एस.पी.पर संगोष्ठी : आमंत्रण
भारत में आधुनिक टेलीविजन पत्रकारिता के जनक माने जाने वाले एस.पी.सिंह की 12 वीं पुण्यतिथि के मौके पर प्रेस क्लब ऑफ़ इंडिया में एक संगोष्ठी का आयोजन किया जा रहा है. इस अवसर पर मीडिया पर केंद्रित हिंदी की मासिक पत्रिका "मीडिया मंत्र" के जुलाई अंक का विमोचन भी किया जायेगा, जो कि एस.पी.सिंह पर केंद्रित है. संगोष्ठी में मीडिया जगत के जाने - माने लोग शामिल होंगे जो एस.पी से संबंधित अपने संस्मरणों को साझा करेंगे. इस अवसर पर आप सभी सादर आमंत्रित हैं.
स्थान : प्रेस क्लब ऑफ़ इंडिया, रायसीना रोड, नई दिल्ली
तिथि : 27 जून, 2009
दिन : शनिवार
समय : 3 बजे
संपर्क : 9999177575
एस. पी. सिंह जैसे लोग किसी सरजमीन पर कभी-कभी ही पैदा होते हैं - संजय पुगलिया, संपादक, आवाज
एस. पी. की हिंदी पत्रकारिता में जो देन है उसे शब्दों में नहीं बयां नहीं किया जा सकता. - कमर वहीद नकवी, न्यूज़ डायरेक्टर, आजतक
मैं एस.पी.की जिंदगी का अर्जुन कभी नहीं बन पाया - आशुतोष, मैंनेजिंग एडिटर, आईबीएन-७
एसपी निष्पक्ष पत्रकार नहीं थे, इसलिए महत्वपूर्ण हैं - दिलीप मंडल, संपादक, ईटी हिंदी.कॉम
एसपी जितने बड़े पत्रकार थे, उससे ज्यादा बड़े इंसान थे। - सुप्रिय प्रसाद, न्यूज़ डायरेक्टर, न्यूज़ 24
एस.पी बहुत जीवंत और सहज व्यक्ति थे - दीपक चौरसिया, संपादक (राष्ट्रीय समाचार), स्टार न्यूज़
एस.पी एक ऐसे पत्रकार थे जो पहाड़ से संजीवनी बूटी निकाल लेते थे - अलका सक्सेना, कंसल्टिंग एडिटर, जी न्यूज़
बड़ी मुश्किल होती है जब किसी बेइंतहा करीबी के बारे में लिखना पड़े - चंदन प्रताप सिंह, राजनीतिक संपादक, टोटल टीवी
एस.पी ने जो काम किया वह एक पूरी पीढी के लिए आदर्श और प्रेरणा का स्रोत है. - परंजय गुहा ठाकुरता, वरिष्ठ पत्रकार
एस.पी. जर्नलिज्म में मेरे पितातुल्य - - अंजू पंकज, एंकर, समय
एस.पी.की याद में (मीडिया मंत्र)........
- संजय पुगलिया, संपादक, आवाज
- कमर वहीद नकवी, न्यूज़ डायरेक्टर, आजतक
- दिलीप मंडल, संपादक, ईटी हिंदी.कॉम
- चंदन प्रताप सिंह, राजनीतिक संपादक, टोटल टीवी
- राजेश त्रिपाठी, सन्मार्ग
- परंजय गुहा ठाकुरता, वरिष्ठ पत्रकार
- दीपक चौरसिया, संपादक (राष्ट्रीय समाचार), स्टार न्यूज़
- सुप्रिय प्रसाद, न्यूज़ डायरेक्टर, न्यूज़ 24
- आशुतोष, मैंनेजिंग एडिटर, आईबीएन-7
- अंजू पंकज, एंकर, समय
- अलका सक्सेना, कंसल्टिंग एडिटर, जी न्यूज़
* किसी भी तरह की जानकारी के लिए आप 9999177575 पर संपर्क कर सकते
बीस हजार से लेकर दो लाख तक की फीस देकर कोर्स करनेवाले औऱ अब नौकरी के लिए दर-दर भटकनेवाले बिहार के मीडिया स्टूडेंट शायद पोस्ट की शीर्षक देखकर ही भड़क जाएं। उन्हें इस पर भारी आपत्ति और असहमति हो सकती है। संभव है हममे से कई लोग इसे आरोप के तौर पर लें, मीडिया हाउस के अंदर काम कर रहे लोगों को बदनाम करने की साजिश समझें लेकिन ऐसा क्या है कि हमने बिहारी हो न, तब चिंता काहे करते हो,तुम्हारी नौकरी तो रखी हुई है मीडिया में सुन-सुनकर कोर्स पूरा किया। कोर्स करने के दौरान जब भी हम चिंता जताने की कोशिश करते कि किसी तरह कोर्स तो कर ले रहे हैं लेकिन नौकरी कैसे मिलेगी,तभी साथ के कुछ लोग हमारे उपर पिल पड़ते- ज्यादा बनो मत,स्साले बिहारी,तुमलोगों को तो बुलाकर नौकरी दी जाएगी। इसी एक लाइन को सुन-सुनकर कुछेक साउथ इंडियन क्लासमेट में स्साले बिहारी बोलना सीख गयी थी और हम उन पर फिदा हो जाते जबकि किसी लौंडे के बोलने पर मार करने तक की नौबत आ जाती। नौकरी की बात चलते ही हमलोगों को ठीक उसी तरह ट्रीट किया जाता जैसे जेनरल से आनेवाले लोग कैटेगरी से आनेवाले लोगों के बारे में कहा करते हैं- उसका क्या, उसका तो कोटा है,नौकरी तो धरी हुई है उसकी,पढ़े चाहे नहीं पढ़े।
