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आज रात दस बजे बरखा दत्त NDTV24X7 के कठघरे में होगी। अभी तक इस चैनल पर बतौर एंकर राज करनेवाली बरखा दत्त आज एक कथित तौर पर आरोपित पत्रकार के रुप में हाजिर होगी। ये सारी बातें एकबारगी तो जरुर हैरान करती है लेकिन एनडीटीवी की ऑफिशियल साइट खोलते ही विज्ञापन की शक्ल में जो मैसेज हमारे सामने आ रहे हैं उससे यही बात निकलकर सामने आ रही है। हालांकि साइट की ओर से कार्यक्रम को लेकर दी गयी सूचना में यह बात कहीं भी शामिल नहीं है कि बरखा दत्त चैनल पर किस भूमिका में शामिल होगी लेकिन एक खास सूचना या कहें कि विज्ञापन की शक्ल में साइट ने जिस तरह हमें बताने की कोशिश की है उसे ये अंदाजा लगाना आसान हो जाता है कि THE RADIA TAPE CONTROVERSY नाम से होनेवाले इस खास शो में मुद्दा किस ओर खिसक सकता है? हमारे इस अनुमान को तब थोड़ी और मजबूती मिल जाती है,जब हम एक बार पैनल की तरफ नजर डालते हैं। पैनल के सभी नाम पत्रकारिता से जुड़े हैं और खास बात कि ओपन पत्रिका के संपादक मनु जोसेफ भी होंगे। ओपन पत्रिका के संपादक मनु जोसेफ ने ही इस स्टोरी को ब्रेक की थी कि 2G स्पेक्ट्रम घोटाले में कुछ दिग्गज पत्रकारों की नीरा राडिया से बातचीत हुई है,उसमें बरखा दत्त का भी नाम शामिल है। पत्रिका के माध्यम से बरखा दत्त की कही गयी ये लाइन-"TELL ME, WHAT SHOULD I TELL THEM?" बहुत ही लोकप्रिय हुई है और बाकी बातों के साथ ही इस लाइन के बिना पर ही बरखा दत्त को शक के घेरे में आम पाठक ले रहा है।

अगर ये शो नीरा राडिया कॉन्ट्रोवर्सी के बहाने अपने ही गिरेबान में चैनल की झांकने की कोशिश है तो हमें निश्चित तौर पर एक ऑडिएंस की हैसियत से चैनल की इस पहल पर स्वागत करनी चाहिए। वैसे भी डॉ प्रणय राय के बारे में सम्मानपूर्वक ये बात प्रचलित है कि वो अपने मीडियाकर्मियों औऱ ब्रांड को बहुत प्यार करते हैं। वो किसी भी हालत में इनदोनों की न तो बदनामी बर्दाश्त कर सकते हैं और न ही किसी तरह के समझौते करना पसंद करते हैं। इस शो के जरिए बरखा दत्त अपना स्टैंड रखती है तो हम उम्मीद करते हैं कि कई ऐसी बातें जो कि अफवाहों की शक्ल में वर्चुअल स्पेस पर तैर रहे हैं,उस पर थोड़ी देर के लिए लगाम लग जाएगी। वैसे बरखा दत्त को ये काम बहुत पहले करना चाहिए था और IS IT NECESSARY TO CONFESS जैसा कोई कार्यक्रम करने चाहिए थे। जब से वर्चुअल स्पेस पर टेप आए और ओपन के लेख हाथ लगे, बरखा दत्त के खिलाफ वो तमाम बातें आनी शुरु हो गई जो कि तथ्यों की समझ बढ़ाने के साथ ही किसी खुर्राट पत्रकार की व्यक्तिगत कुंठा ज्यादा थी। ऐसा करने से मुद्दे न केवल डायवर्ट होते हैं बल्कि प्रतिरोध की ताकत कमजोर होती है और एक बेहतर काम के पीछे भी विपक्ष तैयार होते चले जाते हैं। उम्मीद है कि चैनल के इस स्टैंड से कुछ स्थिति साफ होगी।

आमतौर पर होता ये आया है कि मीडिया अपनी बात कभी नहीं करता। जो संवाददाता जिंदगीभर खबरें और बाइट बटोर-बटोरकर मर जाता है,उसकी खबर कहीं नहीं होती या फिर वो खुद भी नहीं चाहता कि उसकी कोई खबर आए। दूरदर्शन औऱ लोकसभा जैसे चैनल कभी-कभार जब मीडिया को लेकर कोई शो या कार्यक्रम प्रसारित करते भी हैं तो उनका उद्देश्य सीधे तौर पर निजी मीडिया को कूड़ा और अपने को पवित्र गया बताना होता है जो कि उनका भी दामन साफ नहीं है। ऐसा होने से एक बहुत ही क्रूर और खतरनाक साजिश संस्कृति का विस्तार होता है। अगर मीडिया संस्थान बाकी मसलों के साथ-साथ खुद अपनी भी खबर लेनी शुरु करे तो एक बेहतर स्थिति बन सकती है। इसी क्रम में हमने अपनी अर्काइव छाननी शुरु कि तो CNN-IBN के शो की एक टेप मिली जिसमें 8 जून 2008 को मीडिया ट्रायल नाम से एक शो है और राजदीप सरदेसाई एक हद तक कॉन्फेस करतेनजर आते हैं। इससे बाद दूरदर्शन के पचास साल होने पर 2009 में CNN-IBN ने  दूरदर्जशन को लेकर स्टोरी बनायी,तब भी राजदीप सरदेसाई ने सलमा सुल्ताना के आगे रुकावट के लिए खेद है से ब्रेकिंग न्यूज तक के दौर तक को याद करते हुए निजी चैनलों पर कटाक्ष किया और अपनी ही पीठ पर चाबुक मारने की कोशिश की। लेकिन गोलमोल तरीके से किसी घटना आधारित न होकर अपनी आलोचना करना स्वाभिक आलोचना के बजाय फैशन का हिस्सा ज्यादा लगता है। 

आज हम इस शो के इंतजार में हैं और बरखा दत्त का पक्ष सुनना चाहते हैं। वीर सांघवी ने अपने ब्लॉग और फिर दि हिन्दुस्तान टाइम्स में अपने कॉलम काउन्टर प्वाइंट में जो तर्क दिए वो बहुत ही लचर और इनहाउस मैगजीन की प्रेस रिलीज लगी और हमें निराश किया। हम आज एनडीटीवी पर बरखा दत्त को देखना है कि वो इस पूरे मामले में किस तरह की बातें रखती हैं?
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2G स्पेक्ट्रम घोटाला मामले में बरखा दत्त का नाम आने के बाद जिस तरह से लीपापोती का दौर शुरु हुआ है,पूरी कोशिश की गयी कि उसकी साख पहले की तरह बनी रहे। एनडीटीवी चैनल ने अपनी ऑफिशियल साइट पर इन सारी बातों को बेसलेस तक करार दिया लेकिन बरखा दत्त की गिरती हुई साख को रोक पाना कहीं से भी आसान नहीं दिख रहा। उल्टे अब इस साख की व्याख्या बिजनेस इन्डस्ट्री में भी होनी शुरु हो गयी है। बिजनेस और शेयर की सबसे लोकप्रिय बेवसाइट मनीकंट्रोल डॉट कॉम पर गेस्ट और टिप्पणीकारों ने बरखा दत्त की साख गिरने के बाद चैनल की सेहत क्या होगी,इसका आकलन करना शुरु कर दिया है। साइट में गेस्ट ने बरखागेट इम्पैक्ट नाम से एक शब्द गढ़ते हुए अनुमान लगाया है कि इस चैनल के शेयर की कीमत जल्द ही 50-60 रुपये हो जाएगी और फिलहाल इसके शेयर खरीदना किसी भी मामले में फायदेमंद नहीं है। इससे ठीक उल्टे जिनके पास ये शेयर हैं वो इसे भढञत की उम्मीद से लेकर बैठे हैं,भलाई इसी में है कि अभी ही इसे वो निबटा दें। पोस्ट लिखे जाने तक चैनल के शेयर की कीमत 87.95 रुपये है जो कि 2.51 प्रतिशत की बढ़त पर है। जिस चैनल ने कभी 482 रुपये के शेयर की कीमत देखी हो,उसके आगे ये कीमत हताश करनेवाली है। 8 मई 2009 को जब हमने पोस्ट लिखी थी हवा हो जाएगा एनडीटीवी और तब चैनल को 160.30 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ था जिसे कि उसने शेयर बेचकर मुनाफे के तौर पर दिखाने की कोशिश की थी। उस समय भी चैनल के शेयर की कीमत इतनी खराब नहीं थी। पोस्ट लिखते वक्त शेयर की कीमत 119.85 रुपये थी।

 अभी बरखा दत्त का मामला ज्यादातर ओपन मैगजीन, छिटपुट तरीके से एकाध अंग्रेजी अखबारों और वर्चुअल स्पेस पर ही है लेकिन जिस तरह से बाकी के लोग अपने को पाक-साफ बताने के लिए बातों को आगे ले जा रहे हैं,जल्द ही ये बात एक सामान्य पाठक और शेयरधारकों तक पहुंचेगी। फिर संभव है कि इसका बहुत ही निगेटिव असर होगा। शुरुआती दौर में जिस तरह से मीडिया मुंह पर टेप लगाकर 2G स्पेक्ट्रम घोटाले की बात करते हुए भी मीडिया मसले को इससे पूरी तरह अलग रखा लेकिन वर्चुअल स्पेस से बने प्रेशर ने उन्हें मुंह खोलने के लिए मजबूर किया,ऐसे में एक-एक करके शक के घेरे में आए पत्रकार खुद ही इसे लेकर अपनी सफाई देने लग गए हैं। ऐसा करते हुए उन्हें भले ही लग रहा हो कि उनके पक्ष में जनाधार मजबूत होगा लेकिन दरअसल इससे मामला ज्यादा लोगों तक जा रहा है और वो भी मीडियाकर्मियों को शक की निगाह से देखन लगे हैं। ऐसे में सोशल इमेज के करप्ट होते ही उसका असर बिजनेस पर दिखने शुरु होंगे।

 वैसे तो अब मीडिया में किसी की साख गिरने से तह तक बहुत फर्क नहीं पड़ता जब तक कि उसका सीधा असर बिजनेस पर न पड़ने लग जाएं। ऐसा इसलिए कि आज मीडिया साख पर नहीं बिजनेस पर आधारित है। किसी मीडिया हाउस या फिर मीडियाकर्मी की साख अगर चली भी जाती है लेकिन बिजनेस पर उसका कोई नुकसान नहीं होता तो उसे नुकसान नहीं माना जाता। पेड न्यूज के मामले में हमने देखा कि देश के एक से एक प्रतिष्ठित मीडिया संस्थान जिसमें कि दि हिन्दू जैसे अंग्रेजी के अखबार भी शामिल रहे,उसकी साख शक के घेरे में आ गयी। हिन्दी के अखबार दैनिक जागरण और दैनिक भास्कर का नाम विशेष तौर पर आया लेकिन फिलहाल उसके बिजनेस पर कोई असर नहीं पड़ा तो मानकर चलिए कि बाजार में उसकी साख अभी भी बरकरार है। लेकिन जैसे ही इस साख का सवाल बिजनेस से जुड़ने शुरु होते हैं तब चैनल या फिर मीडियाकर्मी को सीधे नुकसान होने शुरु हो जाते हैं। बरखा दत्त के साथ संभव हो कि कुछ ऐसा ही हो। सोशल प्रेशर में न सही लेकिन बिजनेस प्रेशर में ही सही,उन्हें एनडीटीवी से अलग करनी पड़ जाए। एक दूसरे गेस्ट ने मनीकंट्रोल डॉट कॉम की ही साइट पर लिखा है कि लोगों ने चैनल और साइट का बहिष्कार करना शुरु कर दिया है। इस तरह से एक सीधा सा फार्मूला बनता है कि- पब्लिक के भरोसे में कमी का मतलब है टीआरपी में नुकसान और टीआरपी में नुकसान मतलब बिजनेस में नुकसान। ऐसे में संभव है कि चैनल इस नुकसान को बर्दाश्त न करने की स्थिति में बरखा दत्त को सम्मानित तरीके से इस्तीफा देने के लिए दबाव बना सकता है।

बिगबुल 1979 नाम से एक तीसरे शख्स ने कमेंट करते हुए लिखा है कि बरखा भी रहेगी और एनडीटीवी भी रहेगा लेकिन इसका असर तो होगा ही। इसलिए मैं शेयर बेचने जा रहा हूं। यहां पर आकर सोशल इमेज की बात थोड़ी देर के लिए छोड़ भी दें तो( ये जानते हुए कि चैनल ने बरखा दत्त के बचाव में बहुत ही लचर तर्क दिए थे) बिजनेस के लिहाज से एक निगेटिव माहौल बनने शुरु हो गए हैं। ऐसे में एक बड़ा सवाल है कि क्या चैनल बरखा दत्त के रहने की स्थिति में अपने इस आर्थिक घाटे को बर्दाश्त करना पसंद करेगा?

