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सरदार वल्लभ भाई पटेल की दुनिया की सबसे बड़ी मूर्ति बनवाने की नरेन्द्र मोदी की घोषणा और शिलान्यास की जितनी व्याख्या और आलोचना हो रही है, उससे कई गुना ताकतवर ढंग से और लगभग एक उबाउ सामग्री की शक्ल में "स्टैच्यू ऑफ यूनिटी" के विज्ञापन उन तमाम चैनलों पर तैर रहे हैं, जो इस तरह की नरेन्द्र मोदी की स्ट्रैटजी की जमकर आलोचना कर रहे हैं. इस आलोचना के कई सिरे खुल रहे हैं जिसे हमारे एंकर रवीश कुमार स्यूडो काल से लूडो काल की सेक्लुरिज्म की संज्ञा देते हैं. हम इन बहसों में विस्तार में न जाएं तो भी एक बात स्पष्ट है कि बात कांग्रेस के पाले में रहकर की जा रही हो या फिर बीजेपी के, दोनों के हिसाब से सरदार वल्लभ भाई पटेल को स्वतंत्रता सेनानी और कद्दावर नेता के रुप में दिखाया-बताया जा रहा है और इस एजेंड़े पर देश की दोनों बड़ी पार्टियां( जनाधार के बजाय रियलिटी शो करने में भी) एक ही बिन्दु पर खड़े नजर आते हैं.

मैं इतिहास का न तो विद्यार्थी हूं और न ही इतिहास में मेरी कोई गति रही लेकिन इतना जरुर है कि इतिहास का जो-जो टुकड़ा मीडिया और संचार को छूता है, कोशिश रहती है कि उन सिरे को भी समझने की कोशिश की जाए. इसी क्रम में जब मैं अपनी पहली किताब मंडी में मीडिया लिख रहा था और आकाशवाणी के रुप में पहले चंद लोगों की कोशिशें और बाद में एक पब्लिक ब्राडकास्टिंग माध्यम के रुप में इससे गुजरने का मौका मिला तभी ऐसी बहुत किताबों और दस्तावेजों से गुजरने का मौका मिला जो लिखी तो गई थी बड़ी ही श्रद्धाभाव से और कहीं न कहीं सरकार को उपकृत करने की भी मंशा से जिसके बार में वक्त गुजरता है के लेखक और कमरे भर से शुरु हुए दूरदर्शन से जुड़े रहे विद्याधर शुक्ल ने इंटरव्यू की शक्ल में हुई फोन पर की बातचीत में कहा कि आपको आकाशवाणी या दूरदर्शन पर ऐसी कई किताबें मिलेंगी जिससे गुजरने के बाद आपको लगेगा कि आकाशवाणी और दूरदर्शन की ऑफिस के एचआर के कागज नत्थी कर दिए हैं. उसका आप क्या कीजिएगा.

इसी कड़ी में मुझे रासबिहारी शर्मा की लिखी एक किताब "आकाशवाणी" मिली. रासबिहारी शर्मा की किताब प्रकाशन विभाग से छपी है. हम पूरी किताब पर बात न भी करें तो इसी सरदार वल्लभ भाई पटेल की बतौर प्रथम सूचना एवं प्रसारण मंत्री के रवैये की चर्चा करें तो हमें ये समझने में दुविधा नहीं होगी कि आखिर क्यों नरेन्द्र मोदी को सरदार वल्लभ भाई पटेल पसंद हैं. रासबिहार शर्मा ने लिखा है-

देश के स्वतंत्र होने के पूर्व आकाशवाणी पर संगीत कार्यक्रम प्रायः तवायफों और मिरासियों द्वारा प्रस्तुत किए जाते थे. बहुत से लोग नहीं चाहते थे कि इतनी उत्कृष्ट कला ऐसे लोगों द्वारा प्रस्तुत की जाए जिनका निजी जीवन अच्छा न हो. देश के स्वतंत्र होने के बाद जब सरदार वल्लभभाई पटेल ने सूचना मंत्री का पद संभाला तो उन्होंने निर्देश जारी किया कि जिनके निजी जीवन सार्वजनिक रुप से अफवाहें जुड़ीं हों, उन्हें प्रसारण की अनुमति न दी जाए. इस आदेश पर तात्कालिक परिणाम यह हुआ कि नाचने-गानेवाली लड़कियां, जिन्हें 'बाईजी' कहा जाता था, रेडियो पर कार्यक्रम देने से रोक दी गई. उनकी जगह नए-नए कलाकार आने लगे.
 सरदार पटेल के ऐसा करने के पीछे तत्कालीन समाज का एक नैतिक आग्रह जरुर रहा हो लेकिन इस आग्रह के कारण संगीत की एक बहुत बड़ी लोकप्रिय विधा खो रही थी, इस पर ध्यान नहीं दिया गया. 1952 में जब जॉ. केसकर सूचना प्रधानमंत्री बने तो संगीत कार्यक्रमों की एक निश्चित रुपरेखा तैयार की गई.

