![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEir6KEycY0Pm_BMfDXt0Ty7GP6uF2BdPTC32JygrZt8vZ67uRlLOJ6iKindownwKv9n2RLgdoVbotMGJpF2ehz4zptS-kAoH9pb6VDohZrL0J3AqBzEbMPh5mrBHX6eA_aY7xxRWP3QF1KI/s320/DSCN2023.JPG)
हिंदू होने पर मुझे पर मुझे गर्व नहीं, अपमान का बोध होता है। क्योंकि इसी ने मुझे अछूत बनाया। दलितों के आदर्श कभी भी राम नहीं हो सकते। दलित समाज कभी भी हिंदू धर्म का हिस्सा नहीं रहा। मुझे कभी भी ऐसा एहसास नहीं होता कि मुझे धर्म की जरूरत है।
जो दलित सफल हो जाते हैं, वो अपनी पहचान छिपाना शुरू कर देते हैं। वो या तो अपना नाम बदल लेते हैं या फिर अपना सरनेम बदल लेते हैं। ऐसा इसलिए कि सफल होने पर जैसे ही समाज को पता चलता है कि वो दलित है तो उसकी योग्यता को कमतर करके देखना शुरू कर देता है। उसकी प्रतिभा को शक की निगाह से देखना शुरू कर देता है। समाज उसे इस रूप में स्वीकार नहीं करता।
ओमप्रकाश वाल्मीकि ने साहित्य और समाज के बीच दलितों को लेकर जो रवैया है, उस पर कुछ इस तरह से अपनी बातें रखीं कि दून रीडिंग्स के दूसरे दिन, सुबह से ही महौल में गर्माहट पैदा हो गयी। वहां मौजूद जिन लोगों ने वाल्मीकि को सुना, सत्र के बाद उनसे अलग से बात करने के लिए अपने को रोक नहीं सके। जो लोग लंबे अरसे के बाद हिंदी साहित्य के बारे में सुन रहे थे उन्हें हैरानी हो रही थी कि लिटरेचर को समझने का नजरिया कितना कुछ बदल गया है।
सुबह के सत्र को विंड ऑफ चेंज का नाम दिया गया, जिसे कि हिंदी में परिवर्तन की बयार भी कह सकते हैं। पहले सत्र की शुरुआत पेंगुइन हिंदी के संपादक एसएस निरुपम और दलित साहित्य के शुरुआती दौर के आलोचक और जूठन जैसी हिट आत्मकथा के लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि से होती है। निरुपम उनसे बातचीत की शुरुआत हिंदी के संत साहित्य से शुरू करते हैं और फिर धीरे-धीरे मामला समाज, राजनीति, दलितों की मौजूदा स्थिति और अस्मिता विमर्श तक पहुंचती है। सवालों के जवाब में वाल्मीकि कहीं भी दोहराव या उलझाव पैदा नहीं करते। इसकी बड़ी वजह है कि वो अपनी समझ को लेकर कॉन्शस हैं। साहित्य के मामले में उनकी समझ साफ है। हिंदी की मुख्यधारा लेखन में अपार श्रद्धा रखनेवाले लोगों को उनकी बातें एकतरफा लग सकती है लेकिन उनकी मान्यताओं में ग्रे एरिया नहीं है। जो है वो या तो स्याह या फिर बिल्कुल सफेद। शायद इसलिए, जब वो संत साहित्य पर बात करते हैं तो अपना आदर्श कबीर या तुलसीदास को नहीं मानते और न इसे हिंदी साहित्य का स्वर्ण युग कहने से सहमत होते हैं।
उनका साफ कहना है कि ये संभव है कि संतों ने समाज में बयार लाने की कोशिश की लेकिन दलितों को परिवर्तन के लिए बयार नहीं चक्रवात की जरूरत है और वो सहमति और सामंजस्य के साहित्य से नहीं बल्कि संघर्ष के साहित्य से ही संभव है।
