सिस्टम से लड़ना आसान नहीं होता, मैं परेशान भी हूं और गलत भी
Posted On 3:50 pm by विनीत कुमार | 4 comments
हॉस्टल ऑथिरिटी के कहने पर और खुद भी सोचकर कि ऐसा कब तक चलेगा मैंने इसकी लिखित शिकायत अपने रेसीडेंट ट्यूटर को दे दी। लेकिन इसमें हुआ यह कि ऑरिजिनल कॉपी न देकर मैंने इसकी फोटो कॉपी दी थी. जल्दी में वो मेरे पास ही रह गया। मेरी शिकायत पर कहीं कुछ नहीं हुआ। मैंने फिर फोन करके रेसीडेंट टूयूटर से कहा कि सर मैं कुछ नहीं चाहता। मैं सिर्फ इतना चाहता हूं कि आप मेरा कमरा बदल दें। उन्होंने कहा-तुमने तो ऑरिजिनल कुछ दिया ही नहीं। तुमने तो फोटो कॉपी दी है। ऐसा करो, तुम ऑरिजिनल कॉपी ऑफिस में जमा करा दो, मैं जल्द ही कुछ करता हूं। मैंने उनके कहे अनुसार वैसा ही किया।
अगले दिन मेरा पार्टनर मेरे पास आया और कहा-क्या आपने मेरी कोई लिखित शिकायत की है. मैंने कहा-हां की है। उन्होंने पूछा- आपको पहले हमसे पूछ लेना चाहिए था न, आपको वैसे परेशानी क्या है। मैंने उनसे साफ कहा कि इसमें आपसे पूछने वाली कौन सकी बात है और जहां तक बात परेशानी की है तो ये मैं क्या, कोई भी शराब पीने और आए दिन लगों के आते जाने से परेशान हो जाएगा।
इतना सब कुछ होने के बाद मेरा पार्टनर मेरे दोस्त मुन्ना के पास गया और कहने लगे- मेरा तो करियर डूब गया, बात मेरे गाइड तक चली गयी है। कुछ करो, विनीतजी से कहो कि वो अपनी शिकायत वापस ले लें। बाद में मुझे भी फोन करके बुलाया। मैं आया और उनके एक दोस्त और मुन्ना के साथ बैठकर यही तय हुआ कि जो कुछ भी हुआ उसे भूलते हुए समझोता कर लिया जाए क्योंकि दोनों की पढ़ाई खराब हो रही है। यही तय हुआ कि हमलोग रेसीडेट ट्यूटर के पास चलते हैं और सारी बात वहीं रखते हैं।
मैं उनके कहे अनुसार कम्प्यूटर रुम में इंतजार करता रहा कि आप खाकर आएं तब हम सब चलेंगे। मैंने करीब एक घंटे तक इंतजार किया और इस बीच कम्प्यूटर रुम में कुछ लिखने लग गया। तभी एक ही साथ चौदह-पन्द्रह लोग कमरे में आए, एक ने कम्प्यूटर बंद कर दिया और कहा- क्या ब्लॉगिआते हैं और लोगों का जीना हराम कर दिया है. दूसरे ने कहा- हम अभी तक समझ नहीं पाए कि आप आदमी किस तरह के हैं। ये वो बंदा है जिसे कि मैंने एम.फिल् में पेपर लिखने के दौरान मदद की थी, उसके साथ उन जगहों पर भी एकाध बार गया था जहां से कि उसे कुछ मदद मिल सकती थी। एक और बंदा जो कि हमसे छोटा तो है ही, पढ़ने के नाम पर कुछ भी नहीं स्पोर्टस कोटे से आया है- कहने लगा, आपको बताना होगा कि आप ये कमरा क्यों छोड़ना चाहते हैं. मेरे बगल के कमरे के भाई ने कहा कि आप मेरी हिस्ट्री नहीं जानते और बंताने लगा कि वो हर महीने हॉस्टल के पैसे जमा करता है लेकिन चार-चार महीने तक नहीं रहता. नहीं रहने से कौन सी हैसियत बनती है, मैं समझ नहीं पाया। मैं अपनी बात रखता, इसके पहले कि कई लोग एक साथ बोलने लग गए। मुझे अपनी बात कहने का कुछ मौका ही नहीं दिया। वहां मैं अकेला था, मेरे लिए बोलने वाला कोई नहीं था. पूरी प्लानिंग इस तरह से की गयी थी कि मैंने महसूस किया कि वो चाह रहे थे कि ऐसा करके उन पर दबाब बनाया जाए, अगर डरकर शिकायत वापस ले ले तो ठीक है, नहीं तो जरुरत हुई तो वहीं मारा जाय। इसलिए मैं अपने पार्टनर की बात से अभी भी सहमत नहीं हूं कि वो हमसे बात करने आए थे। पन्द्रह लोग मुझे कौन-सी बात करने आए, मैं अभी तक समझ नहीं पाया और अगर उन्हें हमसे बात ही करनी थी तो फिर हमें अपनी बात रखने का मौका क्यों नहीं दिया।
कम्प्यूटर रुम तक की कहानी यही बनी कि लोग हम पर दबाब बनाते रहे कि आप शिकायत वापस ले ले लें। तभी एक बंदे ने कहा कि- आपने लिखा है कि मेरे कमरे में लोग शराब पी रहे थे, अरे भाई शराब कौन नहीं पीता है. ये कोई बड़ी बात थोड़े ही है, आप हाई स्कूल के बच्चे की तरह शिकायत करने चले गए। आपसे गलती हुई है, इस बात को आप मानिए और लिखिए कि हमसे गलती हुई है और आगे से ऐसा नहीं होगा। मैं उन लोगों द्वारा सिद्ध कर दिया गया था कि गलती मुझसे ही हुई है और हमें न सिर्फ शिकायत वापस लेनी है बल्कि यह भी लिखना है कि हमसे गलती हुई है और आगे से ऐसा गकभी नहीं करेंगे. हमने एक सीधे-साधे रिसर्चर को शिकायत करके परेैशान किया है और हमें इसका एहसास होना चाहिए...
क्या हुआ उसके बाद और क्यों अब मन नहीं लगता मुझे अपने कमरे में, क्यों भागा-भागा फिरता हूं हॉस्टल से और क्यों एक बार फिर लगता है कि रिसर्च छोड़कर मीडिया में आ जाउँ..पढ़िए मेरी अगली पोस्ट में।
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अगले दिन मेरा पार्टनर मेरे पास आया और कहा-क्या आपने मेरी कोई लिखित शिकायत की है. मैंने कहा-हां की है। उन्होंने पूछा- आपको पहले हमसे पूछ लेना चाहिए था न, आपको वैसे परेशानी क्या है। मैंने उनसे साफ कहा कि इसमें आपसे पूछने वाली कौन सकी बात है और जहां तक बात परेशानी की है तो ये मैं क्या, कोई भी शराब पीने और आए दिन लगों के आते जाने से परेशान हो जाएगा।
इतना सब कुछ होने के बाद मेरा पार्टनर मेरे दोस्त मुन्ना के पास गया और कहने लगे- मेरा तो करियर डूब गया, बात मेरे गाइड तक चली गयी है। कुछ करो, विनीतजी से कहो कि वो अपनी शिकायत वापस ले लें। बाद में मुझे भी फोन करके बुलाया। मैं आया और उनके एक दोस्त और मुन्ना के साथ बैठकर यही तय हुआ कि जो कुछ भी हुआ उसे भूलते हुए समझोता कर लिया जाए क्योंकि दोनों की पढ़ाई खराब हो रही है। यही तय हुआ कि हमलोग रेसीडेट ट्यूटर के पास चलते हैं और सारी बात वहीं रखते हैं।
मैं उनके कहे अनुसार कम्प्यूटर रुम में इंतजार करता रहा कि आप खाकर आएं तब हम सब चलेंगे। मैंने करीब एक घंटे तक इंतजार किया और इस बीच कम्प्यूटर रुम में कुछ लिखने लग गया। तभी एक ही साथ चौदह-पन्द्रह लोग कमरे में आए, एक ने कम्प्यूटर बंद कर दिया और कहा- क्या ब्लॉगिआते हैं और लोगों का जीना हराम कर दिया है. दूसरे ने कहा- हम अभी तक समझ नहीं पाए कि आप आदमी किस तरह के हैं। ये वो बंदा है जिसे कि मैंने एम.फिल् में पेपर लिखने के दौरान मदद की थी, उसके साथ उन जगहों पर भी एकाध बार गया था जहां से कि उसे कुछ मदद मिल सकती थी। एक और बंदा जो कि हमसे छोटा तो है ही, पढ़ने के नाम पर कुछ भी नहीं स्पोर्टस कोटे से आया है- कहने लगा, आपको बताना होगा कि आप ये कमरा क्यों छोड़ना चाहते हैं. मेरे बगल के कमरे के भाई ने कहा कि आप मेरी हिस्ट्री नहीं जानते और बंताने लगा कि वो हर महीने हॉस्टल के पैसे जमा करता है लेकिन चार-चार महीने तक नहीं रहता. नहीं रहने से कौन सी हैसियत बनती है, मैं समझ नहीं पाया। मैं अपनी बात रखता, इसके पहले कि कई लोग एक साथ बोलने लग गए। मुझे अपनी बात कहने का कुछ मौका ही नहीं दिया। वहां मैं अकेला था, मेरे लिए बोलने वाला कोई नहीं था. पूरी प्लानिंग इस तरह से की गयी थी कि मैंने महसूस किया कि वो चाह रहे थे कि ऐसा करके उन पर दबाब बनाया जाए, अगर डरकर शिकायत वापस ले ले तो ठीक है, नहीं तो जरुरत हुई तो वहीं मारा जाय। इसलिए मैं अपने पार्टनर की बात से अभी भी सहमत नहीं हूं कि वो हमसे बात करने आए थे। पन्द्रह लोग मुझे कौन-सी बात करने आए, मैं अभी तक समझ नहीं पाया और अगर उन्हें हमसे बात ही करनी थी तो फिर हमें अपनी बात रखने का मौका क्यों नहीं दिया।
कम्प्यूटर रुम तक की कहानी यही बनी कि लोग हम पर दबाब बनाते रहे कि आप शिकायत वापस ले ले लें। तभी एक बंदे ने कहा कि- आपने लिखा है कि मेरे कमरे में लोग शराब पी रहे थे, अरे भाई शराब कौन नहीं पीता है. ये कोई बड़ी बात थोड़े ही है, आप हाई स्कूल के बच्चे की तरह शिकायत करने चले गए। आपसे गलती हुई है, इस बात को आप मानिए और लिखिए कि हमसे गलती हुई है और आगे से ऐसा नहीं होगा। मैं उन लोगों द्वारा सिद्ध कर दिया गया था कि गलती मुझसे ही हुई है और हमें न सिर्फ शिकायत वापस लेनी है बल्कि यह भी लिखना है कि हमसे गलती हुई है और आगे से ऐसा गकभी नहीं करेंगे. हमने एक सीधे-साधे रिसर्चर को शिकायत करके परेैशान किया है और हमें इसका एहसास होना चाहिए...
क्या हुआ उसके बाद और क्यों अब मन नहीं लगता मुझे अपने कमरे में, क्यों भागा-भागा फिरता हूं हॉस्टल से और क्यों एक बार फिर लगता है कि रिसर्च छोड़कर मीडिया में आ जाउँ..पढ़िए मेरी अगली पोस्ट में।
आप सही होते हुए भी कैसे गलत साबित कर दिए जाते हैं, आप परेशान को प्रशासन की शरण में जाने पर कैसे परेशान हो जाते हैं, पिछले आठ दिनों से यही सब झेल रहा हूं मैं। शारीरिक परेशानियों के साथ-साथ मानसिक उलझनें भी।
मेरे कमरे में चार-पांच लोगों ने रातभर शराब पीकर हंगामा मचाया, उल्टी-सीधी बातें कही। मैं परेशान होता रहा। पिछले तीन दिनों से पूरी-पूरी रात जाग रहा था। एक तो काम का प्रेशर और कुछ व्यक्तिगत कारण। मुझे रात के चार-चार बजे तक नींद नहीं आती. लेकिन उस दिन मैंने फैसला किया कि ऐसे कैसे चलेगा, काम करने के लिए मुझे ढंग से सोना ही होगा। मैंने दस बजे कमरे की बत्ती बुझा दी और सोने की कोशिश करने लगा। नींद थोड़ी आती, फिर चली जाती। तभी ठहाके और जोर-जोर से हंगामा शुरु हो गया। हारकर मैंने इस बात की शिकायत अपने रेसीडेंट ट्यूटर से कर दी और अनुरोध भी किया कि- सर आप खुद चलकर देख लीजिए कि हमारे कमरे में क्या हो रहा है। उनके यहां कुछ लोग आए हुए थे सो उन्होंने आने में अपनी असमर्थता जताई. मैं वापस आ गया।... और अपने दोस्त मुन्ना के कमरे में सो गया।
दरअसल हमारे हॉस्टल ग्वायर हॉल में पीएचडी करनेवालों को अलग कमरा दिया जाता है लेकिन कमरे की बनावट कुछ ऐसी है कि कभी महसूस नहीं होता कि हम सिंगल कमरे में हैं. कमरे में घुसते ही एक बड़ा-सा हॉल है। बहुत ही सुंदर औऱ प्यारा। जाड़े में लकडियां जलाने तक की व्यवस्था है। उसके बाद दोनों तरफ दो कमरे में हैं। दोनों कमरे में कोई दरवाजा नहीं लगा है। एक कमरे में मैं रहता हूं और दूसरे कमरे में मेरा पार्टनर।
पार्टनर के यहां की स्थिति ये है कि उनके गेस्ट स्थायी तौर पर उनके साथ रहते हैं। रहने के साथ-साथ मेस से टिफिन में भरकर खाना लाते हैं और दो या इधर डेढ़ महीने से तीन लोग दोपहर रात उसी खाने में खाते। कमरे में इस तरह से खाना लाना मना है। केवल बीमार आदमी के लिे ये सुविधा है। खैर, उनके इस तरह से खाना लाने और खाने से हमें कोई परेशानी नहीं थी। लेकिन खाने के एक घंटे पहले बाहर से लोग आते और खाने के दो-ढ़ाई घंटे तक बातें करते रहते। मैं परेशान होता रहता। मेरे पार्टनर से बहुत ही औपचारिक तरीके की बात होती। क्योंकि डीयू के किसी भी हॉस्टल में पहले ही दिन से हिन्दी के लोग चूतिए मान लिए जाते हैं। मेरे आने के तीसरे दिन ही पार्टनर ने मेरे जूनियर दोस्तों को बताया कि तुम्हारा सीनियर विनीत तो चूतिया है, दिनभर रूम में घुसकर पढ़ता रहता है। खैर,
तभी से मैं बहुत संभलकर कम बातचीत किया करता।
इधर जब मैं कमरे में रहता, मेरे या फिर मेरे किसी भी सामान से उन्हें कोई मतलब नहीं होता. लेकिन जैसे ही रातभर के लिए कहीं गया, वापस आने पर कोई न कोई कांड जरुर हो जाता। उस रात मंडली मेरे ही कमरे में जमती. रातभर लोग दारु पीते और हंगामा करते। एक रात मैं जेएनयू गया था। वापस आया तो देखा कि कमरे के शीशे टूटकर फर्श पर बिखरे हुए हैं। आने पर मैंने पूछा कि- सर ये सब क्या है, उन्होंने साफ कहा कि हमें कुछ भी नहीं पता. जब मैंने सबकुछ समेटा तो देखा कि कमरे के चारो तरफ शराब की बोतलों के ढक्कन बिखरे पड़े हैं। मैंने कुछ कहा नहीं और सारे शीशे लगवाए.
