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कल तक आपने पढ़ा कि हिन्दी मीडिया में काम करने के लिए आपकी अंग्रेजी दुरुस्त हो। टाइम और गार्जियन की खबरों के प्रति समझ बनाने के लिए नहीं बल्कि अंग्रेजी से हिन्दी में ऐसा अनुवाद करने के लिए कि लगे आप खुद गए थे, अंडमान में स्टोरी कवर करने के लिए, अब आगे पढ़िए-
मुगलसराय एक ऐसी जगह है जहां से आपको कहीं की भी बस, ट्रेन पकड़नी हो, जर्नी ब्रेकअप करनी हो, तफरी के लिए बनारस जाना हो या फिर थकान मिटाने के लिए यहां सुस्ताना हो...इन सब कामों के लिए भारतीय रेल के पास इससे बेहतर कोई स्टेशन नहीं है। यहां इस बात से कोई मतलब नहीं है कि आपने पहले से टिकट लिया है या नहीं, रिजर्वेशन कराया है या नहीं। यहां सबकुछ आपके मूड पर डिपेंड करता है। गाड़ी में बैठ जाओ, समय के साथ सब मैनेज हो जाएगा। क्या हिन्दी मीडिया के साथ भी कुछ ऐसा ही है।
कोई सा भी कोर्स करो, कभी भी मन करे, कोई भी बैग्ग्राउंड है यहां आप आ सकते हो। ये तो अब हो गया है कि कहीं से आपको मीडिया में सालभर का डिप्लोमा या ऐसे ही किसी कोर्स कोर्स का सर्टिफिकेट आपके पास होनी चाहिए। और इसके लिए दुनिया भर के संस्थान पहले से तैयार बैठे हैं।...अजी इंस्टीच्यूट तो ऐसे भरे पड़े हैं जो परीक्षा के समय दरवाजा सटा देंगे और कहेंगे लिखो...मगर हल्ला मत करो और जब लगेगा कि वो गलत करवा रहें हैं तो आपसे साफ कहेंगे, भाई मीडिया में परिक्षा कोई बड़ी चीज नहीं है, असल चीज तो है कि आप चैनल या अखबारों में जाकर कैसा परफार्म करते हो, आपकी स्क्रिप्ट कैसी है, ये अलग बात है कि सालभर के कोर्स में आपसे एक दिन भी स्क्रिप्ट पर काम नहीं करवाया जाएगा। कईयों के तो मामू या चाचू पहले से ही मीडिया में जड़ जमाए हुए हैं और उन्हें गेट पास के रुप में एक डिग्री चाहिए बस। दो-तीन बंदों को पता चला कि मैं झारखंड से हूं तो सीधे मेरे पास आए और कहा कि- सुना है झारखंड में दस हजार रुपये में सर्टिफिकेट मिल जाता है, आप कुछ कीजिए। कोर्स तो आप भी कर ही रहे हैं, वैसा कुछ जुगाड़ बन गया तो आपको भी कहीं न कहीं सेट करा देंगे।....उपरी स्तर पर वो कुछ कोशिश करते भी नजर आएंगे। एकाध बार मामू से मिलवाया भी। हिन्दी मीडिया में काम करनेवालों की अकड़ का एक और नमूना देखिए- मिलते ही आपसे पूछेंगे कि तुम्हारी अंग्रेजी कैसी है, काम कर लोगे अंग्रेजी में। साहब जिस समय बंदा मीडिया का कोर्स कर रहा होता है अगर उसे पता चल जाए कि फलां काम सीखने से नौकरी मिल जाएगी तो अंग्रेजी क्या फ्रेंच भी सीख लेगा। मामू को पता है कि हिन्दी से एमए है, बैग्ग्राउंड सेंट बोरिस का ही रहा होगा। गरीब राज्य के बच्चे बचपन में जूट या बोरी बिछाकर पढ़ते हैं, दिल्ली में आकर उनकी इज्जत बनी रहे इसलिए मैं सेंट बोरिस लिखता हूं। सो कहेंगे कि दि टाइम्स में एक पोस्ट तो है जो रिक्र्यूटमेंट देखती है, मेरी क्लासमेट भी है। अगर अंग्रेजी बहुत अच्छी है तो आगे बात करते हैं। आप स्वाभाविक तौर पर पिछड़ जाएंगे। लेकिन मैं तो यहां भी जड़ जमाने के चक्कर में रहता। सीधे कहता-मामू आप बात कीजिए, बाकी हम सब देख लेंगे। बाद में मामू खबर भिजवाते कि बोलने का थोड़ा ठीक-ठीक अभ्यास करे, पता नहीं कब इंटरव्यू के लिए निकलना पड़े। उन्हें ये भी पता होता कि अपने तरफ का है तो जरुर घोड़ा को घोरा और श को स बोलता होगा।...साइड से लड़के को समझा देते, थोड़ी दूरी ही बनाए रखना इससे। है तो झारखंड से लेकिन दो साल से डीयू में है, पॉलिटिक्स में माहिर होगा। अपने तो सेट हो जाएगा और तुम बिना सर्टिफिकेट के लटक जाओगे। इधर जब मैं मामाडी की कुंडली पता करता तो इग्नू से बीए हैं, सिविल में जाना चाहते थे लेकिन भ्रष्टाचार के मारे गए ही नहीं, कुछ हटकर करना चाहते थे।
मीडिया में हर कोई आता भी इसलिए ही है कि वो कुछ हटकर करना चाहता है। क्योंकि दुनिया में कुछ भी हटकर करने की गुंजाइश मीडिया में ही है। जो बंदा सुबह-शाम ध्वज लगा रहा है, उतार रहा है वो भी और जो बंदा मुट्ठी भर तान देने से क्रांति आ जाने के सपने देखता है वो भी। एक ध्वज लगाते-लगाते बोर हो गया है तो दूसरा मुट्ठी तानते-तानते। सालभर हो गए, कहीं कुछ भी तो नहीं बदला, चलो मीडिया में ही कुछ किया जाए। कुछ नहीं तो समाज को देखने-समझने का अनुभव तो उनके पास है ही और मीडिया में काम करने के लिए इतना क्या कुछ कम है। उनसे तो बेहतर ही हैं जो भैंस बांधकर बगल में एसएससी या बैंकिग की तैयारी करने बैठे हैं।....अब उनको कौन बताए कि अपार्टमेंट के पांचवें तल्ले पर रात के तीन-तीन बजे तक लाइट जलती है वो भी मीडिया में आना चाहते हैं और व्यूजी कॉन्टेस्ट जीत चुकी पड़ोस की नीदिमा भी हमें फाइट देगी, सीधे एंकर बनेगी।
जो बंदा दो-तीन बार यूपीएसी में बैठ चुका है। पीटी निकाल चुका है लेकिन मेन्स में अटक जाता है वो भी हिन्दी मीडिया में जाने का मन बना चुका है। उसके दिमाग में बस बात बैठ गई है कि सब चुतियापा है, सिविल में कुछ भी नहीं रखा है। आइएस बन भी जाओगे तो क्या कर लोगे। ऑपरेशन पर गए हो और लौटे तो पता चला कि पत्नी गायब। इधर से फोन पर २० लाख की डिमांड हो रही है। अपने मन का कुछ कर नहीं सकते। मीडिया में आदमी कम से कम अपने मन का लिख-पढ़ तो सकता है।...और कौन कर लेगा किडनैप।
इधर तीन साल तक यूनिवर्सिटी में झोला ढोनेवाला हमारा रिसर्चर मीडिया में आने के लिए बेताब हुआ जा रहा है। पीएचडी होने को है लेकिन गाइड उससे पहले ही रिटायर हो गए। उनका जो कुछ भी बना-बनाया था सब खत्म हो गया। अब कोई नौकरी क्यों देगा। बेचारे ने कोशिश तो बहुत की लेकिन कुछ नहीं हो सका। अच्छा ही है, मीडिया में रहूंगा तो कम से कम अपडेट रहूंगा। वैसे भी सूर-कबीर पढ़ते और गेस्ट लेक्चरर बनकर पढ़ाते-पढ़ाते पक गया हूं। मेरी मां के शब्दों में इतना पढ़कर पढाएगा और कोई दूसरी नौकरी नहीं मिलेगी। जेनरेशन भी सुधरेगा, बच्चों को भी सोसाइटी में बताने में अच्छा लगेगा- माई डैड इज जर्नलिस्ट।
इसी तरह मेडिकल, इंजीनियरिंग, मैनेजमेंट, रेलवे में अजमाकर हताश हुए लोगों की एक लम्बी फौज हिन्दी मीडिया में अपनी हैसियत बनाने आते हैं। सब पीछे की जिंदगी, करियर से उबे हुए, थके हुए, निराश और परेशान। लेकिन मीडिया को लेकर उत्साहित। मीडिया उनके लिए विरेचन का काम करता है। क्योंकि यहां क्या नहीं है, पैसा, पावर, स्टेटस, लाइफ और कुछ हटकर करने का मौका।
ये वो खेप होते हैं जो कुछ नहीं बन पाए तो हिन्दी मीडिया में आ गए। इनकी आस्था एक बार टूट चुकी है सही तैयारी करके, रगड़कर पढ़कर और लाल बत्ती औऱ कोलगेट के विज्ञापन में आने सपने देखकर। अब वो उतना ही कर पाएंगे जितने से वो पत्रकार होने की सैलरी पाते हैं। न तो चैनलों में कुछ एडवेंचरस करने के स्पेस हैं और न ही उनमें कुछ करने का ज़ज्बा। जो चल रहा है, जैसे चल रहा चलने दो।
चैनलों का ध्यान इस थकेली खेप पर चली जाती है। इसलिए वो हमेशा फ्रेश का डिमांड करती है। कभी-कभी ग्रेजुएशन कर रहे बच्चों को ही सीधे बिना कोर्स के रख लेती है। लेकिन तीन-चार महीने बाद या तो वो खुद छोड़ देते हैं या फिर चैनल खुद ही जबाब दे देते हैं कि आप चल नहीं पाएंगे। ऐसा इसलिए होता है कि चैनल फ्रेश का मतलब उम्र या क्लास से लगा लेती है जबकि ग्रेजुएशन के बच्चे भी साल, दो साल, तीन साल मेडिकल या इंजीनियरिंग में झक मारकर ग्रेजुएशन करने आते हैं और बाद में यहां भी कुछ कर नहीं पाते तो मीडिया में।...
इसलिए सीधे-सीधे ये मान लेना कि मीडिया में आकर लोग बोर हो जाते हैं गलत होगा। सच्चाई तो ये है कि मीडिया डितनी उदारता से सारे लोगों को बिना बैग्ग्राउंड की तफसील में गए ले लेता है, उतनी शिद्दत से उनके इन्टरेस्ट को बनाए रख नहीं पाता और लोग हाय,हाय करते हैं, डिप्रेशन में जाते हैं। तब उन्हें लगता है कि जो सोचकर मीडिया में आए थे वैसा कुछ भी नहीं हैं और इतिहास उन्हें बार-बार कोडे मारता है कि-तुम वहीं ठीक थे।
दलील- जो लोग हिन्दी मीडिया में पैशन के तौर पर काम कर रहे हैं, उन्हें सलाम। उनकी तरक्की होती रहे, देश का बच्चा-बच्चा उन्हें जाने और मन में उत्साह बना रहे कि हम जो कुछ भी कर रहे हैं, इससे समाज पहले से बेहतर बन रहा है। उनपर मेरी पोस्ट का एक भी शब्द लागू नहीं होता।...दोस्त की शुभकामनाएं साथ है।
हिन्दी के मसले को साहित्य की दुनिया में भी देखेंगे, अभी कुछ आगे तक हिन्दी मीडिया को ही जाने दें।
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तो आपने देखा कि कैसे हिन्दी मीडिया अंग्रेजी न्यूज एजेंसियों, रॉयटर या एपीटीएन से खबरों को उठाकर, उसका अनुवाद करके अपना लेबल चस्पा देते हैं। मीडिया की नौकरी करते हुए ऐसा हमसे खूब करवाया जाता रहा। एक प्रोग्राम आया करता था हमारे चैनल पर अराउंड द वर्ल्ड। उसमें अजीबोगरीब खबरें चलाये जाते थे, जिसका कि यहां के लोगों से कोई लेना-देना नहीं होता था और न ही उससे किसी तरह का जीएस ही मजबूत होता था। जिसके संदर्भ अपने से बिल्कुल नहीं मिलते थे। ऑफिस जाते ही चार-पांच देशों की ऐसी खबरें पकड़ा दी जाती और कहा जाता कि पैकेज बनाओ। खून के आंसू रोते थे हमलोग और रोज मनाते कि कब ये प्रोग्राम बंद हो। लेकिन बेअक्ल प्रोड्यूसर समझ ही नहीं पाता था कि इसका कोई मजसब ही नहीं है। जिस दिन प्रोग्राम बंद हुआ था, हम तीन-चार साथियों ने मंदिर मार्ग पर जमकर पराठे खाए थे।

