"ख़बरों की ख़बरः क्यों और कितना जरुरी?" को लेकर प्रेस क्लब में गर्माहट का माहौल बना रहा। सलाह, नसीहतें और असहमति के बीच से जो भी कुछ निकलकर सामने आया,उसका लब्बोलुआब इतना है कि खबरों की खबर लिया जाना अनिवार्य है। न केवल अनिवार्य है बल्कि इस दिशा में,उन्हें दुरुस्त करने के लिए लगातार सक्रिय रहने की जरुरत है।
बहस की शुरुआत न्यूज 24 के मैराथन एंकर सईद अंसारी से होती है। सईद अंसारी ने बमुश्किल दो मिनट बातें की होगी कि जनतंत्र के मॉडरेटर समरेन्द्र ने सवाल किया कि यहां सवाल-जबाब का भी प्रावधान है? मतलब ये कि सईद अंसारी ने जिस अंदाज में अपनी बात शुरु की,बहस की गुंजाइश तत्काल वहीं से बननी शुरु हो गयी। उन्होंने आते ही कहा कि खबरों की खबर जरुर,जरुर लेनी चाहिए लेकिन सवाल है कि क्या वेबसाइट,पोर्टल और इंटरनेट पर जो लोग लिख रहे हैं वे खबरों की खबर ले रहे हैं? वो खबरियों की खबर के पीछे उलझकर रह जा रहे हैं। वो इस मामले में उसी तरह से काम कर रहे हैं जिस तरह के काम न्यूज चैनल के लोग करते हैं। वो भी इस बात में ज्यादा दिलचस्पी लेते हैं कि किस चैनल के मीडियाकर्मी ने अपने बॉस को गाली दे दी,किस चैनल में किसका चक्कर किसके साछ चल रहा है,नोएडा फिल्म सीटी में किस चैनल के भीतर इश्किया चल रहा है? क्या ये खबरों की खबर है, वेबसाइट के लोगों को इस पर गंभीरता से विचार करने होंगे। सईद अंसारी के हिसाब से खबरों की खबर लेनेवाली वेबसाइट को न्यूज चैनल के डुप्लीकेट्स बनने से बचना चाहिए। आज न्यूज चैनल जिस बात के लिए बदनाम है,वही रास्ता उन्हें नहीं अख्तियार करना चाहिए। इसके बजाय
वेबसाइट को चाहिए कि वो न्यूज चैनलों ने खबरों में जो दिखाया है,उस पर बात करे। वो बताए कि अमित शाह को लेकर, किसी भी राजनीतिक घटना को लेकर जो खबरें चलायी है,वो इस तरह से नहीं है। उन्हें बताना चाहिए कि किसी खबर को किस चैनल ने किस तरह से दिखाया और उसे कैसे दिखाना चाहिए? न्यूज चैनलों की खबरों को मसालेदार और चटपटी बनाने के बजाय उन्हें ये देखना चाहिए कि चैनल में किसकी स्क्रिप्ट अच्छी है,कौन रन-डाउन पर बैठा है जिसके आए अभी दो साल ही हुए और बेहतरीन काम कर रहा है,किस चैनल का कैमरामैन सबों से हटकर काम कर रहा है? मीडिया की खबर का मतलब सिर्फ बड़े और नामचीन हस्तियों की बातों को छापना भर नहीं है,उनकी भी सुध लेनी चाहिए जो कि बहुत ही कम समय के अनुभव के साथ जबरदस्त तरीके से काम कर रहे हैं।
सईद अंसारी ने उस जरुरी बात की तरह इशारा किया जो कि इधर कुछ महीनों से वेबसाइट में तेजी से फैल रहा है कि-किसी एक-दो लोगों के फोन आ जाने पर खबरें हटा ली जाती है? सईद अंसारी ने सीधा सवाल किया कि वो कौन लोग हैं जिनके कहने पर आप खबरें हटा लेते हैं,क्यों हटा लेते हैं,आपके साथ ऐसी कौन सी मजबूरी होती है? आपको हर हाल में दबाबों से मुक्त होकर एक आजाद माध्यम के तौर पर काम करना चाहिए।
तीसरी बात जो उऩ्होंने जोर देकर कहा वो ये कि आप जो भी खबरें छापते हैं,उसकी ऑथेंटिसिटी क्या है? कोई जुनूनी पत्रकार नाम से आपको मेल करता है और आप उसे प्रकाशित कर देते हैं। बिना ये जाने कि इस खबर का दूसरा पक्ष क्या है? इस तरह से एकतरफा ढंग से खबरें छापना,बिना ये बताए कि किसने इसे लिखा है,सही नहीं है। आपको कम से कम एक लाइन में लिखना चाहिए कि हम व्यावसायिक प्रावधानों को लेकर इनका परिचय नहीं दे पा रहे हैं। इस तरह से बेनामी लोगों की बातों को छापने के पहले आपको खबरों की विश्वसनीयता पर विचार करने होंगे।
सईद अंसारी ने जो भी सवाल उठाए और जिस भी तरह की असहमति वेबसाइट को लेकर जतायी वो सारे सवाल देश के न्यूज चैनलों की ऑडिएंस भी करती है। न्यूज चैनलों को लेकर एक ऑडिएंस का जो दर्द,जो बेचैनी और उसकी चिरकुटई को लेकर जो परेशानी ऑडिएंस को होती है,सईद अंसारी ने वो सबकुछ वेबसाइट को लेकर शेयर करने की कोशिश की जिस पर कि बाद में कई सवाल खड़े हुए।
सईद अंसारी के बाद, स्वतंत्र पत्रकार और सामाजिक विश्लेषक दिलीप मंडल ने इस मसले पर अपनी बात रखी। दिलीप मंडल साफ तौर पर कहा कि आज मीडिया का जो ढांचा है उसमें मीडिया वेबसाइट बहुत ही छोटे प्लेयर हैं। मीडिया साइट क्या चैनल और संस्थानों में भी जो लोग काम कर रहे हैं,डिसीजन मेकिंग में उनकी कोई बहुत हैसियत नहीं है। अगर आप अरुण पुरी और प्रणय राय को पत्रकार मानते हैं तो इनको छोड़कर बाकी मीडिया का कोई भी शख्स बोर्ड मीटिंग में नहीं बैठता। नहीं बैठते मतलब कि वो तय भी नहीं करते कि इसमें क्या होना चाहिए क्या नहीं। दिलीप मंडल ने मीडिया संस्थानों की इकॉनमी ताकतों की बात करते हुए विज्ञापन पॉलिसी पर बात की। उन्होंने बताया कि मीडिया के भीतर जो हम बड़ी-बड़ी बातें करते हैं,उसके भीतर का इकॉनमी सच कुछ और ही है। प्रॉक्टल एंड गेंबल का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि ये कंपनी उन मीडिया हाउसों को विज्ञापन नहीं देती जो कि क्रिटिकल इकॉनमी से जुड़ी खबरें करते हैं। इसी तरह बाकी कंपनियों की भी अपनी-अपनी बिजनेस स्ट्रैटजी है। दिलीप मंडल की इस बात से जो चीजें सामने आती है वो ये कि किसी न किसी रुप में लगभग सारे संस्थान इन कंपनियों की स्ट्रैटजी के सांचे में अपने को ढालने की कोशिश में होते हैं। ऐसे में मीडिया की बहुत सारी बातें बहुत पीछे चली जाती है। इसलिए
मीडिया वेबसाइट फिलहाल जो काम कर रहे हैं,उससे बहुत अधिक फर्क पड़नेवाला नहीं है। आज आप मानिए या न मानिए,मीडिया और इन्टरटेन्मेंट दोनों एक-दूसरे से गूंथे हुए हैं। केपीएमजी,प्राइसवाटर कूपर्स सहित दूसरे जितने भी रिपोर्ट आते हैं,उनमें दोनों को इसी कैटेगरी में शामिल किया जाता है। मैंने खुद भी देखा है कि बिजनेट साइस भी इन्हें इसी कैटेगरी में रखते हैं। ऐसे में मीडिया वेबसाइट के पास संभावनाएं बहुत हैं। वो अगर इस खेल को लोगों के सामने ला पाते हैं तो बड़ा काम कर सकेंगे। मीडिया इन्डस्ट्री के जो भी मॉडल हैं और उनके भीतर जो तोड़-जोड़ चलते रहते हैं,उसे शामिल किए जाने से एक अलग किस्म की चीज निकलकर सामने आएगी।
मीडिया के सवाल पर मैं दिलीप मंडल को लगातार सुनता आया हूं। उनके डिस्कोर्स के दरवाजे एथिक्स,कंटेंट और एडीटोरियल से न खुलकर जो कि ज्यादा आसान है,बिजनेस और इकॉनमी से खुलती है। ऐसा होने से वो उस लाचारी की तरह इशारा करते नजर आते हैं जहां एथिक्स एक भद्दा मजाक और एडीटोरियल बहुत ही निरीह की शक्ल में हमें दिखाई देने लगता है जबकि उनकी बातों की विश्वसनीयता कहीं अधिक बढ़ जाती है। उनके हिसाब से मीडिया वेबसाइट बहुत कुछ कर सकते हैं, बस जरुरत इस बात की है कि वो मीडिया की इकॉनमी के खेल को गंभीरता से ले,उसे सामने लाने की कोशिश करे। सिर्फ एडीटोरियल पर टिककर बहुत कुछ निकाला नहीं जा सकता।
दिलीप मंडल ने मीडिया वेबसाइटों को ये साफ तौर पर बता कि आप जहां खड़े हैं,वहां की जमीन कैसी है? वर्तिका नंदा दिलीप मंडल के बाद अपनी बात रखती है। वर्तिका नंदा के बात करने का अंदाज एकदम जुदा है। विमर्श की भाषा इतनी सरस हो सकती है,हैरानी होती है। अपराध पत्रकारिता पर किताब पढ़ते हुए और उन्हें बोलते हुए सुनने के बाद एक अलग किस्म की अनुभूति होती है। उनकी बातों में एक काव्यात्मक असर है जो साहित्य की संवेदना और मीडिया की तथ्यात्मक दृष्टिकोण से विकसित हुई है। बहुत ही सॉफ्ट अंदाज में अपनी बात की शुरुआत करती है-
एक कविता है- मोचीराम। उसकी चार पंक्तियां मुझे याद आती हैं-
सच कहूं बाबूजी
मेरी नजर में कोई इंसान न तो बड़ा है,छोटा
मेरी नजर में हर इंसान
एक जोड़ी जूता है
जो मरम्मत के लिए
मेरे सामने खड़ा है।..
जब ये कविता लिखी गयी थी,उस समय ये न्यूज चैनल्स नहीं आए थे लेकिन कविता की ये पंक्तियां इन चैनलों पर बिल्कुल फिट बैठती है। आज न्यूज चैनलों की,मीडिया की स्थिति कुछ वैसी ही है। वर्तिका नंदा जिस बात की तरफ इशारा कर रही थी उसका साफ मतलब है कि मीडिया ने चुनाव की समझदारी खो दी है। उसके सामने अच्छा और खराब के चुनने की काबिलियत खत्म हो गयी है। अगर काबिलियत बची भी है तो सिर्फ इस बात के लिए कि सबको एक सिरे से कैसे सेलेबल बनाया जाए। सबकुछ ताक पर रखकर सिर्फ और सिर्फ बेचने की काबिलियत आज की मीडिया की पहचान है। खबर है कि एक चैनल ने कॉमनवेल्थ के खिलाफ स्टोरी न दिखाने को लेकर लगभग समझौता ही कर लिया है। वर्तिका नंदा मीडिया के इस सच को वेबसाइट में भी आ जाने के प्रति शंका जाहिर करती है। मीडिया की आलोचना करनेवाले,उनकी खबर लेनेवाले भी कहीं यही सब तो नहीं करने लग गए? वो मीडियाखबर डॉट कॉम के मॉडरेटर पुष्कर पुष्प की तरह सवाल भरी निगाहों से देखती है,फिर कहती है- याद है पुष्कर,मैंने पहले भी आफसे पूछा था कि आप ये सब करते हुए,लिखते हुए अपनी मर्यादाओं का तो ख्याल कर रहे हैं न? यही सवाल मैं आज भी करना चाहती हूं। वर्तिका नंदा का ये सवाल सईद अंसारी के ऑथेंटिसिटी के सवाल के साथ जुड़ता है। आगे वो कहती हैं-
ऐसा बिल्कुल भी नहीं है कि खबरों की खबर लेनेवाले की खबर नहीं ली जानी चाहिए। ये बहुत ही जरुरी काम है। मीडिया संस्थानों के भीतर ऐसा बहुत कुछ घटित होता है जिसे कि लोगों के सामने आना चाहिए। पहले लोग मेल के जरिए अपनी बातें एक-दूसरे से शेयर करते थे। बाद में पता चला कि ये सब तो बॉस पढ़ लेते हैं तो फिर क्या करें? इन्हीं झंझटों के बीच कई विकल्प खुले। फिर वो अपनी एक कूलिग की छुट्टी मांगने का वाक्या शेयर करती है कि कैसे उसे एमए की परीक्षा देने के नाम पर छुट्टी नहीं मिलती जबकि दोबारा लंदन जाने के नाम पर दस दिनों की छुट्टी मिल जाती है। मीडिया चिलआउट को ज्यादा जेनुइन मानता है,बजाय इसके कि किसी मीडियाकर्मी का दिमाग पढ़ने-लिखने की तरफ सक्रिय रहे।
वेबसाइट के लोग अगर मीडिया की खबर ले रहे है तो कहीं न कहीं उन्हें अपनी जिम्मेदारी तय करनी होगी। उन्हें देखना होगा कि वो जो कुछ लिख रहे हैं,उसका क्या असर हैं,उसके पीछे का क्या सच हो सकता है? 29 साल का एक नौजवान वेबसाइट बस इसलिए खोलना चाहता है कि वो कुछ लोगों को बजा देना चाहता है। ऐसे में तय करना होगा कि इसका इस्तेमाल किस दिशा की ओर किया जा रहा है? एक बिहार या पंजाब के शख्स को अगर इस बात से शिकायत है कि उसका बॉस उसके यहां के नहीं होने की वजह से उसे परेशान करता है तो इस खबर को छापने के पहले समझना होगा कि इस बात में कितनी सच्चाई है? कहीं ऐसा तो नहीं कि बॉस को इस समीकरण की कहीं कोई जानकारी नहीं। जरुरी सुझावों के साथ वो इस तरह के एफर्ट की सराहना करती हुई अपनी बात खत्म करती है।
रंजन जैदी के आने से थोड़ी देर के लिए माहौल अलग हो जाता है। थोड़ा-थोड़ा सूफियाना और बहुत ज्यादा उत्साहवर्धक। अब तक तीनों वक्ताओं के बोले जाने से जो जाने-अनजाने नसीहतों का रियाज चल रहा था,रंजन जैदी उसे भंग करते हैं। उन्हें इस बात पर फक्र होता है कि कोई तो है जो इस सब चीजों से लड़-भिड़ रहा है,डटकर मुकाबला कर रहा है। नहीं तो सब कुछ तो चलता ही रहता है। वो वेबसाइट के लोगों का हौसला बढ़ाते हुए कहते हैं कि कहीं कुछ भी लेकर डरने की बात नहीं है। बिना किसी समझौते के,बिना कोई भय के अपनी बात करनी चाहिए। इन सारी बातों के बीच कविता और शेर का दौर चलता रहता है। कविताओं की पंक्तियों को सुनते हुए मेरी तरह शायद बाकी लोगों को भी दिनकर की 'कुरुक्षेत्र' की याद जरुर आ रही होगी। गंभीर विमर्श के बीच कविता माहौल को थोड़ा हल्का करती है और हमें एहसास होता है- और भी हैं गम जमाने में। विषयों से हटकर बोलने के वाबजूद भी रंजन जैदी,अलग फ्लेवर में अपनी बात रखने के कारण ऑडिएंस के बीच अपनी पैठ बनाए रखते हैं। लेकिन चलते-चलते के अंदाज में ये जरुर कह जाते हैं कि हां मीडिया की खबर के नाम पर निजी जिंदगी को लेकर चर्चा नहीं होनी चाहिए। सबों की जिंदगी में कुछ न कुछ पर्सनल है,वेबसाइट को चाहिए कि वो इसे इग्नोर करे।
अजयनाथ झा हमारे जमाने के पुराने पत्रकार हैं। लंबे समय तक अंग्रेजी पत्रकारिता करने के बाद जब वो हिन्दी में लिखने पर विचार करते हैं तो बातचीत की शुरआत उस बिंदु से करते हैं जहां वो भाषाई स्तर पर लिखने में फर्क महसूस करते हैं। इसके बाद खबरों की खबर लिए जाने के मसले पर राजेन्द्र माथुर की कही हुई बात याद करते हैं कि मीडिया के लोगों को चाहिए कि दुनिया की मुठ्ठी खोल दे लेकिन अपनी मुठ्ठी कभी न खोले। अजयनाथ झा ने बहुत मौके पर ये बात कही। बल्कि इस पर अलग से बात होनी चाहिए। मेनस्ट्रीम मीडिया से जुड़े कई ऐसे लोग इस बात की दलील तो जरुर देते हैं कि जो लोग देखना/पढ़ना चाहते हैं,वहीं वो दिखाते हैं,लिखते हैं लेकिन क्या सच ऐसा ही है,इसकी टोह लेने का माद्दा,लोगों के बीच आकर बात करने की हैसियत उनमें नहीं है। ये लोग नहीं चाहते कि मीडिया के नाम पर जो खेल चल रहे हैं,वो लोगों के सामने खुलकर आ जाए। राजेनद्र माथुर ने मुठ्ठीवाली बात जिस संदर्भ में की थी,आज संभव है कि वो संदर्भ पूरी तरह बदल गए हों लेकिन ऐसा किया जाना सिर्फ प्रोफेशन की अनिवार्यता और मजबूरियों को लेकर नहीं है बल्कि इनमें कई ऐसे मामले हैं जो कि सीधे-सीधे नागरिक अधिकार,श्रमजीवी पत्रकार कानून और संवैधानिक प्रावधानों की धज्जियां उड़ाते नजर आते हैं। ऐसे मामलों का लोगों के सामने खुलकर सामने आना जरुरी है।
