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मैं
पवन कुमार वर्मा की किताब भारतीयता की ओर पढ़ने के बाद बहसतलब 6 में उन्हें इस नीयत से बिल्कुल सुनने नहीं गया था कि किताब पढ़ने के बाद जो कई सवाल मेरे मन में लगातार उठ रहे हैं, उसका समाधान वो करेंगे, उस पर अपनी राय रखेंगे। लेकिन हां, इतनी बदतर उम्मीद भी नहीं थी कि मेरी लंबी-चौड़ी टिप्पणी के बीच घुले कई सवालों को गौर से सुनने के बाद (गौर से सुना, ये उनके ही शब्द हैं) एक शायरी कहते हुए कहेंगे कि मुझे तो याद नहीं कि सवाल क्या थे? मैं वहां मौजूद लोगों और इस पोस्ट को पढ़नेवाले अपने तमाम लोगों से सॉरी कहता हूं कि मैंने बहुत अधिक वक्त लिया। शायद मुझे उतना अधिक नहीं बोलना चाहिए था लेकिन
 मैं कल लगभग समझिए कि बिफर गया। दिमाग में बस एक ही बात घूमती रही कि अगर इसी किताब को कोई हिंदी का लेखक लिखता तो क्या अंग्रेजी समाज और खुद हिंदी समाज उसे इस तरह से सिर पर बिठा लेता। यकीनन उनकी भारी फजीहत होती और आलोचना की पहली लाइन होती – ये एचएमटी (हिंदी मीडियम टाइप) लेखक अभी तक भारतीयता और पाश्‍चात्य के बीच एक वर्जिन स्पेस खोजने में लगे हैं। लेकिन नहीं, लोग वहां इस बात को लेकर गदगद हो रहे थे कि एक अंग्रेजी लेखक ने अंग्रेजी में लिखते हुए अंग्रेजी को गरियाकर हिंदी को बेहतर बताया है। ये भी एक किस्म की गुलाम मानसिकता है। पवन वर्मा के हिसाब से आज अगर ये देश अंग्रेजी की उपनिवेशवादी दबाब से मुक्त नहीं हुआ है तो वही पढ़े-लिखे लेकिन लोभ-लाभ में पड़े लोगों के बीच से सामंती चारण का संस्कार गया नहीं, बल्कि महीन तरीके से बरकरार है। इसलिए ये अकारण नहीं था कि जिस किताब में दुनियाभर के झोल हैं, कई तथ्यात्यमक गलतियां हैं, उस किताब को हाथोंहाथ लिये जाने के लिए जबरदस्त माहौल बनाने की कोशिशें की गयीं।
मैंने टिप्पणी क्या की थी, कुछ चालू जार्गन का इस्तेमाल करते हुए (जिसे नहीं भी किया जाता तो बात हो सकती थी) पवन कुमार वर्मा की समझ, नास्टैल्जिक होकर हिंदी, भारतीयता, ऐतिहासिक आदतों और अस्मिता के सवाल और जीवन शैलियों को बेहतर करार देने पर असहमति दर्ज की थी। ये असहमतियां बहसतलब से निकलने के बाद और मजबूत और तल्ख हुई है। किताब का एक अध्याय पढ़ने के बाद पवन वर्मा पर मैंने जो मोहल्ला लाइव पर लिखा, उस पर कुछ जो कमेंट आये, उसका मिजाज ये साफ तौर पर बताना था कि एक अध्याय पढ़कर लिखना सिर्फ अपने को चर्चा और पवन कुमार वर्मा से नजदीकियां बनाना भर है। दो दिन बाद जब पूरी किताब पढ़ी तो लगा कि इस पर और तल्खी से लिखे जा सकते हैं।
सवाल और असहमतियां बहुत साफ हैं कि अगर पवन कुमार वर्मा को भारतीय अस्मिता की इतनी गहरी चिंता है तो उस अस्मिता के दायरे में स्त्री अस्मिता, दलित अस्मिता और आदिवासी अस्मिता (आदिवासी संस्कृति को अगर आप पर्यावरण और पारिस्थितिकी के लिहाज से देखें, तो सबसे बेहतर संस्कृति जान पड़ेगी) के सवाल क्यों नहीं आते? क्या ये अकारण है कि जब भी वो भारतीय संस्कृति और उसकी धर्मनिरपेक्षता की बात करते हैं तो उसमें हिंदू और उनके रीति-रिवाज एक-दूसरे से घुल-मिल जाते हैं और निष्कर्ष के तौर पर हिंदू संस्कृति, भारतीय संस्कृति का पर्याय के तौर पर दिखाई देते हैं। माफ कीजिएगा, गालिब पर किताब लिखकर और शुरुआती अध्याय में मुगलों के आने से कला के विस्तार की चर्चा करके पवन कुमार वर्मा को इस बात की कतई छूट नहीं मिल जाती कि आगे वो भारतीय संस्कृति पर बात करने के लिए हिंदू संस्‍कृति को हाइवे की तरह इस्तेमाल करें। ये नजरिया विभूति नारायण राय से अलग नहीं है, जो कि शहर में कर्फ्यू लिखने के बाद उसकी जिंदगी भर की कमाई जाति आधारित फैसले लेने और लेखिकाओं को जलील करने में लगाएं। लेखन कोई जाति प्रमाण पत्र या ड्राइविंग लाइसेंस नहीं है कि एक बार मिल जाने के बाद आप उसे हर फॉर्म के साथ चिपका दें। जैसे वहां रिन्यूअल की जरूरत होती है, लेखन में भी आपको लगातार उस स्टैंड को लेते हुए सक्रिय बने रहना होता है।
पवन वर्मा की इस बात से मैं सौ फीसदी सहमत हूं प्रेम करना इस देश की अपनी स्वायत्त संस्कृति है तो फिर अलग से वेलेंटाइन डे की चोंचलेबाजी क्यों? सही बात है, लेकिन पवन वर्मा से सीधे तौर पर सवाल करें कि अगर प्रेम इस देश की संस्कृति है तो फिर ऑनर किलिंग किस देश की संस्कृति है? निरुपमा जैसी एक युवा पत्रकार का जाति के दबाब में जान लेना-देना किस देश की संस्कृति है? गर्व करने को मैं भी हिंदी के अपने उन तमाम कवियों पर गर्व कर सकता हूं, जिन्होंने प्रेम को लेकर कालजयी रचनाएं की लेकिन क्या मैं उन कवियों और आलाचकों पर गर्व कर सकता हूं जो इन कविताओं पर बात करते हुए, ऐसी कविताओं लिखते भार-विभोर हो उठते हैं जबकि दिल्ली से सटे मेरठ में प्रेमी की हत्या कर दी जाती है तो एक लाइन लिखना जरूरी नहीं समझते। इस तरह के झोल सिर्फ प्रेम को लेकर ही नहीं बल्कि भारतीयता की उन तमाम सर्किट में हैं, जिस पर कि पवन वर्मा को गर्व है।
पवन वर्मा का कहना है कि कुछ घटनाओं को छोड़ दे तो ये देश धर्मनिरपेख है,यहां के हिन्दुओं ने धर्मांतरण का काम नहीं करवाया। इस देश की संस्कृति अगर उदार और सहोदर है,इसका पैमाना सिर्फ हिंदू बरक्स मुस्लिम,हिंदू बरक्स इसाई के तौर पर ही देखा जाना चाहिए क्या? इस बात पर सवाल नहीं की जानी चाहिए कि खुद हिंदू अपने भीतर जाति,मान्यताओं,रिवाजों को लेकर एक-दूसरे क्यों इतना कट्टर है? अगर सामंजस्य हिन्दुओं की संस्कृति है तो इंटर में पढ़ाई करनेवाली एक विकलांग दलित लड़की सुमन को उसके घर में जिंदा जला देने की संस्कृति किस देश के हिस्से में आती है? गोहाना,मिर्चपुर में हुआ,वो देश का कौन सा हिस्सा है? 84 के दंगों में जिस गर्व करनेवाले हिन्दुओं ने सिक्खों के साथ जो कुछ किया वो किस देश का हिस्सा है जिसकी चर्चा जरनैल सिंह ने अपनी किताब कब कटेगी चौरासी में विस्तार से की है। मैं फिर कहता हूं पवन वर्मा जिस भारतीयता की बात करते हैं वो मध्यवर्ग की चोचलेबाजी को ही सांस्कृति नकल का हिस्सा मानकर डिफाइन करना भर है। संस्कृति को लेकर समाज में जो आये दिन टेंशन्स पनपते हैं, संस्कृति और तनाव एक-दूसरे से गूंथे हुए हैं, वो सिरे से गायब है। ये सबकुछ अकारण नहीं है बल्कि नास्टॉल्जिया का शिकार होने की वजह से हुआ है जो कि हिंदी भाषा के विश्लेषण में साफ तौर पर दिखाई देता है।
