हिन्दी मी काव्यशास्त्र का एक पेपर होता है जिसमे अपने मन का लिखने कि गुंजाइश न के बराबर होती है । इसलिये हर दूसरे -तीसरे वाक्य के साथ जोड़ना पड़ता है- फलां के अनुसार । कल के इस पेपर मई कुछ बच्चे यह भी क्रियेटिव नज़र आये। पूरी बात तो वही लिखी जो बात हिन्दी पड़ने वाले शुरू से करते आ रहे है लेकिन इन्त्रो मी सबको मौका मिल गया अपनी बात झोकने कि तो देखिये उनकी बानगी-
सबाल है, काव्य लक्षण क्या क्या है, परिभासित करे । बन्दे ने लिखा-
कविता सब लोग अपने-अपने मतलब के लिये करते है। किसी को मन होता है कि इससे धन-दौलत कमाये, कोई नाम के लिये लिखता है और कोई लोग कविता का नाम पर काओवं- कावों करके पोल्तिस मी अपनी पकड़ बनाना चाहता है। बन्दा मुझे उत्तर- आधुनिक जान पड़ा , उसने सारे मेटा नर्रेतिव को तोड़ दिया और अपने इस उत्तर मी कही भी कुन्तक, विश्वनाथ का नाम नही लिया , और आज के हिसाब से जो कवी , कविता और सम्मान के लिये मार-काट मच रही है, सब लिख दिया । संस्कृत का खुल्ला नकार। इंग्लिश का भी कही कोई नाम नही। भाई ये है क्रेअतिविटी । आप बताते रहे क्लास मी कि हमारी परंपरा ये , वो , लेकिन आज कि हिन्दी फसल आपके हिसाब से नही चलेगी।
एक बन्दे ने रस को लेकर प्रेमचंद के क्या विचार है, पूरे सात पन्ने मे लिखा। क्यो नही लिखेगा, आप भी तो बात-बात मे मार्क्स और लोहिया को पेलते हो। पेपर भले ही संस्कृत कि किताब पड़कर तैयार कि गयी हू लेकिन जबाब भी संस्कृत के हिसाब से हो, जरुरी तो नही.
एक बन्दे ने पूरे भारतीय काव्यशास्त्र को शोषण का मामला बताया और कम्युनिस्ट मनिफेस्तो झोक डाला।
और एक बन्दे ने तो लिखा आचार्य अरस्तूजी के अनुसार। वो हिंदूवादी तरीके से पेपर को देख रह था, लेकिन आप ये नही कह सकते कि उसे ये बात पता नही कि अरस्तू भारतीय नही थे.
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सबाल है, काव्य लक्षण क्या क्या है, परिभासित करे । बन्दे ने लिखा-
कविता सब लोग अपने-अपने मतलब के लिये करते है। किसी को मन होता है कि इससे धन-दौलत कमाये, कोई नाम के लिये लिखता है और कोई लोग कविता का नाम पर काओवं- कावों करके पोल्तिस मी अपनी पकड़ बनाना चाहता है। बन्दा मुझे उत्तर- आधुनिक जान पड़ा , उसने सारे मेटा नर्रेतिव को तोड़ दिया और अपने इस उत्तर मी कही भी कुन्तक, विश्वनाथ का नाम नही लिया , और आज के हिसाब से जो कवी , कविता और सम्मान के लिये मार-काट मच रही है, सब लिख दिया । संस्कृत का खुल्ला नकार। इंग्लिश का भी कही कोई नाम नही। भाई ये है क्रेअतिविटी । आप बताते रहे क्लास मी कि हमारी परंपरा ये , वो , लेकिन आज कि हिन्दी फसल आपके हिसाब से नही चलेगी।
एक बन्दे ने रस को लेकर प्रेमचंद के क्या विचार है, पूरे सात पन्ने मे लिखा। क्यो नही लिखेगा, आप भी तो बात-बात मे मार्क्स और लोहिया को पेलते हो। पेपर भले ही संस्कृत कि किताब पड़कर तैयार कि गयी हू लेकिन जबाब भी संस्कृत के हिसाब से हो, जरुरी तो नही.
एक बन्दे ने पूरे भारतीय काव्यशास्त्र को शोषण का मामला बताया और कम्युनिस्ट मनिफेस्तो झोक डाला।
और एक बन्दे ने तो लिखा आचार्य अरस्तूजी के अनुसार। वो हिंदूवादी तरीके से पेपर को देख रह था, लेकिन आप ये नही कह सकते कि उसे ये बात पता नही कि अरस्तू भारतीय नही थे.
कल रामजस कॉलेज की एक लड़की को जैकेट पहने देखा। देखकर बहुत अच्छा लगा । जैकेट पर लिखा था - रामजस कॉलेज , डिपार्टमेन्ट ऑफ़ हिन्दी ।
campus मे अपने कॉलेज और डिपार्टमेन्ट के नाम पर टीशर्ट, गर्म कपडे निकालने का पुराना चलन है। हॉस्टल मे लोग अपने हॉस्टल के नाम पर टीशर्ट निकालते है।
टीशर्ट निकालने के अलग-अलग मतलब हो सकते है। ये मतलब निकालने और खरीदने वाले के लिये अलग-अलग होते है। जो निकलते है उन्हें एक आइटम मे ७५ से १०० रुपये की कमाई हो जाती है और काम भी कोई बेकार का नही है। अगर आपने कोई अलग ढंग का आइटम निकाल दिया तो लोग लंबे समय तक याद रखते है आपको। अपनी पहचान बनने का ये भी एक बेहतर तरीका है। अच्छा इसी बहाने आपका पीआर बनेगा और आप इलेक्शन मे कल्चरल सेक्रेटरी के लिये सोच सकते है। कॉलेज मे लड़कियों से दोस्ती हो सकती है। हिन्दू मे तो एक -दो मेरे फ्र्स्तु दोस्त टीशर्ट लेने अपने कमरे मे बुलाते और शाम मे कमला नगर मे मोमोज़ खिलाते कि मुझे गर्ल-फ्रेंड मिल गयी है, आज पहला दिन था, कमरे मे आयी थी....पार्टी .... । ये तो तब मामला समझ मे आता जब अगले दिन गार्ड से लड़की पूछती जो भैया / सर टीशर्ट निकालते है , उनका कौन सा रूम है और पहुचती। और वापस अपने पैसे मांगती या फिर कहती कि सर साइज़ बड़ा है, छोटे दे दे या फिर इसमे मे तो छेद है, दूसरी पीस दे दे ।
हमलोग सबसे पहले आइटम खरीदते , क्यो यही एक ऐसा आइटम होता जिससे अपनी हैसिअत का पता नही चलता . हम तो चाहते कि कॉलेज के नाम से जीन पैंट भी निकले, जूते भी। कभी-कभी टीशर्ट निकालना पोल्तिक्स की बात हो जाती और वोट के हिसाब से ग्राहक गिनते कि कौन-कौन लेगा।
निकालने वाले अक्सर दबंग या फिर फुरसतिया किस्म के लोग होते है । टीशर्ट निकालने मे हिन्दी के लोग शामिल होते है लेकिन कभी भी हमने हिन्दी डिपार्टमेन्ट के नाम पर कुछ निकालते नही देखा।
ऐसा नही है कि हिन्दी के बच्चो की कॉलेज मे संख्या कम होती है लेकिन कोई हिन्दी टीशर्ट पर प्रिंट कराना ही नही चाहता । हिन्दू मे जब मैंने एक बार बात कि भैया मुक्तिबोध या कबीर की कुछ पंक्तिया लिखकर अपने विभाग का टीशर्ट क्यो नही निकालते । तो बन्दे ने कहा कि यार तुम हमेशा चुतियापा क्यो करते हो , कौन हिन्दी कि टीशर्ट पहनकर घूमेगा । लड़किया पहले खूब अच्छे से बात करती है लेकिन जब पता चलता है कि हिन्दी से है तो कट ने लगती है और हिन्दी कि लड़किया तो पहले से ही सलवार -कमीज़ मे पता चल जाता है कि की है। एक-दो जीन पहनती भी है तो टॉपके साथ इतना कुछ पहनती है कि कही से कांफिदेंस ही नही झलकता। एक जूनिएर ने कहा क्या सर आप हमेशा तैल करने मे लगे रहते है। आरुशी से इंग्लिश मे बात करता हू और वो भी बहुत स्पेस देती है और अब हिन्दी कि टीशर्ट पहनकर घुमूँगा।
आख़िर मैंने एक प्लेन टीशर्ट ख़रीदा और उस पर लिखा-
अब अभिव्यक्ति के ख़तरे उठाने ही होंगे
और पहनकर घूमता । कई लोगो ने पूछा कहा से करवाए और मैंने कहा, खुद से कर लिया।
कल लड़की को हिन्दी लिखा पहने देखा तो सचमुच बहुत अच्छा लगा कि-
चलो लोगो को अब ये बताने मे शर्म नही आती ही वो हिन्दी का स्टूडेंट है...
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campus मे अपने कॉलेज और डिपार्टमेन्ट के नाम पर टीशर्ट, गर्म कपडे निकालने का पुराना चलन है। हॉस्टल मे लोग अपने हॉस्टल के नाम पर टीशर्ट निकालते है।
टीशर्ट निकालने के अलग-अलग मतलब हो सकते है। ये मतलब निकालने और खरीदने वाले के लिये अलग-अलग होते है। जो निकलते है उन्हें एक आइटम मे ७५ से १०० रुपये की कमाई हो जाती है और काम भी कोई बेकार का नही है। अगर आपने कोई अलग ढंग का आइटम निकाल दिया तो लोग लंबे समय तक याद रखते है आपको। अपनी पहचान बनने का ये भी एक बेहतर तरीका है। अच्छा इसी बहाने आपका पीआर बनेगा और आप इलेक्शन मे कल्चरल सेक्रेटरी के लिये सोच सकते है। कॉलेज मे लड़कियों से दोस्ती हो सकती है। हिन्दू मे तो एक -दो मेरे फ्र्स्तु दोस्त टीशर्ट लेने अपने कमरे मे बुलाते और शाम मे कमला नगर मे मोमोज़ खिलाते कि मुझे गर्ल-फ्रेंड मिल गयी है, आज पहला दिन था, कमरे मे आयी थी....पार्टी .... । ये तो तब मामला समझ मे आता जब अगले दिन गार्ड से लड़की पूछती जो भैया / सर टीशर्ट निकालते है , उनका कौन सा रूम है और पहुचती। और वापस अपने पैसे मांगती या फिर कहती कि सर साइज़ बड़ा है, छोटे दे दे या फिर इसमे मे तो छेद है, दूसरी पीस दे दे ।
हमलोग सबसे पहले आइटम खरीदते , क्यो यही एक ऐसा आइटम होता जिससे अपनी हैसिअत का पता नही चलता . हम तो चाहते कि कॉलेज के नाम से जीन पैंट भी निकले, जूते भी। कभी-कभी टीशर्ट निकालना पोल्तिक्स की बात हो जाती और वोट के हिसाब से ग्राहक गिनते कि कौन-कौन लेगा।
निकालने वाले अक्सर दबंग या फिर फुरसतिया किस्म के लोग होते है । टीशर्ट निकालने मे हिन्दी के लोग शामिल होते है लेकिन कभी भी हमने हिन्दी डिपार्टमेन्ट के नाम पर कुछ निकालते नही देखा।
ऐसा नही है कि हिन्दी के बच्चो की कॉलेज मे संख्या कम होती है लेकिन कोई हिन्दी टीशर्ट पर प्रिंट कराना ही नही चाहता । हिन्दू मे जब मैंने एक बार बात कि भैया मुक्तिबोध या कबीर की कुछ पंक्तिया लिखकर अपने विभाग का टीशर्ट क्यो नही निकालते । तो बन्दे ने कहा कि यार तुम हमेशा चुतियापा क्यो करते हो , कौन हिन्दी कि टीशर्ट पहनकर घूमेगा । लड़किया पहले खूब अच्छे से बात करती है लेकिन जब पता चलता है कि हिन्दी से है तो कट ने लगती है और हिन्दी कि लड़किया तो पहले से ही सलवार -कमीज़ मे पता चल जाता है कि की है। एक-दो जीन पहनती भी है तो टॉपके साथ इतना कुछ पहनती है कि कही से कांफिदेंस ही नही झलकता। एक जूनिएर ने कहा क्या सर आप हमेशा तैल करने मे लगे रहते है। आरुशी से इंग्लिश मे बात करता हू और वो भी बहुत स्पेस देती है और अब हिन्दी कि टीशर्ट पहनकर घुमूँगा।
आख़िर मैंने एक प्लेन टीशर्ट ख़रीदा और उस पर लिखा-
अब अभिव्यक्ति के ख़तरे उठाने ही होंगे
और पहनकर घूमता । कई लोगो ने पूछा कहा से करवाए और मैंने कहा, खुद से कर लिया।
कल लड़की को हिन्दी लिखा पहने देखा तो सचमुच बहुत अच्छा लगा कि-
चलो लोगो को अब ये बताने मे शर्म नही आती ही वो हिन्दी का स्टूडेंट है...
चार दिनों तक MA फर्स्ट ईअर के बच्चो के बीच ड्यूटी बजाने के बाद कल मुझे फ़ाइनल ईअर के बच्चो के बीच भेजा गया । यहाँ का अनुभव वहाँ से बिल्कुल अलग और मौलिक रहा । फ़ाइनल ईअर मे होता क्या है कि चार पेपर सबो का एक ही होता है लेकिन बाक़ी के चार पेपर आपकी मर्जी पर है कि आप क्या लेते है। क्या लेते है माने कि आगे जाकर आप किस रुप मी हिन्दी कि सेवा करना चाहते है । अगर मीडिया एक्सपर्ट के तौर पर तो जनसंचार लें , और नाटक मे माहिर होना चाहते है तो रंगमंच लें । कविता को लेकर गंभीर है और आपको लगता है कि कविता से दुनिया को बदला जा सकता है और हिन्दी कि सेवा भी कि जा सकती है तो आप आधुनिक कविता लें। एक बात और, आपको इस बात का अहसास हो गया है कि हिन्दी से ज्यादा बेहतर अंग्रेजी मे लिखा गया है और उसे हिन्दी मी लाने कि जरुरत है तो आप अनुवाद भी ले सकते है। बाक़ी हिंदुस्तान के रास-रंग को जानने के लिये रीतिकाल है ही.
आप जो भी आप्शन लेते है उसके साथ सपनो का पैकेज फ्री मे मिल जाता है। पहले ही क्लास मे आपको बता दिया जायेगा कि फलां आप्शन लेकर आप कितनी ऊँचाई पर पहुंच सकते है और साथ ही आपको आइवरी टावर पर बैठे कुछ लोंगो का नाम बता दिया जायेगा । ये लोग ज्यादातर दिल्ली विश्वविद्यालय मे मिलेंगे । आपको बात ज्यादा हकीकत की लगेगी। और आप वही से जोड़ना-घटाना शुरू कर देते है । और आपके भीतर वेज़-वियाग्रा कि ताकत आ जाती है। लाइफ बनी मालुम होती है। आपका मन हो तो बिहार-उपी जहा से भी आप आते हू, ख़त लिख सकते है कि बाबूजी अब तो एक्सपर्ट बनके ही लौटेंगे ।
लेकिन खेला कहा होता है और आपका नरक कहा हो जाता है सो देखिये। जैसा कि कल कल रंगमच के और अनुवाद के बच्चो के साथ हुआ।
रंगमंच के बच्चो ने सबाल मिलते ही हंगामा करना शुरू कर दिया । एक लड़की ने साफ - साफ कहा कि मैडम ने कहा था कि जितना डी सकस हुआ है उतना ही आयेगा और जो सबाल आया है उसकी तो चर्चा ही नही हुई है। मामला मेरे से थमा नही और मैंने गुरुओं को बुला लाया। उनसे बात हुई तो पता चला कि संस्कृत नाटक सबाल आया है और बच्चे ने तैयार नही किया है। इंचार्ज ने हैरानी से सबाल को देखा, मानो जानना चाह रहे हों कि पूरा नाटक जान गये, एक्सपर्ट होने का दाबा भी बन गया और संस्कृत नाटक पर कोई बात नही। खैर आप्शन मी ग्रीक नाटक देकर मामले को सल्ताया गया। कोई नही, रोटी-दाल न मिले पिज्जा ही खा लो , संस्कृत न सही ग्रीक ही लिख दो।
इधर अनुवाद के बच्चो के साथ अलग परेशानी, उनका कहना था कि एक सबाल के अलाबे बाक़ी के सबाल कल के पेपर के है। और लगे फिर शोर करने। बुलाया गुरुजी को, और उन्होने कहा कि इसमे बदलाब नही होगा। कुछ बच्चों ने कहा भी कोई बदलाब चाहते भी नही है। घर से तैयार करके आये थे।
मुझे तो इनके एक्सपर्ट बनने की उम्मीद जाती रही। कि भाया बात-बात एडजस्ट करना पड़े तब तो हुआ, और अपने ही आप्शन के सबाल मे लासक गये तो बाक़ी का क्या होगा। एक्सपर्ट बनने के लिये कुछ एक्स्ट्रा भी पड़ना परता है भाई। नही तो करू हल्ला कि संस्कृत नाटक के बारे मे तुम्हे कुछ नही आता। या फिर एक्सपर्ट बनने के बाद देखोगे, क्योकि इस्क्का भी ट्रेंड है भाई.....
नोट; इंग्लिश से हिन्दी ट्रांस करके लिख रह हू, कई के स्पेल्ल्लिंग सही नही बन पा रहे है, आप सुधार कर देखे, प्लीज.....
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आप जो भी आप्शन लेते है उसके साथ सपनो का पैकेज फ्री मे मिल जाता है। पहले ही क्लास मे आपको बता दिया जायेगा कि फलां आप्शन लेकर आप कितनी ऊँचाई पर पहुंच सकते है और साथ ही आपको आइवरी टावर पर बैठे कुछ लोंगो का नाम बता दिया जायेगा । ये लोग ज्यादातर दिल्ली विश्वविद्यालय मे मिलेंगे । आपको बात ज्यादा हकीकत की लगेगी। और आप वही से जोड़ना-घटाना शुरू कर देते है । और आपके भीतर वेज़-वियाग्रा कि ताकत आ जाती है। लाइफ बनी मालुम होती है। आपका मन हो तो बिहार-उपी जहा से भी आप आते हू, ख़त लिख सकते है कि बाबूजी अब तो एक्सपर्ट बनके ही लौटेंगे ।
लेकिन खेला कहा होता है और आपका नरक कहा हो जाता है सो देखिये। जैसा कि कल कल रंगमच के और अनुवाद के बच्चो के साथ हुआ।
रंगमंच के बच्चो ने सबाल मिलते ही हंगामा करना शुरू कर दिया । एक लड़की ने साफ - साफ कहा कि मैडम ने कहा था कि जितना डी सकस हुआ है उतना ही आयेगा और जो सबाल आया है उसकी तो चर्चा ही नही हुई है। मामला मेरे से थमा नही और मैंने गुरुओं को बुला लाया। उनसे बात हुई तो पता चला कि संस्कृत नाटक सबाल आया है और बच्चे ने तैयार नही किया है। इंचार्ज ने हैरानी से सबाल को देखा, मानो जानना चाह रहे हों कि पूरा नाटक जान गये, एक्सपर्ट होने का दाबा भी बन गया और संस्कृत नाटक पर कोई बात नही। खैर आप्शन मी ग्रीक नाटक देकर मामले को सल्ताया गया। कोई नही, रोटी-दाल न मिले पिज्जा ही खा लो , संस्कृत न सही ग्रीक ही लिख दो।
इधर अनुवाद के बच्चो के साथ अलग परेशानी, उनका कहना था कि एक सबाल के अलाबे बाक़ी के सबाल कल के पेपर के है। और लगे फिर शोर करने। बुलाया गुरुजी को, और उन्होने कहा कि इसमे बदलाब नही होगा। कुछ बच्चों ने कहा भी कोई बदलाब चाहते भी नही है। घर से तैयार करके आये थे।
मुझे तो इनके एक्सपर्ट बनने की उम्मीद जाती रही। कि भाया बात-बात एडजस्ट करना पड़े तब तो हुआ, और अपने ही आप्शन के सबाल मे लासक गये तो बाक़ी का क्या होगा। एक्सपर्ट बनने के लिये कुछ एक्स्ट्रा भी पड़ना परता है भाई। नही तो करू हल्ला कि संस्कृत नाटक के बारे मे तुम्हे कुछ नही आता। या फिर एक्सपर्ट बनने के बाद देखोगे, क्योकि इस्क्का भी ट्रेंड है भाई.....
नोट; इंग्लिश से हिन्दी ट्रांस करके लिख रह हू, कई के स्पेल्ल्लिंग सही नही बन पा रहे है, आप सुधार कर देखे, प्लीज.....
मुजफ्फरपुर के राम्लीलागाची मे चार लड़कियों ने मिलकर अपना न्यूज़ चैनल शुरू किया है । इनका कहना है कि बडे-बडे चैनल देश-दुनिया कि खबर दिखाते है लेकिन हमारे गाव की जो समस्याएँ है उनपर किसी का ध्यान नही जाता , इसलिये हमने सोचा कि अपना चैनल शुरू किया जाये। सच मे जहाँ बडे-बडे चैनल अपने हाथ खडे कर देते है, वहाँ लड़कियों का ये प्रयास काबिले तारीफ है।
इन लड़कियों के पास कोई ओबी वैन नही है, न कोई तेज रफ़्तार की गाड़ी है और न ही बहुत सारे कैमरे और रिपोर्टर्स । और तो और गाँव मे न तो बिजली रहती है और न ही लोगो के घर मे केबल कनेक्शन की पहुच है । ये लड़कियां सायीकल पर केमरा, माईक और बाक़ी चीज़ लेकर निकलती है और दिनभर न्यूज़ इकट्ठा कर शाम को सबसे ज्यादा भीड़ वाले इलाके मे प्रोजेक्टर पर दिखाती है । शुरू-शुरू मे तो इनका बहुत विरोध हुआ लेकिन लड़कियों कि लगातार कोशिशो कि बदौलत उनका ये अप्पन समाचार आज खासा पोपुलर होता जा रहा जा रहा है । खबर मिलने के बाद मैंने इसकी चर्चा दिल्ली मे लोगो से कि तो उन्हें भी बहुत हैरानी हुई । सफर के सेक्रेटरी राकेश सिंह ने उत्साह जताते हुये बताया कि दिसम्बर २२ से ३० तक बिहार मे जो वर्कशॉप हो रहा है , उसमे लोकल खबरों को कवर करने कि ट्रेनिंग दी जायेगी । वहाँ के बच्चे पहले से ही कोम्मुनिटी प्रोपर्टी को लेकर फिल्म बना रहे है । सफर खुद भी सामुदायिक टीवी चैनल शुरू करने जा रहा है ।
मुख्यधारा के बरक्स इस तरह के प्रयास पत्रकारिता को सही अर्थो मे स्थापित कर सकेंगे । बिहार कि इन लड़कियां को ढेर सारी शुभ काम नाएं ......
* SAFAR : वैकल्पिक मीडिया के लिये लगातार काम करनेवाला संगठन है .
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इन लड़कियों के पास कोई ओबी वैन नही है, न कोई तेज रफ़्तार की गाड़ी है और न ही बहुत सारे कैमरे और रिपोर्टर्स । और तो और गाँव मे न तो बिजली रहती है और न ही लोगो के घर मे केबल कनेक्शन की पहुच है । ये लड़कियां सायीकल पर केमरा, माईक और बाक़ी चीज़ लेकर निकलती है और दिनभर न्यूज़ इकट्ठा कर शाम को सबसे ज्यादा भीड़ वाले इलाके मे प्रोजेक्टर पर दिखाती है । शुरू-शुरू मे तो इनका बहुत विरोध हुआ लेकिन लड़कियों कि लगातार कोशिशो कि बदौलत उनका ये अप्पन समाचार आज खासा पोपुलर होता जा रहा जा रहा है । खबर मिलने के बाद मैंने इसकी चर्चा दिल्ली मे लोगो से कि तो उन्हें भी बहुत हैरानी हुई । सफर के सेक्रेटरी राकेश सिंह ने उत्साह जताते हुये बताया कि दिसम्बर २२ से ३० तक बिहार मे जो वर्कशॉप हो रहा है , उसमे लोकल खबरों को कवर करने कि ट्रेनिंग दी जायेगी । वहाँ के बच्चे पहले से ही कोम्मुनिटी प्रोपर्टी को लेकर फिल्म बना रहे है । सफर खुद भी सामुदायिक टीवी चैनल शुरू करने जा रहा है ।
मुख्यधारा के बरक्स इस तरह के प्रयास पत्रकारिता को सही अर्थो मे स्थापित कर सकेंगे । बिहार कि इन लड़कियां को ढेर सारी शुभ काम नाएं ......
* SAFAR : वैकल्पिक मीडिया के लिये लगातार काम करनेवाला संगठन है .
लेफ्ट, राइट, कमल, पंजा, कलम और टीवी पता नहीं किस-किस चश्मे से अब तक आपने गुजरात को देखा। बहुत हो गया, अब जरा चश्मा उतार फेंकिए और गुजरात को जहाज पर चढ़कर देखिए, आपको सब जगह हरियाली नजर आएगी।
एनडीवी पर गुजरात की गद्दी प्रोग्राम में अपने रवीश गुजरात में आणंद के लोगों से बात कर रहे थे। सब कुछ तो सामान्य ही था, जैसा कि और कार्यक्रमों में हुआ करता हैं। शुरुआत में कुछ मुद्दों पर बहसा-बहसी और फिर बाद में किसी एक बात को लेकर आपसी सहमति। लेकिन यहां एक नयी बात हो गई कि जब कांग्रेस ने बीजेपी यानि मोदी को पानी, बिजली के मुद्दे पर घेरना चाहा तो बीजेपी के एक बंदे ने एकदम से हटकर तर्क दे ड़ाला वो ये कि- गुजरात में अगर हरियाली देखनी है तो लोग जहाज पर बैठकर देंखे, सब जगह हरियाली नजर आएगी। और जब हरियाली है तो क्या वो बिना पानी बिजली के आ गयी। ऐसी बात को साहित्य में हमलोग वक्रोक्ति अलंकार कहते है। यहां कोई भी बात सीधे-सीधे नहीं कही जाती, कुंतक का पूरा दर्शन है इसके उपर। बंदे ने जब ऐसा कहा तो रवीश को भी अच्छा लगा कि बंदा कुछ क्रिएटिव किस्म का है। वैसे रवीश को एक महिला पहले ही क्रिएटिव मिल गई थी, जिसे कि कविता करने का सुझाव दिया, अच्छा बोल रही थी।खुश होकर एक छोटा-सा ब्रेक ले लिया।
हिन्दी में एक उपन्यास है रेणु का मैला आंचल। आपमें से कई लोगों ने पढ़ा भी होगा। रेणु ने पूर्णिया (बिहार) के एक छोटे से गांव मेरीगंज की चर्चा की है। एक तरह से यही उपन्यास का नायक भी है औऱ इसकी आंचलिक उपन्यास के रुप में पहचान बनी।
मुझे याद है जब हिन्दू कॉलेज के मास्टर साहब इसे पढ़ाया करते तो शुरु करने के पहले अक्सर कहा करते, इसे पढ़ने के लिए आपको मेरीगंज में बस या मोटर पर बैठकर नहीं पंगडंडियों पर चलकर समझना होगा, गांव को रेल की खिड़की से झांककर नहीं देखा जा सकता। तब बात समझ में नहीं आती और जिनकी पृष्ठभूमि शहर की होती उनको तो ये उपन्यास ही बहुत बकवास लगता। साल में मैला आंचल और राग दरबारी एक बार पढ़ना हो ही जाता है। बंदे ने जब ऐसी बात कर दी तो चीजें फिर से हरी हो गयी.
भाई साहब, आप जहाज से गुजरात देखेंगे। आप अगर नेता आदमी हैं तब तो देख आइए, लेकिन आम जनता के साथ बहुत परेशानी है।
क्या गुजरात वाकई इतना विकास कर चुका है कि मोदी अपना गदा और मुकुट बेचकर फ्री में बस चलवा रहे हैं तो अब जहाज भी चलवा लेंगे।
जनाब सरकार की तरह जनता जायजा नहीं लेना चाहती जो कि हवाई दौरे से ली जाती है, वाकई पानी-बिजली चाहती है।
उबाल में तो आप बोल गए कि जहाज पर से देखो गुजरात को तो ये काम तो आप गुजरात नरसंहार के समय भी कर सकते थे। एक और बताउं-
मैं झारखंड से हूं, आप जहाज तो छोडिए, बस में बैठकर खिड़की से झांकेंगे तो पूरा झारखंड खूब हरा-भरा दिखेगा लेकिन सब जगह फसल नहीं है, कहीं जगहों पर तो सिर्फ झाडियां ही झाडियां ही है और लोगों के बीच खाने-पीने की किल्लत बनी रहती है। मैं ये नहीं कहता कि आपका गुजरात भी ऐसा ही है, है और होगा खुशहाल लेकिन भइया ढंग का तर्क दो। सिर्फ ताली पिटवाने के लिए आए थे तब तो कोई बात नहीं लेकिन मुद्दों पर बात करने आए थे तो कभी तो वोटर या जनता की तरह बात करो, अपना तो कुछ रहा ही नहीं, परेशानी रहते हुए पर भी सबों की जुबान पर नेता वचन इतना क्यों हावी है भाई।।।
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एनडीवी पर गुजरात की गद्दी प्रोग्राम में अपने रवीश गुजरात में आणंद के लोगों से बात कर रहे थे। सब कुछ तो सामान्य ही था, जैसा कि और कार्यक्रमों में हुआ करता हैं। शुरुआत में कुछ मुद्दों पर बहसा-बहसी और फिर बाद में किसी एक बात को लेकर आपसी सहमति। लेकिन यहां एक नयी बात हो गई कि जब कांग्रेस ने बीजेपी यानि मोदी को पानी, बिजली के मुद्दे पर घेरना चाहा तो बीजेपी के एक बंदे ने एकदम से हटकर तर्क दे ड़ाला वो ये कि- गुजरात में अगर हरियाली देखनी है तो लोग जहाज पर बैठकर देंखे, सब जगह हरियाली नजर आएगी। और जब हरियाली है तो क्या वो बिना पानी बिजली के आ गयी। ऐसी बात को साहित्य में हमलोग वक्रोक्ति अलंकार कहते है। यहां कोई भी बात सीधे-सीधे नहीं कही जाती, कुंतक का पूरा दर्शन है इसके उपर। बंदे ने जब ऐसा कहा तो रवीश को भी अच्छा लगा कि बंदा कुछ क्रिएटिव किस्म का है। वैसे रवीश को एक महिला पहले ही क्रिएटिव मिल गई थी, जिसे कि कविता करने का सुझाव दिया, अच्छा बोल रही थी।खुश होकर एक छोटा-सा ब्रेक ले लिया।
हिन्दी में एक उपन्यास है रेणु का मैला आंचल। आपमें से कई लोगों ने पढ़ा भी होगा। रेणु ने पूर्णिया (बिहार) के एक छोटे से गांव मेरीगंज की चर्चा की है। एक तरह से यही उपन्यास का नायक भी है औऱ इसकी आंचलिक उपन्यास के रुप में पहचान बनी।
मुझे याद है जब हिन्दू कॉलेज के मास्टर साहब इसे पढ़ाया करते तो शुरु करने के पहले अक्सर कहा करते, इसे पढ़ने के लिए आपको मेरीगंज में बस या मोटर पर बैठकर नहीं पंगडंडियों पर चलकर समझना होगा, गांव को रेल की खिड़की से झांककर नहीं देखा जा सकता। तब बात समझ में नहीं आती और जिनकी पृष्ठभूमि शहर की होती उनको तो ये उपन्यास ही बहुत बकवास लगता। साल में मैला आंचल और राग दरबारी एक बार पढ़ना हो ही जाता है। बंदे ने जब ऐसी बात कर दी तो चीजें फिर से हरी हो गयी.