अजयनाथ झा ने पत्रकारों की पूरी की पूरी उस जमात की तरफ इशारा किया जो मौके से पत्रकार बन गए। उऩके भीतर पत्रकारिता का न तो वो जज्बा है और न ही वो कोई बदलाव की नीयत से काम कर रहे हैं। अजयनाथ झा की बात को समझें तो मौके से बन हुए पत्रकार क्या कर रहे हैं, ये सब हमारे सामने साफ है।
इस बीच दिलीप मंडल जरुरी काम से विदा लेते हैं औऱ ठीक उसी वक्त प्रभात शुंगलू आते हैं। हमारे अनुरोध पर वो भी इस मसले पर अपनी बात रखने के लिए तैयार हो जाते हैं।
प्रभात शुंगूल अपनी बात की शुरुआत सीधे-सीधे चैनलों की आलोचना से करते हैं। उनका मानना है कि मीडिया को अब दूकान कहना सही नहीं होगा,इसे आप मॉल कहिए। पत्रकारों का एक तबका ऐसा है जिसके पास बहुत पैसा आ गया है, दुनियाभर की सुविधाएं जुटा लिए हैं। ऐसे में उनके सोचने का तरीका भी बदल गया है।
प्रभात शुंगलू आते ही वक्ता के तौर पर बुलाए गए उन नामों के प्रति अपनी असहमति जताते हैं जो ऐसे मसले पर बोलने का अधिकार खो चुके हैं। उन्होंने कहा कि वो अपनी किताब के लोकार्पण के लिए पत्रकारों की तरफ नजर दौड़ते हैं। उन्हें एक भी ऐसा नाम दिखाई नहीं देता जो कि पूरा तरह निष्पक्ष हो। शुंगलू ने अपनी किताब का नाम रखा है- यहां मुखौटे बिकते हैं। मुझे लगता है कि किताब तो किताब, ये शीर्षक ही मीडिया इन्डस्ट्री के समझने में बहुत मददगार साबित होंगे। प्रभात शुंगलू ने जिस बेबाकी से अपनी बात रखी,मुझे उनकी आज से करीब सालभर पहले कही बात याद आ गयी कि न्यूजरुम नरक हो गया है। उन्होंने ये बात प्रेस क्लब के उसी हॉल में कहीं थी जहां कल कही। तब देश के तमाम बड़े चैनलों के एडीटर मौजूद थे और शुंगूल खुद भी खबर हर कीमत पर के लिए काम कर रहे थे। आज वो मीडिया इन्डस्ट्री से अपने को अलग कर लिया है।
लेकिन मीडिया और उसके लोगों की तीखी और जरुरी आलोचना करते हुए भी प्रभात शुंगलू वेबसाइट के हड़बड़ी में लिखे गए उस रवैये पर आपत्ति दर्ज करते हैं कि बिना मुझसे कंसेंट लिए लिखा जाता है कि इस्तीफा दे दिया। भाई,इस्तीफा दिया या फिर दिलाया गया,पूरी मामला क्या है इसकी छानबीन तो जरुरी है। मतलब ये कि वेबसाइट को न्यूज चैनलों की तरह ब्रेकिंग न्यूज की लग न लग जाए,इसके प्रति वो सचेत करते हैं।
प्रभात शुंगलू आखिरी वक्ता के तौर पर अपनी बात खत्म करते हैं। उसके बाद सवाल-जबाब का दौर शुरु होता है।
जनतंत्र डॉट कॉम के संपादक समरेन्द्र सईद अंसारी के बोलने के समय ही सवाल करना चाह रहे थे,अब वो एक्टिव होते हैं। समरेन्द्र ने साफ कहा कि आपके उपर भड़ास4मीडिया का असर इतना है कि आफ सारी वेबसाइट को इसी तरह से देख-समझ रहे हैं जबकि बाकी की साइट अलग काम कर रही है। उन्होंने श्रमजीवी पत्रकारों के वेतनमान को लेकर केंद्र सरकार की तरफ से बनाए गए वेज बोर्ड की दिल्ली में मंगलवार को हुई बैठक में जनसत्ता के पत्रकार अंबरीश कुमार ने देश भर के पत्रकारों की सामाजिक आर्थिक सुरक्षा का सवाल उठाया और बोर्ड ने इस सिलसिले ठोस कदम उठाने का संकेत भी दिया है है जैसी खबर शायद ही कहीं मिले,इस पर चर्चा हुई हो लेकिन वेबसाइट ने इसे छापा है। अखबार की चालीस हजार प्रति की सर्कुलेशन पर लाख रुपये वेतन पा रहे हैं पत्रकार,इस पर कौन बोल रहा है? उन्होंने सईद अंसारी की इस बात का कि आप किसके कहने पर खबरें हटा देते हैं के जबाब में कहा कि हमलोगों के पास पैसा उसी तरह से नहीं आता जिस तरह से राजीव शुक्ला के चैनल को आता है। दबाब की बात को मोहल्लालाइव के मॉडरेटर जो कि अभी-अभी आए ही थे,आगे बढ़ाते हुए कहा कि हमलोगों पर भी व्यक्तिगत स्तर के दबाब काम करते हैं। हम खबरों को हटाते हैं तो ये काम टेलीविजन में भी होता है। वहां भी कई खबर कवर होने के बाद नहीं चलायी जाती,एक बार चलाकर बंद कर दी जाती है। अखबार में भी गलत खबर छापकर माफी मांगी जाती है। इसलिए ये कहना कि वेबसाइट ऐसा करते हैं सही नहीं होगा। इसी क्रम में अविनाश ने बेनामी का समर्थन करते हुआ कि असल मसला है कि तथ्य के तौर पर चीजें सामने आ रही है या नहीं? यहां बहस थोड़ी और तल्ख होती है, प्रभात शुंगूल और सईद अंसारी थोड़े और गर्म होते हैं। प्रभात शुंगलू का चैनल के विरोध में स्वर और तेज होता है जबकि सईद अंसारी अपने पक्ष को दोबारा रखते हैं कि बेनामी लोग हमें नहीं तो कम से कम संपादक को तो बताएं कि वौ कौन हैं? इन्हीं मसलों के बीच कुछ और सवाल आते हैं।..
हॉल खाली करने का समय होने लग जाता है। प्रेस क्लब हॉल 6 बजे तक खाली करने का प्रेशर होता है। बहस की गुंजाईश बनी रहती है लेकिन लोग उठने लग जाते हैं। मंच संचालक के तौर पर मेरे आग्रह से लोग रुकते हैं। जब आपने हमें इतनी देर तक बर्दाश्त किया तो दो मिनट और बर्दाश्त करें। प्रमोद तिवारी को धन्यवाद ज्ञापन दे लेने दें।
प्रमोद तिवारी बहुत ही कम शब्दों में सबों का शुक्रिया अदा करते हैं। वो आज से तीन साल पहले उन पलों को याद करते हुए भावुक हो उठते हैं कि कैसे जब मीडिया मंत्र के पहले अंक का विमोचन किया जा रहा था, इसी हॉल में प्रभाष जोशी ने कहा था कि ये नन्हें शावक हैं,इन्हें कूदने-कुलांचे भरने का मौका दें,उनका हौसला बढ़ाएं। तीन साल में मीडिया मंत्र और दो साल में मीडियाखबर ने ये सफर तय किया है।..हम इसे मिल-जुलकर औऱ आगे ले जाएं।
खबरों की खबरः क्यों और कितना जरुरी? विषय पर परिचर्चा का आयोजन मीडिया खबर डॉट कॉम के दो साल पूरे होने के मौके पर किया गया। मीडियाखबर डॉट कॉम ने अपने आमंत्रण पत्र में लिखा था कि अपने हाथों कीजिए,अपनी वेबसाइट रिलांच। चार बजे क्लिक कीजिए मीडियाखबर डॉट कॉम। साढ़े तीन बजे से कार्यक्रम की शुरुआत होनी थी और चार बजे साइट रिलांच होना था,अपने नए रंग-रुप में. इसी बीज टेलीविजन के पत्रकारों ने लामंबदी कर ली और लिफ्ट में हैं,रास्ते में हैं,पांच मिनट में पहुंच रहे हैं करके अंत तक नहीं आए। उनके न आने से बातचीत में लेकिन कोई खास फर्क तो नहीं पड़ा लेकिन हां न आकर उन्होंने शिड्यूल को बेतरतीब जरुर कर दिया। बहरहाल,पहले से तय तक कि किसी बिग शॉट से साइट का विमोचन नहीं कराना है,एक नया प्रयोग था,इसलिए वक्ता सहित मौजूद लोगों ने साइट का विमोचन अपने हाथों किया. अपने-अपने घरों,ऑफिसों और डेस्क पर बैठे लोगों को चार बजने का इंतजार था,उन्हें और परेशान नहीं किया जा सकता था।
दो साल के भीतर साइट ने जो काम किया,उसे लेकर लोगों की क्या प्रतिक्रिया है,इसे समझने में ये परिचर्चा मददगार साबित होगी। इस मौके पर मीडियाखबर डॉट कॉम के संपादक पुष्कर पुष्प ने अपने उन अनुभवों को साझा किया जो आज की कार्पोरेट मीडिया और भारी पूंजी से अपने को अलग काम करने से हासिल हुए। उन तनावों,झंझटों और दबाबों को हमारे सामने रखने की कोशिश की जिसे सुन-समझकर बिना बड़ी पूंजी के पत्रकारिता को जिंदा रखने की जद्दोजहद पर हमें नए सिरे से विचार करना जरुरी लगता है। लोगों का स्वागत करते हुए ज़ैन अवान ने शायद ठीक ही कहा कि हर किसी के भीतर सपने होते हैं और उन सपनों को सच्चाई में बदलने में बहुत सारी मुश्किलें आती है,यह भी उसी तरह का एक काम है।
नोट- मंच संचालन करते हुए जितनी बातें मैं सुन-समझ सका,उसे आपसे साझा कर रहा हूं। संभव है इसमें वक्ता के बोले गए शब्दों से पोस्ट के शब्द हूबहू मेल न खाते हों लेकिन पूरी कोशिश रही है कि वक्तव्य की मूल भावना में रत्तभर भी फर्क न आने पाए।..
ख़बरों की ख़बर क्यों और कितना जरुरी? प्रेस क्लब में बहस आज
Posted On 9:55 am by विनीत कुमार | 2 comments
दुनिया की ख़बर लेनेवाली मीडिया और मीडिया संस्थानों की जब ख़बरें ली जाने लगती है,तब वो इसे बर्दाश्त नहीं कर पाते। वो नहीं चाहते कि लोकतंत्र की हिफाजत के नाम पर, ख़बरों की दुनिया के पीछे का जो खुल्ला-खेल फर्रुखाबादी चलाते आए हैं,वो सब लोगों के सामने आ जाए। दुनिया की ख़बरें कब्र से निकाल ली जाए लेकिन उनकी ख़बरें सामने आने के पहले ही कब्र में दफना दी जाए। शायद यही वजह है कि जिस समय एक एयरलाइंस में जितनी संख्या में लोगों को नौकरी से बेदखल किया जाता है,ठीक उसी समय उससे कहीं ज्यादा संख्या में एक मीडिया संस्थान के मीडियाकर्मी सड़कों पर आ जाते हैं। एयरलाइंस की खबर चौबीस घंटे से ज्यादा अबाध गति से चलती है लेकिन इन मीडियाकर्मियों की हालत पर कहीं एक लाइन भी कुछ दिखाया/बताया नहीं जाता। मीडिया और चैनलों की बाढ़ के बीच जहां छोटी से छोटी ख़बर के ब्रेकिंग न्यूज बनने की लगातार संभावना बनी रहती है,देश की हर लड़की,हर स्त्री एक पैकेज है की गुंजाईश में देखी-समझी जाती है,वहीं देश के सबसे तेज कहे जानेवाले चैनल की एक मीडियाकर्मी की देर रात काम की शिफ्ट से लौटने के दौरान हत्या कर दी जाती है और चैनल पर बारह घंटे तक कोई ख़बर नहीं आती। देश में हजारों ऐसे मीडियाकर्मी हैं जो एक मजदूर से भी ज्यादा बदतर जिंदगी जीने के लिए मजबूर हैं। उन बदतर स्थिति में जीनेवाले मजदूरों पर रवीश कुमार फिर भी कभी आधे घंटे की स्टोरी बना देते हैं लेकिन इन मीडियाकर्मियों की सुध लेनेवाला कोई नहीं है।..वो दुनिया के लिए ख़बर तो जरुर दिखा-बता सकते हैं लेकिन उन ख़बरों में वो खुद कहीं नहीं शामिल हैं। ये स्थिति ठीक उसी तरह की है जिस तरह से एक मजदूर दिन-रात रिबॉक और नाइकी के जूते बनाए और उसके खुद के पैरों की फटी विवाई जूते के जरिए एडवांस समाज बनने के उपर तमाचे जड़ दे।
ऐसे में मीडिया आलोचना के लिए जिन शब्दों का प्रयोग किया जाता है,जिस जार्गन के तहत उसकी बात की जाती है,वो पूरी तरह स्टैब्लिश करते हैं कि ये मीडिया के विरोध में,उसके खिलाफ सक्रिय होने की कोशिशें हैं।
जबकि सच बात तो ये है कि मीडिया आलोचना और ख़बरों की ख़बर दोनों एक चीज नहीं है। इस देश में मीडिया आलोचना की अब तक की जो परंपरा रही है उसमें या तो इसे विकासवादी माध्यम साबित करके सारी जिम्मेदारी इस पर लाद दी जाए या फिर इसे पूंजीवादी माध्यम बताकर इसे नेस्तनाबूद करने के दिशा में सोचा जाए या फिर( जो कि इन दिनों प्रचलन में है) फूहड़ बताकर किनाराकशी कर लिया जाए। ख़बरों की ख़बर में ये तीनों स्थितियां अलग है।
वर्चुअल स्पेस पर मीडिया को लेकर ख़बरों की ख़बर का जो दौर चल रहा है वो विश्लेषण या आलोचना से न केवल अलग है बल्कि उससे कहीं ज्यादा आगे की चीज है। यहां अगर आलोचना भी की जा रही है तो उसके पहले कंटेंट जेनरेट करने का काम ज्यादा जरुरी है। बल्कि मीडिया पर बात करने के लिए उसे लेकर गहरे विमर्श में घंसने के बजाय ज्यादा जरुरी काम है कि जो तथ्य आते हैं उन्हें हू बू हू लोगों के सामने रख दिए जाएं। ज्यादा से ज्यादा घटनाओं और कंटेंट को सामने रख देनेभर से ही कई स्थितियां साफ हो जाती है। खबरों की बाकी बीट के मुकाबले मीडिया में फिलहाल विश्लेषण का काम न भी हो,लोगों को सिर्फ ये बताया जाए कि कहां क्या हो रहा है,उसी से बहुत बड़ा काम हो जाएगा और हो भी रहा है। ऐसा होने से
ये बात बिल्कुल साफ हो जाएगी कि ख़बरों की ख़बर का मतलब ख़बर लेनेवाले को आलोचना की तरह खत्म करना नहीं है बल्कि इतनाभर बताना है कि लोकतंत्र को बचाने के नाम पर जिस मीडिया को आपने चंडूखाना बना दिया है,उसकी सारी ख़बरें रिस-रिसकर लोगों तक पहुंच रही है,आपकी एक-एक हरकत पर नजर रखी जा रही है। संस्थान के भीतर किस तरह की गड़बड़ियां चल रही है,कंटेंट को लेकर किस तरह के समझौते चल रहे हैं,ये सब लोगों के सामने आ रहे हैं। ऐसा होने से मीडिया आलोचना को मीडिया और उनसे जुड़े लोगों के खिलाफ समझा जाता रहा है,ख़बरों की ख़बर इस दिशा में उनके अधिकारों की वापसी की बात करता है। ये मीडिया के प्रति नफरत पैदा करने के बजाय समझदारी पैदा करता है।
इन सारे मसलों पर आज बात होनी है। आज शाम तीन बजे प्रेस क्लब ऑफ इंडिया,रायसीना रोड, नई दिल्ली में "ख़बरों की ख़बरः क्यों और कितना जरुरी?" पर एक परिचर्चा का आयोजन किया जा रहा है। ये परिचर्चा मीडियाखबर डॉट कॉम के दो साल पूरे होने के मौके पर आयोजित किया जा रहा है। मीडिया से जुड़े मसले में जिन्हें भी दिलचस्पी है,उऩके लिए ये एक जरुरी इवेंट है। मीडिया,खासतौर से टेलीविजन इन्डस्ट्री के नामचीन लोगों के साथ मीडिया विश्लेषक इसमें अपनी बात रखेंगे। हम सब उनसे सवाल-जबाब करेंगे।..
