड़े कर डालता है उस रंगीन कागज को
जिसमें लिपटकर खिलौना
खिलौने से भी बहुत कुछ कीमती चीज
जान पड़ता था।
लेकिन बच्चे ने थर्मकॉल को टुकड़े-टुकड़े
क्यों कर डाला
चिथड़े-चिथड़े क्यों कर डाले उस रंगीन कागज को।।
बच्चा भी समझता है,समाज की भाषा
कल को उसे भी स्पेल करना है
टेक इट इजी,टेक इट इजी
सब चलता है, क्योंकि
क्योंकि
तुम लड़की हो न।।..
( आज एमए के पुराने नोट्स खोजते हुए ये कविता मुझे अपनी एक नोटबुक से मिली। एमए प्रीवियस के दौरान लिखी गयी कविता। तब मैं हिन्दू कॉलेज,दिल्ली से हिन्दी साहित्य में एमए कर रहा था। पैसे की तंगी होती थी जो कि स्वाभाविक से ज्यादा मेरी खुद की बनायी थी। घरवाले कहते-यूपीएससी करो,मीडिया में चले जाओ,फैशन डिजाइनिंग करो, जितने पैसे लगेगें मैं दूंगा लेकिन ये साहित्य छोड़ दो। साहित्य नाम से मेरे पापा को हिन्दी के वो सारे मास्टर और लेक्चरर ध्यान में आ जाते जो होली में कपड़े लेते तो उसके पैसे दिवाली में चुकाते। पान की पिक मारते वो तिवारीजी, मिश्राजी न जाने कितने लोगों का बतौर रेफरेंस देते कि- पढ़े तो वो भी थे साहित्य क्या कर लिए। पापा को कभी भी मोटी तनख्वाह लेनेवाले और समारोहों में आलोचना कर्म में रत हिन्दीवालों का ध्यान नहीं आता। मैं बस साहित्य के तर्क में सिर्फ इतना ही कह पाता- कमाई इस फील्ड में भी है पापा, लेक्चरर बनने पर फिजिक्सवाले से कम सैलरी थोड़े ही मिलेगी।
खैर, हिल-हुज्जत करके दिल्ली आ गया। दिल्ली में मेरे सहित दो-तीन लोगों ने वो सबकुछ किया जिसे कि स्थापित साहित्यकार हो जाने पर मंच से याद करते हुए अपने को जमीन से जुड़ा हुआ साहित्यकार साबित करने में सहुलियत हो। हम डिबेट में जाते, क्लास छोड़कर एक्सटेम्पोर बोलने चले जाते, दो-तीन कविताएं साथ लेकर घूमते और महौल के हिसाब से उसका पाठ करते। मेरे बाकी दोस्तों से मेरी समझ बिल्कुल अलग थी। मेरे हिसाब से कविता, कहानी, डिबेट करने में कोई अंतर नहीं था। असल बात थी कि माल कहां से मिलता है। इसलिए हमलोग मौका देखते ही सब कुछ करते। कविता भी वरायटी, रेंज और खपत के हिसाब से ही लिखते। महान विचार तब सिर्फ कोर्स की किताबों और हमारे नोट्स में ही कैद होते।
उस दिन पता चला, जानकीदेवी कॉलेज में कविता पाठ प्रतियोगिता है। हिन्दू कॉलेज में कुछ सीनियर अपने को तोप कवि मानते, हमें फुद्दू समझते। रास्ता पता नहीं था, इसलिए मेंटली टार्चर होने की बात जानकर भी उन्हीं के साथ हो लिए। सबों ने बड़ी-बड़ी बातें की। मार, भूमंडलीकरण, बाजारवाद, अपसंस्कृति और कुछ तो अज्ञेय के डमी ही हो गए। मैंने देखा, चार में से तीन जज महिला टीचर है। बस, इतना ही कहा- आज तक विकास के नाम पर स्त्री को बाजार मिला है, समाज नहीं, इसके लिए उसे लड़ना होगा औऱ पढ़ दी वो कविता जिसे आप उपर पढ़ चुके हैं। मैंने जितनी भी कविताएं लिखी हैं, वो सब प्रतियोगिता औऱ पैसे लेने के लिए । एमए के बाद प्रतियोगिता में जाने योग्य नहीं रहे सो लिखना छोड़ दिया, हंसराज के बंदों ने तो डायरी भी मार ली। खैर,
