.


"मैं तुम्हारा बॉस हूँ. यदि तुमने ड्रिंक नहीं लिया तो तुम अपनी नौकरी गवां सकती हो."- अविनाश पांडे,नेशनल सेल्स हेडः स्टार न्यूज। "तुम इतना सड़ा मुंह लेके क्यूँ घूमती हो ऑफिस में, Its not at all a pleasure to look at your face."- गौतम शर्मा, रीजनल हेड नार्थ इंडियाः स्टार न्यूज।

स्टार न्यूज,दिल्ली के दफ्तर में लंबे अनुभव के साथ काम करनेवाली एक महिलाकर्मी के लिए प्रयोग किए जानेवाले ये दो ऐसे वाक्य हैं जिसने न सिर्फ स्टार न्यूज के बल्कि पूरी मीडिया इन्डस्ट्री के दामन को दागदार कर दिया है। स्टार न्यूज की उंची कुर्सी पर बैठे अविनाश पांडे और गौतम शर्मा नाम के शख्स ने साल 2006 में स्टार न्यूज़ में बतौर मैनेजर एड सेल्स ज्वाइन करनेवाली सायमा सहर को लगातार मानसिक तौर पर प्रताड़ित किया,उसकी बेईज्जती की और ऐसे काम करने के लिए दबाव बनाए जिसकी वो न तो कभी अभ्यस्त रही है और न ही उसका कॉन्शस ऐसे कामों की इजाजत देता है। इन सारी बातों की शिकायत सायमा सहर ने पहले एचआर और उंचे अधिकारियों से की लेकिन चारो तरफ से मिली बेरुखी और हताशा के बाद उसे इस बात की शिकायत नेशनल कमीशन फॉर वूमेन में जाकर करनी पड़ी। कमीशन की तरफ से सायमा के पक्ष में फैसला आए और इन दोनों पर कारवायी हो इससे पहले ही उन्हें कई तरह की धमकियां मिलनी शुरु हो गयी। ये धमकियां अपने पद और रसूख का हवाला देकर गौतम शर्मा और अविनाश पांडे की तरफ से भी थी और कुछ बेनामियों की तरफ से भी। इस बीच वो मानसिक तौर पर परेशान रहने लगी,अपने को असुरक्षति महसूस करने लगी लेकिन अपने साथ हुए इस दुर्व्यवहार को लोगों के सामने लाने का मन भी बनाती रही। इसी क्रम में उन्होंने मीडियाखबर डॉट कॉम के मॉडरेटर पुष्कर पुष्प से सम्पर्क किया और अपनी आपबीती साझा की। पुष्कर पुष्प ने इस पूरी बातचीत को मीडियाखबर डॉट कॉम पर विस्तार से प्रकाशित किया है और इस संबंध में सारे कागजात होने की पुष्टि की है। हम चाहते हैं कि आप तफसील से पूरी रिपोर्ट वहीं पढ़ें।

सायमा सहर की कहानी एक ऐसी सचेत स्त्री की कहानी है जिसके पास कॉर्पोरेट वर्ल्ड में काम करने का अच्छा-खासा अनुभव है। उसने अपने करियर की शुरुआत जिलेट इंडिया लिमिटेड से की और उसके बाद मार्क्स एंड स्पेंसर,स्कॉटलैंड के लिए भी काम किया। इस बीच उसने इस दुनिया के कई तरह के अनुभव हासिल किए,करीब तीन साल स्टार न्यूज में भी काम किया। इसलिए ये तो बिल्कुल भी नहीं कहा जा सकता कि वो काम के लिहाज से मिसफिट रही है या फिर उसे इस कल्चर में काम करने की समझ नहीं है। लेकिन फिर भी ये सबकुछ उनके साथ होता है। इन सबके वाबजूद अविनाश पांडे और गौतम शर्मा ने जो उन्हें लगातार परेशान करने की कोशिश की है जो कि पुरुष बॉस की आवारा नीयत को रेखांकित करता है। सायमा सहर ने अपनी पूरी बातचीत में ये स्पष्ट किया है कि किस तरह ये दोनों शख्स उस पर पब जाने के लिए,ड्रिंक करने के लिए,जबरदस्ती विश करने के लिए दबाव बनाते रहे और इस बात का एहसास कराते रहे कि बॉस की कही गयी बातें सही-गलत से परे हैं। ऐसे में आप अंदाजा लगा सकते हैं कि जो लड़कियां/स्त्रियां वर्किंग कल्चर में नयी-नयी आती हैं,जिन्हें हर-हाल में काम चाहिए,उन्हें इस महौल में एडजस्ट करने औऱ काम की बदौलत अपने को साबित करने में कितना मुश्किलें होती होगी। कितनी ऐसी घटनाएं बनती होंगी जो कि हम तक नहीं आने पाती है और जिसे इनहाउस दफना दिया जाता है। खुद स्त्रियां भी जिसे पब्लिक डोमेन में लाना नहीं चाहती होगीं कि इससे उनके करियर पर सीधा असर पड़ सकता है। वीमेन कमीशन खुद कई बार सामाजिक दुर्गति होने की आशंका जाहिर करते हुए इनके मनोबल को कमजोर करता नजर आता है। ऐसी घटनाओं से गुजरते हुए एकबारगी तो भरोसा टूटने सा लगता है कि पढ़-लिखकर,आर्थिक तौर पर निर्भर होकर देश की स्त्रियां मानसिक रुप से अपने को पुरुषवादी जकड़बंदी से अपने को मुक्त कर पाएगी। शायद उसकी बेहतरी के कोई रास्ते अब नहीं बचे हैं।

दूसरी तरफ ये एक ऐसे चैनल की कहानी है जो 'आपको रखे आगे'के दावे के साथ हमारे बीच पैर पसार रहा है। जाहिर है इस 'आप' में स्त्रियां भी शामिल है। अब गंभीर सवाल है कि जिस आगे रखने के काम में लोग लगे हैं,वहां काम करनेवाली स्त्रियां की धकेली जा रही हों,इतनी गुलाम है कि वो अपने साथ हुई ज्यादती की बात तक नहीं कर सकती, अगर करती है तो उसे धमकियां झेलनी पड़ती है,नौकरी से हाथ धोने पड़ते हैं। दुनियाभर के लोगों की कहानी सुनाने और बतानेवाले लोगों मेँ ठीठपना इस हद तक है कि वो इसें या तो नजरअंदाज कर जाते हैं या फिर पूरे मसले को दफनाने की कोशिश करते हैं,ऐसे में आप कैसे और किस तरह से आगे होने के दावे कर सकते हैं? आपको लगता है कि ये लाइनें बिजनेस और विज्ञापन की पंचलाइन से कुछ आगे जाकर असर करेगी?

स्टार न्यूज देश के रिप्यूटेड चैनलों में से एक है जहां हम इस तरह की घटनाओं की उम्मीद नहीं कर सकते। लेकिन जो सच हमारे सामने आ रहा है उसे इसकी इमेज के आधार पर नजरअंदाज भी नहीं कर सकते। ऐसे में मंझोले औऱ दोयम दर्जे के चैनलों पर गौर करना शुरु करें तो आपको सिर भन्ना जानेवाली घटनाएं और वारदात देखने को मिलेगी. किसी चैनल में रातोंरात सैंकड़ों मीडियाकर्मियों को बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है,कोई चैनल साधन के अभाव का हवाला देकर रातोंरात बंद हो जाता है,किसी चैनल में महीनों वेतन न मिलने पर मजबूरी में काम करनेवाले लोगों को सड़कों पर उतर आना पड़ता है। खर्चे में कटौती के लिए स्थीयी मीडियाकर्मियों को हटाकर बड़े पैमाने पर इन्टर्न की भर्ती की जाती है,जिन्हे सोलह से अठारह घंटे काम करने होते हैं और कैब तक की सुविधा नहीं दी जाती। इन सारी कहानियों को सुनते हुए संभव हो आपको भरोसा न हो क्योंकि इनमें से कोई भी खबर किसी स्थापित और रिप्यूटेड अखबार या चैनल में नहीं आते। जो भी आते हैं उनका एकमात्र स्रोत ब्लॉग या मीडिया साइट्स है। लेकिन जब आप यकीन करना शुरु करेंगे तो आपका खून खौलने लगेगा। आपका मन करेगा कि ऐसे शख्सों को चौराहे पर उतारकर कुछ नागरिक स्तर की कारवायी करें,कोर्ट कचहरी जो बाद में करे से करे।.
नोट- मेरी पोस्ट पढ़ने के बाद कार्टूनिस्ट अजय सक्सेना ने एक कार्टून बनाया और उसका लिंक कमेंट बॉक्स में डाला है। हम यहां उस कार्टून को साभार यहां छाप रहे हैं।
| | edit post


मेरी लिवाइस और वेनाटॉन(UCB)की बनियान पर अभी तीन दिन ही से तो लगातार पसीने चुए थे और मैं तर-बतर हुआ था कि चौथे दिन डॉक्टर ने साफ कहा-कुछ नहीं इन्हें ग्लूकोज, पानी..वगैरह अभी तुरंत चढ़ाने होंगे। वीपी 60 हो गयी है और शरीर से बहुत पानी निकल गया है। डॉक्टर के सहयोगी आनन-फानन में सारा काम करने लग गए। अगले दस मिनट में बोतल से टप्प-टप्प गिरती पानी की बूंदों को देखकर फिर मैं इस पर कुछ रचनात्मक तरीके से सोचने लग गया। ये पानी फिर पसीना बनकर बाहर निकलेगा,नहीं तो दस्त के साथ,संभव है फिर उल्टी का दौर शुरु हो और सारी मेहनत बेकार। मुझे कितनी गर्मी लगती है,मुझे कितनी बेचैनी होती है। इतनी कि मुझे सब जगह एसी चाहिए। गाड़ी में,ट्रेन में,बसों में,कमरे में,लाइब्रेरी में..रिक्शे तक में एसी की कल्पना करने लग जाता हूं। मुझसे अब कुछ भी बर्दाश्त नहीं होता- न गर्मी,न सर्दी,न बारिश। मुझे सबकुछ नार्मल चाहिए। चैटबॉक्स पर अजीत अंजुम ने लिखा-तुम मन से जितने मजबूत हो,शरीर से उतने ही कमजोर। केरल से पंकज भैया ने फोन करके कहा-तुम बहुत डेलीकेट हो।

...देखिए मुझे हर हाल में चीजों को लेकर क्रिएटवि तरीके से सोचना है इसलिए सोच रहा हूं। आप मुझ पर लानतें-मलानतें भेजिए कि मैं जबरदस्ती का इंटल बना फिरता हूं लेकिन मेरे दिमाग में बस एक ही बात घूम रही है- पैसा इंसान को नाजुक बना देता है। मुझे आज जो इतनी गर्मी लग रही है कि तीन तीन दिनों तक एक घंटे-दो घंटे के लाइट गयी नहीं कि मुझे गर्मी लग गयी और उल्टी-दस्त का दौर शुरु हो गया,सच पूछिए तो ये सिर्फ मौसम की गर्मी नहीं है,ये उस पैसे की गर्मी है जो महीने के फर्स्ट वीक में रिसर्च के नाम पर मेरे अकाउंट में आ जाते हैं। तभी तो मैं मां के हजारों मुहावरे को याद रखने पर भी एक भी घरेलू नुस्खा याद नहीं रखता,तीन-चार घंटे में अव्वल हालत ऐसी हो जाती है कि सीधे डॉक्टर को फोन करता हूं और जाकर एडमिट हो जाता हूं। डॉक्टर तत्काल छुट्टी देना चाहता है लेकिन मैं कहता हूं आप मुझे एक-दो दिनों के लिए एजमिट कर लें। मेरे साथ फंड़ा क्लीयर है कि अब हम जिस दौर में जी रहे हैं वहां सिम्पेथी थेरेपी एकदम से काम नहीं करती है,किसी के गेट वेल सून कहने पर उसका हिन्दी तर्जुमा करने लग जाता हूं और लगता है कि कोई कहे कि-विनीत तुम जल्दी ठीक हो जाओ। मुझे पता है कि ये सारे लक्षण पढ़कर अजीत अंजुम,मनीषा पांडे,अनूप शुक्ल जैसे लोग किसी दीयाबरनी से बियाह करने की सलाह देने के अलावे कुछ नहीं कर सकते। लेकिन यकीन मानिए,ऐसे ही मौके पर मुझे किसी इंसान से ज्यादा दवाई पर भरोसा बढ़ता जाता है और मैं सिम्पैथी के बजाय सीधे एलोपैथी की गोद में जा गिरता हूं। दो जितनी दवाई देनी हो, भोको जितने इन्जेक्शन शरीर में भोकने है,लगाओ पट्टियां सड़कों की डिवाइडर की तरह,पूछो दर्जनों सवाल,उम्र से लेकर ये कि आप अल्कोहल लेते हो,सेक्स करते हो,जो जी में आए करो लेकिन मैं वापस सिम्पैथी के दरवाजे नहीं जाना चाहता। अविनाश की शिकायत है कि मैं उन्हें ये सब बताता क्यों नहीं? अविनाश भाई मैं नहीं बता सकता कि अब सिम्पैथी भरे शब्दों का कोई असर नहीं रह गया है। ऐसा कहकर मैं उन लाखों लोगों को निराश नहीं कर सकता जो इसकी बाट जोहते-जोहत गंभीर से गंभीर और नाजुक से नाजुक बीमारियों को भी ढोते चले जाते हैं। मेरे लिए बीमारी का इलाज कराने के लिए हॉस्टपीटल जाने और लिवाइस की शोरुम जाने में रत्तीभर भी फर्क नहीं है।

नहीं तो पहले हम क्या करते थे। किसी भी बीमारी का इलाज तब तक न कराते जब तक मां का नुस्खा बेअसर न हो जाता। जब तक मोहल्ले को दो जर्जन पड़ोसी जान न जाए कि सदानंद बाबू का छोटका लड़का को बाय हुआ है। जब तक धोबी,पासी,दूधवाला,सब्जीवाली मारो अपनी-अपनी पहुंच से कुछ घास-पात ला न दे। जब तक क्लास की बेचैन लड़कियां मेरी चचेरी बहन से पूछने न लग जाए कि विनीत को क्या हुआ है? जब तक एक-दो मास्टर का संदेश न आ जाए कि बेटे तू टेस्ट की टेंशन न ले,मैं हूं न। कॉलेज में पहुंचने पर तब तक इलाज न कराता जब तक उसे पता न हो जाए कि बीमार है। संत जेवियर्स में तो किसी लड़की से कोई खास नजदीकी रही नहीं और अगर रही भी तो वो दूरी से भी ज्यादा खतरनाक साबित हुई। लेकिन चूंकि पूरे निवारणपुर कॉलोनी के लिए मैं ट्यूटर था इसलिए कई बच्चों की मांओं से सिम्पैथी के टुकड़े हाथ लगे और उसका असर भी हुआ। लेकिन हिन्दू कॉलेज की कहानी अलग थी। यहां किसी भी लड़के के बीमार होने का मतलब होता कि सबसे पहले उस लड़की को फोन करो जो कि उसके सबसे नजदीक है। गार्जियन से पहले भी उसे फोन किया जाता। तारीफ देखिए कि वो लड़की वाकायदा घर में बताकर आती कि विनीत की तबीयत खराब है मम्मी,आज देर हो जाएगी।..और तारीफ उसकी मां कि बेटी,थोड़ा ठहर खिचड़ी लेती जा। हॉस्टल में कहां वो कुछ खाता होगा। वो टिफिन आज मेरे कव्वर्ड में सही-सलामत पड़े हैं। उसने एक बार देवदास के हुलिए में,मरियल सी शक्ल में हमें देख लिया,मेरे कुछ बोलने के पहले ही ओंठ पर हाथ रख दी कि नहीं बीमारी में बोलते नहीं, तब जाकर इलाज कहां करानी है इस पर बात की जाती। जाते-जाते काम में बहुत धीरे से फुसफुसाती रोस्टेज काजू किसी को दे मत देना,ये मैं सिर्फ तुम्हारे लिए लायी हूं। उसने पीठ घुमायी नहीं कि हॉस्टल विंग के लौंडे के कलेजे पर सांप लोटने शुरु हो जाते। कहानियां बननी शुरु होती- इ स्साला चूतिया,नौटंकी करता है बीमारी का,असली खेला कुछ और है।..और देखो,दीदा में भौजी का रत्तीभर भी पानी नहीं,विनीत ये खा लेना वो खा लेना और हमलोग को एक बार बाय तक नहीं बोली।
उसके जाने के बाद इलाज भी क्या,साल में सत्तर रुपये की यूनिवर्सिटी हेल्थ सेंटर की मेंबरशिप। बीमारी चाहे कोई भी हो,दवाई के नाम पर पीसीए,ब्रूफेन या कॉम्बीफ्लॉम और कोबॉडेक्स। इलाज कराने पूरा एक हुजूम जाता। कम से कम सात-आठ लोग। आने पर कमरे पर डेरा जमता। एक-दो पैकेट दूध या दही आ जाता,एकाध किलो सेब। जितना रोगी खाए उसी के अनुपात में चंगा भी और फिर दमभर बकचोदी। लड़कियों को लेकर एक से एक खिस्सा। मेरे चेहरे पर हल्की मुस्कराहट आती तो बेगुसराय के अपने बाबा झट से कहते- लौंडिया के आते ही स्साला टनमना गया। ये दो-तीन दिन का खेल होता और उसी बीच हम विद्यापति और मुक्तिबोध की किताबें लेटे-लेटे पढ़ते हुए नोट्स बनाने तक की स्थिति में आ जाते और फिर हॉस्टल में घोषणा हो जाती- घंटा बामार पड़ा था ये,स्साला नौटंकी,एकदम टनाटन हो गया है।