अभी भी कोई बंदा किसी हिन्दी चैनल या अखबार में नौकरी के लिए जाए तो उसे इंटरनेट से एक-दो पन्ने प्रिंट आउट निकालकर दे दिया जाता है और फिर कहा जाता है इसकी खबर या पैकेज बनाओ। मजेदार, ऐसा कि एक-दो लाइन ही देख-पढ़कर आगे के लिए बंदा मचल जाए। एक बार मैंने भी एक बड़े अखबार के लिए डॉगी डिनर पर ऐसी खबर बनायी थी। वो पसे बार-बार कहेंगे कि खबर ऐसी लगे कि टची लगे, मन को छू जाए। आप उसे ऐसे समझो कि, खबर को इस तरह से लिखना है कि लगे नहीं कि वो अंग्रेजी का अनुवाद है, वहां से टीपा गया है। एकदम से परकाया प्रवेश लगे।॥और अखबार या चैनल आपपर रौब जमा जाए कि- देखिए कहां-कहां से खबरें हम खोज-खोजकर लाते हैं। इंडिया टीवी जब शराबी बकरे की खबर दिखाता है तो आप उसे गाली देते हो लेकिन सच कहूं ये खबर इंडिया टीवी की अपनी नहीं नहीं थी, किसी बड़े अंग्रेजी न्यूज एजेंसी से ली गयी थी।...यानि हिन्दी चैनल जब अंग्रेजी से कुछ लेते हैं तो ये भी नहीं सोच पाते कि क्या बेहतर है या हो सकता है। वो इस मानसिकता से अब बी ग्रसित हैं कि अंग्रेजी में है तो कुछ भी , बढिया ही होगा। ....और तारीफ देखिए जनाब कि जब कभी वो ऐसी खबरें लेते हैं तो एक बार सोर्स का नाम देना तक जरुरी नहीं समझते। यानि की ऑडिएंस को मूर्ख समझने वाली हिन्दी मीडिया कभी-कभी अपने को भी मुर्ख मान लेती है और अंग्रेजी ने जैसे जो कुछ रख दिया उसे मान लेती है। मैने कभी नहीं देखा कि इन अंग्रेजी न्यूज एंजेंसियों की खबरों की क्रॉस चेकिंग होती हो। चाहे वो खबर उड़ीसा या फिर हिन्दुस्तान के किसी दूसरे हिस्से की ही क्यों न हो।। आप इसे अंग्रेजी पर अतिरिक्त निर्भरता नहीं कहेंगे तो और क्या कहेंगे। सेकेंडरी सोर्स के बूते कूदनेवाली हिन्दी मीडिया लोग के बीच जिस तरह से अकड़ कर खड़ी होती है और एक गांव का आदमी चैनल के रिपोर्टर को तोप समझ बैठता है, यह रिपोर्टर के लिए भले ही सुखद क्षण होते होगें लेकिन कम पढे-लिखे समाज को और अधिक जाहिल बनाने में चैनल भी जिम्मेवार हो जाता है।

आपने कभी किसी कस्बे या गांव के लोगों के बीच पॉलिटिक्स पर बहस और दावे करते हुए सुना है। जब वो बात करते हैं और सामने वाला बंदा बात नहीं मानता तो हवाला देता है कि क्या फलां चैनल झूठ बोलेगा। अगर आप उसी चैनल से हैं जिस चैनल का बंदे ने नाम लिया है तब तो आप फुलकर कुप्पा हो जाएंगे कि भई ये है खबर का असर।॥और उंचे ओहदे पर हैं तो आकर तुरंत चलाएंगे फ्लैश- खबर का असर। लेकिन कभी इस एंगिल से सोचिए कि कितना भरोसा करती है ऑडिएंस आप पर औ कितनी बड़ी भारी जिम्मेवारी आप पर लाद देती है, ढाई-तीन सौ रुपये की झिंग्गा ल॥ ला लगाकर। उस बंदे को क्या पता कि जिस खबर को वो देख रहा है उसे बनानेवाला न जाने कितनी बार डिक्शनरी पलटकर हिन्दी तर्जुमा किया है, न जाने किस अखबार की कतरन को न्यूज में ढाला है, न जाने किस बेबसाइट से चेपा है। इसलिए आप देखेंगे कि कभी-कभी चैनलों पर जो खबरें आती हैं उसकी हिन्दी भूली-भटकी हिन्दी होती है। जैसे किसी बाहर के आदमी को दिल्ली के मूलचंद फ्लाई ओवर की सारी सड़के एक सी लगती है और मरीज को लगता है कि सारे रास्ते एम्स को जाते हैं। ठीक उसी तरह हिन्दी मीडिया के कुछ शब्द हमेशा हवा में तैरते रहते हैं। आपको जब जरुरत पड़े उसे उठा लें।

ऐसे में अगर आप चैनल की खबरों पर गौर करें तो आप देखेंगे कि सारी चीजें चैनल के पास तैयार होतीं हैं- रिपोर्टर, ओबी, एंकर, बाइट, पैकेज, शब्द, सिर्फ घटनाएं होनी बाकी होती है। इधर हत्या हुई नहीं कि खबर तैयार। ऑडिएंस को चैनल के प्रति अपार श्रद्धा उमड़ जाता है कि वाह, क्या तेजी है, क्या चुस्ती है। उसे क्या पता कि दिल्ली की अभ्यस्त दुनिया में सारी चीजें पहले से कटी होती हैं बस छौंक लगानी होती है, मामला चाहे शाही पनीर का हो या फिर चाउमिन का। खबरें भी ऐसे ही तैयार होती है। विश्वास न हो तो आप किसी पैकेज को गौर से देखें और नोट करें कि इसके किपने फुटेज बासी यानि साल, दो साल या छ महीने पहले के हैं। अब रोज-रोज कहीं कोई शूट करने नहीं जाता, नहीं हुआ तो बेबसाइट से कुछ ताजा माल ले लो।

इन सबके बावजूद भी हिन्दी मीडिया ताल ठोकने के लिए तैयार है। क्योंकि मीडिया है ही ऐसी चीज कि इसमें चाहे लाख गड़बड़ी हो, सामाजिक जागरुकता के कुछ हिस्से निकल ही आते हैं और हिन्दी मीडिया को दावे करने के लिए इतना पर्याप्त है।

आगे पढिए साहित्य की दुनिया में चेपा-चेपी और हिन्दी-अंग्रेजी

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हिन्दी समाज भले ही इस बात को ताल ठोककर हेकड़ी भरता रहे कि संवेदना के मामले में वो अंग्रेजी से आगे है। भाषा की बात आने पर अंग्रेजीवालों का मुंह नोचने पर आमादा हो आए, हिन्दी को लेकर कितना सीरियस है इस पर बात न करके अंग्रेजी के नाम पर कितना जल्दी खून खौल जाए में अपना बडप्पन समझता है। लेकिन सच्चाई यही है कि इतने प्रयासों के बावजूद हिन्दी के लोग अंग्रेजी के मुकाबले बहुत पीछे हैं।

अपनी समझ से शुरु से ही मैं मानकर चलता हूं कि जब कभी भी हम भाषा पर विचार करते हैं तो सवाल सिर्फ अभिव्यक्ति में आए फर्क को लेकर नहीं होता है बल्कि कंटेंट और संदर्भ भी पूरी तरह बदल जाते हैं। यहां अगर बात अंग्रेजी और हिन्दी को ध्यान में रखकर की जाए तो यह मामला साहित्य, मीडिया और टीवी चैनलों में साफ दिखाई देता है। इस बात पर मुझे कुछ भी कहने की जरुरत महसूस इसलिए हुई कि मेरी पोस्ट पर एक साथी ने लिखा कि आप बताएं- देश में क्या सिर्फ अंग्रेजीवाले सीरियस न्यूज देखना चाहते हैं। साथ विकास का सवाल इस मामले में था कि हिन्दी चनलों को जब भी कहा जाता है कि ये सांप-सपेरों या फिर जलवों में फंसकर रह गए हैं तो इनका सीधा जबाव होता है कि दर्शक जो देखना चाह रही है वही हम दिखा रहे हैं। विकास का कहना बिल्कुल जायज है कि अगर अंग्रेजी चैनलों में अनर्गल चीजें कम आतीं हैं तो इसका मतलब तो यही हुआ न कि अंग्रेजी के दर्शक हार्ड कोर सीरियस न्यूज देखना चाहते हैं।

