
उस दिन राजेन्द्र यादव ने जोर से ठहाके मारते हुए कहा- ये लीजिए, कॉलेज में आते ही इन्होंने मुझे डॉक्टरेट की डिग्री भी दे दी औऱ डॉक्टर भी बना दिया। अरे भईया, मैं डॉक्टर-वॉक्टर नहीं हूं। कहां हूं मैं डॉक्टर, बताओ। मैं आज से पांच साल पहले हिन्दू कॉलेज के सेमिनार रुम में राजेन्द्र यादव का परिचय दे रहा था और इसी क्रम में मैंने डॉक्टर राजेन्द्र यादव बोल दिया। हिन्दी पढ़ने और पढ़ानेवालों से खचाखच भरा था ये सेमिनार रुम। थोड़ी देर के लिए लोगों को समझ ही नहीं आया कि परिचय देने के क्रम में ऐसा क्या हो गया कि यादवजी पीएचडी और डॉक्टरेट की बात लेकर बैठ गए। बाद में मैंने माफी मांगते हुए कहा-सर मुझे पता नहीं था, गलती से आपको डॉ. बोल गया। बाद में जब टीचर ने कहा- तुमने मंच संचालन तो बहुत अच्छा किया विनीत लेकिन इतना तो पता रखना चाहिए न कि कौन-सा साहित्यकार क्या किया है।
कभी साहित्य के परिवेश में रहा नहीं। कॉलेज में रहते भी स्कूल की तरह का अनुशासन। उन्हीं सब साहित्यकारों को पढ़ा जो कि सिलेबस में मौजूद रहे। एम ए में आने पर एक रणनीति के तहत छुट्टियों में उपन्यास पढ़ना शुरु किया। इसी क्रम में राजेन्द्र यादव को भी पढ़ा। अब कभी परीक्षा के लिहाज से पढ़ा नहीं था, सो बाकी चीजें जान न सका। लेकिन हां, ये जानकारी की कमी तो थी। फिर मेरे लिए ये मान लेना कि जो आदमी हिन्दी में एम ए किया है वो पीएचडी भी किया होगा, बिना इसके कोई भविष्य नहीं। औऱ राजेन्द्र यादवजी इतने बड़े साहित्यकार। लेकिन बाद में इस बात से जब यादवजी ने असहमति जतायी, तब मुझे एहसास हुआ कि जो आदमी जिंदगी भर विश्वविद्य़ालय की राजनीति से दूर रहा,उसकी पूरी प्रक्रिया से अपने को दूर रखा,चाहते तो वो सब कुछ कर सकते थे, पा सकते थे, जिसके लिए औसत दर्जे के हिन्दी प्राणी के कंधे की चमड़ी छिल जाती है,यादवजी के लिए डॉ शब्द सचमुच अपमानजनक है। ये तो उन्हें चोट पहुंचानेवाली बात है। मैं मन ही मन सोचने लगा-कितना बुरा लगा होगा,उन्हें। बाद में सारा आकाश औऱ दूसरी रचनाओं की कुछ पंक्तियां पढ़कर भरपाई करने की कोशिश की।
कार्यक्रम खत्म होने के बाद सब लोग लॉन पहुचे। सब उनसे कुछ न कुछ लिखवाना चाहते थे। हम जैसे लोगों को पहले से पता था कि आज राजेन्द्र यादव आ रहे हैं तो उनकी रचना ले पहुंचे थे। मेरे पास मुड़-मुड़के देखता हूं की नयी प्रति थी। मैंने कहा-कुछ लिख दीजिए सर, यादवजी सिर्फ साइन कर रहे थे। वही साइन जो हंस के संपादकीय में किया करते हैं, अलग से एक शब्द भी नहीं। इसके पहले भी मैंने कई नामचीन साहित्यकारों से उनकी रचनाओं पर साइन लिए हैं, वो हमारा नाम पूछते और फिर लिख देते- प्रिय विनीत को सप्रेम भेंट। बाद में दोस्तों के बीच अकड़ दिखाने के लिए कहता- फलां साहित्यकार ने हमें भेट की है ये किताब, कहा है पढ़कर बताना। उस समय हम ये भूल जाते कि पहली बार ससुराल से मायके आयी सुलेखा दीदी से कहा था- कुछ नहीं तुम इस लिस्ट में से कोई भी पांच किताब दिला दो. हम भूल जाते कि रांची के गुदड़ी बाजार से तवरेज भाई से हुज्जत करके इसे कैसे खरीदा है। हम भूल जाते कि दरियागंज में इस किताब को लेकर जेएनयूवाले दोस्तों से कैसे मार कर लिए थे।