ऐसी स्थिति में जाति और क्षेत्र पर भरोसा न होते हुए भी भीतर ही भीतर एक निश्चिंतता बोध पैदा होता कि चलो,नौकरी तो मिलनी ही है। वो नौकरी जिसमें कोर्स अच्छी तरह करने से ज्यादा बिहारी होने की क्रेडिट पर मिलनी है। कोर्स में तो फिर भी किसी तरह की झंझट और प्रोजेक्ट में हमसे ज्यादा लड़कियों को नंबर देकर आगे-पीछे किया जा सकता है लेकिन हमसे,हमारे बिहारी होने की क्रेडिट कोई छिन नहीं सकता। लेकिन इससे अलग एक दूसरी स्थिति ये भी बनती कि साथ के लोगों को जिनमें से ज्यादा बिहार के नहीं होते,नौकरी के मामले में हमलोगों से बराबर इर्ष्या का भाव बना रहता। जब वो कहते,हिन्दी मीडिया में नौकरी करनी है तो बिहार से पैदा होकर आओ तो कभी तो अच्छा लगता कि चलो इन्हें कहीं न कहीं बिहार की औकात का अंदाजा तो लेकिन बाद में जिस रुप में हमने चीजों को समझा,व्यवहार को जानने की कोशिश की,उससे साफ अंदाजा लग गया कि ये हमारे लिए कितनी खतरनाक स्थिति है। हमारी नौकरी मिलने से पहले ही हमें कैसे नौकरी मिली है का लेबल चस्पा दिया गया है। अफसोस कि ऐसी मानसिकता पैदा करने के हम ही जिम्मेदार रहे हैं। हमें ही चैनल का नाम लेते ही उसमें अपनी बिरादरी का कोई भाई,चचा या फूफा याद आ जाता है। हम जाति और क्षेत्र आधारित पीआर बनाने में फंसे रह जाते हैं, प्रोफेशन के स्तर पर अपने को कम ही चमकाते हैं। जिस किसी में कम योग्यता है,वो इसे रिप्लेस करते हुए संबंध,जाति और क्षेत्र की प्लेसिंग करने लग जाता है। ऐसा करके वो जुनइन बिहार के लोगों ( मीडिया के लिए) की जड़ो में मठ्ठा घोलने का काम करते हैं,इसका अंदाजा नहीं लगा पाते। जो जब-तब नफरत और उपेक्षा के तौर पर सामने आता है। ऐसे में अब आप लाख कहते रह जाइए कि हमने इंटरव्यू में ये कर दिया,वो कर दिया फर्क नहीं पड़ता। दिल्ली के भारतीय विद्या भवन में हमने इसी महौल में रखकर कोर्स पूरा किया।
लेकिन इससे ठीक पहले की पोस्ट खांडेकर जैसे संपादक किसकी जुबान बोल रहे हैं पढ़कर माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय,भोपाल से मीडिया कोर्स करने अब भोपाल में ही अखबार में काम करनेवाले एक साथी ने फोन करके बताया- आप खांडेकर का विरोध कर रहे हैं, हमें अच्छा लग रहा है, इस तरह की क्षेत्रवाद से प्रभावित राइटिंग को हमें किसी भी हद तक विरोध करना चाहिए लेकिन एक बात आपको बताउं। माखनलाल में जब लोग मीडिया का कोर्स करने आते हैं तो बिहार के लोगों का दबदबा इतना अधिक होता है कि भोपाल और एमपी के दूसरे हिस्से से आए लोग अपने को बहुत ही नेग्लेक्टेड फील करते हैं। नतीजा ये होता है कि पूरी क्लास या बैच दो खेमें में बंट जाती है- बिहार से आए लोग एक तरफ और देश के बाकी हिस्सों से आए लोग एक तरफ। आपको लगेगा ही नहीं कि वो मीडिया में काम करने के लिए अपने को तैयार कर रहे हैं,लगेगा कि अखाड़े में लड़ने के लिए अपने को तैयार कर रहे हैं। बात अगर व्यक्तिगत स्तर पर करुं तो बिहारी औऱ नॉनबिहारी को लेकर खेमेबाजी मैंने देश के तीन-चार संस्थानों में स्पष्ट तौर पर देखा है, पता नहीं बाकी संस्थानों की क्या स्थिति है ?
