(1) स्कूल से ही ये सपना कि बड़ा होकर पत्रकार बनना है
(2) आजतक का पत्रकार बनना है और
(3) पुण्य प्रसून वाजपेयी और शम्स ताहिर खान जैसा पत्रकार बनना है
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ज से ठीक दस साल पहले यानी 31 दिसंबर 2000 को आजतक न्यूज चैनल की शुरुआत हुई। यह देश का पहला चौबीस का घंटे का न्यूज चैनल था, जिसकी पहचान सबसे तेज के तौर पर बनी। अरुण पुरी ने इसकी शुरुआत सदाव्रत, सत्य और अहिंसा के विस्तार के लिए नहीं की थी बल्कि ये शुद्ध रूप से उनका व्यावसायिक फैसला था, जिसे कि उन्होंने बहुत ही डरते-डरते लिया था। उन्हें इस बात की आशंका थी कि इंडिया टुडे के धंधे में जिस तरह के मुनाफे हो रहे हैं, शायद सेटेलाइट टेलीविजन चैनल में न हो। लेकिन चौबीस घंटे का न्यूज चैनल शुरू करने के पीछे उनके पास दो बड़े अनुभव थे। एक तो वीडियो कैसेट की संस्कृति के दौर में न्यूजट्रैक वीडियो मैगजीन को जो सफलता मिली थी, उसने यह साबित कर दिया था कि लोगों के बीच मनोरंजन कार्यक्रमों के अलावा खबरों में भी दिलचस्पी है, आनेवाले समय में खबरों का भी एक बड़ा बाजार है।
यह वह दौर था, जब लोग दूरदर्शन की खबरों के प्रति लापरवाह होकर, भाड़े पर लाये गये वीसीआर पर “खुदगर्ज” या “गंगा मईया तोरे पियरी चढ़इबो” जैसी फिल्में देखा करते। उन पर इस बात का दबाव रहता कि अगर रात में देखकर खत्म नहीं कर ली, तो कल दुगना किराया देना होगा। लेकिन 1988 में अपनी शुरुआत के साथ ही न्यूज ट्रैक मैगजीन ने बेहद कम समय में जबरदस्त मार्केट पकड़ लिया। एक कैसेट की कीमत 150 रुपये होती और लोग इसे खरीदने (बाद में कुकुरमुत्ते की तरह वीडियो लाइब्रेरी खुलने से किराये पर भी) के लिए लाइन लगाया करते। 1990 में मंडल कमीशन के दौरान इस मैगजीन को भारी लोकप्रियता हासिल हुई। उस दौरान इसकी विश्वसनीयता दूरदर्शन से ज्यादा बनी।
दूसरा कि 1995 में डीडी मेट्रो पर 20 मिनट के लिए जिस आजतक की शुरुआत हुई, उसने और भी बेहतर तरीके से साबित कर दिया कि पब्लिक ब्रॉडकास्टिंग के अलावा भी एक खाली स्पेस है, जिसे कि निजी मीडिया के माध्यम से भरा जा सकता है। आजतक का यह अंदाज दूरदर्शन के समाचारों से बिल्कुल अलग था जिसे कि ऑडिएंस ने हाथोंहाथ लिया। एसपी सिंह ने टेलीविजन की भाषा को लेकर जो प्रयोग किये थे, खबरों के साथ पैश्टिच तैयार की थी, उसने बहुत जल्द ही ऑडिएंस का एक बड़ा वर्ग तैयार कर लिया था। एसपी सिंह ने दूरदर्शन के रिवाजों को कई स्तरों पर तोड़ा और खबर को सरकारी कर्मकांडों से बाहर निकालने का काम किया। जिस दूरदर्शन की लगभग सभी बुलेटिन प्रधानमंत्री ने कहा है कि से शुरू होती, एसपी सिंह ने उसमें समाज के नये चेहरों, अल्पसंख्यक, दलित और स्त्रियों के स्वर को शामिल करना शुरू किया। दूसरी तरफ खबरों में टीआरपी के बताशे बनाने के जो खेल शुरू हुए हैं, उसकी शुरुआत भी उन्होंने ही की। होली पर पटना में कोई खबर नहीं है, तो लालू की होली शूट कर लाओ। उन्होंने ही अपने संवाददाता को मोटरसाइकिल से लालू की होली शूट करने के लिए भेजा था, आप याद कीजिए, उसमें आपको पीपली लाइव का दीपक नजर आएगा। दूरदर्शन इसे चलाने से एतराज कर रहा था लेकिन एसपी सिंह की ठसक की वजह से ये स्टोरी चली और पहली बार कोई राजनीतिक व्यक्ति गैरराजनीतिक खबर के लिए इस्तेमाल में लाया गया। एसपी सिंह की चर्चा करते वक्त उनकी इस ट्रीटमेंट की चर्चा कम ही होती है। आगे चलकर ऐसा किया जाना ट्रेंड बन गया और अब राजनीतिक व्यक्ति शौक से कॉमेडी सर्कस में भी आने की इच्छा रखते हैं।
आजतक ने दूरदर्शन पर कार्यक्रम प्रसारित करते हुए भी उससे अपने को बिल्कुल अलग रखने की कोशिश की और पहचान बनायी। आगे चलकर तत्कालीन सूचना और प्रसारण मंत्री प्रमोद महाजन ने इस बात पर अपनी नाराजगी जाहिर करते हुए कहा – अगर एक अखबार में दो संपादकीय नहीं हो सकते तो फिर यह कैसे संभव है कि दूरदर्शन पर दो अलग-अलग किस्म के समाचार हों। डीडी वन पर अलग तरह के समाचार और डीडी टू पर उससे ठीक अलग समाचार। अगर ऐसा है तो फिर डीडी के एक ब्रांड होने का क्या मतलब है। 29 जनवरी 1999 के इंडियन एक्सप्रेस में छपी खबर के मुताबिक ये संकेत मिलने लगे थे कि दूरदर्शन पर आजतक बहुत ज्यादा दिनों तक नहीं चल सकता। प्रमोद महाजन ने इस पर भी एतराज जताया था कि आज से तीन साल पहले जब आजतक की शुरुआत हुई थी, तो तय ये किया गया था कि इस पर सामयिक मसले से जुड़े कार्यक्रम दिखाये जाएंगे। लेकिन मैं देख रहा हूं कि ऐसा नहीं हो रहा है। प्रमोद महाजन का इशारा उन खबरों की तरफ था, जिसमें खबर के नाम पर लोकप्रियता बटोरने की कोशिशें होने लगी थी। दूसरी वजह ये भी थी कि खुद दूरदर्शन के समाचार इस तरह से पेश किये जाते कि उसके मुकाबले लोगों को आजतक बहुत पसंद आता। दूरदर्शन ने जिस बेतहाशा तरीके से लाइसेंस फीस लेकर निजी मीडिया हाउसों को स्लॉट दे रखे थे, उसका उसे भारी नुकसान उठाना पड़ रहा था। प्रमोद महाजन ने तब कहा था कि सरकार दूरदर्शन को 1700 करोड़ रुपये इस बात के लिए नहीं देती कि उस पर किसी तरह का नियंत्रण नहीं रहे। बाहर से आनेवाले को इस बात की छूट नहीं दी जा सकती कि 25000 हजार रुपये देकर प्रसार भारती को ही चलाने लग जाए। इशारा साफ था कि आजतक जैसा कार्यक्रम दूरदर्शन को लॉन्चिंग पैड की तरह इस्तेमाल कर रहा है। लिहाजा अरुण पुरी को इन दोनों उपलब्धियों का स्वाद मिल चुका था और अब इसे दूरदर्शन से अलग करने का भी मन वे बना चुके थे। 31 दिसंबर 2000 को आजतक को एक निजी सेटेलाइट चैनल के तौर पर लांच कर दिया गया।
आजतक ने दूरदर्शन का सरकारी भोंपू न बनने वाली छवि का पूरा फायदा उठाया। उसने ऑडिएंस के बीच अपनी इस तरह से पहचान बनायी कि उन्हें लगने लगा कि ये चैनल सरकार से कहीं ज्यादा भरोसेमंद और उनके प्रति चिंतित है। आजतक के कम समय में सफल होने की वजह तकनीक के स्तर पर मजबूत पकड़ और भाषा के स्तर पर क्लासरूम के बजाय कैंटीन और चौपाल की तरफ लौटना था। उसने बाकी मीडिया हाउस की तरह महंगे सेटअप के बजाय विदेशों की छोटी-छोटी कंपनियों से तकनीक आधारित सौदे किये और एसेंबल्ड तकनीक पर जोर दिया। तब आजतक के कैमरे एनडीटीवी के कैमरे से चार गुना कम कीमत पर होते। ज्यादा खबर, स्पॉट की खबर और कैमरा और आंखों के भरोसे को एक करने देने की रणनीति ने उसे ऊपर उठाया। चैनल ने अपनी ब्रांडिंग इस भरोसे को जीतने के तौर पर की। 2005 में रायटर ने जो सर्वे किया, उसमें आजतक को दूरदर्शन से ज्यादा विश्वसनीय बताया गया। आजतक को 11 प्वाइंट मिले थे जबकि दूरदर्शन को 10… लेकिन आगे चलकर आजतक ने अपनी इस विश्वसनीयता को बनाये रखने के बजाय खुद को महज ब्रांड के तौर पर स्थापित करना शुरू कर दिया।
दमदार खबरों के दम पर उसने मीडिया इंडस्ट्री में जिस तरह की इंट्री ली थी, धीरे-धीरे अपनी पहचान रिड्यूस करके टीआरपी की पहचान पर जीने लग गया। शुरुआत के चार-पांच सालों तक टीआरपी और धार दोनों साथ-साथ चलते रहे लेकिन 2005-06 के बाद से सिर्फ टीआरपी ही उसकी पहचान बनती चली गयी। नतीजा, जोड़-तोड़, उठापटक और तमाशों को किसी तरह दिखाकर चैनल नंबर वन की कैटरेस में किसी तरह तो बना रहा लेकिन उसकी साख धीरे-धीरे मिट्टी में मिलती चली गयी। दूसरा कि जिस गोबरछत्ते की तरह टेलीविजन पर न्यूज चैनल सवार हैं, उसके बीच चैनल ने अपनी अलग पहचान खो दी। पिछले दो-तीन साल से ऐसी स्थिति बनी कि जो आजतक पर चले, वही खबर है की भी ताकत खत्म हो गयी। मतलब कि वह इंडस्ट्री का ट्रेंड सेटर नहीं रह गया। वह कभी चार घंटे के लिए इंडिया टीवी हो जाता तो अगले दो घंटे के लिए स्टार न्यूज तो फिर अगले तीन घंटे के लिए संस्कार या आस्था टीवी। चौबीस घंटे के भीतर आजतक दो घंटे तक के लिए भी आजतक नहीं बना रहा। पुण्य प्रसून वाजपेयी इस पूरी स्थिति को गिरावट के तौर पर देखते हैं, जिससे लगता है कि इसने अपना स्वर्ण युग खो दिया है। लेकिन…
मेरी अपनी समझ है कि आजतक की शुरुआत कोई संतई कर्म के लिए नहीं हुई थी। उसका शुरू से उद्देश्य था कि इसे मुनाफा का माध्यम बनाया जाए। हां, शुरुआत में जो खबरें दिखायी गयीं, उसमें उन तमाम ऑडिएंस की चिंता होती जो कि सीधे तौर पर चैनल से परिभाषित होते हैं। बाद में जब वो ऑडिएंस पहले टीआरपी बक्से से और तब थोड़ा बहुत जेनरल कांशसनेस से पारिभाषित होने लगे तो कंटेंट बदलना शुरू हो गया। अब ऑडिएंस की पसंद और इच्छा के नाम पर उसके फ्लेवर हैं, जिसके नाम पर चैनल चल रहा है। इस बीच चैनल की पहचान सिर्फ और सिर्फ टीआरपी के स्तर की है। खबर का असर अब उसी तरह से है, जैसा कि बाकी चैनल विज्ञापन के तौर पर इस्तेमाल करते हैं। इंडस्ट्री के बीच यहां के लोगों की पहचान भी उसी रूप में है कि अगर आजतक में कोई काम करके आया है तो जाहिर है कि उसे टीआरपी के बताशे बेहतर तरीके से बनाने आते होंगे। शुरुआती दौर के मीडियाकर्मी, जिन्होंने कि एसपी सिंह के साथ काम किया, वे भी एक हद तक तमाम चैनलों के मैनेजिंग एडीटर या प्रमुख इसलिए बने क्योंकि इस कला को लेकर उन पर भरोसा किया जा सकता था। वे चैनल चला सकते थे, यानी कि चैनल को टीआरपी और मुनाफे के फार्मूले के साथ जोड़कर रख सकते थे। आजतक के किसी भी मीडियाकर्मी को इसलिए नहीं बुलाया जाता कि वह कोई सरोकारी पत्रकारिता करेगा? पुण्य प्रसून वाजपेयी ने ऐसे ही पत्रकारों को ब्रांड में तब्दील हो जाना कहा है। बिजनेस के लिहाज से सोचें तो चैनल को न तो आज से दस साल पहले कोई नुकसान था और न ही आज कोई नुकसान है। लेकिन ऑडिएंस और मीडियाकर्मी के स्तर पर सोचें तो इस चैनल को भारी नुकसान हुआ है। ये नुकसान हालांकि सब्जेक्टिव किस्म का है, जिसका हर कोई आकलन अलग-अलग तरीके से कर सकता है। लेकिन हम जैसे लोगों के लिए एक ऐसा चैनल, जिसे देखकर एक ही साथ तीन सपने देखे थे और जो कि अब शायद ही कोई ऐसा देखता हो…