हिन्दी मीडिया और साहित्य दोनों को लेकर बात करें तो जो मेरी अपनी समझदारी बनती है वो यह कि जो बंदा अंग्रेजी में न्यूज देख-समझ रहा है, उससे इस बात की उम्मीद की जाती है कि वो केवल भाषा ही नहीं समझ रहा है बल्कि मुद्दों के स्तर पर भी मैच्योर है, समझदार है, पढ़ा-लिखा है। ये वो दर्शक है जिसे कि आप कुछ भी दिखा देंगे और वो देख लेगी ऐसा नहीं है, वो सीधे आपके चैनल को छोड़कर कहीं और चली जाएगी। इसलिए अंग्रेजी चैनल खबरों या पैकेजों को चलाते समय इस बात का ध्यान रखती है कि उसका ऑडिएंस भाषा के साथ-साथ कटेंट को लेकर भी सजग है। जबकि हिन्दी मीडिया के साथ बात बिल्कुल दूसरी है। जो हिन्दी जानता है, समझता है उससे इस बात की अपेक्षा नहीं होती कि वो मुद्दे को लेकर भी उतना ही समझदार है, वो सारे मसलों को उतनी ही सजींदगी से समझता है। ये वो दर्शक है जो अभी-अभी सूचना की दुनिया से जुड़ा है या फिर पहले भी जुड़ा गै तो भी शिक्षित हो जरुरी नहीं। इनमें नेगलेंस क्षमता नहीं होती, इन्हें जो भी दिखा दो, देश लेगी। यानि एक स्तर पर हिन्दी मीडिया मानकर चलती है कि हमारी ऑडिएंस मूर्ख हैं, इम्मैच्योर है। ऐसे मैं अगर बात ईमानदारी की जाए तो कायदे से हिन्दी मीडिया को अपनी ऑडिएंस को ज्यादा समझदार बनाना चाहिए, उसे मैच्योर बनाए लेकिन मीडिया अगर ऐसा करने लगे तो फिर उसका काम तो हो गया। ये लम्बी प्रक्रिया है, बहुत पेशेंस का काम है। और फिर अगर ऑडिएंस उतनी समझदार हो भी गई तो फिर इनका कौन-सा भला होगा, उल्टे इनका नुकसान ही होगा। वो आगे से इनके अधकचरे ज्ञान को, खबरों को, जल्दीबाजी में बटोरे गए आंकड़ों और बाइटों पर भरोसा करना छोड़ देगी। वो समझने लगेगी कि आधे से ज्यादा खबर अंग्रेजी तैनलों, बेबसाइटों और न्यूज एजेंसियों की कॉपी है, उनका सीधे-सीधे अनुवाद हुआ है। अगर ऑरिजिनल कॉपी हाथ लग जाए तो अंग्रेजी बहुत अच्छी न होने पर भी बात ज्यादा समझ में आएगी। जिस दिन हिन्दी मीडिया की ऑडिएंस समझदार हो गई उस दिन हिन्दी मीडिया के दावों की जो कि सीना तानकर कहते-फिरके हैं कि हमने खोजा, हमने दिखाया की हवा निकाल देंगे। उस दिन उन्दें हिन्दी चैनलों की स्टोरी पायरेटेड लगने लगेगी।

अब इसी बात का कोई विरोध करे और बताए कि हिन्दी मीडिया में दोयम दर्जे का काम होता है तो हिन्दी भक्तों को सीधा लगेगा कि ऐसा लिखनेवाले बंदे का हाथ तत्काल काट लिए जाएं। वो सीधा-सीधा उसे अंग्रेजी का पिछलग्गू समझ बैठेगा। जबकि गड़बड़ी कहां है, आप सब जानते हैं और ये भी जान रहे हैं कि यहां विरोध भाषा को लेकर नहीं है। बल्कि गड़बड़ी इस बात को लेकर है कि हिन्दी मीडिया अपने होमवर्क को लेकर अंग्रेजी चैनलों से बहुत पीछे है। हिन्दी का रिसर्च वर्क बहुत कमजोर है। वो किसी भी असर को घटना के तौर पर देखना-समझना चाहती है जबकि असर को रिसर्च करते हुए देखने की जरुरत होती है। इसमें भाषा का कहीं कोई दोष नहीं है और न ही हिन्दी में शब्दों की कोई कमी है। लेकिन आप खुद महसूस करेंगे कि हिन्दी पट्टी, मान लीजिए बनारस में कोई घटना होती है तो उसकी कवरेज आमतौर पर किसी हिन्दी अखबार या चैनलों के मुकाबले अंग्रेजी के चैनलों, न्यूज एजेंसियों में ज्यादा बेहतर तरीके से आती है। क्यों, क्योंकि अंग्रेजी चैनलों को इस बात का एहसास है कि हमारी ऑडिएंस रेशनल है, वो ऐसे सिर्फ खबरों से नहीं मानने वाली है, उसे सारी चीजें बड़ी लॉजिकल तरीके से समझानी होगी। जबकि हिन्दी चैनलों के सामने दूसरे तरह की सिरदर्दी है, उससे लोगों के बीच सबसे पहले जाने की हड़बड़ी है। उसके सामने अभी भी बाजार की प्रायरिटी अंग्रेजी के मुकाबले ज्यादा है, वो अभी भी अपने को जनता के सामने स्थापित नहीं कर पायी है। कोई चैनल चार-पांच सालों से नंबर वन पर है तो भी लगातार डर बना हुआ है कि पता नहीं कब ताज छिन जाए। इसलिए एक घबरायी हुई, बौखलाई हुई स्थिति में जो खबरें मिलती हैं हमारे सामने परोस दी जाती है, बिना किसी रिसर्च के, बिना ऑडिएंस के इश्यू को ध्यान करके। इसलिए आप देखेंगे कि

हिन्दी मीडिया रामनामी बेचनेवाली खबर और रंडी की दलाली करनेवाली खबरों में फर्क नहीं कर पाती।।।

आगे पढ़िए, साहित्य के स्तर पर हिन्दी और अंग्रेजी

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होली के नाम पर जितनी बतकुच्चन करनी थी वो तो हो गई,जिसको जिसके बारे में जो कुछ भी कहना, सुनना और करना था वो सब हो गया। अब रोजमर्रा की जिंदगी में फिर से लौट आने का समय है। थोड़ा सीरियस होने का है और सीरियसली सोचने का है कि-
अब ग्रेट इंडियन वालों ने हम पत्रकारों का मजाक उड़ाना शुरु कर दिया है। कवि, सरदार, नेता, पति,लालूजी और सिद्धू तो मजाक और चुटकुले के जबरदस्त आइटम तो हुआ ही करते हैं, अबकी टेलीविजन के पत्रकार भी शामिल हो गए हैं। इनका भी अब जमकर मजाक उड़ाया जाता है। देखा नहीं आपने सोनी पर अपने राजू श्रीवास्तव ने कैसे रिपोर्टर, एंकर और यहां तक कि चैनलों का मजाक बनाया। जिसने सोनी नहीं देखा हो तो स्टार न्यूज पर तो स्लग के साथ आ रहा था। चाहे वो मामला चैनलों द्वारा दो साल पुराने फुटेज और स्टोरी आज की चलाने का मामला हो, सबसे तेज के चक्कर में आंय-बांय कुछ भी बोल देने का मामला हो या फिर खबरों की गंभीरता को समझे बिना रिपोर्टरों द्वारा घिसा-पिटा वाहियात सवाल पूछने का हो। राजू ने कहा कि एक बंदा पानी में डूब रहा है और रिपोर्टर ने पूछा, डूबते हुए आपको कैसा लग रहा है। हमने तो समझा कि अब रिपोर्टर सिलेब्रिटी के नशे में इतना धुत्त होते हैं कि उन्हें होश ही नहीं रहता कि सवाल आम आदमी से करना है औऱ वो मर रहा है, उसकी म्यूजिक एलवम नहीं लांच हो रही है कि पूछा जाए कि आपको कैसा लग रहा है. राजू के इस मजाक को बस मजाक में लेने की जरुरत है, खुश होने की बात है कि चलो हमारे प्रोफेशन पर भी चुटकुले बनने लगे हैं या फिर वाकई गंभीरता से कुछ सोचने की जरुरत है।
हिन्दी फिल्मों में आप देखेंगे कि जब भी कभी कॉलेज की सीन हो, क्लास रुम का मामला हो या फिर टीचर की बात हो- हिन्दी के टीचर को जानबूझकर औरों से अल्टर, उपहास का आइटम या फिर मजाक के पात्र के रुप में दिखाया जाता है। तारे जमीं पर इसका ताजा उदाहरण है। इसके पहले मैं हूं न कि मैम इतनी झेल है कि बच्चे उसे देखकर रास्ता बदल लेते हैं। सिनेमा ने हिन्दी के मास्टर को इस रुप में प्रोजेक्ट किया है कि अब ये मिथक की तरह स्थापित हो गया है कि हिन्दी के मास्टर झेल,पकाउ,बोरिंग,डल और बैकवर्ड होते हैं। थोड़ी इसमें सच्चाई भी है लेकिन हिन्दी के लोगों ने साकारात्मक स्तर पर क्या किया है, दूसरे सब्जेक्ट के बच्चों के बीच भी कितना पॉपुलर है,कितना मल्टी टैलेंटेड है, सिनेमा इस पर बात नहीं करता। इसका नतीजा आपके सामने है। आपसे बिना तरीके से बात किए ही लोग कहने लगगें कि अच्छा हिन्दी में हो, मास्टर बनोगे और पीठे से ठहाके मारने लगेंगे। मैं ये नहीं कहता कि इसके लिए केवल और केवल सिनेमा जिम्मेवार है। लेकिन, सिनेमा चाहे तो इस छवि और धारणा को तोड़ सकता है लेकिन तोड़ता नहीं।
ठीक उसी तरह, न्यूज चैनलों में कई चीजें वकवास आती है, ये बात कौन नहीं जानता लेकिन इसके साथ इसके जरिए कई बेहतर काम भी होते हैं। कम से कम लोगों के बीच एक डर तो है कि गलत करेंगे तो मीडिया धर दबोचेगी। गलत करने पर जो डर प्रशासन, पुलिस और सरकार नहीं कर सकी वो काम मीडिया ने किया। लेकिन आज आप देख रहे हैं कि उसे कई बेबकूफाना अंदाज को लेकर लोग उसका भी उपहास उड़ा रहे हैं। होली के मौके पर हंसने के लिए तो बढञिया मसाला है। लेकिन गंभीरता से विचार करें तो इस प्रोफेशन के वर्किंग कल्चर को लेकर मजाक उड़ाए जाते हैं तो स्थिति वाकई चिंताजनक है। इसमें गलती न तो राजू श्रीवास्तव की नहीं है। उन्होंने तो एक एक्टिव ऑडिएंस के तौर पर अपनी प्रतिक्रिया हमारे सामने रख दी। अब इसमुद्दे पर हमें सोचना है कि ये मजाक कहीं इस बात की ओर संकेत तो नहीं करती कि हमने वाकई मीडिया को मजाक बना दिया है। माइक हाथ में आते ही अपने अलावे बाकी बैठे सारे ऑडिएंस को अंगूठा छाप समझने लगते हैं। राजूजी को मंत मिला तो उन्होंने अपने स्तर से बात हमारे सामने रख दी। बाकी लोग भी अपने-अपने तरीके से इसे लेकर अपनी बात करते रहते हैं। लेकिन अगर इसका विरोध होता है तो उतनी चिंताजनक बात नहीं है जबकि मजाक उड़ाया जाना ज्यादा गंभीर मसला है।
नेताओं की तरह हम पत्रकारों को लेकर भी ये बात आम हो जाए कि ये तो ऐसे ही हैं जी, इसके पहले आपको नहीं लगता कि मीडिया के चरित्र पर और हमारे काम करने के तरीके पर विचार करना जरुरी है। क्योंकि मजाक बनने के साथ ही मीडिया अपना असर खोता चला जाएगा।
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दुनिया के लिए होगी होली प्यार और भाईचारे को बढ़ाने का दिन। अपन से तो भाईलोगों ने दुश्मनी निकालने का बहुत सही दिन डिसाइड किया था। इस दिशा में कोई शोध करे कि होली के दिन जान पहचान के लोग अपने ही लोगों से खुन्नस कैसे निकालते हैं तो ठीक-ठाक आंकडें सामने आ जाएंगे।क्योंकि एक लाइन लोगों को जन्मसिद्ध अधिकार के तौर पर पहले से ही मिल जाते हैं कि - बुरा न मानो होली है,...आगे मैं जोड़ देता हूं- चंपकों,चूतियों की टोली है। इनके आगे आप कुछ नहीं कर सकते।