जो लोग अस्मितामूलक विमर्श और सब्लार्टन हिस्ट्री में दिलचस्पी रखते हैं, उन्हें ये अलग से बताने की जरुरत नहीं है कि पटेल के इस फैसले का क्या आशय बनता है और ऐसा करके उन्होंने न केवल एक जनवादी कला बल्कि एक उस जनसमुदाय को माध्यम की मुख्यधारा से बेदखल कर दिया जिसका मुरीद जमाना लंबे समय से रहा है बल्कि ये वही समुदाय रहा है जिनके पास घराने के लोग तहजीब सीखने भेजा करते थे.

अब जबकि नेहरु के बरक्स पटेल को खड़ा करने की एक नई कवायद जाहिर है नरेन्द्र मोदी की तरफ से शुरु हुई है और फिजा में ये बातें भी तैरने लगी है जो कि मोदी का ही वर्जन है कि पटेल को वाकायदा प्रधानमंत्री होना चाहिए था..प्रधानमंत्री तो दूर, एक मीडिया के छात्र होने के नाते हम तो ये कहना चाहते हैं कि क्या इस समझ के साथ पटेल को देश का प्रथम सूचना एवं प्रसारण मंत्री होना चाहिए था और उन्होंने ऐसा करके जो किया वो स्थिर होकर सोचें तो सही है ?

नायकों को खड़े करने और स्थापित को ध्वस्त करने की इस आपाधापी के बीच क्या ये सवाल नहीं है कि जब देश की ये राजनीतिक पार्टियां अपने तरीके से विज्ञापनों के लिए इतिहास के चेहरे का इस्तेमाल कर रही हैं, कि आप इन इतिहास के चेहरे को इस नजरिए से नहीं देखा जाना चाहिए कि जिस मंत्रालय से वो जुड़े, उसमें क्या और कैसे-कैसे फैसले लिए ?

माफ कीजिए, आपको जितना मन करे, पटेल के कद को उंचा करें..टीवी पर मिक्स वेज बनना-बनाना जारी रहेगा लेकिन नरेन्द्र मोदी विज्ञापन में जिस किसान-मजदूर से औजार का लोहा देकर योगदान देने की बात कर रहे हैं, मैं एक छात्र की हैसियत से अपनी कलम की निब बराबर भी लौहा नहीं दूंगा..इसलिए नहीं कि मैं इस तरह की मूर्ति, पाखंड और स्वयं नरेन्द्र मोदी से घोर असहमति रखता हूं बल्कि मैं बतौर सू. एवं. प्र. मंत्री पटेल के इस रवैये से घोर असहमति रखता हूं..हम ऐसे मंत्री की दुनिया की सबसे बड़ी मूर्ति कभी नहीं चाहता, उनकी मूर्ति मेरे भीतर ही बहुत पहले खंडित हो चुकी है. 

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इंदौर शहर में राहुल गांधी की रैली में कांग्रेस की जगह कसंग्रेस के लिखे जाने को लेकर न्यूज चैनलों में खूब फुटेज काटे-चिपकाए जा रहे हैं. चैनलों का मुद्दा गाहे-बगाहे फेसबुक वॉल पर आ ही जाते हैं और हम भी इन मुद्दों को खूब शह देते हैं. लेकिन सवाल सिर्फ ये नहीं है कि जितनी देर रैली चली क्या उतनी देर तक देश की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी के गलत लिखे नाम को देश के दर्जनों चैनलों ने विजुअलर्स काटे या फिर सवाल ये भी है कि आखिर ऐसी गलतियां किस कोख से पैदा होती हैं..क्या ये राजनीति में तेजी से भाषागत लापरवाही और पढ़ने-लिखने की दुनिया के प्रति यकीन के खत्म हो जाने का तो नहीं. बैनर-पोस्टर बनवाते वक्त ऐसे ही कुछ अनुभव रहे जिन्हें आप सबसे साझा करना जरुरी लगा- 

