.



तरक्की के दिनों में अपने गुरुदेव प्रभाष जोशी की छत्रछाया से बेदखल कर दिये गये पत्रकार आलोक तोमर के लिए कॉन्फेशन करने के लिहाज से इससे बेहतर मौका शायद ही कभी मिले। प्रभाष जोशी ने रविवार डॉट कॉम पर दिये गये इंटरव्यू में जाति और स्त्री को लेकर जिस तरह के मानव विरोधी और गैरलोकतांत्रिक बयान दिये, उसके प्रतिरोध में ब्लॉगरों और वेब पत्रकारों का लिखना ज़रूरी और स्वाभाविक कदम है। देश का कोई भी समझदार इंसान इस बयान पर या तो अफ़सोस जाहिर करेगा, हमारी तरह प्रतिरोध करेगा या फिर मानव अधिकारों की व्याख्या करते हुए सीधे प्रभाष जोशी से सवाल करेगा कि देश के नामचीन पत्रकार होने के साथ ही क्या आपको ये अधिकार मिल गया है कि तथ्यों को नज़रअंदाज़ करते हुए अपनी मर्जी से जो चाहें और जिस तरह से चाहें बयान दें, अवधारणा विकसित करने का काम करें और बाद में चुप्पी मार जाएं? लेकिन आलोक तोमर जैसे पत्रकार को इस बयान पर चिंता होने के बजाय अपने गुरुदेव के प्रति प्रतिबद्धता जाहिर करना ज़्यादा ज़रूरी लगा और ये श्रद्धा में भ्रष्ट हो चुके एक शिष्य का ही असर है कि उन्होंने तथ्यों और मुद्दे की बात को लात मारते हुए प्रभाष जोशी के मानव विरोधी बयान का प्रतिरोध करवेवाले वेब पत्रकारों और ब्लॉगरों को लफंगों की जमात तक कह डाला।

आलोक तोमर देश के ऐसे अकेले शिष्य नहीं हैं, जो अपने गुरु के प्रति श्रद्धा का नाटक करते हुए यथास्थितिवाद की जड़ों को मज़बूत करने का काम करते हैं! दरअसल जिस किसी भी शिष्य के ज्ञान का विस्तार अपने गुरु के प्रति अंध श्रद्धा के खांचे में रह कर हुआ है, वो अपने गुरु के लिए सक्षम होने पर जगह-जगह मूर्तियां स्थापित करवा सकता है, गुरु के नाम पर गली, मोहल्ले, चौक-चौराहे का नाम रख सकता है, ज़रूरत पड़ने पर प्रतिरोधियों के आगे भाले-गंडासे और बंदूक तान सकता है – लेकिन गुरु के विचारों और अवधारणाओं पर चिंतन करने का काम कभी नहीं कर सकता। वो अपने भीतर वो ताक़त कभी भी पैदा नहीं कर सकता, जिससे कि वो गुरु के ग़लत होने की स्थिति में असहमति जाहिर करते हुए बौद्धिकता का विकास कर सके या फिर उस चिंतन को बढ़ावा दे सके, जिससे गुज़रते हुए उसके गुरु उलझ गये। ऐसी स्थिति में अगर आलोक तोमर जैसा प्रभाष जोशी का शिष्य तथ्यों के आधार पर बात करने के बजाय गुरु की महिमा को बचाने की आड़ में भाषाई स्तर पर हिंसक हो जाता है, तो हमें आश्चर्य नहीं करना चाहिए। ये उनके हिंसक और असंयमित होने का ही उदाहरण है कि वो पहले जिन बातों को स्थापित करते हैं, बाद में आकर उसमें खुद ही फंस जाते हैं। जाहिर है, ये भाषा बौखलाहट की ही हो सकती है, विमर्श की तो कतई नहीं। आप खुद ही देखिए…

आलोक तोमर ने लिखा, “ये ब्लॉगिए और नेट पर बैठा अनपढ़ों का लालची गिरोह प्रभाष जी को कैसे समझेगा?” आगे उन्होंने लिखा, “ये वे लोग हैं, जो लगभग बेरोज़गार हैं और ब्लॉग और नेट पर अपनी कुंठा की सार्वजनिक अभिव्यक्ति करते रहते हैं। नाम लेने का फायदा नहीं हैं क्योंकि अपने नेट के समाज में निरक्षरों और अर्ध-साक्षरों की संख्या बहुत है।” आलोक तोमर की भाषा कितनी विरोधाभासी है, इसका नमूना आप देखिए कि जो प्रभाष जोशी के मानव विरोधी बयानों का प्रतिरोध कर रहा है, वो पढ़ा-लिखा होकर भी जिसे कि हिंदी टाइपिंग आती है, साइटें खोलना जानता है वो अनपढ़ है। लिखते हैं, “आपने पंद्रह-सोलह हज़ार का कंप्यूटर खरीद लिया, आपको हिंदी टाइपिंग आती है, आपने पांच-सात हज़ार रुपये खर्च कर के एक वेबसाइट भी बना ली।”

ये आलोक तोमर की समझ है कि इंटरनेट पर प्रभाष जोशी की बातों का प्रतिरोध करनेवाले लोग लफंगों और बेरोज़गारों की जमात है। लफंगों की जांच तो आप करने से रहे लेकिन फिलहाल बेरोज़गारों की संख्या को लेकर संभव हो तो होमवर्क कर लें। अच्छा रहेगा। वैसे आलोक तोमर के हिसाब से जो लोग बेरोज़गार हैं, उन्हें मानव विरोधी बातों का प्रतिरोध करने का अधिकार नहीं है। ये बात अपने आप में कितनी मानवविरोधी है, आप समझ सकते हैं।

इस हिसाब से समझिए तो इंटरनेट की दुनिया में बिचरनेवाला सिर्फ वही शख्स पढ़ा-लिखा और समझदार है, जो आलोक तोमर की तरह प्रभाष जोशी को एक पत्रकार की तरह नहीं, कमी और कमज़ोरियों के साथ एक इंसान की तरह नहीं, देवता की तरह पूजने का काम करता है। इस भाव के लिए ही मैंने श्रद्धा में भ्रष्ट हो जाने का पदबंध इस्तेमाल किया।

ऐसे अनपढ़, लालची और लफंगे लोगों को लगभग धमकाने के अंदाज़ में आलोक तोमर ने लिखा, “आपको यह हक नहीं मिल जाता कि भारतीय पत्रकारिता के सबसे बड़े जीवित गौरव प्रभाष जी पर सवाल उठाएं और इतनी पतित भाषा में उठाएं। क्योंकि अगर गालियों की भाषा मैंने या मेरे जैसे प्रभाष जी के प्रशंसकों ने लिखनी शुरू कर दी, तो भाई साहब आपकी बोलती बंद हो जाएगी और आपका कंप्यूटर जाम हो जाएगा। भाइयो, बात करो मगर औकात में रह कर बात करो।” ये है जनसत्ता जैसे अखबार में, शलाका पुरुष प्रभाष जोशी की छत्रछाया में पले-पढ़े पत्रकार की भाषा। इस संदर्भ में अगर जनसत्ता के एक दूसरे वरिष्ठ पत्रकार अंबरीश कुमार की टिप्पणी पर गौर करें, तो उनलोगों के जवाब देने की भाषा इसलिए ऐसी हो गयी है क्योंकि प्रतिरोध करनेवालों में से रंगनाथ सिंह ने उनके लिए लठैत शब्‍द का प्रयोग किया (देखें, जनतंत्र डॉट कॉम)। ये अलग बात है कि गंभीरता और समझदारी की पत्रकारिता करते आनेवाले अंबरीश कुमार ने भी लठैती करना मुहावरा को अपनी ओर से विशेषण के तौर पर इस्तेमाल किया और ये मान लिया कि रंगनाथ सिंह की ओर से प्रभाष जोशी के शिष्यों के लिए इस शब्द का प्रयोग किया गया है। प्रभाष जोशी के जिस बयान पर तार्किक ढंग से बहस होनी चाहिए थी, उस पर यहां तक आते-आते आदर और भावुकता की चादर चढ़ा दी गयी और नतीजा ये हुआ कि मौजूदा परिवेश में जहां कि हम अधिक से अधिक लोकतांत्रिक और मानवीय होने की कोशिशों की तरफ बढ़ रहे हैं, वहीं प्रभाष जोशी के इस विरोधी दिशा में बढ़ते आने के प्रतिरोधी शब्दों को कुचलने का काम कर जाते हैं, उनकी बातों पर व्यक्तिगत स्तर पर उन्हें महान साबित करने के उदाहरणों से पूरी बहस को पाटने की कोशिश करते हैं। संभव है, इस श्रद्धा से पगे बचाव की कोशिशों और प्रतिरोध के स्वरों के बीच कुछ ऐसे संदर्भ बने हों जहां आकर संस्कारों की ट्रेनिंग पानेवाले प्रभाष जोशी के शिष्य विचलित हुए हों और लफंगा जैसे शब्दों का प्रयोग कर गये हों जिसे कि अंबरीश कुमार सहित बाकी के लोग जस्‍टीफाइ करने में लगे हों। लेकिन इसी बीच मेरी नज़र प्रभाष जोशी के शिष्यों के एक और प्रयास की तरफ जाती है।

वर्डप्रेस पर जनसत्ता नाम से प्रभाष जोशी के शिष्यों की ओर से ब्लॉग बनाया गया है, जिसमें कि जनसत्ता के लोगों की घोषणा की गयी है। इसमें सिर्फ पत्रकार अंबरीश कुमार और पत्रकार आलोक तोमर की साइट के लिंक हैं। इस घोषणा में पत्रकारों के नामों के पहले जो भूमिका है, उसकी पहली और आखिरी लाइन गौर करने लायक है। पहली लाइन है – ये ओम थानवी का नहीं प्रभाष जी के शिष्यों का ऑनलाइन जनसत्ता है और इसे आज के जनसत्ता के प्रिंट संस्करण से ज्यादा लोग पढ़ते हैं। आखिरी लाइन है, प्रभाष जी के किसी भी उत्तराधिकारी के लिए, उनके वंशजों के इस मंच पर तो क्या नेपथ्य में भी संभावना नहीं है। घर में किन्नर बिठाने की परंपरा से हम विनम्रतापूर्वक इनकार करते हैं। किस तरह की मर्दवादी भाषा का प्रयोग इस ब्लॉग में किया गया है, ये आपके सामने है। किस शालीन भाषा के प्रभाष जोशी के ये शिष्य हिमायती हैं, आप खुद ही अंदाज़ा लगा लें। यहां किसने अपशब्दों का प्रयोग किया है, किसने इनके लिए अभद्र भाषा का प्रयोग किया, ये अंबरीश कुमार बता दें, तो बेहतर होगा। इस पूरी भाषा से हम या तो इस निष्कर्ष पर पहुंचते है कि शुरू से ही प्रभाष जोशी इस तरह से अपने बचाव और मठवाद को कायम रखने की भाषा की ट्रेनिंग अपने शिष्यों को देते आये हैं? अपने ही भीतर के लोगों के बीच गुटवाद को पनपने देने में खाद-पानी का काम करते हैं, क्योंकि ये साइट इस बात का दावा करती है कि ये प्रिंट में पढ़ी जानेवाली जनसत्ता से ज्यादा पढ़ी जाती है। इसे असली जनसत्ता कहा गया है। ये ओम थानवी का जनसत्ता नहीं है या फिर प्रभाष जोशी के शिष्य होने के नाम पर आलोक तोमर जैसा शख्स खुद प्रभाष जोशी के नाम और गरिमा के बीच मठ्ठा घोलने का काम कर रहा है।

दूसरी बात की भी संभावना इसलिए है कि आलोक तोमर की ओर से ये घोषणा की गयी है कि प्रभाषजी इंटरनेट पर नहीं जाते और नेट को समाज मानने से इनकार करते हैं। पहली बात में सच्चाई है कि वो इंटरनेट पर नहीं जाते, कुछ नेट के जरिये मंगाना होता है, तो वो दूसरों के मेल पर मंगाते हैं, लेकिन यहां प्रभाष जोशी की तकनीकी स्तर पर कमज़ोर होने की सूचना मिलती है, इसे ज़बरदस्ती अवधारणात्मक मसला न मानें, तो ही अच्छा है। लेकिन दूसरी बात में ज़रा भी सच्चाई नहीं है कि प्रभाष जोशी नेट पर लिखनेवाले लोगों को महत्वहीन करार देते हैं। आज प्रभाष जोशी अपने विरोध की आवाज़ के आगे भले चुप हों और उनके बचाव के लिए आलोक तोमर जैसा शिष्य नाहक हमसे भिड़ने आ गया हो, लेकिन ख़बरों के धंधे वाले मामले में जब अख़बारों ने चुप्पी साध ली थी, तो इन्‍हीं प्रभाष जोशी को बहुत बुरा लगा था। ऐसे में जब उन्हें मालूम हुआ कि ब्लॉग और इंटरनेट से जुड़े लोग इस मसले पर लगातार लिख रहे हैं, तो उन्होंने कहा कि ये अच्छा काम कर रहे हैं। ब्लॉगरों की लिखी पोस्ट के प्रिंट आउट देखने की इच्छा जाहिर की और दोस्तों के माध्यम से शुभकामना संदेश भिजवाया। इसलिए आज प्रभाष जोशी के लिए ज़रूरी हो गया है कि वो हमारे प्रतिरोध का जवाब भले न दें, जैसे अब तक बेचैन होते हुए भी लेखन और जवाब के स्तर पर चुप्पी मारे हैं, लेकिन बार-बार अपने को प्रभाष जोशी का शिष्य बताकर उनके बचाव में जो कुछ भी कहा जा रहा है, उसे प्रभाष जी देखें, पढ़ें और बचाव के लिए बंदूक लेकर कूद पड़े अपने शिष्यों को डपटने की तरह एक बार फिर दिशा-निर्देश देने का काम करें।

उम्मीद की जानी चाहिए कि प्रभाष जोशी जीते जी अपने नाम पर होनेवाली लंपटई को बर्दाश्त नहीं करेंगे और कहेंगे – दूर हटो, तुम जैसे नालायक शिष्यो, मेरी कलम में अभी भी इतनी ताकत बची है कि मैं अपने पक्ष की लड़ाई खुद लड़ सकता हूं, तुम जैसों की हमें कोई ज़रूरत नहीं
| | edit post

टेलीविजन स्क्रीन पर इतने आक्रामक अंदाज में बात करने वाला शख्स भीतर से इतना खोखला होगा कि अपने मालिक के प्रति वफादारी दिखाने के लिए गुंडे-मवालियों की भाषा का इस्तेमाल करने लग जाएगा,सोचकर किसी भी एंगिल से यकीन नहीं होता। एक नामचीन पत्रकार के बारे में ऐसा सोचते हुए मन कसैला हो जाता है। सच पूछिए तो मेरा ध्यान वहां तक गया भी नहीं। हां इतना समझ पाया कि जिस किसी ने मेरे उपर ये कमेंट किया है उसे मेरी बात भीतर तक लगी है और वो इसे पढञकर बुरी तरह तिलमिला गया है और अपने को संभाल नहीं पाया है। लेकिन मोहल्लाlive पर बेनामी नाम से एक कमेंट को पढ़कर मैं उनके बताए फ्रेम में थोड़ी देर रुककर सोचने लगा। उन्होंने लिखा-

