
अपने बाहर के साथियों को जब बताया कि 29 तारीख को हमारे यहां नामवर सिंह आ रहे हैं, हिन्दी साहित्य का इतिहास और पुनर्लेखन की समस्याएं पर बोलेंगे। तुमलोग भी आओ न सुनने, मजा आएगा। शाम वाले आयोजनों में तो खूब सुना होगा नामवर को लेकिन सुबह वाले की बात ही कुछ और ही होती है। लगेगा कि जेएनयू में क्लास करने आए हैं। एक साथी ने इतना सब सुनकर बिना लाग-लपेट के सीधे बोला- अरे अब क्या सुनना नामवरजी को । वो तो अब फुके हुए पटाखे और चुके हुए तीर हो चुके हैं, अब वो नया क्या बोलेंगे। मैं समझ गया कि साथी की दिलचस्पी नयी चीजों में है, पुरानी चीजें अगर मतलब की भी हो तो उससे इन्हें गुरेज है। मैंने जोर-जबरदस्ती नहीं की।
अपने यहां कोई भी सेमिनार या कार्यक्रम होता है तो मैं चाहता हूं अपने जानकार लोग ज्यादा से ज्यादा लोग आएं। ऐसा नहीं है कि हमें आयोजक या विभाग भीड़ जुटाने के अलग से कुछ पैसे देते हैं. लोगों को बुलाने के पीछे दो-तीन ठोस कारण है। जेएनयू वाले को इसलिए बुलाना चाहता हूं उनकी धारणा बनी हुई है कि डीयू के लोग साहित्य को सिर्फ परीक्षा पास होने और नौकरी पाने के लिए पढ़ते हैं। रचनात्मकता और सामाजिक सरोकार से उनका कोई वास्ता नहीं होता। अब उनको कौन समझाए कि जेएनयू ने भला कौन-सा साहित्यकार पैदा कर दिया है। हां तो कार्यक्रमों में आकर उन्हें लगे कि यहां भी हलचल है, यहां भी कुछ होता रहता है।जो दोस्त दूसरे विषयों में हैं उन्हें इसलिए आने कहता हूं कि आजकल मैं देख रहा हूं कि हिन्दी सेमिनार में भी कुछ लोग अंग्रेजी में बोलनेवाले आ जाते हैं या फिर खुद हिन्दीवाले भी अंग्रेजी के कुछ वैल्यू लोडेड शब्द बोल जाते हैं । ये हमारे लिए गर्व करने की चीज होती है कि चलो भाई लोग अपडेट हो रहे हैं। मजा तो सबसे ज्यादा तब आता है जब कोई बंदा अंग्रेजी से एम.ए. कर रहा है लेकिन बैग्ग्राउंड हिन्दी है और पोस्टस्ट्रक्चरलिज्म को अपने क्लास में समझ नहीं पाता है और हमारे मास्टर साहब लोग हिन्दी में कायदे से समझा देते हैं और वो कहता है कि अरे यार, हिन्दी में भी ये सब पढ़ना होता है। मैं सीना तानकर कहता हूं कि साले ये डॉ नगेन्द्र का विभाग अब नहीं है कि सिरफ रीति और पंत ही चलेगा यहां तो अब मीडिया, सिलेमा, मार्क्सवाद और लोहिया सब कुछ है। और अगर इंगलिश में नहीं पार पा रहे हो तो हिन्दी में आ जाओ, एम्.फिल का सिलेबस एक ही है, तुमको लगेगा कि इंगलिश ही पढ़ रहे हैं,बाकी परीक्षा में खाली हिन्दी में लिखना पड़ेगा।
कुछ दोस्त मेरे बहुत ही फ्रस्टू हैं। खाली लेडिस से बतियाने के चक्कर में डीयू के किसी कोर्स में एडमीशन ले लेते हैं औऱ फिर रास्ते से भटक जाते हैं। उसकी बदहाली हमसे देखी नहीं जाती, इसलिए भी मैं उनको हिन्दी वाले प्रोग्राम में बुलाता हूं कि थोड़ी देर देख-सुन लेगा तो राहत मिल जाएगी , बाकी तो उसके एप्रोच और लेडिस के नसीब पर है।
यानि कुल मिलाकर मेरी लगातार कोशिश रहती है कि किसी तरह हिन्दी विभाग के प्रति लोगों का नजरिया बदले। उन्हें महसूस हो कि और विभागों की तरह ये विभाग भी यूनिवर्सिटी का एक जरुरी हिस्सा है। इसने भी समय और जरुरत के हिसाब से अपने को बदला है। खैर,