आप पोस्टर-बैनर-किऑस्क बनवाने कभी घंटाघर, बल्लीमारान या अपने शहर की ऐसी किसी जगह पर गए हैं जहां अलग-अलग राजनीतिक पार्टी के लोग भी होली-दीवाली-लोहड़ी-ईद की मुबारकबाद हेतु पोस्टर-बैनर बनवाने हेतु पाए जाते हैं..जाहिर है कि इस काम के लिए कोई शीर्ष के नेता नहीं होते, पार्टी के वो छुटभैय्ये लोग जिन्हें शुरु से इस बात पर यकीन रहा है कि नेतागिरी झाड़ने के लिए क्लासरुम को जितनी जल्दी हो, तलाक दे दो. नतीजा हिन्दी की क्लास में राजनीति विज्ञान के मास्टर की टीटीएम करते रहे होंगे, राजनीति विज्ञान की क्लास में हिन्दी के मास्टर की चरण वंदना.

अब देखिए, फजीहत कैसे शुरु होती है, आंखोंदेखी हाल बता रहा हूं. नवरात्रा से लेकर छठ पूजा तक रेलसाइज में बधाई देते हुए शहादरा से लेकर बडोदरा तक के अपनी पार्टी के नेताओं की अंडानुमा खांचे में पासपोर्ट साइज फोटो लगाते हुए, नीचे परिचय देते हुए, पार्टी लोगों,छातीकूट नारे डालते हुए, दिनांक, दिन,साल-सवंत शामिल करते हुए, मौजूदा आकाओं से लेकर पूर्वजों तक को याद करते हुए एक बैनर बनवानी है..अब इस छुटभैय्ये नेताओं की परेशानी कई स्तरों पर होती है.

अव्वल तो ये कि अपनी पार्टी के दो-तीन उपर के और दो-तीन घुटने के लोगों को छोड़कर बाकी लोगों की तस्वीर पहचान ही नहीं पाते. ऐसे में वो गूगल इमेज का सहारा लेते हैं. अब गोया टाइप किया अपनी पार्टी के मुसद्दीलाल को तो एक दर्जन मुसद्दीलाल की तस्वीर है..चाबड़ी बाजार में गत्ते बेचनेवाले से लेकर सिनेमाहॉल के मैनेजर तक. किसको लगाए. माने किसकी तस्वीर लगाए. परेशान होकर बार-बार फोन करता है, फोन लगने में देर होती है तो क़ॉमिक रिलीफ के लिए बैन के लं, बैन की लौ, मां की..अब किसको लगाउं.

इधर पार्टी के पूर्वजों को शामिल करने, कब्जाने कहिए तो इतनी आपाधापी मची है कि जिस स्वतंत्रता सेनानी या संस्कृतिवाहक को अमूक पार्टी शामिल करती थी, अब उसके तीन क्लाएंट पैदा हो गए हैं. गोकि ध्यान ये रखना है कि किसकी कैसी पोज अपनी पार्टी के काम की है. एक पूर्वज अगर कभी हंसिया भी उठाया हो और गीता भी तो कौन सी वाली तस्वीर जानी है, पता नहीं है क्योंकि विचारधारा समझने-समझाने वक्त तो ये क्लासऱुम को तलाक देकर बत्ती बनाने चले गए थे.

दूसरी समस्या आती है स्लोगन लगाने की..इसमे भी ऐसा पेंच हुआ है कि पहले प्रतिरोध, अधिकार,क्रांति, राष्ट्र, मानवता कई ऐसे शब्द थे जो किसी पर्टीकुलर पार्टी को लेकर पेटेंट टाइप से हुआ करते थे तो थोड़ी सुविधा थी..अब तो चाइनिज फूड की तरह सबमे सब शब्द मिक्स है..अब बंदे को स्लोगन लगवाने में भारी फजीहत होती है..खैर, बैन, मां के अखंड जाप के बीच ये लग भी गया तो अब बारी आती है नाम सही-सही लिखने और हर शब्द में दो से तीन से ज्यादा गलतियां न रहने देने की..दो-तीन तो समझ और नजर ही नहीं आने हैं.

