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स्साला,इ बात जानते हुए कि सोहरब्बा को छोड़कर सानिया कभी भी हमरी नहीं होगी,ए गो भी मैच मिस नहीं किए। हमको क्या लेना-देना था टेनिस से? ओही एक गो किरकेट था जिसको कि हम और बाबूजी साथ देखते। उसी बहाने साथ में बैठकर बाबूजी से बोलते-बतियाते। बात खेला से शुरु होता और पॉलटिक्स पर जाके खत्म होत। बाबूजी को बतियाने वाला मिल गया था और हमको बाप की शक्ल में एक टिकाउ दोस्त। लेकिन सानिया के चक्कर में सब भंडुल हो गया।

हम किरकेट छोड़कर जब से टेनिस देखने लग गए,बाबूजी से दूरी बढ़ती चली गयी। पहिले-पहिले तो बाबूजी कहते- अरे,मुन्नू इ क्या तू टेनिस लेके बैठा है,लगाओ न जरा जिओ स्पोर्ट- धोनिया,अस्ट्रेलिया को मारके बोखार छोड़ दिया है। शुरु-शुरु में हम भी लगा देते कि बाबूजी बुरा न मान जाएं इसलिए। लेकिन बाद में सानिया का नशा ऐसा चढ़ा कि सुन के अनसुना कर दिए। बाबूजी के एक-दो बार टोकने पर समझा दिए- बाबूजी,किरकेट तो सब बिहारी देखता है,इ अब लोअर मिडिल क्लास को देखनेवाला खेला हो गया, टेनिस देखिए,एलीट वाला खेला। बाबूजी भी मन मारके देखने की कोशिश करते। लेकिन जो आदमी के खून में गवास्कर के जमाने से ही किरकेट घुस गया है उ कैसे दू से चार अदमी के बीच होनेवाला खेला बर्दाश्त कर लेगा? हार करके गीताप्रेस के किताब में अफने को उलझा लेते या कहते कि अच्छा हमको जरा रेणु बाबू वाला 'परती- परिकथा'दे दो।

कहानी इहें तक कहां रुकने वाला था। बाबूजी को हमरे चाल-ढाल से अभास हो गया था कि इसको टेनिस-उनिस नहीं खाली सानिया मिर्जा के चक्कर में इ खेला देखता है। उनको बहुत धक्का पहुंचा। बीच में एक-दू बार माय बोल चुकी थी कि- ऐसे दीदा फाड़के देखते हो तो क्या इन सनिमा टीवीए से निकल आएगी क्या? अपने तो खेल के पैसा पीट रही है और हियां हमरे पढ़े-लिखेवाला बुतरु के मति मार ले गयी। महल्ला-टोला में धीरे-धीरे हल्ला हो गया कि हम सानिया मिर्जा के चक्कर में टेनिस देखते हैं। सठियाल बुढ़वन सबको पता चला कि इसको सब खेला देखने के लिए नहीं देखते हैं बल्कि कुछ औरे बात है। शीरिकांत चचा को उड़ते-उड़ते फीगर शब्द कान में पड़ा। फिर सबके सामने शेखी बघारने लगे कि- आपलोग कान में करुआ तेल डालकर पड़े रहिए,हियां उ टेनिस खेलाड़ी के बारे में खबसूरत होने का हल्ला है।

मोहल्ला में लौंड़ों का मसखरय चालू था। एक कहता- इ अकेले खेलाड़ी है जिसको इतिहास में शी..शी..करा देनेवाली लेडिज खेलाड़ी के तौर पर याद किया जाएगा। काहे कोई जाएगा,छोटका सिनेमा देखने हो। सानिया मिर्जा को काहे नहीं देखे।..अरे संभुआ,स्साला सिल्पा सेठ्ठी बहुत बनती है न बिग बॉस में जितला के बाद,पर्सनालटी में पानी भरेगी सानिया मिर्जा के सामने। जानते हो रे बिरजू,हमको एके गो बात समझ में नहीं आ रहा कि इ अब तक फिलीम में ट्राय काहे नहीं करती। चक दे टाइप से कुछ।

कमरा से सब किरकेट खेलाड़ी के फोटो हटा दिए। अब खाली सानिया। शॉट मारते हुए,बॉल रगड़ते हुए। टीशट उचकाते हुए। बाबूजी कमरे का नक्शा देखके भड़क जाते,अंदर ही अंदर कुढ़ते। मां से कहते- देखिएजी,अपने लाड़ले को और शह दीजिए। बाबूजी तो हियां तक कह दिए कि पैदा करनेवाला तो कर देता है लड़की। लेकिन उसके पीछे जो नौजवान का पूरा का पूरा पीढिए तबाह हो जाता है,उस पर बात करनेवाला कौन है? सरकार को तो एसन लड़की लाड़ली योजना और पोलियो के ड्रॉप पिलाने के काम आ ही जाती है। हियां तो हमरा लड़का न खड़े-खड़े पेड़ की तरह सड़ रहा है। दिल्ली के जुबली हॉल में बैठकर आज हमको गोपालगंज में सानिया मिर्जा को ले-करके एक-एक खिस्सा याद आ रहा है।..ए लेखक साहब,बिलॉगर महोदय सुन रहे हैं न सबजी।..सुन तो रहबे कर रहे हैं लेकिन इ आपके आंख ले लोर काहे टपक रहा है जी। सेंटिया काहे गए सानिया के ब्रेकअप के खबर सुनकर।

आप नय जानते हैं। जब दिल्ली आए तो ऐसन नशा सवार था सोनिया के कि हमको हर लड़की सानिया लगता। लगता कि कोय भी लड़की को कुछ मत करो,खाली नाक छेदा दो औ एगो उसमें छोट गो नथुनी डाल दो। देखे नहीं थे,उ दिन आपकी बैचमेट नथुनी पहिनकर आपसे लसफसा रही थी तो हम बोले कि पक्का सानिया मिर्जा लग रही है। कुछ नय तो एगो एकरलिक वाला शार्ट टीशर्ट पहना दीजिए। आप तो गौर नहीं किए लेकिन हमको साफ लग गया था कि हमरे सहित सानिया का जादू लड़की लोग पर भी चल गया है। नहीं तो हिन्दी विभाग के जे लड़की एक बार हाथ छू जाने से चार बार साबुन से होथ धोती है उ काहे नाक छेदाकर टॉप पहनती। अब आपसे क्या छुपावें बिलॉगर साहब। माय-बाप से केतना बार झूठ बोले होंगे,नय कह सकते हैं? केतना बार झूठ बोलके यूपीएससी और वीपीएससी के फारम भरने का पैसा मांगे होगे,गिनती नहीं है। लेकिन हर बार पैसा मांगके उसको addidas का टीशट खरीदकर दिए हैं। पहिले तो कहती थी कि ऑरिजनल है तब हमरा भीतर से सुलग जाता था लेकिन बाद में जब साथे ले जाकर खरीद देते तब यकीन होता। जूता लेने से मना कर देती कि घर में बाप-भाय पूछेगा लेकिन बाद में उ भी खरीद दिए।

औ सुनिए न,आदिकाल-भक्तिकाल पर नोट्स बनानेवाली लड़की को बैंड का क्या काम जी,addidas के पानीवला बोतल का क्या काम लेकिन सब खरीदकर दिए। औ जानते हैं काहे- सानिया मिर्जा addidas के ब्रांड एम्बेस्डर हो गयी थी इसलिए। एक-एक चीज खरीदे उस कंपनी का। पगला गए थे हम उस समय। हम उसको सानिया मिर्जा बनाके दम लेना चाहते थे।..ए महाराज,दम लेना ताहते थे तो अब भोकार पाडके रोने काहे लग रहे हैं..उ सब खिस्सा को बीते तो चार साल हो गया,संभलिए। संभलिए,इ स्साला,चूतिवा चैनल एक्सपर्ट बैठा लिया है औऱ कह रहा है कि ऐसा क्यों है कि स्टारडम का अक्सर ब्रेकअप हो जाता है? सानिया और सोहराब की तरह बाकियों के संबंध शादी के तौर पर टिक क्यों नहीं पाते? इ जो लड़की पूछ रही है सवाल इसको कुछो नहीं आता है। उ कौन स्टारडम थी जी जो एक दिन भजनपुरा के एगो दुकान के झटियल पोलोथिन में सब कार्ड-याद फेंककर चली गयी। उसको कौन धन्नासेठ मिल गया था। हम कहेंगे तो आप बमक जाएंगे लेकिन लड़का कोय भी हो,लड़की लोग उसका चुतिया काट ही लेती है। हियां सानिया तो.....। अभीओ इ दिल्ली में हजारों लड़की चूतिया काट रही होगी किसी न किसी को। अरे सानिया का क्या है,फिर से खेलना-खुलना शुरु कर देगी। फिर से हमरा जैसन चिरकुट लोग बौखने लग जाएगा,पहिले एडीडॉस तो आगे नैकी पहनाने लगेगा अपनी गलफ्रैंड को। फिर देस का हजारो लौंड़ा हमरे तरह माय-बाप से झूठ बोलकर उसको सानिया मिर्जा बनाने के लिए पानी की तरह पैसा बहाएगा।

लेकिन इ सब करके सानिया सुखी नय रह पाएगी। हम जैसन सीधा-साधा आदमी का सराप उसको जरुर लगेगा। किसी के आत्मा को दुखाना हंसी-ठठा नहीं है। अ देखिए न उसके बारे में भी तो यही सुनते हैं कि साल में आठ महीना तो बापे-माय के घर रहती है। अब भगवान जाने उसके घर का असलियत। ..फिर ..फिर..फिर..ए बिलॉगर साहब मेरा माथा घूम रहा है जी,आप कुछ कीजिए,कुछ राहत कीजिए,पंखा चलाइए। आप स्साला घाघ आदमी है,इ सब सुनकर फिर ब्लॉग पर पेल दीजिएगा लेकिन हम तो मरे जा रहे हैं। गलती हमरे से हुआ,हमको उसको उपन्यास-कहानी का किताब गिफ्ट करके पत्नी बनाने के बारे में सोचना चाहिए था तो हम लगे उसको सानिया मिर्जा बनाने।

...इ आप क्या कर रहे हैं,काहे बजा रहे हैं इ गाना आप अभी। हमरा करेजा काहे जला रहे हैं। जान गए थे कि उसका सगाई हो गया है। इधर सानिया का भी सोहरबा आज न कल लेकर रफ्फूचक्कर होगा फिर भी होस्टल फेस्ट में भूल जाते थे कि हमरे साथ इ सब हुआ है और गांड थै-थै करके नाचते थे- सानिया मिर्जा कट नथुनिया जान मारे लै..अब। बंद कीजिए अब इ गाना,आप हमरा उपहास कर रहे हैं। आपसे हम दुखड़ा रोए कि ब्लॉगर आदमी है,दर्द समझिएगा लेकिन आप भी चुतियापे पर उतर आए।..सॉरी,सॉरी..चलिए अब इ गाना बजा देते हैं- दिल तो बच्चा है जी,दिल सा कोई कमीना नहीं। दिल तो बच्चा है जी।.पार्क घूमके आते हैं,आजकल हमको देखते ही उ खोखने लगती है,एक चक्कर मार आएं..

(एक बिहारी फैन का दर्द वाया गोपालगंज)
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हमें पूरा भरोसा है कि इंटरनेट पर हिंदी लेखन और ब्लॉगिंग को लेकर मृणाल पांडे की जो समझ है, उसमें हम जैसे लोगों के लिखने से रत्तीभर भी बदलाव नहीं आएगा। इसकी वजह भी साफ है। एक तो ये कि वो जिस आयवरी टावर पर चढ़कर अपनी बात रख रही हैं, उसकी पहुंच शायद हमलोगों तक नहीं है। दूसरी बात कि लिख-पढ़कर किसी की भी समझ को फिर भी दुरुस्त किया जा सकता है या फिर खुद भी दुरुस्त हुआ जा सकता है। लेकिन जहां पूरा का पूरा मामला नीयत पर आकर ठहर जाए वहां आप इस बात की बिल्कुल भी उम्मीद नहीं कर सकते कि कुछ बदलने की गुंजाइश है। मृणाल पांडे इंटरनेट और ब्लॉग पर लिखी जा रही बातों, कंटेंट और मटीरियल को कितना पढ़ती है, ये मैं नहीं जानता। मुझे नहीं पता कि न्यू मीडिया पर बात करते हुए वो जब भी कुछ लिखती हैं, तो कैंपस में चेले-चुर्गों की तरह सुनी-सुनायी बातों के आधार पर बात करनेवाले मास्टरों की तरह ही राय बना लेती हैं या खुद भी उससे गुजरती हैं। लेकिन इतना तो तय है कि अगर वो पढ़ती भी हैं तो चुपचाप वहां से होकर गुजर जाती हैं। वो इस बात की जरूरत कभी भी महसूस नहीं करतीं कि अगर लिखी गयी बातों या पोस्ट को लेकर असहमति है तो सीधे कमेंट के जरिये अपनी बात रखें। यानी मृणाल पांडे वर्चुअल स्पेस में लगातार लिखनेवाले लोगों से संवाद बनाने के बजाय उनके प्रति व्यक्तिगत राय बनाना ज्यादा पसंद करती है। उसके बाद अखबारों के संपादकीय या फिर कॉलम में उसे उंड़ेल देना ज्यादा जरूरी और फायदेमंद मानती हैं।

ऐसा लगातार किये जाने से कंटेंट से कहीं ज्यादा दो माध्यमों के बीच पसंद-नापसंद का मामला बन जाता है और ऐसे में वो जो कुछ भी लिखती हैं, उसमें विश्लेषण के बजाय न्यू मीडिया को लेकर नापसंद के स्वर साफ तौर पर झलकते हैं। ये उनके हिंदुस्तान में रहते हुए संपादकीय में लिखे गये लेख में भी रहा और अब जनसत्ता के कॉलम में लिखे गये लेख में भी बरकरार है।

यानी न्यू मीडिया पर मृणाल पांडे ने अब तक जो कुछ भी लिखा है, उसे विश्लेषण समझने के बजाय उऩकी नीयत और नापसंद का मामला मानना बेहतर है। ये सब जानते हुए भी हम लिख रहे हैं और आगे भी लिखते रहेंगे क्योंकि हम नहीं चाहते कि किसी की नीयत और व्यक्तिगत पसंद-नापसंद का एक बहुत बड़ी संभावना के बीच घालमेल हो जाए। आगे जाकर वो जबरिया अवधारणा कहलाने की मांग करने लग जाए। मृणाल पांडे ये कोशिश आगे भी करती रहें, इससे बचने के लिए मोहल्ला लाइव पर ही एकलव्य (अगर वो कुंठासुर नहीं हैं तो इलाहाबाद राष्ट्रीय संगोष्ठी से उधार में मिला शब्द) नाम के एक साथी ने कमेंट किया है कि मृणाल जी जिस दिन इस नये माध्यम पर आएंगीं, उसी दिन उन्हें समझ में आ पाएगा कि मैनेज की गयी प्रतिष्ठा और मिले-मिलाये ज्ञान से आगे भी बहुत कुछ होता है। यहां एक-एक करके बड़े-बड़े क़ाग़ज़ी शेरों की असलियत निकल कर आ रही है। क्योंकि यहां भोपाल के निकट किसी गांव से लेकर बीच दिल्ली और सुदूर कनाडा के लोग एक साथ एक ही वक्त पर बिना किसी हस्तक्षेप के हिस्सा लेते हैं। संपादन के नाम पर सेंसर यहां नाम-मात्र के लिए होता है। यह किसी अख़बारी किले का सुरक्षित कालम नहीं है कि आप तो जो मर्ज़ी कह दें और प्रतिक्रियाओं में अपने ‘कद’ के मुताबिक काटा-पीटी कर लें।

एकलव्य मृणाल पांडे को ये सुझाव उस थीअरि (थ्‍यो‍री) के तहत दे रहे हैं, जिसमें लड़की को अबूझ और अल्हड़ बताकर, उसके अल्हड़पन को दूर करने के लिए शादी जैसी जिम्मेदारी में बांधने की बात की जाती है। गांव-कस्बे के आवारा लड़कों को भी बाप के पैसे उड़ाने पर इसी थीअरि के तहत फैक्ट्री, खेत या दुकानों में जोत दिया जाता है। साहित्य में इसे अनुभूत सत्य का ज्ञान कराना कहा जाता है, जिसे कि मुहावरे के तौर पर जे गुड़ गंजन सहे, वही मिसरी कहाय के तौर पर समझा जा सकता है। एकलव्य ये उम्मीद कर रहे हैं कि अगर मृणाल पांडे ने वर्चुअल स्पेस में लिखना शुरू कर दिया तो आये दिन अपनी नीयत और नापसंद के बूते अखबारों के कागज खोटा नहीं किया करेंगी। जो भी लिखेंगी वो न्यू मीडिया के विश्लेषण का हिस्सा होगा। एकलव्य के इस सुझाव में एक हद तक सच्चाई तो है लेकिन एक खतरनाक स्थिति भी है। ये स्थिति है कि दिल्ली से बाहर बैठा मास्टर दिल्ली के स्टूडेंट से टाइप करा-करा कर किताबों के हिस्से ब्लॉग पर डलवा रहा है। हसरत बस इतनी भर की है कि वर्चुअल स्पेस में वो चर्चा में बने रहें और उन्‍हें आउटडेटड न समझा जाए। अब ऐसी स्थिति में कोई क्या महसूस कर सकता है कि इंटरनेट और ब्लॉग लेखन में क्या किया जाए और कैसे ये एक संभावनाओं से लैस माध्यम है। इससे तो किसी की मेहनत ही हलाल होती रहेगी। इसलिए एकलव्य का सुझाव ईमानदार सच होते हुए भी खतरनाक स्थिति की तरफ मुड़ता है। ब्लॉग के विस्तार के लिए कोई ऐसी कोशिशें न ही करे तो बेहतर होगा।

बहरहाल, इस चक्कर में पड़ने के बजाय हम सिर्फ इस बात पर विमर्श करें कि मृणाल पांडे के ऐसा करने के पीछे कौन सी रणनीति काम कर रही है? कहीं ये पसंद-नापसंद और नीयति से आगे का मामला तो नहीं?

