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साधु-संतों से किसी की क्या दुश्मनी हो सकती है भला? वैसे भी ये देश एक नंबर के मक्कार,दलाल, अय्याश,देह- व्यपार धंधे में लिप्त शख्स के साधु का वेश धरते ही पूजनेवाला रहा है। साधु का चोला पहनते ही सब पवित्र हो जाता है। इतना पवित्र,इतना मानवीय कि कई बार सांवैधानिक प्रावधान भी बौने नजर आने लगते हैं। लेकिन आर्ट ऑफ लिविंग के संत श्री श्री रविशंकर पर हमला जरुर चौंकानेवाला है। आजतक को दिए अपने फोनो में उन्होंने साफ तौर पर कहा है कि उन पर किसने हमला किया ये पता नहीं। आजतक की ऑफिशियल साइट ने लिखा कि किसी अज्ञात व्यक्ति ने उन पर हमला किया है जबकि आज बीबीसी से लेकर देश की प्रमुख साइट बता रही है कि ये श्री श्री रविशंकर पर हमला नहीं है। श्री श्री रविशंकर पूरी तरह सुरक्षित हैं और उन्‍हें किसी तरह की चोट नहीं आई है उन्हें किसी पर शक नहीं। हम देश के बाकी हमलों की तरह इस हमले की भी भर्त्सना करते हैं। हमारा ऐसा करना रुटीन का हिस्सा करार दिया जाए। लेकिन इसके आगे हम दूसरे सवाल की तरफ मुड़ना चाहेंगे।

ये देश शुरु से ही साधु-संन्यासियों का सम्मान करनेवाला देश रहा है। साधुओं के मामले में इतना लिबरल रहा है कि गलत से गलत काम किए जाने पर भी उसे बख्शता आया है। पौराणिक कथाओं में भी साधुओं ने अगर कोई गलती की तो उसकी सजा प्रशासन की ओर से न देकर उसे भगवान इसका हिसाब करेगा जैसी मान्यताओं के आधार पर छोड़ दिया गया। संभवतः इस मिली सुविधा की वजह से साधुता के खत्म होते जाने पर भी साधुओं की तादाद बढ़ती चली गयी। ऐसे हाल में भी ये विरला देश है जहां कि साधुओं के प्रति आस्था थोड़े-बहुत हिलने-डुलने के साथ भी बरकरार है। यह आमजनों की आस्था का ही नतीजा है कि साधु होना इस देश में सुरक्षा कवच के तौर पर इस्तेमाल किया गया विधान बनता चला गया। आप पत्रऔऱ कार हैं,डॉक्टर हैं,मास्टर हैं तो भी कभी भी जनता के हाथ से पिट सकते हैं लेकिन साधु होने की स्थिति में आप सुरक्षित हैं। साधुओं की ये सुरक्षा प्रशासन की ओर से शांति औऱ सुरक्षा बहाल किए जाने के दावे से कहीं आगे की चीज है क्योंकि ये पूरी तरह जनभावनाओं के बीच रहकर पाती है। शायद यही वजह है कि बाबाओं-साधुओं के आए दिन सेक्स स्कैंडल,तस्करी और दलाली जैसे काम में लिप्त होने पर लोकल स्तर के प्रशासन से लेकर केन्द्र तक की राजनीति हाथ डालने के पहले थोड़ी सकुचाती है,थर्राती है,जलजला आ जाने की धमकी से चुप मारकर बैठ जाती है। देशभर की मीडिया थोड़ी-बहुत मार खाती है और इन्हीं बाबाओं के चैनलों में शेयर खरीद लिए जैने पर चुप मारकर बैठ जाती है। ऐसे में जबकि चारों ओर से लोग बाबाओं और साधुओं पर हाथ डालने के पहले सौ बार सोचते हैं,उनके पास किसी भी बड़े नेता से ज्यादा मजबूत जनाधार होता है तो फिर उन पर कोई हमला कैसे कर सकता है?

श्री श्री रविशंकर पर जो हमला हुआ है उससे एक बात तो तत्काल साफ हो गयी है कि ये हमला उनके संत होने की वजह से नहीं हुआ है। आर्ट ऑफ लिविंग के जरिए जो शख्स लाखों लोगों के बीच अमन औऱ शांति बहाल करना चाहता है उस पर भला कोई क्यों हमला करेगा? ये देश तमाम तरह के दुगुर्णों को धारण करते हुए भी बदलाव के स्वर को पचाता आया है। आखिर इतने सारे अग्रदूतों की लाइनें ऐसे ही नहीं लग गयी है। ये हमला देश के किसी भी संत के बदलते चरित्र पर हमला है। बाबा और साधु का पदनाम धरकर जो साम्राज्य और बिजनेस का प्रसार का काम हो रहा है उस पर हमला है। दरअसल बाबाओं की लोकप्रियता का जो आधार है उसके पीछे उनका धंधा,उनसे होनेवाले मुनाफे और कमीशन जैसी सारी बातें शामिल हैं। अगर आप देश के किसी भी बड़े बाबा औऱ उनके ट्रस्ट की वर्किंग कल्चर पर गौर करें तो आपको अंदाजा लग जाएगा कि यहां भी सारे काम उसी तर्ज पर होते हैं जिस तर्ज पर देश में कोई साबुन,स्कीन क्रीम,कंडोम,गर्भनिरोधक गोली या फिर लग्जरी कार बनाने-बेचनेवाली कंपनी करती है। धर्म की आड में इन बाबाओं के बीच जबरदस्त किस्म की रायवलरी है। आपसी खींच-तान और कम्पटीशन है। हमले की जड़ यहां से पनपती है। अगर इस पूरी बात को एक लाइन में कहा जाए तो ये हमला उस संत के उपर है जिसका पदनाम संत का है लेकिन उसकी तमाम गतिविधियां कार्पोरेट,बाजार और किसी भी पूंजीपति से अलग नहीं है। ये धर्म और आस्था का रोजगार चलानेवाले एक प्रैक्टिसनर के उपर हमला है। कम से कम इस मौके पर इस देश को बख्श दीजिए कि ये देश किसी साधु-संन्यासी पर हमला करेगा।

इस देश में पैदा होनेवाला अपराधिक तत्व भी पता नहीं कौन सी घुट्टी पीकर बड़ा होता है कि अगर वो हत्या भी करता है,लूटपाट भी करता है,किसी की संपत्ति पर कब्जा भी करता है तो उसका एक हिस्सा धार्मिक कार्य में लगाता है,साधुओं को दान करता है। साधुओं और उसकी महिमा से डरता है। ये डर कमोवेश में बना ही रहता है। औऱ फिर अपराधिक ही क्यों,अपराध को रोकने में लगे लोगों के बीच भी यह भय काम करता है कि अगर उसने देश के इन साधुओं पर हाथ डाला तो उसका अनिष्ट होगा। ये बयान हमें किसी सरकारी या गैर सरकारी अधिकारियों से सुनने को नहीं मिला बल्कि इसका हवाला देश को वो बाबा जरुर जब-तब देते आए हैं जो जमीन हड़पने से लेकर हत्या करवाने के आरोप में शामिल रहे हैं। लेकिन श्री श्री रविशंकर पर हमला करनेवाले ने रत्तीभर भी नहीं सोचा कि इतने बड़े पहुंचे हुए बाबा पर हमला करने से उसे कुछ नुकसान हो जाएगा। उसके संतान अकाल मारे जाएंगे,उसके शरीर का कोई हिस्सा काम करना बंद कर देगा,उसकी आंख की रोशनी चली जाएगी। ये सारी बातें इसलिए कहना जरुरी है कि साधुओं के प्रति आस्था हमें इसी तरह भय दिखाकर पैदा की गयी है। इस पर कई तो फिल्में बनी है और कई धार्मिक सीरियलों में टुकड़ों-टुकड़ों में भी देखा है। हमला करनेवाले के भीतर से इस तरह के भय का खत्म होना दो तरह के संकेत देते हैं।

एक तो ये जिसकी चर्चा हम पहले कर चुके हैं कि ऐसे संत हम धर्म औऱ आस्था के प्रैक्टिसनर भर हैं। अगर इस देश में वाकई यशस्वी संतों की परंपरा रही है तो उससे इनका नाम जोड़ा जाना बेमानी है। लोगों को ये बात समझ आ रही है कि इन प्रैक्टिसनरों के पास अकूत सम्पत्ति है जिसे लूटा जा सकता है,धमकाकर हथिआया जा सकता है। इसके साथ ही ऐसे संत अपने साम्राज्य का विस्तार करने में जिन नीतियों का सहारा लेते हैं वो संतई और प्रवचन करने की आदि परंपरा से कही ज्यादा राजनीति,कूटनीति,मैनेजमेंट और जोड़-तोड़ के ज्यादा करीब हैं। यहीं पर आकर संत और बाकी वर्चस्वकारी,प्रभावी लोगों की स्थिति और उऩ पर होनेवाले हमले के बीच कोई फर्क नहीं रह जाता। इसलिए ये कोई आरोप नहीं है बल्कि मौजूदा दौर में बाबाओं के काम करने के तरीके पर सोचने का नजरिया भर है। ऐसे में ये बाबा और संत सिर्फ और सिर्फ नाम के स्तर पर संत औऱ साधु रह जाते हैं। भीतर-भीतर जो अंडर करन्ट प्रवाहित होता है वो पूंजीपति,राजनीतिक और इन्टरपेन्योर की स्ट्रैटजी है। ये अंडर करन्ट इस हमले से खुलकर सामने आया है। इस हमले ने एक हद तक साफ कर दिया है कि इस देश में संतई का पैटर्न पूरी तरह बदल चुका है। इसके भीतर भी जबरदस्त किस्म की प्रतिस्पर्धा है,कम्पटीशन है। मुझे ध्यान आता है कि आज से करीब आठ-नौ महीने पहले मैं सिर्फ कुछ घंटे के लिए हस्तिनापुर गया था। लेकिन बाद में वहां जो मठ और बाबागिरी का आलम देखा तो चार दिनों तक रुक गया। सिर्फ ये पता करने के लिए कि आखिर इतने मठों को बनाने के पीछे क्या मकसद है? हमें जानकर हैरानी हुई कि दिल्ली में जैसे जीटी करनाल रोड पर फार्महाउस बनाकर कमाने का जरिया बना लिया गया है,नोएडा और ओखला में फैक्ट्रियां डाल दी जाती है,वैसे ही यहां मठ डाल दिए जाते हैं। मठों के अंदर इस्तेमाल हुए शब्दों को सुनकर हैरानी हुई कि सबकुच कितना स्ट्रैटिजिकली किया जाता है। एक मठ का दूसरे मठ से जबरदस्त कम्पटीशन है। विचारधारा,धार्मिक मान्यताओं को लेकर तो बहुत पीछे की बात हो गयी। इसलिए थोड़े से भी उत्सुक हुए लोगों के लिए ये शोध का विषय है कि आखिर ऐसे संतों पर हमले होने क्यों शुरु हुए हैं? नतीजे तक पहुंचने का एक स्ट्रक्चर ये भी हो सकता है।
दूसरा ये कि ये हमला इसलिए नहीं हुआ कि श्री श्री रविशंकर ने लोगों की भावनाओं को किसी तरह से ठेस पहुंचाने का काम किया। संभव है कि ये हमला उस रुटीन के तहत किया गया जो आए दिन किसी न किसी दमदार शख्स के उपर किया जाता है। श्रद्धानत लोगों के लिए ये बात जरुर परेशान करेगी कि जिस देश में इतना बड़ा संत सुरक्षित नहीं है तो फिर उसकी क्या बिसात? लेकिन ऐसा होने से साधुओं का असर और आगे जाकर कहें तो शायद कुछ आतंक कम हो। पिछले छ महीने के भीतर देश के साधुओं/बाबाओं को लेकर आयी खबरों पर गौर करें तो कृपालु महाराज से लेकर आसाराम बापू तक,इनमें उन सेक्स स्कैंडल में फंसे साधुओं को भी शामिल कर लें तो ये साफ हो जाता है कि इन सबों को ठोस तौर पर कानूनी विधान से ही होकर गुजरना पड़ा है और अगर सबों की स्थिति बदतर होती है तो उसके पीछे कानूनी कारवायी ही होगी। अलग से कोई दैवी विधान नहीं होने जा रहा। श्री श्री रविशंकर के हमले के मामले में फिर भी इस बात की छूट मिलती है जिसे कि जरुर कोई नत्थी करके परोसेगा कि प्रभु की कृपा उन पर बनी है,लेकिन अगर घायल भक्त को शामिल कर लें तो आस्था जरुर डगमगाती है। ऐसे में आस्था की जमीन लगातार जरुर कमजोर होगी। ये बात भी है कि इस कमजोर होती जमीन का अंदाजा संतों को बेहतर तरीके से होने लगा है शायद इसलिए मैनेजमेंट और मीडिया के ऑक्सीजन से खुद को जिलाए रखने की कोशिशें तेज हुई हैं। हमले,अभी तो इन पर लेकिन कुछ दिनों पहले तांत्रिक के बयान पर कि संत आसाराम ने शिष्य ने फलां फलां के लिए मारक मंत्र इस्तेमाल करने को कहा था,कहे जाने पर तांत्रिक के आश्रम में हमले ये साफ करते हैं कि इस आस्था,धर्म और सद्भावनाओं की आढ़त चलानेवाले लोगों के बीच जो कि अपने को सांसारिकता से दूर रहने की बात करते हैं,सांसारिकता के जोड़-तोड़ जमकर चल रहे हैं। इस बात को सख्ती से प्रशासन और देश की आम जनता जितनी जल्दी समझ ले,उतना ही अच्छा है।
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एक चैनल जो आतंकवाद के साथ है

