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मूलतः प्रकाशित मोहल्लाlive


पाठकों का रचना से सीधा रिश्ता कायम हो, इस क्रम में यात्रा बुक्स और पेंग्विन इंडिया का प्रयोग सफल रहा। दिल्ली की कंपकंपा देनेवाली ठंड में भी इंडिया हैबिटेट सेंटर का गुलमोहर सभागार लगभग भरा हो तो आप अंदाजा लगा सकते हैं कि रचना पाठ को लेकर पाठक अब भी कितने उत्‍सुक हैं। एक प्रकाशक की हैसियत से यात्रा बुक्स और पेंग्विन इंडिया ने इस बात की पहल की है कि रचना और पाठक के बीच एक स्वाभाविक संबंध विकसित हो। एक ऐसा संबंध, जो कि अख़बारों की फॉर्मूलाबद्ध समीक्षाओं और आलोचकों की इजारेदारी के बीच विकल्प के तौर पर काम कर सके। यह संबंध पाठक की गरिमा को बनाये रखे, उसे विज्ञापनदार समीक्षा पढ़ कर ग्राहक बनने पर मजबूर न करे। इस दिशा में यात्रा बुक्स और पेंग्विन इंडिया ने “कुछ नया कुछ पुराना” नाम से साभिनय पाठ सीरीज़ की शुरुआत की है। इस प्रकाशन संस्थान की योजना है कि प्रत्येक महीने, नहीं तो दो महीने में कम से कम एक बार हिंदी-उर्दू और दूसरी भाषाओं से हिंदी में अनूदित रचनाओं का साभिनय पाठ हो और उस आधार पर पाठक रचना से जुड़ सके।

इस सीरीज़ की शुरुआत होने से पहले ही पेंग्विन हिंदी के संपादक एसएस निरुपम ने मंच संचालक की भूमिका निभाते हुए कहा कि आलम ये है कि किताबें पाठकों की बाट जोहती रह जाती हैं। इस तरह के कार्यक्रम किताबों के इस इंतज़ार को ख़त्म करने की दिशा में काम करेंगे। साभिनय पाठ की शुरुआत युवा रंगकर्मी सुमन वैद्य ने की। सुमन वैद्य जितना एक रंगकर्मी के तौर पर हमें प्रभावित करते आये हैं, रचनाओं का पाठ करते हुए उससे रत्तीभर भी कम प्रभावित नहीं करते। कहानियों का पाठ करते वक्त शब्दों के उतार-चढ़ाव के साथ जो भाव-योजना बनती है, वो रेडियो नाटक जैसा असर पैदा करती है। सभागार में बैठे हमें कई बार छुटपन में सुने रेडियो के हवामहल कार्यक्रम की याद दिला गया। इसके साथ ही पाठ के मिज़ाज के हिसाब से चेहरे पर बनते-बिगड़ते भाव, हाथों और शरीर की भंगिमाएं पाठ का विजुअल एडिशन तैयार करती है। मोहल्लाlive पर इस कार्यक्रम की ख़बर को लेकर मुंबई की रंगकर्मी विभा रानी साहित्य को विजुअल कम्युनिकेशन फार्म में लाने की बात करती हैं। सुमन वैद्य के साभिनय पाठ ने उसे पूरा किया। ऐसा होने से एक तो रचना से आस्वाद के स्तर का जुड़ाव बनता है, वहीं दूसरी ओर इस बात की भी परख हो जाती है कि किसी भी रचना में माध्यम रूपांतरण के बाद आस्वाद पैदा करने की ताकत कितनी है? भविष्य में ये प्रयोग किसी भी रचना को लेकर सीरियल या फिल्म बनाने के पहले की प्रक्रिया के तौर पर आजमाये जा सकते हैं।

कुछ नया कुछ पुराना सीरीज़ के अंतर्गत कुल पांच रचनाओं के अंशों का पाठ किया गया, जिसमें आख़‍री मुग़ल को छोड़कर बाकी चार का पाठ सुमन वैद्य ने किया। आख़री मुग़ल का पाठ ज़किया ज़हीर ने किया। आख़‍री मुग़ल दरअसल विलियम डेलरिंपल की अंग्रेज़ी में लिखी द लास्ट मुग़ल का हिंदी रूपांतर है। खुद ज़किया ही इसे हिंदी और उर्दू में रूपांतरित कर रही हैं। राजी सेठ की रचना मार्था का देश के अंश को थोड़ा कम करके यदि ज़िदगी ज़िंदादिली का नाम है (ज़किया ज़हीर) संकलन से कुछ और रचनाओं का पाठ किया जाता, तो ऑडिएंस ज़्यादा बेहतर तरीके से जुड़ पाती। इस पूरे साभिनय पाठ में सबसे प्रभावी रचना रही चित्रा मुदगल की बच्चों पर केंद्रित कहानियों के संकलन से पढ़ी गयी लघुकथा – दूध। इस रचना ने मुश्किल से दो से तीन मिनट का समय लिया, लेकिन सबसे ज़्यादा असर पैदा किया।

एक औसत दर्जे के भारतीय परिवार में दूध घर के मर्द पीते हैं। स्त्री या लड़की का काम है दूध के गुनगुने गिलास को सावधानीपूर्वक उन तक पहुंचाना। एक दिन लड़की चोरी से दूध पीती है। उसकी मां उस पर बरसती है – दूध पी रही थी कमीनी?
लड़की का सवाल होता है – एक बात पूछूं मां? मैं जब जनमी तो दूध उतरा था तेरी छातियों में?
हां… खूब। पर… पर तू कहना क्या चाहती है?
तब भी मेरे हिस्से का दूध क्या तूने घर के मर्दों को पिला दिया था?

और कहानी ख़त्म हो जाती है। इस आधार पर समझें तो साभिनय पाठ की सफलता का बड़ा हिस्सा इस बात से जुड़ता है कि पाठ के लिए किस रचना का चयन किया गया है। कई बार ऐसा होता है कि कई रचनाएं पढ़ने के लिहाज से बहुत ही बेहतर हुआ करती हैं लेकिन साभिनय पाठ के दौरान उतना मज़ा नहीं आता जबकि कुछ में दोनों स्तरों पर मज़ा आता है। इसलिए साभिनय पाठ के लिए रचनाओं पर अधिक से अधिक होमवर्क करने की ज़रूरत है जो कि इस कार्यक्रम के दौरान समझने को मिला।

बहरहाल यात्रा बुक्स और पेंग्विन इंडिया का ये प्रयोग प्रभावित तो ज़रूर करता है। इसे हम इस रूप में भी समझ सकते हैं कि जहां दिल्ली की बड़ी आबादी नये साल की तैयारियों में जुटी है, शहरभर के स्कूल-कॉलेज बंद हैं और छुट्टी के मूड में हैं, ऐसे में शहर के पुस्तक प्रेमी इस कार्यक्रम में शामिल हुए। अशोक वाजपेयी, हिमांशु जोशी, मृदुला गर्ग, राजेंद्र धोड़पकर, कृष्णदत्त पालीवाल, राजी सेठ, चित्रा मुदगल, रवींद्र त्रिपाठी, मुरली मनोहर प्रसाद सिंह, रेखा अवस्‍थी,अभिसार शर्मा, क़ुर्बान अली सहित कई गणमान्‍य लोग रचना पाठ सुनने के लिए आये। इनमें से अधिकांश अंत-अंत तक बने रहे। कार्यक्रम के अंत की घोषणा और धन्यवाद ज्ञापन करते हुए यात्रा बुक्स की प्रकाशक नीता गुप्ता ने कहा कि “कुछ नया कुछ पुराना” कार्यक्रम ने साहित्य और अभिनय को जोड़ने का काम किया है। इसे हम आगे भी जारी रखेंगे। नीता गुप्ता की बात को आगे ले जाकर कहा जाए तो ऐसे कार्यक्रमों को न केवल जारी रखने की ज़रूरत है बल्कि पाठकों की अलग-अलग पहुंच औऱ हैसियत के हिसाब से अलग-अलग जगहों पर आयोजित किया जाना ज़रूरी है, जिससे कि खुले तौर पर ज़्यादा से ज़्यादा लोग इसमें शामिल हो सकें। बेहतर हो कि यात्रा बुक्स और पेंग्विन इंडिया की इस पहल की देखादेखी ही सही, बाकी के प्रकाशन भी इस दिशा में आगे आएं। क्योंकि लोकार्पण और भाषणबाजी से हटकर ये अकेला कार्यक्रम है, जिसमें मुनाफे के पाले में पाठक का हिस्सा ज़्यादा है।
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आज की तारीख में रचना और पाठक के बीच इतनी एजेंसियां उग आयीं हैं कि पाठक और रचना के बीच सीधा और स्वाभाविक रिश्ता नहीं रह गया है। एक पाठक हालिया प्रकाशित रचनाओं को जिन माध्यमों के जरिए जान पाता है वो विश्वस्नीय नहीं रह गए हैं। अखबारों में थोक के भाव में जो पुस्तक परिचय,किताबों की समीक्षाएं छपती है वो पाठकों के बीच रुचि पैदा करने से कहीं ज्यादा मार्केटिंग करते नजर आते हैं। दुनियाभर के हिन्दी के आलोचक बाजारवाद और छोटे-मोटे स्वार्थों के विरोध में दिन-रात लिखते हैं,भाषण देते हैं जबकि रचना को लेकर पाठक के प्रति ईमानदार नहीं रह पाते। आपसी संबंधों,जुगाड़ों और मिली भगत की राजनीति के तहत रचना और किताबों को चढ़ाने और गिराने का काम करते हैं। उनका ये रवैया किताबों के बारे में लिखते समय साफ तौर पर झलकता है। नतीजा हमारे सामने है- रचना के बारे में आलोचकीय समझ के साथ लिखने के बजाय विज्ञापन करने में देश का तथाकथित महान से महान आलोचक अपनी ताकत झोंक दे रहा है। इधर रचनाकार से लेकर प्रकाशक तक नहीं चाहते कि उनकी छपी किताब या रचना की निर्मम किन्तु सच्ची आलोचना करे। इसलिए तटस्थ होकर लिखनेवालों की खेप लगातार घटती चली जा रही है और जो हैं उन्हें हाशिए पर धकेल देने में ही भलाई समझा जाता है। इस पूरे गुणा-गणित के बीच पाठक और रचना के बीच जो संबंध बनते हैं वो ग्राहक और उत्पाद का संबंध होता है जिसमें आस्वाद से कहीं ज्यादा बाजार के अधीन होकर पढ़ने और खरीदने का फार्मूला काम कर रहा होता है।

पेंग्विन इंडिया और यात्रा बुक्स ने प्रकाशक की हैसियत से पाठक और रचना के बीच सीधा संबंध कायम हो,इस गरज से पहल की है। "कुछ नया कुछ पुराना" नाम से शुरु किए जानेवाले सीरिज में रचनाओं का साभिनय पाठ होगा। इसके पीछे मकसद है कि उन पुरानी रचनाओं को पाठकों के सामने एक बार फिर से सामने लाए जाएं जो कि स्थायी महत्व रखते हों। दूसरी तरफ नयी रचनाओं का साभिनय पाठ के आधार पर पाठक किसी एजेंसी के आधार पर राय कायम करने के बजाय सीधे रचना से गुजरकर राय बना सकें। ऐसा होने से आलोचकों की विश्वसनीयता को जांचने-परखने का सही मौका मिल सकेगा और रचना को बेहतर और बदतर करार दिए जाने की उनकी इजारेदारी एक हद तक टूटेगी। यह संभव है कि पेंग्विन और यात्रा बुक्स का ये प्रयास काफी हद तक मार्केटिंग का हिस्सा हो लेकिन इतना जरुर है कि पाठक को रचना और राय के बीच एक विकल्प मिल सकेगा। सीधे संवाद के पैटर्न पर राजकमल प्रकाशन की भी अपनी सीरिज है लेकिन वो लेखकों से संवाद है,सीधे-सीधे रचना से नहीं।
पेंग्विन और यात्रा बुक्स ने इस पहल के तहत साभिनय पाठ के लिए इस बार हिन्दी-उर्दू के मशहूर रचनाकारों- मोहसिन हामिद,ज़किया ज़हीर,राजी सेठ,चित्रा मुद्गल और विलियम डेलरिम्पल की रचानाओं को चुना है। इन रचनाओं का साभिनय पाठ के लिए एनएसडी से पासआउट प्रसिद्ध रंगकर्मी सुमन वैद्य को विशेष तौर पर आमंत्रित किया है। आपलोगों में जिनलोगों ने भी एम.के.रैना द्वारा निर्देशित "बाणभट्ट की आत्मकथा" देखी है वो बाणभट्ट यानी सुमन वैद्य की अदाकारी पर जरुर फिदा हुए होंगे। राजेन्द्र नाथ के निर्देशन में घासीराम बने सुमन वैद्य को जरुर सराह रहे होंगे। आज एक बार फिर उन्हें नए अंदाज में देखने-सुनने का मौका मिलेगा। पेंग्विन और यात्रा बुक्स ने इस साभिनय पाठ की स्थायी योजना तय की है जिसके तहत महीने में एक बार इस कार्यक्रम का आयोजन करेगी। हर बार पुरानी औऱ नयी रचनाओं का पाठ होगा। हम उम्मीद करते हैं कि इससे रचना और पाठक के बीच नए सिरे से गर्माहट पैदा होगी।
नोट- कार्यक्रम को लेकर डिटेल कार्ड में दिया गया है जिसे कि आप क्लिक करके बड़े साइज में देख सकते हैं।


नाटकों में भूमिका के तौर पर सुमन वैद्य का परिचय-
Play Name Role Director
Short cut Arun Bakshi Sh. Ranjeet Kapoor
Antral Kumar(Mohan Rakesh) Sh. Ranjeet Kapoor
Janeman Panna Nayak Sh.Waman Kendre
Ban Bhatt Ban Bhatt Sh. M.K. Raina
Batohi Batohi(Bhikari Thakur) Sh. D.R.Ankur
Gunda Gunda Nanku Singh Sh.Chittranjan Giri
Ghasiram Kotwal Ghasiram Sh. Rajender Nath
Chanakya Vishnugupt Chandragupt Sh Souti Chakraborty
1857 Ek Safarnama Shamsuddin Ms Nadira Zaheer Babbar