इधर बरखा दत्त को एकदम से एनडीटी से इस्तीफा के लिए बात करना दो कारणों से आसान नहीं होगा। एक तो ये कि लंबे समय से उसने चैनल को एक विश्वसनीय मजबूत कंधे के तौर पर साथ दिया है लेकिन उससे भी बड़ी बात जिसे कि दिलीप मंडल ने फेसबुक पर हमसे साझा किया है वो ये कि जिस वक्त एनडीटीवी इमैजिन को लेकर जोरदार कैम्पेन चल रहे थे और नए और यंग ऑडिएंस को चैनल से जोड़ने की कोशिशें की जा रही थी जिसमें फेसबुक,ट्विटर से लेकर तमाम न्यू मीडिया के साधन आजमाए गए,इन सारे काम के लिए नीरा राडिया की कम्पनी विटकॉम लिमिटेड ही कर रही थी। दिलीप मंडल की स्टेटस लाइन है-

जब इमेजिन चैनल का नाम एनडीटीवी इमेजिन हुआ करता था तब उसके प्रचार का जिम्मा नीरा राडिया की कंपनी विटकॉम ने संभाला था!!- we, at Vitcom came up with a specifically targeted social media campaign for NDTV Imagine. We had to weave the social media campaign to attract youth. For which, Vitcom Digital created a specific Social Media campaign largely using Facebook, Twitter, Orkut and YouTube. 


यहां से पूरे मामले के विश्लेषण को लेकर एक नए अध्याय की शुरुआत होती है। अब देखना ये है कि इस अध्याय का विश्लेषण किस रुप में होता है,होता है भी या नहीं। या फिर ऐसा कुछ किया जाना जरुरी है भी या नहीं।

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अंग्रेजी पत्रिका ओपन ने अपने ताजा अंक के एक पन्ने पर हाउ इंडियन कवर्ड मीडिया स्कैंडल लिखकर पूरा ब्लैंक छोड़ दिया है। यह प्रतिरोध का वही तरीका है जिसे की इमरजेंसी के दौरान कई पत्रिकाओं ने अपनाए थे। कुछ ने तो पन्ने खाली छोड़ दिए थे और कुछ ने लाइनें लिखकर काट दी थी। उस समय का प्रतिरोध इंदिरा गांधी की सरकार के खिलाफ था और मीडिया की आजादी का गला घोंटी जाने की स्थिति में पत्रकारों,साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों ने उन नीतियों के खिलाफ नाराजगी दर्ज करायी थी। उदारवादी अर्थव्यवस्था औऱ निजी मीडिया के पैर पसारने के बाद ये पहला मौका है जिसका विरोध एक मीडिया हाउस ने मीडिया के खिलाफ किया है। 2G स्पेक्ट्रम घोटाले में देश के नामचीन पत्रकारों और दिग्गज हस्तियों जिनमे एनडीटीवी की बरखा दत्त, हिन्दुस्तान टाइम्स के वीर संघवी, टीवीटुडे नेटवर्क के चैनल आजतक पर सीधी बात करनेवाले प्रभु चावला जैसे लोगों के नाम सामने आने लगे हैं। ओपन मैगजीन ने इस खबर को ब्रेक किए जाने के बाद इन मीडिया संस्थानों ने अपने-अपने तरीके से लीपापोती करने की कोशिश की है। एनडीटीवी के सीइओ नारायण राव ने तो साइट के जरिए मैगजीन और इस पर लिखनेवाले लोगों को हड़काने तक का काम किया है। लेकिन वर्चुअल स्पेस पर इन दिग्गज मीडियाकर्मियों की ऑडियो टेप, स्क्रिप्ट के साथ तैरने लगे हैं। मोहल्लाLIVE ने इस पन्ने को लगाया है औऱ प्रतिरोध के इस तरीके को बहुत ही असरदार और सही ठहराया है। साइट की इस तस्वीर पर मैंने जो कमेंट किए,आज साइट ने पोस्ट की शक्ल में लगायी है। लिहाजा वो कमेंट पोस्ट की शक्ल में आपके सामने हैं। संभव है ये आज की मीडिया की शक्ल को समझने में थोड़ी मदद करे-

मीडिया घरानों की इसी चुप्पी ने बिल्डर माफियाओं, रीयल स्टेट के दलालों, करप्ट पूंजीपतियों को मीडिया का धंधा करने के लिए उत्साहित किया है। सीधा फार्मूला है कि एक बार किसी तरह का कोई चैनल खोल लो, फिर तो आ ही गये मीडिया जमात में। फिर कोई उंगली नहीं रखेगा बल्कि देश के नामचीन पत्रकार आकर उसकी शोभा बढ़ाएंगे। जिस दिन जेट एयरवेज से करीब सवा सौ कर्मचारियों को निकाल बाहर किया गया, पूरे तीन दिनों तक मीडिया ने उस मामले को सिर पर उठा लिया। लेकिन उससे तिगुनी संख्या में उसी समय वाइस ऑफ इंडिया के मीडियाकर्मियों को बाहर का रास्ता दिखा दिया लेकिन किसी अखबार ने एक लाइन लिखने की जुर्रत नहीं की। स्त्रियों के साथ होनेवाली बदसलूकी पर पूरे चैनल क्रिस्पी न्यूज के लोभ में उसे प्राइम टाइम तक घसीटते हैं लेकिन स्टार न्यूज की सायमा सहर का मामला राष्ट्रीय महिला आयोग और हाईकोर्ट तक आ जाने की स्थिति में भी किसी ने ये जानने की कोशिश नहीं कि स्टार न्यूज के आकाओं ने आपके साथ क्या किया? सबसे तेज कहे जानेवाले चैनल के लिए मौत की खबर वारदात और जुर्म जैसे कार्यक्रम की झोली में सीधे जाकर गिरती है लेकिन अपने ही सिस्टर चैनल हेडलाइंस टुडे की आधी रात में हुई मौत की खबर को दिखाने में कुल 12-14 घंटे लगा दिये। पहले ये समझने की कोशिश की कि कहीं चैनल लपेटे में तो नहीं आ जाएगा कि शिफ्ट खत्म होने के बाद भी वो काम क्यों करती रह गयीं?

आजाद न्यूज के एचआर ने लाइन लगाकर सालों तक सैलरी बांटी और कोई स्लिप नहीं दिया, कइयों के पीएफ मार लिये, कहीं कोई खबर नहीं बनी। हमार न्यूज में मैनेजमेंट के साथ कई बार मार-पीट की घटनाएं हुईं, किसी ने कुछ नहीं दिखाया-बताया। देश में दर्जनों ऐसे चैनल हैं, जो कि उधार के लाइसेंस पर चल रहे हैं। वो किस चैनल का लाइसेंस है, उसे क्या दिखाना है, इस पर कभी स्टोरी नहीं चली। दर्जनों ऐसे चैनल हैं, जो कि एक ही जगह से अपलिंक होते हैं औऱ एक ही जगह से डाउनलिंक ताकि मॉनिटरिंग कमेटी को ये लगे कि इस नाम से चैनल हैं और धंधा चमकता रहे, इस पर कभी स्टोरी नहीं चली। इसलिए कि सबों के बीच एक गुपचुप तरीके का समझौता है।
अगस्त महीने में अहमदाबाद में एक चैनल के उकसावे में आकर एक शख्स ने आत्महत्या कर ली। उस चैनल पर बाजिव कार्रवाई होनी चाहिए थी लेकिन दस दिन के भीतर हमारी महान एनबीए टीम ने आठ पन्ने में ऐसी रिपोर्ट पेश की कि मामला रफा-दफा हो गया और एसोसिएशन के सर्वे-सर्वा शाजी जमा और उनके होनहार पत्रकार दीपक चौरसिया बाइक पर खुलेआम बिना हेलमेट, सैंकड़ों लोगों की जान गिरवी पर रखकर जान इब्राहिम के साथ इंटरव्यू लेते रहे। सीधी बात करनेवाले माननीय प्रभु चावला कई तरह के उल्टे कामों में शक के घेरे में आ चुके हैं लेकिन आजतक पर हीं हीं करते हुए लोकतंत्र पर प्रहसन जारी है। एक औसत व्यक्ति ऐसे आरोप लगने पर शर्म से मर जाता। मामूली चोरी करनेवाला शख्स भी कैमरे के आगे गमछा बांधकर आता है लेकिन ये अब भी प्राइम टाइम पर चुनावी नतीजे पर मसखरई करते नजर आते हैं।
मीडिया को इस बात का पक्का भरोसा हो गया है कि वो चाहे कुछ भी कर ले, उसका कोई कुछ भी नहीं बिगाड़ने वाला। क्योंकि उसे चलानेवाले के घर का एक दरवाजा मीडिया की तरफ खुलता है तो दूसरा दरवाजा सरकार और मंत्रालय की तरफ। जब सइयां भये कोतवाल तो अब डर काहे का। कार्पोरेट से लड़ने की ताकत जब सरकार की नहीं रही तो मीडिया रिस्क क्यों ले?
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हालांकि यह प्रतिक्रिया विनीत ने उसी दिन लिखी थी, जिस दिन आईबी मिनिस्‍ट्री का नोटिफिकेशन आया था। कुछ तकनीकी दिक्‍कतों के चलते मोहल्‍ला लाइव अपडेट करने में दिक्‍कतें आ रही थीं। कुछ दूर हुई हैं, कुछ को दूर करने की कोशिश चल रही है। बहरहाल, टीवी पर रियलिटी शोज़ में अश्‍लील शरारतों को भारतीय जागरण अवधि में छिपाने की आईबी मिनिस्‍ट्री के निर्देश में छिपी चतुराई को समझने की कोशिश विनीत ने की है। दो दिनों बाद हालांकि एक शो बिग बॉस की टाइमिंग बहाल रहने दी गयी – लेकिन यह लेख चूंकि दो दिन पहले नोटिफिकेशन के तुरत बाद लिखा गया – लिहाजा इसमें उसका जिक्र उसी तरह से है :मॉडरेटर
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जिए, देश के सूचना और प्रसारण मंत्रालय (IB ministry) ने हमें गर्व करने का एक और मौका दे दिया। गर्व कीजिए मंत्रालय के इस फैसले पर कि अब राखी का इंसाफ और बिग बॉस जैसे टेलीविजन शो देर रात 11 बजे के बाद प्रसारित होंगे। बकरीद के मौके पर मंत्रालय ने इन दोनों कार्यक्रमों को अश्लीलता का आरोप लगने की वजह से बच्चों के लिए नुकसान पहुंचानेवाला करार दिया और इसकी टाइमिंग देर रात से सुबह पांच बजे तक करने की बात कही। साथ में यह भी कहा कि शो शुरू करने से पहले चैनल यह भी प्रसारित करे कि इसमें कुछ ऐसी चीजें होंगी, जो बच्चों के लिए सही नहीं होगी और बच्‍चों को इसे न देखने दिया जाए। मंत्रालय के इस फैसले का न्यूज चैनलों ने नगाड़े पीट-पीटकर स्वागत किया और रियलिटी शो पर सरकारी चाबुक, गिरी गाज जैसे सुपर लगाकर प्राइम टाइम में खबरें चलायी गयीं। हां इन कार्यक्रमों की फुटेज किसी भी न्यूज चैनल पर नहीं दिखायी जानी चाहिए वाली बात या तो पचा गये या फिर हवा में उड़ते-उड़ाते बतायी। ये वही चैनल हैं, जो मनोरंजन चैनलों की गतिविधियों को आधार बनाकर रोज दो स्पेशल शो चलाते हैं और आये दिन रियलिटी शो को लेकर स्पेशल प्रोग्राम या स्टोरी बनाते हैं। न्यूज चैनलों को मंत्रालय के इस फैसले से कुछ फर्क नहीं पड़नेवाला है। बस इतना होगा कि आइटम की तलाश दूसरे कार्यक्रमों, यूट्यूब की खानों या फिर फिल्मों में जाकर करेंगे और इसकी शुरुआत आजतक और स्टार ने शीला की जवानी दिखाकर कर दी।