वो एक जगह लिखते हैं कि एक सर्वे के मुताबिक जीटीवी के समाचार में 70 फीसदी शब्द अंग्रेजी के प्रयोग किये जाते हैं यानी कि चैनल ने हिंदी का कबाड़ा किया है। आगे कुछ पन्ने बढ़कर लिखते हैं कि टेलीविजन और सिनेमा ने हिंदी को लोकप्रिय बनाया है यानी कि हिंदी के प्रसार में उसका योगदान है। ये परस्पर विरोधी बातें इसलिए आती हैं कि वो तय नहीं कर पाते हैं कि दरअसल हिंदी के विकास के ड्राइविंग फोर्स के रूप में कौन काम करते हैं। पवन वर्मा का कहना है कि ऊंचे ओहदे पर बैठे लोग अपनी भाषा यानी हिंदी, बांग्ला… आदि का एक भी अखबार नहीं पढ़ते। इसे वो खुद भी साबित कर देते हैं, ये अलग बात है कि ये हिंदी के प्रति अतिरिक्त प्रेम दिखाने से चूक हुई है। उन्होंने लिखा कि इस तरह की गड़बड़ियां अंग्रेजी के अखबार अक्सर किया करते हैं लेकिन देशी भाषा के अखबार नहीं करते। …ये कौन सा भाषाई प्रेम है जो कि गड़बड़ियों पर पर्दा डालने का काम करते हैं। एक-दो अखबारों को छोड़कर पवन वर्मा को कोई बताये कि अंधिकांश हिंदी अखबार, बाकी के बारे में जानकारी नहीं, किस तरह अंग्रेजी अखबारों की रिप्लिका बनने की छटपटाहट में होते हैं और आये दिन भारी गड़बड़ियां करते हैं। लेकिन पवन वर्मा का ये अतिरिक्त भारतीय और भाषाई प्रेम इसे देख नहीं पाता और वो हिंदी समाज की मनोदशा को ताड़ते हुए उन्हें खुश कर जाते हैं।
दरअसल अंग्रेजी में एक छोटा ही सही लेकिन खिलाड़ी लेखक तेजी से उभर रहा है जिसने कि अब हिंदी भाषा और साहित्य के मसले पर अंग्रेजी में बात करनी शुरू कर दी है। इरादा साफ है कि ग्लोबल स्तर पर जब भी वर्नाकुलर, हिंदी भाषा और साहित्य की बात हो तो वो जाकर मलाई काटें और इधर टिपिकल हिंदी का लेखक और मास्टर त्रिवेणी, इंडिया हैबिटेट की बहसों और मानदेय में ही फंसा रह जाए। हिंदी समाज जिस अंग्रेजी लेखकों को अपने ऊपर किया गया एहसान समझ रहा है, वो दरअसल उसके स्पेस को पूरी तरह हाइजैक करने का मामला है। इस खेल में हरीश त्रिवेदी भी एक मंजे खिलाड़ी हैं और हिंदी नेशनलिज्म के बहाने अलोक राय की दावेदारी से हम सब परिचित हैं। हरीश त्रिवेदी जब हिंदी पर स्यापा करते हैं, तो वो इतना कलात्मक होता है कि हिंदी समाज अभिभूत हो उठता है लेकिन जैसे ही इसके विस्तार पर जश्न मनाने की बारी आती है, वो इसका क्रेडिट आजतक चैनल और विज्ञापनों को दे डालते हैं। ये खेल महीन है, इसलिए इसे समझने में थोड़ा वक्त तो जरूर लगेगा लेकिन कायदे से अगर ये खेल समझ आ गया तो ये अकादमिक जगत की औपनिवेशिक, भूमंडलीकृत और सामंती मानसिकता एक कॉकटेल के तौर पर दिखाई देंगी। अभी हिंदी समाज को पवन वर्मा की भारतीयता की चिंता इसलिए रास आ रही है क्योंकि वो हिंदी समाज की छाती कूटने की अभ्यस्त आदतों से मेल खाती है।
इन तमाम असहमतियों और सवालों के बीच एक बड़ा सवाल कि भारतीयता और भारतीय संस्कृति को लेकर अब तक जो भी किताबें लिखी गयी हैं, उसके बीच पवन वर्मा की ये किताब पूरी बहस को किस तरह से आगे बढ़ाती है? बढ़ाती भी है या नहीं कि सिर्फ छपाई के स्तर पर एक नयी किताब है, बहस के स्तर पर वही चालीस-पचास साल से चली आ रही पुरानी दलीलें। हटिंग्टन की क्लैशेज ऑफ सिविलाइजेशन और फीदेल कास्त्रो की कल्चरल सॉब्रेंटी की बात सिर्फ छौंक लगाने के लिए है या फिर उसकी गहराई से जांच भी करती है? अगर हां, तो फिर अब ग्लोबल स्तर पर तकनीक के जरिये लोकतंत्र की जो बहस छिड़ी है, वो सब सिरे से गायब क्यों है? भूमंडलीकरण क्यों वन वे फ्री फ्लो की तर्ज पर ही दिखाई देता है, प्रतिरोध के जो छोटे-छोटे पॉकेट्स बने हैं और सक्रिय है, पवन वर्मा को उन सब पर बात करना क्यों जरूरी नहीं लगता? हम अपनी संस्कृति छोड़कर पाश्चात्य के नकलची बनते जा रहे हैं, ये सारी बातें अनुवाद के जरिये हिंदी के उन लोगों के बीच लाने की क्या जरूरत है, जो कि अपनी लाख कोशिशों के बावजूद भारतीयता के टेढ़े-मेढ़े खांचे के बीच जीने के लिए अभिशप्त हैं। उनके भीतर ये कॉम्प्लेक्स पैदा करने की कोशिश तो नहीं कि तुम जो हो पतित हो, घटिया हो, नकलची हो। ये नजरिया पवन वर्मा को एक एलीटिस्ट सोच में बंधे लेखक से क्यों अलग नहीं है, इसे खोजने की जरूरत है। जिसकी जिंदगी का एक बड़ा हिस्सा रोज भारतीयता को जीते-ओढ़ते बीतता है, उसके आगे पवन वर्मा की भारतीयता क्यों एक ब्यूरोक्रेट की नसीहत से ज्यादा नहीं लगती? कहीं पवन कुमार वर्मा प्रशासन के डिक्टेटरशिप फार्मूले को अकादमिक जगत पर लागू तो नहीं कर रहे कि हम संहिता बना रहे हैं और तुम्हें उस हिसाब से जीना होगा।
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करवा चौथ के नाम पर एकाध हिन्दी चैनलों को छोड़कर बाकियों ने जमकर गंध मचाये। चूंकि ऐसे मौके के लिए आजतक और इंडिया टीवी को महारथ हासिल है इसलिए उन पर इस त्यौहार का रंग कुछ ज्यादा ही गाढ़े तौर पर चढ़ा। टेलीविजन पर से ऐतिहासिक तथ्य तो गायब हो ही गए हैं,मौके की खासियत भी खत्म हो गयी है। जहां लिखा है प्यार,वहां लिख दो सड़क की तर्ज पर पूरी टेलीविजन इन्डस्ट्री बदहवाश काम किए जा रही है। ऐसे में पूरी कोशिशें इस बात की है कि कौन कितने ज्यादा वॉल्यूम में गंध मचा सकता है। कीचड़ में लीथ-लीथकर लोटने की आदत कोई मजबूरी नहीं बलिक शौक का हिस्सा बन गया है। लिहाजा करवा चौथ की कवरेज पर एक नजर