ये सपने वक्त के साथ ध्वस्त हो गये। तमाम बातों के बावजूद इस चैनल ने लंबे समय तक एक पीढ़ी को इस बात के लिए प्रेरित किया है कि बड़ा होकर उसे पत्रकार बनना है। शायद ये नास्टॉल्जिया का हिस्सा हो लेकिन हमने बचपन के इसी सपने के बूते आजतक की इंटर्नशिप के नाम पर दिल्ली के कम से कम 20-35 इलाकों में टेंट हाउस से लाकर कुर्सियां लगवाने का काम किया। उस दौरान जहां-जहां चैनल के शो होते, उसकी व्यवस्था में लगा रहा। घोर नास्तिक और भाग्य और ज्योतिष पर ठोकर मारने की आदत होने पर भी आपके तारे जैसे कार्यक्रम पर रोज कुंडलियां देखी, फर्जी ज्योतिष के बकवास के ग्राफिक्स बनाये। कई बार ये ख्याल आया कि ये हमारा वो आजतक नहीं है, जिसे देखते हुए हम अपनी होमवर्क की कॉपियां रोल करते और पुण्य प्रसून की नकल उतराते – कैमरा मैन आसिफ के साथ पुण्य प्रसून वाजपेयी, दिल्ली, आजतक। फिर भी…
ये बचपन में आजतक को लेकर देखे गये सपने का असर ही था कि हम दिनभर जब ऐसे काम करते जिसे कि हमने कभी भी मीडिया का हिस्सा नहीं माना, जो काम घर-दुकान के नौकर-चाकर कर दिया करते हैं, बुरी तरह थककर चूर हो जाते तो खाली स्टूडियो में जाकर पुण्य प्रसून वाजपेयी की तरह हाथ रगड़ते और कई बार जी बोलते, स्क्रिप्ट में ज्यादा से ज्यादा बार कहीं न कहीं और आम आदमी घुसेड़ते। मैं हूं प्रतीक त्रिवेदी और आज खड़ा हूं जंतर-मंतर पर। जी हां, एक ऐसे इलाके में जहां कुछ भी कहा जाए, तो आवाज सीधे सरकार के कानों तक जाती है। हमने बचपन के उन सपनों के भरोस दस साल तक मीडिया की पढ़ाई कर ली, लिखना और बोलना सीख लिया। आजतक में काम करने का मौका मिला तो उन सपनों की बदौलत सब कर गये। मन में सवाल उठते तो अपने को समझाता – तुम यहां मीडिया का काम नहीं, बचपन के अपने सपने पूरे करने आये हो, वो पूरे हो रहे हैं। खुश रहो। आज मैं सोचता हूं कि क्या आजतक को देखकर इस पीढ़ी के बच्चे उसी तरह के सपने पालते होंगे और उन्हें भी दो-चार ऐसे पत्रकार जंच गये होंगे जिसकी वो नकल उतारकर उनकी तरह बनना चाहते हों। अरुण पुरी के लिए वो सब तब भी धंधा था और आज भी है। लेकिन तब के धंधे में एक मासूमियत थी, बॉटमलाइन की एक सच्चाई थी जो ऑडिएंस के भरोसे को बनाये रखती। आज ये भरोसा खत्म हो गया है। ऑडिएंस और पत्रकारों को नुकसान इसी स्तर पर है।
आज से तीन-चार दिन पहले पुण्य प्रसून वाजपेयी ने अरुण पुरी की उस मीटिंग का जिक्र किया है (टीवी पत्रकारिता कहां से चली थी, कहां पहुंच गयी?), जिसके अनुसार उन्होंने रिपोर्टरों को बुलाकर कहा कि अब ये चैनल आपके हाथ में है, आप इसे चाहे जैसे चलाएं। वाजपेयी अरुण पुरी की ये बात रिपोर्टरों की ईमानदारी और काबिलियत रेखांकित करने के तौर पर कर रहे थे। अच्छी बात है कि अरुण पुरी ने तब अपने रिपोर्टरों और मीडियाकर्मियों पर भरोसा किया और उन्हें अपने मुताबिक काम करने का मौका दिया। लेकिन इस प्रसंग का दूसरा पक्ष भी है कि अरुण पुरी किस दौर में आकर अपने रिपोर्टरों और मीडियाकर्मियों से ये कहना शुरू करते हैं कि सवाल ईमानदारी का नहीं है। सवाल इतने बड़े वेंचर के बने रहने, आपलोगों को समय पर सैलरी मिलती रहने और चैनल की टीआरपी बनी रहने की है। दूसरे चैनलों की बात छोड़ दें तो आजतक एक ऐसा चैनल है, जिसमें कि मालिकाना हक से लेकर बाकी स्तरों पर बहुत कम ही फेरबदल हुए हैं। ऐसे में इस दूसरे पक्ष की पड़ताल बहुत जरूरी है। पहले जिन रिपोर्टरों को बिना बाइट के भी, अगर उसे अपनी खबर पर भरोसा है, तो चला देने को कहा, अब ऐसी कौन सी स्थिति आ गयी कि बलात्कार तक की खबर (पीड़ित के मौजूद होने पर भी) बिना एसएचओ की बाइट के नहीं चलने पाती है। ऐसा क्या हो गया कि पांच करोड़ पर प्रियंका चोपड़ा के शीला की जवानी गाने पर नहीं नाचने से आजतक की एंकर आश्चर्य प्रकट करती हैं, जैसे कि वो खुद मना नहीं कर सकेगी? चैनल के भीतर खबरों को लेकर जो नजरिया बदला है, वो क्या सिर्फ टीआरपी के बक्से के डर से है या फिर यह पूरा मामला मुनाफे के पैटर्न के बदल जाने का है? क्योंकि बात जब हम अरुण पुरी के आजतक चैनल की कर रहे हैं, तो हम पूरी तरह होशोहवास में हैं कि हम एक ऐसे शख्स से बात कर रहे हैं, जिसने कि चैनल की शुरुआत ही सरोकार उद्योग से की लेकिन अब उससे सरोकार शब्द हट गया। अगर ये डर और बदलाव टीआरपी के बक्से की वजह से है तो हमें आजतक के दस साल होने पर जश्न मनाने के बजाय मनुस्मृति की तरह टीआरपी के बक्से को जलाना चाहिए जिसने मुनाफे की स्थिति में भी चलनेवाले हमारे एक भरोसेमंद चैनल की जुबान खींच ली।
27 दिसंबरः गालिब की जयंती या उपेन्द्र राय का सहारा प्रणाम दिवस
Posted On 12:04 pm by विनीत कुमार | 2 comments
सहारा मीडिया ग्रुप के न्यूज डायरेक्टर उपेन्द्र राय ने 27 दिसंबर 2010 को दिल्ली के ली मीरिडियन होटल में उर्दू चैनल आलमी सहारा के उद्घाटन के मौके पर कहा कि उनकी इच्छा थी कि इस चैनल को एक ऐसी तारीख से जोड़ पाएं जो वाकई एक तारीख हो और मिर्जा गालिब की जयंती से बेहतर कोई दिन हो नहीं सकता था। हमने चैनल पर भी देखा कि मिर्जा गालिब की जयंती से जुड़ी दिखाई खबरें दिखाई जा रही है। इस मौके पर दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने गालिब की शायरी और हवेली का जिक्र करते हुए कहा कि देखिए मिर्चा गालिब की हवेली कितनी छोटी है लेकिन उन्होंने कितनी बड़ी-बड़ी शायरी की। इस बात को आगे बढ़ाते हुए फेसबुक पर मेरा लिखने का मन हुआ कि- देखिए,गालिब कितनी छोटी सी हवेली में रहा करते थे,खुद ही कहा करते थे कि लोग पूछते हैं गालिब कौन है और आज उनके नाम का इस्तेमाल करते हुए कितने बड़े होटल में,कितने लोगों के बीच एक उर्दू चैनल लांच किया जा रहा है। उपेन्द्र राय ने मिर्जा गालिब की जयंती 27 दिसंबर को चैनल लांच करके लोगों के बीच ये संदेश देने की भरपूर कोशिश की कि उर्दू तहजीब और भाषा को वो कितना सम्मान देते हैं। उर्दू प्रेमियों को ऐसे मीडिया चैनलों के प्रति एक बार फिर प्यार उमड़ जाए। लेकिन मीडिया की शक्ल क्या वाकई इतनी खूबसूरत है कि उससे थोड़ी-बहुत किच-किच के बाद फिर प्यार हो जाए?
हम सबके लिए 27 दिसंबर मिर्जा गालिब की जयंती के तौर पर एक खास दिन है। अगर इस दिन में मीडिया के लिए न्यूज वैल्यू है तो खास दिन है,अगर नहीं है तो वैसा ही है जैसे आए दिन साहित्यकारों,नोबल पुरस्कार विजेताओं या फिर दूसरे संस्कृतिकर्मियों की जयंतियां बिना किसी आहट के गुजर जाती है। उपेन्द्र राय के वक्तव्य पर गौर करें कि वो आलमी सहारा चैनल को किसी ऐतिहासिक दिन से जोड़ना चाहते थे। ये ऐतिहासिक दिन जाहिर तौर पर उर्दू से जुड़े किसी महान शख्स का होता या फिर कोई ऐसी घटना जो कि उर्दू की तहजीब से जुड़ती हो। ये सुनने में कितना अच्छा लगता है कि उपेनद्र राय को यहां की संस्कृति और ऐतिहासिक बोध को लेकर कितनी गहरी चिंता है? लेकिन
आज सुबह जब हमने उपेन्द्र राय की इस महानता और उदात्त विचारों को जानकर उनके बारे में और अधिक जानने की कोशिश की तो गूगल पर सबसे ज्यादा जिन खबरों को लेकर लिंक मिले वो यह कि- 27 दिसंबर को ही उपेन्द्र राय ने स्टार न्यूज को बाय बाय करके सहारा का दामन पकड़ा था। साथ में बीबीसी के पुराने मीडियाकर्मी संजीव श्रीवास्तव भी आए। यानी इन लिंक्स से मिली खबरों के मुताबिक 27 दिसबंर वो तारीख है जिस दिन उपेन्द्र राय ने पहली बार सहारा प्रणाम कहा और ऐसा करते हुए उन्हें कल दो साल हो गए। उनके जीवन का यह सबसे जरुरी तारीख है जहां वो महज 28 साल की उम्र में सहारा मीडिया ग्रप के न्यूज डायरेक्टर बन जाते हैं। उपेन्द्र राय के लिए इससे बड़ा ऐतिहासिक दिन औऱ भला क्या हो सकता है कि जो शख्स कुछ साल पहले तक स्ट्रिंगर की हैसियत से मीडिया की दुनिया में कदम रखता हो,स्टार न्यूज के लिए एयरलाइंस पर स्टोरी करते वक्त कार्पोरेट लॉबिइस्ट नीरा राडिया को इन्टर्न की तरह बात-बात में मैम,मैम कहता हो,उसके हाथ में देश के एक बड़े मीडिया ग्रुप की चाबी है। अब यहां से फिर उपेन्द्र राय के वक्तव्य को जोड़ें कि क्या 27 दिसंबर वाकई कोई तारीख नहीं है? इससे बड़ी तारीख और क्या हो सकती है?