गाली-गलौच करते हुए आखिर में बैनर स्क्रीन पर कंपोज हो गया, मतलब छुटभैय्ये की तरफ से मामला डन. ऐसा कई बार हुआ है कि छुटभैय्ये ने जोर से कहा है- चलो जी, अब इसकी बीस बैनर प्रिंट निकाल दो और मैं अपने काम की जल्दी और हड़बड़ी के बीच भी उनकी स्क्रीन पर नजर मारता हूं और अमूमन चौड़ी देह-दशावाले इन छुटभैय्ये से धीमी आवाज में कहता हूं- भैय्या, अगर आप बुरा न मानें तो मैं एक बार आप जो बैनर निकलवा रहे हैं, देख लूं. मेरी हिन्दी भी कोई खास और दुरुस्त नहीं लेकिन सरकार का लाखों रुपया इसी भाषा के नाम पर पेट में गया है तो पता नहीं क्यों एक किस्म का नैतिक दवाब और भावनात्मक लगाव तो महसूस करता ही हूं..अक्सर वो मना नहीं करते और अपनी तरफ से जितना बन पड़ता है, मैं वर्तनी ठीक कर देता हूं. वो फटाफट ठीक करते देखते रहते हैं और आखिर तक आते-आते श्रद्धाभाव से भावुक हो जाते हैं. धीरे-धीरे उनके भारी-भरकम देह-दशा के प्रति मेरा भय जाता रहता है. ओजी, आप करते क्या हो, ये पूछकर शुक्रिया अदा करते हैं और एकाध बार तो सौ-दो सौ रुपये या फिर मेरे बैनर के भी पैसे उसी में ही काट लेने की घटना घटी है. मेरे मना करने पर अपनी विजिटिंग कार्ड पकड़ा जाते हैं और फिर अपनी ठसक में कहते हैं- सरजी, चन्द्रावलनगर में कोई यूं छू भी दे आपको तो बताना, बैन की ऐसा टाइट करुंगा कि आप भी याद करोगे..मैं जरुर-जरुर कहकर विदा देता हूं.

दो-चार बार ऐसा भी हुआ है कि मैं एकदम से ऐन वक्त पर तब पहुंचता हूं जब इन छुटभैय्ये नेताओं ने बैनर छपवा लिए होते हैं और खोलकर उसकी साइज और फ्रेम देख रहे होते हैं..मुझसे रहा नहीं जाता और कहता हूं- ये आपने स्वतंत्रता ऐसे क्यों लिखा है, वो मेरी तरफ घूरते हैं..मैं अपना वाक्य दुरुस्त करता हूं- आपने स्वतंत्रता ऐसे क्यों छपवाए..तब उनकी देह भाषा बदल जाती है...बैन चो..ये टाइपिस्टवाले ने रेड पीट दी है..अबे ओए, मादरचो, स्साले बेइज्जती कराता है, ऐसे ही लिखते हैं स्वतंत्रता..

इधर स्क्रीन पर ठीक करवाने और छपे की गलती पकड़ने, दोनों ही स्थिति में दूकानदार मुझे दमभर कोसता है..आपने दोबारा ठीक करवाया, आपका क्या जाता है..आपको पता है, इतनी देर में मैं तीन बैनर का काम कर लेता..या फिर जब छप गया था तो आपको बोलने की क्या जरुरत थी, अब ये नया छापने कह रहा है..आपका क्या जाता है..जब वो झल्लाकर और बेहद ही तीखे अंदाज में मुझे ऐसा कहता है तो मैं बेहद भावुक हो जाता हूं- तुम नए वाले बैनर के पैसे मुझे ले लेना. मुझे हिन्दी में मिले जेआरएफ कन्टीजेंसी के पैसे का ध्यान आता है..कितना- आठ सौ..ये तो एक महीने की भी नहीं है..हम हिन्दी सिर्फ पढ़ने पर ही क्यों, दुरुस्त करवाने पर भी तो कुछ खर्च कर ही सकते हैं.
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एक से एक प्रगतिशील, हक और हाशिए के समाज की बात करनेवाले लोग और बेहद बारीकी से अपनी बात रखनेवाले को देखता हूं कि बकरी चराने जैसे पदबंध का इस्तेमाल इस तरह से करते हैं जैसे कि ये दुनिया का सबसे आसान,बेगार और बिना दिमाग का काम है. ता नहीं पढ़ने-लिखनेवाली दुनिया में व्यंग्य में भैंस चराना,बकरी चराना,गाय हांकना, दूध दूहना,चारा काटना जैसी क्रियाओं का प्रयोग करता है तो लगता है कि शारीरिक श्रम को किसी न किसी रुप में कमतर करके देखा और उसका उपहास उड़ाया जा रहा है. दूसरा कि इसका दिमाग से दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं है..बाकी वर्ग,समाज, पहचान की राजनीति के तहत इसकी अलग व्याख्या हो सकती है.

