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26 जनवरी के करीब 15 दिन पहले से ही गुड ब्ऑय के बीच से बैड ब्ऑय की छंटनी शुरु हो जाती। सुबह की प्रार्थना के बाद उन्हें लाइन से अलग एक साइड खड़ा कर दिया जाता। वो गुड़ ब्ऑय को क्लास में जाते हुए हसरत भरी नजर से देखते रहते,ग्लानि से भरकर सोचते, वो क्यों बैड ब्ऑय है। सारे बच्चे क्लास में क्लास में चले जाते। पहली पीरियड शुरु हो जाती और खत्म भी हो जाती। बैड ब्ऑय को इस हिदायत के साथ कि जितनी जल्दी हो सके,गुड ब्ऑय बनो, दूसरी पीरियड तक छोड़ दिया जाता।

गुड ब्ऑय और बैड ब्ऑय के विभाजन का आधार इतना भी मुश्किल नहीं होता कि कोई अपनी जमात न बदल सके। इसे एक दिन के भीतर बदला जा सकता था। इसका आधार सिर्फ इतनाभर था कि स्कूल की तरफ से जो भी ड्रेस कोड बनाए गए हैं, उसे पूरी तरह फॉलो करते हुए स्कूल में आना। आम दिनों में भी स्कूल ड्रेस में आना अनिवार्य होता लेकिन इतनी सख्ती नहीं होती। ज्यादातर बच्चों का कुछ न कुछ मिस होता। कोई सफेद शू के बजाय ग्रे पहलकर आ जाता तो कोई चप्पल पर ही नेवी ब्लू मोजे डाल लेता,ताकि झटके से आगे निकल जाए। कोई ब्लैक शू पहनकर आता तो पॉलिश करना भूल जाता। बाद में तो स्कूल ने बैज देने(बेचने) शुरु कर दिए। बीच रुपये का एक बैज जिसमें स्कूल के लोगो के साथ नाम लिखा होता। एडमीशन के वक्त ये बैज नहीं था, इसलिए पापा इसे लेकर सीरियस लेकर नहीं थे। नार्मल दिनों में तो काम चल जाता लेकिन 26 जनवरी के मौके पर भारी फजीहत होती। हमारे जैसे बच्चे,आगे गुजर गए बच्चों से सेटिंग करके लगा लेते और क्लास पहुंचते ही वापस कर देते। मैं क्लास में मॉनिटर रहा करता,हमें मॉनिटर लिखा, अलग से बैज दिया बाकी बच्चों का तो उतना पता नहीं चलता लेकिन मेरे मॉनिटर के बैज लगाने औऱ स्कूल बैज नहीं लगाने पर टीचर्स जमकर लताडते- शर्म नहीं आती, मॉनिटर होकर बैज नहीं लगाते, तुम्हारा यह हाल है तो बाकी बच्चों पर इसका क्या असर होगा। मॉनिटर को कुछ इस तरह बताया जाता जैसे स्कूल के कायदे-कानून की सुरक्षा का जिम्मा उसी के हाथों है। बैज लगाकर हम अपने को आइपीएस से कम नहीं समझते। ये अलग बात है कि स्कूल बैज न होने पर सरेआम क्लास रुम में हमारी इज्जत उतार ली जाती। कई बार खड़ा भी करा दिया जाता। इसलिए हम इग्जाम रिपोर्ट कार्ड पर गुड ब्ऑय होते हुए भी सामाजिक रुप से बैड ब्ऑय करार दिए जाते। ऐसे मौके पर वो बच्चे गुड ब्ऑय हो जाते जो सालों भर तक हमारे आगे-पीछे डोलते, अक्सर पनिश किए जाते लेकिन ड्रेस कोड पूरी होने की वजह अकड़ जाते। जिन बिना पर इन्हें सजा मिलनी होती, वो सारा काम तो दस दिन पहले से ही बंद हो जाता, उनके पनिश होने का मौका ही नहीं मिलता। सारे बच्चे कुछ न कुछ परफार्म करने की तैयारी में होते जिनमें ये रईस बच्चे फैन्सी ड्रेस कॉम्पटीशन में भाग लेते जिसके लिए तीन-चार सौ रुपये अलग से खर्च करने पड़ते।

हमारे जैसे कुछ और भी बच्चे थे जो पढ़ने में बहुत ही होशियार लेकिन 26 जनवरी जैसे दिनों में मात खा जाते। बैड ब्ऑय कहलाते। एक-दो दोस्त ऐसा कि पढ़ने में तेज होने के साथ-साथ थोड़ा शोवी नेचर का था। भाषण देने और वाद-विवाद में भाग लेने का मन उसका नहीं होता, वो भी और बच्चों की तरह ऐसे इवेंट में भाग लेना चाहता, जिसे की स्टेज पर परफार्म किया जा सके, स्कूल की सारी लड़कियों के मां-बाप देखें। ये बात जैसे ही वो अपने क्लास टीचर के सामने करता, उनका जबाब होता- 20 रुपये का बैज औऱ 25 रुपये के मोजे तो तुम्हारे पापा खरीद नहीं पाते औऱ कहां से लाओगे, उस दिन परफार्म करने के अलग से ड्रेस। इस बार तो चीफ गेस्ट डीएम साहब आ रहे हैं,हमें पब्लिक स्कूल में कबीर और फकीर थोड़े ही दिखाना है। वो चुप हो जाता औऱ मन मारकर हमारे साथ भाषण की तैयारी में जु़ट जाता। भाषण प्रतियोगिता क्लास रुम में होती औऱ उसके प्राइज स्टेज पर मिलते। हम बस एक मिनट के लिए स्टेज पर जाने लायक होते औऱ वो भी डांस,फैशन शो आदि की तैयारियां पीछे से ऐसे चल रही होती कि उस चकाचौंध में हमारा चेहरा गुम हो जाता। प्राइज लेकर नीचे उतरता- लोग बधाई देते, कहते जरुर नेता बनेगा, पत्रकार बनेगा,लेक्चरर बनेगा। इसके अलावे ऐसा हम कुछ नहीं कर पाते कि कुछ औऱ बनने की गुंजाइश हो।
हमलोग भाषण देने या फिर वाद-विवाद में भाग लेते। पूरे इवेंट में यही दो इवेंट थे जिसके लिए अपनी तरफ से चवन्नी नहीं लगानी होती। हिन्दी, अंग्रेजी या फिर संस्कृत के टीचर को पकड़ो औऱ एक भाषण तैयार करा लो। पब्लिक स्कूल में वैसे भी हिन्दी के टीचरों को कोई बहुत पूछता नहीं, सो वो भी हमसे खुश रहते। हम उनके पास इज्जत से जाते औऱ एक ही बात करते- सर किसी तरह इस साल हिन्दी में भाषण देने की परमीशन दिलवाइए। वो पूरा भाषण तैयार करवाते औऱ हौसला देते- हो जाएगा। लेकिन एक-दो दिन पहले धीरे से आकर कहते- नहीं हो पाएगा, बेटे। कोई नहीं, तुम अंग्रेजी में ही बोल दो। अंग्रेजी के भाषण पहले से तैयार होता, एक-दो दिन पहले हम दिन-रात एक करके उसे याद कर लेते। उस भाषण में क्या है, क्या उसके भाव हैं,इससे हमें कोई मतलब नहीं होता,बस बोल देते। मेरे मन में कसक बनी रह जाती कि-26 जनवरी के दिन अपने मन की बात कहूं।
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बहन-बेटियों के बिगड़ जाने का हवाला देते हुए, हजारों चीजों पर पाबंदी लगाने और फतवा जारी करनेवाले लोगों से अगर सीधा सवाल किए जाएं कि क्या समाज का काम सिर्फ संस्कारी लड़कियों के होने से चल जाएगा। ये सवाल मेरे दिमाग में फिलहाल क्यों आया, इसकी चर्चा बाद में करेंगे, पहले एक-दो अपनी उन आदतों पर गौर करें, जब हम छोटे बच्चों को सिखा रहे होते हैं।

दर्जन भर से ज्यादा घरों में मैंने देखा है कि लोग अपने बच्चों को हाय, हैलो, नमस्ते के अलावे कुछ बातें इस तरह से भी सिखाते हैं- बेटा,आंख कैसे मारते हैं, चलो, चारु बुआ को आंख मारकर दिखा दो। किन्नी मौसी को एक फ्लाइंग किस दे दो। ये बातें जो भी सिखा रहे होते हैं और जिसके लिए ऐसा करने को कहते हैं, उससे उनका मजाक करने का रिश्ता होता है. बच्चा, बताए गए निर्देश के अनुसार ही काम करता है और वो उन्हें शाबाशी देते हैं। देखा,ये भी जानता है कि आप खूबसुरत हैं औऱ आपको फ्लाइंग किस देना चाहिए। मौसी, बुआ यानि एक लड़की या तो झेंप जाती है या फिर जीजाजी आप भी न...बोलकर बच्चे को पुचकारने लग जाती है। उन्हें अपने लौंडे पर गुमान होता है औऱ अभी से ही पुरुषत्व मिजाज के होने पर खुशी होती है। मैंने एक-दो बार उन्हें टोका भी है- ये क्या सीखा रहे हैं आपका रिश्ता किम्मी से मजाक का है तो उसमें अपने लौंडे को भी क्यों घसीट रहे हैं। भाई साहब का सीधा जबाब होता- क्या बैकवर्ड की तरह बात कर रहे हैं, बच्चा थोड़े ही समझता है इन सब चीजों का मतलब, हम तो बस टाइम पास के लिए कर रहे थे।
लौंडे को एक लड़की के लिए भद्दे और बेहुदा हरकतें सीखाकर टाइम पास करना बहुत आसान है लेकिन लड़कियां ऐसे टाइम पास करने की कला नहीं सीखती,न सिखायी जाती है। इसके पीछे का तर्क है कि वो अभी से ही ये सब सिखेगी तो बर्बाद हो जाएगी। यानि समाज के लिए जो भी चीजें कथित रुप से बुरा है, अश्लील है, बेकार है, उसे लड़कियां जल्द ही समझ लेती है। उस उम्र में ही उसका मतलब समझ लेती है जबकि उसी उम्र के लड़के इन सब चीजों का कोई मतलब नहीं समझते। समाज की बुराइयों को, लड़कियों के जल्दी सीख जाने की मान्यता साबित करते हुए कहीं हम उस पर पाबंदी औऱ वहीं लड़कों को गुपचुप तरीके से ही सही पितृसत्तात्मक समाज को मजबूत करने की ट्रेनिंग तो नहीं दे रहे होते हैं।
मैं नहीं कह रहा कि जब वो लड़कों को किस लेने या उड़ाने,तू चीज बड़ी है मस्त-मस्त गाने के लिए, आंख मारकर बुआ या मौसी पर तिरछे ढंग से मुस्कराने की कला सिखा रहे होते हैं तो अपनी लड़कियों को भी वही सब सिखाएं। बात बस इतनी है कि लौंड़ों के लिए जो चीजे सहज,कैजुअल औऱ मजाक करने की है, लड़कियों के लिए वही चीजें संस्कार, मर्यादा, खानदान की इज्जत कैसे साबित हो जाती है।