27 दिसंबर की शाम ली मेरिडियन में आलमी सहारा के मौके पर जुटे जो लोग चाय-नाश्ता कर रहे थे,मुन्नवर राणा की शायरी में डूब-उतर रहे थे,गालिब की हवेली के पास उन्हें याद कर रहे थे,पाकिस्ताम से आए मेहमान चैनल पर अपनी बाइट दे रहे थे, उपेन्द्र राय के लिए वो सबके सब उनकी ही कामयाबी का जश्न मना रहे थे। अब यहां पर आकर सोचें तो 27 तारीख उपेन्द्र राय के लिहाज से ज्यादा महत्वपूर्ण है या फिर मिर्जा गालिब के लिहाज से। अगर उर्दू के इतिहास की नजर से देखें तो इससे बड़ी तारीख खोजने के लिए भारी मशक्कत करनी पड़ सकती है। लेकिन अगर उपेन्द्र राय 27 दिसंबर को पहली बार सहारा प्रणाम न करके किसी औऱ तारीख को किया होता तो क्या मिर्जा गालिब को आलमी सहारा पर यही इज्जत नसीब होती? तब तो उनका ये हक कोई और मार ले जाता। ऐसे में हम ये कहें कि मिर्जा गालिब की सहारा में बस इसलिए लॉटरी लग गयी क्योंकि उपेन्द्र राय ने पहली बार सहारा प्रणाम इसी तारीख को किया। उपरी तौर पर इससे फर्क नहीं पड़ता। आखिर हममें से कितने लोगों को पता है कि उपेन्द्र राय ने ये तारीख अपनी उपलब्धि के ऐतिहासिक दिन के तौर पर तय किया? फिर स्टोरी तो मिर्जा गालिब की ही चली,उपेन्द्र राय की तो नहीं ही।
लेकिन आज प्राइवेट न्यूज चैनलों का जो आलम है,उसे देखते हुए ये अस्वाभाविक और लगभग बेहूदा हरकत की तरह नहीं लगता। मतलब ये कि अगर कल को किसी चैनल ने पंत,महादेवी वर्मा,फिरदौस,मुक्तिबोध जैसे रचनाकारों की जयंतियां मनानी शुरु कर दी तो उस दिन अनिवार्य रुप से चैनल के आकाओं के घर बच्चा पैदा हुआ होगा,उसकी पत्नी के साथ 25 सफल साल गुजर गए होंगे,आका किसी चैनल का मालिक बन गया हो आदि-आदि। राजनीति में तो खोज-खोजकर ऐसी तारीखें निकाली जाती है और उनसे जुड़े लोगों की भावनाओं के साथ खेला जाता है लेकिन मीडिया में भी कल ये जो खेल शुरु हुआ,वो आनेवाले समय में एक बेहूदा ट्रेंड को जन्म देगा। ऐसे में होटल ताज में रैदास जयंती के मौके पर किसी चैनल की शुरुआत होती है,सांगरिला में सरहपा के नाम पर कोई क्षेत्रीय चैनल की शुरुआत होती है तो ऑडिएंस को एकबारगी तो ताज्जुब जरुर होगा कि न्यूज चैनलों को अचानक से इन विभूतियों को याद करने का ख्याल क्यों आया? उन्हें भला क्या पता होगा कि इस दिन किसी चैनल के आका की जिंदगी का सबसे खास दिन है।
मीडिया में तारीखें ऐसी ही बदलती है,मीडिया अपना कलेंडर इसी तरह से बदलता है। सामाजि तौर पर खास तारीखों में अपने मायने पैदा करता है। कन्ज्यूमर ल्चर का एक बड़ा बाजार मीडिया ने इन्हीं तारीखों के भीतर के मायने बदलकर पैदा किए हैं। जो समाज के जिस तबके के लिए खास दिन है,उसमें अपने मतलब के अर्थ भर दो,वो खुश भी हो जाएंगे और तुम्हारा काम भी हो जाएगा। उपेन्द्र राय ने 27 दिसंबर के साथ यही काम किया है।
27 दिसंबर को आलमी सहारा शुरु करके उपेन्द्र राय ने मिर्जा गालिब की आत्मा और उनके मुरीदों के दिल को सुकून नहीं पहुंचाया है बल्कि सहाराश्री के सामने अपनी दमखम को साबित किया है कि उर्दू चैनल के लांच किए जाने में हुजुर जो सबसे बड़े रोड़ा थे अजीज बर्नी,उन्हें देखिए हमने जैसे ही हटाया नहीं कि कुछ महीने बाद ही चैनल आपकी आंखों के सामने है,उसकी फुटेज देशभर में तैरनी शुरु हो गयी है। इसलिए मालिक,आप सहारा के कैलेंडर में 27 दिसबंर की तारीख को मिर्जा गालिब की जयंती से काटकर आलमी सहारा की लांचिंग डेट कर दीजिए ताकि अगले साल से लोग इसी तौर पर याद करें। इधर मैं अपने कैलेंडर में इसमें कुछ और जोड़कर
बदलता हूं।
आज से करीब ढाई साल पहले 16 मई 2008 को महमूद फारुकी( दास्तानगो,इतिहासकार और पीपली लाइव फिल्म के सहनिर्देशक) ने विनायक सेन की गिरफ्तारी के खिलाफ होनेवाले कार्यक्रम में दास्तानगोई की थी। साथ में दानिश भी थे। उस दिन इन दोनों का मिजाज बिल्कुल अलग था। दास्तानगोई की कहानी के साथ ही माहौल के मुताबिक एक ही साथ कई मिले-जुले भाव। रवीन्द्र भवन,साहित्य अकादमी परिसर में खचाखच लोग भरे थे। खुले में देर शाम तक लोग टस से मस नहीं हुए। आज उस शाम और दास्तानगोई का जिक्र फिर से करना चाहता हूं। वहां से लौटकर मैंने जो पोस्ट लिखी,एक बार फिर से साझा करना चाहता हूं। दीवान-सीएसडीएस सराय के भंडार में ये पोस्ट आज भी मौजूद हैं। लेकिन नए सिरे से इसे आज फिर पढ़ना आपको जरुर लगे,ऐसी उम्मीद है। इस नीयत और भरोसे के साथ कि अब किसी एक शख्स और मुद्दे के साथ छिटपुट तरीके से प्रतिरोध जाहिर करने से कहीं ज्यादा जरुरी है,अभिव्यक्ति की आजादी सुनिश्चित न किए जाने तक लड़ते रहना,धक्के देते रहना,चीजों को अपनी कोशिशों से दरकाते रहना। हम अब सिर्फ लेखक या ब्लॉगर की हैसियत से नहीं,सोशल एक्टिविस्ट की तरह मैंदान में उतरना चाहते हैं।
महमूद फारुकी साहब ने कल रात जब दास्तान गोई में अय्यारी और जादूगरी का किस्सा सुनाया जिसमें चारों तरफ से सुरक्षा के नाम पर प्रहरी के घेर लेने पर जुडूम-जुडूम की आवाज आती थी तो मुझे बस एक ही बात समझ में आयी कि-
फारुकी साहब की दास्तान गोई में भी कुछ ऐसा ही हो रहा था जहां जादूगर अय्यारों को कुछ इस तरह की सुरक्षा दे रहे थे कि अय्यार तबाह-तबाह हो गए। लेकिन ये जादूगर एक सुरक्षित मुल्क बनाने पर आमादा थे। फारुकी साहब के हिसाब से वो मुल्क-ए-कोहिस्तान बनाना चाह रहे थे। जहां के लिए सबसे खतरनाक शब्द था- आजादी।
हमारे देश की सरकार भी एक सुरक्षित मुल्क बनाने में जी-जान से जुटी है। वो देश के नागरिकों को सुरक्षा देना चाहती है। लेकिन बिना उनसे पूछे और बिना उनसे जानें कि उन्हें उस सुरक्षा की जरुरत है भी है या नहीं या फिर लोग आखिर सुरक्षा चाहते भी हैं तो किससे। बिना जनता की इच्छा के जो सुरक्षा मिलती है उसे आप क्या कहेंगे? छत्तीसगढ़ की सरकार तो मानकर चल रही है कि उनकी जनता बहुत तकलीफ में है और असुरक्षित भी। तकलीफ की बात तो बाद में देखेंगे लेकिन फिलहाल तो उन्हें सुरक्षित रखना जरुरी है। ये मौका थोड़े ही है कि जनता तय करे कि उन्हें सुरक्षा चाहिए कि नहीं। जब सरकार को पता है कि उसकी जनता सुरक्षित नहीं है तो फिर जानते हुए वो अपनी प्यारी जनता को मरने कैसे दे। यह मामला जनता की पसंद-नापसंद का नहीं है। ये मामला है जनता को बचाने का और ऐसी विपत घड़ी में बचाने के लिए छत्तीसगढ़ की सरकार के पास जो सबसे ज्यादा उम्दा तरीका है- वो है सलवा जुडूम। लेकिन सवाल है कि सरकार के रहते जनता को खतरा है भी तो किससे।
छत्तीसगढ़ की सरकार के मुताबिक वहां की जनता को, वहां के जगलों में बसनेवाले आदिवासियों को माओवादियों से खतरा है। वो आदिवासियों को सताते हैं। वो जल, जंगल जमीन और दूसरे साधनों पर कब्जा करके जनता को इन सबसे महरुम करते हैं। वो बिजली के खंभों को उखाड़ फेंकते हैं। यानि ये माओवादी जनता के विरोधी हैं इसलिए सरकार के विरोधी हैं औऱ जब इसने पूरे इलाकों में त्राहि मचा रखा है जहां कि जनता सुरक्षित नहीं है तो फिर कैसे उनके बीच छोड़ दिया जाए। इसलिए क्यों न सुरक्षा के मजबूत घेरे का इंतजाम किया जाए। सलवा जुडूम इसी मजबूती के घेरे का नाम है।
लेकिन असल सवाल है कि इस सुरक्षा घेरे में राज्य की जनता और आदिवासी वाकई सुरक्षित है। सरकार के हिसाब से सुरक्षा की परिभाषा में एक इँसान के सिर्फ सांस लेते रहना भर है तब तो वो वाकई सुरक्षित हैं। कोई उन्हें मार नहीं सकता। लेकिन सरकार से कोई पूछे कि बिना मतलब के सांसों के लेने औऱ चलने का क्या मतलब है। बस जिन्दा शब्द को बचाए रखने के लिए सरकार इतना सब कुछ कर रही है तो फिर मजबूरन सरकार को सुरक्षा की परिभाषा में फेरबदल करनी होगी।
सरकार सलवा जुडूम के जरिए जिस गांव और बस्ती से लोगों को बाहर निकालकर, उन्हें कैम्प औऱ शिविरों में डालकर वहां पर हथियार बंद दस्ते तैनात कर दिए हैं वहां सुरक्षित और असुरक्षिक के क्या मायने रह जाते हैं। जिस गांव में खेत लहलहाने चाहिए, पंगडंडियों पर लोगों का आना जाना बना रहता वहां पर सिर्फ औऱ सिर्फ दहशत औऱ दस्तों के जूतों के टापों के अलावे कुछ भी सुनाई नहीं देते. ऐसी सुरक्षा कायम करके सरकार आखिर साबित क्या करना चाहती है।
दूसरी तरफ सलवा जुडूम के नाम पर सैंकड़ों लोगों को गांव से निकाल-बाहर किया गया, मारा गया। 664 गांव के लोगों को जबर्दस्ती निकालकर उन्हें मात्र 27 कैम्पों में ठूंस दिया गया। उनके साथ जानवरों से भी बदतर बर्ताव किया गया। उनकी रोजी-रोटी छिन गयी। वो रातोंरात बेघर और बेरोजगार हो गए।.. उनके बच्चों की पढ़ाई छूट गयी। आप समझ सकते हैं कि सरकार के इस कदम से एक अच्छी-खासी पीढ़ी अभी से ही बेरोजगार पीढ़ी में कन्वर्ट होती जा रही है। इन सबके वाबजूद सरकार के हिसाब से ये सुरक्षित हैं, क्योंकि ये सांस लेने की स्थिति में हैं।
छत्तीसगढ़ सरकार की इस सुरक्षा नीति और सलवा जुडूम के खिलाफ जो कि मानव विरोधी नीति है, हजारों हाथ उठे हैं, हजारों लोगों ने आवाज बुलंद किए औऱ इसे खत्म करने की मांग की। सरकार को इन आवाजों के बीच एक आवाज सुनायी दी और उसने जल्द से जल्द इस आवाज को चुप करना चाहा। उस उठे हुए हाथ को नीचे करना चाहा। ये आवाज थी विनायक सेन की और उठे हाथ थे विनायक सेन की। आज वो जेल में हैं।
विनायक सेन सरकार की इसी सुरक्षा के खिलाफ आवाज उठाने के शिकार हुए। सरकार ने उनपर कई झूठे मुकदमें लगाए हैं। उन्हें दबाना चाहती है, उनकी आवाज को दबाना चाहती है. एक ऐसे सामाजिक कार्यकर्ता की आवाज को जिसके चिकित्सीय प्रयासों की कायल कभी खुद सरकार हुआ करती थी। एक ऐसे व्यक्ति की आवाज को दबाना चाहती है जिनके कामों की अगर काव्यात्मक अभिव्यक्ति दें तो-
या तो अ ब स की तरह जीना है या फिर सुकरात की तरह जहर पीना है..
नागरिक अधिकारों की बात करनेवाले, आदिवासियों के बीच चुपचाप इलाज करनेवाले विनायक सेन की गलती सिर्फ इतनी है कि वो जनता की तकलीफों की जड़ तक गए औ जब जड़ खोज निकाला तो पाया कि हमारे शोषक और सेवक की जड़े आपस में गुंथी पड़ी है. बस...
लेकिन फारुकी साहब के दास्तान गोई के शब्दों में- अय्यार एक ही थोड़े हैं जादूगर, किस-किस के चारो ओर सुरक्षा के फेरे डालोगे और उससे कब तक जुडूम-जुडूम की आवाज आती रहेगी?
महमूद फारुकी साहब ने कल रात जब दास्तान गोई में अय्यारी और जादूगरी का किस्सा सुनाया जिसमें चारों तरफ से सुरक्षा के नाम पर प्रहरी के घेर लेने पर जुडूम-जुडूम की आवाज आती थी तो मुझे बस एक ही बात समझ में आयी कि-
यदि देश की सुरक्षा यही होती है
कि बिना ज़मीर होना ज़िंदगी के लिए शर्त बन जाए
आंख की पुतली में 'हां'के सिवाय कोई भी शब्द
अश्लील हो
और मन बदकार पलों के सामने दंडवत झुका रहे
तो हमें देश की सुरक्षा से खतरा है
कि बिना ज़मीर होना ज़िंदगी के लिए शर्त बन जाए
आंख की पुतली में 'हां'के सिवाय कोई भी शब्द
अश्लील हो
और मन बदकार पलों के सामने दंडवत झुका रहे
तो हमें देश की सुरक्षा से खतरा है
-पाश
हमारे देश की सरकार भी एक सुरक्षित मुल्क बनाने में जी-जान से जुटी है। वो देश के नागरिकों को सुरक्षा देना चाहती है। लेकिन बिना उनसे पूछे और बिना उनसे जानें कि उन्हें उस सुरक्षा की जरुरत है भी है या नहीं या फिर लोग आखिर सुरक्षा चाहते भी हैं तो किससे। बिना जनता की इच्छा के जो सुरक्षा मिलती है उसे आप क्या कहेंगे? छत्तीसगढ़ की सरकार तो मानकर चल रही है कि उनकी जनता बहुत तकलीफ में है और असुरक्षित भी। तकलीफ की बात तो बाद में देखेंगे लेकिन फिलहाल तो उन्हें सुरक्षित रखना जरुरी है। ये मौका थोड़े ही है कि जनता तय करे कि उन्हें सुरक्षा चाहिए कि नहीं। जब सरकार को पता है कि उसकी जनता सुरक्षित नहीं है तो फिर जानते हुए वो अपनी प्यारी जनता को मरने कैसे दे। यह मामला जनता की पसंद-नापसंद का नहीं है। ये मामला है जनता को बचाने का और ऐसी विपत घड़ी में बचाने के लिए छत्तीसगढ़ की सरकार के पास जो सबसे ज्यादा उम्दा तरीका है- वो है सलवा जुडूम। लेकिन सवाल है कि सरकार के रहते जनता को खतरा है भी तो किससे।
छत्तीसगढ़ की सरकार के मुताबिक वहां की जनता को, वहां के जगलों में बसनेवाले आदिवासियों को माओवादियों से खतरा है। वो आदिवासियों को सताते हैं। वो जल, जंगल जमीन और दूसरे साधनों पर कब्जा करके जनता को इन सबसे महरुम करते हैं। वो बिजली के खंभों को उखाड़ फेंकते हैं। यानि ये माओवादी जनता के विरोधी हैं इसलिए सरकार के विरोधी हैं औऱ जब इसने पूरे इलाकों में त्राहि मचा रखा है जहां कि जनता सुरक्षित नहीं है तो फिर कैसे उनके बीच छोड़ दिया जाए। इसलिए क्यों न सुरक्षा के मजबूत घेरे का इंतजाम किया जाए। सलवा जुडूम इसी मजबूती के घेरे का नाम है।
लेकिन असल सवाल है कि इस सुरक्षा घेरे में राज्य की जनता और आदिवासी वाकई सुरक्षित है। सरकार के हिसाब से सुरक्षा की परिभाषा में एक इँसान के सिर्फ सांस लेते रहना भर है तब तो वो वाकई सुरक्षित हैं। कोई उन्हें मार नहीं सकता। लेकिन सरकार से कोई पूछे कि बिना मतलब के सांसों के लेने औऱ चलने का क्या मतलब है। बस जिन्दा शब्द को बचाए रखने के लिए सरकार इतना सब कुछ कर रही है तो फिर मजबूरन सरकार को सुरक्षा की परिभाषा में फेरबदल करनी होगी।
सरकार सलवा जुडूम के जरिए जिस गांव और बस्ती से लोगों को बाहर निकालकर, उन्हें कैम्प औऱ शिविरों में डालकर वहां पर हथियार बंद दस्ते तैनात कर दिए हैं वहां सुरक्षित और असुरक्षिक के क्या मायने रह जाते हैं। जिस गांव में खेत लहलहाने चाहिए, पंगडंडियों पर लोगों का आना जाना बना रहता वहां पर सिर्फ औऱ सिर्फ दहशत औऱ दस्तों के जूतों के टापों के अलावे कुछ भी सुनाई नहीं देते. ऐसी सुरक्षा कायम करके सरकार आखिर साबित क्या करना चाहती है।
दूसरी तरफ सलवा जुडूम के नाम पर सैंकड़ों लोगों को गांव से निकाल-बाहर किया गया, मारा गया। 664 गांव के लोगों को जबर्दस्ती निकालकर उन्हें मात्र 27 कैम्पों में ठूंस दिया गया। उनके साथ जानवरों से भी बदतर बर्ताव किया गया। उनकी रोजी-रोटी छिन गयी। वो रातोंरात बेघर और बेरोजगार हो गए।.. उनके बच्चों की पढ़ाई छूट गयी। आप समझ सकते हैं कि सरकार के इस कदम से एक अच्छी-खासी पीढ़ी अभी से ही बेरोजगार पीढ़ी में कन्वर्ट होती जा रही है। इन सबके वाबजूद सरकार के हिसाब से ये सुरक्षित हैं, क्योंकि ये सांस लेने की स्थिति में हैं।
छत्तीसगढ़ सरकार की इस सुरक्षा नीति और सलवा जुडूम के खिलाफ जो कि मानव विरोधी नीति है, हजारों हाथ उठे हैं, हजारों लोगों ने आवाज बुलंद किए औऱ इसे खत्म करने की मांग की। सरकार को इन आवाजों के बीच एक आवाज सुनायी दी और उसने जल्द से जल्द इस आवाज को चुप करना चाहा। उस उठे हुए हाथ को नीचे करना चाहा। ये आवाज थी विनायक सेन की और उठे हाथ थे विनायक सेन की। आज वो जेल में हैं।
विनायक सेन सरकार की इसी सुरक्षा के खिलाफ आवाज उठाने के शिकार हुए। सरकार ने उनपर कई झूठे मुकदमें लगाए हैं। उन्हें दबाना चाहती है, उनकी आवाज को दबाना चाहती है. एक ऐसे सामाजिक कार्यकर्ता की आवाज को जिसके चिकित्सीय प्रयासों की कायल कभी खुद सरकार हुआ करती थी। एक ऐसे व्यक्ति की आवाज को दबाना चाहती है जिनके कामों की अगर काव्यात्मक अभिव्यक्ति दें तो-
या तो अ ब स की तरह जीना है या फिर सुकरात की तरह जहर पीना है..