इस फैसले को समाजशास्त्रियों और मीडिया मामले के जानकारों से भी समर्थन मिल रहे हैं। लेकिन इससे पहले कि मंत्रालय के इस फैसले से हमारा कलेजा फुलकर बड़ा पाव हो जाए कि वो इस देश की संस्कृति, ऑडिएंस, चेतना और नागरिक इच्छा का कितना ख्याल रखता है – जरूरी है कि इस फैसले के पीछे की समझ को विश्लेषित करने की कोशिश करें। टेलीविजन पर इस फैसले को लेकर जब खबरें चल रही थीं तो मेरे दिमाग में पहली बात आयी कि कहीं ये आनेवाले समय में पोर्नोग्राफी चैनल या प्लेबॉय जैसे कार्यक्रम के लिए जमीन तैयार करने की मंत्रालय की जनवादी कोशिश तो नहीं है। इस सवाल के साथ ही कई दूसरे सवाल एक-दूसरे से जुड़ते चले गये और तब समझ में आया कि ऐसा करके मिनिस्‍ट्री न तो किस तरह की अश्लीलता को कम करने की दिशा में कुछ कर रही है और न ही वो टेलीविजन और दूसरे माध्यमों से बननेवाली संस्कृति को लेकर कोई गंभीर सोच रखती है। उल्टे एक बार फिर साबित हो गया कि ये पहले की तरह ब्यूरोक्रेटिक निकम्मेपन की शिकार मिनस्ट्री है।
पहली बात तो ये कि मिनिस्ट्री विवादित और अश्लीलता की चपेट में आनेवाले कार्यक्रमों को देर रात प्रसारित करने की बात करती है, वह व्यावहारिक तौर पर एक नयी टेलीविजन संस्कृति को जन्म देती है। वह एक तरह से प्राइम टाइम को रबड़ की तरह खींचकर 12 बजे तक ले जाना चाहती है। ऐसा करने से निजी चैनलों का धंधा पहले से और चमकेगा। जो ऑडिएंस प्रोग्राम को 9 या 10 बजे देख सकती है, वो 11-12 बजे देखेगी। ऐसी आदर्श स्थिति कभी नहीं आएगी कि लोग 11 बजे के बाद टेलीविजन बंद कर देंगे। बच्चों के स्कूल के दबाव और ऑफिस पहुंचने में देरी होने की वजह से अगर ऐसा करते भी हैं, तो भी प्राइम टाइम खिंचकर लंबा तो चला ही गया। ऑडिएंस प्रभाव के लिहाज से देखें, तो ऐसा करके मिनिस्ट्री देर रात टेलीविजन देखने की संस्कृति को बढ़ावा दे रही है और फिर एक-एक करके सारे चैनल इसी समय अधो-अश्लील (partial-porno) कार्यक्रम दिखाया करेंगे। ऑडिएंस की टेलीविजन देखने की टाइमिंग शिफ्ट आगे बढ़ जाएगी। दूरदर्शन के कार्यक्रमों और निजी चैनलों के आने के दौरान टाइमिंग की पॉलिटिक्स को हमने बेहतर तरीके से समझा है।
इस फैसले के पहले मिनिस्ट्री ने सच का सामना शो के साथ यही दलीलें दी थीं और इसका समय देर रात कर दिया। बाद में ये शो बंद हो गया, जिसे कि मिनिस्ट्री अपना क्रेडिट मानकर एक फार्मूला गढ़ रही है कि किसी प्रोग्राम की व्यूअरशिप तोड़ने का बेहतर तरीका है कि देर रात ढकेल दो। ऐसा करके वह सरोगेट तौर पर पोर्नोग्राफी चैनल की जमीन तैयार कर रही है। साथ ही इससे इस बात का भी बढ़ावा मिलेगा कि ऐसे कार्यक्रम बनाने में कोई दिक्कत नहीं है, बस समझदारी इतनी रखो कि इसे 11 बजे के बाद प्रसारित करो। कल को टेलीविजन टाइमिंग को लेकर विज्ञापन बन जाएंगे – पप्पू मत बनिए, 11 बजे के बाद टीवी देखिए। चैनलों को इस टाइमिंग में ढलते देर नहीं लगेगी। कभी इंडिया टीवी ने सेक्स जागरुकता के नाम पर देर रात सेक्स से जुड़े सवालों पर अधारित कार्यक्रम शुरू किया था, जिसमें सरस सलिल चिंतन को जमकर विस्तार दिया गया, वो तो कभी टीआरपी की मार से पस्त नहीं हुआ। अगर टाइमिंग ही बदलनी है तो 11 बजे रात के बाद क्यों, दिन में कर दें। बच्चों से ही डर है न, वो तो स्कूल में होंगे और जो बच्चे स्कूल जाने की हैसियत नहीं रखते, वो भला क्या टीवी देखते होंगे? लेकिन नहीं, मिनिस्ट्री बहते नाले को बेहतर सीवर बनाने की जगह उस पर तख्ती लगाकर फैसलेनुमा फूलदान डालने का काम कर रही है।
मिनस्ट्री का ये फैसला साफ कर देता है कि उसके भीतर कैसे निकम्मेपन की संस्कृति काबिज है? क्या बिग बॉस पहली बार शुरू हुआ है या राखी का इंसाफ जैसे कार्यक्रम पहली बार आये हैं? सरकार और मिनस्ट्री हादसे और दुर्घटना के बाद ही निर्देश तैयार करने की अभ्यस्त क्यों है? क्या इन कार्यक्रमों के महीने भर से पहले जारी प्रोमो को मिनिस्ट्री के लोग नहीं देखते और उससे कुछ समझ नहीं आता कि ये कैसा कार्यक्रम है? इसके साथ ही बच्चों का हवाला देकर वो जिस तरह वो बार-बार फैसले सुनाती आयी है, उससे साफ हो जाता है कि उसने कभी भी ऑडिएंस-व्यवहार पर (consumer- behaviour की तरह) रिसर्च नहीं करवाया। वो आदिम जमाने की तरह आज भी मानकर चल रही है कि टेलीविजन का रिमोट घर के सबसे बुजुर्ग के हाथ में होता है और वही तय करते हैं कि क्या देखा जाएगा? ऑडिएंस-व्यवहार पर सबसे मौलिक काम डेविड मोर्ले (टेलीविजन ऑडिएंस एंड कल्चरल स्टडीज, राउटलेज प्रकाशन) ने किया है और फ्रॉम फैमिली टेलीविजन टू ए सोशियोलॉजी ऑफ मीडिया कनजंपशन अध्याय में ये सवाल उठाया है कि कैसे टेलीविजन एक सामाजिक विकास के माध्यम से मनोरंजन और फिर उपभोक्ता मिजाज की तरफ शिफ्ट कर जाता है। इसके साथ ही रिमोट पर किसका कंट्रोल है, टेलीविजन के जरिये संस्कृति का विस्तार इससे निर्धारित होता है। मिनिस्ट्री ने बेसिक बात ये मान ली है कि रिमोट पर बुजुर्ग और खासतौर से अगर सामाजिक संरचना पर गौर करें तो पितृसत्तात्मक समाज में पुरुषों का अधिकार होता है। अब ये समझ कितनी बचकानी है, इसका अंदाजा इसी बात से लग जाता है कि पिछले पांच साल में कार्टून चैनलों, मनोरंजन चैनलों, सोप ओपेरा और इससे संबंधित कार्यक्रमों का कितना विस्तार हुआ है, न्यूज चैनलों में इसकी कवरेज में कितना इजाफा हुआ है? दरअसल मिनिस्ट्री यहां पर आकर अपनी आदिम ऑडिएंस की समझ को आज थोपने की फिराक में है जबकि सामाजिक सत्ता के बहुत अधिक नहीं बदलने के बावजूद टेलीविजन और रिमोट पर की सत्ता उस मुकाबले तेजी से बदली है और उसमें बच्चों की दावेदारी मजबूत हुई है। उन आंकड़ों के साथ अगर मिनिस्ट्री काम करना शुरू करती है, तो उसे अपने इस तरह के फैसले बंडलबाजी से ज्यादा कुछ नहीं लगेंगे।
तेजी से बदलती माध्यम संस्कृति के बीच टेलीविजन अब कोई स्वतंत्र माध्यम नहीं रह गया है कि अगर आपने उसके साथ छेड़छाड़ और बदले की कोशिश की तो वो उसी तरह से बदल गया। अब पूरा मीडिया एक एसेम्बल्ड संस्कृति में काम करता है। रेडियो की कमी मोबाइल पूरी करता है,टेलीविजन की कमी मोबाइल और इंटरनेट। इसलिए बिग बॉस टीवी पर न सही, कलर्स की ऑफिशियल साइट इन डॉट कॉम पर देखा जा सकता है, बिग 92.7 पर सुना जा सकता है और लगातार बीप से एक अश्लील इमेज मन में पैदा किए जा सकते हैं। मिनिस्ट्री इस एसेम्बल्ड मीडिया संस्कृति के बीच से अश्लीलता को कैसे कम करने जा रहा है,असल सवाल यहां पर है। क्या वह अखबारों के पहले पर पमेला एन्डरसन की अधखुली छाती के साथ बिग बॉस के विज्ञापन को रोक देगी? अखबार कैसा करने दे देगा? आज जबकि सीरियल और रियलिटी शो के ह खास मौके के साथ नए प्रोमो बनाए जाते हैं,जिसकी प्राथमिकता में उस अश्लीलता को ही शामिल करना होता है,मिनिस्ट्री उसे लेकर क्या कर लेगी? कल रात आजतक और स्टार न्यूज ने आइटम बम कैटरीना, सबसे बोल्ड कैटरीना के नाम पर तीस मार खां और उसके आइटम गाना शीला की जवानी को पूरा-पूरा मिनटों तक दिखाता रहा। साथ में ये भी बताया कि अबतक की सबसे बोल्ड दिखी कैटरीना और वो भी सिर्फ एक चादर लपेटे। ये प्राइम टाइम की खबरें हैं जो कि इन्टरटेन्मेंट की पैकेज में आए,अभी तो रात बाकी ही है अंदाज में।
मतलब साफ है कि अगर अश्लीलता को रोकने के लिए मिनिस्ट्री दोनों कार्यक्रमों के प्रसारण की टाइमिंग बढ़ा रही है तो फिर ऐसे कार्यक्रमों की फुटेज काट-काटकर पूरा पैकेज चलानेवाले चैनलों पर भी कुछ विचार कर रही है या नहीं? बिग बॉस सीजन फोर या राखी का इंसाफ कोई अकेला कार्यक्रम है नहीं, चैनल के पास तो सैंकड़ों विकल्प हैं। चैनल तो इन्हें फिर भी दिनभर दिखाएंगे और तब भी बच्चे होमवर्क कर रहे होंगे और तथाकथित आदर्श ऑडिएंस माता-पिता खबरिया चैनल देख रहे होंगे – शीला की जवानी, पामेला एंडरसन की हिस्स-हिस्स पर उनकी आंखें तब भी तो ठिठकेगी। न्यूज चैनल इस फैसले पर जो नगाड़े पीटने का काम कर रहे हैं, उन्हें पता है कि उनका कोई नुकसान होने से रहा। लेकिन अगर मिनिस्ट्री अश्लीलता को लेकर बात करना चाहती है तो उसे न्यूज चैनलों को भी इसके दायरे में रखना होगा। फिलहाल जो स्थिति बनी है, उसे देखते हुए एक माहौल तैयार किया जा रहा है कि टेलीविजन पर अश्लीलता बढ़ रही है, इसे देर रात तक ले जाओ और फिर देर रात के अलग से चैनल हो जाएंगे, जिसका एक दरवाजा पोर्नोग्राफी की तरफ खुलेगा। दिक्कत सिर्फ पोर्नोग्राफी के आने से नहीं है। मिनिस्ट्री जैसे ही किसी भी कार्यक्रम को बच्चों के लिए नहीं, बड़ों के लिए करार देती है तो एक तरह से उसे एडल्ट की ग्रेडिंग देती है। अब सवाल है कि एडल्ट और पोर्नोग्राफी के बीच क्या कोई विभाजन रेखा है? अगर नहीं तो फिर क्या चैनल इन कार्यक्रमों के लिए अलग से लाइसेंस ले और फिर उन कार्यक्रमों के लिए अलग से लाइसेंस फीस दे जो कि सामान्य कार्यक्रमों से अलग होंगे।
मिनिस्ट्री इस मामले को सिर्फ एथिक्स और मुलायम निर्देशों के साथ डील करना चाहती है जबकि चैनल इस बात के संकेत देने लग गये हैं कि जल्दी आपकी सेवा में पोर्नोग्राफी हाजिर किये जाएंगे। ये मामला सांस्कृतिक के साथ-साथ बड़े स्तर पर इकॉनमी का हिस्सा है और इस पर उस स्तर से काम करने की जरूरत है। नहीं तो अभी हम जिसे महज नैतिकता की बहस मान रहें हैं, उस नैतिकता की टाट पर पोर्नोग्राफी की एक बड़ी इंडस्ट्री खड़ी होने जा रही है और उसके भीतर परनाले बहने के रास्ते भी तैयार होने जा रहे हैं।
मूलतः प्रकाशित- मोहल्लाlive
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2G स्पेक्ट्रम घोटाले में बरखा दत्त के साथ-साथ वी संघवी(हिन्दुस्तान टाइम्स) का भी नाम लिया जा रहा है। देर रात वीर संघवी और नीरा राडिया( देश की सबसे बड़ी लॉबिइस्ट) के बीच हुई बातचीत की फोन टेप यूट्यूब पर अपलोड कर दी गयी है। 'डेथ टू ट्रेटर' नाम से यूट्यूब पर कुल तीन ऑ़डियो डाले गए हैं जिसमें नीरा राडिया मीडिया मुगल वीर सिंघवी से देश के अलग-अलग मसले पर बात करते हुए कैबिनेट पद, अंबानी बंधुओं और मीडिया प्लानिंग की बात करती है. वो इस देश के संदर्भ में बनाना रिपब्लिक( BANANA REPUBLIC) के बारे में बात करती है। मजेदार बात है कि वो बार-बार नेशनल इन्टरेस्ट की बात करती है।

