वर्चुअल स्पेस पर प्रभात रंजन और शशिकांत ने अमरकांत और श्रीलाल शुक्ल को संयुक्त रुप से ज्ञानपीठ पुरस्कार दिए जाने की घोषणा को उत्साह में आकर साझा किया और एक तरह से इस खबर के प्रसार की नैतिक जिम्मेदारी अपने उपर ली। प्रभात रंजन ने अपने ब्लॉग जानकीपुल और फेसबुक के जरिए इस खबर को प्रसारित किया,वही शशिकांत ने सीएसडीएस सराय की मेलिंग लिस्ट के जरिए इसे हम पाठकों तक पहुंचाया। चूंकि इस बात की जानकारी हमें सबसे पहले इन दोनों के माध्यम से ही मिली थी इसलिए हमें इनसे सवाल करना जरुरी लगा कि क्या ज्ञानपीठ ऐसा करके पुरस्कार की राशि दोनों के बीच आधी-आधी करके बांटेगा। यानी स्वतंत्र रुप से ज्ञानपीठ पुरस्कार पानेवाले की जो राशि होती है,उसकी आधी राशि इन दोनों साहित्यकारों को मिलेगी? व्यक्तिगत तौर पर ऐसा किया जाना मुझे अनैतिक लगा और हमने दीवान पर इस संबंध में सवाल छोड़े। लिहाजा शशिकांतजी ने एक के बाद एक इनसे जुड़े तथ्य हमारे सामने रखे और मैंने भी उसके साथ कुछ संस्मरण और तर्क जोड़ने की कोशिश की। शशिकांतजी का यहां तक कहना है कि ज्ञानपीठ ने ऐसा दरअसल विवाद पैदा करने और चर्चा में आने के लिए किया है। उनकी बात में सच्चाई इसलिए भी है कि ऐसा वह पहले भी कर चुका है। निर्मल वर्मा और गुरदयाल सिंह को संयुक्त रुप से पुरस्कार देते समय ऐसा ही किया और आधी-आधी राशि दोनों को मिली। सवाल है कि साहित्यकार के लिखे का आकलन क्या इतना वस्तुनिष्ठ होता है कि दो को इस धरातल पर लाकर खड़े कर दिए जाएं कि पुरस्कार की राशि आधी हो जाए? अगर ऐसा होता है तो निर्णायकों के लिए साहित्य भी कोई रचनाकर्म न होकर प्रोजेक्ट या टिकमार्क करनेवाली चीज है और हम इसका विरोध करते हैं। ज्ञानपीठ चाहे तो दो की जगह चार को संयुक्त रुप से पुरस्कार दे लेकिन राशि का बांटा जाना किसी भी रुप से सही नहीं है। इस पूरे मामले में दिलचस्प पहलू है कि जिस निर्णायक मंडल ने ये फैसला लिया है,उसमें गुरदयाल सिंह भी शामिल हैं जिनके साथ ये घटना घटित हुई। अब देखना ये हैं कि इस संयुक्त फैसले पर मुहर लगाने के बाद गुरदयाल सिंह पुरस्कार की राशि पूरी मिले,इसके लिए क्या प्रयास करते हैं? आप भी इस संबंध में अपनी प्रतिक्रिया जाहिर करें। फिलहाल शंशिकातजी ने दीवान पर जो विचार हमसे साझा किए हैं,उस पर एक नजर-
शशिकांत
मित्रो,
भारतीय ज्ञानपीठ ने बताया कि वर्ष 2009 के लिए 45 वां ज्ञानपीठ पुरस्कार हिन्दी लेखक अमरकांत और श्रीलाल शुक्ल को संयुक्त रूप से दिया जाएगा और वर्ष 2010 के लिए 46 वां ज्ञानपीठ पुरस्कार कन्नड लेखक चंद्रशेखर कंबर को दिया जाएगा।
यहां कल शाम सीताकांत महापात्र की अध्यक्षता में हुई ज्ञानपीठ पुरस्कार चयन समिति की बैठक में अन्य सदस्य प्रो. मैनेजर पांडे, डा. के सच्चिदानंदन, प्रो. गोपीचंद नारंग, गुरदयाल सिंह, केशुभाई देसाई, दिनेश मिश्रा और रवीन्द्र कालिया शामिल थे।