दिल्ली यूनिवर्सिटी में होली का पहला साल।बहुत घीसने के बाद मिला था हॉस्टल। बिहारी से बिहारी का हवाला देकर, झारखंडी से झारखंड का हवाला देकर, हिन्दीवालों से हिन्दी का बोलकर, गोरखपुरवालों से पूर्वांचल बोलकर, ब्राह्मणों से ये बोलकर कि मेरी मां आपलोगों की बहुत ही इज्जत करती है, आपको पूजती है। अगर आप मेरी मदद करेंगे तो आपके प्रति उनका सम्मान और बढ़ेगा औऱ अगर मुझे आपने हॉस्टल लेने में मदद नहीं कि तो आपलोगों पर से उनका विश्वास उठ जाएगा। वो भी समझेगी कि आप जातिवाद के शिकार हैं। खैर, किसी तरह छ-पांच करके हॉस्टल के अंदर तो पहुंच गया और फोन भी किया मां को कि- तुम्हें सबकुछ पता है न मां। मामला फंस गया विचारधारा को लेकर। सुबह-सुबह तांबे के लोटे से जल चढ़ानेवालों को मैं दूसरे दिन से ही बहुत खटकता रहा। पहले दिन तो मेरे हाथ में तांबे का लोटा देखकर बहुत खुश हुए और कहा भी कि बहुत संस्कारी हो लेकिन बाद में उन्हें पता चला कि इसका इस्तेमाल मैं चना और मूंग भिगोकर खाने के लिए करता हूं औऱ वो सब नहीं करता जिसके लिए लोटे का इजाद हुआ है तो बहुत खुन्नस हुई। मुंह पर तो कुछ कहा नहीं लेकिन अगले दिन से कटने लगे। फिर मुझे लेकर कानाफूसी शुरु हो गयी। एक ने कहा कि पैंट उतार दो तो पता नहीं हिन्दू निकले भी की नहीं। मैं उनके लिए चोखेरबाला बन चुका था और वो जैसे तैसे मुझे झेल रहे थे। डीयू में किसी को इतनी हिम्मत नही है कि किसी को कुछ कर दे, पब्लिकली मार-पीट दे। लेकिन आंखें ऐसे तरेरते कि- मां के शब्दों में कहूं तो निगल जाएंगे।॥इसी बीच होली आ गयी और उनका काम आसान हो गया।

दुश्मनी निकालने के लिए पूरे भारतवर्ष में इससे बढ़िया दिन मुहैया नहीं कराया गया है। जो मन आए किसी के साथ कर दो और मामला फंस जाए तो हीं हीं हीं हीं...ठे ठे ठे करके गले मिल लो और कहो- बुरा न मानो होली है। इधर आप भी भड़ास निकालो, मन ही मन बोलकर...चंपक चूतियों की टोली है। मामनू लोगन तक तो बात पहुंच ही नहीं पाती और अगर पहुंच भी गई तो उल्टे आप पर ही बरसेंगे- वैण के होली तेरे से नहीं खेलेंगे तो क्या तेरे ताउ के पास जाएंगे। सालभर तेरे साथ रहा है तो वैण के होली के दिन कहां जाएंगे खेलने। साइड में ले जाकर कहेंगे, अब बहुत हुआ निकाल दोनों पार्टी त्योहारी, अपणे भी तो बाल-बच्चे हैं।...और आप बिना कुछ बोले वृद्ध भिक्षु के दाम टिका दो, मामला रफा-दफा।॥

सो भाई लोग लॉन में बैठे थे, सुबह-सुबह। होली के दिन हॉस्टल के सारे कमरे में जाकर गार्ड साहब बड़ी इज्जत से बुलाते हैं कि साहबजी बाहर होली खेलने के लिए लोग आपको बुला रहे हैं। बाहर खूब सारी खाने की चीजें रखी होगी, ढेर सारे रंग...और भी बहुत कुछ। बाबा लोग ढंडई पर भिडे होगें।...एक ने ईशारा करके बुलाया। तब मैं बहुत ही दुबला-पतला निरीह-सा दिखता था। मैं उनके पास गया। उन्होंने कहा- चल इधर आ मेरे साथ ठंडई पी। मैंने कहा, मैं भांग नहीं पीता। दूसरे बंदे ने कहा-स्साले ठंडई को भांग कहता है।भोलेबाबा के भोग का ऐसा अपमान औऱ एक ने जबरदस्ती ग्लास मुंह में ठूंस दिया। ग्लास में खून की कुछ बूंदें टपक गई और सब सत्यानाश हो गया। मैंने कहा-मैं भांग नहीं दारु पीता हूं। एक ने रहम खाकर कहा-चल दारु ही पी ले। रॉयल चैंलेंज। कभी मुंह नही लगाया था दारु को। मुझे स्मेल ही अच्छी नहीं लगती है दारु की। लेकिन कोई उपाय नहीं था। बिना पानी मिलाए ही नीट, एक-एक बार में पांच पैग पी गया और उनसे कहा-हो गया न। अब चलता हूं। वहां से सीधे अपने कमरे में पहुंचा। दोस्तों ने बताया था कि पीने के बाद अगर नींबू पी लो तो नशा उतर जाता है। मैं मेस जाकर एक ही साथ चार नींबू निचोड़कर पी गया। पता नहीं आप इसे कैसे लेंगे लेकिन उस समय मेरे मन में अजीब-सी ग्लानि हुई। लगा कल की ही ट्रेन से घर भाग जाउँ। अब तो अभ्यस्त हो गया हूं, इन सब चीजों का। इसी ग्लानि को लेकर मैं सोया नहीं सीधे स्टडी टेबल पर बैठा और विद्यापति के नोट्स बनाने लगा। एक धुन में नोट्स बनाता रहा। करीब एक घंटे बाद पांच-छ लोग मेरे कमरे में आए और दरवाजा बंद कर दिया। मुझे अंदाजा लग गया था कि मेरे साथ क्या होनेवाला है। लेकिन सबको घोर आश्चर्य हुआ कि ये लड़का इतना पीकर पढ़ कैसे रहा है। पूरे हॉस्टल में सबको पता चल गया कि विनीत चार पैग नीट पीकर भी नार्मल है। एक ने कहा भी कि भोसड़ी के हमें चूतिया बना रहा है। पहले से बड़ा पियाक रहा होगा।वही कहें कि स्साला सबको सलाम-सलाम बोलता है, दारु कैसे नहीं पीता होगा। नतीजा ये हुआ कि मैं बच गया, लोगों ने मुझे मारा नहीं और होली के बाद जब भी कहता कि मैं भी पिउंगा तो कहते-पैसे पूल करने होंगे।

इस होली ने वाकई मुझे बहुत मजबूत किया और मेरे भीतर एर धारणा बनी है कि दारु पीने से इतना भी नशा नहीं आ जाता कि आप सबकी मां-बहन करने लग जाएं। नशे से ज्यादा लोग ड्रामेबाजी करते हैं....

॥सभी ब्लॉगर दोस्तों को होली मुबारक। ऑफर करेंगे तो मना नहीं करुंगा, क्योंकि पता है कि आप पॉलिटिक्स नहीं करेंगे और कर भी दिया तो अब नोट्स किस चीज का बनाउंगा, एमए तो पास कर गया।...