जानकीदेवी में मुझे इस कविता के लिए छह सौ रुपये मिले और सीनियर्स को सिर्फ शाबासी। एक जज ने कहा कि बाकी की भी कविताएं अच्छी थी लेकिन विनीत ने पूरे सिचुएशन को समझते हुए कविता पढ़ी और हमलोगों को अच्छी लगी। वीमेंस डे में सात-आठ दिनों का ही फासला था।
उस छह सौ रुपये में सबसे पहले मैंने घंटाघर से दो सौ रुपये में एक कूकर खरीदा, यूनाइटेड ऑरिजनल लिखा हुआ। आज वो मेरा पुराना कूकर दीपा की नयी गृहस्थी बसाने में अपनी भूमिका अदा कर रहा है। फिर दो सौ पच्चीस रुपये में सेकण्ड हैंड गैस चूल्हा विद तीन किलो के सिलेंडर। जिससे खरीदा,उसकी गर्लफ्रैंड ने अपने यहां से इंडेन का बड़ा वाला गैसे दे दिया था। चूल्हा तो रामलखन पहले नेहरु विहार,फिर पुणे ले गया लेकिन सिलेंडर हॉस्टल के कमरे में छापा पड़ने से एक दोस्त के यहां रखवा दिया है। बाकी पैसे से वेद ढाबा,कमलानगर में मैं और मेरे स्वनामधन्य सीनियर कवियों ने जमकर खाना खाया था।
कविता ने मेरे दोस्तों को अक्सर महान होने का एहसास कराया, ये एहसास उनके बीच आज भी जिंदा है और मुझे एक समय के लिए भौतिक रुप से समृद्ध जिसकी प्रासंगिकता जरुरत के हिसाब से अब खत्म हो गयी है।।
कल यानी14 मार्च हिन्दी के युवा रचनाकारों के लिए खास दिन होगा। भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित युवा रचनाकारों की कुल 13 रचनाओं जिनमें 6 कहानी संग्रह और 7 कविता संग्रह हैं का लोकार्पण एक ही साथ किया जाएगा। एक तो एक ही साथ 13 पुस्तकों का लोकार्पण औऱ दूसरा कि युवा रचनाकारों औऱ पाठकों का जमघट, इस नजरिए से ये लोकार्पण वाकई उत्साह पैदा करनेवाला होगा। उम्मीद की जानी चाहिए कि हिन्दी समाज में युवा रचनाकारों की जो नयी खेप आयी है वो साहित्य के नाम पर कोसने और बदलाव के लिए कलम चलाने के बजाय कोड़े बरसाने की संस्कृति से अपने को अलग रखेंगे। फिलहाल रचनाओं के शीर्षक से साफ झलकता है कि आनेवाली पीढ़ी हिन्दी का मतलब सिर्फ कविता औऱ कहानी से नहीं, कविता और कहानी का मतलब कोरे कल्पना और भाषिक लफ्फबाजी से नहीं ले रही है बल्कि रचनाओं के भीतर समाज और निजी अनुभव को सामाजिक आलेख के रुप में ले रहे हैं। आदर्श को जबरन थोपने के बजाय सामयिक यथार्थ को निपट रुप में रख देने के साहस के साथ इनकी रचनाएं सोशल डॉक्यूमेंट के तौर पर सामने आ रही हैं। संभव है इससे एक हद तक जड़ हो चुकी साहित्य की वर्जनाएं भी टूटे लेकिन हिन्दी और हिन्दी से इतर साहित्य में प्रैक्टिकल एप्रोच की तलाश कर रहे पाठकों के बीच एक नयी उम्मीद जगेगी। जवान होते हुए लड़के का कबूलनामा और कहते हैं शहंशाह सो रहे थे जैसी रचनाओं को मिसाल के तौर पर लिया जा सकता है।