मेरा बेनामी रहना बहुत ज़रूरी है। दरअसल ये जो संजय देशवाल है वह अतुल अग्रवाल ही है। जो लोग अतुल अग्रवाल को करीब से जानते हैं वो पहचान गए होंगे इस टिप्पणी की भाषा से। न्यूज २४ में इसी तरह की भाषा का प्रयोग किया करते थे जनाब। अगर किसी को कोई संदेह है तो जनाब की वेब साईटhttp://www.hindikhabar.com पर जाकर पढ़ लें। भाषा एक जैसी है।

मैं अतुल अग्रवाल को लेखन के स्तर पर न के बराबर जानता हूं। अगर उन्होंने बहुत कुछ लिखा भी है तो माफ कीजिएगा मैंने उसे पढ़ा नहीं है। लेकिन हां,बोलने के स्तर पर उन्हें लगातार एक टेलीविजन ऑडिएंस की हैसियत से सुनता आया हूं। बोलने का आक्रामक अंदाज,गर्दन की नस फुलाकर बोलने की शैली एकबारगी हमें आकर्षित करती है। लेकिन इतना तो आप भी जानते है कि बड़ी पूंजी के बीच फंसी मीडिया के बीच से चाहे जितनी भी जोर से आवाज निकाले जाएं वो आवाज क्रांति या बदलाव की नहीं हो सकती,वो अंत तक आते-आते एक शोर और कानों के लिए एलर्जी पैदा करनेवाले एलीमेंट बनकर रह जाते हैं। इसलिए दो मिनट के बाद ही मुझे चांदनी चौक में जामुन बेचनेवाले बंदे का ध्यान हो आता है जो अकेले जामुन में ही दुनियाभर की बीमारियों को हरनेवाले गुणों को बताकर हांक लगाने का काम करता है। कॉर्पोरेट ग्लूकोज पीकर आधे-एक घंटे की बुलेटिन पेश कर अतुल अग्रवाल या देश का कोई भी मीडियाकर्मी पूरी तरह सड़ चुकी व्यवस्था में कितनी रद्दोबदल कर सकता है ये आपसे औऱ हमसे छिपा नहीं है। इसलिए मेरी तरह आपको भी यकीन हो जाएगा कि ऐसा बोलने का अंदाज एक शैली भर से ज्यादा कुछ भी नहीं है,शांत मिजाज की ऑडिएंस इस शैली को शायद ही पसंद करे। बहरहाल,

लेखन के स्तर पर मेरी तरह इंटरनेट पर पढ़नेवाले लोगों के बीच जैसे ही अतुल अग्रवाल का नाम आता है तो एक ही बात एक साथ निकलती है- अच्छा,वही जिसने खुशवंत सिंह को लेकर अनाप-शनाप लिखा था। मैंने अतुल अग्रवाल की लिखी ये पोस्ट रॉ फार्म में ही पढ़ी थी। कई गालियां,भद्दे-भद्दे कमेंट,अश्लीलता और फूहड़ भाषा से भरी इस पोस्ट को पढ़ते हुए मुझे बार-बार ऐसा लगा कि मैं अन्तर्वासना डॉट कॉम पर लिखी गयी कहानियों की भूमिका से गुजर रहा हूं। मन में एक सवाल भी आया कि जो इंसान बतौर एक लेखक ऐसी भाषा का इस्तेमाल कर रहा है तब वो बोलने के स्तर पर किस तरह की भाषा का इस्तेमाल करता होगा? लेकिन यही तो चमत्कार है कि सुबह से शाम तक मां की,बहन की करनेवाले सैंकड़ों लोग शाम गहराते ही मानवीयता,शालीनता और बदलाव के लबादे ओढ़कर ज्ञान देने की मुद्रा में आ जाते हैं। हालांकि अतुल अग्रवाल की इस पोस्ट को कई वेबसाइटों ने अपने स्तर से फिल्टर करके छापा लेकिन उसके फ्लेवर में कोई खास फर्क नहीं आया। शायद यही वजह है कि जिस बेनामी शख्स ने मेरे लिए की गयी टिप्पणी को अतुल अग्रवाल की कारस्तानी बताया,वो इस पोस्ट की याद दिलाना नहीं भूला,उसे बतौर रेफरेंस के तौर पर इस्तेमाल किया। इसके साथ ही एक साइट की लिंक भी दी और कहा कि हम उसकी भाषा से अगर टिप्पणी की भाषा का मिलान करते हैं तो हमें पक्का विश्वास हो जाएगा कि ये उन्हीं का काम है।

टिप्पणी के मुताबिक सही में मैं अतुल अग्रवाल के आगे कुछ भी नहीं हूं,पासींगा भी नहीं। लेकिन बिडंबना देखिए कि देश के इतने बड़े पत्रकार को(अगर वाकई हैं तो) मुझ जैसी नाचीज को जबाब देने के लिए जहमत उठानी पड़ गयी। मैं इस मसले पर अभी लिखने ही जा रहा था कि जीमेल टॉक पर अचानक से एक पत्रकार भाई का संदेश आया- विनीत,आपके उपर किसने कमेंट किया है,मैं उन्हें अच्छी तरह जानता हूं। मैंने कहा- एक शख्स ने तो कमेंट के तौर पर लिखा है कि ये काम अतुल अग्रवाल का है। उधर से फिर जबाब आया,एकदम सही लिखा है,सौ फीसदी सही। मैंने फिर कहा-मैं तो लिखने जा रहा हूं-कहीं ये कमेंट अतुल अग्रवाल का तो नहीं। उधर से फिर जबाब आया-आप निश्चिंत रहिए,ये काम उसी शख्स का है।

डिस्क्लेमर- इस पोस्ट के जरिए हमने सिर्फ उस गुंजाइश को समझने की कोशिश की है जो कमेंट और अतुल अग्रवाल की भाषा को एक करती है। हमारा इरादा न तो अतुल अग्रवाल जैसे बड़े पत्रकार के बारे में कोई अतिरिक्त छवि बनाने की है औऱ न ही हम उन जैसे किसी भी शख्स से मुकाबला करने की स्थिति में हैं। अगर उन्हीं के शब्दों को दोहराएं तो-अबे, अमित सिन्हा या किशोर मालवीय तो बहुत दूर की बात है, तुम तो एक इंटर्न पर भी टिप्पणी करने की औकात नहीं रखते।

नोटः- मुझे अभी तक मेरी अपनी औकात का अंदाजा नहीं था,ये बताने के लिए टिप्पणीकार का शुक्रिया। खुशी होगी कि अतुल अग्रवाल यहां आकर लताड़ लगा जाएं औऱ कहें कि तुम्हें हिम्मत कैसे हुई मुझ पर शक करने की,मेरे पास इस तरह के वाहियात काम करने की जरा भी फुर्सत नहीं।.
| | edit post

ये विनीत एक नंबर का चूतिया मालूम पड़ रहा है। कुछ पता-वता है नहीं, उल्टी-सीधी बातें लिख मारी हैं। अबे विनीत, तुम खुद क्या हो, तुम्हारी क्या औकात है। अमित सिन्हा जैसे ईमानदार इंसान को तुझ जैसे झटियल से प्रमाणपत्र हासिल करने की जरूरत नहीं है। पहले खुद को इस लायक बनाओ कि लोग तुम्हे जाने-पहचाने फिर कमेंट्स करने की हिमाकत करो। अबे, अमित सिन्हा या किशोर मालवीय तो बहुत दूर की बात है, तुम तो एक इंटर्न पर भी टिप्पणी करने की औकात नहीं रखते। ये मुंह और मसूर की दाल। गधे हो जो फालतू की बातें लिख रहे हो। अविनाश भाई, मुझे आप पर भी तरस आता है कि आपने अपने पूर्व अनुभवों से कुछ नहीं सीखा और ऐसे चिरकुटों की बातों को छाप रहे हैं। गुरूजी, ये चूतिए अपने चुतियापे से आपकी छवि की भी मां बहन कर रहे हैं। संभल जाओ दोस्त
संजय देशवाल

वाइस ऑफ इंडिया में पिछले दिनों जो कुछ भी हुआ उस संबंध में मैंने अपनी राय मोहल्लाlive पर जाहिर की। एक वेबसाइट ने जब इस संबंध में मेरी राय जाननी चाही तो मैंने साफ तौर पर कहा कि चैनल के पास न तो कोई स्ट्रैटजी है और न ही वहां काम कर रहे मीडियाकर्मियों को लेकर कोई चिंता। आज चैनल चला रहे हैं,अगर घाटा इसी तरह जारी रहा तो जोड़-तोड़ से सरकार की ओर से सॉफ्टलोन के लिए जुगत भिड़ाएंगे और आम आदमी का पैसा सांप-सपेरे औऱ ढिंचिक-ढिंचक खबरों के लिए झोंक दिया जाएगा,कहीं कोई हिसाब लेनेवाला नहीं है। चैनल के सीइओ अमित सिन्हा की जो समझ है वो अनुभव मीडियाकर्मी से कहीं ज्यादा भावुकता और श्रद्धा में जकड़े एक भक्त की है। चैनल के भीतर खबरों पर चर्चा होने से कहीं ज्यादा साईं बाबा के नाम पर आरती की थालियां घुमायी जाती है जिसका खुलासा अपने अधिकारों के लिए लड़नेवाले वाइस ऑफ इंडिया के मीडियकर्मियों ने बनाए ब्लॉग long live voi पर किया। ये अलग बात है कि अब उन्होंने इस ब्लॉग को अपनी मांगें और शर्तें पूरी होने के साथ ही बंद कर दिया। आप कह सकते हैं कि हम पाठकों के साथ भावनात्मक रुप से खिलवाड़ किया वो इसे मीडिया इतिहास से धो-पोछकर खत्म कर देना चाहते हैं जबकि ये संभव नहीं है। मेरी बात संजय देशवाल नाम के एक शख्स को इतनी चुभ गयी कि उन्होंने मेरे लिए सार्वजनिक रुप से चुतिया शब्द का इस्तेमाल किया और मोहल्लाlive के मॉडरेटर अविनाश की छवि की मां-बहन करने का मुझ पर आरोप भी लगाया। इसी बीच मेरे पास कई पत्रकारों,दोस्तों और ब्लॉग पाठकों के फोन आए। सबों ने कहा कि इस तरह की अभद्र भाषा का कोई कैसे प्रयोग कर सकता है,आप तुरंत अविनाश से बोलकर इस कमेंट को हटाने कहो। मैं जानता हूं कि अविनाश हाइपर डेमोक्रेटिक आदमी हैं,इसलिए उन्हें कुछ भी कहना सही नहीं होगा। दूसरी तरफ हम चाहते थे कि पाठकों को पता तो चले कि देश के एक पत्रकार के प्रतिरोध की भाषा क्या हो सकती है और उसे किसी की बात से सहमति नहीं होती है तो वो किस जुबान में बात करता है,इसका अंदाजा लगा सकें। इसलिए मैंने नीचे एक उस कमेंट का एक युगल रुप देते हुए एक छोटा-सा कमेंट किया-

संजयजी,आपको पढ़कर मुझे बहुत अच्छा लगा,आपने मुझे इतनी गंभीरता से पढ़ा और अपने संस्कार और भाषा का परिचय दिया। मैं यहां बैठे-बैठे ही आपकी छवि को समझ सकता हूं। अगर आप जैन टीवी से लाइव करनेवाले खेमे में थे तो भविष्य के लिए शुभकामनाएं। आपकी भाषा बहुत अच्छी है,अगर कोई स्टोरी इसी भाषा में लिखते हों तो आप मुझे मेल कीजिएगा,देखना चाहूंगा।….और हां अमित सिन्हा के प्रति प्रतिबद्धता को देखकर काफी प्रभावित भी हुआ। आप जैसे लोगों से वो हमेशा घिरे रहें इसके लिए उन्हें भी शुभकामनाएं….

इस कमेंट के जरिए मैंने किसी भी रुप में अपने को महान साबित करने की कोशिश नहीं की है बल्कि मुन्नाभाई एमबीबीएस में बॉमन इरानी की तरह टेंशन रिलीज करने के प्रयोग किए हैं। ये भाषा उसी पत्रकार समाज से प्रयोग की गयी है जो दिन-रात हमें फोन करके,मेल के जरिए नसीहत दिए फिरते हैं कि आपको जो मन आए लिखिए लेकिन अपशब्दों का प्रयोग मत कीजिए। उनकी लगातार कोशिश होती है कि हमारे लिखे के भीतर से चीर-फाड़कर एक-दो ऐसे शब्द निकालें और उसे अश्लील साबित करते हुए पूरे मुद्दे को निगल जाएं। ब्लॉग और पार्टल के विरोध में ऐसी छवि बनाए जैसा कि मृणाल पांडे औऱ वरिष्ठ आलोचक रमेश उपाध्याय जैसे लोग बनाते आए हैं। जो लोग इंटरनेट की दुनिया में नहीं विचरते,दूर से हांक लगानेवाले आलोचकों को सुनकर राय बनाते हैं कि इस पर लेखन के नाम पर सिर्फ टुच्चई होती है,उन्हें ये भरोसा हो जाए कि इंटरनेट पर लिखनेवाले लोग कभी कुछ बेहतर लिख ही नहीं सकते।

मेरे एक-दो अनुभवी मीडिया साथियों ने कहा कि ये जो कमेंट किया गया है वो वाइस ऑफ इंडिया के किसी वरिष्ठ मीडियाकर्मी का है,ऐसा काम वो पहले भी कर चुके है। नाम बदलकर कमेंट करने का काम वो पहले भी कर चुके हैं। लेकिन मैं बार-बार यही कामना कर रहा हूं कि ये किसी भी चैनल के पत्रकार की भाषा न हो,ऐसे शख्स की भाषा न हो जो मीडिया प्रोफेशन से संबंध रखता हो। नहीं तो इधर पन्द्रह दिनों में मीडिया को लेकर जो विश्वास छीजते चले जा रहे हैं,उसमें इजाफा हो जाएगा और मुझे जरा भी अच्छा नहीं लगेगा।
| | edit post


गांव के लोगों का दिल अब गांव में नहीं लगता। बुजुर्ग कथाकार विद्यासागर नौटियाल की इस समझ पर असहमति जताते हुए टेलीविजन पत्रकार पुण्य प्रसून वाजपेयी ने कहा- सच तो ये है कि अब शहर में मन नहीं लगता। शायद इसलिए आज हम गांव पर बात करने के लिए यहां जमा हुए हैं। बड़ी तेजी से एक ऐसी संस्कृति पनप रही है जहां हम अकेले होते जा रहे हैं। विदर्भ के चालीस हजार किसानों ने आत्महत्या की तो अकेले होकर आत्महत्या की। हम अकेले बनती दुनिया के बीच जी रहे हैं। विचार के ये बिल्कुल दो अलग सिरे हैं लेकिन गांव और शहर को लेकर जो भी नक्शा हमारे जेहन में बनता है,उसकी भाषिक व्याख्या पाखी,साहित्यिक पत्रिका की ओर से आयोजित संगोष्ठी साहित्य और पत्रकारिता में गांव में सुनकर अच्छा ही लगा। हालांकि पूरी बहस का एक बड़ा हिस्सा इस बात पर आकर टिक गया कि दिल्ली या फिर दूसरे बड़े शहरों में रहकर गांव और देहात पर लिखनेवाले लोगों की बातों की ऑथेंटिसिटी कितनी है या फिर शहर में रहकर जो लोग गांव पर लिख रहे हैं उसमें कितनी तल्खी है। मैनेजर पांडेय के शब्दों में कहें तो दिल्ली जैसे शहर में,एसी हॉल में बैठकर जो हम गांव पर सेमिनार कर रहे हैं उससे बड़ा ही मनोरंक दृश्य पैदा हो गया,जाहिर है ये उनकी ओर से सेमिनार को लेकर किया गया व्यंग्य है लेकिन इसी बहाने साहित्य औऱ पत्रकारिता के बीच गांव भी एक मुद्दा है,इस पर बात होनी चाहिए, ऐसे सेमिनार विमर्श की दुनिया में इन विषयों के प्रति एक महौल पैदा करने का काम तो करते ही है।