किसी के भी घर में लड़कियों के लिए जो मैं सबसे ज्यादा शब्द सुनता हूं वो ये कि- निम्मी,पीउ,जिया, अब बड़ी हो रही है, उसके सामने ऐसी बातें नहीं करनी चाहिए, उसके सामने फलां चीजें नहीं रखनी चाहिए, आउटलुक का ये अंक आप बेड के नीचे ही रखिए, टेबुल पर रखने से वो पलटने लगेगी। कितना डर है हमें लड़कियों के समझदार हो जाने का, कितना भरोसा है हमें कि ये सब चीजें लड़कियां लड़कों से जल्दी समझ लेती है। लेकिन, लड़कियों को गैर समझदार औऱ बुराइयों से दूर रखने, उसकी इज्जत को लेकर लगातार चिंतित होने की विभाजन रेखा स्पष्ट नहीं होती। अपनी तरफ से लाख कोशिश करने के बाद हम उसे घालमेल कर देते हैं। हम जिस बहन-बेटी के इज्जत की बात करते हैं, उसकी रक्षा की बात करते हैं,ठीक उसी समय कैसे उसकी धज्जियां उड़ा रहे होते हैं,पोस्ट लिखने की तात्कालिक वजह के तौर पर इन्हें देखें-
साभारः- मोहल्ला

विनाश said...
सही काम कर रहे हो आखिर तुम्हारी बिटिया भी बडी हो रही है उसे भी खुला समाज चाहियेगा . इसकी एक शाखा अंतर्वासना डाट काम का भी विज्ञापन कर डालो ना जहा बेटी और बाप आपस मे सेक्स कैसे करते है कि कहानिया छपती है
January 24, 2009 6:56 PM

Anonymous said...
बहन बेटियाँ भी तो पढ़ रही थी तेरा ये ब्लॉग .
मादरचोद तेरी वजह से अब नेट कनेक्शन ही हटवाना पड़ेगा.
छि छि छि
शर्म आनी चाहिए तू तोह एक पत्रकार (तथाकथित ही सही) है न.
January 24, 2009 11:26 PM

("सविता भाभी डॉट कॉम पर आपका स्‍वागत है!" पोस्ट की प्रतिक्रया)
ये वो लोग हैं जो बहन-बेटियों को बिगड़ने सबचाना चाहते हैं, इस बात से निश्चिंत होकर कि उनके द्वारा की गयी टिप्पणियों को पढ़कर बहन-बेटियों पर कोई असर नहीं होगा,मन एकदम से कसैला नहीं होगा कि देश के किसी बाप या भाई ने उसके संस्कारी बनाने की मांग को किस तरह लोगों के सामने रखा।
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तब तक हमलोगों के उपर किसी एक एक टीचर के लिए समझदार,बफादार औऱ बाकियों के लिए बेकार होने का ठप्पा नहीं लगा था। आमतौर सभी टीचरों से अपनी बात होती,सबों के छोटे-मोटे काम करने के लिए हमलोग मुंह बाये रहते। आज भले ही कोई भी कुछ करने को कह दे तो इगो, आइडेंटिटी,दूसरे टीचरों से उनके गणित, कहां तक पावरफुल है आदि सवालों पर विचार करने लग जाते हैं। नहीं तो एमए के दौरान हम उन टीचरों के लिए भी घंटेभर तक इंतजार कर ऑटो रुकवाते जो सालों भर कासिम की दवाई के भरोसे हमें पढ़ाने आते। क्लास में बार-बार कहते भी कि बेटा, क्लास लेने के अलावे कहीं भी बाहर नही जाते. सीनियर लोग इस कहीं नहीं जाने का अर्थ इंटरव्यू के लिहाज से फुके हुए पटाखे के तौर पर बताते. ये वहां भी नहीं जाते और अगर जाते भी हैं तो इनकी चलती नहीं है, कहकर हमलोगों के गुरु प्रेम पर तरस खाते। एक ही बात करते, अपनी तरफ से आनेवालों के साथ यही दिक्कत है कि वो प्रैक्टिकल नहीं होता।
हमलोग इमोशनल के नाम पर इमोशनल फूल कह जाते। जिन लोगों ने ग्रेजुएशन की पढ़ाई डीयू से की है, वो तो इस मामले में पहले से ही समझदार थे। लेकिन एमए करने आए हमलोगों में व्यक्तिगत स्तर पर लगभग सारे टीचरों से पहचान बनाने की ललक बनी रहती। वो हमें डराते भी, फलां मास्टर के साथ घूमते हो, एम.फिल् में बहुत दिक्कत होगी लेकिन हम इस बात पर अड़ जाते कि हमें एमए के आगे पढ़ना ही नहीं है- अब बोलो। वो चुप हो जाते। जब यही मन है तो फिर है उस तुलसीदास वाले मास्टर के लिए इतनी जहमत उठाने की क्या जरुरत है जो दो साल पहले ही रिटायर्ड हो गया है। पकड़ों जवान और पावरफुल को जो कहीं अखबार-उखबार में लगा दे। हम अपनी मर्जी की करते रहे और मास्टरों से अपनी बात होती रहती।

इसी क्रम में आगे चलकर पुराने लोग धीरे-धीरे आने बंद हो गए और नए टीचर आने शुरु हो गए। हमने भी आगे की पढ़ाई जारी रखने का मन बनाया, बाकी मीडिया में जाने की कीड़ा को साइड से पोसते रहे। अपना फिर वही पुराना फार्मूला कि सबसे बात करेंगे, सबके साथ घूमेंगे। लेकिन एम.फिल् आते-आते इतना समझने लग गया था कि काम करने के लिए मुंह बाये रहना छोड़ना पड़ेगा।

एम.फिल् के शुरुआती दौर तक सबके साथ वाला फार्मूला काम करता रहा औऱ होता ये कि बुक फेयर में प्रगति मैंदान के गेट नं 5 से एक टीचर के साथ घुसते तो 7 नंबर हॉल में किसी और के साथ घुमने लग जाते। हमे अच्छा लगता औऱ मन ही मन जमकर जेएनयू वाले को गरियाते कि- उनके यहां का खेल ही अलग है, एक से बात करो तो दूसरे मास्टर मुंह फुला लेते हैं, अपने यहां मामला सही है। हम अपने विभाग पर फुलकर कुप्पा रहते।

हम मस्ती से तीन-चार लोगों औऱ एक सरजी के साथ घूम रहे थे। सामने से मनोहरश्याम जोशी जी गुजरे- मैं तेजी से लपका। सबों से कहा- मुझे एक मिनट पहले राजकमल जाने दो, जोशीजी के सारे उपन्यास खरीदने हैं, सब पर उनके ऑटोग्राफ लूंगा, मैं अधीर हो उठा था। कभी किसी के ऑटोग्राफ लेने के लिए मैं इतना बेचैन नहीं हुआ, न हिन्दू कॉलेज में आए नामचीन साहित्यकारों के औऱ न ही मीडिया में रहते हुए सिलेब्रेटी के। जोशीजी को लेकर पता नहीं क्या हो गया था।

पीछे से एक बंदे ने जबरदस्ती मुझे खींचा- तुम्हें जिससे भी और जब भी साइन लोना हो, ले लेना लेकिन अभी चलो, जिस मास्टर के साथ तुम जा रहे हो, वो जोशीजी को एक रत्ती भी पसंद नहीं करते हैं, जानते ही भड़क जाएंगे। आअभी चल हमारे साथ। मैं उनलोगों के साथ चला गया लेकिन मुड़-मुड़कर जोशीजी को देखता रहा। बुकफेयर में दोबारा वो नहीं दिखे। करीब दस दिन बाद मैं हांफते हुए किसी तरह हिन्दी भवन में जाकर उनकी तस्वीर के आगे फूल चढ़ाने पहुंच गया।

हिन्दी किताबों की सेल्फ से कामायनी खोजते हुए कसप हाथ लग जाने पर एक ही बात सोचने लगा- इस पर जोशीजी की साइन होती तो कितना अच्छा होता, कितना अच्छा होता उस दिन हम किसी मास्टर के साथ न होकर अकेले होते।
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वेब गर्ल की नयी आजादी

Posted On 1:39 pm by विनीत कुमार | 8 comments


सविताभाभी.कॉम के फैन क्लब में एक लड़की ने स्क्रैप लिखा कि- मैं सविताभाभी को रेगुलर पढ़ती हूं, मैं लेसबियन हूं और चाहती हूं कि सविताभाभी को लेसबियन के साथ संबंध दिखाए जाएं। संभव है लड़की ने जो नाम फैन क्लब में दिए हों वो गलत हो और अपनी पहचान छुपाने की कोशिश की गयी हो लेकिन एक बात तो समझ में आती ही है कि सेक्स को लेकर लड़कियों ने भी अपनी पसंद औऱ नापसंद जाहिर करनी शुरु कर दी है।

अपने यहां देखें तो स्त्री औऱ पुरुषों को लेकर सेक्स और शारीरिक संबंधों के मामले में अलग-अलग मानदंड रहे हैं। स्त्रियों के लिए सेक्स या सहवास वंशवृद्धि के लिए है, खानदान के चिराग को जलाए रखने के लिए है,बुढ़ापे के लिए लाठी की टेक के रुप में औलाद पैदा करने के लिए है। इसके आगे सहवास का उसके जीवन में कोई अर्थ नहीं है। इसमें न तो उसकी इच्छा, न खुशी औऱ न ही सैटिस्फेक्शन शामिल है। स्त्रियों के लिए सहवास धर्म की तरह है और जिस तरह धर्म का पालन इच्छा पूर्ति के बजाय साधना के लिए की जाती है, उसी तरह स्त्रियों के लिए सहवास साधना के तौर पर परिभाषित होकर रह जाती है जिसकी अंतिम परिणति है, मातृत्व को प्राप्त करना, बस।

पुरुषों के लिए भी सहवास एक धर्म की तरह है जिसमें सिर्फ संतान पैदा करना औऱ वंशवद्धि करना तो होता ही है लेकिन उसके जरिए आनंद प्राप्त करने की छूट मिलती नजर आती है। नहीं तो तथाकथित माहन ग्रंथों में, एक पुरुष के लिए कई स्त्रियों के विधान को धार्मिक कलेवर न दिया जाता। खैर,

सेक्स को लेकर किसी गंभीर अवधारणा में न भी जाएं औऱ फिलहाल इस बात को शामिल कर लें कि सेक्स शुरु से ही सिर्फ और सिर्फ संतान पैदा करने के लिए जरुरी विधान नहीं रहा है। पुरुषों के मामले में तो बिल्कुल भी नहीं। दबे-छुपे ही सही लेकिन इसे आनंद के साथ स्वीकृति मिलती रही है। अब तो ये कॉन्सेप्ट के तौर पर है-कि सेक्स इज फॉर प्लेजर। सेक्स आनंद के लिए है। इस कान्सेप्ट का सबसे मजबूत उदाहरण आपको देशभर के पुरुष टॉयलेटों में चिपके सफेद-काले इश्तेहारों में मिल जाएगें जहां किसी क्रीम, तेल या कैप्शूल के बाकी गुणों को बताने के साथ-साथ मस्ती का पूरा एहसास जैसे पेट वर्ड शामिल किए होते हैं। देशभर में प्रकाशित होनेवाले दैनिक समाचार पत्रों में छपे विज्ञापनों में मिल जाएंगे। इस तरह की चीजों के विज्ञापन जहां कहीं भी आपको दिखेंगे उससे कभी भी आप एहसास कर पाएंगे कि तेल,कैप्सूल और क्रीम की जरुरत संतान पैदा करने के लिए सहवास के दौरान आएंगे। खोई हुई दुर्बलता, पौरुष ताकत हासिल करने का नुस्खा, आनंद और मस्ती का एहसास ऐसे शब्दों से भरे विज्ञापन ये आसानी से स्थापित कर देते हैं कि सेक्स सिर्फ संतान के लिए ही नहीं प्लजेर के लिए भी किए जाते हैं। इस संदर्भ में कंड़ोम को सेक्स एज ए प्लेजर की संस्कृति को बढ़ाने का सबसे मजबूत माध्यम मान सकते हैं। इन सबके वाबजूद भी अगर कोई अभी भी इसे धार्मिक कार्य औऱ साधना जैसे शब्दों से जोड़कर देखता है तो वो इसके बहाने दर्शन औऱ आध्यात्म पर बहस करना चाहता है या फिर पाखंड फैलाने का काम करना चाहता है। और मैं इन दोनों से बचना चाहता हूं।

