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मूलतः प्रकाशितः हंस,स्त्री विमर्शः अगला दौर स्मृति प्रभा खेतान
संपादकः राजेन्द्र यादव,अतिथि संपादकः अर्चना वर्मा,बलवंत कौर
मूल्यः35 रुपये/

भारतीय टेलीविजन में पिक्चर ट्यूब के दम पर पैदा की जानेवाली उत्सवधर्मिता के बीच पहले बालिका वधू और फिर उसका अनुसरण करते हुए उतरन,लाडो न आना इस देश में और अगले जनम मोहे बीटिया ही कीजौ जैसे दर्जनों समस्यामूलक सीरियलों के प्रसारण ने मौजूदा टेलीविजन विश्लेषण के लिए एक नया संदर्भ पैदा किया है। हालांकि समाज विज्ञान के लिहाज से इन संदर्भों में नया कुछ भी नहीं है लेकिन पिछले सात-आठ सालों में टीवी सीरियलों में सास-बहू चरित्रों की अतिशयता ने जहां इसे सास-बहू के प्रतिशोध,घरेलू झगड़ों औऱ विवाहेतर संबधों का पर्याय बना दिया,उच्च मध्यवर्ग के चरित्रों के बीच आए दिन की बदलती जीवन शैली ,जूलरी और पोशाकों ने इसे स्त्री-फैशन का संदर्भ कोश भर बनाकर छोड़ दिया,ऐसे में ये संदर्भ अपने आप ही अप्रासंगिक होते चले गए। इन सीरियलों से गुजरते हुए आप कभी भी स्त्री के वर्गीय चरित्र,घरेलू हिंसा एवं श्रम और बदलती सामाजिक संरचना के बीच स्त्री जैसे सवालों पर सोच नहीं सकते। सास-बहू सीरियलों ने स्त्री की छवि और उसकी उपस्थिति के दायरे को जितना सीमित किया है उसी अनुपात में विश्लेषण के दरवाजे भी छोटे होते चले गए। लेकिन पिछले एक साल में सास-बहू सीरियलों से अलग स्त्री-चिंता पर आधारित सीरियलों की जो नयी खेप आयी है,उसे देखते हुए इन सारे सवालों से गुजरना अनिवार्य लगता है। यहां से टेलीविजन के नए संदर्भ पैदा होते हैं।

मुख्यधारा की मीडिया का अनुसरण करते हुए अगर समस्यामूलक इन सीरियलों को सामाजिक विकास का माध्यम मान लिया जाए तो टेलीविजन फिर से उन एजेंडे की तरफ लौटता नजर आता है जिसे कि दूरदर्शन ने शुरु से अपनी प्रसारण नीति के लिए तय कर रखा है। स्त्री और सामाजिक समस्याओं को लेकर सीरियल प्रसारित करनेवाले निजी चैनल बिल्बर श्रैम के उन निर्देशों को पालन करते नजर आते हैं जिनके अनुसार विकासशील देशों में टेलीविजन का अर्थ अनिवार्य रुप से सामाजिक विकास करना है। लेकिन इतना तो हम भी जानते हैं कि निम्नवर्गीय स्त्रियों पर फीचर दिखाते हुए भी दूरदर्शन ने भी अपने घाटे की भरपाई के लिए शांति ,स्वाभिमान और वक्त की रफ्तार जैसे सीरियलों का प्रसारण किया और दूसरी तरफ उपभोक्ता संस्कृति और बाजारवाद के बीच करीब आठ-नौ सालों से टीवी सीरियल को ‘वूमेन स्पेस’ बनानेवाले चैनल इसे सामाजिक विकास का माध्यम के तौर पर क्यों प्रसारित करना चाहते हैं? फिर इन दोनों स्थितियों को जानते-समझते हुए भी मौजूदा टीवी सीरियलों में ऐसा क्या है जो कि इसे सामाजिक विकास का माध्यम और स्त्री दुनिया को समस्यामूलक विमर्शों के तहत विश्लेषित करने की ओर से जाते हैं?

पहली बात तो यह कि पिछले सात-आठ सालों में सास-बहू सीरियलों के जरिए टेलीविजन ने स्त्री की जिस छवि को स्थापित करने की कोशिश की है,जिन घटनाओं को समस्या के तौर पर उठाने का प्रयास किया है,समस्यामूलक सीरियलों ने उनके बरक्स कहीं बड़ी समस्याओं को लेकर दर्शकों को बांधने की कोशिश की है। उतरन के भरोसे पल रही इच्छा,शादी के झूठे दिलासे में ठाकुर के हाथों चंद रुपयों में बेच दी जानेवाली अगले जनम मोहे बीटिया ही कीजौ की ललिया, लड़का-बच्चा नहीं जनने की वजह से अम्मां के घर बहू बनकर रहने का सपना लिए और अब नौकरानी बनकर रहनेवाली न आना लाडो इस देश में की चंदा(चंदा-इस घर में बहू बनकर आना एक धोखा था और आज इस घर में नौकरानी बनकर रहना सच है) और बिरजू के नीची जाति की होने की वजह से प्रेम से बेदखल कर दी जानेवाली मितवा दो फूल कमल के की बेला,ऐसे दर्जनों चरित्र हैं जो कि दर्शकों की ओर से संवेदना बटोरने के स्तर पर सास के षड्यंत्रों की शिकार पार्वती, रानी, वैदेही, काकुल और आंचल को बहुत पीछे धकेल देती है। ललिया के मां-बाप और छोटे-छोटे भाई-बहनों सहित पूरे-पूरे दिन भूखे पेट काटने के आगे,अदना दो ठेकुए के लिए ‘हमहुं तो छोट जात हैं,हम कहां बामन-पंडित है’ बोलकर अपनी जाति बताने के आगे,पन्द्रह साल में ही सुगना के विधवा हो जाने के आगे, भरी महफिल में सात साल की हिचकी और बाद में अठारह साल की हो जानेवाली इच्छा के जलील किए जाने के आगे और हरियाणा के बीरपुर में अभी-अभी जन्मी बच्ची को जहरीले दूध के हवाले करनेवाली हजारों मांओं के आगे इन सारी सास-बहू सीरियलों के चरित्रों की तकलीफ दर्शकों के लिए बहुत स्वाभाविक नहीं रह जाते। जाति,वर्गीय-चरित्र,सामाजिक हैसियत,लिंग-भेद और सामाजिक कुप्रथा की शिकार इन स्त्री-चरित्रों के आगे, सात-सात,आठ-आठ सालों से आदर्श बहू,परिवार और विवाह संस्था को बचानेवाली स्त्री-चरित्र दर्शकों के भीतर संवेदना पैदा करने की ताकत खो देते हैं। अब की ये स्त्री चरित्र टेलीविजन दर्शकों के लिए ज्यादा स्वाभाविक लगते हैं। सास-बहू सीरियलों को ये चरित्र मेलोड्रामा करार देते हैं। यहां पर आकर टेलीविजन अपनी आलोचना स्वयं करता नजर आता है। ऐसे में उत्सवधर्मी सास-बहू सीरियलों और समस्यामूलक सीरियलों के बीच एक तुलनात्मक स्थिति बनती है जो यह बताती है कि स्त्रियों की समस्याओं का वर्गीय चरित्र होता है,देश की सारी स्त्रियों को देखने-समझने के एक ही आधार बिंदु तय नहीं किए जा सकते,स्त्री की पहले बुनियादी चिंता पेट,लिंग-भेद और जातिगत स्तर पर किए जानेवाले भेदभाव को लेकर है। पहले इसे समझना जरुरी है।

कुछेक हजार में ठाकुर के हाथों बेच दी गयी ललिया अब दक्खिन टोला के बजाय महल में रहती है लेकिन लाखों रुपये दहेज में देने के वाबजूद सास लीलावती के कुचक्र की शिकार हुई वो रहनेवाली महलों की की रानी के झोपड़पट्टी में रहने के दर्द पर ललिया के महल में रहने का दर्द कितना गुना भारी पड़ता है,यहां स्त्री के वर्गीय चरित्र और जातिगत समस्याओं को देखने का एक नया संदर्भ बनता है। स्त्री-छवि के सवाल पर यहां दोनों तरह के सीरियलों को शामिल करें तो वायनरी ऑपोजिशन का फार्मूला चरित्रों के बजाय परिस्थितियों पर आकर लागू होता है और समस्या का दायरा परिवार से बढ़कर समाज तक जाता है। सास-बहू सीरियलों के लगभग सारे स्त्री-चरित्र घरेलू कुचक्र की शिकार होती हैं। ये सारे चरित्र उच्च मध्यवर्ग से आते हैं,खाने-पीने और पहनने के स्तर पर कहीं कोई परेशानी नहीं है। भौतिक स्तर का अभाव नहीं है। आंसुओं को ढोती हुई भी वो गहनों और कीमती पोशाकों से लदी-फदी स्त्रियां है जो बौद्धिक क्षमता और शिक्षा के स्तर पर यह देश की औसत स्त्रियों से कई गुना आगे है लेकिन सास की कारवाईयों के आगे घुटने टेक देती हैं। पति के विवाहेतर संबंधों को चुपचाप बर्दाश्त करती है और कई जगहों पर उसके प्रति सहानुभूति भी व्यक्त करती है लेकिन कहीं भी किसी भी बात के लिए प्रतिरोध जाहिर नहीं करती और दिलचस्प है कि करीब सात-आठ सालों तक इन चरित्रों पर आदर्श बहू का लेबल चस्पाया जाता रहा। मीहान इस तरह की स्त्रियों का विस्तार से चर्चा करती हैं और स्पष्ट करती हैं कि सीरियल ऐसे चरित्रों को अच्छी स्त्री का दर्जा देता है। दूसरी तरफ ललिया सास-बहू सीरियलों की चरित्रों- काकुल(जिया जले),रानी(वो रहनेवाली महलों की) और वैष्णवी(माता की चौकी सजा के रखना) जैसी चरित्रों की हैसियत के आगे कुछ भी नहीं है। उसके गले में पीतल की ताबीज से लटकी लाल सूत भर है, निपट है,समाज जिसे सामाजिक तौर पर साक्षर मानता है वो नहीं है लेकिन सामाजिक तौर पर पितृसत्ता से लगातार टकराती है। उतरन की हिचकी, अम्मो के दर्द को समझते हुए चमकी के साथ काम करती है,बड़ी होकर स्कूल में पढ़ाती है। पन्द्रह साल में ही वैधव्य धारण करनेवाली सुगना(बालिका वधू), श्याम से पहले प्रेम और फिर पुर्नविवाह करने का साहस जुटाती है। बसंत की तीसरी पत्नी बनकर आयी गहना(बालिका वधू) बसंत की इच्छाओं का प्रतिरोध करती है। ये चरित्र स्त्री-मुक्ति की संभावनाओं का विस्तार करती नजर आती है जिसे कि स्त्री-विमर्श की मान्यताओं को भी समर्थन प्राप्त है।

समस्यामूलक सीरियलों के ये वो संदर्भ हैं जो कि भारत सरकार की ओर से सामाजिक न्याय,पुनर्विवाह,स्त्री अधिकार और साक्षरता मिशन के अधिनियमों को मजबूती प्रदान करते हैं। सास-बहू सीरियलों के चरित्र जहां परंपरा और संस्कार के नाम पर विवाह और परिवार संस्था को बचाने की कोशिश में लगे रहे,स्त्री-मुक्ति के नाम पर अपने को मन का पहनने और शॉपिंग करने तक सीमित कर दिया वहीं समस्यामूलक सीरियलों के चरित्र जमीनी स्तर पर बदलाव करते नजर आते हैं। टेलीविजन की स्त्री-दर्शक मूलतः नागरिक हैं और उनके लिए इसी हैसियत से कार्यक्रम प्रसारित किए जाने चाहिए,इस भरोसे के साथ प्रसारित किए जानेवाले इन नए सीरियलों ने अपने को सामाजिक विकास के साथ जोड़कर देखने की गुंजिश पैदा की है। इन सीरियलों ने स्त्री के स्टेटस के सवाल को स्त्री अधिकारों पर लाकर खड़ा किया है।

लेकिन सामाजिक कुरीतियों और समस्याओं को आधार बनाकर दिखाए जानेवाले सीरियलों पर दूसरे पक्ष से विचार करें तो कुछ अलग ही समझ बनती है। पहली बात तो यह कि हमें यह ठीक से समझ लेना होगा सास-बहू सीरियलों के एक-एक करके बंद होते जाने के पीछे टीवी समीक्षकों के प्रयासों के बजाय स्वयं टेलीविजन का अर्थशास्त्र है जिसने उसे आगे चलने की स्थिति में नहीं रहने दिया और दूसरा समस्यामूलक सीरियलों के लगातार लोकप्रिय होते रहने की बड़ी वजह टेलीविजन की स्वाभाविकता के संदर्भ बिन्दु बदल जाने की घटना है। जब हम इन दोनों बातों पर गौर करते हैं तो समस्यामूलक सीरियलों को सामाजिक विकास का पर्याय मानने में थोड़ी परेशानी जरुर होती है।