Posted On 7:40 pm by विनीत कुमार | 2 comments


हम आतंकवाद के साथ हैं। किसी न्यूज चैनल के हेड का ऐसा कहना क्या सिर्फ जुबान के फिसल जाने का मामला है। यदि हां तो उन्हें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वो किस हैसियत से बात करते हैं और उन्हें बोलते वक्त सतर्क रहना चाहिए।..और अगर नहीं तो हमें सोचना होगा कि मीडिया इन्डस्ट्री में कैसे-कैसे चैनल हेड उग आए हैं जिन्हें इतना भी पता नहीं कि आतंकवाद क्या है? अगर कोई चैनल हेड कहे कि वो माओवाद के साथ हैं,उस माओवाद के साथ जिनकी पूरी क्रांति और बदलाव के सारी सोच मासूमों का खून बहाने तक जाकर खत्म हो जाती है फिर भी जमाने का जो चलन हैं उसमें उन्हें इन्टलैक्चुअल करार दे दिया जाएगा। लेकिन आतंकवाद के साथ होनेवाली बात मुझे नहीं लगता कि किसी आतंकवादी के पक्ष से केस लड़नेवाले वकील के अलावे कोई दूसरा शख्स कर सकता है। तो इसका मतलब ये साफ है कि मीडिया खबर ने जिस चैनल के बारे में हमें जानकारी दी है कि उन्होंने ये कहा कि हम आतंकवाद के साथ हैं,उन्हें ये पता ही नहीं कि आतंकवाद कोई विचारधारा है या फिर ग्लोबल स्तर का सबसे बड़ा संकट। इस साइट ने ऐेसे चैनल हेड पर लानतें-मलानते भेजते हुए जो कुछ भी लिखा है,उसके बड़े हिस्से से सहमति दर्ज करते हुए हमें लगता है कि इस पूरे मामले को थोड़ा और आगे जाकर सोचना चाहिए। किसी के लिए चैनल पापा का दिया हुआ गिफ्ट हो जाए,हमें इस सवाल से टकराना ही होगा कि फिर उसके औलाद इस गिफ्ट के साथ क्या करते हैं?

इस पूरे मामले में सबसे जरुरी और बड़ा सवाल है कि आखिर उन दलालों,प्रोपर्टी डीलरों,बिल्डरों और एक का पांच बनाने वाले टाइप के लोगों के भीतर ये भरोसा किसने पैदा किया है कि अगर तुम्हारे पास डेढ़-दो सौ करोड़ रुपये हैं और अगर नहीं है तो अपनी ठसक के दम जुटा ले सकते हो तो चैनल खोल सकते हो,चला सकते हो और देश के किसी भी चुनिंदा कहे जानेवाले पत्रकार को अपनी जूती के नीचे,अपने तलबे से उसकी बजा सकते हो। नवरत्न पालने का शौक अकबर को भी रहा और उसके जखीरे में शामिल होने की ललक हर प्रतिभाशाली शख्स को रही होगी। अकबर का ये शौक आज अगर मीडिया इन्डस्ट्री के भीतर प्रथा का रुप धारण कर चुका है तो सवाल ये है कि नवरत्न के तौर पर बहाल होनेवाले लोग ये समझे कि वो अपनी जमीर बचाते हुए ही उसमें शामिल होंगे। उन्हें फैसला लेने में थोड़ी भी उलझन होती हो तो बीरबल और तानसेन की जीवनी पढ़ लेनी चाहिए। दूसरी तरफ जो जखीरा बनाने का काम कर रहे हैं,उन्हें इस बात की तमीज होनी चाहिए कि ये देश अब सिर्फ शौक से नहीं बल्कि जरुरतों से चलेगा। ये देश दलाली,लूट-खसोट,गैरमानवीय तरीके से अकूत धन जुटाकर अय्य़ाशी करने की बात को तो फिर फिर घड़ी-दो घड़ी के लिए पचा ले जाएगा क्योंकि पचाएगा नहीं तो करेगा क्या लेकिन इस धन से शौकिया तौर पर मीडिया चैनल खोले जाएं इसके लिए न तो मानसिक तौर पर तैयार है और न ही इसके भीतर ऐसा बर्दाश्त कर लेने की ताकत आने पायी है। इस धन के दागदार चरित्र को पाक-साफ करार देने के लिए मीडिया हाउस खोले जाएंगे इसे कभी बर्दाश्त नहीं करेगा।

मीडिया इन्डस्ट्री के भीतर आज कौन कितना बड़ा पत्रकार है,अगर पत्रकारिता बची भी रह गयी है तो भी इस बात से तय नहीं होता कि उसने साल में कितनी बड़ी स्टोरी दी है। ऐसी स्टोरी जिससे कि सत्ता और समाज के किसी भी हल्के में असर हुआ हो,बल्कि पूरा मामला इस बात से तय होता है कि वो कितने बड़े से बड़े पैकेज पर दूसरे चैनल में शिफ्ट हुआ है। हमारी बात अगर भाषण या बंडलबाजी लगती है तो एक तरफ नामचीन पत्रकारों की लिस्ट बनाइए और दूसरी तरफ उनकी स्टोरी की,आपको अंदाजा लग जाएगा। कभी जमाने में बेहतर पत्रकारिता के नजदीक मिसाल कायम करने जैसी चीज कुछ कर गए और अब जिंदगी भर उसे उपलब्धि की कमीई इस गलीच महौल में खाने की फिराक में पड़े हमें महान मीडियाकर्मियों पर सिर्फ घृणा ही नहीं आ रही है,बल्कि हमें वो उतने ही खतरनाक नजर आ रहे हैं जितनी खतरनाक शक्लें टेलीविजन और अखबारों में आए दिन दिखाए जाते हैं। क्योंकि ऐसे महान मीडियाकर्मियों ने दल्ला समाज के हाथों एक बहुत ही आसान फार्मूला थमा दिया है कि आप हमें इतनी रकम दें,बाकी पत्रकारिता का सारा काम हम देख लेंगे। तो पत्रकारिता को फार्महाउस की तरह ठेके पर लेने का जो काम ये महान पत्रकार कर रहे हैं वो ये नहीं समझ पा रहे हैं कि उनके काम को अगर बारीकी से समझा जाए तो दलालों और दालमंडी में रुमाल फिराकर धंधा करनेवालों से वो कहीं ज्यादा घटिया काम कर रहे हैं।

मीडिया खबर ने जिस चैनल का जिक्र किया है,जिस चैनल के हेड की बात की है उसकी जूती के नीचे देश का एक बहुत ही अनुभवी पत्रकार मुखौटे की शक्ल में टांग दिया गया है। इस पत्रकार के जब तक पत्रकार बने रहने की गलत जानकारी हमारे पास रही,सामने से गुजरते हुए मैं भी सम्मान में खड़ा हो गया। लेकिन जब पता चला कि ये भी इस अनुभवहीन,बिगडैल और बदतमीज चैनल हेड के आगे जूते चटकाता है तो अपराधबोध से मन भर आया। हमें किसी के प्रति जल्दीबाजी में श्रद्धा व्यक्त नहीं करनी चाहिए,बल्कि ये मान लेना चाहिए कि जीता-जागता कोई भी शख्स इज्जत के लायक नहीं होता। हमें उसके मरने तक का इंतजार करना चाहिए क्योंकि उसके बाद गलीच से गलीच घटिया से घटिया शख्स भी स्वर्ग में जाने की वजह से भगवान के करीब हो जाता है। मरकर आदमी देवता बन जाता है,हमें अपनी नास्तिक विचारधारा को थोड़ी देर के लिए उतार फेंककर ऐसा ही सोचना चाहिए। ऐसे महान पत्रकार पूरी की पूरी पत्रकारों की पीढ़ी के स्वाभिमान को कैसे कुचलने का काम करते हैं,उनके मनोबल को ध्वस्त करते हैं,उनके भीतर फ्रस्ट्रेशन के लेबल को आगे तक ले जाते हैं इसका अंदाजा शायद अभी न हो।