नागरिक अधिकारों की बात करनेवाले, आदिवासियों के बीच चुपचाप इलाज करनेवाले विनायक सेन की गलती सिर्फ इतनी है कि वो जनता की तकलीफों की जड़ तक गए औ जब जड़ खोज निकाला तो पाया कि हमारे शोषक और सेवक की जड़े आपस में गुंथी पड़ी है. बस...
लेकिन फारुकी साहब के दास्तान गोई के शब्दों में- अय्यार एक ही थोड़े हैं जादूगर, किस-किस के चारो ओर सुरक्षा के फेरे डालोगे और उससे कब तक जुडूम-जुडूम की आवाज आती रहेगी?
मुझे नहीं पता कि साहित्य अकादमी ने उदय प्रकाश को साल 2008 का साहित्य अकादमी पुरस्कार देकर अपनी किस भूल को सुधारने की कोशिश की है? मुझे यह भी नहीं पता कि जिस लेखक के "मोहनदास" की नौकरी पर साजिश करके कब्जा कर लिया जाता है, सरेआम उसका हक मार लिया जाता है,उसी लेखक को अकादमिक जगत में कभी भी नौकरी न देने और अब साहित्य अकादमी देने के बीच क्या साम्य है? मुझे ये भी नहीं पता कि यह पुरस्कार आज के दौर के हिन्दी के सबसे सक्रिय और संवेदनशील लेखक के लिए सम्मान है या फिर पढ़ने-पढ़ानेवाली दुनिया से निर्वासित रखकर अब मुआवजा देने की कोशिश? हां इतनी दिलचस्पी जरुर रहेगी कि हमें कोई बता दे कि पुरस्कार चयन समिति में वे कौन लोग थे जिन्होंने उदय प्रकाश के नाम पर पहली बार अडंगा न लगाया हो और अपने स्वाभाविक कर्म से चूक गए? लेकिन मैं परसों से लेकर आजतक बहुत खुश हूं। अपने प्रिय लेखक को लेकर तब तक खुश रहूंगा,जब तक फेसबुक,ट्विटर और वर्चुअल माध्यम पर उनके लिए बधाई संदेशों का तांता लगा रहता है। मैं इसलिए खुश हूं कि हमारा प्रिय लेखक इस पुरस्कार से खुश है। रचना के स्तर पर अगर मेरा लेखक एक चरित्र की हैसियत से आता है और रचना के आखिरी पन्ने तक उदास,व्यवस्था के प्रति उदासीन और अपने साथ किए जानेवाले कुचक्रों को लेकर संवेदना के स्तर पर या तो अतितरल या अतिकठोर हो जाता है तो मुझे कोई तकलीफ नहीं होती,कुछ भी अटपटा नहीं लगता। लेकिन जीवन के ठोस,निर्मम और वास्तविक धरातल पर मैं हमेशा चाहूंगा कि वह खुश रहे। यह एक पाठक की बहुत ही स्वाभाविक सद्इच्छा है,प्लीज इस पर नजर न लगाएं और न ही इसमें गहन बौद्धिकता के क्षण तलाशने की कोशिश करें।
मेरे बधाई संदेश के बाद उदय प्रकाश की तरफ से जो जबाबी संदेश मिला,उसे तीन-चार बार पढ़ते हुए सहज ही अंदाजा लगा सका था कि उन्हें इस पुरस्कार को लेकर कितनी खुशी हो रही होगी? हम चाहेंगे कि वो इस खुशी को लंबे समय तक के लिए अपने भीतर समेटे रहें। लेकिन हम अपने कमरे में बैठे-बैठे महसूस कर रहे हैं कि उनकी यह खुशी कुछ पाने के बजाय खो जाने के बीच मिल जाने की खुशी है जो स्वाभाविक खुशी से कहीं ज्यादा गाढ़ी,स्थायी और टिकाउ है। मुझे खतरा इस बात का है कि कहीं उदय प्रकाश को सिस्टम के प्रति एक बार फिर से न भरोसा जाग जाए। लेकिन फिर सोचता हूं कि एक लेखक होने के पहले नाक से सांस लेनेवाले और आंखों से नम हो जानेवाले औसत दर्जे के इंसान के तौर पर उदय प्रकश के बीच इस रत्तीभर भरोसे का लौट आना अनिवार्य है,ये भरोसा उन्हें सहमति से कहीं ज्यादा सुकून देगा। लगातार छीजती जाती उम्मीदों के बीच पैबंद की ही तरह ही सही,सिस्टम की देह पर टांगे रखेगा। इस रत्तीभर भरोसे का बना रहना औसत दर्जे के इंसान उदय प्रकाश के साथ-साथ इस पूरी व्यवस्था के लिए भी जरुरी है नहीं तो या तो आत्मघाती या फिर बर्बर हो जाने का बराबर खतरा बना रहेगा।
उदय प्रकाश से मेरी कुल मुलाकात आधे दर्जन के आसपास की होगी। इस आधे दर्जन की मुलाकात में कभी ज्यादा सघन तो कभी थोड़ा कम लेकिन सामान्य रहा- एक समृद्ध सोच,उत्साहित कर देनेवाला अंदाज,लगातार लिखते रहने के लिए सुलगा देनेवाली तारीफें और जिंदगी पर भरोसा करने की हिदायतें और सलाह। यह सबकुछ मिलकर अपने आप एक ऐसा व्योम रच जाता कि जिससे निकलने का मन नहीं करता। एक बार मैंने उनके ब्लॉग पर कमेंट कर दिया था- उदय प्रकाश मुझे हिन्दी के अकेले ऐसे रचनाकार लगते हैं जिन्हें देखकर महसूस करता हूं और भरोसा जगता है कि आप लिखकर भी वो सबकुछ हासिल कर सकते हैं जिसके लिए लोग दुनियाभर के समझौते करते हैं। अपने प्रिय लेखक ने अपने घर की एक-एक चीज को दिखाते हुए कहा था- ये सब हासिल कर सकते हैं,आपने कहा था न। हां,सब हासिल कर सकते हैं,बस भरोसे से लिखते रहिए। लेकिन इस भरोसे के बीच भी जिसे कि लंबे समय तक खुश रहने की कामना के साथ भी उस प्रसंग और उस परिवेश को याद करना जरुरी लग रहा है।
उदय प्रकाश के साथ मैं जब भी मिला,वो बहुत ही समृद्ध माहौल रहा। ये समृद्धि सिर्फ वैचारिक या फिर अनुभव के स्तर पर नहीं ठेठ वस्तु आधारित समृद्धि के स्तर पर जिस पर हिन्दी समाज दुनियाभर की शैतानी स्टीगरें चस्पाता है और जिसे हासिल करने के लिए मारा-मारा फिरता है। यूनिवर्सिटी का सबसे खूबसूरत सेमिनार हॉल,दिल्ली का सबसे पॉश इलाका,किताबों और मंहगी शराब की बोतलों के बीच अटके हमलोग। लेकिन इस समृद्धि के बीच कई बार वो भाव आ जाते जिसे महसूस करते हुए मुझे अफसोस होता। यह मुझे एक लेखक के दर्द से कहीं ज्यादा हिन्दी समाज के ओछेपन और बजबजाती मानसिकता का हिस्सा लगता। मुझे नहीं पता कि अकादमिक जगत में किसी को नहीं जुड़ने देने के पीछे उसकी कौन सी कमी आड़े आ जाती है लेकिन जिन योग्यताओं और खूबियों के बारे में सुनता आया हूं,वो सब तो अपने लेखक के पास सालों से है। फिर वह क्यों इस दुनिया से निर्वासित कर दिया गया? मैं देश के अंग्रेजी अखबारों और विदेशी पत्रिकाओं की कतरनों के बीच उनके साथ बैठा हूं जो कि उन पर लिखे गए हैं। हमें अपने उपर भी भरोसा नहीं होता और जैसे कभी आंखों में आंसू के छलक जाने पर पास की चीजें भी बहुत दूर की दिखाई देती है,वैसी स्थिति बनती है और लेखक बिल्कुल पास में बैठा है। क्या इतनी सारी चीजें,तारीफ और सम्मान में लिखे गए इन हजारों शब्दों के बीच लेखक इस स्तर पर आकर इतना इमोशनल हो जाएगा,यकीन नहीं होता। मुझे फिर लेखक पर गुस्सा आता है,इतनी चीजों के बावजूद अकादमिक दुनिया में न होने का दुख सालता है,यह सचमुच इतना बड़ा दुख है? फिर मैं अपने को धिक्कारता हूं कि तुम अपने लेखक की इस स्वाभाविक स्थिति के साथ पिंड़ छुड़ाकर भागना चाहते हो? फिर जब-तब महसूस करता हूं कि आप दुनियाभर में कितने भी फूलों से न लाद दिए जाएं,तारीफों के मानपत्र से दराज भर जाएं लेकिन अपने ही समाज में,अपने ही लोगों के बीच निर्वासित कर दिए जाने का दर्द उस पर भारी पड़ता है। मैंने तब भी कहा था और आज भी कहता हूं कि आप जिस मुकाम पर है, लोग देखकर न जाने अपनी कितनी रातें और कितनी चेलों की खेप वहां तक पहुंचने के लिए खेप देते हैं? लेकिन
इस अकादमिक सींकचों को छोड़ दें तो उदय प्रकाश इससे ठीक उलट पाठकों से प्यार पानेवाले सबसे ज्यादा खुशनसीब लेखकों में से हैं। उन तमाम बड़े लेखकों से भी कहीं ज्यादा जो विश्वविद्यालयों की सिलेबस में तो जगह पा लेते हैं लेकिन जिन पर प्रश्नोत्तर तैयार करते समय छात्र बिना उनके साहित्यिक अवदान पर गौर फरमाए, आड़ी-तिरछी गालियां बक दिया करते हैं। ये उदय प्रकाश के लिए कितना सुखद है कि वो ऐसे महान रचानकार नहीं बने जिन्हें लोग परीक्षा में सफल होने के लिए पढ़ा करते हों और जिनकी लिखी गई रचनाएं परीक्षा खत्म होने के बाद व्ऑयज टायलेट में गंधाने लग जाती हों। ये कितना अलग और खुश होने की वजह है कि उनकी रचनाएं लाइब्रेरी की तोड़-जोड़ से नहीं पाठकों की मांग पर बिकती है. उनकी एक-एक रचनाओं को जीनेवाला पाठक,उनके एक-एक गढ़े गए चरित्रों में अपने हिस्से का सच खोजनेवाला पाठक बेहतर तरीके से जानता है कि उसके लेखक का क्या कद है? वो अपनी कद के साथ जीता रहे,इससे बड़ी खुशी एक पाठक के लिए और क्या हो सकती है?