भाई साहब, आप जहाज से गुजरात देखेंगे। आप अगर नेता आदमी हैं तब तो देख आइए, लेकिन आम जनता के साथ बहुत परेशानी है।
क्या गुजरात वाकई इतना विकास कर चुका है कि मोदी अपना गदा और मुकुट बेचकर फ्री में बस चलवा रहे हैं तो अब जहाज भी चलवा लेंगे।
जनाब सरकार की तरह जनता जायजा नहीं लेना चाहती जो कि हवाई दौरे से ली जाती है, वाकई पानी-बिजली चाहती है।
उबाल में तो आप बोल गए कि जहाज पर से देखो गुजरात को तो ये काम तो आप गुजरात नरसंहार के समय भी कर सकते थे। एक और बताउं-
मैं झारखंड से हूं, आप जहाज तो छोडिए, बस में बैठकर खिड़की से झांकेंगे तो पूरा झारखंड खूब हरा-भरा दिखेगा लेकिन सब जगह फसल नहीं है, कहीं जगहों पर तो सिर्फ झाडियां ही झाडियां ही है और लोगों के बीच खाने-पीने की किल्लत बनी रहती है। मैं ये नहीं कहता कि आपका गुजरात भी ऐसा ही है, है और होगा खुशहाल लेकिन भइया ढंग का तर्क दो। सिर्फ ताली पिटवाने के लिए आए थे तब तो कोई बात नहीं लेकिन मुद्दों पर बात करने आए थे तो कभी तो वोटर या जनता की तरह बात करो, अपना तो कुछ रहा ही नहीं, परेशानी रहते हुए पर भी सबों की जुबान पर नेता वचन इतना क्यों हावी है भाई।।।
दो दिनों से विभाग की ड्यूटी बजा रहा हूं। एम ए इन्टरनल की परिक्षाएं चल रही है। यही हाल रहा तो मैं बहुत जल्द ही सरकार का दामाद वाला शब्द वापस ले लूंगा। लेकिन अभी इतनी जल्दी नहीं।
खैर, अब मैं किसी काम को बेकार नहीं मानता और झेल से झेल काम करने में भी बोर नहीं होता। इस उम्मीद से मन लगाकर करता हूं कि ब्लॉग का माल निकल ही आएगा। परीक्षक का काम इसी नीयत से ले लिया। सोचा, चलो साहित्य की जो नई फसलें तैयार हो रही है, उसे देखने-समझने का मौका मिलेगा।
नई फसल को समझने का एक ही तरीका था कि जो बच्चे लिख रहे हैं, उसे बीच-बीच में पढ़ा जाए। मौका तो बहुत कम मिला लेकिन कोशिश में लगा रहा। ज्यादा पढ़ने में लगा रहता तो बच्चे शोर मचाना शुरु कर देते और मास्टरजी बीच में आ जाते तो फिर हमें ही लताड़ते, जब कॉपी-सवाल बांटने पर कंन्ट्रोल नहीं कर सकते तो फिर पढ़ाओगे कैसे भइया और इंटरव्यू में जाउं तो कहने लगें कि पहले एक-दो साल कॉपी-सवाल बांटकर बच्चों को शांत रखना सीखो। लेकिन कहते हैं न-
जहां न पहुंचे,
कवि औ डॉलर
वहां पहुंचे ब्लॉगर।।
सो मैं भी कुछ-कुछ पढ़ने लगा। दोनों दिन मेरी ड्यूटी एम ए प्रीवियस के बच्चों के बीच रही। पहले दिन आदिकाल का पेपर था। विद्यापति, रासो वगैरह लिखना था। आधे से ज्यादा बच्चों ने तो घंटेभर से ज्यादा में विद्यापति की राधा के आंचल को ढलकाया। एक बच्ची ने तो सीधे लिखा कि-
राधा के झुकते ही आंचल ढलक गया और उसके पुष्ट उरोज पर कृष्ण की नजर पड़ गयी लेकिन राधा ने उसे तुरंत ढंक लिया। कृष्ण ठीक से देख नहीं पाए, ऐसा लगा जैसे अचानक बिजली कौंध गयी हो और इसी बात को लेकर वे बेचैन हैं।
एक बंदा थोड़ा समझदार था और थोड़ा साहित्यकार किस्म का। उसने इसी बात को लिखा-
राधा के झुकते ही आंचल ढलक गया और कृष्ण को उसका सौन्दर्य दिख गया। बिम्ब के लिए प्रभाव का बढिया प्रयोग।
एक बंदा बार-बार विद्यापति की तुलना बायरन से करना चाह रहा था और बार-बार बयारन लिख रहा था। मास्टर इंग्लिश राइटर का नाम देखकर इंप्रेस हों इसके लिए वो बयारन को अंडरलाइन कर रहा था।
इंटरडिसिप्लीन का सबसे बेहतर नमूना दिखा, कोने में बैठे एक बंदे की कॉपी पर। हर सवाल में कोई न कोई मैप या कोई ग्राफ बनाता। विद्यापति की रचना कहां-कहां लोकप्रिय हुई, इसके लिए भारत का नक्शा बनाया और गोला बना-बनाकर सबसे अधिक, अधिक और सबसे कम प्रभावित क्षेत्र को दिखाया।
ऐसा नक्शा मैं सिर्फ मौसम आजतक में देखा करता हूं।
दूसरे सवाल में कि विद्यापति किस-किस विचारधारा से प्रभावित हुए, बंदे ने सीएनबीसी की तरह एक ग्राफ बनाया और एक्स, बाई और बीच में जीरो लिखा। फिर ग्राफ के जरिए न केवल ये बताया कि किस-किस से प्रभावित हुए बल्कि चढ़ाव-उतार से मात्रा तक बता दिया। लो भाई करो चेक कॉपी। भूगोल तो जानते हो न, नहीं तो तुम्हारे बूते का काम नहीं है, मास्टर को खुल्ला चैलेंज।
कल भकितकाल के पेपर में एक बंदे ने कबीर की सामाजिकरता पर बात करते हुए लिखा-
कबीर ने हिन्दुओं को प्रताडित करते हुए लिखा कि-
पोती पढ़ि-पढ़ि जग मुआ पंडित कोई नहीं हुआ।
लग रहा था बंदा पढ़कर नहीं प्रवचन और कमल मार्का भाषण सुनकर आ गया है। अब ऐसे में कोई कबीर को हिन्दुओं का दुश्मन मान ले तो क्या बेजा है।
ज्यादातर बच्चे बार-बार रामचरित्र का प्रयोग करते नजर आए। कुछ तो बार-बार दिमाग को ठोकते
नजर आए। मानो आईआईटी का पेपर लिख रहे हों या फिर हमें इम्प्रेस करना चाह रहे हों कि देखो कितना मुश्किल पेपर लिख रहा हूं, होगा आपसे।
कुछ लोग बीच-बीच में यू नो, आइ मीन बोलते दिख गए।
मैंने जो मतलब निकाला वो ये कि-
ये बच्चे मानकर चलते हैं कि कुछ भी लिख दो, मास्टर छांटकर नंबर दे ही देगा। मास्टर को सिरफ हिन्दी ही आती है, इसलिए नक्शे और ग्राफ बना दो।
इंगलीस तो पढ़ा नहीं होगा इसलिए बयारन को भी बीच-बीच में झोंको।
और सबसे ज्यादा तो कि ये बंदा जो कॉपी बांट रहा है, छोटू है एमए पास होगा ही नहीं।
तो सरजी, मैडमजी ये है हिन्दी की नई फसल। इसमें कुछ बच्चे काबिल और होनहार हैं, उनपर मेरी कोई भी बातें लागू नहीं होती। उनके लिए ढेर सारी शुभकामनाएं।।।
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खैर, अब मैं किसी काम को बेकार नहीं मानता और झेल से झेल काम करने में भी बोर नहीं होता। इस उम्मीद से मन लगाकर करता हूं कि ब्लॉग का माल निकल ही आएगा। परीक्षक का काम इसी नीयत से ले लिया। सोचा, चलो साहित्य की जो नई फसलें तैयार हो रही है, उसे देखने-समझने का मौका मिलेगा।
नई फसल को समझने का एक ही तरीका था कि जो बच्चे लिख रहे हैं, उसे बीच-बीच में पढ़ा जाए। मौका तो बहुत कम मिला लेकिन कोशिश में लगा रहा। ज्यादा पढ़ने में लगा रहता तो बच्चे शोर मचाना शुरु कर देते और मास्टरजी बीच में आ जाते तो फिर हमें ही लताड़ते, जब कॉपी-सवाल बांटने पर कंन्ट्रोल नहीं कर सकते तो फिर पढ़ाओगे कैसे भइया और इंटरव्यू में जाउं तो कहने लगें कि पहले एक-दो साल कॉपी-सवाल बांटकर बच्चों को शांत रखना सीखो। लेकिन कहते हैं न-
जहां न पहुंचे,
कवि औ डॉलर
वहां पहुंचे ब्लॉगर।।
सो मैं भी कुछ-कुछ पढ़ने लगा। दोनों दिन मेरी ड्यूटी एम ए प्रीवियस के बच्चों के बीच रही। पहले दिन आदिकाल का पेपर था। विद्यापति, रासो वगैरह लिखना था। आधे से ज्यादा बच्चों ने तो घंटेभर से ज्यादा में विद्यापति की राधा के आंचल को ढलकाया। एक बच्ची ने तो सीधे लिखा कि-
राधा के झुकते ही आंचल ढलक गया और उसके पुष्ट उरोज पर कृष्ण की नजर पड़ गयी लेकिन राधा ने उसे तुरंत ढंक लिया। कृष्ण ठीक से देख नहीं पाए, ऐसा लगा जैसे अचानक बिजली कौंध गयी हो और इसी बात को लेकर वे बेचैन हैं।
एक बंदा थोड़ा समझदार था और थोड़ा साहित्यकार किस्म का। उसने इसी बात को लिखा-
राधा के झुकते ही आंचल ढलक गया और कृष्ण को उसका सौन्दर्य दिख गया। बिम्ब के लिए प्रभाव का बढिया प्रयोग।
एक बंदा बार-बार विद्यापति की तुलना बायरन से करना चाह रहा था और बार-बार बयारन लिख रहा था। मास्टर इंग्लिश राइटर का नाम देखकर इंप्रेस हों इसके लिए वो बयारन को अंडरलाइन कर रहा था।
इंटरडिसिप्लीन का सबसे बेहतर नमूना दिखा, कोने में बैठे एक बंदे की कॉपी पर। हर सवाल में कोई न कोई मैप या कोई ग्राफ बनाता। विद्यापति की रचना कहां-कहां लोकप्रिय हुई, इसके लिए भारत का नक्शा बनाया और गोला बना-बनाकर सबसे अधिक, अधिक और सबसे कम प्रभावित क्षेत्र को दिखाया।
ऐसा नक्शा मैं सिर्फ मौसम आजतक में देखा करता हूं।
दूसरे सवाल में कि विद्यापति किस-किस विचारधारा से प्रभावित हुए, बंदे ने सीएनबीसी की तरह एक ग्राफ बनाया और एक्स, बाई और बीच में जीरो लिखा। फिर ग्राफ के जरिए न केवल ये बताया कि किस-किस से प्रभावित हुए बल्कि चढ़ाव-उतार से मात्रा तक बता दिया। लो भाई करो चेक कॉपी। भूगोल तो जानते हो न, नहीं तो तुम्हारे बूते का काम नहीं है, मास्टर को खुल्ला चैलेंज।
कल भकितकाल के पेपर में एक बंदे ने कबीर की सामाजिकरता पर बात करते हुए लिखा-
कबीर ने हिन्दुओं को प्रताडित करते हुए लिखा कि-
पोती पढ़ि-पढ़ि जग मुआ पंडित कोई नहीं हुआ।
लग रहा था बंदा पढ़कर नहीं प्रवचन और कमल मार्का भाषण सुनकर आ गया है। अब ऐसे में कोई कबीर को हिन्दुओं का दुश्मन मान ले तो क्या बेजा है।
ज्यादातर बच्चे बार-बार रामचरित्र का प्रयोग करते नजर आए। कुछ तो बार-बार दिमाग को ठोकते
नजर आए। मानो आईआईटी का पेपर लिख रहे हों या फिर हमें इम्प्रेस करना चाह रहे हों कि देखो कितना मुश्किल पेपर लिख रहा हूं, होगा आपसे।
कुछ लोग बीच-बीच में यू नो, आइ मीन बोलते दिख गए।
मैंने जो मतलब निकाला वो ये कि-
ये बच्चे मानकर चलते हैं कि कुछ भी लिख दो, मास्टर छांटकर नंबर दे ही देगा। मास्टर को सिरफ हिन्दी ही आती है, इसलिए नक्शे और ग्राफ बना दो।
इंगलीस तो पढ़ा नहीं होगा इसलिए बयारन को भी बीच-बीच में झोंको।
और सबसे ज्यादा तो कि ये बंदा जो कॉपी बांट रहा है, छोटू है एमए पास होगा ही नहीं।
तो सरजी, मैडमजी ये है हिन्दी की नई फसल। इसमें कुछ बच्चे काबिल और होनहार हैं, उनपर मेरी कोई भी बातें लागू नहीं होती। उनके लिए ढेर सारी शुभकामनाएं।।।
आशीष दो पेज की अखबारनुमा पत्रिका निकालते हैं- मीडिया स्कैन। मुझे पता नहीं था कि उसमें क्या और किस ढंग का मटेरियल छापते हैं और न ही पहले कभी इनसे मेरी मुलाकात या बातचीत ही हुई। लेकिन मेरी एक पोस्ट पढ़कर जब इन्होंने कहा कि क्या इसे मैं मीडिया स्कैन में छाप दूं तो बिना कोई जिरह के मैंने कहा छाप दीजिए। वैसे भी जहां मीडिया शब्द जुड़ा हो और बंदा भी तो मैं किसी भी बात के लिए आमतौर पर मना नहीं करता।
मीडिया स्कैन का अंक मिला। मेरी पोस्ट टीवी में फोटो तो आएगा सर छपी थी। और साथ में मेरा परिचय भी । परिचय के तौर पर लिखा था लेखक ब्लॉगर हैं। पहले तो थोड़ा गुस्सा आया। नाम के लिए मरनेवाले हर किसी को गुस्सा आएगा कि इतना रगड़ा है और एक बंदा मेरा परिचय ब्लॉगर के रुप में छाप रहा है। सोचा था कि कुछ जोड-जाड़कर अच्छा परिचय देगा। लेकिन लिखा है लेखक ब्लॉगर हैं। बेकार कह दिया था छापने को।
बाद में इस लाइन का ढ़ंग से, ठंडे दिमाग से मतलब समझने की कोशिश की। तो कई बातें एक साथ याद आ गयीं।
सबसे पहले तो जनसत्ता में ब्लॉग लिखी में मुम्बई से आए अनिल रघुराज की मायूसी कि दिल्ली में उन्हें नियमित ब्लॉग लिखने के बावजूद भी किसी ने खास तब्बजो नहीं दी। अनिलजी को दुख इस बात का रहा होगा( मेरे हिसाब से) कि दिल्ली पढ़ने-लिखनेवालों की जगह है। ऐसी जगह जहां दिल्ली के घरों का कूड़-कचरा निकलकर जब दरियागंज तक पहुंचता है तो दुर्लभ किताबो की शक्ल में तब्दील हो जाता है और लोग उसे बीन-बीनकर पढ़ते है। धूल-धक्कड की बिना परवाह किए और यहां हम रोज ताजा माल दे रहे तो भी इज्जत नहीं। यहां तो जिसका स्क्रीन जितना कीमती होगा, माल में उतनी चमक होगी। अनिलजी की चिंता जायज है। अपने कैंपस की बात कहूं, किसी लेखक या कवि को तब तक महान नहीं माना जाता, जब तक कि दो-चार मास्टरजी कह न दे या फिर जनसत्ता में कुछ छप न जाए। और फिर देखिए कैसे बंदे कैंसर की दवाई की तरह उस लेखक की किताब खोजते फिरेंगे। कई बार तो मैंने देखा है कि किताब छपी है उनकी १९९२ में और बंदा परेशान होकर मेरे से पूछ रहा है कि फलांजी की नई किताब आयी है देखे हो और अगर बता दिए तो दर्जन के भाव में फोटो कॉपी करा ली जाती है। तो ऐसे हमारे कैंपसे में कोई लेखक फेमस होता है। लेकिन मास्टरजी वाला कम्पल्शन तो हर जगह (दिल्ली) में नहीं होनी चाहिए। तो फिर । तो फिर क्या संसंद और विधान-सभा का भी तो असर है भइया हिन्दी जगत में। आप बम्बै से आकर फेमस हो जाओ रातो-रात और कला,साहित्य, फिल्म आदि की तरह ब्लॉग में विशेष योगदान के लिए राज्य सभा के लिए मनोनित भी हो जाओ औऱ जो बंदा सालों से दिल्ली में बैठकर इसी तोड़-जोड़ में लगा है वो क्या कच्चू छिलेगा। हो गया, आप यहां आए, लोगों से मिले-जुले, इतना बहुत है। बाकी बम्बै दिल्ली से ज्यादा से सेफ है, वहीं कुछ देखिए।
ब्लॉग लिखते-लिखते एक बार हमें भी गलतफहमी हो गयी थी कि मैं लेखक होने की प्रक्रिया से गुजर रहा हूं क्योंकि कमोवेश मैं भी तो सभ्यता समीक्षा ही कर रहा हूं।( मुक्तिबोध की कविता,लेखन को सभ्यता-समीक्षा कहा जाता है, उस हिसाब से सभ्यता समीक्षक हुए) । सो मैंने अपने एक साथी से, जो कि हिन्दी की लब्ध प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में छपते रहते ,कहा- यार मैं भी कहीं छपना चाहता हूं, मास्टरी की नौकरी के इंटरव्यू में कुछ तो दिखाने लायक रहेगा। ब्लॉग देखकर तो नौकरी मिलने से रही, और फिर कौन देखेगा, लैपटॉप खोलकर। जब तक सेट करुंगा, तब तक सब साफ। साथी का जबाब था-
छपने को तो छप सकते हो लेकिन दिक्कत ये है कि जो संपादकजी हैं वो ब्लॉगरों से बहुत चिढ़ते हैं औऱ फिर तुमही सोचो न, इस तरह से लिखना भी कोई राइटिंग है।
मतलब साफ था कि मैं लेखक नहीं हूं। छपने का इरादा छोड़ दिया। लेकिन जब आशीष ने ब्लॉगर के पहले लेखक छापा तो अच्छा लगा और भविष्य के लिए उम्मीद भी जगी। अनिलजी चाहें तो अपने इस छोटे दोस्त के लेखक का दर्जा पाने पर साथ में खुश हो सकते हैं। वैसे दुविधा और शर्तें अब भी बाकी है।
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मीडिया स्कैन का अंक मिला। मेरी पोस्ट टीवी में फोटो तो आएगा सर छपी थी। और साथ में मेरा परिचय भी । परिचय के तौर पर लिखा था लेखक ब्लॉगर हैं। पहले तो थोड़ा गुस्सा आया। नाम के लिए मरनेवाले हर किसी को गुस्सा आएगा कि इतना रगड़ा है और एक बंदा मेरा परिचय ब्लॉगर के रुप में छाप रहा है। सोचा था कि कुछ जोड-जाड़कर अच्छा परिचय देगा। लेकिन लिखा है लेखक ब्लॉगर हैं। बेकार कह दिया था छापने को।
बाद में इस लाइन का ढ़ंग से, ठंडे दिमाग से मतलब समझने की कोशिश की। तो कई बातें एक साथ याद आ गयीं।
सबसे पहले तो जनसत्ता में ब्लॉग लिखी में मुम्बई से आए अनिल रघुराज की मायूसी कि दिल्ली में उन्हें नियमित ब्लॉग लिखने के बावजूद भी किसी ने खास तब्बजो नहीं दी। अनिलजी को दुख इस बात का रहा होगा( मेरे हिसाब से) कि दिल्ली पढ़ने-लिखनेवालों की जगह है। ऐसी जगह जहां दिल्ली के घरों का कूड़-कचरा निकलकर जब दरियागंज तक पहुंचता है तो दुर्लभ किताबो की शक्ल में तब्दील हो जाता है और लोग उसे बीन-बीनकर पढ़ते है। धूल-धक्कड की बिना परवाह किए और यहां हम रोज ताजा माल दे रहे तो भी इज्जत नहीं। यहां तो जिसका स्क्रीन जितना कीमती होगा, माल में उतनी चमक होगी। अनिलजी की चिंता जायज है। अपने कैंपस की बात कहूं, किसी लेखक या कवि को तब तक महान नहीं माना जाता, जब तक कि दो-चार मास्टरजी कह न दे या फिर जनसत्ता में कुछ छप न जाए। और फिर देखिए कैसे बंदे कैंसर की दवाई की तरह उस लेखक की किताब खोजते फिरेंगे। कई बार तो मैंने देखा है कि किताब छपी है उनकी १९९२ में और बंदा परेशान होकर मेरे से पूछ रहा है कि फलांजी की नई किताब आयी है देखे हो और अगर बता दिए तो दर्जन के भाव में फोटो कॉपी करा ली जाती है। तो ऐसे हमारे कैंपसे में कोई लेखक फेमस होता है। लेकिन मास्टरजी वाला कम्पल्शन तो हर जगह (दिल्ली) में नहीं होनी चाहिए। तो फिर । तो फिर क्या संसंद और विधान-सभा का भी तो असर है भइया हिन्दी जगत में। आप बम्बै से आकर फेमस हो जाओ रातो-रात और कला,साहित्य, फिल्म आदि की तरह ब्लॉग में विशेष योगदान के लिए राज्य सभा के लिए मनोनित भी हो जाओ औऱ जो बंदा सालों से दिल्ली में बैठकर इसी तोड़-जोड़ में लगा है वो क्या कच्चू छिलेगा। हो गया, आप यहां आए, लोगों से मिले-जुले, इतना बहुत है। बाकी बम्बै दिल्ली से ज्यादा से सेफ है, वहीं कुछ देखिए।
ब्लॉग लिखते-लिखते एक बार हमें भी गलतफहमी हो गयी थी कि मैं लेखक होने की प्रक्रिया से गुजर रहा हूं क्योंकि कमोवेश मैं भी तो सभ्यता समीक्षा ही कर रहा हूं।( मुक्तिबोध की कविता,लेखन को सभ्यता-समीक्षा कहा जाता है, उस हिसाब से सभ्यता समीक्षक हुए) । सो मैंने अपने एक साथी से, जो कि हिन्दी की लब्ध प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में छपते रहते ,कहा- यार मैं भी कहीं छपना चाहता हूं, मास्टरी की नौकरी के इंटरव्यू में कुछ तो दिखाने लायक रहेगा। ब्लॉग देखकर तो नौकरी मिलने से रही, और फिर कौन देखेगा, लैपटॉप खोलकर। जब तक सेट करुंगा, तब तक सब साफ। साथी का जबाब था-
छपने को तो छप सकते हो लेकिन दिक्कत ये है कि जो संपादकजी हैं वो ब्लॉगरों से बहुत चिढ़ते हैं औऱ फिर तुमही सोचो न, इस तरह से लिखना भी कोई राइटिंग है।
मतलब साफ था कि मैं लेखक नहीं हूं। छपने का इरादा छोड़ दिया। लेकिन जब आशीष ने ब्लॉगर के पहले लेखक छापा तो अच्छा लगा और भविष्य के लिए उम्मीद भी जगी। अनिलजी चाहें तो अपने इस छोटे दोस्त के लेखक का दर्जा पाने पर साथ में खुश हो सकते हैं। वैसे दुविधा और शर्तें अब भी बाकी है।
सुबह उठते ही खुराफाती नितिन ने बताया कि आज रेडियो डे है। चिपक के बैठिए क्योंकि आज हम आपको मिलवाएंगे, फादर ऑफ दि इंडियन रेडियो, अनीन सयानी से। नितिन बार-बार चिपक के बैठने की बात कर ही रहा था कि मैं कहीं और चला गया, कुछ और ही सोचने लगा और जब रहा नहीं गया तो ब्लॉग लिखने बैठ गया।
रेडियो के साथ मेरी यादें बडे ही अलग ढंग से जुड़ी है। मुझे याद है छुटपन में मैं हवामहल खूब सुना करता था और वो समय पापा के घर आने का होता था। अक्सर लाइट नहीं होती थी और दरवाजा खोलने जाने के लिए टार्च का होना जरुरी हो जाता था। लेकिन टार्च की बैटरी मैं रेडियो में डाले रहता।...पापा के जैसे-तैसे घर के अंदर पहुंचने के बाद वो सबसे पहले मेरे उपर से रेडियो का भूत उतारने का काम करते थे। अंधेरे में अक्सर चोट खा जाते। मार खाकर थोड़ा सुधरता कि इससे पहले ये समझने लगा कि पापा को इस तरह रेडियो सुनने से खुन्नस होती है तब तो हवामहल सुनने का काम डेली रुटीन में शामिल हो गया। हवामहल सुनने से ज्यादा मजा पापा के झल्लाते हुए देखने में आता था।
स्कूलिंग के बाद लम्बे समय तक घर से अलग और अकेले रहने का सुअवसर प्राप्त हुआ। घर से निकलते समय टार्च की दोनो बैटरी निकालकर रेडियो में डाल दिया। पापा जबरदस्त ढंग से सेंटी हो गए और रेडियो जिसे कि बाजा कहा करते थे, मुझे दे दिया। अकलेपन में रेडियो को गर्लफ्रैंड का दर्जा दिया और ग्रेजुएशन तक गले लगाए रखा।
एम.ए. करने जब दिल्ली आया तो बाकायदा एक पेपर रेडियो पर ही पढ़ना था। लेकिन थोड़ा बोरिंग था, कुछ-कुछ इतिहास और फिजिक्स जैसा, जिसमें कि शुरु से ही अपने हाथ तंग थे। इतने डेट्स याद करने होते कि कब कहां और किसके सौजन्य से रेडियो स्टेशन स्थापित किए गए। तब सिलेबस तैयार करने वालों को खूब गरियाता कि स्साले ये सिलेबेस ऐसे डिजाइन करते हैं कि बढिया से बढिया टॉपिक का नरक कर देते हैं, पढ़ने की इच्छा मर जाती है। ऐसा लगता कि गर्लफ्रैंड से बतियाने के पहले उसके गांव की भौगोलिक स्थिति के बारे मे जानने की शर्त रख दी गयी हो। अपने शाप से एक-दो मास्टर अब रिटायर भी हो गए।
एम.फिल. रिसर्च का टॉपिक एफ.एम. चैनलों पर ही ले लिया। सारा झंझंट ही खत्म। टॉपिक पास होने के पहले एक छोटा-सा इंटरव्यू भी हुआ। टॉपिक सुनकर सारे लोग ठहाके लगाने लगे। मैं थोड़ा रुआंसा हो गया लेकिन बाद में मीडियावाली मैडम ने सब संभाल लिया। गाइड से मिलता अक्सर पूछते- क्यों भइया रेडियो तो सुन रहे हो, सुनते हो न। मैं हांजी, हांजी करके मुस्करा देता। बाद में मामला यहां भी थोड़ा भारी पड़ गया। सरजी ने कहा, ऐसा करो दो-तीन बार सारे एफ.एम.चैनलों को लगातार चौबीस घंटे तक सुनो, देखो कैसा लगता है। शुरु में तो रात के दो बजे तक बहुत नींद आती और इस चक्कर में रिकार्डर की चोरी हो गयी। डूसू इसेक्शन का समय था और कोई भी टीवी रुम में आ जाया करता। खैर, रातभर जूस और पानी पीकर रेडियो सुनता। अब कोई हजार रुपये दे तो ये न हो सकेगा। लेकिन याद करता हूं तो बहुत मजा आता है सबकुछ सोचकर। सारे एड और जॉकिज के पेट वर्ड याद हो गए थे, हमेश मौज में रहता।
बार-बार आकाशवाणी भवन भी जाता, कुछ लिटरेचर जुटाने। एक झाजी ने बड़ी मदद की थी उस समय, अपनी तरफ का बोलकर। थीसिस लेकर जब उन्हें दिखाने गया तो उन्होंने पूछा था कि आपको कैसा लगा यहां आकर। मैंने कहा था माफ कीजिए, यहां आकर लगता है कि मैं झारखंड के कोयला विभाग में आ गया हूं, जहां ट्रक पर माल लोड होने और बाबूओं की कंटीजेंसी का बिल बनाने का काम होता है। यहां कभी नहीं लगता कि मैं रेडियो स्टेशन आया हूं। उसके बाद उनके पास जाना नहीं हुआ।
इस बीच मेरे एक दोस्त ने जेएनयू के एक मास्टर साहब से मेरा परिचय कराया। मास्टर साहब ने गाइड सहित मेरा टॉपिक पूछा और कहा कि अच्छा है अब बाजा पर भी काम शुरु हो गया है। झारखंड में तो ये बात फैल गयी थी कि फलां बाबू का लड़का भडुआगिरी पर रिसर्च कर रहा है।
थीसिस पर इंटरव्यू लेने आए थे अपने हास्य कवि अशोक चक्रधर। पूछने पर वो सबकुछ बताया जो मैं बताना चाहता था। अंत में उन्होंने कहा कि कुछ मजेवाली बात सुनाओ और तब मैंने कई विज्ञापन सुनाए और अंत में थोड़ा कैजुअल होने पर बताया-
सरजी, रेडियो सुननेवाले ऑल्वेज खुश
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रेडियो के साथ मेरी यादें बडे ही अलग ढंग से जुड़ी है। मुझे याद है छुटपन में मैं हवामहल खूब सुना करता था और वो समय पापा के घर आने का होता था। अक्सर लाइट नहीं होती थी और दरवाजा खोलने जाने के लिए टार्च का होना जरुरी हो जाता था। लेकिन टार्च की बैटरी मैं रेडियो में डाले रहता।...पापा के जैसे-तैसे घर के अंदर पहुंचने के बाद वो सबसे पहले मेरे उपर से रेडियो का भूत उतारने का काम करते थे। अंधेरे में अक्सर चोट खा जाते। मार खाकर थोड़ा सुधरता कि इससे पहले ये समझने लगा कि पापा को इस तरह रेडियो सुनने से खुन्नस होती है तब तो हवामहल सुनने का काम डेली रुटीन में शामिल हो गया। हवामहल सुनने से ज्यादा मजा पापा के झल्लाते हुए देखने में आता था।
स्कूलिंग के बाद लम्बे समय तक घर से अलग और अकेले रहने का सुअवसर प्राप्त हुआ। घर से निकलते समय टार्च की दोनो बैटरी निकालकर रेडियो में डाल दिया। पापा जबरदस्त ढंग से सेंटी हो गए और रेडियो जिसे कि बाजा कहा करते थे, मुझे दे दिया। अकलेपन में रेडियो को गर्लफ्रैंड का दर्जा दिया और ग्रेजुएशन तक गले लगाए रखा।
एम.ए. करने जब दिल्ली आया तो बाकायदा एक पेपर रेडियो पर ही पढ़ना था। लेकिन थोड़ा बोरिंग था, कुछ-कुछ इतिहास और फिजिक्स जैसा, जिसमें कि शुरु से ही अपने हाथ तंग थे। इतने डेट्स याद करने होते कि कब कहां और किसके सौजन्य से रेडियो स्टेशन स्थापित किए गए। तब सिलेबस तैयार करने वालों को खूब गरियाता कि स्साले ये सिलेबेस ऐसे डिजाइन करते हैं कि बढिया से बढिया टॉपिक का नरक कर देते हैं, पढ़ने की इच्छा मर जाती है। ऐसा लगता कि गर्लफ्रैंड से बतियाने के पहले उसके गांव की भौगोलिक स्थिति के बारे मे जानने की शर्त रख दी गयी हो। अपने शाप से एक-दो मास्टर अब रिटायर भी हो गए।
एम.फिल. रिसर्च का टॉपिक एफ.एम. चैनलों पर ही ले लिया। सारा झंझंट ही खत्म। टॉपिक पास होने के पहले एक छोटा-सा इंटरव्यू भी हुआ। टॉपिक सुनकर सारे लोग ठहाके लगाने लगे। मैं थोड़ा रुआंसा हो गया लेकिन बाद में मीडियावाली मैडम ने सब संभाल लिया। गाइड से मिलता अक्सर पूछते- क्यों भइया रेडियो तो सुन रहे हो, सुनते हो न। मैं हांजी, हांजी करके मुस्करा देता। बाद में मामला यहां भी थोड़ा भारी पड़ गया। सरजी ने कहा, ऐसा करो दो-तीन बार सारे एफ.एम.चैनलों को लगातार चौबीस घंटे तक सुनो, देखो कैसा लगता है। शुरु में तो रात के दो बजे तक बहुत नींद आती और इस चक्कर में रिकार्डर की चोरी हो गयी। डूसू इसेक्शन का समय था और कोई भी टीवी रुम में आ जाया करता। खैर, रातभर जूस और पानी पीकर रेडियो सुनता। अब कोई हजार रुपये दे तो ये न हो सकेगा। लेकिन याद करता हूं तो बहुत मजा आता है सबकुछ सोचकर। सारे एड और जॉकिज के पेट वर्ड याद हो गए थे, हमेश मौज में रहता।
बार-बार आकाशवाणी भवन भी जाता, कुछ लिटरेचर जुटाने। एक झाजी ने बड़ी मदद की थी उस समय, अपनी तरफ का बोलकर। थीसिस लेकर जब उन्हें दिखाने गया तो उन्होंने पूछा था कि आपको कैसा लगा यहां आकर। मैंने कहा था माफ कीजिए, यहां आकर लगता है कि मैं झारखंड के कोयला विभाग में आ गया हूं, जहां ट्रक पर माल लोड होने और बाबूओं की कंटीजेंसी का बिल बनाने का काम होता है। यहां कभी नहीं लगता कि मैं रेडियो स्टेशन आया हूं। उसके बाद उनके पास जाना नहीं हुआ।
इस बीच मेरे एक दोस्त ने जेएनयू के एक मास्टर साहब से मेरा परिचय कराया। मास्टर साहब ने गाइड सहित मेरा टॉपिक पूछा और कहा कि अच्छा है अब बाजा पर भी काम शुरु हो गया है। झारखंड में तो ये बात फैल गयी थी कि फलां बाबू का लड़का भडुआगिरी पर रिसर्च कर रहा है।
थीसिस पर इंटरव्यू लेने आए थे अपने हास्य कवि अशोक चक्रधर। पूछने पर वो सबकुछ बताया जो मैं बताना चाहता था। अंत में उन्होंने कहा कि कुछ मजेवाली बात सुनाओ और तब मैंने कई विज्ञापन सुनाए और अंत में थोड़ा कैजुअल होने पर बताया-
सरजी, रेडियो सुननेवाले ऑल्वेज खुश
मौज में था,शोरुम से निकलते हुए कमोवेश चिल्लानेवाले अंदाज में बोलने लगा- हमसे जो टकराएगा
म्यूजिक में मिल जाएगा....