हिन्दी साहित्य की दुनिया में इन रचनाओं का लोकार्पण महज साहित्यिक जलसा न होकर ऐतिहासिक बदलाव का संकेत भी है। एक हद तक आनेवाले समय में युवा संस्कृति के कई संदर्भ इन रचनाओं और रचनाकारों के बीच से खोजे जा सकेंगे।
भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित युवा रचनाकारों की पुस्तकें
कविता-
कहते हैं तब शहंशाह सो रहे थे- उमाशंकर चौधरी(पुरस्कृत)
यात्रा- रविकांत (पुरस्कृत)
खिलाड़ी दोस्त तथा अन्य कविताएं- - हरेप्रकाश उपाध्याय
अनाज पकने का समय- नीलोत्पल
जवान होते हुए लड़के का कबूलनामा- निशांत
जिस तरह घुलती है काया- वाज़दा ख़ान
पहली बार- संतोष कुमार चतुर्वेदी
कहानी
डर- विमल चंद्र(पुरस्कृत)
शहतूत- मनोज कुमार पांडेय
अकथ- रणविजय सिंह सत्यकेतु
कैरियर गर्लफ्रैंड और विद्रोह- अनुज
सौरी की कहानियां- नवीन कुमार नैथानी
ईस्ट इंडिया कम्पनी- पंकज सुबीर
आगामी 14 मार्च को हिन्दी भवन, नई दिल्ली में इन पुस्तकों का लोकार्पण श्रीमती शीला दीक्षित, मुख्यमंत्री, दिल्ली
के द्वारा होगा। कार्यक्रम की अध्यक्षता कुँवर नारायण करेंगे।
क्या गुरु, तुम तो कहते हो कि बीएचयू (बनारस) में हमलोग लेडिस लोग से बोलने-बतियाने के लिए तरस जाते थे और यहां देख रहे हैं कि न्यूज 24 पर मार लौंडे लोगों के साथ लेडिस लोग झूम रही है। मेरे फोन करते ही वो हड़बड़ा गया- अरे, ऐसे कैसे हो सकता है, हमरे टाइम में तो ऐसा नहीं हुआ। अभी पता करते हैं, अगर ऐसा है तो भाड़ में जाए मई का अश्वमेघ यज्ञ( यूपीएसी पीटी), वहीं जाकर पीएचडी में इनरॉल होते हैं। दो साल तो नेट के नाम पर ही डोरा डालनेवाला काम होगा। करीब दस मिनट बाद फोन आया- अरे भाई, उ सब म्यूजिक और फाइन आर्ट के लौंडे थे, अब उनकी बात कौन करे, उऩलोगों के बीच ऐसा कुछ नहीं होता है. वो तो तालिबानी शासन में भी लेडिस लोग के साथ नाचे तो कोई कुछ नहीं कहेगा। मैंने कहा- लेकिन गुरु नैचुरल नहीं लग रहा था, लग रहा था कि संकोच से गड़े जा रहे हैं दोनो। उसने फिर कहा- तब हिन्दीवाला लोग मिला हुआ होगा, उस टोली में। वही लोग विद्यापति पढ़कर अजमाना भी चाहता है और समाज से डरता भी है। मैंने जोड़ते हुए कहा- अगर घर में कोई पूछे भी तो कह देगी,कैमरेवाले भइया ने कहा था, थोड़ा नजदीक हो जाओ, फ्रेम में तभी आएगा। उसे ये तर्क एदम से पसंद आया, कहा- और क्या, वही कहें, यहां वसंत महिला महाविद्यालय के गेट पर घंटों अगोरे( इंतजार) किए तो कुछ नहीं हुआ और अब कामराज कैसे आ गया।
टेलीविजन की स्क्रीन पर आने की तड़प देश के कई हिस्से के लोगों में साफ दिखी। कहीं एक बार दिख जाए तो कहीं होली खेलते हुए दिख जाए। पटना कॉलेज की लड़कियां बोल्ड होकर कह रही थीं- होली है, अच्छा लगा देखकर। न्यूज 24 की संवाददाता रुबिका लियाकत रंगों से बचने की बात करती कि इसके पहले ही स्कूली लौंडे पिल पड़े और उसे भी रंग डाला। खबर कुछ भी नहीं थी, सिवाय ये बताने की रिपोर्टर भी दिल रखते हैं। जी न्यूज को सुबह तक चिंता बनी रही कि राधा की चोली कौन रंगेगा, साढ़े नौ बज गए हैं। इंडिया टीवी होली में कैसे मनाए दिवाली को लगातर फ्लैश करता रहा। कब जलाएं होलिका,शुभ मुहुर्त निकालकर बैठा रहा। इंडिया टीवी ने ज्योतिष नाम की खबर की अच्छी प्रजाति ढूंढ ली है। जैसे घरों में कुछ नहीं हो तो आलू, कहीं भी आलू, कभी भी आलू।