ये वो दौर था जब हम एक कोल्डड्रिंक भी चार लोग पूल करके मंगवाते,कभी प्राइवेट डॉक्टर के पास नहीं जाते। उसकी लायी एक टाइम की खिचड़ी के अंतिम डकार तक कुछ नहीं खाते। मां मेरे बैग में जबरदस्ती दो-तीन रुपा,लक्स,अमूल गोल्ड की बनियान-चड्डी ठूस देती। कई बार भैय्या की दूकान से मंगवाकर,कई बार उसमें हल्दी लगी होती। मैं इंटरव्यू के समय दोस्तों को बांट देता। वो इसे श्रद्धा से पहनते कि आंटी का भेजा हुआ है तो कामयाबी जरुर मिलेगी। कई दोस्त डुप्लीकेट रुपा,लक्स जो कि कलकत्ता के मटियाघाट,मंगलाघाट में 14-15 रुपये में,दिल्ली में बुध बाजार और गांधीनगर में मिला करते,वो पहनते। उसी पर हड-हड पसीना चूता और शाम तक सफेद लकीरें उभर आती। तब भी कभी एसी की जरुरत नहीं होती। किसी की एमेन्सी में नौकरी लगने पर मां-बहन की गाली देता कि बेकार में हमलोग इस गर्मी में ठंड से जकड़ जाते हैं। मैं मई की भरी दुपहरी में बीएड की लड़कियों को कोचिंग पढ़ाने लक्षमीनगर जाता। लौटते वक्त आइटीओ पर दस रुपये की दो गिलास बेल की शर्बत पीता,कभी गर्मी नहीं लगी। आज देखिए,लग गयी गर्मी।

पचौरी साहब करते रहे पर्यावरण और जलवायु की समीक्षा,बताते रहें मौसमी उलटफेर के गणित,चैनल दिखाते रखे पारा गिरने-चढ़ने की सांप-सीढ़ी का खेल,हम तो बस इस नतीजे पर कायम हैं कि हमें महीने की शुरुआत में आए पैसे की गर्मी लगी है। नहीं तो बोर्ड तक रुपाली स्याही की बोतल से बनी डिबरी में पढ़नेवाले हम जैसों को कभी गर्मी नहीं लगी तो आज कैसे लग जाती है? माफ कीजिए,हम इतने नाजुक कभी न थे। हमारी परवरिश गुलाब की पखुंडियों की बयारों के बीच नहीं हुई है। लेकिन हमने बिहारीपना,झारखंडीपना,जाहिलपना,ठसपना और पता नहीं क्या-क्या पना छोड़ने के नाम पर नाजुक होते जले गए। जूते,ट्राउजर,शर्ट से ब्रांडेड होना शुरु हुए और आज अन्डरगार्मेट भी लिवाइस की। तिस पर कोशिश यह कि इस पर पसीना न कभी चू जाए। इस क्रम में अब कोई खिचड़ी लानेवाली नहीं रही,कोई पूल करके कोल्डड्रिंक लानेवाला नहीं रहा। हेल्थ सेंटर पर शक होता है,रिक्शे से जाना झंझट लगता है। फोन पर बीमारी की बात सुनकर अफसोस के कुछ कोरे शब्द,यार खाया-पिया करो।.ये शब्द अब मुझे परेशान करते हैं,सबकुछ वर्चुअल है,सबके सब अमूर्त,मूर्त है,रियल है तो सिर्फ और सिर्फ टेबल पर पड़ी मेरी दवाई।
इसलिए बज और फेसबुक के मेरे सारे दोस्तो-पीडी,लवली,प्रभात,मिहिर,अफलातून आपलोग माफ करें,मैं आपकी विसेज का कोई जबाव नहीं दे सका और हां टेंशन न लें,शुरु-शुरु में ये गर्मी थोड़ी परेशान करती है,फिर धीरे-धीरे आदत-सी पड़ जाती है।....अदरवाइज,ऑल इज वेल...
| | edit post


देखो गदहा की औलाद पेशाब कर रहा है – गदहे के पूत यहां मत मूत – जो भी यहां पेशाब करते पाये गये, सौ रुपये जुर्माना जैसे निर्देश एक जमाने में यहां पेशाब करना सख्त मना है का ही विस्तार है। जैसे-जैसे कहीं भी कभी भी की तर्ज पर पेशाब करनेवालों की जमात ढीठ होती चली गयी वैसे-वैसे इन निर्देशों में सख्ती आती चली गयी। शुरुआती दौर में जो निर्देश अपील का असर पैदा करती थी, एक किस्म का अनुरोध किया जाता था, धीरे-धीरे उसमें आदेश, हिदायत, जुर्माना और अपमानित करने के भाव समाते चले गये। लेकिन इन सबसे भी पेशाब करने का सिलसिला नहीं थमा और इन निर्देशों के आगे बर्बर तरीके के पेशाब अड्डे बनते चले गये। एक बार जिस बाउंडरी वॉल, खाली जगहों, गलियों के आगे कुछ लोगों ने धार बहायी कि समझदार हिंदुस्तानी समाज जो कि महाजनो येन गतः सः पंथः की धारणा पर भरोसा करता है, उसे ताल का रूप देने में लग गये। फिर लाख निर्देश लिखे जाएं, जुर्माने की बात की जाए, कुछ खास फर्क नहीं पड़ता।

दिल्ली में इसी तरह निर्देशों के बेअसर हो जाने की वजह है कि हमें देखो मादरचोद पेशाब कर रहा है – देखो बहन का लंड पेशाब कर रहा है जैसे अश्लीलता की हद तक जानेवाले वाक्य दिखाई देते हैं। ऐसे वाक्य पेशाब करने और न करनेवाले को सामान्य रूप से अपमानित करते हैं। देशभर की वो तमाम स्त्रियां जो अपने घर में भी निपटान के लिए जाती हैं तो आगे-पीछे देख लेती हैं कि घर का कोई बूढ़ा-बुजुर्ग ट्वायलेट के आसपास मंडरा तो नहीं रहा। लेकिन दिल्ली तो आखिर दिल्ली है। यहां ये दोनों संबोधन बहुत खास मायने नहीं रखते। यहां ये कोई गाली नहीं बल्कि झल्लाहट में निकले शब्द भर हैं। ऐसे में सीमापार जाकर अपमानित करनेवाले इन शब्दों की चिंता किये बगैर लोगों का पेशाब करना जारी रहता है। इन दोनों वाक्यों की लिखी तस्वीर रवीश कुमार ने अपने मोबाइल से खींची थी, जिसे कभी अविनाश ने मॉडरेटर कमेंट के साथ मोहल्ला लाइव पर लगाया। मैं दिल्ली के जिस ढीठपने और इन शब्दों को महज झल्लाहट में निकला शब्द कह रहा हूं, उसे रंगनाथ सिंह ने खांटी दिल्ली का उत्पाद बताया और साथ में ये भी जोड़ा कि बनारस, इलाहाबाद, लखनऊ जैसे शहरों में मैंने देखा है कि कई लोग ऐसी जगहों पर देवी-देवतओं की तस्वीर लगा देते हैं।

तस्वीर लगाने का ये काम दिल्ली में भी खूब होता है। मैंने देखा है कि जहां सारे निर्देश बेअसर हो जाते हैं, वहां गणेश मार्का, हनुमान या शिव छाप कोई फोटो या टूटी हुई तस्वीर लगा दो तो फिर लोग वहां अपने आप पेशाब करना बंद कर देते हैं। ये देवी-देवता एक अदनी सी मूर्ति में अपने अस्तित्व की रक्षा करते हुए भी असर पैदा करते हैं। घरों, दुकानों के लिए बेकार हो गयी ये मूर्तियां और तस्वीरें हजारों रुपये की लागत से बनी एमसीडी के साईनबोर्डों की ड्यूटी बजाते हैं। पेशाब करने और लोगों को थूकने से मना करने के लिए तस्वीर वाला ये काम रामबाण जैसा असर करता है। इसी क्रम में कई जगहों पर लोगों का पेशाब करना बंद भी हुआ है। इसलिए अब तक जिन लोगों को इस बात की दुविधा रही है कि देवी-देवताओं ने इस देश को क्या दिया है, उन्हें यहां पेशाब न करो अभियान के असर को समझना चाहिए। सफाई अभियान में इन देवी-देवताओं के आगे सारे प्रयास बेकार हैं।

लेकिन पेशाब अड्डों की शर्तों पर लगी इन मूर्तियों और तस्वीरों के आगे की कार्यवाही को समझना कम दिलचस्प नहीं है। जहां-तहां धार बहाते हुए, रेड एफएम के लोगों को लाइन पर लाइन लाने और कन्टोल कल लोगे जैसे फीलर जनहित में जारी विज्ञापनों से बेपरवाह हम भूल जाते हैं कि हम पेशाब करते हुए इस शहर में, इस देश में मंदिर बनने की भूमिका तय कर रहे हैं। इस देश में पेशाब करने का मतलब है कि आप मंदिर बनाने की नींव तैयार कर रहे हैं। यहां ऐसे शुभचिंतकों, सफाई के महत्व को समझनेवाले और अव्वल दर्जे के धार्मिक लोगों की कमी नहीं है। दर्जन भर लोगों ने भी जहां कहीं लगातार धार बहानी शुरू की और उन्हें वहां स्थायी तौर पर पेशाब किये जाने के चिन्ह मिल गये कि समझिए वहां मंदिर बनाने और शिलान्यास का काम जरूरी हो गया।

इस देश में जितने भी मंदिर हैं, उनके पीछे कोई न कोई मिथ, पौराणिक कथा या फिर दावे के साथ इतिहास जुड़ा हुआ है। कहीं बैठकर राम सुस्ताने लगे थे, तो कहीं रावण लगातार शू शू करता जा रहा था सो देवघर बन गया। कहीं पार्वती जली थी… वगैरह, वगैरह। वो तमाम कहानियां मंदिरों के बनने के तर्क को मजबूत करते हैं जो उल्टे आप ही से सवाल करे कि अब वहां मंदिर नहीं बनाते तो क्या करते? मैंने तो यहां तक देखा है कि मेनरोड पर कोई बंदर करंट लगकर मर गया तो लोगों ने उसे साक्षात हनुमान का अवतार मानकर आनन-फानन में मंदिर बना दिया। नतीजा अब वो रोड दिनभर जाम रहता है।

बहरहाल आप देशभर के मंदिरों के केयरटेकर पंडों से उसके बनने का इतिहास पूछें तो हरेक के पास कोई न कोई अलग किस्म की कथा होगी। लेकिन अपनी आंखों के सामने जो दर्जनों मंदिर मैंने बनते देखे हैं, अगर उन मंदिरों के पंडों ने ईमानदारी से जबाव देने शुरू किये तो सबों का जवाब लगभग एक होगा कि यहां पर आज से चार / पांच / छह / सात / आठ साल पहले लोग बहुत पेशाब करते थे। रास्ते से गुजरती हुई माताओं-बहनों को बहुत परेशानी होती थी। दिनभर भभका उठता था इसलिए स्थानीय भक्तजनों ने तय किया कि यहां मंदिर बना दिया जाए। देशभर में क्या, अकेले दिल्ली में ऐसे दर्जनों मंदिर हैं जहां कभी किसी देवी-देवता ने अवतार नहीं लिया (वैसे अवतार लेते कब हैं) और सिर्फ पेशाब करने से रोकने के लिए उन जगहों पर मंदिर बने हैं।

अब असल सवाल है कि ये मंदिर किस हद तक जनहित का काम करते हैं। इंदिरा विहार, विजयनगर, आर्ट फैकल्टी, पटेल चेस्ट से लेकर दिल्ली के उन तमाम इलाकों में इस अभियान के तहत जितने भी मंदिर बने हैं, वो पहले के बर्बर पेशाब अड्डों से कहीं ज्यादा गंदगी फैला रहे हैं। पेशाबघर तो छोड़िए, दड़बेनुमा इन मंदिरों में पंडों के लिए पखाने से लेकर किचन तक की जो स्थायी/अस्थायी सुविधा जुटायी गयी है, उससे किस हद तक की गंदगी निकलती है – उसे आप खुद मेन रोड पर बहती गंदगियों को देखकर अंदाजा लगा सकते हैं। अवैध पेशाब के अड्डे सिर्फ बदबू पैदा करते हैं लेकिन ये मंदिर कभी माता जागरण तो कभी रामलला के नाम पर नियमित शोर। पेशाब अड्डों की बदबू फिर भी बर्दाश्त कर लें लेकिन जीना हराम कर देनेवाले हो-हल्लों का क्या किया जाए। ये पूरे महौल का सत्यानाश कर रहे हैं, उसे कैसे रोका जाए? लोगों के आने-जाने और इस्तेमाल की जानेवाली चीजों से जो गंदगी बढ़ती है वो तो अलग है।

पॉश इलाके के लोगों ने तो अपनी हैसियत से, स्पॉन्सर कराकर फाइव स्टार टाइप के मंदिर जरूर बना लिये, ये मंदिर भी टनों में कचरा पैदा करने के अड्डे बने लेकिन ये खोमचेनुमा सैकड़ों मंदिर जिस गंदगी को बढ़ा रहे हैं, उस पर कहीं कोई बात नहीं होती। ऐसे में आप सोचने पर मजबूर हो जाएंगे कि अवैध तरीके से बनाये गये मंदिरों के मुकाबले इस देश को कहीं ज्यादा मूत्राशय और पखाने की जरूरत है। मनीषा पांडे के शब्दों में कहूं, तो वैसे तो ये पूरा देश ही ट्वायलेट है लेकिन अफसोस कि यहां ट्वायलेट नहीं है, इसे लेकर बहुत दिक्कत है। मन का मैल तो इन खोंमचेनुमा मंदिरों में पाखंड के रास्ते निकलकर डंप हो जाता है – लेकिन शरीर से जो मल निकल रहा है, उसका क्या? अगर इस देश में मूत्राशय से होड़ करके ही मंदिर बनना है तो सुलभ इंटरनेशनलवालो – प्लीज आप ही कुछ पहल कीजिए।

मूलतः प्रकाशित- मोहल्लाlive
| | edit post

..जो सानिया तीन महीने पहले तक शोएब की दीवानी थी,अब वो अचार की दीवानी हो गयी है। देशभर के लोग उन्हें अचार का डब्बा भेज रहे हैं। इस मामले में 25 साल का छुट्टन भावुक हो जाता है और कहता-आज मेरी अम्मा जिंदा होती तो मैं भी सानिया के लिए कटहल का अचार बनवाकर भिजवाता। मेरी मां कटहल का अचार जितना बेहतर बनाती है,सवाल ही नहीं है कि सानिया को पसंद न आए।..उसी क्रम में देशभर में अचार की बेहतर कंपनियों,दुकानों,किस्मों और तरीकों की शिनाख्त होगी। राजस्थान या मेरठ का कोई बंदा तभी अकड़कर इंडिया टीवी पर बाइट दे रहा होगा कि उसी के यहां से अचार गयी है जिसे कि सानिया ने चटकारे लेकर मीडिया के सामने टेस्ट किया।..कहानियों का अंत नहीं है,एक के बाद एक कहानी बनेगी।..लेकिन न्यूज चैनल के लिए सानिया मिर्जा हमेशा खबर रहेगी।

फेसबुक पर गिरीन्द्र ने मीडिया के लोगों खासकर न्यूज चैनलों से गुहार लगायी है कि अब वो सानिया मिर्जा को बख्श दें। अब निकाह तो हो गया,खुदा के वास्ते अब इनकी बातें करना छोड़ दें। गिरीन्द्र चैनलों को एक बार फिर उन मुद्दों की तरफ लौटने की अपील करते हैं जिसमें कि लोगों के कन्सर्न हैं। मुझे नहीं पता कि फेसबुक पर लिखी गिरीन्द्र की अपील न्यूज चैनलों से जुड़े कितने लोगों तक पहुंचेगी और अगर पहुंचेगी भी तो उसका असर उन पर होगा भी या नहीं? और अगर होगा भी तो वो इस स्थिति में होगें भी कि नहीं कि इसे मान लें। क्या न्यूज चैनल के लोगों का कलेजा इतना बड़ा है कि वो टीआरपी का लोभ छोड़कर एक आम ऑडिएंस की बात मान लें? मुझे तो रत्तीभर भी ऐसा नहीं लगता। बहरहाल मैं गिरीन्द्र को इस तरह की गुहार लगाते रहने की सलाह देने के वाबजूद घोषणा करता हूं कि सानिया मिर्जा की कहानी इतनी जल्दी टेलीविजन के पर्दे से नहीं उतरने वाली। मैंने कमेंट भी किया- अभी कहां गिरि,अभी तो मेंहदी और 15 तारीख की रिसेप्शन बाकी है। कुछ दिन तक मामला ठंडा पड़ भी जाए तो फिर ये खबर तो अभी से ही गदराने लगी है कि जी मचलता है सानिया का, अचार की आशिक हुई सानिया। कमेंट लिखने के बाद मैं तभी सोचने लगा कि आज से चार महीने बाद न्यूज चैनल सानिया मिर्जा को लेकर कौन सी स्टोरी बनाएंगे?