जातिवाद और क्षेत्रवाद का विरोध करने के वाबजूद भी अगर आपकी नौकरी का संबंध जाति और क्षेत्र से हैं-मतलब कि अगर आपको ये लगे कि सामने बैठा बंदा जिसके हाथ में नौकरी देने की ताकत है वो हमारी जाति या क्षेत्र का है तो इंटरव्यू के दौरान आप ज्यादा कॉन्फीडेंस फील करते हैं। अपने एक क्लासमेट की भाषा में कहूं तो- अरे इसको इंटरव्यू नहींए कहो तो सही रहेगा, जात-बिरादरी का मामला था,हो गया।। नौकरी के लिए जिन्होंने इंटरव्यू लिया उन्होंने मेरा प्रोफाइल देखते ही कहा- मैंने भी हिन्दी से ही एमए किया है। इतना सुनते ही मेरे भीतर जाति और क्षेत्रवाला आत्मविश्वास पहले खत्म हो गया था क्योंकि बातचीत के दौरान पहले राउंड में उंटरव्यू देकर आए लोगों ने बता दिया था कि वो बिहार से नहीं हैं और मेरी जानकारी के लिए ये भी बता दिया कि वो तुम्हारे बिरादरी से नहीं है। हिन्दी सुनकर खोया हुआ आत्मविश्वास फिर से लौट आया- मन ही मन सोचा,एक हिन्दीवाला, हिन्दीवाले की प्रतिभा और दर्द को नहीं समझेगा तो कौन समझेगा और वो भी ऐसे महौल में जहां ऑडिएंस के सामने आउटपुट के तौर पर हिन्दी में चीजें लानी होती है लेकिन अंदर का महौल अंग्रेजीदां होता है। ऐसे में हम जाति और क्षेत्र से उपर उठकर विषय पर आकर स्थिर हो गए। मौके के हिसाब से हमारा आत्मविश्वास क्षेत्र के बजाय सब्जेक्ट पर आकर शिफ्ट हो गया। लेकिन इतना तय था कि जिंदगी में हर जगह इंटरव्यू लेनेवाला हिन्दी का नहीं होगा। खैर,
चैनल के भीतर काम करते हुए हमने देश के तमाम मीडिया हाउस को उसके नाम के अलावा अलग ढंग से जाना। ये जानना किस हद तक सही था, बता नहीं सकता लेकिन इतना जरुर था कि कोर्स के दौरान पूरी हिन्दी मीडिया खासकर न्यूज चैनलों के मामले में हम जो समझते आए कि बिहार का होने से मामला आसानी से बन जाता है, धीरे-धीरे भरभराकर टूट जाता है। हममें से कोई भी जो कि क्षेत्रवाद पर भरोसा नहीं करता है, उसे लगता है कि उसे उसकी योग्यता के हिसाब से जाना-पहचाना जाना चाहिए, उसे ऐसी स्थिति में खुश होना चाहिए। लेकिन चैनलों की जो समझ हमें आसपास के लोगों से मिल रही थी उसके हिसाब से कोई चैनल झा तक है, कोई भूमियार 24 इनटू 7, कोई राजपूत न्यूज तो को बाबाजी कम्युनिकेशन। हैरत तो तब हुई जब हममे से कई लोग अपनी जाति औऱ बिरादरी के हिसाब से उन चैनलों में जाने के लिए छटपटाते नजर आए। वो ऐसा करके अपने को सेफ जोन में मानते। उनके हिसाब से नौकरी मिल जाना ही काफी नहीं है, उसे बनाए,बचाए और उसकी जड़ों को मजबूत करते रहना ज्यादा जरुरी है। लोग जब हमसे पूछते हैं कि ये बड़े-बड़े पत्रकार जो देश बदल देने का दावा करते हैं, इधर-उधर कूंद-फांद क्यों मचाए रहते हैं। इसके जबाब में मैं सैलरी पैकेज और इगो प्रॉब्लम के अलावे कोई और कारण नहीं बता पाता। लेकिन जो नए पत्रकार हैं,बीच की स्थिति में हैं, उनके इधर से उधर जाने की वजह हैरान करनेवाली लगी। अपनी बिरादरी का बॉस खोजने में हमारे साथियों ने जो उर्जा लगाया उसे देखकर हैरानी होती है।
इन सबके वाबजूद हम खांडेकर के भोपाल के जंगलराज के लिए बिहार शब्द का प्रयोग किए जाने पर प्रतिरोध में खड़े हैं। हम इसका विश्लेषण महाराष्ट्र,बिहार और पूर्वांचल की राजनीति को लेकर विश्लेषण करने में जुटे हैं। लेकिन अगर कोई मीडिया हाउस की अंदरुनी स्थिति के लिहाज से इस शब्द प्रयोग पर विचार करना शुरु करे तो एक नए किस्म की स्थिति सामने आएगी। लगेगा कि क्षेत्र और जाति को लेकर सिर्फ देशभर के लोग ही एक-दूसरे पर नहीं उबल रहे हैं, मीडिया हाउस के भीतर भी खदबदाहट जारी है और इस मामले में पत्रकार कभी-कभी इतना पर्सनली लेने शुरु करते हैं कि वो एक मुहावरा बनकर सामने आता है। ऐसे में अगर हम ये कहें कि देश से जातिवाद, क्षेत्रवाद और अलगाववाद जब खत्म होंगे तब होंगे लेकिन फिलहाल अगर मीडिया हाउस से ये खत्म हो जाएं तो यकीन मानिए ऐसे शब्दों और वाक्यों के प्रयोग होने एक हद तक बंद हो जाएंगे।