ये बात हैरान करनेवाली तो नहीं है लेकिन शर्मसार कर देनेवाली जरुर है कि जिस 2G स्पेक्ट्रम घोटाले को लेकर देशभर में तूफान मचा हुआ है,डी.राजा के इस्तीफे से यूपीए सरकार ने अपने गले की फंसी हड्डी निकालने की कोशिश की और मीडिया ने उस हड्डी के उपर आसमान उठा लिया,वहीं देश के तमाम मीडिया चैनलों और संस्थानों ने दो मीडिया दिग्गजों के बारे में एक लाइन भी खबर नहीं चलायी। इस तरह से एक पारालाइज्ड स्टोरी को वो दिन-रात ब्रेकिंग और इक्सक्लूसिव चिपकाकर चलाते रहे। इंटरनेट की दुनिया में सबसे बड़ी ब्रेकिंग न्यूज है कि इस मामले में देश के दो सबसे बड़े,चर्चित और दिग्गज पत्रकार के नाम सामने आए हैं। बरखा दत्त जो कि वी दि पीपल( NDTV 24X7) सबसे ज्यादा हक और बेहतर समाज की बात करती हैं तो वहीं वीर सिंघवी TLC( ट्रेवल एंड लिविंग चैनल), हिन्दुस्तान टाइम्स और हिन्दुस्तान पर कथावाचन करते हैं जिन्हें पढ़ते-देखते हुए एक हाइली एलिट पत्रकार से रु-ब-रु होने का एहसास होता है।

वीर सिंघवी ने इस पूरे मामले में अपना नाम आने के बाद उसका जबाब अपनी साइट पर दिया है औऱ कहा है कि इस बातचीत में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसके आधार पर ऐसा माना जाए कि मैंने मिस्टर राजा के लिए कोई लाबिइंग की है। वीर सिंघवी ने अंबानी बंधुओं को लेकर भी अपनी सफाई पेश की है।

मामला जो भी हो लेकिन वेबसाइट के जरिए खासतौर से वीर सिंघवी का नाम आने से मीडिया समाज को गहरा धक्का जरुर लगा है और एक बात ये सोचने को मजबूर जरुर करता है कि क्या इस प्रोफेशन में भी वही सब कुछ होने लगा जिसके विरोध में ये प्रोफेशन अपने को डटे रहने के ढोल पीटता रहता है। संभव है वीर सिंघवी के खुद इस मामले में अपनी साइट पर लिख देने के बाद मेनस्ट्रीम मीडिया इस पर अपनी बात रखनी शुरु करे। ऐसे में अब देखना है कि वो इस पूरे मामले को किस तरह से उठाता है और किस तरह की लीपापोती की जाती है।
यूट्यूब के तीनों लिंक-http://www.youtube.com/user/gauttamtheking#p/a/u/1/ljLoovK9SQU
                                http://www.youtube.com/user/gauttamtheking#p/a/u/0/RXUNO1QsAwo
                               http://www.youtube.com/user/gauttamtheking#p/a/u/2/oIw7IfGYWEk
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बरखा दत्त की जगह अभी कोई और होती तो या तो सलाखों के पीछे होती या फिर उसे अपनी कुर्सी गंवानी पड़ती। मामला सच है या फिर झूठ, इसका फैसला बाद में होता। वैसे भी इस देश में दो तरह के फैसले काम करते हैं। एक कानून और कचहरी का फैसला जिसकी गति बहुत ही मंद है और दूसरा मीडिया का फैसला। कचहरी का फैसला आए इससे पहले कि मीडिया अपने तरीके से फैसले कर देता है।.इस तरह से पैकेज बनाए जाते हैं,शब्दों का प्रयोग किया जाता है,ऐसी इमेज बनायी जाती है कि जिस शख्स पर आरोप लगे होते हैं वह आम लोगों की निगाह में पूरी तरह दोषी करार दिया जा चुका होता है। इन दिनों में मैं वक्त है एक ब्रेक का( न्यूज चैनलों की कहानियां) पढञ रहा हूं और उसमें कई ऐसे संदर्भ हैं जो यह साफ कर देते हैं कि मीडिया आरोपी और दोषी के बीच की विभाजन रेखा को ब्लग कर देता है। मीडिया के फैसले के हिसाब से बात करें तो बरखा दत्त ने न केवल टेलीविजन जर्नलिस्जम को दागदार किया बल्कि देश की उन लाखों लड़कियों के बीच एक बड़ी दुविधा,बड़ा सवाल छोड़ दिया कि- क्या वो अब बरखा दत्त बनन चाहेगी? ये सिर्फ बरखा दत्त के लिए ही नहीं बल्कि हम सब के लिए,पूरी मीडिया इन्डस्ट्री केलिए खुशकिस्मती होगी कि 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले में नीरा राडिया के साथ बरखा दत्त का भी नाम आना लगा है, वह पूरी तरह गलत हो। ऐसा होने से न केवल बरखा दत्त की की ध्वस्त होती छवि टूटने से बचेगी बल्कि देश की लाखों लड़कियों का सपना बच सकेगा जो कि बरखा दत्त जैसी बनन चाहती है। लेकिन

ऐसा हो इसके पहले भड़ास4मीडिया ने नीरा राडिया और बरखा दत्त के बीच हुई बातचीत की ऑडियो जारी करने शुरु कर दिए हैं। अभी तक साइट ने दो खंड़ प्रकाशित कर दिए हैं और आगे भी इस ऑडियो को बढ़ाने की संभावना है। एक तो संभव है कि उसमें बरखा दत्त की बातचीत के और भी अंश हो और दूसरा कि इस घोटाले के साथ वीर सिंघवी( हिन्दूस्तान टाइम्स) का भी नाम है। साइट को इनकी बातचीत के अंश प्रकाशित करनी है। ऑडियो सुनकर जो पहली बार समझ आता है वो यह कि बरखा दत्त राजनीतिक उठापटक में सिर्फ एक पत्रकार की हैसियत से दिलचस्पी नहीं लेती हैं और न ही कोई तह तक की बातें हम तक पहुंचाने के लिए जानकारी इकठ्ठा कर रही हैं। अगर ऐसा होता तो आज वो खुद इस घोटाले की स्ट्रिंग ऑपरेशन हम तक पहंचा चुकी होती। जाहिर है उनकी ये दिलचस्पी एक पत्रकार से कहीं आगे की है। नहीं तो मंत्रियों के बनने न बनने की बात वो नीरा राडिया से क्यों करती? ऑडियो में जो दोनों के बीच के संवाद हैं, वो अपने आप में कई सवाल छोड़ जाते हैं।

2जी स्पेक्ट्रम घोटाले में बड़े पत्रकारों( प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक) के होने की बात हिन्दी न्यूज चैनल का सबसे जाना-पहचाना चेहर पुण्य प्रसून वाजपेयी ने भी की थी। भड़ास4मीडिया ने इस बात की चर्चा करते हुए पुण्य प्रसून वाजपेयी के ब्लॉग की उस पोस्ट का हिस्सा हमारे सामने रखा-''...नीरा राडिया ने अपने काम को अंजाम देने के लिये मीडिया के उन प्रभावी पत्रकारों को भी मैनेज किया किया, जिनकी हैसियत राजनीतिक हलियारे में खासी है।'' इसी पोस्ट में एक और जगह वे लिखते हैं- ''... नीरा राडिया हर उस हथियार का इस्तेमाल इसके लिये कर रही थीं, जिसमें मीडिया के कई नामचीन चेहरे भी शामिल हुये, जो लगातार राजनीतिक गलियारों में इस बात की पैरवी कर रहे थे कि राजा को ही संचार व सूचना तकनीक मंत्रालय मिले.''