न्यूज चैनलों के लिए सानिया मिर्जा के संबंध और सगाई को लेकर दुनियाभर की अटकलों और फजीहतों का एक राउंड हो चुका है। शोएब के साथ शादी के बाद अब तक की जो स्थिति बनी है उस आधार पर इन चैनलों के भीतर इतनी समझदारी आ चुकी है कि वो ये मानने को तैयार हो जाएं कि दोनों के बीच के संबंध स्टेबल होंगे। अब किसी तरह का लोचा नहीं होगा और ये सो कॉल्ड एक आइडियल फैमिली का रुप लेगा। ऐसे में चैनल अब इस संबंध को और मजबूती देने में अपनी तरफ से दम-खम लगाएंगे।

दसवीं तक जिस किसी ने भी फिजीक्स की पढ़ाई की है उन्हें पता है कि उर्जा का कभी विनाश नहीं होता। टेलीविजन इसी फार्मूले पर काम करता है और इस क्रम में उसके लिए कुछ इमेज ऐसे हैं जो कि कभी नहीं मरेगें,कभी भी साइडलाइन में नहीं जाएंगे। वो इसी फीजिक्स के फार्मूले पर काम करते हैं। उनका स्टेटस भले ही बदल जाए लेकिन उनकी टीआरपी वैल्यू बनी रहेगी। वो टेलीविजन के कमाउ चरित्र है। कभी वो बाल बढ़ाकर चर्चा में रहेंगे तो कभी बाल झड़ने पर इलाज कराकर रहेंगे। कभी स्कर्ट पहनकर मेन न्यूज को खा जाएगी तो कभी लंहगे और लाल जोड़े में देशभर की खबरों को ढंक लेगी। सानिया मिर्जा की कैटगरी ऐसी ही है। ऐसे चरित्र अपने काम से आगे जाकर भी चर्चा में बने रहने की वजहों के साथ जुड़ जाते हैं। यकीन न हो तो मोटे तौर पर आप अंदाजा लगा ले कि सानिया मिर्जा जितना अपने खेल को लेकर चर्चा में नहीं रही उससे कहीं ज्यादा स्टेटमेंट,ड्रेसिंग सेंस,नथनी और अब तो माशाअल्लाह। ऐसे चरित्र जब एक बार चैनल को इस बात का एहसास करा जाते हैं कि उसकी हर बात बिकेगी,उसकी हर हरकत को देखा जाएगा। ऐसे में टेलीविजन का रवैया कैसा होगा,थोड़ा इसे प्रिडिक्ट कर लेना जरुरी होगा।

सानिया और शोएब के बीच के संबंधों को स्टेबल करने के लिए चैनल लफंदरगीरी छोड़कर थोड़ा सुधर जाएंगे। वो अब 'हमारे चैनल में इस तरह का चूतियापा नहीं होता है'के अंदाज में काम करेंगे। वो साफ कर देंगे कि सानिया शोएब के साथ उसी तरह खुश है जैसे एक सम्पन्न भारतीय परिवार में ब्याहने पर कोई लड़की खुश रहती है। शोएब सानिया की गोद में दुनियाभर की खुशियां लाकर उझल दे रहा है। जी हां,सही सुना आपने,दुनियाभर की खुशियां जिसमें उसकी मां बनने की भी चाहत शामिल है। सानिया जल्द ही खुशखबरी देगी। जल्द ही उसके आंगन में किलकारियां गूंजा करेगी। आदर्श पत्नी के तौर पर तो सानिया ने सोएब के साथ छ महीने गुजार दिए। अब वो हमारे सामने एक आदर्श मां के रुप में पेश आए इसके लिए सानिया को ढेर सारी शुभकामनाएं। जिस चैनल की जैसी औकात होगी,वैसी वो बाइट जुटाकर ला सकेंगे। कुछ पहुंचे निकले तो उस लेडी डॉक्टर तक जा सकते हैं जो सानिया को कन्सल्टेंसी दे रही होगी। सानिया होनेवाले बच्चे का क्या नाम रखेगी,उसकी शक्ल शोएब पर जाएगी या फिर एक सानिया जो पाकिस्तान की पैदाइश है इस पर स्पेशल स्टोरी बनेगी। ये क्रम चलता रहेगा। भावनाओं में जीनेवाली इंडियन ऑडिएंस इसे आंखे चीर-चीरकर तब भी देखेगी। जिस गजोधर,छुट्टन, पिंटुआ,बबलुआ,माधो ने सानिया के बियाह के दिन मातम में अनाज का एक दाना मुंह में नहीं लिया वो भी मन ही मन सानिया के बच्चे के लिए नाम सोचकर रखेगा। चैनल थोड़ा दिमाग लगाए तो एक शो करा सकता है- सानिया के बच्चे का कीजिए नामाकरण और सानिया की फैमिली के साथ सिंगापुर में बिताइए पूरे एक सप्ताह टाइप का इनाम घोषित कर सकता है।
इधर विज्ञापन की दुनिया भी सानिया की इस स्टेबल गृहस्थी से अपने को जोड़कर देखना शुरु कर देगी। पहले जो सानिया एडीडॉस बेचा करती थी,अब वो काजोल की ही तरह होम एप्लीएंन्सेज बेचा करेगी। सानिया फ्रीज से आम शर्बत निकालेगी तो शोएब उसी कंपनी के प्रेस बॉक्स से कपड़े प्रेस कर रहा होगा,पीछे से उसका बच्चा दाग लगे कपड़े को उसी कंपनी की वॉशिंग मशीन से झक-झक धोकर ले आएगा। इस तरह से विज्ञापनप्राप्त एक आदर्श न्यूक्लियर फैमिली बनेगी। वो भी काजोल की तरह टम्मी-मम्मी बोलकर सूप,सॉस,हेल्थ ड्रिंक बेचा करेगी जिसमें मां का प्यार बार-बार छलकरकर हम जिद्दी दर्शकों के बीच छलककर आएगा। कल तक जिस सानिया में अपनी गर्लफ्रैंड की छवि खोज रहे थे,अब पत्नी की खोजनी शुरु कर देंगे। मां की आंखों से आदर्श बहू के तौर पर तुलसी रिप्लेस हो जाएगी। अब सानिया जिस बच्चे को पोलियो ड्रॉप पिला रही होगी वो उसके अपने बच्चे होगे। लाइन इस तरह की होगी- मैं अपने बच्चे को सुरक्षित करती हूं,क्या आप नहीं? सानिया परिवार नियोजन करा रही होगी। विज्ञापन की लाइन होगी- जब मैं एक लड़की हूं तो एक से अधिक लड़की क्यों? शोएब को सरोगेट काम मिला करेगा। ये सबकुछ होगा। सानिया के बच्चे पाकिस्तान के स्कूल में पढेंगे और हिन्दुस्तान के मैंदान में फुटबॉल खेलेंगे,अमन की आशा का विज्ञापन करेंगे। सानिया के बाल पकने शुरु होंगे- वो लॉरिएल के कलर बेचा करेगी। सानिया थोड़ी कमजोर भी दिखेगी लेकिन इन्श्योरेंस पॉलिसी के विज्ञापन करेगी। लेकिन सानिया,सानिया न्यूज चैनल और टेलीविजन के लिए हमेशा खबर रहेगी,हमेशा एटेन्शन एलीमेंट रहेगी।

नोट- सानिया की शादी पर एक टेलीविजन शुभचिंतक की ओर से इसे बेहतर कामना और क्या हो सकती है? एक प्रति प्रिंटआउट रख लें तो हमारे चैनल के साथी स्क्रिप्ट लिखने से भी बच जाएंगे,कॉपीराइट तो है नहीं।
इधर
| | edit post


जल्द ही हिन्दी का भविष्य और अलग-अलग माध्यमों की हिन्दी को लेकर एक किताब प्रकाशित की जानी है। मुझे इस किताब के लिए हिन्दी ब्लॉगिंग पर एक लेख लिखने के लिए कहा गया है। ब्लॉगिंग को लेकर मेरी जो भी और जैसी भी समझ और अनुभव है,जिनलोगों को पढ़ता आया हूं,उनकी ब्लॉग सामग्री को रेफरेंस के तौर पर इस्तेमाल तो करुंगा ही। लेकिन मैं चाहता हूं कि इस बीच आप हिन्दी ब्लॉगिंग की स्थिति को लेकर क्या सोचते हैं,आपकी इस मामले में क्या राय है,हमसे शेयर करें। मैं अपनी बात रखने,पोस्टों के रेफरेंस शामिल करने के साथ-साथ आपकी बातें भी जोड़ता चला जाउंगा। कोशिश है कि हिन्दी ब्लॉगिंग पर एक बेहतर लेख तैयार हो जाए।

फेसबुक पर मैंने दो-तीन बार अनुरोध किया है। बज पर भी अपील की है कि आप अपनी राय मुझे दो-तीन के भीतर भेजें। रविरतलामी,रवीश कुमार,अनूप शुक्ल,यशवंत सिंह गिरीन्द्रनाथ झा,रचना सिंह,सुजाता,नीलिमा,प्रमोद रंजन,अजय कुमार झा,प्रशांत प्रियदर्शी और अफलातून की प्रतिक्रियाएं आयी हैं। इनमें से रविरतलामी,मुंबई से रवि श्रीवास्तव,जयपुर से नीलिमा सुखेजा और गिरीन्द्र ने तो लिखकर भेज दिया है। लेकिन बाकी के लोगों ने कुछ इन्क्वायरी के साथ एक-दो दिनों की अतिरिक्त समय की मांग की है। मुझे लगा कि अलग से लिखने के नाम पर शायद लोग कोताही कर जाएं इसलिए विज्ञापननुमा अंदाज में मैंने दो बातें लिखीं। एक तो ये कि आप अपनी बात सौ-सवा सौ में ही लिखकर भेज दें औऱ दूसरी बात कि जितनी देर में आप फेसबुक पर अपनी स्टेटस बदलते हैं,कमेंट करते हैं,उतनी देर में आप अपनी राय मुझे भेज सकते हैं। इन दोनों बातों से मेरा इरादा आपके लिए कोई शब्द सीमा बांधना नहीं है,आप अपनी मर्जी से जितना चाहें लिखें।

फेसबुक,बज और पर्सनल मेल के जरिए मैंने लोगों से अपील की है। उम्मीद है कि लोग रिस्पांड करेंगे। लेकिन ब्लॉग की दुनिया के कई संजीदा और सक्रिय लोगों तक मेरी ये अपील नहीं पहुंच पायी होगी,इसलिए पोस्ट के जरिए राय मांगने की जरुरत पड़ी। उम्मीद है कि आप निराश नहीं करेंगे।
| | edit post

रस्किन बांड की बातों में हम इतनी बुरी तरह खो गये थे कि हमें पता ही नहीं चला कि आसपास बाकी क्या हरकतें हो रही हैं। ये तो जब उन्होंने रवि सिंह (पेंगुइन-इंडिया के प्रकाशक एवं मुख्य संपादक) से बातचीत पूरी की तो देखा कि हॉल पूरी तरह भरा हुआ है। एक भी कुर्सी खाली नहीं थी बल्कि कुछ लोग दीवार से सटकर खड़े थे। ऐसा लग रहा था कि रस्किन बांड के नाम पर रातोंरात देहरादून में कुछ अतिरिक्त बुद्धिजीवी पैदा हो गये हों या फिर उन्हें सुनने के लिए शहर के बाहर से आये हों। तीन दिन की इस पेंगुइन रीडिंग्स में रस्किन बांड के सत्र को मैं जादू की तरह याद करता हूं और बिरदा के गीत को नशा के तौर पर। रस्किन बांड को सुनने के बाद हर सत्र और घटनाओं के बारे में सोचता तो आप ही कल्पना करता कि रस्किन इस बात को किस तरह से बोलते और बिरदा ऐसे मौके पर कौन सा गीत गाते?