 आजतक की दो एंकर सोलह सिंगार के अंदाज में स्क्रीन पर काबिज हुई और उसी अंदाज में एंकरिग किया। किस रंग के रत्न,जेवर पहनने से और कब पहनने से इस व्रत का सही आउटपुट मिलेगा,इसके लिए पेड पंडित को स्टूडियो में हायर किया। फिर एक के बाद एक पैकेज।
मसलन टेलीविजन की हस्तियों का करवाचौथ,बॉलीवुड की पत्नियों का करवाचौथ। फिर लगातार अपील आजतक छोड़कर कहीं मत जाइए,आपको चांद देखने के लिए बालकनी या छत पर नहीं जाना होगा,हम यहीं बताएंगे कि चांद निकला या नहीं,बस देखते रहिए आजतक। ऑडिएंस को अपने पर कितना भरोसा है,नहीं पता लेकिन चैनल को अपने उपर भरोसा रत्तीभर भी नहीं,इसलिए लगा कि इतनी मनुहार के बाद भी कहीं वो छिटक न जाए तो सीधे ऑफर किया- आजतक देखो,सोना जीतो।

कोई हिन्दी चैनल लाख कोशिशें कर लें,गंध मचाने के मामले में मैं इंडिया टीवी को सबका बाप मानता हूं। उसके आगे अब आजतक भी पायरेसी लगती है और आइबीएन7 इन दोनों चैनलों की कॉकटेल। इसलिए अगर आपको हिन्दी न्यूज चैनलों की गंध मचाई का मौलिक वर्जन देखना हो तो इंडिया टीवी के आगे कोई विकल्प नहीं।    इंडिया टीवी ने करवा चौथ को ईद के बराबर में लाकर खड़ा कर दिया। एक ही साथ स्क्रीन पर दस शहरों में कब,कहां चाद निकलेगा इसकी जानकारी देने में जुट गया और फिर शार्टकट में ही सही सभी जगहों का नजारा। पेड पंडित यहां भी बताने लग गए कि बस तीन मिनट बाकी है लखनउ में चांद निकलने में जबकि दिल्ली के लोग देख सकते हैं अभी चांद। इसके बाद वो सीधे खाने पर उतर गया।

किस राशि की महिला कौन सा आइटम खाकर अपना व्रत तोड़ेगी तो उसके दाम्पत्य जीवन के लिए बेहतर होगा और फिर एक-एक राशियों के हिसाब से उसकी चर्चा। ये अब एक कॉमन फार्मूला हो गया है खासकर इंडिया टीवी और आजतक के लिए कि चाहे सूर्यग्रहण हो,चाहे कोई व्रत हो सभी राशियों को लेकर एक पैकेज बना दो,पेड पंडित को बिठा लो। राशियों पर आधारित कार्यक्रमों की टीआरपी अच्छी होती है। एक सेलबुल एलीमेंट हैं।

अबकी बार टीआरपी के मैदान में सहारा ने न्यूज24 की कनपटी गरम कर दी है और उसे धकियाकर उसके आगे काबिज हो गया है। लिहाजा चैनल के भीतर कुछ अलग और डिफरेंट करने की जबरदस्त बेचैनी है जो कि चैनल के एंकरों सहित पैकेज में साफ तौर पर दिखाई देता है। लेकिन चैनल के भीतर एक भी दमदार प्रोड्यूसर नहीं है,इस सच को टेलीविजन देख रही ऑडिएंस भी बेहतर तरीके से समझती है। कायदे के एक-एक करके खिसक गए आजतक रिटर्न प्रोड्यूसर की कमी पैकेज को एक बेउडे मटीरियल की शक्ल में बदल देती है। वो आपको दिख जाएगा।..तो इसी डिफरेंट दिखने की बेचैनी ने उसे आज की सावित्री खोजने पर विवश किया। उसने स्पेशल पैकेज के तौर पर हॉस्पीटल की बेड पर पड़ी एक ऐसी महिला की स्टोरी दिखायी जो कि अपने पति के खराब लीवर की जानकारी के बाद अपने लीवर का पचास फीसदी हिस्सा देकर उसकी जान बचाती है। जाहिर तौर पर ये अच्छी और मानवीयता की बात है। ये मध्यवर्ग के बीच की गाथा है। लेकिन चैनल इस पैकेज को संभाल नहीं पाता है। डॉक्टर की बाइट और लगातार हॉस्पीटल के फुटेज, करवाचौथ के लाल और चटकीले रंगों के बीच सफेद,लाइट ब्लू रंग मनहुसियत पैदा करते हैं। नतीजा,लिजलिजे पैकेज और इस मनहूसियत से मन उखड़ जाता है जिसका फायदा सीधे तौर पर इंडिया टीवी उठाता है उसी स्टोरी को ज्यादा रोचक तरीके से पेश करता है। हां,सिेनेमा ने कैसे इस करवाचौथ को एक नेशन कल्चरल व्रत बनाया,करवाचौथ के एक दिन पहले की स्टोरी ज्यादा बेहतर और देखने लायक थी।

स्टार न्यूज पर बिहार चुनाव का सुरुर अभी भी सवार है लेकिन करवा चौथ भला उसके इस सुरुर से रुक तो नहीं जाएगा। लिहाजा वहां भी पैकेज चले। कुछ ऐतिहासिक तथ्यों तो कुछ फिल्मी हस्तियों की कहानी को जोड़ते हुए। लेकिन आजतक का मूवी मसाला इस मामले में बाजी मार गया। दीपिका कैसे अपने फिल्म प्रोमोशन-खेले हम जी जान से के लिए इस व्रत को भुनाती है,ढंग से बताया। मल्लिका को कैसे करवाचौथ के नाम पर सुरसुरी छूट जाती है और मातमी शक्ल में नजर आने लगती है,आजतक की इस खोजी पत्रकारिता( हंसिए मत प्लीज) के स्टार न्यूज फीका पड़ गया। हां,उसकी बॉल सबसे बेहतरीन और कलात्मक लगी

देशभर में जहां-जहां भी महिलाओं ने करवा चौथ मनाएं और मेंहदी से शुरु होनेवाले सोलह सिंगार किए,उनमें से एक भी सांवली या काली त्वचा वाली महिला ने या तो मेंहदी नहीं लगाए या फिर व्रत नहीं किया। न्यूज चैनलों की करवा चौथ कवरेज से मेरी तो यही समझ बनी। ये त्योहार सिर्फ गोरी महिलाओं के लिए है और गोरी कलाइयों पर ही मेंहदी का रंग चढ़ सकता है। पूरे टेलीविजन में मुझे सिर्फ नकुषा( लागी तुझसे लगन) ही ऐसी लड़की नजर आती है जिसे कि काली और कुरुप होते हुए भी सिंगार करने का अधिकार है,मेंहदी रचा सकती है।

करवाचौथ का एक एक्सटेंशन वेलेंटाइन डे के तौर पर ही हुआ है और संभव है कि आनेवाले समय में ये आइडिय लव फॉर लाइव डे के तौर पर इमर्ज कर जाए। इसलिए एक मजबूत स्टोरी बनती है जिसे कि चैनलों ने दिखाया कि कैसे अब पति भी अपनी पत्नी के लिए ये व्रत करते हैं और चैनलों ने उन पतियों को उस दिन का हीरो बना दिया जो कि पत्नी के साथ व्रत रखे हैं। दूसरा कि अब सिर्फ अच्छा पति के लिए नहीं,अच्छा पति मिलने की कामना के लिए भी व्रत रखा जाता है। चैनल इस कॉन्सेप्ट को विस्तार देते हैं और इस पर भी जमकर स्टोरी चली और जोड़े विदाउट मैरिज खोजे गए।

इस करवाचौथ में देशभर की महिलाओं ने सोलह सिंगार किए,लंहगें और चटकीले रंगों की साडियां पहनी। फैशन की मार में काले रंग की भी साडियों पहनी,अपशगुन का कोई लोचा नहीं रहा। धोनी ने भी पहली बार व्रत कर रही  अपनी पत्नी साक्षी के लिए सूरत से खासतौर पर साडियां खरीदीं लेकिन चैनलों ने उसे साड़ी या जोड़े में दिखाने के बजाय दो दिन पहले की गोवा बीच वाली अधनंगी दिखती फुटेज ही दिखाए। चैनल की कुंठा के आगे साक्षी करवा चौथ में भी सोलह सिंगार नहीं कर सकी,धोनी की लायी हुई साड़ी नहीं पहन सकी। इसका अफसोस है।
इस पूरे प्रकरण में मुझे अमिताभ बच्चन के घर के आगे ब्लू टीशर्ट पहनी आजतक की रिपोर्टर बहुत ही लाचार नजर आयी,उस पर तरस आया। देशभर की लड़कियां,महिलाएं उस्तवी माहौल में रंगी है,वो बाइट न मिल पाने की स्थिति में लाचार और पुअर बाइट बेगर के तौर पर दिखाई देती है। तमाम चैनलों पर एंकर को जिस अंदाज में पेश किया गया,उनके चेहरे पर प्रोफेशन के अलावे निजी जिंदगी की कामना( फ्राइड की भाषा में लिबिडो), ललचायी इरादे ंसाफ तौर पर झलक गए। कई व्ऑइस ओवर को सुनकर महसूस किया कि वो मानो कह रही हो- क्या हर लड़की की जिंदगी त्योहारों के लिए बस आवाज देने के लिए है,उसकी अपनी आवाज नहीं है।

