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जी नेटवर्क के मुख्तियार और एस्सेल ग्रुप के चेयरमैन सुभाष चंद्रा के लिए देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जो कुछ भी किया, यही सेवा किसी पीआर एजेंसी से ली जाए तो इसके लिए लाखों रूपये खर्च करने पड़ेंगा. इसके बावजूद ये संभव नहीं है कि पीएमओ ट्विवटर हैंडल से हर तीसरे-चौथे मिनट में सुभाष चंद्रा की किताब से लेकर उनके कुल-खानदान की तारीफ में कसीदे पढ़ने का काम हो.
शायद ये भी संभव नहीं है कि इस बुक लांच कार्यक्रम में वो सारे चेहरे भी मौजूद हों जो धंधे की वजह से जी न्यूज को पानी पी-पीकर कोसते हैं.

सबसे पहले तो हम प्रधानमंत्री की इस दरियादिली का स्वागत करते हैं कि उन्होंने जी नेटवर्क के लाखों रूपये बचा दिए जिसे कि यह राष्ट्र निर्माण( जाहिर है सरकार के अच्छे दिनों, असहमत होनेवाले को देशद्रोही और दागदार संपादक को दूसरे की भरपूर डीएनए करने पर ) में लगाएंगे. इसके साथ ही देश की तमाम पीआर एजेंसी को इस बात का शुक्रिया अदा करना चाहिए कि स्वयं प्रधानमंत्री ने पीआर का एक नया फॉर्मूला इजाद किया है.

ये संभव है कि जी न्यूज की तरह बाकी के नेटवर्क प्रधानमंत्री से ये काम लेने की क्षमता नहीं रखते लेकिन इस फार्मूले के तहत इतना तो जरूर कर सकते हैं कि राज्य स्तर पर जहां के जो भी मुख्यमंत्री हों, उनसे मीडिया मालिक बुक लांच कराए, खर्चा बचाए. इससे मुख्यमंत्री ट्विटर हैंडल से जितनी पब्लिसिटी मिलेगी, उतनी किसी अखबार या चैनल से भी नहीं. बाकी धंधे का विरोधी तक अपने