और इसी को बार-बार दोहरा रहा था। तभी बाहर शोरुम की निगरानी करनेवाले गार्डसाहब ने पूछा,भइया दिल्ली में कौनो इलेक्सन हो रहा है जो आप ऐसे चिल्ला रहे हैं, अंदर मालिक ने चंदा देने से मना कर दिया का। मैंने कहा, नहीं भइया ऐसी कोई बात नहीं है। तो फिर जब इलेक्सन गुजरात में है तो माफ कीजिएगा बाबूजी छोटी मुंह बड़ी बात, लेकिन आप दिल्ली में काहे चिल्ला रहे हैं। बंदे का कहना एकदम सही था।
मैं भी यही सब सोच रहा था जब इधर फिर से एफ.एम. रेडियो सुनना शुरु किया तो। रिसर्च के दौरान खूब सुना करता था लेकिन अब सुनने से ज्यादा काम देखने का हो गया तो छूट गया था। इस डेढ़ साल में काफी कुछ बदल गया है एफ.एम. और कई जॉकिज इधर-उधर चले गए। कई नए चैनल्स भी आए। मैं जो चिल्ला रहा था हमसे जो टकराएगा, म्यूजिक में मिल जाएगा, एक नए चैनल से ही सीखा।
फीवर 104 एक नया चैनल है जिसमें आजकल म्यूजिक इलेक्शन चल रहा है, जहां आप कोई गाना पसंद कीजिए और उस पर दिल्ली की जनता यानि ऑडिएंस से वोट मांगिए औऱ ज्यादा वोट मांगने पर आपको ढेरों इनाम मिलेंगे।...तो बोलिए--
हमसे जो टकराएगा, म्यूजिक में मिल जाएगा।
जीतेगा भाई जीतेगा, अपना म्यूजिक जीतेगा।
हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, इसाई
म्यूजिक है सबका भाई।
म्यूजिक इलेक्शन जिंदाबाद
जिंदाबाद, जिंदाबाद।।।
जॉकिज आपको एहसास कराता या कराती है कि आपने सारेगम में वोट दिया क्या मिला, व्ऑइस ऑफ इंडिया में वोट किया क्या मिला। मतलब सोमेधा और ऑनिक को वोट देकर अपना कटाए ही तो। कल को चैनल ये भी कह सकता है कि गुजरात और दिल्ली के लिए वोटिंग करके आपको क्या मिल गया। यहां वोट कीजिए, यहां आपको मिलेंगे ढेरों इनाम।
ये मौका वाकई में देश के उन बुद्धिजीवियों और मिडिल क्लास के लिए है जो वोटिंग तो खून-खराबे और भगदड़ मचने की डर से नहीं जाते और सरकार बनने के बाद सबसे ज्यादा ऑथेंटिक रुप से बात करते हैं। नेताओं के लिहाज से ये फालतू जनता है, बकवास है, कचरा है, आप इससे वोट नहीं उगाह सकते। पढ़ने-लिखने और बहस करनेवालों के लिए भले ही ये मतलब के आदमी हैं लेकिन हमारे लिए खर-पतवार हैं।नेताओं के लिए ये रिजेक्चेड माल हैं।
अब देखिए मनोरंजन की दुनिया में अगर भारी पूंजी शामिल हो जाए जिसे कि एडोर्नो ने कल्चर इंडस्ट्री कहा है तो समाज की सारी रिजेक्टेड चीजें काम में आ जाएंगी। जैसे यहां नेताओं के रिजेक्टेड लोगों को काम में लाने का काम फीवर 104 कर रहा है।
इस तरह के सारे चैनल इस क्लास को ढांढस देते हैं कि तुम चिंता किस बात की कर रहे हो, नेता भले ही न माने तुम्हें वोटर, तुम्हें बिना खून-खराबे की वोटिंग करने का शौक है न, हम देते हैं तुम्हें मौका। बस उठाओ अपना मोबाइल और टाइप कर दो हमारे बताए नंबर पर। पैसे की ताकत जब तुम्हारे पास है तो कौन सा मजा और शौक अधूरा रह जाएगा भाई।
और देखिए कि राजनीति के लिए वोटिंग के बरक्स कैसे पूरी मनोरंजन की दुनिया में वोटिंग कल्चर स्टैबलिश हो गया है। तो इसे कहते हैं पूंजी की ताकत और कल्चर का इंडस्ट्री में बदल जाना, जहां सारी चीजें शॉफ्ट होगी, किसी चीज के लिए मार-काट नहीं होगी और जिस सिस्टम में आप फिलहाल जी रहे हो उसमें धीरे-धीरे मितली आनी शुरु हो जाएगी। इसलिए सिस्टम को गरियाने का विकल्प चारो तरफ है, बस एक नजर दौड़ाकर लपकने भर की देरी है।
लेकिन संतों यहां गच्चा खाने का काम नहीं है, म्यूजिक पर बात करके जितना इनोसेंट ये सब कुछ लगता है, क्या मामला ऐसा ही है या फिर नंदीग्राम से तसलीमा पर ला पटकने का खेल यहां भी जारी है।
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म्यूजिक में मिल जाएगा....
और इसी को बार-बार दोहरा रहा था। तभी बाहर शोरुम की निगरानी करनेवाले गार्डसाहब ने पूछा,भइया दिल्ली में कौनो इलेक्सन हो रहा है जो आप ऐसे चिल्ला रहे हैं, अंदर मालिक ने चंदा देने से मना कर दिया का। मैंने कहा, नहीं भइया ऐसी कोई बात नहीं है। तो फिर जब इलेक्सन गुजरात में है तो माफ कीजिएगा बाबूजी छोटी मुंह बड़ी बात, लेकिन आप दिल्ली में काहे चिल्ला रहे हैं। बंदे का कहना एकदम सही था।
मैं भी यही सब सोच रहा था जब इधर फिर से एफ.एम. रेडियो सुनना शुरु किया तो। रिसर्च के दौरान खूब सुना करता था लेकिन अब सुनने से ज्यादा काम देखने का हो गया तो छूट गया था। इस डेढ़ साल में काफी कुछ बदल गया है एफ.एम. और कई जॉकिज इधर-उधर चले गए। कई नए चैनल्स भी आए। मैं जो चिल्ला रहा था हमसे जो टकराएगा, म्यूजिक में मिल जाएगा, एक नए चैनल से ही सीखा।
फीवर 104 एक नया चैनल है जिसमें आजकल म्यूजिक इलेक्शन चल रहा है, जहां आप कोई गाना पसंद कीजिए और उस पर दिल्ली की जनता यानि ऑडिएंस से वोट मांगिए औऱ ज्यादा वोट मांगने पर आपको ढेरों इनाम मिलेंगे।...तो बोलिए--
हमसे जो टकराएगा, म्यूजिक में मिल जाएगा।
जीतेगा भाई जीतेगा, अपना म्यूजिक जीतेगा।
हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, इसाई
म्यूजिक है सबका भाई।
म्यूजिक इलेक्शन जिंदाबाद
जिंदाबाद, जिंदाबाद।।।
जॉकिज आपको एहसास कराता या कराती है कि आपने सारेगम में वोट दिया क्या मिला, व्ऑइस ऑफ इंडिया में वोट किया क्या मिला। मतलब सोमेधा और ऑनिक को वोट देकर अपना कटाए ही तो। कल को चैनल ये भी कह सकता है कि गुजरात और दिल्ली के लिए वोटिंग करके आपको क्या मिल गया। यहां वोट कीजिए, यहां आपको मिलेंगे ढेरों इनाम।
ये मौका वाकई में देश के उन बुद्धिजीवियों और मिडिल क्लास के लिए है जो वोटिंग तो खून-खराबे और भगदड़ मचने की डर से नहीं जाते और सरकार बनने के बाद सबसे ज्यादा ऑथेंटिक रुप से बात करते हैं। नेताओं के लिहाज से ये फालतू जनता है, बकवास है, कचरा है, आप इससे वोट नहीं उगाह सकते। पढ़ने-लिखने और बहस करनेवालों के लिए भले ही ये मतलब के आदमी हैं लेकिन हमारे लिए खर-पतवार हैं।नेताओं के लिए ये रिजेक्चेड माल हैं।
अब देखिए मनोरंजन की दुनिया में अगर भारी पूंजी शामिल हो जाए जिसे कि एडोर्नो ने कल्चर इंडस्ट्री कहा है तो समाज की सारी रिजेक्टेड चीजें काम में आ जाएंगी। जैसे यहां नेताओं के रिजेक्टेड लोगों को काम में लाने का काम फीवर 104 कर रहा है।
इस तरह के सारे चैनल इस क्लास को ढांढस देते हैं कि तुम चिंता किस बात की कर रहे हो, नेता भले ही न माने तुम्हें वोटर, तुम्हें बिना खून-खराबे की वोटिंग करने का शौक है न, हम देते हैं तुम्हें मौका। बस उठाओ अपना मोबाइल और टाइप कर दो हमारे बताए नंबर पर। पैसे की ताकत जब तुम्हारे पास है तो कौन सा मजा और शौक अधूरा रह जाएगा भाई।
और देखिए कि राजनीति के लिए वोटिंग के बरक्स कैसे पूरी मनोरंजन की दुनिया में वोटिंग कल्चर स्टैबलिश हो गया है। तो इसे कहते हैं पूंजी की ताकत और कल्चर का इंडस्ट्री में बदल जाना, जहां सारी चीजें शॉफ्ट होगी, किसी चीज के लिए मार-काट नहीं होगी और जिस सिस्टम में आप फिलहाल जी रहे हो उसमें धीरे-धीरे मितली आनी शुरु हो जाएगी। इसलिए सिस्टम को गरियाने का विकल्प चारो तरफ है, बस एक नजर दौड़ाकर लपकने भर की देरी है।
लेकिन संतों यहां गच्चा खाने का काम नहीं है, म्यूजिक पर बात करके जितना इनोसेंट ये सब कुछ लगता है, क्या मामला ऐसा ही है या फिर नंदीग्राम से तसलीमा पर ला पटकने का खेल यहां भी जारी है।
हिन्दी समाज बड़ी तेजी से उत्तर-आधुनिक हो रहा है। दिल्ली में तो इसकी वजह समझ में आती है लेकिन कोई बंदा पुणे में बिना कोई प्लानिंग के उत्तर-आधुनिक हो जाए तो थोड़ी हैरत तो जरुर होगी भाई।
ये आठ के ठाठ है बंधु में मैंने बताया था कि दिल्ली में आए पांच साल हो गए और अभी तक मैंने स्वेटर नहीं खरीदे और ये भी कहा था कि मैं आपसे मांग नहीं रहा लेकिन परसों जो मेरे साथ कांड हुआ है अब मैं मना नहीं करुंगा। पिछली बार पोस्ट लिखने के बाद ही कईयों के मेल आए और फोन किया कि दिल्ली में ठंड़ बहुत अधिक पड़ती है बचके रहना। मेरी एक दोस्त ने राय दी कि स्वेटर खरीद लो भाई और मैं भी मन बना चुका था कि खरीद ही लूंगा लेकिन नसीब कुछ और ही बयान करती है।
परसों एक भाई साहब खोजते-खोजते आए और पूछा कि आप ही विनीत हैं, मैंने कहा- हां भाई क्या बात है। उन्होंने बताया कि मैं बाकुड़ा( पश्चिम बंगाल) से आया हूं। पता चला है कि आपके पास मेरे दोस्त की रजाई है, तीन साल पहले आपके पास छोड़ गया था, उसने कहा है कि आप मुझे दे दीजिए। आप फोन पर बात कर सकते हैं।
मैं फ्लैशबैक में चला गया। तीन साल पहले एक दोस्त ने रजाई खरीदी थी लेकिन दिल्ली में बीस दिन से ज्यादा नहीं टिक पाया था। जाते समय उसने कहा कि रख लीजिए कोई लेगा तो दे दीजिएगा। मैंने तब साफ कर दिया था कि भाई हमसे कोई भी लेगा तो बात दोस्ती-यारी की हो जाएगी, कोई पैसा नहीं देगा। फिर भी उसने रजाई छोड़ दी। इस बीच मैंने अपनी पुरानी रजाई मेस में काम करनेवाले साथियों को दे दी तब मैं मेस सेक्रेटरी था। सोचा ये भी याद करेंगे। और दोस्त की नई रजाई इस्तेमाल करने लगा। आज वही रजाई मुझे लौटानी थी।
मैंने कहा,यार तुम दूसरी रजाई ले लो, इस ठंड़ में मैं कहां मरुं और इसके नाप से रजाई के कवर भी सिलवा लिए हैं। बंदे का जबाब था रजाई तो देनी ही होगी सर, पुणे में ही मैंने इस रजाई के 250 रुपये दे दिए हैं। मैं समझ गया जमाना लद गया है, सचमुच कम से कम जीने के स्तर पर हिन्दी में कोई अब निराला पैदा नहीं होगा, हां पोस्ट-मॉर्डनिस्टों की तादाद भले ही बढ़ती रहे।
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ये आठ के ठाठ है बंधु में मैंने बताया था कि दिल्ली में आए पांच साल हो गए और अभी तक मैंने स्वेटर नहीं खरीदे और ये भी कहा था कि मैं आपसे मांग नहीं रहा लेकिन परसों जो मेरे साथ कांड हुआ है अब मैं मना नहीं करुंगा। पिछली बार पोस्ट लिखने के बाद ही कईयों के मेल आए और फोन किया कि दिल्ली में ठंड़ बहुत अधिक पड़ती है बचके रहना। मेरी एक दोस्त ने राय दी कि स्वेटर खरीद लो भाई और मैं भी मन बना चुका था कि खरीद ही लूंगा लेकिन नसीब कुछ और ही बयान करती है।
परसों एक भाई साहब खोजते-खोजते आए और पूछा कि आप ही विनीत हैं, मैंने कहा- हां भाई क्या बात है। उन्होंने बताया कि मैं बाकुड़ा( पश्चिम बंगाल) से आया हूं। पता चला है कि आपके पास मेरे दोस्त की रजाई है, तीन साल पहले आपके पास छोड़ गया था, उसने कहा है कि आप मुझे दे दीजिए। आप फोन पर बात कर सकते हैं।
मैं फ्लैशबैक में चला गया। तीन साल पहले एक दोस्त ने रजाई खरीदी थी लेकिन दिल्ली में बीस दिन से ज्यादा नहीं टिक पाया था। जाते समय उसने कहा कि रख लीजिए कोई लेगा तो दे दीजिएगा। मैंने तब साफ कर दिया था कि भाई हमसे कोई भी लेगा तो बात दोस्ती-यारी की हो जाएगी, कोई पैसा नहीं देगा। फिर भी उसने रजाई छोड़ दी। इस बीच मैंने अपनी पुरानी रजाई मेस में काम करनेवाले साथियों को दे दी तब मैं मेस सेक्रेटरी था। सोचा ये भी याद करेंगे। और दोस्त की नई रजाई इस्तेमाल करने लगा। आज वही रजाई मुझे लौटानी थी।
मैंने कहा,यार तुम दूसरी रजाई ले लो, इस ठंड़ में मैं कहां मरुं और इसके नाप से रजाई के कवर भी सिलवा लिए हैं। बंदे का जबाब था रजाई तो देनी ही होगी सर, पुणे में ही मैंने इस रजाई के 250 रुपये दे दिए हैं। मैं समझ गया जमाना लद गया है, सचमुच कम से कम जीने के स्तर पर हिन्दी में कोई अब निराला पैदा नहीं होगा, हां पोस्ट-मॉर्डनिस्टों की तादाद भले ही बढ़ती रहे।
हमारे एक कवि लिख गए कि-
जहां लिखा है प्यार
वहां लिख दो सड़क
फर्क नहीं पड़ता है
हमारे देश का मुहावरा है
फर्क नहीं पड़ता है...
कवि ने ये बात देश की स्थिति और मानसिकता को लेकर कही है, लेकिन हम इसे मीडिया के लिए भी इस्तेमाल कर सकते हैं।
कल जी स्पोर्ट्स ने दर्शकों को खूब मामू बनाया। बंदे गए थे आइसीएल का मैच देखने और वहां करीब बीस मिनट करीना का नाच दिखा दिया। माने, आए थे हरिभजन को ओटन लगे कपास। ये तो शुक्र मनाइए कि पब्लिक को मजा आया क्योंकि नाच हुआ था, अब कल को मैच के बीच में बापूजी का प्रवचन घुसेड दे कि भारत और पाकिस्तान के बीच हो रहे मैच को देखने के लिए कैसे संयम बरता जाए तो जनता बिदक सकती है और टिकट के पैसे भी मांग सकती है। एकदम नयी बात कर दी जी स्पोर्ट्स ने। और उसका नतीजा देखिए-
स्टार प्लस ने स्कोर को पट्टी पर चलाया और क्रिकेटर के शॉट्स की जगह करीना का मौजा-मौजा दिखाता रहा। और स्लग चलाया- मसालेदार क्रिकेट। क्रिकेट में सिने का पोलिएशन हो गया।
आज आप देखेंगे कि खबरों में पॉलिएशन का काम तेजी से हो रहा है। इंडिया 20-20 जीतती है तो शाहरुख के फोनो लिए जाते हैं, एक्सपर्ट कमेंट्स के तौर पर और फिर मामला खिसककर उनके पर्सनल मैटर और बेटे पर आ जाता है। हम फूद्दू ऑडिएंस को पता भी नहीं चल पाता कि कब क्रिकेट खिसककर बॉलीबुड पर चला गया। यही हाल बीसीसीआई के मामले में होता है। बात होत-होते खेल की पॉलिटिक्स के पाले में चला जाती है। विज्ञापनों में तो ये बात समझ में आती है कि जो लेडिस कभी कपड़े नहीं धोती वो मिराज साबुन बेच रही है लेकिन ये काम अब खबरों में भी तेजी से शुरु हो गया है। खबरें फ्री प्ले होकर घूमती है, अब आप इसे खेल की खबर समझे, राजनीति की या फिर वॉलीवुड की ये सब आपकी समझ पर है। लेकिन इससे दो-तीन बाते बहुत साफ हो जाती है-
एक तो ऐसा होने से खबरों की विश्वसनीयता घटती है, अब हर जगह मनोरंजन बोलकर कुछ भी नहीं पेला जा रहा है। चैनलवाले आप ऑडिएंस की आदत खराब कर रहे हैं। आप खतरनाक काम कर रहे हैं।
एक स्तर पर आप हार चुके हैं,आप होम वर्क नहीं करना चाहते खबरों के उपर इसलिए सबकुछ को सॉफ्ट स्टोरी के नाम पर चला देते हैं। ऐसा करने से ऑडिएंस का डिविएशन होता है। उन चैनलों पर तो और भी हैरत होती है जिनके पास लाइसेंस तो है खबरिया चैनल की लेकिन होड़ लगा रहे हैं मनोरंजन प्रधान चैनलों से। एक ही रट लगाए जाते हैं कि जनता यही सब देखना चाहती है, तो भइया जनता तो ये भी देखना चाहती है प्रकाश सिंह जैसे पत्रकारों का क्या हुआ, हमारे गांव में बिजली कब आएगी। है माद्दा दिखाने की ये सब। यहां तो चुप मार जाओगे।
रोज दिखा रहे हो किलर बस का कहर। कभी रिसर्च किया ड्राइवरों की जिंदगी पर, क्या है उनके जीने का हिसाब-किताब। तो ले-देकर वही क्रिकेट, क्राइम,सिनेमा और सिलेब्रेटी है और उसी को दिनभर फेंटते रहो और हम फूद्दू जनता देश की बड़ी खबर समझकर पचाते रहेंगे और फेंटने से जो झाग पैदा होगा उसे यूपीएससी के इंटरव्यू के लिए बचाकर रखेंगे।
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जहां लिखा है प्यार
वहां लिख दो सड़क
फर्क नहीं पड़ता है
हमारे देश का मुहावरा है
फर्क नहीं पड़ता है...
कवि ने ये बात देश की स्थिति और मानसिकता को लेकर कही है, लेकिन हम इसे मीडिया के लिए भी इस्तेमाल कर सकते हैं।
कल जी स्पोर्ट्स ने दर्शकों को खूब मामू बनाया। बंदे गए थे आइसीएल का मैच देखने और वहां करीब बीस मिनट करीना का नाच दिखा दिया। माने, आए थे हरिभजन को ओटन लगे कपास। ये तो शुक्र मनाइए कि पब्लिक को मजा आया क्योंकि नाच हुआ था, अब कल को मैच के बीच में बापूजी का प्रवचन घुसेड दे कि भारत और पाकिस्तान के बीच हो रहे मैच को देखने के लिए कैसे संयम बरता जाए तो जनता बिदक सकती है और टिकट के पैसे भी मांग सकती है। एकदम नयी बात कर दी जी स्पोर्ट्स ने। और उसका नतीजा देखिए-
स्टार प्लस ने स्कोर को पट्टी पर चलाया और क्रिकेटर के शॉट्स की जगह करीना का मौजा-मौजा दिखाता रहा। और स्लग चलाया- मसालेदार क्रिकेट। क्रिकेट में सिने का पोलिएशन हो गया।
आज आप देखेंगे कि खबरों में पॉलिएशन का काम तेजी से हो रहा है। इंडिया 20-20 जीतती है तो शाहरुख के फोनो लिए जाते हैं, एक्सपर्ट कमेंट्स के तौर पर और फिर मामला खिसककर उनके पर्सनल मैटर और बेटे पर आ जाता है। हम फूद्दू ऑडिएंस को पता भी नहीं चल पाता कि कब क्रिकेट खिसककर बॉलीबुड पर चला गया। यही हाल बीसीसीआई के मामले में होता है। बात होत-होते खेल की पॉलिटिक्स के पाले में चला जाती है। विज्ञापनों में तो ये बात समझ में आती है कि जो लेडिस कभी कपड़े नहीं धोती वो मिराज साबुन बेच रही है लेकिन ये काम अब खबरों में भी तेजी से शुरु हो गया है। खबरें फ्री प्ले होकर घूमती है, अब आप इसे खेल की खबर समझे, राजनीति की या फिर वॉलीवुड की ये सब आपकी समझ पर है। लेकिन इससे दो-तीन बाते बहुत साफ हो जाती है-
एक तो ऐसा होने से खबरों की विश्वसनीयता घटती है, अब हर जगह मनोरंजन बोलकर कुछ भी नहीं पेला जा रहा है। चैनलवाले आप ऑडिएंस की आदत खराब कर रहे हैं। आप खतरनाक काम कर रहे हैं।
एक स्तर पर आप हार चुके हैं,आप होम वर्क नहीं करना चाहते खबरों के उपर इसलिए सबकुछ को सॉफ्ट स्टोरी के नाम पर चला देते हैं। ऐसा करने से ऑडिएंस का डिविएशन होता है। उन चैनलों पर तो और भी हैरत होती है जिनके पास लाइसेंस तो है खबरिया चैनल की लेकिन होड़ लगा रहे हैं मनोरंजन प्रधान चैनलों से। एक ही रट लगाए जाते हैं कि जनता यही सब देखना चाहती है, तो भइया जनता तो ये भी देखना चाहती है प्रकाश सिंह जैसे पत्रकारों का क्या हुआ, हमारे गांव में बिजली कब आएगी। है माद्दा दिखाने की ये सब। यहां तो चुप मार जाओगे।
रोज दिखा रहे हो किलर बस का कहर। कभी रिसर्च किया ड्राइवरों की जिंदगी पर, क्या है उनके जीने का हिसाब-किताब। तो ले-देकर वही क्रिकेट, क्राइम,सिनेमा और सिलेब्रेटी है और उसी को दिनभर फेंटते रहो और हम फूद्दू जनता देश की बड़ी खबर समझकर पचाते रहेंगे और फेंटने से जो झाग पैदा होगा उसे यूपीएससी के इंटरव्यू के लिए बचाकर रखेंगे।
मुझे पता है कि सरायवाले सरजी लोगों को जब पता चलेगा तो हमें बहुत गरियायेगें। लेकिन ये बात सही है कि जो प्रोजेक्ट उनलोगों ने मुझे दिया था, परसों उसे जमा करने के बाद अब ऐसा लग रहा है कि गया में पिंडदान कर आया हूं, बहुत हल्का महसूस कर रहा हूं।
जब तक मैंने आजतक में इन्टर्नशिप की, कई लोगों ने दारु-बीड़ी पर बहुत बार बुलाया, अपने बीच इतना अपनापा हो गया कि लगा कि ये मेरे बहुत अपने हैं। दारु-बीडी के लिए पैसे कम पड़ जाएंगे तो इनकी खातिर बीए की सर्टिफिकिट के उपर लाख-दो लाख रुपये का लोन भी ले सकता हूं। फ्रशटेट होकर जब भी हम रात की ड्रॉप इनके घर की ले लेता तो रात में सोते समय इनका लोअर तक पहन लेता और जिनके घर में पत्नियां होती, सिरहाने पर दूध रख देती और मेरा दोस्त चुपके से बेडरुम में खिसक लेता और पीछे से भाभीजी भी, ये कहकर अभी आती हूं....चल देती है। ये अलग बात है कि सुबह-सुबह ही ब्लैक कॉफी के साथ गुड मार्निग बोलते हुए आती। इन भाभियों से इतना प्यार मिलता कि मैं सोचता साल-दो सा तो मजे से काटा जा सकता है। सरायवाले सरजी इन्हीं के बूते जब मैंने निजी टेलीविजन की भाषिक संस्कृति पर काम करने का मन बनाया तो विशेष संदर्भ आजतक रखा और पूरा प्रोजेक्ट आजतक की भाषिक संस्कृति पर करने का मन बनाया और आपलोगों ने इसकी सहमति भी दे दी।
प्रोजेक्ट मिलने के दो महीने तक मैं आजतक में ही था, तबतक दो कोई परेशानी नहीं हुई, आराम से सारे स्क्रिप्ट देखता, लोगों से बातचीत करता और लोग भी समझते ही ये बंदा कुछ हटकर करेगा। चैनल के न्यूज डायरेक्टर नकवी सर को मेल भी किया कि सर मैं आजतक की कुछ पुरानी स्क्रिप्ट देखना चाहता हूं। सहयोगी गीता मैम ने बताया कि तुम्हें बसंत वैली जाना पड़ेगा, मैंने कहा कि कोई बात नहीं चला जाउंगा। इधर चैनल के अच्छे- अच्छे प्रोड्यूसरों से बात हो चुकी थी. एंकर से भी जो काम करते हुए अक्सर मेरी पीठ पर हाथ फेर दिया करते थे। सबकुछ इतना आसान लगता था कि अगर मैं आजतक पूरी किताब लिख दूं तो इसे थॉमसन प्रेस छाप देगा। लोग आपस में बात भी करने लगे थे कि ये जो इन्टर्न है न, आजतक पर ही रिसर्च कर रहा है।
इन्टर्नशिप करता रहा और सराय के प्रोजेक्ट के लिए मटेरियल भी जुटाता रहा। लग रहा था अंत तक जरुर कोई अजूबे का काम हो जाएगा। मेरी बड़ी इच्छा थी कि काम के अंत में आजतक के कुछ लोगों से बात करूं जिसे बाद में इंटरव्यू की शक्ल में तैयार कर सकूं। कहानी कुछ और ही बनी।
अच्छे पैकेज के चक्कर मे कुछ में कुछ ने बीएजी या फिर कोई दूसरा चैनल ज्वायन कर लिया। एक सरजी अब समय पर अपना ज्ञान दे रहे हैं। एक-दो की पत्नी प्रैग्नेंट है। एक-दो ने उपहास उड़ाते हुए कहा कि क्या भईया, आजतक की भी कोई भाषा है।
कुछ रिपोर्टर्स से बातचीत करने के लिए उनके साथ स्पॉट पर गया, शुक्र है स्टोरी कवर करके लौटते वक्त उन्होंने समय दे दिया।
सबसे ज्यादा परेशानी हुई उनसे बातचीत करने में जिनसे लगता था कि इनसे तो कभी भी बातचीत हो जाएगी। वीडियोकॉन के खूब चक्कर लगवाए औऱ तब जाकर बात हो पाई। और उनके इंतजार में न जाने कॉफी पर कितने पैसे खर्च किए। कुछ साथवाली लड़कियां जो अब वहां बतौर इम्प्लाय काम करती है, मेरी तरफ नफरत और हमदर्दी से देखती थी। पहले तो वो सोचती थी कि इन्चर्शिप खत्म होने पर भी छिछोरापन नहीं गया,हमलोगों को टेबने अभी भी आ जाता है। लेकिन एक-दो कहती-बेचारा बहुत मेहनती लड़का है..लगता है अभी भी कहीं कुछ नहीं हुआ है, नौकरी देनेवाली मैडम से बात करने आया होगा। सीनियर मिलते और पूछते...क्या विनीत तुम्हारा अभी तक तुम्हारा कहीं कुछ नहीं हुआ। जो मेरे दोस्त बन चुके थे, इग्नोर कर देते और रात में फोन करके माफी मांगते- स़ॉरी दोस्त, तुम तो अंदर की कहानी जानते ही हो। एक-दो राय भी देते कि इस सराय के छोटे से वजीफे से क्या होगा, मेरे भैया के साथ पोरपटी टीलिंग का काम करोगे। एक ने सलाह दी कि लुधियाना से लाकर ऊन बेचो,अच्छी कमाई है। इन सबके बीच सच्चाई ये रही कि मैं जि चैनल में काम करता रहा, आजतक वाले उसे नहीं देखते, शायद इसलिए मैं उन्हें बेरोजगार दिखता और एक जो जानते भी हैं उन्होंने कहा कि तुम वहां काम करके क्या छिल लोगे।
खैर.इन सबके बीच मैंने प्रोजेक्ट पूरा किया। छपवाने गया पटेल चेस्ट तो एक बंदा जो अपनी नहीं बल्कि अपनी गर्लफैंड का काम करवा रहा था, वो लेडिस बैठकर कैडवरी भकोस रही थी, मेरा आजतक पर प्रोजेक्ट देखकर थोड़ा-बहुत इम्प्रेस होती इसके पहले ही बंदे ने बहुत जोर से, गर्लफ्रैंड को सुनाते हुए बोला- आपका ये रामायण कौन पढ़ेगा। मैं गुस्से का घूंट पीकर रह गया और सदन सर, दीपू सर, रवि , रविकांत और राकेश का चेहरा याद आ गया और मंसूरी और जबलपुर में अधिकारी होने की ट्रेनिंग ले रहे हैं, उनकी बात याद आ गयी, यार विनीत आजतक पर काम खत्म होने पर एकबार जरुर दिखाना।..........