लेकिन प्लेजर का यही कॉन्सेप्ट जरा स्त्रियों के मामले में लागू करके देखिए। लागू तो दूर,समाज का एक बड़ा तबका कैसे आपको काट-खाने के लिए दौड़ता है। कृष्णा सोबती ने अपने उपन्यास मित्रो मरजानी में एक स्त्री को अपने पति से शारीरिक तौर पर असंतुषट होने औऱ उसे इसी आधार पर अस्वीकार कर देने की बात की तो पूरा हिन्दी समाज पिल पड़ा। स्त्री-विमर्श का एक सिरा जब ये कहता है कि देह के जरिए भी मुक्ति संभव है तो पितृसत्तात्मक समाज आग-बबूला हो उठता है। तमाम तरह की मुक्ति और बदलावों की बात कर लेने के बाद स्त्री-मुक्ति औऱ सेक्स के स्तर पर बात करने की कोशिश की जाए तो समाज उसे पचा ही नहीं पाता। वो इतना घबरा जाता है कि उसे लगता है कि स्त्रियों को आड़े हाथों लेने के लिए, उसे,यौन-शुचिता जैसे सवालों से घेरकर ही तो बेडियों को मजबूत बांधे रखा जा सकता है। अब जब वो सेक्स को भी रोजमर्रा की चर्चा में शामिल करने लग गयी, उसमें भी अपनी पसंद और नापसंद बताने लग गयी तो फिर ऐसा क्या बच जाएगा जिससे कि सामंती और गुलामी की संस्कृति को जिंदा रखा जा सकेगा।

अब आप ही बताइए,ऐसे में, कोई लड़की नियमित अपडेट होनेवाले सविताभाभी.कॉम के पन्ने पढ़ती है, और तो और अपनी पसंद भी फैन क्लब में ठोंक जाती है तो ऐसी लड़कियों का क्या कर लेगें आप। सिवाय दिन-रात ये मनाने के कि हे भगवान ऐसी लड़कियों की संख्या न बढ़े।
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नए रचनाकारों का नया दौर

Posted On 10:39 pm by विनीत कुमार | 2 comments




हिन्द युग्म के कथा पाठ और विमर्श कार्यक्रम में जब अभिषेक कश्यप और अजय नावरिया ने अपनी बात रखी तो मुझे लघु मानव को कविता में शामिल करने औऱ उसके पक्ष में खड़े होनेवाले आलोचक याद आ गए। विजयदेवनारायण सहित सहित कई दूसरे आलोचकों ने मिलकर नयी कविता में पूरी एक बहस ही शुरु ही दी औऱ देखते ही देखते हिन्दी कविता औऱ आलोचना में एक ऐसी बिरादरी पैदा हो गयी जो लघु मानव को लेकर पूरा का पूरा समाजशास्त्र गढ़ने में लग गए। अकादमिक स्तर पर इस बहस को कितनी जगह मिली, लोगों ने इसे कितना समझा इसमें न जाते हुए भी मैं रथ का टूटा पहिया, मुझे फेंको मत, न जाने इतिहास की गति कब अवरुद्ध हो जाए और इन टूटे पहिए का साथ हो जैसी कविता की पंक्तियां प्रस्तावना के तौर पर दोहरायी जाने लगी। इस संबंध में आज भी अगर आप हिन्दी के विद्यार्थियों से बात करें तो वो धर्मवीर भारती की इन पंक्तियों को जरुर दोहराते मिल जाएंगे।

लेकिन लघु मानव की पक्षधरता की बात करते हुए, इसके शुरुआती दौर के आलोचकों का कुर्ता थामे कुछ आलोचक कब महामानव बन गए और लघु मानव के लिए कविता औऱ रचना लिखनेवालों को ही लघु मानव साबित करने में जुट गए, इसका कोई भी इतिहास आपको हिंदी साहित्य में नहीं मिलेगा। वैसे भी हिन्दी साहित्य में योगदानों की ही चर्चा ज्यादा हुई है, लघु मानव की खोज एक योगदान है जबकि उस पर बात करनेवालों को लघुमानव घोषित कर देना योगदान नहीं, स्ट्रैटजी है। हिन्दी साहित्य स्ट्रैटजी की चर्चा से बचता रहा है इसलिए मार्केटिंग औऱ मैनेजमेंट से कभी इसकी पटती नहीं।

आज जब अजय नावरिया ने एक बात कही कि अब की आलोचना महत्तम की आलोचना नहीं, लघुतम की आलोचना है औऱ होनी चाहिए। है इस दावे पर असहमति न भी बने तो भी होनी चाहिए पर समर्थन तो किया ही जा सकता है। महत्तम का आशय आलोचना की उस पद्धति से है जिसमें बड़े-बड़े आलोचक रचना पर बड़ी-बड़ी बातें कर जाते हैं और इस क्रम में रचना को बड़ी बनाकर ही दम लेते हैं। जबकि इसके बरक्श कई ऐसी रचनाएं ऐसी होती हैं जो आलोचकों के हाथ में पड़कर बड़ी होने से रह जाती है या फिर उनके हाथ में न पड़ने से ज्यादा बड़ी होती है। अजय नावरिया अप्रत्यक्ष तौर पर ही सही लेकिन आलोचना, स्ट्रैटजी और इसके भीतर के खेल की तरफ इशारा करते नजर आए।

जबकि अभिषेक कश्यप गौरव सोलंकी जैसे नए कथाकार पर टिप्पणी करने के बहाने नावरिया की बात को और भी साफ कर गए। उन्होंने गौरव सोलंकी सहित आधे दर्जन रचनाकारों का नाम लेते हुए कहा कि ये रचनाकार तथाकथित किसी बड़ी पत्रिका में, हालांकि इनकी संख्या आठ-दस से ज्यादा नहीं है, नहीं छपे। अगर बड़ी पत्रिकाओं में, बड़े संपादकों की छत्रछाया में छपने से ही कोई रचना बड़ी होती है तब आप ऐसे लोगों का कभी नाम भी नहीं सुन पाते। ये छोटी-मोटी पत्रिकाओं में छपते रहे हैं, इनकी रचनाओं को आप ब्लॉग या बेबसाइट के जरिए पढ़ सकते हैं। लेकिन ये दमदार रचनाकार तो हैं। क्योंकि ये ऐसे समय में लिख रहे हैं जबकि पत्रिकाओं ऱ महान आलोचना के अलावे भी दूसरे माध्यमों से पढ़े जा रहे हैं। पाठक और रचनाकार के बीच फिर से एक व्यक्तिगत, एक निजी संबंध पनप रहे हैं। इसलिए रचनाकार को भी चाहिए कि वो महान आलोचना की परवाह किए बिना अपनी रचनाशीलता पर ध्यान दे।

एक स्तर पर देखें तो लघु मानव को रचना में शामिल करने से ज्यादा मुश्किल काम है मठाधीशी के माहौल में किसी रचनाकार को लघु साबित करने के खिलाफ आवाज उठाना। लेकिन सुखद है कि न तो अजय नावरिया ने और न ही अभिषेक कश्यप ने इस मामले में मर्सिया पढ़ने का काम किया है। बल्कि रचना की उपस्थिति के नए माध्यमों को लेकर उत्साहित हैं कि इस महान कही जानेवाली आलोचना की अट्टालिका के उस पार छोटे-छोटे द्वीपों के समूह बन रहे हैं औऱ उसमें दिनोंदिन रौनक बढ़ रही है, पाठकों के जुटने से चहल-पहल बरकरार है औऱ रचना संसार एक बार फिर से गुलजार होता जा रहा है।
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सरकार इस बात को समझ ही नहीं पा रही या फिर समझना ही नहीं चाहती कि जिसे वो नागरिक कह रही है वो अब सिर्फ नागरिक न होकर ऑडिेएंस भी है। दूरदर्शन के जमाने से नागरिक और ऑडिएंस का जो घालमेल हुआ है उसे अभी तक बरकरार रखना चाहती है। इसलिए जब भी मीडिया के मामले में बात करना शुरु करती है तो तुरंत कूदकर जनहित, पब्लिक इन्टरेस्ट, सोशल वेलफेयर जैसे वैल्यू लोडेड, संवैधानिक शब्दों को भिड़ा देती है। जबकि देश में सैंकड़ों निजी चैनलों को लाइसेंस देते समय उसे समझ लेना चाहिए कि ये चैनल देश के नागरिकों को ऑडिएंस बनाने का काम करेंगे और उन्हीं के हिसाब से अपने कार्यक्रमों का प्रसारण करेंगे।
आज न्यूज चैनलों के लिए कंटेट कोड और दुनियाभर के कानूनी प्रावधान लाए जा रहे हैं, उसकी बड़ी वजह यही है कि सरकार अभी भी देश के तमाम लोगों को नागरिक मानकर चलती है या फिर दूरदर्शन के दर्शक जिसके हित की चिंता सिर्फ उन्हें ही करनी चाहिए। सरकार के लिए ये बात समझ के बाहर की है कि करीब पन्द्रह साल से निजी चैनल अपने तरीके से कार्यक्रमों का प्रसारण कर रहे हैं, ये कहते हुए कि देश के लोग यही चाहते हैं तो चैनल और ऑडिएंस के बीच कुछ संबंध बने होंगे। अब देश की जो ऑडिएंस दूरदर्शन की तरफ कभी ताकने नहीं जाती, वो हाइपरबॉलिक खबरें दिखाए जाने के वाबजूद भी निजी चैनलों को देखना पसंद करती है, मुझे समझ में नहीं आता कि सरकार उनके लिए किस तरह के हित की बात करना चाहती है।
बाकी सेक्टर की बात न करते हुए फिलहाल की स्थिति को देखते हुए मीडिया के मामले में सरकार के लिए ये समझना जरुरी है कि नागरीक और ऑडिएंस दो अलग-अलग चीज है। जो देश का नागरिक है और उसके लिए जनहित का जो भी फार्मूला या प्रवधान है, वो ऑडिएंस के रुप में भी इसी तरह से होगा, जरुरी नहीं।

