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..तो दिल्ली में लकड़ी का कोयला मिलता है,फिर तुम सुलगाए कैसे? तुम्हारे घर में जगह है कि आग जलाकर लिट्टी सेंक लो। टमाटर भी उसी पर सेंके थे कि गैस पर? सत्तू लेकिन एक नंबर का नहीं मिला होगा,उसमें खेसाड़ी का मिला दिया होगा? चटनी जब बनाए ही थे तो भर्ता नहीं भी बनाते तो काम चल जाता।.....

पापा मेरे बस इतना बताए जाने पर कि आज मैंने आप ही की तरह लकड़ी का कोयला सुलगाया है,चटनी और बैंगन का भर्ता तैयार है,लिट्टी भी भर लिए हैं,बस सेंकना बाकी है,पापा ने एक के बाद एक सवाल करने शुरु कर दिए थे। वो इस बात को लेकर बहुत उत्साहित थे कि दिल्ली में रहकर भी वो वही कर रहा है जो कभी बचपन में बिहारशरीफ में रहकर करता था। शायद हमारी किस्मत पर अंदर ही अंदर जल भी रहे हों कि देखो वो दिल्ली में रहकर भी लकड़ी का कोयला सुलगा रहा है और हम जमशेदपुर में रहकर भी ऐसा नहीं कर सकते। उनकी बात सुनते हुए साफ महसूस कर रहा था कि कहीं न कहीं इस बात की तड़प है कि वो अब जाड़े के दिनों में लकड़ी का कोयला सुलगा नहीं पाते।

कल जब मैं लकड़ी के कोयले जला रहा था तो बहुत अलग लगने लगा। पहली बात तो कि जब इतनी मेहनत और लकड़ी,मिट्टी तेल पर पैसे खर्च कर ही रहा हूं तो क्यों न कुछ ऐसा कर लूं कि रात के खाने से मुक्ति मिल जाए? आग जलाने पर धुएं की जो खुशबू(अब सच में खुशबू ही लगती है) आयी तो लगा कि जैसे सालों की खोयी हुई चीज वापस मिल गयी। अचानक पापा की याद आने लगी। पापा कभी इस तरह लकड़ी और कोयले जलाकर नहीं सेंकते। कुछ नहीं तो कम से कम चार आलू ही पकाने लग जाते। नहीं तो रोटी के आटे की चार सादी लिट्टी ही।..तो क्या,कुछ ऐसा ही किया जाए?

पहले टमाटर पकाया,फिर एक बैंगन भी। लकड़ी के कोयले ने आग सही तरीके से पकड़ ली थी तो मेरा मन और बढ़ गया। लगा लिट्टी भी बना ही ली जाए।..लेकिन सत्तू,सत्तू तो नहीं है। पटना का कमल ब्रांड और रांची का जालान सत्तू। इन तमाम नामों को याद करने के बाद जो कुछ बचता है,वो दिल्ली में रिक्शे के पीछे चिपके स्टीगर-सतेन्द्र सत्तू में जाकर चिपक जाता है। लगा, प्रभात रंजन( जानकीपुल) सर को फोन किया जाए। लिट्टी या फिर मेरे स्नेह,दोनों में किसी एक वजह से शायद सत्तू के साथ आ ही जाएं। पहले कई बार ह चुके थे -हमारे इलाके में एक नंबर का सत्तू मिलता है,कभी आपको टेस्ट कराउंगा। फिर लगा,दिल्ली की ठंड भावनाओं से उपर की चीज है। इसके आगे अगर उन पर इन दोनों कारणों का असर नहीं हुआ तो..पापा फिर बुरी तरह याद आने लगे।