रस्किन बांड जितना बड़ा नाम है, वो मुझे खुद उतने ही सहज इंसान लगे। चेहरे पर एक खास किस्म की चाइल्डिस इग्नोरेंस है। वो बच्चों के बीच इसी रूप में पॉपुलर हैं। शायद इसलिए उन्हें देखकर ऐसा लगा कि बच्चों के चेहरे का भोलापन रुई के फाहों की तरह उड़-उड़कर उनके चेहरे पर चिपककर एक स्थायी हिस्सा हो गया हो। ये अलग बात है कि मेरे साथ बैठी साना (दि पायनियर) ने चीट पर लिखकर बताया कि रस्किन यहां सीरियस हैं लेकिन अगर अकेले बात करो तो बहुत फनी हैं, एक समय था जब उन्हें गुस्सा बहुत आता था। रवि सिंह ने परिचय के दौरान हमें बताया कि जब वो उन्हें मसूरी लाने गये तो देखा कि बच्चे उन्हें घेरे हुए थे और सब उन्हें अंकल-अंकल पुकार रहे थे। रस्किन जब किताबों की दुकानों पर होते हैं तो ऑटोग्राफ देते नजर आते हैं। ये नजारा तो मैंने खुद सत्र खत्म होने के बाद देखा। स्टेज के चारों ओर से छिटक कर ऑडिएंस उस कोने से चिपक गयी थी जिधर रस्किन खुद बैठे थे। ऑटोग्राफ लेने वालों का तांता लगा था। कुछ लोगों ने तो किताब इसलिए खरीदी कि उन्हें फिर पता नहीं उनका ऑटोग्राफ कब मिले? कई बच्चों की मांओ ने रस्किन की स्टोरी की किताबें खरीदीं और मौका मिलते ही फोन करके बताया – बेटू, तुम्हारे लिए खुद रस्किन ने ऑटोग्राफ वाली किताब दी है।


बहरहाल, कार्यक्रम की जो रूपरेखा दी गयी थी – उसके अनुसार रस्किन अपनी रचनाओं के चुनिंदा अंशों का पाठ करते और फिर उनसे रवि सिंह की बातचीत होती। इस क्रम में उन्होंने रस्टी का पाठ किया और फिर रवि सिंह से बातचीत शुरू हुई। पूरी बताचीत में हमने जो महसूस किया कि रस्किन की दुनिया में फिक्शन और नेचर कायदे से तो मौजूद है ही, राइटिंग फॉर चाइल्ड के लिए भी वो मशहूर हैं। लेकिन शहर को समझने और उस पर बात करने की जो कला रस्किन के पास है, उसे सहेजने और विस्तार देने की जरूरत है। मौजूदा दौर में अकादमी की दुनिया में सिटी स्पेस एक नये विषय के तौर पर पॉपुलर हो रहा है। ऐसे में रस्किन की राइटिंग से शहर को समझने और व्यक्त करने की कला सीखी जा सकती है। ये बात मैं इसलिए कह रहा हूं कि जब वो देहरादून और मसूरी की प्रकृति पर बात करते हैं, उसके बदल जाने की बात करते हैं। बताते हैं कि तब पूरे शहर में दो ही मोटरकार हुआ करती थी। गिनती के लोगों के पास कलाई घड़ी थी। आप बॉटनी टीचर की बात करें तो लोग आपको उनके घर तक पहुंचा आते थे। शहर बनने की प्रक्रिया के साथ प्रकृति (रस्किन के लिए प्रकृति एक व्यापक शब्द है) किस तरह बदलती है, वो इसकी विस्तार से चर्चा करते हैं। इस तरह वो आपको प्रकृति के नाम पर सिर्फ पहाड़ों और पेड़ों के बीच खो जाने या फिर उसके नाम पर नास्टॉल्जिक हो जाने की राह नहीं थमाते बल्कि एक शहर के बनने की पूरी प्रक्रिया बारीकी तौर पर समझाते चले जाते हैं।

पूरी बातचीत में हमने पाया कि रस्किन के पास सिर्फ वर्णन करने की बेहतरीन शैली ही नहीं बल्कि उससे कहीं ज्यादा ऑब्जर्वेशन की असाधारण प्रतिभा भी है। मैंने उन्हें बहुत पढ़ा नहीं है लेकिन पूरी बातचीत की बदौलत कह सकता हूं कि उनकी ये जो ऑब्जर्वेशन है वो भी इन रचनाओं में क्रिएटिविटी का हिस्सा बनकर आती है। इससे आप आर्किटेक्ट लिटरेचर की समझ हासिल कर सकते हैं जो कि लंदन शहर पर जोन्थन रेबन (1974) के लिखे उपन्यास ‘सॉफ्ट सिटी’ में दिखाई देता है। शहर को इस बारीक समझ के साथ महसूस करने और फिर उस पर उतनी ही बारीकी से लिखने के सवाल पर रस्किन का जबाव जितना सहज था, अमल करने के स्तर पर उतना ही बड़ा चैलेंज।

किसी भी शहर को समझने का सबसे बेहतर तरीका है कि आप उस शहर में पैदल चल कर चीजों को देखें। जब आप टहल रहे होते हैं, तो एक ही साथ कई चीजें आपके साथ जुड़ती चली जाती हैं। आपकी समझ का दायरा बढ़ता है जो कि बिना पैदल चले संभव नहीं है। लेकिन अब लोगों ने यही करना बंद कर दिया है। बच्चे लैपटॉप की स्क्रीनों में घुस गये हैं। उसी दुनिया में खो गये हैं। यही कारण है कि वो एक ही साथ शहर से एहसास के स्तर पर कटते चले जाते हैं और प्रकृति से भी दूर होते चले जाते। ये दोनों चीजें उनके कन्सर्न में नहीं है। रस्किन के लिए प्रकृति बाकी के लेखकों से कहीं ज्यादा बड़ा शब्द है बल्कि इसे आप शब्द न कहकर एनलिटिकल टूल कहें तो ज्यादा बेहतर होगा।

रवि सिंह ने जब सवाल किया कि क्या ऐसा है कि प्रकृति से जुड़ाव ने आपको ज्यादा संवेदनशील बनाया? इस सवाल के जबाव में उन्होंने कहा कि सिर्फ इस बात से चीजें तय नहीं होती है कि आप प्रकृति से जुड़े हैं, उस पर लिख रहे हैं, देख रहे और बात कर रहे हैं, बल्कि काफी कुछ इस बात पर भी निर्भर करता है कि आपकी प्रकृति (nature and the nature of the people) पर भी निर्भर करता है। इसलिए एक तरफ वो देहरादून की नेचर के स्तर पर के बदलावों की चर्चा करते हैं, तो दूसरी तरफ लोगों की उस प्रकृति की भी विस्तार से चर्चा करते हैं, जिन्होंने कि जेनुइन और इन पहाड़ों और प्रकृति के बीच रहनेवाले लोगों को बेदखल कर दिया है। विकास के नाम पर जो कुछ भी चल रहा है, उसमें वो कहीं भी शामिल नहीं हैं। रस्किन के हिसाब से शहर या प्रकृति को समझने का मतलब सिर्फ चीजों की मौजूदगी को महसूस करना भर नहीं है बल्कि उनके साथ हो रहे बदलावों की पूरी प्रक्रिया को समझना है। आसपास की दुनिया को इस रूप में पहचानना ज्यादा जरूरी है।


तीसरे दिन के इस सत्र में केकी दारुवाला और आज की कहानी को यहां स्कीप करते हुए पहले हम शेखर पाठक की उत्तराखंड गाथा वाले सत्र की चर्चा करें तो बाद के कई तरह की रिपिटेशन्स से बच जाएंगे। शेखर पाठक ने उत्तराखंड के अलग-अलग पहलुओं पर प्रोजेक्टर, गिरदा और नरेंद्र नेगी के गीतों के सहारे जो बात कही, उसकी खास तौर से चर्चा की जानी चाहिए। शेखर पाठक जब उत्तराखंड पर अपनी बात रखने के लिए हमारे सामने मौजूद हुए तो इस सत्र का संचालन कर रहे पुष्पेश पंत ने हमें पूरी तरह डरा दिया। वो गाथा शब्द को पकड़कर कुछ इस तरह बैठ गये, वीरगाथाकाल से लेकर अब तक गाथा की जो भी शक्ल बनी है उसे परिभाषित करने लगे कि हमें लगा शेखर पाठक इसमें अपनी बातें ज्यादा और जमाने की बात कम करेंगे। हमारी इस दुविधा में रहा-सहा जो भी कसर था, उसे उन्होंने यह कहकर पूरा कर दिया कि शेखर पाठक सालभर पहाड़ों में घूमते हैं तो कम से कम चार घंटे तो आपके सामने बोलेंगे ही। इस शख्स से उनकी लड़ाई हो सकती है, बहस हो सकती है लेकिन मेरी बातचीत तो कभी नहीं हो सकती। हम शेखर पाठक से कुछ सुनते – इसके पहले ही नर्वस हो गये। पुष्पेश पंत की कही सिर्फ एक बात थी जो हमें हिम्मत बंधा रही थी कि ये एक ऐसा स्कॉलर है जो दिनभर स्टडी रूम में नहीं बल्कि पहाड़ों में घूमकर अनुभव बटोरता है। यहीं पर आकर हम बेफिक्र हो गये है कि चलो, जो भी बोलेगें, किताबी नहीं बोलेंगे।


शेखर पाठक हमें उत्तराखंड की उस दुनिया में ले गये, जिसे सिर्फ उसकी पहाड़ियों, खूबसूरत वादियों और पानी की बहती धारा पर रोमैंटिक तरीके से मोहित होकर नहीं समझा जा सकता है। पुष्पेश पंत ने परिचय में ही जो सवाल खड़े कर दिये थे कि अगर शेखर पाठक गाथा शब्द का प्रयोग कर रहे हैं तो समझ में आता है कि वो प्रकृति को लेकर एक मिथ की बात कर रहे हैं, वो यहां पूरी तरह टूटता है। शेखर पाठक इन वादियों की, ऐतिहासिक स्थलों की, हिमालय की विराटता की, नदियों के संगम की जब बात करते हैं, तो साथ ही इन वादियों में तस्करों के घुसपैठ की, पौराणिक कथाओं के बनने और उसे सहेजने की, क्षेत्रों को लेकर राजनीति और सरकारी विफलता की, विस्थापन की, बेबसी की, राजनीतिक तिकड़मों की, ठेकेदारों और कॉन्‍ट्रैक्टर के रौंदे जाने की घटना की विस्तार से चर्चा करते हैं। दस साल पुराने इस नये राज्य उत्तराखंड के विकास से ज्यादा अवसरवाद के जंजाल पैदा होने की कहानी को तल्खी से पेश करते हैं। प्रोजेक्टर पर एक-एक तस्वीरें आती है, शेखर पाठक उसकी चर्चा करते हैं। वो चर्चा प्रकृति या भौगोलिक वर्णन से कब राजनीतिक कट्टरता का बयान करने लग जाती है, इसके लिए आपको थोड़ा ध्यान देकर सुनने की जरूरत पड़ती है – लेकिन इसके साथ ही एहसास होता है कि आप इस राज्य को सिर्फ उत्तराखंड टूरिज्म के चश्मे से नहीं देख रहे हैं। ऊपर रस्किन बांड ने जिस तरह से शहर को देखने की बात कही, वो हमें तीन दिन में सुजीत शाक्या और शेखर पाठक के सत्र में गंभीरता के साथ देखने को मिला। शेखर पाठक हर बड़ी-छोटी घटना को एक बड़े पर्सपेक्टिव से जोड़कर देखते हैं। इसलिए जब वो कहते हैं कि इन पहाड़ों पर बसंत अब भी उतरता है, नरेंद्र नेगी उल्लास में बसंत के गीत भी गाते हैं लेकिन गिरदा की आवाज में जैसे ही बसंत का गीत शुरू होता है, ऐसा लगता है कि किसी के पेट में बीचोंबीच तीर लगा हो और वो दूर पहाड़ पर खून को रोकने और तीर को निकालने के क्रम में कुछ गा रहा हो। शेखर पाठक इस बसंत के साथ ग्लोबल वार्मिंग, इकोलॉजिकल इम्बैलेंस की बात करते हैं। टिहरी की चर्चा करते हैं जो कि प्रकृति से कहीं ज्यादा राजनीतिक बेहयापन का शिकार हुआ। जहां जिंदगी हुआ करती थी, वहां अब सिर्फ एक जगह है। शेखर पाठक की इस पूरी चर्चा की ऑडियो रिकार्डिंग मेरे पास है। अभी सबको सहेज रहा हूं। तस्वीरों के न रहने पर भी इसे सुनकर बहुत कुछ समझा जा सकता है।

शेखर पाठक ने उत्तराखंड गाथा में जिस तरह से अपनी बात कही, वो हिंदी सेमिनारों के संस्कार में नहीं है। यहां विचार इतना हावी है कि फील्ड वर्क जीरो है। शेखर पाठक ने इस काम में हाथों को कलम से ज्यादा पैरों को चल कर थकाया है। इस पैटर्न पर अगर साहित्यिक चर्चाएं शुरू हो जाती हैं, जिसमें कि एक ही साथ कई विधाएं और प्रोसेस शामिल करके बात की जाने लगे तो यकीन मानिए सेमिनार में डॉक्यूमेंटरी फिल्म का असर पैदा होगा। बहरहाल शेखर पाठक की बातों में एक से एक जानकारी और रोचकता थी लेकिन हम पहले से बहुत लेट हो रहे थे। हम सबों को दिल्ली या फिर बाकी अपनी-अपनी जगहों पर जाना था इसलिए पीछे से लोगों ने ऊबना शुरू कर दिया। सवा दो बजे आते-आते लोग भूख के मारे परेशान होने लगे थे। अंत में पुष्पेश पंत को इंट्रप्‍ट करना पड़ा। उनका ये अंदाज बहुत सही तो नहीं था लेकिन रोकना भी जरूरी था। शेखर पाठक ने फिर दो-तीन मिनट के भीतर अपनी बात खत्म कर दी।


तीसरे दिन के सत्र में आज की हिंदी कहानी पर जो चर्चा हुई, वो अपने ढंग की अलग चर्चा रही। हम जैसे लोगों के लिए ममता कालिया को छोड़कर बाकी लोगों को सुनना पहली बार सुनने का सुख और अनुभव था। दूसरी खास बात कि जो भी जिसने और जैसा कहा, कइयों की बातों को लेकर व्यक्तिगत तौर पर मेरी असहमति है – लेकिन सबों ने बहुत ही साफगोई के साथ अपनी बात रखी। सबों का स्टैंड मेरी पकड़ में आ सका। मो हम्माद फारुकी जो कि इस सत्र का संचालन कर रहे थे, हिंदी कहानी को लेकर उनका अध्ययन बहुत ही गहरा और समझ बहुत साफ है। मैंने हिंदी के तमाम सेमिनारों में इतनी स्पष्टता के साथ बहुत ही कम लोगों को बोलते सुना है। रिसर्च में भले ही हिंदी समाज में रेफरेंस का रिवाज रहा हो लेकिन व्याख्यान में नामवर सिंह, केदारनाथ सिंह और मैनेजर पांडेय जैसे कुछ गिने-चुने ही आलोचक हैं, जो इस तरीके से रेफरेंस के जरिये अपनी बात रखते हैं। फारुकी साहब को सुनना मुझे कुछ ऐसा ही लगा। आज की कहानी को लेकर पूरी बहस दो मुद्दे या खेमे में जाकर फंसी। एक तो ये कि आज की कहानी किसे कहेंगे और दूसरा कि युवा कहानीकार क्या लिख रहे हैं?

सत्र की शुरुआत करते हुए फारुकी साहब ने कहा कि आज के युवा कहानीकार बहुत लिख रहे हैं, अलग-अलग मुद्दों पर लिख रहे हैं। लेकिन सबसे बड़ी बात है कि उनकी भाषा तो चमकदार है लेकिन विषय को लेकर एक्सपर्टीज नहीं है। कई बार तो वो कहानी नहीं वैचारिकी होती है। ऐसे में कहानी खत्म हो जाती है। चंदन पांडे की कहानी पब्लिक स्कूल को याद करते हुए कहा कि इस कहानी को भी पढ़कर ऐसा ही लगता है और आपको कहानी पढ़ते हुए समझ आ जाएगा कि कहानीकार को पब्लिक स्कूल के बारे में बहुत अधिक जानकारी नहीं है। फारुकी साहब की बात को समझें तो ऐसे में अक्सर कहानीकार अपने को थीअरिस्ट जैसी धाक पैदा करने से अपने को रोक नहीं पाते। वो जिस चमकदार भाषा की बात कर रहे हैं उसका तो मैं यही अर्थ समझ पाया कि ऐसी कहानियां तुरंत असर तो करती है लेकिन स्थायी प्रभाव नहीं छोड़ पाती है।

इस मामले में ममता कालिया युवा कहानीकारों का पक्ष लेती है और मानती हैं कि वो भी बेहतर लिख रहे हैं। लेकिन संपादक के हाथों पड़ कर कहानी बर्बाद हो रही है। आज अगर कोई कहानी को खत्म कर रहा है, तो वो है संपादक। उसने कहानी को फार्मूला बनाकर रख दिया है। वो कहानी का एजेंडा पहले से ही फिक्स कर देता है कि बेवफाई विशेषांक के लिए रचना आमंत्रित है। इस अंक में प्रेम पर कहानी भेजनी है। पत्रिका का सर्कुलेशन बढ़ाने के लिए चालू फार्मूला बन गया है कि स्त्री विशेषांक निकालो। उन्हें पता है कि स्त्रियों के पास कहने के लिए बहुत कुछ है और बेहतर तरीके से अपनी बात रख सकती हैं। लेकिन इस तरह से विशेषांक निकालकर कहानियां लिखना या छापना स्त्री को कोष्ठक में डाल देती है। इस फार्मूले में पढ़कर कहानी का कहानी होना खत्म हो जाता है जबकि सच बात तो ये है कि सैद्धांतकी बघारने से कहीं ज्यादा मुश्किल है कहानी लिखना। जैनेंद्र ने भी प्लेटॉनिक प्रेम पर कहानियां लिखीं, लेकिन इस तरह फार्मूलाबद्ध तो नहीं किया।