टेलीविजन का एक सर्वभौम फार्मूला है कि वह संदर्भों और घटनाओं को स्वाभाविक बनाने का काम करे। सास-बहू की लोकप्रियता के जो भी आधार बने और जिसने सीरियल देखने की संस्कृति को स्थापित किया उसके पीछे भी टेलीविजन का यही फार्मूला काम करता रहा। करवाचौथ में सारी स्त्रियां उसी तरह से व्रत रखती हैं,उसी तरह से सजती-संवरती हैं,परिवार को बचाए रखने के लिए उसी रानी की तरह घुट-घुटकर जीती है जैसा कि क्योंकि सास भी कभी बहू थी,कहानी घर-घर की और वो रहनेवाली महलों की जैसे सीरियलों में दिखाया जाता है। नतीजा यह होता है कि इसके जरिए एक नए ढंग की टेलीविजन की प्रस्तावित संस्कृति तो जरुर पनपने लग जाती है जो कि हमें बदलते फैशन और व्यवहार के तौर पर दिखाई देते हैं लेकिन इससे समाजे के भीतर के अन्तर्विरोध कम नहीं होते और संभावनाओं के दरवाजे हमेशा के लिए बंद हो जाते हैं। ऐसे में टेलीविजन समाज की अच्छाई और बुराईयों का विभाजन करने और उसे रेखांकित करने के बजाय उसे स्वाभाविक करार देता नजर आता है। सास-बहू सीरियलों की अधिकांश स्थापनाएं स्त्री के विरोध में है लेकिन वो इतनी स्वाभाविक है कि दर्शकों की ओर से इसे लंबे समय तक स्वीकृति मिल जाती है। इसके ठीक बाद समस्यामूलक सीरियलों की प्रासंगिकता बढ़ती है तो उसके पीछे भी टेलीविजन द्वारा स्वाभाविकता के संदर्भ बिन्दु तलाशने का ही फार्मूला काम आता है।

बालिका वधू एक सामाजिक और स्वाभाविक सच है,उतरन के भरोसे सपने बुननेवाले बच्चों की दुनिया एक स्वाभाविक सच है,शादी-ब्याह में छोटी जाति की स्त्रियों की जरुरत एक स्वाभाविक सच है(ठकुराइन-धनिया,लड़की को नहाने का पानी डालने के लिए किसी छोट जात की औरत को लेकर आ..अगले जनम मोहे बीटिया ही कीजौ) और स्त्री के बच्चा नहीं जनने पर उसे छोड़कर बच्चा पैदा करनेवाली स्त्री के तौर पर दूसरे खिलौने को लाना स्वाभाविक सच है,( अम्मां- तू बस पुराने खिलौने की जिद पकड़कर बैठ गया। म तो तनै नया खिलौना दे रही थी।..लाडो न आना इस देश में) समस्यामूलक सीरियलों में ये सारी स्वाभाविकता शामिल हैं और शुरुआत के एपिसोड को देखकर इसके प्रतिरोध में कारवाई होने की गुंजाईश बनती नजर आती है। लेकिन तीस-पैंतीस एपिसोड तक समस्याओं के स्वाभाविक तौर पर उठाए जाने के बाद अतिरेकीपन-आनंदी,ललिया,अम्मो की व्यथा और दादी सा,अम्माजी और ठकुराइन जैसे चरित्रों के अतिशय क्रूरता के बीच उलझकर रह जाते हैं। किसी भी स्तर पर प्रतिरोध के बजाय उस संरचना के भीतर जीने की स्वाभाविकता ज्यादा प्रभावी हो जाती है। ऐसे में स्त्रियों की ये छवि वास्तविकता को खत्म कर देती हैं और औसत यथार्थ में बदल जाती है। सूसन सौंटगै छवियों के जरिए व्यक्त वास्तविकता को इसी रुप में विश्लेषित करती हैं। इसके साथ ही यहां आकर ये सीरियल सास-बहू सीरियलों की स्वाभाकिता की राह पकड़ लेते हैं जहां आकर दर्शक इन सीरियलों को सिर्फ परिधान,परिवेश और संदर्भों के स्तर पर इसे अलग पाता है नहीं तो यहां भी उत्सवधर्मिता है, हरेक मौके पर ईश्वर के आगे जाने का रिवाज यहां भी कायम है, मुसीबत में भगवान भरोसे छोड़ देने की आदतें है और अपनी बेहतरी का अंतिम विकल्प पुरुषों की छत्रछाया ही साबित होती है। टश्मान के शब्दों में इस तरह घिसी-पिटी छवियों को स्थापित करके उसके सांकेतिक विनाश(symbolic annihilation of women) का काम किया जाता है। यहां भी स्त्री की कोई स्वतंत्र छवि नहीं बनने पाती है और पुनर्विवाह के लिए हिम्मत जुटानेवाली बालिका वधू की सुगना भी ‘मेरी वजह से मायकेवालों का सिर कभी नीचा न होगा’ के संकल्प के साथ घर से विदा लेती है। यही पर आकर इन नए समस्यामूलक सीरियलों के लिए जज्बात के बदलते रंग,टीआरपी का नया फार्मूला और स्त्री समस्याओं को ‘प्लेजर मोड’ में बदल देने जैसे पदबंधों के इस्तेमाल शुरु हो जाते हैं। शुरुआती एपीसोड में सीरियलों के लैंडस्केप बदलने के साथ ही इसके कस्बाई,झुग्गियों और टोलों में स्त्री चरित्र को समझने की जो उम्मीद बंधती है वो पन्द्रह से बीस एपीसोड तक आते-आते शहर और महलों के सेंट्रिक होकर रह जाते हैं। यहीं पर आकर सामाजिक विकास के फार्मूले पर सीरियलों की बात करना बेमानी लगने लग जाते हैं। हां इन सबके वाबजूद इतना जरुर होता है कि स्त्री-दर्शकों का दायरा बढ़ता है,पुरुष दर्शकों की सीरियल देखने के प्रति मरी इच्छाएं फिर से जन्म लेने लग जाती है और छद्म ही सही, व्यापक स्तर पर टेलीविजन मनोरंजन के जरिए जागरुकता पैदा करने का काम करता है,यह भ्रम व्यापक स्तर पर प्रसारित होता है।
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ब्लॉग-विमर्श के लिहाज से पहले दिन के मुकाबले दूसरे दिन के सत्र ज्यादा कारगार साबित हुए। इसकी एक वजह तो समय से सत्र का शुरु होना रहा,अधिक वक्ताओं के विचार आए। इसके साथ ही तकनीकी सत्र में जिस बारीकी से रविरतलामी, मसिजीवी, ज्ञानदत्त पांडेय और संजय तिवारी ने सूचना,तकनीक औऱ अभिव्यक्ति के बीच के अन्तर्संबंधों को बताया वो नॉन-ब्लॉगरों के लिए ज्यादा महत्वपूर्ण रहे। लेकिन पहले दिन वक्ताओं को बोलने देने में जितनी दरियादिली दिखायी गयी अगले दिन उसकी गाज भाषा,साहित्य और संप्रेषणियता के सवाल पर बोलने आए वक्ताओं पर गिरी। जाहिर तौर पर उसका शिकार मैं भी हुआ। विश्वविद्यालय की ओर से जो न्योता हमें भेजा गया था उसमें ये साफ तौर पर लिखा था कि आप जो भी बातचीत करेंगे उसे प्रकाशित किया जाएगा इसलिए हमनें अपने स्तर से बीस मिनट बोलने के लिहाज से तैयारी की थी जबकि हमें पांच मिनट,सात मिनट के भीतर,गहरे दबाबों के बीच अपनी बात खत्म करनी पड़ी। मैंने तो फिर भी पांच मिनट के निर्धारित समय होने पर भी हील-हुज्जत करके ढाई मिनट आगे तक जारी रहा लेकिन बाद के वक्ताओं से कहा गया कि आप एक-एक मिनट में अपनी बात रखें। दिल्ली से चलते हुए सोचकर ही कितना अच्छा लग रहा था कि हम देश में पहली बार राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित होनेवाली चिट्ठाकारी संगोष्ठी में विमर्श करने जा रहे हैं जिसे कि पाठ के रुप में तैयार किया जाएगा लेकिन आप समझ सकते हैं कि बोलते वक्त हमने ऐसा महसूस किया कि खून,पेशाब,थूक और खखार की तरह यहां अपने विचारों की सैम्पलिंग भर देने आए हैं। वहां मौजूद कुछ लोगों ने ये तर्क दिया कि जब आप पांच मिनट में पढ़नेवाली पोस्ट लिख सकते हैं तो फिर अपनी बात क्यों नहीं रख सकते। पांच मिनट ही क्यों भई,टेलीविजन के हिसाब से सोचें तो 25-30 सेकेंड काफी हैं,इससे ज्यादा की बाइट तो चलती भी नहीं। लेकिन क्या चिट्ठाकारी को जब हम विमर्श और अकादमिक दुनिया में शामिल कर रहे हैं तो उसे निपटाने के अंदाज में ही बात करनी होगी। अब बिडंबना देखिए कि रियाजउल हक जैसा गंभीर ब्लॉगर वक्ता जब ये कह रहा है कि आप हिन्दी ब्लॉग्स पर नजर डालें तो कहीं से इस बात का अंदाजा नहीं लगेगा कि ये उसी देश की अभिव्यक्ति है जहां हजारों किसानों ने कर्ज के बोझ से आत्महत्या कर ली,दलित समाज का एक तबका आज भी पचास साल पहले के भारत में जीने के लिए अभिशप्त है। हिन्दी ब्लॉगिंग करते हुए जो खतरे हमें उठाने चाहिए,अभी तक हम नहीं उठा रहे हैं और उसके बाद वो पूरी बातचीत को सामाजिक सरोकार और प्रतिबद्ध लेखन की ओर मोड़ना चाह रहे थे,महज दो मिनट के भीतर उन्हे दबाब में आकर बात खत्म करनी पड़ गयी लेकिन वही दूसरे सत्र में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिन्दी प्रोफेसर राजेन्द्र कुमार इस बात की घोषणा करते हुए भी कि उन्हें ब्लॉग के बारे में कुछ भी नहीं पता है,करीब पच्चीस मिनट तक बोल गए। इस पच्चीस मिनट में ऐसा कुछ भी नहीं था जो कि ब्लॉग को लेकर चलनेवाली बहस को आगे ले जाता हो,विमर्श के दायरे का विस्तार करता हो,वही सब जिम्मेदारी का एहसास,लेखन में विवेक का प्रयोग और दुनियाभर के नैतिक आग्रह जिसकी चर्चा पहले दिन ही विस्तार से की गयी। ब्लॉगरों की भाषा में इसे नामवर सिंह की पायरेसी करार दिया गया। औपचारिकता,हिन्दी साहित्य-समाज से आक्रांत दोनों दिनों की इस संगोष्ठी ने ब्लॉग विमर्श के स्पेस को बहुत ही संकुचित कर दिया। हमें बार-बार इस बात का एहसास कराया गया कि हम हिन्दी साहित्य-समाज के लोगों के बीच रहकर अपनी बात कर रहे हैं तभी तो कुलपति,विभागाध्यक्ष से लेकर एमए तक के स्टूडेंट ने हमें आगाह किया कि आप अनुशासित बनिए। संतोष नाम के एक स्टूडेंट ने जब मुझे मंच से अनुशासित होने और धैर्य से दस मिनट नहीं बैठने लायक करार दिया तो हमें इस बात का यकीन हो गया कि आनेवाले समय में हिन्दी साहित्य से जुड़ी संस्थाएं और विभाग अगर चिट्ठाकारी पर किसी भी तरह का आयोजन करती है तो इसका बंटाधार कर देगी। मैंने उन्हें बस इतना ही कि हम यहां योग और साधना शिविर में नहीं आएं हैं कि हिलना-डुलना बंद कर दें,हम विचलन की स्थिति में जी रहे हैं और उन्हीं सबके बीच अपनी बात रखनी है। हिन्दी समाज में चिट्ठाकारी को साहित्यिक मापदंड़ों के खांचे में फिट करने की इतनी अधिक छटपटाहट है कि वो ब्लॉग की तकनीकी, सुविधाओं, शर्तों और शैलियों को उसी रुप में अपनाए जाने के वाबजूद जिस रुप में दुनिया अपना रही है महज ब्लॉग की जगह चिट्ठाकारी शब्द प्रयोग कर थै-थै नाच रहे हैं। नामवर सिंह इस शब्द के प्रयोग को एतिहासिक करार देते हुए इसका श्रेय म.गां.अं.विश्वविद्यालय को देते हैं। हमें तो ब्लॉग के बजाए चिट्ठाकारी टाइप करने में असुविधा हो रही है। आते समय डेस्क पर पड़ी एक रिपोर्ट पर नजर गयी,शीर्षक था- चिट्ठाकारी से साहित्य को कोई खतरा नहीं। अब बताइए चिट्ठाकारी को साहित्य के बरक्स खड़ी करने की क्यों जरुरत पड़ गयी? इस पर गंभीरता से चर्चा की जानी चाहिए। बहरहा



दूसरे दिन के पहले सत्र चिट्ठाकारीः भाषा और साहित्य के सवाल पर प्रथम वक्ता के तौर पर मसिजीवी नाम से मशहूर ब्लॉगर विजेन्द्र सिंह चौहान ने अपनी बात रखी। उन्होंने स्पष्ट किया कि कई बार हमें लगता है कि चिट्ठाकारी की बिल्कुल कोई नयी और अलग भाषा है। लेकिन क्या सचमुच ऐसा है? ये उसी रुप में नयी है जिस रुप में ये हंस में नहीं आती,कथादेश में नहीं आती,साहित्य की किताबों में नहीं आता। लेकिन गंभीरता से विचार करें तो ब्लॉग की कोई नयी भाषा नहीं है। ये बोली जानेवाली भाषा,कई अलग-अलग जगहों पर बोली जानेवाली भाषा का ही रुप है। इसलिए भाषा के सवाल पर हमें इस लिहाज से भी सोचना होगा। उन्होंने कहा कि हम चिट्ठाकारी में टाइप करते हुए छोटी-मोटी गलतियां करते हैं लेकिन ये कोई बड़ी बात नहीं है। हां,दिक्कत तब है जब हम इस पर गर्व करने लग जाते हैं। मसिजीवी ने 2.0 भाषा फार्मूले के हिसाब को भी समझना जरुरी बताया।