न्यू मीडिया और ब्लॉगिंग पर लिखे उनके लेखों में अब तक दो बातें तो साफ तौर पर दिखाई देती हैं – एक तो ये कि उनके लिखने का पहला ध्येय होता है कि वो वर्चुअल स्पेस में लिखनेवाले लोगों को गाय-गोरु की तरह हांकने का काम करें। पूरा लेख हुर्र, हुर्र और धत्-धत् की शैली में होता है। इस लेख के जरिये वो कई बार पर्सनल खुन्नस भी निकालने में नहीं चूकती हैं जिसे कि हमने हिंदुस्तान के संपादकीय में लिखे लेख को पढ़ते हुए समझा है। एक-दो वेबसाइटों के बहाने कैसे उन्होंने पूरे हिंदी वेबमीडिया को परिभाषित करने का काम किया, ये हम सबसे छिपा नहीं है। इसलिए ये लेख पाठकों के प्रति ईमानदारी बरतते हुए किसी भी तरह की नॉलेज शेयरिंग के बजाय अखाड़ों के पैंतरे बतलाने के लिए लिखे गये। बदले की उस भावना के तहत लिखे गये कि तुम्हारे पास कांव-कांव करने के लिए ब्लॉग या वेबसाइट का छज्जा है, तो मेरे पास दहाड़ने के लिए संपादकीय और कॉलम के डेढ़ से दो कठ्ठे की जमीन में फैली अटारी है। यकीन न हो तो जनसत्ता के लेख की भाषा में ही देख लीजिए, ब्लॉग-जगत के चंद नियतिहीन कोनों में हिंदी के कुछ मीडियाकर्मी न्यूयॉर्क की सड़कों पर पखावज बजा कर कीर्तन करने वाले हरे-कृष्ण अनुयायियों की तरह कुछेक सुरीले-बेसुरे नारे जरूर उठा रहे हैं; पर उनके सुरों में दम नहीं। हो भी कैसे? जिन अखबारों को वे इन पाप-कर्मों का दोषी बता रहे हैं, वहां नौकरियां खुलते ही वे सब हो हो कर उमड़ कर हर तरह की घिनौनी चिरौरी और सिफारिशी प्राणायाम साधने में तत्पर हो जाते हैं।

अब ऐसे में वो ब्लॉगर और वेबसाइट के लोगों पर इस बात का आरोप लगाती हैं कि सब अपनी-अपनी भड़ास निकाल रहे हैं और जजमेंट देती हैं कि इन सुरों में दम नहीं है तो सवाल तो किया ही जाना चाहिए कि आप कॉलम का इस्तेमाल इनसे अलग किस रूप में कर रही हैं?

दूसरी बड़ी बात है कि मृणाल पांडे न्यू मीडिया के तौर पर विस्तार पानेवाली साइटों और ब्लॉग की संभावना को साफ तौर पर खारिज कर रही हैं। वो इसे अखबार के विशाल पाठक वर्ग के बीच जो कि इंटरनेट के पाठकों के मुकाबले कई गुना ज्यादा है, लाना ही नहीं चाहतीं। अभी तो इसका कायदे से विस्तार भी नहीं हुआ है और ये पारिभाषित करने और अंतिम रूप में देखा-समझा गया मान ले रही हैं। ऐसा ही काम कभी मैथ्यू आर्नाल्ड ने the best has been said लिखकर किया था, जिसका शिकार एक खास तरह का एलीट क्लास भारत में भी मौजूद है। ये अलग बात है कि अवधारणा और व्‍यवहार के स्तर पर ये बुरी तरह पिट चुका है। मृणाल पांडे क्या, आज एक औसत दर्जे के पढ़े-लिखे इंसान को पता है कि ब्लॉग के जरिये जो कुछ भी लिखा-पढ़ा जा रहा है, वो सूचना और सरोकार के स्तर पर कितनी जरूरी कार्यवाही है। मैं गिनती गिनाने की शैली में बात नहीं करना चाहता। लेकिन एक माध्यम के तौर पर मृणाल पांडे को इसमें कहीं कोई संभावना नहीं दिखती है? उन्हें सिर्फ चंद लोगों का कांव-कांव ही दिखता है। अगर ऐसा ही है तो क्या ये सिर्फ इंटरनेट पर लिखी जा रही हिंदी सामग्री का खोटापन है या फिर ये एक तरह से मृणाल पांडे के व्यक्तिगत रुझान और मुद्दों के प्रति दिलचस्पी को भी रेखांकित करता है।

दुनियाभर के लोग न्यू मीडिया के विस्तार के लिए सॉफ्टवेयर पर काम कर रहे हैं। हजारों की संख्या में सॉफ्टवेयर इंजीनियर से लेकर टेक्नोसेवी लेआउट और बाकी तमाम चीजों को लेकर काम कर रहे हैं। जिंदगी भर एक लेख नहीं लिखनेवाला बंदा भी दम मारकर दो दिन-तीन दिन में एक पोस्ट लिख ले रहा है। सैकड़ों स्त्रियां पति-बच्चों की रेलमपेल जिंदगी के बीच से समय चुराकर लिख-पढ़ रही हैं, मृणाल पांडे को ये सब कुछ भी नहीं दिख रहा? आप कहेंगे हद है। हद उनके जानने, समझने और दिखाई देने में नहीं है। हद इस बात को लेकर है कि सब कुछ जानते हुए भी वो इसे पाठकों तक नहीं ला रहीं। वो इन सब बातों से अवगत कराने के बजाय तुक्कम-फजीहतों को सामने ला रही हैं, अपने स्तर से रीक्रिएट कर रही हैं ताकि आम पाठकों का इससे जुड़ने के पहले ही मोह भंग हो जाए। नहीं तो जनसत्ता के जिस लेख में जो बातें वो कर रही हैं उसमें चंद लोगों की करतूतों के अलावा भी सैकड़ों ऐसे मुद्दे हैं जो कि उनकी अब तक की सरोकारी पत्रकारिता के मिजाज से मेल खाते हैं। लेकिन उन पर नीयत हावी है और विश्लेषण का इरादा कोसों दूर पीछे छूट गया है।

वैसे ब्लॉगिंग की तमाम उपलब्धियों के बीच एक बड़ी उपलब्धि है कि उसने मेनस्‍ट्रीम मीडिया को अपने भीतर झांकने के लिए दबाव बनाना शुरू किया है, जिसे कि वो कभी नहीं लिखतीं। ये ताकत मृणाल पांडे सहित देश के दूसरे किसी भी पत्रकार की ताकत से कहीं ज्यादा है, जो तिकड़मों से झल्ला कर सेफ जोन में आने पर लिखने के बजाय पहले से ही विश्‍लेषण के तौर पर लिखता-समझता है। आज संख्या कम है, जिसके लिए वो नये नये मेटाफर इस्तेमाल कर ले रही हैं लेकिन कल यकीन मानिए ये संख्या गिनती के बाहर होगी। हम कामना करते हैं कि ऐसे वक्त में उनकी नजर का दायरा बढ़े और उनकी लेखनी से चंद शब्द जल्द ही गायब हो जाए।

मूलतः प्रकाशितः मोहल्लालाइव
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नेशनल फिल्म अवार्ड 2008 के जूरी मेंबर सुधीश पचौरी के बयान से फिल्म और मीडिया जगत में खलबली मच गयी है। सुधीश पचौरी के इस बयान ने लोगों के इस शक को और पक्का किया है कि सालों से सिनेमा के प्रोत्साहन के लिए दिए जानेवाले राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार का दामन साफ नहीं है। फिल्मों के लिए दिए जानेवाले पुरस्कारों को लेकर दुनियाभर की कहानियां और विवाद सुनने को मिलते रहते हैं। अभिनेता आमिर खान इस प्रक्रिया में न शामिल होने की जब भी वजह बताते हैं तो उसमें कहीं न कहीं इसकी विश्वसनीयता को लेकर उठाया गया सवाल शामिल होता है। लेकिन अबकी बार बतौर जूरी मेंबर सुधीश पचौरी ने जाहिर किया है कि उन पर दबाव बनाने के लिए उन्हें फोन किया गया।

सुधीश पचौरी ने पुरस्कारों की घोषणा के दौरान कहा कि- ये बात हम इसलिए कह रहे हैं कि मानक हमारे इंडीपेन्डेंट रहे हैं। इसलिए मेरी सिफारिश सरकार से उतनी नहीं है जितनी कि स्पर्धियों से है कि वे मेहरबानी किया करें कि ऑब्जेक्टिविटी को लेकर सम्मान उनके मन में होना चाहिए। सुधीश पचौरी के इस बयान को लेकर सूचना प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी ने कहा कि- उन्हें ये स्पष्टीकरण करना चाहि कि ये जो फोना-फोनी हुए हैं,ये मंत्रालय की तरफ से क्या किसी ने किया है तो मुझे तो बता दें। ये तो मेरे कमरे में आकर बता ही सकते हैं।

अंबिका सोनी ये भले ही समझ रही हो कि पचौरी ने इस मामले में किस ओर से दबाव बनाया गया नहीं बताया लेकिन उन्होंने पहले ही साफ कर दिया कि वो अपने इस बयान में सरकार से कहीं ज्यादा उन प्रतिस्पर्धियों से सिफारिश कर रहे हैं जिनके मन में ऑब्जेक्टिविटी को लेकर सम्मान नहीं है। फोन के जरिए दबाव बनाने के काम सरकार और मंत्रालय में शामिल लोगों ने किया या फिर फिल्म इन्डस्ट्री के लोगों ने,संभव है कि आगे चलकर ये मामला साफ हो जाए। लेकिन फिलहाल इतना तो जरुर साबित हो गया है कि पुरस्कारों के पीछे भारी तोड़-जोड़ का खेल चलता रहता है। प्रतिस्पर्धियों की ओर से दबाव बनाए जाने की बात को अगर हम राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से आगे जाकर बाकी के भी पुरस्कारों में जाकर देखें तो इस बात की भी एक संभावना बनती है कि उसके भीतर भी भारी मैनीपुलेशन का काम होता आया है। वैसे भी देखा जाए तो आज सम्मान किसी भी सिनेमा और उससे जुड़े शख्स को सराहने,प्रोत्साहित करने या सम्मानित करने भर का मामला नहीं रह गया है। पुरस्कार मार्केंटिंग का एक बड़ा हिस्सा बन गया है जो कि आनेवाली फिल्मों में अभिनेता,अभिनेत्री, प्रोड्यूसर सहित बाकी के लोगों को लेकर की जानेवाली स्ट्रैटजी को निर्धारित करता है। सिनेमा मार्केटिंग जब अवार्ड ओरिएंटेड होने लग गए हैं तो ऐसे में इसका मार्केट टूल के लिए इस्तेमाल किया जाना अब मामूली बात समझा जाने लगा है।

ऐसे में सम्मान,स्वाभिमान,प्रोत्साहन जैसे भाव बहुत ही पीछे धकेल दिए जाते हैं। समस्या इस बात को लेकर है कि आज सिनेमा के खेल के भीतर जिस तरह से डिस्ट्रीब्यूशन की राजनीति हावी हो रही है,प्रमोशन को लेकर मार-काट मची है ऐसे में पुरस्कार एक जरिया है जिसके सहारे ये सारे ताम-झाम खड़े किए जा सकते हैं। इसे आए दिन कुकुरमुत्ते की तरह उग गए सम्मान देनेवाली संस्थानों और फोरमों के संदर्भ में देखा जा सकता है।

इसलिए यहां सवाल सिर्फ किसी भी अवार्ड को तमाम तरह के आरोपों और गड़बड़ियों से मुक्त करने भर का नहीं है बल्कि इन पुरस्कारों के जरिए जो मार्केटिंग के जाल बिछाए जाते हैं उसे समझने की जरुरत है। नहीं तो सिनेमा के प्रतिस्पर्धी भी जानते हैं कि जितनी राशि उन्हें नेशनल फिल्म अवार्ड की ओर से मिलनी है उससे उनका दस दिन भी गुजारा नहीं होना है।

ये पुरस्कार उन्हें रिकग्नीशन के लिए भी नहीं चाहिए। उन्हें ये पुरस्कार सिर्फ इसलिए चाहिए कि वो इसे प्रतिस्पर्धा की इस दौड़ में हथियार का रुप दे सकें। नहीं तो रंग दे बसंती,तारे जमीं से लेकर लगान तक को लेकर आमिर खान इसमें कूद नहीं पड़ते। आपकी अदालत के दिसंबर एपीसोड में रजत शर्मा ने सवाल भी किया कि आप इस तरह के समारोह औऱ अवार्ड में इसलिए नहीं पड़ना चाहते कि आपको सीधे ऑस्कर चाहिए? इसका जबाब देते हुए आमिर ने कहा कि वो फिल्में ऑडिएंस के लिए बनाते हैं और अगर ऑडिएंस उसे सराहती है तो फिर अपना काम तो हो गया। आमिर खान ने जिस मासूमियत से बात कही है संभव है कि वो बात इतनी मासूम नहीं है। लेकिन इस बात की समझ तो जरुर पैदा करती है कि अवार्ड को लेकर भारी राजनीति होती है। साथ ही इस राजनीति से अलग हटकर भी अपनी पहचान और ऑडिएंस के बीच पकड़ बनायी जा सकती है।..तो क्या आए दिन जो दुनियाभर के चैनलों,एफएम चैनलों,संस्थानों और ब्रांड़ों की ओर से फिल्मों को सराहे जाने के नाम पर अवार्ड की घोषणा की जाती है वो इन्डस्ट्री में पैर जमाने का एक सुविधावादी तरीका है,डिस्ट्रीब्यूशन और मार्केटिंग के लिए हथियार मुहैया कराने जैसा है कि तुम्हें दागने के लिए तोप नहीं मिले तो क्या हुआ,हम तुम्हें हथगोला दिए देते हैं।

सुधीश पचौरी के इस बयान के बहाने हमें सिनेमा के भीतर पुरस्कार के जरिए मार्केटिंग,नेक्सेस,लॉबी और मार-काट की प्रतिस्पर्धा को समझने की जरुरत है। अगर सिनेमा शुद्ध रुप से व्यावसायिक विधान है या फिर उस रुप में बनाने की कोशिशें जारी है तो भी कुछ तो मानक तय करने ही होंगे। पहचान और सराहे जाने के नाम पर दिए जानेवाले पुरस्कारों को लेकर की जानेवाली तिकड़मबाजी तो नहीं ही चलेगी। नहीं तो जहां तक ऑब्जेक्टीविटी के सम्मान का सवाल है तो मुझे नहीं लगता कि करोड़ों(बहुत जल्द ही अरबों) रुपये के इस खेल में शामिल लोगों के लिए ये बात बहुत महत्व की लगती हो।..