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गरीबों पर बात करना पाखंड है

Posted On 10:51 pm by विनीत कुमार | 4 comments

माफ कीजिए, लेकिन सच कहूं जब भी कोई खाया,पिया और अघाया हुआ आदमी किसी सभा, सेमिनार में जाकर गरीबों, मजदूरों, किसानों और दलितों के लिए बिसुरने लग जाता है तो बहुत ही बेहूदा जान पड़ता है। हिन्दी से जुड़े कम से कम पच्चीस बड़ी हस्तियों के घर गया हूं। कोई भी फटेहाल नहीं है, सब सम्पन्न हैं, सबके घर में कोक, पेप्सी की बोतलें भरी रहतीं हैं। सबके डिनर टेबुल पर किवी सहित मौसमी फल सजे रहते हैं। कईयों के बाल-बच्चे नाश्ते में कार्नफेल्क्स प्रीफर करते हैं। बाथरुम में डव के साबुन होते हैं लेकिन सभा में ऐसे करते हैं जैसे भाई साहब ने कश्मीरी गेट के पास पड़े फटेहालों के साथ रात बिताकर सीधे यहीं चले आ रहे हैं।....घिन आने लगती है ऐसे लोगों से जो मलाई को भी थोड़ा और गाढ़ी करके खाने में विश्वास करते हैं लेकिन दुनिया और चेलों को संत की राह पर चलने का प्रवचन दिए फिरते हैं। मैं तो कभी-कभी सोचता हूं कि अगर देश में गरीब,मजदूर, दलित और बेजान स्त्रियां नहीं होती तो हिन्दी की दुनिया में कई लोग विद्वान होने और कहलाने से रह जाते। उनकी कमाई पर इन गरीबों का बड़ा हिस्सा है।
इधर फोन करके एक भाई ने संगोष्ठी में बुलाया कि आपको आना है और एक सत्र का संचालन भी करना है। मैंने हांमी भर दी। बोलने और लिखने का चस्का तो लगा हुआ है ही। पैसे की लत लगी नहीं है सो पता होने पर भी कुछ नहीं मिलेगा, फिर भी चला जाता हूं। दो-तीन बार देख चुका हूं, आयोजक बुलाते समय लंच के साथ फाइल-फोल्डर का हवाला देते हैं। कैर, मैं गया और संचालन की कमान संभाल ली। होना क्या था, वही बड़ी बातें, बड़े-बड़े शब्द और आदर्श का पुलिंदा। कुछ नहीं भी तो दुनिया इतनी तो देख-समझ चुका ही हूं कि पता चल जाता है कि बंदा किस एंगिल से बात कर रहा है। और सच कहूं, मैं क्या कोई भी मेरे उम्र के बंदे के सामने बात करोगे, उंचे-उंचे आदर्शों की, वो भी तब जब मेरे ही कॉलेज का पढ़ा मेरा साथी आठ-नौ लाख की पैकेज पर काम करा है। मुझे तुलना नहीं करनी चाहिए किसी से,मैंने अपनी इच्छा और सुविधा के हिसाब से रिसर्च को चुना है। तो भी कोई सदाव्रत का पाठ पढाने बैठ जाए, ऐसे समय में जब आप अपने गांव-कस्बे में जाकर बताओ कि पीएचडी कर रहा हूं तो एक कलम पढ़ी दादी भी पूछ बैठती है-वो सब तो ठीक है लेकिन बाबू मिलता कितना है। मतलब आपके विद्वान होने की सार्थकता तभी है जब आप कुछ कमा-धमा रहे हो। ऐसा नहीं है कि पैसा ही सबकुछ है लेकिन आपके स्टेटस का एक आधार पैसा तो जरुर है और आप और हम भाषण के अलावे असल जिंदगी में नकार नहीं सकते।
सो, लगे लोग बारी-बारी से उनलोगों को, उस प्रोफेशन को जिसमें बहुत पैसे मिलते हैं। हिन्दीवालों के हिसाब से जिस बंदे को वेतन बहुत अधिक मिलते हैं वो मानवीय नहीं रह जाता । ये अलग बात है कि यही साहब अपने कुलीग के सामने बताते नहीं थकते कि मेरे लड़के को अमेरिका की कम्पनी से आफर आया है और दुगने पैकेज पर जा रहा है।
थकाकथित ये विद्वान पहले से भी ये खेल करते आ रहे हैं कि मलाई केन्द्रित होकर काम करते रहे हैं। कऊ पैसे के रुप में तो कभी प्रभाव के रुप में और साहित्य के स्तर गरीबों, मजदूरों का पक्षधर बने रहे। हिन्दी के लोगों ने अपने समय की हर पीढ़ी को धन और स्टेटस के प्रभाव से दूर करने का काम किया है। इसलिए आज के इस उत्तर- आधुनिक दौर में भी जहां कि अपीयरेंस बहुत मायने रखते हैं, हिन्दी से जुड़ा व्यक्ति पैसे और साधन रहने पर भी तहस-नहस लुक में दिखता है। जिसे देखकर आपको सिर्फ दया, करुणा के अलावे कोई दूसरे भाव नहीं जगेंगे, जबकि बाकी विषयों के लोगों को हिकारत..ये हिन्दीवाले, पता नहीं कहां-कहां से आ जाते हैं। यहां ठीक-ठाक लुक में दिखने का मतलब है- आपको कहीं और की हवा का लगना जो कि आपकी सेहत और करियर दोनों ही लिहाज से घातक है। जब तक आप अभावग्रस्त दिखेंग नहीं लोग आपके उपर रहम खाकर सेट कैसे करेंगे। ऐसा महौल बनाने की लगातार कोशिश की- बहुत जरुरतमंद है, नीडी है, साल-छ महीने में कहीं कुछ नहीं हुआ तो मर जाएगा। मतलब यहां योग्यता नहीं फटेहाल होना या दिखना ही बड़ी योग्यता है। नई सर्ट या कपडे खरीदो भी तो मटमैले, स्लेटी या फिर बिस्कुट कलर की जो लगे ही नहीं कि नयी है, सालोभर एक सा दिखो- लाचार और दीन-हीन।
अब पैसे रहते भी दीन-हीन दिख रहे तो ख्याल आएगा ही गरीबों का, मजदूरों का। आप भले ही कभी उस महौल में जीने को मजबूर नहीं हुए लेकिन आप उनके जैसा हुलिया बनाकर, उस परिवेश को आढने की कोशिश करते हुए सोचने की कला तो सीख ही जाओगे। इसलिए मैं खीढकर अंत में चलते-चलते कह दिय-माफ करना साथियों, मैं सभा में बोलते वक्त अपने को उनलोगों के ज्यादा करीब पाता हूं जो बारह-बारह घंटे की नौकरी बजाकर आते हैं,मैं उनके बारे में लिखना, बोलना चाहता हूं। गरीबों, मजदूरों पर बोलना, मेरे लिए पाखंड ही होगा।
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आंखों में लेकचरर होने का सपना लिए और रिसर्च के लिए चार-पांच हजार की मीडिया में नौकरी करते हुए हमने अपने सीनियर्स को देखा है। मैं खुद भी इस जमात में शामिल रहा। लेकिन अब सही पत्रकार होने, कहलाने और बनने के लिए जरुरी नहीं है कि हम किसी चैनल का पट्टा लगाकर दस-बारह घंटे की ड्यूटी बजाएं। हमें जो कुछ करना होगा, मीडिया के जरिए जो कुछ भी करना होगा, खुद कर लेंगे। अब हमारे साथ इस बात की कोई जबरदस्ती नहीं करेगा कि रिपोर्टर बोलकर नौकरी देगा और महीनों पैकेजिंग में डाल देगा। शोषण और श्रम कानून पर रिपोर्ट लिखवाएगा और खुद १२ से चौदह घंटे के पहले छोड़ेगा नहीं। डीयू में मीडिया पर शोध करने वाले रिसर्चर अब जोश में हैं और मीडिया का सही अर्थ खोजने में जुट गए हैं।
यूजीसी की स्कॉलरशिप की स्कीम के तहत अब एम।फिल् और पीएच।डी करने वाले प्रत्येक रिसर्चर को प्रतिमाह ३००० और पांच हजार रुपये मिलेंगे। किताबें औऱ बाकी चीजों के लिए एक साल में दस हजार रुपये। थोड़ी देर के लिए अगर चैनलों में मिलनेवाली पैकजों की बात छोड़ दे तो ये किसी भी रिसर्चर के लिए उसेक जीवन का सबसे सुखद क्षण है। ये बात सही है कि चैनलों के मुताबिक पांच हजार रुपये कुछ भी नहीं है, इससे कहीं ज्यादा रकम वहॉ के ऑफिसों के लिए काम करनेवाले सर्विस ब्ऑय की होगी। लेकिन इस पांच हजार रुपये में एक रिसर्चर अपने मन मुताबिक वो सबकुछ कर सकता है जो कि पचास हजार रुपये मंथली मिलने पर भी कोई पत्रकार शायद ही कर पाता है।
मीडिया पर रिसर्चर कर रहे मेरे कुछ दोस्तों से बात हुई। उनका कहना है कि अभी उन्हें पिछले छ महीने का पैसा एक साथ जोड़कर मिलेगा। स्कॉलरशिप की ये स्कीम मार्च २००७ से लागू है लेकिन पैसे मिलने अब शुरु हुए हैं। इसलिए ६-६ महीने का एक साथ मिल जाएगा और उसके बाद महीने के हिसाब से। मेरे कुछ साथियों को एक ही साथ ४०-४५ हजार मिल रहे हैं, मिलनेवाले हैं। उनका कहना है कि इतने पैसे से तो कामलायक, ठीकठाक हैंडीकैम आ जाएंगे और अगली खेप में लैपटॉप के लिए सोचा जाएगा। हमारे आसपास, हरियाणा में, राजस्थान में, बिहार में और यहां तक कि दिल्ली में कई ऐसी घटनाएं होतीं रहती है जिन पर कि कायदे से नोटिस नहीं ली जाती। मेनस्ट्रीम की मीडिया का एक बनाया ट्रेंड है जिसमें दो या तीन लोगों की बाइट सहित डेढ़ से दो मिनट की पैकेज में सारी बातें डाल देगी। सूचनाएं तो चारों तरफ फैल जाती है, मानवीय संवेदना का पक्ष बिल्कुल छूट जाता है। अब तक तो बहुत हुआ तो अखबार में चिट्ठी लिखकर अपनी असहमति और पक्ष दर्ज कराते रहे लेकिन इन पैसों से अब डॉक्यूमेंटरी बनायी जा सकती है। बाकी ट्यूशन पढ़ाकर शोध-कार्य करना जारी रहेगा।
इस हिसाब से अगर विचार करें तो एम्।फिल या पीएचडी के दौरान रिसर्चर एक भी डॉक्यूमेंटरी बनाता है तो साल में कम से कम ७५-८० डॉक्यूमेंटकी बन जाएंगे। ....और अगले सालभर तक शहर के अलग-अलग हिस्सों में स्क्रीनिंग करा सकेंगे। किसी एक मुद्दे को या फिर अपने रिसर्च टॉपिक को लेकर ही अगर ये फिल्म बनाते हैं तो आज जो हम मेनस्ट्रीम की मीडिया के मोहताज बने है, उसके सही या गलत हर खबर पर हम अपनी राय बना लेतें हैं, इस पर थोड़ी रोक जरुर लगेगी। चाहे तो कुछ लोग मिलकर सामूहिक स्तर पर पत्रिका निकाल सकते हैं। ऐसा नहीं है कि विश्वविद्यालय में इस स्तर के काम कभी शुरु नहीं हुए लेकिन हर बार देखने में आया है कि पैसे के अभाव में उसे बीच में बंद करना पड़ गया। लेकिन अब इसकी पहल की जाती है तो लम्बा चलेगा।
दूसरी बात जो मैं समझता हूं कि मीडिया जैसे सेंशेटिव प्रोफेशन में एक बड़ी तादाद में खर-पतवार शामिल हैं, जिन्हें बेसिक चीजों की समझ नहीं है लेकिन देशभर के लोगों के लिए राय बनाने का काम कर रहें हैं। कहीं से भी सालभर की डिप्लोमा डिग्री लेकर समाज को रातोंरात बदलने का जज्बा लेकर आते हैं, वो समाज को कितना बदल पाते हैं, ये तो समाज ने बोलना शुरु कर दिया हैं लेकिन महीने दो-महीने के अंदर वो खुद कितना बदल जाते हैं इसका अंदाजा शायद उन्हें भी न होता होगा। अकादमिक स्तर पर भी मीडिया और उनसे जुड़े लोगों के रवैये पर लगातार विरोध और गुत्थम-गुत्थी चलती रहती है। इस स्कॉलरशिप से उन्हें एक नया स्पेस मिला है, काफी कुछ वो अपने मुताबिक कवर कर सकते हैं, लिख सकते हैं। ये भी संभव है कि गुजरात जैसे दंगे जिसका कि सामाजिक स्तर पर बड़ा प्रभाव रहा और जिसे लेकर मीडिया से भी शिकायत रही कि उसने चीजों को तोड़-मरोड़कर दिखाया। ऐसे मसले पर यूनिवर्सिटी के कुछ रिसर्चर टीम बनाकर, अपनी यूनिट लेकर खुद ऐसी जगहों पर जा सकते हैं और अपने तरीके से टीआरपी के दबाव से मुक्त होकर तटस्थ रुप से सारी चीजें लोगों के सामने रख सकते हैं।
तीन साल, चार साल जो भी समय लगता है एम् फिल पीएचडी में बाकी के लोगो की तरह गाजियाबाद में प्लॉट या फ्लैट न भी ले पाए तो भी इस दौरान मीडिया में काम करने का तरीका ढंग से मालूम हो जाएगा। इस बात का भी अंदाजा लग जाएगा कि क्या मीडिया को बनाए रखने के लिए बिना बाजार के गुलाम हुए सीधे-सीधे खबर देने से मामला बन जाएगा या फिर वाकई हर खबर एक खबर के बाद विज्ञापन के लिए ब्रेक लेना जरुरी है। इस बात का भी अंदाजा लग जाएगा कि बिना ताम-झाम के बिना लाग- लपेट पेज थ्री और फाइव सी में घुसी हमारी बातों और खबरों में लोगों की कितनी रुचि है। वाकई ऑडिएंस दिनभर जलवे देखना चाहती है या फिर चैनल उनके साथ जबरदस्ती करके अपनी बात थोपते आ रहे हैं।
यानि कुल बातों का लब्बोलुवाव इतना है कि रिसर्च के दौरान मिलनेवाले स्कॉलरशिप से रिसर्चर चाहे तो तरीके का वैकल्पिक मीडिया खड़ी कर सकता है। एक ऐसी मीडिया जो मानवीय संवेदना के ज्यादा करीब है। बिना फ्रशट्रेशन के अपने मन मुताबिक काम कर सकता है और चैनल में काम कर रहे साथी मीडिया के खोए हुए अर्थ को पाने की छटपटाहट में हैं, यूनिवर्सिटी में मीडिया पर शोध कर रहा रिसर्चर आसानी से वो अर्थ दे सकता है।....और सही तरीके से काम करता गया तो भविष्य में भी दुनियाभर की शर्तों पर किसी चैनल या अखबार में काम करने की नौबत नहीं आएगी।
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बाजार की मार से कॉल सेंटर में तब्दील हो चुके न्यूज चैनलों के बीच भी एनडीटीवी की अपनी पहचान है। अभी भी आप देखेंगे कि बाकी चैनल जहां खबरों के नाम पर रियलिटी शो की उठापटक और फाइव सी तक सिमट जाते हैं, एनडीटीवी इसके बाहर की दुनिया की भी खबर ठीकठाक लेता है। आज भी आपको यहां खबर के नाम पर सनसनी और फेब्रिकेटेड आइटम कम मिलेंगे। बाकी चैनलों से किसान और हाशिए पर के लोग भले ही गायब होते जा रहे हों लेकिन एनडीटीवी आज भी इनसे जुड़े मसलों को बड़ी ही शिद्दत से उठाता है।....ऑडिएंस के बीच इसकी एमेज की बात करें तो ये देश का वो न्यूज चैनल है जिसे कि सबसे कम लोग गाली देते हैं। मेरी समझ से तो अगर दूरदर्शन से सरकारी तामझाम और पंजा तो कभी कमल बनती प्रक्रिया को हटा दें तो जो कुछ भी बचेगा वो सब एनडीटीवी में मौजूद है। इस अर्थ में एनडीटीवी पढ़े-लिखे लोगों के बीच सम्मानित चैनल है।