मेरी पिछली सात पीढ़ी में से न तो किसी ने खेती का काम किया और न ही पशुपालन..मैंने अपने परिवार की वंशावली देखने के साथ-साथ इकलौते चाचा से उन सबों का वर्णन और काम विस्तार से सुना है..सबके सब शुरु से ही जमींदारी और बाद में बिजनेस में ही रहे. लेकिन छुटपन में जब स्कूल की ज्यादा दिनों की छुट्टियां होती और मैं अपने बिहारशरीफ के घर के बड़े से बगीचे में चीटिंयों से, चिड़ियों से, गिलहरियों से बातें करता, अमरुद,पपीते तोड़ता, अपनी बहन और उसकी सहेलियों के साथ खिचड़ी बनाता तो मां इसी व्यंग्य में कहा करती- यही हाल रहा तो बकरी चराओगे बड़े होकर, हल जोतेगे, यही चील-कौआ, खोटा-पिपरी( मां चींटी को खोटा-पिपरी,अखरी-पिपरी कहती) से गप्प-शप्प करके पेट भरेगा. यही सब काम देगा तुमको. बौडाहा कहीं का. जिस तरह से लड़कियों के किसी तरह की गलती करने, चाहे वो बर्तन मांजने में राख या विम पाउडर के लगे रह जाने की हो या फिर चार आदमी के सामने दोनों पैर फैलाकर बैठने की, कहा जाता- यही सब लक्षण लेकर ससुराल जाना, खानदान का नाम रौशन होगा..मेरी मां बचपन से ही ड़राती- कुछ करेगा-धरेगा नहीं, ढंग से पढ़ेगा नहीं तो जो आवेगी, उसको क्या खिलावेगा, भाग नहीं जाएगी, तुमको छोड़कर...ऐसे ही गाछ-बिरिछ के बीच पड़े-पड़े कुक्कुर-बिलाय से बतिआता रहेगा तो पगला समझके भाग जाएगी तुमको छोड़कर..और भी बहुत कुछ. हमारे भीतर वो बचपन से ये भाव भरती रही कि तुम्हें बड़ा होकर सिर्फ अपना नहीं, एक और की जिम्मेवारी उठानी है और फिर बच्चे-कच्चे तो होंगे ही.

लेकिन मां ने बार-बार पढ़ने की हिदायत देने के बीच कभी नहीं कहा कि अगर तुम नहीं पढ़ोगे तो अपने पापा की तरह कि ब्लाउज-पेटीकोट-साड़ी बेचोगे, अपने मामू-नाना की तरह तेल बेचोगे. जिस गाय,भैंस,बकरी चराने का काम मेरी पिछली सात पीढ़ी ने कभी नहीं किया, मां वही करने का उदाहरण देती. मेरे झुमरी तिलैया के मनोज भैया जो कि उम्र में मुझसे कम से कम बारह साल बड़े होंगे, उनकी मां यानी मेरी बुआ भी ऐसे ही कहा करती थी लेकिन बाद में उन्होंने बहुत मेहनत से पढ़ाई की..यूपीएससी ने उनको बड़ा झटका दिया और एनटीपीसी के अधिकारी के इस बेटे ने हारकर और प्रतिरोध में जूते-चप्पल की दूकान खोल ली..जाहिर है, एक सभ्य-प्रतिष्ठित समाज में इससे फूफा की नाक कट गयी और मार ताने.. बीए में जब निराला की रचना बिल्लेसुर बकरिहा पढ़ा तो मनोज भैया की जब-तब याद आने लगी..वही मनोज भैया जिन्हें मेरी दीदी सहित और भी कई लड़कियां कह चुकी थी- आपको मॉडलिंग करनी चाहिए. दीदी ने तो पहली बार जब उन्हें ग्राहकों के आगे जूते निकालते देखा तो फक्क से रो गई- क्या धंधा शुरु कर दिए मनोज भैय्या मां, कोई और काम नहीं मिला था इनको.. फूफा के खानदान का सबसे बड़ा चिराग जूते-चप्पल के धंधे से अब इतने खुश और व्यस्त हैं कि जितनी कमाई बाकी होनहार लौंड़ों ने नहीं की है, उससे कई गुना वो अबतक कर चुके हैं. खैर,