गिरिजेश राव ने स्पष्ट किया कि मैं साहित्य से नहीं हूं,पेशे से इंजीनियर हूं लेकिन मैं जुनूनी तौर पर चिट्ठाकारिता से जुड़ा हूं। मेरे जैसे कई लोग जिनका कि साहित्य से कुछ भी लेना-देना नहीं है वो भी ये काम कर रहे हैं। इसलिए सवाल ये है कि क्या ब्लॉगिंग पर जब हम बात कर रहे हैं तो उन तथ्यों को ध्यान में नहीं रखा जाना चाहिए। ब्लॉगरी को सर्व समावेशी है जहाँ सबके लिए जगह है।
(2) ब्लॉगरी और साहित्य के विवाद को बेमानी बताया । ब्लॉगरी अभिव्यक्ति का एक माध्यम है जिससे साहित्य भी कहा जा सकता है।
(3) हिन्दी की जातीयता के कारण भाषा स्रोत के रूप में मैंने संस्कृत की महत्ता बताई। अंग्रेजी को भी स्वीकारा।
(4) आम जीवन से ही शब्दों को लेकर बात कहने की वकालत की - टेलीफोन धुन में हँसने वाली....
(5) एस एम एस भाषा की बात भी की ।
(6) ब्लॉगरी के भीतर से ही इसकी भाषा विकसित होने की बात की । खड़ी बोली से हिन्दी बनने में महावीर प्रसाद द्विवेदी के योगदान की बात की । यह भी कहा कि अब कोई द्विवेदी ब्लॉगरी के लिए नहीं होगा, हमें खुद अनुशासन रखते हुए विकसित होना होगा... महावीर प्रसाद के नाम लेने पर बाद में कुछ जुमले भी आए ।

हिमांशु को चिट्ठाकारी में कविता और उसकी भाषा के संदर्भ में बातचीत करने के लिए आमंत्रित किया गया। उन्होंने चिट्ठाकारी पर मौजूद कविताओं का पाठ भी किया लेकिन मनीषा पांडेय के ये कहे जाने पर कि आप अपनी बात कीजिए,सिर्फ कविता क्यों सुना रहे हैं तो उन्होंने कहा कि मैं अभी इसे समझ ही रहा हूं इसलिए सीधे-सीधे इस पर बात नहीं कर सकता। मनीषा को उनका ये नॉनसीरियस रवैया पसंद नहीं आया। ये अलग बात है कि अंत तक हिमांशु का कविता सुनाना जारी रहा।

वक्ता के तौर पर चिट्ठाकारीः भाषा और संप्रेषणीयता के सवाल पर मुझे बोलने के लिए बुलाया गया। भाषा पर बातचीत करने के पहले मैंने स्पष्ट करने की कोशिश की कि- मैं हिन्दी चिट्ठाकारी को बनाम की जुमलेबाजी से अलग करके देखना चाहता हूं। मैं न तो इसे साहित्य बनाम ब्लॉग,न तो मीडिया बनाम ब्लॉग और न ही समाज सेवा बनाम ब्लॉग के तौर पर देख रहा हूं। मैं इसे इसी रुप में देख रहा हूं जिस रुप में देख रहा हूं। हिमांश का इस संबंध में मानना रहा कि मैं अलग से ब्लॉग को नहीं लेता। अगर वो कहीं छप गयी तो कविता है,कहानी है,नहीं छपी है,नेट पर है तो वही पोस्ट है। दूसरी बात जो कि मुझे लगी वो ये कि हमें हिन्दी चिट्ठाकारी पर बात करते हुए संदर्भों की तलाश करनी चाहिए। सिर्फ सतहीपन,अनर्गल और कुंठासुर जैसे सरलीकृत नजरिए को पेश करके हम इस पर बात नहीं कर सकते। दूसरे दिन में अब तक की बहस पर स्त्री के सवालों पर लिखी जानेवाली पोस्टों पर किसी ने कुछ नहीं कहा। रियाजउल,अशोक पांडेय,गिरीन्द्र,राकेश कुमार सिंह जैसे लोग समाज औऱ सरोकार पर जो कुछ भी लिख रहे हैं,उसकी कहीं कोई चर्चा नहीं की गयी। ऐसा न किया जाना भी एक राजनीति का हिस्सा हो सकता है। संभव है इस तरह के आयोजन हमारे भीतर एक लोभ पैदा करते हों कि आप अगर चीजों को एक खास संदर्भ में देखते हैं तो आपके पक्ष में कई संभावनाएं हैं। आज ब्लॉगिंग ने मीडिया औऱ टेलीविजन आलोचना के लिए जितना बड़ा स्पेस तैयार किया है उतना शायद ही अखबारों औऱ किताबों के जरिए हुआ होगा। रवीश कुमार इस पेशे से जुड़कर भी मीडिया और टेलीविजन की सीमा औऱ संभावनाओं पर लगातार बात कर रहे हैं,उन्हें टीवी अखबार लगने लगा है। बड़े स्तर पर नास्टॉलजिक राइटिंग की जा रही है,स्ट्रैटजी के साथ लेखन किया जा रहा है, रविरतलामी जैसे लोग भाषा-प्रौद्योगिकी का पाठ तैयार कर रहे हैं,उस पर आप बात ही नहीं कर रहे। हमें भाषा को इसी सिरे से पकड़ने की जरुरत है कि इन संदर्भों के बीच ब्लॉग की भाषा किस रुप में निर्मित हो रही है?
साइंस की भाषा पर बात करने के लिए अरविंद मिश्रा को आमंत्रित किया गया है। उऩके बारे में फुरसतिया ने लिखा कि-अरविन्दजी ने अपने ब्लाग का प्रचार किया केवल कि हमारे साइंस ब्लाग में ये किया जा रहा है, वो किया जा रहा है। मैं फुरसतिया के'प्रचार'शब्द से असहमति जताते हुए कहूंगा कि अरविंदमिश्रा ने ये बात विस्तार से बताने की कोशिश की कि विज्ञान की दुनिया में जो कुछ भी नया चल रहा है हिन्दी में वो साइंस ब्लॉग में मौजूद है। ये बात काफी हद तक सही भी है कि हिन्दी में साइंस पर का लेखन बहुत कम दिखाई देते हैं। हां इस लेखन की चर्चा करते हुए अरविंद मिश्रा ने बाकी ब्लॉगरों के नाम लेने के वाबजूद लगभग सारे उदाहरण अपने साइंस ब्लॉग से दिए। गिरिजेश राव बोल रहे थे कि मैं अपने खोए हुए रिकार्डर की ताकीद में ऑफिस के लोगों से बीतचीत में उलझ गया और वापस आने पर संतोष की ओर से मेरे लिए की गयी व्यक्तिगत टिप्पणी को लेकर उत्तेजित औऱ परेशान हो गया। विपिन की बात को मैं सुन नहीं पाया इसके लिए माफ करेंगे। आप वहां मौजूद ब्लॉगरों से अपील है कि इनके साथ जो छूट गए हैं उनकी बात कमेंट कर दें ताकि हम उन्हें भी पोस्ट में शामिल कर सकें। इस पूरे सत्र की अध्यक्षता प्रियंकर पालीवाल ने की और पूरे सत्र तक जमे रहे जबकि इरफान ने मंच संचालन करते हुए,अपनी खूबसूरत आवाज से हमारे भीतर चल रहे उठापटक को लगातार संतुलित करने का काम किया।

भोजन अवकाश के बाद गांव को लेकर एक किस्म की जो फैंटेसी शहर के लोगों के बीच होती है और शहरी मानसिकता पनपनी शुरु होती है,इस गंभीर सच की थीम पर बनी फिल्म सरपत की स्क्रीनिंग की गयी। अभय तिवारी ने इस फिल्म के जरिए गांव को एक परिभाषा में बदल दिए जाने की कवायद को शिद्दत के साथ देखने की कोशिश की है। 18 मिनट की इस फिल्म के दिखाए जाने के बाद चिट्ठाकारीः तकनीकी पक्ष का सत्र शुरु होता है।

दोनों दिनों के कुल सत्रों को अगर हम मिलाकर तुलना करें तो ये सबसे ज्यादा गंभीर सत्र रहा। ये अलग बात है कि इस सत्र के हिस्से मैं मैं स्वयं 15 मिनट के लिए एजी ऑफिस के पास जूस पीने चला गया,यशवंत सिविल लाइन्स के लिए रिक्शा खोजने निकले,मनीषा चायवाले बाबा के साथ कटबहसी कर रही थी,इरफान मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया,सेमिनार की थकान,धुएं में उड़ाता गया के अंदाज में बाहर दिखे, मेरी ओर से मनीषा को दी गयी किताब भूपेन को इतनी जरुरी लगी कि बाहर फोटोकॉपी की मशीन ढूंढने में व्यस्त नजर आए,अविनाश देखते ही देखते अलोप हो गए,समरेन्द्र मामू लोग से मिलने निकल पड़े। ब्लॉगरों ने इस सत्र को ट्यूटोरियल क्लास की तरह लिया,मनो हो तो रहो नहीं तो निकल लो। लेकिन जूस पीने के बाद जब मैं अंदर आकर बैठा तो महसूस किया कि चिट्ठाकारी के नाम पर जो हम बौद्धिक बहसें कर रहे हैं,अपनी बौद्धिकता झाड़ रहे हैं,उन सबसे हटकर हम ब्लॉगरों को एक साल तक लगातार देश के अलग-अलग हिस्सों में जाकर ब्लॉग-शिविर लगाने चाहिए। क्योंकि ब्लॉगरों के नदारद होने के वाबजूद भी इस सत्र में कुर्सी लगभग भरी हुई थी। लोग चीजों को गौर से सुन रहे थे और नहीं समझ में आने पर सवाल भी कर रहे थे। हां ऐसे मौके पर अफलातून जो कि हमारे हीरो करार दिए गए,थोड़ा उन्हें बर्दाश्त करना चाहिए था और तकनीकी मसले के बीच में भावुक प्रसंग छेड़ने से अपने को रोकना चाहिए था। मंच से उनका रोना हमें अचानक से दूसरी दुनिया की तरफ खींच ले गया और मन भारी हो गया। खैर,

इस सत्र में रविरतलामी ने यूनीकोड को लेकर विस्तार से बताया,फांट को लेकर सुझाव दिए और हमें हिन्दी की वर्तनी को किस तरह से चेक करें,दिल्ली में उस सॉफ्टवेयर को कहां से खरीदें,ये सबकुछ बताया। ज्ञानदत्त पांडेय ने ब्लॉगिंग में समय प्रबंधन के महत्व और उसके तरीके को सटीक तौर पर बताया। मसिजीवी के लिखने औप पढ़ने के बीच के समय-अनुपात को समझाया। मसिजीवी ने स्टेप वाइज स्टेप ब्लॉग बनाने,नियंत्रित किए जाने और उसे जिंदा रखने के तरीकों पर चर्चा की और डेमो के जरिए इसे प्रयोग करके बताया। इस सत्र में संजय तिवारी की ओर से इंटरनेट के चालीस साल होने और उसके विविध पड़ावों से गुजरने की घटना को गंभीरता से देखने-समझने को अनिवार्य बताया। संजय तिवारी ने यह कहते हुए कि हम बुरे दौर से गुजर रहे हैं जिसे कि इन्होंने पहले सत्र में भी कहा था इसके विकल्पों की तलाश करने की प्रक्रिया पर भी अपनी बात रखी। एक ब्लॉग के बना लेने के बाद हम तीसमार खां नहीं हो जाते,हमें इंटरनेट की दुनिया को बारीकी से समझने की जरुरत है,संजय तिवारी की बात से ये पक्ष बार-बार उभरकर सामने आया। ब्लॉग-तकनीक से जुड़े करीब 8 सवालों(मेरी मौजूदगी में)के पूछे जाने और वक्ताओं की ओर से विस्तार से चर्चा किए जाने के बाद सत्र समाप्ति की औपचारिक घोषणा की जाती है। उसके बाद हिन्दी के प्रोफेसर राजेन्द्र कुमार फिर से उन सारे हिदायतों को दोहराते हैं जिसे कि नामवर सिंह ने उद्घाटन सत्र के दौरान हमें दिए थे। यहां मुझे नब्बे साल से पंडितजी नाम से मशहूर उस गोलगप्पा और चाट खिलानेवाले बाबा की याद आ जाती है,जब मैंने पांच गोलगप्पे खाने के बाद पूछा कि हो गया बाबा? बाबा ने जबाब दिया था कि जहां से शुरु किए हैं वहीं से खत्म करेंगे न बेटा। उन्होंने खट्टे पानी से खिलाना शुरु किया था,बीच में मीठा पानी,फिर घुघनी भरके,फिर दही डालकर..मैंने तभी सवाल किया था और उन्होंने वापस खट्टे पानी पर लौटने की बात की थी।


दूसरे सत्र की समाप्ति के बाद हम ब्लॉगरों को स्मृति चिन्ह और प्रशस्ति पत्र लेने के लिए बारी-बारी से मंच पर बुलाया गया। इस कार्यक्रम के सह-संयोजक सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी ने एक बार फिर से हम ब्लॉगरों के बारे में परिचय दिया। ये परिचय ब्लॉग और लिंक के परिचय से अलग था। इन दोनों के भीतर जो भी अपनी पहचान बनी थी,उससे लोगों को अवगत कराया। हमने अपनी-अपनी कमाई बटोरी और कार्यक्रम खत्म होने की घोषणा के साथ ही बाहर आए।


बाहर आकर एक अजीब किस्म की भावुकता से मैं भर गया। लग रहा था कि पता नहीं अब कब किससे मिलना हो। रवि रतलामी के साथ तस्वीर खींचावाने की इच्छा थी जो कि मैंने उन्हें पहले से ही जता दी थी। उनकी गाड़ी स्टार्ट हो चुकी थी,मुझे देखकर उन्हें मेरी बात याद आ गयी और एक-एक करके सब उतर गए। बांह में भरकर उन्होंने तस्वीर खिंचायी...और फिर सबों ने साथ-साथ। फिर विदा हुए।
इधर ब्लॉगरों की एक गैंग सीनेट हॉल में होनेवाले मुशायरे में घुसपैठ के लिए बेताब नजर आया। हम भी उनके साथ हो लिए। साढ़े नौ बजे प्रयागराज से लौटना था..लेकिन अभी छ ही बजे थे। रास्ते में मसिजीवी इस बात पर अफसोस कर रहे थे कि एक दिन और क्यों रुकना पड़ गया और मैं अफसोस कर रहा था कि मैं क्यो नहीं रुक गया? कल को कोई पूछे कि इलाहाबाद में क्या देखा तो कुछ भी नहीं बता पाउंगा।