बेला रोड़ से अपने दोस्त को अंतिम विदाई देकर लौटा ही था कि कमरे में कुछ लोग आए, साथ में ऑफिस के लोग
और रेसीडेंट ट्यूटर भी थे। हुआ यों था कि आज किसी भाई के कमरे से लैपटॉप की चोरी हो गयी थी और वो और कमरों की तरह मेरे कमरे की भी तलाशी लेना चाह रहे थे। इसी बीच उनमें से किसी ने कहा-यार नयी फ्रीज खरीदी है तुमने, आरटी सर को पानी तो पिलाओ। मैंने जैसे ही फ्रीज खोला, देखा- पूरे फ्रीजर में बीयर की बोतलें और केन भरी हुई है. मैंने फ्रीज को तुरंत लगाया और बाहर से पानी लाने चला गया। अभी से दस मिनट पहले उसमें ऐसा कुछ भी नहीं था. उस रात भी किसी दूसरे कमरे में जमकर बीयर और शराब पी गयी।
मैं अपने पार्टर के साथ परेशान होने की बात ऑथिरिटी से लगातार करता रहा। इस बीच कमरे से पैनकार्ड, कैश सहित रेलवे की टिकट की भी चोरी हुई लेकिन कुछ नतीजा नहीं निकला।
लेकिन आठ दिन पहले हुई घटना ने मुझे बुरी तरह परेशान कर दिया और हारकर मैंने फिर से इसकी शिकायत की।
कैसे लगता है कि ऑथिरिटी नाकाम है और मैं बली का बकरा बनाया जा रहा हूं। आसान नहीं होता सिस्टम से लड़ना, पढिए मेरी अगली पोस्ट में।
तो सास-बहू सीरियल को गरियाने के बाद मां एक बार फिर से टीवी देखने लग गयी है। रामायण, महाभारत, श्रीकृष्णा और जो भी धार्मिक सीरियल आने शुरु हुए हैं। मां ने अब से दस-बारह साल पहले जो कुछ देखा था, उसे याद करते हुए अब का अनुभव बताती है। उस समय मैं भी मां के साथ ही होता और साथ बैठकर देखता.
मां बताती है कि जो मजा पहले रामायण देखने में आता था, अब वो बात नहीं है। भले टीवी सादा था उ भी कम भोलटेज से हनुमानजी तक हिलने लगते थे. एक ही घंटा में दू से तीन बार लैन चल जाता लेकिन एक अलग ढंग का मजा आता। मोहल्ले में कई लोगों ने सिर्फ रामायण देखने के लिए टीवी खरीदी थी। पापा के हिसाब से टीवी खरीदने का मतलब पैसा फंसाना था, सो लाख कहने पर टीवी नहीं खरीदी गयी. तभी रुपा ( बनियान बनानेवाली कंपनी ) ने कुछ ऑफर दिया कि इतने डिब्बे माल खरीदो तो ब्लैक एन व्हाइट टीवी मिल जाएगी और पापा ने ऐसा ही किया। हमारे घर टीवी आ गयी।
मोहल्ले में कई रईस थे। उनके यहां भी लोग देखने जाते। एक तो उनके यहां टीवी रंगीन थी और दूसरा कि उनके यहां जेनरेटर की सुविधा थी। लेकिन वहां लोग हमारे घर में किसी तरह की मजबूरी हो जाने पर ही जाते। लोगों का कहना था कि वहां अपनापा जैसा नहीं लगता है. लगता है कि नौकर-चाकर हैं और आए हैं। घर का कोई भी आदमी जाने पर बात नहीं करता। शुरु-शुरु में एक-दो बार उस घर में लोगों को चाय मिली जिसे कि रागिनी दीदी की मां बकड़ी का मूत(बकरी का पेशाब) कहती। वहां लोगों को चिकने मोजाइक के फर्श पर बैठने को मिलता और हमारे घर में सीमेंट के पक्के पर। उपर से गर्मी इतनी लगती कि अब तो हमें चक्कर आने लगे लेकिन लोग मेरे यहां ही ज्यादा आते। कभी-कभी बैठने के लिए दरी कम पड़ जाती और मां धुले हुए बेडसीट निकालती तो मिथिलेश भैय्या की मां या फिर मीरा दीदी की मां हाथ पकड़ लेती। सीधा कहती- इ सब काहे करते हैं बहुरिया, हमलोग बाहर के थोड़े ही हैं औऱ जूट के बोरे पर बैठ जाती जो कभी-कभी गीला भी होता।
मां उस दिन ग्वाले से खुशामद करके दो किलो दूध ज्यादा मंगाती जिसके लिए बाद में वो तैयार नहीं होता लेकिन एक दिन जब मैंने भी रविवार को सुबह नौ बजे रामायण देखने के लिए बिठा दिया तो अगली बार से लोगों को ज्यादा दूध मांगने पर साफ कह देता कि- नहीं है दूध, आज रमैण देखनेवालों के लिए जाएगा। तब रामायण देखना एक धार्मिक कार्य होता और देखनेवाले लोग समाज की नजर में ऑडिएंस होने के बजाय राम या हनुमान भक्त होते।
इधर रामायण खत्म हुआ और उधर चाय छनने लग जाती. कोई स्टील के गिलास में, कोई टूटे कप में, कोई कटोरी में तो कोई मिट्टी के चुक्के में चाय का मजा लेने लग जाते। बाद मे मां ने जब एक ही साथ तीन दर्जन कप खरीदे तो कोई निकालने ही नहीं देता। सब कहते- इसको काहे निकाल रहे हैं, आनेजाने वालों के लिए रहने द, मत घोलटाओ. घोलटाने का मतलब झूठा करना। चाय-पीने के बाद सब बगीचे में लगे चापानल से अपना-अपना बर्तन धोकर मां को पकड़ा देते. बाद में तो महौल ऐसा जमा कि लोग अपने घर से कुछ-कुछ खाने का लाने लग गए। कोई मकुनी( सत्तू की पूडी) तो कोई चूडे की लिट्टी।.
इस दौर में टीवी पर रामायण और महाभारत देखना एक बहाना भर होता। हमें इस पूरे प्रसंग में दो ही चीजें अच्छी लगती। एक तो विज्ञान को धत्ता बताकर आशीर्वाद में मिले एक तीर का राम के छोड़ते ही हजारों तीर में बदल जाना और दूसरा कि आनेवाले लोगों से घर में मजमे का लग जाना। कुछ लोग तो दोपहर तक रह जाते और एक-दो खाकर भी जाते। रविवार की यह सुबह पड़ोसियों से जुड़ने का एक बढ़िया बहाना होता। इसके बाद से लेकर अब तक टीवी से सामूहिक रुप से लोग कभी नहीं जुड़ पाए। तब टीवी बरामदे या फिर दालान में रखी जाती। अब तो बेडरुम में ऱखी जाने लगी है। कई घरों में तो एक कॉमन टीवी और बाकी अपने-अपने कमरों के लिए थोड़ी छोटी और अपनी-अपनी। तब टीवी पर्सनल एसेट नहीं हुआ करती। कुछ लोग बड़े साइज की इसलिए भी लेते कि पड़ोस के लोगों को देखने में परेशानी न हो.
मां इन सब बातों को आज रामायण देखते हुए याद करती है और उसके साथ मैं भी। मैं मां को टीवी का एक बेहतर दर्शक मानता हूं इसलिए रिसर्च के साथ-साथ घर गृहस्थी के साथ-साथ कभी-कभी सिर्फ टीवी और रेडियो पर बात करने के लिए फोन करता हूं. आपको यकीन नहीं होगा, कल ही वोडाफोन का रिचार्ज कूपन १२० रुपये का भरवाया और अभ वैलेंस एक रुपये दस पैसे हैं। सारी बातें मां से टीवी पर होती रही।
मां का कहना है कि- अब रमैन देखे में उ मजा थोड़े है। अकेले के चीज है ही नहीं। जब तक दस-बीस आदमी साथ नय देखे तब रामायण की। आज घर में रंगीन टीवी है, चौबीस घंटे बिजली भी। बेक्र में पीने के लिए फ्रीज में ऱखा जूस भी। लेकिन मां को रामायण देखने पर भी उससे पहले जैसा मजा नहीं आ रहा।... मां बताती है कि उसके कहने पर भाभी साथ में बैठ जाती है लेकिन थोड़ी देर चटने के बाद यह कहते हुए कि- मांजी खुशी के लिए दूध बनाना है, हल्के से कट लेती है। मां समझती है कि उन्हें धार्मिक सीरियल पसंद नहीं है और अफसोस जताती है- कहां से होगा अकिल-बुद्दि, बड़ा- छोटा के इज्जत करके लूर। जे बढ़िया चीज टीवी पर आता है उ नय देखके तलाक देखती है। इतना सब कहने के बाद मां करती है- आज के रामायण और महाभारत की समीक्षा। पढ़िए मेरी अगली पोस्ट में
मेरी मां की अब मौज हो गयी है। एक बार फिर वो अपना अच्छा-खासा समय टेलीविजन को देने लगी है। नहीं तो अब तक मेरी भाभी कहती कि अकेले सीरियल देखने में बोर हो जाते हैं, मां जी आप भी मेरे साथ देखिए न तो मेरी मां साफ बहाने बना जाती- देर तक बैठा नहीं जाता, टीवी देखने से आंख से पानी झरने लगता है।
एनडीटीवी इमैजिन पर रामायण एक अच्छी आदत शुरु होने के बाद लगभग सारे चैनलों पर धार्मिक सीरियलों का दौर शुरु हो गया है। मां का इस मामले में साफ कहना है कि सभी चैनलों को एहसास हो गया है कि दर्शकों को भगवान से लम्बे समय तक दूर नहीं रखा जा सकता। कोढा-कपार दिखाने से तो अच्छा है कि भगवान का सुमरन करे। सब चैनल को अपनी गलती का एहसास हो गया है।
मेरी मां टीआरपी के खेल को नहीं समझती औऱ न ही चैनलों की मार्केट पॉलिसी को समझती है। उसके हिसाब से चैनल को जो मन आए भले ही दिखा दे लेकिन उसको पता नहीं है कि रोज कितनी औऱतों का हाय उसमें काम करने वालों को लगती है। जो बुढ़िया सास अपनी बहू से एक गिलास पानी के लिए तरस जाए, लाचार को छोड़कर टीवी देखने बैठ जाए उसका हाय टीवी को तो जरुर लगेगा। इ सास-बहू का सीरियल दिखा-दिखाकर केतना आदमी का घर फोड़ दिया है, टीवीवालों को इसका अंदाजा थोड़े ही है।
मां का साफ मानना है कि सास-बहू टाइप का सीरियल औरत को नागिन बना देता है, वो अपनी सास से बातचीत करने के बजाय फुफकारना जानती है। मेरे बार-बार पूछने पर कि- देखो तो मां, भाभी अभी तक नागिन तो नहीं हुयी। मां एकदम से फोन पर ही बोल पड़ी- अभी नहीं तो देर-सबेर तो हो ही जाएगी, उ टीवी कम थोड़े देखती है, ट्रेनिंग तो ले ही रही है। बताओ श्रवण कुमार जैसे लड़के को सीरयल में दुःशासन बनाने में लगा है। एक आदमी का तीन-तीन औरत से चक्कर। अब किसी को इ सब करम करके बुढ़ापा में कोढ़ी फूट जाए तो उस पर किसको तरस आएगा। इ तीन साल के बितनी खुशी को तो देखो, भगवान जाने केतना समझती है लेकिन कहती है कि उस लड़की से किसी और का अफेयर है। बड़ा होके आग लगावेगी नहीं तो और क्या करेगी। इसलिए मां के लिए चूल्हा में जाए टीवी उसने लम्बे समय से देखना छोड़ दिया।
इधर मेरे लगातार फोन करने पर कि- मां तुम्होरे सारे देवी-देवता टीवी के मैंदान में हैं, इधर टीवी देखना शुरु कर दो। पहले तो मां पलटकर मुझसे ही सवाल कर दिया- काहे टीवी को सब लड़की-औरत को पतुरिया बनाने से फुर्सत मिल गया। देखा ही तो रहा था कि- दिन में किसी और के साथ चुम्मा-चाटी और रात को एकदम से सती-सावित्री बनके सीधे मरद को दूध का गिलास पकड़ा रही है। जो काम कर रहा है, भोगेगा एक दिन जरुर।
मां जब भी टीवी के बारे में बात करती उसे इस तरह से कोसती, जैसे घर का बच्चा किसी की कुसंगति में पड़ गया हो या फिर घर की औरतें में चरित्र को लेकर कोई ऐब शुरु करने का काम करता हो। सबसे -ज्यादा चिंता उसे तीन साल की खुशी की होती- एतना टीवी जेखेगी तो बहुत जल्दी पम्पाल( धूर्त,बदतमीज) हो जाएगी। हमको तो छोड़ो- दू चार साल में मर-खप जाएंगे लेकिन माय-बाप को भी रत्ती भर भी इज्जत नहीं करेगी। कहती है नीचे जो अंशु रहता है न दादी वो पूछता है कि तुम्हारा कोई ब्ऑयफ्रैंड है।
मेरे जाने पर भाभी खाने को लेकर अक्सर आजमाइश किया करती है। दुर्भाग्य कहिए कि हमेशा ऐसी चीजें बनाती जो मां के देहाती मुंह के खिलाफ होता। उपर से उसमें लागत भी अधिक लगती। मां को क्या, कभी-कभी तो घर में मुझे छोड़कर किसी को पसंद नहीं आता। मुझे तो घर का उबला पानी भी बेहतर लगता है और फिर भाभी का मन रखने के लिए मैं पहले से ही बहुत अच्छा-बहुत अच्छा की रट लगाने लग जाता। मां को भाभी से कोई शिकायत नहीं है। दो-चार बात मां के विरोध में बोलने के बाद कहती है- ऐसन थोड़े थी। केतना बढ़िया नया-नया में दाल-भात दू-तीन तरह के सब्जी-दाल बनाती, तब अब क्या बनाती है, उनियन पिज्जा, सब्जी कौन त मचूरियन, सबके सब कोढ़ा-कपार। इ सब टीविया देख-देख के हुआ है। अरे देखावे जो देखाना है, जिए-मरे के खिस्सा। त नय- रोज नया-नया खाना के नाम बतावेगा।
मेरी मां टेलीविजन के इस रवैये से इतनी खफा है कि अगर कोई कहे कि वो टीवी सीरियल बनाता है तो उससे चाय-पीनी पूछने के पहले सीधे पूछे कि- काहे तुम्हारे घर में लड़का-बच्चा नहीं है और तुम जो अभी हिआ आए हो, घरवाली कहां है....किसी के साथ गई है सिनेमा ?