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सुधीश पचौरी ने उठाया सवाल
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रवीशु कुमार हमसे पूछ रहे हैं कि आप एनडीटीवी इंडिया से कब बोर हो जाते हैं? मेरी अपनी समझ है कि अभी भी ये देश का अकेला हिन्दी चैनल है जिसके बारे में ये नहीं कहा जा सकता है कि- ये न पूछिए कि कब बोर नहीं होते हैं? इस चैनल का अंदाज अभी भी बाकियों चैनलों से कुछ मायनों में अलग है जो कि मीडिया और चैनल को लेकर जेनरल पर्सेप्शन से अलग करता है। ये अलग बात है कि कई बार लगता है कि ये भी आजतक और इंडिया टीवी के रास्ते पर चलने लग गया है। फेसबुक पर पूछे गए इस सवाल को लेकर लोगों ने जो जबाब दिए हैं उसे पढ़ते हुए लगता है कि उनके भीतर सालों से कुछ जमा है जो कि आज मौका मिलते ही कमेंट के तौर पर बाहर निकल रहा है। किसी-किसी के कमेंट जमे हुए थक्के रुप में। इसलिए वो एक बार कमेंट करने के बाद दोबारा कमेंट कर रहे हैं। वैसे भी चैनलों ने हमें मौका ही कब दिया है कि हम उनके बारे में कुछ बोल-बतिया सकें,उन्हें-उनतक अपनी बात पहुंचा सकें। सालों से जो मन आया,सुविधा हुई दिखाते रहे और अब कहने लग गए हैं कि ऑडिएंस जो देखती है वही तो दिखाएंगे न। एक गरीब की तरह ऑडिएंस भी मारा जाता है।. ये तो फेसबुक और ब्लॉग के जमाने में ही संभव हो सका। कुछ लोग इस चैनल में नया और बदलाव के तौर पर वो सबकुछ देखना चाहते हैं जो कि निजी समाचार चैनल देखते हुए दूरदर्शन की कमी को पूरी कर दे।

ये तय बात है कि फेसबुक पर रवीश कुमार के बहाने एनडीटीवी इंडिया को जो भी राय दे रहे हैं उसे मानना,लागू करना चैनल के लिए संभव नहीं है। क्योंकि रवीश कुमार जो कुछ भी जानना चाह रहे हैं वो एक ब्रॉडकास्टर/मीडियाकर्मी और ऑडिएंस के बीच के संबंध की हैसियत से जानना-समझना है। इसे अमल करना मार्केट पॉलिसी,एचआर और चैनल एडमीनिस्ट्रेशन का हिस्सा है। ऐसे में ही सौरभ सेनगुप्ता ने सवाल किया है कि जब कुछ बदलना ही नहीं है तो फिर पूछा क्यों जा रहा है,कोई कुछ सुनता ही नहीं है। रवीश कुमार अपने और ऑडिएंस के बीच के संबंध की याद दिलाते हैं। कुछ बदलेगा या नहीं इस बहस और नीयत से उपर उठकर कमेंट करें तो इतना तो जरुर होगा कि चैनल से जुड़े लोगों को इस बात की जानकारी हो सकेगी कि टीआरपी के आंकड़ों के बीच ऑडिएंस के मिजाज हैं,पसंद-नापंसद है जिसे जानना-समझना जरुरी है। रवीश कुमार पहले भी इस तरह के मसलों पर अपने फेसबुक दोस्तों से राय मांगते आए हैं। फेसबुक पर टेलीविजन के अलग-अलग मुद्दों पर बहस के लिए आजकल अजीत अंजुम भी सक्रिय हैं। टीआरपी,एंकर की गलतियों से लेकर कार्यक्रम को लेकर बहस शुरु की। आप भी अपनी राय दें,शायद हमारा टेलीविजन कुछ हद तक सुधर जाए। फिलहाल तो एनडीटीवी इंडिया को लेकर-

Ravish Kumar
आप एनडीटीवी इंडिया से कब बोर हो जाते हैं? कोई एक बदलाव जो आप चाहते हों। सिर्फ एक। जैसे- वॉयस ओवर, स्टोरी लिखने का तरीका, सुपर्स-टिकर्स, स्टोरी का चयन, चैनल का रंग, विषय। दो शब्दों में जवाब दे सकते हैं। क्यों बोर होते हैं इसके लिए लंबा लेख चलेगा।


View all 57 comments
Pankaj Sharma 11 hours ago
Ndtv is also going on other channel's track. Means more masala and less information. Ndtv should remain the inormation oriented and content of international also increase.

Prabhash Dutta 11 hours ago
Desh ke dwipakshiya mudde pichhe chhut jate hain, International Affairs bhi dhang se cover nahin kiye jaate, Kai baar story writing theek nahin hoti .... aisa lagta hai ki bilkul hi inexperienced copy writer ko bitha rakha hai ....

Vicky Tiwari 10 hours ago
Ravish bhaiya namashkar!
NDTV india
khabar ke mamle me apna ek alag mukam banaya tha, magar in dino woh 'to entertain' pe jyada focus ho gaya hai. NDTV ko India tv na banaye.
auron ke mukabale apki story sankshep me hoti hai usse thoda vistaar de. story vagairah achchi likhi jati hai. विनोद दुआ ki vaani me aoj hai unki prastuti behtareen hoti hai. unke karyakramon ko jari rakhen. ek कमाल ke 'खान' hai jo gahe-begahe dikh jaya kartein hai, unko bhi koi karyakram prastut karne ka avsar de, woh Debang ke dwara rikt ki gai pad ko bakhubi sambhal sakte hai. supers aapke akarshak hoten hai jinpar nigahen barbas chali jati hai. ticker ko thoda rochak banayen aur kuch colours use karen. graphix pe thoda dhyan dena hoga.
aur kya kiya ja sakta hai? aur soch kar punah apko bata ta hun.

Kirti Chauhan 10 hours ago
aapne logo ke mantavya janane ki tasdee li he is liye aaka dhanyavad... jab bhi cricket match hota hai tab me bore hota hu, kyuki ndtv par cricket news ka atirek ho jata hai, 24 ghante me se ek yaa do ghante cricket ke liye thik hai.... baki to aapke haath me hai.....!!!!

Arpan Raut 10 hours ago
india tv ki barabari na kare... matlab bharipan barkarar rakhe

Vaibhav Saxena 10 hours ago
Ravish G aap puch rahe hain isliye bata raha hun.. aapke jitne bhi naye anchors hain unmein se jyadatar news ki seriousness ko nahin samajhte most importantly Deepti Sachdeva and Sushil Bahuguna.. "I can't forget a news about a MiG crash.. The Pilot had dead.. and oh God, Deepti was reading the news with smiles.." I felt very bad.. Bhagwaan ki daya se meri feelings abhi mari nahin..
Sorry, if anybody feel bad, but according to me, its all important for a news-reader.. You must feel the importance or seriousness of a news..

×Vineet Kumar 10 hours ago
व्ऑइस् ओवर के मामले में एनडीटीवी बाकी चैनलों की नकल पर उतर आया है। एक बात। दूसरी बात शाम के समय जब हम खुद बोर होते हैं और इससे बचने के लिए एनडीटीवी पर जाना चाहते हैं तो वो भी बोर करता है। विनोद दुआ लाइव के पहले तक। ये अलग बात है कि अब विनोद दुआ भी बोर करने लगे हैं।..मनोरंजन भारती को देखते ही चैनल बदलने की मजबूरी बढञ जाती है।...

Amit Kumar Tripathi 10 hours ago
ek khabar ek zindagi ka sach kehti hai aur vo sach is glamourised form mein kabhi nahi ho sakta, ye roshniyon mein aur mastiyon mein dooba huaa sach humaara to nahi ho sakta, katrina salman se shaadi k arti to bhi hum vahi hain aur na kare to bhi to kya baat hai ki media ko inhi baaton mein interest hai Idon't know ki NDTV ko bhi kyun bimari si ho gayi hai is Gossip ki, bcoz humare liye NDTV maane khabarein jo zindagi se judi hoti hain aam zindagi se.

Sanskrita Pandey 10 hours ago
ravish ji,being a entertainment reporter i feel in entertainment there should be more effective and influencive vo.i dnt like the way of ur vo artist,espl grls.but i must say that i seriously like ndtv's generel and crime bultns....

Dhananjay Kumar 10 hours ago
सर जिस तरह से विनोद दुआ साहब का एंकर रीड इतिहासिक भूमिका के साथ रहता है, अगर उस तरीके का एंकर रीड सुवह की बुलेटिन में करने की कोशिश करे तो मेहरबानी होगी । दर्शकों को सुवह शाम खबर के साथ ज्ञान भी मिलेगा ।

Purnendu Pritam 10 hours ago
जब खबर को खबर के तरह न पेश किया जाये, उसे नाटकीय अंदाज में दिखाया जाये, जैसा की अभी लगभग सारे चैनल टीआरपी की होड़ में खबरों को मशाला मार कर पेश करते है।
ऐसी तर्ज पर जब एनडीटीवी इंडिया खबरों को दिखाते हैं तो हम चैनल बदलने को मजबूर हो जाते है.... बोर हो जाते है।

Arvind Batra 9 hours ago
कुछ नया करते रहिये..कभी खुशवंत सिंह जी की शैली में थोडा रोमांटिसिज्म भी ट्राई करिए. हल्का व्यंग भी चलेगा. कटाक्ष तो आप से बेहतर कोई नहीं करता. आप सब से अलग है.

Dipak Parmar 8 hours ago
need some aggression

Amit Yayavar 7 hours ago
मुझे तो हिंदी मई से सबसे अच्छा लगता है | ज्यादा लोगो को अच्छा लगने के लिए कुछ हल्का होना पड़ेगा | मुझे नही लगता आपके पास इसकी गुंजायश है|

Chhupa Rustam 4 hours ago
देखो मित्र,
किसी को बताना मत..
एक तो जब कोई ऐसा व्यक्ति स्क्रीन पर आ जाए जो बोले कम और हकलाए ज्यादा...
तब मैं ये सोचने को मजबूर हो जाता हूँ कि आखिर NDTV की क्या मजबूरी है जो प्राईम टाईम में भी ऐसी गलती करते है,और जब साथ में कोई ऐसा व्यक्ति भी एंकरिंग कर रहा हो जिसकी जुबान केस्ट्रोल ऑयल पीकर चलती है, तब वो अटकल ज्यादा अखरती है,अगर विवादास्पद होने की उम्मीद हो, और अगर आप चाहे तो मेरे कमेन्ट को मिटा भी सकते है,

Chhupa Rustam 4 hours ago
एक जब लगे की अब NDTV जैसा महान चैनल दूसरे सनसनी ब्रांड चंनेलो की कॉपी कर रहा है,
बार बार एक ही लाइन रीपीट करना, स्क्रीन पर बड़ा बड़ा लिखना, जैसे अनपढ़ और गंवारो की VIEWERSHIP बटोरने का इरादा हो...
मुझे याद नहीं कब, पर ध्यान है कि एक बार NDTV पर भूत-प्रेत की कोई खबर दिखाना भी लोगो में चर्चा का विषय बन गया था..

Chhupa Rustam 4 hours ago
जब दूसरे चैनल पर चलने वाली खबर को बड़ी खबर माना जाए... अपनी अकल से कम काम लिया जाए...

Chhupa Rustam 4 hours ago
जब भड़ास जैसे ब्लॉग पर NDTV के स्ट्रिंगर की पोलखोल जानकारी मिलती है तो लगता है, कि जमीनी स्तर पर पत्रकारों के चयन में NDTV भी बाकी घटिया चंनेलो के तरीके से ही निर्णय लेता है...

Gopal Chakravarti 4 hours ago
throw out barkha dutt..after her tirade..post IPL auctions..she shud be shifted to GEO TV

Shahid Siddiqui 4 hours ago
टीआरपी के रेस में सब जायज है, हां...लेकिन फिलहाल एनडीटीवी कुछ बेहतर है जिसे दर्शक बर्दाश्त कर सकते हैं.

Sarvesh Upadhyay 4 hours ago
NDTV के जो special programs होते हैं वो बहुत अच्छे होते हैं. लेकिन राजनितिक समाचारों में वो neutral नहीं रह पाते हैं. उनकी प्रस्तुति biased लगती है. किसी एक पार्टी विशेष के प्रति नरम और किसी के प्रति गरम रुख. महंगाई मार रही है लेकिन रुख नरम ही है. याद है वो मजाक भरा हसी जब एक पार्टी की हार पर हसी जा रही थी पिछले लोक सभा चुनाव के दौरान?

Saurabh Sengupta 3 hours ago
रावीष जी? आपके रहते ऐसा हो रहा है?
आप ऐसे सवाल क्यों कर रहे ... क्या आप UNDER-PRESSURE है? YA! आपके नीचे, एडिटर और प्रोडूसर आपकी नहीं सुनते ... ? ———

-Ranjan Rituraj 2 hours ago
I agree with Sarvesh Jee , In Loksabha election NDTV - INDIA journalist MANORANJAN BHARATI was having extreme soft corner for LALU PRASAD - It was extremem visible , You can not play such biasness based on your CASTE & CREED , You will have to be answerable to INDIAN viewers .

Juzar Vora about an hour ago
when advertisement is on, otherwise every thing is up tothe marke, i like vinod dua live it is the best, it is the mile stone of journalism....

Atul Kanakk about an hour ago
please introduce some programme on contemporary poetry.

Pankaj Bengani about an hour ago
मुझे तो एनडीटीवी द्वारा खबरों की बजाय दृष्टिकोण पेलना अखरता है. समाचार दिखाईए ना! यह टिप्पणी विशेष रूप से दुआ साहब के लिए है. मुझे सबसे अधिक वे ही बोर करते हैं.

Chandan Kumar about an hour ago
मेरे मुताबिक़.......स्टोरी लिखने का तरीक़ा...

Chandan Kumar about an hour ago
मुझे भी लगता है, एनडीटीवी न्यूट्रल नहीं रह पाता है...एंकर पार्टी विशेष की बात को जस्टिफाई करने लगते हैं...ख़बर दिखाइए किसी की तरह से प्रवक्ता बनने की क्या ज़रूरत है....कई दफा एंकर्स ने किसी पार्टी विशेष की बात जस्टीफाई की......अच्छा नहीं लगा....

Pankaj Bengani about an hour ago
एनडीटीवी [विशेष रूप से इंडिया] न्यूज़ कम व्यूज़ चैनल अधिक है. दुआजी को हर जगह खराबी ही नजर आती है!

GArima TiwaRi 48 minutes ago
story ka chayan...

GArima TiwaRi 48 minutes ago
asli kalewar khota sa najar aa raha hai....