चैनल की इस पूरी चिरकुटई को मीडिया आधारित साइट मीडियाखबर ने बेहतर तरीके से पकड़ा और कल्पना किया कि अगर चैनल के मालिक और बड़े पत्रकार नए फैशन के हिसाब से करवाचौथ करेंगे तो वो अपनी चंदा को देखकर क्या मांगेंगे,लिहाजा- रजत शर्मा का करवाचौथ।.
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ग्रेट इंडियन मिडिल क्लास के लेखक पवन वर्मा की किताब विकमिंग इंडियन इन दिनों खासी चर्चा में है। हिंदी समाज के बीच इस किताब की चर्चा की मूल वजह कंटेंट के अलावा इसका हिंदी अनुवाद की शक्ल में आना है। हिंदी के युवा आलोचक वैभव सिंह ने इस किताब का अनुवाद भारतीयता की ओर : संस्कृति और अस्मिता की अधूरी क्रांति शीर्षक से किया है। मूलतः अंग्रेजी में छपी किताब का प्रकाशन पेंगुइन ने किया है और इसका अनुवाद भी पेंगुइन हिंदी और यात्रा प्रकाशन की ओर से ही है। लिहाजा इस किताब को और खासकर हिंदी में पढ़ने की बेचैनी को हम बहुत अधिक रोक नहीं पाये और आखिरकार ये किताब मेरे हाथ लग गयी। कोर्स की किताब की तरह पहले पन्ने से शुरू करने के बजाय हमने इस किताब को आखिरी अध्याय से पढ़ना शुरू किया। विश्वग्राम के अंदर : विषमता और समायोजन अध्याय को पूरा पढ़ गया। इस किताब को लेकर मेरी पूरी दिलचस्पी इस बात को लेकर रही है कि पवन वर्मा ने आज के परिवेश को जिसे कि ल्योतार के शब्दों को उधार लेकर कुछ लोग पोस्ट मार्डन कंडीशन कहते हैं, कुछ लोग लेट कैपिटलिस्जम (फ्रेडरिक जेमसन) का सांस्कृतिक तर्क तो कुछ लोग मैक्लूहान की समझ अपनाते हुए ग्लोबल विलेज की स्थिति बताते हैं, को कैसे परिभाषित किया है और इन सबके बीच भारतीयता और संस्कृति को किस रूप में डिफाइन किया है।


हममें से जिन लोगों को भारतीय संस्कृति और पाश्चात्य संस्कृति के चिन्हों को एक दूसरे से अलग करने के लिए आये दिन माथापच्ची करनी पड़ती है, उनके लिए ये किताब रामबाण का काम करती है। इस अध्याय में पवन वर्मा ने बिल्कुल ही साफ और स्पष्ट विभाजन हमारे सामने किया है। हम भारतीय संस्कृति को लेकर बड़े ही मजे से थै-थै कर सकते हैं और दूसरी तरफ पाश्चात्य संस्कृति की खामियों को और मजबूती से रेखांकित कर पाते हैं। लेकिन विभाजन की यह सुविधा आगे चलकर पूरे विमर्श को बहुत विश्वसनीय नहीं रहने देती। इस स्पष्ट विभाजन के बीच जैसे ही हम कल्चरल रेजिस्टेंस के सवाल को डालते हैं, उपभोक्तावादी आदतें जो कि अब खुद में एक संस्कृति का हिस्सा बन चुकी हैं, की बहस को शामिल करते हैं तो पवन वर्मा के इस स्पष्ट विभाजन की बाउंड्री ब्लर हो जाती है। ये एक बड़ा सच है कि संस्कृति को लेकर इस तरह का विभाजन न तो बहुत साफ तौर पर संभव है और न ही इसकी कोशिशें विश्वसनीय क्योंकि संस्कृति का एक रूप, दूसरी संस्कृति के किस रेशे से जाकर कहां मिल जाता है, इसे रेखांकित किया ही नहीं जा सकता। फिर भी पवन वर्मा अगर ऐसा कर पाते हैं तो हमें जाहिर तौर पर उनकी समझ पर थोड़ी बात करनी होगी।
पवन वर्मा भारतीय और पाश्चात्य संस्कृति को एक-दूसरे से अलगाने के क्रम में खान-पान, पोशाक, अभिवादन के तरीके और ह्यूमन मेंटलिटी की बात करते हैं। इस फेहरिस्त से गुजरते हुए लगता है कि वो रेमंड विलियम्स की परिभाषा –culture is basically the way of life का ही व्यावहारिक विस्तार दे रहे हैं। लेकिन पंक्ति दर पंक्ति जब हम गुजरते हैं, तो हमें सहज ही एहसास हो जाता है कि दरअसल संस्कृति को लेकर उनकी जो समझ है, वो पूरी तरह से नेशन स्टेट की जो संस्कृति होती है और जिसे खुद नेशन स्टेट वैलिडिटी देता है, वो संस्कृति इनकी बहस में शामिल है। वैसे भी उन्होंने तमाम उदाहरण राज्यकीय और प्रशासनिक संदर्भों के बीच संस्कृति रूपों के आधार पर ही दिये हैं। संस्कृति के इस रूप को कल्चरल स्टडीज के तहत अल्थूसर ने ऑडियोलॉजी एंड ऑडियोलॉजिकल स्टेट अपरेटस के तहत विस्तार से चर्चा की है। फिर हेबरमास ने दि पब्लिक स्फीयर में संस्कृति के इसी रूपों की बात की है। पवन वर्मा की भारतीयता और उसकी सांस्कृतिक समझ इन्हीं दो-तीन विद्वानों के लक्षणों को लेकर विकसित होती है। हां ये जरूर है कि उन्होंने जो भी उदाहरण और संदर्भ दिये हैं, उसमें व्यक्तिगत स्तर के अनुभव और सच्चाई हैं। कविता की भाषा में कहें तो भोगा हुआ सच है, जिसका मैं पूरा सम्मान करता हूं।
आगे वो एक बड़ी स्थापना देते हैं कि अंग्रेजों के अधीन जो भी देश या नेशन स्टेट रहे, उनके भीतर आज भी इनफीरियर कॉम्प्लेक्स बरकरार है। बल्कि अपनी इस स्थापना को वो पाश्चात्य संस्कृति और ग्लोबल डिस्कोर्स तक विस्तार देते हैं। वो साफ तौर पर मानते हैं कि भारत अगर अपने को, अपनी संस्कृति को एक स्वतंत्र संस्कृति मानता है, तो ये इसकी भारी भूल है। आज भी दरअसल हम पाश्चात्य को लेकर श्रेष्ठताबोध से ग्रसित हैं, वो बेहतर हैं और हम उनसे कमतर। इस बात को उन्होंने बुकर, नोबेल और बाकी बातों के साथ जोड़ते हुए विस्तार दिया। “हमारी पूरी सोच पर नियंत्रण की एक मिसाल यह भी है कि हम पश्चिम द्वारा की गयी आलोचना व प्रशंसा दोनों को ही जरूरत से ज्यादा अहमियत देते हैं।” (भारतीयता की ओर, पेज नं 273) पवन वर्मा का मानना है कि इन सबके वाबजूद अगर हमें उनलोगों की ओर से कोई सम्मान मिलता है, तो वह भी कहीं न कहीं उनकी नीयत, उनकी मंशा और उनकी ही समझ का विस्तार होता है। संभवतः वो इसलिए भूमंडलीकरण को हम जैसे प्रगतिशील देशों के लिए कोई नया अवसर न मानकर उपनिवेशवाद और सामंतवाद का ही नया और बारीक रूप मानते हैं। मीडिया और तकनीक को आधार लेकर इलिहू कर्टज ने ये सारी बातें आज से आठ साल पहले ही कही थी और मोटे तौर पर उदाहरण दिया कि शेर और चूहे की बीच भला बराबरी के मौके कहां पनप सकते हैं? पवन वर्मा इस आलोक में जो तर्क और संदर्भ देते हैं वो बहुत ही विश्वसनीय लगते हैं और पढ़नेवालों के बीच संभव है एक जमीनी हकीकत से गुजरने का एहसास हो। उन्होंने लिखा है – “यह मान लेना महज भोलापन होगा कि भूमंडलीकरण सभी को समान लाभ का अवसर देता है या उंच-नीच के तंत्र से मुक्त कराता है। अतीत व वर्तमान को इस तरह से दो भिन्न हिस्सों में नहीं बांटा जा सकता है। जो पहले शासक रह चुके हैं, वो रातोंरात अपना चरित्र नहीं बदल सकते और न ही वे, जिन्होंने गुलामी को सहा है। राजनीतिक आजादी तो आत्मोद्धार का केवल एक हिस्सा है। राजनीतिक समानता का दावा करना आसान है, आर्थिक विषमता का भी आकलन कर उसके लिए लड़ा जा सकता है, लेकिन सांस्कृतिक असमानता बड़े सूक्ष्म ढंग से काम करती है और उसे चुनौती भी नहीं दी जा सकती है।” (वही, पेज नं 247) पवन वर्मा के इन तर्कों को संभव है, सैद्धांतिक तौर पर और भी मजूबती मिले क्योंकि वैश्विक स्तर पर नव्यमार्क्सवादी लेखकों का एक बड़ा वर्ग है जो उनकी इस तरह की मान्यता को मजबूत आधार देते हैं। फीदेल कास्त्रो ने तो सांस्कृति संप्रभुता की पूरी बहस की छेड़ दी है।
लेकिन इन सबके वाबजूद पवन वर्मा अगर सचमुच में भारतीयता की बहस के बीच उसकी संस्कृति की चर्चा को एक रिसर्च की शक्ल तक ले जाने की इच्छा रखते हैं तो उन्हें भारतीय और पाश्चात्य के बीच सपाट रेखा खींचने के बजाय उनके छोटे-छोटे कॉनटेशंस को भी गंभीरता से बहस के दायरे में लाना चाहिए था। इस बहस से भला कौन अनजान है कि हम चाहे जितने भी ग्लोबल सीनेरियो की बात कर लें लेकिन हम चंद देशों के दबदबे से अपने को मुक्त नहीं कर पा रहे हैं। ये बहस जितनी बड़ी है, उसमें पेंच भी उतने ही कम हैं और अंत में निष्कर्ष तक आने में सहूलियत होती है। लेकिन जैसे ही हम छोटे और बारीक संदर्भों को शामिल करते हैं, अभी पवन वर्मा और आगे ऐसे ही तर्क लड़खड़ाने लग जाते हैं। उन्होंने संस्कृति की इस पूरी बहस मैं कैपिटल सी “C” को ध्यान में रखकर अपनी बात की है, जिसे की बौद्रिआं बहुत ही बारीकी तौर पर विश्लेषित करते हैं। मौजूदा संस्कृति की जो बहसें हैं, उनमें इन छोटे-छोटे कान्टेशंस को शामिल किया जाना न केवल अनिवार्य है बल्कि इसके बिना आप आगे बात कर ही नहीं सकते। ये केवल विमर्श के फैशन के स्तर पर नहीं है बल्कि आलोचना की बारीकियों और उसके टूल्स पैदा करने के लिए भी अनिवार्य है। पवन वर्मा अपने इस पूरे विमर्श में इससे या तो स्ट्रैटिजकली अनजान नजर आते हैं या फिर इस हिस्स को पूरी तरह छोड़ने में ही अपने को बेहतर समझते हैं। नहीं तो वो जिस खान-पान, पोशाक और माध्यम की बात करते हैं, वहां वे इसकी पसंद-नापसंद के बजाय उपलब्धता और पर्चेजिंग पावर की बात करते। अंग्रेजी स्टाइल की शर्ट के बजाय खादी कुर्ते खरीदने की पर्चेजिंग पावर की बहस को शामिल करते। मॉल और मल्टीप्लेक्स के बरक्स 25 रुपये में पांच फिल्में देख लेने की बनती स्वतंत्र सीडी पर चर्चा करते लेकिन नहीं।
अगर वो ऐसा कर रहे होते तो मौजूदा संस्कृति के इसी रूप के बीच से अस्मिताविमर्श के पैदा होने की संभावनाओं और विस्तार को इस तरह से अनदेखा नहीं करते और ये लाइनें शायद ही लिखते – “उन्हें यह भी पता होगा कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है और कुछ दुर्भाग्यपूर्ण व भयावह घटनाओं के बावजूद यहां के हिंदू अन्य धर्मानुयायियों के प्रति शत्रुतापूर्ण भावनाएं नहीं रखते हैं। हिंदू धर्म दूसरों का धर्मांतरण करानेवाला धर्म नहीं है। न ही कभी यह धर्मयुद्ध करता है। प्राचीनकाल में हिंदू राजाओं ने बौद्ध विहार और अपने मंदिरों दोनों को संरक्षण दिया…” (वही पेज 262) पवन वर्मा अपनी इस समझ को पुख्ता करने के लिए आगे हार्वर्ड के दो विद्वानों की रिपोर्ट शामिल करते हैं। पवन वर्मा अपने इस पूरे अध्याय में हमें वस्तु, सुविधा और संसाधन के स्तर पर पाश्चात्य देशों से मुक्त होने के साथ-साथ मानसिक स्तर पर भी मुक्त होने की बात करते हैं। यहां अगर वो हार्वर्ड के इन दोनों विद्वानों के रिसर्च को शामिल करने के साथ-साथ गुजरात दंगे को लेकर सरूप बेन की 300 कहानियों – कोई तो उम्मीद होगी, असगर अली इंजीनियर और 84 दंगे पर जरनैल सिंह की किताब – कब कटेगी चौरासी की कुछ लाइनों को भी शामिल कर पाते तो संभव है कि हार्वर्ड विद्वानों का रिसर्च हल्का पड़ जाता। लेकिन नहीं…
कुल मिलाकर इस किताब के इस एक अध्याय को पढ़ते हुए मैंने जो महसूस किया, वो ये कि ये किताब भारतीयता और भारतीय संस्कृति को एक ब्यूरोक्रेटिक नजरिये से डिफाइन करती है, जो कि नेशन स्टेट की परिभाषाओं के नजदीक है। भारतीय और पाश्चात्य जीवनशैली और वस्तुओं की फेहरिस्त में स्वदेशी जागरण मंच की समझ के करीब लगती है। पवन वर्मा ये बताने में पूरी तरह चूक जाते हैं कि भारतीय के बीच के जो झोल हैं, जो शोषण का स्तर है, इंडियन और देसी शब्दों के जोड़ने के बाद जो उसकी कीमतें तय की जाती हैं, उसके पीछे की क्या राजनीति है? इसलिए ये किताब एक नास्‍टैल्जिक भारतीय, प्रवासी हिंदू भारतीय की मानसिकता की समझ से लिखी गयी किताब है। इस किताब को किसी समाजशास्त्री या फिर संस्कृति व्याख्याकार की समझ की किताब मानने में हमें भारी मशक्कत करनी होगी। ये किताब इनक्रीडबल इंडिया पर भरोसा रखनेवाले लोगों के बीच बहुत पॉपुलर होगी वहीं अस्मिताविमर्श में लगे लोगों के इरादे को अपनी टाट कसने के लिए लाचार तरीके से ही सही ललकारेगी। हिंदी समाज ऐसी किताबों को पढ़ने के लिए अभ्यस्त रहा है, इसलिए बाकी किताबों की तरह ही ये एक श्रेष्ठ पुस्तक करार दी जाएगी।
मूलतः प्रकाशित- मोहल्लाlive
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अपनी हमउम्र टेलीविजन एंकर दोस्तों से जब भी बात होती है तो खुद अपने ही बारे में कहा करती है- मुझे पता है कि पांच-छ साल बाद हमें कौन पूछेगा? इसलिए सोचती हूं कि अभी जितना बेहतर कर सकूं( इस बेहतर में काम,पैसा,नाम,स्टैब्लिश होना सब शामिल है) कर लेती हूं। फिर न तो ये चेहरा रहेगा और न ही हमारी अभी जैसी पूछ रहेगी।