सरकार को ऐसा कोई भी प्रावधान लाने के पहले जिसे कि मेनस्ट्रीम मीडिया आज लोकतंत्र का गला घोटना कह रही है, निजी चैनलों औऱ ऑडिएंस के बीच के संबंधों को समझना चाहिए। उसे इन दोनों के बीच सिर्फ इसलिए नहीं आना चाहिए कि वो सरकार है औऱ चाहे तो कुछ भी कर सकती है। उसे उन बारिकियों में जाना चाहिए कि तमाम आलोचना के वाबजूद भी निजी चैनल क्यों वूम पर हैं। ऑडिएंस जिसे कि वो नागरिक कह रहे हैं, क्यों तीन-साढ़े तीन सौ रुपये लगाकर निजी चैनलों की तरफ भाग रही है। निजी चैनलों के आने के पहले की बात छोड़ दे तो क्या सरकार के पास ऐसा कोई सर्वे है जिससे ये साफ होता हो उससे जिम्मे जो भी माध्यम रहे हों, उसने व्यापक स्तर पर जनहित के काम किए हो। अगर है तो उसे आधार बनाए और सार्वजनिक करे। ऑडिएंस की बात छोड़ भी दें तो भी नागरिक की जरुरतों को बेहतर तरीके से समझ पाए हों, इसे सबूत के तौर पर पेश करे।
नब्बे-इक्यानवे के बाद ऐसे बहुत कम ही उदाहरण मिलेंगे जिसमें सरकारी मीडिया या फिर सरकार के सहयोग से चलनेवाली मीडिया ने नागरिकों के बीच एक समानांतर समझ पैदा करने की कोशिश की हो। जिसकी सरकार आयी, मीडिया पर उसके रंग चढ़ने लग गए। कुछ लोगों को अब भी कहते सुनता हूं कि निजी समाचार चैनलों के बाढ़ के बीच दूरदर्शन अभी भी तटस्थ रुप से खबरों का प्रसारण करता है। लेकिन हम जिसे तटस्थता कह रहे हैं, संभव है उसमें काफी हद तक आलोचनात्मक समझ की कमी हो। निजी चैनलों की जरुरत यहीं सबसे ज्यादा है।
इसलिए जनहित के नाम पर सरकार निजी चैनलों को कसने की कवायद शुरु करने जा रही है इसके पहले दो-तीन सवालों औऱ अपनी समझ को साफ कर ले तो इससे बेहतर जनहित और कुछ नहीं हो सकता-
१ सरकार के पास को ठोस आधार नहीं है जिससे साबित हो जाए कि निजी समाचार चैनलों की खबरों से जनहित को खतरा है। अगर ताजा उदाहरण मुंबई बम विस्फोट के लाइव कवरेज हैं तो सरकार को ऑपरेशन के तुरंत बाद एक-दो को छोड़कर सारे निजी न्यूज चैनलों का शुक्रिया अदा करने में जल्दीबाजी नहीं मचानी चाहिए थी। उस समय उन्होंने साफ कहा कि- इस ऑपरेशन ने मीडिया ने उनका भरपूर साथ दिया।

२ देश के नागरिक औऱ देश की ऑडिएंस दो अलग-अलग चीजें हैं औऱ अब सरकार को इसमें घालमेल नहीं करना चाहिए। निजी चैनल और सरकार के बीच ऑडिएंस भी है जो कि इ दोनों से किसी भी मामले में कम महत्वपूर्ण नहीं है। संभव हो सरकार को इस बात की अच्छी समझ है कि किस लाइन में सड़क, बिजली औऱ पानी पहुंचाने से जनहित का काम होगा, कितने स्कूल औऱ कॉलेज खोले जाने से साक्षरता दर में इजाफा होगा लेकिन मीडिया के मामले में उसका दावा इतना ही पुख्ता नहीं है। ऑडिएंस को क्या चाहिए ये तय करने का अधिकार सिर्फ सरकार के हाथ में नहीं जाने चाहिए।
३ राजदीप सरदेसाई की बात पर एक बार फिर विचार करे कि- सरकार को लगता है कि उनके कुछ मीडिया से भी ज्यादा काबिल लोग हैं। बिना रिसर्च के, बिना कोई सर्वे के जिसमें ऑडिएंस शामिल ही नहीं है, इस तरह के प्रावधान को लागू करने की कोशिश करना, मौजूदा हालात में सरकार की प्रतिक्रियावादी नीति ही समझी जाएगी। ये चैनल तब तक बहुत अच्छे रहे, जब तक इन्होंने ऑपरेशन खत्म होने तक सरकार का भरपूर साथ दिया, नेशनलिज्म को एक जज्बाती रंग देने का काम किया, लेकिन जैसे ही इसके लिए सरकार की नाकामी, सुरक्षा व्यवस्था में कोताही आदि मसलों पर बात करने लगे तो इन चैनलों से जनहित को खतरा होने लगा।
इस तरह के फैसले से न तो मीडिया को दुरुस्त किया जा सकेगा, न ही जनहित के एजेंडे पर बात हो सकेगी, उल्टे एक फ्रैक्चर्ड यूनिटी को बढ़ावा मिलेगा- जब सरकार के विरोध में होंगे तो सारी मीडिया एकजुट हो जाएगी औऱ जब मीडिया के विरोध में होगे तो देश के सारे नेता, चाहे वो किसी भी विचारधारा के क्यों न हों, एक हो जाएंगे। जबकि सच्चाई ये है कि देश इस तरह के सी-शॉ खेल की तरह नहीं चलता।
इसलिए समझदारी की दुहाई देनेवाली सरकार को निजी चैनलों पर नकेल कसने के लिए स्वयं के भीतर समझदारी की जरुरत है। चैनल को अगर खबरों को प्रसारित करने औऱ नहीं करने के प्रति समझ बनाने की जरुरत है तो सरकार को इन चैनलों के काम करने के तौर-तरीके , इसकी अनिवार्यता , गैरजरुरीपन और ऑडिएंस के बदलते मिजाज को समझना जरुरी होगा।
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वो कैंची गिरीन्द्र की नहीं थी

Posted On 9:27 am by विनीत कुमार | 5 comments


मीडिया स्‍कैन के ताज़ा पीडीएफ़ फ़ाइल में राकेश सिंह का लेख 'सामाजिक संघर्षों को सबलता'

यह मान लेने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए कि ब्लॉग की ने तमाम किस्मों की अभिव्यलक्तियों को प्रबल और मुखर बनाया है. व्यक्तिगत तौर पर लोग ब्लॉगबाज़ी कर रहे हैं, जो लिखना है, जैसे लिखना है - लिख रहे हैं. अपने ब्लॉग पर लिख रहे हैं, मित्रों के ब्लॉग के लिख रहे हैं, सामुदायिक ब्लॉगों पर लिख रहे हैं. कई दफ़े ये लेखन असरदार साबित हो रहे हैं. निचोड़, कि ब्लॉगिंग हिट है.
सामाजिक सरोकारों, आंदोलनों या संघर्षों की रोशनी में ब्लॉग की हैसियत की पड़ताल से पहले एक बात साफ़ हो जानी चाहिए. अकसर सुनने में आता है कि ‘जी, मैं तो स्वांत: सुखाय लिखता हूं’ या ये कि ‘फलां तो लिखता ही अपने लिए है’. मेरी इससे असहमति है. लिखते होंगे दिल को ख़ुश करने के लिए, पर ब्लॉग पर प्रकाशित हो जाने के बाद उस लिखे हुए के साथ लेखक और प्रकाशक के अलावा पाठक भी जुड़ जाता है. यह पाठक पर निर्भर करता है कि वह अब उस लिखे पर सहमति-असहमति, ख़ुशी-नाख़ुशी, तारीफ़ या खिंचाई में से, जो चाहे करे. ऐसा तो हो नहीं सकता कि किसी सामग्री को पढ़ने के बाद उस पर किसी की कोई राय बने ही न. मेरी इस दलील का गरज इतना भर है कि किसी प्रकार की अभिव्य क्ति के सार्वजनिक हो जाने के बाद उसका एक सामाजिक असर होता है. हर ब्लॉगलिखी किसी न किसी सामाजिक पहलू, प्रक्रिया, प्रवृत्ति, परिस्थिति या परिघटना पर उंगली रख रही होती है, उकेर रही होती है, उकसा रही होती है, या फिर उलझा या सुलझा रही होती है.
उपर वाले तर्क से यह साफ़ हो जाता है ब्लॉगगिरी अभिव्यक्ति के माध्य म से आगे बढ़ कर सामाजिक सरोकारों, संघर्षों और संस्थाहओं को संबल प्रदान करने का औज़ार भी बन चुका है. रोज़ नहीं तो कम-से-कम हफ़्ते में कोई न कोई मुद्दा आधारित ब्लॉग जनम रहा है. कहीं दलितमुक्ति पर लिखा जा रहा है तो कहीं महिलामुक्ति पर, कोई सूचना के अधिकार पर जानकारी बांट रहा है तो कोई पर्यावरण को लेकर चिंतित है, कोई कला और संस्कृगति जगत की हलचल से रू-ब-रू करा रहा है तो कहीं सरकार की जनविरोधी विकास नीतियों का प्रतिरोध दर्ज हो रहा है, कहीं राजनीति मसला है तो कहीं भ्रष्टारचार, कोई अपनी सामाजिक प्रतिबद्धताओं व गतिविधियों को साझा कर रहा है तो कोई ख़ालिस विचार-प्रचार में लीन है. अरज ये कि जितने नाम उतने रंग और जितने रंग उतने ढंग.
मिसाल के तौर पर सफ़र की स्वयंकबूली देखिए, ‘एक ऐसी यात्रा जिसमें बेहतर समाज के निमार्ण और संघर्ष की कोशिशें जारी हैं ...’. सरसरी निगाह डालने पर पता चलता है कि शिक्षा, क़ानून, मीडिया और संस्कृति को लेकर सफ़र न केवल प्रतिबद्ध है बल्कि यत्र-तत्र प्रयोगात्मक कार्यक्रम भी चला रहा है. इसकी दायीं पट्टी पर त्वरित क़ानूनी सलाह के लिए हेल्पलाइन नं. +91 9899 870597 भी है. ख़ुद को आम आदमी का हथियार .... बताता सूचना का अधिकार संबंधित क़ानून, इसके इस्तेमाल और असर से जुड़े लेख, संस्मारण, रपट, इत्यादि का एक बड़ा जखीरा है. इसकी बायीं पट्टी पर आरटीआई हेल्पसलाइन नंबर 09718100180 दर्ज है. जमघट सड़कों पर भटकते बच्चों के एक अनूठे समूह के रचनात्मक कारनामों का सिलसिलेवार ब्यौरा पेश करता है. मैं जमघट को शुरुआत से जानता हूं और यह कह सकता हूं कि ब्लॉग ने जमघट को सहयोगियों व शुभचिंतकों का एक बड़ा दायरा दिया है.
वक़्त हो तो एक मर्तबा यमुना जीए अभियान पर हो आइए. यहां आपको दिल्ली में यमुना के साथ लगातार बढ़ते दुर्व्यवहार पर अख़बारी रपटों, सरकार के साथ किए जा रहे संवादों, लेखों, इत्या़दि के ज़रिए ज़ाहिर की जाने वाली चिंताएं मिलेंगी. पर्यावरण के मसले पर गहन-चिंतन में लीन दिल्ली ग्रीन पर निगाह डालें, पता चलेगा कि हिन्दीं में लिखा-पढ़ी करने वालों ने शहरीकरण के मौज़ूदा तौर-तरीक़ों व उसके समानंतर उभर रहे पर्यावरणीय जोखिमों पर किस तरह चुप्पी साध रखी हैं.
समता इंडिया दलित प्रश्नों व ख़बरों से जुड़े ब्लॉगों का एक बेहद प्रभावी मंच है. दलित मसले पर देश में क्या कुछ घटित हो रहा है, यहां से आपको मालूम हो जाएगा और विदेशी हलचलों की कडि़यां मिल जाएंगी. स्वरच्छकार डिग्निटी पर आपको सफ़ाईकर्मियों व सिर पर मैला ढोने वालों के मानवाधिकार के सवालों पर विद्याभूषण रावतजी के लेखों और उनके द्वारा सं‍कलित सामग्रियों का एक बड़ा भंडार मिलेगा. ज़रा इस आत्मरपरिचय पर ग़ौर कीजिए, ‘धूल तब तक स्तुत्य है जब तक पैरों तले दबी है ... उडने लगे ... आँधी बन जाए ... तो आँख की किरकिरी है ..चोखेर बाली है’. जी हां, अत्यल्प समय में चोखेर बाली स्त्री-साहित्य पर बहस-मुबाहिसों के सायबरी केंद्र के रूप में स्थापित हो चुकी है.
छत्तीसगढ़ में सरकार द्वारा आंतरिक आंतकवाद से निबटने के नाम पर ज़मीनी स्तर पर सक्रिय मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के
साथ की जा रही अमानवीय कार्रवाइयों के विरोध में नागरिकों व संगठनों का एक सामूहिक प्रयास है कैंपेन फ़ॉर पीस ऐंड जस्टिस इन छत्तीसगढ़. इस पर सलवा-जुड़म समेत तमाम सरकारी कार्यक्रमों व जनविरोधी क़ानूनों के बारे में पर्याप्त जानकारी संग्रहित है. आनि सिक्किम रंचा उस रोते हुए सिक्किम की दर्दनाक कहानी बयां करता है जहां पांच सौ से भी ज्यादा दिनों से स्थानीय लोग तीस्ता नदी को बांधने के सरकारी फ़ैसले के विरोध में अनशन पर बैठे हैं. यह नाता-रिश्ता, गांव-समाज और आजीविका के स्रोतों के तबाह होने की कारूणिक कहानियों और उसके खिलाफ़ एकजुट प्रतिरोध का हरपल अपडेटेड दस्तावेज़ है.