लेकिन कहते हैं न कि- अखंड कुछ भी नहीं है। न ही मंदिर जानेवालों की आस्था और न ही एनडीटीवी देखनेवालों का विश्वास। सो हम जैसे दर्शकों के साथ भी इधर ऐसा ही कुछ हो रहा है। एक बड़ी ही सामान्य सी बात है कि जब कोई भी कम्पनी, संगठन या सेवाएं बाजार में शामिल होती है तो उसकी सबसे बड़ी कोशिश होती है, ग्राहकों के बीच साख पैदा करना, अपनी ब्रांड इमेज बनाना। कई बार इमेज समय बीतने के साथ बनते हैं कि जो जितना पुराना होगा, वो उतना ही भरोसेमंद होगा। बाजार में बाटा के जूते, डाबर का हाजमोला, शहद और बाकी चीजें भी इसी बूते बिक रही हैं। जो बहुत नामी नहीं भी है, जिसने कोई ब्रांडिंग नहीं है वो भी अगर अपने दूकान के आगे लिख दे- ७० साल से आपकी सेवा में तो आपको थोड़ी देर के लिए भरोसा जरुर हो जाएगा। दिल्ली के चांदनी चौक में ऐसी सैंकडों दूकाने मिल जाएंगी जो इतिहास से जोड़कर अपनी ब्रांड इमेज बना रहीं हैं।

न्यूज चैनल के साथ मजबूरी है कि वो ऐसा नहीं कर सकते क्योंकि न्यूज चैनलों के साथ जुम्मा-जुम्मा आठ रोजवाली कहावत लागू होती है। और लगभग सारे चैनलों की इमेज इसी आधार पर बनी है कि कम से कम समय में किसने समाज के बीच अपनी पहचान बनायी है, खबरों को दिखाकर समाज को साकारात्मक दिशा में बदलने का काम किया है, वगैरह॥वगैरह। इस मामले में भी दर्शकों ने एनडीटीवी को सही सम्मान दिया है।

लेकिन बाजार और कम्पनी के साथ एक दिक्कत है। वो ये कि अगर कम्पनी ने शुरु में तौलिया बनाया और बाजार में बेचा, उसकी दुकान जम गयी तो फिर बनियान भी बनाएगी, फिर लुंगी भी, फिर बिकनी भी, फिर जुरावें भी और पता नहीं क्या-क्या। इसके भी दो तरीके हैं। एक तो कि इससे जुडी बाकी चीजें भी बनाए। जैसे दूध बेच रहे हो तो मक्खन भी बनाओ, ब्रेड भी, शहद भी, दही भी, घी भी और धीरे-धीरे ऐसा करो कि नाश्ते की टेबल पर सिर्फ आपका ही प्रोडक्ट हो। दूसरा तरीका है कि वो सब कुछ बनाओ जिससे अलग-अलग पेशे और मिजाज के लोग जुड़ जाएं। अब चड्ड़ी तुम्हारे यहां से खरीद रहा है तो फिर चश्में के लिए कहां जाए। धूपबत्ती तुम्हारी जला रहा है तो अखबार किसी और की क्यों पढे। कैडवरी ने तो कह दिया कि दूसरे का नमक नहीं खाना और अब बाजार में उसकी नमकीन भी है। यानि ऐसा करो कि आप ग्राहक की जिंदगी में ज्यादा से ज्यादा शामिल हों।

इधर कम्पनी की, एक प्रोडक्ट को लेकर जैसी इमेज बन गई वो चाहती है कि बाकी प्रोडक्ट जब बाजार में उतारे तो लोगों का वही भरोसा हासिल कर ले। टाटा की बनायी बाल्टी का हत्था नहीं उखड़ता तो फिर मोबाइल का नेटवर्क कैसे गायब हो जाएगा, किंगफिशर का पैग मारकर जब रात रंगीन हो जाती है तो एयरलांइस में बैठने पर सुबह हसीन होने में क्या दिक्कत है। हम ग्राहकों का भरोसा भी इसी तरह से पनपा है औऱ मजाक में कहते भी हैं कि अगर एडीडास कल से धोती बेचने लगे तो बाबूजी के लिए वही ले जाएंगे और अगर रिवलॉन मेंहदी बेचने लगे तो वही भाभी को ले जाकर देंगे। ब्रांड इमेज दोनों तरफ से ऐसे ही बनते और बरकरार रहते हैं।