कई लोग तो अच्छे पैकेज के चक्कर में बीएजी या फिर दूसरे चैनलों
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जब तक मैंने आजतक में इन्टर्नशिप की, कई लोगों ने दारु-बीड़ी पर बहुत बार बुलाया, अपने बीच इतना अपनापा हो गया कि लगा कि ये मेरे बहुत अपने हैं। दारु-बीडी के लिए पैसे कम पड़ जाएंगे तो इनकी खातिर बीए की सर्टिफिकिट के उपर लाख-दो लाख रुपये का लोन भी ले सकता हूं। फ्रशटेट होकर जब भी हम रात की ड्रॉप इनके घर की ले लेता तो रात में सोते समय इनका लोअर तक पहन लेता और जिनके घर में पत्नियां होती, सिरहाने पर दूध रख देती और मेरा दोस्त चुपके से बेडरुम में खिसक लेता और पीछे से भाभीजी भी, ये कहकर अभी आती हूं....चल देती है। ये अलग बात है कि सुबह-सुबह ही ब्लैक कॉफी के साथ गुड मार्निग बोलते हुए आती। इन भाभियों से इतना प्यार मिलता कि मैं सोचता साल-दो सा तो मजे से काटा जा सकता है। सरायवाले सरजी इन्हीं के बूते जब मैंने निजी टेलीविजन की भाषिक संस्कृति पर काम करने का मन बनाया तो विशेष संदर्भ आजतक रखा और पूरा प्रोजेक्ट आजतक की भाषिक संस्कृति पर करने का मन बनाया और आपलोगों ने इसकी सहमति भी दे दी।
प्रोजेक्ट मिलने के दो महीने तक मैं आजतक में ही था, तबतक दो कोई परेशानी नहीं हुई, आराम से सारे स्क्रिप्ट देखता, लोगों से बातचीत करता और लोग भी समझते ही ये बंदा कुछ हटकर करेगा। चैनल के न्यूज डायरेक्टर नकवी सर को मेल भी किया कि सर मैं आजतक की कुछ पुरानी स्क्रिप्ट देखना चाहता हूं। सहयोगी गीता मैम ने बताया कि तुम्हें बसंत वैली जाना पड़ेगा, मैंने कहा कि कोई बात नहीं चला जाउंगा। इधर चैनल के अच्छे- अच्छे प्रोड्यूसरों से बात हो चुकी थी. एंकर से भी जो काम करते हुए अक्सर मेरी पीठ पर हाथ फेर दिया करते थे। सबकुछ इतना आसान लगता था कि अगर मैं आजतक पूरी किताब लिख दूं तो इसे थॉमसन प्रेस छाप देगा। लोग आपस में बात भी करने लगे थे कि ये जो इन्टर्न है न, आजतक पर ही रिसर्च कर रहा है।
इन्टर्नशिप करता रहा और सराय के प्रोजेक्ट के लिए मटेरियल भी जुटाता रहा। लग रहा था अंत तक जरुर कोई अजूबे का काम हो जाएगा। मेरी बड़ी इच्छा थी कि काम के अंत में आजतक के कुछ लोगों से बात करूं जिसे बाद में इंटरव्यू की शक्ल में तैयार कर सकूं। कहानी कुछ और ही बनी।
अच्छे पैकेज के चक्कर मे कुछ में कुछ ने बीएजी या फिर कोई दूसरा चैनल ज्वायन कर लिया। एक सरजी अब समय पर अपना ज्ञान दे रहे हैं। एक-दो की पत्नी प्रैग्नेंट है। एक-दो ने उपहास उड़ाते हुए कहा कि क्या भईया, आजतक की भी कोई भाषा है।
कुछ रिपोर्टर्स से बातचीत करने के लिए उनके साथ स्पॉट पर गया, शुक्र है स्टोरी कवर करके लौटते वक्त उन्होंने समय दे दिया।
सबसे ज्यादा परेशानी हुई उनसे बातचीत करने में जिनसे लगता था कि इनसे तो कभी भी बातचीत हो जाएगी। वीडियोकॉन के खूब चक्कर लगवाए औऱ तब जाकर बात हो पाई। और उनके इंतजार में न जाने कॉफी पर कितने पैसे खर्च किए। कुछ साथवाली लड़कियां जो अब वहां बतौर इम्प्लाय काम करती है, मेरी तरफ नफरत और हमदर्दी से देखती थी। पहले तो वो सोचती थी कि इन्चर्शिप खत्म होने पर भी छिछोरापन नहीं गया,हमलोगों को टेबने अभी भी आ जाता है। लेकिन एक-दो कहती-बेचारा बहुत मेहनती लड़का है..लगता है अभी भी कहीं कुछ नहीं हुआ है, नौकरी देनेवाली मैडम से बात करने आया होगा। सीनियर मिलते और पूछते...क्या विनीत तुम्हारा अभी तक तुम्हारा कहीं कुछ नहीं हुआ। जो मेरे दोस्त बन चुके थे, इग्नोर कर देते और रात में फोन करके माफी मांगते- स़ॉरी दोस्त, तुम तो अंदर की कहानी जानते ही हो। एक-दो राय भी देते कि इस सराय के छोटे से वजीफे से क्या होगा, मेरे भैया के साथ पोरपटी टीलिंग का काम करोगे। एक ने सलाह दी कि लुधियाना से लाकर ऊन बेचो,अच्छी कमाई है। इन सबके बीच सच्चाई ये रही कि मैं जि चैनल में काम करता रहा, आजतक वाले उसे नहीं देखते, शायद इसलिए मैं उन्हें बेरोजगार दिखता और एक जो जानते भी हैं उन्होंने कहा कि तुम वहां काम करके क्या छिल लोगे।
खैर.इन सबके बीच मैंने प्रोजेक्ट पूरा किया। छपवाने गया पटेल चेस्ट तो एक बंदा जो अपनी नहीं बल्कि अपनी गर्लफैंड का काम करवा रहा था, वो लेडिस बैठकर कैडवरी भकोस रही थी, मेरा आजतक पर प्रोजेक्ट देखकर थोड़ा-बहुत इम्प्रेस होती इसके पहले ही बंदे ने बहुत जोर से, गर्लफ्रैंड को सुनाते हुए बोला- आपका ये रामायण कौन पढ़ेगा। मैं गुस्से का घूंट पीकर रह गया और सदन सर, दीपू सर, रवि , रविकांत और राकेश का चेहरा याद आ गया और मंसूरी और जबलपुर में अधिकारी होने की ट्रेनिंग ले रहे हैं, उनकी बात याद आ गयी, यार विनीत आजतक पर काम खत्म होने पर एकबार जरुर दिखाना।..........
कई लोग तो अच्छे पैकेज के चक्कर में बीएजी या फिर दूसरे चैनलों
दिल्ली में आए पांच साल हो गए, अभी तक दिल्ली की ठंड का मुंहतोड़ जबाब देने के लिए एक भी स्वेटर नहीं है। आपसे मांग नहीं रहा हूं और न ही ये कह रहा हूं कि मेरे लिए कुछ चंदा कीजिए, कुछ मत कीजिए बस ये पोस्ट पढ़ लीजिए और वैसे भी मांगने की गलती मैं दिल्ली में कभी नहीं करता। कुछ भी मांगोगे तो यूरो की तरह राय ही मिलेगी।
शुरु के दो साल तो इस शेखी में कट गए कि हिन्दू कॉलेज का स्टूडेंट हूं, सीनियर ने पुराने सेशन के स्वेट शर्ट आधे दाम पर दे दिए और बाद में आपस में बतियाते कि साले को बनाया चुतिया, नाम लिखाया है 2002 में और स्वेट शर्ट दे दिया 2000 का। एकाध बार एक-दो लेडिस ने पूछा भी कि विनीत तुम तो उस समय कॉलेज में थे भी नहीं तो फिर ये स्वेट शर्ट कैसे। क्या बताता कि पैसे बचाने के लिए आधे दाम पर लिए हैं। फिर सोचता बाहर कौन जानता है कि मैं कब से हिन्दू कॉलेज में पढ़ रहा हूं। और अच्छा ही रहेगा कि लोग पुराना हिन्दुआइट समझकर पल्टी नहीं खाएंगे। एक दो लेडिस जो कि अब बाल-बच्चेदार और जिम्म्दार हो गयी है, मिलने भी आती है तो अपने पति या फिर ननद के साथ। पति के साथ आने पर उससे उतनी ही मीठे से बात करती है जितने मीठे से तीन साल पहले मुझसे बात करती थी और अपने पति को तब कजिन या बुआ का लड़का बताती थी। खैर, एक बार उसने कहा कि फेंको तुम ये अपनी पुरानी स्वेट शर्ट, मैं तुम्हारे लिए मम्मी से बोलकर बड़ा प्यारा सा स्वेटर बनवा दूंगी, बस तुम वनिता का बुनाई विशेषांक वाला अंक खरीद लेना। वैसे भी वो खुद तो बुन सकती नहीं थी, अल्ट्रा मॉर्डन होने के चक्कर में ये सब सीखा कहां था।
नयी-नयी ब्याही मेरी दीदी को मुंह दिखाई में खूब पैसे मिले थे और उसका उसने ढेर सारा ऊन खरीद लिया था । बार-बार फोन करके कहती अपना साइज बताऔ न, तुम्हारे लिए भी एक स्वेटर बना दूंगी। मैं अब दीदी के हाथ का कटोरी वाले डिजाइन की स्वेटर क्यों पहनता. शेखी मारते हुए कहता, दीदी अब तुम ये सब की चिंता मत करो, यहां दिल्ली में तुम्हारी भाभी संभाल लेगी। दीदी को धक्का लगता और तुनककर बोलती, ठहर तेरे पैसे बंद करवाती हूं।
दो साल तो उस पुराने स्वेट शर्ट में कट गए। गजब का कॉन्फीडेंस होता उस हिन्दू के स्वेट शर्ट को पहनकर। नाइकी और रिवॉक के शोरुम तक बिना हिचक के टहल आता। एक-दो बार मैकडी भी गया था।
फिर कोठारी हॉस्टल के लोगों ने जोड़-तोड़ करके स्वेट शर्ट छपवाया। मैं भी लगा था उसमें। मेरी नियत होती कि पैसा भी कम खर्चा हो और सोसाइटी में स्टेटस भी बनी रहे और ये हॉस्टल के स्वेट शर्ट से ही संभव था। पीछे लिखा रहता हॉस्टलर और हमलोग पहनकर कैंपस में अपने को तोप समझते। एक बार भद्द पिटी थी पेज थ्री पार्टी और दो-तीन के टोकने पर आरती भाभी की शाल ओढनी पड़ी थी औऱ बताना पड़ा कि जी तबीयत ठीक नहीं है। फिर भी दो साल कट गए। लेकिन तब तक कॉलेज या हॉस्टल के स्वेट शर्ट से थोड़ा मोहभंग हो गया था।
अगले साल थोड़ा दिमाग भिड़ाया और कॉम्युनिटी प्रोग्राम के तहत स्वेटर या गरम कपड़े खरीदने की योजना बनायी। अपने मिजाज के चार लोग जुटे और पांच-पांच सो रुपये पूल किया और गर्मी में ही सात स्वेटर आधे दाम पर खरीदे। और खूब बदल-बदलकर पहना। अपन दो बंदे हिन्दी के थे, सो हमेशा ध्यान रखते कि एक दूसरे का मैच न हो। सबसे मौज में ये साल काट लिया और मनाता रहा कि सालोभर ठंड पड़े तो भी दिक्कत नहीं है।
इस साल ठंड गिर चुकी है। लेडिस अब भी आती है लेकिन स्वेटर पर कभी बात नहीं होती, स्वेट शर्ट भी इधर-उधर हो गए। साझा में जो स्वेटर खरीदा था, उसकी दुर्गति हो गयी। एक बंदा एचडीएफसी में लगा है, सो हॉस्टल छोड़ते समय दानवीर कर्ण की भूमिका में तीन स्वेटर दान कर गया। एक को एमपीपीसीएस में नौकरी लगी है, सारे पुराने कपडे सहित दो स्वेटर एनजीओ को दान कर दिया। बाकी के दो स्वेटर हिन्दी वाला बंदा ये कहकर पचा गया कि पिछले साल मैं पहना था तो अबकी तुम कैसे पहन सकते हो।...मैं अपने कवर्ड को चकचक रखने के चक्कर में एक भी स्वेटर नहीं रखा था।
कल ही एक मित्र आए थे, रात में मीडिया की ड्यूटी बजाकर। लेकिन बहुत खुश थे। बात छेड़ दी कि भाई हजार रुपये जो लिए थे उसे लौटा दो। कैश न हो तो क्रेडिट कार्ड से एक स्वेटर ही खरीद दो...उसने कहा. ... स्वेटर क्या चलो कोट ही खरीद देता हूं, दिसम्बर में मेरी शादी है, वहां भी काम आएगा। खूब भटका कमलानगर। कोट-पैंट देखते ही मुझे टीटीइ, वकील या फिर एंकर याद आने लगते। मैंने कहा भइया मुझे ठंड काटनी है, काहे का कोट-पैंट के चक्कर में पड़े हो। शादी के समय तो हॉस्टल में मैनेजमेंट के बंदे वाले भी दे देंगे, स्वेटर ही खरीद दो। उसने कहा तो फिर ठीक है, चलो और चन्द्रावल की ओर बढ़ने लगा और ठेके पर पहुंचकर एकदम से बोला। साले.....बड़ी मुश्किल से तुम्हारे भाई को ढंग की लड़की मिली है, शादी तय हुई है और तुम स्वेटर के पीछे जान हलाल किए हो और फिर दो चमचमाता हुआ पीले रंग का डिब्बा लेकर बोला, देखो आज मना मत करना। मीडिया से हैं, तुम्हारे हॉस्टल वार्डन से हम निबट लेंगे और फिर हमारा-तुम्हारा तो साइज एक ही है न। मैं गरियाता, लेकिन कान में बस एक ही आवाज सुनाई पड़ रही थी.......
ये आठ के ठाठ है बंधु, तब सुलगेगी चिंगारी
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शुरु के दो साल तो इस शेखी में कट गए कि हिन्दू कॉलेज का स्टूडेंट हूं, सीनियर ने पुराने सेशन के स्वेट शर्ट आधे दाम पर दे दिए और बाद में आपस में बतियाते कि साले को बनाया चुतिया, नाम लिखाया है 2002 में और स्वेट शर्ट दे दिया 2000 का। एकाध बार एक-दो लेडिस ने पूछा भी कि विनीत तुम तो उस समय कॉलेज में थे भी नहीं तो फिर ये स्वेट शर्ट कैसे। क्या बताता कि पैसे बचाने के लिए आधे दाम पर लिए हैं। फिर सोचता बाहर कौन जानता है कि मैं कब से हिन्दू कॉलेज में पढ़ रहा हूं। और अच्छा ही रहेगा कि लोग पुराना हिन्दुआइट समझकर पल्टी नहीं खाएंगे। एक दो लेडिस जो कि अब बाल-बच्चेदार और जिम्म्दार हो गयी है, मिलने भी आती है तो अपने पति या फिर ननद के साथ। पति के साथ आने पर उससे उतनी ही मीठे से बात करती है जितने मीठे से तीन साल पहले मुझसे बात करती थी और अपने पति को तब कजिन या बुआ का लड़का बताती थी। खैर, एक बार उसने कहा कि फेंको तुम ये अपनी पुरानी स्वेट शर्ट, मैं तुम्हारे लिए मम्मी से बोलकर बड़ा प्यारा सा स्वेटर बनवा दूंगी, बस तुम वनिता का बुनाई विशेषांक वाला अंक खरीद लेना। वैसे भी वो खुद तो बुन सकती नहीं थी, अल्ट्रा मॉर्डन होने के चक्कर में ये सब सीखा कहां था।
नयी-नयी ब्याही मेरी दीदी को मुंह दिखाई में खूब पैसे मिले थे और उसका उसने ढेर सारा ऊन खरीद लिया था । बार-बार फोन करके कहती अपना साइज बताऔ न, तुम्हारे लिए भी एक स्वेटर बना दूंगी। मैं अब दीदी के हाथ का कटोरी वाले डिजाइन की स्वेटर क्यों पहनता. शेखी मारते हुए कहता, दीदी अब तुम ये सब की चिंता मत करो, यहां दिल्ली में तुम्हारी भाभी संभाल लेगी। दीदी को धक्का लगता और तुनककर बोलती, ठहर तेरे पैसे बंद करवाती हूं।
दो साल तो उस पुराने स्वेट शर्ट में कट गए। गजब का कॉन्फीडेंस होता उस हिन्दू के स्वेट शर्ट को पहनकर। नाइकी और रिवॉक के शोरुम तक बिना हिचक के टहल आता। एक-दो बार मैकडी भी गया था।
फिर कोठारी हॉस्टल के लोगों ने जोड़-तोड़ करके स्वेट शर्ट छपवाया। मैं भी लगा था उसमें। मेरी नियत होती कि पैसा भी कम खर्चा हो और सोसाइटी में स्टेटस भी बनी रहे और ये हॉस्टल के स्वेट शर्ट से ही संभव था। पीछे लिखा रहता हॉस्टलर और हमलोग पहनकर कैंपस में अपने को तोप समझते। एक बार भद्द पिटी थी पेज थ्री पार्टी और दो-तीन के टोकने पर आरती भाभी की शाल ओढनी पड़ी थी औऱ बताना पड़ा कि जी तबीयत ठीक नहीं है। फिर भी दो साल कट गए। लेकिन तब तक कॉलेज या हॉस्टल के स्वेट शर्ट से थोड़ा मोहभंग हो गया था।
अगले साल थोड़ा दिमाग भिड़ाया और कॉम्युनिटी प्रोग्राम के तहत स्वेटर या गरम कपड़े खरीदने की योजना बनायी। अपने मिजाज के चार लोग जुटे और पांच-पांच सो रुपये पूल किया और गर्मी में ही सात स्वेटर आधे दाम पर खरीदे। और खूब बदल-बदलकर पहना। अपन दो बंदे हिन्दी के थे, सो हमेशा ध्यान रखते कि एक दूसरे का मैच न हो। सबसे मौज में ये साल काट लिया और मनाता रहा कि सालोभर ठंड पड़े तो भी दिक्कत नहीं है।
इस साल ठंड गिर चुकी है। लेडिस अब भी आती है लेकिन स्वेटर पर कभी बात नहीं होती, स्वेट शर्ट भी इधर-उधर हो गए। साझा में जो स्वेटर खरीदा था, उसकी दुर्गति हो गयी। एक बंदा एचडीएफसी में लगा है, सो हॉस्टल छोड़ते समय दानवीर कर्ण की भूमिका में तीन स्वेटर दान कर गया। एक को एमपीपीसीएस में नौकरी लगी है, सारे पुराने कपडे सहित दो स्वेटर एनजीओ को दान कर दिया। बाकी के दो स्वेटर हिन्दी वाला बंदा ये कहकर पचा गया कि पिछले साल मैं पहना था तो अबकी तुम कैसे पहन सकते हो।...मैं अपने कवर्ड को चकचक रखने के चक्कर में एक भी स्वेटर नहीं रखा था।
कल ही एक मित्र आए थे, रात में मीडिया की ड्यूटी बजाकर। लेकिन बहुत खुश थे। बात छेड़ दी कि भाई हजार रुपये जो लिए थे उसे लौटा दो। कैश न हो तो क्रेडिट कार्ड से एक स्वेटर ही खरीद दो...उसने कहा. ... स्वेटर क्या चलो कोट ही खरीद देता हूं, दिसम्बर में मेरी शादी है, वहां भी काम आएगा। खूब भटका कमलानगर। कोट-पैंट देखते ही मुझे टीटीइ, वकील या फिर एंकर याद आने लगते। मैंने कहा भइया मुझे ठंड काटनी है, काहे का कोट-पैंट के चक्कर में पड़े हो। शादी के समय तो हॉस्टल में मैनेजमेंट के बंदे वाले भी दे देंगे, स्वेटर ही खरीद दो। उसने कहा तो फिर ठीक है, चलो और चन्द्रावल की ओर बढ़ने लगा और ठेके पर पहुंचकर एकदम से बोला। साले.....बड़ी मुश्किल से तुम्हारे भाई को ढंग की लड़की मिली है, शादी तय हुई है और तुम स्वेटर के पीछे जान हलाल किए हो और फिर दो चमचमाता हुआ पीले रंग का डिब्बा लेकर बोला, देखो आज मना मत करना। मीडिया से हैं, तुम्हारे हॉस्टल वार्डन से हम निबट लेंगे और फिर हमारा-तुम्हारा तो साइज एक ही है न। मैं गरियाता, लेकिन कान में बस एक ही आवाज सुनाई पड़ रही थी.......
ये आठ के ठाठ है बंधु, तब सुलगेगी चिंगारी
आज ही टाटानगर से दिल्ली गिरा हूं, मरद का बच्चा होकर, जैसा कि एक भाई साहब ने बस में बहस के दौरान बताया कि आप खालिस मरद का बच्चा हो। नहीं तो दिल्ली में लोग बत्तख, बोक्का और एक लेडिज दोस्त चंपक तक कहकर बुलाती है। लिखने को बहुत कुछ है लेकिन काम का प्रेशर बहुत ज्यादा आ गया है, दो-चार दिन का समय दीजिए। गाहे-बगाहे फिर से रेगुलर हो जाएगा। आप इसे विज्ञापन न समझें...एक कमिटमेंट के रुप में लें और मन हो तो आप भी कहें खालिस ब्लॉगर है।...सच्ची मैंदान छोड़कर भागेगा नहीं ।
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दिवाली में घर जाने की पूरी कोशिश करता हूं। इस दिन हमारे यहां नफा, नुकसान और सम्पत्ति का हिसाब-किताब लगाया जाता है। मां कहती कि तुम नहीं रहते हो तो पन्द्रह लाख का साफ नुकसान समझ में आता है। वो तब कहती जब मैं बताता कि जब पढाई खत्म हो जाएगी तो टीवी में फोटो आनेवाली नौकरी लगेगी। फोटो आने पर इतना तो मिलेगा ही। लेकिन अब फोटो नहीं आएगा तो भी दस लाख तो रखा हुआ है। दीदी लोग भले ही पराया धन है लेकिन हम तो घर की ही सम्पत्ति हैं न। मेरे घर में सब कुछ बर्दाश्त किया जा सकता है लेकिन नुकसान कभी नहीं, भारी नुकसान होने पर तो हमने रिश्तेदारों में से एक-दो हार्टफेल होते भी देखा है। मैं नहीं चाहता कि मेरे कारण हंसता-खेलता परिवार उजड़ जाए। सो यही सब विचार करके सोचा कि घर चले ही जाने में भलाई है।
सरकारी वजीफा बहुत दौड़ने पर मिला था सो सोचा कि एक बार एसी में बैठकर जाया जाए, हम भी देखे कैसा लगता है। बहुत बाबओं, साहित्यसेवियों और पत्रकारों को छोड़ते समय ट्रेन खुलने के पहले तक एसी में बैठा था लेकिन चलती ट्रेन में एसी का अनुभव नहीं रहा है। अच्छा ,बार-बार मन में कोहराम तो मच ही रहा था कि बहुत पैसा लग जाएगा टिकट में लेकिन फिर सोचा कि जाने दो एक ही बार न, कहने को तो नहीं रहेगा कि पच्चीस साल के हो गए लेकिन अभी तक एसी में सफर नहीं किए हैं। फिर सोचा स्लीपर में बहुत कांय-कांय होता है, एसी में ढ़ंग से कुछ लिख-पढ़ भी लेंगे और एसी अनुभव पर कहीं कुछ लिख दिया और छप-छुप गया तो फिर पैसा वसूल। यही सब सोचकर आती-जाती दोनों तरफ का एसी थ्री का टिकट ले लिया ।
लेकिन भैय्या जब अपनी नसीब ही घोड़े की लीद से लिख दी गई हो तो फिर एसी क्या ट्रेन में बैठने के लिए जगह मिल पाना भी मुश्किल है। टिकट कटाकर, एटीएम से करीब तीन हजार रुपये निकालकर कि दो साल बाद घर जा रहा हूं, खाली हाथ जाना ठीक नहीं रहेगा। मां भी अक्सर कहा करती है कि भले आकर पैसा ले लेना लेकिन परदेस कोई खाली हाथ नहीं लौटता, कुछ लेकर आना। सो घरजाने की वैसे ही तैयारी में था जैसे गुड़गांव की फैक्ट्री में काम कर रहा बिहारी मजदूर करता है। सोचा शाम को घर के लिए कुछ-कुछ खरीद लूंगा और यही सब विचार करते आंख लग गई। उठा और जब हाथ-मुंह धोकर वापस आया तो देखा कि बटुआ अपनी जगह पर नहीं है। अपनी जगह क्या, कहीं भी नहीं है। खूब खोजा, नहीं मिला। अंत में वार्डन आए, बाकी लोग आए, उपदेशों का एक लम्बा दौर चला कि तुम्हें हमेशा सचेत रहना चाहिए। पैसा ऐसे नहीं रखना चाहिए, तुम्हें किसी पर शक है वगैरह-वगैरह। अंत में यह कहकर मामले को रफा दफा किया गया कि चलो जो हुआ सो हुआ, आगे से ध्यान रखना। लेकिन जब मैंने पैसे के साथ दो बैंकों के एटीएम खोने की बात बताई, और यूनिवर्सिटी आईकार्ड के बारे में सोचा तो अपने क्लर्क का चेहरा घूम गया । जब मैं उससे कहूंगा कि दोबारा कार्ड बना दें, खो गया है तो सीधे बोलेगा..एफआईआर की फोटो कॉपी कहां है। ऐसे देखेगा कि मैं किसी का रेप करके आ रहा हूं और कार्ड उसी हलचल में कहीं गिर गया। बैंको से तो निपट लूंगा लेकिन यूनिवर्सिटी में पांच साल बिताने के बाद भी अपने क्लर्क से पार पाना मुश्किल है।
यही सब विचार कर रात में ही दौड़ा एफआईआर कराने। दो घंटे की मशक्कत के बाद एफआईआर की कॉपी मिली जिसमें साफ लिखा था कि बटुआ कहीं गुम हो गया । चोरी शब्द का प्रयोग कहीं नहीं था। मुझे पूरे एफआईआर में सिर्फ यही एक लाइन समझ में आयी। बाकी लग रहा था कि शिवप्रसाद सितारेहिंद के जमाने की हिन्दी जिसे पता नहीं लिखनेवाला वो पुलिस अधिकारी भी समझता भी है या नहीं या सालों से लिखने की आदत हो गयी है इसलिए लिखता आ रहा है। पेपर थमाते समय उस बंदे ने कहा भी कि आप बिल्कुल परेशान न हों, पढ़ने-लिखने वाले हैं आराम से पढिए-लिखिए, आपका पर्स तो नहीं ही मिल पाएगा। भूल जाइए, मान के चलिए कि किसी को दान कर दिया।....मन ही मन थोड़ा ज्यादा पावर की गाली निकालते हुए बुदबुदाया। हां बे स्साले। यही मनवाने के लिए तो सरकार तुझे पैसे दे रही है। खैर...
दोस्तों ने दौड़-भागकर अपनी और मेरी दोनों की औकात के मुताबिक स्लीपर टिकट का इंतजाम करवा दिया है, कल के लिए। मैं जानता हूं दिवाली के एक दिन बाद जब घर पहुंचूगा तो मां साफ कह देगी कि इससे बढ़िया मत ही आते, अब क्या बचा है, सब तो हो हवा गया। लेकिन ये भी जानता हूं कि ब्लॉग से दुगुना जब जोड़-जाड़कर बताउंगा कि अपना चार-पाच हजार का नुकसान करके भी तुम्हारा नुकसान नहीं होने देने के लिए आया हूं तो बोलेगी, जाने दो जिसके नसीब में था ले गया, अच्छा है एतना ही होके रह गया, कुछ हो-हा जाता तो। और जहां तक सवाल पैसे की है तो मन में मंसूबा बंधा है कि एफआईआर की हिन्दी के बहाने पूरे कानून व्यवस्था और सरकार द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली हिन्दी पर एक विस्तार से एक लेख लिखूंगा कि जब हम पढ़े -लिखे लोग साहब आपकी हिन्दी नहीं समझ पाते तो देश की अनपढ़ जनता क्या समझेगी...घंटा...और इसके भी कुछ पैसे तो मिल ही जाएंगे।....बाकी तो वक्त के साथ बड़ा से बड़ा जख्म भर जाता है...साली ये बटुआ क्या चीज है।
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सरकारी वजीफा बहुत दौड़ने पर मिला था सो सोचा कि एक बार एसी में बैठकर जाया जाए, हम भी देखे कैसा लगता है। बहुत बाबओं, साहित्यसेवियों और पत्रकारों को छोड़ते समय ट्रेन खुलने के पहले तक एसी में बैठा था लेकिन चलती ट्रेन में एसी का अनुभव नहीं रहा है। अच्छा ,बार-बार मन में कोहराम तो मच ही रहा था कि बहुत पैसा लग जाएगा टिकट में लेकिन फिर सोचा कि जाने दो एक ही बार न, कहने को तो नहीं रहेगा कि पच्चीस साल के हो गए लेकिन अभी तक एसी में सफर नहीं किए हैं। फिर सोचा स्लीपर में बहुत कांय-कांय होता है, एसी में ढ़ंग से कुछ लिख-पढ़ भी लेंगे और एसी अनुभव पर कहीं कुछ लिख दिया और छप-छुप गया तो फिर पैसा वसूल। यही सब सोचकर आती-जाती दोनों तरफ का एसी थ्री का टिकट ले लिया ।
लेकिन भैय्या जब अपनी नसीब ही घोड़े की लीद से लिख दी गई हो तो फिर एसी क्या ट्रेन में बैठने के लिए जगह मिल पाना भी मुश्किल है। टिकट कटाकर, एटीएम से करीब तीन हजार रुपये निकालकर कि दो साल बाद घर जा रहा हूं, खाली हाथ जाना ठीक नहीं रहेगा। मां भी अक्सर कहा करती है कि भले आकर पैसा ले लेना लेकिन परदेस कोई खाली हाथ नहीं लौटता, कुछ लेकर आना। सो घरजाने की वैसे ही तैयारी में था जैसे गुड़गांव की फैक्ट्री में काम कर रहा बिहारी मजदूर करता है। सोचा शाम को घर के लिए कुछ-कुछ खरीद लूंगा और यही सब विचार करते आंख लग गई। उठा और जब हाथ-मुंह धोकर वापस आया तो देखा कि बटुआ अपनी जगह पर नहीं है। अपनी जगह क्या, कहीं भी नहीं है। खूब खोजा, नहीं मिला। अंत में वार्डन आए, बाकी लोग आए, उपदेशों का एक लम्बा दौर चला कि तुम्हें हमेशा सचेत रहना चाहिए। पैसा ऐसे नहीं रखना चाहिए, तुम्हें किसी पर शक है वगैरह-वगैरह। अंत में यह कहकर मामले को रफा दफा किया गया कि चलो जो हुआ सो हुआ, आगे से ध्यान रखना। लेकिन जब मैंने पैसे के साथ दो बैंकों के एटीएम खोने की बात बताई, और यूनिवर्सिटी आईकार्ड के बारे में सोचा तो अपने क्लर्क का चेहरा घूम गया । जब मैं उससे कहूंगा कि दोबारा कार्ड बना दें, खो गया है तो सीधे बोलेगा..एफआईआर की फोटो कॉपी कहां है। ऐसे देखेगा कि मैं किसी का रेप करके आ रहा हूं और कार्ड उसी हलचल में कहीं गिर गया। बैंको से तो निपट लूंगा लेकिन यूनिवर्सिटी में पांच साल बिताने के बाद भी अपने क्लर्क से पार पाना मुश्किल है।
यही सब विचार कर रात में ही दौड़ा एफआईआर कराने। दो घंटे की मशक्कत के बाद एफआईआर की कॉपी मिली जिसमें साफ लिखा था कि बटुआ कहीं गुम हो गया । चोरी शब्द का प्रयोग कहीं नहीं था। मुझे पूरे एफआईआर में सिर्फ यही एक लाइन समझ में आयी। बाकी लग रहा था कि शिवप्रसाद सितारेहिंद के जमाने की हिन्दी जिसे पता नहीं लिखनेवाला वो पुलिस अधिकारी भी समझता भी है या नहीं या सालों से लिखने की आदत हो गयी है इसलिए लिखता आ रहा है। पेपर थमाते समय उस बंदे ने कहा भी कि आप बिल्कुल परेशान न हों, पढ़ने-लिखने वाले हैं आराम से पढिए-लिखिए, आपका पर्स तो नहीं ही मिल पाएगा। भूल जाइए, मान के चलिए कि किसी को दान कर दिया।....मन ही मन थोड़ा ज्यादा पावर की गाली निकालते हुए बुदबुदाया। हां बे स्साले। यही मनवाने के लिए तो सरकार तुझे पैसे दे रही है। खैर...