मशहूर कहानीकार हिमांशु जोशी को इन दिनों लोग अगला यथार्थ की वजह से जान रहे हैं। उनका मानना है कि कहानी का सच, सच से बड़ा होता है। कहानी को सच जैसा लगना चाहिए लेकिन इतना भी सच नहीं कि वो कहानी ही न रह जाए। आज की कहानियों में, साहित्य में सिर्फ विमर्श रह गया है, साहित्य तो है ही नहीं। लोगों की छोटी-छोटी आकांक्षाएं हैं और वो उन्हीं से पारिभाषित हैं। आज निन्यानवे प्रतिशत कूड़ा लिखा जा रहा है और एक प्रतिशत सही। लोगों के छोटे-छोटे गुट बन गये हैं, लेखकों का छोटापन खुलकर सामने आता है। दो ध्रुवांत में साहित्य बंट गया है। सच के नाम पर दुनिया भर की चीजें कही जा रही हैं जबकि सच उतना ही होना चाहिए जो कि इंसान को कुछ दे सके। अगला यथार्थ के सवाल पर हिमांशु जोशी ने कहा कि ये कुछ इसी तरह का है, जैसे नेपाल से आकर हमारे यहां बहुत से लोग नौकरी करते हैं लेकिन वो खुद भी नौकर रखते हैं। नौकर भी नौकर रखने लगा है, ये नये किस्म का यथार्थ है। इसे हमें समझने की जरूरत है।

आज की कहानी के सवाल पर शेखर जोशी (कोसी का घटवार और डूब जैसी कहानियों के लेखक) ने साफ तौर पर कहा कि अगर कल की कहानी आज के संदर्भ में प्रासंगिक है तो वो आज की कहानी कही जाएगी। शेखर जोशी की मानें तो कहानी में कालक्रम से कहीं ज्यादा उसके संदर्भ महत्वपूर्ण हैं। उन्होंने इसे ऐतिहासिक प्रमाण के तौर पर साबित करते हुए कहा कि पचास के दशक के बाद कहानियां इतनी केंद्र में क्यों रहीं? ऐसा इसलिए कि वो आज की कहानी है। आज इस कहानी लिखने के लिए समाज के बीच लूम्पेन ज्यादा पैदा हो रहे हैं। ऐसे में मुझे अमरकांत की कहानी हत्यारे याद आ रहे हैं।

लेकिन शेखर जोशी इन सबके बावजूद युवा कहानीकारों के सवाल पर निराश नहीं होते। उनका मानना है कि आज के युवा कहानीकार बहुत बेहतर लिख रहे हैं। बहुत प्रतिभाशाली लोग कहानी लिखने में लगे हुए हैं। महिलाएं कुंठाओं से मुक्त होकर लिख रही हैं। युवाओं की कहानियों को देखकर तो कई बार दहशत होती है। इसलिए मैं मानता हूं कि कहानी में सब कूड़ा ही नहीं बल्कि बेहतर भी लिखा जा रहा है।

सुभाष पंत की पहचान समांतर धारा के कहानीकारों के रूप में हैं और वो पहाड़ चोर के नाम से भी जाने जाते हैं। सुभाष पंत मौजूदा दौर में विकास और नॉलेज शेयरिंग के नाम पर जो कुछ भी हो रहा है, उसे लेकर बहुत हतोत्साहित हैं। उनका मानना है कि इंटरनेट जो कि सूचना प्रसार के दावों से लैस है, वहां सब कुछ सिर्फ सूचना और सूचना ही रह गया है, संवेदना का हिस्सा सिरे से गायब होता चला जा रहा है। सुभाष पंत जब ये बात कर रहे थे तो मेरे सहित मौजूद कई लोगों को इससे असहमति हुई। वैसे भी एक माध्यम के स्तर का नकार हम सह नहीं पाते। सुभाष पंत ने कहानी के भीतर की संवेदना के मर जाने या फिर प्रिंट की प्राथमिकता के छीजने का जो आसान फार्मूला हमलोगों को सुझाया, उससे हम कन्विंस नहीं हो पाये। लेकिन उनकी ये बात काफी हद तक सही लगी कि नॉलेज की दुनिया की एक खिड़की इंटरनेट के बाहर भी है और उसे रहना चाहिए। फारुकी साहब ने इस पूरी बातचीत को समेटते हुए नामवर सिंह के उस कथन को शामिल किया कि आज जिस तरह की कहानियां लिखी जा रही है, वो नामवर सिंह को झुठला सकेंगे कि कहानियां सिर्फ सुलाती ही नहीं जगाती भी है।

तीसरे दिन के सत्र का एक जरूरी हिस्सा केकी दारुवाला और स्टीफन ऑल्टर की रचनाओं के चुनिंदा अंशों का पाठ भी रहा। दारुवाला अंग्रेजी कविता में जाना-माना नाम हैं। उनको सुनते हुए मैंने जो महसूस किया, वो ये कि उनकी कविताओं का इंप्रेशन देशी मिजाज की अंग्रेजी भाषा के रूप में है। कविता के बीच में पूरे-पूरे वाक्य हिंदी में आते हैं और असर के तौर पर जेहन में ऐसा काम कर जाते हैं कि आप हिंदी की उस एक लाइन से ऊपर और बाद की कई अंग्रेजी लाइनों के मतलब समझ जाएं। दूसरी बात कि कविता-पाठ की शैली में भाषिक स्तर का अभिनय शामिल है।
स्टीफन ऑल्टर ने केकी के कविता पाठ के बाद चुटकी लेने के अंदाज में कहा कि वो जिस तरह नॉनवेज पसंद करते हैं, उसी तरह नॉनफिक्शन। इसलिए वो नॉनफिक्शन ही लिखते हैं और उसका पाठ करेंगे। ऑल्टर ने अपने उपन्यास का अंश पाठ किया, जिसे कि हमने असर के लिहाज से नॉवेल डिस्क्रिप्शन से ज्यादा डेमोग्रेफिक स्टेटमेंट के तौर पर महसूस किया।

तीसरे दिन के कुल पांच घंटों में हमने दर्जनभर बुद्धिजीवियों और रचनाकारों के विचार सुने। लेकिन इन सारे लोगों की बातों से सहमति और असहमति के बीच गड्डमड्ड होनेवाली स्थिति कभी नहीं बनने पायी। इसकी शायद सबसे बड़ी वजह यही रही कि विश्लेषण के स्तर के फर्क और विविधता के बावजूद जो सबमें कॉमन बात थी वो ये कि विकास के घोषित पैमाने और उपलब्धियों के नाम पर ताल ठोंकने के पहले इन सबको लेकर हमें सेल्फ एसेस्मेंट और रीडिफाइन की प्रक्रिया से फिर से, बार-बार गुजरने की जरूरत है।
| | edit post

हिंदू होने पर मुझे पर मुझे गर्व नहीं, अपमान का बोध होता है। क्योंकि इसी ने मुझे अछूत बनाया। दलितों के आदर्श कभी भी राम नहीं हो सकते। दलित समाज कभी भी हिंदू धर्म का हिस्सा नहीं रहा। मुझे कभी भी ऐसा एहसास नहीं होता कि मुझे धर्म की जरूरत है।

जो दलित सफल हो जाते हैं, वो अपनी पहचान छिपाना शुरू कर देते हैं। वो या तो अपना नाम बदल लेते हैं या फिर अपना सरनेम बदल लेते हैं। ऐसा इसलिए कि सफल होने पर जैसे ही समाज को पता चलता है कि वो दलित है तो उसकी योग्यता को कमतर करके देखना शुरू कर देता है। उसकी प्रतिभा को शक की निगाह से देखना शुरू कर देता है। समाज उसे इस रूप में स्वीकार नहीं करता।

ओमप्रकाश वाल्मीकि ने साहित्य और समाज के बीच दलितों को लेकर जो रवैया है, उस पर कुछ इस तरह से अपनी बातें रखीं कि दून रीडिंग्स के दूसरे दिन, सुबह से ही महौल में गर्माहट पैदा हो गयी। वहां मौजूद जिन लोगों ने वाल्मीकि को सुना, सत्र के बाद उनसे अलग से बात करने के लिए अपने को रोक नहीं सके। जो लोग लंबे अरसे के बाद हिंदी साहित्य के बारे में सुन रहे थे उन्हें हैरानी हो रही थी कि लिटरेचर को समझने का नजरिया कितना कुछ बदल गया है।

सुबह के सत्र को विंड ऑफ चेंज का नाम दिया गया, जिसे कि हिंदी में परिवर्तन की बयार भी कह सकते हैं। पहले सत्र की शुरुआत पेंगुइन हिंदी के संपादक एसएस निरुपम और दलित साहित्य के शुरुआती दौर के आलोचक और जूठन जैसी हिट आत्मकथा के लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि से होती है। निरुपम उनसे बातचीत की शुरुआत हिंदी के संत साहित्य से शुरू करते हैं और फिर धीरे-धीरे मामला समाज, राजनीति, दलितों की मौजूदा स्थिति और अस्मिता विमर्श तक पहुंचती है। सवालों के जवाब में वाल्मीकि कहीं भी दोहराव या उलझाव पैदा नहीं करते। इसकी बड़ी वजह है कि वो अपनी समझ को लेकर कॉन्शस हैं। साहित्य के मामले में उनकी समझ साफ है। हिंदी की मुख्यधारा लेखन में अपार श्रद्धा रखनेवाले लोगों को उनकी बातें एकतरफा लग सकती है लेकिन उनकी मान्यताओं में ग्रे एरिया नहीं है। जो है वो या तो स्याह या फिर बिल्कुल सफेद। शायद इसलिए, जब वो संत साहित्य पर बात करते हैं तो अपना आदर्श कबीर या तुलसीदास को नहीं मानते और न इसे हिंदी साहित्य का स्वर्ण युग कहने से सहमत होते हैं।

उनका साफ कहना है कि ये संभव है कि संतों ने समाज में बयार लाने की कोशिश की लेकिन दलितों को परिवर्तन के लिए बयार नहीं चक्रवात की जरूरत है और वो सहमति और सामंजस्य के साहित्य से नहीं बल्कि संघर्ष के साहित्य से ही संभव है।

निरुपम ने कंटेंट के अलावा भाषा और शिल्प के स्तर पर वाल्मीकि से जो सवाल किये मसलन कि आपकी पूरी परवरिश मुख्यधारा का साहित्य पढ़ते हुए हुई है तो फिर आपकी भाषा किस हद तक वहां से आती है, उन सारे सवालों का जबाव देते हुए वो भाषा के भीतर के कुचक्र को बेपर्दा करते हैं। वो इस बात को स्वीकार करते हैं कि धर्म में कोई आस्था न होने पर भी वो जूठन से अपनी मां के लिए दुर्गा का मेटाफर हटा नहीं सकते क्योंकि इससे ज्यादा प्रभाव पैदा करनेवाला कोई शब्द नहीं है। इसलिए उनकी पूरी राइटिंग में मुख्यधारा के जितने भी शब्द हैं वो प्रभाव को लेकर हैं, वो भाषिक परंपरा का निर्वाह मात्र नहीं है।

शिमला इंस्‍टीट्यूट ऑफ एडवांस स्टडीज में हमने वाल्मीकि को सुना। करीब सात महीने बाद उनके विचारों में और तल्खी आयी है। वो दलित साहित्य को अभिव्यक्ति से कहीं ज्यादा हिस्सेदारी का मामला मानते आये हैं। नमिता गोखले ने जब उनकी कविता प्रतिबंधित का अंग्रेजी अनुवाद सुनाया तो वो मूल कविता सुनाने से अपने को रोक नहीं पाये। उन्हें इस वक्त ठाकुर का कुआं कविता फिर से याद हो आयी। अंधड़ और सलाम जैसी कहानियां फिर से रेफरेंस प्वाइंट के तौर पर याद आये। देहरादून की पहाड़ों पर मल्टीनेशनल के होर्डिंग्स और बेतहाशा कंसट्रक्शन के बूते इसे संवेदनहीन शहर की शक्ल देते हुए मैं महसूस कर रहा हूं और ऐसे में वाल्मीकि की प्रतिबंधित कविता की ये लाइन हमेंशा याद रहेगा – मेरी जरूरतों में एक नदीं भी है… कागज, कलम और आस-पड़ोस। ओमप्रकाश वाल्मीकि, नमिता गोखले और निरुपम के बीच जो पूरी बातचीत हुई है वो हिंदी समाज के लिए एक जरूरी संवाद है। हमारी कोशिश रहेगी कि पूरी बातचीत जो मेरे आइपॉड में है, उसे रूपांतरित करके आप तक पहुंचाएं।

इस संवाद के ठीक बाद दो किताबों का लोकार्पण हुआ, जिसकी चर्चा करने से पहले मैं अनलीशिंग नेपाल के लेखक सुजीव शाक्या और अमिताभ पांडे के बीच हुई बातचीत को शामिल करना पसंद करुंगा। मैंने अनलीशिंग नेपाल किताब पढ़ी नहीं है लेकिन इन दोनों के बीच हुई बातचीत को सुनने के बाद वापस दिल्ली जाकर इस किताब को खरीदना मेरी प्रायॉरिटी रहेगी। ये किताब न सिर्फ नेपाल के उन संदर्भों को टच करती है, जिस पर कि पहाड़, जनजातीय संस्कृति और मान्यताओं को लेकर लिखनेवाले ज्यादातर लोगों का ध्यान नहीं जाता है बल्कि सिटी स्पेस को समझने के लिए ये एक जरूरी किताब है। सुजीत शाक्या ने बातचीत में और अमिताभ पांडे के रिस्पांस को लेकर पूछे गये सवाल का जवाब देते हुए बताया कि जब उन्होंने इस किताब को लिखा तो प्राइवेट सेक्टर और बिजनेस, चैंबर्स से जुड़े लोग नाखुश हुए क्योंकि ये किताब नेपाल में उन लोगों के मतलब साधने की कहानी कहती है। कुछ लोगों ने कहा कि इसे आपको नेपाली भाषा में भी लिखना चाहिए क्योंकि नेपाल के लोग अभी भी ज्यादा इसी भाषा में समझ सकेंगे। बाकी लेखकों से अलग सुजीत मानते हैं कि पहाड़ के लोगों के लिए सिर्फ पहाड़ ही उनके दिमाग में है जबकि नेपाल में तराई क्षेत्र एक बहुत बड़ा क्षेत्र है जिस पर बात होनी चाहिए और इसके भीतर बननेवाली इकॉनमी को समझना चाहिए। माओवाद के सवाल पर सुजीत शाक्या का सीधा कहना रहा कि यहां माओवादी नेताओं ने मौके को बस भुनाने की कोशिश की। परिवर्तन या सरोकार उनके कंसर्न में नहीं है। उनके लिए सबसे ज्यादा जरूरी है कि वो किस तरह से सत्ता में बने रहें। नेशन स्टेट और आइडेंटिटी के सवाल पर सुजीत की अपनी समझ है जो कि उनके मुताबिक किताब में भी शामिल है कि सवाल इस बात का नहीं है कि हमारी संस्कृति और मान्यताएं कितनी पुरानी है। इसकी पहचान सिर्फ टोपी और टीशर्ट के चिन्हों से नही बची रह सकती। एक अलग देश के तौर पर नेपाल का इतिहास 250 साल पुराना है और इसमें करीब 65 अलग-अलग मान्यताओं के समूह हैं। लेकिन इससे ? असल सवाल है कि इस वक्त ग्लोबल युग में नेपाल अपने को कहां खड़ा पाता है। जाहिर है इस सवाल में आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक विकास के सवाल शामिल हैं।

सुजीत भारत और नेपाल के ओपन वार्डर रिलेशनशिप के समर्थक हैं और मानते हैं कि ये दोनों देशों के विकास में बराबरी का असर पैदा करेगा। अमिताभ पांडे ने जिस तरह से संतुलित होकर संवाद को जारी रखा इससे नेपाल, अनलीशिंग नेपाल को लेकर टेम्‍प्‍ट तो पैदा हुआ ही, इसके साथ ही लगा कि टेलीविजन और हिंदी के सेमिनारों मे बहुत कम ही ऐसे संवाद मय्यसर होते हैं।