मां जब इस तरह से बकरी चराने के ताने दिया करती तो मन में कौतूहल तो बन ही गया था कि आखिर बकरी चराने में ऐसा है क्या जो मां अक्सर कहा करती है..इतना तो समझ आता था कि मां ऐसा कहकर ये संकेत दिया करती है कि तुम भी मुसलमानों और ग्वालों के बच्चों की तरह हो जाओगे. बिहारशरीफ में मेरा आखिर घर हिन्दू का था. उसके बाद सिर्फ मुसलमानों का और आसपास बकरियों की कोई कमी न थी..और अर्जुनमा के साथ बकरियों की पूरी फौज आती जब वो खोए पहुंचाने मेरे घर आता. लिहाजा, एक दिन मैंने और मेरे दोस्त सुजीत ने राह चलती एक बकरी को पकड़ लिया और अपने बगीचे में ले गए..पहले तो बकरी घबरा गई लेकिन हमदोनों ने उसके आगे दनादन पत्तियां तोड़कर डालने शुरु कर दिए. जानवर में विवेक नहीं होता, ये भी मुहावरे से ही निकलकर आता है लेकिन पता नहीं क्यों मुझे इंसानों से ज्यादा संवेदनशील लगते हैं. जिस बकरी को दिनभर पेटभर चारा नहीं मिलता हो, उसके आगे नाना प्रकार के फूलों,पौधों की पत्तियां किसी खजाने से कम न थे लेकिन उसने उन्हें सूंघा तक नहीं. सुजीत ने उसके गले में रस्सी डाल दी थी और पीतल के एक लोटे के साथ हम उसकी थन पकड़कर बैठ गए. अभी थन को एक बार ही नीचे खींचा था, ये सोचकर कि दूध की धार ठीक वैसी ही निकलेगी जैसा कि पोस्टरों में शिवलिंग के उपर गायों के थन सटा देने भर से निकलने के दिखाए जाते हैं. दूध तो बाद में निकलता, एक ही बार खींचने से मेरे हाथ चढ़ गए और तत्काल बकरी ने खुर से दे मारा. मेरी आंखों में आंसू आ गए और जब तक सुजीत आता कि बकरी ने उसके साथ ये काम दोहराया.. वो तो गुस्से में आकर दनादन बकरी को दिया लेकिन मैं शरीर से ज्यादा मन से आहत हो गया था. मुझे रौदिया, रमभजुआ के उन बाल-बच्चों का ख्याल आ रहा था जो वीडियो गेम न खेलकर रस ले-लेकर दूध निकाल लेते..हमने उनके आगे अपने को बहुत हारा हुआ महसूस किया..हम फेसबुक,ब्लॉग और लेखों में ज्ञान छांटनेवाले लोग ऐसे कई मोर्चे पर हारकर यहां पहुंचे हैं जिसे हमने स्वीकार करने के बजाय उन मोर्चों का सिर्फ उपहास उड़ाया है.

बकरी को हमने छोड़ दिया और सुजीत ने कहा- अपने बस का ये काम नहीं है यार..हम तो पढ़ भी नहीं सकते, सच कहो तो पढ़ना ही नहीं चाहते लेकिन तू ये सब छोड़, लग ज पढ़ने में. सुजीत अब बिहारशरीफ में तीन-चार शोरुम और दूकान का मालिक है जिसमे उनके भैय्या और पापा साथ हैं. मेरा तो वो बचपन का शहर ही हमेशा के लिए छूट गया..

लेकिन मां के ताने और बकरी दूहने की उस घटना जस की तस मेरे जेहन में है..ऐसे में इन दिनों जब लगातार पढ़ने के मुकाबले बकरी चराने का मुहावरा बड़े ही तंज अंदाज में देखा तो वो सब ध्यान आ गया..मैं रौदिया, अर्जुनमा, रमभजुा के उन तमाम बच्चों को याद करता हूं जिसके आगे आधा किलो,एक किलो ज्यादा दूध देने के लिए गिड़गिड़ाते थे और चूंकि उसने मेरी ही और मेरे से कम उम्र में दूध दूहना शुरु कर दिया था तो ग्राहकों से डील करने की शैली अपने पिता से अपना ली थी..जबरदस्त कॉन्फीडेंस में मना कर देता और मैं मां के आगे पिटे  हुए बच्चे की शक्ल लेकर चला जाता. वो अमूल,सुधा,मदर डेयरी का जमाना नहीं था कि जितनी मर्जी पैकेट ले लो..ये वो दौर था जब आप अपनी जेब में नोटों की गड्डी भरकर भी मनमर्जी दूध नहीं खरीद सकते थे.