इलाहाबाद विश्वविद्यालय देखकर आंखें चौंधिया गयी। मसिजीवी ने मेरी तस्वीरें लीं। फिर अंदर दाखिल हुए। मुशायरा शुरु हो चला था। नजर के सामने नाचता रिकार्डर,लोगों से अलग होने पर एक बाजिब किस्म की भावुकता और लंबी थकान के बीच मुशायरे ने मुझ पर कोई असर नहीं किया। मन उचट गया। उधर से अविनाश और यश मालवीय भी बाहर जाते दिखे। उन्होंने भी कहा कि मजा नहीं आया चट गए। मैंने कहा- चट गए हैं तो क्यों न फिर चाट खाने चलें। अजय ब्रह्मात्मज ने कहा था कि इलाहाबाद में चाट जरुर खाना। बिना हैलमेट के यश भाई की बाइक पर हम दोनों लग गए। नब्बे साल की पुरानी पंडितजी की चाट दूकान पहुंचने तक यश भाई की कविताओं और हाथ लहरा-लहराकर गीत गाने का सिलसिला जारी रहा- पिंजरा में देखो बोले,राम नाम टुइयां
शहरों से भलो हमरो गांव मोरी गुइयां.
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चाट खाने के बाद हम मस्त हो गए फिर विश्राम होटल तक यश भाई और उनके गीतों के साथ। होटल पहुंचने पर एक घंटे के लिए क्या शुरु किया जाए..सुनने-सुनाने का दौर? लेकिन ऐसे ही सूखा-सूखी। यश भाई ने कहा कि आपलोग यात्रा पर जा रहे हैं,आचमन करना ठीक नहीं होगा। लेकिन बीयर तो चल ही सकती है इस संकल्प के साथ..हेस्टी-टेस्टी पर धावा। आधा से ज्यादा चखना मैं ही खा गया,अदने एक सेवेन अप को पचाने के लिए। बाहर आकर यश भाई को भाभी का हवाला देकर हम उन्हें विदा होने की बात करते हैं,वो हमें स्टेशन तक छोड़ने की जिद करते हैं। फिर कई कविताओं के टुकड़े एक के बाद एक। वो कहते हैं-दुनिया पैसे कमाती है,हम कहते हैं आदमी कमाते हैं।..उनसे विदा होते वक्त मेरी आंखों के कोर भींग जाते हैं।
वापस आकर दस मिनट के भीतर समान समेटते हैं,समरेन्द्र भाई के दोस्त की गाड़ी पर लदते हैं और फिर इलाहाबाद स्टेशन। तीन थाली पैक कराकर फिर प्रयागराज के भीतर। बातचीत का दौर,आसपास की लड़कियों से थोड़ा भी सट जाने पर टोका-टोकी का दौर शुरु। हम बातें करना चाहते हैं लोग सोना चाहते हैं। हम ठहाके लगाना चाहते हैं,वो खर्राटे लगाने लग जाते हैं। हम तीनों ट्वॉयलेट के पास खड़े होकर देर रात तक बातें करते हैं। रेलवे के कर्मचारी के साथ गप्पें मारते हैं और फिर वापस आकर अपने-अपने बिस्तर में दुबक जाते हैं।
अपने हॉस्टल के कमरे के सामने पांच अखबार पड़े हैं। ओह..आज तो संडे है,तभी तो पांच अखबार। इन चार दिनों में दिल्ली में क्या हुआ,नहीं मालूम,हॉस्टल में क्या हुआ नहीं पता..तब से लेकर अब तक तो इस पोस्ट को लेकर ही भिड़ा रहा।..पुरानी दुनिया में वापस।।।..आगे ब्लॉगिंग की दुनिया में इस संगोष्ठी से निकलकर आए सवालों पर विमर्श जारी रहेगा।

डिस्क्लेमर- ये रिपोर्ट पूरी तरह स्मृति पर आधारित हैं। नोट की गयी फाइल अचानक सिस्टम के बंद हो जाने से सेव नहीं हो पायी। ऐसे में जरुरी नहीं कि वक्ता के शब्दशः प्रयोग यहां पर मौजूद हों लेकिन कोशिश है उन संदर्भों और भावों की जो कि वो व्यक्त करना चाह रहे थे। वाबजूद इसके अगर कहीं कोई गलती और अलग अर्थ प्रेषित हो रहे हों तो आप सबसे,खासकर वहां मौजूद ब्लॉगरों से अनुरोध है कि आप कमेंट करें जिसे पढ़कर हम तत्काल दुरुस्त कर देंगे।
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इलाहाबाद में ब्लॉग मंथन शुरु

Posted On 8:06 pm by विनीत कुमार | 36 comments




अचानक पाबंदियों के टूटने से भी दम घुटने लगता है,अनंत आजादी कई बार अराजक स्थिति पैदा करते हैं। इसलिए चिट्ठाकारी पर जब भी हम बात करते हैं तो स्वतंत्रता और स्वच्छंदता के बीच के फर्क को समझना होगा। चिट्ठाकारी में जो कुछ भी कर रहे हैं उसके साथ हर हाल में जिम्मेदारी का एहसास भी होना चाहिए। आदमी जब बोलता है तो कुछ भी बक देता है लेकिन लिखते वक्त हम ऐसा नहीं कर सकते। बोलने से जीभ नहीं कटती लेकिन लिखने से हाथ कट जाता है। हमें ये बात नहीं भूलनी चाहिए कि आजाद अभिव्यक्ति के नाम पर जो कुछ भी चिट्ठाकारी की दुनिया में लिखा जा रहा है,इसके बीच एक स्टेट मशीनरी भी है। आनेवाले समय में ये राज्य लिखने के मामले में दखल करे इससे पहले ही चिठ्ठाकारों को चाहिए की वो अपनी जिम्मेदारी को समझते हुए स्वयं अनुशासित हों। इलाहाबाद में चिठ्ठाकारी की दुनिया विषय पर आयोजित दो दिनों की राष्ट्रीय संगोष्ठी का उद्घाटन करते हुए नामवर सिंह ने ब्लॉगिंग को आजादी की अनंत दुनिया मानकर सिलेब्रेट करनेवाले ब्लॉगर समाज को इस पक्ष से भी सोचना जरुरी बताया। नामवर ने इस मौके पर इस शहर को ऐतिहासिक करार दिया कि कभी इसी शहर से हिन्दी के आंदोलन की शुरुआत हुई थी और आज फिर इसी शहर ने हिन्दी के नए रुप चिठ्ठाकारिता पर पहली बार राष्ट्रीय स्तर की संगोष्ठी आयोजित की है। नामवर सिंह की ही बात को आगे बढ़ाते हुए महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के कुलपति विभूति नारायण राय ने कहा कि-हमें पता है कि जब स्टेट इस तरह के किसी भी मामले में दखल करती है तो उसका रवैया किस तरह का होता है? ऐसे मसले में ब्यूरोक्रेसी नियंत्रण के नाम पर किस तरह का व्यवहार करती है,ये सब हमें समझना होगा। उन्होंने इन्टरनेट के जरिए अपार सूचना प्रसारित किए जाने के सवाल पर कहा कि जो भी इन्फार्मेशन आ रहे हैं उनमें नॉलेज एलीमेंट कितना है,इस सिरे से भी सोचने की जरुरत है? शुरुआत में जिस तरह टेलीविजन के आने से लगा कि अखबार और पत्रिकाएं अपना महत्व खो देंगी वैसी ही चर्चा ब्लॉग के बारे में की जा रही है लेकिन ऐसा नहीं है। मंच पर आसीन लोग जब बारी-बारी से ब्लॉग के जरिए अराजक स्थिति पैदा करने की बात कर रहे थे,ऐसे में संतोष भदौरिया ने स्पष्ट किया कि इसके लिए ब्लॉगर या मॉडरेटर कम दोषी है। इसके लिए दोषी वो कुंठासुर बेनामी टिप्पणीकार जिम्मेदार हैं जो कि बेतुकी बातें करके निकल लेते हैं। अभिव्यक्ति के नाम पर अराजकता और छिछोरेपन के सवाल को पूरे दिन तक ब्लॉगर और गैर-ब्लॉगर मौके-बेमौके प्रमुखता से उठाते रहे।

प्रथम सत्र में आकादमिक मिजाज की औपचारिकता पूरे होने के बाद हिन्दी ब्लॉगिंग के गुरु कहे जानेवाले रवि रतलामी ने पॉवर प्वाइंट प्रजेंटेशन के जरिए ब्लॉग से जुड़े विविध मसलों पर अपनी बात रखी। उन्होंने ग्राफिक्स के जरिए स्पष्ट किया कि आनेवाला समय इंटरनेट का है और ब्लॉगिंग में अनंत संभावनाएं हैं। लेकिन उन्होंने ये भी स्पष्ट किया कि ब्लॉगिंग के कई तरह के नुकसान भी है और हमें इससे सतर्क रहने की जरुरत है। रवि रतलामी कल ब्लॉगिंग के तकनीकी पक्षों पर विस्तार से चर्चा करेंगे। प्रथम सत्र का एक महत्वपूर्ण पहलू रहा कि इसमें हिन्दुस्तानी एकेडमी की ओर से प्रकाशित,सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी की किताब ब्लॉग जगत का एक झरोखा सत्यार्थमित्र का लोकार्पण भी किया गया। इस किताब में उनके ब्लॉग की चुनी हुई पोस्टें शामिल हैं। इस किताब पर मशहूर ब्लॉगर ज्ञानदत्त पाण्डेय ने ब्राउसर के जरिए प्रेषित किया कि-अगर आपके पास पहले से उपलब्ध अनुभव,भाषा पर पकड़ और नैसर्गिक रुप में'कम से अधिक'अभिव्य्त करने की क्षमता नहीं है तो आप सफल ब्लॉगर नहीं हो सकते। सिद्धार्थ को हिन्दी ब्लॉगिंग में सफलता में सफलता,शंका की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ती। कुल मिलाकर ब्लॉगरों के बीच ये सत्र गैर-ब्लॉगरों की ओर से नैतिक निर्देश का एहसास कराने और सांकेतिक रुप से संस्कारित किए जाने की कोशिशों के तौर पर याद किया जाएगा।