साखी पत्रिका ने साहित्य औऱ मीडिया में गांव विषय पर संगोष्ठी का आयोजन पत्रिका के एक साल पूरी होने के उपलक्ष्य में कराया और विषय की जरुरत को ध्यान में रखते हुए इस पर विशेषांक भी निकालने की बात भी की। ये अलग बात है कि इस पूरे एक साल में स्वयं पाखी ने गांव औऱ उनसे जुड़ी समस्याओं,स्थितियों औऱ संरचना को लेकर रचनात्मक स्तर पर बहुत कुछ नहीं किया। बकौल पुण्य प्रसून वाजपेयी इस एक साल में न तो पाखी ने और न ही हंस ने गांव को लेकर बहुत कुछ किया है। संगोष्ठी के बाद विशेषांक निकाले जाएंगे इससे एक उम्मीद बंधती है लेकिन सवाल ये है कि इसके बाद क्या? बहरहाल,

वक्ता के तौर पर साहित्य और मीडिया से जुड़े कुल चार बुद्धिजीवियों ने अपनी बात रखी। बुजुर्ग कथाकार विद्यासागर नौटियाल,टीवी पत्रकार पुण्य प्रसून वाजपेयी, बरिष्ठ हिन्दी आलोचक मैनेजर पांडेय और हंस के संपादक औऱ कथाकार राजेन्द्र यादव। बुजुर्ग कथाकार नौटियाल के ये कहे जाने पर ही कि अब गांव के लोगों का मन भी गांव में नहीं लगता,किसी गांव में बैठकर भी वो न्यूयार्क,लंदन और विदेशों के बारे में ही सोचते हैं तो समझिए कि बहस का पलीता सुलगाने का काम हो गया। उसके बाद उनकी ये बात गंभीर रही कि पहले के मुकाबले देहातों में अखबार पढ़ने का चलन बढ़ा है,कई गुना ज्यादा अखबार बिकने लगे हैं,मीडिया उन इलाकों में प्रवेश करने लग गया है जबकि साहित्य से देहात तेजी से गायब हो रहे हैं। अगर लिखा भी जा रहा है तो वो भी नास्टॉलिक होकर ही। साहित्य को इस दिशा में सोचने की जरुरत है जबकि मीडिया जिस भाषा का प्रयोग कर रहा है,अखबार जिन शब्दों औऱ भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं,जिसे पढ़कर देहात के लोग भाषा सीखते हैं,वही भाषा में कल को दिल्ली आकर बोलेंगे वो बहुत ही खतरनाक है। नौटियाल ने इस बात पर चिंता जाहिर करते हुए संभावना के लिए बैचेन नजर आए कि आज देश में कोई भी एक अखबार नहीं है जिसकी भाषा हिन्दी हो। हिन्दी के नाम पर भाषा पूरी तरह भ्रष्ट हो चुकी है।

नौटियाल की गांव के लोगों का मन गांव में नहीं लगने की बात को पुण्य प्रसून वाजपेयी ने अपने वक्तव्य में एक दार्शनिक और काफी हद महानगरों का एक पुर्जा बनकर रह जानेवाली बिडंबना की तरफ इशारा करते हुए कहा कि सच तो ये है कि अब हमारा मन शहर में नहीं लगता। हम लगातार अकेले होते जा रहे हैं। विदर्भ को आइडियल शहर घोषित किया गया लेकिन वहां चालीस हजार किसानों ने अकेलेपन के स्तर पर आत्महत्याएं की। आज अगर मीडिया में गांव नहीं है,मीडिया से जुड़े लोग गांव की स्थितियों को संवेदना के स्तर पर नहीं ला पा रहे हैं इसके लिए उन्होंने सरकार को सीधे तौर पर जिम्मेवार ठहराया। सरकार मतलब कोई मनमोहन सिंह और नरसिंह राव की सरकार नहीं बल्कि वो संसदीय प्रक्रिया और मशीनरी जिसके तहत निर्णय लेने और लागू करने के काम होते हैं। वाजपेयी मीडिया से गांव के गायब हो जाने की घटना को देश की आर्थिक नीतियों से जोड़ते हैं और लोगों की उस मानसिकता को तोड़ने का प्रयास करते हैं जो आज की अधिकांश गड़बड़ियों के लिए सीधे-सीधे मीडिया को जिम्मेवार मानते हैं। वाजपेयी के मुताबिक निजी टेलीविजन चैनलों के आए हुए तो मात्र दस साल हुए लेकिन आप देखिए लोकसभा जैसा चैनल पर भी भूखमरी पर बात करते हुए एक्सप्कट ठहाके लगाने का काम करता है। वाजपेयी ने मीडिया और गांव से जुड़े सवाल को संसद औऱ उसको लेकर होनेवाली राजनीति,आर्थिक नीतियों और नियत से जोड़ते हुए विस्तार से समझाया। किसानों के मजदूर बन जाने की घटना,रेड कॉरीडोर को धकियाते हुए अंदर किए जाने की बात,कोई विकल्प न दोने औऱ खड़ा करने की बात पर चिंचा जताते हुए वाजपेयी ने उन तमाम बिडंबनाओं की तरफ खुलकर इशारा किया जहां किसान सभा निकालने वाले राजनाथ सिंह पूरे गांव से हाइवे की सड़कों की तरह गुजर जाते हैं,राहुल गांधी बिस्लरी की बोतल थामे लोगों से जुड़ने के लिए बेचैन रहते है औऱ चंदन मित्रा जैसा पत्रकार राजनीति में आते ही जनता की न होकर पार्टी लाइन की जुबान बोलने लग जाते हैं। पत्रकारिता की पराकाष्ठा राजनीति तक आकर शांत हो जाती है।

मैनेजर पांडेय इस बात को नहीं मानते कि हिन्दी साहित्य में जो कुछ भी लिखा जा रहा है उसमें गांव को लेकर कोई चिंता नहीं है। उन्होंने शिवमूर्ति का आखिर छलांग और रणेन्द्र का उपन्यास लालचंद असुर और ग्लोबल गांव के देवता का उदाहरण देते हुए स्पष्ट किया कि हिन्दी में लोग लगातार गांव से जुड़े मसलों और समस्याओं पर लिख रहे हैं। वक्तव्य के अंत में उन्होंने राजेश जोशी की दो कविताएं भी पढ़ी जिसमें से कि विकल्प कविता की उन पंक्तियों पर जोर दिया जहां गांव के लोगों के पास या तो शहर जाकर नौकर बनने या फिर आत्महत्या कर लेने के अलावे कोई दूसरा विकल्प नहीं है,अपराध के दरवाजे पर नो वैकेंसी का बोर्ड कभी नहीं लगा होता,इस विकल्प पर सोचकर हमारे सामने जो सीन बनते हैं,उससे भी हम शायद मौजूदा समाज का विश्सेलेषण कर सकते हैं। मैनेजर पांडेय के मुताबिक आज जो देश की स्थिति है,दरअसल इसके भीतर एक ही साथ दो-दो हिन्दुस्तान है। एक हिन्दुस्तान जिसमें कि कुल आबादी के नब्बे फीसदी लोग रहते हैं औऱ दूसरे हिन्दुस्तान में मात्र दस फीसदी लोग रहते हैं। दस फीसदी के लोगों के लिए ये स्वर्णिम युग है,स्वर्ग है,बसंत है जबकि नब्बे फीसदी लोगों के लिए ये नरक है और अब वो इस इस नरक को छोड़कर कहीं औऱ नहीं जाना चाहते,उनके लिए ये माघ की ठिठुरन है....और सबसे बुरा वक्त है। मैनेजर पांडेय ने अपने सरस अंदाज में गांव की चिंता करनेवाले उन बुद्धिजीवी साहित्यकारों की मानसिकता की तरफ भी इशारा किया जो कि सामयिक मसलों से बिल्कुल कटकर जीने को अभ्यस्त हैं जिसे कि उन्होंने हरियाणा औऱ दिल्ली के आसपास इलाकों में युवाओं के प्रेम किए जाने पर सामूहिक हत्या कर देने और फरमान जारी करने पर दिल्ली में पांच लोग भी जुटकर प्रतिरोध नहीं करने के तौर पर रेखांकित किया।

अंतिम वक्ता के तौर पर राजेन्द्र यादव ने उक्त विषय पर बोलने से पहले ही अपनी स्थिति स्पष्ट कर दी कि वो अपने को इस विषय पर बोलने के अधिकारी नहीं मानते। लेखन के स्तर पर शुरुआती दौर से ही उनका संबंध मध्य वर्ग की समस्याओं से रहा है। लेकिन इस घोषणा के बाद उन्होंने जो कुछ भी कहा उसे समझना जरुरी है। राजेन्द्र यादव के मुताबिक अब तब जितने बदलाव हुए हैं उनमें शहर और मध्य वर्ग के लोगों की ही भूमिका रही है। शहर और यहां के लोगों ने धक्का दे-देकर गांव में बदलाव की भूमिका तैयार की है। अगर ये शहर और लोग नहीं होते तो गांव रुढ़िवाद और अपनी स्थानीय जड़ता में ही जकड़ा रहता। इस लिहाज से मुझे गांव पर न बोलने और लिखने का कोई अफसोस नहीं है। राजेन्दर यादव ने गांव और शहर के बीच में कथाकार संजीव और स्वयं के बीच के प्रसंग को एक रुपक के तौर पर पेश किया और उन लोगों पर लगभग व्यंगय भी जो गांव शब्द सुनते ही पंत की कविता याद करते हैं-अहा-ग्राम्य-जीवन भी-क्या है,थोड़े में निर्वाह यहां है...याद करने लग जाते हैं और खोने की नकल करते हैं।

पाखी पत्रिका ने जिस विषय पर संगोष्ठी आयोजित की है,उस पर बात करने के लिए निश्चित पर निर्धारित समय बहुत ही कम रहा,इस पर लंबी बहस औऱ बातचीत संभव है जिसकी भरपायी विशेषांक निकाले जाने की घोषणा के साथ करने की कोशिश की गयी। लेकिन फिर वही सवाल कि उसके बाद क्या...क्या मुख्यधारा की पत्रकारिता और साहित्य के बीच इसे शामिल करने की जरुरत पूरी हो पाती है या फिर हिन्दी पखवाड़ा या आरक्षण की नीति के तहत इसके लिए साल में दो-चार दिन निर्धारित कर दें औऱ बाकी समय हुर्रा-हुर्रा करते निकल जाएं।

पूरी संगोष्ठी में हुई बातचीत सुनने के लिए चटकाएं-
साहित्य और पत्रकारिता में गांव,23 अगस्त 09.पाखी
| | edit post

इंटरनेट के जरिए हिन्दी में जो कुछ भी लिखा-कहा जा रहा है उसे देख-पढ़कर प्रिंट मीडिया और अकादमिक जगत के अनुभवी और बुजुर्ग लोगों का एक खेमा तेजी से इसके विरोध में सक्रिय होता जा रहा है। कभी पूरे हिन्दी ब्लॉग लेखन को भड़ास ब्लॉग लेखन तक सीमित करते हुए मृणाल पांडे हिन्दुस्तान में संपादकीय लिखती हैं तो कभी आलोक मेहता अपने पक्ष में पोस्टों को खंगालते हुए रमेश उपाध्याय की पुरानी पोस्ट को नयी दुनिया में छापते हैं,रमेश उपाध्याय इंटरनेट की दुनिया में,हिन्दी में लिखनेवालों पर आरोप लगाते हैं कि- बड़े खेद की बात है कि इसका दुरुपयोग अपनी भाषा और साहित्य से लोगों को विमुख करने के लिए किया जा रहा है। और यह काम हिंदी वाले स्वयं कर रहे हैं। रमेश उपाध्याय की इस बात का मीडिया विशेषज्ञ औऱ अनुभवी अध्यापक जगदीश्वर चतुर्वेदी न सिर्फ खुलकर समर्थन करते हैं बल्कि इंटरनेट पर के लेखन को- इसके लेखन से भाषा न तो समृद्ध होगी और न भाषा मरेगी,नेट के वि‍चार सि‍र्फ वि‍चार है और वह भी बासी और मृत वि‍चार हैं,उनमें स्‍वयं चलने की शक्‍ति‍ नहीं होती, आप नेट पर महान क्रांति‍कारी कि‍ताब लि‍खकर और उसे करोड़ लोगों को पढाकर दुनि‍या नहीं बदल सकते जैसी राय जड़ देते हैं। इंटरनेट पर हिन्दी में जो कुछ भी लिखा जा रहा है उसे कूड़ा-कचरा बतानेवाले ये नए लोग नहीं है।इनसे पहले भी कई लोगों ने असहमति के लेख को इसी तरह इंटरनेट लेखन के विरोध में महौल बनाने का काम किया जबकि इन्हीं के बीच से आए वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोशी की आवाज जब अखबारों ने नहीं सुनी तो मजबूरन उन्हें इंटरनेट पर लिखी जा रही हिन्दी पर उम्मीद जतानी पड़ गयी। विरोध में महौल बनाने का काम जारी रहेगा लेकिन इतना तय है कि जो लोग यहां उपदेश और ज्ञान देने का काम करेंगे वो मारे जाएंगे-


जगदीश्‍वर चतुर्वेदी
said:
वि‍नीत कुमार जी,
समस्‍या व्‍यक्‍ि‍तगत नहीं है, बहस को व्‍यक्‍ि‍तगत बनाने से ज्‍यादा बेहतर है यह जानना कि‍ वर्चुअल तो नकल की नकल है, आपने मेरी कि‍ताबें देखी हैं तो कृपा करके पढकर भी देखें । फि‍र बताएं। मैं नि‍जी तौर पर हिंदी में इंटरनेट के जनप्रि‍य होने और इंटरनेट पर ज्‍यादातर सामग्री आने के पहले से ही कम्‍प्‍यूटर,सूचना जगत वगैरह पर लि‍ख चुका हूं। यह मेरी हिंदी के प्रति‍ नैति‍क जि‍म्‍मदारी है कि‍ हिंदी में वह सभी गंभीर चीजें पाठक पढ़ें जि‍न्‍हें वे नहीं जानते अथवा जो उनके भवि‍ष्‍य में काम आ सकती है। आप वर्चुअल की बहस को व्‍यक्‍ि‍तगत न बनाएं,वर्चुअल में झगड़ा नहीं करते, टोपी भी नहीं उछालते,वर्चुअल तो आनंद की जगह है,सामंजस्‍य की जगह है,संवाद की जगह है। कृपया हिंदी साहि‍त्‍य की तू-तू मैं- मैं को नेट पर मत लाइए,चीजों को चाहे जि‍तनी तल्‍खी से उठाएं किंतु व्‍यक्‍ि‍तगत न बनाएं। आप अच्‍छे लोग हैं और अच्‍छे लोग अच्‍छे ही रहते हैं,संवाद करते हैं.