मीडिया स्कैन ने मेरे लेख की एडिटिंग नहीं की है, एडीटिंग करता तो भी बात समझ में आ जाती, चोपिंग की है। एक बार तो देखकर यही लगता है कि बिना लेख के महत्वपूर्ण अंश को जाने-समझे स्पेस मैनेज करने के चक्कर में उसे कतर कर रख दिया। नतीजा ये हुआ है कि जो बात मैं कहना चाह रहा था वो बात इसमें आयी ही नहीं। मीडिया स्कैन की पीडीए देखकर राकेश सिंह बहुत ही विचलित हुए। एक नए लेखक को रचना नहीं छपने और वापस लौट आने की जो पीड़ा होती है, लगातार छपने या फिर पहले छप चुके लेखक की पीड़ा इस बात से रत्तीभर भी कम नहीं होती कि कोई उसके लेख के मर्म को समझे बिना काट-छांटकर छाप जाता हो। उन्होंने तत्काल इसका तोड़ निकाला और कैंची से कटे की मरम्मती कीबोर्ड के थ्रू करने लगे। हफ़्ताwar ने ब्लॉग पर एक छोटी-सी टिप्पणी के साथ जैसे ही उन्होंने लेख का मूल पाठ डाला, गिरीन्द्र ने माफी मांग ली। चूंकि इस अंक के संपादन का दायित्व गिरीन्द्र पर रही इसलिए नैतिकता के आधार पर उसने इसके लिए अपने को दोषी मानकर ऐसा किया।
इस बात से पहले तो गिरीन्द्र पर मुझे गर्व महसूस हुआ कि चलो, अपने बीच अभी भी ऐसे लोग हैं जो संपादक की कुर्सी पर बैठकर भी माफी शब्द को तबज्जो देते हैं लेकिन घंटे भर बाद जब पूरी बात समझ में आयी तो गिरीन्द्र की नैतिकता पर गुस्सा आया।

अतिथि संपादक होने के नाते गिरीन्द्र ने अपनी तरफ से लोगों को लिखने के लिए कहा। लोगों ने उसके कहने पर लिखा भी। बाद में उसने एरेंज करके मीडिया स्कैन के लिए स्थायी रुप से काम करनेवालों को सौंप दिया। चूंकि ये अंक ब्लॉक पर था, लोगों के अपने विचार थे इसलिए इसमें संपादन के नाम पर कतर-ब्योत का काम ही ज्यादा था। पत्रिका के संपादन से ये अलग काम था। गिरीन्द्र ने छपने के लिए उन सारी सामग्री को उसी रुप में( मामूली हेर-फेर के साथ)दे दिया जिस रुप में रचनाकारों ने उसके पास भेजी थी।
लेकिन छपकर आने के बाद उसे भी इस बात का अंदाजा नहीं रहा कि आज राकेश सिंह लेख के जिस रुप पर आपत्ति दर्ज कर रहे है ये उसके संपादन का हिस्सा है. उसे इस बात की कोई जानकारी नहीं रही कि लेख का संपादन करने के बाद उसे काट-पीटकर पब्लिश किया गया है। इसलिए शुरुआत में माफी मांग लेने की बात जितनी अपीलिंग लगी, अब उस पर उतना ही गुस्सा भी आ रहा है।

पत्रिका चाहे जो भी हो और चाहे जिस किसी को भी उसका अतिथि संपादक बनाया जाए, लेकिन किसी को भी इसका दायित्व देकर पत्रिका के पब्लिश होने के बीच में ही कोई अपनी तरफ से खेल करता है तो इससे शर्मनाक बात कुछ और नहीं हो सकती। संभव हो इस पूरे मामले में हुआ सिर्फ इतना होगा कि कम्पोजिंग करते समय स्पेस का चक्कर पड़ गया हो और लेख छोटी करनी पड़ गयी हो लेकिन इतनी समझदारी तो बरती ही जानी चाहिए थी कि उसके महत्वपूर्ण हिस्सों को शामिल किया जाता। दूसरा कि अतिथि संपादक होने की हैसियत से इस बात की जानकारी गिरीन्द्र को दी जाती।
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फैशन के स्तर पर किसी पत्रिका या फिर अखबार का अतिथि संपादक बनाया जाना कोई नई और बड़ी बात नहीं है। देश और दुनिया के कई बड़े अखबार और पत्रिका समूह अपनी लोकप्रियता और ब्रांड इमेज के लिए आए दिन ऐसा करते हैं कि एक दिन के लिए या फिर एक अंक के लिए किसी सिलेब्रेटी को एडीटर बना देते हैं। ये मीडिया के लिए बड़ी खबर हुआ करती है। मीडिया हाउस को इससे फायदा इस बात का होता है कि वो ये बात बड़ी आसानी से स्टैब्लिश कर पाते हैं कि जितनी समझदारी से फलां फिल्म स्टार एक्टिंग कर सकता है, उतनी ही कुशलता से अखबार का संपादन भी कर सकता है, फलां क्रिकेट खिलाड़ी जितने अद्भुत तरीके से शॉट्स लगा सकता है, उतनी ही चतुराई से संपादन कर सकता है। आप जानते हैं कि विज्ञापन के वक्त किसी भी सिलेब्रेटी की प्रोफेशनल इमेज को सोशल इमेज और फिर विज्ञापित वस्तुओं के ब्रांड इमेज में तब्दील किए जाता है। पाठक को सिलेब्रेटी के संपादन में निकली पत्रिका या अखबार पढञने का सुख मिलता है।
लेकिन मीडिया स्कैन(मासिक अखबार)जिस प्रतिबद्धता के साथ काम कर रहा है उसे देखते हुए कहीं से नहीं लगता कि उसने फैशन के फंडे या फिर बाजार के फार्मूले के झांसे में आकर अतिथि संपादक का कॉन्सेप्ट एडॉप्ट कर लिया है। मुझे लगता है कि ये देश के गिने-चुने अखबारों में से है,जिसकी इच्छा अखबार के जरिए मानवीय संबंधों की तलाश है। इसके जरिए न तो वो किसी तरह का वैचारिक गिरोह खड़ी करने के पक्ष में है और न ही विज्ञापन बटोरकर क्रांति की ढोल पीटने के लिए बेचैन है। बड़े ही सादे ढंग से,नरम मिजाज से, सहयोग और विनम्रता के भरोसे सामाजिक बदलाव के लिए प्रयासरत ये अखबार अपने-आप में बेजोड़ है। उपर की सारी खूबियां अखबार में भी दिखाई देती है और जो लोग, जब कभी भी इसकी प्रति भेजते हैं, हैंड टू हैंड देते हैं, उनके व्यवहार में भी झलकती है।

अतिथि संपादक बनाए जाने का एक दूसरा तरीका अपने हिन्दी समाज में है। देश की सैंकड़ों पत्रिकाएं विशेषांक निकाला करती है। ये विशेषांक कभी अवधारणा से संबंधित, कभी किसी हस्ती से संबंधित या फिर कभी किसी खास विधा से संबंधित हुआ करती है। ऐसे में पत्रिका का स्थायी संपादक, संपादन कार्य न करके ऐसे व्यक्ति की खोज करता है जो अमुक विषय पर ज्यादा समझ रखता हो, उस पर उसका विशेष काम हो, जिस विषय को विशेषांक के लिए चुना गया है उस पर लिखनेवाले लोग स्थायी संपादक से ज्यादा इस नए व्यक्ति के करीब हैं, वो संपादक के मुकाबले ज्यादा आासानी से इस नए व्यक्ति को लेख दे देंगे। अतिथि संपादक चुनने के ये कुछ मोटे आधार हैं।
कई बार ऐसा होता है कि पत्रिका अपने को जिस रुप में पेश करती है उससे उसकी एक स्थायी छवि बन जाती है। विशेषांक निकालने पर इसकी छवि एक हद तक टूटती है। दूसरा कि लिखनेवालों के मन में जो इसके प्रति धारणा बनी रहती है, अतिथि संपादक आकर उस धारणा को तोड़ता है औऱ पत्रिका की ऑडियालॉजी से कभी भी सहमत न होते हुए भी व्यक्तिगत स्तर पर संबंध होने की वजह से अतिथि संपादक को अपनी रचनाएं देने के लिए राजी हो जाता है।
लिखने-छपने के स्तर पर हिन्दी समाज में इतनी अधिक अंतर्कलह है कि जैसे ही कोई विशेषांक निकालने की सोचे, लिखनेवालों का एक धड़ सिरे से गायब हो जाता है। वो चाहता ही नहीं कि अपने जीते-जी, होश-हवाश में इन पत्रिकाओं में लिखे। इसके लिए एक आम मुहावरा भी प्रचलित है- हजारों रुपये दे दे तो भी नहीं लिखेंगे। दूसरी तरफ स्थायी संपादक को भी ऐसे लेखकों की विचारधारा से इतनी खुन्नस रहती है कि- अगर फ्री में भी लिख दे तो भी अपने संपादन में नहीं छापेंगे। ये अलग बात है कि अच्छे संबंध होने और एक ही ऑडियालॉजी होने पर भी लोग फ्री में ही छापते हैं और हजार रुपये नहीं देते।
खैर, हिन्दी के इन टंटों के बीच अतिथि संपादक राहत का काम करता है और अपने दम पर पर्सनल रिलेशन के बूते उन लोगों से भी लेख लिखवा जाता है जो सिम्पल एप्रोच से दस बार टाल जाते हैं। अतिथि संपादक को इगो-विगो का चक्कर नहीं होता, उसे संपादक कुर्सी नहीं होती कि वो एक ही अंक में अकड़ जाए, इसलिए पत्रिका औऱ लेखक के परस्पर विरोधी वातावरण में बेहतर अंक का प्रकाशन कर जाता है।
इसी क्रम में, मीडिया स्कैन ने बाजार औऱ मीडिया के बीच काम करते हुए भी बाजार के फार्मूले को दरकिनार करते हुए हिन्दी समाज के फार्मूले को अपनाया। जरुरी नहीं कि उपर जो भी बातें अतिथि संपादक के बारे में कही गयी, शत-प्रतिशत मीडिया स्कैन पर लागू ही हों, लेकिन चुनने का आधार इन्हीं में से कोई एक या दो रहे होंगे...ये पक्का है।