अब धार्मिक सीरियलों के शुरु हो जाने पर कैसे बदला है टीवी को लेकर मेरी मां के विचार, पढ़िए अगली पोस्ट में।।।
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एनडीटीवी इमैजिन पर रामायण एक अच्छी आदत शुरु होने के बाद लगभग सारे चैनलों पर धार्मिक सीरियलों का दौर शुरु हो गया है। मां का इस मामले में साफ कहना है कि सभी चैनलों को एहसास हो गया है कि दर्शकों को भगवान से लम्बे समय तक दूर नहीं रखा जा सकता। कोढा-कपार दिखाने से तो अच्छा है कि भगवान का सुमरन करे। सब चैनल को अपनी गलती का एहसास हो गया है।
मेरी मां टीआरपी के खेल को नहीं समझती औऱ न ही चैनलों की मार्केट पॉलिसी को समझती है। उसके हिसाब से चैनल को जो मन आए भले ही दिखा दे लेकिन उसको पता नहीं है कि रोज कितनी औऱतों का हाय उसमें काम करने वालों को लगती है। जो बुढ़िया सास अपनी बहू से एक गिलास पानी के लिए तरस जाए, लाचार को छोड़कर टीवी देखने बैठ जाए उसका हाय टीवी को तो जरुर लगेगा। इ सास-बहू का सीरियल दिखा-दिखाकर केतना आदमी का घर फोड़ दिया है, टीवीवालों को इसका अंदाजा थोड़े ही है।
मां का साफ मानना है कि सास-बहू टाइप का सीरियल औरत को नागिन बना देता है, वो अपनी सास से बातचीत करने के बजाय फुफकारना जानती है। मेरे बार-बार पूछने पर कि- देखो तो मां, भाभी अभी तक नागिन तो नहीं हुयी। मां एकदम से फोन पर ही बोल पड़ी- अभी नहीं तो देर-सबेर तो हो ही जाएगी, उ टीवी कम थोड़े देखती है, ट्रेनिंग तो ले ही रही है। बताओ श्रवण कुमार जैसे लड़के को सीरयल में दुःशासन बनाने में लगा है। एक आदमी का तीन-तीन औरत से चक्कर। अब किसी को इ सब करम करके बुढ़ापा में कोढ़ी फूट जाए तो उस पर किसको तरस आएगा। इ तीन साल के बितनी खुशी को तो देखो, भगवान जाने केतना समझती है लेकिन कहती है कि उस लड़की से किसी और का अफेयर है। बड़ा होके आग लगावेगी नहीं तो और क्या करेगी। इसलिए मां के लिए चूल्हा में जाए टीवी उसने लम्बे समय से देखना छोड़ दिया।
इधर मेरे लगातार फोन करने पर कि- मां तुम्होरे सारे देवी-देवता टीवी के मैंदान में हैं, इधर टीवी देखना शुरु कर दो। पहले तो मां पलटकर मुझसे ही सवाल कर दिया- काहे टीवी को सब लड़की-औरत को पतुरिया बनाने से फुर्सत मिल गया। देखा ही तो रहा था कि- दिन में किसी और के साथ चुम्मा-चाटी और रात को एकदम से सती-सावित्री बनके सीधे मरद को दूध का गिलास पकड़ा रही है। जो काम कर रहा है, भोगेगा एक दिन जरुर।
मां जब भी टीवी के बारे में बात करती उसे इस तरह से कोसती, जैसे घर का बच्चा किसी की कुसंगति में पड़ गया हो या फिर घर की औरतें में चरित्र को लेकर कोई ऐब शुरु करने का काम करता हो। सबसे -ज्यादा चिंता उसे तीन साल की खुशी की होती- एतना टीवी जेखेगी तो बहुत जल्दी पम्पाल( धूर्त,बदतमीज) हो जाएगी। हमको तो छोड़ो- दू चार साल में मर-खप जाएंगे लेकिन माय-बाप को भी रत्ती भर भी इज्जत नहीं करेगी। कहती है नीचे जो अंशु रहता है न दादी वो पूछता है कि तुम्हारा कोई ब्ऑयफ्रैंड है।
मेरे जाने पर भाभी खाने को लेकर अक्सर आजमाइश किया करती है। दुर्भाग्य कहिए कि हमेशा ऐसी चीजें बनाती जो मां के देहाती मुंह के खिलाफ होता। उपर से उसमें लागत भी अधिक लगती। मां को क्या, कभी-कभी तो घर में मुझे छोड़कर किसी को पसंद नहीं आता। मुझे तो घर का उबला पानी भी बेहतर लगता है और फिर भाभी का मन रखने के लिए मैं पहले से ही बहुत अच्छा-बहुत अच्छा की रट लगाने लग जाता। मां को भाभी से कोई शिकायत नहीं है। दो-चार बात मां के विरोध में बोलने के बाद कहती है- ऐसन थोड़े थी। केतना बढ़िया नया-नया में दाल-भात दू-तीन तरह के सब्जी-दाल बनाती, तब अब क्या बनाती है, उनियन पिज्जा, सब्जी कौन त मचूरियन, सबके सब कोढ़ा-कपार। इ सब टीविया देख-देख के हुआ है। अरे देखावे जो देखाना है, जिए-मरे के खिस्सा। त नय- रोज नया-नया खाना के नाम बतावेगा।
मेरी मां टेलीविजन के इस रवैये से इतनी खफा है कि अगर कोई कहे कि वो टीवी सीरियल बनाता है तो उससे चाय-पीनी पूछने के पहले सीधे पूछे कि- काहे तुम्हारे घर में लड़का-बच्चा नहीं है और तुम जो अभी हिआ आए हो, घरवाली कहां है....किसी के साथ गई है सिनेमा ?
अब धार्मिक सीरियलों के शुरु हो जाने पर कैसे बदला है टीवी को लेकर मेरी मां के विचार, पढ़िए अगली पोस्ट में।।।
एकः
तुमने ही तो पहले कुत्ता, कमीना कहा था। नहीं पहले तूने कहा था कि एक दूंगा कनपटी पर। एक बच्चे की मम्मी दूसरे की मम्मी से शिकायत करने उसके घर पहुंचती है कि आपके लड़के ने मेरे बच्चे को मारा। उपर के संवाद इस दौरान के हैं। दोनों की मांएं कुछ बोले इसके पहले ही दोनों बच्चे आपस में शुरु हो जाते हैं। मां को बोलने का मौका ही नहीं देते। अंत में पीछे से वीओ चलता है..क्या सीख रहे हैं आपके बच्चे।
दोः
एक छह-सात साल की बच्ची टीवी देख रही है इसी बीच उसकी मम्मी उसकी दीदी के बारे में पूछती है कि कहां है वो। बच्ची का जबाब होता है- गई होगी कलमुंही अपने ब्ऑयफ्रेंड के साथ। उसी सुर में वो और भी लगातार बोलती चली जाती है। पीछे से फिर वीओ चलता है- क्या सीख रहे हैं आपके बच्चे ?
तीनः
एक फैमिली के घर कुछ लोग खाने पर आए हैं। उस फैमिली में छह -सात साल का एक लड़का भी है। आमतौर पर जैसा की भारतीय परिवारों में होता है कि आपके जाते ही बच्चे के मां-बाप कहते हैं कि- अंकल या फिर दीदी को सुनाओ तो राइम्स। अगर बच्चा स्मार्ट है तब तो चालू हो जाता है...बा बा ब्लैक सिप या फिर और कुछ लेकिन अगर फूद्दू है तो फिर लेडिज होने पर आप अपना पर्स खोलती हैं और कैडवरी देते हुए कहती है..अच्छा चलो, अब सुनाओ। यहां बच्चा स्मार्ट है। सीधे कहता है- पापा एक गाना सुनाउं। फिर सुनाता है-
ए गनपत, चल दारु ला
ए गनपत, चल दारु ला
आइस थोड़ा कम, सोड़ा ज्यादा मिला
जरा टेबुल-बेबुल साफ कर दे न यार..
टेबुल साफ कर देने की बात पर वो गेस्ट की तरफ हाथ लहराता है। इस बीच उसके मम्मी-पापा तरह-तरह से मुंह बनाते हैं। उन्हें लगने लग जाता है कि उनकी इज्जत मिट्टी में मिल गयी। फिर वीओ चलता है- क्या सीख रहे हैं आपके बच्चे ?
इन तीनों दृश्यों में ये बताने की कोशिश है कि टीवी देखकर आपके बच्चे खराब हो रहे हैं। उनके संस्कार पर बुरा असर पड़ रहा है। टीवी के जिन कार्यक्रमों से बच्चों के संस्कार बिगड़ रहे हैं उसमें सास-बहू टाइप सीरियल, रियलिटी शो के नोक-झोंक और म्यूजिक चैनल के गाने हैं। इसलिए इन सबको छोड़कर जरुरी है कि बच्चे रामायण देखें। एनडीटीवी इमैजिन रामायण को किसी पौराणिक कथा के रुप में नहीं बल्कि एक अच्छी आदत के रुप में देखने-समझने की बात करता है। चैनल की समझदारी बढ़ी है. उसे इस बात का अंदाजा हो गया है कि अब रामायण के वो दर्शक नहीं रहे हैं जो कि रामायण शुरु होने पर टीवी के आगे अगरबत्ती जलाते थे और अरुण गोविल के आगे मथ्था टेकते थे।
रामायण और दूसरी पौराणिक, धार्मिक कथाएं जिस पर कि अपनी-अपनी ऑयडियोलॉजी के आधार पर बहसें होतीं है और स्थापित मान्यताओं पर संदेह किया जाता है। इसलिए इसे लेकर अब एक सर्वमान्य धारणा नहीं रह गयी। अब यह विवाद और उन्माद का विषय हो गया है। इन सबके बावजूद इन सारी धार्मिक कथाओं को संस्कार और बच्चों के लिए आदर्श के रुप में स्थापित करने की एक बार फिर फिर से कोशिशें की जा रही है। अब तक ये कोशिशें परिवार के लोग किया करते रहे लेकिन अब इसमें टेलीविजन भी शामिल है, बाजार भी शामिल है, बड़ी पूंजी भी शामिल है। इसलिए बौद्धिक बहसों के बीच अगर ये कथाएं अपना व्यावसायिक रुप ले रही हैं तो ये मानकर चलिए कि चाहे कोई भी वाद आ जाए और बाजार का कोई भी स्वरुप हो ये कथाएं अपने समय अनुसार खपने लायक बन जाएंगे। इसे आप इन कथाओं की ताकत कहिए या फिर इंसान की उपयोगितावादी दृष्टि लेकिन रामायण, महाभारत और इस तरह के धार्मिक कथाओं की मार्केटिंग और खपत हमेशा रहेगी। अब तक का अनुभव तो यही रहा है।
तीन महीने से मीडिया में नौकरी पाने के लिए वो जगह-जगह धक्के खा रहा है। इसी बीच उसे पता चला कि भड़ास डॉट कॉम से कुछ मामला बन सकता है। उसने भड़ास के मॉडरेटर यशवंत सिंह को अपना रिज्यूमे भेजा और कुछ करने की बाद कही। वो मेरा ब्लॉग भी रेगुलर पढ़ता है औऱ व्यक्तिगत तौर पर मुझे जानता भी है। इसलिए कल जो कुछ भी उसकी बात यशवंत सिंह से हुई, उस संबंध में मुझसे राय लेने मेरे पास पहुंचा।
सबसे पहले तो वो इस बात से परेशान था कि मीडिया में इस तरह के भी काम होते हैं। उसका कहना एकदम साफ था कि- सर हमें पता है मीडिया में अचानक से या फिर सिर्फ योग्यता से नौकरी नहीं लग जाती, किसी न किसी के बैकअप का होना जरुरी है। लेकिन कोई इस तरह से भी करता है, मुझे जानकर बहुत धक्का लगा। यशवंतजी को लोगों की मदद करने का नाम पर इस तरह पाखंड रचने की क्या जरुरत थी। आपलोग चाहते हैं कि ब्लॉग के जरिए रातोंरात करोड़पति बन जाएं, ये शोषण और धोखा नहीं तो और क्या है। बहुत झल्लाया था वो।
उसके मुताबिक यशवंत सिंह ने कल उसे फोन करके बताया कि- तुम्हारी नौकरी यूपी के किसी अखबार में एक सप्ताह के भीतर लग जाएगी। इसके लिए तुम्हें तीन हजार रुपये देने होंगे। ये तीन हजार रुपये उन्होंने बतौर रजिस्ट्रेशन के लिए मांगा। मतलब कि अगर आप भड़ास.कॉम के जरिए नौकरी चाहते हैं तो आपको रजिस्ट्रेशन फीस देनी होगी। उसने तब यशवंत सिंह से पूछा कि, सर पता तो बताइए कि ये तीन हजार रुपये हमें कहां जमा करने हैं। यशवंत सिंह ने उसे एक अकांउट नंबर दिया और कहा कि इसमें तीन हजार रुपये जमा करा दो। मेरे इस ब्लॉगर दोस्त का कहना है कि सर क्या करें, ऐसे कैसे तीन हजार रुपये किसी को दे दें।
दोस्त से जब मैंने पूछा कि जब तुम अपना रिज्यूमे भेज रहे थे, उस समय कहीं कुछ लिखा था कि तुम्हें तीन हजार रुपये जमा कराने होंगे। उसका सीधा जबाब था- बिल्कुल नहीं सर। ये तो कल जब बात हुई तो उन्होंने बताया कि हमारे यहां तो कईयों के रिज्यूमें आते रहते हैं, तीन हजार तो देने ही होंगे। इस दोस्त ने यहां तक कहा कि- सर, अभी तो स्ट्रगल ही कर रहा हूं, नौकरी मिल जाए उसके बाद उससे आपको दे दूंगा। यशवंत सिंह इस बात के लिए तैयार नहीं थे।
इस पूरे मामले को अगर आप सतही तौर पर देखें तो आपको लगेगा कि कुछ भी गलत नहीं है। अगर कोई आपको नौकरी दिला दे रहा है तब अपनी मेहनत और उसके जो कॉन्टेक्टस हैं उसकी कीमत तो लेगा ही। ये काम तो दिल्ली में कोई आपको मकान दिलाए तो पहले १५ दिन का किराया कमीशन के तौर पर रख लेता है। या फिर जॉव दिलानेवाली एजेंसी भी इस तरह से कुछ करती है। लेकिन, गंभीरता से विचार करें तो कुछ सवाल जरुर खड़े होते हैं-
पहला तो यह है कि क्या यशवंत सिह और और बाकी लोग जो भड़ास डॉट कॉम से जुड़े हैं उन्हें इसे बतौर व्यावसायिक साइट के तौर पर रजिस्ट्रेशन कराया है। इसके आमदनी की जानकारी वैधानिक रुप से संदर्भ विभाग को बताए जाने का प्रावधान है।
क्या भड़ास डॉट कॉम कोई जॉव एजेंसी है और अगर हां तो फिर उसने अपनी बेबसाइट पर सारी चीजों की जानकारी स्पष्ट रुप से क्यों नहीं लिखी है. कोई भी परेशान बंदा जो कि मीडिया में नौकरी पाने के लिए छटपटा रहा है और उसे बाद में पता चलता है कि उसे तीन हजार रुपये देने होंगे, ये किसी भी स्तर से उचित नहीं है।
अगर भड़ास डॉट कॉम वाकई में एक व्यावसायिक साइट है तो फिर जबरदस्ती इसे लोगों की मदद और मानवता जैसे भारी-भरकम शब्दों से लादने की जरुरत क्या है।