उदय प्रकाश को सुनिए बीबीसी हिन्दी पर- सच बोलकर आप खतरें में घिरते हैं
उदय प्रकाश को सुनिए बीबीसी हिन्दी पर- सच बोलकर आप खतरें में घिरते हैं
दूधनाथ सिंह को छोड़कर दिल्ली से बाहर का एक भी वक्ता नहीं है लेकिन ये यूजीसी की ओर से फंडेड राष्ट्रीय संगोष्ठी है। राष्ट्रीयता की अवधारणा के साथ इतना घटिया और अश्लील मजाक शायद ही आपको कहीं देखने को मिले। जिस हिन्दी साहित्य और समाज के लोगों का ककहरा राष्ट्रीय शब्द से शुरु होता है और जर्जर होने तक इसी राष्ट्रीय पर जाकर खत्म हो जाता है,वहां राष्ट्रीयता के नाम पर इस तरह की बेशर्मी की जाएगी,इस बेशर्मी से ही हिन्दी समाज की तंग मानसिकता उघड़कर बजबजाती हुई हमारे सामने आ जाती है।
हिन्दू कॉलेज,दिल्ली विश्वविद्यालय में अज्ञेय की जन्मशती को लेकर दो दिनों की राष्ट्रीय संगोष्ठी( दिसंबर 14 और 15) का आयोजन किया गया है। इस आयोजन के लिए यूजीसी की तरफ से पैसे मिले हैं। जाहिर है जब पैसे यूजीसी से मिले हैं और वो भी राष्ट्रीय संगोष्ठी के नाम पर तो इसका सीधा मतलब है कि इसमें देश के अधिक से अधिक लोगों,कॉलेजों और विचारों की भागीदारी हो। वैसे भी अगर संगोष्ठी के लिए पैसे यूजीसी की तरफ से दिए जाते हैं तो आयोजकों पर इस बात की खास जिम्मेदारी बढ़ जाती है कि वो इस राष्ट्रीय संगोष्ठी की अवधारणा को लेकर चौकस रहे। लेकिन दिल्ली से बाहर एक अकेले दूधनाथ सिंह को बुलाकर बाकी दिल्ली के 20-25 किलोमीटर की रेडियस पर रह रहे और लगभग जंग खा चुके आलोचकों को बुलाकर उसे राष्ट्रीय संगोष्ठी का नाम देना पूरी अवधारणा की सरेआम धज्जियां उड़ाने जैसा है। मुझे याद है अब तक मैंने कम से कम दस राष्ट्रीय(यूजीसी की ओर से फंडेड) संगोष्ठियों में हिस्सा लिया है और दो संगोष्ठियों में बतौर आयोजकों की तरफ से शामिल रहा हूं,इस तरह की पहली घटना मुझे दिखाई दे रही है जहां कि एक शख्स के दिल्ली से बाहर होने पर राष्ट्रीय संगोष्ठी करा ली जा रही है। मैंने तमाम सेमिनारों में कम से कम छ-सात राज्यों के प्रतिनिधि वक्ता और कुछ हद तक श्रोताओं के शामिल होने की स्थिति को ही राष्ट्रीय संगोष्ठी के तौर पर देखा है। जहां तक मेरी अपनी समझदारी और जानकारी है कि इस तरह के सेमिनार के लिए ऐसा किया जाना जरुरी भी है। यूजीसी इसके लिए दो स्तरों पर पैसे देती है- एक तो कार्यक्रम के आयोजन के लिए और दूसरा कि कुल की आधी रकम प्रकाशन के लिए।
हिन्दू कॉलेज या देश के किसी भी कॉलेज या विश्वविद्यालय की अपनी इच्छा है कि वो अज्ञेय,मुक्तिबोध या किसी भी रचना या रचनाकार के बहाने राजपूत सभा,ब्राह्ण सभा या दिल्ली सभा का आयोजन करा दें। लेकिन यूजीसी की ओर से सहयोग दी जानेवाली संगोष्ठी कोई हेयर कटिंग सलून या होटल नहीं होते कि ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए नाम के आगे नेशनल या इन्टरनेशनल जोड़ दिया जाए। बाकी सारे ग्राहक भले ही चार-पांच गलियों में सिमटे हुए लोग हों। विभाग इस तरह से संगोष्ठी के आगे राष्ट्रीय चस्पाकर एक बड़ी अवधारणा को फ्रैक्चरड करने की कोशिश कर रहा है जो कि किसी भी अर्थ में सही नहीं है। सिर्फ दिल्ली के साहित्यकार अज्ञेय पर पंचायती कर देंगे और वो राष्ट्रीय संगोष्ठी का दर्जा पा जाएगा,ऐसी स्थिति में यूजीसी को विभाग से सवाल किए जाने चाहिए कि आपने बाहर से कितने लोगों को बुलाया या फिर सिर्फ दिल्ली के ही लोगों को क्यों बुलाया?
देशभर के हिन्दी विभागों के रिसर्चर से मिलिए,आपको हर चार में से एक अज्ञेय,मुक्तिबोध या नई कविता पर शोध करता मिल जाएगा। इन विषयों पर रिसर्च कर चुके लोगों की एक लंबी फौज है। लेकिन वक्ताओं की लिस्ट में एक भी ऐसा नाम नहीं है जो कि 40 साल से नीचे का हो। अभी अज्ञेय,नागार्जुन,शमशेर जैसे रचनाकारों की सीजन होने की वजह से दर्जनों साहित्यिक पत्रिकाएं इन पर विशेषांक निकाल रही हैं। मेरे कुछ साहित्यिक साथी इनके लिए शोधपरक लेख भी लिख रहे हैं और खुद संपादकों की डिमांड में नए लोग हैं। आप उन अंकों को पलटें तो 25 से 35-40 तक के लोगों की एक लंबी सूचि मिल जाएगी। लेकिन इस संगोष्ठी में एक भी ऐसा नाम नहीं है। आयोजक इस बात से पल्ला नहीं झाड़ सकते कि उन्हें ऐसे नए लोगों के एक भी नाम नहीं मिले,बल्कि उन्होंने इस दिशा में न तो पहल की और न ही ऐसा करना जरुरी समझा। इससे क्या संदेश जाता है कि पिछले दस-पन्द्रह साल में पूरे दे के िसी भी विश्वविद्यालय ने एक भी अज्ञेय का जानकार पैदा नहीं किया। अगर 15 साल में सैंकड़ों रिसर्चर अज्ञेय और नई कविता पर शोध करने और लेख लिखने के बावजूद यूजीसी के पैसे पर आयोजित किसी राष्ट्रीय संगोष्ठी में आने का दर्जा नहीं पा सकते तो फिर सरकार के लाखों रुपये खर्च करके इन्हें जारी रखने का क्या तुक है? मैं ये बिल्कुल नहीं कह रहा कि रिसर्चर की सारी काबिलियत उसकी संगोष्ठी में शिरकत करने से ही साबित होगी लेकिन कल को इस संगोष्ठी के वक्तव्य पर आधारित पाठ और पुस्तकें तैयार होंगी तो उसमें तो 45 से नीचे का कोई भी लेखक नहीं होगा जबकि पत्रिकाओं में वो लगातार लिख रहा है। अब सोचिए कि ऐसे में वो कितनी बड़ी साजिश का शिकार होता है?
इस संगोष्ठी में एक भी ऐसा नाम नहीं है जो कि केंद्रीय विश्वविद्यालय से बाहर के हों। मतलब ये कि केन्द्रीय विश्वविद्यालय से बाहर एक भी ऐसा साहित्यकार या आलोचक नहीं है जो कि अज्ञेय पर बात करने की क्षमता रखता हो। ये कॉलेज के विभाग की अपनी समझ है। जो विभाग तमाम रचना और रचनाकारों में राष्ट्रीयता,आंचलिकता और सरोकार की घुट्टी बीए फर्स्ट इयर के स्टूडेंट से ही पिलानी शुर कर देता हो,उसकी इस हरकत पर सैद्धांतिक अवधारणाओं और व्यवहार के बीच उसके जड़ हो जाने की स्थिति बहुत ही नंगई के साथ सामने आती है। दिल्ली में बैठे साहित्यकारों और आलोचकों के प्रति देशभर के लोगों की टकटकी बंधी रहती है,यहां से जब लोग छोटे शहरों और कस्बों के कॉलेजों में बोलने और शिरकत करने जाते हैं,उनकी जो कहां उठाउं-कहां बिठाउं की शैली में स्वागत किए जाते हैं, फेसबुक पर टंगी इस सूचना और वक्ताओं की लिस्ट देखकर कैसा महसूस करते हैं,इसका शायद रत्तीभर भी अंदाजा नहीं है। बड़े नामों को जुटाने से एकबारगी तो लगता है कि भव्य आयोजन होगा लेकिन इसके साथ ही आयोजकों की ठहर चुकी समझ की तरफ इशारा करता है कि उसने पिछले 15 सालों में एक भी नया नाम नहीं खोज पाए। बड़े नामों का आना आयोजन की सफलता जरुर तय करती है लेकिन नए नामों को शामिल नहीं किया जाना,उसकी जड़ता को रेखांकित करती है। हालांकि इस तरह की संगोष्ठियां नेक्सस बनाने और एक-दूसरे को तुष्ट करने के लिए पूरी तरह बदनाम हो चुकी हैं,जिसके प्रतिरोध में लिखे जाने की स्थिति में एवनार्मल करार दिए जाने का खतरा है लेकिन सैद्धांतिक तौर पर नए विचारों और चिंतन के लिए ही यूजीसी लाखों रुपये खर्च करके कराती है।
इस संगोष्ठी में एक भी दलित वक्ता नहीं है। नहीं हैं तो इसका मतलब है कि देश में अज्ञेय के एक भी दलित जानकार नहीं है। कुल चार सत्र में से पहले के तीन सत्र में एक भी स्त्री वक्ता नहीं है। अंतिम सत्र में जो कि अज्ञेय के चिंतन पक्ष को लेकर है,उसमें दो स्त्री वक्ताओं निर्मला जैन(अध्यक्षता) और राजी सेठ को रखा गया है। पहले के तीन सत्र जिसमें कि उनके गद्य और कविता से संबंधित सत्र है,एक भी वक्ता नहीं है। कुल बारह वक्ताओं में से दो स्त्री वक्ता हैं और बाकी पुरुष वक्ता। बाकी इन वक्ताओं के नाम के अंत में लगे हॉलमार्क काफी कुछ कह देते हैं।
अब सवाल है कि ये सबकुछ बस आयोजन का एक स्वाभाविक हिस्सा है या फिर इसमें गलत क्या है? फेसबुक पर एक शख्स ने इस सेमिनार के प्रति अहमति में लिखे जाने पर खुन्नस में आकर ऐसा लिखने की बात कही। लेकिन इसका प्रतिरोध किया जाना वाकई खुन्नस का हिस्सा है या फिर कार्यक्रम की रुपरेखा एक सैंपल पेपर की तरह है जिसके आधार पर हमें देशभर में होनेवाली राष्ट्रीय संगोष्ठी जिसे कि यूजीसी पैसे देती है,उस पर सोचने और तय करने के लिए विवश करती है कि यूजीसी के करोड़ों रुपये किस तरह एक अवधारणा को फ्रैक्चरड किए जाने,खंडित और क्षतिग्रस्त किए जाने के लिए पानी की तरह बहाए जा रहे हैं। राष्ट्रीयता की अवधारणा अपने आप में बहुत विवादास्पद है जिसका मैं खुद भी पक्षधर नहीं हूं। लेकिन अगर राष्ट्रीयता सुविधा और शामिल किए जाने की शर्त तक परिभाषित होती है तो दिल्ली के चंद साहित्यकारों को पूरे देश को काटकर,उनका हक मारकर राष्ट्रीय होने और कहलाने का कुचक्र कितनी घिनौनी साजिश को मजबूत करती हैं,जरा सोचिए?