तो नामवर सिंह हमारे यहां आए, समय से थोड़ा पहले ही। और उनको देखने भी भारी संख्या में लोग आए। देखने इसलिए कह रहा हूं क्योंकि कई तो हिन्दी के नए बच्चे थे जिसने नामवर को नजदीक से देखा नहीं था और कुछ बुजुर्ग किस्म के लोग जिन्हें थोड़ी डाह है कि अस्सी का हो गया है आदमी फिर भी इतना मेन्टेन कैसे है। चलो चलकर देखा जाए। कुछ इसलिए कि घर जलने पर नामवर के चेहरे की रौनक बनी है या फिर जाती रही है। कुछ बुजुर्ग इसलिए भी आए थे कि हमलोगों के सामने रौब जमा सकें कि हमरे साथ ही पढ़ता था नामवर। शुरु से ही होशियार था हिन्दी पढ़ने में और इतना बोलने पर हम ये सोचें कि नामवर के साथ के हैं, कुछ माल मिल जाएगा और उन्हें बिना मारा-मारी के चाय मिल जाएगी।
अच्छा ये तो बात हुई बुजुर्गों की, अब जरा ये पूछें कि इतनी भारी मात्रा में लौंडे कैसे जुट गए तो कई लोग इस बदनीयती से आए थे कि नामवर कुछ बोले और हम खुरपेंच करें, खैर वे कर तो कुछ नहीं पाए लेकिन भीड़ जरुर बढ़ा गए। कुछ ने कहा कि गाइड ने कहा था कि जरुर आना सो आ गए। जेएनयू वाले इसलिए आए थे कि बाहर निकलकर जोर-जोर से बोल सकें कि जेएनयू आखिर जेएनयू है भाई, हमलोगों ने नामवर सिंह से वाकायदा पढ़ा है, आपलोगों की तरह शीतल प्रसाद नहीं लिया है।
हमें कुछ ज्यादा उम्र की लेडिस भी दिखी, जिनकी सिल्क साडियों से फिनाइल की गोली की स्मेल आ रही थी, लगता है मौके पर ही निकालती हैं इसे। खूब सज-धजकर आई थी, मैं खुश हो रहा था कि अगर अपन को लेक्चररशिप मिली तो इनके साथ बैठकर लंच करने का मौका मिलेगा।
भीड़ इतनी खचाखच थी कि बच्चों को जमीन पर भी जगह नहीं मिल पायी, एक-दो को देखा कि दिवार पर ही नोटबुक टिकाकर कुछ लिख रहे हैं। बाकी जमीन पर बैठे मार अंधाधुन नामवर जो कुछ भी बोल रहे हैं, नोट कर रहे हैं कि भइया यही स्पीड बनी रही तो गाइड तो हाथों-हाथ लेगा। समझेगा कि जब यहां ये हाल है जो जब रिसर्च करने लगेगा जब तो स्पीड और बढ़ जाएगी सो लगा पड़ा था।

लेकिन कहिए कुछ, सारे मास्टर साहब को एक साथ देखकर वाकई बहुत अच्छा लग रहा था। सबको एक साथ देखना नसीब की बात हैं, सही में ऐतिहासिक क्षण था कल का कार्यक्रम।
मैं भी गया तो था नामवरजी को सुनने और आंखिन एटेंडेंस बनाने, आंखिन एटेंडेंस नहीं समझा आपने। भाई जब गाइड आपको देख ले और नमस्ते कहने पर मुस्कराकर जबाव दे दे कि चलो इसे भी लगाव है साहित्य से तब उसे आंखिन एटेंडेंस कहते हैं। लेकिन भीड़ देखकर लगा कि इससे अपने मतलब का माल निकल आएगा, सो दौड़कर तिमारपुर वाले सरजी से कैमरा ले आया कि आज भीड़ की कुछ फोटो ले लूं ब्लॉग के काम आएगा।....काम की बातें तो यार-दोस्त नोट कर ही रहे होंगे।.....
खैर, जो हो जितनी भारी भीड़ जुटी थी उससे ये तो साफ हो गया था कि नामवर आखिर नामवर हैं और अगर विभाग ढंग के कार्यक्रम कराए तो सुननेवालों की कमी नहीं, मेला लग जाएगा, मेला। जी हां मेला लगा जाएगा जैसे कल लगा था।