जगदीश्वरजी,
बात बहुत साफ है। हम नेट पर लिखने वालों को अक्सर ये हिदायत देते आये हैं कि आप चीज़ों को व्यक्तिगत मत बनाइए। सार्थक बहस कीजिए वगैरह… वगैरह। लेकिन ऐसा कहते हुए हम इंटरनेट की दुनिया के मिज़ाज को नज़रअंदाज़ कर जाते हैं। यहां तो जिसके पास बिजली की सुविधा है और इंटरनेट कनेक्शन है, वही कीपैड तान देता है। मैं इसे न तो ग़लत मानता हूं और न ही इनके पीछे उपदेश की ताक़त झोंकने के पक्ष में हूं। हां, इतना ज़रूर कहना चाहता हूं कि आज इंटरनेट की दुनिया में हिंदी अगर इतनी तेज़ी से लोकप्रिय होती जा रही है, आये दिन इसे लेकर नये-नये सॉफ्टवेयर लाये जा रहे हैं, तो ये किसी के संपादकीय लिखने का फल नहीं है और न ही किसी अखबार-पत्रिका के मीडिया विशेषांक निकाले जाने का नतीजा है। ये हमहीं जैसे कच्चे-पक्के लिखनेवाले लोगों की बढ़ती तादाद को देखते हुए किया जा रहा है क्योंकि सीधा-सीधा मामला बाज़ार, उपभोग और उससे जुड़ी लोकप्रियता का है।

आप भी इंटरनेट की दुनिया में सक्रिय होते हैं, हम जैसे नौसिखुए के लिखे पर प्रतिक्रिया करते हैं, पढ़कर बहुत अच्छा लगता है लेकिन जैसे ही कोई रमेश उपाध्याय या फिर मृणाल पांडे जैसा ज्ञान देने लग जाता है तो इंटरनेट की दुनिया पर लगातार लिखनेवालों का बिदकना स्वाभाविक है। हमने इसी संपादकीय डंडे की मार और मठाधीशी से ऊबकर यहां लिखना शुरू किया है। ऐसा भी नहीं है कि हममें प्रिंट में छपने और लिखने की काबिलियत नहीं है लेकिन अब अधिकांश जगहों में छपने के पहले ही घिन आने लगती है। माफ कीजिएगा, हम कोई नयी या क्रांति की बात नहीं कर रहे लेकिन शालीनता और सभ्यता के नाम पर लिजलिजेपन को बर्दाश्त नहीं कर सकते।

हर मिज़ाज के लोग लिख रहे हैं, किसी की भाषा थोड़ी उग्र है तो किसी की थोड़ी उटपटांग। ये तो होगा ही लेकिन इसका मतलब ये बिल्कुल भी नहीं है कि सुनियोजित तरीके से इंटरनेट लेखन के विरोध में लगातार महौल बनाये जाएं और उससे भी जी न भरे तो अखबारों में लेख और संपादकीय लिखने लग जाएं। आप आज से दो साल पहले के इंटरनेट पर हिंदी लेखन और अब में तुलना कीजिए तो आपको साफ फर्क समझ आ जाएगा कि पहले के मुकाबले आज की राइटिंग कितनी मैच्योर हुई है। ऐसे ही आगे भी होगा। इसमें कहीं से ज़्यादा बिफरने की कोई ज़रूरत नहीं है। हां इतना तो आप भी जानते हैं कि इंटरनेट की दुनिया में जो कोई भी उपदेश देने का काम करेगा, वो मारा जाएगा। आप देख लीजिए, हजारों ऐसे ब्लॉग हैं, जिनमें बहुत अच्छी-अच्छी बातें लिखी हैं लेकिन उस पर पांच हीटिंग भी नहीं है। ऐसा इसलिए कि वो क्या महसूस करते हैं से ज़्यादा क्या महसूस कराना चाहते हैं की शैली में लिखे गये हैं। लेखन को लेकर ईमानदारी है ही नहीं। संगोष्ठियों में ओढ़ ली गयी शालीनता तो यहां नहीं ही चलेगी न। कई नामचीन लोग बडी-बड़ी बातें लिख देते हैं लेकिन उन्हें कोई पूछनेवाला नहीं है, आखिर क्यों? हिंदी समाज ज्ञान की मुद्रा से अघा चुका है। वो महसूस करने के स्तर पर लिखना-पढ़ना चाहता है।

और जहां तक आपकी किताब पढ़ने की बात है, तो सच कहूं तो माध्यम साम्राज्यवाद से लेकर माध्यम सैद्धांतिकी, युद्ध और ग्लोबल मीडिया संस्कृति सबों से होकर गुज़रा हूं। भाषा में एक हद तक बेहयापन हो सकता है लेकिन जिन चीज़ों के बारे में नहीं जानता, कोशिश करता हूं कि उस पर न ही बात करूं। शुरुआती दौर में मीडिया की जो भी कच्ची-पक्ची समझ बनी है, उसमें आपकी किताबों ने बड़ी मदद की है। इसलिए मेरा कमेंट व्यक्तिगत न मानकर एक लेखक-पाठक के बीच का संवाद मानकर पढें, तो मुझे भी अच्छा लगेगा। अपने पक्ष में बहुत अच्छा कहने के बजाय इतना ज़रूर कहूंगा कि आपको बहुत कम ही पाठक ऐसे मिले होंगे, जो आपसे असहमति रखते हुए भी आपकी सारी किताबों को बेचैनी से ढूंढते हुए पढ़ता है। बाकी संवाद को मैं भी सृजन प्रक्रिया का सबसे अनिवार्य हिस्सा मानता हूं। भाषा को लेकर अगर बेशर्मी बरती हो, तो माफ करेंगे।
♦ विनीत कुमार

पूरी बहस पढ़ने के लिए क्लिक करें- मोहल्लाlive
| | edit post

आउटलुक पत्रिका ने हिन्दी कवि-कथाकारों को लेकर एक सर्वे शुरु किया है। रंगनाथजी को इस सर्वे से इस बात को लेकर गहरी आपत्ति है क्योंकि वो साहित्य को बाजार के फार्मूले से देखने के खिलाफ हैं जबकि मेरी मान्यता है कि-
साहित्य को महान कहने के पहले अगर हम छपने-छपाने की राजनीति को समझ लें, तो हमें ये महान और अलग लगने के बजाय सांस्कृतिक उत्पाद से अलग कोई दूसरी चीज़ नहीं लगेगी। आप भी पढ़ें औऱ अपनी राय दें-


‘हमारे प्रिय रचानाकार’, ‘हमारे प्रिय कवि’, ‘हमारे प्रिय कथाकार’ जैसे शीर्षक से निबंध लिख-लिख कर हिंदी पट्टी का जो समाज स्कूली परीक्षा पास करता आया है, आज उसी समाज से आये हुए रंगनाथजी आउटलुक के साहित्यकार सर्वे पर सवालिया निशान खड़े करने में जुटे हैं। उनका विरोध जितना स्वाभाविक है, उतना ही अनिवार्य भी। स्कूली जीवन में जब ये समझ और साहस पैदा न कर सके कि वो मास्टर या परीक्षा बोर्ड के आगे जवाब तलब कर सकें कि ऐसा क्यों लिखें हम? अगर प्रेमचंद हमें सबसे ज़्यादा पसंद हैं तो इस निबंध में ये लिखने की कहां गुंजाइश बची रह जाती है कि रेणु भी मुझे उतने ही पसंद हैं। मुक्तिबोध अगर मेरे सबसे प्रिय कवि हैं, तो फिर इससे ये कैसे साबित करें कि नागार्जुन हमें उतने ही पसंद हैं। जाहिर है, उस समय चाहे रंगनाथजी हों या फिर देश का कोई और स्कूली बच्चा, नंबर पाने के आगे न तो उसका विरोध करेगा और न ही इतनी समझ बना पाएगा कि इस तरह के शीर्षक पर निबंध लिखने से हम बाकी के रचनाकारों के साथ क्या कर रहे होतें हैं। उस समय तो एक ऐसे फार्मूले और शब्दों के फेर में होते हैं कि चाहे किसी पर भी निबंध आ जाए, प्रेमचंद को रिप्लेस करो और वहां जैनेंद्र को लगा दो, अज्ञेय को हटाओ और रघुवीर सहाय को फिट कर दो। करनेवाले तो इस फार्मूले से यूजीसी की परीक्षा तक पास कर जाते हैं, हम फिलहाल इस बात पर बहस नहीं करना चाह रहे और न ही रंगनाथजी से इस बात पर हील-हुज्‍जत करना चाहेंगे कि वो स्कूली शिक्षा से अलग सोच क्यों रखते हैं? हां, इतना तो ज़रूर जानना चाहेंगे और अपने स्तर पर अनुमान लगाना चाहेंगे कि सर्वे के विरोध में खड़ा होने का उन्हें ज्ञान कहां से मिला और उन्हें क्यों लगता है कि साहित्यकारों को लेकर इस तरह का सर्वे वाहियात काम है?

यहां कुछ आगे कहने के पहले साफ कर दूं कि हिंदीवाला कहने का मतलब या हिंदी पढ़नेवाला से आशय सिर्फ उनलोगों से नहीं है, जो रचनाओं को पढ़ते हुए पचपन प्रतिशत लाने के मोहताज रहते हैं। जिनके लिए साहित्यिक रचनाओं और उनकी पंक्तियों से इतना भर का नाता है कि दसों साल से पूछे जा रहे सवालों के हिसाब से किस लाइन को निकाल कर किस सवाल के आगे भिड़ाना है, संदर्भ के लिए उपयोग में लाना है, उदाहरण देने हैं, कुल मिलाकर हलाल मीट या झटका मीट तैयार करने की विधि अपनानी है। यहां हिंदीवाला से आशय उन तमाम लोगों से है, जो इसमें दिलचस्पी रखते हैं, चाहे वो मांगकर, चाहे वो खरीदकर या फिर समीक्षा के नाम पर पुस्तकें लेकर पढ़ते हैं। ये सारे लोग हिंदीवालों में शामिल हैं।
अब बात आउटलुक की ओर से किये जा रहे साहित्यकार सर्वे और उस पर की जा रही असहमति पर करें।

रंगनाथजी का मानना है कि आउटलुक वालों को यह तो पता होना ही चाहिए कि टॉप तीन का फंडा सिर्फ उन्हीं चीज़ों पर लागू होता है, जो बाज़ारू हैं। यानी जो बेचने के लिए ही तैयार की जाती हैं। साहित्य की दुनिया तो ग़ालिब के उसूलों से चलती है-

न सताइश की तमन्ना न सिले की परवाह
नहीं मानी मेरे अशआर में नहीं न सही

रंगनाथजी की बात से अब आप समझ रहे होंगे कि वो इस सर्वे का विरोध क्यों कर रहे हैं। इसलिए कि इस तरह के सर्वे साहित्य जैसी विधा, मनुष्य की महान उपलब्धि को बाज़ार में घसीट लाने की प्रक्रिया है। बाज़ार में आते ही चीज़ें अपना महत्व खो देती हैं, उसकी तासीर ख़त्म हो जाती है। इसलिए ज़रूरी है कि साहित्य को बाज़ार से अलग रखा जाए। साहित्य लिखने-पढ़नेवालों की ये नैतिक जिम्मेदारी है कि वो साहित्य को बाज़ार में, उसकी शर्तों पर बिकने और अपनाने से रोका जाए और जो कोई ऐसा करता है, उसके प्रतिरोध में अपनी आवाज़ उठायी जाए। ऐसा बचाव हमें उसी तरह से करना चाहिए जैसे एक ज़माने में घर की किसी भी स्त्री के घर से बाहर जाने पर भ्रष्ट हो जाने, परपुरुषों से बात कर लेने पर बदचलन हो जाने के डर से करते रहे। जिन लोगों को ऐसा डर अभी भी बना हुआ है, वो इस तरह के बचाव कार्य में जी-जान से जुटे हैं। हमें साहित्य को हर हाल में शुचिता की सीकचों के बीच सुरक्षित रखना है, किसी हाल में बाज़ार की छाया इस पर नहीं पड़नी चाहिए।
साहित्य को लेकर जो समझ रंगनाथजी की बनी है, वो कोई नयी समझ नहीं है। आप हिंदी से जुड़ी किसी भी रचना को उठा कर देख लीजिए, उसमें बाज़ार के खिलाफ खड़े होने की बात अनिवार्य तौर पर मिल जाएगी। इसलिए अगर ये कहा जाए कि रंगनाथजी साहित्य के सच्चे पाठक और रक्षक हैं, तो मुझे नहीं लगता कि उन्हें कोई आपत्ति होगी। साहित्य पढ़ने का मतलब ही है कि आप बाज़ार के विरोध में खड़े हों, उन तमाम हरक़तों और ताक़तों के विरोध में खड़े हों जो कि साहित्य को बाज़ार के बीच ला पटकने के लिए आमादा हैं। जिस साहित्य को लोकमंगल की भावना से लिखा-पढ़ा जाता रहा, अगर वो लालाओं की जेब को गर्म करने लग गया है, तो हमें उसका हर हाल में विरोध किया जाना चाहिए। यहां तक हम रंगनाथजी के साथ हैं। लेकिन…
माफ कीजिएगा, हम चाहकर भी रंगनाथजी की मासूमियत पर फिदा होना नहीं चाहेंगे। गालिब का शेर ठोंक कर उन्होंने साहित्य का जो मान बढ़ाया है, हम उसके आगे कुछ बोलना नहीं चाहेंगे। बल्कि हम इससे अलग सिर्फ इतना भर जानना चाहेंगे कि वो किस साहित्य के लिए इस तरह के भारी-भरकम वैल्यू लोडेड शब्दों का इस्तेमाल कर रहे हैं। उस साहित्य के लिए, जिसकी पांच सौ प्रति छाप कर (ये मुहावरा दिलीप मंडल का है), कुछ प्रति आलोचकों के हाथों मुफ्त बांटने और बाकी रैकेट के तहत लाइब्रेरियों में पहुंचाने के बाद चंद अख़बारों और पत्रिकाओं में हुआं-हुआं करके महान साबित करने का कर्मकांड पूरा किया जाता है। कहीं उस साहित्य के लिए तो नहीं, जिसे कि ठोस तौर पर पॉपुलर होने, एक ही झटके में बिकने और रातोंरात कुछ बटोर लेने की नीयत से लिखे जाते हैं? अगर ऐसा है, तो यक़ीन मानिए रंगनाथजी ने गालिब के शेर का अपमान किया है, उसका मान किसी भी हद तक बढ़ाने का काम नहीं किया है और इस साहित्य को बाज़ार क्या, सर्वे क्या, किसी भी शर्त पर परखने का काम किया जाए, मुझे कहीं से कोई आपत्ति नहीं होगी। ऐसे में कहीं कोई एक कहानी, कविता छपवा कर अकड़ जाता हो, अपने को गुलेरी की पांत में खड़ा करके नामवर और अशोक वाजपेयी को गरियाता है, तो ज़रूरी है कि उनलोगों की औकात बताने के लिए ऐसा सर्वे एक नहीं, एक पत्रिका की ओर से नहीं, कई और कई पत्रिकाओं और संस्थानों की ओर से किया जाने चाहिए।
रही बात साहित्यकारों को सूची में शामिल किये जाने की, तो अगर व्यापक संदर्भ में देखा जाए तो किसी ने कुछ लिख कर क्रांति मचा देने का काम नहीं किया है। अपवादों में न जाएं, तो इन साहित्यकारों के लिखते रहने से हिंदी लेखन परंपरा भले ही मज़बूत हुई हो, लेकिन सामाजिक स्तर पर कहीं कोई रद्दोबदल का काम नहीं हुआ है और न ही उन्‍होंने उसके लिए आगे आने का काम किया है। इसलिए हमें साहित्य की परंपरा से इन साहित्यकारों को जोड़ने के पहले खास खयाल रखना होगा कि हम क्या करने जा रहे हैं। रंगनाथजी का मैं ज़ोरदार समर्थन करता हूं कि किसी के फूले हुए पेट को बॉडी, तो किसी की फूली हुई टांग को बॉडी और किसी के फूले हुए हाथ को बॉडी मानने का जो ग़ैरबराबरी का काम गीताश्री ने किया है, वो काम हमें नहीं करना चाहिए। लेकिन रंगनाथजी आपको भी इन सूचीबद्ध साहित्यकारों को हिंदी की पूरी परंपरा में शामिल करने के पहले ये सोचना होगा कि हम किस आधार पर उन्हें शामिल करने जा रहे हैं।