जिन दो किताबों के लोकार्पण की बात हमने ऊपर की, उनमें से एक किताब कुछ शब्द कुछ लकीरें उत्तराखंड से आये संसद सदस्य विश्वजीत की है। ये काव्य संकल्न है। दूसरी किताब विकी आर्य की कविताओं का संकलन बंजारे ख्वाब नाम से है। विकी आर्य की इस किताब का अंग्रेजी अनुवाद दीप ने किया है। विश्वजीत की कविताओं में कोई दम नहीं है। ये बस प्रभाव में आकर छापी गयी किताब लगती है। विश्वजीत ने अपनी बातचीत में अशोक वाजपेयी को कोट करते हुए भले ही कह दिया कि सच्ची अभिव्यक्ति अपनी मातृभाषा में ही आती है लेकिन उसका असर हमें उनकी कविताओं में कहीं से भी दिखाई नहीं दिया। तिस पर दून स्कूल के हिंदी विभाग के भूतपूर्व एचओडी डॉ हरिदत्त भट्ट शैलेश ने जब विश्वजीत को लेकर जो बातें कहीं, उसे साहित्य की समीक्षा न मान कर गुरु का शिष्य के प्रति अनिवार्य स्नेह ही मानें तो ज्यादा बेहतर है।

विकी आर्य की कुछ कविताएं अच्छी हैं और महज चार-छह लाइनों में अपनी बातें कह जाती हैं। सतर्क होकर पढ़ें तो इसके कुछ गंभीर मायने भी निकल आते हैं। हिंदी मूल सुनने के बाद अंग्रेजी में दीप की जुबानी इन्हीं कविताओं को सुनकर ज्यादा अच्छा लगा। विकी आर्य का ऐसा कहना कि उन्होंने कविताएं नहीं लिखी हैं बल्कि कविताओं ने उन्हें लिखा है – पता नहीं ऐसा लिखना और कहना महज शिल्प का हिस्सा है या फिर व्यक्तिगत आग्रह लेकिन दोनों संकलनों से गुजरते हुए मैंने महसूस किया कि अभी भी कई लोगों के जेहन में कविता का मतलब जो मन में आये, लिख दो ही है। पॉलिटिकल करेक्टनेस और सोशल इंवाइडमेंट से वो कोसों दूर हैं।

सुजीव शाक्या के सत्र के बाद दिल्ली से आये हम सारे पत्रकार दोस्त तीन घंटे के लिए देहरादून से मसूरी के लिए निकल गये। एक के बाद एक सत्र को एटेंड करते हुए हमें लग रहा था कि दिमाग हैंग हो जाएगा। हड़बड़ी में देखी गयी मसूरी की उपलब्धि के नाम पर माल रोड पर खींची गयी कुछ तस्वीरें है, जहां-तहां घाटियों में एक-दूसरे के साथ पोज देते हुए कुछ और तस्वीरें हैं और दोपहर का भोजन। उस पहाड़ी में छोटे से ढाबे में किये गये लंच की याद मुझे और मेरे साथियों को लंबे समय तक रहेगी। एक जमाने के बाद मैंने जीरे की खुशबू महसूस की। पहाड़ी स्त्री के हाथों की बनी वो रोटी अभी भी नजर से ओझल नहीं हो रही और वो सात महीने की बच्ची जो कि अविनाश से ऐसी चिपटी कि अपने भाई के पास तक जाने को तैयार नहीं। मेरे इस सवाल पर कि जब तुम बड़ी होकर मिस उत्तराखंड बनोगी तो मुझे पहचानोगी, मुंह में आंचल दबाते हुए उसकी मां का मुस्काराना टेस रंग की तरह जेहन में बना रहेगा।

इस बीच कुमाऊं की गूंज थीम पर एक सत्र हुआ, जिसमें इरा पांडे ने इंडियन सोप ओेपेरा के जनक (हमलोग सीरियल) मनोहर श्याम जोशी की ट’टा प्रोफेसर और दिद्दी का अंश पाठ किया। इरा पांडे ने ट’टा प्रोफेसर का अंग्रेजी अनुवाद किया है। इस पर नमिता गोखले ने परिचर्चा की। उसके बाद इधर भी लंच हो गया।

लंच के बाद इन सर्च ऑफ सीता : रिवीजिटिंग मायथलॉजी, जिसका संपादन मालाश्री लाल ने की है, खुद लेखक और नमिता गोखले ने इस पर बातचीत की। इस परिचर्चा में सीता के साथ स्त्री-अस्मिता के उन सारे सवालों को उठाया गया, जहां से बहस की एक मुकम्मल जमीन तैयार हो सकती है। एक स्त्री का स्त्रीत्व किन-किन शर्तों और स्थितियों से पारिभाषित होती है, सीता के संदर्भ से उन बिंदुओं पर बात की गयी। इसी बीच आदित्य सुदर्शन की फिक्शन जो कि उत्तराखंड के हिल स्टेशन भैरवगढ़ की एक मर्डर मिस्ट्री पर आधारित है, ए नाइस क्वाइट हॉलीडे, उस पर लेखक के साथ माया जोशी की परिचर्चा हुई। रचना जोशी का कविता-पाठ हुआ और नटराज पब्लिशर्स की ओर से प्रकाशित फ्लॉवर्स एंड एलिफेंट का लोकार्पण भी हुआ।

तीन घंटे की थकान लेकर जब हम वापस होटल अकेता के सेमिनार हॉल में दाखिल हुए, तब गिरदा ने अपना जादू-जाल फैलाना शुरू ही किया था। गिरदा अपने गानों में उत्तराखंड के भूले-बिसरे चेहरों और यादों को फिर से अपनी आवाज के जरिये सामने लाते हैं। वो जब भी गाते हैं, उनकी आवाज पहाड़ी जीवन के संघर्षों को दर्शाती है। इन्होंने फैज की कई कविताओं का अनुवाद भी किया है। गिरदा ने जब हमें सुनाया कि चूल्हा गर्म हुआ है, साग के पकने की गंध चारों ओर फैल रही है और आसमान में चांद कांसे की थाली की तरह टंगा है, तो बाबा नागार्जुन आंखों के आगे नाचने लग गये। यकीन मानिए आप गिरदा को सुनेंगे तो पागल हो जाएंगे। मैं दिल्ली आते ही उनके गाये गीतों का ऑडियो लोड करता हूं।

नरेंद्र सिंह नेगी का पूरा उत्तराखंड दीवाना है, जो हमने पहले की पोस्ट में ही कहा। नेगी के गीतों में पहाड़ी सौंदर्य के साथ-साथ आज भी शामिल है, इसलिए वो हमें सिर्फ रोमैंटिक मूड की तरफ ले जाने के बजाय उस दर्द की तरफ घसीटता है जिसे सुन पाना तो आनंद पैदा करता है लेकिन जिसे बर्दाश्त कर पाना मुश्किल है। इसी कड़ी में डॉ अतुल शर्मा ने भी रचना-पाठ किया। हम इन सभी लोगों के बारे में फिलहाल विस्तार से बात नहीं कर रहे हैं। हमने इनके गीतों और कविताओं का जो आनंद लिया है, हम नहीं चाहते हैं कि उसके नाम पर आपके लिए कोई क्लासरूम खड़ी कर दें। इसे ऑडियो में ही आपके सामने लाना बेहतर होगा।

कविता और गीत सत्र के बाद पेंगुइन-यात्रा बुक्स की संगीत शृंखला का विमोचन किया गया। इस शृंखला में संगीत और संगीतकारों से जुड़ी कुल छह किताबें हैं। साहिर लुधयानवी पर जाग उठे ख्वाब कई, बिस्मिल्ला खान की जीवनी पर सुर की बारादरी, मन्ना डे की आत्मकथा यादें जी उठीं, नौशाद की जीवनी पर जर्रा जो आफताब बना, नौटंकी की मलिका गुलाबबाई और कुंदन लाल सहगल पर कुंदन सहगल जीवन और संगीत। दिल्ली में इन किताबों का पहले भी विमोचन हो चुका है। संभवतः इसलिए पेंगुइन के हिंदी संपादक एसएस निरुपम ने जो कि इस पूरे सत्र का संचालन भी कर रहे थे कहा कि संगीत पर लिखी इन किताबों के लोकार्पण का मतलब महज इसे कागज या लिफाफे से बाहर लाना भर नहीं है। हम इस पर बातचीत करना चाहते हैं। बातचीत के लिए मंगलेश डबराल को आमंत्रित किया गया। एक कवि से इतर मंगलेश डबराल को सुनना सुखद लगा। उन्होंने सुर की बारादरी के लेखक यतींद्र मिश्र और जाग उठे ख्वाब कई के संपादक मुरलीमनोहर प्रसाद सिंह से बातचीत की।

मंगलेश डबराल ने इन दोनों लेखकों से बातचीत करने से पहले भूमिका के तौर पर कहा कि फिल्मी गीत अब वो नहीं रह गये जो साहिर के समय में थे। साहिर की विशेषता थी कि वो अपनी नज्मों को फिल्मी गीतों में ले आते थे। उन्‍होंने विष्णु खरे की बात को शामिल करते हुए कहा कि साहिर फैज से बड़े कवि थे। मुझे लगता है कि साहिर लुधयानवी पर अब तक जो भी किताबें आयीं है, हिंद पॉकेट को छोड़ दें तो अब तक कि ये साहिर पर आयी संपूर्ण किताब है। संगीत पर ऐसी किताबें निकाल कर पेंगुइन-यात्रा ने सचमुच जोखिम का काम किया है और हमें उन्हें बधाई देनी चाहिए। मंगलेश डबराल के इतना कहने के बाद दोनों लेखकों से बातचीत का सिलसिला शुरू होता है जिसे मजाक में ही सही, यतींद्र मिश्र बार-बार प्रोमोशन कैंप करार देते हैं।

साहिर पर किताब तैयार करने का विचार कैसे आया, मंगलेश डबराल के इस सवाल का जवाब देते हुए मुरलीबाबू ने कहा कि 1857 की डेढ़ सौवीं वर्षगांठ मनायी जा रही थी तो हिंदी-उर्दू संबंध पर खोजबीन, नया पथ का विशेषांक निकालने के सिलसिले में शुरू की। मेरे लिए ये अचरज की बात थी कि 1856 से लेकर 61 के बीच लगभग पचास अखबार पत्रकार, अखबारनवीस और उर्दू के कल्चरल एक्टिविस्ट चाहे तो गोली से उड़ा दिये गये, काला पानी भेज दिए गये, जेलों में डाल दिये गये, घर-बदर कर दिये। तब मैंने खोजना शुरू किया कि उन्होंने ऐसा क्या लिख दिया। उसी क्रम में मैं हिंदी फिल्मी गीतों की तरफ गया। मैंने पाया कि जिसे हम हिंदी फिल्मी गीत कहते हैं, उसमें बड़ा कंट्रीब्‍यूशन शायरों का है। अली मेंहदी खां से लेकर जावेद अख्तर तक इसमें शामिल हैं। हम एक झूठा हिंदीवाद चलाते हुए उर्दू का जो कंट्रीब्‍यूशन हिंदी फिल्मों में रहा है उसको हम नकार देते हैं। इस क्रम में जब मैंने देखना शुरू किया तो पाया कि इसमें अवधी, भोजपुरी, कन्नौजी इन बोलियों के साथ उर्दू, हिंदी, संसकृत, तत्सम के शब्द प्रयोग करके हिंदी के गीत रचे गये हैं। इसलिए इन फिल्मी गीतों में इन बोलियों का भी योगदान है, उर्दू का भी है। साहिर पर मैंने इसी रूप में काम करना शुरू किया। मुरली बाबू ने साहिर की नज्मों से जुड़े उन रोचक प्रसंगों पर भी बात की जब गीतकार अपनी शर्तों पर रचनाएं किया करते। जिसमें क्राइम और पनिशमेंट पर रमेश सहगल की बनायी फिल्म के गीत वो सुबह कभी तो आएगी का जिक्र किया। जिसे सुनकर फैज के गीत हम देखेंगे की याद आ जाती है।

यतींद्र मिश्र ने संगीत के बाकी जानकारों की खुशफहमी से अपने को अलग करते हुए साफ तौर पर कहा कि मैं कानसेन हूं। मैं दुनियाभर के संगीत सुनता हूं। कइयों के पास जा-जाकर सुनता आया हूं। इसी क्रम में वो गिरिजा देवी के प्रसंग को याद करते हुए कहते हैं कि मैं अक्सर गिरजाजी के पास सुनने चला जाता और उनसे कभी ठुमरी तो कभी कुछ सुनाने को कहता। वो अपनी छात्राओं को सिखा रही होतीं और इसी बीच मैं पहुंच जाता। उनसे मेरा दादी-पोते जैसा संबंध था और वो मुझे उसी रूप में स्नेह भी करतीं। बात-बात में एक बार उन्होंने बताया कि उन्हें तो ये भी पता नहीं कि उनका एचएमवी वालों ने कब और क्या कलेक्शन निकाल। तभी मुझे महसूस हुआ कि यहां हस्तियों को लेकर कितनी बेअदबी है। मैंने मन बनाया कि मुझे इन लोगों पर काम करना चाहिए और पहला काम गिरिजा देवी पर ही किया। आज भी लोग मुझे अपनी उस पहली रचना गिरिजा के कारण ही ज्यादा जानते हैं। जिस समय मैं उन पर काम कर रहा था, मेरे साथ के लोगों ने कहा कि ये सब तुम क्या कर रहे हो – वामपंथी लोग नाराज हो जाएंगे। विद्यानिवास मिश्र ने ये जानने पर कहा कि अच्छा एलीट हो गये हो। बाइयों का लेखा-जोखा लिख रहे हो। लेकिन मुझे इन सबसे कुछ भी फर्क नहीं पड़ा।

मुझे रचना और लिखने के स्तर पर कुंवर नारायण, अशोक वाजपेयी और मंगलेश डबराल ने बहुत अधिक प्रभावित किया है। मैं अक्सर सोचता हूं कि इनकी कविताओं में कितना खिला गद्य है। इस सवाल के जवाब में कि उनकी किताबें कितनी बिकेंगी, ऐसी किताबों की कितनी मांग है, यतींद्र मिश्र ने साफ कहा कि ये काम पब्लिशर्स का है लेकिन मैं इतना जरूर मानता हूं कि इन किताबों की जरूरत है।

यतींद्र मिश्र के पास यादों और संस्मरणों का खजाना है और सुनाने की वो खास शैली जिसे सुन कर मुझे अक्सर महमूद फारुकी की दास्तानगोई याद आती है। यतींद्र मिश्र की संपादित किताब कुंवर नारायण संसृति मैंने पूरी पढ़ी है और सुर की बारादरी का कुछ हिस्सा। लेकिन मैं व्यक्तिगत तौर पर महसूस करता हूं कि संस्मरणों को सुनाने में यतींद्र मिश्र को महारत हासिल है। युवा पीढ़ी के लिए उनसे संस्मरण को सुनना साहित्य से नये किस्म से जुड़ना है। जब वो बिस्मिल्ला खान के संस्मरण सुना रहे होते हैं, तो हमारे मन में अक्सर सवाल उठते हैं – क्या हमारे आसपास कोई ऐसा शख्स नहीं है या फिर हममें नोटिस करने की काबिलियत ही नहीं है। उन्होंने यहां भी बिस्मिल्ला खान से जुड़े दो संस्मरण सुनाये जिसे कि मैं फिलहाल बचाकर रख ले रहा हूं।

किताबों की पब्लिसिटी की चिंता के बीच भी कुल मिलाकर ये सत्र अच्छा रहा और लगा कि हिंदी साहित्य से जुड़े लोगों को संगीत के इस पक्ष पर विस्तार से चर्चा करनी चाहिए।

एक घंटे के ब्रेक के बाद हम होटल अकेता से ग्रेट वेल्यू होटल की तरफ रवाना होते हैं जहां कि पेंगुइन-यात्रा बुक्स की ओर से संगीत शृंखला की संगीतमय प्रस्तुति और दून लाइब्रेरी की ओर से डिनर का आयोजन किया गया था। समरजीत और उनकी टीम ने एक के बाद एक गाने गाये और अपनी-अपनी हैसियत के मुताबिक लोग सुरों में खोते चले गये।
| | edit post
देहरादून में ‘दून रीडिंग्स’ के नाम से होनेवाले तीन दिवसीय (अप्रैल 2-4) साहित्यिक और सांस्कृतिक कार्यक्रम में शामिल होने का न्योता जब हमें पेंगुइन इंडिया की तरफ से मिला तो हम काफी एक्साइटेड हुए। एक तो दिल्ली की किचिर-पिचिर जिंदगी से छिटककर तीन-चार दिन तक देहरादून में पड़े रहने के सुख का ध्यान आया, ये अपने को रिचार्ज करने जैसा है और दूसरी बात कि प्रोग्राम शिड्यूल में प्रसून जोशी का नाम देखकर मेरी एक्साइटमेंट थोड़ी और बढ़ी कि टीवी देखते हुए, रियलिटी शो में कमेंट करते हुए और इनके लिखे गानों और विज्ञापनों को सुनते हुए अब तक जो छवि बनी है, जब वो साहित्य और संस्कृति के मसले पर बात करेंगे तो देखते हैं कि उनकी छवि पहले से और मजबूत होती है, ध्वस्त होती है या फिर कोई अलग किस्म की छवि बनती है। लेकिन हमें कार्यक्रम के शुरुआती दौर में ही उदासी झेलनी पड़ी। आयोजक की तरफ से घोषणा हुई कि वो नहीं आ सकेंगे। एसएमएस के जरिए जो उन्होंने खेद भरा संदेश भेजा, उसे ही सुना दिया गया।