नोट- कार्यक्रम की पूरी डीटेल इमेज की शक्ल में मौजूद है,आप इस पर क्लिक करके देख सकते हैं।
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ऐसे में मीडिया आलोचना के लिए जिन शब्दों का प्रयोग किया जाता है,जिस जार्गन के तहत उसकी बात की जाती है,वो पूरी तरह स्टैब्लिश करते हैं कि ये मीडिया के विरोध में,उसके खिलाफ सक्रिय होने की कोशिशें हैं।
जबकि सच बात तो ये है कि मीडिया आलोचना और ख़बरों की ख़बर दोनों एक चीज नहीं है। इस देश में मीडिया आलोचना की अब तक की जो परंपरा रही है उसमें या तो इसे विकासवादी माध्यम साबित करके सारी जिम्मेदारी इस पर लाद दी जाए या फिर इसे पूंजीवादी माध्यम बताकर इसे नेस्तनाबूद करने के दिशा में सोचा जाए या फिर( जो कि इन दिनों प्रचलन में है) फूहड़ बताकर किनाराकशी कर लिया जाए। ख़बरों की ख़बर में ये तीनों स्थितियां अलग है।
वर्चुअल स्पेस पर मीडिया को लेकर ख़बरों की ख़बर का जो दौर चल रहा है वो विश्लेषण या आलोचना से न केवल अलग है बल्कि उससे कहीं ज्यादा आगे की चीज है। यहां अगर आलोचना भी की जा रही है तो उसके पहले कंटेंट जेनरेट करने का काम ज्यादा जरुरी है। बल्कि मीडिया पर बात करने के लिए उसे लेकर गहरे विमर्श में घंसने के बजाय ज्यादा जरुरी काम है कि जो तथ्य आते हैं उन्हें हू बू हू लोगों के सामने रख दिए जाएं। ज्यादा से ज्यादा घटनाओं और कंटेंट को सामने रख देनेभर से ही कई स्थितियां साफ हो जाती है। खबरों की बाकी बीट के मुकाबले मीडिया में फिलहाल विश्लेषण का काम न भी हो,लोगों को सिर्फ ये बताया जाए कि कहां क्या हो रहा है,उसी से बहुत बड़ा काम हो जाएगा और हो भी रहा है। ऐसा होने से
ये बात बिल्कुल साफ हो जाएगी कि ख़बरों की ख़बर का मतलब ख़बर लेनेवाले को आलोचना की तरह खत्म करना नहीं है बल्कि इतनाभर बताना है कि लोकतंत्र को बचाने के नाम पर जिस मीडिया को आपने चंडूखाना बना दिया है,उसकी सारी ख़बरें रिस-रिसकर लोगों तक पहुंच रही है,आपकी एक-एक हरकत पर नजर रखी जा रही है। संस्थान के भीतर किस तरह की गड़बड़ियां चल रही है,कंटेंट को लेकर किस तरह के समझौते चल रहे हैं,ये सब लोगों के सामने आ रहे हैं। ऐसा होने से मीडिया आलोचना को मीडिया और उनसे जुड़े लोगों के खिलाफ समझा जाता रहा है,ख़बरों की ख़बर इस दिशा में उनके अधिकारों की वापसी की बात करता है। ये मीडिया के प्रति नफरत पैदा करने के बजाय समझदारी पैदा करता है।
इन सारे मसलों पर आज बात होनी है। आज शाम तीन बजे प्रेस क्लब ऑफ इंडिया,रायसीना रोड, नई दिल्ली में "ख़बरों की ख़बरः क्यों और कितना जरुरी?" पर एक परिचर्चा का आयोजन किया जा रहा है। ये परिचर्चा मीडियाखबर डॉट कॉम के दो साल पूरे होने के मौके पर आयोजित किया जा रहा है। मीडिया से जुड़े मसले में जिन्हें भी दिलचस्पी है,उऩके लिए ये एक जरुरी इवेंट है। मीडिया,खासतौर से टेलीविजन इन्डस्ट्री के नामचीन लोगों के साथ मीडिया विश्लेषक इसमें अपनी बात रखेंगे। हम सब उनसे सवाल-जबाब करेंगे।..
नोट- कार्यक्रम की पूरी डीटेल इमेज की शक्ल में मौजूद है,आप इस पर क्लिक करके देख सकते हैं।
पिछले दो साल से लगातार मीडिया के भीतर के सच को बेपर्द कर रही साइट मीडियाखबर डॉट कॉम को अभी कुछ दिनों से एक न्यूज चैनल की ओर से धमकियां मिलनी शुरु हुई है। साइट ने "मिशन आजाद" नाम से न्यूज चैनल के भीतर हो रही गड़बड़ियों का पर्दाफाश किया था। उसने बताया कि कैसे एक चैनल में लाइन में लगाकर पत्रकारों को सैलरी दी जाती है,उन्हें किसी भी तरह की सैलरी स्लिप नहीं दी जाती। इसके अलावे इन्फ्रास्ट्रक्चर को लेकर कई खामियां है। न्यूज रुम में एसी काम नहीं करता,पीने का पानी तक नहीं है। इस चैनल के भीतर स्त्री मीडियाकर्मियों की भी स्थिति ठीक नहीं है। कुल मिलाकर इस चैनल के भीतर मीडिया संस्थान जैसा माहौल नहीं है। इन खबरों के प्रकाशित किए जाने के बाद चैनल के भीतर हडकंप मच गया। मीडियाखबर के संपादक/मॉडरेटर पुष्कर पुष्प को विश्वसनीय सूत्रों से जो लगातार जानकारी मिली उसके मुताबिक साइट के जरिए चैनल के भीतर की गड़बड़ियों के खुलासे किए जाने से मैनेजमेंट पर जबरदस्त असर हुआ है। दूसरी तरफ चैनल के भीतर काम कर रहे लोगों के भीतर जो लंबे समय से असंतोष रहा,अब वो किसी न किसी रुप में सामने आने लग गए। उनकी आवाज संगठित होने लगी,उऩ्हें लगा कि उनकी सुध ली जा रही है। ये सारी बातें मैनेजमेंट को नागवार गुजरी और उन्होंने अपने कुछ पाले हुए पहरुओं को इस काम के लिए लगा दिया कि चैनल से जुड़ी खबरें बाहर तक न जाए।
आज मीडियाखबर के मॉडरेटर ने अपनी तरफ से प्रेस रिलीज जारी करके पूरी घटना की व्योरेवार जानकारी दी है और साफ शब्दों में कहा है कि हम खबरों की खबर को आप तक पहुंचाने के लिए न तो किसी से समझौता करेंगे और न ही उनकी घिनौनी हरकतों से प्रभावित होकर अपना कदम पीछे खींच लेगें। हम पोस्ट के साथ ये प्रेस रिलीज प्रकाशित कर रहे हैं और साथ में वो शिकायत पत्र भी जिसे कि उन्होंने पुलिस थाने में दर्ज करायी है-
आज़ाद न्यूज़ या इसके किसी भी व्यक्ति के खिलाफ ख़बर करोगे तो जान से जाओगे. यह धमकी पिछले कुछ दिनों से लगातार मीडिया ख़बर.कॉम के संपादक को मिल रही है. धमकी फ़ोन से दी जा रही है. यह फ़ोन बार - बार आ रहा है. फ़ोन का नंबर है - (+911203140856 / +911204262205). फ़ोन के जरिये धमकाया जा रहा है कि कमलकांत गौरी (इनपुट हेड), रवींद्र शाह (आउटपुट हेड), नवीन सिन्हा (पॉलिटिकल एडिटर) या हिंदी समाचार चैनल आज़ाद न्यूज़ के खिलाफ कुछ भी लिखा तो अच्छा नहीं होगा. अंजाम बुरा होगा. कुछ भी हो सकता है. कुछ भी...
मीडिया खबर.कॉम के संपादक की खता इतनी है कि कुछ वक़्त पहले मीडिया खबर पर मिशन आज़ाद नाम से कुछ स्टोरीज प्रकाशित की गयी थी. उसमें चैनलों के अंदर चल रहे फर्जीवाड़े और उसमें संलिप्त ऊँचे पद पर बैठे कई कथित पत्रकारों का पर्दाफाश किया गया था. चैनलों के अंदर की अव्यवस्था, पत्रकारों के साथ हो रहे अमानवीय व्यवहार और श्रम कानूनों के उल्लंघन को बेनकाब किया गया था. हालाँकि किसी खास व्यक्ति का नाम नहीं दिया गया था. इससे कुछ लोग खफ़ा थे. लिहाजा, इन लोगों ने साम, दाम, दंड, भेद हर तरीके से ख़बरें रूकवाने की कोशिश की. लेकिन जब खबर रूकवा नहीं पाए तो ओछेपन पर उतर आये. पहले अलग - अलग माध्यमों से धमकाया गया. फिर झूठे केस में फंसाने की धमकी दी गयी. चैनल का रूतबा दिखाकर पुलिस से पिटवाना चाहा. लेकिन जब कुछ नहीं कर पाए तो लगे फ़ोन से धमकी देने.
इसके पहले आज़ाद न्यूज़ के इनपुट हेड कमलकांत गौरी, आउटपुट हेड रवींद्र शाह और पॉलिटिकल एडिटर नवीन सिन्हा ने मीडिया खबर.कॉम को मेल के जरिये नोटिस भेजा था जिसका जवाब मीडिया खबर के लीगल सेल की तरफ से दे दिया गया. लेकिन इस बीच, मीडिया खबर के संपादक पुष्कर पुष्प को डराने और धमकाने की कोशिशें लगातार जारी रहीं. घर पर गुंडे भेजे गए. नोटिस मिला है की नहीं. यह पूछने के लिए कई लोगों को मीडिया खबर के संपादक के घर भेजा गया. यह लोग सफ़ेद रंग की कार से आये. कार में कई लोग थे. इनका मकसद नोटिस के बारे में पूछना नहीं बल्कि टोह (रेकी) लेना था. यदि नोटिस के बारे में ही पूछना था तो फोन करके या मेल के जरिए पूछा जा सकता था। मुंहज़बानी पूछने का क्या मतलब? यदि पूछने ही आये तो कार भर के आदमियों के साथ क्यों आये? उसके बाद भी कई संदिग्ध लोगों का आना - जाना जारी रहा. इसके बाद मीडिया खबर.कॉम के संपादक ने पांडव नगर थाने में शिकायत दर्ज करवायी. शिकायत की कॉपी साथ में संलग्न है. पुलिस के आला अधिकारियों से भी मुलाकात की गयी और उन्हें पूरी स्थिति से अवगत करवाया गया.
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आज मीडियाखबर के मॉडरेटर ने अपनी तरफ से प्रेस रिलीज जारी करके पूरी घटना की व्योरेवार जानकारी दी है और साफ शब्दों में कहा है कि हम खबरों की खबर को आप तक पहुंचाने के लिए न तो किसी से समझौता करेंगे और न ही उनकी घिनौनी हरकतों से प्रभावित होकर अपना कदम पीछे खींच लेगें। हम पोस्ट के साथ ये प्रेस रिलीज प्रकाशित कर रहे हैं और साथ में वो शिकायत पत्र भी जिसे कि उन्होंने पुलिस थाने में दर्ज करायी है-
आज़ाद न्यूज़ या इसके किसी भी व्यक्ति के खिलाफ ख़बर करोगे तो जान से जाओगे. यह धमकी पिछले कुछ दिनों से लगातार मीडिया ख़बर.कॉम के संपादक को मिल रही है. धमकी फ़ोन से दी जा रही है. यह फ़ोन बार - बार आ रहा है. फ़ोन का नंबर है - (+911203140856 / +911204262205). फ़ोन के जरिये धमकाया जा रहा है कि कमलकांत गौरी (इनपुट हेड), रवींद्र शाह (आउटपुट हेड), नवीन सिन्हा (पॉलिटिकल एडिटर) या हिंदी समाचार चैनल आज़ाद न्यूज़ के खिलाफ कुछ भी लिखा तो अच्छा नहीं होगा. अंजाम बुरा होगा. कुछ भी हो सकता है. कुछ भी...
मीडिया खबर.कॉम के संपादक की खता इतनी है कि कुछ वक़्त पहले मीडिया खबर पर मिशन आज़ाद नाम से कुछ स्टोरीज प्रकाशित की गयी थी. उसमें चैनलों के अंदर चल रहे फर्जीवाड़े और उसमें संलिप्त ऊँचे पद पर बैठे कई कथित पत्रकारों का पर्दाफाश किया गया था. चैनलों के अंदर की अव्यवस्था, पत्रकारों के साथ हो रहे अमानवीय व्यवहार और श्रम कानूनों के उल्लंघन को बेनकाब किया गया था. हालाँकि किसी खास व्यक्ति का नाम नहीं दिया गया था. इससे कुछ लोग खफ़ा थे. लिहाजा, इन लोगों ने साम, दाम, दंड, भेद हर तरीके से ख़बरें रूकवाने की कोशिश की. लेकिन जब खबर रूकवा नहीं पाए तो ओछेपन पर उतर आये. पहले अलग - अलग माध्यमों से धमकाया गया. फिर झूठे केस में फंसाने की धमकी दी गयी. चैनल का रूतबा दिखाकर पुलिस से पिटवाना चाहा. लेकिन जब कुछ नहीं कर पाए तो लगे फ़ोन से धमकी देने.