निर्देशन-
Death Watch in Hindi written by Jian Genet in Nainital (1992)
* Kajirangat Hahakar (Assamese) with Children in Nagaon
Assam (2007),and in TIE Company(NSD)’s Children Theatre Festival 2009
* Kaath Gharat Bhagwan (Assamese Translation of a Hindi
Play written by Shri Krishna) in Nagaon Assam.(2008).
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चाट-समोसे के ठेले का नाम "आत्मनिर्भर समोसा चाट" देखकर मैं एकदम से प्रभात की स्कूटी से कूद गया। जल्दी से कैमरा ऑन किया और दो-तीन तस्वीरें खींच ली। मेरा मन इतने से नहीं माना। मैं जानना चाह रहा था कि आमतौर पर चाट,समोसे,फास्ट फूड और मोमोज जैसी चीजें बेचनेवाले ठेलों के नाम हिंग्लिश में हुआ करते है,फिर इसने इतना टिपिकल नाम क्यों रखा है? गरम-गरम समोसे तल रहे हमउम्र साथी से मैंने आखिर पूछ ही लिया-ये बताओ दोस्त,आपने ठेले का नाम आत्मनिर्भर चाट भंडार क्यों रखा है? उसने पीछे की तरफ इशारा करते हुए बताया कि वो भइया बताएंगे। मैंने पीछे की तरफ देखा। उस दूकान के दो दरवाजे खुलते हैं-एक पुरुलिया रोड की तरफ जहां कि संत जेवियर्स कॉलेज,उर्सूलाइन कॉन्वेंट से लेकर रांची शहर के तमाम स्कूल-कॉलेज हैं और दूसरा दरवाजा संत जॉन्स स्कूल के अंदर की ओर। आगे के दरवाजे से हम जैसे राह चलते लोग सामान खरीद सकते हैं जबकि पीछे के दरवाजे से सिर्फ स्कूल के बच्चे ही चॉकलेट,पेटिज,कोलड्रिंक,चिप्स वगैरह खरीदते हैं। पूरे पुरुलिया रोड में जहां कि एक से एक अंग्रेजी नाम से स्कूल,कॉलेज और संस्थान हैं ऐसे में सत्य भारती के बाद ये ठेला ही है जो होर्डिंग्स और दूकानों के नाम को लेकर किसी भी हिन्दी-अंग्रेजी के मसले पर सोचनेवाले को अपनी ओर बरबस खींचता है।
ठेले के इस टिपिकल हिन्दी नाम के पीछे की कहानी बताते हुए संजय तिर्की ने कहा कि हमलोगों के एक भैइया है-धनीजीत रामसाथ। वो भइया समाज के विकलांगों के लिए कुछ करना चाहते हैं। इसलिए पहले उन्होंने प्रेस खोला। लेकिन बाद में कई अलग-अलग चीजों पर भी विचार करने लगे। अब देखिए-विकलांगों के लिए सरकारी नौकरी में कई तरह की सुविधाएं और छूट है। लेकिन ये फायदा तो उसी को मिलेगा न जो कि पढ़ा-लिखा है या फिर सरकारी नौकरी की तरफ जाना चाहता है। समाज विकलांगों का एक बड़ा वर्ग है जो कि इस नौकरी लायक नहीं है। उसे हर-हाल में छोटी-मोटी प्राइवेट नौकरी करने गुजारा करना होता है। ये लोग जब किसी दूकान वगैरह में काम मांगने जाते हैं तो सब यही कहता है कि-ये तो अपाहिज है,ये भला क्या काम करेगा। इसलिए भइया ने सोचा कि ऐसा कुछ शुरु किया जाए जिसमें कि इनलोगों को भी काम में लगाया जाए। ऐसे ही इस तरह से चाट के ठेले की शुरुआत हुई। संजय तिर्की संत जॉन्स स्कूल की जमीन पर बनी जिस दूकान को चलाते हैं उसका भी नाम आत्मनिर्भर स्टोर है जिसे कि रोमन लिपि में लिखा गया है। इसलिए एकबारगी वो अंग्रेजी लगता है लेकिन दूकान के आगे के ठेले का नाम देवनागरी लिपि में है।
मेरे इस सवाल पर कि आज तो इतने सारे अंग्रेजी के अच्छे-अच्छे नाम है जो कि सुनने में ज्यादा स्टैण्डर्ड और बोलने में ज्यादा सहज लगते हैं फिर आपने इतना टिपिकल नाम क्यों रखा? संजय तिर्की ने जबाब दिया कि ये सिर्फ एक ठेले का नाम नहीं है,एक संस्था है जिसके तहत हम विकलांगों के लिए काम करते हैं। हम सब आत्मनिर्भर होना चाहते हैं औरों को भी करना चाहते हैं इसलिए यही नाम रखा। दूसरे नाम रख देने पर वो चीज नहीं हो पाती।
एक टिपिकल हिन्दी नाम के पीछे संजय का तर्क मुझे बहुत ही साफ लगा। ये किसी भी भाषाई दुराग्रहों से अलग है। इस नाम के पीछे कोशिश सिर्फ इतनी भर है कि संदर्भ जिंदा रहे। इसके भीतर अंग्रेजी-हिन्दी की कोई भी बहस शामिल नहीं है। नहीं तो अकादमिक बहसों की तो छोड़िए,आम आदमी को समझाने और बताने के लिए जिस हिन्दी का प्रयोग किया जाता है उसमें दुनियाभर की पॉलिटिक्स,बेहूदापन और चोचलेबाजी शामिल है।
कल अंबेडकर कॉलेज से गुजरते हुए मैंने सीलमपुर के इलाके में बने डस्टबिन के लिए 'डलाव'शब्द बहुत ही बड़े-बड़े अक्षर में लिखा देखा। पहले तो कुछ समझ ही नहीं आया। लगा कि कुछ मात्रा छूट गयी है लेकिन बाद में उल्टी तरफ अंग्रेजी में डस्टबिन लिखा देख समझ पाया। नई दिल्ली रेलवे स्टेशन में नए-नए बोर्ड लगे हैं। वहां की कहानी और भी दिलचस्प है। उपर से नीचे की तरफ उतरने वाली सीढ़ी के पास एक बोर्ड लगा है। एक तरफ लाइन से हिन्दी में लिखा है और तीर के निशान दिए गए हैं। दूसरी तरफ अंग्रेजी में नाम लिखा है और तीर के निशान दिए गए हैं। जिधर हिन्दी लिखा है उधर हिन्दी के ऐरो दिए गए हैं और जिधर अंग्रेजी लिखी गयी है वहां हिन्दी से उल्टी दिशा में तीर के निशान दिए गए हैं। मतलब ये कि अगर आप हिन्दी के निर्देश का पालन करते हैं तो कहीं और उतरेंगे और अंग्रेजी का फॉलो करने पर कहीं और। भाषा के बदलने के साथ ही आपका गंतव्य बदल जाएगा।
देशभर के दर्जनों एनजीओ हैं जो कि बहुत ही चमत्कारिक ढंग से नाम रखते हैं। उनका शार्ट फार्म टिपिकल हिन्दी में होता है। लेकिन उसके फुल फार्म अंग्रेजी में होते हैं। लोगों की जुबान पर वो हिन्दी नाम हो और सांस्थानिक तौर पर अंग्रेजी में उसकी व्याख्या। नामों की इस तरह की चोचलेबाजी के बीच बहुत तरह के पचड़े,फैशन,सुविधा है। रवीश कुमार मोबाईल पत्रकारिता के जरिए इसे लगातार बता रहे हैं लेकिन संजय तिर्की के सादगी से दिए गए जबाब पर गौर करना जरुरी है कि- बाकी नाम में वो बात नहीं होती। यानी दूकानो,ठेलों,निर्देशों के नाम और शब्द के पीछे संदर्भों का जिंदा रहना जरुरी है।
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चैटबॉक्स में नीलिमा ने मुझसे कहा कि राजकिशोर ने अपनी बेटी अस्मिता का बायोडाटा मेरे पास भेजा तो मुझे आपका ध्यान आ गया। मैंने पूछा- क्यों? नीलिमा ने कहा-योग्य वर के लिए। मैंने फिर कहा-आप मजाक क्यों करती हैं? उसने कहा- सच्ची। फिर एक मिनट बाद ही उसने वायोडाटा फार्वर्ड कर दिया। मैंने बहुत ही जल्दी में अस्मिता राज का बायोडाटा देखा.फिर जब अपने शहर टाटानगर पहुंचा तो देखा कि मोहल्लालाइव पर ये वायोडाटा सार्वजनिक कर दी गयी है। इस पर रवीश कुमार से लेकर बाकी लोगों के भी कमेंट हैं। अस्मिता ने अपने बायोडाटा में कई ऐसी बातें लिखी है जिससे साफ हो जाता है कि विवाह संस्था के भीतर रहकर भी नए जमाने की लड़कियां किस तरह इसके ढांचे को ध्वस्त करने में जुटी है। लकीर का फकीर और कठमुल्लेपन की धज्जियां उड़ाने में जुटी हैं। मैंने भी कमेंट किया और अस्मिता को इस काम के लिए शुभकामनाएं दी। फिर घर में अवसाद के क्षणों में भी अपने भैय्या की शादी में कुछ रंगत पैदा करने में जुट गया। बात आयी गयी हो गयी।
लेकिन जिस टिपिकल तरीके से हिन्दू रीति-रिवाज के तहत शादी की तैयारियां और नेम धर्म शुरु हुआ,मुझे अस्मिता का बायोडाटा बार-बार ध्यान आने आने लगा। मैंने कुछ लोगों को इसे पढ़वाया,इस बारे में चर्चा की। मेरे दिमाग में बस एक ही चीज बार-बार घूमने लगी। इस देश में हजारों लड़कियां ऐश्वर्या राय बनने की होड़ में है,हजार के करीब रानी मुखर्जी भी बनना चाहती है,सानिया मिर्जा और सुनिधि चौहान भी इसके आस-पास ही बनना चाहती है। लेकिन इस बीच अस्मिता राज कहां से आ गयी? ये उन लड़कियों के खांचे में नहीं है जो बचपन के राजकुमार को अब घोड़ी पर चढ़ना देखना चाहती है। ये उन लड़कियों से अलग है जो कि अफेयर को संबंध का नाम देने के लिए जी-जान लगाती है। हर औसत दर्जे के समाज के बीच खत्तम लड़की होने की बदनामी झेलती है। ये इतनी माइक्रो समझ है कि न तो वो विवाह संस्था का खुल्लम-खुल्ला चैलेंज करती है और न ही उसके बाहर जाकर कोई क्रांति की बात करती है। अगर कुछ नया और अलग है तो वो ये कि इसके भीतर ही रहकर उसके ढांचे को ध्वस्त करती है। मुझे लगता है कि अगर इस देश की तमाम लड़कियों ने गाय पर लेख लिखने के लिए अपने सीनियर की कॉपी देखी हैं,शादी के पहले मोहल्ले की लड़कियों से स्वेटर,टेबुल क्लाथ,कुशन के पैटर्न उधार लिए हैं तो अब उसे बायोडाटा बनाते समय एक बार अस्मिता के बायोडाटा से जरुर गुजरना चाहिए।
कहने को बायोडाटा के जरिए शादी एक प्रोग्रेसिव नजरिया का हिस्सा लगता है लेकिन अगर आप इनके एक-एक शब्दों पर गौर करें तो आपको इसके कई हिस्से मानव-विरोधी लगेंगे। ये सबकुछ स्त्री के विरोध में जाता है। रंगों का वर्णन,जाति का बारीकी से वर्णन,खानदाननामा और ऐसी ही कई सूचनाएं जो एक ही झटके में एहसास कराती है कि शादी के नाम पर हम कितना बड़ा गैरमानवीय समाज रचते हैं? बंद दिमाग को संभव है कि अस्मिता का बायोडाटा परेशान करे,जबरदस्ती की चोचलेबाजी लगे लेकिन इसे चालू पैटर्न के लड़कियों के बायोडाटा से मिलान करके देखें तो एक घड़ी को इससे असहमत होते हुए भी अपनी बेटियों,अपनी बहनों,भतिजियों के लिए बनाए गए बायोडाटा पर नफरत होगी।..होनी भी चाहिए।
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टेलीविजन पर मेरा लेक्चर आज

Posted On 8:36 am by विनीत कुमार | 4 comments



साभारः मोहल्लाlive
टेलीविजन विमर्श के साथ एक दिलचस्प विरोधाभास है। पहले तो आलोचकों ने पूरी ताक़त से इसे इडियट बॉक्स घोषित कर दिया। उसके बाद इस बात की संभावना की तलाश करने में जुट गये कि इससे सामाजिक विकास किस हद तक संभव हैं। इन दोनों स्थितियों में टेलीविजन की भूमिका और उसके चरित्र पर बहुत बारीकी से शायद ही बात हो पा रही हो। बदलती परिस्थितियों के बीच भी विमर्श का एक बड़ा हिस्सा जहां टेलीविजन को पहले से औऱ अधिक इडियट साबित करने में जुटा है, वहीं इसमें संभावना की बात करने वाले लोग जबरदस्ती का तर्क गढ़ने में कोई कोर-कसर छोड़ना नहीं चाहते। नतीजा हमारे सामने है, अपनी-अपनी डफली, अपना-अपना राग। लेकिन विमर्श के नाम पर अपने-अपने पाले में तर्क गढ़ने की कवायदों के बीच ऑडिएंस क्या सोचता है, उसकी समझ किस तरह से बदल रही है, इस पर बहुत गंभीरता से बात नहीं होने पाती है। मार्शल मैक्लूहान ने साठ के दर्शक में एक बार जो कह दिया कि टेलीविजन ठंडा माध्यम है, इससे कल्पना और विचार पैदा नहीं होते – वो आज भी किसी न किसी रूप में कायम है। हिंदी में इस मान्यता को इतना विस्तार मिला कि टेलीविजन पर बात करने का मतलब ही हो गया कि ये हमें निष्क्रिय बनाता है, हमारी समझ को कुंद करता है। हम उदासीन होते चले जाते हैं। इसलिए बेहतर है कि देश भर के टेलीविजन को गंगा में विसर्जित कर दिए जाएं।

दूसरी तरफ मार्केटिंग और कनज्‍यूमरिज्म के भीतर ये बहस जोरों पर है कि अब कनज्‍यूमर चीज़ों का सिर्फ उपभोग ही नहीं करता बल्कि वो इसका उत्पादक भी है। अब वो तय करता है कि वस्तुओं का उत्पादन किस तरह से हो। टेलीविजन में संभावना बतानेवाले लोगों ने इस तर्क को अपनाते हुए ऑडिएंस को निष्क्रिय और उदासीन बताने के बजाय इसे टेलीविजन का डिसाइडिंग फैक्टर बताते हैं। टेलीविजन की पूरी बहस, जो टीआरपी के गले में जाकर अटक जाती है वो एक नये मुहावरे को जन्म देती है – लोग जो देखना चाहते हैं, टेलीविज़न वही दिखाता है। इसमें कोई क्या करे? ऑडिएंस अगर निष्क्रिय नहीं है, तो टीआरपी के भीतर उसकी सक्रियता किस हद तक है, इस पर नये सिरे से विचार करने की ज़रूरत है। इसके साथ ही ये सवाल भी कि टेलीविज़न का कोई सचमुच एक्टिव ऑडिएंस हो सकता है?

दिल्ली विश्वविद्यालय से टेलीविजन की भाषिक संस्कृति पर शोध कर रहे विनीत कुमार सफर और सीएसडीएस सराय के संयुक्त प्रयास से हो रहे वैकल्पिक मीडिया वर्कशॉप (दिसंबर 01-03) में इन्हीं सवालों के आसपास अपनी बात रखेंगे। Watching Television : From Passive Consumption Of Sounds And Images To An Active Prosumer/Audience? विषय के तहत बातचीत के जरिये वो उन संभावनाओं की तरफ इशारा करेंगे जहां एक ऑडिएंस की हैसियत से टेलीविजन में भागीदारी की जा सके। इससे पहले इस वर्कशॉप में प्रिंट मीडिया के सत्र में वैकल्पिक मीडिया पर आलोचनात्मक निगाह पर अभय कुमार दुबे, Do Activism And Development Journalism Have To Be Boring? पर शिवम विज, Marginalised And Media पर दिलीप मंडल अपनी बात रख चुके हैं। टेलीविजन के साथ कल वेब जर्नलिज्म पर भी एक सत्र होगा। तीसरे यानी कि अंतिम दिन कम्युनिटी रेडियो पर विस्तार से चर्चा होगी।

समय 10.30 बजे
स्थान सीएसडीएस-सराय, 26, राजपुर रोड, दिल्ली
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सैयद ज़ैग़म इमाम मीडिया इन्डस्ट्री के भीतर उन-गिने चुने लोगों में से हैं जो न्यूज रुम के तनावों और हील-हुज्जतों के बीच भी अपनी रचनाधर्मिता को बचाए हुए हैं। मेनस्ट्रीम मीडिया के फार्मूलाबद्ध पैकजों से बाहर जाकर समाज,सरोकार और पक्षधरता के सवालों पर लगातार सोचने-जाननेवाले लोगों में से हैं। राजकमल से प्रकाशित उनका पहला उपन्यास दोज़ख़ उनकी इस रचनाधर्मिता और लेखन के बीच की संभावना को स्थापित करती है। वैसे तो दोज़ख़ की कहानी चंदौली जैसे छोटे से कस्बे के छोटे से अल्लन के पास घूमती है। लेकिन उसकी मासूम ख्वाहिशों और सपनों के बीच दोज़ख़ की जो शृंखला बनती है वो मासूम अल्लन की अकेली श्रृंखला न होकर उन तमाम लोगों की श्रृंखला बन जाती है जिनके लिए मजहबों और मान्यतों के बीच से गुजरकर अपने पक्ष में इंसानियत को चुनकर जीना आसान नहीं रह जाता। इंसानियत का दामन थामकर न तो अल्लन जैसे मासूम के लिए जीना संभव है और न ही इंसानियत का पक्ष लेते हुए आम लोगों के लिए।

यह उपन्यास मज़हब और इंसानियत के बीच चलने वाली एक अजीबो गरीब कशमकश की कहानी है। एक ऐसे लड़के कि दास्तान जिसके हिंदू या फिर मुसलमान होने का मतलब ठीक से नहीं पता। मालूम है तो सिर्फ इतना कि वो एक इंसान है जिसकी सोच और समझ किसी मजहबी गाइडलाइन की मोहताज नहीं है।
असल में इस उपन्यास की कहानी के बहाने भारतीय समाज के उस धार्मिक ताने बाने को उकेरने की कोशिश की गई है जो मजहब और नफरत की राजनीति से उभरने से पहले देश के शहरों और कस्बों की विरासत था, जहां मुसलमान अपने धर्म के प्रति सजग रहते हुए भी इस तरह के बचाव की मुद्रा में नहीं होते थे जैसे आज हैं।
उपन्यास का नायक अलीम अहमद उर्फ अल्लन उसी माहौल का रुपक रचता है और अपनी सहज और स्वत स्फूर्त धार्मिकता के साथ हिंदू और मुसलमान दोनों धर्मों की सीमाओं से परे चला जाता है। उपन्यास में कम उम्र में होने वाले प्रेम की तीव्रता, एक मुस्लिम परिवार की आर्थिक तंगी, पीढ़ियों के टकराव और एक बच्चे के मनोविज्ञान का भी बखूबी अंकन हुआ है।(
फ्लैप से)
अल्लन के सपनों पर सामाजिक बंदिशों और रंजिशों की जो परतें चढ़ती है वो आगे चलकर दोज़ख़ में पड़े इंसान के संस्करण बनने की प्रक्रिया का उदाहरण पेश करती है। मिहिर कुमार जो कि आजतक में एसोसिएट प्रोड्यूसर हैं,उन्होंने भी इसी सवाल को उठाया है कि-
छोटा सा अल्लन...छोटे सपने-ललचाने वाले सपने...मचलने वाले अरमान...हहराती गंगा की लहरों में कूदने की ख्वाहिश...पतंगों और कंचों में बसी दुनिया...सख्त अब्बा और मुलायम मिजाज अम्मा की दुनिया..इस मासूम सी दुनिया में क्या कोई दोजख भी हो सकता है...क्या जन्नतों में भी नर्क की गुंजाइश है....ये सब सवाल जैगम चकित करने वाले भोलेपन के साथ उठाते हैं..ठीक उसी भोलेपन से जैसे वो पीली धूप के पेड़ों की तलाश में नज्म लिखते हैं....
कई सवालों के बीच आज इस उपन्यास का लोकार्पण है जिस पर कि आइबीएन7 के आशुतोष मुस्लिम मामलों से जुड़ी शोधकर्ता शीबा असलम फहमी और प्रसिद्ध कवयित्री अनामिका विस्तार से चर्चा करेगी।

सैयद ज़ैग़म इमाम का औपचारिक परिचय-
2 जनवरी 1982 को बनारस में जन्म। शुरूआती पढ़ाई लिखाई बनारस के कस्बे चंदौली (अब जिला) में। 2002 में इलाहाबाद यूनिवर्सिटी इलाहाबाद से हिंदी साहित्य और प्राचीन इतिहास में स्नातक। 2004 में माखनलाल चतुर्वेदी नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ जर्नलिज्म (भोपाल, नोएडा) से मास्टर ऑफ जर्नलिज्म की डिग्री। 2004 से पत्रकारिता में। अमर उजाला अखबार और न्यूज 24 चैनल के बाद फिलहाल टीवी टुडे नेटवर्क (नई दिल्ली) के साथ। सराय सीएसडीएस (सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज) की ओर से 2007 में इंडिपेंडेंट फेलोशिप। फिलहाल प्रेम पर आधारित अपने दूसरे को उपन्यास को पूरा करने में व्यस्त। उपन्यास के अलावा कविता, गजल, व्यंग्य और कहानियों में विशेष रुचि। कई व्यंग्य कवितएं और कहांनियां प्रकाशित।
संपर्कः zaighamimam@gmail.com
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आठ-आठ रुपये लेकर स्कूली बच्चों को सदभावना अभिव्यक्ति के स्टीकर बांटे जा रहे हैं। रूपनगर (दिल्ली) के सरकारी स्कूल से निकलनेवाली लड़कियों से रुक कर जब हमने पूछा कि इसे अपनी आइडी पर क्यों चिपकाया है – उसका जवाब था, टीचर ने कहा है लगाने के लिए। स्टीकर की कीमत भी उसी ने बतायी। कैंपस में कुछ लड़के हमें इसे दस रुपये में ले लेने का अनुरोध कर रहे थे।

डीयू कैंपस की आर्ट्स फैकल्टी के मेन गेट के आगे बहुत भीड़ है। किसी छात्र राजनीतिक पार्टी के लोग जमा होकर वहां मोमबत्तियां जलाने का काम करने जा रहे हैं। हवन की तरह लकड़ियां पहले से जल रही है। देश के कई मीडिया चैनल पहले से तैनात हैं। पीछे से एक बंदा दूसरे बंदे को धक्का देता है – भैनचो… बार-बार आगे आ जा रहा है,टीवीवाले क्या तुम्हारे… की फोटो खींचेंगे…
अबे सुन, ये ले, इतने में जितनी कैंडिल आ जाए, ले लियो।
चैनल की माइक लिये लोगों के पास ही बंदे मंडरा रहे हैं। कुछ को इसका फल भी मिला है और उसकी बाइट ली जा रही है। चारों तरफ दैनिक जागरण के बैनर पाट दिये गये हैं। बैनर टांगता हुआ एक बंदा कहता है- अबे भोसड़ी के हंसा मत, ठीक से बंध नहीं रहा।

ये सब कुछ देश के उन शहीदों को याद करने के लिए किया जा रहा है, जिन्होंने शायद ही कभी सोचा होगा कि मेरे शहीद होने के साथ ही किसी खास पार्टी के खांचे और रंगों की लकीरों से बने बैनरों के बीच फिट कर दिया जाएगा?