लेकिन मैं महसूस कर रहा हूं मीडिया इन्डस्ट्री के भीतर ये चलन तेजी से पनप रहा है कि जो कभी इस फील्ड में ग्लैमर और पैसा के फेर में आए या फिर कुछ सरोकार से जुड़े काम करने आए,उन्हें अब जैसे ही इससे कोई बेहतर या कई बार तो इससे कमतर भी विकल्प मिल रहे हैं तो वो यहां से जा रहे हैं। ये वो जमात है जो इस बात की चिंता नहीं करती कि ये जमाने के लिए महान पत्रकार है। बल्कि ये इस बात का खुलासा करती है कि महान कहलानेवाला पत्रकार एसी कमरे में बैठकर कैसे केंचुए की जिंदगी जी रहा है,उसकी रीढ़ की हड्डी न्यूज रुउम में पहुंचने से पहले ही दफना दी गयी और अब उसके शरीर का सिर्फ एक ही हिस्सा उपर उठता है जो बॉस के आने पर सर तक छूकर वापस लौट आता है। इसलिए भोपाल में आजकल जो पहल चल रही है कि महान पत्रकारों पर डॉक्यूमेंटरी बनायी जाए,उनकी जीवनियां लिखी जाए,बहुत जरुरी हो गया है कि उनके जीवन के इस किस्से की सही से जांच पड़ताल हो कि वो पत्रकारिता के भीतर रहकर उसके विरोध में किस हद तक उसकी जड़े खोद रहा है। पत्रकार के तौर पर जानेवाले शख्स के भीतर कैसे एक दलाल, चाटुकार,निरीह और बेशर्म शख्स की आत्मा घुस आयी है,इसकी शिनाख्त दलाल मीडिया मालिकों को उखाड़ने और उस पर कार्यवाही करने से कम जरुरी नहीं है। चैनल हेड ने जिस आतंकवाद का साथ गलतजुबानी और काहिली में कर दी,उसके भीतर का अनुभवी पत्रकार वाकई में आतंकवाद से कम घिनोना खेल नहीं रच रहा।
मूलतः प्रकाशित- मीडियाखबर डॉट कॉम
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सोचता हूं तो हैरानी होती है कि मैं कैसे कुछ महीने पहले तक रोज पोस्टें लिखा करता था. कई ब्लॉग्स भी पढ़ लेता,अलबत्ता कमेंट्स न के बराबर करता। मेरे दिमाग में रोज इतने सारे मुद्दे होते,इतना कुछ लिखने का मन करता कि लगता कि सबों पर अलग से ब्लॉग बना लूं। इसी क्रम में टेलीविजन पर लिखने के लिए टीवी प्लस बनाया। जिस दिन अपने ब्लॉग पर नहीं लिखा उस दिन मोहल्लालाइव या फिर मीडिया खबर के लिए लिखा। लेकिन अब रेगुलर बेसिस पर पोस्टें लिखना पहाड़ सा लगता है।...

मुझसे कई बार वर्चुअल स्पेस के जरिए जुड़े लोगों ने पूछा भी कि आप रोज-रोज कैसे लिख लेते हो,कैसे आपके दिमाग में रोज कुछ न कुछ लिखने को होता है। इसका जबाब मैंने या तो चैट बॉक्स पर दिया या फिर एक-दो बार सीधे-सीधे पोस्ट लिखकर ही साफ किया कि- ब्लॉगिंग की पैदाइश हूं,लिखूंगा नहीं तो मर जाउंगा। उस समय सचमुच रोज लिखना रोजमर्रा के काम में शामिल हो गया था।..और फिर समय भी कितना लगता,मुश्किल से बीस से पच्चीस मिनट। लाइनों की सतह तो पहले से तह लगकर दिमाग में पड़ी होती,लिखने बैठता तो लगता जैसे पापा साड़ी की गांठ खोलते हुए गिनती मिलाया करते हैं,मैं भी बस यही कर रहा हूं। लिखना मेरे लिए कोई अलग से विशेष एफर्ट कभी नहीं रहा। अगर मैं रिसर्च आर्टिकल को छोड़ दूं जिसमें कि कई स्तर पर संदर्भ देने होते हैं तो लिखने में और किसी के घर का खाना खाने के बीच कभी ज्यादा फर्क नहीं रहा। ये दोनों काम मैं चौबीस घंटे में कभी भी कर सकता हूं। उन दिनों ऐसा मेरे भरोसा जम गया था।

अकादमिक तौर पर जो लोग मुझसे जुड़ें हैं औऱ मैं जिनसे जुड़ा हूं उन्हें मेरी रोज की लिखने की आदत से ये ...फहमी पैदा हो गयी कि मैं बस दिनभर ब्लॉगिंग करता रहता हूं और कुछ भी पढ़ाई-लिखाई नहीं करता। एक मास्टर साहब ने तो इस काम को चैटिंग से भी बदतर लत करार दिया। मैंने कभी किसी को इस मामले में सफाई देने की जरुरत नहीं समझी। उनका ऐसा सोचना स्वाभाविक भी है क्योंकि हिन्दी समाज "कब्जीयत शैली" का शिकार समाज रहा है।

यहां लोग सीधे-सीधे जो जैसा सोचते हैं,वैसा बहुत ही कम लिखा करते है। पहले तो सोचते हैं,फिर विचारों और विमर्शों का तीर-तुक्का भिड़ाते हैं,फिर इस बात पर गुणा-गणित करते हैं कि अगर ऐसा लिखा तो किस-किस महंतों से खेल बिगड़ जाएगा। कुछ आलस्य का भी सम्मान करना होता है। कुछ लोगों के साथ ये भी दिक्कत है कि खुद हाथ से लिखा और चेले-चपाटियों से टाइपिंग करा ली।..तो ये सब में ले-देकर समय लग जाता है। यहां तो अपना मामला सीधा-सीधा था। जो करना था सो खुद ही।..और हम जैसे वेवकूफ को इस बात की चिंता क्यों सताने लगी कि मेरे लिखने से किस महंत की अनवरत साधना भंग होगी। अब महीनों तक तो यही भरोसा नहीं रहा कि मेरे लिखे को लोग पढ़ेगे और वो भी पढ़ेंगे जिनके पास किताबों की समीक्षा करने तक के लिए किताबें पढ़ने का समय नहीं। ये तो थोड़ी बहुत समझ तब पैदा हुई जब देखा कि कुछ लोग पटेल चेस्ट से मास्टरजी के लिए पोस्टों की प्रिंटआउट निकालकर सेवा में प्रेषित कर रहे हैं।..तो भी लिखता रहा,इस मिजाज से कि लिख ही तो रहा हूं किसी की जमीन थोड़े ही कब्जा ले रहा हूं और होए दिक्कत तो होए महंतों को। बाबूजी के साथ ब्रा,पैंटी और साड़ी-बिलाउज का धंधा जिंदाबाद। वैसे भी लंबे समय तक मुझे नक्कारा समझनेवाले पापा का मन अब बदल गया,मुझमें अब वो भविष्य देखते हैं। मैं उस सुख की कल्पना से रोमांचित हो जाता हूं जब किसी संतुष्ट ग्राहक के हाथ से पैसे लेकर पापा मुझे गल्ले में पैसे रखने कहते हैं और रात में बाइक पर उनके साथ लौटता हूं,वो भइया से भी ज्यादा स्पीड में स्पेल्डर चलाते हैं और मैं पीछे से लगातार कुछ न कुछ बोलता जाता हूं।

मैंने तब सबसे ज्यादा पोस्टें लिखी जब मैं सबसे ज्यादा व्यस्त रहा। जब पीएचडी की रिपोर्ट बना रहा होता,थीसिस के चैप्टर लिख रहा होता,पत्रिकाओं के लिए लेख लिख रहा होता,टीवी देख रहा होता। मैंने एक बार कहा भी कि जब मैं रोज पोस्टें लिख रहा हूं तो समझिए कि मेरी लाइफ में सबकुछ अच्छा-अच्छा और व्यस्त चल रहा है। व्यस्त होने पर हमारी सक्रियता बढ़ा जाती है औऱ हम एक ही साथ कई काम करने लग जाते हैं।..इसलिए जब जब भी किसी ने कहा कि अरे अभी बंडे हो,लिख ले रहे हो,देखना जब विजी हो जाओगे तो ब्लॉगिंग छूट जाएगी,मैं मन ही मन मुस्कराता और कहता देखना नहीं छूटेगी। लिखने के लिए समय से कहीं ज्यादा इच्छाशक्ति जरुरी है और हम कोशिश करेंगे कि वो कभी मरने न पाए।

लेकिन अबकी बार न जाने ऐसा क्या हुआ,दिन पर दिन बितते गए और देखते-देखते करीब १५ दिन हो गए और मैं कुछ भी लिख नहीं पाया। अगर मैं आपको वजह गिनाने लगूं तो बेमानी होगी। कायदे से मुझे जिन कारणों से रोज लिखना चाहिए था,मैं उसे ही वजह बताकर नहीं लिखा,ऐसा नहीं करना चाहता। कितने मुद्दे थे मेरे पास। तुरंत मिर्चपुर से खाप पंचायत और दलितों की जली बस्तियां देखकर लौटा था। उसके दो दिन बाद से ही दिल्ली में भरी दुपहरी में कमरा खोजने निकलना शुरु कर दिया था। चार दिनों तक प्रोपर्टी डीलर के पीछे चकरघिन्नी की तरह कैंस के इलाके मथ डाले थे। फिर हॉस्टल छोड़ दिया,नई जगह पर आ गया। तीन साल पहले चैनल की नौकरी के वक्त जो जिंदगी थी,खुद से खाना बनाना और टिफिन का इस्तेमाल करना,सब शुरु हो गया। १८ तारीख को मैंने एक जबरदस्त कार्यक्रम का संचालन किया। कितना कुछ था मेरे पास लिखने को। मैं एक-एक सामान जुटा रहा था। लेकिन नहीं,कुछ भी नहीं लिख पाया। पिछले तीन-चार दिनों से तो कीबोर्ड पर हाथ ही रुक से गए। मैं भीतर से हिल गया।..भीतर का अपाहिजपना तो नहीं,कोई दिमागी अटैक तो नहीं। मैं कोई कारणों की खोजबीन में उलझना नहीं चाहता। मैं बस रोज लिखना चाहता हूं,ये जानते हुए कि हिन्दी समाज में रोज औऱ बहुत पढ़ना तो अच्छी बात है लेकिन रोज लिखना अच्छा नहीं माना जाता।..
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खौफ के साये में है मिर्चपुर..

Posted On 5:54 pm by विनीत कुमार | 6 comments


हरियाणा में हिसार जिले के गांव मिरचपुर के दलितों को उनकी मांग के मुताबिक जल्द से जल्द हिसार शहर में जमीन देकर बसाया जाए। ये लोग गांव में खुद को सुरक्षित नहीं महसूस कर रहे हैं। उन्हें शक है कि आने वाले दिनों में उन पर फिर हमले हो सकते हैं। वे अपने परिवार की महिलाओं और बच्चियों की सुरक्षा को लेकर खास तौर पर चिंतित हैं। मिरचपुर दलित हत्याकांड और उसके बाद हरियाणा पुलिस की भूमिका संदिग्ध रही है, इसलिए आवश्यक है कि जब तक इन दलित परिवारों को कहीं और न बसाया जाए, तब तक उनकी सुरक्षा के लिए गांव में केंद्रीय पुलिस बल को तैनात किया जाए।

बीते रविवार 9 मई 2010 को दिल्ली से मानवाधिकार समर्थकों की एक टीम ने रविवार को हिसार जिले के मिरचपुर गांव का दौरा किया। इस गांव में पिछले महीने की 21 तारीख (21 अप्रैल 2010) को दबंग जातियों के हमलावरों ने दलितों की बस्ती पर हमला किया था और 18 घरों को आग लगा दी थी। इस दौरान बारहवीं में पढ़ रही विकलांग दलित लड़की सुमन और उसके साठ वर्षीय पिता ताराचंद की जलाकर हत्या कर दी गई। दलितों की संपत्ति को काफी नुकसान पहुंचाया गया और कई लोगों को चोटें आईं।
मिरचपुर का दौरा करने और अलग अलग पक्षों से बात करने के बाद इस जांच टीम ने पाया कि :