इसके पहले आज़ाद न्यूज़ के इनपुट हेड कमलकांत गौरी, आउटपुट हेड रवींद्र शाह और पॉलिटिकल एडिटर नवीन सिन्हा ने मीडिया खबर.कॉम को मेल के जरिये नोटिस भेजा था जिसका जवाब मीडिया खबर के लीगल सेल की तरफ से दे दिया गया. लेकिन इस बीच, मीडिया खबर के संपादक पुष्कर पुष्प को डराने और धमकाने की कोशिशें लगातार जारी रहीं. घर पर गुंडे भेजे गए. नोटिस मिला है की नहीं. यह पूछने के लिए कई लोगों को मीडिया खबर के संपादक के घर भेजा गया. यह लोग सफ़ेद रंग की कार से आये. कार में कई लोग थे. इनका मकसद नोटिस के बारे में पूछना नहीं बल्कि टोह (रेकी) लेना था. यदि नोटिस के बारे में ही पूछना था तो फोन करके या मेल के जरिए पूछा जा सकता था। मुंहज़बानी पूछने का क्या मतलब? यदि पूछने ही आये तो कार भर के आदमियों के साथ क्यों आये? उसके बाद भी कई संदिग्ध लोगों का आना - जाना जारी रहा. इसके बाद मीडिया खबर.कॉम के संपादक ने पांडव नगर थाने में शिकायत दर्ज करवायी. शिकायत की कॉपी साथ में संलग्न है. पुलिस के आला अधिकारियों से भी मुलाकात की गयी और उन्हें पूरी स्थिति से अवगत करवाया गया.
कल शाम करीब पांच बजे आरएसएस के गुंड़ों ने आजतक चैनल के दिल्ली दफ्तर पर हमला किया और भारी तोड़-फोड़ मचायी। हजारों की संख्या में वीडियोकॉन टावर के भीतर जबरदस्ती घुस आए इन गुंड़ों ने ग्राउंड फ्लोर पर करीने से सजे गमले,मेटल डिटेक्टर डोर और कैफे कॉफी डे को बुरी तरह तहस-नहस कर दिया। चैनल की फुटेज देखकर सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि ये लोग कितनी तैयारी के साथ हमले की नीयत से यहां पहुंचे थे। लेकिन इस हमले को लेकर आरएसएस प्रवक्ता राम माधव ने साफ कहा कि कोई हमला नहीं हुआ है। आजतक के संवाददाता बार-बार वीडियो फुटेज का हवाला देते रहे कि ये सब कैमरे में कैद है लेकिन माधव ने बस इतना कहा कि उत्साह में आकर थोड़ा-बहुत कुछ कर दिया होगा,इसके लिए भी जिम्मेवार आप ही लोग(आजतक) हैं लेकिन लोगों का इरादा हमला करना बिल्कुल भी नहीं था। अब सवाल है कि वन्दे मातरम का नारा लगानेवाले आरएसएस और उसके प्रवक्ता यदि झूठ बोलते हैं तो फिर आगे क्या किया जाए? फिलहाल तो आरएसएस के इन गुंड़ों पर इस बात का चार्ज जरुर बनता है कि उन्होंने जो जमा होकर विरोध प्रदर्शन किया उसकी किसी भी तरह की अनुमति प्रशासन की तरह से नहीं ली। मनमाने तरीके से झंडेवालान की गलियों में जमा हुए और कुछ तख्तियां लगटाकर पहले नारेबाजी और बाद में तोड़-फोड़ मचानी शुरु कर दी। खबर दिखाए जाने तक इस मामले में कुल 9 लोगों की गिरफ्तारी हुई है जिसकी शक्लें चैनल ने अलग-अलग दिखाई। ऐसी शक्लों से हम बुरी तरह घिरे हैं और उनसे निबटने की जरुरत है।
हमले की जो वजह निकलकर सामने आयी है उससे ये साफ है कि चैनल ने आरएसएस और बीजेपी के उन कारनामों को बेनकाब करने की कोशिश की है जिसके मुताबिक वो राष्ट्रीय संगठन या पार्टी कम देश में दहशत और आतंक फैलानेवाली एजेंसी ज्यादा मालूम पड़ते हैं। लोगों के सामने सच आ जाने से बौखलाए इस संगठन ने विरोध की आड में हमला बोल दिया। मामला कुछ इस तरह से है कि आजतक के सहयोगी चैनल हेडलाइन्स टुडे ने उग्र हिन्दूवाद पर एक स्टिंग ऑपरेशन किया। इस स्टिंग के मुताबिक देश के भीतर जो आतंकवाद पनप रहा है उसमें कहीं न कहीं आरएसएस और बीजेपी जैसे संगठनों और राजनीतिक पार्टियों का भी हाथ है। स्टिंग में कुछ ऐसे फुटेज हैं जिन्हें देखने के बाद कहीं से कोई शक-सुवह की गुंजाईश नहीं रह जाती। चैनल ने इसे SAFFRON TERROR का नाम दिया और स्पष्ट तरीके से उन तमाम धमाकों की चर्चा की जिसमें कि इनके किसी न किसी रुप में शामिल होने के सबूत मिलते हैं। आजतक की वेबसाइट पर लिखा है-भारत के उप राष्ट्रपति हामिद अंसारी की हत्या की होती है साजिश. आरएसएस का एक पदाधिकारी अजमेर शरीफ और मक्का मस्जिद में हुए धमाकों को निर्देशित करता है. बीजेपी नेता बी.एल शर्मा,दयानंद पांडे और आरएसएस के अधिकारियों की तस्वीरें बार-बार इस स्टिंग में दिखाई देती हैं। पूरी स्टिंग में ये बात पक्के तौर पर स्थापित होती है कि ये लोग कौमी एकता के खिलाफ लगातार सक्रिय हैं और उसके पक्ष में महौल बनाने का काम कर रहे हैं। वैसे भी इस देश में खुद मीडिया,सिनेमा और दूसरे माध्यमों के जरिए एक खास कौम को आतंकवादी करार देने की जो कोशिशें की जाती रही है ऐसे में इन संगठनों को अपना काम करने में बहुत आसानी हो जाती है। अभी तक तो यही आवोहवा बनी है कि कोई भी हिन्दू और उससे जुड़े संगठन आतंकवादी नहीं हो सकते। लेकिन,
हेडलाइन्स टुडे की इस स्टिंग ऑपरेशन को देखने के बाद मुझे लगता है कि देश के सामने एक बड़ा भ्रम जिसे कि मिथक के तौर पर लगातार स्थापित किया जाता रहा है कि हिन्दू कभी भी आतंक का दामन नहीं पकड़ सकते,झटके से टूटता है। साध्वी प्रज्ञा के मामले में कुछ निशान तो जरुर पड़े थे लेकिन भारी राजनीति के बीच वो इस मिथक को पूरी तरह खंडित नहीं कर पाया लेकिन स्टिंग ऑपरेशन और उसके बाद जिस तरह की प्रतिक्रिया आरएसएस और बीजेपी के लोगों की तरह से आयी और गुंडागर्दी का जो आलम फैलाया उसे देखते हुए हमें इस दिशा में सीरियस रिसर्च की जरुरत है। स्टेट मशीनरी जो सरनेम के हिसाब से कार्यवाही और व्यवहार करती है,उनके आंख और कान और तराशे जाने की जरुरत है। स्टिंग में आरएसएस के एक शख्स ने कहा कि वो एक ऐसी बीज डाल देना चाहते हैं....हमारे रोंगटे खड़े हो जाते हैं,ये सब सुनते हुए,देखते हुए।
ये पहला मौका नहीं है जब आरएसएस जैसे हिन्दूवादी संगठन ने किसी मीडिया पर हमला किया है। इससे कुछ ही महीने पहले मुंबई के IBN7 लोकमत पर शिवसेना के लोगों ने हमला किया और भारी तोड़-फोड़ मचायी,गुंडागर्दी की। उससे कुछ महीने पहले ही संत आसाराम के गुर्गों ने अहमदाबाद के गुरुकुल में दो बच्चों की हत्या के मामले में विरोध प्रदर्शन कर रहे लोगों पर हमला किया,मीडिया के लोगों को नुकसान पहुंचाया, आजतक की टीम को घायल किया। गुजरात में ऐसे मामलों की पूरी की पूरी एक शृंखला ही है।..क्या ये महज संयोग है कि लगातार मीडिया पर जो भी हमले हो रहे हैं वो हिन्दू संगठनों की ओर से हो रहे हैं या फिर कहीं न कहीं इस बात के संकेत भी हैं कि खोजी पत्रकारिता को हिन्दू संगठन किसी भी रुप में पचा पाने की स्थिति में नहीं है। दूसरी दिलचस्प बात है कि जब-जब इन संगठनों के असली चेहरे को लोगों के सामने लाने की कोशिश की जाती है,ये संगठन जो कि सालभर तक संस्कृति,शालीनता,भाईचारा,राष्ट्र-निर्माण का पाखंड रचते हैं,अचानक से सबकुछ छोड़कर बर्बर हो उठते हैं। इस किस्म की बर्बरता मौके-मौके पर होती है या फिर इनके वर्किंग कल्चर में ही ये बात शामिल है कि जो भी हमारी बात से सहमत नहीं है,उन्हें तहस-नहस कर दो,उसे बर्बाद कर दो।
आज ये मामला देश के एक बड़े चैनल के साथ हुआ तो हमलोगों के सामने आने पाया है लेकिन ऐसे हजारों मामले होंगे जहां लोग इनकी बातों से सहमत नहीं होते होंगे और संगठन के गुंडे उनके साथ जबरदस्ती करते होंगे,उन्हें बर्बाद करने की कोशिश करते होंगे। दिल्ली ऑफिस में आजतक और यहां के लोगों के साथ जो कुछ भी हो रहा है,उसका असर देश के बाकी हिस्सों में भी तो हो ही रहा होगा। ..और फिर क्या गारंटी है कि इस एक हमले के बाद उनकी साजिश थम जाए। ऐसे में एक बड़ा सवाल है कि ऐसे संगठनों और उसके आकाओं की शह पर गुंडागर्दी फैलानेवाले के साथ कानूनी स्तर के साथ-साथ सामाजिक स्तर पर क्या कार्यवाही होनी चाहिए? चैनल सहित दूसरे मंचों ने क्या आरएसएस को बैन कर देना चाहिए जैसे सवाल के साथ राय भेजने की सुविधा शुरु कर दी है लेकिन क्या हर सवालों की तरह इस सवाल का हल क्या सिर्फ एसएमएस के जरिए हल होना है।
नोट- हमने अपने प्रयास से आजतक की इस स्टोरी के कई सारे टुकड़े यूट्यूब पर अपलोड किए हैं ताकि आप हमले की फुटेज देख सकें,कल रात( 16 जुलाई) शम्स ताहिर खान की स्टोरी का यहां ऑडियो लिंक डाल रहे हैं। ताकि आप खबर को सुन सकें। हेडलाइंस टुडे की जिस स्टिंग ऑपरेशन को लेकर आरएसएस के गुंड़ों ने हमला किया,उसका भी लिंक डाल रहे हैं। हम कोशिश कर रहे हैं कि मीडिया पर इस बड़े हमले के सारे प्रायमरी सोर्स आपको मुहैया कराएं जिससे कि इसकी चर्चा महज एक घटना के तौर पर नहीं बल्कि एक समस्या के तौर पर हो सके।
आजतक पर हमले की निंदा एडिटर्स गिल्ड,प्रेस क्लब,बीइए सहित देश के तमाम पत्रकारों और मीडियाकर्मियों ने की है। फेसबुक,बज और ब्लॉग के जरिए लोगों के विरोध हम तक लगातार पहुंच रहे हैं। वेब पर लगातार लिखने और अपनी बात रखने की हैसियत से हम इस घटना की न सिर्फ निंदा करते हैं बल्कि इसके प्रतिरोध में लगातार सक्रिय भी रहेंगे।
बाजार का मीडिया और जैसा बाजार चाहे, वैसा मीडिया। बाजार का कोई सपना नहीं होता, बाजार मुनाफे से चलता है और वो किसी का नहीं होता। बाजार मीडिया को पूरी तरह नियंत्रित कर रहा है। बहसतलब 3 में “किसका मीडिया कैसा मीडिया” बहस का जो मुद्दा रखा गया, इस पर बात करते हुए मणिमाला की ये लाइन पूरी बहस के बीच सबसे ज्यादा असरदार रही। ये वो लाइन है, जिसके वक्ताओं के बदल जाने के वाबजूद बहस का एक बड़ा हिस्सा इसके आगे-पीछे चक्कर काटते हैं। इस लाइन को आप पूरी बहस के निष्कर्ष के तौर पर भी देख सकते हैं या फिर बहस का वो सिरा, जिसे लेकर सूत्रधार सहित कुल चारों वक्ता सहमत नजर आये। मीडिया को बाजार का हिस्सा मानने से हमारे कई भ्रम दूर होते हैं और इसके चरित्र को समझने में सुविधा होती है। शुरुआती वक्ता के तौर पर मणिमाला ने पूरी बहस को इसी दिशा में ले जाने की कोशिश की। हम मणिमाला की इस शानदार बात को आगे बढ़ाएं इससे पहले बहस की भूमिका किस तरह से तैयार होती है, थोड़ी चर्चा इस पर भी कर लें।
किसका मीडिया कैसा मीडिया ऐसा मसला है, जिस पर अंतहीन बहसें जारी रहने की संभावना है। कहीं से कुछ भी बोला जा सकता है। ऊपरी तौर पर एक विषय दिखते हुए भी इसके बहुत जल्द ही एब्सट्रेक्ट में बदल जाने की पूरी गुंजाइश दिखती है। इसके नाम पर पत्रकारिता के पक्ष में कसीदे पढ़े जा सकते हैं, उसके भ्रष्ट हो जाने पर मातमपुर्सी की जा सकती है या फिर बेहतर बनाने के नाम पर यूटोपिया रचा जा सकता है। संभवतः इन्हीं खतरों को ध्यान में रखते हुए आनंद प्रधान ने बहस की शुरुआत में ही जो एजेंडा हमारे सामने रखा – उससे एक तरह से साफ हो गया कि इसके भीतर वक्ता क्या बोलने जा रहे हैं और हमें क्या सुनने को मिलेगा?