मालूम हो, मलयालम के प्रसिद्ध कवि और साहित्यकार ओएनवी कुरूप को वर्ष 2007 के लिए 43वाँ और उर्दू के नामचीन शायर अखलाक खान शहरयार को वर्ष 2008 के लिए 44वाँ ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया जा चुका है।
विनीत
पुरस्कार की राशि तब आधी-आधी हो जाएगी क्या शशिकांतजी या फिर बिग बॉस में डबल सिम(संजय दत्त और सलमान खान) होने पर भी दोनों को अलग-अलग चार्ज मिलेगा वैसा ही। ये अंदेशा सिर्फ इसलिए है कि कई बार कॉलेज के दिनों में प्रतियोगिताओं में हमें संयुक्त पुरस्कार मिला तो राशि आधी हो जाती थी और सम्मान बराबर का मिलता। इस उम्र में दोनों रचनाकारों के लिए राशि का मसला भी बराबर से मायने रखता है।शशिकांत
भाई विनीत जी, ज्ञानपीठ ने दूसरी बार ऐसा किया है. इससे पहले निर्मल वर्मा और गुरुदयाल सिंह को भी संयुक्त रूप से दिया गया था और ख़ूब विवाद हुआ था. संभव है, ज्ञानपीठ जानबूझ कर ऐसे फ़ैसले लेता है ताकि विवाद हो. लेकिन शायद इस बार दोनों लेखक ऐसे हैं जो विवाद न खड़ा करें. पिछली बार निर्मल वर्मा तो चुप रह गए थे लेकिन गुरुदयाल सिंह जी ने विवाद खड़ा किया था भाई.
विनीत
मैंने शशिकांतजी इसलिए पूछा कि जिस शख्स को सम्मानित किया जाता है वो अपने दौर का दिन-रात एक करके रचनाकर्म में लगा लेखक होता है,जिनकी बड़े उदात्त विचार,समाज को बदलने का सपना होता है,उबाल होता है,विधा को तराशने की तड़प होती है लेकिन जब तक सम्मानित किया जाता है तब तक वो मरीज या पार्शियल मरीज की स्थिति में आ जाता है। उनेके विचार के आगे कई बार न चाहते हुए भी जरुरतें हावी हो जाती है और लगता है कुछ जोड़कर रख लेता। ऐसे में पुरस्कारों में कतर-ब्योत होने लगे तो चोट पहुंचती है। हिन्दी का साहित्यकार पैसे की मार वैसे भी शुरु से झेलता आया है,अगर वो आलोचक/विभागीय आलोचक न हो तो। कुछ ऐसे साहित्यकारों से मैं व्यक्तिगत तौर पर मिला भी हूं। इसलिए धातु की बनी प्रतिमा के आगे पैसे के मामले को नजरअंदाज करना इनके प्रति समझिए एक तरह से अन्याय ही होगा। ज्ञानपीठ अगर विवाद के जरिए चर्चा चाहता है तो आप जिनलोगों ने पुरस्कार की खबर प्रसारित करने की नैतिक जिम्मेदारी उत्साह के साथ ली है,ये बात भी स्पष्ट करें तो बेहतर होगा। ऐसा न हो कि घर जाकर लिफाफा देखने के बाद शॉल की गर्मी कनकनी में बदल जाए।शशिकांत
भाई विनीत जी, बिल्कुल सही कहा आपने. निर्मल वर्मा जैसे बेहद शालीन, संकोची, विनम्र और एकांतपसंद रचनाकार से जब राष्ट्रीय सहारा अखब़ार के लिए 'लेखक के साथ' कॉलम के लिए लंबा इंटरव्यू लेने गया था 2002 में तो उन्होंने पूछा था, 'इस इंटरव्यू के लिए मुझे भी कुछ पैसा देंगे क्या राष्ट्रीय सहारा वाले?' उन दिनों निर्मल जी की तबीयत ख़राब थी. ढेर सारी दवाइयां राखी थीं उनके सिरहाने, उनके सहविकास सोसायटी, पटपडगंज, दिल्ली वाले घर में. मैंने यह बात सहारा के गुप एडिटर गोविन्द दीक्षित और नामवर जी को बतायी थी. नामवर जी उन दिनों सहारा के सम्पादकीय सलाहकार थे. लेकिन निर्मल जी को कोई पारिश्रामिक नहीं मिला. तब से मैं इंटरव्यू देनेवाली शख्सियत को भी पारिश्रमिक देने की बात उठा रहा हूँ. आप मीडिया के बेहद सक्रिय, उत्साही युवा आलोचक हैं. इस मसले को हिंदी अखब़ार के संपादकों तक पहुँचा सकते हैं. ऐसी उम्मीद है मुझे