1. दलितों पर हमले और आगजनी की घटना के लगभग तीन हफ्ते बाद भी मिरचपुर गांव में जबर्दस्त तनाव है। इस गांव के कुछ दलित परिवार प्रशानस के दबाव की वजह से लौट आए हैं, लेकिन उन्होंने अपने परिवार की युवतियों और लड़कियों को गांव से बाहर रिश्तेदारों के पास रखने का रास्ता चुना है। उन्हें नहीं लगता कि दलित युवतियां और बच्चियां गांव में सुरक्षित रह सकती हैं।

2. मिरचपुर में दलित उत्पीड़न का लंबा इतिहास रहा है। इससे पहले भी यहां दलितों के साथ मारपीट की घटनाएं होती रही हैं और खासकर दलित महिलाओं को यौन उत्पीड़न झेलना पड़ा है। महिलाओं के साथ बलात्कार और उन्हें नंगा करके घुमाने जैसी घटनाओं की पृष्ठभूमि और ऐसी तमाम घटनाओं में पुलिस और प्रशासन की भूमिका की वजह से मिरचपुर के दलित अब गांव छोड़ना चाहते हैं।

3. मिरचपुर में 21 अप्रैल को हुई आगजनी और हिंसा की घटनाओं के ज्यादातर आरोपी अब भी पुलिस की गिरफ्त से बाहर हैं। दलितों का आरोप है कि इस घटना के मास्टरमाइंड अब भी खुलेआम घूम रहे हैं और लोगों को धमका रहे हैँ।

4. प्रशासन और पुलिस इस घटना को दबाने में जुटी है। इस घटना के बाद से ही हिसार के जिलाधिकारी कार्यालय में धरने पर बैठे दलितों को 20 अप्रैल को जबर्दस्ती वहां से हटा दिया गया और डरा-धमकाकर गांव लौटने को मजबूर किया गया, ताकि दुनिया को ये बताया जा सके कि मिरचपुर में सब कुछ सामान्य है। दलितों को बाध्य किया जा रहा है कि वे हमलावरों के साथ समझौता कर लें।

5. सर्व जाति सर्व खाप पंचायत की 9 मई को मिरचपुर में हुई सभा में ये कहा गया कि दलितों ने अब समझौता कर लिया है और वे “भाईचारे के साथ” गांव में रहने को तैयार हो गए हैं। मिरचपुर से दलितों ने जांच टीम को बताया कि पीड़ित परिवारों से कोई भी इस पंचायत में नहीं गया है और वे समझौते के लिए तैयार नहीं है। वाल्मीकियों के नेता सुरेश वाल्मीकि को उनलोगों ने अपने पक्ष में कर लिया और इसे वो पूरी वाल्मीकि समाज की सहमति करार दे रहे हैं। इस पंचायत को सर्वजाति पंचायत नहीं कहा जा सकता, क्योंकि इसमें दलितों की हिस्सेदारी नहीं थी। मिरचपुर के दलितों का कहना है कि इस कांड के दोषियों को सजा मिलनी चाहिए। इस बात पर किसी तरह का समझौता नहीं हो सकता।

6. राहत के नाम पर मिरचपुर के दलितों को प्रति परिवार दो बोरी गेहूं दिए गए हैं। राहत की बाकी घोषणाएं अब तक कागज पर ही हैं।

7. मिरचपुर के दलित इस घटना के सिलसिले में मौजूदा राजनीतिक दलों की भूमिका से नाराज हैं। उनका गुस्सा खास तौर पर सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी के खिलाफ है। पुलिस और प्रशासन के अधिकारियों की मौजूदगी में हुए इस हत्याकांड से उनका विश्वास हिल गया है।

8. कांग्रेस के महासचिव राहुल गांधी ने घटना के बाद मिरचपुर का दौरा किया था, लेकिन गांव के दलितों का कहना है कि राहुल गांधी के दौरे के बाद भी प्रशासन और पुलिस का रवैया पहले जैसा है और वे अब भी सहमे हुए हैं।

9. पूछने पर दलित बस्ती के लोगों ने बताया कि वे अपनी मर्जी से वोट भी नहीं डाल सकते हैं। अपनी मर्जी से वोट डालने की मांग करने पर उनके साथ मारपीट होती है और उनका वोट जबरन डाल दिया जाता है।

10. मिरचपुर के सार्वजनिक शिव मंदिर में दलितों का प्रवेश वर्जित है। गांव के दलित अपना मंदिर बनाना चाहते हैं। लेकिन उन्हें अपना मंदिर नहीं बनाने दिया जा रहा है। इस वजह से गांव में दलितों का मंदिर अधूरा बना हुआ है। मिरचपुर गांव के स्कूल में एक भी दलित शिक्षक नहीं है। सरकारी नियुक्तियों में आरक्षण के बावजूद ऐसा होना राज्य में दलितों के साथ हो रहे भेदभाव का एक और प्रमाण है।

इस जांच टीम में नेशनल फेडरेडशन ऑफ़ दलित वुमेन (एनएफ़डीडब्लेयू) की उत्तर भारत संयोजिका एवं मानवाधिकार वकील सुश्री चंद्रा निगम,शोधकर्ता विनीत कुमार,सामाजिक कार्यकर्ता राकेश कुमार सिंह,पत्रकार अरविंद शेष तथा वरिष्ठ पत्रकार दिलीप मंडल शामिल थे। इस रिपोर्ट को अनुसूचित जाति आयोग और मानवाधिकार आयोग को भी भेज दिया गया है।

(प्रेस रिलीज: 9 मई को मिर्चपुर से लौटकर दिलीप मंडल,राकेश कुमार सिंह,विनीत कुमार,चंद्रा निगम और अरविंद शेष की ओर से जारी)
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यूपीएससी की परीक्षा में 9 वीं रैंक और हिन्दी माध्यम के लिहाज से प्रथम स्थान पानेवाले जयप्रकाश मौर्य का दर्द इस बात को लेकर है कि अभी तक उनसे किसी भी मीडिया ने सम्पर्क नहीं किया। ऐसे में संभव है कि आप जयप्रकाश मौर्य के भीतर खबर में आने की चाहत का अंदाजा लगाने लग जाएं। लेकिन गहराई से देखें तो ये साफ झलकता है कि खबरों को लेकर मीडिया के पास कोई होमवर्क नहीं है। फैजल के प्रथम स्थान पाने की खबर ही उसके लिए काफी है। वो टॉप करनेवाला पहला कश्मीरी है,उसके पिता आतंकवादी इन्काउंटर में मारे गए। कल कसाब के लिए फांसी की सजा सुनाने का दिन था। इसलिए ये सब कुछ मिलाकर जिसमें कि खबरों को लेकर कई एंगिल बनते थे,मीडिया के लिए एक बिकाउ पैकेज बन गया। लेकिन ऐसे में कोई ये दावा करे कि मीडिया ने यूपीएससी के रिजल्ट की पूरी लिस्ट नहीं देखी तो ताज्जुब करने के लिए कोई बड़ी बात नहीं होगी।

खबरों को फ्रैक्चरड करने की मीडिया को आदत सी लग गयी है। खबरों के बीच से अपने मतलब का पोर्शन उठाकर उसे एक चमचमाती पैकेज की शक्ल में तब्दील कर देना एक शगल है। संभवतः इसलिए फैजल ने मीडिया को जो बाईट दिए औऱ मीडिया ने जो उसका विश्लेषण किया उसमें जमीन-आसमान का फर्क नजर आया। फैजल का सिर्फ इतना कहना था कि जब उसके पिता की मौत हुई तो उसके सामने अपनी जिंदगी को देखने के दो ही तरीके मौजूद थे। एक तो यह कि वो इस पूरी घटना को एक डिप्रेशन की तरह देखे और उसी में डूबता चला जाए और दूसरा कि वो ये सब समझते हुए भी नयी जिंदगी की शुरुआत करे,कुछ बेहतर करे। शाह फैजल ने दूसरे नजरिए को तब्बजो दिया और आज वो सफल है। एक इंसान के भीतर की सच्चाई को मीडिया ने आतंकवाद के विरुद्ध जीत,आतंकवाद को दी शिकस्त जैसे शब्दों से लाद-लादकर उसे इतना भारी बना दिया कि कई सारी स्वाभाविक चीजें दबकर रह गयी। उसमें खुद फैजल का संघर्ष और वो मनःस्थिति सामने नहीं आने पायी और उसी चपेट में हिन्दी माध्यम में प्रथम स्थान आनेवाले जयप्रकाश मौर्य की भी कहानी मीडिया मंचों पर सामने नहीं आने पायी। इसे आप खबरों को फ्रैक्चरड करके पेश करने के साथ-साथ भाषायी स्तर पर दुर्व्यवहार करने का भी मामला मान सकते हैं। यूपीएससी ने तो फिर भी जयप्रकाश मौर्य को अपना लिया लेकिन मीडिया...?

जयप्रकाश मौर्य ने पिछली बार भी यूपीएसी की परीक्षा दी थी लेकिन अंग्रेजी उन्हें गच्चा दे गयी। अब एक साल तक उन्होंने किस स्तर की तैयारी की और इस बीच उनके भीतर किस तरह के विचार बनते-बदलते रहे,ये सब एक हिन्दी पट्टी से आनेवाले शख्स के लिए कम दिलचस्प नहीं है। खासकर ऐसे लोगों के लिए जो अपनी असफलता का ठिकरा पूरी तरह अंग्रेजी न जानने के उपर थोप देते हैं। जयप्रकाश मौर्य भी चाहते तो ऐसा कर सकते थे और चुप मारकर बैठ जाते। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। इसे चुनौती के तौर पर लिया और नतीजा आपके सामने है। ये घटना अगर मीडिया में आती तो देश के करोड़ों हिन्दी पाठकों और दर्शकों के बीच एक रोमांचकारी घटना के तौर पर असर करती लेकिन मीडिया में रोमांच तो सिर्फ क्रिकेट,ग्लैमर और देश की समस्याओं को सीरियल औऱ रियलिटी शो की शक्ल में बदलने से ही आते हैं।
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ब्लॉग के बहाने पहले तो वर्चुअल स्पेस में और अब प्रिंट माध्यमों में एक ऐसी हिंदी तेजी से पैर पसार रही है जो कि देश के किसी भी हिंदी विभाग की कोख की पैदाइश नहीं है। पैदाइशी तौर पर हिंदी विभाग से अलग इस हिंदी में एक खास किस्म का बेहयापन है, जो पाठकों के बीच आने से पहले न तो नामवर आलोचकों से वैरीफिकेशन की परवाह करती है और न ही वाक्य विन्यास में सिद्धस्थ शब्दों की कीमियागिरी करनेवाले लोगों से अपनी तारीफ में कुछ लिखवाना चाहती है। पूरी की पूरी एक ऐसी पीढ़ी तैयार हो रही है जो निर्देशों और नसीहतों से मुक्त होकर हिंदी में कुछ लिख रही है। इतनी बड़ी दुनिया के कबाड़खाने से जिसके हाथ अनुभव का जो टुकड़ा जिस हाल में लग गया, वह उसी को लेकर लिखना शुरू कर देता है। इस हिंदी को लिखने के पीछे का सीधा-सा फार्मूला है जो बात जैसे दिल-दिमाग के रास्ते कीबोर्ड पर उतर आये उसे टाइप कर डालो, भाषा तो पीछे से टहलती हुई अपने-आप चली आएगी।