Ravish Kumar 43 minutes ago
सौरव जी सवाल इसलिए नहीं कि कोई सुनता नहीं है। हम दर्शक की राय जानने के लिए कर रहे हैं। पहले भी ऐसा किया है। इसी फेसबुक पर। लेकिन ज्यादातर लोग सब्जेक्टिव हो गए हैं। हमने सिर्फ एक चीज जो आपको अखरती है, उस पर राय मांगी थी।

Ravish Kumar 41 minutes ago
पंकज, हां हम कई मायनों में व्यूज़ चैनल हैं। हमारी सोच है कि दर्शकों के एक बड़े तबको को व्यूज पसंद आता होगा। यह हमारा भ्रम भी हो सकता है। चंदन की भी बात आपसे मिलती जुलती है। अतुल जी कविता पर कोई कार्यक्रम शुरू नहीं कर सकते। दूरदर्शन भी नहीं बनना चाहता। कुछ लोगों के अलावा कविता के कार्यक्रम में दिलचस्पी नहीं होगी। हां अगर कोई इसे क्रांतिकारी तरीके से बना दे तो और बात है। फिलहाल मेरे पास ऐसा आइडिया नहीं है।

Rahul Pandey 39 minutes ago
har akhbar me apna edit page hota hai. jo news par viws rkhta hai. lekin news chnlls se ye page gayab sa hota lagta hai NDTV ke alawa. to khabar par najar rakhni hi hogi, lekin ye bhi gaurtalab hai ki hamare desh me pankaj bhai jaise log jyada hain, to unka bhi samman kiya jana chahiye. hard news ki sripting hard news ki hi tarah ho, ant me ek commnt kiya ja sakta hai, aisa na ho ki hard newd story lage...

Rahul Pandey 38 minutes ago
aur abhi to ye kafi lamba chalega, kuch aur vichar ayenge

Pankaj Bengani 37 minutes ago
स्पष्टिकरण के लिए धन्यवाद रविशभाई.

Ravish Kumar 33 minutes ago
इन सवालों के जवाब से दर्शक के मन की बातों का पता चलता है। वो जानना ज़रूरी होता है। मैं इन संवादों के बाद अपने प्रदर्शन को बदलने की कोशिश करता हूं और सारे वरिष्ठ संपादकों को आप लोगों की राय पढ़वाता भी हूं।

Prabhat Gopal Jha 31 minutes ago
एनडीटीवी बेहतर है। थोड़ा सा फीचर बेस्ड ज्यादा है। थोड़ी आक्रामकता चाहिए। लगता है कि जैसे इलिट क्लास का स्तर बनाए रखने के चलते आम लोगों से दूर होता जा रहा है। थोड़ी रिपोर्टिंग में आक्रामकता चाहिए। बस। लगे कि असली खबर यही दे रहा है, असली खबर। बस। ये अहसास होना जरूरी है।

Rahul Pandey 30 minutes ago
prabhat ji se sahmat...

Pankaj Bengani 28 minutes ago
वैसे मुझे एनडीटीवी के "व्यूज़" से परेशानी नहीं है. परेशानी यह है कि खबर दबती जा रही है. विचार उभरते जा रहे हैं. मतभिन्नता तो होगी ही, तो जिनके विचार नहीं मिलते वे दर्शक सोचेंगे कि यार क्या देखें?!?

कहने का तात्पर्य यह कि विचार भी प्रगट कीजिए [आपका चैनल है जो चाहें करें] परन्तु समाचार से मूँह मत मोडिए. उन्हें प्राथमिकता दीजिए. विचारों के लिए अलग से दुआ साहब से कमेंटरी करा लीजिए :) :)

रविशभाई, मेरी सोच आपके चैनल से कम ही मेल खाती है, लेकिन स्वीकार करना चाहूंगा कि खबर देखने के लिए पहले वहीं जाता हूँ या फिर अंग्रेजी चैनलों की शरण में. बाकी चैनल शोर शराबा है. परंतु आजकल व्यूज इतना भारी हो गया है कि न्यूज दब गया है. इसलिए अब कम जाता हूँ.

Saurabh Sengupta 27 minutes ago
चलिए, जवाब तो दिया :) ... आप कुछ भी लिखे, टिप्पणी मिल ही जाती है│ लेकिन करेंगे क्या इन सब राय का ... ? पहले भी ऐसे सवाल कर चुके है ... जवाबो में तब और अब में कोई अंतर नहीं│ इसीलिए मैंने पुछा था ... खैर! NDTV का स्तर गिर भी रहा हो तो आप क्या कर लेंगे ... क्या सवाल/जवाब से स्तर और अच्छा हो जाएगा? ऐसा दिख तो नहीं रहा —— बाक़ी आप ज़्यादा समझ रखते होंगे│

Ashok Chakradhar 20 minutes ago
अशोक चक्रधर जैसे किसी व्यक्ति से जीवंत कार्यक्रम कराइए रवीश जी, बोरियत दूर होगी। लवस्कार।

Jitesh Kumar Jha 19 minutes ago
Sir Hindi media jagat mai NDTV ek aisa channel hai jissne` aaj bhi Media ko kisi hadd tak Zinda rakha hai... iske alawa ginati k 1 se 2 channel hai jo apni peshkash mai imandaari dikhata hai.. Bash Apni Imaandaari ko banaye rakhe... thats all..

Ravish Kumar 19 minutes ago
पंकज की बातों में दम है। सौरभ ये जो आप क्या कर लेंगे टाइप सवाल है उससे असहमत हूं. जान लेंगे न कम से कम आप क्या सोचते हैं। और मुझे ये लिखना पंसद नहीं आया कि आप कुछ भी लिखते हैं टिप्पणी मिल जाती है। ये टिप्पणीकारों का अपमान है। मैंने तो टिप्पणी मांगी है। आप लोगों से कहा है कि दीजिए। शाम छह बजे से रात के साढ़े ग्यारह बजे तक मनोरंजन का प्रतिशत पांच फीसदी भी नहीं होता होगा। साढ़े सात बजे के बाद कभी कभार ही मनोरंजन का कुछ चलता है। हम मनोरंजन खराब दिखाते होंगे यह मैं मान सकता हूं लेकिन मनोरंजन से कैसे मुंह मोड़ सकते हैं। अजीब बात है। वैसे ही कुछ लोग बोल देते हैं कि यू ट्यूब चलता है। मेरी राय में चलना चाहिए। पहले मैं भी यू ट्यूब को आपके नजरिये से देखता था, लेकिन बाद में समझता गया कि हमारे समय का यह सबसे महत्वपूर्ण वीडियो दस्तावेज है। एक किस्म का खजाना है। हां ये न्यूज का विकल्प नहीं हो सकता लेकिन इस पर कोई कार्यक्रम ही न बने इस पर मेरी असहमति है। वैसे हम बहस में क्यों जा रहे हैं। बहस भी करेंगे। लेकिन पता तो चले कि आप हमारी स्टोरी से संतुष्ट हैं या नहीं। ग्राफिक्स अच्छा लगता है या नहीं।

Prabhat Gopal Jha 18 minutes ago
@ saurabh..सवाल जवाब से अच्छा न भी हो, तो निष्कर्ष तो निकलेगा ही। दूसरी बात जब सौ के करीब चैनल हों और हाथ में रिमोट, तो दर्शक सीधे खबर चाहता है। भाषा, कंटेंट और कलेवर को लेकर बहस अपनी जगह है, लेकिन जिस दिन सिर्फ खबर दर्शक के माथे पर चढ़कर बोलने लगेगा, उस दि दर्शक सिर्फ वही चैनल देखेगा। दर्शक या पाठक को सिर्फ खबर से मतलब होता है। बाजार में अगर टिकना है, तो खबर दीजिए, असली खबर, जिसके लिए मेहनत करनी होगी और कुछ नहीं। फीचर या शब्दों के मायाजाल से सिर्फ टाइमपास ही होता है या दायित्व का नाम मात्र का निर्वहन।

Parveen Kr. Dogra 18 minutes ago
i have been a regular viewer of ndtv india. i can say only one thing that smhow and smwhre it is also trying to be a part of the herd!!!! i knw its a question of survival in competitive markt but viewrs cant undrstnd it.. in one line" ndtv india is not wht it used to be initially"

Yagnyawalky Vashishth 10 minutes ago
वो खबरें अब नहीं दिखती जिन्हे याद रखा जाए बावजुद इसके बोर होने लायक हालात फिलहाल नहीं है

Prabhat Gopal Jha 9 minutes ago
आप ज्यादा दूर क्यों जाते हैं, अंगरेजी और हिन्दी के एनडीटीवी में जमीन-आसमान का अंतर है। अंगरेजी में खबरों और मुद्दों पर जोरदार बहस होती है। वहां जो एंकर मुद्दों पर बात करने के मामले में आक्रामकता का बोध कराते हैं, वहीं एनडीटीवी हिन्दी वह सिरे से गायब रहता है। सामनेवाले से खबर या मुद्दों पर विचार लेने के लिए आक्रामक होना पड़ता है। लेकिन एनडीटीवी हिन्दी में ऐसा लगता है, जैसा सहज वार्तालाप के जरिये खबरों को पेश करने की कोशिश हो। देवांग साहब के पुराने मुकाबले के स्तर को प्राइम टाइम में खबरों को देते समय उतारिए।

Saurabh Sengupta 7 minutes ago
मैं कहीं देखा था की कई देसी न्यूज़ चैनल ने आसाराम जी बापू पर अनावश्यक लांछन लगायें│ पहले तो लगा कि, उनके किसी भक्त कुंठित होकर ऐसा किया होगा, पर ... पूरा स्टिंग आपरेशन लोड था, जिसमे एक व्यक्ति कैसे लड़कियों को सिखा रहा था कि, प्रेस कांफेरेंस में क्या बोलना है│ ... कई चैनलों के नाम थे उस रिपोर्ट में!

(सच के पीछे शायद ग्यारह मुल्को कि पुलिस न हो पर — सच जानना मुश्किल ही नहीं —— नामुमकिन है!) ... कृते

Ramnish Kumar 39 seconds ago
Unnecessary BJP ko gali dena aur Soniya/Rahul ki tarif ke pool bandhna chor dijiye ... Waise Vinod Dua sahab ka pgm band karwa dijiye to ye bimari 75% khatm ho jaegi ... voice over me ab dheere dheere aaplog bhi Aajtak aur Starnews ke rah pe nikal pare hain .

(बहस और सुझाव अभी भी जारी है।...
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हाय,हाय...हाय,हाय संत आसाराम चोर है,चोर है,चोर है। उज्जैन की सड़कों पर किन्नर समाज ने संत आसाराम के खिलाफ जमकर नारे लगाए। नारे लगते ही संत आसाराम ने माफी मांगकर हमें इस बात पर सोचने के लिए मजबूर कर दिया कि आखिर संत आसाराम कोई संत है या फिर देश का घिसा-घठाया हुआ नेता। जाहिर है उज्जैन में प्रवचन के दौरान संत आसाराम ने सागर की किन्नर मेयर कमला का जिस तरीके से मजाक उड़ाया था उससे कमला सहित किन्नर समाज बहुत दुखी हुआ। उन्हें इस बात पर हैरानी हो रही थी कि इतना बड़ा संत कहलाने वाला इंसान कैसे इंसानियत की बात भूलकर भौंड़ापन पर उतर आया है। कमला ने तो बहुत ही शालीनता के साथ अपना दुख जाहिर किया और कहा कि आसाराम ने ऐसा करके गीता को झूठा करार दिया है। लेकिन बाद में किन्नर समाज सड़कों पर उतर आए।

आजतक के हवाले से ऐसा किए जाने के बाद संत आसाराम ने कहा कि उन्हें इस बात का अंदाजा नहीं था कि उनके ऐसा कहने से किन्नरों को दुख पहुंचेगा,उनका इरादा ऐसा करने का नहीं रहा है। माफी की चिठ्ठी वो शाम तक भिजवा देंगे। आसाराम के शिष्यों ने बाद में आकर सोनिया मौसी को मिठाइयां दी और पैर छूकर माफी मांगी। आजतक की मानें तो ऐसा होने से आसाराम फिलहाल कम से कम एक विवाद में पड़ने से बच गए। जाहिर है उन पर जमीन विवाद से लेकर हत्या करवाने तक के कई आरोप हैं।..तो इस तरह पहले वोट के आधार पर किसी मेयर का किन्नर होने पर भरी सभा में मजाक उड़ाए जाने के बाद माफीनामा लिख देने के बाद संत आसाराम जैसा कोई शख्स हाथ झाड़कर साफी बरी हो सकता है। सवाल यहां ये है कि जब गलती और आपकबूली के फार्मूले पर ही इस देश को चलना है तो फिर कानून,व्यवस्था,कचहरी और व्यूरोक्रेसी की क्या जरुरत है? आप गैरबराबरी,वैमनस्य और नफरत फैलाने का काम कीजिए और बाद में आपको जब एहसास हो जाए कि आपने गलती की है तो माफी मांग लीजिए,हो गया आपका काम। गलती का एहसास अगर न भी होता हो तो आपके शुभचिंतक आपको बताने के लिए तैयार बैठे हैं कि आप माफी मांग लीजिए,इसका एहसास कर लीजिए,लफड़े में पड़ने से बच जाइएगा। आसाराम इसी स्ट्रैटजी के तहत सस्ते में छूट गए।

लेकिन इस सस्ते में छूटने की पूरी प्रक्रिया का समाजशास्त्रीय विश्लेषण करें तो मोटे तौर पर जो बात निकलकर आती है वो ये कि संत आसाराम ने उज्जैन में जो कुछ भी किया,जिस तरह से अनर्गल तरीके से बयानबाजी की वो मामला सिर्फ कमला का मजाक उड़ाने का नहीं है। वो मामला सीधे-सीधे कानून और संवैधानिक प्रावधानों की धज्जियां उड़ाने का है। ये समानता के अधिकार का उल्लंघन करने का है। इसलिए इसे सामाजिक तौर पर किन्नर समाज से माफी मांगने और उनके माफ कर दिए जाने के बाद भी मामला खत्म नहीं हो जाता। अगर सारी कवायदें सामाजिक तौर पर ही होनी है तो फिर किसी मामूली आदमी के गाली दिए जाने,अभद्र भाषा का प्रयोग करने,स्त्री और दलितों के लिए अपमानजनक शब्दों का प्रयोग किए जाने के बाद उन्हें सलाखों के बाहर होना चाहिए। वो भरी सभा में माफी मांगने के लिए तैयार हैं। लेकिन क्या ऐसा संभव है? शायद कभी नहीं। दो आंखें बारह हाथ का प्रयोग उन पर लागू होनेवाला नहीं। समाज में स्टेटस औऱ ओहदे को लेकर फर्क यहीं से पैदा होते हैं।

देश का एक मामूली आदमी,मामूली अपराध करने पर(जाने-अनजाने या मजबूरी में)पूरे मोहल्ले-टोले के बीच हाथ जोड़कर,थूक चाटकर लोगों से माफी मांगता है लेकिन उसे माफी नहीं मिलती। अगर एसएचओ या थाना के दूसरे लोगों से दोनों पक्षों के बीच सांठ-गांठ हो जाए तो अलग बात है। लेकिन अगर वो कुछ भी लेने-देने की स्थिति में नहीं है तो सीधा सलाखों के पीछे होता है। ऐसे में इस बात से बिल्कुल भी फर्क नहीं पड़ता कि कितने सौ लोगों ने उसे माफ कर दिया है। सामाजिक सत्ता कानूनी सत्ता के आगे काम नहीं आती। वैसे भी यहां सामाजिक सत्ता की ताकत सिर्फ भ्रष्ट या कम भ्रष्ट,गुजरातवाले पाखंड़ी या मुरथल वाले पाखंड़ी बाबा को चुन लेने के बाद किसी काम लायक नहीं रह जाती। यहां पर हमें कानूनी सत्ता साफ तौर पर दिखायी देती है। लेकिन आसाराम जैसे शख्स के मामले में कानूनी सत्ता उतनी ही लचर नजर आती है जितना कि मामूली आदमी के मामले में उसकी सामाजिक सत्ता। अब सवाल है कि ऐसे शख्स को बचाने या फिर उसकी हरकतों को नजरअंदाज करने के क्रम कानून की जड़ें कितनी खोखली होती है इसका अंदाजा भी है या नहीं? ये उसी कानूनी सत्ता के खोखले होने का सबूत है कि संत आसाराम खुली चुनौती देता है कि अगर वो दोषी है तो कोई उसे गिरफ्चार करने क्यों नहीं आता? इसलिए नहीं आता कि इसके आगे का परिणाम वो भली-भांति जानते हैं।