यह सही है कि भड़ास और अब भड़ास डॉट कॉम मीडिया की खबरों को जिस तरह से पेश करता है इससे नए लोगों को कई जानकारियां मिलती है लेकिन इस जानकारी देने की एवज में जो राशि वो वसूलता है उसे भी अपनी साइट और ब्लॉग पर प्रकाशित करे। भड़ास या फिर किसी भी दूसरे साइट या ब्लॉग को अधिकार नहीं है कि मानवता के नाते मदद करने का डंका पीटने के नाम पर मीडिया में जाने के लिए संघर्ष कर रहे लोगों को गुमराह करे। इससे लोगों की परेशानी तो बढ़ती ही है, साथ ही जो लोग ब्लॉग और बेबसाइट के जरिए लोगों को मदद करने की कोशिश में लगे हैं, उनकी विश्वसनीयता पर भी प्रश्नचिन्ह लग जाते हैं। हम ब्लॉग के जरिए इस तरह के हरकतों का विरोध करते हैं।
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सबसे पहले तो वो इस बात से परेशान था कि मीडिया में इस तरह के भी काम होते हैं। उसका कहना एकदम साफ था कि- सर हमें पता है मीडिया में अचानक से या फिर सिर्फ योग्यता से नौकरी नहीं लग जाती, किसी न किसी के बैकअप का होना जरुरी है। लेकिन कोई इस तरह से भी करता है, मुझे जानकर बहुत धक्का लगा। यशवंतजी को लोगों की मदद करने का नाम पर इस तरह पाखंड रचने की क्या जरुरत थी। आपलोग चाहते हैं कि ब्लॉग के जरिए रातोंरात करोड़पति बन जाएं, ये शोषण और धोखा नहीं तो और क्या है। बहुत झल्लाया था वो।
उसके मुताबिक यशवंत सिंह ने कल उसे फोन करके बताया कि- तुम्हारी नौकरी यूपी के किसी अखबार में एक सप्ताह के भीतर लग जाएगी। इसके लिए तुम्हें तीन हजार रुपये देने होंगे। ये तीन हजार रुपये उन्होंने बतौर रजिस्ट्रेशन के लिए मांगा। मतलब कि अगर आप भड़ास.कॉम के जरिए नौकरी चाहते हैं तो आपको रजिस्ट्रेशन फीस देनी होगी। उसने तब यशवंत सिंह से पूछा कि, सर पता तो बताइए कि ये तीन हजार रुपये हमें कहां जमा करने हैं। यशवंत सिंह ने उसे एक अकांउट नंबर दिया और कहा कि इसमें तीन हजार रुपये जमा करा दो। मेरे इस ब्लॉगर दोस्त का कहना है कि सर क्या करें, ऐसे कैसे तीन हजार रुपये किसी को दे दें।
दोस्त से जब मैंने पूछा कि जब तुम अपना रिज्यूमे भेज रहे थे, उस समय कहीं कुछ लिखा था कि तुम्हें तीन हजार रुपये जमा कराने होंगे। उसका सीधा जबाब था- बिल्कुल नहीं सर। ये तो कल जब बात हुई तो उन्होंने बताया कि हमारे यहां तो कईयों के रिज्यूमें आते रहते हैं, तीन हजार तो देने ही होंगे। इस दोस्त ने यहां तक कहा कि- सर, अभी तो स्ट्रगल ही कर रहा हूं, नौकरी मिल जाए उसके बाद उससे आपको दे दूंगा। यशवंत सिंह इस बात के लिए तैयार नहीं थे।
इस पूरे मामले को अगर आप सतही तौर पर देखें तो आपको लगेगा कि कुछ भी गलत नहीं है। अगर कोई आपको नौकरी दिला दे रहा है तब अपनी मेहनत और उसके जो कॉन्टेक्टस हैं उसकी कीमत तो लेगा ही। ये काम तो दिल्ली में कोई आपको मकान दिलाए तो पहले १५ दिन का किराया कमीशन के तौर पर रख लेता है। या फिर जॉव दिलानेवाली एजेंसी भी इस तरह से कुछ करती है। लेकिन, गंभीरता से विचार करें तो कुछ सवाल जरुर खड़े होते हैं-
पहला तो यह है कि क्या यशवंत सिह और और बाकी लोग जो भड़ास डॉट कॉम से जुड़े हैं उन्हें इसे बतौर व्यावसायिक साइट के तौर पर रजिस्ट्रेशन कराया है। इसके आमदनी की जानकारी वैधानिक रुप से संदर्भ विभाग को बताए जाने का प्रावधान है।
क्या भड़ास डॉट कॉम कोई जॉव एजेंसी है और अगर हां तो फिर उसने अपनी बेबसाइट पर सारी चीजों की जानकारी स्पष्ट रुप से क्यों नहीं लिखी है. कोई भी परेशान बंदा जो कि मीडिया में नौकरी पाने के लिए छटपटा रहा है और उसे बाद में पता चलता है कि उसे तीन हजार रुपये देने होंगे, ये किसी भी स्तर से उचित नहीं है।
अगर भड़ास डॉट कॉम वाकई में एक व्यावसायिक साइट है तो फिर जबरदस्ती इसे लोगों की मदद और मानवता जैसे भारी-भरकम शब्दों से लादने की जरुरत क्या है।
यह सही है कि भड़ास और अब भड़ास डॉट कॉम मीडिया की खबरों को जिस तरह से पेश करता है इससे नए लोगों को कई जानकारियां मिलती है लेकिन इस जानकारी देने की एवज में जो राशि वो वसूलता है उसे भी अपनी साइट और ब्लॉग पर प्रकाशित करे। भड़ास या फिर किसी भी दूसरे साइट या ब्लॉग को अधिकार नहीं है कि मानवता के नाते मदद करने का डंका पीटने के नाम पर मीडिया में जाने के लिए संघर्ष कर रहे लोगों को गुमराह करे। इससे लोगों की परेशानी तो बढ़ती ही है, साथ ही जो लोग ब्लॉग और बेबसाइट के जरिए लोगों को मदद करने की कोशिश में लगे हैं, उनकी विश्वसनीयता पर भी प्रश्नचिन्ह लग जाते हैं। हम ब्लॉग के जरिए इस तरह के हरकतों का विरोध करते हैं।
चैनल के लिए भारतीयता का अर्थ हिन्दुत्व हैं, पाखंड सं-२
Posted On 10:42 am by विनीत कुमार | 3 comments
मैं जब भी कोई स्टंट करता हूं, गायत्री मंत्र का उच्चारण करता हूं। मैं चाहता हूं कि स्टंट शुरु करने से पहले आपलोग भी ऐसा ही करें। खतरों के खिलाड़ी ( कलर्स) में अक्षय कुमार के ऐसा कहते ही १३ युवतियां जिसमें की कुछ मां भी बन चुकी है और जिसे देखकर हम अक्षय से जलने लगे हैं..सब के सब एक साथ ऊँ भूर्भवः का उच्चारण करने लग जाती हैं। इसके साथ ही उनके मेंटर जो कि कभी भारतीय सेना की सेवा में थे और सब के सब डिफेंस की पोशाक में हैं, वो भी इस मंत्र का उच्चारण करते हैं। इस तरह कलर्स के स्क्रीन पर एक साथ सत्ताइस भारतीय जोहान्सवर्ग, साउथ अफ्रीका की धरती पर गायत्री मंत्र का उच्चारण करते हैं। ये सत्ताइस लोग जब मंत्र का उच्चारण कर रहे होते हैं तो कैमरा पैन होता है और सबके सब एक सुर में दिखते हैं, इससे साफ हो जाता है कि मंत्रोच्चारण की उन्हें बेहतर तरीके से प्रैक्टिस करायी गयी है।
जो बंदा हिन्दू नहीं है या फिर हिन्दू होते हुए भी इस तरह के मंत्रोच्चारण से कोई मतलब नहीं है, एक समय के लिए बिदक भी सकता है कि शो तो है साहसिक बनने का, अपने को मजबूत करने का और ये बीच में हिन्दुइज्म कहां से आ गया। मजबूत बनना और उसके लिए प्रैक्टिस करना अपने आप में एक सेकुलर प्रक्रिया है लेकिन इसे इतना धार्मिक बना देने की क्या जरुरत थी। खतरों के खिला़डी का जो फॉरमेट हैं उसमें इस तरह के मंत्रोच्चारण में पाखंड के अलावा और कोई सेंस पैदा नहीं होता।
कलर्स ने एक सीरियल शुरु किया है- बाल वधू। इसके प्रोमो में आप भी देख रहे होंगे कि करीब सात-आठ साल की बच्ची आप सबसे कह रही है कि- आप आएंगे न मेरी शादी में, बहुत खुश है आपको बताते हुए कि उसकी शादी हो रही है और वो खूब सजेगी-संवरेगी। लेकिन इसी के एक और दूसरे प्रोमो में वो कहती है कि- क्या तब ये घर, आंगन और बापू सब छूट जाएंगे। इधर लड़के के बाप ने घोषणा कर दी है कि हमें तो अपने राम के लिए सीता मिल गयी।
कहानी ये है कि ये सीरियल बाल-विवाह पर आधारित है। उस बाल-विवाह पर जिसे रोकने के लिए, बंद करने के लिए सरकारी प्रयास जारी है। अगर अब से पच्चीस साल पहले के मुकाबले देखें तो इसके दर में काफी गिरावट आयी है और स्त्रियों की बेहतरगी के लिए इसे रोका जाना बहुत जरुरी है लेकिन चैनल पर इसी से सीरियल की शुरुआत होती है और वो भी कोई समस्यामूलक के रुप में नहीं बल्कि उत्सवधर्मी वातावरण में। शादी में पहनने के लिए दो दर्जन सिल्क की साडियां मंगायी जानी है और भी बहुत कुछ। पूरे सीरियल में बाल-बधू को इस तरह से पेरोजेक्ट किया गया कि देखते ही आपको लगेगा कि यह देश के लिए कोई कलंक न होकर संस्कृति का एक हिस्सा है और कोई चाहे तो गर्व भी कर सकता है।
एक सीरियल है जीवनसाथी, हमसफर जिंदगी के। पहले ही एपिसोड में दो कैम्ब्रिज के स्टूडेंट राजस्थान के एक भारतीय परिवार के यहां भारतीय संस्कृति को समझने आते हैं। परिवार का मुखिया जो कि भारतीय कला में निष्णात है, संयोग से उसी दिन उसके यहां महादेव का अभिषेक हो रहा है। पूरी तैयारियां जोर-शोर से चल रही है और मुखिया खुद ही महादेव की एक विशालकाय मूर्ति बनाता है। दोनों को मिलते ही समझा देता है कि हैलो नहीं, नमस्कार बोलो और सर नहीं गुरुजी बोलो। चलो हमारे साथ भारतीय संस्कृति की समझ बनेगी और दोनों अभिषेक ेक उत्सव में जाते हैं।
कलर्स पर अब तक जितने भी प्रोग्राम आए हैं उसमें खतरों के खिलाड़ी को छोड़कर सारे लोकेशन गांव के हैं। आप जैसे ही इस चैनल पर स्विच करेंगे आपको अंदाजा लग जाएगा कि ये बाकी चैनलों से कुछ अलग है। लेकिन इस आंचलिकता में ग्लोबल पूंजी के चिन्ह जहां-तहां खोंस दिए गए हैं और तब सारा मामला स्वाभाविक नहीं रह जाता।
बाकी और चैनलों की तरह जय श्री कृष्णा और रहे तेरा आशीर्वाद जैसे कार्यक्रमों को लाकर दर्शक बटोरने की पूरी तैयारी है। चैनल एक बार फिर साबित करता है जैसे कि एनडीटीवी इमैजिन ने साबित किया किया कि बिना पाखंड फैलाए टीआरपी का ग्राफ उपर जा ही नहीं सकता।....और पूंजी जितना अधिक होगा, पांखड फैलाने में उतनी ही सुविधा होगी।
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जो बंदा हिन्दू नहीं है या फिर हिन्दू होते हुए भी इस तरह के मंत्रोच्चारण से कोई मतलब नहीं है, एक समय के लिए बिदक भी सकता है कि शो तो है साहसिक बनने का, अपने को मजबूत करने का और ये बीच में हिन्दुइज्म कहां से आ गया। मजबूत बनना और उसके लिए प्रैक्टिस करना अपने आप में एक सेकुलर प्रक्रिया है लेकिन इसे इतना धार्मिक बना देने की क्या जरुरत थी। खतरों के खिला़डी का जो फॉरमेट हैं उसमें इस तरह के मंत्रोच्चारण में पाखंड के अलावा और कोई सेंस पैदा नहीं होता।
कलर्स ने एक सीरियल शुरु किया है- बाल वधू। इसके प्रोमो में आप भी देख रहे होंगे कि करीब सात-आठ साल की बच्ची आप सबसे कह रही है कि- आप आएंगे न मेरी शादी में, बहुत खुश है आपको बताते हुए कि उसकी शादी हो रही है और वो खूब सजेगी-संवरेगी। लेकिन इसी के एक और दूसरे प्रोमो में वो कहती है कि- क्या तब ये घर, आंगन और बापू सब छूट जाएंगे। इधर लड़के के बाप ने घोषणा कर दी है कि हमें तो अपने राम के लिए सीता मिल गयी।
कहानी ये है कि ये सीरियल बाल-विवाह पर आधारित है। उस बाल-विवाह पर जिसे रोकने के लिए, बंद करने के लिए सरकारी प्रयास जारी है। अगर अब से पच्चीस साल पहले के मुकाबले देखें तो इसके दर में काफी गिरावट आयी है और स्त्रियों की बेहतरगी के लिए इसे रोका जाना बहुत जरुरी है लेकिन चैनल पर इसी से सीरियल की शुरुआत होती है और वो भी कोई समस्यामूलक के रुप में नहीं बल्कि उत्सवधर्मी वातावरण में। शादी में पहनने के लिए दो दर्जन सिल्क की साडियां मंगायी जानी है और भी बहुत कुछ। पूरे सीरियल में बाल-बधू को इस तरह से पेरोजेक्ट किया गया कि देखते ही आपको लगेगा कि यह देश के लिए कोई कलंक न होकर संस्कृति का एक हिस्सा है और कोई चाहे तो गर्व भी कर सकता है।
एक सीरियल है जीवनसाथी, हमसफर जिंदगी के। पहले ही एपिसोड में दो कैम्ब्रिज के स्टूडेंट राजस्थान के एक भारतीय परिवार के यहां भारतीय संस्कृति को समझने आते हैं। परिवार का मुखिया जो कि भारतीय कला में निष्णात है, संयोग से उसी दिन उसके यहां महादेव का अभिषेक हो रहा है। पूरी तैयारियां जोर-शोर से चल रही है और मुखिया खुद ही महादेव की एक विशालकाय मूर्ति बनाता है। दोनों को मिलते ही समझा देता है कि हैलो नहीं, नमस्कार बोलो और सर नहीं गुरुजी बोलो। चलो हमारे साथ भारतीय संस्कृति की समझ बनेगी और दोनों अभिषेक ेक उत्सव में जाते हैं।