एनडीवी और उसके नए इंटरटेनमेंट चैनल एनडीटीवी इमैजिन के साथ ऐसा ही हुआ है। एनडी को लगा कि खबर देखने तो हमारा ऑडिएंस यहां रेगुलर आता है लेकिन मनोरंजन के लिए फिर से स्टार या जी पर चला जाता है। क्यों न उसे ज्यादा से ज्यादा समय तक अपने घर में ही रोके रखें। सो उतर गया मनोरंजन की दुनिया में भी। इधर हम एनडी के दर्शकों को भी खटकता रहता कि न्यूज तो बहुत प्रोग्रेसिव तरीके का मिल जाता है लेकिन मनोरंजन करना होता है तो वही सास-बहू की हांय-हांय और पाखंडियों के चैनलों की ओर मुंह करना पड़ जाता है। कमजोर दिल के मेरे साथी डरते भी रहे कि कहीं हिन्दूवादी न हो जाएंगे। इसलिए इमैजिन ने जब रामायण दिखाना शुरु किया तो भी बुरा नहीं लगा क्योंकि दिमाग में था कि एनडी इसे अपने एप्रोच से दिखाएगा। जबरदस्ती के क्षेपकों को हटाकर एक तर्क के साथ पेश करेगा लेकिन दो-तीन एपिसोड के बाद देखना छोड़ दिया।

बाकी नच ले विद सरोज खान के साथ लगाव बना रहा। इधर मैं तेरी परछाई हूं, राधा की बेटियां कुछ कर दिखाएगी, धरमवीर, जस्सू बेन जयंतीलाल जोशी की ज्वाइंट फैमिली को भी बीच-बीच में देखता रहा औऱ प्रोग्रेसिव एलिमेंट खोजता रहा। इसी बीच कल रात में समझिए कांड ही हो गया।

एक नए आइडिया के साथ कि इमैजिन के जितने भी प्रोग्राम हैं, उनके जितने भी कलाकार हैं सबको मिलाकर होली पर एक स्पेशल प्रोग्राम बनाया। एक सीरियल की कहानी दूसरे से जुड़ी हुई और साथ में सरोज खान भी । आइडिया नया और बढ़िया था। लेकिन होली की मस्ती के नाम पर चड्ढा-चोपड़ा की फिल्मों वाली चकल्लस। फिल्मी गानों पर सारे कलाकारों का नाच-गाना।॥

.....और तो और जब ये स्पेशल खत्म होने को है तो जस्सूबेन कहती है कि इस बार शिवजी ने दर्शन नहीं दिए। जयंतीलाल समझाता है कि इस बार खुशियों के रुप में भोलेबाबा हमारे घर आए। मुझे लगा कि एनडी ने अपना असर दिखाया। लेकिन तभी आया एक झोला लेकर आती है और बताती है कि सारे मेहमानों से पूछ लिया- किसी का नहीं है। जस्सूबेन खोलती है तो पाती है कि उसमें एक शंख है जिस पर काले रंग की एक शिवलिंग बनी है। गले से लगाते हुए जस्सूबेन कहती है...पधारिए भोलेबाबा।

क्या वाकई एनडीटीवी २४ इनटू ७ देखने वाले दर्शकों को इसकी जरुरत थी। चैनल चाहे तो तर्क दे सकता है कि हमें बाजार में बने रहने के लिए दिखाना पड़ेगा। आपकी बात तो ठीक है लेकिन दर्शक तो आपके इस एप्रोच को एनडीटीवी के चरित्र से जोड़कर देखेगी। और फिर आपने ये कैसे मान लिया कि आप जो कुछ भी दिखाएंगे, हम उसे प्रोग्रेसिव मान लेंगे। हमें तो यही लगता है कि ये पाखंड साथ-साथ चल जाए तो गनीमत है, चैनल चल भी जाए तो आपकी आइडियोलॉजी तो पिट ही जाएगी, अब शायद आपको इसकी जरुरत न हो।॥हम तो मनोरंजन चैनल को लेकर अनाथ के अनाथ ही रह गए।