दो दिन पहले मुंबई के लियोपोल्ड कैफे ने 26/11 के चिन्हों और शहीदों की याद में 300 रुपये के पैग की सेवा शुरू की। पैग मग पर शहीदों की तस्वीरें और धमाके और खून के धब्बों को प्रतीक के तौर पर मग पर छपवाया। अफ़सोस कि एनडीटीवी इंडिया ने कैफे की समझ को पहल बताया। कल रात एनडीटीवी के फुटेज में 26/11 के शहीदों को याद करने के लिए क्या तैयारियां चल रही हैं, इसके बारे में विस्तार से बताया गया। एंकर रुचि डोंगरे ने बताया कि शहीदों को श्रद्धांजलि देने के लिए कॉलेजों के स्टूडेंट सड़कों पर उतर आये हैं। कुछ एमटीवी टच के स्टूडेंट्स अंग्रेज़ी में स्लोगन लिख रहे थे, एंकर हम हिंदी समझनेवाली ऑडिएंस को उसका हिंदी तर्जुमा करके बता रही थी। इस फुटेज को देखते हुए मुझे रंग दे बसंती का पूरा का पूरा डीजे ग्रुप याद आ जा रहा था। वो भी ऐसे ही स्प्रे पेंट करते हैं। गृहमंत्री की लापरवाही और दलाली के चलते फ्लाइट लेफ्टीनेंट अजय राठौर की मौत पर इंडिया गेट पर कैंडल जलाते हैं।

मैं ये बिल्कुल भी नहीं कहता कि इस दिन ऐसा नहीं किया जाना चाहिए। लेकिन इस फिल्म का मीडिया पार्टनर एनडीटीवी इंडिया, 26/11 के मौके को सिनेमाई अंदाज़ में पेश करता है। सवाल है कि हम इस रवैये को मीडिया मैटर मानकर चलता कर जाएं या फिर इससे आगे भी सोचने की ज़रूरत है?

26/11 को लेकर टेलीविजन चैनलों ने लाइव कवरेज के नाम पर जो कुछ भी दिखाया, उसकी कई स्तरों पर समीक्षा हुई है। इस बार के इंडिया टुडे ने इस पर विशेषांक निकाला है। पिछले साल मीडिया मंत्र ने कैमरे में 26/11 पर विशेषांक निकाले हैं। टेलीविजन चैनलों ने जिस तरह इसके कवरेज दिखाये, उसकी जमकर आलोचना हुई। एक साल होने पर सप्ताह भर पहले से ही टीवी चैनलों ने जिस तरह के महौल बनाने शुरू किये, उसे देखते हुए संयमित होकर प्रसारण का (23 नवंबर) सरकारी फरमान जारी किया गया। ये सारी बातें ठीक है कि मीडिया किसी भी घटना को एक कन्जप्शन मोड तक ले जाता है। वो उसे सिर्फ सूचना और देखे जाने तक का हिस्सा बनने नहीं रहने देना चाहता। वो एक दर्शक को बाज़ार के दरवाजे तक लाकर पटक देना चाहता है। इस पूरी अवधारणा को समझने के लिए ऑर्थर असा बर्जर की किताब मैनुफैक्चरिंग डिजायर पढ़ना दिलचस्प होगा। यहां आकर देश के चैनलों से हम ये सवाल कर सकते हैं कि क्या 26/11 का आतंकवादी हमला मीडिया इवेंट भर है? ऐसा पूछा जाना इसलिए भी ज़रूरी है कि जिस तरह के मैलोड्रामा और मैनुपुलेशन जारी हैं, उसमें मानवीय संवेदना की सही समझ ग़ायब हो जाती है। छवि के जरिये यथार्थ के दावे को लेकर सूसन सौंटगै की पूरी अवधारणा है, इस पर बात होनी चाहिए। लेकिन इसके साथ ही कुछ सवाल और हैं कि

♦ 26/11 को लेकर बच्चों के बीच आठ रुपये के सदभावना टिकट बेचा जाना क्यों ज़रूरी है?
♦ इसके पीछे के सांकेतिक अर्थे क्या हैं?
♦ क्या ये आतंकवादी घटनाएं दो कौमों के बीच की पैदाइश है?
♦ ये किसने शुरू किया कि आज के दिन इस तरह के टिकट जारी किए जाएं और बच्चों के बीच सद्भावना बनाये रखने के पाठ पढ़ाये जाएं। ये समाज में किस तरह के असर पैदा करेंगे, इस पर चर्चा ज़रूरी है।
♦ दूसरी बात कि आठ रुपये के इस टिकट से जो पैसे आएंगे, उसके पीछे का क्या हिसाब है? ये काम तो आइडिया मोबाइल फोन भी करने जा रहा है। हम आतंकवाद से बचने के लिए कोई और पाठ और महौल तो तैयार नहीं कर रहे?

जगह-जगह संगठनों और पार्टियों की ओर से कैंडिल जलाये जा रहे हैं। चैनलों ने एक लौ जलाने का कॉन्सेप्ट ईजाद किया है। क्या ये देश के किसी भी शहीद को याद करने का सही तरीका है, जब इसमें ताम-झाम पैदा करके शहर के हर चौक को जाम कर दें। लौ जल जाने के बाद भी कैमरे के चूक जाने पर दोबारा जलाएं… हम चाहते क्या हैं?

दरअसल हमारा देश कर्मकांडों को इतनी तवज्‍जो देता आया है कि हर घटना को एक कर्मकांड में बदल देने के लिए हम बेचैन हो उठते हैं। हम अपनी भावनाओं का, संवेदना और अनुभूतियों का एक मूर्त रूप (physical form) चाहते हैं। हम इन अनुभूतियों को निराकार रूप में संजोने के अभ्यस्त नहीं हैं। हमारी इसी मानसिक कमज़ोरी से कर्मकांड के विस्तार की गुंजाइश बढ़ जाती है। समाज की हर घटना कर्मकांडों का हिस्सा बन जाती है। उसके बाद एक पैटर्न हमारे सामने तैयार होता है कि हमें किसी के शहीद होने पर या मर जाने पर क्या करना है। यहां पर आकर कर्मकांड और बाज़ार के बीच एकरूपता कायम होती है। कर्मकांड का काम है हमारी हर भावनाओं और अनुभूतियों को एक जड़ रूप देना और बाज़ार का काम है हमारी इन अनुभूतियों को वस्तु (comodity) के आगे रिप्लेस करके कर्मकांड के साथ गंठजोड़ कर लेना। शायद यही वजह है कि इस देश में कभी और आज भी हर मुसीबत को लेकर एक नया देवता पैदा होता जाता है और उसे खुश करने की पूजन विधि, तो दूसरी तरह हर घटना के पीछे सैकड़ों सिंबॉलिक प्रोडक्टस और बाज़ार की हरकतें। उसके बाद हमारी भावनाएं हवा हो जाती हैं, सब कुछ इस कर्मकांड और वस्तुओं में रिप्लेस हो जाता है। दुर्भाग्य से देश का टेलीविजन इसी के बीच अपनी भूमिका खोजता नज़र आता है। इससे आगे वो कभी नहीं जाता।

ये सच है कि टेलीविजन अपने मतलब की बात करता है, लेकिन आखिर क्यों शहीदों को याद किये जाने की घटना, समाज को मदद करने के तरीके, हाशिये पर के समाज की सुध लेने के अंदाज़ मीडिया स्ट्रक्चर में रह कर ही किये जाते हैं। हम ये सब कुछ इसी अंदाज़ में फॉर्मेट करते हैं, जिससे कि मीडिया कवरेज में आसानी हो। इस नज़रिये से अगर आप सोचें तो दिन-रात मीडिया को कोसने, गरियाने और कोसनेवाली संस्थाएं, विचार और लोग काम करने के तरीके में उसी के स्ट्रक्चर को फॉलो करते हैं। इसलिए सवाल सिर्फ इस बात का नहीं है कि मीडिया किसी भी बात को हायपरबॉलिक बना देता है, सवाल इस बात का भी है कि हम मीडिया के फॉर्मेट में रह कर क्यों एक्ट करना शुरू कर देते हैं, सोचना शुरू करते हैं? सिविल सोसायटी में शहीदों के नाम पर एक मोमबत्ती जला देने और टीवी के फ्रेम के आ जाने से उन माओं की आंखों के आंसू थम जाते हैं, उन विधवाओं के दर्द ख़त्म हो जाते हैं, जिसके जवान बेटे और पति ने अपनी जान गंवायी? सवाल इस बात का है कि संवेदना के स्तर पर समाज इस दर्द को किस हद तक महसूस करता है? क्या कोई भी इसलिए शहीद होता है कि उसके नाम पर कर्मकांडों के जाल बिछाये जाएं और शहादत को एक ब्रैंड में तब्दील करके बाज़ार पैदा किये जाएं।..
मूलतः प्रकाशित- मोहल्लाlive
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26/11 के जिन शहीदों की तस्वीरों को देखकर उनके बच्चे,पाल-पोसकर बड़ा करनेवाली माएं और उनकी विधवा हो चुकी पत्नी अब भी बिलख रही हैं,देश का तथाकथित संभ्रांत समाज उन तस्वीरों के शराब के मग पर छापे जाने से खुश है। वो उस मग में में बीयर और शराब पीकर उन्हें याद कर रहा है। ये अलग और नए किस्म से शहीदों को याद करना है। इसके लिए उन्हें तीन सौ रुपये देने पड़ रहे हैं। एनडीटीवी इंडिया ने मुंबई के लियोपोल्ड कैफे की इस पहल का विरोध करने के बजाय सराहा है। शिव सेना के खिलाफ स्टोरी एंगिल लेने के चक्कर में इसके खिलाफ एक लाइन भी बोलना-बताना जरुरी नहीं समझा।..और तो और उसके पक्ष में कसीदे पढ़ने का काम किया।

शराब के लिए ड्रिंक मग पर 26/11 के चिन्हों और शहीदों की फोटो छापे जाने और तीन सौ रुपये पैग बेचे जाने पर शिव सैनिकों ने एक बार फिर हंगामा किया। मुंबई के 26/11 आतंकवादी हमले में मुंबई का लियोपाल्ड कैफे भी हमले का शिकार रहा है। उसकी दीवारों पर आज भी आतंकवादियों की गोलियों के निशान मौजूद है। मैनेजमेंट उसे याद के तौर पर बचाकर रखना चाहता है। इसी क्रम में उसने ड्रिंक मग के पर इस घटना के कुछ चिन्ह प्रिंट करवाकर ग्राहकों के लिए उपलब्ध करवाए। टेलीविजन फुटेज पर कोका कोला के डिश पेपर के उपर रखे ये मग धमाके और खून के धब्बे के तौर पर दिखाई दे रहे थे। शिव सैनिकों ने इसका विरोध इस आधार पर किया कि रेस्तरां याद के नाम पर शहीदों की शहादत को भुनाना चाह रहा है। उसका भी बाजारीकरण किया जा रहा है। जाहिर है ये देश की संस्कृति के खिलाफ है। ये संभव था कि अगर शिव सेना इस पर विरोध नहीं जताती और मीडिया से जुड़े लोगों ने इसकी नोटिस ली होती तो वो भी इससे असहमति जताते हुए इसके खिलाफ स्टोरी बनाते,दिखाते।

लेकिन एनडीटीवी इंडिया में सात बजे के शो में पहले एंकर रुचि डोंगरे ने इसे चुनावी हार की बौखलाहट से जोड़कर दिखाया,बताया उसी बात को विनोद दुआ ने अपने खास कार्यक्रम विनोद दुआ लाइव में भी इसी अंदाज में पेश किया। उन्होंने तो इस हमले का ऐतिहासिक विकासक्रम बताते हुए विधान सभा हंगामा,एक निजी चैनल पर हमला तक ले गए। स्थिति साफ है कि शिव सेना अब चाहे जो कुछ भी कर ले,जिस भी मुद्दे की बात कर लें,मीडिया उसके खिलाफ आग उगलने का फार्मूला गढ़ लिया है। मीडिया का ऐसा करना जरुरी भी है क्योंकि जब तो वो विरोध के तरीकों में बदलाव नहीं लाती है,उसका विरोध करना अनिवार्य है। शिव सेना ने इतिहास से कुछ भी नहीं सीखा। मीडिया और कांसीराम के प्रकरण को कभी याद नहीं किया कि मीडिया से पंगा लेने का क्या अंजाम होता है? लेकिन एक सवाल तो बनता ही है कि क्या एनडीटीवी इंडिया जैसा चैनल लियोपोर्ड के इस तीन सौ रुपये के पैग और मग का विरोध इसलिए नहीं करता कि वो शिव सेना को उत्पाती दिखाना चाहता है? अगर उसने भी इसके विरोध में एक लाइन भी कहा होता तो शिव सेना के समर्थन में खड़ा नजर आता? मामला चाहे जो भी हो लेकिन लियोपोर्ड का समर्थन इसलिए ज्यादा जरुरी और बाजिब है क्योंकि वो भी वही कर रहा है जो कि चैनल के लोग कर रहे हैं। अपने-अपने स्तर से भुनाने की कोशिश। ऐसे में निष्पक्ष होकर बात करने की गुंजाइश ही कहां बच जाती है?

स्टिल फोटो- पुष्कर पुष्प के सौजन्य से
मूलतः प्रकाशित- मीडिया मंत्र
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मूलतः प्रकाशित मोहल्लाLIVE
पोस्टर- साभारः मीडियाखबर डॉट कॉम

IBN7 और IBN7 लोकमत के मुंबई और पुणे दफ्तर में शिवसेना के गुर्गे ने जो कुछ भी किया, वेब लेखन के जरिये हम उसका विरोध करते हैं। दफ्तर के अंदर घुसकर शिव सैनिकों ने महिला मीडियाकर्मियों के साथ जो दुर्व्यवहार किया, हम उसके ख़‍िलाफ़ न्याय की मांग करते हैं। लोकतांत्रिक प्रक्रिया के भीतर गुंडई और जाहिलपने को लेकर आये दिन किये जानेवाले प्रयोग और पेश किये जानेवाले नमूनों का हम पुरज़ोर विरोध करते हैं। पिछले 15 दिनों के भीतर और उससे भी पहले शिवसेना और उसी की कोख से पैदा हुआ मनसे ने लोकतंत्र के दो स्तंभों – विधायिका और मीडिया को कुचलने और ध्वस्त करने की जो कोशिशें की है, हम उसका विरोध करते हैं। संजय राउत जैसे देश के उन तमाम संपादकों और पत्रकारों को धिक्कारते हैं, जिनकी औकात रहनुमाओं के पक्ष तक जाकर ख़त्म हो जाती है। दिमाग़़ी तौर पर सड़ चुके लोगों के लेखन को फर्जी करार देते हैं जिनके भीतर तर्क करने की ताक़त नहीं रह गयी है। हम चाहते हैं कि ऐसे लोगों को पत्रकारिता बिरादरी से तत्काल बेदखल किया जाए। हमारे इस विरोध के बावजूद अगर मुंबई सरकार इस दिशा में सक्रिय होकर कार्यवाही नहीं करती है तो हम अपनी आवाज़ और तेज़ करेंगे। हम मीडिया की आवाज़ को किसी भी स्तर पर दबने नहीं देंगे। हम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को किसी के हाथों का खिलौना बनने नहीं देंगे। हम देश की मीडिया को किसी भी रूप में तहस-नहस नहीं होने देंगे।

अपनी बात कहने और सच बयान करने की इच्छा रखनेवाले देश के बाकी पत्रकारों और मानव अधिकारों के पक्ष में बात करनेवालों की तरह मैं भी शिवसेना की बर्बरता का विरोध करता हूं। हम सबों को अपने-अपने स्तर से इस तरह की गतिविधियों को रोका जाना चाहिए। लेकिन ये सब लिखते-कहते हुए मैं उन शब्दों, अभिव्यक्तियों और मेटाफर पर थोड़ा इत्‍मीनान होकर सोचना चाहता हूं, जिसे कि मीडिया के लोग इस्तेमाल करते हैं। इस मामले में मैं समर्थन के स्तर पर जज़्बाती होते हुए भी अभिव्यक्ति के स्तर पर तटस्थ होना चाहता हूं। मुझे लगता है कि ऐसा करना शिवसेना जैसी बवाल मचाने वाली पार्टी के समर्थन में जाने के बजाए मीडिया और खुद को देखने-समझने की कोशिश होगी। इसलिए तोड़फोड़ की घटना का लगातार दो दिनों तक विरोध किये जाने के बाद अब इस स्तर पर विचार करें कि हम किस लोकतंत्र पर हमले की बात कर रहे हैं? लोकतंत्र के पर्याय के तौर पर बतायी जानेवाली मीडिया के किस हिस्से पर हमला किये जाने का विरोध कर रहे हैं? मीडिया अपने ऊपर हुए हमले को लोकतंत्र पर किया जानेवाला हमला बता रहा है, इसे किस रूप में समझा जाए? कुल मिलाकर हम पहले तो लोकतंत्र को रिडिफाइन करना चाहते हैं और उसके बाद उसके खांचे में काम कर रही मीडिया को समझना चाहते हैं?