भोपाल में जर्जर सुरक्षा व्यवस्था और प्रशासन के लिजलिजेपन को बताने के लिए दैनिक भास्कर, भोपाल के एडिटर अभिलाष खांडेकर ने भोपाल को बिहार होने से बचाएं जैसे वाक्य का प्रयोग किया। लिजलिजे प्रशासन औऱ गुंडागर्दी जैसे शब्दों के प्रयोग के बदले खांडेकर साहब ने बिहार को एक मुहावरा या फिर मेटाफर के तौर पर इस्तेमाल किया। देश के किसी भी हिस्से को लेकर इस तरह की क्षेत्रवादी मानसिकता, व्यवहार के स्तर पर कोई नयी बात नहीं है, खासकर राजनीति में इसे रुटीन लाइफ की तरह शामिल कर लिया गया है। लेकिन लिखने-पढ़ने के स्तर पर इस तरह का प्रयोग वाकई भीतर से हिला देनेवाला है।
खांडेकर साहब जैसे पत्रकार की मानसिकता का कोई विशेषज्ञ जब पुणे में बिहार के किसी छात्र से सवाल करता है कि अपराध की राजधानी किसे कहा जाता है और उसके जवाब नहीं दिए जाने पर सवाल करनेवाला विशेषज्ञ खुद ही जवाब देता है – बिहार तो अब तक की समझ से ठीक उलट समझदारी की एक बिल्कुल अलग परत दिमाग में जमती है कि – कहीं पढ़-लिखकर व्यक्ति पहले से कहीं ज्यादा धार्मिक कट्टरता, क्षेत्रवादी दुराग्रहों और घृणा फैलानेवाले एजेंट के तौर पर काम करने नहीं लग जाता। ये सवाल इसलिए भी दिमाग़ में आते हैं कि खांडेकर मामले में मोहल्ला live पर की गयी मेरी टिप्पणी पढ़ने के बाद, देर रात दैनिक भास्कर, भोपाल के एक पत्रकार ने बातचीत के क्रम में बताया कि इस तरह से क्षेत्र और जाति को लेकर भेदभाव की बड़ी साफ तस्वीर आप मेरे ऑफिस में आकर देख सकते हैं। इस तरह का भाषा-प्रयोग पाठक वर्ग के साथ-साथ स्वयं मीडिया हाउस के भीतर किस तरह का गंदला महौल पैदा करेगा, इसका अंदाजा शायद खांडेकर जैसे संपादक को अभी नहीं है। क्षेत्र, भाषा, जाति और धर्म को लेकर मीडिया हाउस के बीच होनेवाली लामबंदी के बीच से किस तरह की पत्रकारिता निकलकर सामने आएगी, इसे समझने में शायद उन्हें अभी वक्त लगे।
इधर इंटरनेट की दुनिया में मौजूद पत्रकारों और ब्लॉगरों ने खांडेकर की इस क्षेत्रीयता के स्तर पर नफरता फैलानेवाली भाषा का प्रतिरोध शुरू किया, तभी से भास्कर डॉट कॉम पर सांप-सीढ़ी का खेल शुरू हो गया। पहले तो बिहार की जगह जंगलराज शब्द का प्रयोग किया गया। तब तक भास्कर की ही साइट पर खांडेकर के विरोध में कई कमेंट आ चुके थे। सबों ने जमकर इसकी भर्त्सना की थी। साइट के एडिटर राजेन्द्र तिवारी ने अपनी ओर से माफी मांगी और लिखा,
हम हर क्षेत्र और वहां के निवासियों का आदर करते हैं। हमारा उद्देश्य किसी क्षेत्र विशेष या वहां के लोगों की भावनाओं को ठेस पहुंचाना नहीं है। हमें खेद है कि त्रुटिवश इस पोस्ट में क्षेत्र विशेष का उल्लेख हो गया था, जानकारी में आते इस पोस्ट से उन वाक्यों को हटा दिया गया है। हम अपने सभी सुधी पाठकों का धन्यवाद करते हैं जिन्होंने तुरंत हमारा ध्यान इस त्रुटि की ओर आकर्षित किया।
राजेंद्र तिवारी
एडिटर, भास्कर वेबसाइट्स
हममें से कई लोग इस बीच साइट पर क्लिक करते रहे और कई बार वेब पेज उपलब्ध नहीं है, पढ़ कर झल्लाते रहे। लेकिन इस बीच अभिलाष खांडेकर की ओर से कहीं कोई माफीनामा नहीं आया। राजेन्द्र तिवारी ने चार लाइन का कमेंट देकर मामले को रफा-दफा मान लिया, ये अलग बात है कि दैनिक भास्कर और अभिलाष खांडेकर के इस रवैये का विरोध जारी है। हिन्दी की अलग-अलग साइटों और ब्लॉग ने इसे पत्रकारिता के नाम पर कलंक और अभिलाष खांडेकर को एक दाग़दार पत्रकार बताया है।