वक्ता के तौर पर मंच पर बैठे पारांजॉय गुहा ठाकुरता, सुमित अवस्थी, दिलीप मंडल और मणिमाला के बोलने के ठीक पहले सूत्रधार आनंद प्रधान ने जो भूमिका रखी, उसमें जो सवाल उठाये, वो इसी बाजार के बीच पनप रहे मीडिया को लेकर उठाये गये सवाल थे। आनंद प्रधान ने इस बहस में तीन बिंदुओं पर बात करना जरूरी बताया। सबसे पहले तो ये कि मीडिया का सवाल ऑनरशिप के सवाल से अनिवार्य रूप से जुड़ा हुआ है। हमें हर हाल में इस बात की खोजबीन करनी होगी कि इस मीडिया पर किसका कंट्रोल है, किसके हाथ से ये संचालित है और इसके भीतर कितनी गुंजाइश रह गयी है? दूसरा बड़ा सवाल जनआंदोलनों को लेकर मीडिया का क्या रवैया है? आज आखिर ऐसा क्यों है कि देशभर में जितने भी छात्र आंदोलन होते हैं वो टेलीविजन से लेकर समाचारपत्रों तक के लिए बेगानी बात है, उसमें कहीं कोई मुद्दा मीडिया को दिखाई नहीं देता? इसी के साथ जुड़ा एक ये भी सवाल है कि आखिर क्या वजह है कि नब्बे के देशक में जो पत्रकार जनआंदोलनों की पृष्ठभूमि से आये थे, चाहे वो सीधे तौर पर किसी संगठन से या फिर छात्र आंदोलनों से जुड़े थे, उन्हें एक-एक करके साइडलाइन कर दिया जा रहा है? इन पत्रकारों को बाहर कर देने के साथ-साथ उनके मुद्दों की भी नोटिस नहीं ली जाने लगी। न्यूजरूम के भीतर स्त्री और दलित की मौजूदगी कितनी है, उनसे जुड़े कितने मुद्दे मीडिया की नोटिस में हैं? आज हेमचंद्र माओवादी करार दिया जाता है और इस पर मीडिया किसी भी तरह की खोजबीन या अफसोस जाहिर करने के बजाय उल्टे इसे सरकार के साथ जस्टीफाइ करने लग जाता है, ये हमारे सामने एक सवाल है। और तीसरा बड़ा सवाल है – विकल्प की बात। क्या हम मीडिया को इसी तरह कोसते रहेंगे या फिर इसे दुरुस्त करने जिसे कि आनंद प्रधान ने रिकवरी टर्म दिया, इस दिशा में भी कुछ काम कर पाएंगे, हमारे पास किस तरह के मॉडल हैं, किस तरह का खाका है, इस पर भी बात होनी चाहिए।
आनंद प्रधान की इस ठोस भूमिका के बाद ही मणिमाला ने मीडिया को बाजार का पहरुआ होनेवाली बात से बहस की शुरुआत की। मीडिया बाजार से अलग नहीं है और आगे की बहस में ये भी साफ हो गया कि वो न सिर्फ इसका पहरुआ है बल्कि उसका पर्याय भी है। मणिमाला ने पत्रकारिता और कभी हिंदी अकादमी में मीडिया टीचिंग के काम से मिले अनुभवों के आधार जो बातें हमारे सामने रखीं उससे थोड़ी-बहुत झलक इस बात की जरूर मिलती है कि ऐसा बिल्कुल भी नहीं है कि आज की मीडिया अगर बदतर हो गयी है तो ऐसा नहीं है कि पहले मीडिया का दामन बिल्कुल साफ था। पहले भी इसके भीतर कई तरह के झोल रहे हैं। लेकिन एक बात जो गौर करनेवाली है कि पहले इस मीडिया के भीतर एक स्ट्रक्चर हुआ करता था। संपादक नाम से एक संस्था हुआ करती थी जो किसी भी खबर को लेकर अपने संवाददाताओं को बैकअप देती थी कि हां ये खबर जानी चाहिए, ये खबर होनी चाहिए। आज वो बैकअप खत्म हो गया है। आज मीडिया का सबसे बड़ा दुर्भाग्य इसी बात को लेकर है। आज एक सपना है, ये सपना सरकार से लेकर तमाम पूंजीगत संस्थानों का है कि हम रात को दिन बना दें, कहीं भी रात को रात न रहने दें। लेकिन ऐसा करते हुए गांव के गांव ऐसे अंधेरे में धकेल दिये जा रहे हैं, जहां कभी भी सुबह नहीं आएगी। अफसोस मीडिया भी इसी रात को दिन बनाने में लगा हुआ है, उसे वो रात कभी दिखाई नहीं देती। मीडिया का कोई अलग से सपना नहीं है। वो इसी बाजार के साथ है। जिस तरह बाजार का कोई सपना नहीं होता सिर्फ मुनाफे की नीयत होती है आज मीडिया का भी वही हाल है। ऐसे में इसे मीडिया कहा भी जाए या नहीं, ये भी अपने आप में एक बड़ा सवाल है। मणिमाला की इस चिंता से जो सवाले उभरकर सामने आते हैं कि ऐसे में मीडिया को क्या जाए, इसके लिए अब छिटपुट तरीके से लॉबिइंग, पीआर और कुछ आगे जाकर दलाली जैसे शब्द इस्तेमाल में लाये जाने लगे हैं जो कि मीडिया के लिए एक खतरनाक स्थिति है।
इस पूरे मामले पर गौर करें तो अब मीडिया में खबर नहीं है। समाचार चैनलों ने जो समाचार चलाने के लाइसेंस ले रखे हैं, वहां समाचार नहीं है, उन समाचारों की ऑथेंटिसिटी नहीं है। वो धोनी की शादी में मीडिया के उस तमाशे को याद करती हैं, जहां होटल के ड्रांइंग रूम, सोफे और ऐसी ही जड़ चीजों के फुटेज दिखाकर हर चैनल हमें एक्सक्लूसिव स्टोरी परोस रहा होता है। तब हॉल में देखनेवालों के साथ-साथ बनानेवाले/दिखानेवाले भी ठहाके लगाने से अपने को रोक नहीं पाते, वक्ता के तौर पर आये आजतक के सुमित अवस्थी उसे फिर टीआरपी के फार्मूले से डिफाइन करने की कोशिश करते हैं। दरअसल समाचार चैनलों में खबरों के नहीं होने और बड़ी ही स्टीरियोटाइप की स्टोरी को बड़ी खबर बना देने का जो अफसोस मणिमाला कर रही हैं, वो मीडिया की सबसे बड़ी स्ट्रैटजी है कि इसे पूरी ताकत के साथ नॉनसीरियस माध्यम बनाया जाए।
आगे मणिमाला ने कहा कि यहां जब मीडिया की बात हो रही है, तो हमें मनोरंजन चैनलों पर भी बात करनी चाहिए। हमें कुछ भी दिखाया जाता और कहा जाता है कि जनता चाहती है। सवाल है कि जनता के पास च्वाइस कहां है? आप किसी भी चैनल पर चले जाइए, सब पर वही घिसे-पिटे कॉन्सेप्ट पर बने सीरियल, सब पर वही सास-बहू और सबने अपने-अपने लिए एक-एक भगवान चुन लिये हैं। टेलीविजन में कार्यक्रम को लेकर कोई वैरिएशन नहीं है।
इस पूरी बहस में मणिमाला ने जिस एक प्रसंग का जिक्र किया, उस पर गौर किया जाना जरूरी है। ये मीडिया के सच को समझने में मददगार साबित होंगे। मणिमाला ने हिंदी अकादमी के उन दिनों और उस घटना को याद करते हुए कहा जब वो वहां बतौर मीडिया फैकल्टी काम कर रही थीं। चुनाव के नतीजे सामने आये थे और जिसमें मीडिया ने जो अनुमान लगाये थे, वो सबके सब गलत थे। संस्थान में पढ़नेवाले मीडिया के बच्चों ने कहा कि ये सारे आंकड़े जिसे कि मीडिया ने दिखाया-बताया, उन्होंने ही तो इकठ्ठे किये थे। मणिमाला ने सवाल किया कि आपको बुरा नहीं लगा कि आपके नतीजे गलत निकले। बच्चों का जवाब था कि सच कौन बताता है, अब कोई थोड़े ही बताता है कि किस पार्टी को वोट देने जा रहे हैं। …तो आपने फिर क्या किया। बच्चों का जवाब होता है – खुद ही भर दिया। यही खुद ही भर देनेवाले आंकड़े मीडिया के न्यूजरूम तक जाते हैं जिसे कि दहाड़-दहाड़कर चैनल भविष्यवाणी में कन्वर्ट कर देते हैं। मणिमाला ने उन बच्चों के बीच फिर भी इस मीडिया में आने की वजहें जाननी चाही और जिसका कुल जमा निष्कर्ष है – ग्लैमर, रोजी-रोटी, मंत्रियों-रसूखदार लोगों से मिलने का मौका, सिलेब्रेटी के साथ वक्त गुजारने की गुंजाइश… आदि। आज बच्चे भी जानते हैं कि मीडिया में जाकर उन्हें क्या करना है?
शुरू से ही बहस का मिजाज कुछ इस तरह से बनता है कि हरेक वक्ता के बोलने के बाद आनंद प्रधान उनके वक्तव्य से निकले सवालों को छांटकर अलग करते हैं और अपने शब्दों में उसकी चर्चा करते हैं जिससे कि सामने बैठा ऑडिएंस उन सवालों पर एक बार फिर से गौर करे और फिर उन सवालों से जुड़े जो आगे सवाल बनते हैं, उन्हें आगे के वक्ता के लिए टॉस कर दें। इसमें आनंद प्रधान की खुद की भी राय शामिल रहती है। मणिमाला के बोले जाने के बाद उन्होंने कहा कि उन्हें इस बात से कतई दिक्कत नहीं है कि कोई अखबार या चैनल टेबलॉयड की शक्ल में क्यों है? ऐसा हमारे यहां क्या, अमेरिका सहित दूसरे देशों में भी है। लेकिन हमें अफसोस तब होता है, जब कोई क्वालिटी चैनल या अखबार टेबलॉयड बनने की तरफ बढ़ते चले जाते हैं। इंडिया टीवी कभी भी इस बात का दावा नहीं करता कि वो कोई क्वालिटी चैनल है लेकिन आजतक देश का सबसे नामी चैनल, जिस चैनल के साथ एसपी सिंह (सुरेंद्र प्रताप सिंह) का नाम जुड़ा हुआ है, उसके और इंडिया टीवी के बीच का फर्क मिटने लगा है, ऐसे में बहुत निराशा होती है, एक दर्शक के तौर पर समस्या होती है। ऐसे में मेरे कुछ दोस्तों ने सुझाव दिया कि प्रोफेशनलिज्म के जरिये मीडिया की समस्या को दूर किया जा सकता है (आनंद प्रधान और मोहल्लालाइव के मॉडरेटर ने फेसबुक के जरिए कुछ सुझाव और कमेंट देने की बात की थी, जिसमें कि कई तरह के विचार सामने आये)। लेकिन मैनचेस्नी ने प्रोफेशनलिज्म को लेकर विस्तार से चर्चा की है। उसने बताया कि मीडिया के इस रूप से किस तरह के खतरे सामने आएंगे, कॉरपोरेट मीडिया के क्या नफा-नुकसान हैं। (आनंद प्रधान ने मैनचेस्नी को लेकर थोड़ा विस्तार दिया। Robert Ww Mc Chesney की किताब का नाम the global media: the new missionaries of corporate capitalism है, जिसके कुछ हिस्से को पूंजीवाद और सूचना का युग नाम से हिंदी में ग्रंथशिल्पी ने प्रकाशित किया है।) उन खतरों में एक जो सबसे बड़ा खतरा है, वो ये कि कॉरपोरेट के मीडिया टेकओवर से पत्रकारों की सैलेरी तो जरूर पहले से कई गुणा बढ़ गयी लेकिन अखबारों और मीडिया में मैनेजमेंट के सामने पत्रकारों के विरोध करने की क्षमता धीरे-धीरे खत्म होने लग गयी। 15 हजार की नौकरी छोड़ना फिर भी आसान था लेकिन 15 लाख की नौकरी छोड़ना आसान नहीं रह गया। मैक्चेस्नी का कहना है कि इससे पत्रकारों के बीच दबाव बढ़ने लगे जबकि राजनीतिक खबरें घटने लग गयीं। इसी के साथ एक बड़ा सवाल पत्रकारों की जॉब सिक्यूरिटी का है। इस कमेंट के बाद बहस और जवाब के लिए वो सुमित अवस्थी की ओर टॉस करते हैं।
सुमित अवस्थी ने बहस और जवाब में जिन मुद्दों को उठाया, उन मुद्दों को हम पिछले ही दिनों उदयन शर्मा की याद में लॉबीइंग, पेड न्यूज और हिंदी पत्रकारिता के सवाल पर राजदीप सरदेसाई की जुबान से सुन चुके थे। राजदीप मीडिया से होने की वजह से एक निरीह सा ऑरा बनाते हुए वही बातें कह रहे थे, जिसे कि सुमित अवस्थी से बहसतलब में दोहरायी। इससे हम अंदाजा लगा सकते हैं कि खुद मीडिया के लोगों के बीच एक स्थिति बन रही है जो इस बात को सरेआम स्वीकार रहा है कि उसके भीतर से प्रतिरोध जिसके लिए कि उन्हें जाना जाता है, खत्म होता जा रहा है और उनके भीतर न कहने का माद्दा नहीं रह गया है। बहरहाल, सुमित अवस्थी ने आते ही कहा कि हम मानते हैं कि मीडिया बाजार का है। मीडिया जो क्रेडिट ले रहा है, वो अपने फायदे के लिए लेता है। लेकिन इसी मीडिया में वही बदलाव आये, जो बदलाव समाज में आये। आदिवासी की खबरें गायब हैं। 26 हजार ऐसे गांव हैं जहां कोई नेटवर्क नहीं है। उनमें से 60 प्रतिशत नक्सली प्रभावित क्षेत्र है। मीडिया क्यों इतना हद तक कॉमप्रोमाइज कर रहा है। आज एक भी संपादक ऐसा नहीं है जो ये कहे कि आज मैं इस्तीफा देता हूं, आज मैं खबर नहीं छापूंगा। मुझे ये कहते हुए मुश्किल का सामना करना पड़ता है कि हां आज हम कॉमप्रोमाइज करने लगे हैं। इसकी वजह मुनाफा है। इस मुनाफे की वजह से ही छोटी खबरों पर ध्यान नहीं दिया जाता। बेसिकली बात कनज्यूमरिज्म की आ जाती है। प्रीइंडीपेंडेंस इस देश के पास, मीडिया के पास एक मिशन था कि इस देश को आजाद कराना है, आज मीडिया में कोई मिशन नहीं है, मिशन की जरूरत है।
सुमित अवस्थी अपनी पूरी बातचीत को एक कॉन्फेशन मोड की तरफ ले जाते हैं। वो मणिमाला और आंनंद प्रधान की मीडिया से असहमतियों को सहजता से स्वीकार करते हैं। वो ये मानते हैं कि नहीं कहने की हिम्मत मीडिया के भीतर खत्म होती जा रही है। वो ये भी मानते हैं कि हम सब बड़ा बनना चाहते हैं। लेकिन कोशिश होनी चाहिए कि हम किसी को दबाकर न बढ़ें। हमें पहले अपने आप को बदलना होगा। चूंकि सुमित ये मानते हैं कि मीडिया के भीतर जो भी गड़बड़ियां हैं, उसका एक बड़ा हिस्सा खुद के भीतर की गड़बड़ियां है। इसलिए उन्हें इस बात का भरोसा है कि खुद के बदलने से स्थितियों में काफी हद तक बदलाव आएंगे। लेकिन मीडिया के भीतर की समस्या व्यक्तिगत स्तर की नहीं है, ये सांस्थानिक समस्या है और इसे व्यक्तिगत स्तर पर सुधर कर बदला नहीं जा सकता। इसी बात को लेकर दिलीप मंडल सुमित अवस्थी से पूरी तरह असहमत होते हैं, जिसकी चर्चा आगे।
सुमित अवस्थी को आजतक पर रात नौ बजे की बुलेटिन पढ़नी होती है, इसलिए वो बहस शुरू करने से पहले ही अपनी स्थिति साफ कर देते हैं। ऐसे में वक्ताओं के एक राउंड बोल देने के बाद बहस हो इससे पहले ही सुमित अवस्थी से सवाल-जवाब का दौर शुरू हो जाता है। इस सवाल-जवाब में पाणिनि आंनद (भूतपूर्व बीबीसी पत्रकार और फिलहाल सहारा समय) और राकेश कुमार सिंह (सामाजिक कार्यकर्ता) और भूपेन सिंह (मीडिया टीचर और पत्रकार) शामिल होते हैं। पाणिनि का सवाल है कि आखिर क्यों देश का कोई भी चैनल एक घंटे-दो घंटे या चार घंटे के लिए भी बीबीसी नहीं बन पाता है। अगर मीडिया पर बाजार का दबाव है, तो भी कुछ घंटे के लिए ऐसा तो किया ही जा सकता है। राकेश सवाल को मीडिया के रवैये तक ले जाते हैं और जो बात उन्होंने बाद में कही कि इस बहसतलब में किसी लाला को भी बिठाओ तब बात बनेगी, उसकी पूर्वपीठिका यहां रखते हैं। भूपेन ने सुमित अवस्थी से सीधा सवाल किया कि आप खुद को बदलने की बात कर रहे हैं और साथ में यह भी कह रहे हैं कि मुनाफा कमाना कोई बुरी बात नहीं है, ऐसे में आप किसको जस्टीफाइ कर रहे हैं, संस्थान को या फिर खुद को?