दूसरे सत्र में विचार अभिव्यक्ति का नया आयाम पर विमर्श करने के लिए हम हिन्दुस्तानी अकादमी की बिल्डिंग से दूरस्त महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय के इलाहाबाद सेंटर पर जमा हुए।। इस सत्र में देश के अलग-अलग हिस्सों से आए करीब 35 ब्लॉगरों ने शिरकत की और इलाहाबाद के करीब 12 ब्लॉगर मौजूद थे। ब्लॉगरों के औपचारिक परिचय के दौर ने काफी समय ले लिया। शोर-शराबे के बीच इस परिचय का शायद ही बहुत लोगों को लाभ मिला होगा। खराब ऑडियो क्वालिटी, लोगों की आपसी कानाफूसी और लगातार आवाजाही के बीच विमर्श के लिए जो माहौल बनने चाहिए वो नहीं बन पाया। इसी माहौल में बारी-बारी से आज के ब्लॉगर-वक्ताओं ने अपनी बातें रखीं। इस दूसरे सत्र का संचालन फुरसतिया नाम से मशहूर ब्लॉगर अनूप शुक्ल ने किया।
पहले वक्ता के तौर पर चर्चित पोर्टल भड़ास4मीडिया के मॉडरेटर यशवंत सिंह ने ब्लॉगिंग में अभिव्यक्ति के खतरे पर बातचीत करते हुए कहा कि शुरुआत में जब भड़ास को लेकर शिकायतें आनी शुरु हुई तब हमने व्यवस्थित तरीके से भड़ास4मीडिया शुरु किया और उसके बाद गाय समझी जानेवाली मीडिया के भीतर के सफेद-स्याह को सामने लाने की कोशिशें की। बड़ी मीडिया जिस तरह से बड़ी खबरों को दबाने का काम करती है,हमारी कोशिश होती है कि हम उन पक्षों को सामने लाएं। हमें कई तरह से लोग सलाह देने का काम करते हैं किसी की इच्छाएं भली होती है तो किसी का बहुत ही खतरनाक लेकिन मेरा मानना है कि हम अगर अपना काम ईमानदारी से कर रहे हैं तो किसी भी तरह का फर्क नहीं पड़ता। यशवंत ने ब्लॉग के मॉनिटरी पहलूओं को बहस के बीच शामिल किया जाना अनिवार्य बताया। उन्होंने कहा कि पैसे पर बात करने के मामले में हिन्दी समाज पिछड़ा रहा है औऱ इस पर गंभीरता से बीत होनी चाहिए।
अभिव्यक्ति के नए माध्यम पर बात करने आयी मीनू खरे ने अपना पूरा समय ब्लॉग के इतिहास,अभिव्यक्ति के संवैधानिक प्रावधानों के वर्णन में खपा दिया। उनकी प्रस्तुति से ब्लॉग-इतिहास की एक अच्छी समझ बनने की संभावना हो सकती थी लेकिन एक तो विषय से भटक जाने औऱ दूसरा कि रवि रतलामी की ओर से पहले ही सत्र में इन सब बातों पर चर्चा कर दिए जाने की वजह से ऑडिएंस ने कोई दिलचस्पी नहीं दिखायी और कुछ भी निकलकर सामने नहीं आने सका। जबकि मीनू ने आते ही घोषणा की थी कि बात निकली है तो बहुत दूर तलक जाएगी।
बोधिसत्व ने ब्लॉग के मुद्दे पर अपनी बात रखते हुई ये स्वीकार जरुर किया कि इसके जरिए हमारे परिचय का दायरा बढ़ा है लेकिन ब्लॉग में बहस की गुंजाइश है,इस बात से वो साफ इन्कार करते हैं। उनका मानना है कि ब्लॉग बहस का प्लेटफार्म नहीं है। आप कुछ भी लिख लो,बात करना चाहो लेकिन वो कमेंट के जरिए पर्सनल छींटाकशी में उलझकर रह जाता है। इसलिए मैं संस्मरण लिखता हूं,ब्लॉग बहुत ही अघाए हुए लोगों के हाथ में फंसा हुआ नजर आता रहा है जिनके हाथ में ब्लॉग के लिए हाथ में कम से कम 1000 रुपये हैं। खिले हुए चेहरे ही अधिक शामिल होता जा रहा है। इसे मैं अच्छे दिनों को याद करने का माध्यम मानता हूं और इसे अपनी निजी डायरी के तौर पर देखता हूं।
मोहल्ला के मॉडरेटर अविनाश के ये कहने पर कि मैं अनामी टिप्पणीकारों का समर्थन करता हूं,एक तरह से पूरे सदन में हंगामा मच गया। आगे बैठे कुछ लोगों ने व्यक्तिगत तौर पर बातें करनी शुरु कर दी। उन्होंने कहा कि महौल इतनी अनौपचारिक हो जाएगी इसी उम्मीद नहीं थी। इतने वेपरवाह हो जाएंगे इसकी उम्मीद नहीं थी। यहां उद्घाटन सत्र से लेकर विषय से फोकस्ड सत्र में भी कक्षा की तरह से बात कर रहे हैं. मुझे लगता है कि बोधिसत्व ने कहा कि खाए-पीए-अघाए लोगों के बीच फंसा हुआ है,वो फंसा हुआ है भले ही लेकिन पीपुल्स का मीडियम है। ये पूंजी का माध्यम नहीं है।
हिन्दी में ब्लॉगिंग की कवायद पारिवारिक की तरह रही है। ये पीपुल्स मीडियम है,इसी हिसाब से उसे बात करनी चाहिए। सही नाम से बात करने से कई तरह की परेशानी हो सकती है। स्टेट से सुरक्षित रहते हुए अपनी बात करनी होती है। मैं बेनामी का समर्थक हूं। ट्रेडिशनल मीडिया के पास पूरे वाक्य है,उसके पास पूरा व्याकरण है। ये कानाफुसियों को दर्ज करने का माध्यम है। मैं इसमें डिक्टेट करने के पक्ष में नहीं हूं। मुद्दे की बात हो ही नहीं रही है। अविनाश ने पूरे सत्र को लेकर निराशा जाहिर करते हुए कहा कि मेरे सामने जनतंत्र डॉट कॉम के मॉडरेटर समरेन्द्र मौजूद हैं,मैं चाहता हूं वो ब्लॉगजगत के कुंठासुर पर मेरी तरफ से शुरु की गयी बातचीत को आगे बढाएं।
समरेन्द्र ने अपनी बातचीत की शुरुआत प्रथम सत्र में विद्वानों की ओर से दिए गए वक्तव्यों को शामिल करते हुए की। उन्होंने कहा कि- विभूति नारायण राय ने कहा कि जिम्मेदारी बहुत जरुरी है,राज्य जब दखल देगी तो आपलोग बहुत परेशान हो जाएंगे। सिस्टम हमेशा डराने-धमकाने का काम करते हैं। नामवर ने कहा कि आप जिम्मेदार बनिए। क्या कोई चैनल जिम्मेदार है,आम आदमी की बात करता है। दूरदर्शन के पचास साल हो गए वो भी जिम्मेदार भी नहीं बन पाया।..क्यों नहीं कहेंगे हम? क्या उंगलियां नहीं उठेगी? आम आदमी नाम के साथ नहीं आएगा। हमें जिम्मेदार बनने की हिदायतें दी जा रही है। ऐसे कई उदाहरण हैं जिससे ये साफ होता है कि बेनामी ने अगर अपनी पहचान जारी कर दी तो स्टेट और मशीनरी शिकंजे कसना शुरु कर देती है। आम ब्लॉगर के लिए ये संभव ही नहीं है कि वो ये सबकुछ झेल पाए।

समरेन्द्र की बात से असहमति जताते हुए हर्षवर्धन ने कहा कि- मैं ब्लॉगिंग को वैकल्पिक मीडिया के तरह से देख रहा हूं। अनामी दस कदम आकर जाकर लड़खड़ा जाएगा। अगर ब्लॉग व्यक्तिगत होने लग जा रहा है तो माफ कीजिए इसका मुझे कोई बहुत बड़ा भविष्य नहीं दिखता है। हम मीडिया के बीच से एक रास्ता निकालने का काम कर रहे हैं। अगर हम इस ब्लॉग को सरोकार की मीडिया बनाना चाहते हैं तो हम उसके मददगार बने। एक बड़ा माध्यम बनने वाला है और मैं इस मुहिम के साथ हूं।
कॉफी हाउस नाम से ब्लॉग चलानेवाले भूपेन ने अब तक की हुई बातचीत पर अपनी प्रतिक्रिया जाहिर करते हुए ब्लॉगिंग को थ्योराइज करने की जरुरत पर बल दिया। उन्होंने कहा कि-किस दिशा में ब्लॉग जाए इस पर बात करनी चाहिए।
अविनाश ने मॉडरेटर की जरुरत को नकारा। ब्लॉग न्यू मीडिया का हिस्सा है। मेनस्ट्रीम मीडिया का क्या हाल है ये हमसे छिपा नहीं है। इसका मालिक कौन है इस पर भी हमें सोचना होगा। इसके रिच पर हमें बाक सोचनी होगी। अगर आप आजादी की बात कर रहे हैं तो आप गलतफहमी के शिकार हैं। किसने आपको स्पेस दिया,उसके पीछे की इकॉनमी को समझना पड़ेगा। किस क्लास की ऑडिएंस है इसे भी हमें समझना है। झारखंड के लोगों के लिए डेमोक्रेसी का मतलब अलग है और दिल्ली के लोगों के लिए डेमोक्रसी का अलग मतलब है। पीपुल्स मीडिया अभी नहीं हुआ है। समरेन्द्र ने कहा कि चाइल्डहुड में है लेकिन ये तर्क सही नहीं है। ये झूठ ठूंसा हुआ है। क्या वो वाकई चाइल्डहुड में है। उन्होंने इस संदर्भ में नोम चॉमस्की का भी रेफरेंस दिया और बताया कि किस तरह से पूंजीवाद माध्यम अपने पक्ष में माहौल बनाने का काम करते हैं,हमें इस बात को हमें समझना होगा। नए मीडिया को लेकर हमेशा शक रहा है। क्या ये राष्ट्रीय ब्लॉगिंग है,इन्टरनेशनल है,इस पर समझने की जरुरत है,ट्रांसनेशनल हैं,ये समझना है। हमे इसकी ऑनरशिप पर भी बात करनी होगी। ये मीडिया के कैरेक्टर को डिफाइन करता है। हमारे राष्ट्रीय मीडिया का चरित्र क्या होगा,इस पर बात करनी चाहिए। अंत में...मॉडरेटर पूरी आजादी नहीं देनी होगी,मॉडरेटर को अपनी जिम्मेदारी लेनी होगी।

अपना घर की आभा मिश्रा ने पहले तो हताशा मगर बाद में उम्मीद जताते हुए कहा कि-लोग बहस नहीं करते,फैसले सुनाते हैं। मैं सही और तू गलत। बहस एकतरफा हो रही है.. लोग अपनी खुन्नस निकाल रहे हैं। सामनेवाले ब्लॉग की हत्या की कोशिश में लगे हैं लेकिन हमें उम्मीद है कि आनेवाला समय ऐसा नहीं होगा।
बेदखल की डायरी नाम से मशहूर ब्लॉग की संचालक मनीषा पाण्डेय ने कहा कि-खास बात कहने को बची नहीं है।
भूपेन की ही बात से कई गुत्थियां सुलझ गयी। एक हिन्दी समाज का प्रॉब्लम है। ब्लॉग में वही हो रहा है जो कि समाज में हो रहा है। जैसे घरों में बात हो रही है वैसी ही बात हो रही है। हमारी लड़ाई रचनात्मक होनी चाहिए। अच्छे इरादे होनी चाहिए. अभिव्कयक्ति के स्तर पर कई तरह की गहराई होनी चाहिए। सही इरादों से विरोध होने चाहिए जिससे कि कुछ लोगों की जुबान चुप हो सकें।..