इससे पहले भी मीडियाखबर डॉट कॉम ने न्यूजx की डूबने की कहानी बताने के दौरान इस घोटाले में मीडिया दिग्गजों के शामिल होने की बात उठायी थी। लेकिन ये मामला चूंकि सीधे-सीधे मीडिया से जुड़े लोगों का था तो मेनस्ट्रीम की मीडिया ने जान-बूझकर अंजान बनने का नाटक किया। मीडिया के लोगों के बीच वेबसाइटों और पोर्टल पर आनेवाली खबरों की विश्वसनीयता को लेकर मीडिया के लोगों की ओर से जबरदस्त तरीके से संदेह फैलाए जाते हैं,उसके पीछे कहीं न कहीं सच के सामने आ जाने का डर काम करता है। लेकिन आज हम जिस दौर में जी रहे हैं,उसमें एक बात तो साफ है कि मेनस्ट्रीम मीडिया लाख कोशिशें कर ले,वो मीडिया मंडी के भीतर चल रही दलाली, घूसखोरी, दबंगई को पूरी तरह दबा नहीं सकता। इस बात की संभावना फिर भी जतायी जा सकती है कि संभव है कि बरखा दत्त का इसमें कोई भूमिका न हो,वो बेदाग होकर हमारे सामने निकले। लेकिन जब तक ऐसा नहीं होता है,तब तक मीडिया के फैसले सुनाने के फर्मूले के तहत सोचें तो क्या निकलकर आता है,उसका कौन सा चेहरा हमारे सामने होता ? करगिल के बम धमाकों के बीच से पीटीसी देती हुई, वी दि पीपल में हक की आवाज बुलंद करती हुई, लक्ष्य जैसी फिल्म में प्रीति जिंटा के भीतर घुस आयी एक ईमानदार पत्रकार की आत्मा की या फिर राजनीतिक जोड़-तोड़ के लिए नीरा राडिया जैसी देश की सबसे बड़ी लॉबिइस्ट से फोन पर बात करती हुई? क्या बीए,एमए,डिप्लोमा करनेवाली, इन्टर्नशिप करती हुई,टेप इन्जस्ट और काउंटर नोट करती हुई देश की लाखों लड़कियां बनना चाहेगी ऐसी बरखा दत्त?

भड़ास4मीडिया पर जाने के लिए चटकाएं- http://www.bhadas4media.com
जारी की गयी ऑडियो के अंश- http://www.bhadas4media.com/tv/7432-2010-11-18-14-52-55.html
                                                http://www.bhadas4media.com/tv/7433-2010-11-18-15-11-39.html
                                                http://www.bhadas4media.com/tv/7434-2010-11-18-15-41-59.html
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आज की महिला को राम जैसा पति नहीं चाहिए। उसे थोड़ा बैड व्ऑय चाहिए। महिलाएं हो गयी और 'बोल्ड' नाम से अपने खास कार्यक्रम में एंकर ने साफ तौर पर कहा कि अब महिलाओं को राम जैसा पति नहीं चाहिए। फेसबुक पर जब मैंने इस लाइन को साझा किया तो 'हंस' पत्रिका में जेंडर जिहाद नाम से नियमित स्तंभ लिखनेवाली स्त्री मामलों की युवा विमर्शकार शीबा असलम फहमी ने सीधा सवाल किया कि- आप भी विनीत! क्या रामजी उस मामले में कमजोर थे जो अब नहीं चाहिए?

भारतीयता, संस्कृति और काफी हद तक हिन्दुत्व के नाम पर अपनी दूकान चलानेवाले आजतक चैनल को इस बात का अंदाजा क्यों नहीं है कि इस देश की करोड़ों जनता अगर राम को अपना आदर्श मान रही है तो उस आदर्श होने  में उनकी सेक्सुअल कैपिसिटी भी शामिल है। वैसे भी इस देश में तो आदर्श वही पुरुष हो सकता है जो कि संतान पैदा करने की क्षमता रखता हो। यहां तो सेक्स को लेकर पूरी अवधारणा ही इस आधार पर विकसित हुई है कि संभोग का परिणति संतान में होना अनिवार्य है,यह सिर्फ आनंद के लिए नहीं है। ये जार्ज लूकाच की अवधारणा तो है नहीं कि सेक्स का पहला काम प्लेजर है,आनंद है। कोई जरुरी नहीं कि इसे संतान पैदा करने के लिेए ही किया जाए। संभवतः यही वजह है कि यहां लोग सेक्स करने पर अगर संतान पैदा करने की बात नहीं सोचते तो अपराध करने जैसा करार दिए जाते हैं। इसे दूसरी तरह से कहें तो जो संतान पैदा करने की क्षमता नहीं रखता,उसे जीने तक का अधिकार नहीं है। अभी दो दिन से आपलोगों ने इसी चैनल पर देखा न कि राखी ने एक पुरुष को जब नामर्द कहा और वो भी एक बार तो इस चैनल ने उसे लूप करके कई बार चलाया और कहा कि उसने नामर्द कहे जाने पर सदमा झेल नहीं पाया और आत्महत्या कर ली। अब महिलाओं को राम जैसा पति नहीं चाहिए,आजतक के ऐसा कहने का क्या मतलब है?

मामला साफ है कि जो देश राम के नाम पर मिनट भर में सुलग सकता है,वो इस देश के चिन्हों को तहस-नहस कर सकता है,वो किसी को जिंदा जला सकता है,आजतक जैसा चैनल अगर उसके पुरुषत्व को लेकर सवाल खड़े करता है तो इसे किस रुप में लेगा? अब महिलाओं को राम की जगह बैड ब्ऑय चाहिए। राम के साथ ये जुमला जोड़कर चैनल क्या साबित करना चाहता है कि एक पुरुष या पति के तौर पर श्रीराम पत्नी के आगे आरती उतारने का काम करते होंगे और इसलिए वो अच्छे कहलाएं जिससे कि आज की स्त्रियों को परहेज है? आज की महिलाओं को बोल्ड और बिंदास दिखाने के फेर में आजतक चैनल ने कितनी बड़ी बात कही है,इसका अंदाजा जनता अगर रिएक्ट करना शुरु करती है तो उससे लग सकता है। तुकबंदी और जुमलेबाजी में महारथ हासिल करनेवाले इस चैनल को शायद इस बात की फीडबैक नहीं मिलती होगी कि उसके ब्रॉडकास्ट किए गए एक-एक शब्द को ऑडिएंस किस रुप में लेती है? हरियाणा के खाप पंचात के लिए चैनल की एडीटिंग मशीन की संतानों ने लगातार तालिबानी शब्द का प्रयोग किया। ये शब्द वहां के लोगों को इतना चोट कर गया कि मिर्चपुर में जब हमने बताया कि दिल्ली से आए हैं और पूछा कि पत्रकार हो तो करीब चार सौ लोगों ने हमें मिनट भर के अंदर घेर लिया और तन गया कि क्या हम तुम्हें तालिबानी दिखते हैं? इस तरह की खबरें प्रसारित करके चैनल कितने मीडियाकर्मियों की जान जोखिम में डालने का काम करता है,इसका आभास शायद उसे नहीं है।

आजतक चैनल ने सेक्स को लेकर सर्वे की यह सवारी इंडिया टुडे पत्रिका के ताजा अंक में सेक्स सर्वे पर चढकर की है जिसमें कहने को तो देश की महिलाओं को लेकर सर्वे किया गया है लेकिन वो दरअसल स्त्री और सेक्स से जुड़े उन चालू मसलों पर आधारित है जिसे कि मंडी में बेहतर तरीके से बेची जा सके। पिछले कई सालों से पत्रिकाओं की ओर से सेक्स को लेकर जो सर्वे होते आए हैं,उनकी प्रस्तुति और विजुअल्स साफ कर देते हैं कि ऐसे अंक निकालने की प्रेरणा उन्हें पोर्नोग्राफी पोर्टल,मैगजीनों से देखकर मिलती है। ये प्रिंट मीडिया में वही घिनौना खेल है जो कि चैनलों के लिए हरेक बुधवार के लिए किए जाते हैं। चैनल ने विजुअल्स के तौर पर सड़कों पर चलती, शॉपिंग करती, बात करती हुई लडकियों को दिखाया हैं। इन विजुअल्स से लड़कियों को लेकर जिस खुलेपन और आत्मविश्वास का बोध होता है वो बोल्ड शब्द के नजदीक का नहीं है। ये एक सामाजिक स्थिति है जबकि चैनल ने इसे सेक्स,पोर्नोग्राफी और बोल्ड मिलाकर एक करके दिखाने की कोशिश की है। एथिक्स के लिहाज से चैनल को इस बात का जबाब देना होगा कि उसने जिन लड़कियों को संदर्भ बदलकर दिखाने की कोशिश की क्या उन सबों की अनुमति उनके पास है?

हालांकि ये बात चैनल और पत्रिका के लिए भैंस के आगे बीन बजाने जैसा होगा लेकिन गौर करनेवाली बात तो है ही अगर स्त्री और सेक्स को लेकर सर्वे किए जाते हैं तो क्या ये सर्वे का हिस्सा नहीं है कि इस देश में कितनी लड़कियां चरित्र पर शक किए जाने की स्थिति में छोड़ दी जाती है,कितनी स्त्रियों से परस्त्री के साथ संबंध होने पर पुरुष दबाव बनाकर डिबोर्स लेने की बात करता है? कितनी स्त्रियों की जिंदगी पोस्ट मैरिटल अफेयर से तबाह होती है,कितनी स्त्रियों की जिंदगी टीन एज में ही उनसकी इच्छा के खिलाफ ही बर्बाद कर दी गयी? चैनल को इस बात का अधिकार नहीं है कि सेक्स और पोर्नोग्राफी को एक कर दे। इस देश में अगर सेक्स शिक्षा को लेकर अगर बबाल मचते हैं तो उसके पीछे कहीं न कहीं इस तरह की स्टोरी काम करती है जो कि सेक्स को लेकर अनिवार्य समझ औऱ पोर्नोग्राफी के बीच की स्थिति को ब्लर कर देते हैं। ऐसा किया जाना प्रोग्रेसिव एप्रोच को कुचल देना है।

स्क्रीन पर चटकारे लेकर और स्टोरी के हिसाब से ही लाल पोशाक में एंकर स्टोरी की शुरुआत करती है उससे साफ हो जाता है वो इस देश के कुंठा की शिकार ऑडिएंस को संबोधित कर रही है और इस क्रम में उसकी खुद की कुंठा जब-तब छलक जा रही है। वहीं पुरुष आवाज में जो वीओ कर रहा है उसका अंदाज ऐसा कि वो किसी अंग्रेजी पोर्नोग्राफी को देखते हुए उसका वर्णन अपने उन दोस्तों के लिए कर रहा है जो कि अंग्रेजी नहीं समझते और उन्हें हिन्दी तर्जुमा की जरुरत है। चैनल के लिे ये सब एक खेल और तान देने का हिस्साभर है लेकिन ये बात उसकी चिंता से बाहर है कि उसके ऐसा किए जाने से कुंठा में जी रहे समाज का नजरिया पहले से औऱ कितना मजबूत होता है? राम के सवाल पर और पोर्नोग्रापी और सेक्स के सवाल पर चैनल को जबाब देना भारी पड़ सकता है।

शीबा असलम फहमी का आजतक से सीधा सवाल-
AajTak Channel se poochha jana chahiye ki
1). Kya adarsh-Pati hona aur 'sexually competent Pati' hona alag baat hai?
2). Ye kaisa sawal hai ki Hum Bhartiye Nariyon ko Pati me kya chahiye, sex ya Ram?
3.) Kya adarsh-mard wahi jo Patni ka bhi Bhai ho?