आपमें से जो कोई भी रवीश कुमार के ‘कस्बा’ की मोबाइल पत्रकारिता , ई-स्वामी का भाषा-प्रवाह मतलब “मन का रेडियो बजने दे जरा”, प्रमोद सिंह के पतनशील साहित्य ‘अजदक’, मनीषा पांडे की ‘बेदखल की डायरी’, ‘मोहल्ला’ की बौद्धिक खुराकों, सामूहिक ‘रिजेक्टमाल’ के दलित साहित्य, ‘कबाड़खाना’ की कविता और पेंटिग चर्चा और चोखेरबालियों की बहसों से गुजरा है – वे समझ सकते हैं कि हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू, बंगाली, भोजपुरी, हरियाणवी और टिपिकल दिल्ली की भाषा-बोली में लिखे साइनबोर्डों और बतकुच्चन के बीच जाकर अपनी दावेदारी वाली हिंदी कैसे एडजेस्ट कर जाती है? बिस्तरे ही बिस्तरे की तर्ज पर बड़े आराम से रिश्ते ही रिश्ते हो जाता है, चना सत्तू शेख हो जाता है, भोपाल में 90 एमएल बच्चा पैग हो जाता है। यानी साहित्यिक विमर्शों के लिए प्रयोग होनेवाली हिंदी से इतर हिंदी दो पैसा कमाने की भाषा, झाड़-झड़प गुस्सा जाहिर करने की भाषा, सेंटी होकर लोगों को अपनी तरफ खींचने की भाषा, भूली-बिसरी घटनाओं को संस्मरण की शक्ल देनेवाली भाषा कैसे बने, इसकी कोशिश में समाज का एक बड़ा तबका दिन-रात लगा है। हिंदी ब्लॉगिंग की अभिव्यक्ति का एक बड़ा हिस्सा इसी जद्दोजहद के बीच से विकसित होती है।

यह बहुत हद तक संभव है कि भाषा के इस मौजूदा रूप में विमर्श न होने पाएगा, गुरु-गंभीर बातें अगर इस भाषा में की जाए तो फटीचरपने का एहसास होगा, विचारधारा और बदलाव की बात इसमें न की जा सकेगी लेकिन हिंदी का कल्याण करने की अपार चिंता और बंटाधार हो जाने की स्थायी कुंठा से मुक्त जिस हिंदी का विकास वर्चुअल स्पेस में हो रहा है, गूगल के हजारों पन्ने तैयार हो रहे हैं, वह किताबी दुनिया के भाषा-साहित्य से कम दिलचस्प नहीं है। हिंदी के इस रूप को समझने के लिए वैयाकरणाचार्यों, वाक्य विन्यास विशेषज्ञों और भारी-भरकम शब्दकोशों की तरफ नजर टिकाने से कहीं ज्यादा जरूरी है कि मेरठ के बेगम पुल पर, दिल्ली के गफ्फार मार्केट में, बनारस के गुदौलिया चौक पर और बिहार के बलिया-बक्सर, लहेरियासराय के हाट-बाजार में टीशर्ट, मोबाइल, कैमरा, गुडपापड़ी, गुजिया, केले और संतेरे बेचनेवाले दुकानदारों, प्रोपर्टी डीलरों और आये दिन घरों-मोहल्लों में चिकचिक करते लोगों की जुबान पर गौर किये जाएं।

हिंदी ब्लॉगिंग की दुनिया से अगर आप गुजरते हैं और आपको इसके इतिहास-वर्तमान की थोड़ी सी भी जानकारी है तो आप समझ सकते हैं कि इसमें जितने भी नामचीन ब्लॉगर हैं और बनने के कगार पर हैं, उनमें से एक का भी सीधा संबंध हिंदी विभाग और साहित्य से नहीं रहा है। हिंदी ब्लॉगिंग के पुरोधा रविरतलामी टेक्नोक्रेट हैं, उड़न तश्तरी नाम से मशहूर समीरलाल कनाडा के एक बिजनेस फर्म में कार्यरत हैं, सुनील दीपक इटली में डॉक्टर हैं, नारद नाम से एग्रीगेटर शुरू करनेवाले जितेंद्र का संबंध कंप्‍यूटर फर्म से रहा है, बेजी संयुक्त राज्य अमीरात में शिशु-चिकित्सक हैं। यहां तक कि हिंदी के आदि ब्लॉगर आलोक कुमार का भी संबंध साहित्य से नहीं रहा। इस तरह हजारों ऐसे ब्लॉगर हैं जो सूचना प्रौद्योगिकी, इंजीनिरिंग, अकाउंटिंग, वकालत जैसे पेशे से जुड़े हैं जहां सीधे-सीधे हिंदी लेखन का काम नहीं है लेकिन वर्चुअल स्पेस पर ये कविता, कहानियां, संस्मरण, रिपोर्ताज और कई बार तो पेशेवेर पत्रकारों की तरह रिपोर्ट लिख रहे हैं।

अनूप सेठी ने अपने लेख ‘हिंदी का नया चैप्टरः ब्लॉग’ में ऐसे गतिमान हिंदी लेखन को बिना लेखकों का गद्य कहा है। वे हमारी-आपकी तरह ही मैला आंचल, राग-दरबारी, गालिब छुटी शराब और काशी का अस्सी जैसी रचनाओं पर प्रतिक्रिया जाहिर कर रहे हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि वे हमारी तरह संवेदना और शिल्प तलाशने की छटपटाहट से मुक्त हैं, वे इस पर विचारधारा का लेबल चस्पाने की फिराक में नहीं है। संभव है कि शुरुआती दौर में हिंदी समाज के बीच इसे लेकर जो जबरदस्त विरोध रहा है, उसकी एक बड़ी वजह यह भी रही हो। फार्मूले के तहत पढ़ने-लिखने की कवायद के बीच जो हिंदी और “साहित्य कुछ खास लोगों का कर्म बनकर रह गया है जहां साहित्य के पाठक काफूर की तरह हो गये हैं, लेखक ही लेखक को और संपादक ही संपादक की फिरकी करने में लगा है, वहां इन पढ़े-लिखे नौजवानों का गद्य लिखने में हाथ आजमाना कम आह्लादकारी नहीं है। वह भी मस्त मौला, निर्बंध लेकिन अपनी जड़ों की तलाश करता मुस्कराता, हंसता, खिलखिलाता, जीवन से सराबोर गद्य। राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय। लोकल और ग्लोबल। यह गद्य खुद ही खुद का विकास कर रहा है, प्रौद्योगिकी को भी संवार रहा है। यह हिंदी का नया चैप्टर है।” ( अनूप सेठी, वागर्थ जनवरी 2005)

हिंदी के इस नये चैप्टर को लेकर हिंदी समाज के बीच विरोध, असहमति, हील-हुज्जत, कौतूहल, मौन समर्थन और इसे अपनाने-हथियाने की प्रक्रिया कई स्तरों पर समान रूप से जारी है। हममें से कोई अगर इस पूरी प्रक्रिया पर संवेदनशील होकर शोध करना चाहे, तो संभव है कि किताबी दुनिया में दर्ज हिंदी और मुद्दों से इतर कई नयी झलकियां मिल जाए। विज्ञान और प्रौद्योगिकी को लेकर हिंदी लेखन का व्यावहारिक प्रयोग समझ आ जाए जिसे कि लोग जानकारी बढ़ाने से कहीं ज्यादा उस तकनीक को अपने इस्तेमाल में लाने के लिए लिख-पढ़ रहे हैं। हां इस काम के लिए इतना जरूर है कि विचारधारा, संवेदना और शिल्प के खांचे में रहकर चीजों को देखने की आदत से बाहर निकलना होगा।

यह बात इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि ब्लॉगिंग का आविर्भाव न तो अभिव्यक्ति के औजारों से हुआ है और न ही अकादमिक प्रशिक्षण केंद्रों में रहकर इसका कोई मानक रूप दिया गया है। जिस समय हिंदी समाज हिंदी का ग्लोबल स्तर पर विस्तार देने के क्रम में संगोष्ठियों में रमा रहा, ठीक उसी समय गैर हिंदी विभागी लोग हिंदी फांट, तकनीक और सॉफ्टवेयर को लेकर लगातार माथापच्ची करते रहे। इन्हीं लोगों के बीच से ई-स्वामी पत्नी की असहमति और बाबला करार दिये जाने के बावजूद एग्रीगेटर के लिए दुनियाभर के हिंदीप्रेमियों से मदद करने की अपील कर रहे थे। इसी समय कोई गूगल जिसे कि प्रभाव के कारण चिढ़ में हम सूचना का दैत्य भी कह देते हैं, उसके परिसर में हिंदी के लिए जगह बनाने की जुगत भिड़ा रहा था। हिंदी के अगाध प्रेम में पगे लोग इनका शायद ही नाम जानते हों क्योंकि इन्होंने यह सब कुछ बिना कोई बैनर टांगे, मंच सजाये, माइक लगाये और दरी बिछाये किया। हिंदी ब्लॉगिंग पर बात करने के क्रम में इन सब बिंदुओं को शामिल करना जरूरी है।

यह काम इसलिए भी जरूरी है कि एक तो इसे लंबे समय तक स्टीरियोटाइप से इस रूप में परिभाषित किया जाता रहा कि यह हिंदी भाषा और साहित्य से सीधे-सीधे जुड़े लोगों के विरोध में है और दूसरा कि अब तक के तमाम माध्यमों की तरह इसे भी विचारधारा, बाजार विरोधी तर्क, सामाजिक सरोकार को तय करनेवाले कारकों के तहत विश्लेषित कर लिये जाने का मन बना लिया गया। सिर्फ कंटेंट पर केंद्रित न होकर इसकी पूरी प्रक्रिया पर गौर करें तो ब्लॉगिंग न केवल इन दोनों नीयतों को ध्वस्त करता है बल्कि उन तमाम लोगों के आत्मविश्वास को कमजोर करता है जो कि साहित्य और पत्रकारिता के औजार से इसे विश्लेषित करने का उपक्रम रचते हैं। इस तरह की घटनाओं को लेकर बहुत सारे बारीक संदर्भ जुटाने के बजाय हम एक उदाहरण पर गौर करें तो स्थिति साफ हो जाती है।

इलाहाबाद के हिंदुस्तानी एकेडेमी सभागार में पहुंचते ही हिंदी चिठ्ठाकारी की दुनिया नाम से होनेवाले दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी (23-24 अक्टूबर) का जो पर्चा हमें थमाया गया, कार्यक्रम और बातचीत के विषयों की जो जानकारी हमें दी गयी उससे साफ हो गया कि हिंदी ब्लॉगिंग को अब अकादमिक जगत और साहित्य के संस्कार से विश्लेषित करने की तैयारी शुरू हो गयी है। यह संगोष्ठी देश के किसी भी कॉलेज या विश्वविद्यालय में ब्लॉगिंग पर होनेवाली पहली और सबसे बड़ी संगोष्ठी थी जिसका श्रेय निश्चित रूप से महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय, वर्धा को दिया जाना चाहिए। ब्लॉगरों के लिए यह कम सम्मान की बात नहीं थी कि जिस काम को वे टाइम पास और मौज-मजे के तौर पर करते आये हैं, उस पर अब अकादमिक बहसें होनी शुरू हो गयी है। जिन लोगों ने इस काम की पार्श्व-निंदा की, मंच से अनुपयुक्त लेखन करार दिया, अब वे ही लोग पर बात करने हमारे सामने मौजूद हैं। लेकिन, हिंदी ब्लॉगिंग को साहित्य से संस्कारित किये जाने और इस पर अनावश्यक हिंदी प्रेम लुटाने के नतीजे से इन्हीं ब्लॉगरों को गहरा आघात लगा।