अभी हाल ही में एनडीटीवी इंडिया ने दर्द जताया था कि एक समय ऐसा आएगा कि देश के सारे रिपोर्टर यूट्यूब की खानों में खो जाएंगे, फील्ड की रिपोर्टिंग घट रही है। लेकिन विदेशों में कैसे मनायी गयी देशी होली के लिए यूट्यूब का सहारा लेना पड़ गया। अब ये क्रिकेट थोड़े ही है कि कवर करने कोई रिपोर्टर जाए। एनडी भी यूट्यूब की खाक छानता है। लेकिन ईमानदारी रही कि लिख दिया, सौजन्य से- यूट्यब। आजतक, स्टार सहित दूसरे चैनलों पर होली और राजनीति का कॉम्बी पैक बनाकर चलाया जाता रहा। चुनाव के लिहाज से होली को देखने-समझने की कोशिशें की गयी। इसी क्रम में बिग बी ने मुंबई आतंकवादी घटना को लेकर नहीं मनायी होली, कोशी से आहत हुए लालू ने कुर्ता-फाड़ होली को स्थगित किया और नीतिश बाबू भी इसी कदमताल में रहे, चैनलों ने इसे प्रमुखता से दिखाया। इस खबर से सबकी महानता में इजाफा हुआ।
इन सबके बीच न्यज 24 ने एक नया प्रयोग किया। एक स्पेशल पैकेज तैयार किया। ब्लॉग औऱ डॉट कॉम के भाईयों नें प्रोमो भी किया- न्यूज रुम का रहस्य। प्लॉट है कि रामू यानि रामगोपाल वर्मा एक फिल्म बनाने जा रहे हैं और किस एंकर को क्या रोल मिलने जा रहा है। इसमें देश के प्रमुख टीवी पत्रकारों को लेकर एक प्रहसन तैयार किया गया। सबकी स्क्रीन के जरिए जो एक पॉपुलर छवि बन चुकी है, कुछ की ऑफिस में जो छवि बनी है, उसे भी समेटते हुए, चुटकी लेने की कोशिश की गयी। ऑडिएंस जो महसूस करती है कि सईद अंसारी में बहुत दम नहीं है उसे चैनल ने मजे में कह दिया- चाहते हैं कि लोग इन्हें सीरियसली लें लेकिन लेते नहीं। दिवांग नयी-नयी लड़कियों संत बनकर मीडिया ज्ञान देते नजर आते हैं। चैनल के लोगों के बीच टीआरपी औऱ स्टोरी को लेकर पहले हम, पहले हम की जोर मारकाट मची रहती है, ऐसे में गंगा जमुना संस्कृति की तहजीब बताने की लचर कोशिश की गयी। इस स्पेशल स्टोरी को अगर किसी ने गौर से देखा होगा तो मजाक में ही सही लेकिन सीरियसली समझ सकेगा कि मीडिया के भीतर किस-किस मानसिकता के लोग काम करते हैं, उनमें से कुछ आइटम भी हैं। इस स्पेशल का महत्व ऑडिएंस के लिए इसी रुप में है नहीं तो बाकी सबकुछ बोरिंग है, कुछ मजा नहीं आया देखकर, बिल्कुल भी ह्यूमरस नहीं था। लेकिन एक बात है कि इसमें शामिल पत्रकार अपनी हैसियत समझ रहे होंगे, इस संकेत को समझ रहे होंगे कि अगर देश के प्रमुख एंकर-पत्रकारों की सूचि बनेगी तो उनमे ये शामिल होंगे। क्योंकि शामिल करनेवाले चैनल के बाबा ही रहे होंगे। जो नहीं शामिल किए गए, वो अपने को छुच्छा समझ रहे होंगे। वाकई मीडिया के लोगों के लिए ये हैसियत समझनेवाली स्टोरी रही।