अनामी को लेकर मसीजीवी नाम से मशहूर ब्लॉगर विजेन्द्र सिंह चौहान ने अपना खुला समर्थन दिया। उन्होंने कहा कि-भूपेन ने जो सैद्धांतिक पृष्ठभूमि की बात की है उस पर बात करना जरुरी है। सैद्धांतिक आधार का होना अनिवार्य है। इससे पहले कि हमारे लिए कोई और सिद्धांत गढ़ने लगे इससे पहले जरुरी है कि हम खुद ही सिद्धांत गढ़ लें। बेनामी से बाहर जाकर सिद्धांत नहीं गढ़े जा सकते। मैंने भी इन गालियों को झेला है लेकिन फिर भी ब्लॉगिंग की परिभाषा में ये निहित है कि हम उसे शामिल है। बेनामी को जब हम बहिष्कृत कर देगें तो शिकंजा हमारा गले में हैं। कौन होता है बेनामी- सबसे बड़ा कारण स्वयं से डर। हम लगातार पॉलिटिकली करेक्ट होने का दावा झूठा करते हैं। एक भी मर्द नहीं है जो स्वीकार करे कि हम अपनी पत्नी को पीटते हैं। दूसरी बात,हम मानें या न माने लेकिन ये अर्थतंत्र हैं,हम इससे कमाएं या नहीं लेकिन हम कंटेट को कॉमोडिटी बनाते हैं। वो खरीदा जा रहा है बेचा जा रहा है। इंटरनेट पर जाकर हमारी पोस्ट प्रोडक्ट बन जाती है। तीसरा,हमने अब तक की सारी लड़ाइयां इकठ्ठे होकर लड़ी हैं। इस नयी व्यवस्था में इन्डीविजुअलिटी को सिलेब्रेट किया जा रहा है। जैसे ही हम ब्लॉगिंग को ब्लॉगिंग के नहीं रहने देने के पक्ष में जाकर खड़े हो जाते हैं,तभी तक हम राज्य की कठपुतलियों के शिकार हो जाते हैं।
मशहूर ब्लॉगर इरफान का मानना रहा कि- ब्लॉग समाज का आइना है। कोई एक स्टिकयार्ड नहीं हो सकता है,हर को अपनी बात कहने की आजादी है।. आखिरकार एक रचना एक प्रयास की मांग करता है। सिर्फ वर्णमाला औऱ वाक्य रचना को जानकर आप लेखक नहीं बन सकते। बहुत दिलचस्प माध्यम है जिसमें मल्टीमीडिया का इस्तेमाल होता । ये अद्भुत माध्यम है। सवाल बहुत है लेकिन हम बद्ध होकर,व्यवस्थित तरीके से बात नहीं कर रहे हैं। सहारा चैनल के मालिक को सारा जगत सहारा लगने लगा है। छूकर मेरे दिल को किया तूने क्या इशारा, बदला ये मौसम लगे सहारा जग सारा,ये गीत गाते हैं।
क्यों बंद किया गाने को अपलोड़ करने का काम टूटी हुई बिखरी हुई पर?मैं दूसरे के मजे के लिए अपने अर्काइव नहीं उपलब्ध करा सकता। लोग टीप करके अपनी बात कर देते। मेरे एक लोड़ किए गए गाने को 16 हजार लोगों ने डाउनलोड किया। सस्ता शेर की शायरी को उठा-उठाकर मोबाईल कंपनियां एसएमएस जोक बनाकर बाजार में बेच रही है। हम इस तरह अपने ह्यूमन पॉवर को क्यों जाया होने दें? मेरे पास एक रफ आइडिया है चेक करने के,आत्म नियंत्रण के समय मिला तो कल इसकी विस्तार से चर्चा करुंगा।
अफलातून ने खुले अंदाज में अपनी बात रखते हुए कहा कि- खुले विश्व के बंद होत दरवाजे- हिन्दुस्तान में मैंने एक लेख लिखा। कल हमसे सवाल-जबाब किए जाएंगे कि कहां से पैसा आ रहा है। विदेशों में ये काम शुरु हो गयी है। एक अंश में हम आत्म-मुग्धता के शिकार हैं। मसिजीवी ने जो पर्सनल होने की बात कही है,ये बहुत खतरनाक बात है। इमरजेंस एक ग्रंथ है इंटरनेट और चीतों को लेकर अध्ययन पक्षियों को लेकर जो व्यवहार है,वही व्यवहार है इंटरनेट की दुनिया में।। चींटे का व्यवहार और झुण्ड का व्यवहार वैसे ही इन्टरनेट पर एक प्रयोक्ता का व्यवहार है। हमें सही दिशा में बातों को ले जाएं ये बहुत जरुरी है। इ-स्वामी, इ-पंडित की चर्चा इन्होंने भी अनामी थे...हमें इनके योगदान को भी नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। बेनामी टिप्पणियां अगर सकारात्मक तौर पर हो तो फिर उसमें क्या आपत्ति हो सकती है। अभी ब्लॉगिंग हम कोई क्रांतिकारी नजरिया नहीं आ रहा है। टेक्नीकली सीख लिए और निपट दिए। जरुरी है कि एक सामूहिक घोषणा जारी हो..इलाहाबाद से एक घोषणा जारी हो। वीकीपीडिया में योगदान करने की जरुरत है। इसे हिन्दू वीकीपिडिया या मुस्लिम वीकिपीडिया नहीं बनने दें। हमें जिम्मेदारी तो हर हाल में निभानी होगी।
अब ब्लॉग पर कायदें की बहसें नहीं होती। जब तक पहुंचता हूं तब तक धूल उड़ती नजर आती है। मेरे ब्लॉग पर ऐसा कुछ नहीं होता कि बेनामी कमेंट किए जाएं लेकिन करते हैं और भद्दे तरीके से करते हैं। ब्लॉगिंग ने भाषा का कोई नया मुहावरा नहीं रचा है। अजीत वडनेरकर को आज ही गाड़ी से दिल्ली जाना था इसलिए उन्होंने बहुत ही संक्षेप में अपनी बात रखते हुए संभावनाओं की तरह बढ़ने पर जोर दिया।
कलकत्ता से आए प्रियंकर ने कहा कि- मैं बेनामी पर कहना चाहूंगा। किसी से हर समय नाम की उम्मीद करना सही नहीं है। ये अतिरिक्त मांग है। पचास प्रतिशत यानी आधे ब्लॉगर्स को एक जन्म और लेना पड़ेगा अनामदास,सृजनशिल्पी,ई-स्वामी और घुघूती बासुती जैसा लिखने के लिए ये अपनी पहचान नहीं बताना चाहते तो क्या दिक्कत है? इन्होंने बहुत ही बेहतर तरीके से लिखा है। बेनामी कोई बहुत बड़ा मुद्दा नहीं है। असल चीज है कि कंटेंट पर बात होनी चाहिए। अगर वो छद्म नाम से लिखते हों तो क्या दिक्कत है।
ब्लॉगरों के अतिरिक्त इस सत्र में इसी विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग से एम.फिल कर रही एक स्टूडेंट उमा साह ने बताया कि उसने ब्लॉग की भाषा पर रिसर्च किया है और वो इस नाते अपनी बात रखना चाहती है। उन्होंने कहा कि ब्लॉग में अभी भी किसी भी तरह की सेंसरशिप नहीं है इसलिए इसमें मुख्यधारा की मीडिया से बहुत आगे जाने की गुंजाइश है और इसे भी हमें चौथे खंभे के तौर पर विकसित किए जाने चाहिए।
अलग-अलग मौके पर उठापटक के बीच ये सत्र यहीं समाप्त होता है। रातभर की यात्रा की वजह से बुरी तरह थका हूं। कल ब्लॉगःभाषा और संप्रेषणीयता के सवाल पर मुझे अपनी बात रखनी है। आपसे माफी मांगते हुए कि मैंने कई जगह बिना बारीकी से पढ़ते हुए सत्र के दौरान टाइप की गई लाइनों को चस्पा दिया है। आप उन्हें सुधारकर पढ़ लेंगे। मैं और मेहनत करने की स्थिति में बिल्कुल नहीं हूं। इन सबके बीच दुखद पहलू है कि जिस डिजिटल रिकार्डर से मैं अब तक आपके लिए संगोष्ठियों के ऑडियो वर्जन उपलब्ध कराता रहा वो सभागार की डेस्क पर से सत्र खत्म होने के साथ ही गायब हो गया। एक भावनात्मक जुड़ाव और आर्थिक क्षति की वजह से परेशान हूं। मूड़ खराब है,खुश होने के लिए इतना है कि इलाहाबाद में खाने की व्यवस्था बड़ी दुरुस्त है,मेरे हॉस्टल मेस से कई गुना बेहतर।..
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महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय की ओर से चिठ्ठाकारी की दुनिया पर दो दिनों की आयोजित(अक्टू 23-24)की जानेवाली राष्ट्रीय संगोष्ठी में शामिल होनेवाले ब्लॉगरों की सूची इलाहाबाद के आयोजकों की ओर से भेजी गयी है। ये सूची फोटो फार्मेट में है जिसे कि समय की कमी की वजह से हम स्कैन करके लगा दे रहे हैं। मेरी इच्छा थी की सभी ब्लॉगरों के ब्लॉग लिंक भी साथ में डाल दें ताकि आप एक नजर में उनके ब्लॉग को भी देख सकें। लेकिन हमें खुद भी पैकिंग करनी है और समय भी कम है इसलिए माफ करेंगे,हम ऐसा नहीं कर पा रहे हैं। इंटरनेट ने साथ दिया तो हम इलाहाबाद से ही लाइव ब्लॉगिंग करते रहेंगे जिससे कि आपको वहां होनेवाले विमर्शों की खबर तत्काल मिलती रहे।.
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हम जैसे हजारों ब्लॉगर जो कि महीनों-सालों से कीबोर्ड पर किचिर-पिचिर करते आ रहे हैं, जो कि बौद्धिक समाज के लिए लेखन के नाम पर गंध फैलाने का काम है, आज उसे देश के एक अकादमिक संस्थान ने हिंदी की सेवा करने का नाम दिया है। कल से इलाहाबाद में महात्मा गांधी अंतर्राष्‍ट्रीय विश्वविद्यालय की ओर से हिंदी चिट्ठाकारी की दुनिया पर आयोजित दो दिनों की (23-24 अक्टूबर) होनेवाली राष्ट्रीय संगोष्ठी का मेल के जरिये जो हमें न्योता मिला है, उसमें लिखा एक वाक्य है कि – इस आयोजन की सफलता ब्‍लॉग लेखन के माध्यम से हिंदी की सेवा कर रहे आप जैसे सक्रिय चिट्ठाकारों की सहभागिता पर निर्भर करती है। इस एक लाइन को पढ़कर थोड़ा इमोशनल हो गया और कुछ लाइनें लिख मारी है। आप भी पढ़ें और अपनी राय दें-

वैसे तो मेरी तरह हिंदी ब्लॉग समाज का शायद ही कोई ब्लॉगर हो जो कि अपने ऊपर किसी भी तरह के धर्मार्थ का लेबल लगाये जाने का मोहताज रहा है, इस मुगालते में जी रहा हो कि दिनभर खटने के बाद घंटे-आध घंटे के लिए जो कीबोर्ड खटखटाने का काम कर रहा है, उसके बूते उसे हिंदीसेवी होने का तमगा मिल जाए लेकिन हमारे इस काम को अगर कोई सेवा का नाम दे रहा है तो इसे हम घलुए में मिली हुई चीज़ मानकर थोड़ी देर के लिए तो ज़रूर खुश हो सकते हैं। सच कहूं, हम अब भी यही मानते हैं कि हमने कभी भी इस एजेंडे के तहत नहीं लिखना शुरू किया कि हम कोई सेवा का काम करने जा रहे हैं। बल्कि हमने तो सिर्फ इसलिए लिखना शुरू किया कि लिखते नहीं तो और क्या करते? मूंछ उगने के बाद से सात-आठ साल तक साहित्य और मीडिया के जरिये जिन भावों, शब्दों, अनुभूतियों और स्थितियों को जाना-समझा, उसे कहां फेंक आते। जिस बात को कभी मजाक में कहता रहा कि कब तक हम दूसरों का लिखा पढ़ते रहेंगे, उसे आज शिद्दत से महसूस करता हूं। हिंदी में रहकर सिर्फ लिख कर तो लेखक होने से रहे। फिर हम जैसे लफुआ की बात को छापनेवाला कौन सा कोई प्रकाशक मिल जाएगा? न्यूज रूम में हमारे साथ जो भी हुआ, अभावग्रस्त बचपन, नकारे हुए टीन एज और पानी खाती जाती जवानी जो बाकी साथियों के साथ अब भी जारी है, उसकी भड़ास लिखकर नहीं निकालते तो और क्या करते। अपने को नैतिक न भी मानें तो हम उस हैसियत तक कब तक पहुंचते कि रंगीन पानी पीकर बकना शुरू कर देते और फिर उस पर बौद्धिकता का मुलम्‍मा चढ़ाने में कामायाब हो जाते, हम कब उतना बड़ा कद हासिल करते कि नामी बनिया का मैल भी बिकता है के तहत लिखे जानेवाले साहित्य को अनर्गल करार देते। यकीन मानिए, तब तक तो हम बुढ़ा जाते। इसलिए हमने कभी भी कागजों पर अपनी हिस्सेदारी की मांग नहीं की। अलाय-बलाय (उल्टी-सीधी) लिख-छापकर नामचीन लोग महान होने के दावे करते रहे, हमने कभी भी उसका प्रतिकार नहीं किया। हम उनके महान होने में कभी भी अड़चन बनकर सामने नहीं आये। हमने बस इतना किया कि किसी तरह से काट-कपटकर पैसे जमा किये, लिखने का औज़ार ख़रीदा और अब पान-बीड़ी की लत न पालकर, मुंह में लेई लगाकर महीने में सात सौ-आठ सौ रुपये इंटरनेट का बिल भर रहे हैं और अपने एक-एक एहसासों को कंप्‍यूटर की कुंजियों पर पटकते जा रहे हैं। इसे आप हमारी कुंठा कहिए, फ्रस्ट्रेशन कहिए, बौड़ाहापन कहिए… जो जी में आये कहिए, न जी में आये मत कहिए।

ब्लॉगिंग करते हुए हमने कभी नहीं सोचा कि हम कोई गंभीर काम कर रहे हैं। वैसे भी अपने छुटपन को याद करना, मां की यादों में नास्टॉल्जिक हो जाना, हिंदी समाज पर लिखना और फिर जूते खाना, मीडिया संस्थानों की कमज़ोर नब्ज पर लिखकर धमकियां झेलना, ऑफिस में आप बलत्कार करते हैं या फिर सुहागरात मनाते हैं – पुरुष समाज से एक स्त्री का सवाल करना और प्राइम टाइम में आनेवाले एंकर का टेलीविजन को खुद ही गोबर का पहाड़ बताना… ये सब बौद्धिक समाज के लिए कब से गंभीर काम होने लगा? हमारे भाषाई स्तर के बेहयापन (जिसे कि अभी-अभी चैट बॉक्स पर अजय ब्रह्मात्मज ने कहा कि हम दो जुबान के लोग नहीं है, लिखने और बोलने के अलग-अलग) ने हमें बौद्धिक समाज के आगे और नीचा गिरा दिया। हमने चपर-चपर करना नहीं छोड़ा और सभ्य कहलाने से रह गये। हम भाषा के स्तर पर मोहल्लेपन के शिकार हो गये। हम चौराहे पर की जुबान में लिखने लग गये, इसलिए उनके बीच लील लिये गये। अब हवन जैसे पवित्र काम में जसधारी लोग एक-एक मुठ्ठी होम डालते हैं, वैसे ही सब कूड़ा है सब कूड़ा है कहते हुए इस समाज ने हमारे ऊपर लानते-मलानतें डाली। हम और कूड़ा लिखने लग गये। इस भाषाई कूड़ापन के बीच हमारे अनुभव, तेवर, समझ, खरा-खरा और सच्चापन दब गये। एक शब्द और वाक्य को पकड़कर ऐसे बैठ गये कि करतल ध्वनि से हमें वाहियात, बेकार, बकवास करार देने में बहुत अधिक मेहनत नहीं करनी पड़ी।

लेकिन, जब आयोजकों की ओर से हमें प्रस्तावित विषय भेजे गये तो हमें ही नहीं शायद औरों को भी ताज्जुब हो रहा होगा कि क्या हमने रोज़मर्रा की किचिर-पिचिर के बीच सोचने और विचार करने के इतने संदर्भ बिंदु पैदा कर दिये? यक़ीन न हो तो आप ही देखिए न कि किस तरह से ये प्रस्तावित विषय सूची इस बात का इशारा करती है कि देश के औसत समझ के पढ़े-लिखे लोगों ने सिर्फ पांच-छह सालों में विमर्श के इतने आधार खड़े कर दिये कि इस पर महीनों बहस चल सकती है।

1. हिंदी चिट्ठाकारी : इतिहास, स्वरूप और तकनीक
2. अंतर्जाल पर हिंदी भाषा : कुशल प्रयोग के औजार, ब्‍लॉग बनाने की तकनीक और प्रबंधन
3. हिंदी चिट्ठाकारी पर बहस के मुद्दे
4. चिट्ठाकारी की भाषा बनाम संप्रेषणीयता
5. अंतर्जाल पर हिंदी साहित्य और पठनीयता
6. चिट्ठाकारी : समय प्रबंधन एवं उपादेयता
7. अभिव्यक्ति की उन्मुक्तता एवं इसमें निहित खतरे
8. ब्‍लॉग जगत के कुंठासुर/बेनामी या छद्मनामी टिप्पणीकार।