कोई माने या न माने, लेकिन ये सच है कि आज का साहित्यकार अपने रोज़मर्रा के जीवन में नून, तेल, मर्चा का सामान इसी बाज़ार में रहकर खरीद रहा है, खरीदने की ताक़त वो इसी बाज़ार में रहकर पैदा कर रहा है। एक बार नाम हो जाने पर (नाम होने का स्तर चाहे जो भी हो) इसी बाज़ार में बेमन से लिखे गये, कुछ भी लिखी, कही गयी चीज़ों को, एक ही चीज़ को कई लेबलों से छपवाने और बेचने का काम कर रहा है, जिसे कि नाम ले-लेकर दरियागंज में भटकनेवाले लोग बखूबी जानते हैं। ऐसे में उन पर बाज़ार की शर्तें लागू नहीं होनी चाहिए, उन्हें बाज़ार में खड़े होकर नहीं देखना चाहिए तो फिर क्या उस पर महान साहित्य होने का लेबल चस्पाना चाहिए। दरअसल साहित्य को बाज़ार की किसी भी चीज़ से अलग करके देखने की पूरी कवायद ही बेमानी है। अगर कोई लेखक अपनी बिकनेवाली प्रति के बारे में नहीं जानता, तो इसका मतलब ये नहीं कि वो साधु प्रवृत्त‍ि का है, बल्कि वो प्रकाशक के शोषण का शिकार हुआ है। वो दुनिया से लड़ते हुए भी प्रकाशक के विरोध में जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाया है। साहित्य और साहित्यकारों को महान होने और कहने के पहले अगर हम छपने-छपाने की राजनीति को समझ लें, तो हमें ये साहित्य महान और अलग लगने के बजाय सांस्कृतिक उत्पाद से अलग कोई दूसरी चीज़ कभी नहीं लगेगी। हां इतना जरुर होगा कि इसका असर कार या जूते से अलग होगा, जिसे कि वाल्टर बेंजामिन ने विस्तार से समझाया है।
रंगनाथजी ने सरस सलिल और गुलशन नंदा को साहित्यिक पत्रिकाओं और साहित्यकारों के बीच घुसा कर एक बहुत ही चमकीला उदाहरण पेश किया है। ये काम भी उनका कोई नया प्रयोग नहीं है। यूनिवर्सिटी में मनोहर श्याम जोशी की तारीफ करने के बाद शिक्षकों से लताड़ सुनने के दौरान ऐसी मानसिकता को पहले ही समझ चुका हूं। हिंदी में जो लोकप्रिय है, जो ज़्यादा बिकाऊ है, उसे हिंदी के लोग घटिया साबित करने में दम लगा देते हैं। हिंदी में महान होने की पहली शर्त है दुर्लभ होना, गूढ़ होना, किसी के रेफरंस से महान बताया जाना। शुक्र कीजिए कि प्रेमचंद इस मानसिकता से काफी हद तक बच गये। ऊपरी तौर पर रंगनाथजी का ये उदाहरण बहुत ही सटीक लगता है कि सही में अगर ज़्यादा ही बिकना आधार है तो फिर गुलशन नंदा महान क्यों नहीं, सरस सलिल सबसे बेहतर पत्रिका क्यों नहीं। ऐसा करके वो सर्वे करानेवाली पत्रिका की ओछी समझ की तरफ इशारा कर रहे हैं। लेकिन मेरा अपना अनुभव है कि पढ़े-लिखे लोग क्या, दरियगंज में संडे मार्केट में भी हरेक माल 20 रुपये के तहत किताब बेचनेवाला बहुत ही कम पढ़ा-लिखा बंदा जानता है कि किस किताब की क्या औकात है। इसलिए बीस रुपये की किताब के बगल में ही पड़ी दि पार्शियल वूमेन पर हाथ लगाएंगे तो उसे अस्सी रुपये बताएगा। कहने का सिर्फ इतना ही मतलब है कि बाज़ार में आने के बाद ऐसा बिल्कुल भी नहीं है कि चीजें अपना महत्व खो देती है। जिस सरकाय लो खटिया जाड़ा लगे की सीडी मोजरवियर 30 रुपये में दे देता है, उसी मोजरवियर से आनेवाली गुलज़ार की सीडी के लिए 190 रुपये क्यों देने पड़ते हैं, इसे अगर आप समझ रहे हैं तो आपको रंगनाथजी का ये उदाहरण बकवास लगेगा।
कहानी सिर्फ इतनी भर है कि सब कुछ बाज़ार के दबाव के तहत खरीदने, पढ़ने और उस पर सोचनेवाले हम जैसे लाखों लोग अब साहित्य और पत्रकारिता में महान, लोकमंगल, जनहित जैसे लबादों के भीतर रहकर जीने से ऊब गए हैं। हमें बेचैनी होती है कि हमसे सारी चीज़ें बाज़ार के तहत लिया-वसूला जा रहा है और ज़बरदस्ती लोकहित और महान होने का पाखंड किया जा रहा है। साहित्य को बाबा रामदेव का योग मत साबित कीजिए, जहां दाम लेकर सांस लेने और छोड़ने की विधि बतायी जाती हो। और अगर ऐसा करते हैं, तो हमें और हमारी पीढ़ी को इसकी जानकारी होनी चाहिए। हमें और हमारी आनेवाली पीढ़ी को पता होना चाहिए कि जिस साहित्य को पढ़ कर हम संवेदनशील होते हैं, भावुक होते हैं, इसे महसूस करने के लिए हमें पैसे देने पड़े हैं, हमें इसकी उपयोगिता पर सवाल करने का हक़ है। हां, अब इस पर बात कीजिए कि कौन कितनी ईमानदारी से हमें भावुक, संवेदनशील और रस का आस्वाद करनेवाला बना पाया है।

…अंत में इतना ज़रूर कहूंगा, बल्कि रंगनाथजी की ही बात को दोहराना चाहूंगा कि सर्वे का आधार ग़लत है, उसकी सूची गड़बड़ हो सकती है और है। रंगनाथजी तो इस सिस्टम को ही उखाड़ फेंकने के पक्ष में हैं जबकि मैं सिर्फ इतना कहना चाहता हूं कि आगे जब भी इस तरह के सर्वे किये हों, तो उसे और दुरुस्त, परफेक्ट और तर्कसंगत तरीके से किया जाए। आधा बाज़ार और आधा समाज का कॉकटेल (भले ही वो संकोच या डर से हो) बनाने के बजाय उसी तरह की पद्धति अपनाएं, जिस तरह की पद्धति मार्केटिंग के लोग अपनाते हैं। यक़ीन मानिए, इससे साहित्यकारों के बीच अवसाद पैदा होने के बजाय प्रोफेशनलिज़्म आएगा, जो कि ज़बरदस्ती की मठाधीशी से कई गुना अच्छा है.

मोहल्लाlive पर प्रकाशित
| | edit post

धीरे-धीरे,एक-एक करके सब कटते चले गए। जिनलोगों को दिनभर में पांच बार कभी कैंची,कभी फैबीकोल,कभी मूव और कभी फिल्मों की सीडी जैसी छोटी-मोटी चीजों की जरुरत होती,अब उन्होंने मुझे छोड़ किसी और को विकल्प के तौर पर चुन लिया है। उन्हें जैसे ही इस बात की जानकारी हुई कि मुझे पिछले पांच दिनों से बुखार है,छींकें आती हैं,रह-रहकर खांसी भी उठ जाती है यानी वो सबकुछ होता है जिसे दिखा-बताकर मरा-गिरा चैनल भी इन दिनों अपनी सेहत दुरुस्त करने में जुटा है,वो हमसे किनाराकशी करते चले गए। जाहिर सी बात है कि इतनी छोटी-मोटी चीजों के लिए वो अपनी जान जोखिम में नहीं डालना चाहते। मुझे कुछ हो गया,मर-मुरा गए तो फिर भी ब्लॉगर-पत्रकार भाइयों के सहयोग से एक छोटी ही किन्तु शोक-सभा हो जाएगी,लोग मुझे याद भी करेंगे लेकिन बाकियों का क्या होगा जिसे कि कैंपस में ही दस आदमी भी ठीक से नहीं पहचानता। मजाक में ही सही,लेकिन उस बंदे ने बात तो सही ही कही,इसलिए बाकियों को हमसे दूर रहने और अधिक जीने और कुछ नाम-शोहरत कमाने का पूरा हक है।

जो कल तक हमारे संडे फ्रूट के उपर का ड्राइ फ्रूट छांट-छांटकर खाते रहे,चलिए डॉक्टर साहब आपको कमलानगर में कन्टाप-कन्टाप माल दिखाकर लाते हैं,मोमोज खिला लाते हैं,पटेल चेस्ट से घूमकर आते हैं,आज वो फोन से हाल जानना चाहते हैं-कहिए कैसे हैं। मेरी मिरमिरायी आवाज पर ठहाके लगाते हैं,अरे आपको कुछ नहीं हुआ है-आपको दू-चार दिन लेडिस-उडिस का साथ मिल जाएगा तो दुइए मिनट में टनमना जाइएगा। मेरा दोस्त देवघर में परेशान है,मैं फोन नहीं उठा पाता हूं। वो बताते हैं कि अभी डॉक्टर से अंदर दिखवा रहे हैं,कुछ खास नहीं हुआ है,बस ओही बीमारी..जिसका एक ही इलाज है...हा हा हा..आप तो सब जानवे करते हैं। धीरे-धीरे फोन भी आने बंद हो जाते हैं। रोग-बीमारी तो होता ही रहता है,आदमी कितना फोन करे,आखिर अपनी भी तो लाइफ है न।
ये हम जैसों का हाल है जिसे कि सरकार की ओर से लगभग सारी सुविधाएं प्राप्त है। आजतक के रिपोर्टर अमित चौधरी ने जब कहा कि दिल्ली के कई ऐसे परिवार हैं जो कि एक ही कमरे में गुजारा करते हैं,सरकार को चाहिए कि किसी एक के बीमार हो जाने पर बाकी लोगों के रहने का इंतजाम करें। क्या ये सवाल सिर्फ जगह मुहैय्या कराने भर का है या फिर कन्शसनेस के नाम पर अलग-थलग होने,पड़ जाने,कर दिए जाने या फिर बीमारी के बहाने कई चीजों के चटक जाने का है।

कमरे में अकेले पड़ा-पड़ा मैं कई चीजें याद करता हूं,एक साथ। बीमारी हमें फ्लैशबैक में जाने का भरपूर मौका देती है,बीती हुई जिंदगी को याद करने का मौका। इसे याद करना,एक-एक क्षणों को खोल-खोलकर याद करते हुए दुहराना कुछ-कुछ वैसा ही लगता है जैसे आप घर से आयी चीजों को एक-एक करके खोलते हैं। ऐसे समय में एल्बम देखना अच्छा लगता है। एक-एक सर्टिफिकेट को देखना अच्छा लगता है,आर्चिज औऱ हॉलमार्क के उन कार्डों को देखना अच्छा लगता है जिसके बारे में सोचते हुए आफ सिहर जाते हैं कि अगर इसे कभी होनेवाली पत्नी देख लेगी तो।..फिर आप जमाने को गाली देते हुए कहते है...चुतिए स्साले। क्या है ऐसा इसमें,किसी ने प्यार से दिया है तो इसमें दिक्कत क्या है,आप अपनी ही पीठ ठोकते हुए कहते हैं-होने दो शादी,सारे कार्ड दिखाउंगा,एक ही रजाई में दोनों प्राणी पैर डालकर साथ देखें और पढेंगे इन कार्डों को। पत्नी हम पर शक करने के बजाए उन लड़कियों पर हंसेगी,सो स्वीट। किसी कार्ड पर ठहाके लगाएगी..मेरी इच्छाओं की प्रतिध्वनि..ओह माइ गॉड,ये हिन्दीवाली भी न।..हम फुलकर कुप्पा हो जाते हैं,ऐसा सोचते हुए कि मेरी पत्नी कितनी ब्रॉडमाइंडेड होगी।
मां याद आती है,ऐसे समय में अक्सर। बीमारी के वक्त मां जब भी याद आती है तो बस एक ही मुद्रा में। ट्वायलेट के आगे रुपाली स्याही की खाली बोतल से बनी ढिबरी लिए मां। देर होने पर अधखुले दरवाजे होने पर भी कोई आवाज न आने पर घबराकर आवाज लगाती मां। वो सारी लड़कियां जिसने कभी भी हमें छुआ हो,अपनी सीट पर काम करते रहने की स्थिति में पीछे से कंधा दबाने वाली लड़की,जिससे ये कहने पर कि बहुत अच्छा लगता है,थोड़ा देर और दबाओ न,बिदककर कहनेवाली लड़की-शक्ल देखी है आइने में। बॉस के बार-बार कहने पर कि कितना क्यूट है-सीढ़ी पर एकांत में मेरी क्यूटनेस को महसूस करनेवाली लड़की। जाने दोगी कि नहीं,वो कहती-नहीं जाने दूंगी। लाचार होकर मैं कहता-अगर नहीं जाने दोगी तो मैं कुछ कर दूंगा। तभी वो कहती-सो क्यूट,क्या कर दोगे। उसी वक्त वो लड़कियां भी याद आती जिससे एक बार हाथभर छू जाए तो पता नहीं घर जाकर कितनी बार मेडिमिक्स से हाथ धोती होंगी। बीमारी के वक्त एक-एक करके सब याद आते हैं।
जिन्हें नहीं पता कि मैं बीमार हूं,वो अपने काम से फोन करते हैं। जैसा कि इंसान औपचारिक होने की स्थिति में कहता है-औऱ कैसे हो। मैं कहता हूं-बीमार हूं। किसी चीज की जरुरत हो,तुरंत बताना। ये बात उन्हें भी पता है कि हमें किस चीज की जरुरत होगी,जो भी बीमार हुआ है वो मेरी आज की पोस्ट की शैली पढ़कर समझ सकता है ऐसे में किसी को क्या चाहिए होता है। उस फेज से हम बाहर आ गए हैं,जब 200-500 रुपये के चलते सर्दी,खांसी,बुखार जैसी बीमारियों को लेकर बैठे हुए हैं।..तो फिर क्या चाहिए हमें। इसी बीच मुंबई से अजय ब्रह्मात्मज सर लगातार फोन करते हैं-कैसी है तबीयत,सुनो शहद के साथ हल्दी मिलाकर चाटा करो,इधर-उधर की बातें करके फिर फोन रख देते हैं। तीन घंटे बाद फिर फोन करते हैं- अरे सुनिए तो,गरम पानी नियमित चाय की तरह पिया कीजिए,आराम मिलेगा। फिर अगले दिन,आप बैचलर हैं,सांड की तरह रहा कीजिए,फिर गृहस्थी में तो फंसना ही है। मैं हंसने की कोशिश करता हूं,खांसी उठती है-सर,मत हंसाइए प्लीज। मुझे अच्छा लगता है।