दैनिक भास्कर के आज के राष्ट्रीय संस्करण में भी हम नहीं सुधरेंगे की तर्ज पर पेज नंबर सात पर बिहार के नाम पर नफरत फैलानेवाली अभिलाष खांडेकर की उक्त संपादकीय टिप्पणी को उसी ज़हर भरे शीर्षक के साथ हूबहू प्रकाशित किया गया है। यहां राजेन्द्र तिवारी की ये बात समझ से परे हैं कि ये महज छपाई की त्रुटि है। अफ़सोस है कि सब कुछ जानने के बाद भी भास्कर ने अभिलाष खांडेकर के खिलाफ किसी तरह की कार्रवाई नहीं की। अभिलाष साहब को अभी तक इस बात का अफ़सोस नहीं है, इसलिए जो कुछ साइट भी इनसे माफी मांगने की बात कर रहे हैं, उन्हें चाहिए कि उनसे अपील या आग्रह करने के बजाय कानून का दरवाजा खटखटाने में अपनी ऊर्जा लगाएं। वैसे भी अभिलाष खांडेकर ने जो कुछ भी किया है, उसका संबंध सिर्फ लिखने भर से नहीं है, समाज में घृणा और वैमनस्य पैदा करना है। राष्ट्रीय संस्करण में दोबारा छपने से ये स्थिति साफ हो जाती है।
अब सवाल है कि अभिलाष खांडेकर जैसे संपादक किसकी जुबान बोल रहे हैं। अब तक इस बात का विरोध होता रहा कि अब संपादक मैनेजर की भूमिका में आ गए हैं क्योंकि उनकी दिलचस्पी पत्रकारिता को एक मानक रुप देने के बजाय मीडिया हाउस के मालिकों के टारगेट पूरा करने में ज्यादा है। अब वो प्रो मार्केट होता जा रहा है। मीडिया आलोचकों को एक नया मुहावरा उसकी इसी हरकत को लेकर मिल गया है। लेकिन दूसरी स्थिति की आलोचना ये भी है कि अगर संपादक बाजार को ध्यान में रखकर काम नहीं करेगा तो फिर मीडिया हाउस चलेगा कैसे। नतीजा ये हुआ है कि हममें से कई, मीडिया पर लिखने-पढ़नेवाले लोग इस बात के समर्थन में हैं कि मीडिया को बाजार से अलग करके नहीं देखा जा सकता और इस तरह आलोचना का एक सिरा उस तरह से बाजार विरोधी नहीं रह गया है कि बाजार शब्द देखते ही भड़क जाए। बाजार और संपादक के संबंधों की स्वीकृति मीडिया के इन्फ्रास्ट्रक्चर को ध्यान में रखते हुए मिलने लगी है। इसलिए बाजार को लेकर अब मीडिया और संपादक के ऊपर कोड़े बरसाने का उपक्रम बहुत दिनों तक चल नहीं सकता। यहां आकर ये ज़रुर हुआ है कि मीडिया से कई ऐसे मुद्दे धीरे-धीरे ग़ायब होते जा रहे हैं, जिसका संबंध आम आदमी से रहा हो। इसने लूट-खसोट की स्थिति पहले से कई गुना ज्यादा पैदा की है, तो भी संभावना के तौर पर अभी भी कुछ न कुछ बरकरार है।
अभिलाष खांडेकर साहब बाजार और मारकाट के बीच जो कुछ भी थोड़ी संभावना बची है, उसे ध्वस्त करने में जुटे हैं। बाजार से सांठ-गांठ के बाद बहुत ऐसे मसले हैं, जिस पर कि अखबारों ने कलम चलाना बंद कर दिया हैं। एक व्यापक संदर्भ में वो जनहित में कुछ भी करने की स्थिति में नहीं हैं लेकिन जनहित न भी करें तो उसके बीच हिकारत की संस्कृति पैदा करने का क्या हक़ बनता है। अभिलाष खांडेकर पत्रकार हैं, संपादक हैं, उन्हें तो इस बात की तमीज होनी चाहिए कि किस बात को लेकर लोगों के बीच क्या प्रतिक्रिया हो सकती है। भाषा के मामले में प्रिंट मीडिया के संपादक और संपादकीय पेजों पर लिफाफे के दम पर विरोध जतानेवाले उनके बुद्धिजीवी बटालियन जो अब तक न्यूज चैनलों की आलोचना करते आए हैं, उनके भीतर अगर अब भी थोड़ी ऊर्जा बची है, तो वो इस बात को समझने में लगाएं कि आखिर संपादक की ऐसी कौन सी नीयत है जो कि आंकड़ों को धता बताते हुए मनमाने ढंग से भाषा-प्रयोग करने लग गया है। संपादक की कुर्सी पर बैठकर किसी क्षेत्र को नीचा दिखाने के पीछे वो किस-किस तरह के दुष्कर्म में शामिल है, राष्ट्रीयता का logo चिपकाकर बंटवारे की लिखावट सीख रहा है। अगर थोड़ी भी ऊर्जा बची है, तो पता लगाएं कि अभिलाष खांडेकर जैसा संपादक किसकी जुबान बोलने लग गया है और उसकी जुबान बंद करने के क्या-क्या तरीके हो सकते हैं। समय है कि टेलीविजन को पानी पी-पीकर गरियाने के बजाय थोड़ा वक्त अखबारों में फैले जंगलराज की तरफ भी लगाए जाएं.