सुनने में तो ये बात बहुत ही सहज लगती है और एक घड़ी को हम मान भी लेते हैं कि सही बात है कि जब उनके चेहरे पर वो चमक,वो फ्रेशनेस और वो चुस्ती झलकेगी ही नहीं तो कोई चैनल क्यों उन्हें भाव देगा? लेकिन इस सहजता से मान लेनेवाली बात को थोड़ा पलटकर एक सवाल की शक्ल में सामने रखें तो- क्या न्यूज चैनलों में फीमेल एंकर को सिर्फ और सिर्फ शक्ल के आधार पर रखा जाता है? यानी एंकरिंग के लिए सिर्फ अच्छी शक्ल का ही होना काफी है,इसके अलावे किसी तरह की काबिलियत की जरुरत नहीं होती? अगर इसका जबाब हां है तो फिर बेहतर है कि इस पेशे में आने के लिए मॉडलिंग के कोर्स करने चाहिए,लड़कियों आप मीडिया कोर्स करना छोड़ दें।

ये समझ इसलिए भी पक्की हो सकती है कि पिछले साल जिस तरह से एक न्यूज चैनल ने अपनी ग्रांड ओपनिंग के मौके पर अपनी फीमेल एंकरों को रैंप पर चलवाया तो इससे साफ हो गया कि एंकर को लेकर चैनल मालिकों और उसके प्रबंधन से जुड़े लोगों के दिमाग में क्या चलता-रहता होगा? ये शायद गॉशिप हो लेकिन जो चैनल पूरी तरह से वीमेन इम्पावरमेंट के नाम पर खोला गया,उसके रसूकदार मालिक ने रसरंजन कर लेने की स्थिति में एक लड़की को देखकर कहा- इसे एंकर बनाना है।

पिछले दिनों सीएनएन में लंबे समय तक पत्रकारिता और अब मीडिया टीचिंग में लगे एक पत्रकार ने जब ये सवाल उठाया कि यहां के चैनलों में सिर्फ सुंदर लड़कियां ही एंकर क्यों होती है तो हम सबका ध्यान अचानक से इस सवाल से टकरा गया। आप गौर करें तो सीएनएन-आइबीएन की दो-तीन एंकरों को छोड़ दें तो बाकी चैनलों में जितनी भी एंकर हैं,उनमें से अधिकांश को पहली नजर में देखकर उनके रखे जाने का आधार क्या है? चेहरा सब ढंक देगा के अंदाज में जिस तेजी से एंकर होने की शर्तों को बदल दे रहा है,वो मीडिया इन्डस्ट्री के भीतर एक नए किस्म की स्थिति पैदा कर रहा है।