दोस्तों ने दौड़-भागकर अपनी और मेरी दोनों की औकात के मुताबिक स्लीपर टिकट का इंतजाम करवा दिया है, कल के लिए। मैं जानता हूं दिवाली के एक दिन बाद जब घर पहुंचूगा तो मां साफ कह देगी कि इससे बढ़िया मत ही आते, अब क्या बचा है, सब तो हो हवा गया। लेकिन ये भी जानता हूं कि ब्लॉग से दुगुना जब जोड़-जाड़कर बताउंगा कि अपना चार-पाच हजार का नुकसान करके भी तुम्हारा नुकसान नहीं होने देने के लिए आया हूं तो बोलेगी, जाने दो जिसके नसीब में था ले गया, अच्छा है एतना ही होके रह गया, कुछ हो-हा जाता तो। और जहां तक सवाल पैसे की है तो मन में मंसूबा बंधा है कि एफआईआर की हिन्दी के बहाने पूरे कानून व्यवस्था और सरकार द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली हिन्दी पर एक विस्तार से एक लेख लिखूंगा कि जब हम पढ़े -लिखे लोग साहब आपकी हिन्दी नहीं समझ पाते तो देश की अनपढ़ जनता क्या समझेगी...घंटा...और इसके भी कुछ पैसे तो मिल ही जाएंगे।....बाकी तो वक्त के साथ बड़ा से बड़ा जख्म भर जाता है...साली ये बटुआ क्या चीज है।
अपने बाहर के साथियों को जब बताया कि 29 तारीख को हमारे यहां नामवर सिंह आ रहे हैं, हिन्दी साहित्य का इतिहास और पुनर्लेखन की समस्याएं पर बोलेंगे। तुमलोग भी आओ न सुनने, मजा आएगा। शाम वाले आयोजनों में तो खूब सुना होगा नामवर को लेकिन सुबह वाले की बात ही कुछ और ही होती है। लगेगा कि जेएनयू में क्लास करने आए हैं। एक साथी ने इतना सब सुनकर बिना लाग-लपेट के सीधे बोला- अरे अब क्या सुनना नामवरजी को । वो तो अब फुके हुए पटाखे और चुके हुए तीर हो चुके हैं, अब वो नया क्या बोलेंगे। मैं समझ गया कि साथी की दिलचस्पी नयी चीजों में है, पुरानी चीजें अगर मतलब की भी हो तो उससे इन्हें गुरेज है। मैंने जोर-जबरदस्ती नहीं की।
अपने यहां कोई भी सेमिनार या कार्यक्रम होता है तो मैं चाहता हूं अपने जानकार लोग ज्यादा से ज्यादा लोग आएं। ऐसा नहीं है कि हमें आयोजक या विभाग भीड़ जुटाने के अलग से कुछ पैसे देते हैं. लोगों को बुलाने के पीछे दो-तीन ठोस कारण है। जेएनयू वाले को इसलिए बुलाना चाहता हूं उनकी धारणा बनी हुई है कि डीयू के लोग साहित्य को सिर्फ परीक्षा पास होने और नौकरी पाने के लिए पढ़ते हैं। रचनात्मकता और सामाजिक सरोकार से उनका कोई वास्ता नहीं होता। अब उनको कौन समझाए कि जेएनयू ने भला कौन-सा साहित्यकार पैदा कर दिया है। हां तो कार्यक्रमों में आकर उन्हें लगे कि यहां भी हलचल है, यहां भी कुछ होता रहता है।जो दोस्त दूसरे विषयों में हैं उन्हें इसलिए आने कहता हूं कि आजकल मैं देख रहा हूं कि हिन्दी सेमिनार में भी कुछ लोग अंग्रेजी में बोलनेवाले आ जाते हैं या फिर खुद हिन्दीवाले भी अंग्रेजी के कुछ वैल्यू लोडेड शब्द बोल जाते हैं । ये हमारे लिए गर्व करने की चीज होती है कि चलो भाई लोग अपडेट हो रहे हैं। मजा तो सबसे ज्यादा तब आता है जब कोई बंदा अंग्रेजी से एम.ए. कर रहा है लेकिन बैग्ग्राउंड हिन्दी है और पोस्टस्ट्रक्चरलिज्म को अपने क्लास में समझ नहीं पाता है और हमारे मास्टर साहब लोग हिन्दी में कायदे से समझा देते हैं और वो कहता है कि अरे यार, हिन्दी में भी ये सब पढ़ना होता है। मैं सीना तानकर कहता हूं कि साले ये डॉ नगेन्द्र का विभाग अब नहीं है कि सिरफ रीति और पंत ही चलेगा यहां तो अब मीडिया, सिलेमा, मार्क्सवाद और लोहिया सब कुछ है। और अगर इंगलिश में नहीं पार पा रहे हो तो हिन्दी में आ जाओ, एम्.फिल का सिलेबस एक ही है, तुमको लगेगा कि इंगलिश ही पढ़ रहे हैं,बाकी परीक्षा में खाली हिन्दी में लिखना पड़ेगा।
कुछ दोस्त मेरे बहुत ही फ्रस्टू हैं। खाली लेडिस से बतियाने के चक्कर में डीयू के किसी कोर्स में एडमीशन ले लेते हैं औऱ फिर रास्ते से भटक जाते हैं। उसकी बदहाली हमसे देखी नहीं जाती, इसलिए भी मैं उनको हिन्दी वाले प्रोग्राम में बुलाता हूं कि थोड़ी देर देख-सुन लेगा तो राहत मिल जाएगी , बाकी तो उसके एप्रोच और लेडिस के नसीब पर है।
यानि कुल मिलाकर मेरी लगातार कोशिश रहती है कि किसी तरह हिन्दी विभाग के प्रति लोगों का नजरिया बदले। उन्हें महसूस हो कि और विभागों की तरह ये विभाग भी यूनिवर्सिटी का एक जरुरी हिस्सा है। इसने भी समय और जरुरत के हिसाब से अपने को बदला है। खैर,
तो नामवर सिंह हमारे यहां आए, समय से थोड़ा पहले ही। और उनको देखने भी भारी संख्या में लोग आए। देखने इसलिए कह रहा हूं क्योंकि कई तो हिन्दी के नए बच्चे थे जिसने नामवर को नजदीक से देखा नहीं था और कुछ बुजुर्ग किस्म के लोग जिन्हें थोड़ी डाह है कि अस्सी का हो गया है आदमी फिर भी इतना मेन्टेन कैसे है। चलो चलकर देखा जाए। कुछ इसलिए कि घर जलने पर नामवर के चेहरे की रौनक बनी है या फिर जाती रही है। कुछ बुजुर्ग इसलिए भी आए थे कि हमलोगों के सामने रौब जमा सकें कि हमरे साथ ही पढ़ता था नामवर। शुरु से ही होशियार था हिन्दी पढ़ने में और इतना बोलने पर हम ये सोचें कि नामवर के साथ के हैं, कुछ माल मिल जाएगा और उन्हें बिना मारा-मारी के चाय मिल जाएगी।
अच्छा ये तो बात हुई बुजुर्गों की, अब जरा ये पूछें कि इतनी भारी मात्रा में लौंडे कैसे जुट गए तो कई लोग इस बदनीयती से आए थे कि नामवर कुछ बोले और हम खुरपेंच करें, खैर वे कर तो कुछ नहीं पाए लेकिन भीड़ जरुर बढ़ा गए। कुछ ने कहा कि गाइड ने कहा था कि जरुर आना सो आ गए। जेएनयू वाले इसलिए आए थे कि बाहर निकलकर जोर-जोर से बोल सकें कि जेएनयू आखिर जेएनयू है भाई, हमलोगों ने नामवर सिंह से वाकायदा पढ़ा है, आपलोगों की तरह शीतल प्रसाद नहीं लिया है।
हमें कुछ ज्यादा उम्र की लेडिस भी दिखी, जिनकी सिल्क साडियों से फिनाइल की गोली की स्मेल आ रही थी, लगता है मौके पर ही निकालती हैं इसे। खूब सज-धजकर आई थी, मैं खुश हो रहा था कि अगर अपन को लेक्चररशिप मिली तो इनके साथ बैठकर लंच करने का मौका मिलेगा।
भीड़ इतनी खचाखच थी कि बच्चों को जमीन पर भी जगह नहीं मिल पायी, एक-दो को देखा कि दिवार पर ही नोटबुक टिकाकर कुछ लिख रहे हैं। बाकी जमीन पर बैठे मार अंधाधुन नामवर जो कुछ भी बोल रहे हैं, नोट कर रहे हैं कि भइया यही स्पीड बनी रही तो गाइड तो हाथों-हाथ लेगा। समझेगा कि जब यहां ये हाल है जो जब रिसर्च करने लगेगा जब तो स्पीड और बढ़ जाएगी सो लगा पड़ा था।
लेकिन कहिए कुछ, सारे मास्टर साहब को एक साथ देखकर वाकई बहुत अच्छा लग रहा था। सबको एक साथ देखना नसीब की बात हैं, सही में ऐतिहासिक क्षण था कल का कार्यक्रम।
मैं भी गया तो था नामवरजी को सुनने और आंखिन एटेंडेंस बनाने, आंखिन एटेंडेंस नहीं समझा आपने। भाई जब गाइड आपको देख ले और नमस्ते कहने पर मुस्कराकर जबाव दे दे कि चलो इसे भी लगाव है साहित्य से तब उसे आंखिन एटेंडेंस कहते हैं। लेकिन भीड़ देखकर लगा कि इससे अपने मतलब का माल निकल आएगा, सो दौड़कर तिमारपुर वाले सरजी से कैमरा ले आया कि आज भीड़ की कुछ फोटो ले लूं ब्लॉग के काम आएगा।....काम की बातें तो यार-दोस्त नोट कर ही रहे होंगे।.....
खैर, जो हो जितनी भारी भीड़ जुटी थी उससे ये तो साफ हो गया था कि नामवर आखिर नामवर हैं और अगर विभाग ढंग के कार्यक्रम कराए तो सुननेवालों की कमी नहीं, मेला लग जाएगा, मेला। जी हां मेला लगा जाएगा जैसे कल लगा था।
जेएनयू पर पोस्ट लिखने के बाद पहली बार जाना हुआ जेएनयू। मन तो बिल्कुल भी नहीं था लेकिन दोस्तों के बार-बार बुलाने और इस उत्सुकता से कि देखें क्या राय बनी है लोगों को मेरे बारे में, मैं चला गया। मुझे चलते समय इस बात का भी डर था कि चुनावी महौल है वहां, हमें खूब पकाया जाएगा, जहां कुछ बोला कि जो हमारे मित्र हैं तुरंत सावरकर की किताब लेकर चढ़ जाएंगे मेरे उपर कि आपलोगों तो साफ ही देशद्रोही आदमी हैं, आपको तो अधिकार ही नहीं है भारत की पवित्र भूमि पर रहने और पीएच.डी. करने का । लेकिन ये भी कन्फर्म है कि वो हमारा शारीरिक नुकसान कभी नहीं पहुंचाएंगे, जब बहुत बहस होने लगेगी तो साफ कहेंगे कि- छोड़िए न महाराज नौकरी लीजिए और अपना-अपना घंटा हिलाने दीजिए लोगों को हमें क्या करना है विचारधारा पेलकर।
अबकी तो हद हो गयी, लोग पहले से ही तैयार थे, मूड में थे कि ढ़ंग से लेनी है इस बार इनकी। ऐसी लो कि ये हाय-हाय करके बोलने लगें कि आप हमसे कुछ खा-पी लीजिए लेकिन ऐसे कुत्तों की तरह मत झोला कीजिए। कुछ के लिए मैं रिहर्सल इनपुट के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता हूं कि लगाओ खूब लेफ्ट पर आरोप, गरियाओ दमभर लेफ्टिस्ट नेताओं को औऱ देखों कि ये क्या-क्या काउंटर सवाल करते हैं, उस हिसाब से अपने को तैयार कर लेंगे। मैंने भी पैतरा बदल लिया, वो गरियाते जाते और मैं थोड़े-बहुत फेरबदल के साथ कहता कि आपका कहना बिल्कुल सही है,बस थोड़ी भाषा सुधार लें लगे कि आप जेएनयू से पीएच.डी. कर रहे हैं। बाकी आप बात लॉजिकली कर रहे हैं। मित्र को बड़ा झटका लगा। बोले, महाराज आपका लेफ्ट से मोहभंग तो नहीं हो गया है आप मेरी हर बातों का समर्थन कर रहे हैं,पहले तो आप एकदम से लड़ जाते थे। वैसे आप समय रहते ठीक ही किए। इस बार आपके यहां लेफ्ट वालों की हालत ठीक नहीं हैं। मेरे राइटिस्ट हो जाने की गलतफहमी मित्र को वैसे ही हो गयी जैसे एम.फिल्. में मेरी एक दोस्त को लेफ्टिस्ट हो जाने की हुई थी। तब उसने कहा था कि ली मेरेडेयिन के सामने मिलते हैं हमलोग,अगले सप्ताह। जैसे मेरे मित्र ने कहा इस बार कि चलिए अब तो झंडेवालान में अक्सर मिलना होगा अपना। एम.फिल् में लेफ्टिस्ट होने का केस ये था कि दूसरे पेपर में हमलोगों को दुनिया के प्रमुख विचारधाराओं के बारे में पढ़ना होता था जिसमें मार्क्सवाद भी शामिल था। उस दोस्त से मैंने कुछ किताबें ली थी पढ़ने के लिए और वो बार-बार कहती रख लो मैं दूसरी खरीद लूंगी और मैं उसके पैसे दे दिया करता। धीरे-धीरे वो पार्टी के पैम्पलेट्स भी देने लगी और कहती इससे भी तुम्हें आइडिया मिलेगा। मैं भी सब पढ़ जाता। अब उसे यकीन होने लग गया था कि मैं जल्द ही कार्ड होल्डर हो जाउंगा। यानि मार्क्स पढ़ने पर आप मार्क्सवादी हो जाएंगे और उसका सीधे-सीधे विरोध नहीं करने पर आप राइटिस्ट, ये समझ पूरी तरह विकसित हो चुकी है। सो मेरी साथी और मेरे मित्र ने ऐसे ही मुझे डील किया। लेकिन मित्र के दिमाग में अब भी दुविधा बनी हुई थी, सो लिटमस पेपर की तरह गाइड वाला मुद्दा फिर से छेड़ दिया और मैं एकदम से भड़क गया। मित्र को समझ आने लगा था कि ये बदले नहीं हैं अभी तक, कुढ़ कर बोले अच्छा आप ब्लॉग लिखने लगे हैं न तो सोचते हैं कि चुप रहकर जितना मसाला मिल जाए ले लो, बहसे में अपनी बात लाना नहीं चाहते।
एक दूसरा जूनियर उत्साहित होकर नया ज्ञानोदय विवाद की किताबी शक्ल युवा विरोध का नया वरक लाया औऱ मोहल्ला की स्तुति करते हुए एकदम से बोला- आपलोग बहुत अच्छा कर रहे हैं भइया। इ मैगजीन छापने वाले लोग सोचते हैं कि कुछो छाप दो कोय कुछ बोलेगा ही नहीं, इ पते नहीं है कि हिन्दी समाज बहरा भले हो जाए गूंगा कभी नहीं होगा, कोय न कोय तो बोलेगा ही। आप कहां रह गए थे जब विवाद चल रहा था, आप भी कुछ ठोक देते। आप डरते हैं का कि बढ़िया-बढ़िया मैगजीन में नहीं छपेंगे तो इन्टल नहीं बन पाएंगे, हैं न। मैंने कहा- नहीं भाई जब ये विवाद चल रहा था मैं हिन्दी टाइपिंग सीख रहा था और जब सीख लिया तब तक विवाद किताबी शक्ल में आ चुका था। कोई बात नहीं भैय्या आपको कहीं छपने-छूपने की जरुरत नहीं है, आप ब्लॉग पर ही लेते रहिए।
एक भाईजी से अपनी बहुत शेयरिंग होती रही है। बनारस की लंका से लेकर जेएनयू के पारथसारथी हिल तक की लीला। अबकी बार उन्होंने कहा कि गुरु अब तो तुमको कुछ बताने में भी बहुत डर लगता है, पता नहीं कहां क्या लिख दो, बहुत कुछ है बताने को हिन्दी समाज और यहां के बारे में लेकिन लोग डॉट करने लगेंगे कि मैंने ही ये सब जानकारियां दी है।
कुल मिलाकर कहानी ये है साथी कि ब्लॉगर अपनी पहचान लोगों के बीच उसी तरह से बना रहा है जो रुतवा किसी जमाने में मट्टीमार पैंट पहनकर पत्रकारिता करने वाले लोगों की हुआ करती थी। यों समझ लो कि व्यवसाय और मैंनेजमेंट की शर्तों पर चलनेवाली पत्रकारिता के बीच ब्लॉग लेखन एक सच के रुप में, एक ताकत के रुप में अपनी पहचान बना रहा है। तो इसी बात पर जिस ब्लॉगर के घर में मिठाई के नाम पर जो कुछ भी है खा लो और कुछ नहीं है तो भइया चीनी से तो मुंह मीठा कर ही सकते हो।....
पोस्ट का शीर्षक पढ़कर आपको थोड़ा अजीब लगेगा लेकिन पूरी पोस्ट पढ़ने के बाद आपको दूसरा और इससे बेहतर शीर्षक ढ़ूढने में बड़ी मशक्कत करनी पड़ेगी। अच्छा शीर्षक ढूंढने पर इनामी खत जल्द ही भेजा जाएगा।
घर से वापस हॉस्टल लौटनेवालों का हमलोग बेसब्री से इंतजार करते हैं, आने के पहले बाकायदा फोन करके कहते हैं, स्टेशन पर लेने आ जाउं। और अगर हमारे हिसाब से ( पहले पूछ लेते हैं सामान वजनी है कि नहीं,मतलब माल है कि नहीं) मामला फिट बैठ जाता है तो लेने चले भी जाते हैं। हमारा जोर बिहार और हरियाणा वालों पर ज्यादा होता है। बिहार के लोग खाने का जो आइटम लाते हैं मां बताती है कि हमारे पूर्वज भी वो सब बनाया करते थे, अब मॉड भाभी के आ जाने से बिहारी प्रजाति के सारे आइटम लुप्त होते चले गए और हरियाणा वाले शुद्ध भैंस की घी लाते हैं, शुद्ध घी बोलने में थोड़ी दुविधा है, क्या हरियाणा में मिलावट नहीं है। आए दिन खबर हर कीमत पर वाले घी में डिटरजेंट की मिलावट वाली कहानी सुनाते रहते हैं लेकिन शुक्र है कि अब तक भैंस में कोई मिलावट नहीं है। छोडिए, दोनों राज्यों के अलावे एक बंदे का हमलोग बेसब्री से इंतजार करते हैं, अब ये मत पूछिएगा कि वो कहां के हैं आपको एनथ्रोपॉलाजी पर से विश्वास उठ जाएगा। आपको गुस्सा भी आएगा कि स्साले हमार हिंया क्यों पैदा लिए और डर भी लगेगा कि अगर अपने राज्य में ऐसी ब्रीड पैदा होती रही फिर जीडीपी बढ़ने से रही। कुल मिलाकर अगर मैं आपको उसकी पवित्र भूमि बता दूं तो ब्लॉग दुनिया में चिंता फैल जाएगी। ये नपुंसकता से भी खराब पछताने वाली चीज है।हम उनसे खाने-पीने की चीजों के कारण घर से आने का इंतजार नहीं करते बल्कि वजह कुछ और है।
आपको साहित्य की थोड़ी भी समझ है तो एक चर्चित नाम है मस्तराम। सीनियरों से शिक्षा मिली है कि कामायनी और प्रियप्रवास को समझने के सौन्दर्यबोध इसी से पढ़कर विकसित होंगे। शुरु में तो मैं राजकमल प्रकाशन, दरियागंज चला गया खोजने। साहित्य का स्टूडेंट रहा हूं, इतना पता था कि हिन्दी की अच्छी किताबें वहीं मिलती है। लेकिन अब मैं सोचता हूं कि तब मैंने एक अच्छा काम किया था कि दूकान का नाम पूछने से पहले किताब का नाम पूछता था और तब कहता था कि राजकमल में मिल जाएगी न मस्तराम की किताब। मनचलों ने बताया कि हां हां जाओ तो। सीधे कांउटर पर न जाकर दूकान के बाहर जो पार्सल के लिए किताबें पैक करते हैं, उनसे पूछा-भइया मस्तराम की किताबें यहीं मिलेगी। वो बंदा मुझे थोड़ी देर तक घूरता रहा, मानो अंदाजा लगा रहा हो कि हुलिए से तो संस्कारी जान पड़ता है फिर कुसंगति में कैसे फंस गया और जब हमनें अपना परिचय दिया तो अफसोस करते हुए बताया कि मस्तराम जैसी घटिया किताबों से दूर ही रहना। उसके लाख उपदेश देने के बाद भी मेरे मन में किताब पढ़ने की इच्छा बन चुकी थी। इसी बीच हुआ ये कि हमारे एक दोस्त(जिसकी चर्चा आगे जारी रहेगी) के दोस्त का बीए में ठीक नंबर नहीं आए, ठीक क्या जी आप फेल ही समझें। उसने पढ़ाई छोड़कर किताब की दूकान कर ली। अच्छा भी है कि पढ़ न सको तो कम से कम पढ़ने के साधन बेचो। लेकिन मेरे दोस्त ने बताया कि कभी भी उसकी दूकान पर स्कूल और कॉलेज में पढ़नेवालों की भीड़ नहीं रही। हमेशा अध्दधा, पौआ खरीदने वाले लोग आते हैं, बाद में बताया कि वो ज्यादातर एमआर सीरिज ( मस्तराम) बेचा करता है। उसी के घर से आने का इंतजार हमलोग बेसब्री से किया करते।
वो मस्तराम की किताबें अपने दोस्त के यहां से सफर काटने के लिए लाता है लेकिन हमलोग का भी ज्ञान बढ़ जाता है। उसके आने पर हमलोगों ने इस मूर्धन्य साहित्यकार का सामूहिक पाठ किया है।
दो तरह के लोग इस विधान में शामिल होते हैं। एक तो वेलोग जो गर्व से कहते हैं कि हां हम मस्तराम को पढ़ते हैं क्योंकि अपने जोशीजी को भी कसप और हमजाद की कच्ची सामग्री यहीं से मिली और दुसरे वेलोग जो अपनी छवि पर मर मिटने वाले लोग हैं। प्याज लहसुन की तरह इसे और आकाशीजल को हाथ नहीं लगाते। लेकिन सबसे ज्यादा कुंठा और किताब में ही लेडिस स्पर्श का सुख पाने की चाहत भी इन्हीं में हैं। हमारी तरफ ऐसे देखेंगे, मां-बाप का हवाला देंगे कि क्या करने आए थे और क्या कर रहे हो। फिर अधीर होकर पूछेंगे कि अच्छा आप बताइए कि जब आप घर से दिल्ली के लिए निकल रहे थे तो मां ने क्या कहा था। मैं तुरंत जबाब देता- मेरी मां ने कहा कि जा बेटा दिल्ली, दिल्ली पर मुगलों ने बहुत दिनों तक राज किया अब जाकर हिन्दू राष्ट्र की नींव रख आ। हिन्दू समाज को संगठित कर। और तब पीछे से ठहाके शुरु हो जाते और एक दो अमृतवाणी भी कि साला चुतियापा करने से बाज नहीं आएगा, बैठ यहां। फिर उसे भाई लोग मिलकर मस्तराम को जोर-जोर से बोल-बोलकर पढ़ने कहते. ये काज ऐसा ही होता जैसे प्रेमचंद की कथाओं में ब्राह्मण को मांस खिलाने की कोशिशे रहती हैं। वो पढ़ने लगता लेकिन एक दो लइन पढ़कर बोलता कि इसमें मस्ती का स्पेलिंग ठीक नहीं है। मस्ती की जगह मस्ठी लिखा है और बेडरुम को बोडरुम लिख दिया है, लड़की को लरकी लिखा है, सच पूछो तो इससे सौन्दर्यबोध मरता है वो भाव ही नहीं आ पाते जो लेखक प्रेषित करना चाहता है। पीछे से फिर लोग गरियाते बैठ साला, न पढे तो दिक्कत और पढ़े तो फजीहत। प्रूफ रीडिंग करता है। तुम साले हिन्दीवालों के साथ यही परेशानी है। सब बत्तख हिन्दी में ही एमए करने चला आया है, फिर मेरी तरफ देखकर बोला तुम्हें कुछ नहीं बोल रहे हैं तुम्हारा ऑप्शन मीडिया है न।........
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घर से वापस हॉस्टल लौटनेवालों का हमलोग बेसब्री से इंतजार करते हैं, आने के पहले बाकायदा फोन करके कहते हैं, स्टेशन पर लेने आ जाउं। और अगर हमारे हिसाब से ( पहले पूछ लेते हैं सामान वजनी है कि नहीं,मतलब माल है कि नहीं) मामला फिट बैठ जाता है तो लेने चले भी जाते हैं। हमारा जोर बिहार और हरियाणा वालों पर ज्यादा होता है। बिहार के लोग खाने का जो आइटम लाते हैं मां बताती है कि हमारे पूर्वज भी वो सब बनाया करते थे, अब मॉड भाभी के आ जाने से बिहारी प्रजाति के सारे आइटम लुप्त होते चले गए और हरियाणा वाले शुद्ध भैंस की घी लाते हैं, शुद्ध घी बोलने में थोड़ी दुविधा है, क्या हरियाणा में मिलावट नहीं है। आए दिन खबर हर कीमत पर वाले घी में डिटरजेंट की मिलावट वाली कहानी सुनाते रहते हैं लेकिन शुक्र है कि अब तक भैंस में कोई मिलावट नहीं है। छोडिए, दोनों राज्यों के अलावे एक बंदे का हमलोग बेसब्री से इंतजार करते हैं, अब ये मत पूछिएगा कि वो कहां के हैं आपको एनथ्रोपॉलाजी पर से विश्वास उठ जाएगा। आपको गुस्सा भी आएगा कि स्साले हमार हिंया क्यों पैदा लिए और डर भी लगेगा कि अगर अपने राज्य में ऐसी ब्रीड पैदा होती रही फिर जीडीपी बढ़ने से रही। कुल मिलाकर अगर मैं आपको उसकी पवित्र भूमि बता दूं तो ब्लॉग दुनिया में चिंता फैल जाएगी। ये नपुंसकता से भी खराब पछताने वाली चीज है।हम उनसे खाने-पीने की चीजों के कारण घर से आने का इंतजार नहीं करते बल्कि वजह कुछ और है।
आपको साहित्य की थोड़ी भी समझ है तो एक चर्चित नाम है मस्तराम। सीनियरों से शिक्षा मिली है कि कामायनी और प्रियप्रवास को समझने के सौन्दर्यबोध इसी से पढ़कर विकसित होंगे। शुरु में तो मैं राजकमल प्रकाशन, दरियागंज चला गया खोजने। साहित्य का स्टूडेंट रहा हूं, इतना पता था कि हिन्दी की अच्छी किताबें वहीं मिलती है। लेकिन अब मैं सोचता हूं कि तब मैंने एक अच्छा काम किया था कि दूकान का नाम पूछने से पहले किताब का नाम पूछता था और तब कहता था कि राजकमल में मिल जाएगी न मस्तराम की किताब। मनचलों ने बताया कि हां हां जाओ तो। सीधे कांउटर पर न जाकर दूकान के बाहर जो पार्सल के लिए किताबें पैक करते हैं, उनसे पूछा-भइया मस्तराम की किताबें यहीं मिलेगी। वो बंदा मुझे थोड़ी देर तक घूरता रहा, मानो अंदाजा लगा रहा हो कि हुलिए से तो संस्कारी जान पड़ता है फिर कुसंगति में कैसे फंस गया और जब हमनें अपना परिचय दिया तो अफसोस करते हुए बताया कि मस्तराम जैसी घटिया किताबों से दूर ही रहना। उसके लाख उपदेश देने के बाद भी मेरे मन में किताब पढ़ने की इच्छा बन चुकी थी। इसी बीच हुआ ये कि हमारे एक दोस्त(जिसकी चर्चा आगे जारी रहेगी) के दोस्त का बीए में ठीक नंबर नहीं आए, ठीक क्या जी आप फेल ही समझें। उसने पढ़ाई छोड़कर किताब की दूकान कर ली। अच्छा भी है कि पढ़ न सको तो कम से कम पढ़ने के साधन बेचो। लेकिन मेरे दोस्त ने बताया कि कभी भी उसकी दूकान पर स्कूल और कॉलेज में पढ़नेवालों की भीड़ नहीं रही। हमेशा अध्दधा, पौआ खरीदने वाले लोग आते हैं, बाद में बताया कि वो ज्यादातर एमआर सीरिज ( मस्तराम) बेचा करता है। उसी के घर से आने का इंतजार हमलोग बेसब्री से किया करते।
वो मस्तराम की किताबें अपने दोस्त के यहां से सफर काटने के लिए लाता है लेकिन हमलोग का भी ज्ञान बढ़ जाता है। उसके आने पर हमलोगों ने इस मूर्धन्य साहित्यकार का सामूहिक पाठ किया है।
दो तरह के लोग इस विधान में शामिल होते हैं। एक तो वेलोग जो गर्व से कहते हैं कि हां हम मस्तराम को पढ़ते हैं क्योंकि अपने जोशीजी को भी कसप और हमजाद की कच्ची सामग्री यहीं से मिली और दुसरे वेलोग जो अपनी छवि पर मर मिटने वाले लोग हैं। प्याज लहसुन की तरह इसे और आकाशीजल को हाथ नहीं लगाते। लेकिन सबसे ज्यादा कुंठा और किताब में ही लेडिस स्पर्श का सुख पाने की चाहत भी इन्हीं में हैं। हमारी तरफ ऐसे देखेंगे, मां-बाप का हवाला देंगे कि क्या करने आए थे और क्या कर रहे हो। फिर अधीर होकर पूछेंगे कि अच्छा आप बताइए कि जब आप घर से दिल्ली के लिए निकल रहे थे तो मां ने क्या कहा था। मैं तुरंत जबाब देता- मेरी मां ने कहा कि जा बेटा दिल्ली, दिल्ली पर मुगलों ने बहुत दिनों तक राज किया अब जाकर हिन्दू राष्ट्र की नींव रख आ। हिन्दू समाज को संगठित कर। और तब पीछे से ठहाके शुरु हो जाते और एक दो अमृतवाणी भी कि साला चुतियापा करने से बाज नहीं आएगा, बैठ यहां। फिर उसे भाई लोग मिलकर मस्तराम को जोर-जोर से बोल-बोलकर पढ़ने कहते. ये काज ऐसा ही होता जैसे प्रेमचंद की कथाओं में ब्राह्मण को मांस खिलाने की कोशिशे रहती हैं। वो पढ़ने लगता लेकिन एक दो लइन पढ़कर बोलता कि इसमें मस्ती का स्पेलिंग ठीक नहीं है। मस्ती की जगह मस्ठी लिखा है और बेडरुम को बोडरुम लिख दिया है, लड़की को लरकी लिखा है, सच पूछो तो इससे सौन्दर्यबोध मरता है वो भाव ही नहीं आ पाते जो लेखक प्रेषित करना चाहता है। पीछे से फिर लोग गरियाते बैठ साला, न पढे तो दिक्कत और पढ़े तो फजीहत। प्रूफ रीडिंग करता है। तुम साले हिन्दीवालों के साथ यही परेशानी है। सब बत्तख हिन्दी में ही एमए करने चला आया है, फिर मेरी तरफ देखकर बोला तुम्हें कुछ नहीं बोल रहे हैं तुम्हारा ऑप्शन मीडिया है न।........