आप तो चला आएगा ही. वाकई मीडिया का ये दिलचस्प दौर है जहां क्रेडिबिलिटी सत्ता के साथ होने से तय होती है, उससे असहमत होने पर राष्ट्र विरोधी कहलाने का खतरा बना रहता है.
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फटाफट जेनरेशन का रेडियो और यूथ कल्चर शीर्षक से मेरा लेख कालियाजी के हाथ में था. पन्ने पलटते हुए उनके हाथ कांप रहे थे और मेरी पूरी देह. अव्वल तो डर इस बात का था कि कहीं उन्हें ये विषय ही बहुत जरूरी न लगे और दूसरा कि लेख में अंग्रेजी के शब्दों के इस्तेमाल से वो भड़क न जाएं. लेकिन लेख पर एक नजर डालने के बाद इतना ही कहा- तुम इसमे ऐसा क्यों नहीं करते कि एक बॉक्स बनाकर सारे एफएम चैनलों की फ्रीक्वेंसी लिख दो जिससे कि हमारे जिन पाठकों को रेडियो सुनने का मन करे, वो इसे देखकर सुन सकें.
जी सर, कर देता हूं लेकिन असल में ज्यादातर लोग एफएम चैनल मोबाईल से सुनते हैं और हम जिस शहर में जाएं, ऑटो ट्यूनिंग करते ही सारे चैनल अपने आप सेट हो जाते हैं. उन्होंने कुछ कहा नहीं. जेब में हाथ डाली और मोबाईल निकालकर मुझे देते हुए कहा- तो तुम अब पहले मेरी ही सेट कर दो. मैंने कर दिया और इयरफोन लगाकर एक मिनट सुना दिया.
हां, अब ठीक है. तुम्हारा लेख भी ठीक है. कुणाल से मिल लिए. उसे दे दो..आगे भी लिखते रहना. कुणाल भी तब तक आ गया और मेरे ब्लॉग लेखन के बारे में उन्हें बताने लगा..सुनने के बाद उन्होंने कहा- तो तुम पत्रिका के लिए ब्लॉगजगत में जो कुछ चल रहा है, हर महीने उसी पर एक लेख लिख दिया करो. मैंने उनसे लिखने का वादा किया और कमरे से बाहर आ गया. ये मेरी कालियाजी से पहली मुलाकात थी.
मैंने ब्लॉग पर पहला लेख लिखा- हिन्दी विभाग की पैदाईश नहीं है ब्लॉगिंग. लेख को मोहल्लालाइव पर भी अविनाश ने चढ़ाया. लोगों की प्रतिक्रिया आई लेकिन इसके बाद नया ज्ञानोदय के लिए लिखना न हो सका. कालियाजी के संपादन में करीब ढाई साल तक मैंने डेढ़ दर्जन से ज्यादा लेख लिखे होंगे लेकिन विभूति नारायण राय इंटरव्यू -नया ज्ञानोदय विवाद के बाद अपनी इच्छा से लिखना छोड़ दिया. उस वक्त माहौल कुछ ऐसा बना कि इस प्रकरण में मेरा बचपन का दोस्त राहुल भी छूट गया और मेरे लेख को बहुत ही जतन से पढ़ने और संपादित करनेवाला नया-नया बना दोस्त कुणाल भी. एकाध बार बात हुई बीच में लेकिन "कालियाजी के पास गिरवी नहीं रखी है कलम" शीर्षक से जो पोस्ट मैंने अपने ब्लॉग पर लिखी थी, ये दोनों इससे बहुत आहत हुए और मुझे किसी खास कैंप का मानकर दूर होते चले गए. खैर,
कालियाजी के बारे में जितनी भी नकारात्मक बातें मैंने सुनी थी, उनमे से कुछ भी अनुभव के स्तर पर मेरे हिस्से नहीं आई. बहुत ही मिलनसार और प्रो-यूथ लगे. ये बात उनके विदा होने के बाद नहीं कह रहा. मयूर विहार की एक उदास रात मैंने कुणाल से शेयर किया- दोस्त, बहुत अकेला महसूस करता हूं कभी-कभी, तुम सब एक-एक करके दूर होते चले गए. पुराने दिनों की याद आती है. तुम ही तो कहा करते थे न- चैनल टाइप के प्रोफेशनल मत बनो. नया ज्ञानोदय के दफ्तर आते हो तो हाय-हैलो कर लिया करो कालियाजी को, याद करते हैं कभी-कभी तुम्हें..मैं एक दिन आकर कालियाजी को सॉरी बोलना चाहता हूं. जो लिखा उसके लिए नहीं, इसके लिए कि उन्हें मैंने बिना बताए लिखना बंद कर दिया.
असल में झारखंड विशेषांक से नया ज्ञानोदय में लिखने का जो सिलसिला शुरू हुआ, उसके बाद लिखता चला गया. लेकिन लेख पहुंचाने कभी जाता नहीं था. कुणाल के बताए पते पर मेल कर देता और जो सुधार करने कहते, वो करके दोबारा मेल कर देता..लेकिन जैसे ही पता चलता कि अंक छपकर आ गया है, बेचैनी बढ़ जाती और इतना भी बर्दाश्त नहीं होता कि अंक के हॉस्टल के कमरे तक आने का इंतजार करूं. इतने में चार-पांच दिन निकल जाते. लिहाजा मैं आधी दूरी डीटीसी से और आधी ऑटो से तय करके दफ्तर पहुंच जाता और अंक लेकर आता. अब नया ज्ञानोदय में छपे वो सारे लेख नौकरी के लिए तैयार की गई फाईलों में है..पलटता हूं कभी-कभी.
कालियाजी मेरे लिए वो पहले संपादक रहे जिन्होंने मुझे पहली बार छापा. झारखंड विशेषांक में छापा तो लगा कि एक बार इसलिए छाप दिया कि मैं वहीं से हूं लेकिन फिर दोबारा, उसके बाद और फिर लगातार छपने लगा तो लगा कि सचमुच उन्हें नए लेखकों से प्यार है. उसे प्रोत्साहित करने में मजा आता है. बहुत ही कूल संपादक लगे मुझे..लेकिन
कालिजयाजी का लिखा मैंने तब तक तो बिल्कुल भी नहीं पढ़ा था जब पत्रिका के लिए लिखा करता था. उन्हें पढ़ना शुरू किया रवि रतलामी के ब्लॉग रचनाकार पर गालिब छुटी शराब पर लगाए अंश से. रतलामी ने तो पूरी किताब ही पोस्ट कर दी थी वहां..मजेदार बात ये कि किताब बाजार में आसानी से उपलब्ध थी लेकिन मैं यहीं एक-एक करके पढ़ा और फिर बाकी चीजें भी. पढ़ने के बाद कचोट रही कि इन्हें पहले से पढ़ा होता तो जिस लापरवाही से नया ज्ञानोदय के दफ्तर जाकर वापस आ जाता हूं, शायद वैसा नहीं करता..कुछ और बातें करता.
एबीपी न्यूज ने उनके गुजरने की खबर में ये लाइन बहुत सही प्रसारित की कि वो ऐसे अनूठे संपादक थे जिन्हें पाठक की नब्ज और बाजार की भी बराबर समझ थी. शायद इसलिए हम जैसे ब्लॉगरों का हिन्दी की दुनिया उपहास उड़ाती, कालियाजी ने मौका दिया. उन्हें कहने की बदलती दुनिया का सही अंदाजा था...ए, इससे क्या बात करना इस मुद्दे पर, ये तो ब्लॉगर सब है, पॉपुलिस्ट सब कहकर जो हमें चलता कर देते, कालियाजी ने हम जैसे को छापकर थोड़ा जरूर परेशान किया.
मेरे पहले संपादक के तौर पर आप मुझे बहुत याद आएंगे सर, याद आते रहेंगे. आपका मोबाईल कहां है, नहीं पता लेकिन आगे भी जो भी कहेगा उसकी ट्यूनिंग मिलाता रहूंगा..

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