कुछ लोगों को पता नहीं था कि आज यादवजी आ रहे हैं, बाद में पता चलने पर वो सीधे संदेश रासक की क्लास करके यहां पहुंचे थे। साइन लेने के लिए उनके पास या तो संदेश रासक थी या फिर नोटबुक। लड़कियों ने उसी पर यादवजी से साइन लेने शुरु कर दिए। इसी बीच एक लड़का आपका बंटी ले आया और कहा- सर, इस पर कुछ लिख दीजिए। यादवजी ने कहा- ये तो मेरी रचना नहीं है, इस पर कैसे कुछ लिख दूं। वो जिद करने लगा, और नहीं करने पर अंत में कहा- आपका मन्नू भंडारी से लड़ाय हो गया है इसलिए नहीं लिख रहे हैं। यादवजी मुस्कराए,केएमसी के लोगों ने कहा- हिन्दू कॉलेज में भी चिरकुट लोगों की कमी नहीं है।
कल शाम जब मैंने राकेश सर के कहने पर बाकी लोगों को भी आज के राजेन्द्र यादवजी के कार्यक्रम में आने कहा तो एक बंदे का जबाब था- देखिएगा, कल फिर सब गरिआएगा यादवजी। हमको तो यही समझ में नहीं आता है कि यादवजी को गाली का असर काहे नहीं होता है। हम तो रहते तो कहीं नहीं जाते. लबादा ओढ़कर बोलनेवाले लोगों के बीच जिसके मन के भीतर कुछ कुलबुला रहा है और जुबान से महाशय, श्रीमान और बेटा का संबोधन किए जा रहा है, वहां यादवजी का खर्रा-खर्रा बोल देना तो खटकेगा ही न भाय। मैं बस इतना कह पाया कि, कोई तुमको क्यों गाली दे,गाली पाने के लिए उस लायक बनना होता है।
पांच साल पहले राजेन्द्र यादव की साइन की हुई रचना- मुड़-मुड़के देखता हूं। कुछ पंक्तियां हरे रंग से रंगी है। उसे एक नजर में पढ़ना चाह रहा हूं। यादवजी की एक लाइन जिसे पढ़कर लगता है कि किसी भी बात में फंसने के पहले ही उन्होंने अग्रिम जमानत ले रखी है-
कोई जरुरी नहीं है कि मंच पर जो कहें,वही करें भी....कलाकार औऱ व्यक्ति आपस में विरोधी भी हो सकते हैं....इलियट ने कहा ही है कि लेखन अपने व्यक्तित्व से पलायन का दूसरा नाम है-शायद विरोध का भी।( मुड़-मुड़के देखता हूं-पेज नं 39)
या फिर जीवन का हर पल सलाखों के पीछे चले जाने के आभास से एक विदाई-
मुझे हमेशा लगता है कि मेरा हर सम्पर्क,हर पल एक नई विदाई है....मेरी हर रचना एक ऐसी बच्ची है, जो टा-टा कहकर स्कूल बस में जा चढ़ती है,और जब आती है तो'वह' नहीं रह जाती....मिलना शायद गति है, औऱ विदाई नियति।
यादवजी को पता है कि नियति पर किसका-कितना भरोसा है, लेकिन गति तो अपने हाथ की चीज है, संभवतः इसलिए बार-बार इसे साबित करने की एक होड़ इनके भीतर बनी रहती है।
( सफ़र द्वारा आयोजित कार्यक्रम आमने-सामने की श्रृखंला में आज पाठकों के आमने-सामने होगें, राजेन्द्र यादव।)