एजेंडा (IBN7 का कार्यक्रम) में एंकर संदीप चौधरी ने कहा कि आगे जब हिंदी पत्रकारिता का इतिहास लिखा जाएगा तो इसे काला शुक्रवार के तौर पर समझा जाएगा। इसके पहले भी जो फ्लैश चलाये गये, उसमें बार-बार इस हमले को लोकतंत्र पर किया जानेवाला हमला बताया गया। संदीप चौधरी ने काला शुक्रवार शब्द रूस की बोल्शेविक क्रांति से उधार के तौर पर लिया। बाकी के न्यूज़ प्रोड्यूसरों और रिपोर्टरों ने भी लोकतंत्र पर हमला या चौथे स्तंभ पर हमला जैसे शब्दों का प्रयोग कहीं न कहीं ऐतिहासिक संदर्भों से उठा कर किये। यहां दिक्कत इस बात की बिल्कुल भी नहीं है कि इतिहास से इस तरह के शब्द नहीं लिए जाने चाहिए। इतिहास के शब्दों और अभिव्यक्तियों को अगर मीडिया के लोग खींचकर वर्तमान तक लाते हैं तो हमें उसका स्वागत किया जाना चाहिए। लेकिन असल सवाल है कि क्या जिस लोकतंत्र पर हमले और उसे बचाने की बात की जा रही है, वो महज कुछ वैल्यू लोडेड शब्दों के प्रयोग कर दिए जानेभर से जिंदा रहेगा? क्या हम लोकतंत्र, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, आजादी इन सबों को सिर्फ शब्दों के तौर पर जिंदा रखना चाहते हैं? हम इसे बोलने के लिहाज से चटकीला भर बनाना चाहते हैं? क्या हम लोकतंत्र, सरोकार, मानवीयता और इस तरह के वैल्यू लोडेड शब्दों को पुतलों की शक्ल में बदलना चाहते हैं? ऐसे पुतले जिसे कि दागदार, धब्बे लगे, बदबूदार समाज और फ्रैक्चरड डेमोक्रेसी के बीच लाकर रख दिया जाए, तो सब कुछ अचानक से चमकीला हो जाए। चित्ते-चित्ते रंगों के बीच एकदम से चटकीले रंगों का प्रभाव पैदा हो जाए। क्या इन शब्दों का प्रयोग अपनी ज़ुबान को सिर्फ चटकीला बनाने भर के लिए है?

टेलीविजन मीडिया से ये सवाल पूछा जाना इसलिए भी ज़रूरी है कि लोकतंत्र कोई वैक्यूम में पैदा हुई चीज नहीं है। इसके भीतर हाड़-मांस, दिल-दिमाग़, जज़्बात और सोच लिये लोग मौजूद होते हैं। इसलिए जैसे ही आप लोकतंत्र शब्द का प्रयोग करते हैं, आपको लोकतंत्र को लोकेट तो करना ही होगा। पहले तो आपको और फिर हमें समझाना होगा कि आप लोकतंत्र से क्या समझ रहे हैं? आप जिस लोकतंत्र की बात कर रहे हैं, उसके भीतर कौन से लोग शामिल हैं? आप किसके वीहॉफ पर अपने को लोकतंत्र का पर्याय बता रहे हैं? क्या आप खुद से पैदा किये जानेवाले लोकतंत्र को संबोधित कर रहे हैं या फिर अभी भी देश के भीतर बहाल लोकतंत्र को लेकर बात कर रहे हैं? मुझे नहीं लगता कि मीडिया पर किये जानेवाले हर हमले को लंबे समय तक लोकतंत्र पर किया जानेवाला हमला बताया जाना आगे जाकर आसान होगा। तत्काल जज़्बाती होकर हम मीडिया के पक्ष में होते हुए भी इत्‍मीनान होने पर सवाल तो ज़रूर करेंगे कि हम किस मीडिया के पक्ष में खड़े हैं? उसके सालभर का चरित्र क्या है? हम न तो लोकतंत्र को मुहावरे की शक्ल देना चाहते हैं और न ही मीडिया को मुहावरे के तौर पर इस्तेमाल करने देना चाहते हैं? इसलिए ज़रूरी है कि हम ऐसे में हम मीडिया हमलों के बीच लोकतंत्र के संदर्भों को समझने की कोशिश करें।

एक बात पर आप लगातार ग़ौर कर रहे होंगे कि पहले के मुकाबले निजी चैनलों पर राजनीतिक पार्टियों, धार्मिक संगठनों और संस्थाओं की ओर से हमले तेज़ हुए हैं। नलिन मेहता ने अपनी किताब INDIA ON TELEVISION और पुष्पराज ने अपनी किताब नंदीग्राम डायरी में सकी विस्तार से चर्चा की है। हाल ही में हमने देखा कि गुजरात में नरेंद्र मोदी की सरकार ने आजतक को लंबे समय तक केबल पर आने से रोक लगा दी। आसाराम बापू के चेले-चपाटियों ने आजतक की संवाददाता पर हमले किये और घायल कर दिया। इसके पीछे की लंबी रणनीति हो सकती है। लेकिन एक समझ ये भी बनती है कि जिस तरह मीडिया और चैनलों के कार्पोरेट की शक्ल में तब्दील होने की प्रक्रिया तेज़ हुई है, राजनीतिक पार्टियों के प्रति उसकी निर्भरता पहले से कम हुई है। साधनों के स्तर पर तो कम से कम ज़रूर ही ऐसा हुआ है। दूसरी तरह कार्पोरेट और विश्व पूंजी की ताकत से इन चैनलों का मनोबल भी बढ़ा है। इसके आगे राजनीतिक पार्टियों की क्षमता का आकलन इनके लिए आसान हो गया है। इसलिए अब ये स्थिति बन जाती है कि कोई भी चैनल किसी राजनीतिक पार्टी, धार्मिक संगठन या संस्थानों पर बहुत ही साहसिक तरीके से स्टोरी कवर करता है, प्रसारित करता है। ऐसे में ये बिल्कुल नहीं होता कि राजनीति स्तर की निर्भरता उसकी एकदम से ख़त्म हो जाती है, लेकिन इतना ज़रूर होता है कि मैनेज कर पाना और संतुलन बना पाना पहले के मुकाबले आसान हो गया है। यहां राजनीति और मीडिया की ताक़त की आज़माइश होने के बजाय राजनीति और कार्पोरेट की आज़माइश होनी शुरु होती है। कार्पोरेट का पलड़ा मज़बूत होने की स्थिति में चैनल और मीडिया बहुत आगे तक राजनीतिक पार्टियों की धज्जियां उड़ाते हैं, धार्मिक संगठनों पर बरस पाते हैं। हमें ये सबकुछ लोकतंत्र का पक्षधर होने के स्तर पर दिखाया-बताया जाता है। एक हद तक सही भी है कि कम से कम राजनीतिक मामलों में दूरदर्शनी दिनों के मुकाबले निजी चैनल ज़्यादा मुखर हुए हैं। चैनल की इस बुलंदी का स्वागत किया जाना चाहिए।

लेकिन दूसरी स्थिति पहली स्थिति से कहीं ज़्यादा ख़तरनाक हैं। अगर बारीकी से समझा जाए तो ये लोकतंत्र के नहीं बचे रहने से जितना नुक़सान नहीं है उससे कहीं ज़्यादा नुकसान टेलीविज़न की ओर से पैदा किये जानेवाले और तेज़ी से पनपनेवाले लोकतंत्र से है। टेलीविज़न का लोकतंत्र, जनता के लोकतंत्र को लील जाने की फिराक में है। इसके हाल के कुछ नमूनों पर गौर करें तो हमें अंदाजा लग जाएगा। तालिबान और आतंकवाद पर स्पेशल स्टोरी दिखाते हुए एनडीटीवी इंडिया के रवीश कुमार ने कहा कि तालिबान में देश का कोई भी रिपोर्टर नहीं है लेकिन वहां की ख़बरें रोज़ दिखायी जा रही है। ये खबरें यूट्यूब की खानों से फुटेज निकालकर बनायी जा रही है। हंस के वार्षिक समारोह में अरुंधति राय ने कहा कि सलवाजुडूम इलाके में देश के किसी भी पत्रकार को जाने की इजाज़त नहीं है। पाखी के वार्षिकोत्सव में पुण्य प्रसून वाजपेयी ने कहा कि विदर्भ को आइडियल शहर घोषित किया गया लेकिन वहां चालीस हज़ार किसानों ने आत्महत्याएं की। आज मीडिया में गांव नहीं है, मीडिया से जुड़े लोग गांव की स्थितियों को संवेदना के स्तर पर नहीं ला पा रहे हैं। 2 नवंबर को जब शर्मिला इरोम को बर्बर प्रशासन के खिलाफ़ अनशन पर बैठे दस साल पूरे हो गये, देशभर के अनुभवी मीडियाकर्मी शाहरुख खान के बर्थ केक काटने के फुटेज लेने के लिए बेकरार होते रहे। एक ही साथ नक्सलवाद और सरकारी कार्रवाइयों के ख़ौफ़ में झारखंड के आदिवासी आशंका के दिन खेप रहे होते हैं, देशभर के चैनल पी.चिदंबरम की बाइट को उलट-पुलट कर सुलझाने में जुटे रहे। देश के एक चैनल पर ताला लग जाने से करीब चार सौ मीडियाकर्मी रातोंरात सड़कों पर आ जाते हैं, वो कभी भी लोकतंत्र का हिस्सा नहीं बनने पाता। तो क्या ये मीडिया तय करेगा कि लोकतंत्र के भीतर का कौन सा हिस्सा टेलीविजन पर आकर लोकतंत्र की शक्ल लेगा और कौन सा नहीं? अगर सचमुच ऐसा है तो हमें मीडिया के लोकतंत्र पर नये सिरे से विचार करना होगा।

आप अगर चैनल की इन ख़बरों के बीच सरोकार से जुड़ी ख़बरों और हिस्सेदारी की मांग करेंगे तो टीआरपी का शैतान सामने आ जाएगा। इनमें से सारी घटनाएं टीआरपी पैदा करने के लिहाज से बांझ है। इसलिए टीआरपी तो उन्हीं ख़बरों से पैदा होती है, जिनमें कि मेट्रो और मध्यवर्ग की ऑडिएंस दिलचस्पी ले। संकेत साफ है। मंजर साफ है। फीदेल कास्त्रो के पद को उधार लेकर कहा जाए तो ये सांस्कृतिक संप्रभुता का संकट है। टेलीविज़न देश की संप्रभुता को बचाये रखने के दावे से लैस है। लेकिन उसके भीतर के ठोस के जार-जार हो जाने की चिंता बिल्कुल भी नहीं है।

देश की सत्तर फीसदी आबादी को जब पीने को पानी नहीं है, बच्चों के हाथों में स्लेट नहीं है, स्त्रियों की आंखों में सपने नहीं है – टेलीविजन पर कीनले है, विसलरी है, पॉकेमॉन है, बार्बी है, मानव रचना यूनिवर्सिटी है, लक्मे है, झुर्रियों को हटाने के लिए पॉन्डस है। एक धब्बेदार, बदबूदार और लाचार लोकतंत्र टेलीविज़न पर आते ही चमकीला हो उठता है। पिक्चर ट्यूब से गुज़रते ही देश का सारा मटमैलापन साफ हो जाता है। सवाल यहां बनते हैं कि टेलीविज़न के दम पर जो आइस संस्कृति (information, entertainment, consumerism) एक ठंडी संस्कृति के बतौर पनप रही है, क्या उसी लोकतंत्र पर हमला हो रहा है और उसी को बचाये जाने की बात की जा रही है? हम वर्गहीन समाज जैसे मार्क्सवादी यूटोपिया से बाहर निकलकर भी सोचें तो क्या ज़रूरी है कि इस आइस संस्कृति के बूते देशभर के लोगों को खींच-खींचकर मध्यवर्गीय मानसिकता के खांचे में लाया जाए। ये मानसिकता चार रुपये लगा कर अपनी पसंद और नापसंद जाहिर करे। क्या हमें इस लोकतंत्र पर हमला किये जाने से अफ़सोस होगा? दुर्भाग्य से इस लोकतंत्र पर हमला कभी नहीं होना है लेकिन बदकिस्मती है कि जिस लोकतंत्र पर हमले हो रहे हैं उसे शायद ही कभी बचाया जा सकेगा। इसलिए लोकतंत्र के रैपर में मीडिया जिसे बचाना चाहती है, पहले उसे साफ कर दे, तो पक्षधरता कायम करने में आमलोगों को सहूलियतें होगी। क्योंकि जज़्बाती होने की वैलिडिटी जल्द ही ख़त्म होने जा रही है।
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मीतू खुराना की जो कहानी है वो पितृसत्तात्मक समाज में लिंग-भेद और पुत्र कामना में अंधे हो चुके परिवार की कहानी से बिल्कुल भी अलग नहीं है। अलग है तो सिर्फ इतना भर कि मीतू खुराना खुद पेशे से डॉक्टर है,उसका पति भी डॉक्टर है। तथाकथित सभ्य समाज से ताल्लुक रखता है। लेकिन लड़का-बच्चा जनने और लड़की के पैदा होने की स्थिति में अपने परिवारे के लोगों के साथ वो खुद भी कितना बर्बर हो जाता है,ये हमारी उम्मीद को ध्वस्त करता है। उस कल्पना को चकनाचूर करता है जो कि साक्षरता को लेकर भारत सरकार की ओर से जारी किए गए विज्ञापनों में दिखाया-बताया जाता है। हम पढ़-लिखकर भी मानवीय नहीं हो सकते,संवेदनशील नहीं हो सकते। हम उसी बर्बर समाज का हिस्सा बने रहेंगे। ये सबकुछ सोचकर-जानकर कैसा लगता है?

मीतू खुराना की दर्दनाक कहानी को झारखंड की चर्चित और जुझारु पत्रकार अनुपमा ने मोहल्लाlive पर पेश किया है। हम उसके एक हिस्से को साभार के साथ यहां पेश कर रहे हैं,बाकी आप सीधे लिंक के जरिए वहां जाकर पढ़ सकते हैं। पेश करने के पीछे सरोकार है कि हम अपने-अपने स्तर से मीतू की इस लड़ाई में समर्थन और सहयोग दे सकें।

हर लड़की यह सोचती है कि उसकी शादी अच्छे घर में हो। पति उसे चाहनेवाला हो और एक सपनों का घर हो। जिसे वह सजाये-संवारे और एक खुशहाल परिवार बनाये। मैंने भी कुछ ऐसे ही ख्‍़वाब बुने थे। अभी-अभी तो उसे संजोना और बुनना शुरू ही किया था मैंने। पर कब सब कुछ बिखरना शुरू हुआ, पता ही नहीं चला। खैर… सीधी-सीधी बात बताती हूं। शादी नवंबर 2004 में डॉ कमल खुराना से हुई। कहने को तो अच्छा घर था, पर यहां आते ही मुझे दहेज के लिए प्रताड़ित किया जाने लगा। मैं यह सब जुल्म चुपचाप सहती रही कि चलो कुछ दिनों में सब ठीक हो जाएगा। पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। शादी के दो महीने बाद ही यानी जनवरी 2005 में मैं गर्भवती हो गयी। गर्भ के साथ ही मेरे सपने भी आकार ले रहे थे। छठवें सप्‍ताह में मेरा अल्‍ट्रासाउंड हुआ और यह पता लगा कि मेरे गर्भ में एक नहीं बल्कि दो-दो ज़‍िंदगियां पल रही हैं। मेरा उत्साह दुगना हो गया। मैं बहुत खुश थी। परंतु मेरी सास मुझ पर सेक्‍स डिटर्मिनेशन करवाने के लिए दबाव डालने लगीं। मैंने इसके लिए मना कर दिया। ऐसा करने पर मुझे तरह-तरह से प्रताड़ित किया जाने लगा। इसमें मेरे पति की भूमिका भी कम नहीं थी। मेरा दाना-पानी बंद कर दिया गया और रोज़-रोज़ झगड़े होने लगे। मुझे जीवित रखने के लिए रात को मुझे एक बर्फी और एक गिलास पानी दिया जाता था। गर्भावस्था में ऐसी प्रताड़ना का दुख आप खुद समझ सकते हैं। इस मुश्किल घड़ी में भी मेरे मायके के लोग हमेशा मेरे साथ रहे। शायद इसी वजह से मैं आज जीवित भी हूं।....