इन सवालों और कमेंट के जवाब में सुमित अवस्थी मीडिया प्रोफेशनल की तरह जवाब देने के बजाय एक सोशल एक्सपर्ट की तरह जवाब देने की कोशिश में नजर आये। सुमित का कहना रहा कि IIMC से मीडिया की पढ़ाई करनेवाला कोई भी बच्चा ये सोचकर मीडिया में नहीं आता कि उसे आगे जाकर करप्ट बनना है। उसके भीतर भी समाज को बदलने और खुद को बदलने की चाहत होती है। लेकिन स्थितियां ऐसी बनती हैं कि इसे कैरी नहीं कर पाता। उन सपनों को बहुत आगे तक ले नहीं जा पाता। यहां शोएब और धोनी की शादी की बात की गयी। मैं मानता हूं कि इस तरह दिखाया जाना गलत है लेकिन इस कमरे के बाहर भी एक हिंदुस्तान है। बाजार की मांग है। थोड़ा हंसते हुए टीआरपी की रिपोर्ट पर आते हैं कि आपको हैरानी होगी कि जिस समय ये स्टोरी चैनलों पर दिखायी गयी थी उस समय इसकी ही सबसे ज्यादा टीआरपी थी। सुमित घूम-फिर कर उसी फार्मूले पर आते हैं कि लोग देखते हैं, तो इसमें चैनल क्या करे? इसी समय मेरे मन में सवाल करने की तलब होती है कि पूछूं – माफ कीजिएगा सुमितजी, टीआरपी का सिस्टम दुरुस्त हो – इसके लिए मुझे आजतक की टीआरपी रैंकिंग गिरती चली जाए, इसके लिए बददुआएं मांगनी होगी। इस देश में कितने पीपल मीटर लगे हैं, आप उन बेचारों को वेवजह दोषी क्यों करार दे रहे हैं, जो ये जानते तक नहीं कि आपके कार्यक्रम देखने और न देखने का क्या असर होता है? एक बड़ी सच्चाई है जिसे कि प्रोचैनल तर्क देने के क्रम में किया जाता है कि साठ से सत्तर हजार की ऑडिएंस के लिए लोग शब्द का इस्तेमाल किया जाता है और तब ऐसा लगता है कि ये लोग देश की चालीस करोड़ की ऑडिएंस है। जो चैनल प्रधानमंत्री के लिए अपनी बूथपेटी बनाता है, क्या अपनी रैंकिंग गिर जाने पर ज्यादा से ज्यादा पीपल मीटर लगाने के पक्ष में सड़कों पर उतरा है या भविष्य में कभी उतरेगा? लेकिन माहौल थोड़ा हो-हो सा बन गया था सो नहीं पूछा और इसके थोड़ी ही देर बात सुमित अवस्थी जाने की विवशता जाहिर करते हैं। बहसतलब के पैनल का एक खंभा खिसक गया, जो कि गुलमोहर सभागार के भीतर के मौहाल को देखते हुए समझा जा सकता था कि अगर सुमित अवस्थी होते तो कई और सवालों और असहमतियों से घेरे जाते।
सुमित अवस्थी के चले जाने के बाद आनंद प्रधान दिलीप मंडल को बोलने के लिए जमीन तैयार करते हैं। एक बड़ा सवाल, हिंदी मीडिया के बारे में खासकर बात कर सकते हैं कि आरक्षण और राम जन्मभूमि के सवाल पर कैसे हमारा मीडिया बिल्कुल हिंदू मीडिया हो जाता है। पाकिस्तान के सवाल पर कैसे मीडिया हिंदी मीडिया और चैनल हिंदू चैनल हो जाते हैं। अंग्रेजी चैनल जिनकी छवि सरकार से सीधे टकराने की होती है वो भी ऐसे क्यों हो जाते हैं? दूसरे सामाजिक सवालों पर मीडिया का सवर्ण चरित्र क्यों हो जाता है? इन सारे सवालों के साथ दिलीप मंडल को आमंत्रित किया जाता है।
दिलीप मंडल बहस की शुरुआत बिना कोई लाग-लपेट के मीडिया के धंधे में बदल जाने के उस मंजर से करते हैं, जहां सवाल मीडिया के भीतर सरोकार के बचे रहने या नहीं रहने को लेकर नहीं है, सवाल है कि जिस मीडिया के भीतर कॉरपोरेट के करोड़ों रुपये लगे हैं, उसे दुगुने, तिगुने करने के क्या-क्या तरीके हो सकते हैं, कौन सी जुगतें भिड़ायी जा सकती हैं? मीडिया का पूरा चरित्र यहीं से तय होता है। दिलीप मंडल ने 15 जुलाई के सेंसेक्स बंद होने तक कुछ मीडिया घरानों की मार्केट कैपिटल की चर्चा की। आज सुबह 10:14 पर जब मैं उन घरानों की मार्केट कैपिटल देख रहा हूं तो मामूली फेरबदल के साथ वही है। सन टीवी नेटवर्क 17264.85 करोड़ रुपये, जी इनटरटेनमेंट 14718.62 करोड़ रुपये और जागरण प्रकाशन 3773.67 करोड़ रुपये। इसी तरह बाकी समूहों की भी हैसियत देखी जा सकती है। दिलीप मंडल मीडिया घरानों की करोड़ो रुपये में हैसियत बताने के बाद सीधा सवाल रखते हैं कि जिन लोगों को इतने करोड़ रुपये मैनेज करने होते हैं, आपको क्या लगता है कि वो क्या बात करते होगें? हम इसका जवाब सोचते हैं और बिना उनके बताये मन ही मन बुदबुदाते हैं, किसी भी मसले पर बात करते होंगे लेकिन मीडिया सरोकार की बात तो नहीं ही करते होंगे, जिसकी चर्चा और चिंता हम इस हॉल में बैठकर कर रहे हैं। दिलीप मंडल ने जब ये आंकड़े पेश किये, ठीक उसी समय दिनेश कुमार शुक्ल ने इनट्रप्ट किया और कहा कि मीडिया में पाखंड बढ़ा है। सब पाखंड है, दलाली के माध्यम से धनी बन गये। साहित्य से दूर हो गया मीडिया, शर्म आनी चाहिए। आप इस पर बहस क्यों नहीं कराते। आयोजक सहित कुछ ऑडिएंस उन्हें बताता है कि आप शायद नहीं आये हों, लेकिन बहसतलब एक में इस मुद्दे पर विस्तार से चर्चा हुई है। बहरहाल…
दिलीप मंडल ने हमें एक दिलचस्प जानकारी दी कि इन मीडिया घरानों की जब मीटिंग्स होती है, तो किस मीडिया हाउस में कौन लोग शामिल होते हैं – उन्होंने बाकायदा कॉरपोरेट के उन सीईओ के नाम लिये, जो बाजार को सीधे तौर पर प्रभावित करते हैं। इनकी विस्तार से चर्चा उनकी आनेवाली किताब में है। अब फिर वही सवाल कि ये कॉरपोरेट के साथ बैठकर मीडिया घराने किस मसले पर बात करते होंगे और क्या तय करते होंगे? दिलीप मंडल ने साफ तौर पर कहा कि मुझे अफसोस है कि ये सब कुछ समझने में थोड़ा वक्त जरूर लग गया कि मैं किसके लिए काम करता हूं – लेकिन कल अगर मैं फिर से मीडिया हाउस के साथ जुड़ता हूं तो कहीं कोई दुविधा नहीं रह जाएगी कि मैं क्या कर रहा हूं? मुझे लगता है कि किसका मीडिया और कैसा मीडिया पर बात करते हुए हम ऑनरशिप कैरेक्टर को बेहतर तरीके से समझने की जरूरत है। इसी क्रम में उन्होंने मराठी मीडिया सकाल के एमडी जो कि शरद पवार के भाई हैं, के उस बयान को शामिल किया जिसमें वो कहते हैं कि मैं खबर और विचार पाठकों बेचता हूं और अपने पाठक विज्ञापनदाताओं को दे देता हूं।
हम मुफ्त में एक चैनल देखते हैं और चाहते हैं कि आंध्रप्रदेश की गरीबी पर बात करें – क्यों करेंगे? दिल्ली और मुंबई में धंधा चल गया तो चैनल चल जाता है। ऑनरशिप का चरित्र ऐसा है कि वो प्रो-पीपुल हो ही नहीं सकता। बोर्ड में ऐसी चर्चा हो ही नहीं सकती कि कॉमरेड आजाद क्यों मर गये। दूसरा हिस्सा न्यूजरूम का है। अब न्यूजरूम में अस्सी के दशक के लोग बहुत कम हैं। अब न्यूजरूम के भीतर भी एक खास तरह के कैरेक्टर बन रहे हैं। स्टॉक होल्डर हो गये हैं। जिसमें एक सामाजिक स्ट्रक्चर भी है (दिलीप मंडल और प्रमोद रंजन ने मीडिया संस्थानों के भीतर के जातिगत समीकरण पर लगातार लिखा है। प्रमोद रंजन ने मीडिया में हिस्सेदारी पर किताब की शक्ल में एक रिपोर्ट भी प्रकाशित की है।) इस पर आज मैं बात नहीं कर रहा। न्यूजरूम के भीतर जो प्रभावी (आर्थिक तौर पर) हैं, वो हाउस के शेयर खरीदते हैं। हर आदमी प्रॉफिट चाहता है, इसलिए ये मीडियाकर्मी उस दिशा में सोचना शुरू कर देते हैं। पहले मालिक का हित होता था, अब उसमें उनके खुद का भी हक शामिल है, इसलिए भी मीडिया का चरित्र बदलता है।
तीसरी बात कि आज सरकार भी मीडिया के लिए कमाई का एक बड़ा जरिया है। अगर जनपक्ष की चिंता करनी है, तो उसे वैकल्पिक मीडिया की तरफ जाना होगा। जो राज्यसभा जाने की उम्मीद करते हैं, पांच साल तक जो किसी खास पार्टी के लिए लिखते हैं, काम करते हैं, उन्हें पेड न्यूज पर बात करते हुए किस रूप में देखा-समझा जाए? क्यों वहां भी कुछ हो रहा है क्या? क्या सब जगह सिर्फ पैसे की तरह की देखेंगे कि वो पेड न्यूज है या नहीं? दिलीप मंडल मॉनेटरी फायदे के साथ-साथ जिस मौके के फायदे की बात करते हैं और तब पेड न्यूज को पारिभाषित करते हैं, पेड न्यूज पर लगातार बोलनेवाले रामबहादुर राय ने इस पर अभी तक कोई बात नहीं की। कम से कम जितनी बार उन्हें मंच पर सुना, वहां तो नहीं ही। अभी वे 72 पेज की प्रेस काउंसिल की जिस रिपोर्ट की बात कर रहे हैं, वहां शायद हो, उम्मीद भर ही कर सकते हैं। पूरी बातचीत के बाद दिलीप मंडल का आखिरी वाक्य रहा – मुझे मीडिया स्ट्रक्चर में उम्मीद की कोई किरण दिखाई नहीं देती है। मैं वहां जाऊंगा भी, तो धोखे में नहीं रहूंगा।
दिलीप मंडल की बातचीत से जो कुछ निकलकर सामने आया उसे सवाल की शक्ल देते हुए आनंद प्रधान से पारांजॉय गुहा ठाकुरता के आगे बढ़ाया। उन्होंने कहा कि ठाकुरताजी के आगे सवाल ऑनरशिप का है। क्या प्रथम और दूसरे प्रेस आयोग ने जो कहा है, उसका पालन किया जा रहा है? क्या कीमतें वो सबकुछ होना चाहिए? हमने देखा कि कैसे बड़े अखबारों ने छोटे अखबारों को खत्म कर दिया। क्या हम ऑनरशिप के पैटर्न की चेंज की बात नहीं कर सकते। जर्नलिस्ट की जॉब सिक्यूरिटी का सवाल – इस पर भी बात होनी चाहिए। …ये क्यों नहीं उठाने जाने चाहिए? क्या विज्ञापन और खबर के बीच का जो अनुपात है उस पर बात नहीं होनी चाहिए। …इन सारे सवालों के साथ पारांजॉय गुहा ठाकुरता अपनी बात रखते हैं।
अमेरिका में क्रॉसमीडिया रिस्टिक्शन है यहां नहीं है। ये आश्चर्य का देश है। भारत में एक अकेला ही लोकतंत्र है, जहां रेडियो की खबरों पर पूरी तरह आकाशवाणी की मॉनोपॉली है। दूसरा सवाल कि मीडिया के लिए कम्पटीशन का क्या मतलब है? उन्होंने पूंजीवाद के पैटर्न को बताते हुए साबुन का उदाहरण दिया और बताया कि पूंजीवाद का तर्क है कि जितना ज्यादा कम्पटीशन बढेंगे, क्वालिटी में उतनी ही ज्यादा बढ़ोतरी होगी, सुधार होगा। मगर मीडिया का बाजार आश्चर्य का बाजार है। जितने चैनल बढ़े हैं उतने ही उनकी गुणवत्ता कम हुई है। अगर पूंजीवाद के तरीके पर भी भरोसा करें, तो हमें यहां उल्टा दिखता है। मिशन की जगह हम कमीशन की जगह पहुंच गये है। जरदारी ने कहा कि जर्नलिस्ट आर वर्स्ट दैन टेर्ररिस्ट। …मीडिया के भीतर भ्रष्टाचार व्यक्तिगत से बाहर आ गया है, अब ये इन्सटीट्यूशनलाइज हो गया। ये मीडिया नेट से शुरू हुआ। उन्होंने इस मीडिया नेट के पूरे पैटर्न की विस्तार से चर्चा की और बताया कि कैसे कोई सिलेब्रेटी के साथ चार-पांच लोगों के डिनर का आयोजन है, तो उसमें से एक मीडिया के भी बंदे को बुला लिया गया और फिर फुल पेज पर वो कवरेज हो गयी।
तीसरा स्तर है जो राजनीति और पॉलिटिकल न्यूज के बारे में। पाठक को खबर और विज्ञापन के बारे में पता ही नहीं है। मीडिया में चेकबुक में पैसे नहीं ले रहे हैं। कोई आयकर नहीं है। …इसलिए ये तीसरे स्तर का करप्शन हो गया। उन्होंने इस क्रम में अतुल अंजान के उस बयान को शामिल किया जिसमें उन्होंने कहा कि मीडिया वाला टेंटवालों की तरह हो गया है। जिस तरह टेंटवाले शादी और उत्सवों में कीमतें ज्यादा बढ़ा देते हैं, वही काम मीडिया चुनाव और ऐसे मौके पर किया करता है। लालजी टंडन का रेफरेंस दिया जो कि पेड न्यूज के दौरान काफी चर्चा में रहा और जागरण की साख पर भी कमोबेश बट्टा लगा लगा। पत्रकार की जो छवि है, वो छवि एकदम बदल गयी है। कुर्ता नहीं पहनते, झोला नहीं टांगते। पत्रकारों की छवि बदली है। अपने दो बार देश के प्रधानमंत्री के साथ गये विदेशी दौरे की चर्चा करते हुए और बाद में अपने संपादक विनोद मेहता के कहने पर उसे बाकायदा लेख की शक्ल देने पर ठाकुरता ने कहा कि वहां भी हमें क्या दिये जाते हैं? व्हिस्की, चॉकलेट, चीज, कपड़े और भी बहुत सारी चीजें। मेरे ये सब लिखने पर दोस्तों ने कहा कि ये सब क्यों लिख दिया? लेकिन सवाल है कि इसे भी तो हम विश्लेषण में शामिल करेंगे ही न। ये भी तो मीडिया के चरित्र को निर्धारित करता है।