कलर्स पर अब तक जितने भी प्रोग्राम आए हैं उसमें खतरों के खिलाड़ी को छोड़कर सारे लोकेशन गांव के हैं। आप जैसे ही इस चैनल पर स्विच करेंगे आपको अंदाजा लग जाएगा कि ये बाकी चैनलों से कुछ अलग है। लेकिन इस आंचलिकता में ग्लोबल पूंजी के चिन्ह जहां-तहां खोंस दिए गए हैं और तब सारा मामला स्वाभाविक नहीं रह जाता।
बाकी और चैनलों की तरह जय श्री कृष्णा और रहे तेरा आशीर्वाद जैसे कार्यक्रमों को लाकर दर्शक बटोरने की पूरी तैयारी है। चैनल एक बार फिर साबित करता है जैसे कि एनडीटीवी इमैजिन ने साबित किया किया कि बिना पाखंड फैलाए टीआरपी का ग्राफ उपर जा ही नहीं सकता।....और पूंजी जितना अधिक होगा, पांखड फैलाने में उतनी ही सुविधा होगी।
क्या पाखंड पैदा करना पूंजी का एक बड़ा काम है ? कल ही लांच हुए नया हिन्दी इंटरटेनमेंट चैनल कलर्स को लगातार पांच घंटे देखने के बाद मेरे मन में सबसे पहले और अंत तक भी यही सवाल बना रहा कि क्या टेलीविजन पाखंड को मजबूत करने का माध्यम है। अब तक ये आरोप न्यूज चैनलों में सांप-संपेरे, स्वर्ग की सीढ़ी और जिंदा है रावण आदि की खबरों को दिखाए जाने के संदर्भ में कहा जाता रहा है। जो लोग मीडिया का विश्लेषण कर रहे हैं उन्होंने तो इसके लिए वाकायदा एक मुहावरा भी गढ़ लिया है कि अब न्यूज चैनलों में मनोहर कहानियां दिखाए जाने लगे हैं. लेकिन इंटरटेंनमेंट चैनलों की तरफ लोगों का ध्यान कम ही गया है. आलोचकों के बारे में ये बात ज्यादा सच है। अभी भी वो इंटरटेनमेंट चैनलों के बारे में सास-बहू सीरियलों को कोसकर ही रह जाते हैं. इधर एक बांग्ला चैनल में हादसा हुआ है जब से लोग रियलिटी शो के बारे में कुछ-कुछ लिखने लगे हैं, उसे भी आप विश्लेषण नहीं ही कह सकते। रियलिटी शो पर लिखा जाना उसी तरह का हो रहा है जैसे कहीं कुछ हादसा या हत्या हो जाने पर इसकी निंदा की जाती है। सारी बातें घटना के विरोध में कही जाती है। इसलिए रियलिटी शो को लेकर जो समीक्षा अभी बाजार में उपलब्ध है उसे आप टेलीविजन का विश्लेषण नहीं कह सकते। इंटरटेनमेंट चैनलों की तरफ बड़े-बड़े पूंजीपति घरानों का ध्यान तेजी से जा रहा है और संभव है कि आनेवाले समय में मीडिया आलोचक भी इसे देखने-समझने के टूल्स विकसित कर लें।
टूल्स विकसित करने का मतलब ये कतई नहीं होगा कि लोग जो अब तक इसके विरोध में लिखते आ रहे हैं, बाद में समझदारी विकसित हो जाने के बाद इसके पक्ष में लिखने लग जाएंगे। बल्कि गुंजाइश इस बात की होगी कि आलोचना के और बारीक तर्क, कारण और इंटरटेनमेंट के बदलते एलिमेंट्स पर अपनी पकड़ मजबूत कर सकेंगे और तब उनकी समीक्षा ज्यादा स्वाभाविक लगेगी। खैर,
टेलीविजन को जो भी स्वरुप हमारे सामने उभर रहा है, चाहे वो न्यूज चैनलों के माध्यम से या फिर इंटरटेनमेंट चैनल के माध्यम से। आनेवाले समय में आप इससे कोई बड़ी क्रांति की उम्मीद नहीं कर सकते। टेलीविजन ऐसा कुछ भी नहीं कर देगा जिससे कि कोई बड़ा सामाजिक बदलाव आ जाएगा। मेरी इस बात को आप थोड़ी देर के लिए दुराग्रह या फिर हठधर्मिता कह सकते हैं लोकिन यह सच है कि मजबूत होती मीडिया की स्थिति के बावजूद भी टेलीविजन कोई क्रांति करने नहीं जा रहा। क्योंकि जिस बड़े स्तर पर क्रांति और बदलाव की गुंजाइश बनती है वहां आकर टेलीविजन का समझौता हो चुका है. यह समझौता पूंजीवाद से है, उपभोक्तावाद से, नेशन स्टेट से है और उस सामाजिक ढ़ांचों से है जहां कि बदलाव के बीज फूट सकते थे। इसलिए मन- मारकर आपको मीडिया और टेलीविजन की छोटी-मोटी उपलब्धि को ही क्रांति का नाम देना पड़ेगा। आपको क्रांति शब्द के अर्थ में कांट-छांट करनी होगी. इस संदर्भ में अगर टेलीविजन अपने को महान होने का, समाज का पहरुआ होने का और समाज हित में काम करने का डंका भी पीटे तो क्रांति और बदलाव शब्द के अर्थ को संकुचित करते हुए मान लेना होगा। क्योंकि ये आप भी जानते हैं कि क्रांति रोज-रोज नहीं होती जबकि टेलीविजन की घोषणा रोज जारी है।
कोई क्रांति संभव नहीं होने का ये मतलब भी नहीं है कि तब टेलीविजन हमारे जीवन के बीच एक निरर्थक माध्यम है। बदलाव की दिशा में अगर टेवीविजन कुछ भी न करे तो भी इसके कई मतलब हैं. इसके असर से कभी भी इनकार नहीं किया जा सकता. वो दिन-रात पूंजीवादी ताकतों को मजबूत करने में लगा रहे तो भी परेशान होने की जरुरत नहीं है। आज के परिवेश में वैसे भी ऐसी कौन सी चीजें और प्रयास बाकी रह गए हैं जिसका ध्येय प्रत्यक्ष या फिर अप्रत्यक्ष रुप से पूंजी पैदा करना नहीं रह गया है. इसलिए टेलीविजन भी करे तो कोई बेजा बात नहीं है। हां बाकी चीजों में इसके जैसा असर नहीं होता. यहीं पर आकर टेलीविजन को सोचना पड़ेगा. लेकिन अगर दो बातें इस बीच हो जाए तो टेलीविजन को लेकर अपनी परेशानी काफी हद तक कम हो जाएगी.
पहला तो यह कि टेलीविजन को लेकर आम जनता यह मानना छोड़ दे कि इससे ही हमारे जीवन का सुधार संभव है, हम बिना इसके भी अपनी दशा सुधार सकते हैं। हांलांकि ऐसा मानना आम आदमी के लिए बहुत ही मुश्किल है. जिसका कोई नहीं है, आज उसका टेलीविजन है। हां इतना किया जा सकता है कि पूरी तरह से इस पर निर्भर होने के बजाय साथ में अपनी भी मजबूती बनाने का प्रयास जारी रखे। और दूसरा कि,
चैनल को जो मर्जी आए करे लेकिन देशीय संस्कृति के नाम पर पाखंड फैलाना बंद कर दे। कल पांच घंटे तक लगातार नए चैनल कलर्स को देखने पर मन भारी हो गया। मैं किसी भी मीडिया को सिर्फ पूंजीवाद का हमशक्ल कहकर आलोचना करने के पक्ष में नहीं हूं। उसके भीतर कई ऐसी चीजें हैं जिस आधार पर उसका विश्लेषण किया जा सकता है. इससे पूंजी के बारीक प्रभाव के प्रति भी समझ बनती है। कलर्स के बारे में पता है कि इसमें बड़ी पूंजी का निवेश हुआ है। वायकॉम नेटवर्क १८ का मोटा पैसा इसमें लगा है। अकेले अक्षय को खतरों के खिलाड़ी के एक एपिसोड के लिए डेढ़ करोड़ दिया जा रहा है। खैर, इस पांच घंटे में भारतीय संस्कृति के नाम पर जो पाखंड मैंने देखा, उसे अगर विश्व हिन्दू परिषद् या फिर बजरंग दल का कोई अपना चैनल खुले तो उसकी भारतीयता इस नए चैनल से मेल खाएगी।....कैसे पढ़िए अगली पोस्ट में
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टूल्स विकसित करने का मतलब ये कतई नहीं होगा कि लोग जो अब तक इसके विरोध में लिखते आ रहे हैं, बाद में समझदारी विकसित हो जाने के बाद इसके पक्ष में लिखने लग जाएंगे। बल्कि गुंजाइश इस बात की होगी कि आलोचना के और बारीक तर्क, कारण और इंटरटेनमेंट के बदलते एलिमेंट्स पर अपनी पकड़ मजबूत कर सकेंगे और तब उनकी समीक्षा ज्यादा स्वाभाविक लगेगी। खैर,
टेलीविजन को जो भी स्वरुप हमारे सामने उभर रहा है, चाहे वो न्यूज चैनलों के माध्यम से या फिर इंटरटेनमेंट चैनल के माध्यम से। आनेवाले समय में आप इससे कोई बड़ी क्रांति की उम्मीद नहीं कर सकते। टेलीविजन ऐसा कुछ भी नहीं कर देगा जिससे कि कोई बड़ा सामाजिक बदलाव आ जाएगा। मेरी इस बात को आप थोड़ी देर के लिए दुराग्रह या फिर हठधर्मिता कह सकते हैं लोकिन यह सच है कि मजबूत होती मीडिया की स्थिति के बावजूद भी टेलीविजन कोई क्रांति करने नहीं जा रहा। क्योंकि जिस बड़े स्तर पर क्रांति और बदलाव की गुंजाइश बनती है वहां आकर टेलीविजन का समझौता हो चुका है. यह समझौता पूंजीवाद से है, उपभोक्तावाद से, नेशन स्टेट से है और उस सामाजिक ढ़ांचों से है जहां कि बदलाव के बीज फूट सकते थे। इसलिए मन- मारकर आपको मीडिया और टेलीविजन की छोटी-मोटी उपलब्धि को ही क्रांति का नाम देना पड़ेगा। आपको क्रांति शब्द के अर्थ में कांट-छांट करनी होगी. इस संदर्भ में अगर टेलीविजन अपने को महान होने का, समाज का पहरुआ होने का और समाज हित में काम करने का डंका भी पीटे तो क्रांति और बदलाव शब्द के अर्थ को संकुचित करते हुए मान लेना होगा। क्योंकि ये आप भी जानते हैं कि क्रांति रोज-रोज नहीं होती जबकि टेलीविजन की घोषणा रोज जारी है।
कोई क्रांति संभव नहीं होने का ये मतलब भी नहीं है कि तब टेलीविजन हमारे जीवन के बीच एक निरर्थक माध्यम है। बदलाव की दिशा में अगर टेवीविजन कुछ भी न करे तो भी इसके कई मतलब हैं. इसके असर से कभी भी इनकार नहीं किया जा सकता. वो दिन-रात पूंजीवादी ताकतों को मजबूत करने में लगा रहे तो भी परेशान होने की जरुरत नहीं है। आज के परिवेश में वैसे भी ऐसी कौन सी चीजें और प्रयास बाकी रह गए हैं जिसका ध्येय प्रत्यक्ष या फिर अप्रत्यक्ष रुप से पूंजी पैदा करना नहीं रह गया है. इसलिए टेलीविजन भी करे तो कोई बेजा बात नहीं है। हां बाकी चीजों में इसके जैसा असर नहीं होता. यहीं पर आकर टेलीविजन को सोचना पड़ेगा. लेकिन अगर दो बातें इस बीच हो जाए तो टेलीविजन को लेकर अपनी परेशानी काफी हद तक कम हो जाएगी.
पहला तो यह कि टेलीविजन को लेकर आम जनता यह मानना छोड़ दे कि इससे ही हमारे जीवन का सुधार संभव है, हम बिना इसके भी अपनी दशा सुधार सकते हैं। हांलांकि ऐसा मानना आम आदमी के लिए बहुत ही मुश्किल है. जिसका कोई नहीं है, आज उसका टेलीविजन है। हां इतना किया जा सकता है कि पूरी तरह से इस पर निर्भर होने के बजाय साथ में अपनी भी मजबूती बनाने का प्रयास जारी रखे। और दूसरा कि,
चैनल को जो मर्जी आए करे लेकिन देशीय संस्कृति के नाम पर पाखंड फैलाना बंद कर दे। कल पांच घंटे तक लगातार नए चैनल कलर्स को देखने पर मन भारी हो गया। मैं किसी भी मीडिया को सिर्फ पूंजीवाद का हमशक्ल कहकर आलोचना करने के पक्ष में नहीं हूं। उसके भीतर कई ऐसी चीजें हैं जिस आधार पर उसका विश्लेषण किया जा सकता है. इससे पूंजी के बारीक प्रभाव के प्रति भी समझ बनती है। कलर्स के बारे में पता है कि इसमें बड़ी पूंजी का निवेश हुआ है। वायकॉम नेटवर्क १८ का मोटा पैसा इसमें लगा है। अकेले अक्षय को खतरों के खिलाड़ी के एक एपिसोड के लिए डेढ़ करोड़ दिया जा रहा है। खैर, इस पांच घंटे में भारतीय संस्कृति के नाम पर जो पाखंड मैंने देखा, उसे अगर विश्व हिन्दू परिषद् या फिर बजरंग दल का कोई अपना चैनल खुले तो उसकी भारतीयता इस नए चैनल से मेल खाएगी।....कैसे पढ़िए अगली पोस्ट में
उदय प्रकाश के उपन्यास मोहनदास पर बनी फिल्म मोहनदास का मीडिया पार्टरनर जनमत चैनल है। एक ऐसा चैनल जिसे फिल्म में देखकर कोई अपने टीवी स्क्रीन पर देखना चाहे तो उसे मायूस होना पड़ेगा। जनमत नाम से अब कोई चैनल है ही नहीं। लेकिन फिल्म में उसे इस तरह से दिखाया गया गया है कि आपको जनमत चैनल को छोड़कर और किसी दूसरे चैनल को देखने का मन ही नहीं करेगा।..आप हिन्दी आलोचकों की तरह बोल पड़ते हैं कि जनमत सिर्फ एक चैनल नहीं, विचार है और उसका हमारे बीच से चले जाना घटना नहीं बल्कि एक विचार का अंत है।
अब लगभग जितनी फिल्में बनायी जाती है उसमें न्यूज चैनलों के लिए खासतौर से स्पेस क्रिएट किया जाता है। कहानी का ताना-बाना ही कुछ इस तरह से बुना जाता है कि फिल्म को बार-बार रिपोर्टरों की जरुरत पड़ती है। फिल्म का प्लॉट चाहे जो भी हो, सबमें मीडिया पार्टनर के रुप में टाइअप किए चैनलों की दरकरार पड़ जाती है।..और वैसे भी जिस तरह से न्यूज चैनलों का काम बढ़ा है उसमें समंदर किनारे प्रेम कर रहे हीरो-हीरोइनों को भी...तो आप देख रहे हैं कि किस तरह से दोनों ने अपने बीच किसी तरह का फासला नहीं रहने दिया है,,, बोलकर रिपोर्टिंग कर सकता है। एक लाइन में कहूं तो बिना चैनलों को घुसाए फिल्म बनाना अब हिम्मत का काम है और लीक से हटकर एक नया प्रयोग भी। खैर....