कमला सहित किन्नर समाज ने आज अगर संत आसाराम को माफ कर दिया तो संभव है वो ऐसा करके समाज के सामने एक उदार किस्म की छवि पेश करना चाह रहे हों। जैसा कि पिछली पोस्ट में एक ब्लॉगर साथी मधुकर राजपूत ने कमेंट में लिखा भी कि- बाबा पता नहीं क्यों भूल गया कि वो जिसका अपमान कर रहा है वह सारे समाज का तिरस्कार और अपमान का कड़वा घूंट पीकर नीलकंठ बन चुका है। उसे इसके शब्दों से कोई असर नहीं पड़ता। ये भी संभव है कि वो बात को आगे बढ़ाकर इन लफड़ों में पड़ना नहीं चाहते हों। लेकिन मुद्दा ये है कि जब संत आसाराम ने कमला का मजाक उड़ाया,हजारों की भीड़ में किन्नर की नकल उतारी और फिर किन्नर समाज सड़कों पर उतरे इस बीच कानून की तरफ से समता के इस अधिकार को बचाने को लेकर क्या प्रयास हुए? क्या इस तरह के शख्स के मामले में ये आमचलन है कि कानून इंजतार करे,तब तक जब तक कि शख्स की तरफ से माफीनामा न आ जाए। अफसोस है।

दूसरी तरफ इस पूरी घटना का विश्लेषण इस रुप में भी किया जा सकता है कि संभवतः ये पहला मौका है जब संत आसाराम ने अपनी गलती कबूल की है। नहीं तो आश्रम में बच्चे की हत्या,मीडिया के साथ किए गए दुर्व्यवहार और जमीन को लेकर हुए विवादों में अपने को भगवान का प्रतिनिधि बताते हुए,पल्ला झाड़ते हुए और इसके लिए परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहने की धमकी वो देते आए हैं। इससे उनके अंधआस्था की अफीम में अपनी तार्किकता गंवा चुके भक्तों को शायद इस बात का एहसास हो जाए कि उसका स्वामी कोई महान आत्मा नहीं है। वो हमसे-आपसे अलग नहीं है। उसके भीतर भी राग-द्वेष है,अहंकार है,ओछापन है,क्षुद्रताओं से भरा हुआ है। माफी मांगकर उसने खुद साबित कर दिया है कि वो भी गलत-सलत बाते करता है। ये अलग बात है कि वो दुनिया को संयम,संस्कार,सद्भावना का पाठ देने का पाखंड़ रचता आया है। ऐसे लोगों पर कानूनी सत्ता के सक्रिय होने की तो जरुरत है ही लेकिन सामाजिक स्तर पर इस माफीनामे का तार्किक पाठ लोगों के बीच हो पाता है तो संभवतः ये पाखंड़ की जो खेती इस देश में हो रही है उसमें गिरावट जरुर आएगी। वैसे भी ऐसे लोगों का कानूनी स्तर पर जितनी कार्यवाही होनी जरुरी है उतना ही जरुरी है कि सामाजिक स्तर पर निरस्त किया जाया। संत आसाराम की आपकबूली अगर सिर्फ राजनीति औऱ स्ट्रैटजी का हिस्सा नहीं है तो उम्मीद की जानी चाहिए कि इससे समाज में प्रगतिशील विचारों का एक हद तक प्रसार हो सकेगा।
(जहां भी आजतक का एचटीएमएल हैं वहां संत आसाराम के माफी मांगे जाने की खबर और उज्जैन में जो कुछ कहा है उसकी ऑडियो है। इसे आजतक न्यूज चैनल से रिकार्ड किया गया है।)
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एक हिजड़े ने कांग्रेस को हरा दिया, बीजेपी को हरा दिया..हाय,हाय। मर्द होकर हार गए।(किन्नर के अंदाज में ताली बजाते हुए,बराबर उड़ाया सागर की मेयर कमला का मजाक)। उन मतदाताओं को धिक्कारने का काम किया गया जिसने लिंग भेद से उपर उठकर कमला को वोट देकर अपना मेयर चुना। कमला के पास लोकतंत्र की ताकत है लेकिन इस ताकत को क्षुद्रताओं की जहर में बार-बार डुबोने की कोशिश की गयी। हजारों की संख्या में मौजूद लोगों के बीच उसका उपहास किया गया।...और ये सबकुछ देश का कोई औसत दर्जे के अंगूठे छाप ने नहीं किया जो समानता और मानवता की बात के बारे में कुछ नहीं लिखा-पढ़ा है। ये सब किया दुनिया को इंसानियत,मानवता,संयम और लोकाचार का पाठ पढ़ानेवाले आसाराम ने जिसे लोग लगातार नाम के पीछे बापू शब्द लगाकर इस शब्द को कलंकित करते आ रहे हैं। ये सब किया उस शख्स ने जो भक्ति के बीच से पाखंड की फसल पैदा कर रहा है,आपसी वैमनस्य और गैरबराबरी फैलाने के काम पर ईश्वरीय ताकत का लेबल चस्पा रहा है।

कहानी हाल भी उज्जैन में दिए गए उस प्रवचन को लेकर है जिसमें भौंडापन का एक नमूना शामिल है। स्टार न्यूज की सनसनी टीम ने इसे आसाराम बापू की नौटंकी नाम दिया है। उज्जैन में आसाराम को सुनने हजारों की भीड़ जमा होती है। एक संत कहलाए जाने के नाते भक्ति,आध्यात्म और मानवीय गुणों पर प्रवचन देने के नाम पर आसाराम ने राजनीति गलियारों की गतिविधियों पर अनर्गल बोलने लग गए। इसी बीच उन्होंने सागर,मध्यप्रदेश की चुनी गयी मेयर का जमकर मजाक उड़ाया। पहले तो उसने किन्नरों जैसी हाय-हाय का स्टेज पर ही नकल करना शुरु किया। बाद में कमला ने जो बातें कहकर सागर के लोगों से वोट देने की अपील की थी उसकी नकल उतारने में जुट गए। कमला ने वोट की अपील के दौरान कहा था कि हम निष्पक्ष हैं। हम तो न तो इस पार्टी से है और न ही उस पार्टी से है,आसाराम ने इस 'पार्टी' शब्द के जरिए बहुत ही भद्दे भाव पैदा करने की कोशिश की जो कि लिंग के स्तर पर भेदभाव फैलाने का मामला बनता है। बाद में कहा कि वो राम, हरिओम, अल्लाह आप जो भी कहते हो उसकी पार्टी के हैं,आप हमें खाली वोट देना,भगवान खुश रखेगा। फिर ताली बजाते हुए आय,हाय कहा। दुनिया की नजरों में संत माने और कहलाए जानेवाले आसाराम बापू की ये हरकत उनके पाखंड को तो उजागर करती ही है,इसके साथ ही ये कानूनी मामला भी बनता है। इस देश में किसी भी शख्स को लिंग के आधार पर वैमनस्य फैलाने का अधिकार कैसे दिया जा सकता है?

इस पूरे मामले की जानकारी जब कमला को होती है तो इसके जबाब में जिस तरह से पेश आती है,उस पर आसाराम को शर्म आनी चाहिए। दुनिया की निगाह में संत संयमी और बहुत ही उंचे ख्यालात के होते हैं जबकि किन्नरों के बारे में जिस तरह की कथाएं गढ़ी गयी हैं,उनके बारे में जिस तरह से बताया जाता रहा है वो ये कि इनमें लाज-शर्म नाम की कोई चीज नहीं होती। इसे पूरी तरह ध्वस्त करते हुए कमला ने बहुत ही शांत अंदाज में कहा है कि ऐसा करके आसाराम बापू ने मेरा मजाक नहीं उड़ाया है बल्कि गीता(श्रीमद्भागवत गीता) को झूठा करार दिया है। आसाराम को हमें मजाक से नहीं बल्कि सेवाभाव से देखना चाहिए। एक कहावत है न- लंबा तिलक मीठी जुबानी, दगाबाज की यही निशानी।


कमला को आसाराम की इस हरकत से गहरा दुख पहुंचा है। एक तो ये देश जातीय,लिंग,धर्म और पाखंड़ों के बीच पहले से ही इतना जकड़ा हुआ है। लोकतंत्र की बात करते हुए भी ये सारी चीजें इतने जबरदस्त तरीके से हावी रहती है कि आमतौर पर मतदाता इससे उपर उठकर मतदान नहीं करता। ऐसे में सागर के लोगों ने कमला को मेयर चुनकर इस जड़ मानसिकता को कुचलने का काम किया है तो ऐसे में उन्हें प्रोत्साहित करने के बजाय आसाराम ने उन्हें हतोत्साहित करने का काम किया। आसाराम ने लोकतंत्र के भीतर स्वस्थ मानसिकता के पनपने की संभावना को खत्म करने की कोशिश की है। इस संबंध में संत समाज से जब राय ली गयी तो उनलोगों ने भी आसाराम के इस रवैये पर सख्त नाराजगी जाहिर की। इलाहाबाद में माघ मेले के लिए जुटे साधुओं में इस बात को लेकर गहरा रोष है। स्वामी ब्रह्माश्रम ने कहा कि ऐसा कहकर आसाराम ने समाज के लिए अच्छा नहीं किया। दरअसल वो बौखला गए हैं। एक दूसरे साधु महेशाश्रम ने कहा कि ऐसा कहकर आसाराम ने अपनी अज्ञानता और अंहकार का परिचय दिया है।


वैसे भी आसाराम बापू पिछले साल-दो साल से जो कुछ भी करते आ रहे हैं(खासकर व्यवहार के स्तर पर) वो संत की गरिमा से किसी भी रुप में मेल नहीं खाता। पिछली होली में सूरत में आासाराम बापू ने हजारों की भीड़ के सामने विदेश से आए मां-बेटे को लेकर बहुत ही भद्दी हरकत की। दोनों को स्टेज पर बुलाया। जेम्स की मां ने कहा- बापू आ लव यू। बापू ने जेम्स से कहा, इसे हिन्दी में बोलो कि- मम्मी बापू को बहुत प्यार करती है। आसाराम ने सवाल किया- बापू तुम्हारा क्या लगता है? जेम्स ने जबाब दिया- बापू मेरा पापा है। आगे आसाराम ने बताया कि ये विदेशी महिला साल में तीन-चार बार इस देश में आती है और फिर गाना गाने लग जाते हैं- जोगी,हम तो लूट गए तेरे प्यार में। इसके अलावे टेलीविजन के जरिए देखी गयी फुटेज के आधार पर बात करें तो आसाराम का रोना,धमकाना,खुली चुनौती देना कि अगर बापू दोषी है तो कोई उसे गिरफ्तार करने क्यों नहीं आता,उसे पता है कि अगर गिरफ्तार किया तो देश में क्या हो जाएगा जैसी बातें जारी है?
आसाराम ने प्रशासन को तो इस तरह की खुली चुनौती दी ही है,ईश्वर का प्रकोप से लेकर रोने तक ड्रामा किया ही है साथ ही आश्रम में बच्चों की हुई रहस्यमयी मौत के मामले में मीडिया को कुत्ता भी कहा। देश और दुनिया में साधना के नाम पर संतई का कारोबार चलाने वाले आसाराम सरीखे लोग क्या देश के कानून से उपर है? आमतौर पर संतों के प्रवचनों को ये मान कर चला जाता है कि वो देश के लोगों के बीच मानवीयता और बंधुत्व का पाठ पढ़ाने जा रहे हैं जो कि सरकारी प्रयासों को ही एक हद तक मदद पहुंचाने का काम है। सरकार भी चाहती है कि देश में इन भावनाओं का विकास हो। लेकिन आसाराम जैसे दूसरे टेलीविजन की कोख से पैदा हुए पॉपुलर बाबा जिस तरह से मानव विरोधी बयान दे रहे हैं,मानवीय प्रयासों को हतोत्साहित करते हैं,ऐसे में सवाल सिर्फ माफी मांगने और सफाई देने भर का नहीं है बल्कि ऐसे बाबाओं पर कानूनी कार्यवाही होना अनिवार्य है। इनके प्रवचनों पर बहस किया जाना जरुरी है। आप क्या सोचते हैं? मुझे पता है कि जिस आसाराम बापू को उनके भक्त सोनी चैनल पर प्रवचन देते देखते आए हैं उनपर सनसनी में आधे घंटे की स्टोरी देखकर उन्हें धक्का पहुंचेगा। ये धक्का शायद उसी तरह का होगा जैसा हाल-फिलहाल तक एन.डी.तिवारी जैसे कद्दावर नेता का नाम इंडियन सेक्स की पहली लिंक पर देखना होता है। खबरों की पॉलिएशन मीडिया का खेल है,कोई नई बात नहीं। लेकिन इस तरह की खबरें मसलन राजनीतिक पुरुष की लिंक इंडियन सेक्स पर और संत आदमी पर की स्टोरी सनसनी में कोई पॉलिएशन का हिस्सा नहीं बल्कि उसके बदले चरित्र के सबूत हैं।

(इस पूरे मसले पर स्टार न्यूज ने सनसनी कार्यक्रम के अन्तर्गत आधे घंटे का कार्यक्रम प्रसारित किया है। आज यानी 18 जनवरी 2010 सुबह साढ़े दस बजे सुबह। हमने उस कार्यक्रम की पूरी वीडियो डिजीटल रिकार्डिंग की है। पूरी वीडियो तो नहीं डाल सकते लेकिन मेरी पूरी कोशिश रहेगी कि रात तक कमला की बाइट से लेकर आसाराम बापू का गैरमानवीय वक्तव्यू हूबहू आपके सामने पेश कर दें। फिलहाल यूट्यूब के लिंक से भी काफी-कुछ जान सकते हैं आप। इसे हमने पोस्ट की पहली ही लाल रंग से लिखी लाइन में एटैच कर दिया है।)
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पहले तो मन में आया कि इस पोस्ट का शीर्षक दूं- आजतक चैनल में घुस आए हैं निकम्मे लोग। फिर बाद में लगा,ऐसा लिखना सही नहीं होगा। ये बात कोई आजतक चैनल की अकेले की नहीं है,कमोवेश सभी चैनलों में मामला एक सा ही है। दूसरी बात कि इस शीर्षक के तहत बात करने का मतलब है चैनल की दमभर खिंचाई करना और अपनी भड़ास निकालकर चुप मार जाना। मैं चैनल के इस एप्रोच पर भड़ास निकालने या चुप्पी मारने के बजाय उस मुद्दे तक आना चाहता हूं जहां चैनल के लिए ब्लॉगिंग का मतलब सिर्फ अमिताभ बच्चन है,शाहरुख के ब्लॉग की दुनिया में कूद पड़ने की खबर है,आमिर खान के अपने ब्लॉग के जरिए कॉन्ट्रवर्सी पैदा करना है। कुल मिलाकर ब्लॉगिंग सिलेब्रेटी और उस टाइप के लोगों के लिए अपने फैन,ताक लगाकर बैठी मीडिया और न्यूज डेस्क पर बाट जोह रहे चैनलकर्मियों के लिए कुछ टुकड़े और मसाले फेंक देने की जगह है। एक ऐसी जगह जहां से देश का बड़ा से बड़ा अखबार उन टुकड़ों को उठाकर पूरे आधे पन्ने की खबर छाप सके,न्यूज चैनल आधे घंटे की स्पेशल स्टोरी बना सके। उस पर दुनियाभर के एक्सपर्ट के फोनो और चैट लिए जा सकें। यानी बिना हर्रे और फिटकरी लगाए सिलेब्रेटी चोखे तरीके से खबरों में टांग फैला दे। हिन्दी में करीब 12 हजार से भी ज्यादा हम जैसे लोग जो ब्लॉगिंग कर रहे हैं उन्हें समझना होगा कि ब्लॉग को लेकर जो नजरिया और समझ विकसित की जा रही है वो ब्लॉग की दुनिया के विस्तार के काम आएगा?