अगर कान में मैल भर जाए तो इसे निकालने के लिए आवाज की जरुरत होती है। राजनीति में डॉक्टरी कर रहे डीयू स्टूडेंट यूनियन के लोगों का कुछ ऐसा ही कहना है। कान में मैल भर गया है हिन्दी विभाग के लोगों को और आवाज करके साफ करने का जिम्मा उठाया है डीयू के स्टूडेंट यूनियन के लोगों ने। ये अलग बात है कि डीयू स्टूडेंट यूनियन यानि डूसू अपनी साख धीरे-धीरे खोती जा रही है। आज कॉलेज या फिर हॉस्टल से जुड़ा कोई भी मसला हो, प्रशासन तो प्रशासन स्टूडेंट भी नहीं चाहते कि डूसू के लोग उसमें शामिल हों। आप हाल ही लड़कियों के साथ छेड़छाड़ वाले मामले में देख सकते हैं कि कैसे उसे इससे बिल्कुल दूर रखा गया। यानि स्टूडेंट के लिए बनी यूनियन से स्टूडेंट बचना चाहते हैं। बाबजूद इसके हर उस मामले में डूसू शामिल होना चाहता है जिसमें उसे लगता है अपन को रातोंरात चमकने की गुंजाइश है। एक तरह से कहें तो डूसू का एकमात्र काम रह गया है, मुद्दा गरम करना, उसे राजनीति रंग देना और पेशेवर नेताओं के अंदाज में मीडिया के सामने बयानबाजी करना।
इसका ताजा उदाहरण कल दिल्ली विश्वविद्यालय, हिन्दी विभाग में मची तोड़-फोड़ है।
कुछ लड़के अचानक विभाग की ऑफिस में घुसते हैं, लोगों से एकाध सवाल करते हैं और फिर चीज़ों को उठाना-पटककर फेंकना शुरु कर देते हैं। शीशे चटकतें हैं, कम्प्यूटर उलटकर नीचे आ जाता है, कुर्सियां उलट जाती हैं और फिर देखते ही देखते एक दहशत का महौल बन जाता है।....और विभाग के ऑफिस में ताला लटक जाता है और इस तरह विभाग के लोगों की कानों में जमी मैल की परत को हटाने का काम सम्पन्न होता है।
आपको याद होगा कि कुछ दिन पहले मैंने एक पोस्ट लिखी थी, पढ्रे मीडिया हुए बर्बाद। ये बात हमनें डीयू, हिन्दी विभाग से मीडिया कोर्स कर रहे स्टूडेंट को लेकर कही थी और हमने लॉजिकली बताया था कि किस तरह यहां से मीडिया की पढ़ाई करना उनके हित में नहीं है। इस बाबत लोगों की प्रतिक्रिया भी आयी थी, हमने पोल भी कराया था। लेकिन इसी बात को डीयू स्टूडेंट यूनियन के लोगों ने दूसरे तरीके से उठाया.....सीधे विभाग में आए और भारी तोड़-फोड़ मचाया। उनका दावा है कि सारे मीडिया पढ़ने वाले छात्र उनके साथ हैं। होंगे क्यों नहीं भइया कल को उन्हें भी बार-बालाओं को गुडगांव से लाकर स्टूडियो में स्टोरी शूट करनी है और इस्क्सूसिव बोलकर चलानी है।..अभ्यास यहीं हो जाए तो क्या बुरा है।
हिन्दी विभाग और पत्रकारिता कोर्स को लेकर मुद्दा गरमाया हुआ है और इसे लेकर कैंपस के भीतर अच्छी खासी राजनीति भी हो सकती है और हो भी रही है। मीडिया के भीतर भी इस बात को लेकर भारी समर्थन मिलने की गुंजाइश हो सकती है कि सही बात है भइया कि अगर चैनल को स्टिंग ऑपरेशन करानेवाला बंदा चाहिए तो फिर उसे मुक्तिबोध क्यों पढ़ा रहे हो। छात्रों की भी अपनी बात हो सकती है कि हमें मीडिया के नाम पर जिस तरह की सुविधा मिलनी चाहिए, वो सुविधा नहीं मिल रही है। लेकिन दो सबसे बड़े सवाल यहां तब भी रह जाते हैं कि विरोध का जो रवैया अपनाया जा रहा है, वाकई वो मीडिया पढ़ रहे स्टूडेंट के माकूल है। उन्हें असुविधा और सिस्टम के खिलाफ अपनी आवाज जरुर उठानी चाहिए, अपनी बात रखने का उन्हें पूरा हक है लेकिन अभिव्यक्ति का ये तरीका ......जरा सोचें।
दूसरी बात जैसा कि डीयू के स्टूडेंट पॉलिटिक्स के बारे में अक्सर कहा जाता है कि यहां पॉलिटिक्स का सीधा संबंध राजनीति में करियर बनाने से है। तो हर चार-पांच दिन में यूनिवर्सिटी के भीतर तोड़-फोड़ मचाना उनके करियर का हिस्सा है और आनेवाले समय में राजनीतिक पार्टियां क्या इसी विहॉफ पर टिकट देगी कि उसने कितनी तोड़-फोड़ मचायी है। डूसू के लोगों के उपर से अगर यूनियन का बिल्ला हटा दें तो पहचान के नाम पर जो बचता है वो एक दबंग, गुंडा और सरफिरे से ज्यादा कुछ भी नहीं है।
और देश भर के हिन्दी विभाग को नए सिरे से सोचना होगा कि कोर्स शुरु करने के पहले वे साफ कर दें कि पत्रकारिता के नाम पर वे कौन और किस तरह की पीढ़ी तैयार करना चाहते हैं, पत्रकारिता को क्या वे साहित्य का ही एक हिस्सा मानते हैं और उसे उसी रुप में पढ़ाना चाहते हैं या फिर चैनलों और मीडिया हाउस में जाने के लिए बेताब लोंगों के हिसाब से मीडिया को पढाना चाहते हैं। मीडिया की जो शक्ल हमारे सामने है उसमें सिर्फ साहित्य सा रचनात्मकता नहीं है, मैनेजमेंट भी है, संचार भी है, आर्ट भी है और प्रोफेशनलिज्म भी। अगर पढ़ानेवालों का ध्यान इन ठोस और जरुरी बातों की तरफ जाए तो टकराव की स्थिति जरुर थोड़ी कम होगी।
अच्छा, पत्रकारिता कर रहे लोगों के लिए अभ्यास करने का ये कितना अच्छा मौका हो सकता है कि वे सिस्टम में रहकर सिस्टम को कैसे दुरुस्त कर सकते हैं, उनके खिलाफ बड़े ही सधे और धारदार तरीके से लिख सकते हैं। जो पढ़ाई वे पढ़ रहे हैं उसका इससे बेहतर इस्तेमाल और क्या हो सकता है कि वे इन सार मुद्दों पर सम्पादक को लगातार लिखें, बजाए इससे कि फर्जी स्टिंग और न्यूज बनाने की कलाबाजी के चक्कर में अपने को बर्बाद करें।
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इसका ताजा उदाहरण कल दिल्ली विश्वविद्यालय, हिन्दी विभाग में मची तोड़-फोड़ है।
कुछ लड़के अचानक विभाग की ऑफिस में घुसते हैं, लोगों से एकाध सवाल करते हैं और फिर चीज़ों को उठाना-पटककर फेंकना शुरु कर देते हैं। शीशे चटकतें हैं, कम्प्यूटर उलटकर नीचे आ जाता है, कुर्सियां उलट जाती हैं और फिर देखते ही देखते एक दहशत का महौल बन जाता है।....और विभाग के ऑफिस में ताला लटक जाता है और इस तरह विभाग के लोगों की कानों में जमी मैल की परत को हटाने का काम सम्पन्न होता है।
आपको याद होगा कि कुछ दिन पहले मैंने एक पोस्ट लिखी थी, पढ्रे मीडिया हुए बर्बाद। ये बात हमनें डीयू, हिन्दी विभाग से मीडिया कोर्स कर रहे स्टूडेंट को लेकर कही थी और हमने लॉजिकली बताया था कि किस तरह यहां से मीडिया की पढ़ाई करना उनके हित में नहीं है। इस बाबत लोगों की प्रतिक्रिया भी आयी थी, हमने पोल भी कराया था। लेकिन इसी बात को डीयू स्टूडेंट यूनियन के लोगों ने दूसरे तरीके से उठाया.....सीधे विभाग में आए और भारी तोड़-फोड़ मचाया। उनका दावा है कि सारे मीडिया पढ़ने वाले छात्र उनके साथ हैं। होंगे क्यों नहीं भइया कल को उन्हें भी बार-बालाओं को गुडगांव से लाकर स्टूडियो में स्टोरी शूट करनी है और इस्क्सूसिव बोलकर चलानी है।..अभ्यास यहीं हो जाए तो क्या बुरा है।
हिन्दी विभाग और पत्रकारिता कोर्स को लेकर मुद्दा गरमाया हुआ है और इसे लेकर कैंपस के भीतर अच्छी खासी राजनीति भी हो सकती है और हो भी रही है। मीडिया के भीतर भी इस बात को लेकर भारी समर्थन मिलने की गुंजाइश हो सकती है कि सही बात है भइया कि अगर चैनल को स्टिंग ऑपरेशन करानेवाला बंदा चाहिए तो फिर उसे मुक्तिबोध क्यों पढ़ा रहे हो। छात्रों की भी अपनी बात हो सकती है कि हमें मीडिया के नाम पर जिस तरह की सुविधा मिलनी चाहिए, वो सुविधा नहीं मिल रही है। लेकिन दो सबसे बड़े सवाल यहां तब भी रह जाते हैं कि विरोध का जो रवैया अपनाया जा रहा है, वाकई वो मीडिया पढ़ रहे स्टूडेंट के माकूल है। उन्हें असुविधा और सिस्टम के खिलाफ अपनी आवाज जरुर उठानी चाहिए, अपनी बात रखने का उन्हें पूरा हक है लेकिन अभिव्यक्ति का ये तरीका ......जरा सोचें।
दूसरी बात जैसा कि डीयू के स्टूडेंट पॉलिटिक्स के बारे में अक्सर कहा जाता है कि यहां पॉलिटिक्स का सीधा संबंध राजनीति में करियर बनाने से है। तो हर चार-पांच दिन में यूनिवर्सिटी के भीतर तोड़-फोड़ मचाना उनके करियर का हिस्सा है और आनेवाले समय में राजनीतिक पार्टियां क्या इसी विहॉफ पर टिकट देगी कि उसने कितनी तोड़-फोड़ मचायी है। डूसू के लोगों के उपर से अगर यूनियन का बिल्ला हटा दें तो पहचान के नाम पर जो बचता है वो एक दबंग, गुंडा और सरफिरे से ज्यादा कुछ भी नहीं है।
और देश भर के हिन्दी विभाग को नए सिरे से सोचना होगा कि कोर्स शुरु करने के पहले वे साफ कर दें कि पत्रकारिता के नाम पर वे कौन और किस तरह की पीढ़ी तैयार करना चाहते हैं, पत्रकारिता को क्या वे साहित्य का ही एक हिस्सा मानते हैं और उसे उसी रुप में पढ़ाना चाहते हैं या फिर चैनलों और मीडिया हाउस में जाने के लिए बेताब लोंगों के हिसाब से मीडिया को पढाना चाहते हैं। मीडिया की जो शक्ल हमारे सामने है उसमें सिर्फ साहित्य सा रचनात्मकता नहीं है, मैनेजमेंट भी है, संचार भी है, आर्ट भी है और प्रोफेशनलिज्म भी। अगर पढ़ानेवालों का ध्यान इन ठोस और जरुरी बातों की तरफ जाए तो टकराव की स्थिति जरुर थोड़ी कम होगी।
अच्छा, पत्रकारिता कर रहे लोगों के लिए अभ्यास करने का ये कितना अच्छा मौका हो सकता है कि वे सिस्टम में रहकर सिस्टम को कैसे दुरुस्त कर सकते हैं, उनके खिलाफ बड़े ही सधे और धारदार तरीके से लिख सकते हैं। जो पढ़ाई वे पढ़ रहे हैं उसका इससे बेहतर इस्तेमाल और क्या हो सकता है कि वे इन सार मुद्दों पर सम्पादक को लगातार लिखें, बजाए इससे कि फर्जी स्टिंग और न्यूज बनाने की कलाबाजी के चक्कर में अपने को बर्बाद करें।
एक ठीक-ठाक समझदार आदमी जब बाजार जाता है तो वही खरीद कर लाता है जिसकी उसे जरुररत होती है। जरुरत है आलू की तो चीकू नहीं खरीदता। लेकिन मीडिया में समझदार आदमी भी गच्चा खा जाता है जैसे अभी दो दिन पहले गच्चा खा गए अपने डेविल्स एडवोकेट के तेजतर्रार एंकर करन थापर।
करन पिछले नौ-दस महीने से देश के सबसे सफल मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी(गुजरात) का इंटरव्यू लेने की कसरत में जुटे थे। दिसम्बर-जनवरी से ही मान-मनौअल चल रहा था कि दे दीजिए, आपसे ये नहीं पूछेंगे, वो ही पूछेंगे और अंत में मोदी रावण जलाने के दो दिन पहले सीएनएन आइबीएन की स्क्रीन पर अवतरित हुए। लेकिन करन के नौ-दस महीने की तैयारी पर मोदी ने साढ़े चार मिनट में मट्ठा घोल दिया, चार मिनट बोलने पर ही पानी की तलब हुई और पानी पीकर एकदम से बोले...न, अपनी दोस्ती बनी रहे, बस। करन पूछ रहे थे गुजरात के लिए आपने जनता से माफी मांगी. मोदी ने कहा हां. करन ने कहा एक बार फिर दुहराएंगे...मोदी का जबाब था हमें जो भी कहना था उसी समय बोल दिया। मतलब साफ था कि चैनल को जितनी मर्जी हो उतनी बार लूप चलाए, रीटेक ले, नेता आदमी स्टेटमेंट बार-बार नहीं दोहराता, बदल भले दे। मोदी ने भी वैसा ही किया।....करन कहते रह गए......मोदीजी, मोदीजी, लेकिन बिदक चुके मोदी को और रथ पर चढ़ चुके आडवाणी को भला कौन रोक सकता है, सो वे नहीं रुके।
अब देखिए, चैनल को कितनी मशक्कत करनी पड़ी होगी, इस इक्सक्यूलिसीव इंटरव्यू के लिए, लाखों का खर्चा आया होगा, कैमरायूनिट, गाडी भाड़ा वगैरह...वगैरह। लेकिन न्यूज के नाम पर साढे चार मिनट का मटेरियल, जिसमें 20-25 सेकेंड मोदीजी के पानी पीने में ही चला गया। तो क्या बाकी के समय में स्क्रीन को ब्लैक जाने दे। ऐसे कैसे हो सकता है, पैसा लगा है भइया, टीआरपी का मामला है, अब जो है उसी से मसाला निकालना है भाई...सो मसाला निकल भी आया।शाम को सीएनएन के भतीजे IBN7 पर आ गया मसाला डंके की चोट पर। अरे खबर हर कीमत पर जब बोला है तो दर्शकों से चीट थोडे ही करनी है और फिर इसको लगा डाला तो लाइफ झिंगा ला ला.... लगाकर जो बैठे हैं उनकी झंड थोडे ही करनी है। सो सीएनएन की तुरही IBN7 पर डंके में कन्वर्ट हो गयी, जिसमें दो कौडी का माल नहीं था उसे हॉट रेसेपी बना दिया, भइया इसे कहते हैं मीडिया की अक्लमंदी। एंकर और भुक्तभोगी करन लग गए लाइव ।
अविनाश भाई ने लिखा मोहल्ला पर कि क्यों असहज हुए मोदी। यही सवाल एंकर ने करन से पूछा तो करन ने बताया कि हो सकता है मोदी अंग्रेजी के कारण ऐसा हो गए। एफ.एम पर एक एड आता है...अंग्रेजी तो आती है लेकिन साले झिझक मार जाती है। यहां उल्टा हो गया। झिझक तो नहीं है लेकिन एक घड़ी के लिए करन को जरुर लगा होगा कि इंटरव्यू से बढ़िया रहता साक्षातकार करवाना. बंदा भाषा को लेकर लसक तो नहीं जाता, कहां तो न्यूज बनाने आए थे कि गुजरात दंगा नहीं जेनोसाइड, मोदी उस दौरान तटस्थ नहीं थे....वगैरह.. लेकिन न्यूज क्या बनीअंग्रेजी में लद्धड हैं मोदी। क्या करोगे, अब इसी को खपाओ।कुछ पानी पीने पर भी बात हो सकती है कि जब भी आप परेशानी महसूस करने लगें, मोदीजी की तरह बिना हिचक के मांगकर पानी पिएं, राहत मिलेगी. अंग्रेजी चैनलों को नसीहत मिलेगी कि भइया कसम खाकर मत बैठो कि सब इंगलिस में ही पूछेंगे और दिखाएंगै, मेन मुद्दा है मसाला का कि जैसे मिल जाए। यहां हिन्दी प्रेमियों को थोड़ा खुश होने का भी स्पेस है कि वे इंगलिसवालों को हिन्दी की तरफ लौटने के लिए मजबूर कर सकते ।
अच्छा, मीडिया में ये पहली दफा नहीं हुआ है कि गए थे, बाल सेट करवाने, चेहरा चमकाने और आए माथा मुड़ाकर।तुर्कमान गेट पर एक बंदा गया था शिक्षा जगत में चल रहे सेक्स रैकेट का खुलासा करने और आतंकवादी का ठप्पा लगवा लिया, फर्जीगिरी में फंस गया। न्यूज लेने गया था, आपही न्यूज बन गया। चैनल हेड को कहना पड़ गया कि हमारे रिपोर्टर ने हमें डार्क में रखा। अब चैनल की कमिटमेंट के मुताबिक- खबर हमारी फैसला आपका, जनता सोच रही है कि जिस चैनल का रिपोर्टर अपने बॉस को डार्क में रख रहा है वो चैनल तो पूरे देश को और हमको भी डार्क में रखेगा। लो भाई गए थे जिप दि ट्रूथ करने अपनी जिप और जुबान बंद करनी पड़
यही हाल हुआ देश के सबसे तेज चैनल के साथ। चैनल लालूजी से सिर्फ इतना जानना चाह रहा है कि आपने भारी घाटे की रेल को मुनाफे की रेल यानि लालू की रेल में कैसे कन्वर्ट कर दिया। चैनल को इसी पर खेलना था..तो उल्टे लालू ने पूछ दिया कि ढंडा में इ बच्चा सबको काहे बैठाए हो और डीयू कैम्पस के सबसे इन्टल बंदो से पूछ डाला, आने के लिए चैनल ने पइसा दिया है का। इ लो न्यूज कहां से कहां पहुंच गयी। इसको कहते हैं कि खाटी दही की हांडी में चूहे का मुत देना।...सो वही होता रहता है।लेकिन इतनी मेहनत से जमायी दही को फेंक तो नहीं देंगे, कढ़ी के काम आएगी।...तो न्यूज का बड़ा हिस्सा कढ़ी है..झालदार, मसालेदार। अच्छा, घर में कुछ उल्टा-पुल्टा खरीद लाए और दानी किस्म के नहीं हैं, फ्रीज नहीं है तो माल सड़ जाएगा। खबरों की दुनिया में कुछ भी बेकार नहीं जाता, सड़ता नहीं है क्योंकि यहां खाने और पचाने वालों की आबादी करोडों में है।...
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करन पिछले नौ-दस महीने से देश के सबसे सफल मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी(गुजरात) का इंटरव्यू लेने की कसरत में जुटे थे। दिसम्बर-जनवरी से ही मान-मनौअल चल रहा था कि दे दीजिए, आपसे ये नहीं पूछेंगे, वो ही पूछेंगे और अंत में मोदी रावण जलाने के दो दिन पहले सीएनएन आइबीएन की स्क्रीन पर अवतरित हुए। लेकिन करन के नौ-दस महीने की तैयारी पर मोदी ने साढ़े चार मिनट में मट्ठा घोल दिया, चार मिनट बोलने पर ही पानी की तलब हुई और पानी पीकर एकदम से बोले...न, अपनी दोस्ती बनी रहे, बस। करन पूछ रहे थे गुजरात के लिए आपने जनता से माफी मांगी. मोदी ने कहा हां. करन ने कहा एक बार फिर दुहराएंगे...मोदी का जबाब था हमें जो भी कहना था उसी समय बोल दिया। मतलब साफ था कि चैनल को जितनी मर्जी हो उतनी बार लूप चलाए, रीटेक ले, नेता आदमी स्टेटमेंट बार-बार नहीं दोहराता, बदल भले दे। मोदी ने भी वैसा ही किया।....करन कहते रह गए......मोदीजी, मोदीजी, लेकिन बिदक चुके मोदी को और रथ पर चढ़ चुके आडवाणी को भला कौन रोक सकता है, सो वे नहीं रुके।
अब देखिए, चैनल को कितनी मशक्कत करनी पड़ी होगी, इस इक्सक्यूलिसीव इंटरव्यू के लिए, लाखों का खर्चा आया होगा, कैमरायूनिट, गाडी भाड़ा वगैरह...वगैरह। लेकिन न्यूज के नाम पर साढे चार मिनट का मटेरियल, जिसमें 20-25 सेकेंड मोदीजी के पानी पीने में ही चला गया। तो क्या बाकी के समय में स्क्रीन को ब्लैक जाने दे। ऐसे कैसे हो सकता है, पैसा लगा है भइया, टीआरपी का मामला है, अब जो है उसी से मसाला निकालना है भाई...सो मसाला निकल भी आया।शाम को सीएनएन के भतीजे IBN7 पर आ गया मसाला डंके की चोट पर। अरे खबर हर कीमत पर जब बोला है तो दर्शकों से चीट थोडे ही करनी है और फिर इसको लगा डाला तो लाइफ झिंगा ला ला.... लगाकर जो बैठे हैं उनकी झंड थोडे ही करनी है। सो सीएनएन की तुरही IBN7 पर डंके में कन्वर्ट हो गयी, जिसमें दो कौडी का माल नहीं था उसे हॉट रेसेपी बना दिया, भइया इसे कहते हैं मीडिया की अक्लमंदी। एंकर और भुक्तभोगी करन लग गए लाइव ।
अविनाश भाई ने लिखा मोहल्ला पर कि क्यों असहज हुए मोदी। यही सवाल एंकर ने करन से पूछा तो करन ने बताया कि हो सकता है मोदी अंग्रेजी के कारण ऐसा हो गए। एफ.एम पर एक एड आता है...अंग्रेजी तो आती है लेकिन साले झिझक मार जाती है। यहां उल्टा हो गया। झिझक तो नहीं है लेकिन एक घड़ी के लिए करन को जरुर लगा होगा कि इंटरव्यू से बढ़िया रहता साक्षातकार करवाना. बंदा भाषा को लेकर लसक तो नहीं जाता, कहां तो न्यूज बनाने आए थे कि गुजरात दंगा नहीं जेनोसाइड, मोदी उस दौरान तटस्थ नहीं थे....वगैरह.. लेकिन न्यूज क्या बनीअंग्रेजी में लद्धड हैं मोदी। क्या करोगे, अब इसी को खपाओ।कुछ पानी पीने पर भी बात हो सकती है कि जब भी आप परेशानी महसूस करने लगें, मोदीजी की तरह बिना हिचक के मांगकर पानी पिएं, राहत मिलेगी. अंग्रेजी चैनलों को नसीहत मिलेगी कि भइया कसम खाकर मत बैठो कि सब इंगलिस में ही पूछेंगे और दिखाएंगै, मेन मुद्दा है मसाला का कि जैसे मिल जाए। यहां हिन्दी प्रेमियों को थोड़ा खुश होने का भी स्पेस है कि वे इंगलिसवालों को हिन्दी की तरफ लौटने के लिए मजबूर कर सकते ।
अच्छा, मीडिया में ये पहली दफा नहीं हुआ है कि गए थे, बाल सेट करवाने, चेहरा चमकाने और आए माथा मुड़ाकर।तुर्कमान गेट पर एक बंदा गया था शिक्षा जगत में चल रहे सेक्स रैकेट का खुलासा करने और आतंकवादी का ठप्पा लगवा लिया, फर्जीगिरी में फंस गया। न्यूज लेने गया था, आपही न्यूज बन गया। चैनल हेड को कहना पड़ गया कि हमारे रिपोर्टर ने हमें डार्क में रखा। अब चैनल की कमिटमेंट के मुताबिक- खबर हमारी फैसला आपका, जनता सोच रही है कि जिस चैनल का रिपोर्टर अपने बॉस को डार्क में रख रहा है वो चैनल तो पूरे देश को और हमको भी डार्क में रखेगा। लो भाई गए थे जिप दि ट्रूथ करने अपनी जिप और जुबान बंद करनी पड़
यही हाल हुआ देश के सबसे तेज चैनल के साथ। चैनल लालूजी से सिर्फ इतना जानना चाह रहा है कि आपने भारी घाटे की रेल को मुनाफे की रेल यानि लालू की रेल में कैसे कन्वर्ट कर दिया। चैनल को इसी पर खेलना था..तो उल्टे लालू ने पूछ दिया कि ढंडा में इ बच्चा सबको काहे बैठाए हो और डीयू कैम्पस के सबसे इन्टल बंदो से पूछ डाला, आने के लिए चैनल ने पइसा दिया है का। इ लो न्यूज कहां से कहां पहुंच गयी। इसको कहते हैं कि खाटी दही की हांडी में चूहे का मुत देना।...सो वही होता रहता है।लेकिन इतनी मेहनत से जमायी दही को फेंक तो नहीं देंगे, कढ़ी के काम आएगी।...तो न्यूज का बड़ा हिस्सा कढ़ी है..झालदार, मसालेदार। अच्छा, घर में कुछ उल्टा-पुल्टा खरीद लाए और दानी किस्म के नहीं हैं, फ्रीज नहीं है तो माल सड़ जाएगा। खबरों की दुनिया में कुछ भी बेकार नहीं जाता, सड़ता नहीं है क्योंकि यहां खाने और पचाने वालों की आबादी करोडों में है।...
दिल्ली यूनिवर्सिटी के हेल्थ सेंटर के सामने भारी भीड़। देखकर अच्छा लगा कि चलो सरकारी विज्ञापन का असर हुआ है, लोग पोलियो का टीका और एचआईवी की जांच कराने आए हैं। लेकिन मन में दुविधा भी कि अचानक इतने लोग जागरुक कैसे हो गए। नजदीक जाकर देखा तो एक भी बच्चा टीका लेने की उम्र का नहीं था और न ही कोई युवा साथी और स्त्रियां जिसे देखकर लगे कि वे अपनी जांच कराने आए हैं। चारो तरफ से लोग घिरे हैं और बीच में कुछ हलचल जारी है। पता किया तो मालूम हुआ कि रात में माता जागरण है, अभी इसलिए रामकचौड़ी बांटा जा रहा है। दिल्ली आकर रामकचौड़ी का इतिहास जानने की इच्छा बराबर बनी रही है कि राम कचौडी राम ने वनवास जाने से पहले खाया था या फिर वनवास से लौटकर। इस कचौडी को कहीं माता सीता ने वनवास में ही तो नही बनाया था, रावण के आने के पहले। लेकिन यहां ये सवाल पूछना ठीक नहीं था,मार हो सकती थी, दंगा भड़कने का खतरा था। क्योंकि भीड़ में दो ही तरह के लोग शामिल थे, एक जिसे कि किसी पंडित ने बताया कि मजबूरों को रामकचौड़ी खिलाओ,पाप कटेगा और दूसरे वे लोग जिनका दोपहरे के खाने दस रुपये बच जाते और इस बीच अगर मैं कुछ करता तो दोनों भड़क जाते क्योंकि हिन्दुस्तान में भूख और पाप से मुक्ति सबसे बड़ा मुद्दा है। और जहां यहां अंगूठा डाला तो फिर खैर नहीं। ये भी डर था कि जहां मुद्दा छेड़ा कि कम्मीटेड रामभक्त कलेम न करने लगे कि यहीं थी सीता रसोई और यहीं पर बनी थी देश की पहली राम कचौडी, अब कौन लड़े इनसे जब सरकार पार पा ही नहीं रही हो तो फिर अपना कहां बस है। लेकिन मन में सवाल भी कि पूरी दिल्ली छोड़कर इसे सबसे सही जगह हमारी यूनिवर्सिटी ही लगी।
मैं जब रांची, झारखंड में था तो अपने कॉलेज के साथियों के साथ छठ पूजा के दिनों में बोरा और खाली डिब्बा लेकर रोड़ के दोनों ओर खड़े हो जाते, डैम में सूर्य को अर्घ्य देकर लौटते और हमारे बोरे और डिब्बों में प्रसाद के तौर पर ठेकुआ डालते जाते। पन्द्रह- बीस दिनों तक वही हमारा नाश्ता होता। मेरे साथ कई इसाई और आदिवासी साथी भी होते जो सालोंभर हिन्दुओं के कर्मकांड को खूब गरियाते, मूर्ति पूजा का विरोध करते और इस गरज से भी कि मैं चिढ़ जाउंगा लेकिन उनके साथ जब मैं भी गरियाने लगता तो आमीन..आमीन बोलकर चले जाते। प्रसाद जमा करने का ये तरीका चार साल तक चला। लड़कियां हमें बड़े प्यार से प्रसाद देती कि जेबेरियन होकर हमसे प्रसाद मांग रहे हैं।
लेकिन दिल्ली में तो नजारा ही कुछ और है, ऐसे पब्लिक प्लेस में खड़े होकर मांगना, कोई सोच भी कैसे सकता है। मेरा बार-बार मन हो रहा था कि लग जाउं लाइन में लेकिन हर दो मिनट पर पहचान का दिख जाता, अंत में सोचा देखे तो देख ले अपन तो आज खाएंगे ही रामकचौड़ी।
फिर डर लगा अपने मीडिया साथियों से कि आकर बाइट लेंगे, पूछेंगे कि कैसा लग रहा है रामकचौडी खाने में। अच्छा ये बताइए, आप रिसर्चर लोग सिर्फ यहीं खाते हैं या फिर पेशेवर लंगर, आई मीन कितने साल का अनुभव है। और तब फिर अपने दर्शकों से कहती .....तो आप देख रहे हैं कि डीयू में लगे इस लंगर में न केवल मजबूर लोग शामिल हैं बल्कि रिसर्चर भी खूब मजे ले रहे हैं। कई दुविधाएं लेकिन निबट लेंगे सबसे और इनकी तो मैं ब्लॉग लिखकर भड़ास निकाल लूंगा।... लग गया लाइन में । पीछे से आवाज आई क्यों भाई पैसा मिलना शुरु नहीं हुआ है , अरे डॉक्टर साहब गाइड का नाम डूबाइएगा क्या, यही बचा था करने के लिए पढ़-लिखकर चुतियापा। एक ने कहा, कल ही दू गो लक्स के गंजी लिए हैं, कटोरा फ्री दिया है, आके ले जाइएगा। अपने एक साथी ने कहा स्साला इंटल बन रहा है। देखा एक रिक्शेवाले की नजर मेरे उपर लगातार बनी है, सोच रहा होगा कि भागा हुआ सिरफिरा है, आंखों में चमक आती जा रही थी उसकी कि इत्तला करने पर सरकार जरुर इनाम देगी।....सब झेल गया
लेकिन अचानक अपनी मॉडल गीतांजलि की याद आ गयी और सोचा कि कल को लेक्चरर की इंटरव्यू के लिए गया और जहां मुझे देखते ही गुरुजी के विरोधी खेमेवाले मास्टर साहब ने चिल्ला दिया कि बहाली लेक्चरर की होनी है या पागल की, तब तो अपनी बत्ती लग गयी। धीरे से दोना लिया, टप्परवेयर की टिफिन निकाली, उसमें रामकचौड़ी डाली और स्पिक मैके की कैंटिन में हर्बल टी के साथ लेकर बैठ गया...मन में यही सोच रहा था कि थैंक गॉड, अपने झारखंडी साथी ने नहीं देखा नहीं तो उसे जाकर बताता कि विनीत तो भीख मांगकर अपना काम चलाता है, कर्जा में डूबा है, सारे पैसे चुकाने में चले जाते। यूजीसी नेट के लिए अभी दस दिन से ही तो आने लगी है अपने पास....
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मैं जब रांची, झारखंड में था तो अपने कॉलेज के साथियों के साथ छठ पूजा के दिनों में बोरा और खाली डिब्बा लेकर रोड़ के दोनों ओर खड़े हो जाते, डैम में सूर्य को अर्घ्य देकर लौटते और हमारे बोरे और डिब्बों में प्रसाद के तौर पर ठेकुआ डालते जाते। पन्द्रह- बीस दिनों तक वही हमारा नाश्ता होता। मेरे साथ कई इसाई और आदिवासी साथी भी होते जो सालोंभर हिन्दुओं के कर्मकांड को खूब गरियाते, मूर्ति पूजा का विरोध करते और इस गरज से भी कि मैं चिढ़ जाउंगा लेकिन उनके साथ जब मैं भी गरियाने लगता तो आमीन..आमीन बोलकर चले जाते। प्रसाद जमा करने का ये तरीका चार साल तक चला। लड़कियां हमें बड़े प्यार से प्रसाद देती कि जेबेरियन होकर हमसे प्रसाद मांग रहे हैं।
लेकिन दिल्ली में तो नजारा ही कुछ और है, ऐसे पब्लिक प्लेस में खड़े होकर मांगना, कोई सोच भी कैसे सकता है। मेरा बार-बार मन हो रहा था कि लग जाउं लाइन में लेकिन हर दो मिनट पर पहचान का दिख जाता, अंत में सोचा देखे तो देख ले अपन तो आज खाएंगे ही रामकचौड़ी।
फिर डर लगा अपने मीडिया साथियों से कि आकर बाइट लेंगे, पूछेंगे कि कैसा लग रहा है रामकचौडी खाने में। अच्छा ये बताइए, आप रिसर्चर लोग सिर्फ यहीं खाते हैं या फिर पेशेवर लंगर, आई मीन कितने साल का अनुभव है। और तब फिर अपने दर्शकों से कहती .....तो आप देख रहे हैं कि डीयू में लगे इस लंगर में न केवल मजबूर लोग शामिल हैं बल्कि रिसर्चर भी खूब मजे ले रहे हैं। कई दुविधाएं लेकिन निबट लेंगे सबसे और इनकी तो मैं ब्लॉग लिखकर भड़ास निकाल लूंगा।... लग गया लाइन में । पीछे से आवाज आई क्यों भाई पैसा मिलना शुरु नहीं हुआ है , अरे डॉक्टर साहब गाइड का नाम डूबाइएगा क्या, यही बचा था करने के लिए पढ़-लिखकर चुतियापा। एक ने कहा, कल ही दू गो लक्स के गंजी लिए हैं, कटोरा फ्री दिया है, आके ले जाइएगा। अपने एक साथी ने कहा स्साला इंटल बन रहा है। देखा एक रिक्शेवाले की नजर मेरे उपर लगातार बनी है, सोच रहा होगा कि भागा हुआ सिरफिरा है, आंखों में चमक आती जा रही थी उसकी कि इत्तला करने पर सरकार जरुर इनाम देगी।....सब झेल गया
लेकिन अचानक अपनी मॉडल गीतांजलि की याद आ गयी और सोचा कि कल को लेक्चरर की इंटरव्यू के लिए गया और जहां मुझे देखते ही गुरुजी के विरोधी खेमेवाले मास्टर साहब ने चिल्ला दिया कि बहाली लेक्चरर की होनी है या पागल की, तब तो अपनी बत्ती लग गयी। धीरे से दोना लिया, टप्परवेयर की टिफिन निकाली, उसमें रामकचौड़ी डाली और स्पिक मैके की कैंटिन में हर्बल टी के साथ लेकर बैठ गया...मन में यही सोच रहा था कि थैंक गॉड, अपने झारखंडी साथी ने नहीं देखा नहीं तो उसे जाकर बताता कि विनीत तो भीख मांगकर अपना काम चलाता है, कर्जा में डूबा है, सारे पैसे चुकाने में चले जाते। यूजीसी नेट के लिए अभी दस दिन से ही तो आने लगी है अपने पास....