जॉब सिक्यूरिटी पर ठाकुरता ने कहा कि नब्बे फीसदी पत्रकार सिर्फ पत्रकार नहीं हैं। उनका जीवन विज्ञापन लाने से जुड़ा हुआ है। ठाकुरता की इस बात को अगर हम गांव के परिप्रेक्ष्य से थोड़ा और आगे खिसकाकर ले जाएं, तो स्थिति ये है कि मीडिया इंडस्ट्री के भीतर पत्रकारों की एक बड़ी जमात है जो कि विज्ञापन जुटाने की शर्तों पर सर्वाइव कर रही है। टीआरपी धोखा है लोगों के साथ। करीब 15 से 16 करोड़ टेलीविजन सेट हैं। कुछ दिन पहले साढे सात हजार टीआरपी बक्से थे। अब बढ़कर बीस हजार हो गये। दिस टीआरपी सिस्टम इज टोटली हॉक्स। पूरे बिहार में एक भी पीपल मीटर नहीं हैं, जम्मू कश्मीर में नहीं है। (लेकिन केपीएमजी और वाटरकूपर्स के हवाले से जो नयी रिपोर्ट सामने आयी है, उसमें इस बात की चर्चा है कि बिहार के कुछ हिस्से में पीपल मीटर हैं और उत्तर प्रदेश के इलाके में भी)। गांव के लोग ट्रैक्टर चलानेवाली बैटरी निकालकर टीवी देखते हैं लेकिन वहां एक भी पीपल मीटर नहीं है। सवाल ये है कि तो फिर आप किसके लिए प्रोग्राम बना रहे हैं? ठाकुरता के इस अफसोस और सवाल का जवाब हम सकाल के एमडी के बयान के बीच से निकाल सकते हैं। गांव के लोगों में नहीं है पीपल मीटर तो सवाल है कि आप किसके लिए प्रोग्राम बना रहे हैं।
लेकिन इन सबके बावजूद ठाकुरता ने कहा कि वो दिलीप मंडल की तरह निराशावादी नहीं है, वो आशावादी हैं। इसलिए ये नहीं मानते कि मीडिया का भविष्य अंधकारमय है। इसमें अभी भी संभावनाएं हैं। इस देश में मान लीजिए 20-25 अखबार बिके हुए हैं, वो पैसे और प्रभाव में आकर खबरें छापते हैं लेकिन बाकी के अखबार तो चीजों को सामने ला रहे हैं न। उन्होंने इस मामले में कुछ उदाहरण भी पेश किये। एक बार फिर क्रॉस मीडिया रिस्टिक्शन्स की संभावना पर जोर देते हुए उन्होंने इस दिशा में काम किये जाने की जरूरत पर बल दिया लेकिन हां, ऑडिएंस के सुझाव पर ये भी कहा कि आंदोलन आप खड़े कीजिए, हम आपके साथ होंगे।
वक्ताओं की ओर से बहस का एक चक्र पूरा हो जाने के बाद ऑडिएंस की ओर से सवालों के बौछार शुरू हो गये। इस बीच सवाल पूछने को लेकर आपाधापी भी मची, कुछ हास-परिहास का भी दौर चला। एक-दो ने बेवड़े के अंदाज में सवाल से ज्यादा मसखरी भी कर दी। लेकिन जो भी सवाल आये उसे सरसरी तौर पर देखना जरूरी होगा। एक तो ये कि पाणिनि ने जब बार-बार बीबीसी को आदर्श स्थिति करार देने की कोशिश की तो राकेश कुमार सिंह सहित कई लोगों ने बीबीसी के उस रवैये पर सवाल खड़े किये, जहां 9/11 के बाद आंख मूंदकर भरोसा करनेवाला अंदाजा खत्म हो गया। यही बहस आगे चलकर पब्लिक ब्रॉडकास्टिंग तक गयी जिसे लेकर अरविंद दास ने सवाल किया कि इसे सवालों के घेरे में क्यों न लिया जाए? अरविंद के इस सवाल को मैंने और आगे ले जाना जरूरी समझा इसलिए दूरदर्शन के उस रवैये की बात कही, जहां कि घाटे की भरपाई के लिए शांति, स्वाभिमान, वक्त की रफ्तार और जुनून जैसे टीवी सीरियल लंबे समय तक खींचे गये। बातचीत का एक बड़ा हिस्सा वैकल्पिक मीडिया की जरूरतों पर आकर टिक गया।
मणिमाला मानती हैं कि मीडिया का ये रूप शुरू से रहा है और वो आज भी काम कर रहा है जबकि आनंद प्रधान मानते हैं कि ब्लॉग और इंटरनेट पर साइटों के आने की वजह से मीडिया को आईना दिखाने का काम ज्यादा हुआ है। उन्होंने उदयन शर्मा की याद में होनेवाले व्याख्यान में श्रवण गर्ग (भास्कर समूह) के उस बयान को शामिल किया, जिसमें उन्होंने कहा कि अब शर्म आने लगी है। आनंद प्रधान के मुताबिक ये शर्म ब्लॉग में मीडिया के प्रतिरोध में लगातार लिखने की वजह से हुआ है। समय के बढ़ने के साथ सवालों के साथ-साथ सुझावों की संख्या बढ़ती चली जाती है, जिसमें एक बुजुर्ग ऑडिएंस की तरफ से सवाल भी किया जाता है कि ऐसी बहस कराके हम क्या बदल लेंगे। असली सवाल है कि बिल्ली के गले में घंटी बांधे कौन? लेकिन हम बहस और सेमिनारों को इस वीहॉफ पर खारिज नहीं ही कर सकते कि इससे कुछ बदलता नहीं है। ये बदलता है भी या नहीं ये अलग मसला है लेकिन ये जरूर है कि बिना बहस और बातचीत के क्या बदलाव की जमीन तैयार करना संभव है?
वक्ता फाइनल वर्डिक्ट के तौर पर अपनी बातों का क्रक्स रखते हैं। सवालों और सुझावों के बाद आनंद प्रधान पूरी बातचीत को समेटते हैं और एक बार फिर मीडिया रिकवरी, जर्नलिस्ट यूनियन और जॉब सिक्यूरिटी की बात को दोहराते हैं। सबका शुक्रिया अदा करने के लिए यात्रा प्रकाशन की संपादक जो कि बहसतलब के आयोजकों में से हैं को मंच पर बुलाते हैं। नीता सबों का शुक्रिया इस बात से करती है कि आज जबकि शहर में दूसरे कई बड़े कार्यक्रमों का आयोजन हुआ है, प्रभाष जोशी की याद में बड़ा कार्यक्रम चल रहा है, आप सब यहां आये, इसके लिए बहुत-बहुत शुक्रिया। बहसतलब के लिए कमिटेड ऑडिएंस के बीच संतोष का भाव पैदा होता है। मंच पर बैठे सारे वक्ताओं का, खासकर पारांजॉय गुहा ठाकुरता का शुक्रिया कि बड़ी सहजता से हमारे निमंत्रण को स्वीकार किया। इसके साथ ही उन्होंने अगली 17 तारीख को फोटोग्राफी पर होनेवाली बहसतलब की भी अग्रिम सूचना दी।
हॉल के भीतर बहस का महौल बना ही रह जाता है। लेकिन समय समाप्ति की घोषणा और हॉल खाली करने की मजबूरी के बीच ऑडिएंस छोटे-छोटे समूहों में बंट जाता है। कुछ अपनी बातों को और जोर देकर कहने के लिए, कुछ असहमत होने के लिए और कुछ हां में हा मिलाने और मिलवाने के लिए।
मूलतः प्रकाशित- मोहल्लाlive
मूलतः प्रकाशित- मोहल्लाlive
हममें से अधिकांश लोग उस परिवेश से आते हैं जहां स्साला भर बोल देने से सामनेवाला कॉलर पकड़ लेता है,कई बार पटककर मारने पर उतारु हो जाता है। मां-बहन की गाली देने पर खून-खराबे तक की नौबत आ जाती है। मैंने खुद कई ऐसे मामले देखे हैं जिसमें एक शख्स ने दूसरे शख्स को मारकर सिर फाड़ दिया है,बुरी तरह लहूलुहान कर दिया है लेकिन भीड़ उस शख्स के प्रति हमदर्दी जताने के बजाय मारनेवाले का पक्ष लेती हैं क्योंकि उसने मां-बहन की गाली दी है। इस तरह हमारे संस्कार को देखने-परखने का एक तरीका ये भी है कि हम गाली देते हैं,नहीं देते हैं। गाली देने की स्थिति में हमारी सारी समझदारी एक तरफ,पढ़ा-लिखा आभिजात्यपन एक तरफ और गाली दूसरी तरफ। ऐसा मान लिया गया है कि जो सभ्य होगा,पढ़ा-लिखा होगा वो गाली नहीं देगा। पढ़-लिखकर कोई गाली देने जैसा गलीच काम नहीं कर सकता।
दूसरी तरफ दिल्ली में हमारा पाला समाज के जिस तबके से पड़ता है,दिन-रात हम जिनसे मिलते-जुलते और बात करते हैं वो पढ़ा-लिखा समाज है। आइएस-आइपीएस,एकेडमीशियन,रिसर्चर,पत्रकार और इसी तरह के पेशे के लोगों से हमारी बातचीत होती है। बाकी पब्लिक डोमेन में जिसमें की डीटीसी के बस कन्डक्टर से लेकर मदर डेयरी पर बैठे लोग तक शामिल हैं,उन्हें शायद ही कभी इस बात का एहसास होता हो कि वो एक वाक्य में कारक चिन्हों को छोड़कर बाकी के जो शब्द उच्चारते हैं वो गाली हैं। दीप्ति दुबे जो कि लोकसभा चैनल की संजीदा पत्रकार और मशहूर ब्लॉगर भी है ने इस पर बहुत ही बेहतरीन लिखा है। उन गालियों को कविता की शक्ल में देनेवाले लोगों की मानसिकता और प्रयोग को कुछ इस तरह लिखा है कि वो छंदबद्ध रचना लगती है। लेकिन पब्लिक डोमेन के इन लोगों के अलावे,पढ़ा-लिखा आभिजात्य समाज भी उन्हीं गालियों का इस्तेमाल धडल्ले से करता है। कोई स्त्री-विमर्श का पैरोकार बहन लगाकर गाली दे दे तो कोई अजूबा नहीं लगता। शिमला सेमिनार के दौरान फुर्सत में जब एक शख्स ने यही काम किया तो शीबा असलफ फहमी ने उस समय टोका था,वो महाशय भूल गए थे कि शीबा की बातों का समर्थन में कितनी जोरदार गाली दे दी थी। अब सवाल ये है कि क्या समाज के इस पढ़े-लिखे क्रीमी समाज को इस बात का एहसास होता है कि जो वो बक रहे हैं,वो गाली है? और अगर हां तो फिर गाली देना बदस्तूर क्यों जारी है?
मेरी परवरिश जिस तरह से हुई है वो एक औसत दर्जे के झारखंडी-बिहारी परिवार से अलग नहीं है। हम पर भी वो तमाम बंदिशें जिसे की मूल्य,संस्कार और परंपरा का हवाला देकर थोपे गए। वहीं हमें बताया गया कि स्साला कितनी गंदी गाली होती है। गाली देनेवाले लौंडों से हमें दूर रखा गया। बाद में हमारी तारीफ में घर के लोग कहा करते कि-मजाल है कि इसके मुंह से स्साला शब्द भी निकले। घर के लोग बहुत खुश होते लेकिन घर के बाहर के कुछ लोगों का कहना था कि आपने शरीफ बनाने के नाम पर इसे छौडी( लड़की) बना दिया है। दू-चार गाली देगा नहीं तो जिएगा कैसे? उस समय तो मेरा काम चल गया,बिना किसी तरह की गाली दिए मैट्रिक तक अच्छे नंबरों से पास हो गया। हां यहां ये फिर से दोहराना जरुरी है कि गांड़ शब्द को लेकर हमें कभी एहसास नहीं हुआ कि ये गाली है इसलिए मैंने अनुराग कश्यप की पोस्ट पर इसे लेकर कमेंट भी किया।
लेकिन दिल्ली की आवोहवा में पता नहीं ऐसा क्या है कि बिना गाली के काम नहीं चलता। हम चाहते न चाहते हुए भी दिनभर में दस बार गाली तो दे ही देते हैं। घर से बाहर निकलने पर ये संख्या औऱ बढ़ जाती है। हम स्त्री अधिकारों,उनकी अस्मिता और सम्मान को लेकर संवेदनशील होते हैं लेकिन कार्पेट एरिया के भीतर घर में,कमरे में ही निर्जीव चीजों को लेकर गालियां बकते हैं। भोसड़ी के ये मोबाईल चार्जर कहां चला गया, मादरचो..ये कूलर का पंप बार-बार आजकल बंद हो जा रहा है। दिल्ली में रहते हुए ये गालियां इतनी कॉमन लगती है,हम इसका इस्तेमाल इतनी सहजता से करते हैं कि कई बार बहुत ज्यादा गुस्सा आने पर,किसी से बहुत अधिक नफरत होने पर हमारे पास गालियों का टोटा पड़ जाता है। मां की,बहन की,उसे थोड़ा इधर-उधर करके गालियां तो दे देते हैं लेकिन भीतर से लगता है कि न इसका कुछ असर ही नहीं हुआ। कई बार तो मैंने लोगों के मुंह पर तथाकथित गंदी गालियां दी है लेकिन उनके चेहरे पर कोई भाव नहीं बने-बदले। उन्होंने कभी कॉलर नहीं पकड़ा,कभी खून-खराबा की नौबत नहीं आयी।..सारी की सारी गालियां बेअसर लगने लगती है। लेकिन वही जब हम रांची की ट्रेन पर बैठते हैं शिवाजी ब्रीज क्रॉस करते हैं तो लगता है कि हम कितनी गालियां बकते हैं,तमाम तरह के खुलेपन के वाबजूद,घर में पूरी तरह दोस्ताना महौल होने पर भी धुकधुकी लगी रहती है कि कहीं मां या भाभी के सामने मुंह से गाली न निकल जाए। ये चौबीस घंटे की जर्नी का असर कहिए या फिर दिल्ली से दूरी कि सच में घर में कदम रखते ही,शू रैक से ठोकर भी लग जाए तो मां-बहन क्या मुंह से स्साला तक नहीं निकलता।
लड़्कियां भी देती हैं मादरचो..की गालियां,तू किसके साथ() करती है,नोएडा फिल्म सीटी में मीडिया की लड़कियां देती हैं धडल्ले से गालियां,हमारा साहित्य भी मादर,बहनचो..को लेकर अभ्यस्त हो चला है और चैनलों में गाली को लेकर एक खास किस्म की भाषा विकसित हो रही है।..ये सब पढ़िए अगली पोस्ट में..
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दूसरी तरफ दिल्ली में हमारा पाला समाज के जिस तबके से पड़ता है,दिन-रात हम जिनसे मिलते-जुलते और बात करते हैं वो पढ़ा-लिखा समाज है। आइएस-आइपीएस,एकेडमीशियन,रिसर्चर,पत्रकार और इसी तरह के पेशे के लोगों से हमारी बातचीत होती है। बाकी पब्लिक डोमेन में जिसमें की डीटीसी के बस कन्डक्टर से लेकर मदर डेयरी पर बैठे लोग तक शामिल हैं,उन्हें शायद ही कभी इस बात का एहसास होता हो कि वो एक वाक्य में कारक चिन्हों को छोड़कर बाकी के जो शब्द उच्चारते हैं वो गाली हैं। दीप्ति दुबे जो कि लोकसभा चैनल की संजीदा पत्रकार और मशहूर ब्लॉगर भी है ने इस पर बहुत ही बेहतरीन लिखा है। उन गालियों को कविता की शक्ल में देनेवाले लोगों की मानसिकता और प्रयोग को कुछ इस तरह लिखा है कि वो छंदबद्ध रचना लगती है। लेकिन पब्लिक डोमेन के इन लोगों के अलावे,पढ़ा-लिखा आभिजात्य समाज भी उन्हीं गालियों का इस्तेमाल धडल्ले से करता है। कोई स्त्री-विमर्श का पैरोकार बहन लगाकर गाली दे दे तो कोई अजूबा नहीं लगता। शिमला सेमिनार के दौरान फुर्सत में जब एक शख्स ने यही काम किया तो शीबा असलफ फहमी ने उस समय टोका था,वो महाशय भूल गए थे कि शीबा की बातों का समर्थन में कितनी जोरदार गाली दे दी थी। अब सवाल ये है कि क्या समाज के इस पढ़े-लिखे क्रीमी समाज को इस बात का एहसास होता है कि जो वो बक रहे हैं,वो गाली है? और अगर हां तो फिर गाली देना बदस्तूर क्यों जारी है?