अभिलाष खांडेकर(एमपी स्टेट हेड,दैनिक भास्कर) जब भोपाल को बिहार होने से बचाइए जैसी लाइन लिख रहे होंगे तो यही समझ रहे होंगे कि वो पत्रकारिता की दुनिया में एक नया मुहावरा, एक नया मेटाफर गढ़ने जा रहे हैं। उन्हें अपराध औऱ व्यवस्था के लिजलिजेपन की अभिव्यक्ति देने के लिए अब तक के मौजूदा सारे शब्द पुराने और असमर्थ जान पड़ रहे होंगे। लेकिन सवाल है कि क्या खांडेकर ये शब्द सिर्फ औऱ सिर्फ अपराध और अव्यवस्था को व्यक्त करने के लिहाज से प्रयोग कर रहे हैं। अगर ऐसा है तो हम इस बात पर सिर्फ अफसोस जाहिर कर सकते हैं कि खांडेकर जैसे पत्रकार की शब्द सम्पदा कितनी सीमित हैं और भाषा के मामले में कितने लाचार पत्रकार हैं।
लेकिन नहीं,दूसरी स्थिति ये भी है कि ये भाषाई प्रयोग और मेटाफर गढ़ने की आपाधापी नहीं है। निजी समाचार चैनलों की तर्ज पर खांडेकर ने जिस तरह की भाषा का प्रयोग किया है वो उनकी बिहार को लेकर व्यक्तिगत मानसिकता को स्पष्ट करता है। ये बताने के लिए कि वो एक खास तरह के क्षेत्रवादी मानसिकता से लैस पत्रकार हैं,ये लाइन पर्याप्त है। अपने पत्रकारीय जीवन में चाहे वो लाख बौद्धिकता का लबादा ओढ़े फिरते रहें लेकिन इस लाइन के प्रयोग से ये लबादा भी अब जगह-जगह से मसक गया है। अब उसके भीतर से जो कुछ भी झांक रहा है वो इतना खतरनाक,घृणित औऱ परेशान करनेवाला है कि इसे जगह-जगह से ढंकने के बजाय पूरे लबादे को चीरकर खांडेकर के असली चेहरे को पाठक को सामने लाकर पटक देना ही बेहतर होगा।
पत्रकारिता की दुनिया में ऐसे कामों के लिए व्यक्तिगत स्तर पर माफी मांगने और नैतिकता के आधार पर क्षमा करने की कहीं कोई गुंजाइश नहीं है। जो पत्रकार भोपाल में बैठकर ये मानकर चल रहा हो कि बिहार को लेकर अनर्गल लिखने से भोपाल के पाठक खुश होंगे,उनके उपर नैतिकता आधारित बातें करने के बजाय कानूनी स्तर की कार्यवाही अनिवार्य है। ये सिर्फ अभिव्यक्ति के स्तर पर हेरा-फेरी का मामला नहीं है बल्कि पत्रकारिता के नाम पर जान-बूझकर पक्षपात करने और घृणा फैलाने का दुष्चक्र है। खांडेकर को कानूनी धाराओं के अन्तर्गत सजा मिलनी चाहिए। पत्रकारों को जितना हो सके,इसके लिए प्रयासरत हों।
मोहल्लाlive पर मेरी टिप्पणी
आइए, खांडेकर की बिहार विरोधी मुहिम का विरोध करें
[19 Jun 2009 |
अजय ब्रह्मात्मज के कहने पर(मेरे लिए आदेश)हममें से कई लोगों ने सिनेमाघरों को लेकर अपने-अपने संस्मरण लिखे। इस संस्मरण को लिखते हुए हमने सिनेमाघरों के बहाने अपने बचपन को याद किया,छुटपन की शरारतों को याद किया,संबंधों को याद किया। गीताश्री छपरा के सिनेमाघर पर लिखते हुए अपने बाबूजी को याद करती है तो मुझे बिहारशरीफ और टाटानगर के सिनेमाघरों को याद करते हुए मेरे औऱ मां के बीच के उस संबंध की याद आ गयी जो कि आमतौर पर बहुत ही कम लोगों के साथ हुआ करते हैं। हममें से कितने लोग मां के साथ सिनेमा देखते हुए जवान होते हैं? अगर हम ये कहें कि चवन्नी चैप के लिए हिन्दी टॉकिज पर लिखते हुए हम सिनेमा से कहीं ज्यादा सिनेमाघरों में और हीरो-हीरोईन के बीच के उमां-उमां से ज्यादा पड़ोस की बॉबी और अपने बीच पलनेवाले अधपके प्रेम में डूबते चले गए तो गलत नहीं होगा। उस दौर के एक-एक सीन में अपना बचपन धंसा हुआ नजर आने लगता है। संजय दत्त की बॉडी से ज्यादा अपनी वो बांह ज्यादा याद आती है जो हाथ को मोड़ लेने पर बॉडी लगती जबकि अब सोचता हूं तो सूखे और बासी दिखनेवाले पूरे शरीर के हिसाब से वो बलतोड़ से ज्यादा कुछ भी नहीं दिखती होगी। खैर,इतना तो जरुर है कि सिनेमा को याद करने के क्रम में सिनेमाघरों के प्रति जो दिलचस्पी पैद हुई है चाहे वो याद करने के तौर पर या फिर जिस शहर में भी जाओ,एक घड़ी के लिए ही सही वहां के सिनेमाघरों को घूमने की,इसकी क्रेडिट मैं चवन्नी चैप को देने में मैं किसी भी तरह की कोताही नहीं कर सकता।