मैं बचपन में सत्तू,लिट्टी,चना,गजा-बरा ये सारी चीजें बिल्कुल भी पसंद नहीं करता था बल्कि इससे इतनी नफरत थी कि मां जरा सा भी मुंह में डालती तो मैं नाली पर जाकर थूक आता। मेरी मां कहती- जहर दे दिए थे मुंह में तो थूक आया। दुनियाभर के बाल-बच्चा को अपने बाप से लगाव रहता है। इसको सारा विख(बिष) इ सत्तू औ चना पर ही उगलना होता है। मां समझ गयी थी कि इसे ये सारी चीजें स्वाद के कारण नहीं बल्कि पापा की पसंद की होने से नापसंद है। कल आकर वो बार-बार आलू की पूड़ी खाने लगें तो वो भी इसे थूकने लगेगा।  खाने-पीने की बहुत सारी चीजें इसी तरह मैंने छोड़नी शुरु कर दी थी कि पापा को वो सब बहुत पसंद थे। फिर मुझे पता होता कि अगर मैं नहीं खाउंगा तो मां मेरे लिए कुछ अलग से बनाएगी। पापा के चेहरे पर ये सब देखकर जो भाव उभरते,उसे देखकर मुझे कैडवरी खाने से भी ज्यादा सुख मिलता।

समय बीता,पापा का अपना इलाका छूट गया और मेरे बचपन का वो घर जहां एक कमरे से दूसरे कमरे तक जाने में भी हम मां के साथ होते,अकेले डर लगता। भइया लोगों के अच्छी तरह सेटेल्ड हो जाने पर भी पापा जमशेदपुर के चार कमरे की फ्लैट में आकर अनसेटेल्ड हो गए। अक्सर कहते, पूरा फ्लैट बिहारशरीफ के एक कमरे लायक भी नहीं होगा और जाड़े में तो उनकी तड़प हम शिद्दत से महसूस करते। वो किसी हाल में अपार्टमेंट में लकड़ी नहीं जला सकते थे। एक बार उन्होंने ऐसा किया था और पूरी बिल्डिंग धुएं से भर गया था। अफरा-तफरी मच गयी थी। शहर में धुएं रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा नहीं है। धुएं और आफवाहें साथ-साथ उठती है। लोग घर से बाहर निकलने लगे। पापा को आग जलाता देखकर कुछ ने फब्तियां भी कसी थी और लगभग हिकारत भरी नजर से देखा था। एक-दो ने शिकायत के लहजे में कुछ कहा भी था। पापा जाड़े में बिना लकड़ी जलाए बेचैनी से मौसम के खत्म होने का इंतजार करते।

मैट्रिक के बाद ही घर छोड़ने के बाद मेरे साथ संयोग ऐसा रहा कि पिछले 10-12 सालों में रांची से लेकर दिल्ली तक जिन-जिन जगहों पर रहा,लकड़ी जलाने की सुविधा स्वाभाविक तौर पर रही। ग्वायर हॉल(डीयू हॉस्टल) जब छोड़ रहा था तो एक चीज जो बार-बार मिस्स कर रहा था कि शायद आगे कभी दिल्ली में लकड़ी जलाने की अय्याशी न कर पाउं। वहां तो हद ही करता। बगीचे से खोज-खोजकर सूखी लकड़ियां लाता और आग लगाकर भुट्टे और आलू पकाता। गजब की जमघट लगती और उसके बाद मुंहचोदी का दौर शुरु होता। जितने लौंडे उतने गांव और कस्बे वहां जुटने लग जाते। बलिया,बक्सर,लहरियासराय से लेकर डगमगपुर तक के किस्से और फिर उसमें उस स्पेस की खोज जहां अश्लील हरकतों और प्रसंगों को शामिल किया जा सके।

मई की गर्मी में जब मयूर विहार विहार आया तो अपने दोस्त के साथ जिस घर को साझा करना था,देखकर पहले ही इत्मिनान हो गया कि ग्राउंड फ्लोर के इस घर में मजे से आग जला सकते हैं। सालभर बाद जब वो घर छूटा तो फिर ऐसे घर की तलाश में लगा,जहां हम आग जला सकते हैं। मैं इसी बहाने पापा को याद भी कर सकता था और फोन कर-करके जला भी सकता था कि देखिए पापा,आज हमने फिर से आग सुलगाया है। पापा से प्यार होने का ये मतलब थोड़े ही है कि उन्हें जलाना और उनसे अपनी हैसियत बेहतर बताना छोड़ दें। अब दुकानों में फर्नीचर का काम होने पर दुनियाभर की जलाने की लकड़ी निकलती है और पापा अफसोस से बताते हैं-क्या करते,अपने यहां तो जला नहीं सकते तो दे दिए चेलवा को कि जलाना।     