निरुपम ने कंटेंट के अलावा भाषा और शिल्प के स्तर पर वाल्मीकि से जो सवाल किये मसलन कि आपकी पूरी परवरिश मुख्यधारा का साहित्य पढ़ते हुए हुई है तो फिर आपकी भाषा किस हद तक वहां से आती है, उन सारे सवालों का जबाव देते हुए वो भाषा के भीतर के कुचक्र को बेपर्दा करते हैं। वो इस बात को स्वीकार करते हैं कि धर्म में कोई आस्था न होने पर भी वो जूठन से अपनी मां के लिए दुर्गा का मेटाफर हटा नहीं सकते क्योंकि इससे ज्यादा प्रभाव पैदा करनेवाला कोई शब्द नहीं है। इसलिए उनकी पूरी राइटिंग में मुख्यधारा के जितने भी शब्द हैं वो प्रभाव को लेकर हैं, वो भाषिक परंपरा का निर्वाह मात्र नहीं है।
शिमला इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस स्टडीज में हमने वाल्मीकि को सुना। करीब सात महीने बाद उनके विचारों में और तल्खी आयी है। वो दलित साहित्य को अभिव्यक्ति से कहीं ज्यादा हिस्सेदारी का मामला मानते आये हैं। नमिता गोखले ने जब उनकी कविता प्रतिबंधित का अंग्रेजी अनुवाद सुनाया तो वो मूल कविता सुनाने से अपने को रोक नहीं पाये। उन्हें इस वक्त ठाकुर का कुआं कविता फिर से याद हो आयी। अंधड़ और सलाम जैसी कहानियां फिर से रेफरेंस प्वाइंट के तौर पर याद आये। देहरादून की पहाड़ों पर मल्टीनेशनल के होर्डिंग्स और बेतहाशा कंसट्रक्शन के बूते इसे संवेदनहीन शहर की शक्ल देते हुए मैं महसूस कर रहा हूं और ऐसे में वाल्मीकि की प्रतिबंधित कविता की ये लाइन हमेंशा याद रहेगा – मेरी जरूरतों में एक नदीं भी है… कागज, कलम और आस-पड़ोस। ओमप्रकाश वाल्मीकि, नमिता गोखले और निरुपम के बीच जो पूरी बातचीत हुई है वो हिंदी समाज के लिए एक जरूरी संवाद है। हमारी कोशिश रहेगी कि पूरी बातचीत जो मेरे आइपॉड में है, उसे रूपांतरित करके आप तक पहुंचाएं।
इस संवाद के ठीक बाद दो किताबों का लोकार्पण हुआ, जिसकी चर्चा करने से पहले मैं अनलीशिंग नेपाल के लेखक सुजीव शाक्या और अमिताभ पांडे के बीच हुई बातचीत को शामिल करना पसंद करुंगा। मैंने अनलीशिंग नेपाल किताब पढ़ी नहीं है लेकिन इन दोनों के बीच हुई बातचीत को सुनने के बाद वापस दिल्ली जाकर इस किताब को खरीदना मेरी प्रायॉरिटी रहेगी। ये किताब न सिर्फ नेपाल के उन संदर्भों को टच करती है, जिस पर कि पहाड़, जनजातीय संस्कृति और मान्यताओं को लेकर लिखनेवाले ज्यादातर लोगों का ध्यान नहीं जाता है बल्कि सिटी स्पेस को समझने के लिए ये एक जरूरी किताब है। सुजीत शाक्या ने बातचीत में और अमिताभ पांडे के रिस्पांस को लेकर पूछे गये सवाल का जवाब देते हुए बताया कि जब उन्होंने इस किताब को लिखा तो प्राइवेट सेक्टर और बिजनेस, चैंबर्स से जुड़े लोग नाखुश हुए क्योंकि ये किताब नेपाल में उन लोगों के मतलब साधने की कहानी कहती है। कुछ लोगों ने कहा कि इसे आपको नेपाली भाषा में भी लिखना चाहिए क्योंकि नेपाल के लोग अभी भी ज्यादा इसी भाषा में समझ सकेंगे। बाकी लेखकों से अलग सुजीत मानते हैं कि पहाड़ के लोगों के लिए सिर्फ पहाड़ ही उनके दिमाग में है जबकि नेपाल में तराई क्षेत्र एक बहुत बड़ा क्षेत्र है जिस पर बात होनी चाहिए और इसके भीतर बननेवाली इकॉनमी को समझना चाहिए। माओवाद के सवाल पर सुजीत शाक्या का सीधा कहना रहा कि यहां माओवादी नेताओं ने मौके को बस भुनाने की कोशिश की। परिवर्तन या सरोकार उनके कंसर्न में नहीं है। उनके लिए सबसे ज्यादा जरूरी है कि वो किस तरह से सत्ता में बने रहें। नेशन स्टेट और आइडेंटिटी के सवाल पर सुजीत की अपनी समझ है