मनोरंजन चैनलों में लॉफ्टर चैलेंज पर आधारित शो को आज के दिन कूदने-फांदने का कुछ ज्यादा ही मौका मिल जाता है। ऐसा लगता है कि आज के दिन पर सबसे ज्यादा अधिकार इन्हीं का है. सोनी के कॉमेडी सर्कस औ स्टाऱ वन के लॉफ्टर चैलेंज में ये साबित हो गया। लेकिन कोई गुस्सा नहीं होता, ये सुनकर कि सुहागरात के दिन पत्नी के पास मैं स्क्रू ड्राइवर,हथौड़े और बाकी चीजें लेकर चला गया, जैसे मैं कोई इंजन खोलने जा रहा हूं। लल्ली अपने परवान पर नजर आयी। छोटे मियां की गंगूबाई सिलेब्रेटी के तौर पर स्टैब्लिश हो गयी है। रियलिटी शो के जरिए नाम कमा चुके सारे वडिंग्स और सिलेब्रिटी की महफिल इ-24 पर जमी, तरीके से गाना-बजाना हुआ। पैसे लेकर राजू श्रीवास्तव ने भी आजतक पर राजू स र्र र्र र्र में तरीके से होली खेली।
टीवी सीरियलों में ये पूरी तरह से स्टैब्लिश हो गया है कि जिस दिन जो त्योहार हो, उस दिन के एपिसोड में भी वही दिखाओ। जस्सू बेन जयंतीलाल जोशी की ज्वाइंट फैमिली( एनडी इमैजिन) में जस्सू बेन के यहां जमकर हई होली। पिछली बार एनडी इमैजिन ने नया प्रयोग किया था। अपने सारे कार्यक्रमों राधा की बेटियां कुछ कर दिखाएगी से लेकर नच ले वे विद सरोज खान तक के सारे कलाकारों को जस्सूबेन के घर जुटाया था और एक की कहानी दूसरे में नत्थी करके दिखाने की सफल कोशिश की थी। वाकई अलग लगा था ऐसा देखना कि राधा की बेटी रुचि, मैं तेरी परछाई हूं के सचिन को जस्सूबेन के घर जाकर पुचकारती है। अबकी बार जीटीवी ने ये काम किया। राणो विजय के सेट पर छोटी बहू को उतारा औऱ करीब साढ़े चार सौ लोगों को( अपने सारे सीरियलों के कलाकार) शामिल किया। समझिए सीरियलों का अब ये चालू फंडा हो गया है।
इस बार सीरियल का नजारा कुछ अलग रहा। सीरियल होली को लेकर दो खेमे में बंट गए। एक में होली मनायी गयी, इसे धूमधाम से दिखाया गया। वंदिनी से लेकर जाने क्या बात हुई तक। लेकिन दूसरी तरफ कहानी उस मोड़ पर आकर अटक गयी है कि ऐसे में होली नहीं मनायी जा सकती। बालिका वधू की आनंदी के घर मातम है। सुगना के घर बारात आनेवाली है लेकिन रास्ते में ही उसके होनेवाले पति प्रताप को डाकुओं ने मार डाला। सुगना की जिंदगी उजड़ गयी। अब कैसे मनाए होली। होली के दिन मंदिर के लिए निकलती है, गांव भर के लोग दूर भागते हैं उससे। जीवनसाथी की मिराज सदमे से पागल हो गयी है, वो अपने गूंगे पति के साथ इधर-उधर भटकती है। उसकी मां को इन सब बातों की याद आती है और गुलाल से भरी थाल रख देती है। खुशी में भी गम को शामिल करना नया ट्रेंड है। के फैक्टर के सीरियलों में ऐसा नहीं था। इस दिन अब सीरियल वोलोग भी देख सकेंगे जिनके घर कभी आज के दिन कुछ................अप्रिय घटना हुयी है, टीवी उनके लिए भी है, फिर से याद करने के लिए, पब्लिक प्लेस में नहीं, फिर भी टेलीविजन के साथ शामिल होने के लिए.