और अंत में, देर रात संतोष भदौरिया ने फोन करके बताया कि हमने टिकट मेल कर दी है, तो अपने उतावलेपन का शिकार होते हुए पूछ बैठा – और कौन-कौन आ रहे हैं सर? वो प्रदेश के क्रम से गिनाने लग गये। दिल्ली से अविनाश, मसिजीवी, यशवंत, समरेंद्र, रियाज़ुल हक़, इरफान, भोपाल से मनीषा पांडे, मुंबई से यूनुस खान, कानपुर से अनूप शुक्ल… तभी मैंने कहा – रुकिए सर मैं एक-एक करके नोट करता हूं। तब उन्होंने इस वायदे के साथ कि कल वो ऑफिस पहुंचते ही पूरी सूची मेल करेंगे, कहा कि हम चाहते हैं कि पूरी बातचीत बिना किसी औपचारिकता के हो। अभी-अभी पोस्ट लिखते समय जानकारी मिली है कि इस चिट्ठाकारी की दुनिया पर विमर्श के लिए नामवर सिंह स्टार एपियरेंस के तौर पर मौजूद होंगे। हम इस संकेत को किस रूप में लें कि अकादमिक संस्थान भी अगर ब्लॉग पर विमर्श के लिए अपने को तैयार कर रहा है और वो भी बिना औपचारिक हुए तो इसका मतलब ये है कि वो हिंदी में ज्ञान पैदा करने के लिए ब्लॉगिंग को अनिवार्य मानने लग गया है या फिर अब तक हमने जो कुछ लिखा उसे सामूहिक तौर पर मथकर वैचारिकी की एक नयी दुनिया की तलाश करना चाहता है… क्या ये इस बात का संकेत है कि आनेवाले समय में ज्ञान की खिड़कियां इनफॉर्मल राइटिंग और बौद्धिक चिंतन के बीच में जाकर खुलेगी और पढ़ने-पढ़ाने का एक नये किस्म का फ्यूजन वर्ल्ड पैदा होगा। आप क्या सोचते हैं, कुछ हमें भी तो बताएं।
मूलतः प्रकाशित- मोहल्लालाइव
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डीडीडीएलएज यानी दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे,मां के साथ देखी गयी मेरी आखिरी फिल्म। आज इस फिल्म के रिलीज हुए चौदह साल हो गए। इस फिल्म के बहाने अगर हम पिछले चौदह साल को देखना-समझना चाहें तो कितना कुछ बदल गया,कितनी यादें,कितनी बातें,बस यों समझिए कि अपने सीने में संस्मरणों का एक पूरा का पूरा पैकेज दबाए इस दिल्ली शहर में जद्दोजहद की जिंदगी खेप रहे हैं। पर्सनली इसे मैं अपनी लाइफ का टर्निंग प्वाइंट मानता हूं।
मां के साथ देखी गयी ये आखिरी फिल्म थी जिसे कि मैंने रत्तीभर भी इन्ज्वॉय नहीं किया। आमतौर पर जिस भी सिनेमा को मैंने मां के साथ देखा उसमें सिनेमा के कथानक से सटकर ही मां के साथ के संस्मरण एक-दूसरे के समानांतर याद आते हैं। कई बार तो मां के साथ की यादें इतनी हावी हो जाया करतीं हैं कि सिनेमा की कहानी धुंधली पड़ जाती है लेकिन डीडीएलजे के साथ मामला दूसरा ही बनता है। इतनी अच्छी फिल्म जिसे कि मैंने बाद में महसूस किया,मां के साथ देखने के दौरान मैंने तब तीन बार कहा था-चलो न मां,बुरी तरह चट रहे हैं। वो बार-बार कहती कि अब एतना तरद्दुत करके,पैसा लगाके आए हैं त बीच में कैसे उठ के चल जाएं और जब शंभूआ को पता चलेगा कि चाची के चक्कर में टिकट के लिए बुशट फडवा दिए और उ है कि बीचै में चल आई उठकर त क्या सोचेगा,बढ़िया नय लग रहा है त आंख मूंदकर सुस्ता लो हीये पर? सिनेमा में सिमरन और राज के बीच टूर के दौरान जो भी लीला-कीर्तन हो रहा था,ये सब मां को भी अच्छा नहीं लग रहा था लेकिन उसके बाद वो ऐसे रम गयी कि एक बार मेरी तरफ ताकना भी जरुरी नहीं समझा। हम थे कि कूदकर सिनेमा हॉल से भागना चाह रहे थे। हमारे लिए ये सिनेमा जले पर नमक छिड़कने जैसा था जिसकी जलन को मां के शब्दों में परपराना कहते हैं।
सिनेमा रिलीज होने के दो दिन पहले हमलोग सात दिनों की ट्रिप से झारखंड के अलग-अलग जगहों से घूमकर वापस लौटे थे। पूरे स्कूली जीवन में मेरी ये पहली और आखिरी ट्रिप थी। इसके पहले भी बाकी लोग गए थे लेकिन मैं नहीं गया था। सबने हमें मनाया कि तुम्हें चलना ही होगा,तुम रहोगे तो टीचर लोग भी मान जाएंगे। बोर्ड परीक्षा के पहले स्कूल में ही प्रीबोर्ड की परीक्षा खत्म हुई थी। उसके बाद हमलोगों ने टीचरों को ठेल-ठेलकर कहा था कि सर अब तो हमलोग हमेशा के लिए आपलोगों से अलग हो रहे हैं,हमारी क्यों न हमलोग कुछ दिनों के लिए साथ बाहर घूमने जाएं? लेकिन टीचरों के पहले हमें क्लास की लड़कियों को सेंटी करना था जो कि आसान काम नहीं था। शुरुआत मैंने ही की-अब कौन किससे मिलेगा वर्षा,मोनालिसा,शैली,मनीषा,कनिका,सुजाता..अपनी यादें बनी रहे,चलो न एक बार।.और वैसे भी तुमलोग साइंस पढोगी,संभव है एक ही जगह जाओ लेकिन मुझे तो आर्ट्स की पढ़ाई करनी है,लिटरेचर,समझ रही हो न। फिर हमलोगों ने एक-दूसरे की गर्लफ्रैंड को कन्विंस करना शुरु किया। देखो-राजकमल के साथ ये तुम्हारा आखिरी मौका है,चल लो न। फिर पता नहीं तुम पटना और वो कोटा। मामला जम गया। अब बारी टीचरों की थी जिसका जिम्मा कन्विंस हो चुकी लड़कियों पर था। चलिए न मैम,इतने सारे लड़कों के बीच हमलोग सेप फी नहीं करेंगे.. सर,प्लीज और अंत में चार मैम के मान जाने पर सात टीचर भी मान गए।
सात दिनों तक हमलोग क्लास की 18 लड़कियों और 27 लड़कों एक साथ रहे। साथ में घूमना,एक-दूसरे पर कमेंट करना। पहली बार किसी लड़की का हाथ पकड़कर बनफुटकुन खोजने के बहाने झाडियों में घुसे,पहली बार चलते-चलते किसी के शू-शू आने पर कहां,हम यहां खड़े हैं कोई नहीं आएगा..जाओ कहा। पहली बार किसी लड़की के हाथ छू जाने से झुरझुरी होती है महसूस किया। पहली बार ये बयान सुना कि किस करते समय लड़कियां आंखें इसलिए बंद कर लेती है कि वो सुंदर चीजें देखना पसंद नहीं करती। टीनएज की कई बेतुकी बातें,लड़कियों से दूसरों के बहाने अपने मन की बातें धर देने की कला,सबकी आजमाइश इन सात दिनों में हमने की।जिस लड़की को हमारा दोस्त पसंद करता उसके सामने तारीफों के पुल बांध देना कि फलां तो जीनियस है,मैंने केमेस्ट्री तो श्रवण के नोट्स पढ़कर समझा है,अतुल की इंग्लिश है माइ गॉड। मामला एकतरफा ही था इसलिए हमें किसी भी लड़की की तारीफ करने की जरुरत महसूस नहीं हुई। हम जैसे कुछ लोग फ्लोटेड आशिक थे जो कि आजमा रहे थे कि कहां मामला सेट हो सकता है इसलिए औरों के मुकाबले ज्यादा चौकस रहते। कसप,बसंती,सूरज का सातवां घोड़ा,गुनाहो का देवता,पचपन खंभे लाल दीवारों के चरित्रों के टुकड़े को जहां से मन किया वहां उठाकर इन सात दिनों में जीना शुरु कर दिया लेकिन तब हमें कहां पता था कि हमारा ये जीना हिन्दी के महान उपन्यासों का क्रफ्ट का हिस्सा है।
सात दिनों के बाद जब हम अपने शहर बिहारशरीफ लौटे तो ऐसा लग रहा था कि हम सबों के भीतर से कुछ निकालकर करुणाबाग वाले चौराहे पर लाकर पटक दिया हो। तीन बजे रात हम अपने एक दोस्त के घर रुक गए और फिर अगले दिन से लेकर चार दिनों तक बस ट्रिप की ही चर्चा करते रहे. किसी को भी पढञाई में मन नहीं लग रहा था,सब खोए-खोए से,न भूख लगती,न प्यास। मां कहती- हमको जैसे ही पता चला कि लड़की लोग भी जा रही है तबहीए समझ गए थे कि हुआं से जब लौटेगा तो सनककर लौटेगा। मेरे दोस्त दिनभर में चार बार मेरे घर का चक्कर लगाते- आंटी विनीत है,मां कहती-आजकल घर में रहता कहां है? कुछ काम था? वो कहता-नहीं बस मन नहीं लग रहा था सो चले आए? मां भड़क जाती,दू महीना बाद बोर्ड परीक्षा है औ तुम सबको नय मन लगने का बेमारी एके साथ लग गया है,उसका भी नय मन लग रहा था त सुजीत के यहां गया है? हम इन दिनों जब भी मिलते,कभी पढ़ाई की बातें नहीं करते। हम सारे सातों-आठों दोस्त जो कि जुबानी थ्योरम प्रूव करते,अब एक-दूसरे से सवाल करते- बता न विद्या-हम कैसे क्या करें,कैसे शिल्पी को बताएं कि तुम्हारे बिना मर जाएंगे। बोल न ज्ञान-उसके बाप को जब पता चलेगा कि राजपूत लड़का से हमरी बेटी का चक्कर है तो उसको हलाल नहीं कर देगा? बोलती है कि आइआइटी निकाल लोगे तो सोचेंगे तुम्हारे बारे-अब हम कैसे एश्योर करें। हमने तय किया था कि ट्रिप से लौटकर सेट्स बनाएंगे लेकिन छ दिन हो गए,हमने किताब को हाथ तक नहीं लगाया। सबों के घर के लोग परेशान थे कि इन पढ़ने-लिखनेवाले लड़के को क्या हो गया? सबसे ज्यादा हैरानी मुझे लेकर थी,घरवालों को और दोस्तों को भी। वो कहते कि स्साला तुझे तो किसी पर्टिकुलर लड़की के साथ कुछ नहीं हुआ है फिर हमलोगों के सात काहे सेंटिया रहे हो? घरवाले उस लड़की के बारे में जानना चाहते लेकिन अपना तो केस ही अलग था। मैं एक ही साथ पांच-छ लड़कियों के साथ बिताए गए अलग-अलग लम्हों को याद करता,झुमरी तिलैया के बस स्टॉप पर सबसे हटकर ऑमलेट खाना,सैनिक स्कूल में जब दुनिया अस्तबल देख रही थी तो हमने कहा कि सबके सब लड़बहेर हैं,आओ इधर बैठते हैं,मैम और टीचर के बीच का..स्टिंग ऑपरेशन सब याद आता। दीदी लोग कहती-चलो,तुम्हारी इस हालत पर पापा को कोई एतराज नहीं है,अच्छा है यही हाल रहा तो फेल तो हो ही जाओगे और पापा को समझाने की भी जरुरत नहीं रहेगी कि बाप के साथ दूकान में बैठने के अलावे जवान होते बेटे के लिए और दूसरा कोई पुण्य काम नहीं है। सच में नानीघर से लौटते हुए जब पापा बिचली अड़ान के पास मिले तो हुलसकर बोले,स्कूल में रिजल्ट टंग गया है-सुजीत बता रहा था कि तुम्हारा पास होनेवाले में कहीं नाम ही नहीं है,जाओ बेग रखो और दूकान पर आ जाना,कुछ जरुरी बात करनी है। मेरे बाकी के दोस्त कहते-तुम्हारा क्या आर्ट्स पढ़ोगे बेटे,केतना भी नंबर आए,काम बन जाएगा। उपर से लड़कियों की झुंड रहेगी,ट्रिप का रहा-सहा कसर वहां पूरा हो जाएगा,फटेगी तो हम सबकी,साइंस नहीं मिला तो फिर कहीं के नहीं रहेंगे।
मेरी इसी हालत को देखकर मां हमें सिनेमा दिखाने ले गयी थी। उसे पता था कि सिनेमा का असर इस पर इतना ज्यादा होता है कि बाकी की चीजें अपने-आप भूल जाएगा। दिलचस्प है कि मां इस सिनेमा को ये समझकर देखने गयी थी कि इसमें अरेंज मैरिज को आदर्श बताया जाएगा। वो दुल्हनिया को समझ पायी लेकिन दिलवाले शब्द को इग्नोर कर गयी। मैं इस सिनेमा से अपने को जोड़ नहीं पाया। बस दो लाइन ही याद रह गयी- तूझे देखा तो ये जाना सनम,प्यार होता है दीवाना सनम। अब इधर से किधर जाएं हम,तेरी बांहों में मर जाएं हम।..मौके वे मौके हम इस लाइन को घर में दुहराते और दीदी लोग मजे लेती-दुलहन मांगे दहेज,अरे नहीं दुल्हा मांगे दुल्हनियां हा हा हा हा ...
मूड बदलने के लिए मेरी मां ने जिस दिलवाले दुल्हनियां का सहारा लिया था,मेरे दोस्तों को भी एक घड़ी के लिए वही सहारा नजर आया। तय किया गया कि जब सब अधकपारी के शिकार हुए हैं तो काहे नहीं सब एक साथ ही इलाज कराएं। मां से सिनेमा जाने के पैसे मांगे तो बिना कुछ कहे पचास का नोट पकड़ा दिया,उसे अफसोस हो रहा था कि मेरे साथ देखते समय बाहर निकलना चाह रहा था लेकिन खुश भी थी कि चलो इसी बहाने कुछ सुमति जगे।
अबकी बार हम सिनेमा से पूरी तरह बंध गए। एक-एक सीन जैसे फातमा डॉक्टर की दवाई की फक्की के तौर पर लगने लगा। संवाद,सिचुएशन,गानों से ऐसे जुड़े कि लगा कि हमारे सात दिनों की बितायी जिंदगी को किसी ने छुप-छुपकर देखा है और फिर उसे कैमरे में कैद कर लिया है। सिमरन की विदेश में ट्रेन छूटी थी और गुंजा की कोडरमा के दीपक होटल के पास छूटते-छूटते बची। एकदम डीटो सीन। हम सबों को लड़कियों का बाप अमरीश पुरी जैसा लगता जो कबूतरों को दाना तो खिलाता लेकिन हमें देखते ही भड़क जाता,इस गली में दुबारा न दिखने की सख्त हिदायत देता। आप ही सोचिए न किसी भी मोहल्ले में एक ही साथ आठ-दस लड़के साइकिल से चक्कर काटने लगें तो लड़की के बाप पर क्या गुजरेगी? हम उस कल्पना में खो गए कि काश गुंजा की बस मिस हो जाती और हम एक-दो दिन रुककर तिलैया पहुंचते,अपने मन की बात कहते। हम उस गाने को सीमा,शिप्रा से जोड़कर देखते- जरा-सा झूम लूं मैं,अरे न रे बाबा न,जरा सा घूम लूं मैं..अरे न रे बाबा न,आ तूझे चूम लूं मैं अरे न रे बाबा न। वो भी तो ऐसे ही मना करती थी और कहती-अभी हमारी ये सब करने की उम्र नहीं है।
सिनेमा देखने के दौरान हमें अपने सात दिन की ट्रिप भूल जानी चाहिए थी लेकिन एक-एक सीन के साथ वो कुछ इस तरह से जुड़ गयी जैसे लड़कियों के झीने कपड़े से सब कुछ झांक न जाए तो उसी रंग के स्तर लगा दिए जाते हैं। डीडीएलजे हमारी मनःस्थिति के साथ उस स्तर की तरह काम किया। दूसरी बार इस फिल्म को देखने का असर हुआ कि हम ट्रिप के साथ सिनेमाई हो गए और जो पल हमने बिताए उसे सिनेमा से जोड़कर देखने लगे। जिन वास्तविक क्षणों को जीकर मरे जा रहे थे उस पर अब कल्पना की लेप चढ़ाने लग गए कि अगर सिमरन की तरह गुंजा भी वेलकम वाला घंटा खरीदती तो, अगर मेरे भी बाबूजी अनुपम खेर जैसा बड़ा दिल रखते तो,अगर सबकी मां सिमरन की मां जैसी होती तो...इस तो के असर में हम सिनेमाई तरीके से ज्यादा सोचने लग गए और अपने सात दिनों को धुंधला करते चले गए,इस उम्मीद में कि स्साला जब अमरीश पुरी जैसे आदमी का दिल पसीज जाता है तो फिर ये शिल्पी,शिप्रा,मोना,सीमा के बाप की क्या औकात है और फिर एक बार आइआइटी निकल जाए,प्रीमेडिकल में हो जाए तो घर आएगा गिड़गिड़ाने। इस स्तर पर मैं अब भी दीन-हीन था कि आर्ट्स पढ़कर क्या कर लेंगे? लेकिन यकीन मानिए कि सिमरन और राज की कहानी के बीच हमारी सात दिन की कहानी कुछ ऐसे गड्डमड्ड हो गयी कि हम इसे एक फैंटेसी का हिस्सा मानकर भूलने लग गए। वैसे भी सिनेमा देखने के तीन दिनों बाद जब हम नानीघर के लिए रवाना हुए तब हम उस महौल से लगभग बाहर हो गए। इधर बाजार में हर पांच में से तीन लड़की सिमरन सूट पहने घूम रही थी,जाड़े में भी भाई लोग धूप चश्मा लगाए फिर रहे थे,जो लौंडें भौजी बोलकर लड़कियों पर कमेंट पास करते रहे,अब हे सैनोरिटा बोलकर ठहाके लगाते। आती हुई लड़कियों को देखकर कहते,अरे तेरी कि देख..देख सिमरन आ रही है। चौडे मुंह और मोटे तलबे वाले जूते से बाजार पट गयी थी। बिसेसरा की दूकान पर अलग-अलग पोज में सिमरान और राज की प्रेम कहानी के पोस्टर अठ-अठ आना में धडल्ले से बिकने लग गए थे। इसी समय नानी ने लौटते समय मेरी बहन के लिए सिमरन सूट भिजवाए थे जिसे कि मां ने किसी को शादी में दौरा पर भेज दी थी।
किसान सिनेमा के पर्दे पर तब ये फिल्म दोबारा लगी रही,जब हमने बोर्ड की परीक्षा दे दी,इंटरमीडिएट के लिए पटना कॉलेज का चक्कर लगाया और अंत में रांची जाने पर मुहर लग गयी। पैर छूते वक्त पापा ने मुंह फेर लिया था,मां ने बिलखकर कलेजे से लगाकर लड़कियों के साथ ट्रिप पर न जाने की प्रार्थना की थी। रिक्शा पर सामान लादे,सर्फ एक्सेल में फ्री में मिली बाल्टी को बिहारशरीफ से रांची ले जाते हुए जब मैं किसान सिनेमा की ओर से गुजर रहा था..तब ये मेरे बचपन का शहर हमेशा के लिए छूट रहा था,मां छूट रही थी,पापा तो एकदम से छूट रहे थे,दोस्तों का साथ छूट रहा था, शिप्रा ,मोना,शिल्पी,वर्षा,स्वीटी सब छूट रही थी,मैं रोने-रोने को हो रहा था जबकि पोस्टर का राज हमसे बार-बार कहता..हे हे हे हे..हमारी फिल्में देखनेवाले बच्चे कभी रोते नहीं,आगे बढ़ते हैं,पास होते हैं और डियर बुरा मत मानना लड़कियों के साथ ट्रिप पर न जाने की तुम्हारी मां ने बहुत गलत सलाह दी,मेरी खातिर उसे इग्नोर कर जाना,समझे।..
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और दीयाबरनी से प्यार हो जाता