यहांआकर एयरहॉस्टेस,मॉडलिंग,ब्यूटीशियन,स्पा थेरेपी, इवेंट मैनेजमेंट,फैशन डिजाइनिंग और इन सबके बीच मीडिया कोर्स एक-दूसरे के बीच इस तरह से गड्डमड्ड हो जाते हैं कि संभव है आनेवाले दिनों में इस पेशे में आने के पहले लड़कियों के बीच अपने-आप ही गुपचुप तरीके से शर्तें तय हो जाने लगे कि अगर वो सुंदर नहीं है (इस सुंदर होने में गोरा होना भी शामिल है) तो किसी भी हाल में न्यूज एंकर बनने के सपने छोड़ दे। वही दूसरी तरह जो लड़कियां सुंदर है उसके दिमाग में ये बात मजबूती से बैठ जाए कि वो सुंदर है,कुछ नहीं तो कम से कम न्यूज एंकर तो बन ही जाएगी।ठीक उसी तरह से जिस तरह एक जमाने में साहित्य पढ़नेवाले, कम्युनिस्ट पार्टी की होलटाइमरी करनेवाले नौजवानों के दिमाग में ये बात भरी रहती थी कि अगर प्रोफेसरी या कमिशन की नौकरी नहीं मिली तो मीडिया की नौकरी तो धरी ही है। इस तरह की मानसिकता मीडिया के भीतर के उन प्रोफेशनल एप्रोच को ध्वस्त करती है,जिसके दावे के लिए अब निजी संस्थान लाखों रुपये ऐंठ रहे हैं।

10-12 हजार रुपये की एंकर की नौकरी बारह तरह की झंझटों से गुजरने के बाद मिलती है जिसमें ग्लैमर की चमक के आगे तमाम दर्द को हवा में उड़ा देने की कोशिशें होती हैं। ऐसा होने से सुंदर लड़कियां भी अपनी तमाम योग्यता और एकेडमिक और मीडिया समझ के साथ आती भी है तो उसके आने में उसकी देह को ही प्रमुख माना जाएगा। चैनलों में लड़कों या फिर आपस में नहीं बननेवाली फीमेल कूलीग के एक-दूसरे के प्रति ये शब्द कि हमें खूब पता है कि वो किस बिना पर एंकर बनी है,इसी सोच का व्यावहारिक नतीजा है। इन सबके बीच मीडिया प्रोफेशनलिज्म कहां हवा हो जाती है,इस पर गंभीरता से विचार करने का काम अभी शुरु नहीं हुआ है?

इसके साथ जो दूसरी बड़ी और जरुरी बात है वो ये कि जब शुरु से ही इस नीयत से फीमेल एंकरों की भर्ती की जाती हो कि वो देखने में अनिवार्य रुप से सुंदर हो तो क्या इस सुंदर दिखने की मानसिकता यहीं आकर रुक जाती है? यहां यह ध्यान रहे कि टेलीविजन पर प्रजेंटेवल दिखना और शरीरी तौर पर सुंदर होना दो अलग-अलग चीजें हैं। स्क्रीन पर प्रजेंटेवल दिखाना ये मीडिया प्रोफेशनलिज्म का काम है जिसे कि वो लगातार नजरअंदाज करता है जबकि शरीरी तौर पर सुंदर होने को ज्यादा तबज्जो दिया जाता है।

ऐसा होने से चैनल के भीतर एक खास किस्म का कॉमप्लेक्स और शोषण की गुंजाईश तेजी से पनप सकती है। कुछ चैनलों के भीतर से इव टीजिंग और सेक्सुअल हर्सामेंट के मामले आने शुरु हुए हैं जिससे ये साफ हो रहा है कि सुंदर दिखाने की मानसिकता ऑडिएंस को अपनी तरफ खींचने तक जाकर ठहरती नहीं है बल्कि इसके पीछे भी एक सक्रिय खेल शुरु हो गए है। हालांकि ये कोई बंधा-बंधाया फार्मूला नहीं है कि इस तरह के काम सिर्फ सुंदर लड़कियों क साथ ही किया जा सकता है। जरुरी बात उस मानसिकता के तेजी से फैलने की है जहां आकर एक फीमेल एंकर पत्रकार का दर्जा आए दिन खोकर एक मॉडल,एयर हॉस्टेस या फिर दूसरे उन प्रोफेशन के तौर पर पाती हैं जहां वो अपनी आवाज सख्ती से नहीं उठाने पाती या फिर धीरे-धीरे इसे प्रोफेशन का हिस्सा मानकर चुप्प मार जाती है।

प्रोफेशन का हिस्सा मानकर चुप्प मार जाना जाहिर तौर पर एक फीमेल एंकर को पत्रकार के दर्जे से बिल्कुल अलग करके देखना है। मेरी दोस्तों ने जो पांच साल की करियर लाइफ वाला फार्मूला अपने आप ही मान लिया,ये उसी सोच का नतीजा है। न्यूज चैनल के भविष्य के लिए ये बहुत ही खतरनाक स्थिति है। फिर सालों से जो अनुभव हासिल किए,उसका लाभ चैनल को किस रुप में मिल सकेगा या फिर क्या चैनल को देह के स्तर की सुंदरता के आगे इसकी जरुरत नहीं रह जाती,ये भी अपने-आप में एक बड़ा सवाल है। एंकरिंग अनुभव को लेकर मेरे इस सवाल पर कि तुम कभी निधि कुलपति, अलका सक्सेना, या नीलम शर्मा जैसी क्यों नहीं बनना चाहती,क्या होता है उनका जबाब। आगे पढ़िए..
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हिरासत में प्रकाश सिंह ( बीच में )
प्रकाश सिंह टेलीविजन पत्रकारिता का एक स्याह चेहरा. उमा खुराना के फर्जी स्टिंग ऑपरेशन का सूत्रधार. एक नया रावण जिसकी जन्मस्थल बनी लाइव इंडिया और जन्मदाता बने चैनल हेड सुधीर चौधरी. अब इसे विडंबना कहिये या फिर टेलीविजन न्यूज़ चैनलों का घटिया चरित्र, उमा खुराना के फर्जी स्टिंग और उस वजह से जेल जाने के बावजूद प्रकाश सिंह न्यूज़ इंडस्ट्री में लगातार पनाह पाता रहा. जेल की हवा खाने और फिर लाइव इंडिया से निकाले जाने के बाद, पहले वायस ऑफ इंडिया (वीओआई) फिर P7 न्यूज़ में प्रकाश सिंह ने नौकरी कर सरोकारी पत्रकारिता करने वालों के मुंह पर तमाचा जड़ा. उसे धत्ता बत्ताते हुए मानो कहा जो करना है कर लो मेरा कोई कुछ नहीं उखाड़ सकता. 

फर्जी स्टिंग के बाद उमा खुराना पर क्रुद्ध भीड़
आखिर प्रकाश यह क्यों न कहे. उसे यह कहने का हौसला भी तो न्यूज़ इंडस्ट्री ही दे रहा है. समाज को नैतिकता का पाठ पढाने वाले न्यूज़ चैनल कितने अनैतिक हो सकते हैं, यह प्रकाश सिंह को बार - बार नौकरी देकर चैनलों ने साबित किया. अब प्रकाश सिंह की तरक्की की कहानी सुनिए. यदि डॉक्टरी या वकालत का ये पेशा होता और किसी डॉक्टर या वकील ने ऐसा जघन्य अपराध किया होता तो उसका लाइसेंस हमेशा के लिए जब्त कर लिया जाता. जीवन में दुबारा वह कभी प्रैक्टिस नहीं कर पाता.


 लेकिन लाइव इंडिया में ऐसा कुकृत्य करने के बावजूद प्रकाश सिंह न केवल टीवी न्यूज़ इंडस्ट्री में टिका रहा बल्कि उसने तरक्की भी की. आपको यह जानकर ताज्जुब होगा कि तरक्की की सीढियाँ चढ़ते - चढ़ते यह शख्स पहले वीओआई और फिर P7 न्यूज़ में गेस्ट कॉर्डिनेशन का प्रमुख बन गया. P7 न्यूज़ से निकलने के बाद आजकल यह एक केन्द्रीय मंत्री के मीडिया कॉर्डिनेशन का काम संभाल रहा है. कल को किसी नेता या मंत्री - संत्री के चैनल का चैनल हेड / सीईओ बन कर आ जाए तो ज्यादा अचरज नहीं होगा और यकीन मानिए ऐसा हो सकता है. तब यही व्यक्ति मीडिया और नेताओं में सांठ-गाँठ करवाएगा. उनके बीच सूत्रधार का काम करेगा. बड़े - बड़े घोटालों को अंजाम देगा और उसे दबाने के लिए मीडिया को टूल की तरह इस्तेमाल करेगा. फिर आप इस रावण का क्या कर लेंगे. कैसे करेंगे इस सहस्त्र सिरों वालों रावण का दहन? कैसे दहन करेंगे लाइव इंडिया और सुधीर चौधरी के पैदा हुए इस रावण का ?