जो कि उनके मुताबिक किताब में भी शामिल है कि सवाल इस बात का नहीं है कि हमारी संस्कृति और मान्यताएं कितनी पुरानी है। इसकी पहचान सिर्फ टोपी और टीशर्ट के चिन्हों से नही बची रह सकती। एक अलग देश के तौर पर नेपाल का इतिहास 250 साल पुराना है और इसमें करीब 65 अलग-अलग मान्यताओं के समूह हैं। लेकिन इससे ? असल सवाल है कि इस वक्त ग्लोबल युग में नेपाल अपने को कहां खड़ा पाता है। जाहिर है इस सवाल में आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक विकास के सवाल शामिल हैं।
सुजीत भारत और नेपाल के ओपन वार्डर रिलेशनशिप के समर्थक हैं और मानते हैं कि ये दोनों देशों के विकास में बराबरी का असर पैदा करेगा। अमिताभ पांडे ने जिस तरह से संतुलित होकर संवाद को जारी रखा इससे नेपाल, अनलीशिंग नेपाल को लेकर टेम्प्ट तो पैदा हुआ ही, इसके साथ ही लगा कि टेलीविजन और हिंदी के सेमिनारों मे बहुत कम ही ऐसे संवाद मय्यसर होते हैं।
जिन दो किताबों के लोकार्पण की बात हमने ऊपर की, उनमें से एक किताब कुछ शब्द कुछ लकीरें उत्तराखंड से आये संसद सदस्य विश्वजीत की है। ये काव्य संकल्न है। दूसरी किताब विकी आर्य की कविताओं का संकलन बंजारे ख्वाब नाम से है। विकी आर्य की इस किताब का अंग्रेजी अनुवाद दीप ने किया है। विश्वजीत की कविताओं में कोई दम नहीं है। ये बस प्रभाव में आकर छापी गयी किताब लगती है। विश्वजीत ने अपनी बातचीत में अशोक वाजपेयी को कोट करते हुए भले ही कह दिया कि सच्ची अभिव्यक्ति अपनी मातृभाषा में ही आती है लेकिन उसका असर हमें उनकी कविताओं में कहीं से भी दिखाई नहीं दिया। तिस पर दून स्कूल के हिंदी विभाग के भूतपूर्व एचओडी डॉ हरिदत्त भट्ट शैलेश ने जब विश्वजीत को लेकर जो बातें कहीं, उसे साहित्य की समीक्षा न मान कर गुरु का शिष्य के प्रति अनिवार्य स्नेह ही मानें तो ज्यादा बेहतर है।
विकी आर्य की कुछ कविताएं अच्छी हैं और महज चार-छह लाइनों में अपनी बातें कह जाती हैं। सतर्क होकर पढ़ें तो इसके कुछ गंभीर मायने भी निकल आते हैं। हिंदी मूल सुनने के बाद अंग्रेजी में दीप की जुबानी इन्हीं कविताओं को सुनकर ज्यादा अच्छा लगा। विकी आर्य का ऐसा कहना कि उन्होंने कविताएं नहीं लिखी हैं बल्कि कविताओं ने उन्हें लिखा है – पता नहीं ऐसा लिखना और कहना महज शिल्प का हिस्सा है या फिर व्यक्तिगत आग्रह लेकिन दोनों संकलनों से गुजरते हुए मैंने महसूस किया कि अभी भी कई लोगों के जेहन में कविता का मतलब जो मन में आये, लिख दो ही है। पॉलिटिकल करेक्टनेस और सोशल इंवाइडमेंट से वो कोसों दूर हैं।
सुजीव शाक्या के सत्र के बाद दिल्ली से आये हम सारे पत्रकार दोस्त तीन घंटे के लिए देहरादून से मसूरी के लिए निकल गये। एक के बाद एक सत्र को एटेंड करते हुए हमें लग रहा था कि दिमाग हैंग हो जाएगा। हड़बड़ी में देखी गयी मसूरी की उपलब्धि के नाम पर माल रोड पर खींची गयी कुछ तस्वीरें है, जहां-तहां घाटियों में एक-दूसरे के साथ पोज देते हुए कुछ और तस्वीरें हैं और दोपहर का भोजन। उस पहाड़ी में छोटे से ढाबे में किये गये लंच की याद मुझे और मेरे साथियों को लंबे समय तक रहेगी। एक जमाने के बाद मैंने जीरे की खुशबू महसूस की। पहाड़ी स्त्री के हाथों की बनी वो रोटी अभी भी नजर से ओझल नहीं हो रही और वो सात महीने की बच्ची जो कि अविनाश से ऐसी चिपटी कि अपने भाई के पास तक जाने को तैयार नहीं। मेरे इस सवाल पर कि जब तुम बड़ी होकर मिस उत्तराखंड बनोगी तो मुझे पहचानोगी, मुंह में आंचल दबाते हुए उसकी मां का मुस्काराना टेस रंग की तरह जेहन में बना रहेगा।