4). Aur Sita ji ko agni pareeksha kya isliye deni padi ki wo unke khayal se sexually over-active thin? Kya un par bharosa nahi kiya ja sakta tha? Badi be-dhangi baten hain ye sab!
kul mila kar fayde ki chahat ne vigat 20 saalon me Sri Ram ka jitna dohan kiya hai ye uski ek misal hai. Pehle unhen ek War-cry ke Villain ki tarah pesh kiya, ab dayneey bana rahe hain.
Khair hame bhi samajhna hoga ki is charcha se bhi unki TRP na badh jae kahin aur we apne be-dhangepan se bhi na kamyab ho jaen


इस वेशर्म वीडियो के लिए चटकाएं-http://aajtak.intoday.in/videoplay.php/videos/view/43579/2/116/Jewel-of-women-now-is-no-shame.html
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जिस नदी के घाटों पर सालभर तक गू की लेड़ियों का थौरा(जमघट) लगा रहता,उस छठ पूजा के दिन ऐसा चमकता की छठव्रती महिलाएं नया लुग्गा(साड़ी सुखाती)। हरेक घर के बच्चे की कनपटी छठ पूजा के दौरान एक बार जरुर गरम कर दी जाती कि उसने फलां पूजा की सामग्री छुन्नी( पुरुष लिंग का छुटपन के दौरान का नाम) मसलने के बाद छू दी। आज उस घाट पर आकर सब पवित्र हो जाता,अब कोई इस पर पीतल की परात रख दे,छठ का दौरा या फिर नारियल,फल लगे सूप,सब शुद्ध। छठी मईया और सूरज की महिमा का बखान के साथ छठ पूजा में उस बल्ली गोप की महिमा का गुणगान रत्तीभर भी कम न होता जिस पर सालोंभर तक छिनतई, किडनेपिंग, गुंडागर्दी और यहां तक की मर्डर के आरोप लगते रहते। बल्ली गोप अपनी श्रद्धा से इस नदी के घाटों की अपने खर्च पर सफाई करवाता। गू की लेडियों की जगह सफेद चूने और गेरु से लाइनें खींचवाने और रंगोली बनावाने के पीछे पूरी मेहनत करता। उसकी इस आस्था के आगे उसके सताए लोगों की जुबान पर भी छठ के समय आशीर्वाद निकलते। मां के शब्दों में यही लच्छन सालोंभर तक रहे तो अदमी नहीं देउता कहलाए।..

आज बारह साल बाद मुझे इस हदस(डर) से अभी तक नींद नहीं आ रही है कि सुबह उठकर मुझे घाट पर जाना है। ये जानते हुए कि अट जाव्वल तो सुबह उठना ही नहीं है,फिर जाना कैसा? कानों में दूर से झन-झन मंजीरे की आवाज आ रही है,पड़ोस ने कुछ शहरी टाइप का व्रत आयोजन किया है जिसमें पिछले दो दिनों से किट्टी पार्टी की तरह खाने की चीजें तैयार होती हैं और उसके बाद देर रात तक भजन। मुझे हिन्दू न जानकर सबों को बुलाते हैं,दीवाली के दिन दीया-बत्ती घर में नहीं जलाने का लगता है साइड इफेक्ट है,नहीं तो मुफ्त के खाने में विचारधारा पेलने की क्या जरुरत,चला ही जाता। दिल्ली के उस नेता की बाइट याद आ रही है जिसने डेढ़ करोड़ लगवाकर एमसीडी की ओर से छठ घाट बनने की बात बतायी और जिसे बाद में स्विमिंग पूल करार दिया जाएगा।..इस झन-झन के बीच दूर से छठ के गीत बहुत ही कमजोर आवाज में सुनाई पड़ रही है और फिर मुझ पर मां की यादें सवार हो जा रही है। यही दिक्कत है,जितने भी पर्व-त्योहार आते हैं,मां की एक-एक बातें मुझ पर सवार हो जाती है। एक तो टेलीविजन से बड़ा संस्कृति रक्षक कोई रह नहीं गया,सब त्योहारों को लेकर इस नीयत से ऐसा पेलो कि बेटा मनाओगे नहीं तो जाओगे कहां और उपर से मां की बातें। ये दो चीजें त्योहारों में मुझे सबसे ज्यादा परेशान करती है। विचारधाराओं की थोड़ी समझ ने इन सबों को मनाने से मुक्त कर दिया लेकिन जिस दिन ये दोनों चीजें छूट जाए,उस दिन त्योहारों में औसात दिन का सुकून बना रहे।

आज लोहण्डा है बेटा,रात में रोटी मत बनाना,कुछ दूसरा चीज बना लेना। जब तक छठ है प्याज-लहसुन मत बनाना की नसीहत के साथ दो दिन पहले ही फोन कर दिया। मेरे घर में कभी किसी ने छठ पूजा नहीं किया। मेरी जिंदगी में कई बार उठापटक आने की स्थिति में मां ने कई बार मनौती मांगने की कोशिश की कि इसके नाम से छठ करेंगे लेकिन मैंने ऐसी-ऐसी कसमें दिलायी और कहा कि तुम अगर ऐसा करोगी तो धर-द्वार सब छूट जाएगा आना मेरा। मेरे नाम से कोई व्रत-पूजा,उपवास मत किया करो प्लीज। मां कई बार कोसती- हमरे घर में पैदा लेवे के था इसको,अघोरी,खिटखिटाहा,लडबेहर।..लेकिन व्रत न करने की स्थिति में छठ पूजा को लेकर अपनी अपार श्रद्धा को दूसरे तरीके से जाहिर करती।

मोहल्ले में लगभग सबों के यहां छठ पूजा होता। मां बहुत मन-मारकर,मेहनत और श्रद्धा से काम करनेवाली महिला रही है। मोहल्ले में सम्मान के साथ सरस संबंध थे। छठ पूजा के दस दिन पहले से ही पड़ोसी मां को एडवांस में बुक कर लेते- चाची,दीजी,अबकी छठ पूजा में आपको मेरे यहां प्रसाद बनाना है। मां की जिससे पहले बात हो जाती,उसके यहां प्रसाद बना देती। लोहण्डा यानी शाम की छठ से एक दिन पहले की रात लोगों को बुलाकर खिलाया जाता। इसमें दो तरह की चीजें लोग खिलाते- एक तो रसिया जो कि चावल में गुड डालकर बनाया जाता,मीठी खिचड़ी ही कहिए और दूसरा दाल-भात के साथ चावल के आटे का सादा छोटा पीठ्ठा। फिर घर ही में गेंहू पीसकर ठकुआ बनाया जाता। ठकुआ छठ पूजा का मुख्य आइटम या प्रसाद है। मेरी मां बहुत जोरदार बनाती है।

मैं महसूस करता कि पड़ोस की भाभियां,चाचियां प्रसाद के नाम पर मां से बहुत सारा ठकुआ बनवा लेती और बाद में कई दिनों तक शाम के नाश्ते में इस्तेमाल करतीं। मैं जब कभी उनके घर जाता तो वापस आकर खूब हंगामा मचाता। कहता- तुम जाकर उनके यहां अपनी श्रद्धा जता आयी और देखो वो तुमसे बेगारी करवाकर नाश्ता बनवा ली,मत बनाया करो। मां दोनों हाथों से अपना काम छूती,कुछ-कुछ भुनभुनाती और कहती- लड़बहेर है,सुबुद्धि दीहो छठी मइया।

इस त्योहार में भी मोहल्ले की राजनीति से पिंड न छूटता। किस घर का संबंध किससे बेहतर है,ये आज ही के दिन तय होता। कौन किसके साथ घाट पर जाता है और साथ में चादर बिछाकर बैठता है? जिनके घरों में छठ होते,उनकी तो अपनी ही फैमिली के लोग होते और अपना इंतजाम करते। हम जैसे घरों के लोगों के लिए फजीहत हो जाती कि किसके साथ जाएं? ये पहला मौका होता जब मोहल्लेवाले से मेरे अपने संबंध और मां के साथ जाने ा लोभ एक-दूसरे से क्लैश कर जाता। मां जूली के घर से साथ जाना चाहती जबकि वोलोग मुझे चिरकुट लगते और मैं मुरारी भइया के घर से जाना चाहता। कई बार होता कि शाम किसी एक के घर से जाओ तो सुबह किसी दूसरे के घर से। ये सोच भी पॉलिटिक्स का ही हिस्सा होता कि दोनों से संबंध दुरुस्त रहे। अब अगर मैं मां का साथ के लोभ में जूली के घर से चला जाता तो सारा मजा किरकिरा हो जाता। मुझसे भी बेगारी कराने के लिए वेलोग एडी-चोटी एक-कर देते। मैं न तो कोई सामान छूना चाहता,न ढोना। आ ही गए सो एहसान मानो के अंदाज में जाता। मुरारी भइया के यहां से जाने का मतलब होता,फुलटाइम मस्ती। कोई कुछ करने को नहीं कहेगा। मां इस बात को बेहतर समझती। कहती- इ लड़का हमको धरम-धक्का में डाल देता है हर साल,अब किसके घर से जाएं? मुरारी भइया के यहां से जाने का मतलब होता कि मदद करने से बचने के लिए ऐसा कर रहे हैं। खैर,

घाट पर दो कामों को लेकर मां मेरे पीछे लगी रहती। एक तो दूध डालने जिसे कि सूर्य को अर्घ्य देना कहते हैं और दूसरा कि छठव्रती महिला की भीगी साड़ी से गाल पोछने और आरती लेने को लेकर। मां खाटी दूध जब अर्घ्य देने को देती तो मैं कहता- पापा वहां चाय के लिए हाय-तौबा मचा रहे होंगे दूध को लेकर और तुम यहां पानी में बहाने के लिए ले आयी। मां फिर कान छूती,बुदबुदाती। पीतल के दीए की लौ के उपर बहुत देर तक हाथ रखती और बहुत दबाकर मेरा माथा सेंकती। इतना गर्म और इतनी जोर से कि मैं झनझना उठता। मां का विश्वास इतना कि इतना उल्टा-सीधा बकता है,सब छठी मइया हर लेंगे ज्यादा गर्म करके सेंकने से। साड़ी से गाल पोंछने के नाम पर बिदक जाता तो कहती- छठी मइया का ऐसे अनादर नहीं करते बेटा।

मोहल्ले के सारे लौंडे का सारा आकर्षण इस बात को लेकर रहता कि किसी बहिन कौन सा सूट-सलवार,कपड़ा झाड़कर आयी है। जहां भइया बोलर मुस्करायी तो चार नसीहत जड़ दो कि ऐसे झमका के काहे ठी ठी घूम रही हो,कमीना सब मुसलमान का भी लड़का सब आता है अब मेला घूमने। हिसाब-किताब से रहा करो और जहां बराबरी से नाम लेकर बात की रमेश-सुरेश। तो तुम भी बॉबी-चंचल बोलकर चिपक लो। बाकी का एकांत सूर्य मंदिर की बाउंडरी तो दे ही देगी। महिलाओं की श्रद्धा और आस्था की पोल-पट्टी तब खुलती जब वो अपनी नजर पूरी तरह इस बात में गडाए रखते कि किसकी बेटी,किसकी बहन किसके साथ नजर आयी। मुझे तो लगता था कि वेलेंटाइन डे के बीज ऐसे ही मेलों में छिपे होते होंगे। सार्वजनिक जगहों पर भी एक नजर देखने और तुम्हारी फिजिक्स की कोचिंग कैसी चल रही है,मैथ्स के शशिशेखर सर एक नंबर के मास्टर है,बाकी चाल-चलन के ठीक नहीं हैं। तुम लगा दो उसमें लुक्का कि एक बार थ्योरम समझाते-समझाते एक लड़की का हाथ दबा दिए। नीयत ऐसी कि वो संभले कि न संभले वही नजारा यहां भी रच दो। इसी बीच ऐसे लौंडों की टोली होती जो छातियों की टोह लेते फिरते और बार-बार जान-बूझकर टकराते। इस त्योहार में सुगा मिडिराय के बाद सबसे ज्यादा- कोढ़िया,देह गल जाएगा,दिखता नहीं है,सुनने को मिलता।. 