आशुतोष( IBN7) की परिभाषा से उपेन्द्र राय(सहारा मीडिया) का काम दल्लागिरी का ही रहा है
Posted On 7:36 pm by विनीत कुमार | 2 comments
2G स्पेक्ट्रम घोटाला मामले में नीरा राडिया से हुई बातचीत के टेप इंटरनेट पर लगातार तैरते रहने से एक के बाद एक मीडिया दिग्गज लपेटे में आते रहे हैं। लेकिन अब तक इन टेपों में खास बात रही है कि इनमें से कोई भी पत्रकार हिन्दी मीडिया का नहीं रहा। इससे उपरी तौर पर ये मैसेज गया कि हिन्दी के मीडियाकर्मी अंग्रेजी मीडियाकर्मियों के मुकाबले कहीं ज्यादा पाक-साफ हैं। वो छोटे-मोटे समझौते तो करते रहते हैं लेकिन इस तरह देश को हिला देनेवाले करनामे नहीं करते। तब भाषाई स्तर पर ये निष्कर्ष निकाला गया कि आखिर हिन्दी तो है अपनी भाषा,इस देश की भाषा। कितना भी कुछ हो जाए,इस भाषा से जुड़े मीडियाकर्मी देश को इस तरह से बेच खाने का काम नहीं करेंगे। कुछ मीडियाकर्मियों ने इसे ईमानदारी के तौर पर प्रोजेक्ट किया और आशुतोष(IBN7) जैसे पत्रकार ने तो यहां तक घोषणा कर दी कि उन्हें सब पता होता है कि मीडिया के भीतर कुछ पत्रकार जो करते हैं वो दरअसल दल्लागिरी कहते हैं,अंग्रेजी में इसे भले ही लॉबिइंग कहा जाता हो। इस काम को करनेवाले दल्ले होते हैं। आशुतोष को ये जुमला इतना हिट समझ आया कि पटना गांधी मैदान में चल रहे पुस्तक मेले में इसे दोबारा दोहराया और जमकर तालियां बटोरी। यूट्यूब पर डाली गयी वीडियो को देखकर मैं मन मसोसकर रह गया कि उनमें से किसी ने ये सवाल क्यों नहीं किया कि अगर आपको पता है कि मीडिया में कुछ लोग दल्लागिरी करते हैं तो अब तक ऐसे कितने दल्लों पर स्टोरी चलायी है या फिर अपने सबसे प्रिय अखबार हिन्दुस्तान में उनके बारे में लिखा है। 2G स्पेक्ट्रम मामले में मीडिया की गर्दन बुरी तरह फंस जाने की स्थिति हिन्दी मीडिया जहां पूरी तरह खामोश है,वहीं आशुतोष लीड ले रहे हैं और एक तरह से कहिए तो हिन्दी मीडिया की ईमानदारी के झंडे गाड़ रहे हैं।लेकिन इस घटना का दूसरा पक्ष है कि मीडिया और सत्ता के गलियारों में हिन्दी पत्रकारों को लेकर बहुत ही नकारात्मक छवि बनी है। लोगों को अफसोस हो रहा है कि हिन्दी में ऐसा कोई भी एक पत्रकार नहीं है जिसकी इतनी हैसियत हो कि वो नीरा राडिया जैसी लॉबिइस्ट से बात कर सके। यकीन मानिए दूसरा खेमा इसे हिन्दी पत्रकारों की ईमानदारी न समझकर उसकी औकात पर तरस खा रहा है कि बेकार में इतना हो-हल्ला मचाए फिरते हैं ये लोग,नीरा राडिया से बात तक नहीं होती। आज मीडिया के भीतर ऐसा कुछ भी नहीं है जो कि उघड़कर आम लोगों के बीच सामने न आ गया हो,मीडिया एमसीडी की बजबजाती हुई नाली की तरह दिख रहा है,ऐसे में हिन्दी के पत्रकारों का नाम न आना खुशी नहीं शर्म की बात है। बीबीसी के विनोद वर्मा ने बीबीसी ब्लॉग खरी-खरी में लिखा कि आज बड़े पत्रकार होना का सीधा पैमाना है कि आपकी नीरा राडिया से बातचीत होती है या हुई है कि नहीं। ये आज का एक बड़ा पैमाना है और फिर विस्तार से इसके कारणों की चर्चा की है। उस हिसाब से सोचें तो सहारा मीडिया के न्यूज डायरेक्टर उपेन्द्र राय हिन्दी के अकेले मीडियाकर्मी हैं जिन्होंने कि हिन्दी मीडिया की इज्जत बचा ली है।
12 दिसंबर 2010 को JOURNALIST FIGURED IN TALKS WITH IA EX-CHIEF
नाम से छपी स्टोरी में मेल टुडे ने बताया है उपेन्द्र राय की नीरा राडिया से बातचीत हुई है। स्टोरी में बताया गया है कि उपेन्द्र राय जब स्टार न्यूज के लिए एयरलाइंस पर स्टोरी कर रहे थे,उस दौरान नीरा राडिया से बातचीत की थी। उपेनद्र ने भी स्पष्ट किया है कि उसकी नीरा राडिया से बातचीत हुई है जिसकी जानकारी स्टार न्यूज को उस समय दे दी गयी थी। नीरा राडिया ने दूसरी खेप में जो ताजा टेप जारी हुए हैं उसमें पू्र्व आइएस अधिकारी औऱ 2002 में एयर इंडिया के हेड हुए सुनील अरोड़ा को बता रही है कि उपेन्द्र से उसकी बात हुई है और साथ में ये भी सवाल कर रही है कि क्या उपेन्द्र ने उन्हें फोन किया है क्योंकि वो आधे घंटे की स्टोरी बनाना चाह रहा था। अरोड़ा साहब बता रहे हैं कि उपेन्द्र का एक मिस्ड कॉल तो था। इस बातचीत से ऐसा कुछ भी जाहिर नहीं होता जिससे कि उपेन्द्र राय पर शंका जाहिर की जा सके। लेकिन स्टोरी के मुताबिक तीन चीजें स्पष्ट है- 1. उपेन्द्र राय नीरा राडिया से बतौर मैजिक और क्रॉन एयरलाइंस की चैयरपर्सन होने के नाते बातचीत करना चाह रहे थे. 2. एयर इंडिया के हेड सुनील अरोड़ा के नीरा राडिया से बहुत ही अच्छे संबंध हैं और 3. उपेन्द्र राय ने नीरा राडिया को ये भी बताया कि वो सुनील अरोड़ा से भी बात करेंगे।
28 साल से भी कम उम्र के होने पर उपेन्द्र राय जब उसी सहारा मीडिया में बतौर न्यूज डायरेक्टर बनकर आए जिसमें कभी स्ट्रिंगर हुआ करते तो मीडिया गलियारों में हंगामा मच गया। मीडिया के बड़े-बड़े तुर्रम खां के तोते उड़ गए। हिन्दी-अंग्रेजी की मीडिया साइटों ने उनके नाम के कसीदे पढ़ने शुरु कर दिए। मीडिया का काम करते हुए एमबीए कोर्स करने को लेकर जमकर तारीफें की गयीं और उन्हें औसत मीडियाकर्मियों से अलग बात बताया गया। लेकिन जिनलोगों को चैनलों और मीडिया के भीतर उपर बढ़ने के तरीके महीनी से पता है,उनलोगों ने आपसी बातचीत में कहना शुरु किया- कुछ तो बात है,बॉस। नहीं तो एक से एक धुरंधर पड़े हैं। इसी बीच खबर मिलने लगी कि सहारा एयरलाइंस और जेटलाइट के बीच जो डील हुई है,उसके सूत्रधार उपेन्द्र राय ही हैं और उन्हें न्यूज डायरेक्टर का ये प्रसाद उसी काम के लिए मिला है। ये खबर इतनी गर्म हुई कि देखते ही देखते हमलोगों के बीच उपेन्द्र राय की छवि एकदम से बदल गयी। पत्रकारिता की सीढ़ी चढ़कर उपेन्द्र राय ने कैसे पीआरगिरी शुरु कर दी है,इसके कई किस्से टुकड़ों-टुकड़ों में हमें कई लोगों से सुनने को मिलने लगे।
साफ-सुथरी छविवाले उपेन्द्र राय के लिए पीआरगिरी हॉबी का हिस्सा रहा है। इसलिए अब जब उपेन्द्र राय का नाम आया तो लोगों को हैरानी होने के बजाय इस बात पर हैरानी हुई कि अब तक इनका नाम क्यों नहीं आया। वो कुछ नहीं,बस लोगों से संपर्क बनाने में अपनी खुशी ढूंढते हैं और वो भी बहुत ही ईमानदार तरीके से। बाकी के लोगों की तरह वो 2sk फार्मूले पर काम नहीं करते। मीडिया के लोगों के बीच उपेन्द्र राय की छवि जबरदस्त ढंग से नेटवर्किंग करनेवालों में से रही है। पत्रकारिता करने की उनकी पहचान बहुत पहले ही खत्म हो गयी थी। सहारा में आकर भी उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया जिसके दम पर उन्हें पत्रकार के तौर पर जाना जाए। हां,इसके ठीक उलट उन्होंने ऐसा हिसाब-किताब जरुर लगाया कि सालों से बीबीसी में काम करते आए संजीव श्रीवास्तव जिनका की अपना नाम और शोहरत है,उपेन्द्र राय के आगे सहारा से उन्हें जाना पड़ा। लोगों का मानना है कि ये उपेन्द्र राय की पत्रकारिता के बदौलत नहीं बल्कि पीआरगिरी की महिमा है। उनकी इस कला के आगे अच्छे-अच्छे महारथी पानी भरने लग जाएं।
जिस तरह का माहौल बना है,ऐसे में स्टार न्यूज की एयर इंडिया पर बनी स्टोरी सहित उपेन्द्र राय की कवर की गयी उन तमाम स्टोरी पर विश्लेषण की जरुरत है जिसके बिना पर कुछ तथ्य खुलकर सामने आ सकेंगे। मीडिया में आए दिन मीडियाकर्मियों को लेकर जो खबरें आ रही है,उससे एक बात तो साफ है कि मीडिया के भीतर लॉबिइंग का काम सालों से तेजी से चल रहा है,जिसमें हिन्दी मीडिया के लोग भी शामिल है। आशुतोष जैसे काबिल पत्रकार इसका ठिकरा भले ही सिर्फ स्ट्रिंगरों पर फोड़कर बड़े पत्रकारों को महान साबित करने में जुटे हैं लेकिन आशुतोष को ये साफ करना चाहिए कि दिल्ली-नोएडा से स्ट्रिंगरों को विज्ञापन उगाहने के जो दबाव बनाने का काम किया जाता है,उसमें चैनल और स्ट्रिंगरों का कमीशन कितना होता है? जाहिर है खेल किसी एक शख्स का नहीं बल्कि पूरे के पूरे संस्थान के भीतर का है।
नोट- पोस्ट के साथ पटना गांधी मैंदान में लगे पुस्तक मेला में आशुतोष की अमृतवाणी और मेल टुडे की लिंक अटैच्ड है।
सीधी बात के नाम पर अगर आप अब तक प्रभु चावला की मसखरी से तंग आ चुके हैं तो खुश हो लीजिए,अब वो सीधी बात में नजर नहीं आएंगे। आजतक और इंडिया टुडे ग्रुप से उनका पत्ता साफ हो गया है। आजतक के सूत्रों के मुताबिक प्रभु चावला ने मैनेजमेंट को इस्तीफा सौंपा है यानी कि खुद अपनी इच्छा से वहां से चल देने में ही अपनी भलाई समझी। लेकिन मीडिया कल्चर के हिसाब से सोचें तो यहां कभी भी कोई बड़ा मीडियाकर्मी निकाला नहीं जाता बल्कि या तो वो कुछ दिनों के लिए छुट्टी पर चला जाता है या फिर खुद इस्तीफी दे देता है। आप लिस्ट उठाकर देख लीजिए,जितने भी बड़े नामों की मीडिया संस्थानों से विदाई होती है तो पहली खबर बनती है कि वो कुछ दिनों के लिए आराम करना चाहते हैं,अपने परिवारवालों पर समय देना चाहते हैं। इस बीच हमारी भूलने की आदत इतनी है कि हम दोबारा नोटिस ही नहीं लेते कि जो छुट्टी पर गया वो लौटा क्यों नहीं। हल्के से तब तक वो इस्तीफा देकर बाहर हो लेते हैं या तो कर दिए जाते हैं। दर्जनभर मीडियाकर्मियों को तो मैंने खुद मैनेजमेंट के दबाव में आकर इस्तीफा देते देखा है। चैंबर या न्यूजरुम में उनके उदास चेहरे बाहर आते ही ऐंठकर अकड़ में तब्दील हो जाती है- मार दिया लात स्साली इस नौकरी को,रखा ही क्या था इसमे? बड़े से बड़े दिग्गज मीडियाकर्मियों के कार्ड पंच न होने लगे,ब्लॉग कर दिए जाएं,गार्ड उन्हें अंदर जाने से रोक दे लेकिन मीडिया में वो इस्तीफा ही कहलाता है। किसी मीडियाकर्मी ने इस रवैये का प्रतिकार नहीं किया। शुक्र है कि प्रभु चावला छुट्टी पर नहीं गए,सीधे वहां से विदा करार दिए गए हैं।
टीवी टुडे ग्रुप से प्रभु चावला का जाना एक बड़ी घटना है क्योंकि 2G स्पेक्ट्रम घोटाला मामले में नीरा राडिया के साथ बातचीत के टेप बाकी लोगों के साथ इनकी भी वर्चुअल स्पेस पर तैर रहे थे,इनकी भी गर्दन अटकी हुई थी। तब आजतक के सहयोगी चैनल हेडलाइंस टुडे ने 1 दिसंबर की रात मीडिया दिग्गजों को बुलाकर पंचायती की थी और प्रभु चावला को पाक-साफ करार दिया था। अब आज उनके इस्तीफे की खबर से ये साफ होने लगा है कि चैनल ने जो पंचायती की और जो नतीजे निकलकर आए,उस पर उन्हें खुद भी भरोसा नहीं है। लिहाजा मैनेजमेंट ने सोचा कि इस बदनामी का वजन बेईज्जती में डूबकर और भारी हो जाए,इससे बेहतर है कि इन्हें अलग कर दिया जाए।
उनके जाने के कारणों को लेकर जो कयास लगाए जा रहे हैं,उनमें से एक कारण ये भी है कि उन्होंने अरुण पुरी की सेवा देने से मुक्त होने का मन तब ही बना लिया था जब एम जे अकबर को ठीक उनके सिर पर लाकर बिठा दिया गया। एम जे अकबर कायदे से महीने भर भी इंडिया न्यूज में रहकर कुछ भी करिश्मा नहीं कर पाए होंगे कि इंडिया टुडे ग्रुप में आ धमके और तो और प्रभु चावला जो कि इंडिया टुडे के ग्रुप एडीटर हुआ करते, उस कुर्सी को उनसे छीनकर और उसमें हेडलाइंस टुडे चैनल की भी तख्ती लगाकर एम जे अकबर के आगे बढ़ा दी गयी और प्रभू चावला के लिए इंडिया टुडे के रिजीनल संस्करण प्रभारी नाम की एक नयी लेकिन कमजोर कुर्सी बनयी गयी और उनके आगे सरका दिया गया। प्रभु चावला को अपनी छोटी होती साइज देखकर खुन्नस आया और तभी से उन्होंने मन बना लिया कि यहां से कट लेना है। बीच में ये भी हल्ला हुआ कि वो इंडिया न्यूज का रुख करेंगे। इंडिया न्यूज इंडिया टुडे को बता देना चाहता है कि अगर वो उनसे एम जे अकबर को छीन सकता है तो वो भी प्रभु चावला को अपने यहां सटा सकते हैं। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। प्रभु चावला को पता है कि इंडिया टुडे से सटे रहकर वो बाहर किस तरह का फायदा ले सकते हैं?