इस बीच कुमाऊं की गूंज थीम पर एक सत्र हुआ, जिसमें इरा पांडे ने इंडियन सोप ओेपेरा के जनक (हमलोग सीरियल) मनोहर श्याम जोशी की ट’टा प्रोफेसर और दिद्दी का अंश पाठ किया। इरा पांडे ने ट’टा प्रोफेसर का अंग्रेजी अनुवाद किया है। इस पर नमिता गोखले ने परिचर्चा की। उसके बाद इधर भी लंच हो गया।
लंच के बाद इन सर्च ऑफ सीता : रिवीजिटिंग मायथलॉजी, जिसका संपादन मालाश्री लाल ने की है, खुद लेखक और नमिता गोखले ने इस पर बातचीत की। इस परिचर्चा में सीता के साथ स्त्री-अस्मिता के उन सारे सवालों को उठाया गया, जहां से बहस की एक मुकम्मल जमीन तैयार हो सकती है। एक स्त्री का स्त्रीत्व किन-किन शर्तों और स्थितियों से पारिभाषित होती है, सीता के संदर्भ से उन बिंदुओं पर बात की गयी। इसी बीच आदित्य सुदर्शन की फिक्शन जो कि उत्तराखंड के हिल स्टेशन भैरवगढ़ की एक मर्डर मिस्ट्री पर आधारित है, ए नाइस क्वाइट हॉलीडे, उस पर लेखक के साथ माया जोशी की परिचर्चा हुई। रचना जोशी का कविता-पाठ हुआ और नटराज पब्लिशर्स की ओर से प्रकाशित फ्लॉवर्स एंड एलिफेंट का लोकार्पण भी हुआ।
तीन घंटे की थकान लेकर जब हम वापस होटल अकेता के सेमिनार हॉल में दाखिल हुए, तब गिरदा ने अपना जादू-जाल फैलाना शुरू ही किया था। गिरदा अपने गानों में उत्तराखंड के भूले-बिसरे चेहरों और यादों को फिर से अपनी आवाज के जरिये सामने लाते हैं। वो जब भी गाते हैं, उनकी आवाज पहाड़ी जीवन के संघर्षों को दर्शाती है। इन्होंने फैज की कई कविताओं का अनुवाद भी किया है। गिरदा ने जब हमें सुनाया कि चूल्हा गर्म हुआ है, साग के पकने की गंध चारों ओर फैल रही है और आसमान में चांद कांसे की थाली की तरह टंगा है, तो बाबा नागार्जुन आंखों के आगे नाचने लग गये। यकीन मानिए आप गिरदा को सुनेंगे तो पागल हो जाएंगे। मैं दिल्ली आते ही उनके गाये गीतों का ऑडियो लोड करता हूं।
नरेंद्र सिंह नेगी का पूरा उत्तराखंड दीवाना है, जो हमने पहले की पोस्ट में ही कहा। नेगी के गीतों में पहाड़ी सौंदर्य के साथ-साथ आज भी शामिल है, इसलिए वो हमें सिर्फ रोमैंटिक मूड की तरफ ले जाने के बजाय उस दर्द की तरफ घसीटता है जिसे सुन पाना तो आनंद पैदा करता है लेकिन जिसे बर्दाश्त कर पाना मुश्किल है। इसी कड़ी में डॉ अतुल शर्मा ने भी रचना-पाठ किया। हम इन सभी लोगों के बारे में फिलहाल विस्तार से बात नहीं कर रहे हैं। हमने इनके गीतों और कविताओं का जो आनंद लिया है, हम नहीं चाहते हैं कि उसके नाम पर आपके लिए कोई क्लासरूम खड़ी कर दें। इसे ऑडियो में ही आपके सामने लाना बेहतर होगा।