Posted On 12:01 pm by विनीत कुमार | 13 comments


दीवाली के मौके पर मां मेरे लिए खास तौर से दीयाबरनी खरीदती। आपको शायद ये शब्द ही नया लगे लेकिन इसे समझना मुश्किल नहीं है। एक ऐसी लड़की जो दीया बारने यानी जलाने का काम करती है,जो पूरी दुनिया को रौशन करती है। प्रतीक के तौर पर उसके सिर पर तीन दीये होते और जिसे कि रात में रुई की बाती,तीसी का तेल डालकर हम जलाते। मां के शब्दों में कहें तो हमारी बहू भी बिल्कुल ऐसी ही होगी जो कि पूरी दुनिया को रौशन करेगी। आज मां दीयाबरनी खरीदे तो जरुर पूछूंगा कि कि क्या माथे पर दीया लादकर पूरी दुनिया को रौशन करने का ठेका तुम्हारी बहू ने ही ले रखी है?
खैर,

दीदी और मोहल्ले भर की लड़कियां जिसे कि मां के डर से बहन मानकर व्यवहार करता,इस दिन घरौंदे बनाती। ये घरौंदे अमूमन तीन तरीके के बनाए जाते। एक तो आंगन की दीवारों पर,दूसरा लकड़ी का बना बनाया और तीसरा अब के जमाने के घरौंदे थर्माकॉल और फेबीकॉल के दम पर चिपकाए गए। दीदी लोग सिर्फ दीवार पर ही घरौंदे बनाती। आंगन का एक हिस्सा अपने कब्जे में कर लेती और बड़ा-सा वर्ग घेरकर उसे अपने काम में लाती। दीवारों पर अलग-अलग किस्म की तस्वीरें बनाती। मोर,पेड़,मटके भरकर जाती हुई रतें,झोपड़ी औ नारियल के पेड बगैरह..बगैरह। कुल मिलाकर इस घरौंदे में खुशहाल गृहस्थ की कल्पना होती। इन चित्रों को रंगने के लिए बड़े ही प्राकृतिक तरीके से रंगों का इस्तेमाल किया जाता। पीले रंग के लिए हल्दी,ब्लू रंग के लिए कपड़े में डाला जानेवाला आरती मार्का नील,हरे रंग के लिए चूर-चूरकर पत्तियों से निकाला गया रस। सिर्फ गुलाबी रंग बना-बनाया बाजार से मंगवाती। मोहल्ले की कुछ लड़कियां इस दीवारवाले घरौंदे पर अपने-अपने पसंद के भगवान की तस्वीरें भी चिपकाने लगी। ऐसे घरौंदे मैंने चार साल पहले देखें हैं जिस पर लड़कियों ने ऐश्वर्या,माधुरी,सलमान खान की भी तस्वीरें चिपकानी शुरु कर दी है। इस घरौंदे के नीचे दीदी लोग मिट्टी के बर्तन जिसे कि वनचुकड़ी कहा करती,लाइन से सजाती। यही पर आकर मुझे उनकी चिरौरी करनी पड़ जाती। मैं कहता- ये मां ने अकेले हमें दीयाबरनी थमा दिया है,अब अपने घरौंदे में इसे भी जगह दे दो। वो कहती कि अभी रुको,पहले बर्तन सज जाने दो। फिर वो साइड में लगा देती,मैं कहता बीच में रखो,वो मना करती। फिर उलाहने देती,तुम एतना सेंटिया काहे जाते हो इसको लेकर,तुम तो ऐसा करने लगते हो कि ये सही मे तुम्हारी पत्नी है,एक बार मां ने कह क्या दिया कि एकदम से पगला जा रहे हो। मैं सचमुच इमोशनल हो जाता। मैं तब तक दीदियों के आगे-पीछे करता,जब तक वो उसे मेरे बन मुताबिक जगह न दे दे। लेकिन एक बात है कि रात में जब दीयाबरनी के सिर पर तीन रखे दीए को जलाते तो दीदी कहती- तुमरी दीयाबरनिया तो बड़ी फब रही है छोटे। देखो तो पीयर ब्लॉउज रोशनी में कैसे चमचमा रहा है,सच में बियाह कर लायो इसको क्या छोटू? दीदी के साथ उसकी सहेलियां होतीं औऱ साथ में उसकी छोटी बहन भी। मैं उसे देखता और फिर शर्माता,मुस्कराता। दीदी कहती-देखो तो कैसे लखैरा जैसा मुस्करा रहा है,भीतरिया खचड़ा है और फिर पुचकारने लग जाती। रक्षाबंधन से कहीं ज्यादा आज के दिन दीदी लोगों का प्यार मिलता।

रात में सिर पर रखे दीया के जलने से सुबह तक तेल की धार और बाती की कालिख से दीयाबरनी की शक्ल बिगड़ जाती। वो एकदम से थकी-हारी सी विद्रूप लगने लग जाती। मैं तो अपनी दीयाबरनी की इस शक्ल को देखकर एक-दो बार रोया भी हूं,एक दो-बार इसे दीदी के घरौंदे में रखा भी नहीं है कि खराब न हो जाए। दीदी के घरौंदे में रखने की शर्त होती कि हम इसे मुंह देखने के लिए नहीं रखेंगे,अगर तुम इसे हमारे यहां रखना चाहते हो तो इसके सिर पर के रखे दीयों को जलाना ही होगा। दीयाबरनी को लेकर दीदी और मेरे बीच जो संवाद होते थे,आज वो मेरी शादी को लेकर लड़की चुनने के मामले में मजाक-मजाक में ही सही आ जाते हैं कि सिर्फ शक्ल पर मत चले जाना,थोड़ा घर का काम-काज भी करे। इतना रगड़कर घर से बाहर रहकर पढ़-लिख रहे हो तो कम से कम शादी के बाद तो सुख मिले। दीयाबरनी का दीया जलाएं तो ठीक नहीं तो वो दीदी के लिए सिर्फ डाह की चीज होती। कई घरों में ननद और भोजाई को लेकर ऐेसे ही संबंध हैं।

दीवाली के बाद हम विद्रूप दीयाबरनी को मां के हवाले कर देते। मां उसे लक्ष्मी-गणेश की पुरानी मूर्ति के साथ नदी में प्रवाह कर आती। मैं स्कूल न खुलने के समय तक उदास रहता,प्रेम औऱ संवेदना को लेकर जितने भी भाव उठते वो इस दीयाबरनी के चारो और छल्ले बनकर घिर जाते। फिर निक्की,सुरेखा,साक्षी,प्रियंका की बातों में खो जाता औऱ दीयाबरनी की बात भूल जाता। दीयाबरनी के कोरी रह जाने पर भी पागलों-सा उसे अपने साथ लिए फिरता और दिनभर में दस बार हाथ से फिसलने से थोड़ी सी नाक-थोड़ा चेहरा टूट जाता। दीदी लोग मजे लेती- क्या छोटू,बहुरिया का नाक-मुंह काहे तोड़ दिए हो,एकदम से और साथ की सहेलियों के साथ जोर से ठहाके लगाती। मैं उससे बहुत छोटा होने की वजह से कुछ भी नहीं समझ पाता।
शुरुआती दौर में मां जो दीयाबरनी लाती वो अब के मिलनेवाली दीयाबरनियों से अलग होता। उसकी चुनरी का रंग अलग होता,ब्लॉउज का अलग,चेहरा ऐसा कि एक बार देख लें तो किस करने का मन करे,बहुत छोटी-सी बिंदी,बहुत ही सलोना सा मुखड़ा। अब खुशी के लिए जो दीयाबरनी लाती है,वो उपर से लेकर नीचे तक एक ही रंग की होती है-पूरी गुलाबी,पूरी लाल,पूरी पीली या फिर पूरी स्लेटी रंग की। इक्का-दुक्का मिल जाए कई रंगों में तो अलग बात है। आज की दीयाबरनियों को देखकर लगता है कि बाजार के दबाब में,हड़बड़ी में,मिट्टी के लोंदे को उठाकर एक रंग में रंग दिया गया हो,कोई यूनिकनेस नहीं,आत्मिक रुप से कोई जुड़ाव नहीं बनता और जिसे देखकर अब के लौंडे बौराएंगे क्या सात साल के अंकुर ने कहा कि ये मेरी मौसी है। ये अलग बात है कि इसी दीयाबरनी को याद करते हुए आज मैंने फेसबुक पर लिखा- दीवाली के दिन मां मेरे लिए दीयाबरनी खरीदती। मिट्टी की बनी बहुत ही सुंदर लड़की जिसके सिर पर तीन दीए होते। रात में तेल भरकर उन दीयों को जलाते। मां उसे अपनी बहू की तरह ट्रीट करती,ऐसे में कोई उसे छू भी देता तो मार हो जाती। लड़कियों से प्यार करने की आदत वहीं से पड़ी।..
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