नेता तो हूं नहीं कि सफाई देता फिरुं फिर भी लेडिस पर लगातार लिखने से यदि हमारे ब्लॉगर साथी को तकलीफ हुई है तो माफ करें, यकीन मानिए मेरा विरोध न तो मीडिया से है, पहले भी कहा था अब भी कह रह रहा हूं कि क्या पता फिर से यहीं लौटना पड़े और न ही लड़कियों और स्त्री-समाज को लेकर मन में कोई दुर्भावना। मैं तो हिन्दी के बीच के सडांध पर भी लगातार लिख रहा हूं और वहां कोई लेडिस नहीं हैं। मैं तो बस मीडिया के बदलते चरित्र पर चिंता जाहिर कर रहा हूं जैसा कि आप सब कर रहे हैं, हां इतना जरुर हुआ है कि नया-नया लौटा हूं तो बेबाकी ज्यादा है। अब आगे पढिए
अपने तीन-चार पोस्ट में मैंने लगातार लेडिस के उपर लिखा, कमेंट्स भी आए कि सही जा रहे हो गुरु लेकिन कल जो एक कमेंट्स आया उस पर मैं नये सिरे से विचार करने लगा। हमारी साथी neelima sukhija arora ने कहा
क्या विनीत जी,आप तो हाथ क्या पैर मुंह सब कुछ धोकर लेडिस लोग के पीछे पड़ गए। अरे भाई आप जिस मीडिया के दर्शन करके सरकारी दामाद बन कर लौटे हैं, वो मीडिया मीडियोकर लोगों के लिए हैं। हम आप जैसे लोगों के लिए बिलकुल नहीं जो कि हर हाल में खुश रहने वाले हैं। मैं लगातार आपके बलॉग को पढ़ रही हैं अरे लेडिस लोग से कौनो गलती हुई गवा है क्या, काहे उनको मीडिया से बाहर कराने के पीछे पड़े हैं। जानते हैं ना मीडिया में इ सब जेन्टलमेन ही हैं जिन्होंने लड़कियों को यह बतायाहै कि हमारे साथ रहोगी तो ऐश करोगी। कम मेहनत मं बहुत आगे तक जाओगी। तब हमारे जैसे लोगों को कहां भेजिएगा जो इन बातों पर अपनी नौकरी को लात मार आते हैं। फिर भी मीडिया में जमें हैं , बस इतना ही तो है कि थोड़ा पैसा कम मिलता है, काम भी करना पड़ता है, तो भैया इसीलिए तो मीडिया में आए हैं ना। मीडिया से इतनी खुश्की अच्छी नहीं , सब जगह सब लोग एक से नहीं
नीलिमा ने मेरे पोस्ट का जो मतलब निकाला वो ये कि--
- मैं लेडिस के पीछे जान धोकर पीछे पड़ गया हूं, मैं उन्हें मीडिया से बाहर निकलवाकर दम लूंगा।
-मैं मीडिया का कुछ ज्यादा ही विरोध कर रहा हूं।
- मैं जहां का अनुभव आपसे शेयर कर रहा हूं वो मीडिया नहीं मीडियोकर की दुनिया है, मीडिया में अच्छे लोग भी हैं और अपनी शर्तों पर काम कर रहे हैं। मेरा ध्यान उन लोगों की तरफ नहीं है।
- मैं मीडिया का दर्शन करके लौटा हूं और अब सरकारी दामाद गया।
लगे हाथ साथी अरविंद चतुर्वेदी ने भी समझा दिया -
इतना ही कहूंगा कि भैया ज्यादा चिढो मत लेडीस के नाम पे. पंचों उंगलियां बराबर नही ना होती ।
मेरे अब तक के पूरे पोस्ट में कभी भी लड़की, महिला या स्त्री शब्द का प्रयोग नहीं है और न ही लेडिज का। क्योंकि मुझे हमेशा लगा कि ऐसा करके लिखने से मीडिया में काम कर रही हमारी सारी साथियों पर व्यंग्य होगा और फिर सब को एक तरह से कैसे मान लिया जाए।अरविन्दजी ने ठीक ही कहा कि पांचों उगलियां एक जैसे नहीं होते और फिर होने की जरुरत भी क्या है। चैनल के भीतर जो बिना बहुत मेहनत किए,रिपोर्टिंग में रगड़े, रातोंरात चमकना चाहती हैं उसके लिए अक्सर हमलोग एंकर आइटम शब्द का प्रयोग किया करते और ये शब्द भी मुझे अपनी एक साथी ने ही बताया। यहां उसे मैंने लेडिस कहा, आइटम शब्द पर मुझे आपत्ति रही है।
मेरी कई दोस्त IIMC की अच्छी खासी स्टूडेंट रही है लेकिन नीलिमा आप जो बात कर रही हैं न लात मारनेवाली और बने रहने वाली हमारी उस दोस्त ने वैसा ही कुछ किया। लेकिन अभी नयी-नयी आयी थी इस फील्ड में , काम करना चाहती थी,घर में जबाब भी तो देना पड़ता है कि इतनी मोटी फीस देकर भी बेकार हो गयी, कुछ उसकी आर्थिक मजबूरी भी थी। उस लड़की को भाई लोगों ने सीखने के नाम पर पांच महीने तक फीड पर बिठाया। लगातार रोज आठ से दस घंटे तक सिर्फ टेप बदलने का काम। कई बार हमलोगों के पास आई, रोयी और चैनल बदलने के लिए छटपटाती रही, हमलोगों के साथ की कई लड़कियां रिपोर्टर बनती जा रही थी और फीड पर बैठी वो लड़की छीजती चली जा रही थी। यही हाल अंग्रेजी से एम.ए कर IIMC से मास कॉम करके आयी एक दूसरी साथी की थी। उस लड़की का काम लोगों का सिर्फ फोन रिसीव करना था, तीन महीने उसने वही किया और हमेशा कहती, दोस्त मैं क्या सोचकर मीडिया मे आयी थी और क्या कर रही हूं और वो सब भी सीखने के नाम पर,बहुत थोड़े पैसे पर। इसलिए लेडिस-लेडिस बोलकर मैंने एक खास किस्म की मानसिकता वाली लड़कियों की छवि समझने की कोशिश की है और अरविंद भाई मुझे उनसे कभी परेशानी नहीं रही क्योंकि अपने को रगड़ने के लिए ही इस फील्ड में आया था, भीतर आत्मविश्वास था कि अगर ये मेरी क्षमता नहीं समझेंगे तो कोई और परख लेगा, दम तक रगड़ो अपने को।साथी नीलिमा मुझे कभी भी दुख इस बात का नहीं रहा कि हमसे बहुत कम काम करके ये लेडिस आगे बढ़ रही है, बल्कि लगातार इस बात का अफसोस रहा कि लड़की जो मेहनत करके अपना एक पोजीशन बनाना चाह रही है, उसके लिए ये लेडिस कितना खतरा पैदा कर रही है, जिसने कभी कोई स्क्रिप्ट नहीं लिखी और जिसकी स्टोरी को बॉस हमें टाइपराइटर की तरह टाइप करने के लिए पकड़ा जाता, जिस लेडिस की योग्यता पर पूरी क्लास कोसती रही, हमलोग समझाते रहे कि कुछ पढ़ लो मैडम, अब हमारा काम रह गया था उसकी स्टोरी को टाइप करना, आप सोच सकती हैं कैसा लगता होगा हम सबको ऐसा करना। समझ लो रोज-रोज मरने जैसा होता था ये
आप यकीन मानिए मीडिया क्या किसी भी फील्ड में लड़कियों को ज्यादा स्पेस या अवसर देने के नाम पर सिर्फ बाजार मिला है, समाज नहीं. हमारी लड़ाई उसे सामाजिक हैसियत दिलाने के लिए जारी है। एक ऐसी लड़की के लिए लगातार संघर्ष जो चाहती है कि सिर्फ और सिर्फ अपनी योग्यता के दम पर कुछ हासिल करे, लड़की होने पर नहीं और आपका कमेंट्स पढ़कर हौसला और मजबूत हुआ है कि काफी हद तक इसकी गुंजाइश भी है। नहीं तो चैनल के भीतर तो मानसिकता तेजी से पनप रही है कि अगर कोई लड़की डेस्क से रिपोर्टिंग में और रिपोर्टिंग से एंकरिंग में आ जाती है तो कानाफूसी शुरु हो जाती है। माफ कीजिएगा ऐसा लेडिस के ही कारण हुआ
कल ही देखिए न, एक लेडिस ने एसएमएस किया जिससे मेरी बातचीत लम्बे समय से बंद थी, इन्टर्नशिप के दौरान ही हम साथियों के साथ कम बॉस लेबल के साथ उठना-बैठना ज्यादा था। बहुत अधिक मीडिया की समझ भी नहीं लेकिन हां मीडिया की( आज के हिसाब से) तमाम उंचाइयों को लांघने की लगातार कोशिश। उसने बताया कि मेरा 1.30 का बुलेटिन देखो। वो जिस चैनल में काम कर रही थी सरकार ने फर्जी स्टिंग ऑपरेशन और फर्जी नाम के आरोप में एक महीने के लिए प्रसारण पर रोक लगा दी थी। मैंने चैनल का नाम पूछा कि कहां देखूं। उसने बताया कि चैनल फिर से शुरु हो गया है और वो एंकरिंग करने लगी है। इस बीच एक-दो साथियों से बातचीत हुई और मैंने जिक्र किया कि क्या कर रही हो तुमलोग, देखो वो तो एंकर बन गई। देखिए बिना कोई लाग-लपेट के एक लड़की की टिप्पणी थी ......विनीत तुमसे कुछ छिपा थोड़े ही है, हमें नहीं बनना है एंकर। नीलिमाजी हम इसी मानसिकता को ध्वस्त करने के लिए लेडिस पर लगातार चोट कर रहे हैं।.....
मीडिया लाइन में लेडिस का चक्कर बहुत होता है। भाई लोग बताते हैं कि अगर इससे निपट लिए गुरु तो इस्टेवलिश होने में कौनो दिक्कत नहीं है। लंगोट के कच्चे आदमी के लिए तो ये फील्ड है ही नहीं, लेकिन हां मीडियागिरी छोड़कर कुछ और करने आएं हैं तब तो भइया सही लाइन पकड़े हो। जब तक इन्टर्न या ट्रेनी हैं हमउम्रवाली लेडिस के साथ भावुक रहिए कि जाने दे यार जैसा बॉस बोलते हैं वैसा कर, एक बार बॉस को तेरी तलब लग गई, मेरा मतलब है तुम्हारा काम अच्छा चल निकला तो फिर नचाना, थोड़ी बड़ी है तो मैम, मैम बोलकर आगे पीछे कर लो, कभी तो मतलब की बात हो जाएगी, और बहुत बड़ी है तुमसे और ओल्ड इज गोल्ड संप्रदाय से आते हो तब तो भइया मौज है, टिफिन भी खिलाती है। और अगर दो-तीन साल रह गए तो फिर बॉस हो गए। मीडिया में डेजिग्नेशन, सैलरी और पोजीशन खर-पतवार की तरह तेजी से बढ़ते हैं। उस समय लेडिस लोग को बताओ कि बाइट कैसे लेते हैं और स्क्रिप्ट कैसे लिखते हैं और फिर....। वैसे भी मीडिया हिन्दी विभाग तो है नहीं कि एक बार लेडिस का हाथ तुमसे छू जाए तो घर जाकर चश्मागोला साबुन से पांच बार हाथ धोए या फिर दो-चार बार हंस बोल दिए तो दीदी बोलने पर मजबूर कर दे। अपना तो अनुभव रहा है कि जब भी किसी हिन्दीवाली लेडिस को थोड़ा टाइम दिया हूं, दो-तीन दिन बाद ही बोलने लगती है कि कल डगमगपुर से लड़केवाले देखने आ रहे हैं। मतलब साफ होता है, बेरोजगार हो, जाकर बाबूजी से हाथ मांग नहीं सकते तो फिर इस तरह हमारे साथ कटा क्यों रहे हो। मीडिया में तो किसी न किसी लेबल पर आधे से ज्यादा लेडिस असंतुष्ट मिल जाएगी और वहीं भिड़ाओ अपना मामला। लेकिन इस बात का फंड़ा हमेशा क्लियर रखें कि कभी विपत स्थिति आ जाए और निकाल दिए जाएं तो कहां जाओगे। क्योंकि महीने दो महीने में ये बात सुनने में आ ही जाती है कि फलां को फलां चैनल से निकाल दिया गया,वजह वही लंगोट का कच्चापन।
ये लंगोट का कच्चापन वाला मामला बहुत सीरियस है, इस पर बात होनी चाहिए। एक बात का दावा करता हूं कि अगर आप नहीं हो ऐसे तो भी बॉस लोग एक्सपर्ट कर देंगे। उनको तो डर होगा कि जिस लेडिस को इसके साथ लगाए हैं कहीं लेडिस इसी से लसक न जाए इसलिए उसके सामने बार-बार कहेंगे कि बच्चा है, बहुत इनोसेंट है। भइया खुश मत होना, वो तुम्हारा पत्ता साफ करने में लगे हैं, सीधा कहकर तुम्हारे स्मार्टनेस पर कालिख पोत रहे हैं। लेकिन सीखने-समझने का मौका यहीं से मिलेगा।
जरा सीखिए कुछ हमारे अनुभव से।
2007 का बजट। हमारे बॉस ने भेजा एक बॉस के साथ फिक्की ऑडिटोरियम। रास्ते में मैंने पूछा, सर वहां जाकर हमें काम क्या करना होगा, वैसे भीतर से खुश भी था कि पहली बार बिजनेस और इकॉनामी से जुड़े बड़ी हस्तियों से मिलने का मौका मिलेगा।....वहां जाकर हमें करना बस इतना था कि लिस्ट के हिसाब से गेस्ट को लाकर अपने चैनल सेट पर बिठाना था।.....अभी दो-चार बार ही ऐसा किया था कि एक इंग्लिश चैनल की लेडिस बॉस के पास आई, सुंदर थी, थी क्या अभी भी टीवी पर दिखती है और सच बोले तो हिन्दी चैनल में काम करने वाले को इंग्लिश चैनल की कोई भी लडिस बेकार नहीं लगती और कुछ-कुछ बोली। मैं सिर्फ इतना समझ पाया कि मेरे जैसा कोई इन्टर्न उनके साथ नहीं है, उनके पास नहीं है सो वो परेशान है। बॉस ने कहा....यार जो गेस्ट अपने यहां से जाए उसे सीधा मैडम के पास ले आओ और सुनो मैडम के आसपास ही रहना। मैडम ने मुस्कराते हुए पूछा और तुम्हारा काम। बॉस ने कहा अरे, सब हो जाएगा, लेडिस हो साथ चला जाएगा।...
कथा संख्या- दो
अब मैं इन्टर्न नहीं रह गया था, किसी दूसरे चैनल में रिपोर्टिंग पर जाने लगा था। एक सुसाइड केस में उत्तमनगर जाना हुआ। जोश था कि जिस स्टोरी के लिए जाता, लगता अबकी ब्रेंकिंग तो मैं ही करूंगा। सो सबसे पहले पहुंच गया, खूब ध्यान से सब कुछ कवर किया। धीरे-धीरे बाकी चैनल आ गए। हकीकत जैसी खबर वैसी के साथ एक लेडिस थी, पहले तो लगा स्टोरी कवर करने आयी है लेकिन उसके हाव-भाव से लगा कि बॉस के साथ आयी है, इन्टर्न है, समझने आयी है कि कैसे स्टोरी कवर की जाती है, लेट हो गयी थी। जिस बात को वर्तमान काल की क्रिया लगाकर पूछ रही थी अब वो भूतकाल क्रिया में होना चाहिए था। बॉस ने कहा था कि सबगकुछ नोट कर लो। मुझे काम करते हुए देखा तो लगा कि फास्ट है और इनोसेंट भी। इनोसेंट का मतलब तो आप समझ ही रहे होंगे। सो मेरे पास उस लेडिस को भेज दिया कि जाओ सबकुछ नोट कर लो। उसका बॉस जानता था कि लेडिस है ,दे ही देगा.......
अब लेडिस से कटाने की लत ऐसी पड़ी है कि वापस रिसर्च में आकर कोई जी लगाकर बोलती है तो लगता है बुढ़ा गया हूं।
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ये लंगोट का कच्चापन वाला मामला बहुत सीरियस है, इस पर बात होनी चाहिए। एक बात का दावा करता हूं कि अगर आप नहीं हो ऐसे तो भी बॉस लोग एक्सपर्ट कर देंगे। उनको तो डर होगा कि जिस लेडिस को इसके साथ लगाए हैं कहीं लेडिस इसी से लसक न जाए इसलिए उसके सामने बार-बार कहेंगे कि बच्चा है, बहुत इनोसेंट है। भइया खुश मत होना, वो तुम्हारा पत्ता साफ करने में लगे हैं, सीधा कहकर तुम्हारे स्मार्टनेस पर कालिख पोत रहे हैं। लेकिन सीखने-समझने का मौका यहीं से मिलेगा।
जरा सीखिए कुछ हमारे अनुभव से।
2007 का बजट। हमारे बॉस ने भेजा एक बॉस के साथ फिक्की ऑडिटोरियम। रास्ते में मैंने पूछा, सर वहां जाकर हमें काम क्या करना होगा, वैसे भीतर से खुश भी था कि पहली बार बिजनेस और इकॉनामी से जुड़े बड़ी हस्तियों से मिलने का मौका मिलेगा।....वहां जाकर हमें करना बस इतना था कि लिस्ट के हिसाब से गेस्ट को लाकर अपने चैनल सेट पर बिठाना था।.....अभी दो-चार बार ही ऐसा किया था कि एक इंग्लिश चैनल की लेडिस बॉस के पास आई, सुंदर थी, थी क्या अभी भी टीवी पर दिखती है और सच बोले तो हिन्दी चैनल में काम करने वाले को इंग्लिश चैनल की कोई भी लडिस बेकार नहीं लगती और कुछ-कुछ बोली। मैं सिर्फ इतना समझ पाया कि मेरे जैसा कोई इन्टर्न उनके साथ नहीं है, उनके पास नहीं है सो वो परेशान है। बॉस ने कहा....यार जो गेस्ट अपने यहां से जाए उसे सीधा मैडम के पास ले आओ और सुनो मैडम के आसपास ही रहना। मैडम ने मुस्कराते हुए पूछा और तुम्हारा काम। बॉस ने कहा अरे, सब हो जाएगा, लेडिस हो साथ चला जाएगा।...
कथा संख्या- दो
अब मैं इन्टर्न नहीं रह गया था, किसी दूसरे चैनल में रिपोर्टिंग पर जाने लगा था। एक सुसाइड केस में उत्तमनगर जाना हुआ। जोश था कि जिस स्टोरी के लिए जाता, लगता अबकी ब्रेंकिंग तो मैं ही करूंगा। सो सबसे पहले पहुंच गया, खूब ध्यान से सब कुछ कवर किया। धीरे-धीरे बाकी चैनल आ गए। हकीकत जैसी खबर वैसी के साथ एक लेडिस थी, पहले तो लगा स्टोरी कवर करने आयी है लेकिन उसके हाव-भाव से लगा कि बॉस के साथ आयी है, इन्टर्न है, समझने आयी है कि कैसे स्टोरी कवर की जाती है, लेट हो गयी थी। जिस बात को वर्तमान काल की क्रिया लगाकर पूछ रही थी अब वो भूतकाल क्रिया में होना चाहिए था। बॉस ने कहा था कि सबगकुछ नोट कर लो। मुझे काम करते हुए देखा तो लगा कि फास्ट है और इनोसेंट भी। इनोसेंट का मतलब तो आप समझ ही रहे होंगे। सो मेरे पास उस लेडिस को भेज दिया कि जाओ सबकुछ नोट कर लो। उसका बॉस जानता था कि लेडिस है ,दे ही देगा.......
अब लेडिस से कटाने की लत ऐसी पड़ी है कि वापस रिसर्च में आकर कोई जी लगाकर बोलती है तो लगता है बुढ़ा गया हूं।
उधर से एक लेडिस का फोन आया- हैलो...मैं न्यूज चैनल से बोल रही हूं। आप विनीत हैं न, ये नंबर मुझे आपके एक दोस्त से मिला । दरअसल हमलोग एक टॉक शो करवाने जा रहे हैं....आप ऑडिएंस के तौर पर आ सकते हैं। मैं भी मुलायम होते हुए पूछा, कब आना है। लेडिस को लगा मामला बन गया है, मेरे सवाल का जबाब दिए बगैर दूसरी बात छेड़ दी। आप हॉस्टल में रहते हैं तो मैंने अपने बॉस को बता दिया है कि आप कम से कम दस और लोगों को लाएंगे। मैं भी थोड़ा खेलने का मन बना लिया जो कि मैं मीडिया के मामले में कभी नहीं करता...कुछ भी है तो अपना ही मोहल्ला, क्या पता फिर से लौटने की मजबूरी बन आए।...लेकिन मैंने पूछा, मैडम आने पर क्या-क्या मिलेगा। बोली डिनर पैकेट मिलेगा और आने- जाने के लिए अगर आप दस के साथ आएंगे तो तवेरा गाड़ी। मेरे मन में अपने रिसर्चर दोस्तों के लिए गाली याद आयी कि ले बेटा, देख अपनी औकात। कहते हो अपन क्रीमीलेयर से वीलांग करते हैं और ये मैडम अपनी औकात बंगाली मार्केट के सडियल डिनर पैकेट से ज्यादा नहीं लगा रही है। और तवेरा से लाने ले जाने की बात कर रही है। और लड़ो बस पास के लिए और जाओ 621 में लटककर आरकेपुरम। मैंने पहले ही कहा था कि सालों सरकार अपन को रिसर्च करने के लिए ठीकठाक पैसे दे रही है, मैडम से भी ज्यादा, उतने पैसे के लिए मैडम को पता नहीं कितने लेबल के बॉसों से मीटिंग करनी पड़ जाए, हुलिया सुधार लो लेकिन, तुमलोग नहीं माने। अब भुगतो, अपनी औकात बस इतनी है कि चैनल की पीली नंबर प्लेटवाली गाडी में जाएं, उनके स्टूडियो की शोभा बढाएं, हमारे जाने से स्टूडियो भरा-भरा लगे, एकाध सवाल करें जिसे लेकर एंकर खेल जाए और दमभर फ्लैश चलाए कि देश के रिसर्चर ऐसा सोचते हैं, ये है डीयू, जेएनयू के लोगों की राय। इतना होने पर मैं तुरंत फ्लैशबैक में चला गया। अपने इन्टर्नशिप के दौरान जब भी भीड़ की जरुरत होती थी अपने दोस्तों को बुला लेता, तब मेरे दोस्त इस वीहाफ पर आ जाते कि विनीत अगर ज्यादा से ज्यादा भीड़ जुटाएगा तो हो सकता है, चैनल वाले उसे वहीं रख लें, अक्सर आ जाया करते थे बुलाने पर। लेकिन बाद में मैंने महसूस किया कि चैनल के भीतर मेरी पहचान एक ऐसे इन्टर्न के रुप मे हो रही है जो कि भीड़ जुटाने का काम करता है और वो भी ऐसी-वैसी भीड़ नहीं, सब अपने सबजेक्ट के टॉपर और परसुइंग पीएचडी। मेरे और किसी काम की चर्चा नहीं होती। इधर दोस्त भी मुझसे कटने लगे, शुरु-शुरु में तो उन्हें वो सब अच्छा लगता लेकिन उन्हें खुन्नस दो बातों पर आयी थी। एक तो सवाल वे जो पूछना चाहते थे, उसकी बजाए पर्ची पर पहले से लिखा सवाल उन्हें पकड़ा दिया गया था, उन्हें धक्का लगा कि सवाल पूछने के लिए ही तो हम रिसर्चर पैदा किए गए हैं, सवाल चाहे गाइड से हो, प्रशासन से या फिर सरकार से और यहां हमारे इस अधिकार को ही हमसे छीन लिया जा रहा है।..औऱ दूसरी बात कि ले गए थे बोलकर नेशनल चैनल के लिए लेकिन जब मौका आया तो नेशनल पर एयर होस्टेस का कोर्स कर रही लेडिसों को बिठा दिया और अपन दोस्तों को एनसीआर के लिए रोक लिया। यहां भी स्टेटस को लेकर तमाचा। खैर, छ: बजे का पैक किया डिनर खराब हो चुका था और मेरे सारे साथी बहुत ही भूखे थे। मुझे बहुत ही तकलीफ हुई और सबको माल रोड में लाकर पराठे खिलाए।......
ये सब होने पर मुझे लालूजी का प्रसंग याद आ गया। रेल बजट के लिए सारे चैनल अपना सेट लगाए थे और रेल बजट या फिर लालू की रेल लाइव के लिए भीड़ जुटायी गयी थी। खाने की भी व्यवस्था थी, ऑडिएंस के लिए। लालू सभी चैनलों को बारी-बारी से टाइम दे रहे थे।...अब बारी देश के सबसे तेज चैनल पर आने की थी। लालूजी आकर बैठे और बैठे हुए बंदों की तरफ इशारा करते हुए पूछा...
इ ठंड़ा में बच्चा लोग को काहे बैठाए हुए हो...जाओ सब अपन-अपन घर। तुमलोग को इ चैनलवाला पैसा दिया है का।...फिर पूछा -कुछ खाने-पीने का मिला की नहीं। तभी उनकी नजर एक ऐसे बंदे पर पड़ी जो इससे पहले जिस चैनल पर लालू बोल रहे थे वहां भी बैठा था। लालू एकदम से बोले- तू तो हूंआ भी बैठे थे। मैंने अंदाजा लगाया कि खाना वहां का अच्छा था इसलिए वहां बैठ गया था और दोस्ती निभानी यहां थी सो यहां भी बैठ गया। यानि मीडिया के साथ-साथ दर्शक भी अपना चरित्र बदल रहा है। लालू ने कैम्पस के सबसे टॉप कॉलेजों की औकात बता दी थी और इधर मैडम ने हमारी जो मेरे कहने पर कि खाना-वाना तो बाद की बात है मैडम फिर भी लगातार बोले जा रही थी कि-- टीवी पर फोटो भी तो आएगा सर।.....
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ये सब होने पर मुझे लालूजी का प्रसंग याद आ गया। रेल बजट के लिए सारे चैनल अपना सेट लगाए थे और रेल बजट या फिर लालू की रेल लाइव के लिए भीड़ जुटायी गयी थी। खाने की भी व्यवस्था थी, ऑडिएंस के लिए। लालू सभी चैनलों को बारी-बारी से टाइम दे रहे थे।...अब बारी देश के सबसे तेज चैनल पर आने की थी। लालूजी आकर बैठे और बैठे हुए बंदों की तरफ इशारा करते हुए पूछा...
इ ठंड़ा में बच्चा लोग को काहे बैठाए हुए हो...जाओ सब अपन-अपन घर। तुमलोग को इ चैनलवाला पैसा दिया है का।...फिर पूछा -कुछ खाने-पीने का मिला की नहीं। तभी उनकी नजर एक ऐसे बंदे पर पड़ी जो इससे पहले जिस चैनल पर लालू बोल रहे थे वहां भी बैठा था। लालू एकदम से बोले- तू तो हूंआ भी बैठे थे। मैंने अंदाजा लगाया कि खाना वहां का अच्छा था इसलिए वहां बैठ गया था और दोस्ती निभानी यहां थी सो यहां भी बैठ गया। यानि मीडिया के साथ-साथ दर्शक भी अपना चरित्र बदल रहा है। लालू ने कैम्पस के सबसे टॉप कॉलेजों की औकात बता दी थी और इधर मैडम ने हमारी जो मेरे कहने पर कि खाना-वाना तो बाद की बात है मैडम फिर भी लगातार बोले जा रही थी कि-- टीवी पर फोटो भी तो आएगा सर।.....
इंडिया टीवी की रिपोर्टर बड़ी तेजी से दिल्ली विश्वविद्यालय की सेंट्रल लाइब्रेरी में घुसती है और साथ में कैमरामैन फटाफट शॉट लेने शुरु कर देता है। कैमरामैन फ्रेम बना रहा है उन किताबों का जो कि जमीन पर बिखरे पड़े हैं। कुछ पुरानी किताबें कुछ नयी किताबें। पीछे से दो चार लड़के चिल्लाते हुए आते हैं और जो रिसर्चर और स्टूडेंट कम्प्यूटर पर काम कर रहे होते हैं उन्हें जबरदस्ती हाथ पकड़कर उठा रहे हैं और कह रहे हैं, आपलोग बाहर जाइए...जल्दी, भगाए जानेवाले में एक मैं भी था, बाहर तो मुझे भी जाना ही था लेकिन बिना कारण जाने बाहर जाना ठीक नहीं समझा, रिपोर्टर की ओर बढा, हम दोनों एक-दूसरे को अच्छी तरह से जानते थे अब तक अमूमन आम मेंला, फूड विलेज और इसी तरह की सॉफ्ट स्टोरी पर काम किया करती थी लेकिन अब चैनल बदलने के साथ मिजाज भी बदल गया। उसे ये तो पता था कि मैं भी डीयू से पढ़ा हूं लेकिन अभी यहां रिसर्च कर रहा हूं ये बात मालूम नहीं थी सो बताने लगी- यहां के रिसर्चर का बहुत ही बुरा हाल हैं , उनपर बहुत ही अत्याचार होता हैं, इनकी कई तरह की मांगे हैं जिसपर प्रशासन ध्यान नहीं दे रही है.....बगैरह-बगैरह। लाइब्रेरी की बदहाली को बताने के लिए तब तक कैमरामैन ने खूब सारे शॉट्स बना लिए थे।
रिपोर्टर से बात करते देख लाइब्रेरियन मेरे पास आए और कहने लगे।....सर इन किताबों की जो फोटो ले रहे हैं ये मेम्बर द्वारा लौटाई गई किताबें हैं और दरअसल ये चाहते हैं कि रिसर्चर के लिए भी चुनाव हो इसलिए ऐसा कर रहे हैं। महाशय की सारी बातें रिपोर्टर से ठीक उलट थी जबकि और अपने साथी रिसर्चर से बात की तो उनकी बातों मे और रिपोर्टर की बातों में कोई फर्क नहीं था। तो ये मान लिया जाए कि रिसर्चर सही थे और उस सच का साथ देने आयी थी इंडिया टीवी की रिपोर्टर।
इस पूरे मामले में मेरी आपत्ति सिर्फ इस बात पर थी कि आपको इस बात की इजाजत किसने दे दी कि आप चालीस-पचास काम कर रहे लोगों को डिस्टर्ब करके उनके हित में ख़बर दिखाएं और उन भाई साहब को किसने मंत्र दिया कि जिसके लिए काम कर रहे हो उसी को काम के बीच से हाथ पकड़कर बाहर खींचो। मैंने रिपोर्टर से कहा, लाईब्रेरी के लोगों से भी तो बात कर लो, मेरा मतलब है बाइट ले लो, गलत-सही तो बाद में होगा लेकिन एकतरफा स्टोरी तो चलेगी नहीं।.....बात आई गई हो गई और मैडम बाहर आकर देख लेंगें टाइप के लोगों को कवर करने में जुट गयी।....इधर जिन लोगों को काम करते उठाया गया था वे बहुत नाराज थे, सारे कम्प्यूटर के तार खींच दिए गए थे।....बार-बार एक ही बात दोहरा रहे थे कि ऐसा करके चाहेंगे कि हम चुनाव होने पर वोट दें तो ऐसा कभी नहीं होगा। एक ने कहा जरा-सा भी मीडिया सेंस नहीं है जो चैनल सांप-संपेरा दिखाकर लोगों को बरगलाने का काम करता है, उसकी रिपोर्टर को भाई साहब बरगला कर ले आए कि आ जाओ ब्रेकिंग न्यूज मिलेगी....पता नहीं किसी ने ये भी कहा हो कि हम अपने उपर पेट्रोल डालेंगे और आप कवर करके अर्जुन सिंह पर दबाव बनाना।
सब चमकना चाहते हैं, सब बहुत जल्दी चमकना चाहते हैं। रिपोर्टर रोतोंरात चमकना चाहती है सेंट्रल लाइब्रेरी पर कच्ची-पक्की स्टोरी चलाकर बिना होमवर्क किए, बिना ये जाने कि सेंट्रल लाइब्रेरी का मेन गेट पिछले तीन-चार महीने से बंद क्यों है, वो चिल्लाता हुआ बंदा रातोंरात पब्लिक फेस वैल्यू पैदा करना चाहता है, विधान-सभा जाना चाहता है। काम कर रहा रिसर्चर किसी भी बात पर प्रशासन का विरोध नहीं करता क्योंकि उसे चमकने की जल्दी नहीं है और कल को उसे सिस्टम के भीतर ही आना है।.....इसलिए अपने-अपने ढ़ंग से शोर-शराबा और हंगामा सब पैदा करते हैं.