लेकिन इस आधार पर छपने के वाबजूद भी हफ़्तावार के राकेश सिंह का मन आहत हुआ है औऱ अपने छपे लेख को लेकर असंतुष्ट हैं, क्यों....पढिए अगली पोस्ट में
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कम से कम हंगामा तो खड़ा हो

Posted On 12:01 pm by विनीत कुमार | 3 comments



गंभीर लेखन और साहत्य के बूते क्रांति की उम्मीद करनेवालों के लिए ब्लॉगिंग में कुछ नया नहीं है। बल्कि इसे तो वो क्रिएटिव एक्टिविटी मानने से भी इन्कार करते हैं। ऐसे लोगों में आपको नामवर सिंह से लेकर दर्जनों नामचीन साहित्यकार मिल जाएंगे। पढ़े-लिखे लोगों के बीच अब भी एक बड़ा समाज बचा हुआ है जो कि प्रिंट माध्यम को अभी भी सबसे ज्यादा प्रभावी और बेहतर मानता है। बाकी सबकुछ तकनीक के दम पर कूदनेवाली हरकत भर है। इसलिए कुछ लोगों के लिए, मुझे पता नहीं कि उन्होंने कभी ब्लॉगिंग और चैटिंग की है भी या नहीं लेकिन दोनों को एक ही तरह की चीज मान बैठते हैं। इनके हिसाब से जैसे चैटिंग एक लत है कुछ इसी तरह से ब्लॉगिंग भी। इसलिए किसी के ब्लॉग में सक्रिय होने को वो ब्लॉगिया जाना कहते हैं। अगर उन्हें बताया जाए कि फलां बुद्धिजीवी आदमी है, सामयिक चीजों पर उनकी अच्छी पकड़ है तो उनके नकार का एक ही आधार बनता है- अरे, वो तो ब्लॉगर है, इस तरह से लिखने का कोई अर्थ नहीं है। न कोई एवीडेंस, न अकाउन्टविलिटी और न ही किसी तरह का गंभीर अध्ययन है। लिखने दो, जिसको जो जी में आए, इससे कुछ नहीं होनवाला, कुछ भी नहीं बदलने वाला।
लेकिन कंटेट के स्तर पर ब्लॉगिंग ने तेजी से अपने हाथ-पैर पसारने शुरु कर दिए हैं और मीडिया, साहित्य, देश और दुनिया की तमाम हलचलों से अपने को जोड़ा है, गाहे-बगाहे गंभीर औऱ प्रिंट लेखन के मोहताज रहनेवाले लोग भी उपरी तौर पर ब्लॉगिंग को नकारनेवाले लोग गुपचुप तरीके से इसके भीतर की चल रही हलचलों को जानने के लिए बेचैन जान पड़ते हैं। आए दिन फोन पर लोग मोहल्ला, चोखेरबाली,भड़ास, गॉशिप अड्डा सहित सैकड़ों ब्लॉगों की पोस्टिंग के बारे में चर्चा करते नजर आते हैं। मैंने यूनिवर्सिटी कैंपस में दर्जनों रिसर्चर को अपने गाइड और करियर गुरु के लिए इन ब्लॉगों की पोस्टिंग के प्रिंटआउट लेते देखे हैं। अपने बारे में कुछ भी पोस्ट होने पर उसकी प्रिंट प्रति के लिए छटपटाते हुए देखा है। आपलोग दिल्ली में बैठकर हम छोटे साहित्यकारों के बारे में क्या सब लिखते-रहते हैं, फोन पर अधीर होते हुए देखा है। इसलिए अब जब कोई ब्लॉगिंग की ताकत, उसके असर और उसके हस्तक्षेप के सवाल पर बात करता है तो मुस्कराना अच्छा लगता है.
मेरे सहित देशभर में हजारों ऐसे हिन्दी ब्लॉगर हैं और आनेवाले समय में होंगे जो इस मुगालते से मुक्त हैं कि वो ब्लॉगिंग करके कोई क्रांति मचा देंगे। एस मामले में हम ब्लॉग विरोधियों के सुर के साथ हैं। हम रातोंरात सूरत बदल देंगे, ऐसा भी नहीं लगता। देश की करोड़ों अधमरे, आधे पेट खाकर जीनेवालें लोगों के बीच कीबोर्ड के दम पर उनके बीच हौसला भर देंगे, ऐसा भी नहीं लगता। ब्लॉग पर निजीपन और संवेदना की दुहाई देते हम एक संवेदनशील और मानवीय समाज बनाने की तरफ बढ़ रहे हैं, इस बात पर भी शक है। तो फिर क्यों कर रहे हैं ये सब।
ब्लॉगिंग के विरोधियों की छटपटाहट को देखते हुए, इससे चोट खाकर तिलमिलाए हुए लोगों को देखकर कहूं तो हंगामा खड़ा करने के लिए। सही कह रहा हूं, हंगामा खड़ा करने के लिए, क्योंकि उत्तर-आधुनिक परिवेश में कुछ भी बदलने के पहले विमर्श और क्रांति का आधार तय करने के पहले हंगामा खड़ा करना जरुरी है। अभी तक का अनुभव यही है कि ब्लॉगिंग ने अपने भीतर ये ताकत पैदा कर ली है कि वो मुद्दों को लेकर हंगामा खड़ी कर दे...आगे देखा जाएगा।
दोस्ती यारी में ब्लॉग पर मेरी प्रतिक्रिया मीडिया स्कैन,जनवरी के अतिथि संपादक गिरीन्द्र ने छापी है
साभारः मीडिया स्कैन
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एनडीटीवी इंडिया पर पंकज पचौरी ने भावुक अंदाज में बताया कि कभी अमर चरित्र गढ़ने वाले तीसरी कसम के लेखक रेणुजी की पत्नी आज खुद एक चरित्र बनकर रह गयी हैं। रेणु की पत्नी लतिकाजी की स्थिति नाजुक है औऱ वो इन दिनों पटना के एक अस्पताल में पड़ी हैं।
चैनल ने जो विजुअल्स दिखाए उससे लगा कि झरझरा चुके शरीर के भीतर भी व्यवस्था को लेकर कितना रोष है, वो बार-बार नहीं-नहीं कह रही थी। किस बात पर ऐसा कह रही थी, स्पष्ट नहीं हो पा रहा था लेकिन चेहरे पर बजबजायी हुई नाली और उसमें जमे कादो को देख लेने का जो भाव होता है, कुछ-कुछ वैसे ही भाव आ-जा रहे थे। संभव है ये भाव उन आलोचकों के लिए हों जो रेणु की रचनाओं पर आलोचना की किताबें लिखने के बाद बिसर गए, कहां से और कितनी रॉयल्टी मिल जाए, इस गणित में लग गए, अपने आलोचकीय कर्म की डंका पीटने में लग गए कि मैला आंचल, परती-परिकथा, पल्टू बाबू रोड, ठुमरी औऱ ऐसी दर्जनों रचनाएं इसलिए पॉपुलर हुई क्योंकि हमने पाठकों के बीच इसकी समझदारी पैदा की। नहीं तो यूनिवर्सिटी औऱ कॉलेजों में पढ़नेवाले लोगों को कहां मेरीगंज और पूर्णिया की भदेस बोली समझ आती।
संभव है लतिकाजी को उन प्रकाशकों को याद करके उबकाई आ रही हो जो रेणु की रचनाओं की रॉयल्टी की रकम को वृद्धा पेंशन में कन्वर्ट करते रहे हैं जबकि पीछे से उनकी रचनाओं को सहेजने और कालजयी कृतियां घोषित करने में व्यस्त हैं। पाठक उनकी किसी भी रचना से महरुम न हो जाए, उनके जीवन के किसी भी प्रसंग को जानने से जुदा न रह जाए इसके लिए रचनावली तैयार करने में लगे हैं। उनकी कहानियों, उपन्यासों, संस्मरणों को ही नहीं, घरेलू चिठ्ठियों को भी प्रकाशित करने की योजना बना रहे हैं ताकि पाठक रेणु के रेणु बनने के पीछे लगी खाद-मिट्टी की तासीर को समझ सके। प्रकाशक रेणु की एक-एक चीज को सहेजना चाहते हैं, संभव है लतिकाजी को उनके इसी रवैये पर घिना जा रही हों।
एक वजह ये भी हो सकती है कि लतिकाजी का मन हम जैसे पाठकों के होने के आभास की वजह से मिचला जाता हो औऱ उल्टियों का चक्र शुरु हो जाता हो जो हाफिज मास्टर, लक्ष्मी दासिन, वामनदास जैसे चरित्रों से गुजरते हुए आंखों के कोर पोछने लग जाते हैं। हम एक स्वर में कहने लग जाते हैं....सचमुच इस तरह के चरित्रों को गढ़कर रेणु ने अपना करेजा निकालकर बाहर रख दिया है, रेणु ने इन चरित्रों को जिया है। रचना के स्तर पर इन चरित्रों में लतिकाजी भी शामिल होतीं। रेणु ने अपनी रचनाओं में जहां-तहां अपनी पत्नी को एक चरित्र के रुप में देखा है। हम इन पर भी आंखों के कोर पोछते रहे हैं।
बल्कि पाठकों के होने के आभास की वजह से तो लतिकाजी ज्यादा उबकाई महसूस करती होंगी क्योंकि आलोचक और प्रकाशकों की संख्या तो सीमित है और फिर उनकी पहचान भी निर्धारित है लेकिन पाठकों की तो कोई निश्चित पहचान तक नहीं। कौन-सा पाठक किस चरित्र को लेकर जार-जार हुआ है, इसका भला क्या हिसाब हो सकता है। औऱ कोई व्यक्ति रेणु को पढ़ा भी है या नहीं, लतिकाजी को भला इसकी जानकारी कैसे होगी। उन्हें तो बस इतना पता है कि उनके रेणुजी देश के महान साहित्यकार रहे हैं, दुनियाभर के लोग उन्हें जाननेवाले हैं। इसलिए किसी के भी आने पर पाठक समझकर लतिकाजी घृणा से मुंह फेर लेती है तो इसमें गलत क्या है।
एम ए के दौरान रेणु को दो लोगों से पढ़ा। एक तो हिन्दू कॉलेज में रामेश्वर राय से जिनकी एक लाइन अभी तक याद है कि- रेणु ने जिस गांव को अपने उपन्यासों में देखा है वो ट्रेन की सीट पर बाहर की ओर टकटकी लगाकर देखा गया गांव नहीं है और न ही हवाई दौरे हैं। रेणु गांव की पगडंडियों से होकर गुजरते हैं, कीचड़-कादो में धंसकर आगे बढ़ते हैं.....स्वयं रेणु के शब्दों में कहें तो जिसमें धूल भी है और शूल भी।
दूसरी किरोड़ीमल कॉलेज की विद्या सिन्हा मैम से। उऩका रेणु के उपन्यासों पर पीएचडी थी। वो भदेस जीवन औऱ धूल-धूसर जमीन के बीच से विदूषक औऱ जीवट चरित्रों की खोज की वजह से रेणु की कायल थीं। हम उनके सुंदर और सचेत मुखड़े पर मेरीगंज के अंगूठा छाप लोगों के लिए दर्द औऱ अफसोस की रेखाएं देखते तो एक अलग ढंग का सुकून मिलता।एक भरोसा जमता कि रेणु ने अपनी रचनाओं के जरिए संभ्रांत लोगों के दिल में भी वंचित औऱ दाने-दाने को कलटने वाले लोगों के प्रति संवेदना पैदा करने का काम किया है। लतिकाजी आज मेरी इस समझ पर भी थूक रही होंगी और क्या पता पैंतालिस से पचास मिनट तक संवेदना की मूर्ति बने देश के हजारों टीचरों पर भी जो हर साल लाखों लोगों को ये पाठ पढ़ाने का काम करते हैं- डॉक्टर प्रशांत ने बीमारी की वजह ढूंढ ली है, इसकी एक ही वजह है गरीबी औऱ जहालत।( मैला आंचल की लाइन जिसके आगे टीचर अपनी तरफ से जोड़ देते हैं....और इसे दूर किए बिना देश का कुछ नहीं हो सकता।
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साथियों, टेवीवजिन पर मुक्कमल बातचीत के लिए कल रात मैंने एख नया ब्लॉग शुरु किया है। आमतौर पर हम मीडिया विश्लेषण के नाम पर स्टिरियो तरीके से कभी सास-बहू सीरियलों को लेकर नाक-भौं सिकोड़ते हैं तो कभी न्यूज चैनलों के स्वर्ग की सीढ़ी और क्या एलियन पीते हैं गाय का दूध दिखाए जाने पर आपत्ति दर्ज करते हैं। एक आम मुहावरा चल निकला है- इसलिए तो अब हम टीवी देखते ही नहीं है, बकवास है, सब कूड़ा है।