मेरी अपनी समझ है कि इंडिया टुडे और टीवीटुडे नेटवर्क मीडिया में उन विरले संस्थानों में से हैं जहां किसी के जाने से कोई फर्क पड़ता है। मैंने अपने अनुभव से देखा कि जब पुण्य प्रसून वाजपेयी मोटी पैकेज के आगे और अंदुरुनी राजनीति से पिंड छुड़ाने के फेर में सहारा चले गए और समय चैनल चलाने लगे,तब भी लोगों को लगा कि आजतक तो गया,कम से कम 10तक तो पिट ही गया लेकिन आजतक पर बहुत फर्क नहीं पड़ा। दीपक चौरसिया गए तो लगा कि आजतक की दीवार ढह गयी लेकिन कुछ खास फर्क नहीं पड़ा। न्यूज इज बैक का नगाड़ा पीटते हुए न्यूज24 में जब आजतक के सुप्रिया प्रसाद जैसे दिग्गज,आउटपुट हेड और टीआरपी की मशीन कहे जानेवाले अपने साथ भारी-भरकम टीम लेकर गए तो लगा कि आजतक तो अब अनाथ ही हो गया। सुमित अवस्थी IBN7 गए तो लगा कि ढह जाएगा आजतक। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। चैनल अपने तरीके से चलता रहा,ये टीवीटुडे नेटवर्क मैनेजमेंट की अपनी खासियत है। उल्टे जानेवाले लोग जल्द ही छटपटाकर वापस आने की फिराक में लगे रहते हैं जिसमें सुमि अवस्थी और श्वेता सिंह कामयाब हैं। इसलिए प्रभु चावला के जाने से संस्थान को कोई खास फर्क नहीं पड़नेवाला है और न ही वो अपनी साइज छोटी होने की वजह से गए हैं। जाने की पूरी-पूरी वजह राडिया-टेप,मीडिया कलह ही है।
मेरी अपनी समझ है कि इंडिया टुडे और टीवीटुडे नेटवर्क मीडिया में उन विरले संस्थानों में से हैं जहां किसी के जाने से कोई फर्क पड़ता है। मैंने अपने अनुभव से देखा कि जब पुण्य प्रसून वाजपेयी मोटी पैकेज के आगे और अंदुरुनी राजनीति से पिंड छुड़ाने के फेर में सहारा चले गए और समय चैनल चलाने लगे,तब भी लोगों को लगा कि आजतक तो गया,कम से कम 10तक तो पिट ही गया लेकिन आजतक पर बहुत फर्क नहीं पड़ा। दीपक चौरसिया गए तो लगा कि आजतक की दीवार ढह गयी लेकिन कुछ खास फर्क नहीं पड़ा। न्यूज इज बैक का नगाड़ा पीटते हुए न्यूज24 में जब आजतक के सुप्रिया प्रसाद जैसे दिग्गज,आउटपुट हेड और टीआरपी की मशीन कहे जानेवाले अपने साथ भारी-भरकम टीम लेकर गए तो लगा कि आजतक तो अब अनाथ ही हो गया। सुमित अवस्थी IBN7 गए तो लगा कि ढह जाएगा आजतक। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। चैनल अपने तरीके से चलता रहा,ये टीवीटुडे नेटवर्क मैनेजमेंट की अपनी खासियत है। उल्टे जानेवाले लोग जल्द ही छटपटाकर वापस आने की फिराक में लगे रहते हैं जिसमें सुमि अवस्थी और श्वेता सिंह कामयाब हैं। इसलिए प्रभु चावला के जाने से संस्थान को कोई खास फर्क नहीं पड़नेवाला है और न ही वो अपनी साइज छोटी होने की वजह से गए हैं। जाने की पूरी-पूरी वजह राडिया-टेप,मीडिया कलह ही है।
अब इस संदर्भ में देखें तो ये कितना दिलचस्प मामला है कि एक चैनल सालों से काम करनेवाले अपने मीडिया दिग्गज का जमकर बचाव करता है और अभी दस दिन भी नहीं होते हैं कि उसे बाहर का रास्ता दिखा देता है। ये किस किस्म का भरोसा और किस किस्म की दावेदारी है कि जिस पर उसे खुद भी यकीन नहीं है। प्रभु चावला का जाना साफ करता है कि पत्रकार चाहे कितना भी बड़ा हो,बात जहां पर्सनल पर आती है तो संस्थान उसे दूध की मक्खी की तरह फेंकने में बहुत ज्यादा वक्त नहीं लगाता। वीर साघंवी का नाम आया तो सांघवी ने खुद ही भावुक अंदाज में कॉलम लिखकर कुछ दिन बाद सामान्य स्थिति होने तक आराम करने की बात कर दी। फिर पता चला कि मैनेजमेंट ने उनकी साइज एडीटोरियल एडवाइजर से छोटी करके एडवायजर कर दी है। अभी तक सिर्फ NDTV24X7 ही है जो बरखा दत्त की साख में बट्टा लगने के बावजूद भी उसे ऑन स्क्री बनाए हुए है और उसका पद भी बना हुआ है। लेकिन हां सोशल साइट और बाकी इन्टरेक्टिव जगहों से उसे भी गायब कर दिया है। बरखा दत्त के बने रहने की एक वजह ये भी हो सकती है कि पिछले संडे को दि संडे गार्जियन ने NDTV24X7 में प्रणय रॉय और राधिका राय की ओर से करोड़ों रुपये की धोखाधड़ी करने के मामले में जो खबरें प्रकाशित की है,उसका असर हो। इस बीच बरखा दत्त को बने रहने देने में ही अपना भला चाह रहा हो। लेकिन इतना तो साफ है कि किसी भी मीडिया संस्थान का कलेजा इतना मजबूत नहीं है कि वो अपने मीडियाकर्मी का लंबे समय तक साथ दे। अब जबकि मीडिया संस्थान के लोग एक-एक करके खुद ही अपने आरोपित मीडियाकर्मियों को अलग कर रहे हैं ऐसे में चैनलों पर मीडिया एथिक्स को लेकर भाषणबाजी करना कितना भौंडेपन का काम है,आप ही सोचिए।
इधर खबर है कि प्रभु चावला न्यू इंडियन एक्सप्रेस ज्वायन करने जा रहे हैं जो कि मूल रुप से बैंग्लूरु की कंपनी है। अब सवाल है कि इंडिया टुडे ने तो आरोप के बिना पर प्रभु चावला की सजा का एलान कर दिया। लेकिन क्या आरोप सच साबित होने पर कानून और न्यायपालिका ऐसे पत्रकारों को दबोच पाएगी? एक बड़ा तबका जिस पत्रकार को देखकर अपनी राय बनाता आया है,क्या ऐसे दागदार पत्रकारों को अपनी तरफ से कोई सजा मुकर्रर करने की स्थिति में होगा? इनलोगों ने तो अपनी इतनी ताकत पैदा कर ली है कि टुडे की चौखट से धकिआए जाएंगे तो न्यूज एक्सप्रेस की गोद में गिरेंगे लेकिन सोशल जस्टिस......लागू होता भी है या नहीं इन पर?
इस मौके पर पढ़िए और सुनिए- प्रभु चावला के मास्टरी छोड़कर साईकिल से पत्रकारिता करने और इंडिया टुडे तक पहुंचने की कहानी
करोड़ों का नुकसान पहुंचाने में फंसे प्रसारी भारती के सीइओ
Posted On 11:43 pm by विनीत कुमार | 1 comments
ये मीडिया में करप्शन के उजागर होने और बड़े-बड़े आयकन के ध्वस्त हो जाने का दौर चल रहा है। इस कड़ी में अब प्रसार भारती के सीइओ बीएस लाली भी शामिल हो गए हैं। बीएस लाली पर आरोप है कि उन्होंने निजी प्रसारण कपंनियों को फायदा पहुंचाने का काम किया है जिससे प्रसार भारती को करोड़ों रुपये का नुकसान हुआ है। प्रसार भारती के भीतर उनकी मनमर्जी इस तरह से बनी रही कि उन्होंने प्रावधानों को ताक पर रखकर निजी स्पोर्ट्स चैनलों से सांठ-गांठ कर उन्हें फायदा पहुंचाया है। बीएस लाली का कोई एक कारनामा नहीं है जिसे कि बताया जाए,उनके कार्यकाल में दबंगई की लंबी सूची है जिसे देखकर हैरानी होती है कि सरकार ने अब जाकर क्यों कारवायी करने का मन बनाया है? यह काम बहुत पहले ही हो जाना चाहिए था। पहले राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल की तरफ से बीएस लाली के खिलाफ जांच करने की सिग्नल मिलने के बाद शुक्रवार को सूचना प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी की तरफ से भी हरी झंडी दिखा दी गयी है। दो-तीन दिनों में ही साफ हो जाएगा कि लाली का निलंबन होना है कि नहीं। उसके बाद मामला सुप्रीम कोर्ट में जाएगा।
पब्लिक ब्राडकास्टिंग में पैसे के हेर-फेर को लेकर एनडीटीवी( प्रणय राय) के बाद ये दूसरा मौका है जब मामला कोर्ट तक जाने की स्थिति तक पहुंच गया है। एक प्रोडक्शन हाउस के तौर पर जब NDTV दि वर्ल्ड दिस वीक बनाया करता औऱ लाइसेंस फीस देकर प्रसारित करता,उस दौरान भी पब्लिक ब्राडकास्टिंग के तौर पर दूरदर्शन को 47.8 मिलियन रुपये का नुकसान हुआ था और इसी तरह फायदा पहुंचाने का मामला बना था। तब दूरदर्शन के भीतर गठित कमेटी ने पूरे मामले को सीबीआई जांच के लिए सौंपने की बात की थी। तब जांच एजेंसी ने 9 जनवरी 1998 को दूरदर्शन के कुछ अधिकारियों औऱ प्रणय राय के खिलाफ मामला दर्ज करायी थी।( 43 वां रिपोर्ट, पब्लिक अकाउंटस कमेटी(2002-03), नई दिल्ली,लोकसभा सचिवालय,मार्च 2003 पे.-1-2) बीएस लाली का दावा है कि वो सुप्रीम कोट में अपने को दूध का धुला साबित कर पाएंगे क्योंकि जो कुछ भी आरोप लगाए गए हैं,वो सबके सब कुछ बाहरी प्रभावी ताकतों की ओर से लगाए गए हैं।
पब्लिक ब्राडकास्टिंग में पैसे के हेर-फेर को लेकर एनडीटीवी( प्रणय राय) के बाद ये दूसरा मौका है जब मामला कोर्ट तक जाने की स्थिति तक पहुंच गया है। एक प्रोडक्शन हाउस के तौर पर जब NDTV दि वर्ल्ड दिस वीक बनाया करता औऱ लाइसेंस फीस देकर प्रसारित करता,उस दौरान भी पब्लिक ब्राडकास्टिंग के तौर पर दूरदर्शन को 47.8 मिलियन रुपये का नुकसान हुआ था और इसी तरह फायदा पहुंचाने का मामला बना था। तब दूरदर्शन के भीतर गठित कमेटी ने पूरे मामले को सीबीआई जांच के लिए सौंपने की बात की थी। तब जांच एजेंसी ने 9 जनवरी 1998 को दूरदर्शन के कुछ अधिकारियों औऱ प्रणय राय के खिलाफ मामला दर्ज करायी थी।( 43 वां रिपोर्ट, पब्लिक अकाउंटस कमेटी(2002-03), नई दिल्ली,लोकसभा सचिवालय,मार्च 2003 पे.-1-2) बीएस लाली का दावा है कि वो सुप्रीम कोट में अपने को दूध का धुला साबित कर पाएंगे क्योंकि जो कुछ भी आरोप लगाए गए हैं,वो सबके सब कुछ बाहरी प्रभावी ताकतों की ओर से लगाए गए हैं।
अखबारी रिपोर्टों और प्रसार भारती से जुड़े लोगों की मानें तो बीएस लाली की पहचान शुरु से ही एक निरंकुश सीइओ के तौर पर रही है। प्रसार भारती को हमेशा अपने इशारे पर न केवल नचाने की कोशिश की है बल्कि जब जैसा मौका मिला निजी कंपनियों,चैनलों को फायदा पहुंचाने के फेर में उटपटांग और पब्लिक ब्राडकास्टिंग को नुकसान पहुंचानेवाले फैसले लिए हैं। अभी हाल ही में प्रसार भारती और आकाशवाणी ने 1 नबम्वर से सबसे लोकप्रिय एफएम गोल्ड की फ्रीक्वेंसी आनन-फानन में बदलने के फैसले लिए गए तो इस फैसले से अपना पल्ला झाड़ते हुए लाली ने कहा कि उन्हें इस संबंध में कोई जानकारी नहीं है। प्रसार भारती बोर्ड की अध्यक्ष मृणाल पांडे ने तो यहां तक कहा कि उन्हें इस बात की जानकारी मीडिया के जरिए हुई। बाद में मेनस्ट्रीम मीडिया में इस बात का विरोध किए जाने के बाद एफएम गोल्ड की फ्रीक्वेंसी वहीं बनी रहने दी गयी लेकिन ऐसा करके एक बहुत बड़े स्तर पर हेरा-फेरी का होनेवाले धंधे पर पर्दा डालने का काम किया गया। दरअसल ये फ्रीक्वेंसी बीएजी फिल्मस के रेडियो चैनल रेडियो धमाल को फायदा पहुंचाने के लिए किया जा रहा था।
इसके साथ ही जिस फ्रीक्वेंसी 100.1 पर एफएम गोल्ड को शिफ्ट किया जा रहा था वो दरअसल राष्ट्रमंडल खेलों से जुड़े प्रसारण के लिए खोला गया था। फ्रीक्वेंसी बदलते समय तर्क दिया गया था कि ये ज्यादा बेहतर फ्रीक्वेंसी है लेकिन 6 नबम्वर को इस चैनल को बंद कर दिया गया। प्रसार भारती और आकाशवाणी से जुड़े लोगों के मुताबिक इस चैनल को खोलने में लाखों रुपये खर्च किए गए और इसके लिए मुंबई से कुछ चहेते लोग महीने भर तक होटल में आकर मौज करते रहे। आगे प्रसार भारती की तरफ से इस चैनल के बंद किए जाने को लेकर कोई स्पष्टीकरण नहीं आया।
जिस राष्ट्रमंडल खेलों में करोड़ों रुपये के घोटाले की बात की जा रही है,उसमें अगर प्रसारण और प्रसार भारती के भीतर हुई दलाली और गड़बड़ियों को शामिल किया जाए तो बहुत संभव है कि उसमें बीएस लाली का भी नाम शामिल हो। वैसे भी लाली ने राष्ट्रमंडल खेलों के दौरान सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के निर्देशों को ताक पर रखते हुए अपनी चहेती कंपनी सिस लाइव को 246 करोड़ रुपये का प्रसारण अधिकार देने का काम किया है। राष्ट्रमंडल खेलों के दौरान जिस मनमानी तरीके से कार्यक्रमों के बीच विज्ञापन ठूंसे गए और प्रति 10 सेकंड के विज्ञापन की कीमत को 60 हजार से ढाई लाख तक ले जाने का काम किया,लाली और प्रसार भारती के सामने इस बात का तर्क नहीं है कि 100 से 200 करोड़ तक की कमाई का दावा करने के बावजूद अगर 58.19 करोड़ रुपये का मुनाफा हुआ तो टार्गेट से आधी से भी कम और ओवरलोडेड विज्ञापनों के पीछे की क्या वजह रही है?