जब मैं गर्भ चयन के लिए प्रताड़ना के बाद भी राज़ी नहीं हुई तो इन लोगों ने एक तरकीब निकाली। यह जानते हुए कि मुझे अंडे से एलर्जी है, उन्होंने मुझे अंडेवाला केक खिलाया। मेरे बार-बार पूछने पर कि इसमें अंडा तो नहीं है, मुझसे कहा गया कि नहीं, यह अंडारहित केक है। केक खाते ही मेरी तबीयत बिगड़ने लगी। मुझमें एलर्जी के लक्षण नजर आने लगे। मझे पेट में दर्द, उल्टी व दस्त होने लगा। ऐसी हालत में मुझे रात भर अकेले ही छोड़ दिया गया। दूसरे दिन पति और सास मुझे अस्पताल ले गये। लेकिन वो अस्पताल नहीं था। वहां मेरा एंटी नेटल टेस्ट हुआ था। मुझे लेबर रूम में ले जाया गया। यहां पर गायनेकेलॉजिस्ट (स्त्री रोग विशेषज्ञ) ने मेरी जांच कर केयूबी (किडनी, यूरेटर, ब्लैडर) अल्‍ट्रासाउंड करने की सलाह दी। लेकिन वहां मौजूद रेडियोलॉजिस्ट ने सिर्फ मेरा फीटल अल्‍ट्रासाउंड किया और कहा कि अब आप जाइए। जब मैंने देखा और कहा कि गायनेकेलॉजिस्ट ने तो केयूबी अल्‍ट्रासाउंड के लिए कहा था, आपने किया नहीं, तो उसने कहा कि ठीक है आप लेट जाइए और उसके बाद उसने केयूबी किया।

इस घटना के बाद तो प्रताड़नाओं का दौर और भी बढ़ गया। मेरे पति व ससुराल वाले मुझे गर्भ गिराने (एमटीपी) के लिए ज़ोर देने लगे। मेरी सास ने तो मुझसे कई बार यह कहा कि यदि दोनों गर्भ नहीं गिरवा सकती, तो कम से कम एक को तो गर्भ में ही ख़त्म करवा लो। दबाव बनाने के लिए मेरा खाना-पीना बंद कर दिया गया। मेरे पति मुझसे अब दूरी बरतने लगे और एक दिन तो उन्होंने रात के 10 बजे मुझे यह कह कर घर से निकाल दिया कि जा अपने बाप के घर जा। जब मैंने उनसे आग्रह किया कि मुझे मेरा मोबाइल और अपने कार की चाभी ले लेने दीजिए, क्‍योंकि गर्भावस्था में मैं खड़ी नहीं रह पाऊंगी तो उन्होंने कहा कि इस घर की किसी चीज़ को हाथ लगाया तो थप्पड़ लगेगा… मेरे ससुर ने हस्तक्षेप किया और कहा कि इसे रात भर रहने दो, सुबह मैं इसके घर छोड़ दूंगा। उनके कहने पर मुझे रात भर रहने दिया गया। सास की दलील थी कि दो-दो लड़कियां घर के लिए बोझ बन जाएंगी, इसलिए मैं गर्भ गिरवा लूं। अगर दोनों को नहीं मार सकती तो कम से कम एक को तो ज़रूर ख़त्म करवा लूं। जब मैं इसके लिए राज़ी नहीं हुई तो उन्होंने मुझसे कहा कि ठीक है यदि जन्म देना ही है, तो दो, लेकिन एक को किसी और को दे दो।

आज भी मुझे वह भयानक रात याद है। तारीख थी 17 मई 2005… इतना गाली-गलौज और डांट के बाद मैं घबरा गयी थी और उस रात को ही मुझे ब्लीडिंग शुरू हो गयी। इतना खून बहने लगा कि एबॉर्शन का ख़तरा मंडराने लगा। खुद तो मदद करने की बात छोड़िए, चिकित्सकीय सहायता के लिए मेरे पिता को भी मुझे बुलाने की इजाज़त नहीं दी गयी। मैंने किसी तरह तड़पते-कराहते रात गुज़ारी और सुबह किसी तरह फोन कर पापा को बुला पायी। पापा के काफी देर तक मनुहार के बाद मेरे पति मुझे नर्सिंग होम ले जाने को तैयार हो गये। लेकिन खीज इतनी कि गाड़ी को सरसराती रफ्तार से रोहिणी से जनकपुरी तक ले आये। उस बीच मेरी जो दुर्गति हुई होगी, उसकी कल्पना आप खुद भी कर सकते हैं।

आगे पढ़ने के लिए चटकाएं- बेटा दो या तलाक दो
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कल करीब चार घंटे के लिए यश मालवीय हमारे साथ होंगे। यश मालवीय देश के दुर्लभ प्रजाति के कवि-गीतकार हैं। ऐसा बिल्कुल भी नहीं है कि इस देश में बेहतर लिखनेवाले कवि-गीतकार की कमी है।..और ऐसा भी नही है कि किसिम-किसिम की कविता और गीत बेचकर ठाठ से जीवन चलानेवाले कवि-गीतकारों की किल्लत है। इस मामले में बल्कि संख्या में लगातार इजाफा ही होता जा रहा है। बल्कि अगर आप इस जमात के कवियों की तुलना भारतीय क्रिकेटरों से करे तो एक सीरिज के खत्म होने के पहले ही दूसरे और तीसरे सीरिज की टिकट और आने-जाने के सारे इंतजाम तय होते है। शायद यही वजह है कि आजकल कवि सम्मेलनों में किसी कवि के सम्मान और परिचय में जब भी कुछ कहा जाता है तो साथ में ये जरुर बताया जाता है कि अभी टोरंटो,कनाडा, फिजी, जेनेवा से लौटे हैं और परसों फ्रैंक्फर्ट की रवानगी है।

दर्शक दीर्घा में बैठा हिन्दी समाज और कई बार उससे इतर का भी समाज मुंह बाये ये सब सुनता है। कभी साहित्य के नाम पर आलोचना पढ़ने भर से परेशान हो उठता है। अपने भीतर कवि मिजाज को कुरेद-कुरेदकर संभावना की उस बीज की तलाश करता है जिससे कि तुकबंदी करने और हिन्दी शब्दों और लाइनों को फिट करने की पौध उग आए। इसलिए बाकी तो नहीं लेकिन एमए के दौरान मैंने देखा कि हिन्दू कॉलेज में हर तीन में से एक स्टूडेंट कवि हो जाता। एमबीए के लड़के को अकड़ के साथ बताया जाता है कि पता है ये जो कवि है न,दस हजार से नीचे पर तो आता ही नहीं है। देश में कुछ कवि तो ऐसे जरुर हैं जो तय रेट से नीचे पर आते ही नहीं हैं। बाकी उन कवियों की अच्छी-खासी जमात है जो शुरुआती दौर में तो पकड़-पकड़कर कविता सुनाते हैं लेकिन बहुत जल्द ही संगत कल्चर के कवि समूहों में भर्ती होने के लिए बेचैन होने लग जाते हैं। संगत कल्चर में एकमुश्त पैसे मिल जाते हैं और उस्ताद कवि उन्हें कुछ-कुछ बांट देते हैं। हर लाइन और हर शब्द के पीछे दाम लगाकर कविता को एक पैकेज में तब्दील करने की कला कि एक सफल और बेहतर कवि-गीतकार की असल पहचान बनती है।
संभवतः यही वजह है कि देश के साहित्यिक रुझान और गंभीर किस्म के माने जानेवाले कवि इस तरह के मंचीय कवियों के नाम पर नाक-भौं सिकोड़ते हैं। उनके बारे में बात करते ही गंभीर कवियों का बुखार के वक्त की तरह मुंह का स्वाद बिगड़ जाता है। वो उन पर कविता को कोठे पर बिठा देने का आरोप लगाते हैं। ये कवि बुद्धिजीवी समाज के बीच हाथों-हाथ लिए जाते हैं। सेमिनारों में बोलते हैं,अकादमियों में कविता की रचना-प्रक्रिया पर विमर्श करते हैं। वो कविता की औसत समझ रखनेवाले लोगों के बीच नहीं जाते। वो कविता करने और मुजरे के लिए लिखे जानेवाले बोल में फर्क करना जानते हैं,शायद। जीवन दोनों तरह के कवियों का चलता है। सक्रिय और जागरुक रहने पर दोनों तरह के कवियों की गाड़ियों की बढ़ती है।

यहीं पर आकर यश मालवीय के कवि और गीतकार होने की प्रजाति होने की प्रजाति अलग और दुर्लभ है। हजारों लोगों के बीच ये कवि अपनी कविता पढ़ना शुरु करता है। लोगों को इनकी कविताएं अटपटी लगती है। वो शोर-शराबा करने की कोशिश करते हैं। हरिवंश राय बच्चन हस्तक्षेप करते हैं कि आप ऐसा न करें। कली को खिलने का मौका तो दें। नवोदित कवि कविताएं सुनाता है और फिर अब के जमाने के वन्स मोर,वन्स मुहावरे में दोबारा पंक्तियों को सुनाने की फरमाइशें होती हैं। इस कवि को ये सब बिल्कुल भी अटपटा नहीं लगता। ये कवि कविता पाठ करने जाता है और लौटते हुए साथ में आटे की थैली लेकर घर घुसता है। उसे कभी भी कुंठा नहीं कि वो अपनी कविता को कोठे पर बेच आया है। उसने अपनी कविता की कीमत महज दो-तीन किलो के आटे का दाम लगाया। कभी कोई मलाल नहीं। कई बार किसी सम्मेलन में दस हजार तक मिल गए तो बड़ा और सिलेब्रेटी हो जाने का कोई गुरुर नहीं। सिर्फ आचमन पर ही घंटों रंग जमा देने के बाद इस बात पर कभी चिंता नहीं कि वो इस्तेमाल कर लिया गया है। फिल्म मोहनदास के लिए गाने लिखे,जगजीत सिंह के लिए गजल लिखा और फिल्म इंडस्ट्री से कई ऑफर मिले,ये सब कुछ बस रोजमर्रा के गपशप का हिस्साभर है। आपने इन गीतों के लिए बहुत ही कम पैसे लिए सर? मेरे ये कहे जाने पर उनका बहुत ही सपाट जबाब-हमसे मुंह ही नहीं खोला जाता। अविनाश के ये कहने पर कि आप पीए रखिए और वही बात करेगा,वो इस तरह के सुझाव से घबरा जाते हैं। उनकी अपनी सादगी दफ्न होती नजर आती है। यश मालवीय ने कवि भी अपनी कविताओं और लिखी गयी पंक्तियों के आगे प्राइस टैग नहीं लगाया। शब्दों की बसूली अनुवादक और सफल कवियों की तरह नहीं की।
मंच पर कविता करते हुए,बाइक चलाते हुए कविता सुनाते हुए,आचमन के लिए उत्साहित करते हुए इस कवि का सामाजिक सरोकार बुद्धिजीवी कवियों से रत्तीभर भी कम नहीं हुआ। कुछ नहीं तो कहो सदाशिव, उड़ान से पहले, राग-बोध के 2 भाग हाथ लग जाए तो पढ़िए,आपको अंदाजा लग जाएगा। कविता के दोनों पाटों पर रमनेवाला ये कवि एक जरा भी भयभीत नहीं होता कि अगर उसने मंच पर गमछा ओढ़ लोगों के साथ कविता पढ़ दिया तो उस पर नाक-भौं सिकोड़े जाएंगे। साहित्य अकादमी,हिन्दी अकादमी और विश्वविद्यालयों के मंचों से कविता पढ़ते हुए कभी इस बात का खतरा नहीं हुआ कि वो आम आदमी से दूर हो रहे हैं। ये सबकुछ उस आम आदमी के विकासक्रम के तौर पर बहुत ही सहज तरीके से चलता है। दरअसल यश मालवीय का क्लास फिक्स होने के बजाय रोटेट होता है,वो रोमिंग मोड में होता है। वो कभी भी बाकी कवियों की तरह फिक्स नहीं होता। अगर कुछ फिक्स या तय है तो कविता को लेकर तय किया गया उनका एजेंडा। कहीं से भी बोलो,किसी से भी बोलो,उनके सामने यही सवाल करो- दरी बिछानेवाले रामसुभग का क्या हुआ? छप्पन तरह के पकवाने लाने और खुद गम खाने वाले रामसुभग को लेकर आपकी क्या राय है? परिवेश और मंच बदलने के साथ यश मालवीय का सवाल नहीं बदलता,मिजाज नहीं बदलता। संभवतः यही उन्हें बाकी के कवियों से अलग करता है। इसलिए वो सिलेब्रेटी मंचीय कवियों की पांत से अलग हैं और बुद्धिजीवी कवियों की पंक्तियों में अलग से देखे जानेवाले कवि हैं। वो कविता के जरिए पैसा नहीं आदमी कमाते हैं। वो कविता के जरिए विचार नहीं सक्रियता पैदा करते हैं। इसलिए यश मालवीय दुर्लभ प्रजाति के कवि-गीतकार हैं।

नोट- कार्यक्रम की पूरी जानकारी के लिए पोस्ट पर चटकाकर बड़े साइज में देखें या फिर नीचे के लिए पर चटकाएं-
सफर का आयोजनः आमने-सामने में यश मालवीय
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7 नवम्बर के नवभारत टाइम्स ने प्रभाष जोशी के निधन पर एक लाइन की भी खबर छापना जरुरी नहीं समझा। इसी प्रकाशन समूह का अखबार The Times Of India ने action on pitch cut short his acerbic pen शीर्षक से तस्वीर सहित करीब 600 शब्दों में खबर छापा है। नवभारत टाइम्स डॉट कॉम के ब्लॉग कोना में पूजा प्रसाद ने कितने सीधे थे प्रभाष जोशी शीर्षक से पोस्ट लिखी है। दैनिक जागरण ने उनके लिए साइड में वमुश्किल से सौ शब्द छापे। ये दोनों देश के प्रमुख अखबारों में से है। रीडरशिप की दौड़ में रेस लगानेवाले हैं। अपनी ब्रांडिंग के लिए लाखों रुपये खर्च करते आए हैं। लेकिन आज ऐसा करते हुए जरा भी अपनी ब्रांड इमेज की चिंता नहीं की। कहने को कहा जा सकता है कि नहीं छापा तो नहीं छापा इसमें कौन-सा पहाड़ टूट गया? लेकिन सवाल है कि क्या देश की पत्रकारिता इसी तरह की किसी व्यक्तिगत पसंद-नापसंद के बूते चलती रहेगी ? हिन्दी पत्रकारिता में इसी तरह की बर्बरता बनी रहेगी?
यहां सवाल सिर्फ प्रभाष जोशी की खबर छापने या नहीं छापने भर से नहीं है। ये तो फिर भी मीडिया,पाठकों और प्रभाष जोशी को जानने-समझनेवाले लोगों के लिए बड़ी खबर है। हम जैसे देश के हजारों पाठक रोज कमरे तक न्यूजपेपर पहुंचाने वाले भैय्या के आने का इंतजार बर्दाश्त नहीं कर पाने की स्थिति में संभवतः खुद ही नजदीकी स्टॉल से चले गए होंगे। रोज एक या दो अखबार पढ़ने के अभ्यस्त आज सारे अखबारों को देखना-खरीदना चाह रहे होगें और पन्ने पलटते गए होंगे गए। तब जाकर पता चला होगा कि इन दोनों अखबारों ने इस तरह का खेल किया है। नहीं तो कहां पता चलनेवाला था कि कोई अखबार ऐसा भी कर सकता है? प्रभाष जोशी की खबर की तरह ही बाकी की कितनी खबरों के प्रति इतने संवेदनशील होते हैं,जानने-समझने के उत्सुक होते हैं। कितनी घटनाओं के प्रति हमारा सरोकार होता है? कितनी खबरों को लेकर हम एक ही दिन कई-कई अखबार पलटते हैं? मुझे नहीं लगता कि एक औसत पाठक दो-तीन अखबार से ज्यादा देख पाता होगा। तो क्या ऐसे में अखबार में काम करनेवाले मीडियाकर्मियों के पसंद-नापसंद के फार्मूले पर कई खबरें न छपने की बलि चढ़ जाती होगी? क्या यहां से हमें अखबारों के चरित्र को समझने के कोई सूत्र मिलते हैं? मास की बात करनेवाला अखबार,व्यावहारिक स्तर पर इतना इन्डीविजुअल हो सकता है? खबरों को दबाए औऱ कुचले जाने का काम व्यक्तिगत इच्छा-अनिच्छा की चीज बनती आयी है?