अपने मोहल्ले के उन तमाम रेहाना,अफजल,मुशर्रत,फातिमा और उनके भाईयों-बहनों के चेहरे याद करता हूं जो बकरीद के एक महीने पहले आयी बकरियों को शौकिया चराते थे, हमारे साथ पब्लिक स्कूल में पढ़ा करते.उनके आगे बैठकर राइम्स याद करते..कभी लगा नहीं कि बकरी चराना आसान काम है और बिना दिमाग का काम है..हमने बकरियों के नब्ज को बहुत करीब से देखा है.

अब जब भी इस मुहावरे के साथ बकरियों और उनसे जुड़े लोगों को याद करता हूं तो छुटपन के दिनों से सटकर बिल्लेसुर बकरिहा की याद आती है जिसे मैंने कम से कम बीस बार पढ़े होंगे..हमारा जो प्रोगेसिव तबका बकरी चराने को लेकर इस तरह से सिनिकल है, एक बार इसे पढ़ता और उसे शेयर करता है तो समझ सकेगा कि निराला का बिल्लेसुर बैसवाडे का ब्राह्मण दुनियाभर के काम छोड़कर बकरी चराने का काम करता है तो उससे सामाजिक मान्यताओं के ढांचे कैसे दरकते हैं और पालनेवाले की जिंदगी कैसे बदलती जाती है.

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आपका न्यजू एंकर पूरे नवरात्र तक उसी तरह सज-संवरकर माता रानी पर स्पेशल प्रोग्राम लेकर आता रहा, जिस तैयारी से वो किसी मंदिर के आगे मत्था टेकने जाता या जाती. उनमे से कुछ ने तो सोशल मीडिया पर ऐसी तस्वीर पहले या बाद में साझा भी की. एक बार जब इस बहरुपिया पोशाक में सज गए तो फिर भाषा तो भक्तगण और श्रद्धालु की तरह तो अपने आप निकलने लग जाती है...और फिर पैनल में बाबा होंगे कि समाज वैज्ञानिक ये भी अलग से समझना नहीं होता है. इसका सीधा मतलब है कि वो ऐसे कार्यक्रम और इस हुलिए में उसकी प्रस्तुति इसलिए नहीं करते कि आप और हम ऐसा चाहते हैं. उनका खुद का भी यकीन इन सबमे होता है. नहीं तो एक तर्क तो साफ है न कि चैनल उसे ऐसा करने पर ही बने रहने देगा तो रोजी-रोटी पर लात मारकर कैसे प्रगतिशील बनें लेकिन सोशल मीडिया पर अगर ऐसा करने के पीछे कोई मजबूरी नहीं है तो भी कर रहे हैं इसका मतलब है कि वो इन सब पर यकीन करते हुए ऐसा ही करना चाहते हैं. लेकिन

कल को ऐसे ही कार्यक्रमों का पाखंड़ फैलाए जाने, अंधविश्वास और लोगों में वैज्ञानिक सोच को ध्वस्त करके अंधश्रद्धा का प्रसार के आरोप लगाकर विरोध होते हैं तो आप दर्शकों का इस्तेमाल इस रुप में होगा कि जब लोग देखना चाहते हैं तो हम क्या कर सकते हैं ? आप अपने उन तमाम चहेते टीवी एंकर, रिपोर्टरों पर नजर रखिए, उनकी फेसबुक वॉल और ट्विटर पर नजर बनाए रखिए, कल को काम आएगा ये पूछने में कि टीवी स्क्रीन पर तो पाखंड फैलाना आपकी मजबूरी है क्योंकि उसका संबंध चैनल की बैलेंस शीट से है लेकिन सोशल मीडिया पर उसी तरह कंजक पूजते-पुजवाते, धर्म के नाम पर लड़की बच्ची को भावनात्मक रुप से कुंद करने मरे हुए चमगादड़ों के माफिक रक्षा कवच लपेटने और तिलक लगवाने के पहले रुमाल रखने का जो कर्मकांड किया और बाकायदा उसकी तस्वीर चमका रहे हैं, उसके पीछे हम जैसों की इच्छा का क्या संबंध है ? कुछ नहीं तो एक सवाल तो बनता ही है कि क्या हम देश के धुरंधर एंकरों, रिपोर्टरों और मीडियाकर्मियों को इसी तरह बिना-सिर पैर के क्रियाकर्मों और पाखंड़ में फंसा देखना चाहते हैं या फिर उम्मीद करते हैं कि वो जो जैसा है, उससे अलग और बेहतर समाज के बारे में एक विकल्प दे. ये संभव है कि बेहद भारी-भरकम बात और कामना हो गयी लेकिन यही सवाल जब समाज के सिरे से उठाए जाएंगे तो ये पाखंड़ी मीडियाकर्मी आप दर्शकों को अंधविश्वासी, पिछड़ा और गंवार बताकर कॉलर, आंचल तानकर खड़े हो जाएंगे और प्रोग्रेसिव मसीहा बनकर पूरी बहस पर काबिज हो जाएंगे.