इन सबके साथ धार्मिक सीरियलों नें भी सीरियल के इस पैटर्न को फॉलो किया है और पौराणिक कथाओं की पैश्चिच बनाते हुए वहां भी होली, दिवाली औऱ दूसरे त्योहारों के प्रसंग पैदा कर लिए हैं। कलर्स पर जय श्री कृष्णा को इसी रुप में देखा,चाची( राकेश सरजी की मां) से राधा-कृष्ण के भजन सुनते हुए। बमुश्किल तीन साल के कृष्ण, राधा की उंगली पकड़कर चल देते हैं, ब्रज की होली खेलने। ये हैं जज्बात के नए रंग........।।.
गुजरात में इतना अधिक पोलराइजेशन है, चाहे वो ज्यूडिसरी को लेकर हो, रिसर्च को लेकर हो, राजनीति या फिर किसी और चीज को लेकर कि चीजों को सीधे या तो ब्लैक या फिर व्हाइट साबित कर दिया जाता है, बीच में कोई धरातल बचता ही नहीं है। यहां के लिए बीच की चीजों को समझने की कोई गुंजाइश ही नहीं बचती। सरुप बेन की किताब उम्मीद होगी कोई गुजरात 2002-2006 इसके बीच की धरातल मुहैया कराती है। गोधरा के बाद तो लगता है कि गुजरात में कोई उम्मीद है ही नहीं लेकिन सरुप बेन इसके बीच समझ और संवेदना की धरातल की खोज करती हुई रचना के तौर पर उम्मीद होगी कोई हमारे सामने पेश करती है। गोधरा पर लिखी गयी बाकी किताबों या फिर समाज विज्ञान के आधार पर लिखी गयी किसी दूसरी किताबों की तरह ये किताब हमारे सामने समाज विज्ञान के शोध का खांचा नहीं खींचती। इसे आप रिपोर्टिंग भी नहीं कह सकते। इतिहास लिखने के जो प्रचलित रुप हमारे सामने हैं, उस लिहाज से ये किताब इतिहास भी नहीं है। लेकिन इन सबके वाबजूद इसमें न तो समाज विज्ञान की ही कोई कमी है और न ही इतिहास की समझ की। दरअसल सरुप बेन ने गुजरात के दर्द को समझने और प्रस्तुत करने के लिए जिसे मेथड का इस्तेमाल किया है वो मेथड ही इसकी खासियत है। गुजरात की लेखिका औऱ संस्कृतिकर्मी सरुप बेन की किताब पर बात करते हुए प्रो.धीरुभाई सेठ ने जब गुजरात से बीच की जमीन के गायब हो जाने की बात की तो ये सवाल फिर से ताजा हो गया कि क्या किसी प्रदेश या राज्य का लोकतंत्र भी इतना खतरनाक हो सकता है कि उसके खरोच के निशान घाटियों की तरह इतने गहरे हो सकते हैं कि उसे पाट पाने की कहीं कोई उम्मीद नहीं झलकती। धीरुभाई इस निशान के बीच उम्मीद को किसी सरकारी योजना और राहत कार्य से पाटे जाने के बजाय उस दर्द को बार-बार याद किए जाने और संजोने के रुप में देखते हैं। संभव है गुजरात में टाटा नैनो की तरह और भी कई दर्जनों धकियायी और ठुकराई गयी कम्पनियां आ जाए लेकिन कहां है उम्मीद, ये उम्मीद क्या उन लोगों की झोली में गिरेंगे और अगर गिर भी गए तो क्या वो उम्मीद की ही शक्ल में होगी जिनकी नजरों के सामने अपनी बेटी का बलत्कार हुआ है, तुतलाती जुबान को साफ करने की कोशिश में लगा बच्चा खोया है। धीरुभाई के मुताबिक सरुप बेन उम्मीद की तलाश दर्द के बीच ही करती है,उसे कहीं और किसी रुप में विस्थापित करके नहीं।