मीडिया के अलग-अलग मसलों पर लिखते हुए इधऱ कुछ दिनों से मैंने तय किया है कि इसकी समीक्षा इन्हीं की शर्तों पर की जाए। हमें मीडिया में सरोकारों के सवाल पर न तो हाथ में कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो लेकर बात करनी है। न ही अपनी तरफ से कोई फार्मूला फिट करके मीडिया को देखने-परखने की जुगत भिड़ानी है। हमें मौजूदा मीडिया को उसी नजरिए से देख-समझकर बात करनी है,जिस नजरिए से मीडिया से जुड़े लोग हमें समझने का तर्क देते हैं। देखते हैं,इससे किस तरह के निष्कर्ष निकलकर सामने आते हैं? अभी चार दिन पहले ही देखिए, शाहरुख के केक काटने की लाइव कवरेज के नाम पर चैनलों ने बुजुर्ग पत्रकारों के टकले सिर दिखाए,पत्रकारों की पिछाड़ी दिखाए। ये अपने ही फार्मूल पर नहीं टिके रह सके। इधर अखबारों से जब आप खबरों की हिस्सेदारी की बात करेंगे,सामाजिक सरोकारों की बात करेंगे तो आपसे सीधा सवाल करेंगे कि जो चीजें पढ़ी ही नहीं जाती,उस पर लिखने-छापने से क्या फायदा? साहित्य,संस्कृति और कला से जुड़ी खबरें इसी तर्क के आधार पर अब प्रमुखता से खबर का हिस्सा नहीं रहा। हमें तो बाजार देखना होता है,हम क्या कर सकते हैं? मतलब साफ है कि वो उन्हीं खबरों को छापेंगे जो उन्हें रिटर्न देने की ताकत रखते हों। अब इसी फार्मूले से आप नवभारत टाइम्स और दैनिक जागरण से सवाल करें कि क्या प्रभाष जोशी की खबर बिकाउ नहीं है, मीडिया,खासकर अखबारों के लिए सेलेबुल आइटम नहीं रहा।(प्रभाष जोशी के निधन की खबर के लिए इस तरह की भाषा का इस्तेमाल करने के लिए माफ करेंगे,लेकिन अखबार शायद इस तरह की भाषा ज्यादा आसानी से समझते हैं,बस इसलिए)।

सुबह उठकर पुष्कर जब समाचार अपार्टमेंट के पास के स्टॉल वाले से जनसत्ता की मांग करता है तो उसका जबाब होता है-नहीं है। आप से पहले पचासों लोग जनसत्ता खोजने आ चुके हैं। पता नहीं आज लोग क्यों इस अखबार को ज्यादा खोज रहे हैं? वैसे तो ये इतवार को ज्यादा बिकता है। देर रात जागने के बाद सुबह उठते ही सारे अखबार खरीदने के लिए पटेल चेस्ट की तरफ भागता हूं तो देखता हूं छात्रों की एक बड़ी जमात वहां पहले से मौजूद है जो कि फ्रंट पर खोजते हुए अंदर तक अखबारों में घुसती है,सिर्फ और सिर्फ प्रभाष जोशी की खबर को पढ़ने के लिए।..और दिनों के मुकाबले कल लोगों ने एक से ज्यादा अखबार पढ़े होंगे,खरीदे होंगे। मेरा ऐसा अनुमान है। ऐसे में अखबारों का सेलेबुल होने के आधार पर खबर को छापने वाला फार्मूला प्रभाष जोशी की खबर के साथ क्यों नहीं लागू किया गया? दिन-रात बाजार के दबाब का रोना रोनेवाले ये अखबार हमेशा बाजार को ध्यान में रखकर खबरें नहीं छापते हैं। इस घटना के आधार पर तो यही समझ बनती है कि अखबार संभवतः कई मौके पर व्यक्तिगत खुन्नस,जातीय,क्षेत्रीय और भाषाई स्तर के दुराग्रह की वजह से भी कई खबरों को नहीं छापता होगा। प्रभाष जोशी ने जीते-जी पैसे लेकर खबरें छापने और नहीं देने पर नहीं छापने की बात कही थी। उसे अपनी लेखनी से लगातार अभियान का रुप देने जा रहे थे। इस घटना में पैसे के फार्मूले के आगे व्यक्तिगत स्तर का पसंद-नापसंद वाला फार्मूला ज्यादा हावी नजर आया।

प्रभाष जोशी की खबर को नहीं छापने की घटना से हमारे सामने एक ही साथ कई सवाल खड़े हो जाते हैं? क्या अखबारों में खबरों को छापने और न छापने का आधार जाति,समुदाय,क्षेत्र,संप्रदाय और धर्म को लेकर पसंद और नापसंद भी होता है? अखबार में बहुसंख्यक समुदाय,जाति और विचारधारा के पसंद-नापसंद से खबरें प्रमुखता पाती है? क्या गुजरात का नरसंहार, 1984 के सिख विरोधी दंगे,बाबरी मस्जिद जैसे दर्जनों मनहूस घटनाएं होंगी जिसमें इसी पैटर्न को फॉलो करते हुए खबरें छापीं गयी होगीं,खारिज की गयी होगी? ऐसा सोचते ही सिहरन सी होने लग जा रही है?
मुझे नहीं पता कि प्रभाष जोशी को लेकर दैनिक जागरण औऱ नवभारत टाइम्स के शीर्ष पर बैठे लोगों के साथ क्या असहमति और रंजिशें रही होंगी। लेकिन तीन-साढ़े तीन रुपये देकर अखबार खरीदनेवाले ग्राहक के साथ न्याय तो कर देते। आप मीडिया एथिक्स तो दूर सही तरीके से प्रोफेशनल एथिक्स को भी फॉलो करने में यकीन नहीं रखते। प्रभाष जोशी का इससे तो कुछ हुआ नहीं,कम से कम अपनी साख में बट्टा लगने से तो अपने को बचा लिया होता।

नोटः- 7 नवम्बर के नवभारत टाइम्स ने प्रभाष जोशी को याद करते हुआ अभय कुमार दुबे का संस्मरण छापा है- वह खनक अभी भी बजती है। अब सवाल है कि क्या इसे ही खबर के तौर पर पढ़ा-समझा जाना चाहिए और इस बात का संतोष कर लिया जाना चाहिए कि,कोई बात नहीं चाहे किसी भी रुप में हो,याद तो किया।
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मूलत: प्रकाशित- मोहल्लाlive

1984 के सिख दंगे के बारे में जिसे कि मैं दंगा नहीं नरसंहार मानता हूं, देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहीं कहा है कि हमें इसे भूल जाना चाहिए। मैं मानता हूं कि इतिहास भूलने की चीज़ नहीं होती। आज से पता नहीं कितने हज़ार साल पहले रावण ने ग़लती की और हम आज तक उसे जलाते हैं। बाबर ने कई सालों पहले जो किया, वो आज भी संदर्भ के तौर पर हम याद करते हैं। भारतीय कभी इतिहास को भूलते नहीं है। वो किसी न किसी रूप में दूसरे जेनरेशन और उसके बाद अगले से अगले जेनरेशन में जाता ही है। 1984 में सिक्खों के साथ जो कुछ भी हुआ, वो आगे के जेनरेशन में भी जाएगा और ये शायद ज़्यादा ख़तरनाक रूप में जाए। इसलिए इसे करेक्ट करने की ज़रूरत है। सिर्फ जस्टिस के जरिये ही इतिहास की इस भूल को करेक्ट किया जा सकता है। जरनैल सिंह ने ये बातें अपने किताब के लोकार्पण के मौके पर ज़ुबान की प्रकाशक और चर्चित लेखिका उर्वशी बुटालिया से पूछे गये सवालों का जबाब देते हुए कहीं।

पेंग्विन ने 84 के दंगे को लेकर जरनैल सिंह की लिखी किताब को कब कटेगी चौरासी : सिख क़त्लेआम का सच नाम से प्रकाशित किया है। मूलतः हिंदी में लिखी गयी इसी किताब को उसने अंग्रेजी अनुवाद I ACCUSE… The Anti-Sikh Violence Of 1984 से प्रकाशित किया गया है। 6 नवंबर को दिल्ली के कांस्टीट्यूशन क्लब में इस किताब का लोकार्पण किया गया। लोकार्पण के पहले जरनैल सिंह ने अपनी किताब, 84 के दंगे और पी चिदंबरम पर जूता फेंकने वाले प्रकरण को लेकर वक्तव्य दिया। किताब का लोकार्पण हो जाने के बाद जरनैल सिंह और उर्वशी बुटालिया के बीच एक संवाद सत्र रखा गया, जिसमें उर्वशी बुटालिया की ओर से किताब और 84 के दंगे से जुड़े कई सवाल किये गये। बाद में ऑडिएंस के तौर पर मौजूद लोगों ने भी कई सवाल किये। इस तरह स्वतंत्र वक्तव्य और लोगों के सवाल-जबाब को मिला कर जरनैल सिंह ने किताब के लिखे जाने की वजह से लेकर न्याय, सरकार के रवैये, प्रशासन व्यवस्था और सामाजिक ज़‍िम्‍मेदारी जैसे मसलों पर विस्तारपूर्वक अपना पक्ष रखा।

अपने शुरुआती वक्तव्य में जरनैल सिंह ने कहा कि इस किताब में उन लोगों की दिल दहला देनेवाली कहानियां हैं, जिन्हें कि 25 साल बाद भी न्याय नहीं मिला। दो महीने के बच्चे को चूल्हे पर रखकर जला दिया गया, लोगों को टायर में फंसा कर आग लगा दी गयी। यह किताब उन सबों को पढ़ने के लिए है, जो कि इंसानियत के साथ खड़े होने में यक़ीन रखते हैं। हम अपने को दुनिया के सबसे सभ्य और संस्कृति वाले देश के लोग के तौर पर मानते हैं लेकिन ये कितनी बड़ी बिडंबना है, कितना बड़ा मजाक है कि इसी देश में 3000 लोगों को सरेआम कत्ल कर दिया गया लेकिन आज पच्चीस साल बाद भी उन्हें न्याय नहीं मिला है। कहीं न कहीं हमारे देश की आत्मा मर गयी है, जो दोषी लोगों को सज़ा देने के बजाय उन्‍हें संसद में भेज देती है। किताब की प्रस्तावना में खुशवंत सिंह ने लिखा है कि जिन लोगों ने दंगाइयों की भीड़ का सक्रिय संचालन किया और गुरुद्वारों और सिख मोहल्लों पर हमला करवाया, उनकी करतूतों के लिए सज़ा देना तो दूर, उन्हें प्रधानमंत्री राजीव गांधी से इनाम के तौर पर मंत्रिमंडल में शामिल होने का अवसर मिला। (पेज नं-XIII)

जरनैल सिंह ने स्वीकार किया कि मेरे विरोध करने का जो तरीक़ा था वो ग़लत था लेकिन जिस बात के विरोध में मैं खड़ा हूं, उस पर मुझे आज भी गर्व है। विरोध का तरीक़ा ग़लत होने क बावजूद विरोध का कारण महत्वपूर्ण है। आखिर क्या वजह है कि 11 साल बाद इस घटना का एफआईआर दर्ज हुआ? इस घटना के 25 साल हो गये, न्याय मिलने की बात तो दूर देश का कोई भी प्रधानमंत्री एक बार भी उस विडोज़ कॉलोनी में क्यों नहीं गया? दर्शन कौर जो इस किताब का लोकार्पण कर रही हैं, उन्‍हें बार-बार क्यों धमकाया गया? उनके सामने क्यों 25 लाख रुपये का ऑफर दिया गया और बयान बदलने की बात कही गयी? (दर्शन कौर, 1984 के दंगों से प्रभावित और जीवित बच पायीं एक पीड़िता हैं।)

ये किताब इसलिए लिखी गयी कि उस समय मीडिया ने अपनी ज़‍िम्मेदारी नहीं निभायी। उसे सही तरीके से कवर नहीं किया गया। इस घटना में पीड़ितों का पक्ष संवेदनशील तरीके से नहीं रखा गया। इस मामले में दूरदर्शन का रवैया संदिग्ध रहा है। दूरदर्शन के चरित्र की चर्चा जरनैल ने किताब में भी की है। उन्होंने लिखा है कि दूरदर्शन नरसंहार भड़काने में अपनी भूमिका पूरी शिद्दत से निभा रहा था। लगातार इंदिरा गांधी का शव और उसके आसपास खून का बदला खून के लग रहे नारों को प्रसारित किया जा रहा था। नानवटी आयोग को दिये गये अपने हलफ़नामे में अवतार सिंह बीर ने इस बात का जिक्र किया है। दूरदर्शन बार-बार सिख सुरक्षाकर्मियों’ द्वारा हत्या की बात दोहरा रहा था, जबकि आमतौर पर दंगों में भी दो वर्गों की बात कही जाती है, किसी वर्ग का नाम नहीं लिया जाता। दूरदर्शन पर सिख क़त्लेआम की एक भी खबर नहीं दिखायी गयी। अख़बार भी सही खबर देने के अपने धर्म को भूल चुके थे।

जरनैल सिंह का मानना है कि ये दंगा न होकर सुनियोजित तरीके से सरकारी कत्लेआम था। खुलेआम सिखों की हत्या की जा रही थी। इसे रोकना क्या प्रशासन की ज़‍िम्मेदारी नहीं थी? इस किताब ने कत्लेआम के दौरान खाकी वर्दी, प्रशासन, सरकार और राजनीति से जुड़े लोगों के रवैयों की विस्तार से चर्चा की गयी है। 31 अक्टूबर की रात बाकायदा कांग्रेस नेताओं की बैठक कांग्रेसी विधायक रामपाल सरोज के घर पर हुई, जहां ये निर्देश जारी हुए कि अब पूरी सिख कौम को सबक सिखाना है। सिखों और उनके घरों को जलाने के लिए रसायनिक कारखानों से सफेद पाउडर की बोरियां मंगवा पूरी दिल्ली में बंटवायी गयीं। (पेज नं 103)

अन्यायकर्ता और न्यायकर्ता नाम से एक शीर्षक है, जिसके भीतर सिरों की कीमत, भगत से बदला, कत्लेआम और सत्ता की सीढ़ी, सदियों के भाईचारे पर दाग़, दंगाई खाकी, देखती रही फौज, वर्दी ही कफन बन गयी, असहाय राष्ट्रपति, मौन गृहमंत्री और दंगे नहीं उपसंहार नाम से उपशीर्षक हैं। इन उपशीर्षकों के भीतर दिल दहला देनेवाली घटनाओं की चर्चा है। नानावटी आयोग की रिपोर्ट में पेज नंबर 87 पर सुल्तानपुरी के बयान दर्ज है, जिसमें कहा गया है, “सज्जन कुमार ने वहां एकत्रित भीड़ को संबोधित करते हुए कहा कि जिसने भी रोशन सिंह और भाग सिंह की हत्या की है, उन्हें 5000 रूपये इनाम दिया जाएगा। जो बाकी सिखों को मारेंगे, उन्हें प्रति व्यक्ति 1000 रुपये का इनाम दिया जाएगा” (पेज नं-61)।

दंगे के सामाजिक स्तर की सक्रियता के सवाल पर जरनैल सिंह ने स्पष्ट किया कि आमतौर पर भारतीय तेवर इस तरह की गतिविधियों में सक्रिय होने का पक्षधर नहीं है। लेकिन इस घटना के विरोध में लोग खुलकर सामने नहीं आये, उसे रोका नहीं। आखिर क्या कारण है कि इस घटना को अपनी आंखों से देखनेवाले कई गैर-सिखों में से एक भी गवाह के तौर पर सामने नहीं आया? यह पूरी तरह पॉलिटिकल कॉन्‍सपीरेसी रही है। उर्वशी के पूछे गये इस सवाल पर कि आप हिंदू-सिख को घुले-मिले रूप में देखते हैं। ऐसे में आप सोचते हैं कि एक संवाद की गुंजाइश है? जरनैल सिंह का सीधा जबाब रहा कि भाईचारे को सिर्फ और सिर्फ जस्टिस के जरिये ही कायम किया जा सकता है।
किताब का एक बड़ा हिस्सा उन लोगों की दास्तान को दर्ज करता है, जिन्होंने अपनी आंखों के सामने अपने पति और बच्चे खो दिये, जिनके परिवार उजड़ गये। जो किसी भी हालत में इस सदमे से उबर नहीं पाये हैं। जज जब दर्शन कौर से भगत को पहचानने की बात करता है, तब भगत का एक-एक लफ्ज उसे याद आ रहा था। भगत कह रहा था, “किसी सरदार को मत छोड़ो। ये गद्दार हैं। मिट्टी का तेल, हथियार सब कुछ है, पुलिस तुम्हारे साथ है। सरदारों को कुचल डालो।” (पेज नं-68)

अपने परिवार के लोगों को कत्लेआम में गंवाने वाले सुरजीत सिंह का कहना है कि जिलाधिकारी ब्रजेंद्र पूरी तरह से दंगाइयों के साथ मिले हुए थे। (पेज नं-94)

1984 में दिल्ली के मशहूर वेंकेटेश्वर कॉलेज में बीएससी (द्वितीय वर्ष) में पढ़ते हुए फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने वाली भोली-भाली निरप्रीत को नहीं मालूम था कि एक दिन वो इस तरह अपनी मां से तिहाड़ के अंदर मिलेगी। लेकिन 1984 के सिख कत्लेआम में पिता को दंगाइयों के हाथों तड़पते हुए मरता देख वह बागी हो चुकी थी। (पेज नं-51)

लोगों के सवालों का जवाब देते हुए जरनैल सिंह ने एक बार फिर कहा कि उनके विरोध करने का तरीक़ा ग़लत था लेकिन यह सच है कि उस प्रकरण के बाद ही ये मुद्दा फिर से हाइलाइट हुआ। जब सबने अपनी मर्यादा का उल्लंघन किया, तो हमें भी करना पड़ा। आखिर इस घटना के बाद ही सरकार को ये क्यों याद आया? हमारा कोई राजनीतिक मक़सद नहीं है, मैं किसी भी राजनीतिक दल से जुड़ा हुआ नहीं हूं। हम गृहमंत्री के विरोध में नहीं हैं। मैं इसके जरिये ऐसा दबाव बनाना चाहता हूं कि लोगों की सोयी हुई आत्मा जागे। दोषियों को सज़ा मिले, जिससे कि आनेवाले समय में दोबारा ऐसी हिम्मत नहीं करे। इस मामले में वो ये भी मानते हैं कि अगर 1984 के दोषियों को सज़ा मिल गयी होती तो संभव है गुजरात में जो कुछ भी हुआ, वो करने की हिम्मत लोग नहीं जुटा पाते। हम इसके जरिये नागरिक अधिकारों को सामने लाने की बात कर रहे हैं। एक महिला श्रोता की ओर से उठाये गये इस सवाल पर कि इससे पंजाबियों को क्यों अलग-थलग रखा जाता है? जरनैल सिंह ने जबाब दिया कि ये मसला सिर्फ सिखों से जुड़ा हुआ नहीं है। ये देश के उन तमाम लोगों से जुड़ा है, जिनके साथ इस तरह की घटनाएं हुई हैं और होती है। उर्वशी बुटालिया ने जरनैल सिंह के इस काम को एक बड़ा कमिटमेंट करार दिया और इस दिशा में लगातार आगे बढ़ते रहने की शुभकामनाएं दी। इस प्रयास का असर बताते हुए सभागार में मौजूद एक पत्रकार ने सूचना दी कि आज हम जिस जगदीश टाइटलर के विरोध में बात कर रहे हैं, ये जानकर खुशी हो रही है कि यूके ने 84 के दंगे में शामिल होने के आरोप में उन्‍हें वीज़ा देने से इनक़ार कर दिया है।