विनीत
पता चला कि विष्णु प्रभाकर बहुत बीमार चल रहे हैं तो डीयू के हम कुछ छात्रों ने तय किया कि उनसे किसी दिन मिलने चलेंगे। कुछ कहना नहीं है,बस ये कि सर आपका लिखा पढ़ा है,हम आपसे मिलने आए हैं। हम जब वहां पहुंचे तो हम जान नहीं पाए कि वो उनकी बहू थी या फिर बेटी लेकिन अचानक से छ-सात लड़के लड़कियों को दरवाजे पर देखकर घबरा गईं। हमने आने का मकसद बताया तो कहने लगी- सॉरी,वो बहुत बोल नहीं पाएंगे। हमलोगों ने कहा-हम उनका न तो कोई इंटरव्यू लेंगे और न ही उन्हें ज्यादा कुछ बोलने के लिए कहेंगे। तब हम अंदर दाखिल हुए। पीतमपुरा में उनका घर चारों तरफ से समृद्ध नजर आ रहा था लेकिन उन्होंने जमीन खरीदने से लेकर घर बनने तक की पूरी कहानी विस्तार से बतायी। ये भी बताया कि कैसे-कैसे लोग आए,कलाम से लेकर वाजपेयी तक से मदद दिलाने की बात कर गए,आपलोग बहुत बड़े होते तो आपसे मिलता भी नहीं। बच्चे हो,उत्साह में हो तो मना नहीं कर सका। इस दौरान वो बार-बार अपनी टोपी(गांधी टोपी) संभालते रहे। हमें कभी कोई बड़ा सम्मान नहीं मिला,जो मिला उसे लेकर कई तरह के विवाद हुए,हमने कुछ नहीं कहा...फिर आंखों में आंसू। साहित्य में कई बार गांधीवादी होना तकलीफदेह हो जाता है। हम सब सुनते रहे,नोट करते रहे। एक साथ रिकार्ड भी करता रहा जिसकी चिप हॉस्टल आते ही खराब हो गयी। हम तब ब्लॉग की दुनिया में नहीं आए थे। हम चाहते थे कि वो कहीं छपे। बाद में जब हम वापस कैंपस पहुंचे तो कई साथियों को इस बात पर गुणा-गणित करने में दिक्कत होने लगी कि प्रभाकरजी तो गांधीवादी हैं,अगर हमने जहां कुछ इन पर लिखा तो हमारे गाइड नाराज हो जाएंगे। प्रगतिशील और मार्क्सवादी शिक्षक का छात्र भला गांधीवादी साहित्यकार से कैसे प्रभावित हो गया? मामला ठंडे बस्ते में चला गया।
महीना भी नहीं गुजरा था,विष्ण प्रभाकर गुजर गए। हममे से एक साथी दौड़ते-भागते मेरे पास आया और मैंने जो कुछ भी नोट किया था,ले गया। उसके बाद विष्णु प्रभाकर का विशेषांक निकाला। विष्णु प्रभाकर की पूरी बातचीत में पैसा बहुत बार आया। कई-कई तरीके से,मानो की जीवन के अंतिम समय में आकर यही उनकी निर्णायक काबिलियत का हिस्सा था जहां आकर वो मार खा गए। शशिकांतजी,आपने निर्मल वर्मा को लेकर जो संस्मरण सुनाया,कैसा कचोटता है सुनकर। मैंने तो उपर के कमेंट बस आशंका के तौर पर की लेकिन आपके पास तो संस्मरण हैं। हम अमरकांत और श्रीलाल शुक्ल को लेकर ऐसा ही सोच रहे हैं। ये अलग बात है कि हमें उनकी वस्तुस्थिति की जानकारी नहीं।
शशिकांत