कल रविवार को जनसत्ता में एक खबर छापी है कि दिल्ली विश्वविद्यालय के शोधार्थियों में काफी गुस्सा है लेकिन संवाददाता ने ये नहीं बताया कि कौन से शोधार्थियों में गुस्सा है जो काम के बीच उठाए गए थे उनमें या फिर जो पकड़-पकड़कर उठा रहे थे उनमें। लेकिन आगे जिस तरह की मांगों की चर्चा की गई उससे ये साफ हो जाता है कि हाथ पकड़नेवालों का गुस्साना अब भी जारी है और भगाए गए लोगों में अब गुस्सा कहां अब वे घर में ही पढ़ते हैं, एक-दो ने तो अपना कम्प्यूटर खरीद लिया है, वे तो सिस्टम के लिए बने हैं फिर विरोध कैसा।
मैडम खोज रही होगी कोई धांसू स्टोरी और किसी ने फिर फोन करके बुलाया होगा कि आ जाओ ब्रेंकिंग देंगे।वैसे भी प्रकाश बनकर चमकने की ललक तो अभी छूटी नहीं, सैंकडों मिल जाएंगे।....
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रिपोर्टर से बात करते देख लाइब्रेरियन मेरे पास आए और कहने लगे।....सर इन किताबों की जो फोटो ले रहे हैं ये मेम्बर द्वारा लौटाई गई किताबें हैं और दरअसल ये चाहते हैं कि रिसर्चर के लिए भी चुनाव हो इसलिए ऐसा कर रहे हैं। महाशय की सारी बातें रिपोर्टर से ठीक उलट थी जबकि और अपने साथी रिसर्चर से बात की तो उनकी बातों मे और रिपोर्टर की बातों में कोई फर्क नहीं था। तो ये मान लिया जाए कि रिसर्चर सही थे और उस सच का साथ देने आयी थी इंडिया टीवी की रिपोर्टर।
इस पूरे मामले में मेरी आपत्ति सिर्फ इस बात पर थी कि आपको इस बात की इजाजत किसने दे दी कि आप चालीस-पचास काम कर रहे लोगों को डिस्टर्ब करके उनके हित में ख़बर दिखाएं और उन भाई साहब को किसने मंत्र दिया कि जिसके लिए काम कर रहे हो उसी को काम के बीच से हाथ पकड़कर बाहर खींचो। मैंने रिपोर्टर से कहा, लाईब्रेरी के लोगों से भी तो बात कर लो, मेरा मतलब है बाइट ले लो, गलत-सही तो बाद में होगा लेकिन एकतरफा स्टोरी तो चलेगी नहीं।.....बात आई गई हो गई और मैडम बाहर आकर देख लेंगें टाइप के लोगों को कवर करने में जुट गयी।....इधर जिन लोगों को काम करते उठाया गया था वे बहुत नाराज थे, सारे कम्प्यूटर के तार खींच दिए गए थे।....बार-बार एक ही बात दोहरा रहे थे कि ऐसा करके चाहेंगे कि हम चुनाव होने पर वोट दें तो ऐसा कभी नहीं होगा। एक ने कहा जरा-सा भी मीडिया सेंस नहीं है जो चैनल सांप-संपेरा दिखाकर लोगों को बरगलाने का काम करता है, उसकी रिपोर्टर को भाई साहब बरगला कर ले आए कि आ जाओ ब्रेकिंग न्यूज मिलेगी....पता नहीं किसी ने ये भी कहा हो कि हम अपने उपर पेट्रोल डालेंगे और आप कवर करके अर्जुन सिंह पर दबाव बनाना।
सब चमकना चाहते हैं, सब बहुत जल्दी चमकना चाहते हैं। रिपोर्टर रोतोंरात चमकना चाहती है सेंट्रल लाइब्रेरी पर कच्ची-पक्की स्टोरी चलाकर बिना होमवर्क किए, बिना ये जाने कि सेंट्रल लाइब्रेरी का मेन गेट पिछले तीन-चार महीने से बंद क्यों है, वो चिल्लाता हुआ बंदा रातोंरात पब्लिक फेस वैल्यू पैदा करना चाहता है, विधान-सभा जाना चाहता है। काम कर रहा रिसर्चर किसी भी बात पर प्रशासन का विरोध नहीं करता क्योंकि उसे चमकने की जल्दी नहीं है और कल को उसे सिस्टम के भीतर ही आना है।.....इसलिए अपने-अपने ढ़ंग से शोर-शराबा और हंगामा सब पैदा करते हैं.
कल रविवार को जनसत्ता में एक खबर छापी है कि दिल्ली विश्वविद्यालय के शोधार्थियों में काफी गुस्सा है लेकिन संवाददाता ने ये नहीं बताया कि कौन से शोधार्थियों में गुस्सा है जो काम के बीच उठाए गए थे उनमें या फिर जो पकड़-पकड़कर उठा रहे थे उनमें। लेकिन आगे जिस तरह की मांगों की चर्चा की गई उससे ये साफ हो जाता है कि हाथ पकड़नेवालों का गुस्साना अब भी जारी है और भगाए गए लोगों में अब गुस्सा कहां अब वे घर में ही पढ़ते हैं, एक-दो ने तो अपना कम्प्यूटर खरीद लिया है, वे तो सिस्टम के लिए बने हैं फिर विरोध कैसा।
मैडम खोज रही होगी कोई धांसू स्टोरी और किसी ने फिर फोन करके बुलाया होगा कि आ जाओ ब्रेंकिंग देंगे।वैसे भी प्रकाश बनकर चमकने की ललक तो अभी छूटी नहीं, सैंकडों मिल जाएंगे।....
जहां पहुंचकर आवारा हवाएं भी शांत हो जाए और परेड करने लगे-
डॉ. नगेन्द्र ना जी ना जी
नामवर सिंह हां जी हां जी
दिनकर,बच्चन ना जी ना जी
धूमिल, मुक्तिबोध सिर्फ वही सिर्फ वही
रीतिकाल का माने
कूड़ा कूडा
उत्तर आधुनिकता
भांड है भांड है
पॉपुलर कल्चर वाला
बाजारवादी, पूंजीपतियों का गुलाम है
भक्तिकाल और कबीरवाले
महान हैं, ज्ञानी है
रिसर्च का माने खोजो पांडुलिपि
रिसर्चर का माने
सबसे हटकर.......तो आप समझ जाइए कि आप जेएनयू भारतीय भाषा केन्द्र के ठीक सामने खड़े हैं।.....और उस पर भी दीवारों से आवाजें आनी शुरु हो जाए कि-- आ गए बेटा इ रामविलास बाबू ने हमरे साथ न्याय नहीं किए, अभी भी आत्मा भटकती रहती है। अब आ गए हो तो कोई बढ़िया वाद(ism) से जोड़-जाड़कर हमरे उपर पीएच.डी. कर डालो..राहत मिल जाई।... सुना है इ बार बहुत जोग आदमी हेड बने हैं, हमरे नाम से टॉपिक पास होने में कौनो दिक्कत नहीं होने देंगे। बताओ हमरे मुकाबले भारतेन्दु को खड़ा कर दिए। वैसे गोपालगंज वाले मास्टर साहब भी ठीके थे लेकिन उनके साथ परेशानी रही कि स्थापिते कवियन को फिर से स्थापित करने लग गए। हमरे तरफ ध्यान ही नहीं दिए। खैर छोडो, इ सब बात पर बेसी ध्यान मत दो।..
तो समझिए कि आप हिन्दी-विभाग के सामने खड़े हैं ।
ये अपने ढंग का अलग प्लैनेट है। वैसे देश का कोई भी हिन्दी विभाग आपको अलग ही प्लैनेट लगेगा क्योंकि उपर से जब आदमियों की डिलीवरी होती है तो उसमें मेन्शन होता है कि दो सौ पीस हिन्दीवाले भेज रहे हैं, ध्यान से सप्लाय करना और हां उसमें से जेएनयू के लिए कौन-कौन से हैं कोने में पर्ची में लिख देना।...
मान लीजिए आप भी हिन्दी से ही एम.फिल्. या पीएच.डी कर रहे हैं, कायदे से आपको वो सारी बातें समझ में आनी चाहिए जिसके बारे वे बात कर रहे हैं लेकिन आपको समझ नहीं आएगी और आप अपने को बहुत ही गिरा हुआ, रिसर्चर के नाम पर चंपक समझेंगे, आपको ये एहसास करा देंगे कि आपसे बेहतर तो गंगा ढाबा पर चाय देनेवाला छोटू है, अभी जाकर पूछो कि प्रियप्रवास में वर्ग-संघर्ष कहां है बता देगा। अगर आपका जेआएफ है तब तो आप देशद्रोही हैं, आप सरकार का पैसा उड़ा रहे हैं क्योंकि आपको इतना भी नहीं पता कि कबीर की रचनाओं में भारतीय संविधान की अनुगूंज कहां-कहां हैं और कैसे अंबेडकर को भारतीय गणराज्य के लिए संविधान लिखने और लोकतांत्रिक व्यवस्था कायम करने की प्रेरणा कबीर वाणी से मिली। आपको ये भी नहीं पता कि हिन्दी नवजागरण के अग्रदूत भारतेन्दु नहीं कोई और हैं।वहां जाते ही चारो ओर से प्रश्नों की झड़ी लगा दी जाएगी और तब आपको सही अर्थों में सत्य का ज्ञान होगा।
सबसे पहले तो ये कि आपको पता है ,अपने ओम थानवी जी ने आचार्य शुक्ल को हिन्दूवादी बताने कि कोशिश की है। हिन्दी की मायापुरी पत्रिका समयांतर ने डीयू के मास्टरों को धो डाला है, आपके गाइड पर तो सीधा चोट है और वो भी नहीं बचे हैं जो साहित्य के जरिए मानव-मुक्ति का रास्ता खोज रहे थे और उनको भी तो लपेट लिया जो बेचारे चाहते हैं कि कामकाजी लेडिस भी कुछ पढ़-लिख जाएं। अच्छा इ बताइए नया ज्ञानोदय वाले मामले में आपको क्या लगा। कालियाजी को लगा कि पत्रिका का सर्कुलेशन बढ़ाकर तीर मार लेंगे। उनको क्या पता कि हिन्दी समाज में उंगुली करनेवालों की कमी नहीं है और सच पूछिए तो जिसको उंगली करने का अभ्यास नहीं है वो हिन्दी के नाम पर दिन काट रहा है। चले युवा रचनाकारों को प्रमोट करने उनको पता ही नहीं है कि यहां पैंतालीस साल के शूगर का मरीज भी युवा है।
अच्छा आपके डीयू से एक लेडिस आई है, उसका वहां एमए में 55 प्रतिशत नहीं बना था उसको आप जानते हैं आजकल तो खूब....खैर जाने दीजिए लेकिन वहां भी यही सब था तबे तो लसक गई....लेकिन है कन्टाप गुरु।
फुटनोट जरुरी है-
एक लाइन में कहूं तो हिन्दी से जुड़े तमाम मुद्दों का स्टिंग ऑपरेशन जेएनयू में ही होता है।
लीजिए इतनी बातें हो गई लेकिन असली मुद्दे की तरफ तो ध्यान ही नहीं गया। आपके रिसर्च का टॉपिक और गाइड। मेरे एक मित्र हैं उन्हें साथी बनाने की बहुत कोशिश की लेकिन उनके हार्डवेयर में ही प्रॉब्लम है नहीं बन पाए। खैर, वे अपने टॉपिक और काम को लेकर खुशफहमी के शिकार हैं वैसे शिकार तो हर हिन्दी में रिसर्च करनेवाला बंदा होता है, उसे लगता है कि वो जब राजनीतिक मुद्दों और आर्थिक मसलों से जोड़कर काम करेगा तो मनमोहन अंकल की सरकार हिल जाएगी और दद्दा अटलजी राय देंगे कि जब इतनी मेहनत किए ही हो तो फिर अंग्रेजी में काम को छपवाना। अपना एक एनआरआई स्वयंसेवक है, उसका प्रेस का ही काम है। और फिर देश में ही क्यों अंतर्राष्ट्रीय हल्कों में भी हलचल हो कि जो बंदा न्यूक्लियर डील पर जनता को बरगला रहा है उसकी इकॉनामी इतनी लचर है कि एक हिन्दीवाला भी धो-पोछकर बराबर कर दिया। जो लोग दलित-विमर्श पर काम कर रहे हैं उनकी खुशफहमी विकासवादी तरीके की है। उनका विश्वास है कि उनके काम को बहनजी हाथोंहाथ ले लेगी..ठाकुर हैं इसलिए कुछ पोरशन यूपी बोर्ड में भी लग जाएगा और साल होते-होते कांशीराम साहित्य रत्न पुरस्कार। बजाते रहें बोधा, ठाकुर और राजेश जोशी पर काम करनेवाले। जिस विषय का सत्ता से कोई तालमेल ही नहीं उसका फ्यूचर क्या कच्चू होगा।
हां तो हमारे उस मित्र का तर्क है कि जिस पर उन्होंने एम.फिल्. किया उन्हें उसी साल साहित्य अकादमी मिला। ये अलग बात है कि महीने-दो महीने के भीतर वे चल बसे। अब मित्र पीएच.डी. के लिए मारामारी कर रहे हैं....जिसपर काम करेंगे उनको हिन्दी में पहला बुकर मिलेगा और उसके जस से मित्र के लिए साहित्य आकादमी तो रखा हुआ है। लेकिन मुझे मौजूदा एक अच्छे साहित्कार खोने का डर बराबर बना रहता है।
हां तो बात हो रही थी टॉपिक और गाइड की। अगर मेरे जैसे रिसर्चर जो कि हिन्दी का माल खाकर भी डकार मीडिया की लेनी चाहता है, से पाला पड़ गया और टॉपिक पर बात छिड़ गयी तो नजारा देखने लायक होता है। दरभंगा का आम जो अभी काटने ही वाले थे, खास मेरे लिए उसे जेएनयू की सबसे बदसूरत लेडिस( उनके मुताबिक, हमें तो सब अच्छी लगती है) या फिर एम.ए. में चोट देनेवाली लेडिस को दे देंगे लेकिन हमें नहीं या तो उठाकर अलमारी में रख देंगे लेकिन हमें नहीं।
बात शुरु होगी टॉपिक से लेकिन गरियाना शुरु करेंगे गाइड को। और आप तो जानते ही हैं कि रिसर्चर के लिए गाइड का मामला कुछ उसी तरह का होता है जैसे अपने यूपी-बिहार में मां-बहन को लेकर। कहां हैं आप दिल्ली में तो जब तक दिनभर में दस बार मां की बहन की नहीं बोला तो लगता ही नहीं कि दिनभर कोई क्रिएटिव वर्क हुआ है लेकिन अपने यहां तो खून-खराबा हो जाता है। अपना बीपी लो होने के बावजूद सुलग ही जाती है। पहले वे कहेंगे महाराज, आप बाजा पर काम कर रहे हैं, ये भी कोई टॉपिक है, कुछ ढंग का काम कीजिए। आप अपना तर्क देंगे कि इसने हिन्दी को कैसे बदला है..थोड़ा लॉजिकल तरीके से समझाने की कोशिश करेंगे लेकिन लॉजिक प्रिय जेएनयू के दुराग्रही होने का आभास आपको होता चला जाएगा, वो आपकी एक नहीं सुनेंगे। फिर मुद्दा उछलकर गाइड पर आ जाएगा। उनका सीधा कहना होगा कि अजी आपके गाइड तो साहित्य और हिन्दी के नाम पर चुटकुला करते हैं। कहते हैं कि हिन्दी की दिशा बाजार तय होगी। सुन लीजिए अपने जानते हिन्दी को हम कोठे पर बैठने नहीं देंगे और कभी बता दीजिएगा कि उत्तर-आधुनिकता के विरोध में मोर्चा खुल गया है, कई ऐसी बाते जिसका जबाब वे हमसे नहीं हमारे गाइड से चाहते हैं...धीरे-धीरे वे सनक जाते हैं और तब मैं कहता हूं-
बंद कीजिए ये प्रलाप आपसे लड़ने नहीं आया था और न ही अपने गाइड की विद्वता का सर्टिफिकेट लेने और अगर देंगे भी तो दरियागंज में सौ-पचास में निलामी कर देंगे। आप महान, आपका परिवेश महान, आपका टॉपिक महान लेकिन नहीं कहूंगा कि आपका भविष्य भी महान... क्योंकि नौकरी खोजने आप उधर ही आएंगे और यही हाल रहा तो ...........खैर
मैं चलने को होता हूं, रात में गंगा ढाबा पर बैठकर भसर करने का बहुत मन होता है लेकिन गाइड के मुद्दे पर आंखे छलछला जाती है कि जो आदमी उनकी इज्जत नहीं करता उसके यहां का पानी भी नहीं पीना। बस तक छोड़ने दो-तीन लोग आते हैं मैं मना करता हूं, वे नहीं मानते। रास्ते भर वे अपने को कोसते हैं, आपस में बातें करते हैं कि...कितने शौक से आते हैं ये जेएनयू में ।कहते हैं यहां आकर अपना-सा लगता है लेकिन कभी भी अच्छे मन से नहीं जाते। मैं भी मन ही मन जोड़-घटाव करता हूं कि हिन्दी के नाम पर हम कुछ ज्यादा नहीं कर देते। स्टैड पर एक कनफेशन का दौर चलता है। बस आ जाती है...जेएनयू के साथी और मित्र पूछते हैं, अभी जेआरएफ का पैसा मिलना तो शुरु नहीं हुआ है न। पर्स से जेएनयू का आईडी कार्ड अलग करते हैं और बस पास थमा देते हैं, ये कहते हुए कि यहां अपना ब्लू लाइन में भी पास चलता है। और सुनिए ये जंग अभी खत्म नहीं हुआ, अबकी डीयू में आकर लतिआएंगे। मैं सीट पर बैठ जाता हूं और खिड़की से सिर निकालकर चिल्लाता हूं......
साहित्य के नाम पर ज्यादा सीरियस मत होना साथी......सीरियस होकर लिखने-पढ़ने से सरकार कोई अलग से कंटीजेन्सी नहीं देती और हां अबकी बार दरभंगा का आम अलमारी में रखा तो बनारस वाली लेडिस को बता दूंगा कि आप फ्रस्टू हैं........
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डॉ. नगेन्द्र ना जी ना जी
नामवर सिंह हां जी हां जी
दिनकर,बच्चन ना जी ना जी
धूमिल, मुक्तिबोध सिर्फ वही सिर्फ वही
रीतिकाल का माने
कूड़ा कूडा
उत्तर आधुनिकता
भांड है भांड है
पॉपुलर कल्चर वाला
बाजारवादी, पूंजीपतियों का गुलाम है
भक्तिकाल और कबीरवाले
महान हैं, ज्ञानी है
रिसर्च का माने खोजो पांडुलिपि
रिसर्चर का माने
सबसे हटकर.......तो आप समझ जाइए कि आप जेएनयू भारतीय भाषा केन्द्र के ठीक सामने खड़े हैं।.....और उस पर भी दीवारों से आवाजें आनी शुरु हो जाए कि-- आ गए बेटा इ रामविलास बाबू ने हमरे साथ न्याय नहीं किए, अभी भी आत्मा भटकती रहती है। अब आ गए हो तो कोई बढ़िया वाद(ism) से जोड़-जाड़कर हमरे उपर पीएच.डी. कर डालो..राहत मिल जाई।... सुना है इ बार बहुत जोग आदमी हेड बने हैं, हमरे नाम से टॉपिक पास होने में कौनो दिक्कत नहीं होने देंगे। बताओ हमरे मुकाबले भारतेन्दु को खड़ा कर दिए। वैसे गोपालगंज वाले मास्टर साहब भी ठीके थे लेकिन उनके साथ परेशानी रही कि स्थापिते कवियन को फिर से स्थापित करने लग गए। हमरे तरफ ध्यान ही नहीं दिए। खैर छोडो, इ सब बात पर बेसी ध्यान मत दो।..
तो समझिए कि आप हिन्दी-विभाग के सामने खड़े हैं ।
ये अपने ढंग का अलग प्लैनेट है। वैसे देश का कोई भी हिन्दी विभाग आपको अलग ही प्लैनेट लगेगा क्योंकि उपर से जब आदमियों की डिलीवरी होती है तो उसमें मेन्शन होता है कि दो सौ पीस हिन्दीवाले भेज रहे हैं, ध्यान से सप्लाय करना और हां उसमें से जेएनयू के लिए कौन-कौन से हैं कोने में पर्ची में लिख देना।...
मान लीजिए आप भी हिन्दी से ही एम.फिल्. या पीएच.डी कर रहे हैं, कायदे से आपको वो सारी बातें समझ में आनी चाहिए जिसके बारे वे बात कर रहे हैं लेकिन आपको समझ नहीं आएगी और आप अपने को बहुत ही गिरा हुआ, रिसर्चर के नाम पर चंपक समझेंगे, आपको ये एहसास करा देंगे कि आपसे बेहतर तो गंगा ढाबा पर चाय देनेवाला छोटू है, अभी जाकर पूछो कि प्रियप्रवास में वर्ग-संघर्ष कहां है बता देगा। अगर आपका जेआएफ है तब तो आप देशद्रोही हैं, आप सरकार का पैसा उड़ा रहे हैं क्योंकि आपको इतना भी नहीं पता कि कबीर की रचनाओं में भारतीय संविधान की अनुगूंज कहां-कहां हैं और कैसे अंबेडकर को भारतीय गणराज्य के लिए संविधान लिखने और लोकतांत्रिक व्यवस्था कायम करने की प्रेरणा कबीर वाणी से मिली। आपको ये भी नहीं पता कि हिन्दी नवजागरण के अग्रदूत भारतेन्दु नहीं कोई और हैं।वहां जाते ही चारो ओर से प्रश्नों की झड़ी लगा दी जाएगी और तब आपको सही अर्थों में सत्य का ज्ञान होगा।
सबसे पहले तो ये कि आपको पता है ,अपने ओम थानवी जी ने आचार्य शुक्ल को हिन्दूवादी बताने कि कोशिश की है। हिन्दी की मायापुरी पत्रिका समयांतर ने डीयू के मास्टरों को धो डाला है, आपके गाइड पर तो सीधा चोट है और वो भी नहीं बचे हैं जो साहित्य के जरिए मानव-मुक्ति का रास्ता खोज रहे थे और उनको भी तो लपेट लिया जो बेचारे चाहते हैं कि कामकाजी लेडिस भी कुछ पढ़-लिख जाएं। अच्छा इ बताइए नया ज्ञानोदय वाले मामले में आपको क्या लगा। कालियाजी को लगा कि पत्रिका का सर्कुलेशन बढ़ाकर तीर मार लेंगे। उनको क्या पता कि हिन्दी समाज में उंगुली करनेवालों की कमी नहीं है और सच पूछिए तो जिसको उंगली करने का अभ्यास नहीं है वो हिन्दी के नाम पर दिन काट रहा है। चले युवा रचनाकारों को प्रमोट करने उनको पता ही नहीं है कि यहां पैंतालीस साल के शूगर का मरीज भी युवा है।
अच्छा आपके डीयू से एक लेडिस आई है, उसका वहां एमए में 55 प्रतिशत नहीं बना था उसको आप जानते हैं आजकल तो खूब....खैर जाने दीजिए लेकिन वहां भी यही सब था तबे तो लसक गई....लेकिन है कन्टाप गुरु।
फुटनोट जरुरी है-
एक लाइन में कहूं तो हिन्दी से जुड़े तमाम मुद्दों का स्टिंग ऑपरेशन जेएनयू में ही होता है।
लीजिए इतनी बातें हो गई लेकिन असली मुद्दे की तरफ तो ध्यान ही नहीं गया। आपके रिसर्च का टॉपिक और गाइड। मेरे एक मित्र हैं उन्हें साथी बनाने की बहुत कोशिश की लेकिन उनके हार्डवेयर में ही प्रॉब्लम है नहीं बन पाए। खैर, वे अपने टॉपिक और काम को लेकर खुशफहमी के शिकार हैं वैसे शिकार तो हर हिन्दी में रिसर्च करनेवाला बंदा होता है, उसे लगता है कि वो जब राजनीतिक मुद्दों और आर्थिक मसलों से जोड़कर काम करेगा तो मनमोहन अंकल की सरकार हिल जाएगी और दद्दा अटलजी राय देंगे कि जब इतनी मेहनत किए ही हो तो फिर अंग्रेजी में काम को छपवाना। अपना एक एनआरआई स्वयंसेवक है, उसका प्रेस का ही काम है। और फिर देश में ही क्यों अंतर्राष्ट्रीय हल्कों में भी हलचल हो कि जो बंदा न्यूक्लियर डील पर जनता को बरगला रहा है उसकी इकॉनामी इतनी लचर है कि एक हिन्दीवाला भी धो-पोछकर बराबर कर दिया। जो लोग दलित-विमर्श पर काम कर रहे हैं उनकी खुशफहमी विकासवादी तरीके की है। उनका विश्वास है कि उनके काम को बहनजी हाथोंहाथ ले लेगी..ठाकुर हैं इसलिए कुछ पोरशन यूपी बोर्ड में भी लग जाएगा और साल होते-होते कांशीराम साहित्य रत्न पुरस्कार। बजाते रहें बोधा, ठाकुर और राजेश जोशी पर काम करनेवाले। जिस विषय का सत्ता से कोई तालमेल ही नहीं उसका फ्यूचर क्या कच्चू होगा।
हां तो हमारे उस मित्र का तर्क है कि जिस पर उन्होंने एम.फिल्. किया उन्हें उसी साल साहित्य अकादमी मिला। ये अलग बात है कि महीने-दो महीने के भीतर वे चल बसे। अब मित्र पीएच.डी. के लिए मारामारी कर रहे हैं....जिसपर काम करेंगे उनको हिन्दी में पहला बुकर मिलेगा और उसके जस से मित्र के लिए साहित्य आकादमी तो रखा हुआ है। लेकिन मुझे मौजूदा एक अच्छे साहित्कार खोने का डर बराबर बना रहता है।
हां तो बात हो रही थी टॉपिक और गाइड की। अगर मेरे जैसे रिसर्चर जो कि हिन्दी का माल खाकर भी डकार मीडिया की लेनी चाहता है, से पाला पड़ गया और टॉपिक पर बात छिड़ गयी तो नजारा देखने लायक होता है। दरभंगा का आम जो अभी काटने ही वाले थे, खास मेरे लिए उसे जेएनयू की सबसे बदसूरत लेडिस( उनके मुताबिक, हमें तो सब अच्छी लगती है) या फिर एम.ए. में चोट देनेवाली लेडिस को दे देंगे लेकिन हमें नहीं या तो उठाकर अलमारी में रख देंगे लेकिन हमें नहीं।
बात शुरु होगी टॉपिक से लेकिन गरियाना शुरु करेंगे गाइड को। और आप तो जानते ही हैं कि रिसर्चर के लिए गाइड का मामला कुछ उसी तरह का होता है जैसे अपने यूपी-बिहार में मां-बहन को लेकर। कहां हैं आप दिल्ली में तो जब तक दिनभर में दस बार मां की बहन की नहीं बोला तो लगता ही नहीं कि दिनभर कोई क्रिएटिव वर्क हुआ है लेकिन अपने यहां तो खून-खराबा हो जाता है। अपना बीपी लो होने के बावजूद सुलग ही जाती है। पहले वे कहेंगे महाराज, आप बाजा पर काम कर रहे हैं, ये भी कोई टॉपिक है, कुछ ढंग का काम कीजिए। आप अपना तर्क देंगे कि इसने हिन्दी को कैसे बदला है..थोड़ा लॉजिकल तरीके से समझाने की कोशिश करेंगे लेकिन लॉजिक प्रिय जेएनयू के दुराग्रही होने का आभास आपको होता चला जाएगा, वो आपकी एक नहीं सुनेंगे। फिर मुद्दा उछलकर गाइड पर आ जाएगा। उनका सीधा कहना होगा कि अजी आपके गाइड तो साहित्य और हिन्दी के नाम पर चुटकुला करते हैं। कहते हैं कि हिन्दी की दिशा बाजार तय होगी। सुन लीजिए अपने जानते हिन्दी को हम कोठे पर बैठने नहीं देंगे और कभी बता दीजिएगा कि उत्तर-आधुनिकता के विरोध में मोर्चा खुल गया है, कई ऐसी बाते जिसका जबाब वे हमसे नहीं हमारे गाइड से चाहते हैं...धीरे-धीरे वे सनक जाते हैं और तब मैं कहता हूं-
बंद कीजिए ये प्रलाप आपसे लड़ने नहीं आया था और न ही अपने गाइड की विद्वता का सर्टिफिकेट लेने और अगर देंगे भी तो दरियागंज में सौ-पचास में निलामी कर देंगे। आप महान, आपका परिवेश महान, आपका टॉपिक महान लेकिन नहीं कहूंगा कि आपका भविष्य भी महान... क्योंकि नौकरी खोजने आप उधर ही आएंगे और यही हाल रहा तो ...........खैर
मैं चलने को होता हूं, रात में गंगा ढाबा पर बैठकर भसर करने का बहुत मन होता है लेकिन गाइड के मुद्दे पर आंखे छलछला जाती है कि जो आदमी उनकी इज्जत नहीं करता उसके यहां का पानी भी नहीं पीना। बस तक छोड़ने दो-तीन लोग आते हैं मैं मना करता हूं, वे नहीं मानते। रास्ते भर वे अपने को कोसते हैं, आपस में बातें करते हैं कि...कितने शौक से आते हैं ये जेएनयू में ।कहते हैं यहां आकर अपना-सा लगता है लेकिन कभी भी अच्छे मन से नहीं जाते। मैं भी मन ही मन जोड़-घटाव करता हूं कि हिन्दी के नाम पर हम कुछ ज्यादा नहीं कर देते। स्टैड पर एक कनफेशन का दौर चलता है। बस आ जाती है...जेएनयू के साथी और मित्र पूछते हैं, अभी जेआरएफ का पैसा मिलना तो शुरु नहीं हुआ है न। पर्स से जेएनयू का आईडी कार्ड अलग करते हैं और बस पास थमा देते हैं, ये कहते हुए कि यहां अपना ब्लू लाइन में भी पास चलता है। और सुनिए ये जंग अभी खत्म नहीं हुआ, अबकी डीयू में आकर लतिआएंगे। मैं सीट पर बैठ जाता हूं और खिड़की से सिर निकालकर चिल्लाता हूं......
साहित्य के नाम पर ज्यादा सीरियस मत होना साथी......सीरियस होकर लिखने-पढ़ने से सरकार कोई अलग से कंटीजेन्सी नहीं देती और हां अबकी बार दरभंगा का आम अलमारी में रखा तो बनारस वाली लेडिस को बता दूंगा कि आप फ्रस्टू हैं........