शहर में नीयत चाट की जितनी दूकानें होती,वो सबके सब अपनी अस्थायी दूकानें घाट से थोड़ी पीछे हटकर लगाते और उनकी अकड़ आज के मथुरा रोड पर हल्दीराम से रत्तीभर भी कम न होती। मां अपनी पैरवी भिड़ाती- दे न देहो कल्लू,पिल्लूभर के बुतरु घंटाभर से खड़ा है एक प्लेट घुघनी के लिए। कल्लू चचा शान से मुस्करात-कि करें भौजी,यही एक दिन तो कमाय के है, बेटवा तो घर के बच्चा है। मां की पैरवी से पहले घुघनी,कचड़ी लेना पड़ोस की उन लड़कियों को खल जाता जो हमें चुप्पा के साथ-साथ बोक्का समझती। ये अलग बात है मां के साथ पूंछ की तरह लटके रहने से कैरेक्टर को लेकर हमेशा चर्चा में रहता- लगता ही नहीं कि वही पब्लिक स्कूल में पढ़ता है जिसमें कोढिया रजीवा,भूषणा पढ़ता है,एकदम शरीफ है।

मां नारियल लेने के पीछे तबाह रहती। वो हर मेले में मेरे साथ जाती तो नारियल जरुर लेती और मुझे ढ़ोना पड़ता। बारी-बारी से घाट पर चादर बिछाए पड़ोसियों से मिलते,सब कुछ न कुछ देते। कोई ये न कहे कि बाप तो भोला बाबा है,बेटा कइसन अइठल है,प्रसाद दिए तो नहीं लिया,चुपचाप ले लेता।..दीदी की सहेलियों के बीच सहमकर खड़ा हो जाता। कौन किस दर्जी से सूट सिलवाया,किसने उसके सूट के कपड़े बचा लिए,किसने सत्यानाश कर दिया,सुभषवा के यहां से हेयरबैंड लेना जान देने के बराबर है सुनता। ललमुनिया शादी के बाद मोटा गयी है,सरोजवा का दूल्हा हमसे बहुत लसक रहा था। पीछे से हमेशा चुप्प रहनेवाली बिदकी महीन आवाज में बोलती- एक के साथ एक फ्री चाह रहा होगा दीदी। फिर जोरदार लेडिस ठहाके। मैं टुकुर-टुकुर सबको देखता,उसी में कोई मेरा गाल छू देती और छोटू,कोई जमी? मैं बस सोचता,इतनी ही अच्छी,इतनी ही सुंदर मेरी जितनी बड़ी होती तो...या फिर यही मेरी जितनी बड़ी होती तो..?

पापा धर्म,त्योहार और आस्था के मामले में बहुत ही अलग-थलग रहे। इन सबों को लेकर उनके भीतर कभी न तो उत्साह रहा,न ही कोई बेचैनी। घाट से लौटने पर वे या तो सोए मिलते या फिर उठकर फुलगोभी भुनते हुए। प्रसाद का एक दौर चलता,फूलगोभी खाते। पापा नारियल के पीछे दम लगाते और मां अब दुपहरिया में कौन बनाएगा खाना के साथ आउट हो जाती। हो-हल्ला,तबाही मचती। पापा की इस डांट के साथ कि- हुआ नहीं तुमलोगों का,पढ़ने-लिखने का नहीं तो टंडेली( टाइम पास) कर रहा है,हमारे लिए छठ पूजा खत्म होने की घोषणा हो जाती।.
चारो तरफ बजना जारी रहता-
मारिवौ रे सुगवा घनुख से,
सुगा गिरी मुरझाए,सुगा गिरी मुरझाए

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बराक ओबामा का इंडियन एडीशन

Posted On 8:18 pm by विनीत कुमार | 6 comments

इन तस्वीरों पर इन डॉट कॉम का लोगो चिपका है। जाहिर इसे इसी साइट ने जारी किया होगा। यूट्यूब पर बालिका वधू में अभिषेक बच्चन की एपीसोड खोजने के दौरान इस पर नजर चली गयी। यूट्यूब पर मुन्नी बदनाम हुई गाने के साथ इन तस्वीरों को स्लाइड शो के तौर पर जारी किया गया। इन डॉट कॉम नेटवर्क 18 की साइट है जिस पर कि आपको दुनियाभर के रेडियो स्टेशन ऑनलाइन मिल जाएंगे। नेटवर्क 18 का सीएनएन ग्रुप से भी बिजनेस टाइअप है।




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पिछले नौ साल से 106.4 मेगाहर्ट्ज पर प्रसारित एफएम गोल्ड को नौ दिन के भीतर 100.1 मेगाहर्ट्ज पर लाने की घोषणा और फिर मीडिया में लगातार इसका विरोध किए जाने के बाद दबाव में इस फैसले को वापस लिए जाने से भावनात्मक स्तर पर जुड़े एफएम गोल्ड के करोड़ों श्रोताओं और सालों से इसकी बेहतरी के लिए काम करनेवाले रेडियोकर्मियों को यह फैसला खुशी और राहल देनेवाला है। लेकिन आनन-फानन में फ्रीक्वेंसी बदलकर एक जमे-जमाए चैनल को उजाड़ने, उसकी जगह निजी एफएम चैनल को फ्रीक्वेंसी दिए जाने और विरोध की स्थिति में उस फैसले से प्रसार भारती का पैर खींच लेने की घटना कोई राहत की बात नहीं बल्कि रेडियो तरंगों को लेकर भारी घोटाले का संकेत है।

 पढ़ने-सुननेवाले लोगों को यह बात जरुर हैरान कर सकती है कि जिस गलत तरीके से इस देश में जमीन की अंधाधुन खरीद-फरोख्त जारी है,निजी कंपनियों और बिल्डरों को फायदा पहुंचाने के लिए सार्वजनिक क्षेत्र के तंत्र कमजोर किए जाते हैं,ठीक उसी तरह हवा में तैरनेवाली तरंगों की खरीद-फरोख्त और इससे जुड़े निजी मीडिया संस्थानों को फायदा पहुंचाने का काम जारी है। इस मामले में सबसे दुखद पहलू है कि यह काम कोई और नहीं बल्कि स्वंय प्रसार भारती कर रहा है जिसके उपर जनसंचार माध्यमों के जरिए देश की सुरक्षा,सांस्कृतिक विविधता और जागरुकता का विस्तार करने की जिम्मेदारी है।

22 अक्टूबर को प्रसार भारती ने घोषणा की कि एफएम गोल्ड चैनल को 106.4 मेगाहर्ट्स से हटाकर100.1 मेगाहर्ट्ज कर दिया जाएगा। पिछले चार-पांच दिनों में प्रसार भारती के इस फैसले का मीडिया में जमकर विरोध हुआ और यह सवाल लगातार उठाए गए कि नौ साल से जिस फ्रीक्वेंसी पर जनता के पैसे से कोई रेडियो पहले से ही प्रसारित हो रहा है,वो न केवल सबसे ज्यादा सुना जानेवाला चैनल है बल्कि व्यावसायिक दृष्टिकोण से आकाशवाणी के लिए आमदनी का जरिया भी है तो उसे महज निजी कंपनी को फायदा पहुंचाने की नीयत से कैसे हटाया जा सकता है? प्रसार भारती ने इस मामले में पहले तो तर्क दिया कि ऐसा वह सिर्फ इसलिए कर रहा है कि इससे एफएम गोल्ड की गुणवत्ता में पहले से बढ़ोतरी होगी। प्रसार भारती का यह तर्क बहुत ही लचर है। इस बात को हम प्रसार भारती के फैसले के पहले दिन से ही समझ रहे थे। यह एक बड़ा सवाल था कि नौ साल से स्थापित चैनल की फ्रीक्वेंसी को सिर्फ नौ दिन के भीतर बदलने के लिए प्रसार भारती इतनी बेचैन क्यों है? एफएम गोल्ड जिसे कि मौजूदा फ्रीक्वेंसी पर बहुत ही बेहतर तरीके से सुना जा सकता है,अचानक से इसे हटाने के पीछे उसकी क्या रणनीति हो सकती है? तब मीडिया में आए इस तरह के सवालों को ध्यान में रखते हुए प्रसार भारती ने घोषणा की कि 31 अक्टूबर से लेकर 3 अक्टूबर तक एफएम गोल्ड को दोनों फ्रीक्वेंसी पर पर सुना जा सकेगा। 4 अक्टूबर से यह चैनल सिर्फ 100.1 मेगाहर्ट्ज पर होगा।

दो दिनों तक हमने लगातार दोनों ही फ्रीक्वेंसी पर एफएम गोल्ड को सुना और कुछ हिस्से रिकार्ड भी किए। हमने साफ तौर पर महसूस किया कि जिस एफएम गोल्ड को 106.4 मेगाहर्ट्ज पर सुना, उसकी गुणवत्ता के आगे 100.1 मेगाहर्ट्स पर एफएम गोल्ड की गुणवत्ता बहुत ही घटिया है। एक ही वॉल्यूम क्षमता पर दोनों फ्रीक्वेंसी पर सुनने से 100.1 पर आकर आवाज बिल्कुल दब जाती है। 100.1 वही फ्रीक्वेंसी है जिस पर राष्ट्रमंडल खेलों के लिए अलग से एक रेडियो चैनल स्थापित किया गया और जिसके लिए लाखों रुपये खर्च किए गए। यह अलग बात है कि राष्ट्रमंडल खेलों से जुड़ी जानकारी के लिए श्रोताओं ने इस चैनल को बिल्कुल नहीं सुना,इस पर राष्ट्रमंडल की खबरों से ज्यादा मनोरंजन के कार्यक्रम प्रसारित हुए। नतीजा इस दौरान यह चैनल अपनी कोई पहचान नहीं बना पाया। अब दो महीने बाद राष्ट्रमंडल खेलों से पैदा हुए बाकी कचरे की तरह सरकार प्रसार भारती के सहयोग से इस चैनल को कचरा मानकर निबटाना चाहती है। जिस खेल भावना के विकास के लिए अकेले रेडियो पर लाखों रुपये खर्च हुए,उस रेडियो को दो महीने बाद ही रद्दी की टोकरी में डालने और उसकी जगह एफएम गोल्ड को स्थापित करने की बात पचाना किसी के लिए भी आसान नहीं है। संभव है राष्ट्रमंडल खेलों में हुए घोटाले के साथ इसकी भी जांच से कुछ नतीजे निकलकर सामने आएं। नहीं तो, होना तो यह चाहिए कि प्रसार भारती राष्ट्रमंडल के नाम पर बने इस चैनल को पूरी तरह खेल को समर्पित कर दे। इससे न केवल खेलजगत को फायदा होगा, अलग से आकाशवाणी की आमदनी बढ़ेगी बल्कि एफएम गोल्ड और रेनवो को भी विकास का ज्यादा मौका मिलेगा। मीडिया में खासकर अंग्रेजी अखबारों में यह बात प्रमुखता से और लगातार पहले पन्ने पर आते रहे।

रेडियो की फ्रीक्वेंसी बदलने का मामला सिर्फ नंबर के बदल जाने का मामला नहीं है। रेडियो के लिए फ्रीक्वेंसी ही उसका ब्रांड हैं। खासतौर से अब जबकि एफएम चैनलों के जरिए एक माध्यम के तौर पर रेडियो का विस्तार हो रहा है जबकि एक संचार उपकरण के तौर पर रेडियो की हालत बहुत ही खराब है। अब श्रोताओं का एक बड़ा वर्ग रेडियो या तो मोबाइल फोन के जरिए,या तो आइपॉड या एमपी थ्री के जरिए या फिर कम्प्यूटर पर मुफ्त में उपलब्ध साइटों के जरिए सुनता है,उनके लिए रेडियो चैनलों के नाम से ज्यादा फ्रीक्वेंसी मायने रखती है। सबसे बड़ा सवाल है कि प्रसार भारती ने नौ दिन में एफएम गोल्ड की फ्रीक्वेंसी बदलने के फैसले का प्रसार कितना किया? क्या उसने लगातार विज्ञापन और अभियान के माध्यम से यह माहौल बनाने की कोशिश की कि एफएम गोल्ड की फ्रीक्वेंसी बदली जा रही है? ले-देकर जो भी सूचना आयी वो या तो आकाशवाणी की वेबसाइट पर या फिर आकाशवाणी के चैनलों पर ही। इन सबके साथ एक बड़ा सवाल कि अगर एफएम गोल्ड की मौजूदा फ्रीक्वेंसी खराब है तो उसे कोई निजी मुनाफा कमानेवाली मीडिया कंपनी क्यों लेना चाहती है?