सवालों के दौर ख़त्‍म होने के साथ ही लोगों ने इच्‍छा जतायी कि जरनैल सिंह ने किताब के जरिये जिस मुद्दे को उठाया है, वो एक सही दिशा में जाकर विस्तार पाये। ये किसी भी रूप में न तो महज विवाद का हिस्सा बन कर रह जाए और न ही एक कौम की प्रतिक्रिया के तौर पर लोगों के सामने आये। ये व्यवस्था के आगे दबाव बनाने के माध्यम के तौर पर काम करे जिससे कि न्याय की प्रक्रिया तेज़ और सही दिशा में हो सके। इस मौके पर यात्रा प्रकाशन की संपादक नीता गुप्ता ने कहा कि जरनैल सिंह ने जो काम किया है, उसके लिए उनकी हिम्मत की दाद देनी होगी। हमें उम्मीद है कि किताब के प्रकाशन से आपके प्रयासों को मज़बूती मिलेगी। पूरे कार्यक्रम के दौरान रंजना(सीनियर कमिशनिंग एडिटर,पेंग्विन) वैशाली माथुर (सीनियर कमिशनिंग एडिटर, पेंग्विन), एसएस निरुपम (हिंदी एडीटर,पेंग्विन)के सक्रिय रहने के लिए धन्‍यवाद दिया। सभागार में मौजूद श्रोताओं और विशेष रूप से उर्वशी बुटालिया का शुक्रिया अदा करते हुए कहा कि हम सबकी की ये नैतिक ज़‍िम्मेदारी है कि अपने-अपने स्तर से इस काम को आगे बढ़ाएं। उम्मीद की जानी चाहिए कि जरनैल सिंह की ये किताब 1984 में सिख कत्लेआम के प्रति संवेदनशील होने और इसकी आड़ में होनेवाली राजनीति को समझने में एक नयी खिड़की का काम करेगी। कार्यक्रम के दौरान जितनी तेज़ी से इस किताब की बिक्री शुरू हुई, उससे ये साफ झलकता है कि लोग इस घटना के प्रति संवेदनशील हैं। बकौल जरनैल सिंह पंजाबी में छपी इसी किताब की अब तक 3000 प्रति निकल चुकी है।

लोगों के बीच किताबों की पहुंच के साथ अन्याय के खिलाफ, न्याय के पक्ष में लोगों के स्वर मज़बूत होंगे.
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देश के जाने-माने और हिन्दी के बुजुर्ग पत्रकार प्रभाष जोशी नहीं रहे। गुरुवार रात,भारत-आस्ट्रेलिया मैच देखने के दौरान दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हो गया। अफसोसनाक है कि जिस मैच को लेकर देर रात तक हॉस्टल में हो-हुडदंग होता रहा,उसी मैच के दौरान देश का एक बुद्धिजीवी पत्रकार हमेशा के लिए खामोश हो गया। पटना से जसवंत सिंह की लिखी विवादित किताब के लोकार्पण कार्यक्रम से करीब 11 बजे रात लौटने के बाद जोशी थकान महसूस कर रहे थे। घर के लोगों ने भी सलाह दी कि डॉ. से सम्पर्क करना चाहिए लेकिन मैच देखकर उस पर कुछ लिखने का लोभ वो रोक नहीं पाए।.. लेकिन दोनों में से कोई भी काम पूरा किए बगैर हमसे विदा हो लिए। जोशी ने जिस कागद-कारे स्तंभ से अपनी अलग पहचान बनायी उसका पहला लेख क्रिकेट पर ही था। अंत-अंत तक क्रिकेट उऩके जीवन के साथ जुड़ा रहा और एक हद तक क्रिकेट ही उनके मौत का कारण भी बना।
कहना न होगा कि प्रभाष जोशी उन गिने-चुने पत्रकारों में से रहे हैं जिनकी लोकप्रियता सिर्फ पठन-लेखन के स्तर पर नहीं रही है,उन्हें चाहने और माननेवालों की एक लंबी फेहरिस्त है। मीडिया इन्डस्ट्री के भीतर सैकड़ों मीडियाकर्मी और पत्रकार ये कहते हुए आसानी से मिल जाएंगे कि आज वो जो कुछ भी है प्रभाषजी की बदौलत हैं। 12 सालों तक जनसत्ता अखबार का संपादन करते हुए उन्होंने एक खास तरह की पत्रकारिता का विस्तार किया। शिमला में उनसे जुड़े प्रसंगों को याद करते हुए अभय कुमार दुबे,संपादक सीएसडीएस ने हमें तब बताया था कि वो अकेले ऐसे संपादक थे जो किसी भी खबर के छप जाने के बाद माफी मांगने में यकीन नहीं रखते,छप गया सो छप गया। इसके साथ ही वो एक ऐसे संपादक थे जिन्होंने मालिक के आगे संपादक की कुर्सी को कभी भी छोटा नहीं होने दिया। बतौर बरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय, प्रभाष जोशी एक ऐसे पत्रकार रहे हैं जिनका भरोसा था कि पत्रकारिता के जरिए राजनीतिक स्थिति को भी बदला जा सकता है। वो पत्रकारिता को सामाजिक परिवर्तन का माध्यम मानते थे। इसलिए उन्होंने जितना लिखा उतना ही सामाजिक मसलों पर जाकर लोगों के सामने अपनी बात भी रखी। लोग उन्हें सुनने के लिए बुलाते थे।(एनडीटीवी इंडिया 9.20 बजे 6 नवम्बर 09)। आज से करीब एक साल पहले जब राजकमल की ओर से एक ही साथ पांच किताबों का लोकार्पण किया जा रहा था उस समय दिल्ली के त्रिवेणी सभाकार को मैंने इस तरह के कार्रयम में पहली बार खचाखाच भरा हुआ देखा था। इतना खचाखच कि देश के नामचीन पत्रकार से लेकर साहित्यकार सीढ़ियों पर बैठे नजर आए। स्वयं प्रभाष जोशी के शब्दों में आज चार पीढ़ी के लोग मौजूद हैं। कुछेक पत्रकारों को छोड़ दे तो सभागार में जनसत्ता-परंपरा के अधिकांश पत्रकार पहली बार वहां मौजूद नजर आए।
सत्ता में गहरी पैठ रखनेवाले पत्रकार प्रभाष जोशी जितने लोकप्रिय रहे हैं,अपने जीवनकाल उतने ही विवादों में बने रहनेवाले पत्रकार भी। बाबरी मस्जिद के दौरान जनसत्ता में छपनेवाली खबरों,उसकी प्रस्तुति को लेकर वो विवादों में आए,सती-प्रथा को लेकर छपे संपादकीय का लेकर वबेला मचा और हाल ही में एक साइट को दिए गए इंटरव्यू में आलोचना के शिकार हुए। प्रभाष जोशी की ऑइडियोलॉजी को लेकर भी काफी विवाद रहा है।अकादमिक क्षेत्र में राजकमल से प्रकाशित हिन्दू होने का धर्म उनकी लोकप्रिय किताबों में से है। लेकिन इधर पिछले दो सालों से हिन्दी स्वराज के पुर्नपाठ और विमर्श को लेकर काफी सक्रिय नजर आए। वो हिन्द स्वराज और गांधी के मार्ग के महत्वों की चर्चा करते हुए उनकी विचारधारा का विस्तार करने की बात करते रहे। बीते लोकसभा चुनावों में पैसे देकर पेड खबरें छापने और राजनीति का पिछलग्गू बन जानेवाले अखबारों को लेकर प्रभाष जोशी ने विरोध में एक मोर्चा खोल रखा था और उसे वो राष्ट्रीय स्तर पर एक अभियान का रुप देने जा रहे थे जिसके चिन्ह हमें हाल के लिखे गए उनके लेखों में साफ तौर पर दिखाई देने लगे थे। उनके इस अभियान में कुलदीप नैय्यर और हरिवंश जैसे वरिष्ठ पत्रकार भी शामिल रहे हैं।
इन सबके वाबजूद प्रभाष जोशी को एक ऐसे कर्मठ पत्रकार के तौर पर जाना जाएगा जो कि अपनी जिदों को व्यावहारिक रुप देता है,नई पीढ़ी के लोगों को गलत या असहमत होने पर खुल्लम-खुल्ला चैलेंज करता है,अपनी बात ठसक के साथ रखता है और सक्रियता को पूजा और अराधना को पर्याय मानता है। आज प्रभाष जोशी के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी कि अगर हम उनके लेखन का पुनर्विश्लेषण करते हैं,पठन-पाठन के दौरान असहमति का स्वर जाहिर करते हैं,सहमति को व्यवहार के तौर पर अपनाते हैं और पैर पसारती कार्पोरेट मीडिया का प्रतिरोध करते हुए हिन्दी पत्रकारिता को सामाजिक परिवर्तन के माध्यम के तौर पर आगे ले जाते हैं। व्यक्तिगत तौर पर मुझे उनका खास अंदाज में क्रिकेट पर लिखना,इनने,उनने और अपन जैसे शब्दों का प्रयोग अब तक एक खास किस्म की इन्डीविजुअलिटी को बनाए रखने के तौर पर लगा,कई बार इससे असहमत भी रहा लेकिन आगे से जनसत्ता में इन शब्दों के नहीं होने की कमी जरुर खलेगी। गरम खून के पत्रकारों के बीच कोई तो था जिसे बार-बार पटकनी देने की मंशा से लड़ते-भिड़ते और अपना कद बड़ा होने की खुशफहमी से फैल जाते। आज हमसे लड़ने-भिड़ने वाला नहीं रहा,फच्चर मत डालो को लिखकर चैलेंज करनेवाला नहीं रहा। अब बार-बार याद आएगा कागद-कारे..
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एक पत्रकार की हैसियत से अपने लंबे मीडिया करियर के दौरान जरनैल सिंह ने क्या किया,किन-किन मसलों और मुद्दों को रिपोर्टिंग के दौरान लोगों के सामने लाने की कोशिश की,ये बताने की जरुरत शायद ही किसी न्यूज चैनल या अखबारों ने की हो। हमें सिर्फ इतना भर बताया गया कि जरनैल सिंह ने मौजूदा गृहमंत्री पर जूते फेंकने का काम किया और रातोंरात वो इसी काम को लेकर चर्चित कर दिए गए। इस हिसाब से पेंगुइन से प्रकाशित होनेवाली उनकी किताब कब कटेगी चौरासीः सिख क़त्लेआम का सच जिसका कि कल लोकार्पण होना है,जरनैल सिंह की कोशिश से ये दोतरफी कारवायी है। सिंह इस किताब के जरिए अपनी उस छवि को स्थापित करना चाहते हैं जिसमें कि उनके लंबे समय का लेखन और रिपोर्टिंग के अनुभव शामिल हैं,एक पत्रकार की हैसियत से राजनीतिक संदर्भों को विश्लेषित करने की कोशिश है और दूसरा अपनी उस छवि को ध्वस्त करना चाहते है जिसमें कि एक बेकाबू हो गए एक नागरिक/पत्रकार का सत्ता में बैठे लोगों के सामने गलत ही सही लेकिन अपने स्तर से विरोध दर्ज करना है। खासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया शुरु से उस फार्मूले पर काम करता आया है कि जो व्यक्ति जिस काम के लिए चर्चित हुआ है उसे उसी रुप में हायपरवॉलिक तरीके से ऑडिएंस/दर्शक के सामने पेश करे लेकिन ये फार्मूला कितना वाजिब है,इत्मिनान होकर सोचने की मांग करता है। बहरहाल,जरनैल सिंह की बनी नयी पहचान उन्हें किस हद तक परेशान करती है और अब तक के किए गए सारे काम,हालिया के एक काम के आगे कैसे फीका पड़ जाता है, ये सबकुछ शिद्दत से महसूस करने और उसे पाटने की कोशिश में ये किताब हमारे सामने है। ऐसे में अपनी रचनाधर्मिता और तार्किक समझ को इस जद्दोजहद के बीच बचाए रखना,जरनैल सिंह की उपलब्धि ही समझी जाएगी।
पेंग्विन से प्रकाशित,जरनैल सिंह की किताब कब कटेगी चौरासीः सिख क़त्लेआम का सच मूलतः हिन्दी में लिखी गयी है। इस किताब का अंग्रेजी अनुवाद वैशाली माथुर ने I Accuse : The anti sikh voilence 0f 1984 नाम से किया है. लेखक/प्रकाशक के हिसाब से यह किताब 1984 के सिख क़त्लेआम से जुड़ी सच्चाईयों और सरकार की संवेदनशून्यता का एक सशक्त दस्तावेज़ है। क्योंकि 1884 का हुआ दंगा सिर्फ सिखों पर हुआ हमला नहीं था,बल्कि यह लोकतंत्र और इंसानियत पर हुआ हमला था। इस किताब के बारे में लिखते हुए मशहर कॉलमिस्ट और ट्रेन टू पाकिस्तान के लेखक खुशवंत सिंह का मानना है कि-'कब कटेगी चौरासी ऐसे घावों को हरा करती है जो आज तक नहीं भरे हैं। यह किताब उन सभी लोगों को पढ़नी चाहिए जो चाहते हैं कि ऐसे भयानक अपराध दोबारा न हो।
। जाहिर है किताब जिस सबूतों और संदर्भों को हमारे सामने पेश करती है और स्वयं लेखक जिस रुप में उसका विश्लेषण करता है उसके सामने इस दंगे में हताहत लोगों को दिया गया मुआवजा तुष्टिकरण की नीति का हिस्साभर है। ऐसा करके सरकार ने अपने विद्रूप चेहरे को ढंकने का भरसक प्रयास किया है। लेकिन उम्मीद की जानी चाहिए कि यह किताब महज विवाद का हिस्सा बनने के बजाय उन कारवाईयों पर फिर से विचार करने का स्पेस पैदा करेगी जो कि लोकतंत्र की बहाली के नाम पर अंदुरुनी तौर पर उसका गला रेतने का काम करती है। जूता प्रकरण के हो-हंगामे के बीच जरनैल के जो सवाल दब गए वो सवाल उस किताब में फिर से सरकार के लिए एक चुनौती पैदा करते हैं- अब तक दोषियों का सजा क्या नहीं मिली? क्या प्रशासन तंत्र न्याय होने देगा? कब मिलेगा पीड़ितों को न्याय और कब कटेगी चौरासी? सरकार को इन सवालों को गंभीरता से लेने होंगे और इस किताब के जरिए 84 पर नए सिरे से बात होने की गुंजाइश पैदा हो सकेगी। इसके साथ ही हम उम्मीद करते है कि आनेवाले समय में जरनैल सिंह की पहचान केवल और केवल पी.चिदमबरम पर जूता फेंकनेवाले पत्रकार के तौर पर न होकर एक संवेदनशील और रिस्क कवर करते हुए तल्खी से अपनी बात रखनेवाले लेखक के तौर पर चिन्हित किया जा सकेगा।
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संघर्ष के दो साल पर संपादकीय

Posted On 10:04 am by विनीत कुमार | 9 comments




जामिया मीलिया इस्लामिया से मीडिया की पढ़ाई,जी न्यूज से इन्टर्नशिप,दूरदर्शन के लिए रिपोर्टिंग और TV9 के मुंबई ब्यूरों के लिए सर्वेसर्वा के तौर पर काम करनेवाले तेजतर्रार युवा मीडियाकर्मी पुष्कर पुष्प चाहते तो आज अपने दौर के बाकी मीडियाकर्मियों की तरह एक फार्मूला लाइफ जी सकते थे। उनकी गर्दन पर भी आज किसी चैनल के प्रोड्यूसर का पट्टा टंगा होता,एक गाड़ी होती जिसके लोन अब तक चुक गए होते और दिल्ली एनसीआर में एक फ्लैट होता। लेकिन पुष्कर पुष्प ने एक मीडियाकर्मी की उलब्धियों और विकासक्रम को इस रुप में देखने के बजाय कुछ अलग,मौलिक और रचनात्मक काम की ओर अपने को लगाया। सबकुछ छोड़कर नौकरी करते हुए जो भी थोड़े पैसे जोड़े उसे लेकर एक दिन सबकी खबर लेनेवाले मीडिया की ही खबर लेने के इरादे से मीडिया मंत्र नाम से पत्रिका शुरु कर दी। साधनों की सहजता और खबरों के इस बाढ़ में आज चाहे तो कोई भी ऐसा कर सकता है लेकिन आज से दो साल पहले की बात सोचिए जब ये बात कॉन्सेप्ट के तौर पर बाकी पत्रिकाओं से बिल्कुल जुदा रहा है कि मीडिया की खबरों को लेकर भी पत्रकारिता की जा सकती है? मीडिया मंत्र की निगाह में इडियट बॉक्स के ताजा अंक के साथ मीडिया मंत्र पत्रिका ने दो साल पूरे कर लिए। इस पत्रिका को जिंदा रखने के लिए पुष्कर पुष्प को किस-किस स्तर की परेशानियों को झेलना पड़ा है,इसके कुछ हिस्से को मैंने भी बहुत ही नजदीक से महसूस किया है। पत्रकारिता के तोड़-जोड़ का संड़ाध धंधा बन जाने के बीच विज्ञापन मिलने से कहीं ज्यादा मिले हुए विज्ञापनों पर की जानेवाली ओछी राजनीति का शिकार मीडिया मंत्र अचानक से कैसे लड़खड़ा जाता है,ये सबकुछ एक झटके में हमारे सामने घूम जाता है जिसकी विस्तार से चर्चा करते हुए उन्होंने संघर्ष के दो साल नाम से संपादकीय में लिखा है। संपादकीय का एक हिस्सा भावुक अभिव्यक्तियों से भरा है,संभवतः इसलिए हम जैसे लोगों के मामूली सहयोग को उन्होंने अपनी नजर से बहुत बड़ा करके पेश कर दिया है। वाबजूद इसके इस संपादकीय को इसलिए पढ़ा जाना चाहिए क्योंकि पत्रकारिता के जिस क्लासरुम में पत्रकार के तौर पर समाज प्रहरी बनने की ट्रेनिंग दी जाती है,जोश में ही सही ये पत्रिका कैसे उसे व्यवहार के तौर पर अपनाने की कोशिश करती है,परेशान होती है,कई बार लगता है कि ये सब छायावादी नजरिए को ढोते हुए जीने औऱ पत्रकारिता करने की कोशिश भर है लेकिन फिर से अपने को रिवाइव करती है। सिद्धस्थ मीडियाकर्मियों और समीक्षकों की निगाह में ये वावलापन है क्योंकि बिना बाजार की गोद में बैठकर,छोटे-मोटे समझौते करने की चिंता किए बगैर ये संभव नहीं है,कार्पोरेट मीडिया के आगे जबरदस्ती पीपीहीआ बाजा बजाने जैसा काम है। उनके ऐसा कहने से संपादक का मनोबल टूटता है,वो घबराता है लेकिन फिर सवाल करता है कि आपको तो विरासत में एक बेहतरीन पत्रकारिता पूर्वज मिल गए लेकिन आप आनेवाली पीढ़ी को क्या देने जा रहे है? संपादकीय में उठाया गया यही सवाल सिद्धस्थ मीडियाकर्मियों की बौद्धिकता पर कई गुना भारी पड़ता है और यहीं पर आकर पुष्कर पुष्प तमाम तरह की मानिसक और साधनगत परेशानियों के वाबजूद मन का रेडियो बजने देने पर खुश नजर आते हैं। उन्हे मीडिया मंत्र को लेकर इस बात का गुमान है कि उन्होंने बाकी मंचों की तरह दबाब बनाकर विज्ञापन नहीं जुटाए,धमिकयां देने और फिर मांग न पूरे किए जाने पर निगेटिव खबरें का खेल नहीं किया. पांच हजार-दस हजार के विज्ञापन के लिए अपनी पहचान और आत्म सम्मान को गिरवी नहीं रख दिया। हम चाहेंगे कि इस संपादकीय पर एक नजर आप भी दें और विरासत में मिलनेवाली मीडिया की समीक्षा की नाप-तौल शुरु करें-
मीडिया मंत्र ने अपने दो साल पूरे कर लिए. पिछले अंक में ही इसके दो साल पूरे हो गए. लेकिन समय पर पत्रिका नहीं निकल पाने की वजह से पाठकों तक नहीं पहुँच पायी. इसलिए मीडिया मंत्र से जुड़े अपने अनुभवों और उससे जुडी कई बातों को हम पाठकों से नहीं बाँट सकें. इस कमी को इस अंक में पूरा करने की हम कोशिश कर रहे हैं. आगे हमारी कोशिश रहेगी कि तमाम मुश्किलों के बावजूद दुबारा ऐसा नहीं हो और समय पर पत्रिका पाठकों तक पहुंचे.यह अंक निकालने की स्थिति में हम नहीं थे. लेकिन ईटी हिंदी.कॉम के संपादक दिलीप मंडल, न्यूज़ 24 के मैनेजिंग एडिटर अजित अंजुम और दिल्ली विश्विद्यालय से मनोरंजन चैनलों की भाषिक संस्कृति पर पीएचडी कर रहे विनीत कुमार के नैतिक समर्थन, उत्साहवर्धन और सहयोग की वजह से पत्रिका को जारी रखने में सक्षम हो सके.

