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डॉ.चन्द्रप्रकाश द्विवेदी निर्देशित फिल्म "मोहल्लाअस्सी" अभी पूरी तरह तैयार हुई भी है या नहीं, नहीं मालूम लेकिन प्रोमो के आधार पर दिल्ली हाईकोर्ट ने इस फिल्म के रिलीज होने पर पाबंदी लगा दी है. भारतीय नागरिक गुलशन कुमार की याचिका पर सुनवाई करते हुए कोर्ट फिलहाल इस नतीजे पर पहुंची कि प्रोमो में जिस तरह बनारस और संस्कृति को दिखाया गया है, इससे लोगों की धार्मिक भावना आहत होने की पूरी संभावना है.

इससे पहले पिछले शुक्रवार इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनउ पीठ ने प्रोमो को लेकर सेंसर बोर्ड को एक नोटिस जारी किया ही जिसमे इसी भावना के आहत होने की बात कही गयी थी. फिल्म अभिनेता सन्नी देओल पर लोगों की भावना को ठेस पहुंचाने के कारण एफआइआर तो दर्ज हो ही गई है.

साल २००४ में काशीनाथ सिंह की आयी किताब काशी का अस्सी पर आधारित इस फिल्म के आने के पहले ही इस तरह के विवाद और प्रतिबंध को लेकर जब आप सोचते हैं तो पहला सवाल दिमाग में यही आता है कि क्या याचिकाकर्ता गुलशन कुमार ने इन बारह-तेरह सालों में एक बार भी इस किताब को हाथ में लेकर देखा होगा कि इसमे लिखा क्या है ? पूरी किताब तो छोड़ ही दीजिए, भूमिका और शुरुआत के एकाध पेज ही पढ़ लेते तो अंदाजा लगा लेते कि जिस भारतीय संस्कृति( संभवतः हिन्दू संस्कृति) पर उन्हें गुमान है और प्रोमो से उनकी भावना आहत हुई है, उस संस्कृति में लिथड़े लोगों की पहचान कुछ इस तरह है- जमाने को लौडे पर रखकर चलना बनारसियों की आइडेंटिटी है.
यकीन मानिए, गुलशन साहब और उनके जैसे बाकी संवेदनशील नागरिकों के लिए काशी का अस्सी का एक ही पन्ना काफी है. उन्हें न तो प्रोमो तक पहुंचने की नौबत आती और न ही चंद्रप्रकाश द्विवेदी तब उस सूरत में होते कि इस पर फिल्म बना सकें..तब तक काशी का अस्सी की एक-एक प्रति शाहजहांपुर के पत्रकार गजेन्द्र सिंह की तरह पेट्रोल झिड़कर जला दी जाती. वैसे भी जिस देश में जीते-जागते इंसान को जिंदा जला दिया जाना पांच-सात मिनट का काम हो, वहां एक किताब की प्रतियां जलाने में क्या मुश्किल आ सकती है ?

कोर्ट की नियत और फैसला सर माथे पर लेकिन क्या गुलशन कुमार जैसे छुई-मुई नागरिक से ये सवाल करना नहीं बनता कि जनाब आपने उस किताब को कभी हाथ में लेकर देखा जिस पर ये फिल्म बनी है ? ..और यदि सचमुच उनकी नजर से ये किताब गुजरी है तो उनकी धार्मिक भावना की दाद देनी होगी कि पिछले बारह-तेरह सालों तक वो सुरक्षित रही और अब फिल्म की शक्ल में आने पर ऐसी सुलगनी शुरु हुई कि सीधे फिल्म के रिलीज होने के पहले ही उसे चिता बनाने पर आमादा है.

इस पूरे प्रकरण में जो दूसरा सवाल बनता है वो ये कि हम सचमुच अपने साहित्य को कितना कम जानते हैं, हम उससे कितने कटे हैं ? चंद आलोचकों और स्वयभूं मठाधीशों की लॉबी को छोड़ दें जो आपस में ही थै-थै करती फिरती है तो साहित्य में जो कुछ भी लिखा जा रहा है, वो कितना कम बल्कि नहीं ही लोगों तक पहुंच पा रहा है. रचना तो छोड़िए, जिंदगी भर तक लेखक लिखते-लिखते मर-खप जाता है, कुछेक पत्रिकाओं जिनका प्रसार हजार के भीतर है, का टुकड़ा बनकर रह जाता है.. काशीनाथ सिंह ने २००४ में काशी का अस्सी लिखा..लेकिन उस पर नए सिरे से चर्चा तब शुरु हुई( खासकर मेनस्ट्रीम मीडिया में) जब कि उन्हें रेहन पर रग्घू के लिए साहित्य अकादमी मिला और इस नाम से भी एक लेखक है, सामान्य पाठक-दर्शक को इसकी जानकारी तब हुई जब डॉ. चन्द्रप्रकाश द्विवेदी द्वारा इस पर फिल्म बनाने की बात मीडिया में आनी शुरु हुई...और अब तो सूचना की एक परत चढ़ जाने के बाद अलग से काशनाथ सिंह की इस फिल्म के संदर्भ में चर्चा भी नहीं होती. विवादों की परतें इतनी मोटी हो गई हैं कि लेखक काशीनाथ सिंह तो बहुत नीचे दब गए. साहित्य और लिखने-पढ़ने की दुनिया जिस तेजी से हमारी रोजमर्रा की जिंदगी से कटते चले जाएंगे, हम ऐसी बेहूदगियों के अंबार के बीच खड़े होंगे कि सांस लेने में मुश्किल होने लगेगी.

आखिर ये कैसे संभव है कि जिन छपे हुए शब्दों से लोगों की धार्मिक भावना आहत नहीं होती, उन्हीं शब्दों के सिनेमा में आते ही ऐसी भावना आहत होती है कि मीडिया विवादों क्या, दंगे के अखाड़े में तब्दील हो जाता है..दुनियाभर की जरुरी खबरों से समझौते कर इस पर पिल पड़ती है और कोर्ट की तत्परता मुखर हो उठती है. कहीं ऐसा तो नहीं कि हम साहित्य,सिनेमा तो छोड़िए लोगों की मेहनत तक की कद्र करना नहीं जानते और अपने निकम्मेपन के बीच से लोगों के बीच खास दिखने का फॉर्मूला गढ़ने लग जाते हैं. पीआर एजेंसी, उनकी स्ट्रैटजी पर अगर सरकार चलती है तो फिर भी बात समझ आती है कि उन्हें लोकतंत्र को मैनेजमेंट की शक्ल में बदलने की जल्दीबाजी है लेकिन आम नागरिक और उसके साथ-साथ कोर्ट की सहमति जिस पर कि हमारी गहरी आस्था और यकीन है ? ये कहीं हमारे व्यक्त की जानेवाली दुनिया को समेटकर व्यक्त हो रही दुनिया की शक्ल खतरनाक बनाने की ओर बढ़ते कदम तो नहीं है ? ..नहीं तो इसी दिल्ली शहर में दिनभर में एक नागरिक मां-बहन से शुरु होनेवाली गालियों को इतनी बार सुनता है कि आत्मग्लानि से मर जाए. हम इस बहाने एक माध्यम को दूसरे माध्यम से और एक व्यावसायिक तंत्र को दूसरे तंत्र से पिटते देख रहे हैं.
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