सत्तू का जुगाड़ नहीं बन पाया लेकिन दिमागी रुप से तैयार था कि लिट्टी बनानी है। ध्यान आया,पापा को आलू की चीजें सख्त नापसंद है। क्यों न सत्तू की जगह आलू की ही लिट्टी बना ली जाए। पापा को याद करने के बीच चिढ़ाने का भी काम पूरा हो जाएगा। कूकर में पांच आलू डालकर चूल्हे पर चढ़ा दिया औऱ पच्चीस मिनट के भीतर लिट्टी भरने का आइटम तैयार। जाली पर लिट्टी सेंकने का काम शुरु। लेकिन इतनी बड़ी उपलब्धि पापा के अलावे दीदी और मां को बताए कैसे रहा जा सकता था?

मां आज लिट्टी सेंक रहे हैं लकड़ी के कोयले पर। आमतौर पर मां खुश हो जाती है कि चलो कोई तो कुल खानदान में ऐसा निकला जो कि भदेस खाने-पीने की परंपरा जिलाए हुए है। लेकिन अबकी बार मां एकदम से चिंतित हो गयी- कहां से लाए लकड़ी का कोयला? जो सोसायटी में प्रेस करता है न,उसी से। नय बेटा,उस पर लिट्टी-फिट्टी मत सेंको। समसान से चुनकर लाता है कोयला। धत्त मां,क्या लिट्टी में मुर्दा घुस जाएगा। मां आगे कहती है-फिर भी,नय खाना चाहिए।..कुछ नहीं तो सेका जाने पर गंगाजली छींट लेना लिट्टी पर।.

मेरी छोटी दीदी ने पहला ही सवाल किया-सब अकेले कर रहे हो? मैंने कहा-नहीं साथ में तुम्हारी भाभी भी है और अपनी ननद को लिट्टी खिलाने के लिए बुरी तरह बेचैन हो रही है। दीदी न ठहाके लगा दिए थे- अच्छा बना ही रहे हो तो थोड़ा ज्यादा बना लेना,सुबह के नाश्ते से बच जाओगे। सुलेखा दीदी इन सब बातों से कम्पटीशन करने लगती है। मां की भाषा में कहूं तो ओदाउद ऑब्लिक जोड़ती करने लगती है। कहने लगी-हां हम भी परसों बनाए थे...।

इस फोना-फोनी के बीच लिट्टी बनकर तैयार हो गयी। क्या गुलाबी रंग और अपने आप ही फट गयी। लिट्टी फट जाने का मतलब है बहुत ही अच्छी तरह पक गयी है।..पापा फिर याद आए। बहू लिट्टी के नाम पर ऐसा तेल चहबोर कर देती है कि पेट में डहडही होने लगता है। लिट्टी ये सब तेल में छानकर खाने का चीज थोड़े है,लकड़ी पर पकाकर खाने का है। पहले कौर में ही स्वाद से कहीं ज्यादा ये सोच-सोचकर तृप्ति हो रही थी,चलिए पापा आपको लगता था कि घर छोड़कर पढ़ाई करेंगे तो ढंग से पानी तक नसीब नहीं होगा। ये लीजिए,दिल्ली जैसे शहर में आग पर पकायी लिट्टी। खाते हुए मेरा मन कर रहा था होटल सांगरिला,दि लीली पैलेस के आगे जाकर जोर से चिल्लाउं-रईसजादों,अय्याशी इसे कहते हैं,उसे नहीं जो तुम दो लाख फॉर वन नाइट के कमरे लेकर कर रहे हो।.
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