मेरी परवरिश जिस तरह से हुई है वो एक औसत दर्जे के झारखंडी-बिहारी परिवार से अलग नहीं है। हम पर भी वो तमाम बंदिशें जिसे की मूल्य,संस्कार और परंपरा का हवाला देकर थोपे गए। वहीं हमें बताया गया कि स्साला कितनी गंदी गाली होती है। गाली देनेवाले लौंडों से हमें दूर रखा गया। बाद में हमारी तारीफ में घर के लोग कहा करते कि-मजाल है कि इसके मुंह से स्साला शब्द भी निकले। घर के लोग बहुत खुश होते लेकिन घर के बाहर के कुछ लोगों का कहना था कि आपने शरीफ बनाने के नाम पर इसे छौडी( लड़की) बना दिया है। दू-चार गाली देगा नहीं तो जिएगा कैसे? उस समय तो मेरा काम चल गया,बिना किसी तरह की गाली दिए मैट्रिक तक अच्छे नंबरों से पास हो गया। हां यहां ये फिर से दोहराना जरुरी है कि गांड़ शब्द को लेकर हमें कभी एहसास नहीं हुआ कि ये गाली है इसलिए मैंने अनुराग कश्यप की पोस्ट पर इसे लेकर कमेंट भी किया।
लेकिन दिल्ली की आवोहवा में पता नहीं ऐसा क्या है कि बिना गाली के काम नहीं चलता। हम चाहते न चाहते हुए भी दिनभर में दस बार गाली तो दे ही देते हैं। घर से बाहर निकलने पर ये संख्या औऱ बढ़ जाती है। हम स्त्री अधिकारों,उनकी अस्मिता और सम्मान को लेकर संवेदनशील होते हैं लेकिन कार्पेट एरिया के भीतर घर में,कमरे में ही निर्जीव चीजों को लेकर गालियां बकते हैं। भोसड़ी के ये मोबाईल चार्जर कहां चला गया, मादरचो..ये कूलर का पंप बार-बार आजकल बंद हो जा रहा है। दिल्ली में रहते हुए ये गालियां इतनी कॉमन लगती है,हम इसका इस्तेमाल इतनी सहजता से करते हैं कि कई बार बहुत ज्यादा गुस्सा आने पर,किसी से बहुत अधिक नफरत होने पर हमारे पास गालियों का टोटा पड़ जाता है। मां की,बहन की,उसे थोड़ा इधर-उधर करके गालियां तो दे देते हैं लेकिन भीतर से लगता है कि न इसका कुछ असर ही नहीं हुआ। कई बार तो मैंने लोगों के मुंह पर तथाकथित गंदी गालियां दी है लेकिन उनके चेहरे पर कोई भाव नहीं बने-बदले। उन्होंने कभी कॉलर नहीं पकड़ा,कभी खून-खराबा की नौबत नहीं आयी।..सारी की सारी गालियां बेअसर लगने लगती है। लेकिन वही जब हम रांची की ट्रेन पर बैठते हैं शिवाजी ब्रीज क्रॉस करते हैं तो लगता है कि हम कितनी गालियां बकते हैं,तमाम तरह के खुलेपन के वाबजूद,घर में पूरी तरह दोस्ताना महौल होने पर भी धुकधुकी लगी रहती है कि कहीं मां या भाभी के सामने मुंह से गाली न निकल जाए। ये चौबीस घंटे की जर्नी का असर कहिए या फिर दिल्ली से दूरी कि सच में घर में कदम रखते ही,शू रैक से ठोकर भी लग जाए तो मां-बहन क्या मुंह से स्साला तक नहीं निकलता।
लड़्कियां भी देती हैं मादरचो..की गालियां,तू किसके साथ() करती है,नोएडा फिल्म सीटी में मीडिया की लड़कियां देती हैं धडल्ले से गालियां,हमारा साहित्य भी मादर,बहनचो..को लेकर अभ्यस्त हो चला है और चैनलों में गाली को लेकर एक खास किस्म की भाषा विकसित हो रही है।..ये सब पढ़िए अगली पोस्ट में..
इंडिया टीवी ही नहीं,ग्लोबल मीडिया भी चिरकुटई में शामिल
Posted On 1:05 pm by विनीत कुमार | 9 comments
खबरों के नाम पर चिरकुटई का काम सिर्फ इंडिया टीवी और वहां के मीडियाकर्मी ही नहीं किया करते बल्कि इसमें ग्लोबल मीडिया तक शामिल है। अगर आप इंडिया टीवी पर पाखंड,अंधविश्वास,अनर्गल खबरों का प्रसार और खबरों के नाम पर रायता फैलाने का आरोप लगाते आए हैं तो एकबारगी आपको ग्लोबल मीडिया की तरफ भी आंख उठाकर देखना होगा। आमतौर पर एक औसत टेलीविजन ऑडिएंस के लिए शायद ये संभव नहीं है कि वो देश के तमाम चैनलों को देखते हुए ग्लोबल चैनलों को भी एक साथ वॉच करे। फिर ग्लोबल स्तर पर जो जरुरी खबरें होती हैं उसे सात संमदर पार,अराउंड दि वर्ल्ड, दि वर्ल्ड जैसे कार्यक्रमों के जरिए इन्हें शामिल कर लिया जाता है। इसलिए अलग से इन चैनलों को देखने की शायद बहुत अधिक जरुरत महसूस नहीं की जाती।
दूसरी स्थिति ये भी है कि बिना देखे-सुने ये मान लिया गया,एक अवधारणा सी बन गयी है कि जिस तरह हिन्दी के चैनल खबरों के नाम पर चिरकुटई करते हैं वो काम अंग्रेजी के चैनल नहीं करते और ग्लोबल मीडिया तो करती ही नहीं। इस देश की ऑडिएंस ने ग्लोबल मीडिया को बिना बहुत बारीकी तौर पर देखें ही पाक-साफ होने का प्रमाण पत्र और ऑथेंटिसिटी लेटर जारी कर दिया है। मामला ये भी है कि औसत दर्जे की ऑडिएंस विदेशी और ग्लोबल मामलों को बहुत बारीकी से गौर नहीं पाती शायद इसलिए भी वो ये समझ नहीं पाती कि इन एजेंसियों और चैनलों ने किस खबर को लेकर किस तरह का स्टैंड लिया। लेकिन
फीफा वर्ल्ड कप में ऑक्टोपस के जरिए जो भविष्यवाणी की बातें लगातार की जाती रही,हिन्दी चैनलों की तो बात ही छोड़िए,आठ पैर का पंडित ब्ला,ब्ला.. जिसे कि नेशनल और रीजनल चैनलों ने देसी मसाला मारकर हमें दिखाया-सुनाया,मुझे लगता है कि इस खबर को लेकर इनका विश्लेषण करने के बजाय ग्लोबल मीडिया का विश्लेषण कहीं ज्यादा होने चाहिए।जिसे ग्लोबल मीडिया ने भी लाइव दिखाया इस ऑक्टोपस एस्ट्रलॉजी की पैकेजिंग और मार्केटिंग ग्लोबल मीडिया ने जितने आक्रामक तरीके से किया उसे देखते हुए लगा कि इंडिया टीवी अभी भी इस मामले में बच्चा है। उसे अभी भी बहुत कुछ सीखने और समझने की जरुरत है। न्यूज बिजनेस पर गौर करें तो ये खबर पिछले तीन महीने में सबसे ज्यादा सेलबुल साबित होगी। ऐसे में जो भी मीडिया विश्लेषण इस आधार पर मीडिया की आलोचना करते आए हैं कि इस देश में शिक्षा का स्तर इतना नीचे है कि लोग पाखंड और अंधविश्वास से जुड़ी खबरें देखना पसंद करते हैं,उनका ये औजार भोथरा ही नहीं बेकार साबित होगा। आपमे अगर हिम्मत है तो कहिए कि दुनियाभर के वो लोग जाहिल हैं जिन्होंने कि ऑक्टोपस की भविष्यवाणी में दिलचस्पी ली। फिर आपके उपर जमाना हंसे इसके लिए तैयार रहिए।
स्थति ये है कि इस तरह की खबरें जिसे कि रेशनलिस्ट बेसिर पैर की बातें मानते हैं या फिर मार्केटिंग के लोग ये मानते हैं कि मामला कुछ भी नहीं है,सारा खेल मार्केटिंग का है-कल को आप जंतर-मंतर के आगे तोते लिए बैठे को पकड़कर ले आएं और उनकी मार्केटिंग कर दें तो वो देश का सबसे बड़ा भविष्यवेत्ता हो जाएगा,उनके लिए एक निष्कर्ष तो साफ है कि ग्लोबल स्तर पर भी इस तरह की खबरों का बड़ा बाजार है जिसका संबंध बौद्धिक स्तर और शिक्षा से न होकर एक खास तरह की टेम्पट सॉयक्लॉजी से है। सॉफ्ट स्टोरीज के नाम पर विदेशी एजेंसियों से जो फीड आती हैं उसमें ऐसी स्टोरियां भरी पड़ी होती है। हिन्दी न्यूज चैनलों पर अजब-गजब कारनामें,अजूबा,आठवां आश्चर्य आदि के नाम पर जो स्टोरीज चलती हैं उनकी सारी फीड एपीटीएन, रायटर जैसी एजेंसियों से आती हैं।
इंडिया टीवी पर चल रही एक स्टोरी को देखकर मैं पानी पी-पीकर गाली दे रहा था। स्टोरी थी कि एक बकरा ब्रेकफास्ट में डेढ़ किलो तंबाकू खाता है,लंच में तीन किलो और डीनर में तीन किलो तंबाकू। स्टोरी का नाम था-नशाखोर बकरा। स्टोरी देखते हुए गरिआ ही रहा था कि मेरे पास रायटर की फीड आयी जिसमें ये स्टोरी थी और मुजे भी अपने चैनल के लिए यही स्टोरी बनानी थी,फ्लेबर थोड़ी बदल भर देनी थी। कुल मिलाकर कहानी ये थी कि एक बकरा ऐसी जगह फंस गया था कि तंबाकू के अलावे आस-पास खाने की कुछ भी चीजें नहीं थी।
ऐसा लिखकर मैं किसी भी एंगिल से इंडिया टीवी के एप्रोच की तारीफ नहीं कर रहा और न ही उसका डीफेंड कर रहा लेकिन ये बात जरुर समझना होगा कि जिस स्टोरी को देखकर हम दांत पीसते हैं,हिन्दी चैनलों पर पाखंड फैलाने का आरोप लगाते हैं,खबरों के नाम पर रायता फैला देने की बात करते हैं,अंग्रेजी चैनल और ग्लोबल मीडिया उससे बरी नहीं है। ऑक्टोपस एस्ट्रलॉजी के बहाने हमें इसे समझने की जरुरत है।..
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दूसरी स्थिति ये भी है कि बिना देखे-सुने ये मान लिया गया,एक अवधारणा सी बन गयी है कि जिस तरह हिन्दी के चैनल खबरों के नाम पर चिरकुटई करते हैं वो काम अंग्रेजी के चैनल नहीं करते और ग्लोबल मीडिया तो करती ही नहीं। इस देश की ऑडिएंस ने ग्लोबल मीडिया को बिना बहुत बारीकी तौर पर देखें ही पाक-साफ होने का प्रमाण पत्र और ऑथेंटिसिटी लेटर जारी कर दिया है। मामला ये भी है कि औसत दर्जे की ऑडिएंस विदेशी और ग्लोबल मामलों को बहुत बारीकी से गौर नहीं पाती शायद इसलिए भी वो ये समझ नहीं पाती कि इन एजेंसियों और चैनलों ने किस खबर को लेकर किस तरह का स्टैंड लिया। लेकिन
फीफा वर्ल्ड कप में ऑक्टोपस के जरिए जो भविष्यवाणी की बातें लगातार की जाती रही,हिन्दी चैनलों की तो बात ही छोड़िए,आठ पैर का पंडित ब्ला,ब्ला.. जिसे कि नेशनल और रीजनल चैनलों ने देसी मसाला मारकर हमें दिखाया-सुनाया,मुझे लगता है कि इस खबर को लेकर इनका विश्लेषण करने के बजाय ग्लोबल मीडिया का विश्लेषण कहीं ज्यादा होने चाहिए।जिसे ग्लोबल मीडिया ने भी लाइव दिखाया इस ऑक्टोपस एस्ट्रलॉजी की पैकेजिंग और मार्केटिंग ग्लोबल मीडिया ने जितने आक्रामक तरीके से किया उसे देखते हुए लगा कि इंडिया टीवी अभी भी इस मामले में बच्चा है। उसे अभी भी बहुत कुछ सीखने और समझने की जरुरत है। न्यूज बिजनेस पर गौर करें तो ये खबर पिछले तीन महीने में सबसे ज्यादा सेलबुल साबित होगी। ऐसे में जो भी मीडिया विश्लेषण इस आधार पर मीडिया की आलोचना करते आए हैं कि इस देश में शिक्षा का स्तर इतना नीचे है कि लोग पाखंड और अंधविश्वास से जुड़ी खबरें देखना पसंद करते हैं,उनका ये औजार भोथरा ही नहीं बेकार साबित होगा। आपमे अगर हिम्मत है तो कहिए कि दुनियाभर के वो लोग जाहिल हैं जिन्होंने कि ऑक्टोपस की भविष्यवाणी में दिलचस्पी ली। फिर आपके उपर जमाना हंसे इसके लिए तैयार रहिए।
स्थति ये है कि इस तरह की खबरें जिसे कि रेशनलिस्ट बेसिर पैर की बातें मानते हैं या फिर मार्केटिंग के लोग ये मानते हैं कि मामला कुछ भी नहीं है,सारा खेल मार्केटिंग का है-कल को आप जंतर-मंतर के आगे तोते लिए बैठे को पकड़कर ले आएं और उनकी मार्केटिंग कर दें तो वो देश का सबसे बड़ा भविष्यवेत्ता हो जाएगा,उनके लिए एक निष्कर्ष तो साफ है कि ग्लोबल स्तर पर भी इस तरह की खबरों का बड़ा बाजार है जिसका संबंध बौद्धिक स्तर और शिक्षा से न होकर एक खास तरह की टेम्पट सॉयक्लॉजी से है। सॉफ्ट स्टोरीज के नाम पर विदेशी एजेंसियों से जो फीड आती हैं उसमें ऐसी स्टोरियां भरी पड़ी होती है। हिन्दी न्यूज चैनलों पर अजब-गजब कारनामें,अजूबा,आठवां आश्चर्य आदि के नाम पर जो स्टोरीज चलती हैं उनकी सारी फीड एपीटीएन, रायटर जैसी एजेंसियों से आती हैं।
इंडिया टीवी पर चल रही एक स्टोरी को देखकर मैं पानी पी-पीकर गाली दे रहा था। स्टोरी थी कि एक बकरा ब्रेकफास्ट में डेढ़ किलो तंबाकू खाता है,लंच में तीन किलो और डीनर में तीन किलो तंबाकू। स्टोरी का नाम था-नशाखोर बकरा। स्टोरी देखते हुए गरिआ ही रहा था कि मेरे पास रायटर की फीड आयी जिसमें ये स्टोरी थी और मुजे भी अपने चैनल के लिए यही स्टोरी बनानी थी,फ्लेबर थोड़ी बदल भर देनी थी। कुल मिलाकर कहानी ये थी कि एक बकरा ऐसी जगह फंस गया था कि तंबाकू के अलावे आस-पास खाने की कुछ भी चीजें नहीं थी।
ऐसा लिखकर मैं किसी भी एंगिल से इंडिया टीवी के एप्रोच की तारीफ नहीं कर रहा और न ही उसका डीफेंड कर रहा लेकिन ये बात जरुर समझना होगा कि जिस स्टोरी को देखकर हम दांत पीसते हैं,हिन्दी चैनलों पर पाखंड फैलाने का आरोप लगाते हैं,खबरों के नाम पर रायता फैला देने की बात करते हैं,अंग्रेजी चैनल और ग्लोबल मीडिया उससे बरी नहीं है। ऑक्टोपस एस्ट्रलॉजी के बहाने हमें इसे समझने की जरुरत है।..