लेकिन अव्वल तो टेलीविजन में सिर्फ सास-बहू के सीरियल ही नहीं आते औऱ न ही सिर्फ सांप-सपेरे, स्वर्ग की सीढ़ी दिखाए जानेवाले चैनल हैं। इसके अलावे हैं भी है बहुत कुछ। टेलीविजन ऑडिएंस काएक हिस्सा वो भी है जो टेलीविजन के इस रुप की आलोचना करते हुए भी टेलीविजन देखना बंद नहीं करते। वो डिशक्वरी, एनीमल प्लैनेट, हिस्ट्री या फिर नेशनल जियोग्राफी जैसे चैनलों का रुख करते हैं। वहां भी वो सो कॉल्ड ग्रैंड नरेटिव के मजे लेते हैं, देश औऱ दुनिया को नेचुरल स्पेस के तौर पर समझने की कोशिश करते हैं। इसलिए मीडिया,जिसमें सूचना और मनोरंजन दोनों शामिल हैं, इऩके बीच टेलीविजन को सीधे-सीधे गरियाना किस हद तक जायज है, इस पर फिर से विचार किया जाना जरुरी है।
दूसरी बात समाज का एक बड़ा तपका टेलीविजन को किसी भी तरह की इन्टलेक्चुअलिटी से प्रभावित होकर नहीं देखता। इसमें सिर्फ कम पढ़े-लिखे लोग ही शामिल नहीं है। कई ऐसे लोग हैं जो बौद्धिक स्तर पर समृद्ध होते हुए भी टेलीविजन के उन कार्यक्रमों को देखते हैं जिसे अगर लॉजिकली देखा जाए तो समय बर्बाद न भी कहें तो महज टाइम पास होता है। उन्हें पता होता है कि इसका कोई सिर-पैर नहीं है, वाबजूद इसके वो ऐसे कार्यक्रमों को देखते हैं। क्या कोई दावा कर सकता है कि पढ़े-लिखे लोग इंडिया टीवी के उन कार्यक्रमों को नहीं देखता जिसमें भूत-प्रेत खबर के तौर पर शामिल किए जाते हैं। संभव है ऐसे लोगों की संख्या बहुत अधिक न हो लेकिन तय बात है कि टेलीविजन देखने में बौद्धिकता औऱ क्लास फैक्टर काम नहीं कर रहा होता है। किस ऑडिएंस को टेलीविजन में क्या अच्छा लग जाए, इसका कोई ठोस आधार नहीं है, इसलिए एकहरे स्तर पर इसका विश्लेषण भी संभव नहीं है।

इससे बिल्कुल अलग वो ऑडिएंस जो अब भी टीवी की सारी बातों को तथ्य के रुप में लेती है। उनके बीच अभी भी ये भरोसा कायम है कि टेलीवजिन दिखा रहा है तो झूठ थोड़े ही दिखा रहा होगा। हॉ, थोड़ा-बहुत इधर-उधर करता है लेकिन असल बात तो सच ही होती है। ये नजरिया आमतौर पर न्यूज चैनलों को लेकर होता है जबकि मनोरंजन चैनलों को वो उम्मीदों की दुनिया के रुप में देखते हैं, रातोंरात हैसियत बदल देनेवाली ऑथिरिटी के रुप में देखते हैं। देश के पांच-छ बड़े शहरों में इसके कार्यक्रमों की ऑडिशन देने आए लोगों को देखकर आप अंदाजा लगा सकते हैं कि तकदीर बदल देने, बेहतर जिंदगी देने औऱ जिंदगी का सही अर्थ देने के दावों में टेलीविजन राजनीति से भी ज्यादा असर कर रहे हैं। फिलहाल इस बहस में न जाते हुए भी कि चंद लोगों की तकदीर बदल जाने से भी क्या पूरे देश की तस्वीर बदल जाती है, इतना ही कहना चाहूंगा कि देश की एक बड़ी आबादी इस मुगालते में आ चुकी है। वो टेलीविजन के जरिए विकास की प्रक्रिया में शामिल होना चाहती है।
बच्चों और टीनएजर्स की एक बड़ी जमात उन विधाओं में जी-जान से जुटी है जिसे की रियलिटी शो में स्पेस मिलता है। एक लड़की की यही तमन्ना है कि जितेन्द्र औऱ हेमा मालिनी जैसे जज उसके बाप के सामने हॉट और सेक्सी कहे। आप औऱ हम जिस टेलीविजन को बच्चों के करियर चौपट कर देने के कारण कोसते रहे, आझ वही टेलीविजन एक रेफरेंस के तौर पर उनके बीच अपनी जगह बना रहा है, उसे देखकर अपनी स्टेप दुरुस्त कर रहा है।

पहले के मुकाबले सोशल इंटरेक्शन बहुत कमता जा रहा है। पड़ोस क्या घर के भी लोग टीवी देखते हुए बातचीत नहीं करते, मल्टी चैनलों ने विज्ञापन के बीच के लीजर को खत्म कर दिया है। एक हिन्दी दैनिक ने कुछ दिनों पहले लिखा कि ज्यादातर वो लोग टीवी देखते हैं जो आमतौर पर अकेल और फ्रशटेटेड होते हैं लेकिन इसी दैनिक ने बदलती सामाजिक संरचना औऱ घटते मनोरंजन स्पेस पर एक लाइन भी नहीं लिखा।
इसलिए पहले के मुकाबले आज टेलीविजन के विरोध में दिए जाने वाले तर्कों का आधार कमजोर हुआ है औऱ ये हमारी जिंदगी में पहले से ज्यादा मजबूती से शामिल होता चला जा रहा है। कल की पोस्ट पर घुघूती बासुती ने लिखा कि ये अब घर का देवता होता जा रहा है, लेकिन कुछ घरों में ये जगह कम्प्यूटरों ने ले ली है। लेकिन कम्पयूटर पर शिफ्ट हो जानेवालों की संख्या टीवी के मुकाबले कुछ भी नहीं है।
कुल मिलाकर स्थिति ये है कि टेलीविजन एक स्वतंत्र संस्कृति रच रहा है जो कि इस दावे से अलग है कि अगर ये नहीं होता तो भी संस्कृति का यही रुप होता। हम जिसे संस्कृति का इंडीविजुअल फार्म कह रहे हैं, उसे रचने में टेलीविजन लगातार सक्रिय है। इसलिए मेरी कोशिश है कि टेलीविजन को लेकर लोग अपनी-अपनी राय जाहिर करें, इस पर एक नया विमर्श शुरु करें। नए ब्लॉग टीवी प्लस http://teeveeplus.blogspot.com/
करने के पीछे यही सारी बातें दिमाग में चल रही थी। पहले तो हमने सोचा कि इस पर गाहे-बगाहे पर ही लिखा जाए बाद में लगा कि व्यक्तिगत स्तर पर शुरु किया गया ये ब्लॉग कुछ महीनों बाद एक साझा मंच बने। लोग बेबाक ढंग से टेलीविजन, मनोरंजन, संस्कृति और लीजर पीरियड पर अपनी बात औऱ अनुभव रख सकें।
इस देश को टेलीविजन का देश के रुप में विश्लेषित करने पर समाज का कौन-सा रुप उभरकर सामने आता है, इसे जान-समझ सकें। मेरी ये कोशिश आपके सामने है, आप बेहिचक अपने सुझाव दें।
लिंक है- http://teeveeplus.blogspot.com/
देन
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मैं ऐसे कई लोगों को जानता हूं जो गर्मी में पंखा चलाने के पहले टीवी ऑन करते हैं। घर का दरवाजा खोला और सीधे रिमोट हाथ में थाम लिया। अगर आप उनके साथ हैं, गर्मी से बेचैन हो रहे हों, तब आपका मन नहीं मानता औऱ कहते हैं- जरा पंखा चला दो। उनका जबाब होता है-थोड़ा दम मारो, पहले देख तो लो कि कहां क्या आ रहा है। उन्हें पूरे चैनलों की परिक्रमा करने में करीब ५-६ मिनट लग जाते हैं औऱ मजबूर होकर आप ही पहले बल्ब फिर ट्यूब लाइट औऱ अंत में पंखा चलाते हैं।
आगे वो इस बात का खयाल कि हमने अपने घर किसी को साथ में लाया है, भूल जाते हैं, टीवी के नजदीक औऱ आपकी उपस्थिति से जुदा होते चले जाते हैं। आधे घंटे बाद आपको लगने लगता है कि बेकार ही यहां आए, जब टीवी ही देखनी थी तो बेहतर होता, अपने यहां होते, कम से कम मन-मुताबिक प्रोग्राम देखने को तो मिलता। आप आगे से कभी नहीं आने की प्रतिज्ञा के साथ जाने के लिए मचल उठते हैं।