देहरादून आने का बहुत मन था। कुछ नयी कविताएं भी सुनाने वाला था। पर कुछ चीजें शायद हमारे हाथ में नहीं होतीं। अपनी नयी कविता ख्‍वाब खर्च करके भी सुनाता। मैं ख्‍वाब खर्च करके खाली हो गया हूं। पतझड़ के बाद गुमसुम डाली सा हो गया हूं। पर पूरी कविता वहीं आकर जल्‍द ही पढूंगा। आप सबसे रूबरू होकर। वैसे भी चाहे शरीर से मैं कहीं भी रहूं, मन हमेशा उत्तराखंड के पहाड़ों में ही रहता है। मेरे उत्तराखंड के सभी साथियों को बहुत बहुत स्‍नेह।
आपका,
प्रसून जोशी

दिल्ली से मीडिया की जो पूरी टीम, इस इवेंट को कवर करने आयी, उनके हिसाब से कार्यक्रम का एक बड़ा आकर्षण खत्म हो गया। प्रसून जोशी जो भी बोलते, वो मेनस्ट्रीम मीडिया के लिए खुराक होता।

बहरहाल, दिल्ली और देहरादून के भारी ट्रैफिक जाम को झेलते हुए जब हम निर्धारित समय से करीब १५ मिनट लेट पहुंचे तब तक कार्यक्रम की औपचारिक शुरुआत हो चुकी थी। उत्तराखंड के प्रमुख सचिव एनएस नपालचायल के हाथों कैंडल लाइटनिंग और दून लाइब्रेरी एंड रिसर्च सेंटर के निदेशक डॉ बीएन जोशी के शुभकामना संदेश के साथ अकेता होटल के लॉन में छह सौ के करीब बैठी देहरादून की एलीट ऑडिएंस कार्यक्रम से जुड़ चुकी थी। मेरे पहुंचने तक कार्यक्रम का मिजाज पूरी तरह बदल चुका था। ये औपचारिकताओं से हट कर सीधे-सीधे मुद्दे पर जाकर फोकस हो गया था। लॉन में घुसते ही मंच पर हिंदी के वरिष्ठ कवि लीलाधर जगूड़ी, मंगलेश डबराल, बॉलीवुड के मशहूर एक्टर और जादुई आवाज के मालिक टॉम आल्टर को देखकर अच्छा लगा। गढ़वाल के मशहूर लोक गीतकार नरेंद्र सिंह नेगी को देखकर कतार में बैठी ऑडिएंस के बीच फुसफुसाहट शुरू हो गयी कि देखना, ये माहौल जमा देगें। मंच संचालक के तौर पर मौजूद डॉ शेखर पाठक को देखकर हमें क्भी जेएनयू में देखी ‘पहाड़ पत्रिका का ध्यान आया जो पर्वतों और उसकी संस्कृति से जुड़े सवालों पर काम करनेवाले लोगों के लिए एक जरूरी मटीरियल है। शेखर पाठक ने मंच पर बैठे कवियों को ऑडिएंस के मिजाज को देखते हुए कविता पाठ करने के लिए बुलाने से पहले हिंदी कविता की उस लंबी परंपरा का विस्तार से जिक्र किया जिससे कि देहरादून और उत्तराखंड में पले-बढ़े कवि जुड़ते हैं। तारसप्तक से लेकर अब तक कविता की चर्चा करते हुए शेखर पाठक ने समकालीन कविता की मौखिक किंतु गंभीर बारीक चर्चा की। ये अलग बात है कि हिंदी साहित्य से इतर लोगों के लिए ये सिर्फ परिचय जैसा ही था और देहरादून की ऑडिएंस के लिए बार-बार गर्व करने का विषय कि वो एक बहुत ही प्रसिद्ध और हैसियत रखनेवाले शहर से आते हैं। इस परिचय के दौरान ही उन्होंने कविता में हिंदी और अंग्रेजी का वर्चस्व होने की स्थिति में अभिव्यक्ति के स्तर पर विविधता के खत्म होने की बात की। एक भाषा के वर्चस्वकारी प्रभाव में आकर उसके साथ चलनेवाली बोलियां और भाषिक प्रयोग कैसे खत्म होते हैं, शेखर पाठक की टिप्पणियों से हमें बेहतर तरीके से समझ आया। कुल मिलाकर माहौल ऐसा बना कि प्रसून जोशी के न आने का मलाल जाता रहा और हम जैसा हिंदीवाला जो कि कभी मंच पर बैठे कवियों के एक-एक संकलन को खोजने के लिए दिल्ली के दरियागंज में पागल हुआ फिरता था, उसका चित्त स्थिर हो आया कि चलो कुछ बेहतर ही सुनने को मिलेगा।

शेखर पाठक की तरफ से कविता को लेकर दिये गंभीर परिचय से मामला कुछ इस तरह से बन गया कि सामने बैठी ऑडिएंस ने मानसिक स्तर पर अपने को तैयार कर लिया कि ये आम तौर पर लाफ्टर चैलेंज से होड़ लेनेवाली कविता नहीं है। ये सरोकारों और साहित्यिक गंभीरता की कद्र करनेवाली कविता है। इसलिए ऑडिएंस के बीच थोड़ी सी आवाजाही का माहौल बनता लेकिन फिर लंबे समय तक ठहरनेवाली शांति छा जाती है। कविता पाठ के लिए सबसे पहले लीलाधर जगूड़ी को आमंत्रित किया जाता है।

लीलाधर जगूड़ी अपनी दो कविता (एक तो बहुत लंबी और दूसरी उससे थोड़ी कम लंबी) पढ़ने के पहले साथ में एक जानकारी भरी टिप्पणी जड़ते हैं। जानकारी अपने रचना संसार को लेकर है कि उनके अब तक 12 काव्य-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं और उनमें कुल सात सौ के करीब कविताएं संकलित हैं और टिप्पणी इस बात को लेकर कि अब सारी की सारी कविताएं तो याद नहीं रहती और न ही वो उन मंचीय कवियों की तरह हैं कि अपनी लिखी कुल कविताओं में से दस-बारह को याद कर लेते हैं और फिर उन्हीं को सब जगह बार-बार सुनाते रहते हैं। कंटेंट से इतर जगूड़ी ने आदत के स्तर पर भी मंचीय कवि से अपने को अलग किया। जगूड़ी ने इस बात पर जोर दिया कि कविता में इस बात को हर हाल में शामिल किया जाना चाहिए कि आज की दुनिया कैसी है, जीवन में किस तरह के बदलाव हो रहे हैं। यानी सामयिक स्तर पर कविता को सचेत होना चाहिए और इसी क्रम में उन्होंने पुरुषोत्तम की जनानी नाम से अपनी लंबी किंतु प्रसिद्ध कविता का पाठ किया – एक पेड़ को छोड़कर फिलहाल मुझे कोई जिंदगी याद नहीं आ रही, जो जिस समय डरी हो, उसी समय मरी न हो। और दूसरी कविता नये जूते जो कि इस ग्लोबल होते बाजार के होने और न होने के बीच के सन्नाटे का बयान करती है।

जगूड़ी के बाद हिंदी के मशहूर कवि मंगलेश डबराल जो कि कविता में अनरिटेन हिस्ट्री को सहेजने और संजोनेवाले कवि के रूप में जाने जाते हैं। जिनकी कविता पाठ रहित इतिहास के बीच लाइव हिस्ट्री समेटने की ताकत रखती है, उन्होंने कविता पाठ शुरू किया। मंगलेश डबराल ने लीलाधर जगूड़ी की कविता की साइज से अपनी कविता की साइज की तुलना करते हुए कहा कि मेरी कविता उतनी बड़ी नहीं है, उससे छोटी है और बाकी हर मामलों में छोटी है क्योंकि मैंने उनके बाद लिखना शुरू किया। मंगलेश डबराल ने सबसे पहले दरवाजे और खिड़कियां नाम की अपनी प्रसिद्ध कविता सुनायी और उसके बाद पत्थर। ये दोनों कविताएं अभी दो दिन पहले ही दिल्ली के इंद्रप्रस्थ यूनिवर्सिटी में THE WORLD, THE POET, THE IMAGE कार्यक्रम में सुनकर आया था। इससे पहले भी ये दोनों कविताएं मैंने डी स्कूल में सुनी है। इसलिए मेरी तरह अगर किसी और ऑडिएंस ने इन कविताओं को एक से ज्यादा या फिर बार-बार सुनी हो तो वो लीलाधर जगूड़ी की इस बात से शायद असहमत हो जाएं कि रिपीटेशन का काम सिर्फ और सिर्फ मंचीय कवि करते हैं। सरोकार और गंभीरता के स्तर पर लिखनेवाले कवि भी अपनी कुछ कविताओं को लेकर बहुत ही पजेसिव होते हैं और इसे कई जगहों पर रिपीट करते हैं। इसके पीछे संभव है कि कई जेनुइन कारण हों। बहरहाल इन दोनों कविताओं के अलावा मां की तस्वीर से ऑडिएंस भावानात्मक स्तर पर जुड़ती है और तालियों की खनक भी यहां तक आते-आते बढ़ जाती है।

उत्तराखंड के लोगों के बीच नरेंद्र सिंह नेगी बहुत ही लोकप्रिय और सराहा जानेवाला नाम है। नेगी साहब के लोकगीतों की खास बात है कि वो उत्तराखंड की पौराणिकता जो कि यहां की पहचान है, उससे अलग रचना के स्तर पर सामयिक मसलों को लेकर लगातार सक्रिय हैं। इसलिए भला-भला गीत लग्यौ ल में किसानी संस्कृति का जो खुशनुमा अंदाज बयान करते हैं, वहीं दूसरी रचना में सीधे-सीधे मौजूदा महंगाई की विस्तार से चर्चा करते हैं। ये आदमी की समस्याओं की रचनात्मक कराह है। कन क्वै खेलडणा, अब भारी गरीबी ह्वैगे – जिंदगी में ये कराह अपने चरम पर है।

तीन दिनों तक चलनेवाले इस दून रीडिंग्स में आकर टॉम आल्‍टर को सुनना, मैं इस पूरे कार्यक्रम के बीच अपने लिए एक बड़ी उपलब्धि मानता हूं। उन्हें सुनना कुछ उसी तरह से है, जैसे हममें से कई लोग नसीरुद्दीन शाह के न होने पर भी सिर्फ उनकी आवाज को सुनने के लिए जा सकते हैं। टॉम साहब की जो आवाज है, हिंदी-उर्दू के शब्दों का जो चयन है, उसे सुन कर हम जैसे हिंदी प्रैक्टिसनर को अपनी भाषा और समझ से कोफ्त होने लगती है और जुबान से सिर्फ एक ही शब्द निकलता है – काश, हम भी… टॉम आल्टर नज्म पेश करने के पहले हिंदुस्तानी दिलों में तैरनेवाली फिल्म राम तेरी गंगा मैली के उस प्रसंग की चर्चा करते हैं, जहां वो स्क्रिप्ट में रामपुर की जगह मसूरी लिख कर फेरबदल करते हैं। आल्टर साहब को लगता है कि सिनेमा में उनके शहर का भी नाम आ जाए, जिसे राजकपूर पकड़ लेते हैं और कहते हैं – अब बताओ, मंगलू जैसा चोर-बदमाश क्या मसूरी से आएगा, क्या ऐसा लिखना ठीक रहेगा?

आल्‍टर एक पहाड़ी की उस आलोचना को भी याद करते हैं जिसे कि देश का बड़ा से बड़ा पत्रकार और फिल्म रिव्यूअर भी नहीं पकड़ पाया। उस औसत पहाड़ी ने टॉम आल्‍टर से सवाल किया कि आप और राजकपूर हम पहाड़ियों को क्या समझते हैं, क्या हमारे दिल नहीं है, क्या हम जज्बाती नहीं हैं – राम तेरी गंगा मैली क्या वाहियात फिल्म बनायी है। उस फिल्म में आप भाई बनते हैं, जान की कुर्बानी देकर उसकी रक्षा करते हैं लेकिन उस बहन की जुबान पर एक बार भी भाई का नाम नहीं? टॉम आल्‍टर इस प्रसंग को अभिभूत होकर सुनाते हैं और बताते हैं कि राजकपूर ने कहा कि सचमुच हमसे बड़ी चूक हुई है। इन प्रसंगों को सुनाने के बाद टॉम आल्‍टर ने दो नज्में हमें सुनायी। एक तो डॉ इदरार हट्टी साहब की और दूसरी कॉम वॉन की। उर्दू में होने की वजह से ये दोनों नज्म पूरी तरह तो समझ में नहीं आयी लेकिन जो भी और जितना भी समझ पाया ये सिर्फ और सिर्फ इसलिए कि आल्‍टर की आवाज और उच्चारण की वजह से।

इस कार्यक्रम में हमें बसंती विष्ट और उनकी टोली का जागर जीत सुनने को मिला। जागर एक तरह से पौराणिक कथाओं को गाकर सुनने की विधा है। लेकिन इसे सामान्य तौर पर गद्य की गायन शैली में शामिल नहीं कर सकते। कथा की पूरी तस्वीर आपके सामने उभरती है लेकिन आपके भीतर जो अंतिम प्रभाव स्थायी तौर पर रह जाता है, वो है इनके गाने का अंदाज। इस जागर में पौराणिक कथाओं के अलावा भी कई लोक-कथाएं शामिल हैं। इस जागर में जो चीजों को बयान करने की जो शैली है, उसी शैली में अगर सामयिक मसलों और समस्याओं को, सरकारी अभियानों और प्रचारों को शामिल कर लिया जाए तो एक असरदार अभिव्यक्ति लोगों के सामने उभरकर आएगी। ये कुछ-कुछ दास्तानगोई सा होगा जिसके कहने की शैली तो बहुत पुरानी है लेकिन उसके भीतर मेटाफर के जरिये सामयिक मसलों को शामिल किया जा सकता है। मैंने तो इसे पहली बार सुना लेकिन जो लोग इसे बार-बार सुनते हैं और कथा रिपीट होती है तो ऐसे में इसे सिर्फ पौराणिक प्रसंगों तक सीमित रखने के बजाय सामाजिक मुद्दों से जोड़ना बेहतर होगा।

देहरादून आकर मैंने महसूस किया कि यहां अभिव्यक्ति और कलाओं में प्रकृति के साथ की साझेदारी के साथ इसे बचाने की पुरजोर कोशिशें बनी हुई हैं। ऐसा सिर्फ लगाव के कारण से नहीं है और न सिर्फ इसलिए कि यहां के लोगों में प्रकृति अबाध रूप से शामिल है बल्कि ऐसा इसलिए भी है कि शायद वो मानते है कि बिना प्रकृति को शामिल किये न तो अभिव्यक्ति संभव है और न ही कला रूप। रचना और कला के स्तर पर उनके इस प्रयास की नोटिस ली जाए तो बेहतर होगा। शर्मिला भर्तृहरि ने गंगा को लेकर जो अपनी प्रस्तुति दी और वीणा जोशी ने जो क्लासिकल प्रस्तुति दी, उससे तो मैं यही समझ पाया। हां ये बात जरूर है कि इस पूरे कार्यक्रम में मैंने एक बात शिद्दत से महसूस की कि इन सब चीजों को बचाने और व्यक्त करने को लेकर सिर्फ और सिर्फ धार्मिक और पौराणिक आग्रह न होकर एक प्रोग्रेसिव और साइंटिफिक एप्रोच भी हो तो असर का विस्तार ज्यादा होगा।