किताब के संपादक रविकांत ने कहा- जब भी हिन्दुस्तान में गुजरात या फिर इस तरह के किसी औऱ घटना की चर्चा होती है उस पर अधिकांश विद्वानों द्वारा पार्टिशन जारी है जैसा लेबल चस्पा दिया जाता है। इसे देखकर हम जैसे लोग कुनमुनाते हैं, बार-बार ये ख्याल आता है कि क्या गुजरात के उपर इस तरह का लेबल चस्पाना सही तरीका है। रविकांत की बातों को समझें तो ये विभाजन के दर्द के मार्फत गुजरात और बाकी कांडो़ं के दर्द को समझने की सहुलियत देता है या फिर विश्लेषण का सरलीकरण करता है। क्या तात्कालिक दर्द औऱ टीस को स्मृति के दर्द के साथ जोड़कर महसूस किया जा सकता है। ऐसा करने से विश्लेषण में सुविधा होते हुए भी कहीं अनुभूति की गहराई को कमतर औऱ फार्मूलाबद्ध करने की कोशिश तो नहीं की जाती। किताब का संपादन करते हुए बकौल रविकांत कई बार रोए। क्या ये पार्टिशन के दर्द को याद करते हुए, उस स्मृति के बूते अभ्यस्त होते हुए, इसका भी जबाब वो स्वयं देते हैं। पहले तो मैंने सोचा कि बहुत हो गया रोना-धोना, अब नहीं रोना है मुझे इस तरह की बातों पर।....लेकिन फिर इस किताब से गुजरते हुए,कई बार रोया। बाद में दिमाग की चमड़ी मजबूत करके ही इसका संपादन कर सका। कौन मजबूर कर देता है रोने के लिए, सरुप बेन की प्रस्तुति, दो सौ परिवारों का दर्द जिसकी बातचीत को सरुप बेन ने संवेदनशील तरीके से किताब में टांका है या फिर पूरी किताब में उम्मीदी के मुकाबले नाउम्मीदी के मैजॉरिटी में होने की स्थिति या फिर लोकतंत्र के उपर भी वर्चस्ववादी कवर के चढ़ा दिए जाने की पीड़ा। इस पर विचार करना जरुरी है। फिलहाल, इसी कवर को हटाने की जद्दोजहद की स्थिति में अभिषेक कश्यप( संपादन सहयोग) तमाम खामियों के वाबजूद भी लोकतंत्र को बेहतर मानते हैं, जिसके तहत सरुप बेन किताब लिख सकीं।
किताब के भीतर दर्द, अथाह दर्द व्यक्ति स्तर का भी दर्द औऱ समाज के स्तर का भी दर्द, इस दर्द के कई रुप, कई परतें लेकिन ये दर्द हमारे बीच निराश का साम्राज्य फैलाने के बजाय उम्मीद पैदा करती है,उम्मीद की संभावना पैदा करती है। खत्म होती हुई उम्मीद के बीच उम्मीद के खत्म न होने की गुंजाइश की तलाश करती ये किताब उस जिद का एक बार फिर से दुहराती है- जीवन हर हाल में जिया जा सकता है। सबकुछ लूटने के वाबजूद भी, समेटने की साहस को संजोते हुए....