कविता और गीत सत्र के बाद पेंगुइन-यात्रा बुक्स की संगीत शृंखला का विमोचन किया गया। इस शृंखला में संगीत और संगीतकारों से जुड़ी कुल छह किताबें हैं। साहिर लुधयानवी पर जाग उठे ख्वाब कई, बिस्मिल्ला खान की जीवनी पर सुर की बारादरी, मन्ना डे की आत्मकथा यादें जी उठीं, नौशाद की जीवनी पर जर्रा जो आफताब बना, नौटंकी की मलिका गुलाबबाई और कुंदन लाल सहगल पर कुंदन सहगल जीवन और संगीत। दिल्ली में इन किताबों का पहले भी विमोचन हो चुका है। संभवतः इसलिए पेंगुइन के हिंदी संपादक एसएस निरुपम ने जो कि इस पूरे सत्र का संचालन भी कर रहे थे कहा कि संगीत पर लिखी इन किताबों के लोकार्पण का मतलब महज इसे कागज या लिफाफे से बाहर लाना भर नहीं है। हम इस पर बातचीत करना चाहते हैं। बातचीत के लिए मंगलेश डबराल को आमंत्रित किया गया। एक कवि से इतर मंगलेश डबराल को सुनना सुखद लगा। उन्होंने सुर की बारादरी के लेखक यतींद्र मिश्र और जाग उठे ख्वाब कई के संपादक मुरलीमनोहर प्रसाद सिंह से बातचीत की।
मंगलेश डबराल ने इन दोनों लेखकों से बातचीत करने से पहले भूमिका के तौर पर कहा कि फिल्मी गीत अब वो नहीं रह गये जो साहिर के समय में थे। साहिर की विशेषता थी कि वो अपनी नज्मों को फिल्मी गीतों में ले आते थे। उन्होंने विष्णु खरे की बात को शामिल करते हुए कहा कि साहिर फैज से बड़े कवि थे। मुझे लगता है कि साहिर लुधयानवी पर अब तक जो भी किताबें आयीं है, हिंद पॉकेट को छोड़ दें तो अब तक कि ये साहिर पर आयी संपूर्ण किताब है। संगीत पर ऐसी किताबें निकाल कर पेंगुइन-यात्रा ने सचमुच जोखिम का काम किया है और हमें उन्हें बधाई देनी चाहिए। मंगलेश डबराल के इतना कहने के बाद दोनों लेखकों से बातचीत का सिलसिला शुरू होता है जिसे मजाक में ही सही, यतींद्र मिश्र बार-बार प्रोमोशन कैंप करार देते हैं।
साहिर पर किताब तैयार करने का विचार कैसे आया, मंगलेश डबराल के इस सवाल का जवाब देते हुए मुरलीबाबू ने कहा कि 1857 की डेढ़ सौवीं वर्षगांठ मनायी जा रही थी तो हिंदी-उर्दू संबंध पर खोजबीन, नया पथ का विशेषांक निकालने के सिलसिले में शुरू की। मेरे लिए ये अचरज की बात थी कि 1856 से लेकर 61 के बीच लगभग पचास अखबार पत्रकार, अखबारनवीस और उर्दू के कल्चरल एक्टिविस्ट चाहे तो गोली से उड़ा दिये गये, काला पानी भेज दिए गये, जेलों में डाल दिये गये, घर-बदर कर दिये। तब मैंने खोजना शुरू किया कि उन्होंने ऐसा क्या लिख दिया। उसी क्रम में मैं हिंदी फिल्मी गीतों की तरफ गया। मैंने पाया कि जिसे हम हिंदी फिल्मी गीत कहते हैं, उसमें बड़ा कंट्रीब्यूशन शायरों का है। अली मेंहदी खां से लेकर जावेद अख्तर तक इसमें शामिल हैं। हम एक झूठा हिंदीवाद चलाते हुए उर्दू का जो कंट्रीब्यूशन हिंदी फिल्मों में रहा है उसको हम नकार देते हैं। इस क्रम में जब मैंने देखना शुरू किया तो पाया कि इसमें अवधी, भोजपुरी, कन्नौजी इन बोलियों के साथ उर्दू, हिंदी, संसकृत, तत्सम के शब्द प्रयोग करके हिंदी के गीत रचे गये हैं। इसलिए इन फिल्मी गीतों में इन बोलियों का भी योगदान है, उर्दू का भी है। साहिर पर मैंने इसी रूप में काम करना शुरू किया। मुरली बाबू ने साहिर की नज्मों से जुड़े उन रोचक प्रसंगों पर भी बात की जब गीतकार अपनी शर्तों पर रचनाएं किया करते। जिसमें क्राइम और पनिशमेंट पर रमेश सहगल की बनायी फिल्म के गीत वो सुबह कभी तो आएगी का जिक्र किया। जिसे सुनकर फैज के गीत हम देखेंगे की याद आ जाती है।