प्रसार भारती पर कॉन्ट्रेक्ट के स्तर पर काम कराए जाने और निजी कंपनियों के साथ समझौते कराने के मामले में भी लगातार आरोप लगते रहे हैं। स्पोर्ट्स चैनल इएसपीएन को फायदा पहुंचाने के लिए और इक्सक्लूसिव कवरेज के लिए दूरदर्शन ने अधिकार रहते हुए भी T-20 का प्रसारण नहीं किया। इसके अलावे लाली ने वकीलों को वाजिव रेट से कहीं ज्यादा भुगतान कराने का काम किया है। सेवंती निनन ने अपने लेख MEDIA MATTERS: CAN BE AFFORD PRASAR BHARTI? में इन सारी घटनाओं की विस्तार से चर्चा की है और नोट लगाकर यह भी लिखा कि जब इस मामले में बीएस लाली से बाचतीत करने की कोशिश की तो उन्होंने कोई रिस्पांस नहीं दिया। बीएस लाली के निरंकुश होने के किस्से कापरनिकस मार्ग,मंडी हाउस और संसद मार्ग आकाशवाणी में चाय पीते हुए लोग रोजमर्रा की रुटीन के तहत किया करते हैं।
मौजूदा दौर में मीडिया के भीतर एक के बाद एक आयकन और मिथक तेजी से जिस तरह ध्वस्त हो रहे हैं,ऐसे में पब्लिक ब्राडकास्टिंग से जुड़े सबसे बड़े अधिकारी पर पैसे के हेर-फेर और अपने पद का दुरुपयोग करने का आरोप लगना,कहीं से भी किसी तरह उम्मीद के नहीं बचे रहने की कहानी कहता है। अभी प्रणय राय और एनडीटी के महान होने का मिथक टूटा है, बरखा दत्त और वीर सांघवी सवालों के घेरे में हैं,राजदीप सरदेसाई के मीडिया के पक्ष में दिए गए सारे तर्क बंडलबाजी से ज्यादा कुछ नहीं लगता,ऐसे में पब्लिक ब्राडकास्टिंग के भीतर की सडांध का उघड़कर आना मीडिया की सबसे बदतक स्थिति को सामने लाकर रख देता है। लेकिन इन सबके बीच जरुरी सवाल है कि क्या बीएस लाली पर होनेवाली कारवायी बलि का बकरा बनाए जाने या फिर एक को निबटाओ,बाकी मामला अपने आप शांत हो जाएगा कि रणनीति है या फिर प्रसार भारती और आकाशवाणी के भीतर और भी कई मगरमच्छ तैर रहे हैं जिनका बेनकाब होना जरुरी है।
ICICI की मिलीभगत से कौडि़यों के शेयर सैकड़ों में बेचे, देश के बाहर हुआ सारा खेल
♦ विनीत कुमार
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स्पेक्ट्रम मामले में अपनी तेज तर्रार पत्रकार पर आरोपों के छींटे पड़ने से जो सदमा एनडीटीवी प्रबंधन को लगा था, उससे उबरने की सूरत तलाशी ही जा रही थी कि करोड़ों रुपये की जालसाजी के आरोपों ने प्रबंधन को नये सिरे से सकते में डाल दिया है। द संडे गार्जियन नाम के अखबार की साइट ने, जिसे कि इसी साल के जनवरी महीने (31 जनवरी 2010) में 3 रुपये की कीमत के साथ एमजे अकबर ने लांच किया, खबर दी है कि एनडीटीवी ने इस देश को करोड़ों रुपये का चूना लगाने का काम किया है। द संडे गार्जियन इस खबर को लगातार फॉलो कर रहा है और 6 दिसंबर तक इसकी ऑफिशियल साइट ने कुल तीन रिपोर्टें प्रकाशित की हैं। पहली बार 4 दिसंबर को साइट ने NDTV-ICICI loan chicanery saved Roys नाम से पहली रिपोर्ट प्रकाशित की और उसमें बताया कि कैसे उसे ICICI बैंक ने गलत तरीके से कर्ज दिये। इस खबर में ये भी बताया कि किस तरह से मनोरंजन चैनल (GEC) एनडीटीवी इमैजिन, जिसे कि अब TURNER GENERAL ENTERTAINMENT NETWORKS INDIA PRIVATE LIMITED के हाथों बेच दिया गया है, उसके शेयर की फेस वैल्यू यानी बाजार मूल्य 10 रुपये थे, उसे 776 रुपये में बेचे गये और ये सारा खेल देश के बाहर हुआ। भारत में जो निवेशक थे, जो कि यहां की कंपनी में थे, उन तक ये लाभ नहीं पहुंचा। रिपोर्ट ने बताया कि एनडीटीवी लगातार विदेशों में शेयरों की खरीद-बिक्री, कर्ज लेने का काम करता रहा है और ऐसी दरों पर शेयरों की खरीद-बिक्री की है, जिसका कि वास्तविक मूल्य से कोई तालमेल नहीं रहा है। इधर भारतीय बाजार में देखें, तो एनडीटीवी के शेयर लगातार तेजी से लुढ़कते रहे हैं। जाहिर सी बात है कि एनडीटीवी के जिंदा रहने के पीछे मूल रूप से विदेशों से हो रहे शेयरों की खरीद-बिक्री और लेन-देन रहे हैं।
ICICI बैंक से गलत तरीके से कर्ज लेने के मामले में रिपोर्ट में कहा गया है कि ये डील जुलाई और अक्टूबर 2008 के बीच हुई, जब एनडीटीवी ने अपने शेयर वापस खरीदने चाहे। तब एनडीटीवी के शेयर की कीमत 439 यानी वूम पर थी और उसे लग रहा था कि इसकी कीमत और बढ़ सकती है। लिहाजा एनडीटीवी ने चाहा कि वो अपने शेयर वापस खरीदे लेकिन उसके पास लिक्विड फंड नहीं था। तब उसने कुल 90,70,297 शेयर के बदले India Bulls Financial Services से 363 करोड़ रुपये उधार लिये। ये जुलाई 2008 की बात है। अगस्त 2008 में शेयर मार्केट बुरी तरह कोलैप्स कर गया। अमेरिका की वजह से पूरी दुनिया में शेयर बाजार की मिट्टी पलीद हो गयी। ऐसे में इंडिया बुल्स के पास गिरवी के तौर पर जो शेयर रखे गये थे, उसकी कीमत गिरकर 100 रुपये प्रति शेयर हो गया। इंडिया बुल्स ने अपने दिये हुए लोन की बात दोहरायी और कंपनी से पैसे की मांग की। एनडीटीवी के पास इतने पैसे कहां थे, जो कि वो इंडिया बुल को चुका पाता। लिहाजा उसने ICICI बैंक का हाथ थामा और बैंक ने अक्टूबर महीने में कुल 375 करोड़ रुपये एनडीटीवी को दिये। बदले में एनडीटीवी ने कुल 47,41,721 शेयर बैंक के पास गिरवी के तौर पर रखे, जिसकी औसत कीमत 439 रुपये लगायी गयी, जो कि लगभग 208 करोड़ रुपये होती है।
ये पहली बार था कि इस तरह से लगभग आधी रकम के शेयर के बदले इतनी रकम लोन के तौर पर दी गयी। द संडे गार्जियन का कहना है कि इसे वित्तीय जालसाजी न कहा जाए, तो और क्या कहा जाए। इतना ही नहीं, जिस समय एक शेयर की कीमत 439 रुपये लगायी गयी, उस समय (23 अक्टूबर 2008) बाजारू कीमत मात्र 99 रुपये थी। इस तरह शेयर की राशि बनती थी मात्र 46.94 करोड़ रुपये। इस पूरे मामले में सबसे दिलचस्प पहलू है कि एनडीटीवी के जो भी शेयर इंडिया बुल्स को दिये गये, फिर बाद में ICICI बैंक को दिये गये, वो सबके सब RRPR Holding Private Limited के जिम्मे थे। ये वही कंपनी थी, जिसमें बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स में दो ही लोग थे – मिस्टर रॉय और मिसेज रॉय। जुलाई 2008 के पहले इस कंपनी ने एनडीटीवी के एक भी शेयर नहीं खरीदे। मामले में एक और दिलचस्प पहलू है कि इंडिया बुल्स के भुगतान किये जाने के बाद RRRR के एक बोर्ड डायरेक्टर को 73.91 करोड़ रुपये बिना किसी ब्याज के लोन दिये गये। ये वही पैसे थे, जो ICICI बैंक से कर्ज के तौर पर लिये गये और जो SARFAESI Act 2002 का सीधा-सीधा उल्लंघन था।
इस मामले में चौंकानेवाली बात है कि मिनिस्ट्री ऑफ कॉर्पोरेट अफेयर्स और रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया को इन सारी सूचनाओं की जानकारी मिलती रही, लेकिन वे चुप रहे। एक बड़ा सवाल है कि बैंक ने इतनी आसानी से क्यों कर्ज दे दिया? द संडे गार्जियन का कहना है कि जब पिछले ही महीने 2000 करोड़ रुपये के लोन घोटाले में सीबीआई ने LIC और दूसरे बैंकों के आठ सीनियर मैनेजरों को गिरफ्तार किया, तो फिर क्या ये मामला उससे अलग है?
द संडे गार्जियन ने अपनी दूसरी रिपोर्ट जो कि 5 दिसंबर को प्रकाशित हुई है – NDTV juggles funds, shares abroad, avoids tax, उसमें बताया है कि NDTV किस तरह से फंड को लेकर चालबाजी करता आया है, विदेशों में शेयरों के लेन-देन करके भारत में अपने को टैक्स से बचाता है। इस रिपोर्ट में साइट ने एनडीटीवी के एक के बाद एक चैनल के खोलने और फिर उसके धड़ाधड़ हिस्सेदारी बेचने के पीछे की कहानी को विस्तार से बताया है। अपने विदेशी सहायक चैनलों और वेंचरों के माध्यम से कैसे उसने भारतीय टैक्स और कार्पोरेट कानून का उल्लंघन किया है, इसकी पूरी कहानी रिपोर्ट में दी गयी है? नवंबर 2006 में NDTV Network Plc, UK को स्थापित किया गया, जिसकी बैलेंस शीट भारत में फाइल नहीं की गयी। इस कंपनी ने बहुत पैसे अर्जित किये और NDTV Imagine (जो कि अब बिक गया), NDTV Lifestyle, NDTV Labs, NDTV Convergence और NGEN Media में बहुत पैसे लगाये भी। अधिकांश डील एनडीटीवी के नाम से हुए लेकिन एक भी पैसा भारत में टैक्स के तौर पर नहीं आया। एनडीटीवी इंडिया ग्रुप ने अप्रैल 2008 के दौरान 804.6 करोड़ रुपये उगाहे, जो कि सितंबर 2009 तक आते-आते 982.2 करोड़ रुपये हो गये। एनडीटीवी ने ये पैसे अपने विदेशी स्रोतों से अर्जित किये, जो कि यूके और नीदरलैंड में उसके सहयोगी चैनलों और वेंचरों की बदौलत आये थे। इस तरह भारत में एनडीटीवी के साथ इसकी बैलेंस शीट नहीं अटैच की गयी, तो दूसरी तरफ विदेशों में जो इसके सहयोगी वेंचर हुए, उसमें विस्तार से सब कुछ नहीं बताया गया। यहां तक कि यूके NDTV Network Plc में जो कंपनी खोली गयी, उसका अपना कोई कर्मचारी भी नहीं था। जो था वो एक ही साथ कई कंपनियों का भी काम संभालता था। एनडीटीवी ने नीदरलैंड में वेंचर मजबूत करने के लिए यूके के वेंचर का इस्तेमाल किया। यूके के वेंचर को मजबूती देने के लिए नीदरलैंड के वेंचर का इस्तेमाल किया और इस तरह एक-दूसरे के सपोर्ट से काम चलता रहा। लेकिन भारत में जो इसकी बैलेंस शीट थी, उसमें यह सब दर्ज नहीं था जबकि देखा जाए तो ये भारत की एनडीटीवी के ही सहयोगी वेंचर थे। इनमें से कइयों की साइट खोलने पर डीटेल के बजाय यही आता कि यह भारत की एनडीटीवी की सहयोगी कंपनियां हैं।
रिपोर्ट ने विस्तार से बताया कि कैसे देश के बाहर इसके वेंचर को मजबूती मिलती रही, जबकि यहां इसके शेयरधारकों को इसका कोई लाभ नहीं मिला क्योंकि जिस वेंचर को लाभ पहुंचते, उसका यहां जिक्र नहीं होता।
चार दिसंबर को ही साइट ने NDTV CEO gives reply, Guardian responds शीर्षक से एक और रिपोर्ट छापी है, जिसमें कि उसने एनडीटीवी से एक बेहतर पत्रकारिता की संभावना बनी रहे, इसलिए नौ सवालों के जवाब मांगे गये। एनडीटीवी के सीईओ ने द संडे गार्जियन की इस खबर को निराधार और फर्जी करार दिया और साथ में यह भी कहा कि पब्लिकेशन और व्यक्तिगत स्तर पर सिविल और क्रिमिनल दोनों कानूनों के तहत अदालती कार्रवाई की जाएगी। साइट ने एनडीटीवी के सीईओ केएल नारायण राव के जवाब को भी प्रकाशित किया है और उसके आगे लिखा है कि उन्होंने गोलमोल तरीके से जवाब दिया है।
30 नवंबर 2010 को जब बरखा दत्त NDTV 24X7 के कठघरे में एडिटर्स के सवालों के जवाब दे रही थीं, तो एंकर सोनिया सिंह ने कहा था कि संभव हो ये पूरा मामला कार्पोरेट वार का हिस्सा हो। वर्चुअल स्पेस पर जनतंत्र डॉट कॉम ने भी इसे इसी तरह से विस्तार देने की कोशिश की है और मीडिया के लोगों के नाम आने को बहुत ही छोटा खेल बताया जा रहा है। उसमें इस बात की आशंका जतायी गयी है कि संभव है कि ओपन और आउटलुक जैसी पत्रिका भी सत्ता की दलाली के लिए ये सब कर रहे हों, इस सवाल में एक सच्चाई यहां आकर जुड़ती है कि क्या द संडे गार्जियन भी कुछ ऐसा ही कर रहा है? जनवरी में शुरू हुए इस अखबार ने एनडीटीवी के 2007-08 की डील और बिजनेस का ब्योरा अब जाकर देते हुए सारी बातें सामने लायी हैं। बैलेंस शीट भी प्रकाशित किया है। अगर ऐसा है, तो कार्पोरेट वार के साथ-साथ मीडिया वार भी शुरू हो चुका है।
एमजे अकबर इन दिनों इंडिया टुडे ग्रुप में हैं। इससे पहले महीने भर के लिए इंडिया न्यूज को सेवा देकर आये हैं। प्रेस क्लब में राजदीप सरदेसाई, द संडे इंडियन में अरिंदम चौधरी के आरोपी पत्रकारों के बचाव में उतर आने और नीरा राडिया से पत्रकारों की बातचीत के टेप आने के करीब तीन सप्ताह बाद दैनिक भास्कर में 6 दिसंबर को दो पन्ने में एक्सक्लूसिव खबर छपने की घटना से अंदाजा लगाना चाहिए कि अब मीडिया वार शुरू हो गया है। ये मीडिया वार अब खबरों की दुनिया से आगे निकलकर एक-दूसरे को पूरी तरह तहस-नहस कर देने की नीयत से शुरू हुआ है। इसके पीछे की लीला शायद यह भी हो कि ऐसी स्थिति कर दी जाए कि इस देश में बिग पिक्चर, बिग सिनेमा, बिग टीवी के साथ-साथ सिर्फ बिग मीडिया रहे, बिग खबरें रहे, दूसरा कोई नहीं। इन सबों पर गंभीरता से सोचने की जरुरत है। हालांकि द संडे गार्जियन की इस खबर पर कई ऐसे कमेंट आये हैं, जो इस खबर को बकवास बताते हैं लेकिन अगर ये खबर सच है तो समझिए कि हमारे सामने कितना बड़ा आदर्श ध्वस्त होता नजर आ रहा है?