थोड़ी देर पहले शुरू होनेवाले जिस आयोजन के पीछे ब्लॉगर, ब्लॉग की दुनिया का एक बड़ा भविष्य बनता देख रहे थे, उन्हें तुरंत ही इस दुनिया में कतर-ब्‍योंत करने की साजिश नजर आने लगी। हिंदी आलोचक नामवर सिंह ने जैसे ही हिंदुस्तानी एकेडेमी के सभागार को ऐतिहासिक करार देते हुए कहा कि ब्लॉगिंग के लिए हिंदी में चिठ्ठाकारी शब्द खोज लाने का श्रेय महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय, वर्धा को जाता है तो सभागार की करतल ध्वनि के बीच देशभर से आये दर्जनों ब्लॉगरों के भीतर एक गलत इतिहास दर्ज किये जाने का दर्द उठा। अचानक से शोर-शराबा बढ़ गया। इसी बीच कानपुर से आये अनूप शुक्ल ( फुरसतिया) की लाइव पोस्ट मेरे लैपटॉप पर फ्लैश होती है, जिसके वाक्य कुछ इस तरह से थे – “नामवर जी ने ब्लाग के बारे में अपनी समझ बतायी। जब उन्होंने कहा कि चिट्ठाकारी शब्द वर्धा विश्वविद्यालय ने दिया, तब हमें अपने भाई आलोक आदि चिट्ठाकार याद आये। तुम वहां चंड़ीगढ़ में हो भैया और तुम्हारे मानस शब्द का अपहरण हो गया।”

अंग्रेजी शब्दों का हिंदी अनुवाद करके जो वक्ता अपने हिंदी प्रेम को स्थापित करने की कोशिश में थे, तकनीक और हाइपर टेक्सचुअलिटी को हिंदीआयी हुई अभिव्यक्ति बताने पर जोर दिया जा रहा था, उनके ऐसा करने से हिंदी ब्लॉगिंग के न केवल ऐतिहासिक संदर्भ कुचले जा रहे थे, न केवल उन तकनीक विशारद हिंदीप्रेमियों और एड़ी-चोटी एक करके एग्रीगेटर खड़ी करनेवाले मैथिली गुप्त जैसे लोगों को भुलाया जा रहा था बल्कि ब्लॉगिंग को समझने की गलत परंपरा की नींव डाली जा रही थी। हिंदी समाज इतना स्वार्थी है कि वह हर नयी अभिव्यक्ति को साहित्य के पाले में खींच ले जाएगा, इसकी कल्पना ब्लॉगरों के बाहर की चीज थी। हिंदी ब्लॉगिंग के इतिहास में यह घटना इसी रूप में याद की जाएगी।

तकनीकी शब्दावलियों का तर्जुमा करने भर से हमें अपनी भाषा के शब्द मिल जाने की खुशी तो जरूर होती है लेकिन तकनीक को लेकर अपनी दावेदारी करने लग जाना बेमानी है। इस पर खुशी और दावेदारी जाहिर करने के बजाय जब तक इस पूरी प्रक्रिया की समझ के साथ विश्लेषित करने का काम नहीं किया जाता तब तक यह आलोचना के नाम पर हिंदी पाठकों के साथ छलना है। अनुवाद के जरिये भाषायी प्रेम प्रदर्शित करने में हमारी वस्तुस्थिति के प्रति समझ कैसे विचलित होती है, इसकी एक मिसाल इसी संगोष्ठी में ‘anonymous’ शब्द को लेकर देखने को मिली। इस संगोष्ठी में हिंदी चिठ्ठाकारी के कुंठासुर नाम से सत्र रखा गया और उसे नकारात्मक अर्थ में प्रस्तावित किया गया जबकि पूरी ब्लॉगिंग के इतिहास पर नजर डालें जिसमें कि इराक युद्ध पर रिवरबेंड की ब्लॉगिंग भी शामिल है जो कि अब बगदाद बर्निंग नाम से किताब की शक्ल में है – तो यही अमूर्त नाम/बेनामी ही ब्लॉगिंग की सबसे बड़ी ताकत बनकर उभरा है। दुनिया की कई बड़ी न्यूज एजेंसियां और मीडिया हाउस जिसमें कि सीएनएन भी शामिल है, इनकी बातों को प्रमुखता से छापती-दिखाती आयी हैं, कोई नहीं जानता कि गुल्लिवर कौन है? अनुवाद के जरिये अतिरिक्त भाषा प्रेम प्रदर्शित करने का नतीजा है कि बेनामी को हिंदी समाज हमेशा से गलत मानता आया है जबकि कई बार उसके नाम से ज्यादा उसकी बात ज्यादा मायने रखती है। यही हाल तकनीक को लेकर है।

अंतर्जाल की इस दुनिया में अक्षर के तौर पर हमें हिंदी तो जरूर दिखाई दे रही है लेकिन इसकी ‘ग्रैमटलॉजी’ साहित्य की दुनिया से बिल्कुल अलग है। इसने किताबी पाठ की हायरारकी को ध्वस्त किया है। एचटीएमएल कोड, यूआरएल, कीवर्ड्स की शैली में ऑडियो-वीडियो से सटाकर लिखे जानेवाले इस बहुविध पाठ की व्याख्या और विश्लेषण सिर्फ हिंदी की सदइच्छा लेकर संभव नहीं है। हिंदी ब्लॉगिंग की आलोचना करनेवाले लोगों पर इस बात की दोहरी जिम्मेदारी है कि वह न्यू मीडिया और बदलती वैश्विक आर्थिक शर्तों के बीच हिंदी और उसके भीतर की अभिव्यक्ति को देखना शुरू करें। नहीं तो महज कंटेंट के स्तर पर आलोचना के लिए दर्जनों मुद्दे पहले से ही मौजूद हैं और जो नहीं हैं उसे आपसी सहमति के आधार पर जारी रखिए, अच्छा प्रयास, अद्भुत, नाइस कहने-कहलवाने वालों की जो जमात पनप रही है, जिनके दम पर एक ऐसा लिक्खाड़ समाज आकार ले रहा है जो अपनी हर तुकबंदी और भाषिक कलाबाजी के बूते कवि, लेखक और चिंतक कहलाने के लिए बेचैन है, वे आकर थमा ही जाएंगे।

(नया ज्ञानोदय मई 2010 में प्रकाशित "ब्लॉग के बहाने" नियमित कॉलम से..)
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अपना रेडियो बचाओ अभियान शुरु

Posted On 10:27 am by विनीत कुमार | 6 comments




आकाशवाणी के कबाड़खाने की शक्ल में बदलते जाने और एफ.एम.गोल्ड 106.4 में भारी गड़बड़ियों के खिलाफ रेडियो प्रजेन्टरों ने अपनी मुहिम तेज कर दी है। अगर उनकी बातों को समय रहते नहीं सुना गया तो वो देशभर में संबंधित जिम्मेदार अधिकारियों के विरोध में अभियान शुरु करेंगे। रेडियों प्रजेन्टरों ने आज,3 मई को प्रेस रिलीज जारी कर साफ कर दिया है कि अब वो आर-पार की लड़ाई लड़ने के मूड में हैं।..और इस काम को अंजाम देने के लिए न केवल रेडियो से जुड़े लोगों को शामि करेंगे बल्कि इस संघर्ष में देश के हर उस शख्स को शामिल करेंगे जो कि रेडियो को समाज का एक अनिवार्य माध्यम मानता है।
हमने इससे ठीक पहले की पोस्ट में विस्तार से बताया है कि आकाशवाणी के भीतर किस स्तर की घपलेबाजी है और वहां के लोगों का करीब सालभर से कोई भुगतान नहीं किया गया है। ऐसा होने के पीछे कोई आर्थिक मजबूरी होने के बजाय चंद लोगों की मनमानी है। यहां हम रेडियो प्रजेन्टरों की ओर से जारी प्रेस रिलीज को आपके सामने रख रहें। आपने भी अपनी जिंदगी के खूबसूरत लम्हें,तकलीफों के दिन,अकेलेपन से भरी शाम रेडियो के साथ बिताए हैं। ऐसे कई मौके पर जब जमाने ने आपका साथ छोड़ दिया तो इस रेडियो ने आपका साथ दिया। आज यही रेडियो लाचार है,इसे हमारी-आपकी जरुरत है। इसलिए जरुरी है कि हम अपने स्तर से लिखकर,चर्चा करके,हस्ताक्षर अभियान चलाकर आकाशवाणी के भीतर जो कुछ भी चल रहा है उसके प्रति असहमति दर्ज कराएं। अपना रेडियो बचाओ अभियान के स्वर को मजबूती दें-

रेडियो प्रजेन्टरों की ओर से जारी प्रेस रिलीजः-

नई दिल्ली । 3 मई २०१० । एफ एम सहित आकाशवाणी दिल्ली के विभिन्न चैनलों में काम करने वाले सैकड़ों उदघोषकों और कर्मियों में अधिकतर कलाकारों को पिछले ग्यारह महीनों से भुगतान नहीं किया गया है। कुछ तो ऐसे भी हैं जिन्हें इससे भी अधिक समय से पैसे नहीं मिले हैं।अपना रेडियो बचाओं अभियान का मानना है कि रेडियो के निजी चैनलों को फायदा पहुंचाने के उद्देश्य से आकाशवाणी की स्थिति बदत्तर बनाई जा रही है।

राजधानी में अपना रेडियो बचाओं अभियान में लगे श्रोताओं, कलाकारों व समाजिक कार्यकर्ताओं का मानना है कि रेडियो की भी वैसी ही स्थिति बनाई जा रही है जैसा कि टेलीविजन के निजी चैनलों के लिए जगह बनाने के लिए वर्षों पूर्व दूरदर्शन की बनाई गई थी। निजी चैनलों के शुरू होने से पहले मैट्रों चैनल को सबसे ज्यादा लोकप्रिय बनाने की कोशिश की गई। उसके जरिये दर्शकों की रूचि को मसलन भाषा और विषय वस्तु आदि हर स्तर पर बदलने की पूरी कोशिश शुरू की गई। दूरदर्शन के कर्मचारियों की भी शिकायतें उन दिनों काफी बढ़ रही थी और उन पर ध्यान देने की जरूरत सरकार महसूस नहीं कर रही थी। इन दिनों रेडियों के पर्याय के रूप में एफएम चैनलों को जाना जाता है। खासतौर से मनोरंजन के लिए श्रोताओं की बड़ी तादाद एफ एम चैनलों के कार्यक्रमों को सुनती है। लेकिन आकाशवाणी के एम एम चैनलों की जो स्थिति है उसे देखकर आश्चर्य ही नहीं होता है बल्कि ये एक भरोसे के साथ कहा जा सकता है कि रेडियों के निजी चैनलों के विस्तार के लिए आकाशवाणी के आला अधिकारी काम कर रहे हैं। याद दिलाने की जरूरत नहीं होनी चाहिए कि टेलीविजन के निजी चैनलों की शुरूआत में दूरदर्शन को छोड़कर उसके कई बड़े अधिकारी निजी चैनलों की सेवा में उंची तनख्वाह पर चले गए थे।

