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साल 2001 में जब अरविंद राजगोपाल की किताब इंडिया आफ्टर टेलीविजन आई तो पढ़ने-लिखनेवाले लोगों के बीच हंगामा मच गया. राजगोपाल ने बहुत ही बारीक विश्लेषण करते हुए ये तर्क स्थापित किए थे कि इस देश में दक्षिणपंथ का मुख्यधारा की राजनीति में जो उभारा हुआ है, बाबरी मस्जिद विध्वंस के दौरान साम्प्रदायिक ताकतों का निरंतर विस्तार हुआ, उसके लिए कहीं न कहीं दूरदर्शन पर प्रसारित रामायण जैसे टीवी सीरियल भी जिम्मेदार रहे हैं. ऐसे सीरियलों ने दक्षिणपंथी राजनीति के लिए माहौल बनाने का काम किया और टीवी में स्थायी रूप से भारतीय संस्कृति के नाम पर इनकी पकड़ मजबूत होती चली गई.
दिलचस्प है कि इस किताब की जबरदस्त चर्चा हुई लेकिन तथाकथित प्रगतिशील लोगों ने भी इस किताब को बहुत अधिक सराहा नहीं. राजनीतिक स्तर पर तो वो राजगोपाल की बात से फिर भी सहमत हुए कि दक्षिणपंथ राजनीति का निरंतर विस्तार हो रहा है लेकिन इसके लिए टीवी जिम्मेदार है, ऐसा मानने के लिए तैयार नहीं हुए. इसकी बड़ी वजह ये भी रही है कि वो टीवी को इतना गंभीर माध्यम मानने को तैयार नहीं थे, उसे ये क्रेडिट देना नहीं चाहते थे कि वो समाज और राजनीति की दिशा तय होने लग जाए. नतीजा ये किताब कम से उन लोगों के बीच से बिसरती चली गई जो टीवी को उथला या सतही माध्यम मानते रहे हैं. लेकिन
साल 2012 में कृष्णा झा और धीरेन्द्र के. झा की लिखी किताब "अयोध्या दि डार्क नाइटः दि सिक्रेट हिस्ट्री ऑफ रामाज एपीयरेंस इन बाबरी मस्जिद" से गुजरें और खासकर इसमे जो उद्धरण शामिल किए गए हैं, वो राजगोपाल के तर्क को मजबूत करते हैं. इस किताब में बाबरी मस्जिद विध्वंस के संदर्भ में अलग से टीवी के कार्यक्रम की चर्चा नहीं है लेकिन सरकार की उन नीतियों और तर्क पर जरूर चर्चा शामिल है, जिन पर गौर करें तो उनमे प्रसारण नीति अपने आप शामिल हो जाते हैं. इस दौर की प्रसारण नीति, राजनीति और सरकार के रवैये को समझने के लिए भास्कर घोष की लिखी किताब दूरदर्शन डेज कम महत्वपूर्ण नहीं है.( राजीव गांधी को भक्ति भाव से याद किए जाने के बावजूद). खैर,
साल 2012-13 में शुरु हुए टीवी कार्यक्रमों को एक बार दोबारा से राजगोपाल के तर्क के साथ रखकर समझने की कोशिश करें तो ये समझना और भी आसान हो जाता है कि इस देश में दक्षिणपंथी पार्टी की जो सरकार 2014 में सत्ता में आई, टीवी पर ये दो साल पहले ही आ गई थी. महाराणा प्रताप, रानी लक्ष्मीबाई, पृथ्वीराज चौहान, देवों के देव महादेव, जीटीवी का रामायण ऐसे दर्जनभर टीवी सीरियल हैं जो कि वहीं काम दो-ढाई साल पहले से करते आए हैं जो काम दक्षिणपंथी पार्टी एक्सेल शीट पर कर रही थी और जो काम इकॉनमिक टाइम्स जैसा अखबार सेन्सेक्स की खबरें छापकर कर रहा था.
कुल मिलाकर कहानी ये है कि मनोरंजन की दुनिया को हम जिस हल्के अंदाज में निबटा देते हैं, इस देश की राजनीति का बड़ा सुर वही से साधने का काम होता आया है. राजनीति में इसका इस्तेमाल माल राजनीति के लिए किया जाए तो वो देशभक्ति हो जाती है और इसी इन्‍डस्ट्री के लोग सही अर्थों में राजनीति करने लगें तो वो असहिष्णु करार दे दिए जाते हैं.
( जाहिर है, इस असहिष्णुता की शुरूआत कांग्रेस से ही हुई है. झा की किताब का पन्ना लगाया है, आप चाहें तो बड़ा करके नेहरू का वो उद्धरण पढ़ सकते हैं जिसे कि उन्होंने मई 1950 में राज्य के मुख्यमंत्रियों से बेहद ही खिन्न भाव से कहा था-
ये बड़े अफसोस की बात है कि जो कांग्रेस धर्मनिपेक्षता के लिए जानी जाती है, वो इतनी जल्दी इसका अर्थ भूल जाएगी..बिडंबना ही है कि जो जिन चीजों पर जितना अधिक बात करता है, वो उतना ही कम उसका अर्थ समझता है, उसे उतना ही कम व्यवहार में लाता है..

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