यह दो साल बेहद संघर्षपूर्ण रहे. हर महीने पत्रिका के लिए कंटेंट से लेकर उसके लिए पैसे जुटाने का काम बदस्तूर जारी रहा. पत्रिका के बंद होने की तलवार हमेशा लटकी रही. कई बार ऐसी नौबत भी आई कि लगा पत्रिका बंद हो जायेगी. लेकिन हर बार कोई-न-कोई रास्ता निकल आया. शायद यह मीडिया मंत्र के पाठकों और शुभचिंतकों की दुआओं का असर था. सच मानिये तो इतनी दूर निकल आयेंगे, ऐसा कभी सोंचा नहीं था. साल 2007 में दिल्ली के प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में पत्रिका का विमोचन प्रभाष जोशी, मार्क टली, अजित भट्टाचार्य, अशोक वाजपेयी और आनंद प्रधान जैसे अपने - अपने क्षेत्र के दिग्गजों के हाथों हुआ. प्रेस क्लब खचाखच भरा हुआ था. एक ऐसी पत्रिका का विमोचन हो रहा था, जिसके पीछे कोई कारपोरेट नहीं था. शुद्ध रूप से कुछ जोशीले नौजवान पत्रकारों द्वारा एक नया जोखिम भरा वैकल्पिक मीडिया का प्रयोग होने जा रहा था. एक ऐसा प्रयोग जिसके शुरुआत से ही इसके बंद होने के कयास लगाये जा रहे थे. ज्यादातर लोगों को उम्मीद नहीं थी कि पत्रिका लम्बे समय तक चल पाएगी, . दो साल की बात दूर दो महीने भी चल पाएगी कि नहीं, इसपर लोगों को शक था. यह सोंच गलत भी नहीं थी. सुना था कठिन काम है. बिना कारपोरेट के मदद के या बिना जुगाड़ फिट किये मामला आगे चल नहीं सकता. इन दोनों में से कुछ भी हमारे पास नहीं था. यदि कुछ था तो बस ढेर सारा उत्साह, थोडी सी जिद्द और थोडी सी हिम्मत. यही हमारी वास्तविक पूंजी थी.

दो-ढाई साल तक टेलीविजन की नौकरी करने के बाद जो थोडी बहुत बचत हुई थी, उस पूरी बचत को पत्रिका को शुरू करने में इस अतिशय उम्मीद के साथ लगा दिया कि आगे बढ़ते हैं कोई-न-कोई रास्ता जरूर निकेलगा. पत्रिका तो निकल गयी लेकिन दो अंक बाद ही इसके बंद होने का संकट सामने आ गया. पत्रिका के साथ जुड़े कई दोस्त किसी-न-किसी कारणवश दूर होते चले गए. अब सवाल सामने था कि पत्रिका को आगे चलाया जाए या नहीं. यदि चलाया जाए तो कैसे ? संसाधनों के नाम पर बहुत सीमित चीजें थी. आखिरकार निश्चय किया कि अंतिम दम तक पत्रिका को चलाने की कोशिश की जाए. ताकि जिंदगी में कभी इस बात का मलाल न रहे कि हमने अपनी तरफ से पूरी कोशिश नहीं की और संघर्ष किये बिना ही मैदान छोड़कर चले गए.

फिर एक नए संघर्ष की शुरुआत हुई. पत्रिका को बचाने और उसे चलाने की जद्दोजहद. पत्रिका की कीमत को कम करने के लिए खुद ही सारे काम करना शुरू किया. संपादक, रिपोर्टर, टाइपिस्ट, कुरियर वाला, प्रूफ़ रीडर, आर्ट डिजाइनर, डिस्ट्रीब्यूटर सबकी भूमिका एक ही व्यक्ति निभा रहा था. चिलचिलाती धूप में फिल्म सिटी और न्यूज़ चैनलों के सामने स्टाल लगाकर पत्रिका को बेचना शुरू किया.वह अपने आप में एक बेहद अच्छा और सिखाने वाला अनुभव था. पत्रिका के संपादक को खुद स्टाल लगाकर अपनी पत्रिका को बेचते देखना कई पत्रकारों के लिए आश्चर्य की बात थी. स्टाल पर आकर कई पत्रकार मुझसे लगातार बात कर रहे थे. ऐसे प्रयास की दाद दे रहे थे. मुझे बिना किसी झिझक के ऐसा करते देखना उनके लिए आश्चर्य की बात थी. ऐसा आज भी भी कोई कर सकता है सहसा इसपर कई पत्रकार विश्वास नहीं कर पा रहे थे. रवींद्र, हरिश्चंद्र बर्णवाल, राजीव रंजन, निमिष कुमार, राजकमल चौधरी, राजेश राय, ओम प्रकाश, मुकेश चौरसिया, आशुतोष चौधरी जैसे कई ऐसे पत्रकार मित्र थे जो लगातार मेरे इस काम में मदद कर रहे थे. यह ऐसे मित्र हैं जिन्हें मेरी चिंता हैं और जो मीडिया मंत्र के साथ भावनात्मक स्तर पर जुड़े हुए हैं. यह ऐसे मित्र हैं जिनका शुक्रिया भी अदा नहीं किया जा सकता.

लेकिन यह सब करने के बावजूद पत्रिका को आगे बढ़ाना मुश्किल हो रहा था. यह ऐसा समाज है जहाँ हौसला बढ़ाने वाले से ज्यादा हौसला तोड़ने वाले लोग मौजूद हैं. आपके कदम जरा डगमगाए नहीं कि ऐसे लोग आपको लताड़ना शुरू कर देते हैं. बिना पल गवाएं ये आपको निकम्मा, नाकाबिल और असफल करार देते हैं. ऐसा ही कुछ उस वक़्त मेरे साथ हो रहा था. ऐसे मोड़ पर दो ऐसे लोग आये जिन्होंने पत्रिका को फिर से खडा करने में अहम भूमिका निभाई. इनमें से एक ईटी हिंदी.कॉम के संपादक दिलीप मंडल और दूसरे टोटल टीवी के निदेशक विनोद मेहता. दिलीप मंडल ने उस वक्त न मेरा केवल हौसला बढाया, बल्कि आर्थिक मदद करने की भी पेशकश की. उनका सम्मान करते हुए मैंने मीडिया मंत्र के लिए 500 रुपये की राशि स्वीकार कर ली. वे हर महीने मीडिया मंत्र के लिए कुछ आर्थिक मदद देना चाहते थे. लेकिन मैंने उसे अस्वीकार करते हुए कहा कि अनुदान के आधार पर मीडिया मंत्र को मैं नहीं चलाना चाहता. कोशिश करते हैं, असफल रहे तो आपसे मदद जरूर मांगेंगे. उस वक़्त वह 500 रुपये का नोट मेरे लिए बेहद अहम था. हालाँकि आर्थिक रूप से वह कोई बड़ी मदद नहीं थी और न ही उससे पत्रिका को फिर से पटरी पर लाया जा सकता था. लेकिन नैतिक तौर पर बड़ा संबल था. एक संघर्षरत पत्रकार अपने से वरिष्ठ पत्रकार से इससे ज्यादा और क्या चाहेगा.

ऐसे ही कठिन परिस्थितियों में टोटल टीवी के निदेशक विनोद मेहता मदद करने के लिए सामने आये, जो शायद नहीं आते तो मीडिया मंत्र का सफर आगे नहीं बढ़ पाता. उस वक़्त उनसे कोई गहरी जान-पहचान नहीं थी. तीसरी ही मुलाकात थी. उस मुलाकात में जैसे ही वे परिस्थितियों से वाकिफ हुए तो उसी वक़्त उन्होंने एक चेक काटकर और साथ में टोटल टीवी का विज्ञापन देकर कहा कि यह एक बेहतर प्रयास है और इसे आगे जारी रखना जरूरी है. आप ईमानदारी से अपना काम करते रहिए और कभी ऐसा लगे कि अब कोई रास्ता नहीं बचा है तो मुझसे मदद मांगने में हिचकिचाना नहीं. आगे अपने इस वादे को उन्होंने निभाया भी.

मीडिया मंत्र का आगे का सफर शायद और भी कठिन था. सवाल अब अपनी साख और ईमानदारी को बचाए रखते हुए आगे बढ़ने का था. कई ऐसे प्रस्ताव मिले जिन्हें स्वीकार कर आसानी से तमाम आर्थिक समस्याओं से छूटकारा पाया जा सकता था. लेकिन इन प्रस्तावों को स्वीकार करने का मतलब था, अपनी साख और ईमानदारी को गवां देना. इस दौरान कई लोगों के दोहरे चेहरे देखने का मौका भी मिला. ये वो लोग थे जो हरेक दूसरे मंच पर सच्ची पत्रकारिता और उससे जुडी बड़ी - बड़ी बातें करते नहीं थकते. लेकिन शायद यही लोग सबसे ज्यादा पत्रकारिता का बेजा इस्तेमाल कर रहे हैं. पत्रकारिता का एक तरह से गला घोंट रहे हैं. ऐसे लोगों की कथनी और करनी में बहुत बड़ा अंतर है. ये लोग बेहद ताक़तवर हैं. लेकिन अपनी ताकत का इस्तेमाल अपनी स्वार्थसिद्धि में कर रहे हैं. इन्हें नए पत्रकारों से चरणवंदना की अपेक्षा है और जो यह नहीं करता उनकी नजर में वे पत्रकार बनने के लायक नहीं. यही लोग सबसे ज्यादा नयी पीढी के पत्रकारों को पानी पी-पी कर कोसते हैं. लेकिन यदि नयी पीढी के पत्रकार इस पीढी के पत्रकारों से सवाल पूछे कि आपने हमें क्या दिया है? आपको पत्रकारिता की एक शानदार विरासत मिली थी. लेकिन नयी पीढी के लिए आप कैसी विरासत छोड़कर जा रहे हैं.

पत्रकारीय विचार - विमर्श की दृष्टि से इस साल जून-जुलाई का महीना काफी गहमागहमी भरा रहा। ऐसे मौके कम ही आते हैं जब एक ही समयावधि में कई जगहों पर पत्रकारिता से जुड़े अलग-अलग मुद्दों पर लगातार चर्चा हो रही हो. जून - जुलाई महीने में तीन महत्वपूर्ण संगोष्ठियाँ हुई. पहली संगोष्ठी टेलीविजन पत्रकार स्व.शैलेन्द्र सिंह की स्मृति में हुई. हालाँकि यह एक शोकसभा थी, लेकिन न्यूज रूम के टेंशन को लेकर भी ऐसी बातें उठी, जो बेहद गंभीर है. बकौल आईबीएन-7 के एडिटर (स्पेशल एसाइनमेंट) प्रभात शुंगलू - 'हमलोग जिस न्यूज रूम में काम करते हैं वह नर्क बन चुका है'. प्रभात शुंगलू का यह बयान अपने आप में बेहद महत्वपूर्ण है. इस मुद्दे पर प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में इतना खुलकर बोलने की हिम्मत जुटा लेना अपने आप में बड़ी बात थी. दूसरे टेलीविजन पत्रकार इतनी खुलकर बोलने की हिम्मत तो नहीं जुटा पाए, लेकिन इशारा जरूर कर गए. दूसरी संगोष्ठी स्व.एस.पी.सिंह की 12 वीं पुण्यतिथि के मौके पर हुई. इसमें भी एस.पी.सिंह की पत्रकारिता और अब हो रही पत्रकारिता के संदर्भ में बात हुई. लेकिन 11 जुलाई को हुई तीसरी संगोष्ठी सर्वाधिक चर्चा और विवादों में रही. यह संगोष्ठी स्व.उदयन शर्मा के स्मृति में हुई. हरेक साल उदयन शर्मा मेमोरियल ट्रस्ट उनके जन्मदिन वाले दिन यानि 11 जुलाई को एक स्मृति सभा का आयोजन करती है. इस मौके पर रफी मार्ग स्थित कॉन्सटीट्यूशन क्लब प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया के संपादकों और पत्रकारों से खचाखच भरा हुआ था. संगोष्ठी में 'लोकसभा चुनाव और मीडिया को सबक' विषय पर परिचर्चा हुई और इस दौरान काफी गरमा - गर्मी भी हुई. अपनी - अपनी बारी आने पर वरिष्ठ पत्रकारों ने अपनी बात रखी. ज्यादातर वरिष्ठ पत्रकारों और संपादकों ने वर्तमान में हो रही पत्रकारिता पर चिंता व्यक्त की और वर्तमान पत्रकारिता को जी भर कर के कोसा. हम जैसे युवा पत्रकारों के लिए बड़े आर्श्चय की बात थी कि आखिर इस सभागार में पत्रकारिता के नाम पर जो आलाप किया जा रहा है, उसके लिए दोषी कौन है. पिछले 10-15 साल से यही लोग भारतीय पत्रकारिता का नेतृत्व कर रहे हैं. फिर दोष किसे दिया जा रहा है. चौथी दुनिया के संपादक संतोष भारतीय ने इसी सभा में एक बड़ी मार्के की बात कही - 'आज के कई संपादक एडिट पेज पर लिखकर नैतिकता की दुहाई देते हैं. लेकिन क्या अपने संस्थान में फैले अनैतिकता के खिलाफ आवाज उठाते हैं. हमको खुद को गालियाँ देनी चाहिए. अपने अंदर झाँकने की जरूरत है.' यह बात जितनी शिद्दत से कही गयी, काश उसको व्यवहार में भी लाया जा सकता तो पत्रकारिता के नाम पर आलाप करने की जरूरत ही नहीं पड़ती. उसी संगोष्ठी में एक दोहरा मापदंड भी देखने को मिला. संगोष्ठी के दौरान दो ऐसे बयान आये जिसपर वहां मौजूद कई पत्रकारों को कड़ी आपत्ति थी. एक बयान आईबीएन-7 के मैंनेजिंग एडिटर आशुतोष और दूसरा बयान केन्द्रीय मंत्री कपिल सिब्बल की तरफ से आया. आशुतोष ने आज के हालात में हो रही पत्रकारिता को कुछ जस्टिफाय करने की कोशिश करते हुए कहा कि क्या 1977 में ऐसा नहीं होता था. क्या उस समय प्रायोजित खबरें नहीं छपते थे. क्या उस समय ऐसे भ्रष्ट पत्रकार नहीं थे. यह बात वहां बैठे कुछ पत्रकारों को इतनी नागवार गुजरी और इतना शोर मचाया गया कि आशुतोष को अपनी बात अधूरी ही छोड़कर मंच से उतरना पड़ा. दूसरा बयान कपिल सिब्बल की तरफ से आया. कपिल सिब्बल पत्रकारों को ठेंगा दिखाते हुए कहते हैं कि आप क्या लिखते हैं, इससे हमें कोई फर्क नहीं पड़ता. इसपर भी वहां बैठे पत्रकारों को आपत्ति होती है. लेकिन विरोध कपिल सिब्बल के सभागार से चले जाने के बाद दर्ज कराया जाता है. यह वही पत्रकार थे जो आशुतोष की आवाज को शोर में दबा चुके थे. ऐसा नहीं है कि आशुतोष की बात से मैं पूरी तरह से सहमत हूँ. लेकिन यहाँ सवाल दोहरे मापदंड का है. ऐसे सभागार में जहाँ पत्रकारिता और नैतिकता की बड़ी - बड़ी बातें की जा रही थी वहीँ पर एक सी परिस्थिति में दो तरह के मापदंड अपनाएं जा रहे थे. ऐसे में पत्रकारिता में सुधार की गुंजाईश की आप परिकल्पना भी आप कैसे कर सकते हैं. वैसे मेरा अपना मानना है कि बाहर ऐसा बहुत कुछ हो रहा है जिसे आप पत्रकारिता के लिए शुभ संकेत मान सकते है. अच्छे और सच्चे पत्रकारों की कमी नहीं है. यदि जरूरत है तो सिर्फ इनको बढ़ावा देने की. पत्रकारिता की दुनिया अपने आप ही बदल जायेगी।
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