25 साल की उम्र में जो शख्स “उमा खुराना फर्जी स्टिंग” जैसे कुकृत्य को अंजाम दे सकता है वह अगले 25 साल में क्या – क्या कर सकता है, उसकी कल्पना भी भयावह है. प्रकाश सिंह जैसे घटिया मानसिकता के लोगों का स्वभाव कभी नही बदलता. अपनी गलतियों पर ये पछताते नहीं बल्कि समय के साथ और बड़े फ्रॉड करते हैं. देश के जाने – माने मीडिया आलोचक और विशेषज्ञसुधीश पचौरी ‘नया मीडिया और नए मुद्दे’ नाम की अपनी किताब में प्रकाश की इसी बेहायापन की तरफ इशारा करते हुए लिखते हैं :टाइम्स ऑफ इंडिया में 13 सितम्बर को छपे चित्र में वह (प्रकाश सिंह) कैमरे की आँख को निर्भीकता से देख रहा है. एक कैमरा पीछे से भी उसे शूट कर रहा लगता है. वह नीली शर्ट पहने है और तनकर खड़ा है. यदि यह फोटो गिरफ्तारी के बाद का है तो उसके निर्भीक लूकस को देखकर और भी हैरत होती है. चेहरे व्यक्तिव का पूरा आईना नहीं होते लेकिन ऐसे आकस्मिक प्रसंगों में उनके माने अचानक चमक उठते हैं.' 

प्रकाश सिंह जैसे रावण को पहला मौका आईबीएन-7 ने दिया. न्यूज़ इंडस्ट्री के अपने सूत्रों की माने तो आईबीएन- 7 में उसे काम का मौका सीनियर पत्रकार प्रबल प्रताप सिंह के रिकमेंडेशन पर मिला. सूत्रों की माने तो जुगाड फिट करने में माहिर प्रकाश ने प्रबल प्रताप सिंह को जातिगत आधार पर साधा. आईबीएन – 7 में रहते हुए इसने उमा खुराना से सम्बंधित फर्जी स्टिंग ऑपरेशन तैयार किया. लेकिन वह स्टिंग वहां नहीं चली. हालाँकि प्रकाश ने उस स्टिंग को चलवाने के लिए एड़ी – चोटी का जोर लगाया. पर उसे कामयाबी नहीं मिली. यही अंतर होता है एक संजीदा चैनल और एक गैर ज़िम्मेदार चैनल में. आईबीएन-7 के लिए बनी स्टोरी आईबीएन-7 पर नहीं चली तो कोई तो बात होगी. शायद उन्हें इसके फर्जी होने का एहसास हो गया था. यदि ख़बरों की माने तो खुद प्रबल प्रताप ने इस स्टोरी को चलाने से मना करवाया था. संभवतया वे प्रकाश के चाल – चरित्र से तबतक परिचित हो चुके थे. उसके बाद ही आईबीएन-7 से प्रकाश की छुट्टी हुई. उमा खुराना के फर्जी स्टिंग ऑपरेशन के बाद आईबीएन – 7 के एडिटर – इन – चीफराजदीप सरदेसाई ने अपने एक बयान में कहा था कि हम बच गए. भगवान का शुक्रिया हमने ये टेप नही चलायी. इस मुद्दे पर शुक्रवार 14 सितम्बर,2007 को हिंदुस्तान टाइम्स में छपे अपने एक लेख “Sting in the Tale” में राजदीप लिखते हैं :
“A few weeks ago, I received an SMS: "Dear sir, I am from Patna. I have more than 40 stings with me. Meet me once, you will not be disappointed. Trust me, together we will create a tehelka (pun possibly intended)!" I chose not to respond in the firm belief that this was one tehelka I did not want to part of. After all, 40 sting operations at one go sounded a bit unreal. I have little doubt though that someone, somewhere would have responded to the man from Patna. In this open season for outsourcing sting journalism, there must be a buyer who found the offer attractive. As perhaps did the editorial team of the news channel that aired the now infamous Uma Khurana sting, where a schoolteacher was alleged to be a willing accomplice to a prostitution racket till it was discovered that the schoolgirl who was being used as bait wasn't a student after all.”

प्रकाश सिंह, सुधीर चौधरी और लाइव इंडिया के इस कुकृत्य ने शिक्षिका उमा खुराना को शिक्षिका से सेक्स रैकेट चलाने वाली बना दिया. दस दिनों तक उसे न्यायिक हिरासत में रहना पड़ा. उसकी इज्जत सरेआम नीलाम हो गयी. उसे बाल पकड़ कर घसीटा गया. उसके कपडे क्रुद्ध भीड़ ने फाड़ दिया. उमा खुराना ने कहा कि इस पूरे षड्यंत्र के पीछे उसे जान से मारने की भी साजिश थी. सीएनएन – आईबीएन को दिए इंटरव्यू में उमा खुराना ने कहा :
CNN – IBN: Why the person has targeted you what is the reason behind that? Uma Khurana: I cant say why he was making me target what was the motive behind that. But yes there was a great conspiracy behind this to kill me. The whole episode was shown on TV when I was in class thinking that people can attack me and can kill me.

अफ़सोस की बात है कि इतना सब होने के बावजूद उमा खुराना का रावण अब भी जिंदा है. उसका दहन नहीं हुआ. लाइव इंडिया का बनाया रावण बीतते समय के साथ ज्यादा बड़ा और ताकतवर होता जा रहा है. कल को यही रावण सस्ती लोकप्रियता के लिए किसी और उमा खुराना के मान – सम्मान से खेले तो सुनकर कोई आश्चर्य नहीं होगा. समय – समय पर वह इसका प्रमाण भी दे रहा है. एक मीडिया वेबसाईट पर जनवरी, 2010 को यह खबर आई थी कि प्रकाश सिंह को दिल्ली के न्यू अशोक नगर थाने की पुलिस ने हिरासत में ले लिया था. खबर के मुताबिक एनडीटीवी की गेस्ट कोआर्डिनेशन टीम में कार्यरत एक लड़की ने प्रकाश पर अभद्रता करने का आरोप लगाते हुए पुलिस में शिकायत दर्ज करायी थी. इसके बाद पुलिस ने प्रकाश को हिरासत में लेकर पूछताछ की. आरोप लगाने वाली लड़की पहले पी7 न्यूज में प्रकाश के अधीन गेस्ट कोआर्डिनेशन की टीम में काम करती थी. बाद में वह इस्तीफा देकर एनडीटीवी चली गई. सूत्रों का कहना है कि प्रकाश ने एनडीटीवी के आफिस और फिर बाद में उस लड़की के घर पर पहुंचकर अभद्रता की. उसके बाद लड़की ने प्रकाश पर अभद्रता करने का आरोप लगाते हुए इसकी शिकायत प्रबंधन और पुलिस से कर दी.

दशहरे के दिन लाइव इंडिया पर रावण दहन दिखाया जा रहा था. लाइव इंडिया के एंकर प्रवीण तिवारी बुराई पर अच्छाई की जीत की बातें कर रहे थे. लेकिन क्या कभी लाइव इंडिया अपने अंदर के रावण का दहन करेगा? उस रावण का दहन करेगा जिसका जन्मदाता खुद वो है।


साभारः- मीडियाख़बर डॉट कॉम, न्यूज चैनलों के नौ रावण

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कल हमने आपसे अपील की थी कि मैंने तो स्टार न्यूज के भीतर रावण और चैनल के रावण मानसिकता से ड्राइव होने की बात लिख दी है। आप भी पहल करें,अच्छा रहेगा। ठीक उसी रात मीडिया फोकस साइट मीडियाखबर डॉट कॉम ने एक सीरिज शुरु की- न्यूज चैनलों के नौ रावण और उनलोगों की पूरी एक लिस्ट जारी है जो वाकई अलग-अलग खौपनाक कारनामे से मीडिया इन्डस्ट्री के रावण हैं। लिहाजा हम वहां से वो पोस्ट उधार लेकर आपसे साझा कर रहे हैं। ये बहुत ही मौजूं दौर है,जहां आकर मीडिया जिसे की लोकतंत्र का चौथा स्तंभ और बदलाव का नायक करार देते रहे,उसकी शक्ल एक विलेन के तौर पर बन गयी है। पहले पीपली लाइव और अब नॉक आउट देखकर हम इसे आसानी से समझ सकते हैं।