मैं दो-चार दिनों में ठीक हो जाउंगा,तय है क्योंकि मौत आनेवाली बीमारी का आभास अलग तरीके का होता है लेकिन वाद-विवाद प्रतियोगिता में अक्सर बोला जानेवाला शेर मुझे अब कुछ इस तरह से याद आता है-
बस एक ही स्वाइन फ्लू काफी है,
बर्बाद हर रिश्ते के करने को
हर साल जो एक फ्लू आता है
अंजाम-ए-रिश्ता क्या होगा।

वैसे सच कहूं,हम जैसे लोगों को जो कि अक्सर गुमान होता है कि हमें दिल्ली में जाननेवाले लोग इतने हैं,ये मेरा सोशल कैपिटल है,हम फुलकर बारा हुए रहते हैं,जरुरी है कि कभी-कभी ऐसी बीमारी होती रहनी चाहिए ताकि हम अपने संबंधों के अकाउंट्स की ऑडिटिंग बेहतर तरीके से करते रह सकें। अब देखिए न,इतना बड़ा शहर,इतने लोग लेकिन सब...कोई दिक्कत हो तो बताना शैली में जीनेवाले लोग। कल को फिर कहने वाले लोग...हद करते हो यार,इतने दिनों तक बीमार रह गए और एक फोन तक नहीं किया,इट्स नॉ फेयर।...नो..नेवर
| | edit post

हंस की संगोष्ठी में नामवर सिंह के सावधान रहो इन लौंडों से कहे जाने के बाद मेरे सहित कई लोगों को इस बात से हैरानी हुई कि हमारे आलोचक का जिगर औऱ नजरिया इतना छोटा कैसे हो गया? अजय नावरिया औऱ राजेन्द्र यादव के लिए अपने-अपने राहुल जैसे मुहावरे का प्रयोग करने की जरुरत क्यों पड़ गयी? मोहल्लाlive पर ऐवाने-ग़ालिब में नामवर सिंह को हो क्‍या गया था? लिखे जाने के बाद रंगनाथ सिंह ने मेरे उपर राजेन्द्र यादव का आदमी औऱ हंस के इनहाउस लोगों की जुबान बोलने का लेबल लगाने में तत्परता दिखायी। जिस व्यक्तिवाद के प्रतिरोध में हमने बात करनी शुरु की,हम खुद ही कैसे इसके शिकार होते चले गए,आप भी पढ़ें और राय दें कि क्या हिन्दी मानसिकता कुछ इसी तरह की है कि तालाब पर विमर्श के लिए जुटनेवाले लोग अंत में अपने-अपने हिस्से का कुआं घेरने में लग जाते हैं।

रंगनाथ भाई
इतनी गंभीरता से पोस्ट पढ़ने के लिए शुक्रिया। मुझे इस बात की आशंका लिखने के पहले से ही थी कि हंस की संगोष्ठी में जो कुछ भी हुआ और नामवर सिंह ने जो बातें हमलोगों के सामने रखीं, अगर मैं उससे असहमत होते हुए कुछ लिखता हूं, तो लोग (जिसमें कि अब आप शामिल हैं) मेरे ऊपर हंस और राजेंद्र यादव का आदमी होने का लेबल लगा देंगे। इन सबके बावजूद मैंने इस पर लिखा, क्योंकि मुझे पता है कि इस तरह के स्टीगर हवा और पानी के संपर्क में आते ही बहुत जल्द ही उखड़ जाते हैं।

मुझे बहुत अफ़सोस नहीं है कि मैं अपनी बात जिस संदर्भ में करना चाह रहा हूं, आपने उससे ठीक उलट अर्थ लिया बल्कि लिया ही नहीं, अर्थ ही थोप डाला जिसे कि अरुंधति राय रिप्लेसिंग द मीनिंग ऑफ द वर्ड कह रही थीं। इसमें आपका कोई दोष भी नहीं है क्योंकि जिस परिवेश और औजार से हम निर्मित हुए, साहित्य की समझ जिस ढंग से हमारी बनी है, उसमें व्यापक संदर्भ के आते ही हम घबरा जाते हैं। हमारे हाथ में अभी तक तोड़ती पत्थर वाली साइज़ की छेनी और हथौड़ा है जबकि अब हमें आये दिन पहाड़ों से टकराना पड़ जाता है और हम तब निरस्त हो जाते हैं। कहने को तो हमारी साहित्यिक समझ और बौद्धिकता का विकास प्रकृति, मानवीय संवेदना और दुनिया के तमाम विचारों को लेने से हुआ है, जिसका कि कैनवास बहुत बड़ा है लेकिन सच्चाई ये है कि हम एक बड़े जंगल में एक ऐसा मचान बना कर रह रहे हैं, जहां कुछ ही लोग उस पर बैठे हैं, दिन-रात गप्प-शप करते हैं, हुक्का-सुक्का पीते हैं और बीहड़ जंगल में रहने के महानताबोध से अकड़े रहते हैं। दुनिया को बताते फिरते हैं कि हम जंगल में रहते हैं और कितना रिस्क कवर करते हैं। जबकि मेरी तरह इतना तो आप भी जानते होंगे कि जिस सेफ ज़ोन में रहकर हिंदी के हम जैसे अधिकांश लोग काम कर रहे हैं, वो खुशफहमी के अलावा कुछ भी नहीं है। हमने प्रकृति, जंगल और मानवीय संवेदना से भरे साहित्य के इस बड़े कैनवास को कितना छोटा कर लिया है, इसका अंदाज़ा इसी बात से लग जाता है कि नामवर सिंह को बोले चार दिन हो गये और अभी तक हम उसी को पकड़ कर बैठे हैं। ऐसा लगता है जैसे सचमुच हमारे पास कोई दूसरा काम नहीं है।

मुंबई और नोएडा फिल्म सिटी में काम करनेवाले मेरे दोस्त मेरी इस हालत पर अब हंस रहे हैं। मुझे तो कभी-कभी लगता है कि साहित्यिक बहसें करने और रचने के नाम पर साहित्य का एक बड़ा हिस्सा व्यक्तिगत स्तर की लल्लो-चप्पो और हील-हुज्‍ज़तों में जाया कर दिया गया है, जिसका कि एक समय के बाद कोई मतलब नहीं रह जाएगा। इस नजरिए से अगर हम साहित्य को देखना शुरू करें, तो हमें अफ़सोस भी होगा।

कहने को तो साहित्य की इतनी बड़ी दुनिया, जिसमें इंद्रसभा से लेकर अमेरिका का साम्राज्यवाद तक समा जाए, लेकिन सच्चाई देखिए। महज दो सौ से ढाई सौ चेहरों के बीच पूरा का पूरा हिंदी साहित्य सिमट कर रह गया है। हम इन्हीं लोगों की बातों और गतिविधियों के बीच फंसे रह जाते हैं। इसमें बिडंबना है कि इतनी बड़ी दुनिया होने पर भी हम छत्तीसगढ़ के भीतर घुस नहीं पाते, जाकर कुछ लिखने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। दिल्ली में बैठ कर चार दिन तक नामवर सिंह के पक्ष-विपक्ष में कबड्डी खेलना पसंद करते हैं लेकिन भोपाल, पटना में मर रहे किसी रचनाकर्मी को देख आने का जज्बा पैदा नहीं कर पाते। अपनी पोस्ट में मैं यही तो बताना चाह रहा था कि साहित्य के नाम पर हम कितने व्यक्तिवादी हो जाते हैं। नामवर सिंह जैसा आलोचक युवा का मतलब राहुल का मुहावरा इस्तेमाल किये बिना समझ नहीं पाते और युवा रचनाकार का मतलब सिर्फ अजय नावरिया से लगा लेते हैं। मैं अपनी उसी मानसिकता पर तो बात कर रहा था, जहां हिंदी समाज एक बड़े संदर्भ को कैसे संकुचित करता जाता है। अरुंधति राय ने भाषा के सवाल पर जो बात कही, उसकी चर्चा न करते हुए हम आलोचक नामवर सिंह की चुटकुलेबाज़ी में फंस कर रह जाते हैं क्योंकि उसमें हमारी व्यक्तिगत स्तर पर की जानेवाली चुगली का सार्वजनिक रूप दिखायी दे रहा था, हमें मज़ा आ रहा था। क्या हम साहित्य पढ़ते हुए चुगलखोर होते चले जाते हैं।

रंगनाथ भाई, विश्वविद्यालय सहित अब तक मैंने लिखने-पढ़ने के स्तर पर जितना भी समय बिताया है, उस आधार पर इतनी समझदारी तो बन ही गयी है कि हिंदी समाज में जीने-खाने और बने रहने के लिए आपको अपनी पीठ पर किसी न किसी का तो लेबल लगाना ही होगा। बहुत लंबे समय तक आपकी पीठ कोरी नहीं रह जाएगी। मेरी पीठ अब तक कोरी है, तो इसका मतलब कतई नहीं है कि मैं कोई महान किस्म का लिटरेचर प्रैक्टिसनर हूं। बल्कि सच बात तो ये है कि अब तक मैंने इसकी शिद्दत से ज़रूरत महसूस नहीं की है। जिस दिन करूंगा, उस दिन ज़रूर लगा लूंगा। इस बीच आप जैसे लोगों से बातचीत होती रही, तो ज़रूरत पड़ने पर आपसे राय भी लूंगा। लेकिन क्या मैं आपसे पूछ सकता हूं कि मेरे ऊपर राजेंद्र यादव और हंस से जुड़े लोगों का लेबल लगाने का अधिकार किसने दिया। क्या साहित्य में हम इश्तहारों, लेबलों, स्टीकरों से अटी-पड़ी पीठ देखने के इतने अभ्यस्त हो गये हैं कि हमें कोरी पीठ आंखों में चुभने लग जाती है।

क्या नामवर सिंह या फिर किसी भी दूसरे आलोचक की बात से असहमत होने के लिए हंस, राजेंद्र यादव या किसी दूसरे संस्थान और व्यक्ति का लेबल लगाना अनिवार्य है। बिना इसके हम अपनी बात नहीं कर सकते और अगर सचमुच नहीं कर सकते जिसकी घोषणा आपने अपनी पोस्ट में सरोगेट रूप में कर दी है तो क्या हमें इसके विरोध में कुछ काम नहीं करने चाहिए। बजाय इसके कि हम एक पोस्टर के लगने और दूसरे पोस्टर के उखड़ने का इंतज़ार करते रहें और हम अपनी इसी भूमिका को साहित्यिक भूमिका मान कर बौद्धिक होने और कहलाने का क्लेम करने लग जाएं, जैसा कि अधिकांश लोग करते आये हैं। आज आपको सुविधा हो गयी कि मैंने नामवर सिंह से असहमति जतायी नहीं कि दूसरी तरफ मेरी पीठ पर राजेंद्र यादव का लेबल चिपकाने के लिए मौक़ा मिल गया। संभव हो ये सुविधा आपको हमेशा मिलती रहे, क्योंकि कोई न कोई तो आयोजक होगा और जब हमें असहमति होगी, मैं लिखूंगा ही। इस हिसाब से आपको भविष्य में भी मुझे संघी, व्यक्तिवादी, कुंठित, फ्रस्ट्रेड और भी बहुत तरह के लेबल लगाने को मिल जाएंगे। लेकिन एक स्थिति ऐसी भी बनती है कि जब नामवर सिंह एक ऐसी किताब पर बोलने आते हैं, जिसे कि उन्होंने पढ़ा ही नहीं है। केवल इतनी-सी जानकारी के आधार पर 25 मिनट तक उस पर बोल जाते हैं कि इस किताब को दिल्ली की झुग्गियों में रहनेवाले अंडर मैट्रिकुलेशन के बच्चों ने मिल कर लिखी है। नामवर सिंह को किताब के शीर्षक पर आपत्ति होती है, उन्हें ये नाम धुंधला-धुंधला सा-नज़र आता है। आलोचक फिर भाषा पर बात करते हैं, इस बात को नज़रअंदाज़ करते हुए कि इसे किस बैग्ग्राउंड के बच्चों ने कितनी शिद्दत से लिखा है। मैंने लोकार्पण के पांच घंटे बाद ही दीवान (सराय, सीएसडीएस के मेलिंग ग्रुप) पर लिखा, नामवर सिंह से घोर असहमति। बच्चे एक बुजुर्ग के मुख से भाषा-वाषा पर गंभीर बात सुनकर अवाक हो गये थे। रंगनाथ भाई, मैंने उस समय भी नामवर सिंह के रवैय पर असहमति जतायी। बताइए, आप होते तो कौन सा लेबल लगाते। ये भी संभव है कि हवा-पानी से ये लेबल और स्टीगर उखड़ते चले जाएं और आप नया लगाते चले जाएं। आप बिल्कुल नहीं थकें। लेकिन मैं आपसे अपील करता हूं कि प्लीज़ आप मेरी पीठ को एमसीडी की दीवार मत बनाइए। ऐसा करना आपके लिए जितना सुविधाजनक है, मेरे लिए उतनी ही तक़लीफ़देह और शायद हिंदी के नाम पर होनेवाले विमर्श के लिए ख़तरनाक भी।

देखिए न, ये कितनी बड़ी विडंबना है कि हममें से दोनों लोग व्यक्तिवाद के विरोध में लिख रहे होते हैं। हमें नामवर सिंह में व्यक्तिवाद की भनक लगी और आपको हंस में बोलनेवाले कुछ लोगों में। लेकिन अब जब हम लिख रहे हैं तो आप अपनी चिठ्ठी के लगभग हर पैरे में विनीत और विनीत कुमार लिख रहे हैं और मैं रंगनाथ भाई, रंगनाथ भाई किये जा रहा हूं। इससे अधिक और व्यक्तिवादी कैसे हुआ जा सकता है? हम क्यों साहित्य जैसे तालाब पर विमर्श के लिए जुटते हैं और अंत तक आते-आते उसमें मौजूद पानी, उसकी सड़ांध और पलनेवाले लोगों के बारे में बात करने के बजाय अपने-अपने हिस्से का कुंआ घेरने में लग जाते हैं। क्या हम इस बात की गुंजाइश पैदा नहीं कर सकते कि हम बेबाक तरीके से अपनी बात रख सकें, मेरी पीठ कोरी रह जाए और आपको बार-बार स्टीगर चिपकाने से मुक्ति मिल जाए। मुश्किल तो है लेकिन कोशिश करने में क्या हर्ज है।

बहुत हो गया। जिस तरह से अपन लोग बात कर रहे हैं, ये बहुत ही पर्सनल मामला बनता जा रहा है। इसे पढ़नेवाले जो लोग हमें जानते हैं, वो ज़रूर गरिआएंगे – स्साला, यहां दिखाने के लिए एक दूसरे पर पिल पड़े हैं जबकि मंडी हाउस में एक-दूसरे के पैसे से समोसे खाने के लिए खींचतान करेंगे। ये इनहाउस विज्ञापन हो जाएगा रंगनाथ भाई, कोशिश करते हैं कि हम औरों की तरह इससे बचें और अपना नाम चमकाने के बजाय मुद्दों को व्यापक और सही संदर्भ में समझें… है कि नहीं।
मोहल्लाlive पर प्रकाशित
| | edit post