एक तरफ तो रेडियो का तेजी से विस्तार हो रहा है और दूसरी तरफ आकाशवाणी पर वर्षों से नई नियुक्तियां नहीं हुईं हैं और यहाँ प्रोग्राम प्रजेंटेशन का काम आकस्मिक प्रस्तोता ही करते हैं। काम के घंटे अधिक और पारिश्रमिक कम, इस पर भी भुगतान में वर्ष भर की देरी । जबकि संसद की एक समिति ने आकाशवाणी में अस्थायी कलाकारों की बदतर स्थिति पर चिंता जाहिर करते हुए उनकी स्थायी नियुक्तियां करने की सिफारिश की थी।

रेडियो के सबसे लोकप्रिय एम एफ चैनलों के लिए काम करने वाले कलाकारों ने दो महीने के दौरान सम्बंधित उच्चाधिकारियों से मिलकर इन स्थितियों से अवगत कराया है लेकिन स्थितियां जस की तस हैं । "अपना रेडियो बचाओ " मंच के तत्वावधान में लगभग बीस सक्रिय प्रज़ेन्टरों का एक प्रतिनिधिमंडल आकाशवाणी महानिदेशक को पहले १७ फरवरी और फिर २६ अप्रेल २०१० को ज्ञापन दे चुका है । इस ज्ञापन में कार्यक्रमों के गिरते स्तर, भुगतान में अभूतपूर्व विलम्ब के और ध्यान दिलाया गया है और एफ़ एम गोल्ड चैनेल में चल रही गडबडियों के लिए एफ़ एम गोल्ड चैनल की कार्यक्रम अधिशासी MrsMmmmmmmmm Mrs. Ritu Rajput को जिम्मेवार बताया गया है। लम्बे समय तक यह चैनल देश के सर्वाधिक लोकप्रिय चैनेल्स में रहा है और इसके सूझबूझ से भरे मनोरंजक और ज्ञानवर्धक कार्यक्रम व्यापक जनहित का काम करते रहे हैं और श्रोताओं का जीवन प्रकाशित करते रहे हैं.

अपना रेडियो बचाओ मंच इस सन्दर्भ में सूचना और प्रसारण मंत्रालय से तत्काल हस्तक्षेप की मांग करता है और तुरंत भुगतान कर के कैजुअल प्रज़ेन्टरों के नियमितीकरण की प्रक्रिया आरम्भ करने की भी मांग करता है। साथ ही संसदीय समिति की सिफारिशों के आलोक में तत्काल कदम उठाने का आग्रह करता है। इस मंच के सदस्यों ने इस बात पर भी जोर दिया है कि आकाशवाणी को बर्बाद करने की जो साजिश चल रही है उसका पर्दापाश करने के लिए मंच राजधानी और देश के दूसरे शहरों में अभियान चलाएगा।
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करोड़ो रेडियो लिस्नर (श्रोताओं) के दिलों पर राज करनेवाला AIR FM GOLD 106.4 आज खुद चंद लोगों की अफसरशाही और मनमानी का अड्डा बनकर रह गया है। कार्यक्रमों के प्रसारण का जो स्तर और भीतर की जो हालत है, उसे देखकर किसी के भी मन में ये सवाल जरूर उठेगा कि सूचना, मनोरंजन और जागरुकता के नाम पर देश के मेहनतकश लोगों के खून-पसीने की करोड़ों रुपये की कमाई को जिस तरह पानी में बहाया जा रहा है, उसके लिए कौन लोग जिम्मेदार हैं? इस माध्यम को कमजोर करने के जो कुचक्र रचे जा रहे हैं और देश के इस एफएम चैनल को कैसे किसी ऊटपटांग निर्देश जारी करनेवाले लोगों के हाथों सौंप दिया गया है, उनसे सवाल किये जाएं? हालात ये है कि संसद भवन के ठीक बगल में चलनेवाला ये चैनल अब धीरे-धीरे कबाड़खाना की शक्ल में तब्दील होता जा रहा है।

इसे चलाने के लिए करोड़ों रुपये के बजट तैयार किये जाते हैं, पैसे भी आवंटित होते हैं लेकिन लापरवाही और भीतरी गड़बड़ियों की वजह से करीब सालभर से प्रजेंटरों को कोई भुगतान नहीं किया जाता है, सही चीजों को हटाकर भारी ठेके देकर नयी गैरजरूरी चीजें लगायी जाती है, चालू हालत की चीजों को कबाड़खाने में डाल दिया जाता है। चीजों के रखरखाव का जो आलम है उसे देखते हुए किसी भी रेडियोप्रेमी का खून खौल जाए। दुर्लभ और कीमती रिकार्ड्स छतों पर फेंक दिये गये हैं जिसे कि कोई पूछनेवाला नहीं है। कुछ के पैकेट खोले तक नहीं गये और काफी कुछ कबाडियों के हाथों औने-पौने दामों पर बेच दिया गया। पूरे सिस्टम के डिजिटाइज हो जाने की वजह से पुरानी मशीनें और सामान म्यूजियम के नाम पर साइड कर दिये गये हैं जिसका कुछ भी मेंटेनेंस नहीं है।

शुरुआती दौर से जुड़े जिन लोगों ने इसे देश का नंबर वन एफएम चैनल बनाया, वो इस पूरी स्थिति को लेकर दुखी हैं। वो अभी भी दिन-रात इसकी बेहतरी के लिए काम करने को तैयार हैं। लेकिन भीतर का माहौल ऐसा है और इस किस्म की बदहाली है कि कोई चाहकर भी व्यक्तिगत स्तर पर बहुत कुछ नहीं कर सकता। इनके बीच लंबे समय से इन सब बातों को लेकर गहरा असंतोष रहा है। पिछले दिनों (17 फरवरी, 2010) AIR FM GOLD की बिगड़ती हालत और कार्यक्रमों के गिरते स्तर को लेकर रेडियो प्रजेंटरों ने इसकी शिकायत ऑल इंडिया के डायरेक्टर जेनरल से की थी। उस शिकायत पत्र में साफ कहा गया था कि इस चैनल को चलाने के लिए विज्ञापन की जो जरूरत है, उसे लेकर कोई मार्केट स्ट्रैटजी अपनाने के बजाय गलत हथकंडे अपनाये जा रहे हैं। ज्यादा से ज्यादा एसएमएस आधारित कार्यक्रमों को शामिल करने से कार्यक्रम की क्रिएटिविटी खत्म होती है।

इधर जिन कायक्रमों और जिंग्लस को शामिल किया गया है, वे एफएम गोल्ड की ब्रांड इमेज के अनुकूल नहीं है। लेकिन इस दिशा में किसी भी तरह की संतोषजनक कारवाई न होने की स्थिति में अब उन्होंने save fm gold movement का एलान किया है। इस कड़ी में 26 अप्रैल 2010 को एक बार फिर ऑल इंडिया रेडियो की डायरेक्टर जेनरल को शिकायत पत्र लिखकर बद से बदतर होती चैनल की स्थिति से अवगत कराने की कोशिश की है। फिलहाल वो अपनी सारी कारवाई संबंधित अधिकारियों और विभागों के प्रति शिकायत दर्ज करके कर रहे हैं फिर भी किसी भी तरह का सुधार नहीं होता है तो जल्द ही सड़कों पर उतर आएंगे और फिर ये आंदोलन सिर्फ प्रजेंटरों का न होकर हम सब रेडियोप्रमियों का होगा।

एफएम गोल्ड के भीतर जो भी गड़बड़ियां हैं, वो कोई एक स्तर पर नहीं है। इस संबंध में अगर आरटीआई डालें जाएं, तो संभव है कि आकाशवाणी के भीतर बड़े पैमाने पर घोटाले निकलकर सामने आएं जिसमें कि पैसे को लेकर भी घपले शामिल हो सकते हैं। इस बात की संभावना इसलिए भी जतायी जा रही है कि पिछले एक साल से करीब साठ एफएम गोल्ड के प्रजेंटरों, जो कि चैनल की आवाज हैं, जिनके कारण लोग चैनल से सीधे-सीधे जुड़ते हैं, उन्‍हें कोई भुगतान नहीं किया गया है। इस बात की शिकायत पर केंद्र के वित्तीय अधिकारी की तरफ से जवाब मिला कि उनका पैसा कॉमनवेल्थ के लिए लगा दिया गया है, इसलिए ऐसा हुआ है।

लेकिन मामला ये नहीं है। सूत्रों के अनुसार रेडियो प्रजेन्टरों के लिए दो करोड़ रुपये अलग से जारी किये गये हैं और कॉमनवेल्थ से आपकी पेमेंट का कोई संबंध ही नहीं है। उस काम के लिए अलग से 25 करोड़ रुपये आकाशवाणी को दिये गये हैं। ऐसे में सवाल उठते हैं कि एक ही संस्थान को लेकर दो अलग-अलग वर्जन क्या कहते हैं?

जारी है यहां तुगलकी फरमान
इन दिनों रेडियो प्रजेंटरों पर दबाव बनाकर एक ड्राफ्ट पर साइन करवाया जा रहा है, जिसमें ये लिखा है कि प्रजेंटर एक महीने में छह से ज्यादा किसी भी विभाग, चैनल में कार्यक्रम नहीं करेंगे। इस पर साइन करने का मतलब होगा कि प्रजेंटर अपनी मर्जी से छह से ज्यादा कार्यक्रम नहीं करना चाहते हैं जबकि ये छह कार्यक्रम करके भी उनका क्या होगा? एक कार्यक्रम के लिए उन्हें 1600 रुपये मिलने का प्रावधान है। पहले ये राशि लगभग इसकी आधी हुआ करती थी। बढ़ी हुई ये राशि उन्हें अभी मिली नहीं है। राजधानी या इंद्रप्रस्थ चैनल में ये राशि मात्र 400 रुपये है। अधिकांश लोगों को कम से कम तीन के बाद चार या पांच कार्यक्रम करने को मिलते हैं। अगर उन्हें 6 कार्यक्रम मिल भी गये तो कुल 9,600 रुपये बनते हैं। कुछ प्रजेंटर जो कि पार्टटाइम के तौर पर काम करते हैं, उन्हें छोड़ दें तो बाकी के जो पूरी तरह इस पर ही निर्भर हैं उन्हें अगर सालभर तक दस हजार के आसपास की ये रकम भी नहीं मिलती है तो उनकी हालत क्या होगी – इसका अंदाजा आप लगा सकते हैं।

इस पर भी साइन करवाने के पीछे की राजनीति ये है कि कोई भी व्यक्ति अगर कैजुअल स्टेटस पर 90 दिनों तक संस्थान में काम कर लेता है, तो परमानेंट होने की उसकी दावेदारी बढ़ जाती है। इसलिए पूरी कोशिश होती है कि ऐसी स्थिति आने ही न दिया जाए। कागजी तौर पर ऐसा कहीं नहीं लिखा है कि वो महीने में छह दिन ही कार्यक्रम देंगे। इस संबंध में जब एक प्रजेंटर ने साइन करने से ये कहते हुए मना कर दिया कि आप हमें लिखित तौर पर दिखाएं कि किस ऑफिशयल ऑर्डर के तहत ऐसा है, तो प्रोग्राम एग्जीक्यूटिव रीतू राजपूत का साफ कहना है कि अब हर बात के लिए फाइलें तो नहीं खोली जा सकती। वैसे भी आकाशवाणी से जुड़ते समय ही उसके कागजात में इतने क्लाउज पहले से शामिल होते हैं कि प्रजेंटर के हाथ-पैर पूरी तरह बंध चुके होते हैं। वो ज्यादा कुछ कर नहीं सकता। लेकिन उसके बाद पेक्स (प्रोग्राम एग्जीक्यूटिव) की मनमानी के बीच सर्वाइव करने का एक ही तरीका है कि वो महज एक चमचा बनकर रह जाए।