4 नबम्वर से एफएम गोल्ड को अपनी नयी फ्रीक्वेंसी 100.1 पर आ जाना चाहिए था। लेकिन प्रसार भारती ने अपने इस फैसले से पैर खींचते हुए उसे वापस वहीं पुरानी फ्रीक्वेंसी 106.4 पर बने रहने की बात की। जाहिर है प्रसार भारती का यह फैसला पहले की तरह ही उसके खुद का फैसला नहीं है। देशभर के राष्ट्रीय अखबारों ने फ्रीक्वेंसी बदलने का जिस तरह से विरोध किया,प्रसार भारती उस दबाव में आकर अपने फैसले वापस लिए। लेकिन,फिर वही सवाल कि क्या प्रसार भारती ने अपने इस नए फैसले के लिए कोई पहले से रणनीति बनायी?
इस पूरे मामले में जो दिलचस्प पहलू निकलकर सामने आए,उस पर बात करने से फ्रीक्वेंसी यानी रेडियो तरंगों को लेकर प्रसार भारती के भीतर का चल रहा बंदरबांट बेहतर तरीके से समझा जा सकता है।

पहली बात कि एफएम गोल्ड की फ्रीक्वेंसी बदले जाने की किसी भी तरह की जानकारी स्वयं प्रसार भारती बोर्ड की अध्यक्ष मृणाल पांडे को नहीं दी गयी। मृणाल पांडे ने एक अंग्रेजी अखबार/ दि हिन्दू को बताया कि उन्हें इस बात की जानकारी मीडिया में आयी खबरों से मिली। इससे पहले भी आकाशवाणी के भीतर भारतीय भाषा को लेकर जो विवाद चल रहे हैं, उस पर गौर करें जिसमें नेपाली को विदेशी भाषा करार दिया गया और उसी हिसाब से प्रस्तोताओं को भुगतान किया,7 सितंबर को संसदीय राजभाषा समिति की मौखिक साक्ष्य सत्र में आकाशवाणी को इसके लिए फटकार लगायी गयी, तो यहां भी मृणाल पांडे को इससे दूर रखा गया। इससे समझा जा सकता है कि प्रसार भारती के भीतर किस तरह के फैसले लिए जा रहे हैं और काम हो रहा है जिसके बारे में स्वयं बोर्ड के अध्यक्ष को जानकारी नहीं है। 
दूसरी बात, फ्रीक्वेंसी बदले जाने के सवाल पर जब यह बात सामने आयी कि 2006 में ही दूसरे दौर में एफएम चैनलों की विस्तार योजना के तहत क्षेत्रीय स्तर पर 106.4 मेगाहर्ट्ज की फ्रीक्वेंसी बीएजी प्रोडक्शन को दे दी गयी थी,इससे एक नयी कहानी सामने आयी।

हरियाणा के करनाल और हिसार जैसी जगहों पर एक ही फ्रीक्वेंसी पर आकाशवाणी का एफएम गोल्ड चैनल भी चलता रहा और बीएजी प्रोडक्शन का रेडियो धमाल भी। ऐसा होने से एक-दूसरे के उपर फ्रीक्वेंसी की चढ़ा-चढ़ी होती रही और नतीजा यह कि वहां के श्रोता एफएम गोल्ड को बेहतर तरीके से सुन नहीं पाते। अब जबकि प्रसार भारती ने दिल्ली में एफएम गोल्ड को पुरानी फ्रीक्वेंसी पर बने रहने की बात दोहरायी है तो सवाल उठते हैं उन इलाकों में जहां कि एक ही फ्रीक्वेंसी पर निजी चैनल भी चल रहे हैं और एफएम गोल्ड भी,उसका क्या होगा? दिल्ली के श्रोताओं की समस्या फिर भी हल होती दिख रही है लेकिन देश के बाकी हिस्सों का क्या होगा? साथ ही अगर 2006 में ही निजी चैनल के हाथों 106.4 मेगाहर्ट्ज की फ्रीक्वेंसी दे दी गयी थी तो अब तक उस पर एफएम गोल्ड क्यों चलाया जाता रहा? आनन-फानन में फैसला लेकर और पुरानी फ्रीक्वेंसी को एफएम गोल्ड के हवाले कर देने से प्रसार भारती को अपने गले की हड्डी निकलती जरुरी दिखाई दे रही है लेकिन श्रोताओं के सामने एक बड़े कुचक्र का संकेत सामने आया है और वह यह कि
प्रसार भारती आकाशवाणी के तमाम चैनलों को 100 मेगाहर्ट्ज से 103.7 मेगाहर्ट्ज तक रखना चाहता है। ऐसा करने से बाकी की फ्रीक्वेंसी निजी कंपनियों के लिए सुरक्षित हो जाएगी। इस साल के दिसंबर में एफएम चैनलों के विस्तार का जो तीसरा दौर शुरु हुआ,ऐसा करने से निजी एफएम चैनलों पर समाचार प्रसारित किए जाने की जो बात चल रही है, उसका रास्ता साफ होगा। आज निजी चैनलों के लिए एफएम गोल्ड सबसे बड़ा बाधक है क्योंकि इस पर अभी 46 प्रतिशत सामग्री खबरों से संबंधित होती है। फ्रीक्वेंसी बदलने से एफएम गोल्ड अपने आप कमजोर हो जाएगा और निजी चैनलों को  खबर के नाम पर वही सब करने का मौका मिल सकेगा जो कि टेलीविजन चैनल कर रहे हैं।
एफएम गोल्ड को कमजोर और पंगु करने की कवायद पिछले कई महीनों से चल रही है। कभी महीनों प्रस्तोताओं का वेतन रोककर तो कभी गैरजरुरी शर्तों पर दबाव में हस्ताक्षर करवाकर। तकनीकी रुप से चैनल के लिए 20 मेगावाट क्षमता आवंटित करने की बात पर सिर्फ 10 मेगावाट क्षमता मुहैया करवाकर इसकी गुणवत्ता खराब की जा रही है। इस तरह रेडियो तरंगों को लेकर प्रसार भारती के भीतर भारी गड़बड़ियां चल रही है और अपने स्थापित चैनलों को तहस-नहस करके निजी चैनलों को लाभ पहुंचाने का काम हो रहा है।
चूंकि यह जमीन,पानी,प्राकृतिक संसाधनों की तरह सीधे-सीधे लोगों की जानकारी में नहीं है इसलिए इसके विरोध में आवाजें नहीं उठतीं। हम इस फैसले से खुश हो सकते हैं कि प्रसार भारती हमारे लोकप्रिय चैनल का गला घोंटने में नाकाम रहा है और हमें हमारा चैनल वापस उसी फ्रीक्वेंसी पर मिल रहा है। लेकिन देखना होगा कि तरंगों के इस घोटाले में शामिल बिचौलिए की पहचान प्रसार भारती और सरकारी तंत्र कितनी गंभीरता से कर पाती है और प्रसार भारती के भीतर संभावित बड़े घोटाले के पीछे के सच को कितना उजागर कर पाती है?
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ये राइम्स किलकारी,खुशी,सुर,अरुणिमा,सौम्या,स्पर्श और देश के उन करोड़ों बच्चों के लिए जो महान कवियों की लिखी कविताओं और राइम्स पढ़कर बोर हो गए हैं। जिन कविताओं को उनके मम्मा-पापा ने याद किया,उन्हें भी वही सब याद करना पड़ता है,शिट्ट नो चेंज। बस चेंज के लिए। उम्मीद हैं उन्हें पसंद आएंगे ये राइम्स और कल से इसे याद करनी शुरु कर देंगे। चुलबुल पांडे इस्टाइल में बराक ओबामा की तस्वीर प्रकाश के रे की फेसबुक प्रोफाइल से उधार जिसे कभी नहीं लौटानी होगी।.

(1) शुरआती कविता

मामा आए,मामा आए
देखो मम्मी बराक ओबामा आए
नेता, मीडिया पलक बिछाए
जनता घी का दीया जलाए
कैसे हैं बराक ओबामा
पहले पूछे साथ क्या लाए

 हाथ जोड़े हैं नेता सारे,
 इंडिया आएं पर पाकिस्तान न जाएं
 मौसी देखो बराक ओबामा आए





(2)  ओबामा और नेता

मामा आए,मामा आए
मम्मा देखो बराक ओबामा आए
मनमोहन ताउ के लिए
ब्लू कलर की पगड़ी लाए
सोनिया आंटी के लिए भी
पेंटागन से साड़ी लाए
लालू अंकल के लिए देखो
इम्पोर्टेड खैनी-सूरती लाए
नीतिश चाचा के हाथ में अब्बी
 विकास सूत्री प्रोजेक्ट थमाए
आडवाणी दादू के लिए हिन्दुत्व मार्का भभूत लाए
कलमाडी अंकल के लिए भी
इट मोर डाइजेस्ट मोर पाचन चूर्ण लाए
शीला बुआ के लिए वाइपर लाए
साफ रहे दिल्ली,मंत्र बताए
मौसी देखो बराक ओबामा आए
...........................................
(3) ओबामा और मीडिया

मामा आए,मामा आए
मम्मा देखो बराक ओबामा आए
आजतक को अब नींद न आए,स्टार न्यूज को अल्सर छाए
एनडी की आंख चमक जाए,जी न्यूज अब चुप न रह पाए
ibn7 की आवाज कम हो जाए,आशुतोष का दहाड़ना छूट जाए
न्यूज24 को अपना दामाद बनाए, सहारा सहाराश्री से उपर बताए
हिन्दूस्तान लाल दरी बिछाए,दि हिन्दू संतुलन की बात दोहराए
इंग्लिश चैनल अपना सगा बताए,इंग्लिश-इंग्लिश कार्ड चमकाए
छुटभइया चैनल जंतर बनवाए,ओके उपर ओबामा नाम खुदवाए
मामा आए,मामा आए मौसी देखो
बराक ओबामा आए
.............................................
(4) ओबामा और एनजीओ

सरकार देश को चकमक दिखलाए
जीडीपी रिपोर्ट दिखलाए
एनजीओ बहती गंगा में हाथ धोवे खातिर
बराक ओबामा को सच दिखलाए
रोवें हैं बच्चे भूखे-नंगे,माताओं के आंसू न थम पाए
भूख,गरीबी,बेकारी ही देश का सच है
सो बतलाए
हाल दिखाए असली हिन्दुस्तान का ऐसा
मां कसम जो ओबामा को नींद फिर आ जाए
फाइव स्टार लगे नरक फिर,ओंठ से कोमल गद्दा चुभता जाए
देख के इस देश में दलिद्दर,
होश में आए ओबामा,अब कोमा में चल जाएं
गजनी बनकर मोटा फंड दे जाएं
मामा आए,मामा आए
मौसी देखो बराक ओबामा आए
..........................................
(5) ओबामा और जनता

जनता ने सुनी है बहुत कहानी
एक था राजा एक थी रानी
कभी शेरशाह,कभी कोई अकबर
कभी हुमायूं कभी चंद्रगुप्त
दौरे पर कैसे आते थे,
क्या खाते थे क्या पीते थे
कैसे वो जनता छूते थे
नहीं पता है,नहीं चखा है
सुनी-सुनाई में क्या रखा है..
अबकी बार ओबामा आए
अकबर,हुमायूं फिर याद आए
ऐसे ही आते होंगे वो भी
ऐसे ही जनता धन्य होती होगी
एक बार जो हाथ छू जाता होगी
महीनों फिर न हाथ धोती होगी
आए ओबामा,हम भी छुएं
तुम भी छुओ,सब कोई छुओ
फिर न धोना हाथ महीनों
बना रहे एहसास महीनों
मामा आए मामा आए
देखो मौसी बराक ओबामा आए।..


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