पिछले दिनों अपने कुछ व्यक्तिगत और एक हद तक रिसर्च के सिलसिले में(टेलीविजन पर लोगों की राय जानने के लिए)बिहार और झारखंड के करीब 11 छोटे-बड़े शहरों में भटकता रहा। कहीं सात घंटे बिताने होते,कहीं पूरा का पूरा दिन और कहीं-कहीं तो कुछ भी नहीं सिर्फ बस या ट्रेन पकड़नी होती और तीन-चार घंटे खाली-पीली करके बिताने होते। ऐसे समय लगता है कि कहां जाएं। इससे पहले भी मैं कई बार इस तरह के सिचुएशन में पड़ा हूं जहां होटल न होने की स्थिति में इन घंटों को काटना भारी पड़ जाता। लेकिन चवन्नी चैप ने सिनेमाघरों को लेकर जिस तरह की दिलचस्पी पैदा की है,उससे अबकी बार मेरी झंझट ही खत्म हो गयी। जहां भी गया,सिनेमाघरों के आस-पास ये घंटे कैसे बीत गए,पता ही नहीं चला। ये अलग बात है कि इन शहरों के तमाम सिनेमाघरों में ऐसी कोई भी फिल्म नहीं लगी थी कि जिसे चलकर देखी जाए लेकिन बाहर जो कुछ भी और जितनी तेजी से बदला है उससे जानने-समझने के लिए ये तीन-चार घंटे वाकई कम पड़ गए। कई सिनेमाघरों के मेन गेट बंद और आसपास फुक-फुक करके जीता हुआ उसका इतिहास। एक-दो ऐसी टॉकिज जो अब सिनेमा से ज्यादा उसके सामने मिलनेवाले मसालेदार चखने के लिए फेमस हुआ जा रहा है और एक-दो टॉकिज जो अपने जमाने की रौनक को याद करते हुए इसे उजाड़ देनेवालों को भूखी आंखों से देख रहा है। इसी क्रम में हम पहुंचें- झुमरी तिलैया की पूर्णिमा टॉकिज, टाटानगर की बसंत टॉकिज औऱ बिहार शरीफ का किसान सिनेमा। पूर्णिमा टॉकिज जिसमें पहली बार बड़ी दीदी की शादी होने पर दीदी,जीजाजी औऱ उनकी बहन के साथ फिल्म देखी थी औऱ बाद में लोगों ने दुनियाभर के मजे लिए,बसंत टॉकिज जहां हाल-हाल तक मां और भाभी धक्के दे-देकर भेजती कि दिनभर में घर में घुसा रहता है,जाओ देख आओ कोई सिनेमा और किसान सिनेमा जिस पर मैंने लिखा- तब मां भी होती थी और सिनेमा भी। इन तीनों सिनेमाघरों का क्या है मौजूदा हाल,पढ़िए अगली पोस्ट में
झुमरी तिलैया रेलवे स्टेशन को लांघकर जैसे ही हम बस्से अड्डे की तरफ बढ़े,एकदम से कोने में एक गाड़ी लगी थी और दबी जुबान में एक बंदा लोगों को बुला रहा था- आइए हजारीबाग..हजारीबाग..हजारीबाग,प्रेस की गाड़ी में,प्रेस की गाड़ी में। हम उस बंदे के पास गए। उसे हमारे परेशान हाव-भाव को देखकर अंदाजा लग गया था कि हमें किसी भी हाल में हजारीबाग जाना है। उसने बाकी गाडियों से प्रेस की गाड़ियों की तुलना करते हुए जो कुछ भी बताया उसमें सुरक्षा और जल्दी पहुंचाने की गारंटी शामिल थी। गाड़ी चाहे कोई भी हो कमांडर,मिनीडोर या फिर महिन्द्रा...प्रेस की गाड़ी बोलकर यहां अलग से ब्रांडिंग की जा रही थी।
एक- दो और भी गाड़ियां थी जिसके संबंध में यही सारी बातें की जा रही थी जो कि डोभी,चट्टी की ओर जाने वाली थी। बंदे की बात पर भरोसा करके हम गाड़ी की तरफ बढ़े और अंदर का नजारा देखा तो लगा कि ये प्रेस की गाड़ी कम पौल्ट्री फार्म की मुर्गिंयां ढोनेवाली गाड़ी ज्यादा है। एक के उपर एक चढ़े लोग,किसी का भी पूरा शरीर नहीं देखा जा सकता था। किसी ने एक की जांघ दबा ली है तो किसी की बांह में किसी का सिर डूबा है। आप इस नजारे को देखकर अंदाजा ही नहीं लगा सकते कि कुल कितने आदमी बैठे हैं। मैंने बस इतना भर पूछा- इसमें जगह कहां है जो हम चार आदमियों को बैठा पाओगे। बंदे ने गाड़ी की छत की तरफ इशारा करते हुए कहा- अभी उपरे पूरा खाली है और आपको जगहे नहीं दिख रहा है। मैंने फिर सवाल किया- भाईजी,प्रेस की गाड़ी का हवाला देकर सुरक्षा की बात करते हो और यहां छत पर बैठने को कहते हो। उस बंदे को मेरे जाने की नीयत पर शक हुआ इसलिए पल्ला झाड़ते हुआ कहा- आप जैसन कानून छांटनेवाले बीसियो लोग रोज आते हैं,जाना है तो चढ़िए नहीं तो साइड हो लीजिए,पसींजर मत भड़काइए। आपलोग पराइवेट गाडिए पर जाने लायक हैं जहां के खलासी को डेगे-डेग मूतवास लगता है। हम अपना सा मुंह लेकर दूसरे साधन के इंतजार में झुमरी तिलैया बस अड्डे पर अटक गए।