मोहनदास जो कि व्यवस्था का मारा हुआ मेधावी दलित युवक है उसके साथ अन्याय हुआ है। उसकी पहचान उससे छीन ली गयी है, उसकी जाति को किसी और ने रिप्लेस कर लिया है और अब उसे यह सिद्द करनें में मारामारी करनी पड़ रही है कि वो ही मोहनदास है। कोयलरी में जो मैनेजरी कर रहा है वो तो ब्राह्मण है, उपर से नीचे तक खिला-पिलाकर उसने सबको अपनी तरफ कर लिया है। इसलिए मोहनदास की बात को कोई नहीं सुनता है। लिहाजा बात जनमत चैनल तक चली जाती है।
जनमत का sringer अनिल यादव इस पूरी स्टोरी को दिल्ली के ऑफिस में भेजता है और स्टोरी ऑन एयर होती है. बात आयी-गयी हो जाती है लेकिन तभी चैनल की तेजतर्रार रिपोर्टर मेघना सेन गुप्ता जिसका कि देशभर में साख है, इस स्टोरी को अपने तरीके से कवर करना चाहती है और खुद मध्यप्रदेश के उस इलाके में जाना चाहती है जहां कि मोहनदास रहता है और जहां फर्जी मोहनदास काम करता है। चैनल प्रमुख राहुल देव मेघना के इस विचार को साफ तौर से नकार देते हैं और सीधे शब्दों में कहते हैं, उस स्टोरी में क्या रखा है. यू नो स्टोरी मतलब किक्रेट, क्राइम और ऑफकोर्स पॉलिटिक्स। बार-बार मना करने के बाद भी मेघना अकेले ही मध्यप्रदेश के उस इलाके में जाती है और अनिल यादव की मदद से पूरी स्टोरी को दुबारा शूट करती है। लेकिन ऐसा करते वक्त वो तटस्थ नहीं रह पाती और मोहनदास की परेशानियों से जुड़ती चली जाती है. यही वजह है कि दिल्ली वापस लोटने पर भी वहां से लगातार उसके लिए फोन आते हैं और ऑफिस में उसे ताने सुनने पड़ते हैं कि -तुम अभी तक उस स्टोरी के पीछे पड़ हुई हो।..
मेघना दोबारा-तीबारा उस पिछड़े इलाके में जाती है लेकिन पहली बार की तरह कैमरा-यूनिट के साथ नहीं और न ही चैनल की रिपोर्टर की हैसियत से। एक पत्रकार की हैसियत से। चैनल की भाषा में कहें तो एक अनप्रोफेशनल की हैसियत से। इस बात का अंदाजा आपको मेघना के जबाब सके ही लग जाएगा जब वो वकील के सवाल का कि-इस बार कैमरे लेकर नहीं आयीं और मेघना बिल्कुल ही सपाट ढंग से जबाब देती है कि- कोई स्टिंग ऑपरेशन करना था क्या। मतलब साफ है कि मोहनदास की परेशानी में लम्बे समय तक जनमत साथ नहीं दे पाता। जनमत क्या, कोई भी नहीं दे पाएगा। वजह आप सब जानते हैं।
पूरी फिल्म में मेघना अंत तक साथ बनी रहती है, चैनल एकदम से हाशिए पर चला जाता है। बीच-बीच में उस पर मोहनदास की खबरें आती है लेकिन बहुत प्रोजेक्शन के तौर पर नहीं, बहुत ही सामान्य ढंग से। बाद में तो खुद जनमत भी नहीं रह जाता, लाइव इंडिया हो जाता है। इससे अधिकारी ब्रदर्स ने शायद यह साबित करने की कोशिश की हो कि यह वही लाइव इंडिया है जो जनमत के मूल्यों को कैरी कर रहा है नाम बदल जाने से क्या होता है, जनपक्षधरता तो बनी ही है। यह अलग बात है कि ऑडिएंस को उमा खुराना प्रकरण अब भी याद है।
पूरे मोहनदास में इस हिसाब से चैनल के नाम बदले से लेकर उसके नए चैनल में बदलने का प्रोसेस साफ तौर पर दिखायी देता है. आप फिल्म देखते हुए एंकर के अंदाज पर गौर कर सकते हैं, कहने के तरीके पर विचार कर सकते हैं।...
....तो क्या यह मेरी इससे ठीक पहले की पोस्ट का एक्सटेंशन है कि चैनल का यह दूसरा खेला है जहां किसी स्टोरी के पीछे हाथ-धोकर पड़ जाने का मतलब है- चैनल अलग, रिपोर्टर अलग। लेकिन इन सबके बीच अच्छी बात है कि चैनल के बाजारवादी रुझान के बीच भी एक संजीदा पत्रकार की मौजूदगी का एहसास हो जाता है।
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मीडिया में अब जर्नलिज्म के बजाय खेला होने लगा है. आम पब्लिक तो आम खुद चैनल के लोग कहने लग गए हैं कि आज उस स्टोरी पर खेल गए. आरुषि पर खेलते-खेलते बोर हो गए तो भोजपुरी पर खेल गए. खेलने के लिए हिन्दी मीडिया उस बच्चे की तरह परेशान है जिस तरह से स्कूल से छूटता हुआ खेलने के लिए मचल उठता है. उसके दिमाग में बस एक ही बात होती है कि स्कूल में सात घंटे पढ़ लिए, मम्मी के कहने पर दूध भी पी लिया, अब तो बस खेलना है। उसे केलने के लिए कॉलोनी का बड़ा सा मैंदान ही दिखता है और कुछ भी नहीं....हिन्दी मीडिया भी अब बस खेलना चाहती है, बहुत हो गयी जर्नलिज्म,आदमी दिन-रात सीरियस बातें कर-करके पक जाता है, कुछ तो मौज-मस्ती की बातें हो यार।हिन्दी मीडिया देस की बदहाली, गरीबी, भूखमरी पर स्टोरी कर-करके थक गयी है. बीच में तो उसके कारण हिन्दुस्तान की छवि ऐसी बन गयी थी कि लगता था हिन्दुस्तान में भुखमरी के अलावे कुछ भी नहीं है. पता नहीं बाहर के देशों में लोग सोचते भी हों कि भारत में बदहाली और बेकारी की खेती होती है. अब हिन्दी मीडिया के दिमाग की बत्ती जल गयी है, उसके ऑडिएंस भी दिनभर की दिहाड़ी करने के बजाय एमेंसीज में जाने लगे हैं। हिन्दी मीडिया को एक ऐसा ऑडिएंस ग्रुप मिल गया है जो दिनभर अंग्रेजीयत में जीकर-काम करके घर लौटता है, ऑफिस में हिन्दी बोलने-सुनने के लिए तरस जाता है। कुछ मजे करना चाहता है लेकिन ससुरी ऑफिस में सारी चीजें अंग्रेजी में होती है, कूलीग मजाक भी करते हैं तो अंग्रेजी में। वो मजा नहीं आता जो अपने हिन्दी में है। हिन्दी में जो हंसी-ठ्ठा होती है उसमें मन हरा होता है। अंग्रेजी के चुटकुले भी ऐसे लगते हैं कि जैसे हंसने की दवाई ली जा रही हो, मन करे चाहे नहीं जबरदस्ती हंसना ही है। कुल मिलाकर कहानी ये है कि हिन्दी मीडिया में एक ऐसा ऑडिएंस ग्रुप तैयार हो गया है जो शाम को आकर हिन्दी में मौज-मस्ती करना चाहता है। इन्हें मौज-मस्ती कराने के लिए जरुरी है कि हिन्दी मीडिया खेला करे।
हिन्दी मीडिया यह खेला दो स्तरों पर कर सकती है और कर रही है। एक तो कंटेंट के लेबल पर और दूसरा भाषा के लेबल पर। कंटेंट के लेबल पर मीडिया जो खेला कर रही है उसे आम जनता भी बहुत आसानी से समअझ रही है। प्राइम टाइम पर देश और दुनिया की खबरों को दिखाना का दाबा करने वाले लोग क्या दिखा रहे है, वो भी इसे समअझ रहे है। वो देश KEE ख़बर दिखआने के नाम पर पी एम् की पगड़ी नही दिखा सकते। उनके लिये सबसे आसान है यह कहना की हम सरकार के डंके अपने चैनअल पर पीटने नही देंगे, यह काम उस चैनल का है जो सरकार के रहमो करम पर चलता है। हमारा काम है अपनी औडिएंस की जरूरतों के हिसाब से न्यूज़ दिखाना।
और आप और हम सब देख ही रहे है की दिन भर की THAKI AUDIENCE KYA CHAAHTI HAI . दिनभर अंग्रेजी में काम करके KAISE PAK जाती है। उन्हें थोड़ा मनोरंजन चाहिये। भूखमरी और बेकारी तो लगी रहती है तो क्या दिन-रात वही चलाया जाये। बचपन से लेकर अब तक तो यही सब देखकर बड़े हुये है, अब जरा शौक-मौज के दिन आये है तो यही चिलम-पो देखकर शाम ख़राब करे। मजबूरन चैनल को खेला करना पड़ रहा है और वो भी हमारे आपके लिये ही। लेकिन डिमांड के अलाबे जो पब्लिक विरोध कर रही है, उनका क्या काम है, वो दिनभर ऐसा क्या करते है की शाम को हिन्दी में मौज-मस्ती की जरुरत नही पड़ती.....क्रमशः
हिन्दी मीडिया ने रियलिटी शो की खामियों और इसके सामाजिक प्रभाव की चर्चा दबी जुबान से करनी शुरु कर दी है. अब उसे भी लगने लगा है कि इसको लेकर बच्चों के उपर इतना दबाब होता है कि प्रतिभा निखरने के बजाय शोषण की प्रक्रिया शुरु हो जाती है। बच्चों पर इसका वाकई बहुत ही बुरा और उल्टा असर पड़ रहा है।
यह वही मीडिया है जो प्राइम टाइम पर देश और दुनिया की बाकी खबरों को छोड़कर गजोधर के हंसगुल्ले, संगीत का महायुद्ध और रियलिटी शो के दो पार्टीसिपेन्ट्स को एक-दूसरे को इस तरह से पेरोजेक्ट करती है कि मानो आमने-सामने होने पर ये दोनों एक-दूसरे से सीधे गाली या घूंसों से बात करेंगे। सेंशन पैदा करने की गरज से हिन्दी मीडिया इसके पैकेज का हेडर और बीच-बीच में जिस तरह के स्लग चलाती है उससे आपको अंदाजा लग जाएगा कि वो रियलिटी शो के भीतर कौन-सा एलिमेंट डालना चाह रहे हैं।
हिन्दी के न्यूज चैनलों को अब होश आ रहा है कि बच्चों पर इतना मेंटल प्रेशर होता है कि वो मानसिक रुप से परेशान हो जाते हैं। ऐसा उसे तब महसूस हुआ जब बांग्ला चैनल के एक रियलिटी शो में एक बच्ची ने जज के डांटे जाने पर अपना नेचुरल लाइफ खो दिया। अब वो बोल नहीं पा रही है, नाचना और गाना तो दूर की बात है. हिन्दी मीडिया में रियलिटी शो के दुष्प्रभाव की चर्चा कायदे से इसी दिन से शुरु होती है। यही कोई १५ दिन पहले से। इसके पहले रियलिटी शो और टेलीविजन पर बच्चों द्वारा काम किए जाने पर मीडिया ने कोई रिसर्च नहीं किया। अलबत्ता बाल श्रम विरोध दिवस या फिर ऐसे ही सरकारी तिथियों के नाम पर अकबारों में खानापूर्ति तरीके से कहीं कुछ लिख दिया गया। चलताउ ढंग से सवाल उठाया गया कि टेलीविजन में काम करनेवाले बच्चों को बाल श्रमिक माना जाए या नहीं और फिर क्या उन पर भी वही नियम-कानून लागू होते हैं जो पांच साल के बच्चे के चाय बेचने और पंक्चर बनाने पर होते हैं। एक दिन की खबरों के बीच गंभीरता से इसकी कहीं कोई नोटिस नहीं ली गयी। लेकिन आज हिन्दी मीडिया हादसे के बाद इसकी खामियों पर बात करने की कोशिश में जुटा है.