इसके ठीक उलट जब ऐसे लोग मेरे यहां आते हैं। अव्वल तो मैं चाहता ही नहीं कि ऐसे लोग मेरे यहां आएं। मैं खुद भी टेलीविजन का कट्टर दर्शक हूं, कुछ भी दिखाओगे, देखेंगे वाली जिद के साथ टीवी देखनेवाला। लेकिन लोगों के रहते मैं टीवी देखना पसंद नहीं करता। बल्कि इस बारे में सोचता भी नहीं कि कोई हमसे मिलने आए और हम टीवी के साथ लगे पड़े हैं। लेकिन ऐसे लोग न चाहते हुए भी आते हैं। उन्हें पता है कि लोगों के रहते मुझे टीवी देखना अच्छा नहीं लगता, इसलिए सीधे-सीधे न कहकर पहले सिर्फ इतना ही कहेंगे- बस, स्कोर पता करके बंद कर देंगे, जरा चालू कीजिए न। मैच के बीच विज्ञापन आ जाएगा, सो फिल्मी चैनलों पर स्विच कर जाएंगे, उसके बाद दस मिनट तक दोनों चैनलों के बीच कूद-फांद मचाते रहेंगे। आगे कुछ कहने की जरुरत नहीं, उनके ठीठपने को दोहराने की कोई जरुरत नहीं। अंत में स्कोर औऱ न्यूज अपडेट्स को भूलकर ये वो देखते हैं जो देखना चाहते हैं।
वो एक अलग दौर था, जब हम भाग-भागकर दूसरों के यहां टीवी देखने जाते थे। इसके पीछे दो ही वजह होती, या तो अपने घर में टीवी नहीं होता,टीवी होते हुए भी लाइट जाने पर बैटरी नहीं होती या फिर घर में देखने ही नहीं मिलता। हिन्दूस्तान में टेलीविजन का जब शुरुआती दौर रहा तब लोगों ने इसे सामूहिक माध्यम के रुप में इस्तेमाल किया। एक ही टीवी से पचास-साठ जोड़ी आंखे चिपकी होती, सबके सब रामायण और महाभारत की ऑडिएंस, सबों को बीच में विज्ञापन आने पर खुन्नस होती लेकिन अब करें तो क्या करें, उसे भी देखते रहे। इस कॉमर्शियल गैप में लोग संवाद की स्थिति में आ जाते। औरतें आपस में बातें करने लग जाती- आपके यहां किस ग्वाले के यहां से दूध आता है, एक किलो दूध सुखाने से कितना खोआ बन जाता है, लंगटुआ के पापा बोले कि अबकि बार दू रजाई एक ही बार भरवा लेंगे। बच्चे इस बीच टीवी कार्यक्रमों की नकल करने लग जाते, विज्ञापन की लाइन आगे-आगे बोलते। बगल में बैठी कोई औरत बोल पड़ती- चारे साल में सबकुछ याद रखता है, बच्चा प्रशंसा पाकर फुलकर कुप्पा हो जाता। दस मिनट तक खिसके रहे पल्लू का ध्यान इसी बीच जाता, समीज के उपरी हिस्से पर पिन्टुआ कोढिया टकटकी लगाए हुए है, ध्यान आते ही लड़की दुपट्टे को इसी वक्त संभालती।
विज्ञापन खत्म होता और बिना किसी को कुछ कहे लोग एकदम से चुप हो जाते।
कई बार तो स्थिति ऐसी भी बनती कि जिस किसी का भई अधूरा गप्प रह जाता वो थोड़ी औऱ देर तक रुक जाती। तब तक उसका बच्चा शक्तिमान,टीपू सुल्तान या फिर चंन्द्रकांता देखता। औऱतों की भी भीड़ रामायण, महाभारत या फिर जय कृष्णा के बाद से छंट जाती। बाद में एक कल्चर-सा हो गया कि इतवार को या फिर शनिवार को सिनेमा देखने का इंतजार लोग इसलिए करते कि इसी बहाने आपस में बोलने-बतियाने का मौका मिल जाता। इसमें भी टीवी देखने से कम रस नहीं मिलता।
अब स्थितियां बदली। लोगों के पास लिक्विड मनी बढ़ने के साथ इगो का भी सवाल उठा। अब जिसके पास थोड़ा भी पैसा है उसके लिए टीवी कोई बड़ी बात नहीं। ज्यादा नहीं तो हजार-पन्द्रह सौ में भी अपनी ये शौक पूरी कर लेते हैं। लोगों के पास टीवी खरीदने के बहाने भी अलग-अलग हैं, इसकी चर्चा फिर कभी। लेकिन अब लोगों को पसंद नहीं कि किसी के घर जाकर टीवी देखे औऱ झटाझट चैनल बदलने को टुकुर-टुकुर देखता रहे। टीवी देखने का तो मजा तभी हैजब रिमोट अपने हाथ में हो, एक ही घर में एक से ज्यादा टीवी होने की भी यही वजह है।
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टेलीवजिन देखकर बनता है देश

Posted On 9:23 pm by विनीत कुमार | 3 comments


करीब डेढ़ साल तक भारी मशक्कत के बाद मैंने करीब ६०० घंटे की रिकार्डिंग पूरी कर ली। ये रिकार्डिंग मनोरंजन प्रधान चैनलों पर दिखाए जानेवाले कार्यक्रमों की है। जिसमें टीवी सीरियलों से लेकर रियलिटी शो, विज्ञापन,स्टंट औऱ झगड़े-झंझट और स्ट्रैटजी शामिल हैं। इसकी रिकार्डिंग मैंने अपनी पीएच।डी की जरुरतों के हिसाब से की है। इसलिए पूरे टॉपिक के हिसाब से २००७-२००८ में मनोरंजन चैनलों पर प्राइम टाइम में प्रसारित होनेवाले कार्यक्रमों को शामिल किया है। मुझे विश्लेषण सिर्फ प्राइम टाइम के कार्यक्रमों की करनी है। लेकिन अब तक दूरदर्शन के हिसाब से प्राइम टाइम का जो समय रहा है उसे मैंने छोड़ा और आगे तक खींचा है। क्योंकि कई ऐसे कार्यक्रम हैं जो कि रात के दस बजे के बाद आते हैं लेकिन ऑडिएंस इफेक्ट के मामले में ये आठ बजे के कार्यक्रमों पर भारी पड़ते हैं। इस दौरान मैंने न्यूज चैनलो से ज्यादा मनोरंजन चैनलों को देखा है। न्यूज चैनलों को देखा भी तो ये जानने-समझने के लिए कि वो मनोरंजन से जुड़ी खबरों को किस रुप में प्रसारित करते हैं। आप में से कई लोग न्यूज चैनलों पर इस बात से नाराज हो सकते हैं कि वो प्राइम टाइम में हंसगुल्ले,कॉमेडी सर्कस का भौंडापन औऱ रियलिटी शो की चिक-चिक दिखाते हैं,सब वकवास है। लेकिन मैंने इस बात को समझने की कोशिश की है कि मनोरंजन चैनलों से जुड़ी खबरों को जब न्यूज चैनल प्रसारित करते हैं तो टेलीविजन का एक नया संस्करण उभरकर सामने आता है। दोनोंमें आपको एक हद तक समानता भी देखने को मिल जाएंगे। उसकी स्ट्रैटजी में एक हद तक समानता भी दिखेगी। इसलिए मेरी कोशिश है कि जब मैं मनोरंजन चैनलों की भाषिक एवं सांस्कृतिक निर्मितियों पर बात कर रहा हूं तो इसे टेलीविजन से ऑपरेशनलाइज करते हुए,सिर्फ मनोरंजन चैनलों पर बात करने के बजाए ओवर ऑल टेलीविजन संस्कृति पर बात करुं। टेलीविजन किस तरह से एक स्वतंत्र संस्कृति गढ़ रहा है जो कि आगे सजाकर समाज से पैदा न होते हुए भी सोशल प्रैक्टिस के रुप में स्वीकार कर लिया जाएगा, इसे समझना जरुरी है। हालांकि ये हमारे रिसर्च का एक छोटा-सा हिस्सा होगा लेकिन इसे ट्रेस करना जरुरी है कि अब जब लोग टेलीविजन पर अपनी राय देते और बनाते हैं तो उनके दिमाग में मनोरंजन चैनल और न्यूज चैनल को लेकर क्या तस्वीर बनती है।
यही सबकुछ जानने की कोशिश में मैंने अपने ब्लॉग के कोने में टेलीविजन का देश भारत नाम से एक छोटी-सी नोट डाल रखी है। इस नोट का एक हिस्सा है-
गांवों का देश,गरीबों का देश,किसानों का देश,अंधविश्वास और पाखंडों का देश,भावनाओं का देश नाम से हिन्दुस्तान और यहां के लोगों बारे में काफी कुछ लिखा गया। मेरी कोशिश है कि अब इस देश को टेलीविजन का देश के रुप में देखा जाए,ये जानने की कोशिश की जाए कि देश के लोग टेलीविजन को किस रुप में लेते हैं, किस रुप में प्रभावित होते हैं। 2009 में देश के अलग-अलग हिस्सों में करीब एक हजार लोगों से इस संबंध में बात करना चाहता हूं। आपके सहयोग से ये संख्या बढ़ सकती है। मेल के जरिए आप हमें जितनी अधिक राय देंगे,हमें उन लोगों से बात करने के लिए ज्यादा वक्त मिलेगा जो नेट पर नहीं आते,टीवी देखते हैं और सीधे सो जाते हैं, टीवी पर बात भी की जा सकती है, ऐसा नहीं सोचते।
एक बड़ी सच्चाई के साथ मैं इस रिसर्च को आगे बढ़ना चाहता हूं कि आप चाहें या न चाहें, आप माने या न माने टेलीविजन का हमारी जिंदगी पर गहरा असर है। जब मैं तीन साल की किलकारी को कार्टून नेटवर्क के बजाय बिग बॉस के लिए मचलता देखता हूं, चार साल की खुशी के सवाल से टकराता हूं कि चाचू काकुल का अफेयर टूट जाएगा क्या, ७६ साल की अपने एक टीचर की अम्मा की बात सुनता हूं कि- बढ़िया है न बेटा, इधर-उधर की लाय-चुगली से तो अच्छा है कि आदमी अपने घर में बैठकर टीवी ही देख ले। कई घरों में गया हूं, बच्चों की मम्मियां बात को टालने के लिए, उसकी जिद से पिंड छुडाने के लिए टीवी के आगे पटक देती है। कई घरों में टीवी आया,चाइल्ड अटेंडर के तौर पर इस्तेमाल में लाए जाते हैं। ये देश की वो ऑडिएंस है जिनके आगे हमारी इन्टलेक्चुअलिटी मार खा जाती है।
इसलिए अब जरुरी है कि टेलीविजन से बननेवाले इस समाज पर बहस की जाए, एक नया विमर्श शुरु हो और ज्यादा से ज्यादा लोग इसमें शामिल हो। २००९ में मैं पूरे साल तक देश के अलग-अलग हिस्सों की ऑडिएंस से बात करना चाहता हूं, मिलना चाहता हूं। शहर से लेकर दूरदराज तक के लोगों से। उनके साथ बैठकर टीवी देखना चाहता हूं,बेतहाशा रिमोट पर दौड़ती उनकी उंगलियों का तर्क समझना चाहता हूं।
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