युवा होने के नाते ये देख-सुन कर आपको भी हैरानी हो रही होगी कि हिंदी साहित्य के अमिताभ बच्चन माने जानेवाले आलोचक नामवर सिंह की जिस बात पर युवाओं से खचाखच भरे ऐवाने ग़ालिब में हंगामा हो जाना चाहिए था कि साहब आप क्या बात कर रहे हैं, नामवरजी ये आप क्या कह रहे हैं, ऐसा कैसे कह सकते हैं नामवरजी, अफ़सोस कि इस जमात के अधिकांश युवाओं ने स्तुति करते हुए ताली पीटने का काम किया। जिस ऐवाने में युवाओं की ओर से नामवर सिंह के ख़‍िलाफ प्रतिरोध के स्वर फूटने चाहिए थे, उसमें गदगद हो जाने का एक विस्मय कर देनेवाला नज़ारा सामने था। किसी के बुरी तरह लताड़े और लतियाये जाने के बीच भी वो कौन-सी मनःस्थिति होती है कि इंसान इससे तृप्त होता है, आनंद लेता है और श्रद्धा भाव से लतियाये जानेवाले की स्तुति करने लग जाता है, तीन साल तक काव्यशास्त्र तक पढ़ने के बाद भी न तो हमें उस स्थिति से कभी पाला पड़ा और न ही कभी उस रस का हमने पहले कभी स्वाद चखा।

सभागार से बाहर निकलने के बाद अधिकांश लोगों की ज़ुबान पर बस एक ही बात – हिला दिया आज नामवरजी ने, गजब का भाषण दिया नामवर ने, आज तो नामवरजी ने अजय नावरिया को ऐसी पटकनी दी है कि जल्दी उठकर पानी नहीं पी पाएगा… आदि-आदि। सभागार से बाहर निकल कर लोगों की बात सुनते हुए तब आपको अंदाजा लग जाता है कि आखिर क्यों नामवर सिंह की बात पर अधिकांश युवाओं को परेशानी होने के बजाय मज़ा आ रहा था और वो किसी भी तरह का विरोध करने के बजाय उनकी बातों को ताली पीटते हुए और शह दे रहे थे।

लंबे समय से वाचिक परंपरा की ताकत पर हिंदी साहित्य में अपना आसन बचाये रखने वाले आलोचक नामवर सिंह इस कला में सिद्धहस्‍त तो हैं ही कि वो ऐसी बात कहें, जिसे सुन कर सभागार में बैठे श्रोता वही अर्थ लें जो अर्थ वो खुद प्रेषित करना चाहते हैं। कहने और समझने के बीच कोई फर्क न होने की वजह से ही लंबे समय से हम जैसे लोग उनके मुरीद रहे हैं। संभवतः इसलिए जब वो सावधान रहो इन लौंडों से, बहुत ख़तरनाक रास्ता अपना रहे हैं आप, बहुत न बढ़ाइए इन लोगों को, साहित्य में चालू किस्म का नारा न लगाओ जैसी नसीहत युवा जो देखन मैं चला शीर्षक से संपादकीय लिखनेवाले हंस के संपादक राजेंद्र यादव को दिया, तो पूरा सभागार तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा।

हिंदी समाज, जो अब तक अरुंधति राय की बात को अपने इलाके का गपशप नहीं जान कर कुम्हाने लग गया था, नामवर सिंह की इस बात पर अचानक से खिल उठा। ये हुई न बात, इसको कहते हैं वक्ता के अंदाज़ में पूरा सभागार अहो, अहो हो उठा। नामवर सिंह ने युवा जैसे व्यापक शब्द को अजय नावरिया के पर्याय रूप में इस्तेमाल करते हुए व्यक्तिगत बना दिया, सभागार में बैठे युवाओं ने भी उसका अर्थ उतने ही व्यक्तिगत तौर पर लिया। नामवर सिंह की संगत और लगातार संगोष्ठी में आने-जानेवाली युवा पीढ़ी शायद बेहतर तरीके से समझती है कि किस शब्द के अर्थ को कितना फैलाकर या सिकोड़ कर समझना है। इसलिए यहां तक आते-आते नामवर सिंह की बात पर अगर किसी को कोई आपत्ति नहीं हुई तो ये मान लिया गया कि युवा के नाम पर नामवर सिंह ने जो फुफकार मारी है, उसका ज़हर सिर्फ अजय नावरिया पर चढ़ेगा, बाकी के युवा ताली पीटने के लिए पहले की तरह ही सलामत रहेंगे। युवा रचनाशीलता और नैतिक मूल्य विषय पर इससे अधिक बड़ा क्या मज़ाक हो सकता है कि हिंदी साहित्य का सबसे बड़ा आलोचक ये तय कर दे कि मौजूदा युवा पीढ़ी को किस शब्द का अर्थ किस हद तक जाकर लेना है, कौन-से शब्द का अर्थ किस मुहाने पर ले जाकर छोड़ देना हैं और किस शब्द के अर्थ को गुठली और गूदे के रूप में लेना और छोड़ देना है। हिंदी समाज में व्यक्तिवादी सोच की इससे और अधिक पराकाष्ठा और क्या हो सकती है कि अगर देश का एक युवा कहते ही राहुल गांधी को पर्याय के तौर पर इस्तेमाल करता है, तो सबसे बड़ा आलोचक भी विरोध करने के नाम पर अपने-अपने राहुल जैसे मुहावरे का प्रयोग करने से अपने को रोक नहीं पाता।

नामवर सिंह अक्सर रचनाकर्म के पहले भाषा की तमीज होने और लाने की बाद करते हैं। आज के अलावा भी दो-तीन जगहों पर कहानीकारों और उपन्यासों को ये तमीज सीखने और न सीखने में झड़प लगा चुके हैं। वो हमेशा से इस एप्रोच के ख़‍िलाफ़ रहे हैं कि साहित्य में चालू किस्म के नारे नहीं लगाने चाहिए। नामवर सिंह की तर्ज पर मीडिया आलोचना करनेवालों की एक छोटी किंतु कर्कश जमात पैदा हो चुकी है, जो समय-असमय उसे लताड़ती रहती है कि वो भाषा के नाम पर बाज़ारवाद को बढ़ावा दे रहे हैं, वो बाज़ारूपन के शिकार हैं। नामवर सिंह और उनसे प्रभावित होकर आलोचना करनेवाले लोगों की बातों को अगर कोई सचमुच में सीरियसली ले रहा है, तो उसे तब तक कुछ नहीं लिखना चाहिए जब तक कि नामवर सिंह उसके लिए भाषाई तमीज और तालीम अख्ति‍यार कर लेने का सर्टिफिकेट न जारी कर देते हों। अब आप इस बहस में मत जाइए कि जिसकी सधी भाषा नहीं है लेकिन व्यक्त करने की छटपटाहट बहुत ज्यादा है, इतना ज्यादा कि अगर लिखे नहीं तो मर जाएगा… तो वो क्या करेगा? बजाय इसके अब वो किस भाषापीठ से सिद्धहस्‍त होकर आये – इस मामले की तहकीकात शुरू कर दे।

बहुत संभव है कि अजय नावरिया ने हंस के जिस युवा विशेषांक का संपादन किया है, वो अधकचरे साहित्य और मीडिया वेस्टेज की रिसाइकिल करके कोई नई चीज़ पेश करने की कोशिश भर हो। ये भी संभव है कि नयी नज़र का नया नज़रिया जो अनुप्रास अलंकार के तौर पर भाषाई प्रयोग किया गया है, उससे नामवर सिंह को तकलीफ हुई हो। वैसे अंक देख कर एकबारगी तो ज़रूर लगता है कि साहित्य के नाम पर चश्मा गोला साबुन के विज्ञापन लिखने वाली भाषा की ज़रुरत क्यों पड़ गयी। नामवर सिंह को इस बात से भी तकलीफ हुई होगी जब अजय नावरिया 35 से 40 मिनट तक मासूम वजह बताते हुए लिखा हुआ पेपर पढ़ते जाते हैं, जिसे कि फारिग होने के लिए सभागार से बाहर आये लोग विमर्श के लिए तैयार की गयी कुंजी कह रहे थे, सारे कोटेशन्स को अंबेडर की एक ही कितबिया से चेंपा हुआ आइटम बता रहे थे। नामवर सिंह की नाराज़गी भी इस बात से साफ तौर पर रही कि अजय नावरिया ने जाति की तरह युवाओं की कई कैटगरी गिना दी, विशेषज्ञ होने का ये रवैया जितना हास्यास्पद था उतना ही छिछला भी। इन सबके बावजूद नामवर सिंह जैसे आलोचक का युवा, रचनाशीलता, नैतिक मूल्य और संभावना जैसे बड़े शब्दों और संदर्भों को अजय नावरिया, हंस पत्रिका, राजेंद्र यादव और अपने-अपने राहुल तक सीमित कर देना क्या भाषा को लेकर खेला जानेवाला एक खतरनाक खेल नहीं है?

हमें सिर्फ इस बात की जानकारी हो जाए कि किस तरह की भाषा बोलने से तालियां पिटवायी जा सकती है और हम उसी भाषा का प्रयोग करने लग जाएं तो क्या तालियों की वो आवाज़ अर्थ की ताक़त को भी मज़बूत कर रही होती है। अगर ऐसा है तो हिंदी साहित्य पढ़नेवाले हममें से हर किसी को रूटीन के तहत लाफ्टर चैलेंज शो देखना चाहिए।

भाषा, उसके प्रयोग की राजनीति और उसके अर्थ को निगल जाने की राजनीति को इसी संगोष्ठी में अरुंधति राय व्यापक स्तर पर उठाती हैं। अरुंधति का साफ मानना रहा कि स्टेट मशीनरी किस तरह से किसी शब्द के अर्थ को रिड्यूस करने का काम करती है। वो हमारे शब्दों को हमारे बीच से लेती है, उसका अपने तरीके से अर्थ देती है और फिर हम उस शब्द का सिर्फ वही अर्थ लेते हैं जिसे कि स्टेट मशीनरी तय कर देती है। हम विकास, न्याय और समानता जैसे शब्दों को रिप्लेस करते हैं। ऐसा करना ठीक उसी तरह से होता है जिस तरह से कि किसी जेनुसाइड के पहले ऐसा महौल बनाया जाता है कि जिसमें बीस-पच्चीस औऱ पचास लोगों के मरने, क़त्ल किये जाने को आम घटना मान लिया जाए। भाषा और उसके अर्थ इसी तरीके़ से ख़त्म किये जा रहे हैं।

ये वो समय है जब हमें अपनी भाषा को फिर से पाना होगा… दिस इज द टाइम टू रिक्लेम दि लैंग्वेज। हमें भाषा और विचार के बीच के गैप को ख़त्म करना होगा क्योंकि ऐसा नहीं किये जाने पर हम कुछ भी करने की स्थिति नहीं होगें। इसलिए सवाल बांग्ला, अंग्रेजी, हिंदी या फिर किसी दूसरी भाषा के प्रयोग से नहीं है, सवाल उस एप्रोच से है जहां हम कंटेंट के ओछेपन को ढोते हुए भाषा को बहुत ही बौना बना देते हैं। अरुंधति राय की भाषा की इसी समझदारी के बीच से रचनाशीलता और नैतिकता के मूल्यों के सवाल का जवाब मिलता है।

अब सवाल है कि इस पूरे प्रसंग से क्या ये समझा जा सकता है कि हिंदी समाज, उसके भीतर जीनेवाले लोग, नियम तय करनेवाले आचार्य जो दिन-रात बाजारवाद के ख़‍िलाफ़, विज्ञापन और नारे की भाषा के विरोध में बात करते आए हैं, वो काफी हद तक जाने और कई बार अनजाने उसी भाषा की सवारी करने लग गये हैं। स्टेट मशीनरी की तरह संभवतः वो भी शब्दों के अर्थ को रिप्लेस करने में जुटे हैं। शायद यही वजह है कि नैतिक मूल्य के नाम पर बहुत ही बारीक और महीन शब्दों के प्रयोग करने के बावजूद हिंदी के आचार्य उन अर्थों तक जाने से रह जाते हैं, जिसे कि अरुंधति सिर्फ एक लाइन में कि – now morality has become luxury that can’t afford – बोल कर विश्लेषित कर जाती हैं। इतना होने के बावजूद भी अगर सभागार से बाहर निकल कर लोग अरुंधति की बात पर चर्चा करने के बजाय हिला दिये नामवर जैसे हेडलाइन रचते हैं तो ये मान लिया जाए कि स्टेट मशीनरी की तरह नामचीन आलोचकों ने शब्दों के अर्थ को व्यक्तिवादी होते हुए रिप्लेस करने का काम किया है और दुर्भाग्य से जिसे पहचानने तक की ताकत युवाओं की एक बड़े जमात के बीच नहीं पैदा हो पायी है। क्या हिन्दी साहित्य का सबसे बड़ा आलोचक जिसे पढ़कर हम खुद को लगातार बेहतर करने की कोशिश में लगे रहे,उसका जिगर इतना छोटा है जो जवानी को मूल्य बताते हुए भी उसे इतना पर्सनल और व्यक्तिगत तौर पर विश्लेषित करता है?
| | edit post

टीआरपी के मसले पर भाजपा नेता और टेलीविजन स्क्रीन पर अक्सर देखे जानेवाले रविशंकर प्रसाद सहित राजीव शुक्ला और वृंदा कारत ने जो बात कही, उस पर सोचते हुए मुझे लगता है कि वो दूरदर्शन को लेकर नास्‍टेल्जिक होने से अभी तक अपने को रोक नहीं पाये हैं। अभी तक वो इसी के इर्द-गिर्द रखकर नियामक बनाने का अभ्यास करने में जुटे हैं। राजीव शुक्ला की बात पर हमें अपने चचेरे भाइयों की याद आ रही है जो भरी दुपहरिया में मां के लाख कहने पर कि सो जाओ, हम उनके साथ लूड़ो खेलते और हारने की स्थिति में, गोटी लाल न होने कि स्थिति में (लूडो में चार रंगों की चार चार-गोटियां होती हैं जिसे होम तक लाना होता है, इसे गोटी लाल करना कहते हैं) खेला भंडूल (खेल बिगाड़ना) कर देते। पहले तो हमलोगों में बहसबाजी होती, फिर हाथापाई। मामला जब कंट्रोल से बाहर हो जाता, तो मां या चाची को बीच-बचाव के लिए आना पड़ता और वो लूड़ो को चार टुकड़ों में करते हुए कहती – ये लो, न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी। टीआरपी के मामले में राजीव शुक्ला संभवतः इसी तरह की समझ रखते हैं। लेकिन गौर से समझिए तो इसमें न तो लूड़ो का कोई कसूर है और न ही ऐसा है कि लूड़ो के फाड़ देने से मामला ख़त्म हो जाएगा। अगले दिन हम फिर चंदा करते, फिर लूड़ो खरीदते, फिर लड़ते, मां फिर लूड़ो फाड़ती और फिर देखते ही देखते हम बड़े हो गये। टीआरपी का खेल अभी ढंग से शुरू भी नहीं हुआ है कि राजीव शुक्ला इसे विलेन बता कर भंडुल करना चाहते हैं। जिसे कि रंगनाथ सिंह के नजरिये से कि क्या ऐसा करते हुए इलाज की तरफ बढ़ा जा रहा है या फिर लक्षणों को ही लगातार दबाने की कोशिशें जा रही है के रूप में समझा जा सकता है। इस पूरे मामले में मुझे लगता है कि क्या इसकी संभावना है कि जिस तरह हम लड़ते-भिड़ेते एक दिन बड़े हो गये, मैच्योर हो गये, टीआरपी के खेल में शामिल चैनल और लोग वैसे ही हो जाएंगे। टीआरपी को जी का जंजाल मान कर इसे हटाने की पैरवी करने से पहले हमें इस सिरे से भी सोचने की ज़रूरत है।