इस बात को मानने में रत्तीभर भी दुविधा नहीं है कि जब से अमिताभ बच्चन ने ब्लॉगिंग की दुनिया में कदम रखा,मनोज वाजपेयी ने हिन्दी में ब्लॉगिंग शुरु की और शशि थरुर ने ट्विटर के जरिए अपनी बात कहनी शुरु की तब से आमलोगों को भी इसके बारे में जानकारी मिलनी शुरु हुई। इन्टरनेट की दुनिया में इस पर लिखे जाने का मतलब समझने लगे। नहीं तो आम आदमी क्या यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर तक लंबे समय तक यही समझते रहे कि ब्लॉगिंग कोई चैटियाने जैसी चीज है। इनलोगों के आने और लिखे जाने से ब्लॉगिंग,ट्विटर फेसबुक और सोशल साइटें तेजी से इस देश में पॉपुलर हुए। एक ब्लॉगर की हैसियत से हमें इन सबों का शुक्रिया अदा किया जाना चाहिए। आज गांव और कस्बों में जाने पर भी जब लोग हमारे बारे में बताते हैं कि ये ब्लॉगर हैं तो उन्हें मोटे तौर पर बात समझ आ जाती है कि हम क्या करते हैं? कई जगह हमें अमिताभ और मनोज वाजपेयी की परंपरा का जानकर पाइरेटेड सम्मान भी मिला है। बहरहाल,मुद्दा इसके आगे का है। मुद्दा ये है कि क्या सिलेब्रेटी और आम ब्लॉगरों के लिखे जाने में कोई फर्क नहीं है? दूसरी बात कि क्या सिलेब्रेटी और ब्लॉगिंग एक दूसरे के पर्याय हैं। इस मसले पर बात करना इसलिए भी जरुरी है कि एक आम आदमी इसे एक-दूसरे से घालमेल कर देता है तो बात समझ में आती है लेकिन देश का सबसे तेज कहलाए जानेवाला चैनल सहित बाकी मीडिया अगर ऐसा कहते है,ऐसा दिखाते-बताते हैं तो हमें गंभीरता से लेना होगा।

सीएसडीएस सराय में जो ब्लॉगर्स मीट हुई दिल्ली आजतक ने उस पर 32 सेकण्ड की स्टोरी चलायी। इस 32 सेकण्ड में ऐसा कुछ भी नहीं था जो कि ये स्पष्ट करता हो कि इस मीट में क्या बातें हुई, इस तरह के ब्लॉगर जमा होकर किस तरह की बातें करते हैं? ऐसे आयोजनों का क्या मतलब है जबकि वो वर्चुअल स्पेस में पहले से मौजूद हैं? खबर में ये भी नहीं बताया कि इसका आयोजन कहां किया गया था,कितने लोग शामिल हुए? कुछ भी नहीं। अविनाश वाचस्पति के एसएमएस किए जाने पर(बाहर आएं,आजतक वाले बात करना चाहते हैं.) जब मैं बाहर निकलकर दिल्ली आजतक के रिपोर्टर को बाइट दे रहा था और जिस तरह से वो सवाल कर रहे थे उससे दो बातें साफ हो गयी- एक तो ये कि इस बंदे को ब्लॉगिंग के बारे में कुछ भी नहीं पता। पता भी है तो सिर्फ इतना कि इसका संबंध अमिताभ बच्चन और दूसरे सिलेब्रेटी से है और दूसरा कि इन्हें हमसे कुछ बेसिक जानकारी चाहिए जिसे कि वो एंकर शॉट बनाकर पेश कर देंगे। उन्होंने इस मसले पर रविकांत,अविनाश वाचस्पति और मुझसे कुछ सवाल किए। वही कि कितनी संख्या है,क्यों करते हैं,ब्ला ब्ला।

कुछ गलती अपनी तरफ से भी थी कि 2 बजे से शुरु होने की बात करके भी ढाई बजे तक हिन्दी सॉफ्टवेयर पर प्रजेंटेशन चलता रहा। लेकिन वो तब तक मौजूद रहे और शुरु होने के कुछ देर बाद ही गए। इस बीच चाहते तो वहां से लोगों को बोलते हुए,एक-दूसरे को रिस्पांड करते हुए कुछ फुटेज ले सकते थे। लेकिन कुछ नहीं किया। बस बैठे रहे। उनके एटीट्यूड और बाद में खबर देखकर मेरे दिमाग में एक ही बात आ रही थी। इस स्टोरी को कवर करने में कम से कम दो हजार रुपये तो जरुर खर्च हुए होंगे। उपर से करीब तीन घंटे तक कैमरा यूनिट, गाड़ी, ड्राइवर, कैमरामैन और खुद रिपोर्टर फंसा रहा। इस बीच शहर की कोई इससे भी जरुरी स्टोरी कवर हो सकती थी। इन्होंने चैनल का पैसा पानी में बहाया। खबर देखकर हमें कहीं से नहीं लगा कि इस 32 सेकण्ड की स्टोरी के लिए इन्हें यहां तक आने की जरुरत थी। वो जो कि एक लाइन में इसके बारे में बताया,फोन से भी पूछ सकते थे। इस हिसाब से एक पूरा का पूरा एंगिल बनता है कि आप विश्लेषित करें कि कैसे खबरों को कवर करने के लिए लगाए संसाधनों का दुरुपयोग होता है जबकि खबरें इन्टरनेट के फुटेज,विजुअल्स और कंटेंट से चेपकर बनाए जाते हैं। पूरी खबर में वही बात कि किस-किसका ब्लॉग है? लगभग सारे शॉट्स अमिताभ बच्चन जैसी हस्तियों के और फिर वो जो कि लगे कि कुछ इन्टरनेट पर से जुड़ी खबर दिखायी जा रही है।

सवाल ये है कि कैडवरी,रीड एंड टेलर,पार्कर और बोरोप्लस जैसे ब्रांड अमिताभ बच्चन और चैनल को उत्पाद बेचने के लिए पैसे देते हैं तो ये सब ऑडिएंस के आगे बेचा जाता है( विज्ञापन दिखाए जाने से कन्ज्यूमर बन जाने की प्रक्रिया) लेकिन हर खबर के साथ ऐसा किया जाना किस हद तक जायज है? मैं यहां तक मानने को तैयार हूं कि संभव है कि ब्लॉगिंग की दुनिया में ऐसे लोगों के आ जाने से कई लोगों ने उनसे इन्सपायर्ड होकर इन्टरनेट पर अपनी मन की बातें लिखनी शुरु कर दी हो। लेकिन अब जबकि हिन्दी ब्लॉगिंग की दुनिया में इसकी खुद की एक पहचान तेजी से बन रही है,दुनियाभर के मसलों पर कंटेंट हैं,लगातार लिखा-पढ़ा जा रहा है तो क्या जरुरी नहीं है कि चैनल सिलेब्रेटी की ओट लेकर खबरें दिखाना कम करे? चैनल के लोग जब स्पोर्ट्स,क्राइम,फैशन कवर करने जाते हैं तो कुछ होमवर्क करके जाते हैं। ऐसे में हिन्दी ब्लॉगिंग को कवर करने आए मीडियाकर्मी कुछ नहीं तो कम से कम दो-चार एग्रीगेटर और दस-पांच ब्लॉग तो देखकर आ सकते हैं। मैं महसूस करता हूं कि हिन्दी ब्लॉगिंग ने इतनी हैसियत बना ली है कि उस पर बिना सिलेब्रेटी से जोड़े या फिर उन्हें एकलाइन में शामिल करते हुए बाकी बातें इसके बनते-बदलते मिजाज पर की की जा सकती है और की जानी चाहिए। समाज,राजनीति,स्त्री-विमर्श,मीडिया विश्लेषण और हाशिए पर के समाज को लेकर जो कुछ लिखा जा रहा है उस पर बात की जाए। अब अभिव्यक्ति,अस्मिता,दबाव और संस्थानों के भीतर की घपलेबाजी को लेकर जो चीजें इसके जरिए सामने आ रही है उस पर बात होनी चाहिए। हिन्दी ब्लॉगिंग के लिए ये वो समय है जब इससे जुड़ी खबर को सिलेब्रेटी से जोड़कर और उन्हीं तक सीमित करके दिखाया जाता है तो इससे उसका नुकसान छोड़ फायदा नहीं। ऐसे में हम चाहेंगे कि मेनस्ट्रीम मीडिया इससे जुड़े कार्यक्रमों को न ही कवर करे तो बेहतर,कम से कम लोगों को इसके बारे में समझने में वक्त लगेगा लेकिन मीनिंग स्रिकिंग जैसी खतरनाक स्थति तो नहीं बनेगी।..फिर भी अगर फायदा है तो इस पर भी बहस हो।...
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सीएसडीएस-सराय,दिल्ली में आयोजित ब्लॉगर्स मीट की शुरुआत रविकांत की इस खुली घोषणा से होती है कि इस मीट का हमारा कोई अपना एजेंडा नहीं है। पहले से यही तय है कि सब मिल जाएं तो कोई एजेंड़ा हो जाए। लेकिन हां इसके बावजूद एक एजेंडा है कि आपका विज्ञापन हो जाए। विज्ञापन वाली ये बात संभवतः कविताकोश के लिए कही गयी। कविताकोश से ललित और अनिल जनविजय अपनी बात रखने के लिए हमारे बीच अंत तक बने रहे। अनिल जनविजय ने तो एजेंडे के सवाल पर साफ कहा कि हम सिर्फ सुनने का एजेंडा लेकर आए है। ललित ने इसे थोड़ा और विस्तार देते हुए अपनी बात शुरु की- कविताकोश को लेकर अगर आपको कोई परेशानी है,कुछ बताना या जानना चाहते हैं,कुछ जोड़ना या कमेंट करना चाहते हैं तो आप करें बजाय इसके कि हम इस पर अपनी तरफ से बात करें। इस तरह ललित और अनिल जनविजय ने अपनी भूमिका एक वक्ता के बजाय लिस्नर के तौर पर आते ही तय कर दी। लेकिन कविताकोश को लेकर जिस तरह से सवाल किए गए और एक के बाद एक सवालों का जैसा तांता लग गया,ऐसे में इन दोनों को जल्द ही अपनी भूमिका बदलनी पड़ गयी।..हॉल में बैठी ऑडिएंस ने भी जल्द ही मान लिया कि ये अपनी बात इसी भूमिका में रखनेवाले हैं।

कविताकोश को लेकर पहला सवाल अविनाश ने उठाया। अविनाश ने कविताकोश के महत्व और उसकी भूमिका को रेखांकित करते हुए कहा कि- ये सही बात है कि ये एक ऐसा मंच है जहां कि कोई भी कवि बड़ा या छोटा नहीं है। सारे कवियों को आप एक तराजू पर तौलते हैं। लेकिन एक सवाल कि बहुत सारी कविताएं जो कि अभी रेड में आ रही है उसे आप कैसे फिल(fill) करेंगें?(रेड मतलब कि जब आप उस कविता के शीर्षक पर चटकाते हैं तो पूरी कविता आने के बजाय ब्लैंक आता है,कविता नहीं)। इसी के साथ जुड़ा एक और सवाल कि जो कविताएं कॉपीराइट के तहत आती है उसे आप किस रुप में देखते हैं? अविनाश के सवाल का सीधा-सीधा जबाब देते हुए
हिन्दी समाज में रचनाकारों की मानसिकता और उनके रवैये को बेपरदा करते हुए अनिल जनविजय ने कहा कि- हिन्दी में बड़े से बड़ा कवि कविता छपवाने के लिए प्रकाशकों को इस बात की गारंटी देते हैं कि आप हमें छापिए, हम आपकी 500 कॉपी बिकवा देगें। पैसे देकर किताबें छपवाते हैं। कॉपीराइट के मसले पर कविताकोश से जुड़ने के लिए एक साल तक लड़ता रहा। हिन्दी में कॉपीराइट का कोई मसला नहीं है। लोग छपना चाहते हैं।

अविनाश ने अपने सवाल को आगे बढ़ाते हुए कहा कि तब इजाजत जैसा कोई मसला नहीं है? अनिल ने इसके जबाब में कहा कि- इजाजत जैसी कोई बात ही नहीं है। कोई नहीं कहता कि क्यों लेते हैं? एक सिर्फ रति सक्सेना का मामला उठा। वो कृत्या नाम से एक पत्रिका चलाती है। उन्होंने एक अनुवाद छापी थी और मैंने उनकी अनुमति से अपने यहां छापी। वो अनुमति की बात भूल गयी और हमें लिखकर भेजा कि आपने बिना पूछे मेरी कविता छाप दी,आप पर कानूनी कार्यवाही करगें। हमारे पास इजाजत और फोटो थी। केदारजी ने कभी भी कानूनी कार्यवाही की बात नहीं कही। कभी नहीं कहा कि मेरी कविताएं क्यों ली? बल्कि और खुश होकर दूसरी भी किताबें दी कि इसे भी डाल देना। उदय प्रकाश जैसा बिकनेवाले कवि ने भी हमें कभी कुछ नहीं कहा। बाद में कहा कि हमें किसी ने भड़का दिया था। इसी बात पर ललित ने कहा कि-कविताकोश में कॉपीराइट को लकर मामला लिखा हुआ है। हमारे पास पॉलिसी है। आप एक बार लिखिए हम हटा देंगे। रतिजी ने दुबारा कोई रिक्वेस्ट नहीं भेजा। इगो तब हो जब हम सेम फील्ड के हों। इस बीच अविनाश ने नाम हटाए जाने को लेकर कविताकोश में इगो के सवाल को भी उठाया।

इस बीच ये भी सवाल सामने आया कि कई बार लोग पैरलल नाम से लिखकर अपनी रचनाएं भेजते होंगे जिसके जबाब में अनिल ने कहा कि ऐसा तो साहित्य के भीतर कहानियों और उपन्यासों में भी होता आया है? उसका आप क्या करेंगे। लेखक और लेखन की ऑरिजिनलिटी की इसी बहस में सीधे तौर पर शामिल होते हुए रविकांत ने कहा कि-हम ये क्यों तय करे कि ये कॉपी है और कौन ऑरिजनल है? और तब इस बहस के बीच पैरोडी शब्द को धर दिया दिया गया। कुछ देर तक इन आसपास के चंद शब्दों के बीच अकादमिक स्तर पर परिभाषित करने जैसा दौर चला। विभाष वर्मा ने साफ कर दिया कि पैरोडी और कॉपी में फर्क है। अविनाश ने कविताकोश की तारीफ में कहा कि आप इसमें उर्दू की भी कविताएं शामिल कर रहे हैं,ये अपने आप में क्रांतिकारी कदम है। अनिल इस तारीफ से थोड़ी देर के लिए लजा जाते हैं। तभी रविकांत अपनी बात कर जाते हैं-हम तो इसलिए इसके फैन ही हुए कि इसमें उर्दू की भी कविताएं हैं। ललित और अनिल जनविजय कविताकोश के पक्ष में दो बातें बार-बार दोहराते हैं- एक तो ये कि इसके भीतर कॉपीराइट का कोई गंभीर मसला नहीं और जो है भी तो वो सब लिखा हुआ है और दूसरा कि हम सेवा का काम कर रहे हैं। हम गैरव्यावसायिक तरीके से काम कर रहे हैं। जब तक चल रहा है,चला रहे हैं जिस दिन जरुरत पड़ेगी लोगों से मांगेगे,अभी नहीं। ये बात दरअसल कविताकोश को लेकर अविनाश की तरफ से उठाए गए सवाल से उठी जब उन्होंने साफ-साफ सवाल किया कि कविताकोश का रेवन्यू मॉडल क्या है?