यह वही हिन्दी मीडिया है जो बाल दिवस, २६ जनवरी या फिर १५ अगस्त जैसे मौके पर लिटिल चैम्पस, इंडियन ऑयडल और चक दे बच्चे में शामिल लोगों को घंटों अपने स्टूडियों में बिठाए रखती है, उनसे चैट करती है, जी भरकर गाने गववाती है, अफेयर और लव एट फस्ट साइट से जुडे सवाल करती है और और एंकर से हो-हो करके ठहाके लगाने को कहती है। मैंने खुद लिटिल चैम्पस के दिवाकर को तीन बार लिफ्ट से लाया और छोड़ है. लाते समय तो फिर भी कोई साथ होता है लेकिन छोड़ते समय कोई नहीं। मुझे बुरा लगता तो मैं साथ छोड़ने चला जाता।
कौन नहीं जानता कि बच्चे जब सोलह-सोलह घंटे प्रैक्टिस करते हैं और अगले दिन शूटिंग के लिए गाते हैं तो उनके बीच स्वाभाविकता खत्म होती चली जाती है. गानों में परफेक्शन आने के साथ-साथ बचपन उनसे दूर होता चला जाता है। इन सबके बीच जजों की डांट, साथियों से गला-काट टफ कंपटीशन उनके भीतर कई तरह के डिस्टर्वेंश पैदा करता है. इन सबके वाबजूद एक बड़ी सच्चाई है कि प्रतिभा को सामने लाने के लिए ये एक जरुरी प्रयास है। सरकारी तंत्र प्रतिभाओं को सामने लाने में पूरी तरह फेल हो चुका है, थोड़ा-बहुत काम का है भी तो उसमें इतना अधिक तोड़-जोड़ है कि आम आदमी वहां तक पहुंच ही नहीं सकता. आकाशवाणी और दूरदर्शन के युवा केन्द्र के रजिस्टर में अपना नाम लिखते रहिए, कोई फर्क नहीं पड़ता. ऐसे में ये रियलिटी शो टैलेंट हंट का एक बेहतर माध्यम तो है ही। प्राइम टाइम में देशभर की बाकी खबकों को रिप्लेस करके रियलिटी शो के घंटेभर तक फुटेज और गॉशिप दिखानेवाली मीडिया के पास भी इससे कुछ अलग तर्क नहीं है।
लेकिन आज इसी मीडिया को एक हादसे के बाद रियलिटी शो में सिर्फ बुराइयां ही बुराइयां नजर आने लगी है। यह अलग बात है कि प्राइम टाइम में अब भी खबरों की जगह इसे दिखाना बंद नहीं किया है। इससे एक बात तो साफ हो जाता है कि मीडिया का आज अपना कोई स्टैंड रह ही नहीं गया है, इवेंट को लेकर उसका अपना कोई रिसर्च नहीं है। एक हद तक इस बात की समझदारी भी नहीं कि किस बात का क्या असर हो सकता है। इसलिए टीआरपी की दौड़ लगाते-लगाते जब यह मीडिया थक जाती है और जब सुस्ताने के लिए सामाजिक दायित्व का दामन पकड़ती है तो वो मीडिया की ताकत, प्रतिरोध के स्वर और आम जनता की हितैषी न लगकर पाखंडी, अननैचुरल और बददिमाग लगने लग जाती है जिसे देखकर कोई भी कह देगा कि- सबसे तेज हो तुम अपने घर में, समाज में तुम पिछलग्गू ही हो, तुम्हारे पास अपना कोई दिमाग भी तो नहीं।
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यह वही मीडिया है जो प्राइम टाइम पर देश और दुनिया की बाकी खबरों को छोड़कर गजोधर के हंसगुल्ले, संगीत का महायुद्ध और रियलिटी शो के दो पार्टीसिपेन्ट्स को एक-दूसरे को इस तरह से पेरोजेक्ट करती है कि मानो आमने-सामने होने पर ये दोनों एक-दूसरे से सीधे गाली या घूंसों से बात करेंगे। सेंशन पैदा करने की गरज से हिन्दी मीडिया इसके पैकेज का हेडर और बीच-बीच में जिस तरह के स्लग चलाती है उससे आपको अंदाजा लग जाएगा कि वो रियलिटी शो के भीतर कौन-सा एलिमेंट डालना चाह रहे हैं।
हिन्दी के न्यूज चैनलों को अब होश आ रहा है कि बच्चों पर इतना मेंटल प्रेशर होता है कि वो मानसिक रुप से परेशान हो जाते हैं। ऐसा उसे तब महसूस हुआ जब बांग्ला चैनल के एक रियलिटी शो में एक बच्ची ने जज के डांटे जाने पर अपना नेचुरल लाइफ खो दिया। अब वो बोल नहीं पा रही है, नाचना और गाना तो दूर की बात है. हिन्दी मीडिया में रियलिटी शो के दुष्प्रभाव की चर्चा कायदे से इसी दिन से शुरु होती है। यही कोई १५ दिन पहले से। इसके पहले रियलिटी शो और टेलीविजन पर बच्चों द्वारा काम किए जाने पर मीडिया ने कोई रिसर्च नहीं किया। अलबत्ता बाल श्रम विरोध दिवस या फिर ऐसे ही सरकारी तिथियों के नाम पर अकबारों में खानापूर्ति तरीके से कहीं कुछ लिख दिया गया। चलताउ ढंग से सवाल उठाया गया कि टेलीविजन में काम करनेवाले बच्चों को बाल श्रमिक माना जाए या नहीं और फिर क्या उन पर भी वही नियम-कानून लागू होते हैं जो पांच साल के बच्चे के चाय बेचने और पंक्चर बनाने पर होते हैं। एक दिन की खबरों के बीच गंभीरता से इसकी कहीं कोई नोटिस नहीं ली गयी। लेकिन आज हिन्दी मीडिया हादसे के बाद इसकी खामियों पर बात करने की कोशिश में जुटा है.
यह वही हिन्दी मीडिया है जो बाल दिवस, २६ जनवरी या फिर १५ अगस्त जैसे मौके पर लिटिल चैम्पस, इंडियन ऑयडल और चक दे बच्चे में शामिल लोगों को घंटों अपने स्टूडियों में बिठाए रखती है, उनसे चैट करती है, जी भरकर गाने गववाती है, अफेयर और लव एट फस्ट साइट से जुडे सवाल करती है और और एंकर से हो-हो करके ठहाके लगाने को कहती है। मैंने खुद लिटिल चैम्पस के दिवाकर को तीन बार लिफ्ट से लाया और छोड़ है. लाते समय तो फिर भी कोई साथ होता है लेकिन छोड़ते समय कोई नहीं। मुझे बुरा लगता तो मैं साथ छोड़ने चला जाता।
कौन नहीं जानता कि बच्चे जब सोलह-सोलह घंटे प्रैक्टिस करते हैं और अगले दिन शूटिंग के लिए गाते हैं तो उनके बीच स्वाभाविकता खत्म होती चली जाती है. गानों में परफेक्शन आने के साथ-साथ बचपन उनसे दूर होता चला जाता है। इन सबके बीच जजों की डांट, साथियों से गला-काट टफ कंपटीशन उनके भीतर कई तरह के डिस्टर्वेंश पैदा करता है. इन सबके वाबजूद एक बड़ी सच्चाई है कि प्रतिभा को सामने लाने के लिए ये एक जरुरी प्रयास है। सरकारी तंत्र प्रतिभाओं को सामने लाने में पूरी तरह फेल हो चुका है, थोड़ा-बहुत काम का है भी तो उसमें इतना अधिक तोड़-जोड़ है कि आम आदमी वहां तक पहुंच ही नहीं सकता. आकाशवाणी और दूरदर्शन के युवा केन्द्र के रजिस्टर में अपना नाम लिखते रहिए, कोई फर्क नहीं पड़ता. ऐसे में ये रियलिटी शो टैलेंट हंट का एक बेहतर माध्यम तो है ही। प्राइम टाइम में देशभर की बाकी खबकों को रिप्लेस करके रियलिटी शो के घंटेभर तक फुटेज और गॉशिप दिखानेवाली मीडिया के पास भी इससे कुछ अलग तर्क नहीं है।
लेकिन आज इसी मीडिया को एक हादसे के बाद रियलिटी शो में सिर्फ बुराइयां ही बुराइयां नजर आने लगी है। यह अलग बात है कि प्राइम टाइम में अब भी खबरों की जगह इसे दिखाना बंद नहीं किया है। इससे एक बात तो साफ हो जाता है कि मीडिया का आज अपना कोई स्टैंड रह ही नहीं गया है, इवेंट को लेकर उसका अपना कोई रिसर्च नहीं है। एक हद तक इस बात की समझदारी भी नहीं कि किस बात का क्या असर हो सकता है। इसलिए टीआरपी की दौड़ लगाते-लगाते जब यह मीडिया थक जाती है और जब सुस्ताने के लिए सामाजिक दायित्व का दामन पकड़ती है तो वो मीडिया की ताकत, प्रतिरोध के स्वर और आम जनता की हितैषी न लगकर पाखंडी, अननैचुरल और बददिमाग लगने लग जाती है जिसे देखकर कोई भी कह देगा कि- सबसे तेज हो तुम अपने घर में, समाज में तुम पिछलग्गू ही हो, तुम्हारे पास अपना कोई दिमाग भी तो नहीं।
करेजा में घुस-घुसकर ऐसे बोलेगा तो किसको नहीं सुहाएगा, कोई भी लड़की लट्टू हो जाएगी। बोलने वाला पगला है जो बोलता है कि- रंजनाजी आपके यहां पानी चला गया तो कोई बात नहीं, हम आकर भर देते हैं। उसको नहीं पता है कि इ जमाना में जहां से दू मीठा बोली मिल जाए, आदमी उसी का हो जाता है। रेडियो जॉकी पर मेरी मां की बेबाक टिप्पणी थी।
तब मेरे उपर एफ एम का भूत सवार था। दिनभर में बीस-बीस घंटे लगातार एफ एम सुना करता और कई बार तो २४ घंटे लगातार और उसकी रिकार्डिंग करता। इसी बीच करीब सौ रिकार्डेड टेप लेकर घर चला गया। उन दिनों मैं गाने छोड़कर विज्ञापन गाता और जब-तब रेडियो जॉकी की नकल किया करता।
जैसे ही मैं कहता-जब रिश्ते बन जाए वहम तो हाजिर है लवगुरु। मेरी मां कहती- इ तुम मउगा वाला भाषा-बोली कहां से सीख गए हो, एक रत्ती अच्छा नहीं लगता है। मउगा का मतलब होता है जो लड़की-औरतों के आसपास ही मंडराता रहता है। मां के हिसाब से उसकी पसंद बदल जाती है औऱ वो भी औरतों की तरह व्यवहार करने लग जाता है, उसकी भाषा-बोली बदल जाती है. इसी बीच मेरे बचपन का दोस्त श्रवण मिलता तो कहता-यार तुम्हारे बात-व्यवहार से लगता नहीं कि तुम दिल्ली में रिसर्च कर रहे हो, मुझे तो लगता है कि भडुआगिरी करने लग गए हो। मेरे इस तरह से रेडियो जॉकी की नकल करने पर लोग खुश होने की बजाए शक करने लगते कि पता नहीं दिल्ली में क्या कर रहा है।
फिर मैंने मां को रिकार्डेड मटेरियल सुनाया और बताया कि मां पहले जैसे रेडियो पर अलाउन्सर होते थे न अब रेडियो जॉकी होने लगे हैं और देखो कितना जीवंत होकर बोलते है। लवगुरु का पूरा टेप सुनाया। मां ने लोगों के सवाल और लवगुरु के जबाब सुने। मां एकदम से भक्क थी। कहने लगी- बाप से, लड़की-लड़का जब जौरे-साथे रहता है उसका खिस्सा भी रेडियो पर भेज देता है। मां प्रेम औऱ अफेयर के लिए जौरे-साथे शब्द का प्रयोग करती है। इस शब्द में लिव इन का भी अर्थ अपने-आप ध्वनित हो जाता है। फिर मैंने रेडियो सिटी के प्रताप की टेप सुनायी। वो किसी लड़की से पानी चले जाने पर राय दे रहे थे। अबकी बार मां का अंदाज बिल्कुल बदल गया था। मां ने बिल्कुल ही बेलाग ढंग से कहा- कोई भी आदमी किसी लड़की से ऐसे करेजा में घुसकर बात करेगा तो लड़की उस आदमी के पगलाएगी नहीं तो क्या करेगी।
चार दिन पहले फोन करके मैंने मां को बताया कि- मां रेडियो सुननेवाली एक लड़की सचमुच में एक जॉकी के पीछे पगला गई है और वो परेशान है। मां का सीधा जबाब था कि उसको बोलने के पहले नहीं सोचना चाहिए कि जवान-जुवान लड़की से एतना अपनापा से बात नहीं करे। इस उमर में लड़की को कौन आदमी खींच जाए कोई भरोसा है। उ तो रेडियोवाला के सोचना चाहिए न, लड़की का इसमें क्या कसूर है। उससे तो जो भी दू बोली मीठा से बोल दे, उससे जी जुड़ जाए। मैंने पूछा- तो तुम्हारे हिसाब से उस लड़की का कोई दोष नहीं है। मां ने कहा, नहीं. मैंने फिर कहा कि ये तो रेडियो है न, इसमें मीठा से नहीं बोले कोई तो फिर कौन सुनेगा, ये बात तो लड़की को समझना चाहिए न कि रेडियो की बात रेडियो तक रखे। रामायण शुरु होते ही अरुण गोविल को प्रणाम करनेलावी मां और जमशेदपुर आने पर कृष्ण बने नितीश भारद्वाज का पैर छूनेवाली मां ने सीधे-सीधे कहा कि- देखते-सुनते समय किसको होश रहता है कि इ टीवी के बात है कि रेडियो के, जी तो जुड़ा ही जाता है न।....लाख तर्क देने के बाद भी मां यह बात मानने को तैयार नहीं थी कि टीवी, रेडियो असल जिंदगी से कोई अलग चीज है।
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तब मेरे उपर एफ एम का भूत सवार था। दिनभर में बीस-बीस घंटे लगातार एफ एम सुना करता और कई बार तो २४ घंटे लगातार और उसकी रिकार्डिंग करता। इसी बीच करीब सौ रिकार्डेड टेप लेकर घर चला गया। उन दिनों मैं गाने छोड़कर विज्ञापन गाता और जब-तब रेडियो जॉकी की नकल किया करता।
जैसे ही मैं कहता-जब रिश्ते बन जाए वहम तो हाजिर है लवगुरु। मेरी मां कहती- इ तुम मउगा वाला भाषा-बोली कहां से सीख गए हो, एक रत्ती अच्छा नहीं लगता है। मउगा का मतलब होता है जो लड़की-औरतों के आसपास ही मंडराता रहता है। मां के हिसाब से उसकी पसंद बदल जाती है औऱ वो भी औरतों की तरह व्यवहार करने लग जाता है, उसकी भाषा-बोली बदल जाती है. इसी बीच मेरे बचपन का दोस्त श्रवण मिलता तो कहता-यार तुम्हारे बात-व्यवहार से लगता नहीं कि तुम दिल्ली में रिसर्च कर रहे हो, मुझे तो लगता है कि भडुआगिरी करने लग गए हो। मेरे इस तरह से रेडियो जॉकी की नकल करने पर लोग खुश होने की बजाए शक करने लगते कि पता नहीं दिल्ली में क्या कर रहा है।