डेढ़ घंटे तक बस दस मिनट में चलने की बात करनेवाली बस से जब हम रांची तक जानेवाली बस पर बैठे तो उसने हमलोगों को रांची बोलकर हजारीबाग तक ही लाकर पटक दिया। वहां से फिर दूसरी बस में टाटानगर तक जानेवाली बस में बैठे। रांची पहुंचते-पहुंचते रात के करीब साढ़े ग्यारह बज गए। पहुंचने के आधे घंटे पहले आकर कंडक्टर ने कहा-देखिए हम बाकी बस वालों की तरह आपसे झूठ बोलकर पैसा नहीं लेगें। हम आपको रांची कांटा टोली तक छोड़ देगें और वहां से किसी गाड़ी में बिठा देंगे। कांटा टोली में आते ही उसने कहा कि हम किस-किसका ठेका लें,यहीं खड़े रहिए आधे घंटे में प्रेस की गाड़ी आएगी,उसी में बैठ जाइएगा। हम प्रेस की गाड़ी का इंतजार करते रहे।
प्रेस की गाड़ी आयी और ठीक हमारे सामने आकर रुक गयी। हम चारों लोग उसमें बैठते ही इत्मिनान हो लिए कि-चलो,आधी रात भी घर पहुंच लिए तो सोकर अगले दिन से अपने-अपने काम में लग जाएंगे। मैंने खुशी से अगले दिन रिलांयस फ्रेश जाने का वायदा किया था। अभी दो मिनट भी नहीं हुए थे कि एक खुस्सट किस्म का बंदा आया और चिल्लाने के अंदाज में कहा- उठिए आपलोग,आपलोग का रिजरवेसन है,जिसका रिजरवेसन है,पहले वोलोग बैठेंगे। हमें कुछ समझ में नहीं आया। लेकिन उसका कहना था कि प्रेस की गाडियों में जाने की बुकिंग रात के दस बजे ही हो जाती है। ऐसा नहीं है कि आप बैठिए और तब टिकट लीजिए। हमलोगों ने जब बहुत जबरदस्ती की तो किसी तरह पीछे बिठाने के लिए तैयार हुआ। ड्राइवर हमारे उपर बहुत ही तेजी से धमाधम प्रभात खबर और दैनिक हिन्दुस्तान के बंडल डाले जा रहा था। मैं दर्द से कराह उठा। मैंने कहा- आपको शर्म नहीं आती,प्रेस की गाड़ी के नाम पर इस तरह की कमीशनखोरी करते हो। आपको पता है कि इस तरह से प्रेस की गाड़ी में रेगुलर वेसिस पर पैसेंजर को बैठाना जुर्म है। भैय्या ने कहा-जाने दो,इनको क्या समझ आएगा। ड्राइवर का सीधा जबाब था- आपसे ज्यादा पढ़े-लिखे हैं। आप उन भोसड़ी अखबार मालिकों से काहे नहीं कम्प्लेन करते हैं जिसको लगता है कि अखबार बटाई का काम पानीवाली गाड़ी से होता है,बड़ा चले हैं हमको समझानेवाले। रांची से टाटानगर का किराया 70 रुपये हैं,कभी-कभी 75 रुपये। बुकिंग करनेवाले ने हमसे 80 रुपये के हिसाब से किराया लिया। एक जो अंतिम में आया उससे 100 रुपये में चलने की बात कही-चलना है तो चलो नहीं तो फूटो यहां से।
रास्ते में ड्राइवर ने आज अखबार के कार्यालय(रांची) के पास गाड़ी रोकी। टाटानगर में दैनिक हिन्दुस्तान के आगे। लेकिन जिन-जिन अखबारों के कार्यालय के आगे गाड़ी रोकता उससे कुछ दूरी पर हमलोगों को उतार देता। ऑफिस के कुछ आगे तक हमें पैदल चलना होता और फिर हमें बिठाता। कोई साधन नहीं होने की मजबूरी में हम प्रेस की गाड़ी में बैठ तो गए लेकिन रास्ते भर तक अपने को मथते रहे- जो अखबार,जो प्रेस दुनिया भर के निकायों की गड़बड़ियों को लेकर विरोध करता हुआ जान पड़ता है,कानून की बात करता है,वो खुद भीतर से कितना खोखला है,इसका अंदाजा वाकई उसे है। एक पैसेंजर ने मुझे उस प्रेस गाड़ी पर चढ़ने की रसीद दिखायी। उसमें न तो किराये की राशि लिखी थी,न तो गाड़ी का नंबर और न ही कोई मुहर या साइन। बस घसीटकर एक लाइन। उस लाइन से कोई क्या समझ सकता है और क्या दावा कर सकता है। ये धंधा इतने रेगुलर तरीके से चल रहा है कि अब बिहार-झारखंड का कोई भी बंदा प्रेस की गाड़ी का सही मतलब समझता है। लेकिन हैरत है इस नाजायज तरीके से चलनेवाले ट्रांसपोर्ट के धंधे पर किसी अखबार की अब तक नजर नहीं गयी। गाड़ी के आगे-पीछे प्रेस का स्टीकर ठोककर औऱ गाड़ी के भीतर मनमानी पैसिंजर ठूंसकर सुरक्षा और कानून का दावा करनेवाले प्रेस का एक नया रुप सामने आता है। क्या इन गाडियों की लाइसेंस पर,सुरक्षा के सवाल पर,इन गाडियों में मनमानी भाड़ा वसूलने और दलाली को बढ़ावा देनेवाले जैसे मुद्दों को लेकर प्रेस संस्थानों पर सवाल नहीं खड़े किए जाने चाहिए?