अभी तक आपने पढ़ते हुए ये महसूस किया कि कविताकोश को लेकर इस पूरी बहस में सिर्फ पांच लोग शामिल है। ललित,अनिल जनविजय,अविनाश रविकांत और आंशिक तौर पर विभाष वर्मा। कभी-कभी पूरी बहस को सुनते हुए ऐसा लगा सारी ऑडिएंस एक तरफ और अविनाश,ललित और अनिल जनविजय एक तरफ। लेकिन अविनाश ने जैसे ही रेवन्यू मॉडल पर सवाल किया लगभग पूरा हॉल उस बहस में कूद पड़ा। सही अर्थों में ब्लॉगिंग मीट का प्रस्थान बिंदु यही से बनता है।

अनिल और ललित ने इस मसले पर साफ तौर पर कहा कि हम सेवा का काम कर रहे हैं। जो भी खर्चे हैं हम अपने स्तर से चला रहे हैं,अभी जरुरत नहीं है। अनिल जनविजय ने कहा कि विदेश में बैठकर जब हम साहित्य अकादमी के दस हजार के विज्ञापन के बारे में सोचते हैं तो लगता है दो सौ डालर ही न।..फिर इस एक विज्ञापन के लिए दस बार चक्कर लगाने पड़ेगे। अनिल के सेवा और संतुष्टि वाले अंदाज से ज्यादातर लोग असहमत नजर आए। खासकर वो लोग जो तकनीकी सत्रों में अपनी बात रखकर इस मीट में भी शामिल रहे।

अंकुर ने सीधा सवाल किया कि- आप कब तक सैचुरेशन पर होकर काम करते रहेंगे। कल को हो सकता है कि आपको सर्विस चाहिए हो,आप पीछे में एक बैग्ग्रांउड क्यों नहीं चाहिए? आप अकाउंट बनाइए। नॉन प्रॉफिट बनाइए। आप कैसे इसके जरिए प्रोमोट कर सकते। आप बड़ा क्यों नहीं होना चाहते? आप बड़े नहीं होगें तो छोटे होते चले जाएंगे और कोई और बड़ा हो जाएगा। कल को कोई कविताकोश से भी कुछ बड़ा कर जाएगा। अगर पैसे होगें तो जरुरत अपने-आप बन जाएगी। मोटे तौर पर उदाहरण देते हुए अंकुर ने कहा कि मेरे कॉलेज फेस्ट में कविता पाठ प्रतियोगिता होती है। लोग बड़ी संख्या में भाग लेते हैं लेकिन वो कविताकोश को नहीं जानते। आपको नहीं लगता कि आपको ऐसे लोगों तक जाना चाहिए? इसका ज्यादा से ज्यादा विस्तार करना चाहिए। दूसरी बात कि ब्लॉगिंग या साइट का मतलब सिर्फ टेक्ट्स तो नहीं है। उसमें ऑडियो भी शामिल है,विजुअल्स शामिल है। आप नॉनप्रॉफिट बेस पर भी कई दूसरे कार्यक्रमों के जरिए इसका विस्तार तो कर ही सकते हैं।

अंकुर के इस सुझाव पर रविकांत ने कविता रेसिटेशन की जरुरत को रेखांकित किया। कविताकोश को विज्ञापन या फिर आर्थिक मदद लेनी चाहिए या नहीं इस पर अच्छी-खासी बहस चलती है। बाद में आकर मामला कुछ इस तरह से बनता है कि अंकुर और सत्यकाम जोशी, ललित और अनिल जनविजय को लेकर कन्विंशिंग मोड में आ जाते हैं कि आपको विज्ञापन लेने चाहिए,लोगों से आर्थिक मदद लेनी चाहिए। सत्यकाम ने तो आपसी बातचीत में यहां तक कहा कि मैं तो पोर्न साइटों में भी हिन्दी के विज्ञापन देखता हूं। लेकिन दोनों ने साफ तौर पर कहा कि वो ऐसा नहीं करने जा रहे हैं। अनिल जनविजय ने साहित्य अकादमी के विज्ञापन के साथ जो दूसरे रेफरेंसेज दिए उससे जो बात निकलकर सामने आयी वो ये कि- ऐसा नहीं है कि उन्हें इस बात की जानकारी नहीं है कि विज्ञापन के जरिए कविताकोश का विस्तार बहुत अधिक विस्तार होगा। वो जानते हैं। लेकिन वो एक तरह से कहें तो इन पचड़ों में पड़ना नहीं चाहते। वो मैनेजरी नहीं करना चाहते। दूसरी बात कि उन्हें साफ तौर पर लगता है कि अगर वो इसे पैसे से जोड़ते हैं तो रचनाकारों के स्तर पर परेशानियां बढ़ेगी। इस बात को को समझते हुए मिहिर ने कहा कि-हमने बात कॉपीराइट से शुरु की थी। अभी फ्री में दे रहे हैं। लेकिन पैसा आने से इनका मोटिव ही खत्म हो जाएगा।

कविताकोश,विज्ञापन और पैसे-कौड़ी को लेकर जो चर्चा शुरु हुए उससे एक मजबूत महौल बना कि ब्लॉगिंग से कैसे कमायी की जा सकती है? अर्निंग के स्तर पर इसमें क्या स्कोप है? संभवतः इसलिए विनय झा ने अविनाश से सीधा सवाल किया कि हिन्दी में विज्ञापन कब से मिलने शुरु हो जाएंगे? अविनाश ने इस सवाल को बाकी के लोगों के आगे सरका दिया जिसे कि अंकुर ने पकड़ा। अंकुर ने विस्तार से तकनीकी स्तर पर ब्लॉग और विज्ञापन के गुर बताने शुरु किए।...बैठकर ये सबकुछ सुनते हुए मुझे लगने लगा कि इस ब्लॉग मीट में पूरा मामला एक तो कविताकोश और दूसरा कि ब्लॉग से कमाई तक में ही जाकर न सिमटकर रह जाए तभी भूपेन ने वनलाइनर सवाल हमलोगों के सामने लाकर पटक दिया।

उन्होंने साफ कहा-क्या गूगल और ब्लॉगिंग सिनानिमस है? मुझे लगता है कि हिन्दी ब्लॉगिंग पर बात करते हुए हमें कई एस्पेक्ट पर बात करनी चाहिए। दूसरा सिर्फ उसके कंटेंट पर विस्तार से बात करनी चाहिए। उसके पढ़नेवालों पर बात करनी चाहिए। पैसा कमानेवाली बात ही काफी नहीं है।

अब देखिए यहां से पूरी बहस में लोगों की शिरकत पहले के मुकाबले ज्यादा बढ़नी शुरु होती है। मेरा मानना रहा कि आपलोग जो सारे मामले को विज्ञापन और कमाई के बीच उलझा रहे हैं इसके महत्व को समझने के वाबजूद भी हमें बाकी चीजों पर बात करनी होगी। मुझे नहीं लगता कि कोई भी ब्लॉगर जब अपनी पोस्ट लिखना शुरु करता है तो इस नीयत से कि उसे इससे कमाई करनी है। वो तो अपनी बात कहना चाहता है,वो सबकुछ जो उसके जेहन में है और जिसे मेनस्ट्रीम में जगह दी जाए इसकी कोई गारंटी नहीं। इस बीच एक भाषा बनती है,संस्कृति के सवाल पनपते हैं और अखबारों,चैनलों से अलग खबरों और बातों की एक नयी दुनिया बनती चली जाती है। इसे देखना होगा। इसी बीच ब्लॉगर सुशील छौंक्कर जरुरी काम आ जाने की वजह से विदा हो लिए।

ब्लॉग लेखन और कमाई तक सीमित कर देनेवाली बात जो असहमति हमने जतायी उस बात को आगे बढ़ाते हुए अभिषेक ने कहा कि- ब्लॉगिंग एक पत्रकारिता का जरिया है। लेकिन सीधे-सीधे इसे कमाने का जरिया और इसके लिए आसान फार्मूला खोजने के बजाय पहले सोचा जाना चाहिए। हमें दायित्व और अधिकार पर बात करनी चाहिए। अभिषेक ने ये जोड़ते हुए कि अगर यहां पर हमारे पत्रकार भाई बैठे हों तो माफ करेंगे लेकिन जो चीज पत्रकारिता से चली गयी वो ब्लॉगिंग से न चली जाए। अभिषेक की इस बात पर अविनाश ने कहा कि ये तो खुला चीज है,कोई इसके जरिए सिर्फ अफवाह फैलाना चाहे तो वो भी कर सकता है। साथ ही ब्लॉगिंग के भीतर एक इन्डीविजुअलिटी का भी तो सवाल है। पब्लिक डोमेन के बीच भी अपनी बात रखते हुए कोई अपनी इन्डीविजुअलिटी को कोई कैसे बचाता है,इसे भी तो समझना होगा। आज आपके दस हजार हिन्दी ब्लॉगर हैं तो आप सब समझ रहे हैं लेकिन जिस दिन औसत दर्जे के लोग भी लिखने लग जाएं और ब्लॉगरों की संख्या(हिन्दी में) लाख के पार हो जाए,तब क्या आपकी यही समझ काम करेगी? अविनाश की इस बात पर अनिल जनविजय ने चुटकी लेते हुए कहा कि और आप तो ये काम कर ही रहे हैं। अनिल ने ये बात मजाकिया अंदाज में कही लेकिन अविनाश ने संभवतः इसे दिल पर ले लिया। वो अनिल से इस बात की ताकीद करने लगे कि बताइए कि हमने किस मामले में अफवाहें फैलायी?

बहरहाल इस बात से विमर्श के दो बिन्दु उभरकर सामने आ गए। एक तो अकाउन्टविलिटी का एथिक्स का सवाल और दूसरा कि अभिषेक ने जिस पत्रकारिता को बचाए रखने की बात कही उससे ब्लॉगिंग और वैकल्पिक मीडिया के संदर्भ में बातचीत करने का महौल बन गया।। इस बीच अविनाश वाचस्पति ने अपने अनुभव से हासिल ब्लॉग के महत्व के बारे में कहा कि-ब्‍लॉग के जरिए पूरे विश्‍व में कम्‍युनिकेशन बहुत सहज हो गया है। अपने विचारों के लोगों से आपस में विचार विनिमय होता है। अब तो ब्‍लॉग पर लिखा हुआ बहुत सारे लोग पढ़ रहे हैं। इस पर लिखी हुई सामग्री पर अच्‍छी प्रतिक्रियायें प्राप्‍त होती हैं। मैं अपने नुक्‍कड़ ब्‍लॉग, जिसमें तकरीबन 70 लेखक जुड़े हुए हैं और यह 95 देशों में पढ़ा जाता है,के जरिए हिन्‍दी लिखने पढ़ने का प्रचार प्रसार हो रहा है। ब्‍लॉग अब विकास की अनिवार्यता बनकर सामने आ रहा है और मैं रोजाना कम से कम भी 5 घंटे का समय ब्‍लॉग लेखन को नियमित रूप से दे रहा हूं। इन दोनों मुद्दों पर भूपेन,रविकांत और अविनाश एक बार फिर से मैंदान में उतरे जबकि शिशिर,शीबा असलम फहमी और भावना ने इस बहस में मजबूती से इन्ट्री लेते हुए अपनी बात रखी।

भूपेन ने साफ तौर पर कहा कि-अगर ब्लॉगिंग को लेकर हम अल्टरनेटिव मीडिया मान रहे हैं तो इस पर हमें विचार करना होगा। हमें ब्लॉगिंग में विज्ञापन को सिर्फ पैसे के लेने-देन के स्तर पर न समझकर इसकी पूरी इकॉनमी को समझना होगा। मेनस्ट्रीम मीडिया की इकॉनमी के साथ कम्पेयर करना होगा। हम कंटेट को गंभीरता से समझने की कोशिश करें। पूरी बात को समझने का एक तरीका ये भी है कि हम इसे कंटेंट के सिरे से समझना शुरु करें। इन्डीविजुअलिटी के जिस सवाल पर अविनाश बात कर रहे हैं क्या यहां आकर कोई इंडिविजुअलटी के साथ आकर बात कर सकता है इस पर भी विचार करना होगा। अगली बात कि किनो लोगों तक ये मीडिया पहुंच रहा है? हमें छोटी-छोटी बातों में उलझने के बजाय ब्लॉगिंग को व्यापक संदर्भ में देखने की जरुरत है।

भूपेन की बातों का समर्थन करते हुए रविकांत ने कहा कि भूपेन ने अच्छे सवाल उठाए हैं। सही बात है- alternative to what? आज तो ब्लॉग को लेकर वैकल्पिक मीडिया भी बहुत घिसा-पिटा शब्द हो गया है। वैकल्पिक मीडिया और ब्लॉग के सवाल पर भावना ने जो बात रखी मुझे लगता है कि वो बात हम जैसे अधिकांश ब्लॉगरों के साथ लागू होती है। उसने बहुत ही साफ शब्दों में कहा कि- कई बार हमें हमें मेनस्ट्रीम में स्पेस नहीं मिलता, हम ब्लॉगिंग करने लग जाते हैं और इस तरह हम सेल्फ मार्केटिंग का जरिया बना रहे हैं। इस तरह ये सिर्फ कमाई का जरिया होने के बजाय पहचान बनाने का माध्यम ज्यादा है। भावना की ये बात अविनाश की इन्डीविजुअलिटी की बात के ज्यादा करीब जाती है। जबकि शिशिर ने अविनाश की अफवाह फैलाने के लिए ब्लॉग से साफ तौर पर असहमति जाते हुए कहा कि ऐसा नहीं है कि आपको आपके लिए के लिए जिम्मेवार नहीं ठहराया जा सकता। मौटे तौर पर कई तरीके है जिसके जरिए आपको आसानी से ट्रेस किया जा सकता है। दूसरी बात की आपको लोग पढ़ रहे हैं और इस तरह आपको अकाउन्टेबल होना होना होगा। एथिक्स और पुलिसिंग और कंट्रोल का सवाल यही से उठने शुरु हो जाते हैं जिस पर जोरदार बहस शुरु होती है।

इस मामले में भूपेन की अपनी रही है कि- किसी को अपनी इन्डीविजुअलिटी को सिलेब्रेट करने का पूरा अधिकार है। लेकिन जब-जब वो पब्लिक डोमेन में आता है तो उसका विहेवियर बदल जाता है। जो भी हमारा सिविलाइजेशन एचीवमेंट है उससे हमने सीखा है कि कौन सी चीज सही है और कौन गलत है। मैं भी ये भी कह रहा हूं कि आप सोसाइटी में क्या चीज लेकर आना चाह रहे हैं? अविनाश, भूपेन के इस तर्क पर सहमत नहीं हुए और कहा कि-आपने कहा कि पब्लिक डोमेन में आकर शिष्ट हो जाता है। इसे हम भाषा के स्तर पर देख सकते हैं। जैसे न्यूजपेपर,टेलीविजन में चीजें शिष्ट तरीके से पेश करने की बात होती है। लेकिन अगर हमारे पास बात है और भाषा नहीं तो हम यहां पर वो बात लिख सकते हैं। इसे आपको समझना होगा। जो आर्ग्यूमेंट आप व्यक्तित्व के लिए दे रहे हैं वो आप भाषा में भी तो दे सकते हैं। भूपेन अपनी बात को लेकर आगे भी जारी हैं-फिक्शन में किसी कैरेक्टर का होना एक बात है और रीयल में होना एक बात है। कई बार ऐसा संभव है कि आप कानून की पकड़ में न आएं लेकिन अपने एथिक्स हो। यानी आपके अपने एथिक्स आपके लिए वैलेंस का काम करे। रविकांत ने पहले तो हल्के से एक सूत्र वाक्य इस पूरे बहस के बीच खिसका दिया कि- ब्लॉगिंग फिक्शन,फिक्शन क्यों है और रीयल रीयल क्यों है,इस पर बात की जानी चाहिए। लेकिन आगे जब लोग एक-एक करके अपनी बात न करने एक बजाय एक ही साथ चालू हो गए,ठेठ भाषा में कहा जाए तो कहें कि घौं-घौं करने लगे तब उन्हें बीच-बचाव में आना पड़ गया। तभी उन्होंने कहा कि नहीं भाई,अब हमें चेयर करना होगा। सभी को अपनी बात एख-एक करके करनी होगी।..इसके बाद फिर बात करने के क्रम निर्धारित होने लगे।