भाषा में बोल्‍ड हूं, इतना कायर हूं कि एफएम गोल्‍ड हूं

भाषा को लेकर आकाशवाणी सहित एफएम गोल्ड में ऊटपटांग प्रयोग जारी है। चैनल की पेक्स रीतू राजपूत का जबरदस्ती का हिंदी प्रेम स्टूडियो के भीतर चस्पाये निर्देशों से लेकर कार्यक्रम में प्रयोग किये जानेवाले शब्दों, संबोधनों में भी साफ तौर पर दिखाई देता है। यहां प्रजेंटरों के लिए सूत्रधार शब्द का प्रयोग किया जाता है और एसएमएस पैगाम हो जाता है। वैयाकरणिक तौर पर ये दोनों शब्द प्रयोग तो गलत हैं ही, दूसरी बात कि ये हिंदी को सहज बनाने के बजाय हास्यास्पद ज्यादा बनाते हैं।

भाषा को लेकर आकाशवाणी सहित चैनल के भीतर का एक और गड़बड़झाला है। ऑडिशन की लंबी प्रक्रियाओं के बाद, जिसमें कि तीन से चार लोग ही पास हो पाते हैं, वाणी सर्टिफिकेट कोर्स नाम से पांच दिनों की ट्रेनिंग दी जाती है। इस ट्रेनिंग के लिए पास हुए लोगों से पांच हजार रुपये लिये जाते हैं। कोर्स के पीछे का तर्क है कि वो इसमें भाषा-दक्षता, विशेषता और व्यावहारिक प्रयोग के बारे में जानकारी देंगे। लेकिन दिलचस्प है कि ये ट्रेनिंग सिर्फ हिंदी, अंग्रेजी और उर्दू के लोगों के लिए है। बाकी नेपाली, तमिल, मलयालम या दूसरी भारतीय भाषाओं के लिए नहीं है। विदेश प्रसारण सेवा में जो भाषाएं शामिल हैं, उनके लिए भी नहीं। वो बिना किसी तरह की रकम या ट्रेनिंग लिये प्रवेश पा जाते हैं। पिछले महीनों इस बात को लेकर काफी हंगामा भी हुआ जिसमें कि आकाशवाणी की विदेश प्रसारण सेवा ने नेपाली को विदेशी भाषा करार दे दिया।

बहरहाल, ऐसा इसलिए है कि इतनी बड़ी आकाशवाणी के पास इन भाषाओं की ट्रेनिंग देने की कोई व्यवस्था नहीं है। लेकिन इसका नतीजा पांच हजार देकर आये लोगों के बीच के असंतोष का पनपना है और ये भाषाई भेदभाव का मामला बनता है। वो पांच हजार में पांच दिन कोई गंभीर ट्रेनिंग के बजाय खाने-खिलाने के तौर पर काट देते हैं। अगर इस तरह पांच हजार लेकर एक कमाई का जरिया ही बनाना है तो फिर ये काम बाकी भाषाओं के साथ क्यों नहीं? पिछले दिनों से आकाशवाणी के भाषा संबंधी रवैये को लेकर संसदीय राजभाषा समिति जो भी जांच कर रही है जिसमें कि नेपाली और फ्रेंच विशेष रूप से शामिल हैं, इस कड़ी में बाकी के भाषाई सवाल शामिल किये जाते हैं तो कई और गड़बड़ियां सामने आने की गुंजाइश बनती है।

वो भूली दास्‍तां” उर्फ कंटेंट और पुराने रिकॉर्डर का कबाड़

कंटेंट के स्तर पर एफएम गोल्ड का बुरा हाल है। मैं पिछले तीन महीने से लगातार इस चैनल को आब्जर्व कर रहा हूं। इसमें कोई निराला की कविता तोड़ती पत्थर को सिनेमा के गीत से जोड़ दे रहा है तो कोई शिवरात्रि के मौके पर आदिम जमाने के क्लास नोट्स पढ़ने लग रहा है। अधिकांश विशेष अवसरों के कंटेंट बदलते नहीं है। मसलन होली, दीवाली से लेकर तमाम आर्थिक-राजनीतिक घटनाएं तेजी से बदल रहे हैं लेकिन प्रस्तुति के स्तर पर कोई प्रयोग नहीं है। दूसरी बात कि जो ब्रॉडकास्ट हो रहा है, उसके पीछे कंटेंट को लेकर अगर ऑथेंटिसिटी और अकाउंटेबिलिटी की बात की जाए तो चैनल के पास शायद ही कोई संतोषजनक जवाब हो। अखबारों की कतरनों के बूते बनायी जानेवाली अधिकांश स्क्रिप्ट के पीछे कोई रिसर्च नहीं है। इस कंटेंट से ही जुड़ा एक बड़ा सवाल बजनेवाले संगीत का भी है।

रेडियो प्रजेंटर के लिए ये भारी सिरदर्द का काम है कि वो जो भी ट्रैक बजाये, चाहे वो लिस्नर की फरमाइश पर ही क्यों न हो, उसे वो खुद मैनेज करे। म्यूजिक प्लेयर डिजिटाइज हो जाने की वजह से पुराने सारे रिकार्डर बेकाम के हो गये हैं। करोड़ों रुपये की धरोहर बेकार हो गयी जिसकी कोई खोज-खबर नहीं है। एआईआर ने उसे गंभीरता से न लेकर डिजीटल फार्म में नहीं बदलवाया। नतीजा एक बड़ा भारी संसाधन बेकार हो रहा है। अगर जो मटीरियल यहां मौजूद हैं, तो वो भी सरकारी टाइम-टेबल से ही मिलने हैं – जिसमें कि दस से पांच की ड्यूटी के बीच लंच ब्रेक भी शामिल है, बाबू के नहीं होने की भी कहानी है। कुल मिलाकर एफएम गोल्ड के स्टॉक का कोई सीधा लाभ न तो लिस्नर को मिल रहा है और न ही प्रजेंटर को कोई सुविधा मिल पा रही है। अब एफएम गोल्ड पर जो बजता है वो समझिए प्रजेंटर का अपना जुगाड़ है। वो घर से, बाजार से जहां से भी हो, सीडी लाये और एफएम गोल्ड पर बजाये। पहले ये पैनड्राइव में लाया करते लेकिन वायरस आ जाने का हवाला देकर ऐसा नहीं करने दिया जाता। ऐसे में ये सवाल जरूर उठता है कि तब कार्यक्रम को बेहतर बनाने में प्रोग्रामिग टीम की तरफ से क्या एफर्ट लगाये जा रहे हैं।

तकनीकी रूप से बात करें तो देशभर में चलनेवाले प्राइवेट एफएम चैनलों को प्रसारण सुविधा देने का काम स्वयं आकाशवाणी के ट्रांसमीटर से होता है। लेकिन ये बिडंबना देखिए कि निजी चैनलों के लिए जहां 20 किलोवाट का ट्रांसमीटर है वहां एफएम गोल्ड मात्र ढाई किलोवाट के ट्रांसमीटर पर चल रहा है। आधिकारिक रूप से इसे 5 किलोवाट पर चलाने का प्रावधान है। तकनीकी रूप से बहुत गहराई में न भी जाएं तो इतना तो समझ ही सकते हैं कि आकाशवाणी चैनलों जिसमें कि गोल्ड भी शामिल हैं, फ्रीक्वेंसी को लेकर एक-दूसरे पर जो चढ़ा-चढ़ी होती है, उसके पीछे इसी तरह की हरकतें जिम्मेदार हुआ करती होगी। एफएम गोल्ड डिजिटल फार्म में है फिर भी रेडियो सिटी या मिर्ची की तुलना में उसकी आवाज में स्पष्टता कम है।

पैसा न कौड़ी, बाजार में दौड़ा दौड़ी

और अंतिम बात कि माध्यम और प्रसारण का सारा खेल विज्ञापन का है, उसकी ब्रांडिंग और रेवेन्यू का है लेकिन एफएम गोल्ड की कहानी इस मामले में भी अलग है। चैनल को बेहतर विज्ञापन मिले इसके लिए कोई मार्केटिंग स्ट्रैटजी नहीं है। आकाशवाणी की साइट पर इसका कॉलम बुत्त पड़ा है, कहीं कोई अपडेट नहीं है। हैरानी की बात है कि जिस आकाशवाणी की ऑडियो रिसर्च यूनिट इसके सबसे ज्यादा सुने जाने का दावा करती है वही चैनल RAM (रेडियो ऑडिएंस मेजरमेंट) में शामिल नहीं है। ये RAM टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट जारी करनेवाले TAM का ही भाई है, जो कि रेडियो के लिए रेवेन्यू खड़ा करने का पैमाना है। मामला साफ है कि इस चैनल को बाहर की दुनिया से कोई लेना-देना नहीं है। जो भी विज्ञापन आते हैं, वो सराकारी तोड़-जोड़ का नतीजा है, जनहित में जारी का प्रसाद है।

इन जनहित में भी क्या प्रसारित हो रहा है, इस पर बारीक नजर नहीं है। पिछले दिनों जेएनयू के प्रोफेसर चमनलाल ने कंडोम अपनाने के जनहित में जारी विज्ञापन पर जो लेख लिखा, उसे पढ़कर मामला और साफ हो जाता है। चैनल तुम्हारा वाला तो सिंकदर निकला, दिनभर में पंद्रह से बीस बार जरूर बोलता है लेकिन खुद ही कई मोर्चे पर लड़खड़ा रहा है।

और ये सब कुछ हो रहा है स्वनामधन्य कवि लक्ष्मीशंकर वाजपेयी की नाक के नीचे, जिनकी कविताओं की पंक्तियों से बीच-बीच में सरोकार, मानवता, नैतिकता जैसे शब्द उड़-उड़कर कवि सम्मेलनों की शोभा बढ़ाते हैं। वाजपेयी के कंधे पर रखकर छोड़े जानेवाले रितू राजपूत के निर्देशों पर गौर करें तो अंदाजा लग जाएगा कि कैसे देश के कभी इतने मशहूर रहे चैनल का सत्यानाश करने की कवायदें की जा रही है और ये महज चंद लोगों को खुश करने का अड्डा बनकर रह गया है, जहां देर रात महिला प्रजेंटर को घर से दो किलोमीटर पहले ही छोड़ दिया जाता है और वीमेन सेल चुप्प मार जाता है। भीतर बहुत बड़ा सडांध है, घपला है, धोखा है। ये सब हमें रेडियो लिस्नर की हैसियत से कंटेंट और प्रस्तुति के स्तर पर दिखाई देता है जबकि भीतरी तौर पर कहीं न कहीं ये भारी वित्तीय गड़बड़ी की मामला हो सकता है, शोषण और सांकेतिक हिंसा का मामला हो सकता है। ऐसे में, आज मजदूर दिवस है। हम हर साल इस मौके पर मजदूर आंदोलनों की जरूरतों, अधिकारों और उनके भविष्य को लेकर बात करते हैं। इन दिनों आकाशवाणी और न्यूज चैनलों के भीतर काम कर रहे कलाकारों, पत्रकारों, स्क्रिप्ट लेखकों से बात करके, उनकी जो हालत मैंने देखी है, मेरी आप सबसे अपील है कि देशभर के मजदूरों पर बात करने के क्रम में आज उन्हें भी शामिल कर लें
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