टेलीविजन और चैनलों को बेहतर बनाने की कोशिश में सांसदों ने जो कुछ भी कहा है, उसे पढ़ते-समझते हुए मुझे दो-तीन बातों पर ग़ौर करना ज़रूरी लगता है। इस पर कायदे से बात किये बिना रेगुलेशन के लिए कमेटी गठित करने, महीने में एक बार टीआरपी लाने या फिर एकदम से हटा देने की बात सारे चैनलों को दूरदर्शन मार्का रंग से पोतने के अलावे कोई नयी कोशिश नहीं होगी।

पहली बात तो ये कि सांसद, राजनीति से जुड़े लोग या फिर देश की जनता के लिए कायदे-कानून बनाने वाले लोगों को जनता शब्द को डिफाइन करना होगा। रविशंकर प्रसाद जब ये कहते हैं कि – जब हम संसद में बैठते हैं तो हमारी जवाबदेही देश के प्रति बनती है। उन्हें ये पहले स्पष्ट कर देना होगा कि ये जवाबदेही किस तरह की है। आम नागरिक के लिए जीवन की मूलभूत सुविधाओं को जुटाने की कोशिश में सहयोग करने की, पानी-बिजली, सड़क या फिर दूसरे मसलों को दुरुस्त करने की या फिर संसद में बैठकर ये तय करने की कि कल से देश के नागरिक सच का सामना देखेंगे कि नहीं, बालिका वधू आगे प्रसारित होने चाहिए कि नहीं। वो संसद में बैठकर जीने के स्तर पर ज़रूरत को लेकर बात करना चाहते हैं या फिर मनोरंजन के स्तर पर जनता की अभिरुचि को लेकर, इसे पहले तय करना ज़रूरी है। राजीव शुक्‍ला की समझ पर रंगनाथ सिंह ने अपनी पोस्‍ट में लिखा कि बिहार-बंगाल में टीआरपी के बक्से लगाने ज्यादा ज़रूरी हैं या फिर पानी, बिजली और सड़क की गारंटी देना। जाहिर तौर पर टीआरपी का संबंध सिर्फ बक्से के लगाने और नहीं लगाने से नहीं है। इसे आप हाल में आये टीआरपी की रिपोर्ट से समझ सकते हैं…

…सूर्य ग्रहण को लगभग सारे हिंदी चैनलों ने तीन दिनों तक लगातार दिखाया। सबों को औसत दिनों की अपेक्षा ज़्यादा टीआरपी मिली। आजतक और इंडिया टीवी चैनलों ने इसे अंधविश्वास और पाखंड को हवा देते हुए दिखाया। उन विश्वासों के समर्थन में स्टोरी चलायी, जो कि कर्मकांड को मज़बूत देते हैं। इसकी टीआरपी क्रमशः 19.4 प्रतिशत 16.6 प्रतिशत रही, जबकि स्टार न्यूज़, एनडीटीवी और जी न्यूज ने कर्मकांडों के विरोध में स्टोरी ब्राडकास्ट की, जिसकी टीआरपी क्रमशः 14.4, 9.4 और 10.3 प्रतिशत रही। रविशंकर प्रसाद बताते हैं कि टीआरपी के बक्से बिहार, बंगाल या फिर देश के किसी भी छोटे इलाके में नहीं हैं। इसे अगर आप साक्षरता दर के लिहाज से देखें, तो जाहिर तौर पर इन इलाकों से ज़्यादा पढ़े-लिखे लोगों ने इस पाखंड और कर्मकांड से जुड़ी स्टोरी को देखा। अब सासंदों का ये फार्मूला फेल हो गया कि पढ़-लिख कर लोग बेहतर चीजें देखते हैं या देखेंगे। जिस टीआरपी को आप बाज़ार का पहरुआ साबित कर रहे हैं जो कि है भी, आप उसी टीआरपी से उन कारणों का भी पता लगा सकते हैं कि शिक्षा और संचार के स्तर पर संपन्‍न समाज भी अगर पाखंड और कर्मकांड से जुड़ी ख़बरों को ज़्यादा देख रहा है तो इसके पीछे क्या कारण हैं। तब आपको समझ आएगा कि हमें सोशल इंजीनियरिंग के स्तर पर क्या-क्या काम करने हैं। इस मामले में परसों की कमाल खान (एनडीटीवी इंडिया) की स्पेशल स्टोरी पर गौर कीजिए। स्टोरी में साफ तौर पर दिखाया गया कि ब्राह्मण मिश्रा से लेकर कायस्‍थ तक ने किस तरह मायावती के पैर छुए और उनके लिए कसीदे पढ़े लेकिन दूसरी तरफ ये भी स्थिति है कि बदहाली के बावजूद एक राजपूत गांव से पचास किलोमीटर जाकर रंगाई का काम कर सकता है, लेकिन वहीं रह कर मज़दूरी नहीं कर सकता क्योंकि दलितों के साथ काम करने में उनके बाप-दादाओं की इज्ज़त में बट्टा लगता है। रंगनाथ सिंह जिस ज़रूरत को पानी, बिजली और सड़क से जोड़ कर देख रहे हैं, मैं उसे सामाजिक संरचना और उसके भीतर की कल्चरल प्रैक्टिस के स्तर पर बात करना चाहता हूं और ऐसा करते हुए मुझे बार-बार लगता है कि संसद में बहस कर रहे लोगों को किताबों में लिखी संस्कृति और मूल्यों का हवाला देने के बजाय उसकी प्रैक्टिस को लेकर बात करनी चाहिए।

जैसा कि रविशंकर ने चैनल से जुड़े लोगों के आगे सवाल रखा कि-आपको किसने यह अधिकार दे दिया कि देश क्‍या देखना चाहता है, इसकी सही समझ आपको ही है। ये सवाल हम अपने सांसदों से नहीं कर सकते, करनी भी नहीं चाहिए, यहां हम मतदान के महत्व को झुठलाना नहीं चाहते। लेकिन इतना तो ज़रूर जानना चाहेंगे कि आखिर क्या वजह है कि आपके प्रसारण मशीनरी को इस बात की समझ होते हुए भी कि (अगर वाकई समझ है तो) देश क्या देखना चाहता है वो खबरों के मामले में, अब तो कार्यक्रमों के मामले में भी कोई उदाहरण पेश नहीं कर पाता। यहां भी घाटे की भारपाई के लिए जुनून, शांति और स्वाभिमान जैसे संस्कृति विरोधी सीरियल (आप ही की परिभाषा के आधार पर) चलाए गये। आखिर क्या कारण है कि दूरदर्शन को देखना एक मजबूरी का मनोरंजन होता जा रहा है। जितनी तेजी से लोग केवल नेटवर्क और डिश टेलीविजन से जुड़ते जा रहे हैं, वो दूरदर्शन की ओर पलट कर नहीं आते। ये बात मैं पूरी जिम्मेवारी और रिसर्च के आधार पर कह रहा हूं कि जिन-जिन घरों में निजी चैनल देखने की सुविधा है, उनमें से इक्का-दुक्का ही होंगे जो कि दूरदर्शन देखते होंगे जबकि तमाम आलोचना के बाद भी वो निजी चैनलों को देखना ही पसंद करते हैं। इस बात पर भी बहस करने की ज़रूरत है कि दूरदर्शन पर तो कभी भी टीआरपी का दबाव नहीं रहा, उनसे जुड़े लोगों को कभी अपने मालिकों के आगे कमाऊ पत्रकार साबित करने की जद्दोजहद नहीं झेलनी पड़ी लेकिन आख़‍िर ऐसा क्यों है कि लोग रोज़मर्रा की चर्चा में इसका रेफरेंस तक नहीं देते, इसकी ख़बरें पत्रकारिता की मिसाल नहीं बन पातीं।

मुझे लगता है कि टेलीविज़न पर जब भी चिंता की जाती है और जैसे ही इसमें देश के लोग और परिवार, संस्कार, मूल्यों और नैतिकता जैसे सवालों के लिहाज से विचार करने का काम शुरू किया जाता है, तो उसे नागरिकशास्त्र की किताबों में व्याख्यायित शब्दावली के हिसाब से देखने की कोशिश की जाती है। इस बात को मानने के लिए हम तैयार नहीं हैं कि क्रमशः सभी स्तरों पर चाहे वो परिवार हो, मूल्य हो या फिर संस्कृति – अब वो रूप नहीं रह गया है। इसलिए जाहिर है कि विश्लेषण का ये फार्मूला भी नहीं होना चाहिए। नेशन स्टेट की संस्कृति नागरिक के जीने की संस्कृति से बिल्कुल अलग है और होती है। संभवः है कि देश के भीतर, सांसदों के बनाये नियमों के भीतर जीनेवाली देश की जनता उसे मानने और उसी हिसाब से सोचने के लिए बाध्य है लेकिन वही नागरिक जब टेलीविजन देख रहा होता है, तो वो देश का नागरिक होने के पहले ऑडिएंस हो जाता है। घंटे-दो घंटे के लिए एक नागिरक की प्राथमिकताएं परे हटकर एक ऑडिएंस की पसंद, इच्छा और अनिच्छा ज्यादा मज़बूती से सामने आती है। इसलिए टेलीविज़न पर दिखाये जानेवाले कार्यक्रमों और संसद में बैठकर तय करनेवाली नीतियों के बीच की रस्साकशी दरअसल एक नागरिक की ज़रूरत और एक ऑडिएंस की पसंद-नापसंद को समझने और नहीं समझने के बीच का विधान है। हममें से कौन चाहेगा कि एक तेज़तर्रार लड़के को पकड़ कर ज़बरदस्ती शादी कर दे! एक बार कल्पना तो कीजिए, तो रूह कांप जाती है लेकिन टेलीविजन पर भाग्यविधाता की टीआरपी अच्छी जाती है, लोगों के बीच खूब पॉपुलर भी है। किसी लड़की को दूसरे के हाथों, दूसरे के आगे तीसरे के हाथों बेचे जाने की घटना पर हम दुख जाहिर करते हैं, ऐसा न होने की भरपूर कोशिश करते हैं लेकिन अगले जनम मोहे बीटिया ही कीजो देखना हमें अच्छा लगता है। इसलिए ज़रूरी नहीं कि एक नागरिक की जो ज़रूरत है, वही एक ऑडिएंस की भी ज़रूरत हो। इसे बहुत पहले ही अरस्तू ने कार्थासिस (विरेचन) के जरिए समझाने का प्रयास किया और बताया कि कई बार ट्रैजडी को नाटक रूप में देख कर हम भीतर से विरेचित होते हैं, परफेक्ट होते हैं। टेलीविज़न के ऐसे कार्यक्रमों पर हाय-तौबा मचाने से पहले हमें इस प्रोसेस से भी टेलीविजन को देखना होगा, तब सच का सामना के सवाल भी हमें अटपटे नहीं लगेंगे। टेलीविजन को दुरुस्त करनेवाले लोगों को नागरिक और ऑडिएंस के फर्क को समझना जरुरी है और उसमें अभिरुचि शब्द को भी जोड़कर देखना होगा।

अब हम टेलीविजन को टीआरपी से जुदा करके रेगुलेशन पर बात करें, तो वृंदा कारत ने साफ कहा है कि सेल्फ रेगुलेशन का मामला पूरी तरह असफल रहा है इसलिए अब हमें रेगुलेशन बनाने की ज़रूरत है। इस तरह के रेगुलेशन बनने से पहले दूरदर्शन से एक बार ज़रूर सवाल करना चाहिए कि उनकी विफलता किस स्तर की है कि सबों की जुबान पर चाहे वो किसी भी रूप में क्यों न हो, निजी चैनलों का ही नाम होता है। सांसदों को ये बात भले ही बुरी लगे लेकिन सच है कि आज अगर देश की जनता सब्सिडी पर दिये गये दो रुपये-तीन रुपये किलो का चावल खाकर उसे वोट दे ही दे, इसकी तो कोई गारंटी नहीं – तो फिर डेढ़ सौ-दौ सौ रुपये महीने लगाकर उनके मुताबिक कार्यक्रम देखें – इसकी क्या गारंटी है? और फिर बेहतर कार्यक्रम का मतलब सिर्फ रामायण और बाबा रामदेव का योग ही तो नहीं होता, इसे तय करने के लिए कैनवास को बड़ा करके देखने की ज़रूरत है। दरअसल टेलीविजन और ऑडिएंस के बीच जो नये संबंध बने हैं, संसद में बहस करने वाले लोग इस संबंध को या तो समझना नहीं चाह रहे या फिर समझ कर इसे नज़रअंदाज़ कर रहे हैं। रविशंकर प्रसाद को अब युवाओं के पैर की थिरकन महसूस हो रही है लेकिन, तो, फिर भी… लगाकर उस लिहाज से सोचने से अपने को रोकते हैं, वो संबंध शुद्ध रूप से एक उपभोक्ता और आपूर्तिकर्ता का संबंध है। करोड़ों रुपये लगाने के बाद चैनल जहां संतई काम करने के लिए नहीं आये हैं, वहीं महीने में ढाई-तीन सौ रुपये लगानेवाली ऑडिएंस महज एक नागरिक की हैसियत से टेलीविजन देखने के पक्ष में नहीं है तो टेलीविजन में लगनेवाली पूंजी से लेकर उसके काम करने के तरीके पर विचार करना होगा।

टीआरपी को हटाकर चैनल को बेहतर होने की गारंटी कार्ड तैयार करना न सिर्फ सहूलियत के लिए निकाला गया हल होगा बल्कि उसे पहले से और अधिक बर्बर बनाना होगा। वैसे भी टैम की रिपोर्ट मानने के लिए आप बाध्य तो हैं नहीं, आप इसी तरह से कई और ऐजेंसियों के हाथों रिपोर्ट लाने की दिशा में पहल करें। केबल ऑपरेटिंग सिस्टम को दुरुस्त करने के लिए जब टाटा स्काई, बिग टीवी और डिश टीवी को एक विकल्प के तौर पर देख रहे हैं तो फिर टीआरपी के मामले में क्यों नहीं। पूरी तरह पूंजीवादी खेल में शामिल टेलीविजन चैनलों को लेकर आज अगर परेशानी आ रही है, तो इसका हल भी इसी की शक्ल और मिजाज के बीच से खोजने होगे। पूंजीवादी टेलीविजन और समाजवादी विचार का कॉकटेल न तो संभव है और न ही किसी को रास आएगा। शायद टीआरपी हटाये जाने की संभावना पर खुश होनेवाले चैनलों को भी नहीं क्योंकि वो टीआरपी का डंडा फिर भी बर्दाश्त कर ले रहे हैं लेकिन नेशन स्टेट का शायद ही कर पाएं। क्योंकि उन्हें पूंजीवाद से पैदा होनेवाली अड़चनों को झेलने की धीरे-धीरे आदत होती जा रही है, नेशन स्टेट का दखल उनके लिए ज्यादा भारी पड़ जाएगा। भरोसा न हो तो सर्वे करा लीजिए
| | edit post