दो तारीख का डिनर गेल इंडिया लिमिटेड की तरफ से स्पॉन्सर्ड था। खाना हमें दिल्ली के बाकी कार्यक्रमों की तरह ही लगा। मेनू भी दिल्ली ही तरह तय था। हां लोग मटन रोगन जोश की बहुत तारीफ कर रहे थे और एसएस निरूपम चावल के स्वाद पर फिदा होते नजर आये। मुझे शिमला एडवांस स्टडीज में बिताये गये उन आठ दिनों की याद ताजा होने लगी जब हमने काफी कुछ इसी स्वाद में खाया। ओमप्रकाश वाल्मीकि से मिलकर ये यादें और जीवंत हो उठीं। रात के डिनर में पुष्पेश पंत, यतींद्र मिश्र, इरा पांडे जैसे नामचीन लोग नजर आये जो कि आज अपनी बात रखेंगे। उम्मीद करते हैं कि आज का कार्यक्रम हिंदी समाज की तमाम बहसों के बीच एक बेहतर दखल होगा। हम यहां की एक-एक घटनाओं की खबर आप तक पहुंचाएंगे, फिलहाल दिल्ली से आये अपने तमाम पत्रकारों जिनमे से कि अब कई दोस्त होने-होने के करीब हैं, पूरे सेशन को एनजॉय कर रहे हैं।
| | edit post

अशोक चक्रधर ने पीएच.डी सहित उसके पहले और बाद जो भी डिग्रियां और सम्मान हासिल किये है,वो सब फर्जी है। अशोक चक्रधर को हिन्दी भाषा तकनीक के विकास के लिए'माइक्रोसॉफ्ट मोस्ट वेल्युएबल प्रोफेशनल'का जो अवार्ड मिला है उसकी कोई मुराद नहीं है,वो बाजार और कार्पोरेट प्रभावित अवार्ड है,उसका हिन्दी समाज के बीच कोई मोल नहीं है। हजारों की भीड़ जो उन्हें सुनती है वो औसत से भी कम दिमागवाले उनलोगों की जमात हैं जिन्हें साहित्य और सरोकार की एबीसी भी नहीं मालूम। टेलीविजन और जनमाध्यमों के जरिए हिन्दी के विकास के नाम पर जो कुछ भी किया वो सब बकवास है। ये सारे सम्मान और प्रोत्साहन पानेवाले अशोक चक्रधर को ये भले ही लग रहा होगा कि उन्होंने हिन्दी के जरिए नए और अलग किस्म की उंचाईयों को छुआ है,हिन्दी को एक नयी इमेज देने की कोशिश की है,खुद सम्मान देनेवाली संस्था को ऐसा लग रहा होगा कि उन्होंने एक जेनुइन 'हिन्दी प्रैक्टिसनर'को सम्मान दिया है। लेकिन सच बात तो ये है कि हिन्दी समाज के लिए ये सब कुछ कूड़ा है। शुद्ध कचरा है। वैसे भी "साहित्य से चक्रधर का कोई लेना-देना नहीं है। मुक्तिबोध पर कभी पीएचडी जरूर की थी। जामिया में पढ़ाने भी लगे। लेकिन मशहूर हुए हास्यकवि के नाते। तुकों में उन्हें महारत हासिल है।" अशोक चक्रधर को हिन्दी साहित्य और समाज के लिए गैरजरुरी करार देने के लिए मुझे नहीं लगता कि इससे और अधिक शब्दों और अभिव्यक्ति की जरुरत होगी।..और जो थोड़ी बहुत कसर रह जाती है तो उनके काम को सत्ता के गलियारों के लिए चहलकदमी करार देकर मामले को नक्की किया जा सकता है।

पूरे हिन्दी समाज के बीच एक दिलचस्प पहलू है कि यहां सक्रिय( ये सक्रियता लिखने-पढ़ने के अलावे बाकी कई स्तरों पर संभव है) वो तमाम लोग पुरस्कार,डिग्रियां और सर्टिफिकेट पाने के लिए जितने बेचैन रहते हैं,उससे रत्तीभर भी कम दूसरों के लिए सर्टिफिकेट जारी करने के लिए नहीं रहते। हर बड़ा से छोटा हिन्दी समाजी दूसरे 'हिन्दी प्रैक्टिसनर'( पहले रचनाकार, अब इसी शब्द से काम चलाइए)के नाम सर्टिफिकेट जारी करने के लिए बेचैन है। ये हिन्दी के संस्कार में है और इसकी ट्रेनिंग हिन्दी समाज में आते ही मिलनी शुरु हो जाती है। इसलिए अब इसे कोई प्रवृत्ति न मानकर नस्ल पैदा करने की पुरजोर कोशिश कहें तो बात ज्यादा आसानी से समझ आएगी। ऐसे में बीए फर्स्ट इयर का बंदा भी आधा-गांव नाम शामिल करते हुए रज़ा साहब को पोंडी लिखनेवाला करार दे दे तो आपको आश्चर्य नहीं होना चाहिए। 'रंगभूमि'को जलाने पर आमादा हो जाए तो हमें अफसोस नहीं होना चाहिए। बल्कि साहित्य की इस नस्ल को बढ़ानेवालों के लिए सिलेब्रेट करने का दौर है कि उनकी मेहनत सही दिशा में काम कर रही है। हिन्दी समाज में लिखाई-पढ़ाई और विश्लेषण का एक बड़ा हिस्सा यही सर्टिफिकेट जारी करने और हर लिटरेचर प्रैक्टिसनर की पीठ पर लेबल चस्पाने के काम से जुड़ा है।.. लेबल चस्पाने की व्यक्तिगत स्तर पर ली गयी सबों की अपनी-अपनी ये ट्रेनिंग जब सामूहिक स्तर पर एकरुप होती है तो सर्टिफिकेट जारी करने की स्थिति तक पहुंचती है। हिन्दी अकादमी की बेशर्म लीला के बहाने अशोक चक्रधर को जो सर्टिफिकेट जारी करने की बात आज हम कर रहे हैं,जिसे कि हिन्दी समाज के नामी-गिरामी लोग सामूहिक प्रतिरोध का स्वर कह रहे हैं वो दरअसल लेबल चस्पाने के काम के पूरा कर लेने के बाद सर्टिफिकेट जारी करने की तैयारी है। यानी किसी लिटरेटर प्रैक्टिसनर पर लेबल चस्पाना वो शुरुआती प्रक्रिया है जहां से सर्टिफिकेट जारी करने की भूमिका शुरु होती है।

लेकिन लेबल चस्पाने की इस बेशर्म आदत के बीच किसी शख्स को सर्टिफिकेट जारी करना,क्या मामला यही तक का है। हिन्दी समाज व्यवहार के स्तर पर जादुई यथार्थवाद का विरोध करते हुए भी उसका शिकार रहा है। उसने मोर्चे की लड़ाई को अक्सर सब्जेक्टिविटी में बदलने का काम किया है। बहस का दायरा यो तो इतना बड़ा किया है कि मुनिरका की स्थानीय समस्या में पूरी अमेरिका की समस्या समा जाए या फिर संसद के सवाल महज भटिंडा तक के सवाल बनकर रह जाएं। इन दोनों ही स्थितियों में अकाउंटबिलिटी के सवाल से वो मुक्त हो जाते हैं। किसी को कहीं कोई जबाव नहीं देना होता,न किसी से रार होती है क्योंकि सब तो सब्जेक्टिव है।..या फिर रार लेनी ही है तो उसे पर्सनल तक ले जाओ। अशोक चक्रधर के मामले में यही हुआ है। ये उदाहरण देते हुए थोड़ी असहजता भी होती है लेकिन अगर हिन्दी समाज के महारथियों को सचमुच में अगर साहित्य को लेकर चिंता होती तो फिर लोलियाकर बोलनेवाले मुकुंद द्विवेदी के उपाध्यक्ष बनने पर क्यों चुप मार गए? उससे पहले भी कई ऐसे लोग आए-गए,उन्हें क्यों पचा गए? अकादमियों में कितने और कैसे-कैसे गुणी लोग विराजमान है,यहां कोई लिस्ट जारी करने की जरुरत नहीं है। मुझे तो लगता है कि ऐसी संस्थाओं का एक आम फार्मूला है कि अध्यक्ष,उपाध्यक्ष,सचिव ऐसे लोगों को बनाओ जिसे कि सरकार के अलावे कोई नहीं जानता हो। जिनकी रचनाएं या तो सरकारी अलमारियों में सजी हो या फिर जिन्हें दोस्ती-यारी में बंटवाने के लिए छपवायी गयी है। जिसे कोई हिन्दी पाठक नहीं जानता हो। अशोक चक्रधर के मामले में अबकी बार सरकार से जरुर चूक हुई है।

अशोक चक्रधर की जिस तुकनवाजी पर ओम थानवी ने व्यंग्य किया है वो दरअसल उनकी प्रतिभा और उनके आचरण को एक-दूसरे से गड्डमड्ड करके लाने की जुगत है। ओम थानवी जैसे भाषाई स्तर पर सचेत पत्रकार के लिए ये एक चूक है। अगर किसी इंसान में तुकबंदी करने का कौशल है और किसी पार्टी की सुविधा के लिए जय हो की पैरॉडी तैयार करता है तो आप उसका विरोध कीजिए,उनके खिलाफ अभियान चलाइए। लेकिन उसकी आड़ में आप तुक मिलाने की प्रतिभा को खारिज नहीं कर सकते। अशोक चक्रधर की कविताई,तुकबंदी और एक्सटेम्पोरे को लेकर जो गंभीर साहित्य को पूजनेवाले लोग विरोध कर रहे हैं वो ऐसा करते हुए भूल जाते हैं कि वो साहित्य और अभिव्यक्ति की एक मजबूत विधा को हतोत्साहित करने में लगे हैं। आप हिन्दी समाज की बिडम्बना देखिए कि उसने कभी दो सौ साल से भी ज्यादा इस समस्यापूर्ति,तुकबंदी,हाजिस जबाबी और छंदों का सेवन किया,एक-एक मिसरे पर तालियों की थाक लगा दी,इसके समर्थन में भी लिखनेवाले लोग हिन्दी के बाबा हुए और इसके विरोध में लिखनेवाले भी बाबा हुए। आज उस विधा को लेकर कैसी हिकारत है। ये पॉपुलर होते साहित्य का खास किस्म का एलीटिस्ट विरोध है।

हिन्दी में क्या साहित्य है,क्या साहित्य नहीं है इस पर दर्जनों किताबें और लेख छप चुके हैं। इस पर बहस करनेवाले इससे भी ज्यादा दर्जन में डिफाइन करनेवाले लोग हैं। फिर भी है कि साहित्य की सुरक्षा घेरे में सेंध लग जाता है।..और अशोक चक्रधर जैसे तुक मिलानेवाले लोगों के आने पर फिर से डिफाईन करने की जरुरत पड़ जाती है। जब तक कोई और मानक तय न हो,सुविधा के लिए आप ये मान लीजिए कि गुपचुप तरीके से हिन्दी महारथियों का बनाया गया फार्मूला है कि जो ज्यादा पढ़ा जाए,ज्यादा पॉपुलर हो या सुना जाए वो कभी भी साहित्य नहीं हो सकता,वो कभी भी साहित्य की कोटि में नहीं आ सकते। जिस किताब को खोजने के लिए दरियागंज में तीन-चार चक्कर लगाने न पड़ जाएं वो फिर साहित्य कैसा? हिन्दी में कई ऐसी रचनाएं और रचनाकार इसी फार्मूले के तहत खारिज किए गए हैं। जिनकी कविताएं आपको जुबान पर याद है,वो कवि हो ही नहीं सकता। इस अर्थ में हिन्दी के हरेक लिटरेचर प्रैक्टिसर औऱ उसकी रचना को अनिवार्य रुप से दुर्लभ,खास मौके पर ही उपलब्ध,कम लोगों द्वारा पढ़ा जाना,पांच सौ प्रति के फार्मूले के तहत छापा जाना अनिवार्य है। इससे ज्यादा जहां वो पढ़ा गया,सुना या छापा गया तो समझ लीजिए कि वो बाजार का आदमी है,वो पूंजीवादी व्यवस्था का समर्थक है,वो सत्ता के लिए बोतल की तरह इस्तेमाल में आनेवाला शख्स है, वो संस्कृति विरोधी है।..और हिन्दी समाज ऐसे लोगों और रचनाओं को कैसे बर्दाश्त कर लेगी। इनके हिसाब से हिन्दी का विकास हर हाल में रहमो-करम पर ही संभव है। दया,सहानुभूति,अनुकंपा से इतर जहां इसके विकास और प्रसार के रास्तों की खोज की गयी तो समझिए कि हिन्दी का नाश हो रहा है।

लेकिन अशोक चक्रधर और पॉपुलर माध्यमों के जरिए हिन्दी का विरोध करनेवाले लोग जिनकी कोशिश हिन्दी को हमेशा वर्जिनिटी के चश्मे से देखने की रही है,ऐसा करते हुए वे भूल जाते हैं कि हिन्दी अकादमी जैसी संस्थाओं का गठन सिर्फ और सिर्फ गंभीर और गरीष्ठ साहित्य के विकास के लिए नहीं किया गया है। उसमें हिन्दी भाषा और सांस्कृतिक कार्यक्रम से लेकर उन तमाम तरह की गतिविधियों की हिस्सेदारी उतनी ही शामिल है जितनी कि अकेले साहित्य की दावेदारी की की जाती है।..और अगर इतनी सी मोटी समझ भी वापस आ जाए कि हिन्दी का मतलब सिर्फ साहित्य ही नहीं है,उसमें भाषा का विकास भी शामिल है तो अशोक चक्रधर के जय हो,विजय हो लिखे जाने का पूरजोर विरोध किए जाने के बाद भी भाषाई स्तर की लोकप्रियता के लिए कुछ और चक्रधर की दरकरार महसूस होगी। इस काम के लिए हमें चक्रधर या किसी शख्स के विरोध और समर्थन में आने की जरुरत नहीं है बल्कि हमारी लड़ाई इस बात को लेकर होनी चाहिए कि हिन्दी भाषा के नाम पर साहित्यकारों और आलोचकों की जो किलाबंदी होती है,उसे ध्वस्त किए जाएं।

अगर इन साहित्य के महारथियों को( कृष्ण वलदेव वैद के अपमान का प्रतिरोध करनेवाले लोगों का सम्मान करते हुए)हिन्दी को लेकर सचमुच कोई चिंता होती तो सबसे पहले हिन्दी अकादमी के नाम आरटीआई करते। उनसे ये जरुर सवाल करते कि करीब 90 लोगों का वेतन यहां से जाता है और मात्र 22 से 25 लोग हिन्दी अकादमी का काम करते हैं। बाकी के लोग सरकार के दूसरे विभागों में हैं,वो यहां अपनी शक्ल तक नहीं दिखाते,इस बारे में आपके पास क्या रिकार्ड है? हिन्दी पर एहसान करने का जो आंकड़ा आपके पास है उसके भीतर की सच्चाई क्या है? इन महारथियों को अगर भाषा को लेकर सचमुच सीरियसनेस होती तो हिन्दी भाषा के वर्चुअल स्पेस में आने के बाद 2.0 की पूरी कहानी बताते,समझाते। हिन्दी फॉन्ट को लेकर दुनियाभर में हुई मारामारी,परेशानियों और लगाए गए एफर्ट की चर्चा करते लेकिन इस मुकाम पर मुंह पर ताला जड़कर बैठे हैं। न्यू मीडिया के बीच की हिन्दी पर विस्तार से चर्चा करते। लेकिन नहीं,

हिन्दी के ये महारथी,हिन्दी की पूरी पताका विचारों और भगवा और गाढ़ा भगवा के बीच ले जाकर ही फहराना चाहते हैं। लेकिन वो इस बात को इस स्तर पर विमर्श करने की जरुरत महसूस नहीं करते भाषा का विस्तार सिर्फ विचारधारा के बीच होकर संभव नहीं है और न ही हिन्दी प्रैक्टिसनर की पीठ को एमसीडी की दीवार में तब्दील करने से कुछ होनेवाला है। ये काम बहुत पहले हो चुका,अब कुछ तो चेंज कीजिए।
| | edit post