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....तो अभी तक आप अपने बूढ़े मां-बाप को गांव और बड़े भाई साहब के यहां से ले आए होगे। वो सब कुछ भी कर दिया होगा जिससे वो इलीट के मां-बाप जैसे दिखने लगे होंगे।...दिल्ली जैसे बड़े शहरों की आवोहवा में एडजेस्ट कर गए होंगे। अब आगे पढ़िए कि क्या करना है-
आपके घर में आजकल एक नया चैनल आ रहा होगा- एनडीटीवी इमैजिन। आपकी माताजी को पता होगा क्योंकि वो रामायण भी दिखा रहा है। तो सुनिए...सात से आठ उसी चैनल पर एक प्रोग्राम आता है- नच ले वे विद सरोज खान। पूरा दिखा सकें तब तो सोने पे सुहागा हो जाए नहीं तो शुरुआत का कम से कम दस मिनट जरुर दिखाएं। आपको ऑफिस से लौटने में देर हो जाती है तो कोई बात नहीं, सुषमा तो तब तक स्कूल से आ जाती है, उसी को बोल दें। ये दस मिनट उनके लिए होता है जो डांस को रगड़कर तो नहीं सीख पाते लेकिन दस मिनट के अभ्यास से मोटा-मोटी स्टेप्स सीख जाते हैं।॥उतना कि देखकर लगे कि बंदे को डांस की समझ है। अच्छा, अपनी सरोज सीखाती भी वही सारे स्टेप्स हैं जो ऑनडिमांड होते हैं। मसलन मौजा-मौजा या फिर सलामे इश्क,इश्क,इश्क सलामें इश्क। अगर मा-बाबूजी ने इतना सीख लिया तो समझिए चारों धाम की चौखट पूरी हो गई।
इतना सबकुछ हो जाने पर ऑफिसीयली तौर पर अपनी फैमिली को रॉक एन रॉल फैमिली घोषित कर दीजिए। आपको तो नाचना आता ही है, एक-दो घूंट गुर्दे की दवाई मिल गई तो अच्छा नाच ही लेंगे। सुषमा कत्थक में डिप्लोमा है ही और आरुशि को रेगुलर डांस क्लास में भेज ही रहे हो। इधर मां-बाबूजी का पैकेज तैयार हो ही गया है। बस अब आप हो गए तीन पीढियों की ऐसी फैमिली जिस पर खानदान को गर्व हो सकता है।
अब आज से प्रत्येक शुक्रवार और शनिवार को जीटीवी ९ से दस बजे तक के लिए बैठ जाइए। आज आपके लिए पहला दिन होगा। आजसे आपको मिलेंगे अजय देवगण, काजोल और तनुजा। अजय और काजोल भारत के लिए सबसे बेजोड़ और आदर्श पति-पत्नी हैं। मेरे हिसाब से तो राम और सीता से भी ज्यादा बेजोड़ क्योंकि दोनों मिलकर फ्रीज और फोन बेचते हैं। कंधे से कंधा मिलाकर। राम की तरह नहीं कि वो कंदमूल लेने चले गए और इधर सीता के माथे गोबर से घर लीपने का काम पड़ गया। आपको मन है तो कह सकते हैं कि अजय भगवान राम से ज्यादा प्रोग्रेसिव है और इधर काजोल ने भी साबित कर दिया है कि वृद्ध पूंजीवाद की परवरिश बिना स्त्रियों के सहयोग के नहीं की जा सकती।....और जिन बूढ़े दर्शकों को उनके नाती-पोतों ने सोनी मैक्स से जबरदस्ती घसीटकर हंगामा, बिंदास और कार्टून नेटवर्क पर ला पटका है उन बुजुर्गों का खोया हुआ सम्मान ये जीटीवी वाले दिलाएंगे। तनुजा को लाएंगे और बुजुर्गों का मन एक बार फिर से हरा होगा, माताजी फिर तनुजा के सौन्दर्य से डाह करेगी और बहू की तरह ब्यूटी कॉन्सस हो जाएगी, फिर बूढ़े बाप का मन कहीं न भटकेगा और रात की कराह ओ मेरी सिद्धेश्वरी में तब्दील हो जाया करेंगे। ओल्ड एज एक बार फिर से गोल्ड एज में प्रवेश करेगा। बूढ़ी मां के प्रिंटेड ब्लॉउज के लिए एक बार फिर बाबूजी पार्टटाइम नौकरी के लिए जुगत भिड़ाने में लग जाएंगे, सुषमा को फिर राहत मिलेगी और मांजी भी सुषमा से कुमकुम नहीं मांगेगी, अपने पति की बूढ़ी कमायी से शिल्पा चार चांद लगाएगी।....इतना मजा, फायदा और बदलाव तो तब आएगा जब आपकी रॉक एन रॉल फैमिली महज दर्शक की हैसियत से जीटीवी को ९ से १० देखती है और अगर दीपासती माई की किरपा से प्रोग्राम में पार्टिसीपेट करने का मौका मिल गया तब तो आपके ये बूढ़े मां-बाप दो-चार ठुमके लगाकर ही चैनल से इतने पैसे दिलवा देंगे कि बड़ी होने पर आपकी आरुशि भी एयर हॉस्टेस, टीवी एंकर या फिर इवेंट मैनेजर बनकर नहीं कमा पाएगी और अगर तरक्की मिल भी गई तो बदनामी भी साथ लाएगी।
इसलिए हे पाठकों, मेरी आपसे बस इतनी ही अपील है कि बूढ़े मां-बाप को दुरुस्त करके एनडीटीवी और जीटीवी की खुराक जरुर लगाएं, यकीन मानिए उनके मरझाए चेहरे पर रौनक फिर से लौट आएगी। ....और बाकी तो चैनल खुद साबित कर ही रहा है कि आपके बूढ़े मां-बाप भी आपको बना सकते हैं धन्ना सेठ। इसलिए ये कब काम आ जाएं आप भी नहीं जानते। हो सकता है कल को कोई एनजीओ ऑफर निकाल दे कि अपने बूढ़े मां-बाप को जमा कीजिए और जिनको लड़का-बच्चा नहीं हो रहा वो नवजात शिशु ले जाए, एक्सचेंज ऑफर
आगे पढिए बदलते समाज में बुजुर्गों की हैसियत
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अब ये समय पत्नी को कोसने और उससे इस बात पर बहस करने का नहीं है कि तुम ही ने कहा था कि बाबूजी को गांव छोड़ आओ, खेती-बाडी का काम देखेंगे, यहां रहते हैं तो दिनभर मेरा दिमाग चाटते रहते हैं।...और न ही उससे ये कहने की है कि मां को तुमने बड़े भाई साहब के यहां भिजवा कर गलती कर दी। अब जो तत्काल आप कर सकते हैं वो ये कि आपके बूढ़े बाबूजी जहां कहीं भी हैं उन्हें तत्काल अपने घर ले आइए, ओल्डएज होम में रखा है तो कहिए कि 6 महीने तक हम अपने बाबूजी को अडॉप्ट करना चाहते हैं। गांव में है तो तुरन्त बलिया, बक्सर, जगदीशपुर, लहरिया सराय जहां कहीं भी भेजा है वहां की टिकट लीजिए। कन्फर्म नहीं मिलेगा, तत्काल में देखिए, नहीं तो मीडिया में हैं तो कुछ भिड़ाइए। माताजी को बड़े भाई साहब के यहां छोड़ रखा है तो वहां भी जाइए और कहिए कि सुषमा को आजकल मांजी की बहुत याद आती रहती है, पिछले चार साल से होली में मां के साथ नहीं है। भाई साहब बहू के मामले में टांग नहीं अड़ाएंगे, हां कर देगें। वैसे भी उनके पास बचा क्या है, बंटवारा तो पहले हो ही चुका है। बात रह गई घर के काम करने की तो आप बात न बने तो खोजकर एक आया भिजवा दीजिए, न हो तो अपने ही घर की। वैसे भी मांजी तो आ ही रहीं है, संभाल लेंगी। बस कोशिश कीजिएगा कि मां को दो-तीन घंटे का समय मिल जाए।
इतना काम आप सप्ताह दिन के अंदर कर लीजिए।
अब जब मां- बाबूजी आ जाएं तो बाबूजी को फैब इंडिया ले जाइए। चटक, झक-झक रंग के दो-तीन कुर्ते खरीद दें, खादिम या बाटा से एक बढ़िया चप्पल भी। मांजी को बाबा खड्गसिंह मार्ग के इम्पोरियम से दो-तीन ढ़ंग की हैंडलूम साडियां। अगर कहीं से लोन का जुगाड़ बन जाता है तो आप थोड़ा हल्का ही सही एक ब्रेसलेट खरीद दें। फसल बचाने के चक्कर में सब गंवा चुकी होंगी। कुल मिलाकर मां-बाबूजी का हुलिया इतना दुरुस्त कर दें कि लगने लगें कि वो आप ही के मां-बाबूजी हैं।...और आरुशि भी शान से कह सके कि ये मेरे ग्रैंड पा हैं।
अब इतना हो जाने पर मां-बाबूजी को थोड़ी अंग्रेजी सिखाएं। ज्यादा नहीं,यू नो, आइ मीन, ओके, एक्चुअली, फक यार,थैंक्स, बट...ब्ला.ब्ला..। आप जानते हैं, सुषमा भी इसमें आपकी मदद करेगी। बाबूजी को थोड़ा सिविल सोसाइटी के मैनर्स सीखाएं। मसलन किसी के हाथ में झोला देखकर ये न पूछने लग जाएं-क्या ले जा रहे हो बेटा। रात में कोई बंदा लड़खड़कर चल रहा हो तो न पूछें-तबीयत तो ठीक है न बेटा। बेसमेंट में खेलते बच्चे से न पूछे कि आज तुम्हारी मम्मी ने कौन-सी सब्जी बनायी है। मां को सुषमा देख लेगी। वो भी अपार्टमेंट की महिलाओं से ज्यादा मिक्स-अप न हो जाए। किसी ने कह दिया कि मांजी आप तिलभोगे के लड्डू बनाती है और आप चल न दें बनाने के लिए। किसी के यहां साग टूंगने की कोई जरुरत नहीं है। बोलिए कि जब समय मिले तो कुछ क्लासिक नॉवेल पढ़े,कल्ट फिल्में देखे। इतना कुछ अगर आप मेहनत से कर देते हैं तो लगेगा नहीं कि आपके मां-बाबूजी गांव से हैं। बच्चे तो आपके हैं ही देहलाइट।...तो हो गई आपकी रॉक- एन रॉल फैमिली। अब कल बताता हूं कि आगे क्या करना है। तब तक आप भी दिमाग लगाइए कि मां-बाबूजी को इलीट बेटे का मां-बाबूजी दिखने के लिए क्या करना सही रहेगा।.....(क्रमश:)1
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अगर आप वाकई देश की महिलाओं के लिए कुछ करना चाहते हैं तो मेरी मानिए, कुछ मत कीजिए, उऩको उनके हाल पर छोड़ दीजिए। सड़ने दीजिए कचरों के बीच में, बिलखने दीजिए रोटी के एक टुकड़े के लिए, बनने दीजिए उसे पुरुष की हवस का चारा और करने दीजिए थानेदार को गंदे-गंदे सवाल। आप बस चुपचाप देखते-सुनते रहिए। वैसे भी जितने धक्के और रगड़ खाएगी, उतनी ही मजबूत होगी, समाज के सच को बेहतर तरीके से समझ पाएगी लेकिन प्लीज आप वो सब मत कीजिए जो उनके नाम पर आज कर रहे हैं।
८ मार्च को महिला दिवस है, इसकी मुनादी मीडिया तीन-चार दिन पहले से ही कर रही है। आज तो कइयो ने चाबी बनाकर, भारत का नक्शा बनाकर बीच में कुमकुम लगाई हुई महिला की तस्वीर छापी है। तमाम अखबारों और चैनलों के ग्राफिक्स के बंदों ने रातभर खूब दिमाग लगाया है। देशभर के स्त्री विशेषज्ञों को जुटाया है। उन सफल महिलाओं की सूची बनाई है और अखबारों ने फोटो सहित छोटी-छोटी राय प्रकाशित की है।
इधर दिल्ली महिला आयोग ने तो बकायदा मेला लगाया है जिसमें स्त्री और लड़की के हाथों से बनी चीजों की प्रदर्शनी लगायी है। मेरी कुछ दोस्त ने अपनी बुटिक और शोरुम बंद रखे हैं और घर पर ही कुछ करने का मन बनाया है। फोन करके कहा कि शाम को कहीं मत जाना। जोधा-अकबर अभी नहीं देखे हो न। एक को तो सुबह-सुबह ही उसके पति ने पर्ल सेट दिया है इस मौके पर। मेरे कुछ दोस्तों ने बताया कि अगर मूड बन गया तो आज छुट्टी ले लेंगे और खाना भी बाहर खाएंगे या फिर खुद ही कुछ ट्राय करेंगे लेकिन पत्नी को आजभर के लिए बख्श देंगे, हाथ जलाने नहीं देगें।
मीडिया का महिला अभियान बहुत ही व्यवस्थित तरीके से शुरु होता है। कुछ दिन पहले वे ये खोजते हैं कि रिक्शा चलानेवाली पहली महिला कौन है और फिर पहाड़ पर चढ़नेवाली पहली महिला कौन है। और फिर इस तर्ज पर शुरु हो जाता है कि देश की पहली फलां...कौन... पहली फलां कौन.....। अखबार तो उससे सम्पर्क करके उनके संघर्ष की कहानी छाप देते हैं लेकिन चैनल के लिए काम थोड़ा बढ़ जाता है। वो उन तमाम महिलाओं से चैट की कोशिश करते हैं जिन-जिन के घर में चैनल की ओबी वैन पहुंच पाती है या फिर वो महिला खुद स्टूडियो तक आ जाए फिर दिनभर एक ही बात की रगड़ाई।
जो चैनल सीधे-सीधे इस ट्रेंड में कूदना नहीं चाहते और उन्हे लगता है कि महिला दिवस के नाम पर ये सारे तामझाम बेकार हैं वो शहर के कोलाहल से थोड़ी दूर चले जाते हैं और फिर शुरु होता हैं पैकेज। आज हम दुनिया भर में महिला दिवस मना रहे हैं और देश का एक ऐसा भी हिस्सा है जहां की महिलाएं इसका मतलब नहीं जानतीं। अब भी शौच के लिए घर से तीन किलोमीटर चलकर जाती है, इसके लिए उन्हें सुबह चार बजे ही उठना पड़ता है। जीडीपी ९ प्रतिशत हो जाने के बाबजूद बेहाल हैं, दो जून की रोटी तक मय्यसर नहीं।...ऑडिएंस की नजर में सबसे बेहतर दिखने और लगने के लिए जी-जान लगाते एंकर-रिपोर्टर।
विचारधारा के स्तर पर अगर बात होती है तो बहस की गुंजाइश भी बन सकती है कि इसे बनाओ, इसे मत मनाओ लेकिन अब तो इसमें बाजार भी शामिल है और सच कहें तो सबसे ज्यादा तरीके से सक्रिय है। वो बाजार जो विचारधारा और तर्कों पर नहीं खपत पर चलता है। इसलिए आपको जो मन में आए दिन और दिवस मनाइए इससे बाजार को कोई परेशानी नहीं है। जहां राधा-कृष्ण की जोड़ी बिक रही थी अब महिला दिवस के नाम पर लक्क्षीमाई की तस्वीर बिकती है तो क्या दिक्कत है, भंवरीदेवी का टैटो बिकती है तो वही बेचो।
सारे बड़े मॉल में कुछ न कुछ इवेंट होगें। एक-दो साल और होने दीजिए, अभी कायदे से मार्केट की नजर इस पर गई नहीं है। नहीं तो महिला दिवस के सात दिन पहले से सात दिन बाद तक कूकर- कड़ाही, नॉनस्टिक पैन, फ्रीज, वॉशिंग मशीन और घर की तमाम चीजों पर छूट मिलने लगेंगे। स्टेफी महिला मैराथन कराएगा, अयूर हर्वल गांव में गोरापन के लिए शिविर लगाएगा।.....वो सब कुछ होगा, कराया जाएगा जिससे देश की महिलाओं और महिला दिवस के नाम पर अच्छी-खासी खरीदारी की जा सके। अभी गिफ्ट और कार्ड की कम्पनियों का ढंग से कूदना बाकी है।
......इधर सरकारी कोशिशें भी तेज है। इस दिन बड़ी-बड़ी घोषनाएं करो, देश की बेटियों के पक्ष में, गर्भवती होने पर राहत की बात करो, उनसे कहो कि तुम चटाई बनाओ, बाजार हम देंगे। घर में मसाला पीसो, पैकिंग करके बेचने की व्यवस्था हम कर देंगे। दो-चार पुल महिला के नाम पर बना दो। वो सब कुछ करो जिससे लगे कि पितृसत्तात्मक समाज में महिला के लिए भी पूरा स्पेस है। ऐसा महौल तैयार करो कि महिलाएं सूचना अधिकार को लेकर सवाल न करे, विवाह संस्था पर उंगली न उठाए, कचहरी जाने की बात न करे, थानेदार के भद्दे-भद्दे कमेंट पर भी न लजाए और बनी रहे।.....८ मार्च को खूब मौजा-मौजा कर दो, सालभर असर रहेगा। वैसे भी भारतीय जनमानस उत्सवधर्मी माहौल का कायल रहा है। आप इसका वास्तविक संदर्भ न भी बताएंगे तो भी.........
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