यतींद्र मिश्र ने संगीत के बाकी जानकारों की खुशफहमी से अपने को अलग करते हुए साफ तौर पर कहा कि मैं कानसेन हूं। मैं दुनियाभर के संगीत सुनता हूं। कइयों के पास जा-जाकर सुनता आया हूं। इसी क्रम में वो गिरिजा देवी के प्रसंग को याद करते हुए कहते हैं कि मैं अक्सर गिरजाजी के पास सुनने चला जाता और उनसे कभी ठुमरी तो कभी कुछ सुनाने को कहता। वो अपनी छात्राओं को सिखा रही होतीं और इसी बीच मैं पहुंच जाता। उनसे मेरा दादी-पोते जैसा संबंध था और वो मुझे उसी रूप में स्नेह भी करतीं। बात-बात में एक बार उन्होंने बताया कि उन्हें तो ये भी पता नहीं कि उनका एचएमवी वालों ने कब और क्या कलेक्शन निकाल। तभी मुझे महसूस हुआ कि यहां हस्तियों को लेकर कितनी बेअदबी है। मैंने मन बनाया कि मुझे इन लोगों पर काम करना चाहिए और पहला काम गिरिजा देवी पर ही किया। आज भी लोग मुझे अपनी उस पहली रचना गिरिजा के कारण ही ज्यादा जानते हैं। जिस समय मैं उन पर काम कर रहा था, मेरे साथ के लोगों ने कहा कि ये सब तुम क्या कर रहे हो – वामपंथी लोग नाराज हो जाएंगे। विद्यानिवास मिश्र ने ये जानने पर कहा कि अच्छा एलीट हो गये हो। बाइयों का लेखा-जोखा लिख रहे हो। लेकिन मुझे इन सबसे कुछ भी फर्क नहीं पड़ा।
मुझे रचना और लिखने के स्तर पर कुंवर नारायण, अशोक वाजपेयी और मंगलेश डबराल ने बहुत अधिक प्रभावित किया है। मैं अक्सर सोचता हूं कि इनकी कविताओं में कितना खिला गद्य है। इस सवाल के जवाब में कि उनकी किताबें कितनी बिकेंगी, ऐसी किताबों की कितनी मांग है, यतींद्र मिश्र ने साफ कहा कि ये काम पब्लिशर्स का है लेकिन मैं इतना जरूर मानता हूं कि इन किताबों की जरूरत है।
यतींद्र मिश्र के पास यादों और संस्मरणों का खजाना है और सुनाने की वो खास शैली जिसे सुन कर मुझे अक्सर महमूद फारुकी की दास्तानगोई याद आती है। यतींद्र मिश्र की संपादित किताब कुंवर नारायण संसृति मैंने पूरी पढ़ी है और सुर की बारादरी का कुछ हिस्सा। लेकिन मैं व्यक्तिगत तौर पर महसूस करता हूं कि संस्मरणों को सुनाने में यतींद्र मिश्र को महारत हासिल है। युवा पीढ़ी के लिए उनसे संस्मरण को सुनना साहित्य से नये किस्म से जुड़ना है। जब वो बिस्मिल्ला खान के संस्मरण सुना रहे होते हैं, तो हमारे मन में अक्सर सवाल उठते हैं – क्या हमारे आसपास कोई ऐसा शख्स नहीं है या फिर हममें नोटिस करने की काबिलियत ही नहीं है। उन्होंने यहां भी बिस्मिल्ला खान से जुड़े दो संस्मरण सुनाये जिसे कि मैं फिलहाल बचाकर रख ले रहा हूं।
किताबों की पब्लिसिटी की चिंता के बीच भी कुल मिलाकर ये सत्र अच्छा रहा और लगा कि हिंदी साहित्य से जुड़े लोगों को संगीत के इस पक्ष पर विस्तार से चर्चा करनी चाहिए।
एक घंटे के ब्रेक के बाद हम होटल अकेता से ग्रेट वेल्यू होटल की तरफ रवाना होते हैं जहां कि पेंगुइन-यात्रा बुक्स की ओर से संगीत शृंखला की संगीतमय प्रस्तुति और दून लाइब्रेरी की ओर से डिनर का आयोजन किया गया था। समरजीत और उनकी टीम ने एक के बाद एक गाने गाये और अपनी-अपनी हैसियत के मुताबिक लोग सुरों में खोते चले गये।