फिर मैंने मां को रिकार्डेड मटेरियल सुनाया और बताया कि मां पहले जैसे रेडियो पर अलाउन्सर होते थे न अब रेडियो जॉकी होने लगे हैं और देखो कितना जीवंत होकर बोलते है। लवगुरु का पूरा टेप सुनाया। मां ने लोगों के सवाल और लवगुरु के जबाब सुने। मां एकदम से भक्क थी। कहने लगी- बाप से, लड़की-लड़का जब जौरे-साथे रहता है उसका खिस्सा भी रेडियो पर भेज देता है। मां प्रेम औऱ अफेयर के लिए जौरे-साथे शब्द का प्रयोग करती है। इस शब्द में लिव इन का भी अर्थ अपने-आप ध्वनित हो जाता है। फिर मैंने रेडियो सिटी के प्रताप की टेप सुनायी। वो किसी लड़की से पानी चले जाने पर राय दे रहे थे। अबकी बार मां का अंदाज बिल्कुल बदल गया था। मां ने बिल्कुल ही बेलाग ढंग से कहा- कोई भी आदमी किसी लड़की से ऐसे करेजा में घुसकर बात करेगा तो लड़की उस आदमी के पगलाएगी नहीं तो क्या करेगी।
चार दिन पहले फोन करके मैंने मां को बताया कि- मां रेडियो सुननेवाली एक लड़की सचमुच में एक जॉकी के पीछे पगला गई है और वो परेशान है। मां का सीधा जबाब था कि उसको बोलने के पहले नहीं सोचना चाहिए कि जवान-जुवान लड़की से एतना अपनापा से बात नहीं करे। इस उमर में लड़की को कौन आदमी खींच जाए कोई भरोसा है। उ तो रेडियोवाला के सोचना चाहिए न, लड़की का इसमें क्या कसूर है। उससे तो जो भी दू बोली मीठा से बोल दे, उससे जी जुड़ जाए। मैंने पूछा- तो तुम्हारे हिसाब से उस लड़की का कोई दोष नहीं है। मां ने कहा, नहीं. मैंने फिर कहा कि ये तो रेडियो है न, इसमें मीठा से नहीं बोले कोई तो फिर कौन सुनेगा, ये बात तो लड़की को समझना चाहिए न कि रेडियो की बात रेडियो तक रखे। रामायण शुरु होते ही अरुण गोविल को प्रणाम करनेलावी मां और जमशेदपुर आने पर कृष्ण बने नितीश भारद्वाज का पैर छूनेवाली मां ने सीधे-सीधे कहा कि- देखते-सुनते समय किसको होश रहता है कि इ टीवी के बात है कि रेडियो के, जी तो जुड़ा ही जाता है न।....लाख तर्क देने के बाद भी मां यह बात मानने को तैयार नहीं थी कि टीवी, रेडियो असल जिंदगी से कोई अलग चीज है।
वो रेडियो जॉकी है, लवगुरु है। प्रेम और अफेयर में फंसे लोगों को राहत पहुंचाने का काम करता है। उन्हें बताता है कि मुश्किल दिनों में क्या करे, उलझन से उबरने के लिए क्या करे। लेकिन आज यही लवगुरु परेशानी में है। पिछले एक महीने से वो इतना परेशान है कि अंत में उसे पुलिस की शरण लेनी पड़ गयी। वो अब उन सब चीजों से बचना चाहता है जिसे की प्रोफेशन के दौरान जीता रहा।
ये रेडियो जॉकी है बिग 92.7 एफएम का अनिरुद्ध एलएलबी। इसकी परेशानी है कि इसके पीछे पिछले एक महीने से एक लेडी डॉक्टर लिस्नर पड़ी है। वो दिनभर उसे फोन करती है, एसएमएस करती है और उसका जीना हराम कर दिया है। शुरुआत में तो इस लवगुरु ने उसे बहुत समझाया कि आप ऐसा न करें लेकिन इस बात का कोई भी असर उस डॉक्टर पर नहीं हुआ। उस लिस्नर ने इस लवगुरु का जीना हराम कर दिया और अंत में उसे पुलिस की शरण लेनी पड़ गयी।
बात ये हुई कि लवगुरु पिछले एक महीने से किसी दूसरे काम में फंसे हुए हैं। ऑफिस से उन्होंने छुट्टी ले रखी है। इसलिए इस बीच उनके फैन्स उन्हें बेसब्री से खोजते-फिर रहे हैं। उनके बारे में जानना चाह रहे हैं। कई लोग तो खोजते-खोजते ऑफिस तक आ गए जिसमें ये डॉक्टर लिस्नर भी हैं। लवगुरु ने बताया कि मीडिया के किसी भी व्यक्ति का नं लेना मुश्किल नहीं होता सो अंत में उसे भी मेरा नंबर मिल गया और उसके बाद तो.......। लवगुरु के लाख समझाने के बाद इस लिस्नर का एक ही जबाब है- मुझे गुरु नहीं लव चाहिए।
मीडिया जब अच्छी-खासी भाषा को, लोकप्रय मुहावरों को तोड़ती-मरोड़ती है तब हम नाराज होते हैं। शब्दों के भीतर नए अर्थ भरे जाने पर आपत्ति दर्ज करते हैं लेकिन मीडिया की इसी नयी भाषा के साथ जब ऑडिएंस जीना शुरु कर देते हैं, उसे अपने फायदे के हिसाब से तोडते और समझते हैं तो एक नया सौंदर्य पैदा होता है।ऑडिएंस को परेशानी नहीं होती, कम्फर्ट फील होता है कि चलो हमने मीडिया के हिसाब से भाषा का प्रयोग करना सीख लिया। लेकिन मीडिया की अपनी ही इस भाषा से एलएलबी जैसे जॉकी को परेशानी होने लगती है।
एलएलबी एक सीरियस शब्द है। आज भी अगर आप कहें कि वो एलएलबी कर रहा है तो उससे एक गंभीर और पढ़ाकू किस्म के इंसान की छवि बनती है। इस लवगुरु ने इस शब्द के अर्थ को रिप्लेस कर दिया और ये शब्द जितना ही गंभीर था उसे उतना ही कैजुअल और फंकी बना दिया। अब एलएलबी का मतलब है- लव, लड़कियां और बॉलीवुड। इन तीनों शब्दों के संदर्भ को अगर समझे तो मतलब साफ है कि सिर्फ मस्ती की बातें होंगी और जिन चीजों से मस्ती में रुकावटें आती हैं, उनकी बाते होगी। कानून पढ़नेवाले लोग कह सकते हैं कि मेरे प्रोफेशन के शब्द का कबाड़ा कर दिया। चाहें तो मान-हानि का भी दावा कर सकते हैं लेकिन यहां तो यही अर्थ है।
इसके साथ ही गुरु शब्द भी अपने आप में गंभीर अर्थ रखता है। गुरु का एक अर्थ गंभीर भी है। लेकिन एफएम के सारे चैनलों पर लवगुरु या डॉक्टर लव मौजूद हैं। क्योंकि जब रिश्ते बन जाएं वहम तो जरुरत है डॉक्टर लव की। पॉपुलर मीडिया में कौन से शब्दों का प्रयोग कहां होगा,यह तय कर पाना मुश्किल है। हां अगर पॉपुलर कल्चर के मिजाज को समझ रहे हैं तब आपको इस बात का ज्ञान होने लग जाएगा कि किस शब्द का प्रयोग माध्यम को पॉपुलर बनाने के लिए किया जा सकता है।
अब देखिए न, एमएमएस बोलते ही हमारे कान खड़े हो जाते हैं। हमें लगने लगता है कि जरुर कोई देशी पोर्न हाथ लगनेवाली है। हम इस पर अतिरिक्त एटेंशन देते हैं। इसलिए जब रितु बेरी एमएमएस सुनते हैं तो सबकुछ छोड़-छाड़कर उधर खींच जाते हैं। बाद में जब पता चलता है कि यहां एमएमएस का मतलब महा,महासेल है तो ठगे जाते हैं. अच्छी-खासी डिस्कांउट की बात जानने पर भी हमें लगता है कि हम झले गए हैं।
शुरुआत में अगर हम इस तरह के शब्दों को सुनते हैं और पॉपुलर माध्यम के जरिए उसका अर्थ पाते हैं तो हमें लगता है कि हम उसमें छले गए हैं, हमारे साथ धोखा हुआ है। एक तपका इस बात का विरोध करने लग जाता है कि ऐसे कैसे शब्दों के साथ खिलवाड़ किया जा सकता है. लेकिन, इसके साथ ही एक बड़ी सच्चाई है कि एक तपका तेजी से पनप रहा है जो सबकुछ में एडजस्ट कर लेता है। औऱ न सिर्फ एडजस्ट कर लेता है बल्कि उसी के हिसाब से भाषा-प्रयोग और अर्थ ग्रहण करने लग जाता है जिसे कि हम मास सोसाइटी कहते हैं। डॉक्टर लिस्नर भी उसी मास सोसाइटी से आती है।
लेकिन मजे की बात देखिए कि जब यही मास सोसाइटी मीडिया द्वारा बनाए या बिगाड़े गए शब्दों का इस्तेमाल करने लग जाती है, उसी के बताए टिप्स के अनुरुप जीना शुरु करती है तो मीडिया को कितनी परेशानी होने लग जाती है.
फिलहाल एलएलबी ने अच्छी बात कही है वो है कि हालांकि उन्होंने राहत के लिए पुलिस का सहारा लिया है लेकिन वो नहीं चाहते कि उस लिस्नर पर कोई कारवाई हो। आखिर वो उसकी फैन है।
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ये रेडियो जॉकी है बिग 92.7 एफएम का अनिरुद्ध एलएलबी। इसकी परेशानी है कि इसके पीछे पिछले एक महीने से एक लेडी डॉक्टर लिस्नर पड़ी है। वो दिनभर उसे फोन करती है, एसएमएस करती है और उसका जीना हराम कर दिया है। शुरुआत में तो इस लवगुरु ने उसे बहुत समझाया कि आप ऐसा न करें लेकिन इस बात का कोई भी असर उस डॉक्टर पर नहीं हुआ। उस लिस्नर ने इस लवगुरु का जीना हराम कर दिया और अंत में उसे पुलिस की शरण लेनी पड़ गयी।
बात ये हुई कि लवगुरु पिछले एक महीने से किसी दूसरे काम में फंसे हुए हैं। ऑफिस से उन्होंने छुट्टी ले रखी है। इसलिए इस बीच उनके फैन्स उन्हें बेसब्री से खोजते-फिर रहे हैं। उनके बारे में जानना चाह रहे हैं। कई लोग तो खोजते-खोजते ऑफिस तक आ गए जिसमें ये डॉक्टर लिस्नर भी हैं। लवगुरु ने बताया कि मीडिया के किसी भी व्यक्ति का नं लेना मुश्किल नहीं होता सो अंत में उसे भी मेरा नंबर मिल गया और उसके बाद तो.......। लवगुरु के लाख समझाने के बाद इस लिस्नर का एक ही जबाब है- मुझे गुरु नहीं लव चाहिए।
मीडिया जब अच्छी-खासी भाषा को, लोकप्रय मुहावरों को तोड़ती-मरोड़ती है तब हम नाराज होते हैं। शब्दों के भीतर नए अर्थ भरे जाने पर आपत्ति दर्ज करते हैं लेकिन मीडिया की इसी नयी भाषा के साथ जब ऑडिएंस जीना शुरु कर देते हैं, उसे अपने फायदे के हिसाब से तोडते और समझते हैं तो एक नया सौंदर्य पैदा होता है।ऑडिएंस को परेशानी नहीं होती, कम्फर्ट फील होता है कि चलो हमने मीडिया के हिसाब से भाषा का प्रयोग करना सीख लिया। लेकिन मीडिया की अपनी ही इस भाषा से एलएलबी जैसे जॉकी को परेशानी होने लगती है।
एलएलबी एक सीरियस शब्द है। आज भी अगर आप कहें कि वो एलएलबी कर रहा है तो उससे एक गंभीर और पढ़ाकू किस्म के इंसान की छवि बनती है। इस लवगुरु ने इस शब्द के अर्थ को रिप्लेस कर दिया और ये शब्द जितना ही गंभीर था उसे उतना ही कैजुअल और फंकी बना दिया। अब एलएलबी का मतलब है- लव, लड़कियां और बॉलीवुड। इन तीनों शब्दों के संदर्भ को अगर समझे तो मतलब साफ है कि सिर्फ मस्ती की बातें होंगी और जिन चीजों से मस्ती में रुकावटें आती हैं, उनकी बाते होगी। कानून पढ़नेवाले लोग कह सकते हैं कि मेरे प्रोफेशन के शब्द का कबाड़ा कर दिया। चाहें तो मान-हानि का भी दावा कर सकते हैं लेकिन यहां तो यही अर्थ है।
इसके साथ ही गुरु शब्द भी अपने आप में गंभीर अर्थ रखता है। गुरु का एक अर्थ गंभीर भी है। लेकिन एफएम के सारे चैनलों पर लवगुरु या डॉक्टर लव मौजूद हैं। क्योंकि जब रिश्ते बन जाएं वहम तो जरुरत है डॉक्टर लव की। पॉपुलर मीडिया में कौन से शब्दों का प्रयोग कहां होगा,यह तय कर पाना मुश्किल है। हां अगर पॉपुलर कल्चर के मिजाज को समझ रहे हैं तब आपको इस बात का ज्ञान होने लग जाएगा कि किस शब्द का प्रयोग माध्यम को पॉपुलर बनाने के लिए किया जा सकता है।
अब देखिए न, एमएमएस बोलते ही हमारे कान खड़े हो जाते हैं। हमें लगने लगता है कि जरुर कोई देशी पोर्न हाथ लगनेवाली है। हम इस पर अतिरिक्त एटेंशन देते हैं। इसलिए जब रितु बेरी एमएमएस सुनते हैं तो सबकुछ छोड़-छाड़कर उधर खींच जाते हैं। बाद में जब पता चलता है कि यहां एमएमएस का मतलब महा,महासेल है तो ठगे जाते हैं. अच्छी-खासी डिस्कांउट की बात जानने पर भी हमें लगता है कि हम झले गए हैं।
शुरुआत में अगर हम इस तरह के शब्दों को सुनते हैं और पॉपुलर माध्यम के जरिए उसका अर्थ पाते हैं तो हमें लगता है कि हम उसमें छले गए हैं, हमारे साथ धोखा हुआ है। एक तपका इस बात का विरोध करने लग जाता है कि ऐसे कैसे शब्दों के साथ खिलवाड़ किया जा सकता है. लेकिन, इसके साथ ही एक बड़ी सच्चाई है कि एक तपका तेजी से पनप रहा है जो सबकुछ में एडजस्ट कर लेता है। औऱ न सिर्फ एडजस्ट कर लेता है बल्कि उसी के हिसाब से भाषा-प्रयोग और अर्थ ग्रहण करने लग जाता है जिसे कि हम मास सोसाइटी कहते हैं। डॉक्टर लिस्नर भी उसी मास सोसाइटी से आती है।
लेकिन मजे की बात देखिए कि जब यही मास सोसाइटी मीडिया द्वारा बनाए या बिगाड़े गए शब्दों का इस्तेमाल करने लग जाती है, उसी के बताए टिप्स के अनुरुप जीना शुरु करती है तो मीडिया को कितनी परेशानी होने लग जाती है.
फिलहाल एलएलबी ने अच्छी बात कही है वो है कि हालांकि उन्होंने राहत के लिए पुलिस का सहारा लिया है लेकिन वो नहीं चाहते कि उस लिस्नर पर कोई कारवाई हो। आखिर वो उसकी फैन है।