कल पढ़िए स्वयं रचनाकार क्या कहती है उम्मीद होगी कोई के बारे में, इतिहासकार अविनाश कुमार और समाजशास्त्री प्रो. शैल मायाराम के विचार। उसके बाद किताबों पर चर्चा
मूलतः नया ज्ञानोदय,मार्च में प्रकाशित
लम्बे समय से टेलीविजन को इडियट बॉक्स या फिर बुद्धू बक्सा के रुप में बदनाम कर रहे टीवी सीरियल्स अब इसकी छवि को सुधारने में जुटे हैं। पिछले सात-आठ महीनों में नए सीरियलों की खेप पर गौर करें तो ऑडिएंस के प्रति जिम्मेवारी औऱ सामाजिक संदर्भ के मामले में निजी मनोरंजन चैनल्स दूरदर्शन से भी कहीं आगे निकलते नजर आ रहे हैं। इस बीच कुछ पुराने अखबारों की कतरने हाथ लग जाए जिसमें दूरदर्शन से जुड़ी खबरें प्रकाशित की गयी हैं तो आपका भरोसा और मजबूत हो जाएगा। आपको अंदाजा लग जाएगा कि स्वस्थ मनोरंजन औऱ सामाजिक जागरुकता के नाम पर दूरदर्शन ने भी कभी काफी कुछ वो कार्यक्रम दिखाए,जो किसी भी लिहाज से ऑडिएंस के लिए जरुरी नहीं थे। यह जानते हुए कि यह अंतहीन और अतार्किक कहानी है औऱ इसका कोई भी सामाजिक सरोकार नहीं है। महज अपने घाटे की भारपाई के लिए शांति और स्वाभिमान जैसे सीरियल्स लंबे समय तक प्रसारित किए.( शांति से प्रतिदिन पचास हजार से एक लाख और स्वाभिमान से तीन लाख रुपये मिलते रहे और दूरदर्शन ने इसे जारी रखा।Lengthy DD soaps shouldn't bore viewers'PRESS TRUST OF INDIA, Saturday, February 27, 1999)। सामाजिक सरोकार तो दूर इसने ऑडिएंस की अभिरुचि को भी ताक पर रखकर इसे प्रसारित किया। इस बीच ऑडिएंस मनोरंजन के नाम पर या तो बोर होती रही या फिर वो सब कुछ भी देखती रही जिसे दिखाने के खिलाफ स्वयं दूरदर्शन रहा है। दूरदर्शन के मुकाबले निजी मनोरंजन चैनल्स के सीरियल ज्यादा रोचक और अर्थपूर्ण जान पड़ते हैं। पूरा लेख पढ़ने के लिए क्लिक करें- नया ज्ञानोदय मार्च 08. पेज न. 56-59 तक
टेलीविजन पर होनेवाले लटके-झटके को देखकर और अक्सर बिना देखे ही कोसनेवालों की कमी नहीं है। लेकिन उस लड़की ने अपने नाचने के पीछे के मकसद को बताया तो इस लटके-झटके का एक नया अर्थ निकलकर सामने आया। उसका कहना था कि हमारे नाचने से खिलाडियों में जोश आता है, हम उनमें उत्साह भरना चाहते हैं। इसी बात को आगे बढ़ाते हुए एक दूसरी लड़की ने कहा- हमारे नाचने से कई बार खिलाड़ी चौके,छक्के भी मारते हैं। खिलाड़ियों को हमारी जरुरत तब सबसे ज्यादा होती है जब वो थोड़े परेशान होते हैं, चीयर लीडर्स के रुप में ये लड़कियां इससे उबारने का काम करती हैं। इस नाचने में नए अर्थ के खुलने से विनोद दुआ की उस बात में बहुत दम नहीं रह जाता जो कि उन्होंने मुहावरे के तौर पर स्लमडॉग मिलेनियर को लेकर हिन्दुस्तानी जश्न के बारे में कहा था कि- आखिर हम भारतीय नाच-नाचकर इतना परेशान क्यों हैं। इसका जबाब मुझे कामेडी सर्कस में एक प्रतिभागी के मसखरई में मिलता है जिस पर चंकी पांडे ठहाके लगाते हुए उलटने-पलटने लग जाते हैं। एक गुजराती के घर क सांप निकला और वो पार्टी मनाने लगा। मतलब ये कि गुजराती को पार्टी मनाने के लिए बहानों की कमी नहीं है। इसे आप ऐसे भी समझ सकते हैं कि क्या गुजराती इतने सम्पन्न होते हैं कि बात-बेबात पार्टी मनाने के लिए तैयार होते हैं। तो क्या हम ये मानकर चलें कि हिन्दुस्तान इतना सम्पन्न होता जा रहा है कि वो बात-बेबात पार्टी मनाने और नाच-नाचकर थक जाने की दिशा में आगे बढ़ रहा है। यहां हम हिन्दुस्तानियों की समझ के बारे में कोई बात नहीं कर रहे।
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