अगस्त तीस (2007) को दरियागंज के तुर्कमान गेट के इलाके में अचानक बवाल हुआ, तोड़-फोड़ आगजनी हुई और सार्वजनिक संपत्ति को क्षति पहुँचाई गयी, आरोपी शिक्षिका उमा खुराना को सजा देने के लिए सच्चरित्र और ईमानदार लोगों की भारी भीड़ जमा हो गयी। आरोपी शिक्षिका के कपड़े फाड़े गए, बाल पकड़ कर घसीटा गया और पूरी कोशिश की गयी कि उसे जज जनता सजा-ए-मौत दे दे। उसे बचाने वाली पुलिस पर भी इन जजों का गुस्सा उतरा, पथराव हुआ और वह जिप्सी जला दी गयी जिसमें अन्य कई केसों की महत्वपूर्ण फाइलें भी थीं जिनको फिर से तैयार करना एक दुष्कर और अत्यंत खर्चीला कार्य होगा।
उमा खुराना पर स्कूल में सेक्स रैकेट चलाने का आरोप लगा. इन सारी घटनाओं का सूत्रधार चैनल ‘लाइव इंडिया’जो कुछ ही दिन पहले इस रूप में आया था तत्काल चर्चित हो गया। न्यूज़ चैनल ‘जनमत’ को न्यूज़ चैनल ‘लाइव इंडिया’ बनाने वाले उसके मालिक ‘मार्कंड अधिकारी' इस बात से खुश थे कि खबरिया चैनलों की भीड़ के बावजूद मात्र 20 दिनों में उन्होंने अपनी उपस्थिति दर्ज करा दी। जनता सड़कों पर उतर गयी। एक तरह की क्रांति हो गयी। 50 साल पुराने विद्यालय के गेट में रस्सी बांध दी गयी। 1200 छात्राओं में से 80 छात्राओं ने विद्यालय का बहिष्कार कर दिया। तीसरी कक्षा तक की छात्राओं को अभिभावकों ने रोककर उमा खुराना रूपी राक्षसी से उनकी रक्षा कर ली। इस प्रकार लाइव इंडिया ने समाज के बड़े हिस्से को गर्त में गिरने से बचा लिया।

अब तस्वीर का दूसरा पहलू. लाइव इंडिया का यह स्टिंग फर्जी साबित हुआ. इस स्टिंग को करने वाला लाइव इंडिया के रिपोर्टर प्रकाश सिंह का यह फर्जीवाडा था . उमा खुराना के बारे में न्यायाधीश ने कहा कि उमा खुराना अपराधी नहीं अपराधियों की करतूत की शिकार हुई लगती हैं. अब लाइव इंडिया के चैनल हेड सुधीर चौधरी की इजाजत से चले स्टिंग ऑपरेशन की हकीकत सुनिए.
जांच – पड़ताल के बाद पता चला कि लाईव इंडिया के रिपोर्टर ने स्टिंग में जिस छात्रा को दिखाया था, वह नोएडा से निकलनेवाले एक साप्ताहिक समाचारपत्र निर्भीक प्रहरी की संवाददाता थी. पत्रकारिता में तेजी से ऊपर पहुंचने के लिए उसने प्रकाश सिंह के कहने पर यह सब किया. बिहार से दिल्ली पत्रकारिता करने आयी रश्मि सिंह वह लड़की बन गयी जिसे उमा खुराना किसी ग्राहक को सौंप रही हैं. पुलिस की जांच-पड़ताल में ये बात सामने आई कि यह सब एक छोटे व्यापारी वीरेन्द्र अरोड़ा का रचा गया षड़यंत्र था. पूर्वी दिल्ली में चिटफंड का छोटा-मोटा धंधा करनेवाले अरोड़ा ने शिक्षिका को पैसे उधार दिये थे. डेढ़ लाख की वसूली नहीं हो पा रही थी इसलिए उसे बदनाम करवाने के लिए वह स्टिंग करवाना चाहता था. उसने एक दो चैनलों के रिपोर्टरों से इस सिलसिले में बात की. इन्हीं में से एक प्रकाश सिंह था जो ऐसा करने के लिए तैयार हो गया. वह स्टिंग में कुछ ऐसा दिखाना था जिससे यह लगे कि उमा खुराना वैश्यावृत्ति के धंधे में शामिल हैं. कम से कम तीन चैनलों को इस पेशकश की जानकारी थी. प्रकाश सिंह तब आईबीएन-7 में था जब अरोड़ा ने उससे संपर्क किया था. दोनों ने मिलकर तय किया कि वे इस खबर पर काम करेंगे. प्रकाश सिंह भी रातों-रात स्टार पत्रकार बनने की हसरत पाले हुए था. उसने इसी दौरान रश्मि सिंह से भी बात की. और रश्मि सिंह भी अच्छी नौकरी की आस में तैयार हो गयी. इस तरह एक स्टिंग तैयार हो गया और उमा खुराना को पर्दे पर स्कूली छात्राओं से देह व्यापार करनेवाला साबित कर दिया गया।

यह खबर आईबीएन सेवेन के लैब में संपादित हुई. सीडी तैयार थी और पता नहीं क्यों उसे दिखाने से मना कर दिया गया. प्रकाश सिंह को लगा उसका सपना चकनाचूर होने जा रहा है. उसने चैनल छोड़ दिया. कारण शायद कुछ और भी रहे होंगे. लेकिन वह लाईव इंडिया में आ गया. उसको काम करते हुए महीनाभर भी नहीं बीता होगा कि यह खबर सबके सामने आ गयी. स्टिंग के टेप में कहीं वीरेन्द्र अरोड़ा फोन करके लड़की का इंतजाम करने को कह रहे हैं और उमा खुराना “करती हूं” जैसी कोई बात कहते हुए सुनाई पड़ती हैं.
इस फर्जी स्टिंग ऑपरेशन के भंडाफोड के बाद लाइव इंडिया की फजीहत हुई. चैनल पर एक महीने का  बैन लगा. फर्जी स्टिंग करने वाला रिपोर्टर प्रकाश सिंह गिरफ्तार हुआ. चारो तरफ चैनल की थू – थू हुई. लाइव इंडिया के साथ दूसरे समाचार चैनलों की भी थुक्कम – फजीहत हुई. मिला – जुलाकर ऐसा माहौल बन गया कि समाचार चैनलों में सारे ऐसे ही फर्जी स्टिंग ऑपरेशन होते हैं. टीवी न्यूज़ की विश्वसनीयता घेरे में आ गयी. लाइव इंडिया के चैनल हेड सुधीर चौधरी ने कहा कि प्रकाश सिंह ने चैनल को अँधेरे में रखा. एक अंग्रेजी वेबसाइट ने सुधीर चौधरी के इसी बयान को कोट करते हुए लिखा : Now Sudhir Chaudhary is saying that the reporter kept the channel in the dark. He had only recently left India TV to head Live India (formerly Janmat). What about the editorial skills of your editors. Poor Choudhary can't be expected to deliver better, after all, he is graduated from India TV school of journalism.

सुधीर चौधरी का ये बयान थोथी दलील से ज्यादा कुछ नहीं था .यदि सही – गलत कंटेंट के फर्क को समझने की आपकी समझ नहीं है तो फिर एक चैनल का नेतृत्व आप किस मुंह से करते हैं. क्या ऐसी दलील देते सुधीर चौधरी को शर्म नहीं आई. उमा खुराना को झूठे मामले में ही सही गलत सिद्ध किये जाने पर उसके बाल पकड़कर घसीटा गया तो क्या सुधीर चौधरी को भी बाल पकड़ कर क्यों नहीं घसीटा जाना चाहिए?ऐसे व्यक्ति और चैनल को हम रावण न कहे तो क्या कहें?
कहने को सुधीर चौधरी का पत्रकारिता में 15 से ज्यादा वर्षों का अनुभव है. लाइव इंडिया से पहले जी न्यूज़, सहारा और इंडिया टीवी में काम का अनुभव है. लेकिन यह अनुभव किस काम का? टीवी पत्रकारिता का सबसे काला अध्याय सुधीर चौधरी के कंधे पर चढ़कर प्रकाश कुमार ने लिखा. अफ़सोस की बात है कि पत्रकारिता के तीनों रावण आज भी जिंदा हैं. लाइव इंडिया चल रहा है और उसी सुधीर चौधरी के नेतृत्व में चल रहा है. फर्जी स्टिंग ऑपरेशन को अंजाम देने वाला प्रकाश सिंह न्यूज़ इंडस्ट्री में अब भी काम कर रहा है. (अब नयी खबर आई है कि किसी केन्द्रीय नेता का वह मीडिया कॉर्डिनेटर बन गया है.). सबसे अफसोसजनक बात तो ये है कि सुधीर चौधरी उस एनबीए के सदस्य हैं जो न्यूज़ चैनलों के कंटेंट की निगरानी रखती है. मतलब साफ़ है कि अपने अविवेक और टीआरपी की ललक में ऐसी पीत पत्रकारिता करने के बावजूद उमा खुराना का यह रावण न केवल जिंदा है बल्कि अपने जड़े भी तेजी से मजबूत कर रहा है. क्या किसी दशहरे इस रावण का भी दहन होगा ? (स्रोत – मीडिया मंत्र, प्रथम प्रवक्ता,नवभारत टाइम्स,NDTV24X7)                        


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