इस क्रम में विनय झा ने एक सवाल किया- तो फिर ब्लॉगिंग का उद्देश्य क्या होना चाहिए? विनय झा के सवाल पूछे जाने की खास बात रही है कि उन्होंने बहस के अतिरिक्त भी ब्लॉगरों से पर्टिकुलर सवाल पूछे जिस पर मैंने मजाक में कहा भी कि दरअसल ये सवाल के जबाब नहीं बाइट चाह रहे हैं। खैर,ये सवाल संभवतः मिहिर की तरफ रुख करके पूछा गया इसलिए इसका जबाब देते हुए मिहिर ने कहा कि- सवाल ये है कि जिम्मेवारी कौन तय कर रहा है,जाहिर है स्टेट तय करती है। ब्लॉगिंग के उपर स्टेट मशीनरी की नजर और कारवायी का सवाल इलाहाबाद की राष्ट्रीय चिठ्ठाकारी संगोष्ठी में भी उठायी गयी जिसे कि विभूति नारायण राय ने लगभग हड़काते हुए अंदाज में कहा कि स्टेट मशीनरी इस दिशा में सक्रिय हो इसके पहले ही सेल्फ डिसीप्लीन्ड होने की जरुरत है।

मिहिर ने दूसरी बात की। उसका मानना रहा कि कई बार ऐसा होता है कि स्टेट जिसे जिम्मेवार मान रही होती है वही सही खबर दे रहा होता है। कानूनन आप जिसे गलत मान रहे हों वहीं सही बात कर रहा हो। इसलिए जिम्मेवारी का सवाल कोई आसान और एकहरे स्तर पर डील करनेवाला सवाल नहीं है। मिहिर ने अपनी बात पूरी कि तभी विनय झा ने मेरे उपर सवाल दाग दिए। उसका मानना है कि लोगों का ब्लॉगरों पर भरोसा नहीं है,इस बारे में आपकी क्या राय है? मैने कहा- भईया मेरी तो बस इतनी राय है कि नहीं है भरोसा तो नहीं रहे,हम किसी से कहने भी नहीं जाते कि आप भरोसा करो। हम तो अपने मन की बात करते हैं। मैं अपनी बात रखने के जो में ध्यान नहीं दिया लेकिन बीच में किसी ने कहा जरुर कि आपको जिस पर भरोसा है वही भरोसे पर कितना कायम हैं,ये भी तो सोचिए।

इसी बातचीत के क्रम में अविनाश ने भूपेन की तरफ कुछ तथ्यों के साथ एक सवाल पटका- चीन की वेश्याएं भी ब्लॉगिंग कर रहीं है,एक स्त्री अपने सपने के बारे में लिख रही है कि वो दुनिया के किन-किन पुरुषों के साथ रात बिताना चाहती है,इसे आप किस रुप में लेते हैं? भूपेन ने जबाब और मन्तव्य के तौर पर आखिरी बात कही- हर मैसेज का मकसद होता है। अगर नहीं होता तो कोई नहीं देता। इस बात को हमें समझना होगा। क्या मैसेज दे रहे हैं ये महत्वपूर्ण है? रीडर्स क्या पढ़ रहे हैं,इसे देखा जाना चाहिए। आप अगर ब्लॉगिंग में सनसनी को ही पढ़ रहे हैं तो फिर कोई बात नहीं। ये एक दुधारी तलवार है लेकिन दूसरी तरफ इसका बुरा से बुरा इस्तेमाल कर सकते हैं। नैतिकता का कोई मापदंड नहीं है।

भूपेन की बात को रिस्पांड करते हुए अभिषेक ने कहा कि-मेरा पहला इन्टरेएक्शन है ब्लॉगिंग के लोगों से। ये वही मुद्दे हैं जो हम इन्टरनेट में उठाते हैं तो फिर इससे अलग कैसे रह गया? इस अर्थ में ब्लॉग सरल माध्यम है। लेकिन वह सवाल जब आ जाता है कि भूपेन ने जो सवाल उठाया कि एथिक्स क्या है,ये कोई एकहरी बात नहीं है। हमें आज के परिवर्तन को समझना होगा।



शीबा असलम फहमी इस पूरी बहस में जो अब तक न के बराबर बोलती हुई चुपचाप सुनती चली जा रही है,अबकी बार लगभग भड़क जाती है और अपने स्थापित अंदाज में कहती है-आप किसके मोरल को इन्वोक करना चाह रहे हैं। जो मसले आए नहीं है उसे क्यों हल करने में क्यों लगे हैं? हम थ्योरी बनाकर रियलिटी को क्यों खोज रहे हैं? हम हायरारिकल क्यों लाना चाह रहे हैं? मैं जो कहना चाह रही हूं उसमें पहली बात तो ये कि अगर ब्लॉगरों के बीच कम्युनिटी जैसी कोई चीज है तो जो बात उठायी जा रही है कि कोई अकेला अफवाहें फैला रहा तो उसको कैसे रोका जाएगा? इस मामले में मेरा मानना है कि कम्युनिटी उस इंडीविजुअल का ख्याल खुद ही रख लेगी। बाहर से पुलिसिंग की जरुरत नहीं है किसी तरह का रुल बनाकर। दूसरी बात कि अभी जो परेशानियां आयी नहीं है उसको क्रीएट करके उसके सॉल्यूशन्स मत ढूंढिए। तीसरी बात कि जब हम थ्योराइज करते हैं तो जैसा कि कई सारे सेमिनार और कॉन्फ्रेंसेज में होता है कि जबरदस्ती चीजों को प्रॉब्लमेटाइज कर देने का। तीसरी बात कि ये ब्लॉगरों के लिए स्टेज है कि आप लोगों को एन्करेज करें कि ज्यादा से ज्यादा लोग इसमें आएं। उसके बाद है कि आप क्वालिटी पर बात करें,अभी तो क्वान्टिटी में भी बात नहीं हो पा रही है।

शीबा के साथ-साथ भावना भी पुलिसिंग के मामले पर असहमत होती है। उसके हिसाब से यहां पर्सनल को पब्लिक बना रहे हैं,हम किससे रिकग्नीशन चाह रहे है? क्या हम न्यूज चैनलों की तरह ब्लॉग गिल्ड बनाना चाह रहे हैं? इस पर रविकांत ने साफ तौर पर कहा कि-नहीं हम ऐसा कुछ भी नहीं करने जा रहे हैं। इलाहाबाद की संगोष्ठी में ऐसा कुछ बनाने की कोशिशें जरुर हुई लेकिन असहमति और इच्छाशक्ति की कमी(जिन्होंने ये मामला उठाया था) की वजह से मामला धरा का धरा ही रह गया,सो अच्छा ही हुआ।

आगे जो बहस चलती है वो बिल्कुल ही ब्लॉग की दुनिया का नया हिस्सा है। अब तक करीब दस से ज्यादा ब्लॉगर मीट में शिरकत कर चुका हूं लेकिन इस मुद्दे पर बात नहीं हुई। मेनस्ट्रीम मीडिया में एक थ्यरी जरुर है- रीडर रिस्पांस थ्यरी या ऑडिएंस परसेप्शन एंड रिएक्शन। ब्लॉग की दुनिया में पाठकों को लेकर बहस नहीं चली है लेकिन इस मीट की खास बात रही कि इस पर भी जमकर चर्चा हुई। अंकुर ने इस सवाल को उठाया लेकिन इसके पहले आते ही ललित ने सारे ब्लॉगरों को सलाह दी कि आप ब्लॉग को जबरदस्ती न पढ़वाएं प्लीज। ये बात भी किसी न किसी रुप में पाठक के महत्व से ही जुड़ती है। हॉलाकि अंकुर ने रीडर के महत्व की बात विज्ञापन के संदर्भ में कही लेकिन वो ओवरऑल ब्लॉगिंग पर लागू होती है। उसके हिसाब से- रीडर इज मोर इम्पॉर्टेंट दैन राइट। हमें इस पर बात करनी होगी। रीडर इज डीम इम्पार्टेंट। इट्स नॉट ऑनली इन्डीविजुअल।
अंकुर के ऐसा कहने के बाद बहस का पूरा रुख ब्लॉग और रीडर के हिसाब से अपनी बात रखने की ओर चला जाता है। ललित ने इस बात को आगे बढ़ाते हुए कहा कि-हमलोग क्या लिखें इस पर क्यों इतनी बात कर रहे हैं,आप क्या पढ़े पर क्यों बात नहीं कर रहे? आप रिस्पांसबल बनिए। ललित ने जो बात कही उसके जरिए ब्लॉगिंग के भीतर कंटेंट फिलटरेशन का काम हो जाने की गुंजाइश बनती नजर आती है। मामला साप है कि अगर आप अच्छी चीजें पढ़ेगे,उसे बढ़ावा देंगे तो जाहिर है कि लिखने का काम भी उसी स्तर का होगा। इसलिए जरुरी है कि लिखते हुए भी हम एक सीन्सीयर रीडर बने।
ललित ने ये भी कहा कि आप यकीन मानिए कि गूगल हमसे ज्यादा इन्टेलिजेंट है जिसका कि समर्थन शिशिर सहित बाकी लोगों ने भी किया कि वो हमारी लिखी बात को ऐज इट इज न समझते हुए भी उसकी क्वालिटी को परख लेता। इसलिए जरुरी है कि आप रीडिंग के जरिए कंटेंट के बेहतर होने के बारे में सोचें। अरविंद शेष इस पूरी बातचीत में चुप ही रहे। उनसे जब कहा गया कि आप इस पर अपनी कुछ राय जाहिर करें तो उन्होंने कहा कि वो तो लोगों की बात सुनने भर आए हैं। ललित की थ्यरी से वो बाजी मार ले गए। आगरा से आयी सुमन को भी इस थ्यरी का पूरा लाभ मिला जो बीच-बीच में मुस्करा भर रही थी। अंबेडकर कॉलेज,दिल्ली से आए मीडिया स्टूडेंट जो कि चुपचाप हमारी बहसों को सुनते आ रहे थे उनका भी हौसला बढ़ा। ब्लॉग को लेकर हम बड़बोलों के बीच वो सबसे ज्यादा सीन्सीयर करार दिए गए। तभी हमने समोसे और जलेबी दबाने में संकोच करते अरविंद शेष को मजाकिया अंदाज में कहा-आप टेंशन मत लीजिए सर। आज,लिख तो कोई भी लेगा लेकिन असल चीज है पढ़ना। बड़बोलापन जहां क्वालिटी बनती जा रही है,ऐसे में बोल तो कोई भी लेगा लेकिन असल बात है सुनना। इस बीच अविनाश की लगातार चाह होती है कि वो चाय पिएं। समय भी हो ही चला इसलिए ललित की बात के बाद औपचारिक तौर पर ब्लॉगर मीट के समाप्त होने की घोषणा की जाती है। रविकांत लोगों का आने के लिए शुक्रिया अदा करते हैं औऱ आनेवाले लोग बुलाने जाने के लिए रविकांत का शुक्रिया अदा करते हैं।

लेकिन औपचारिक समाप्ति की घोषणा के बाद ब्लॉगर मीट का एक्सटेंशन बनता है सराय के बेसमेंट में बना कॉफी कार्नर। समोसे,जलेबी,चाय और ब्लैक टी के साथ बहस-बूहस का एक और दौर। हंसी-ठहाके। आशीष के हाथ की बनाई कॉफी पीकर मैं तो तर गया। सचिन ने अपने हिस्से की जलेबी हमारी ओर बढ़ाया।..वो दौर जब एक-दूसरे की खींचातानी का सुख जिसके लिए हम जैसे लोग बेताब रहते हैं। जलेबी की मिठास से लोगों की लगातार होठ कि अब तुमसे ज्यादा काबिल है,महौल में ज्यादा मिठास पैदा कर सकते हैं। समोसे खाते वक्त किसी को मिर्ची लगती है,वो शी..शी..शी..करता है लेकिन स्टार न्यूज के कार्यक्रम की नकल और चुप रहने के लिए नहीं इस उम्मीद से कि कोई कहे..अरे मिर्ची लग गयी,कोई बात नहीं एकाध-जलेबी और खा लो।.

नोट- इस ब्लॉगर मीट में जिसने भी ब्लॉगर और साइट से जुड़े लोग आए,अपनी कोशिश से हमने उसे हायपर लिंक कर दिया है लेकिन जो लोग भी छूट गए हैं उनका एक लाइन में परिचय दिए दे रहा हूं। कुछ लोगों के बारे में मैं बिल्कुल भी नहीं जानता। रविकांत से जानने की कोशिश कर रहा हूं लेकिन वो अभी कहीं व्यस्त हैं। जानकारी मिलते ही उनका परिचय जोड़ दूंगा।
फिलहाल- विभाष वर्मा- देशबंधु कॉलेज में हिन्दी के प्राध्यापक,अभिषेक-सॉफ्टवेयर और ओपनसोर्स से जुड़े हैं। शिशिर ने ब्लॉग मीट के ठीक पहले हिन्दी सॉफ्टवेयर पर अपना प्रजेन्टेशन दिया। इस विषय पर सराय की फैलोशिप पर काम कर रहे हैं। सत्यकाम और अंकुर भी सॉफ्टवेयर और आउटसोर्सिंग से जुड़े हैं। प्रभात सीएसडीएस के अंकुर लिए काम करते हैं। विनय झा मीडिया के स्टूडेंट हैं। सुमन BIG 92.7 एफ.एम.आगरा से जुड़ी है। आशीष और सचिन दोनों सीएसडीएस-सराय से जुड़ें हैं।

डिस्क्लेमर- मिहिर पूरी मीट में ताबड़-तोड़ कैमरा क्लिक करते रहे। अपने पास कैमरा न होने की वजह से सारी उम्मीद उन पर लाद दिया। लेकिन उनका कहना है कि वो एक-दो दिन के भीतर फोटो मुहैया करा पाएंगे। एक उम्मीद बंधी कि दिल्ली आजतक ने जो कवरेज किया है और हमलोगों की बाइट ली है,फिलहाल उसी को लगा देंगे। लेकिन जैसा कि अक्सर होता है-हमलोगों की बातों को उठाकर उसने खबर तो जरुर बना दी लेकिन कार्यक्रम का एक भी शॉट नहीं लिया और न ही बाइट लगायी। बमुश्किल 32 सेकण्ड की स्टोरी में बातें सारी हमारी है लेकिन दावा हमारा नहीं है। इसलिए फोटो के मामले में यहां भी नाउम्मीद हुए। बहरहाल जो भी इसकी रिकार्डिंग करके पुष्कर पुष्प यूट्यूब पर डालकर खासतौर से हमारे लिए उपलब्ध कराया है। ठंड में उठकर रिकार्डिंग करने और इसे अपलोड करने के लिए उनका बहुत-बहुत शुक्रिया। शीबा ने समझदारी दिखाते हुए लैपटॉप से कुछ तस्वीरें ले ली। फोन करने पर हमें तत्काल मेल किया इसलिए उनका शुक्रिया। बाकी मौजूद ब्लॉगर कुछ और लिखेंगे तो हमें अच्छा लगेगा। अभी तक ये रिपोर्ट अधूरी है। इसमें फोटो,परिचय और लिंक को लेकर सुधार जारी है।



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