पिछले दिनों एक मीडिया सेमिनार में जब लंच के ठीक पहले हस्ताक्षर के लिए कागज घुमाए जा रहे थे और वो कागज जब मुझ तक आया तो मैंने भी नाम, मेल आइडी के साथ हस्ताक्षर कर दिया.. लंच ब्रेक होते ही कुछ लोगों ने मुझे घेर लिया और मजे लेने शुरु कर दिए- क्या विनीतजी, आपका भी नवरात्र चल रहा है, फेसबुक पर तो बड़े क्रांतिकारी बने फिरते हैं ? मैंने कहा, नहीं तो..आगे उनका जवाब था तो व्रतवाली थाली पर साइन कैसे कर दिए ? मैंने स्थिति साफ करते हुए कहा कि मैं तो उसे हाजिरी समझ रहा था और सच पूछिए तो यहां तक मैं सोच भी नहीं पाया कि किसी मीडिया सेमिनार में अलग से व्रत की थाली का इंतजाम होगा औऱ लोगों की धार्मिक भावनाओं का इस तरह का ख्याल रखा जाएगा..

नोएडा फिल्म सिटी चले जाइए, दोपहर से लेकर शाम तक मीडियाकर्मियों की बातों पर गौर कीजिए, विश्वविद्यालय चले जाइए..तथाकथित भविष्य गढ़नेवाले शिक्षकों के बीच थोड़ा वक्त बिताइए..बातचीत का बड़ा हिस्सा नवरात्र, खाने के परहेज और फलां-फलां चीजों की मनाही पर केंद्रित होगी..जैसे अचानक से शहर को किसी संक्रामक रोग ने घेर लिया हो जिसमे एक ही साथ दर्जनभर चीजें न खाने की मनाही हो और उससे दुगुनी दो दर्जन चीजें खाने पर जोर हो. इन दोनों सर्किट में सबसे ज्यादा प्रोग्रेसिव, प्रो ह्यूमन और भविष्य की दशा-दिशा समझने-समझाने के दावे किए जाते हैं लेकिन करीब से देखिए, उनकी पूरी जीवन पद्धति उन्हीं पाखंड़ों, घोर असहिष्णु और भाग्यवादी विधानों में उलझा है जिसके लिए वो कम पढ़े-लिखे, निरक्षर लोगों को कोसते आए हैं.

ऐसे में होता क्या है ? टीवी स्क्रीन पर वो खबरें, स्पेशल प्रोग्राम और हार्ड कोर न्यूज में भी अंध आस्था और पाखंड के रेशे तैरते हैं जिन पर कि मीडियाकर्मियों को यकीन है. मुझे नहीं पता कि ये मीडियाकर्मी पूरे नवरात्र के दौरान क्या न खाना है के साथ-साथ क्या-क्या खबर नहीं चलानी है का भी निषेध करते हों. इधर अकादमिक दुनिया का बड़ा हिस्सा उन्हीं बेसिर-पैर की मान्यताओं के आगे हथियार डालकर उसे आगे बढ़ाता नजर आता है, जिसके जाले साफ करने के लिए साल में उन्हें लाखों रुपये दिए जाते हैं. उन्हें आम लोगों के टैक्स के पैसे कतई इस बात के लिए नहीं दिए जाते कि वो छात्रों के बीच ऐसे पाखंड़ का प्रसार करें, उसके प्रति विश्वास को बढ़ाएं, ये काम तो देश के हजारों खोमचे टाइप के मंदिरों के साथ-साथ अन्डर्वल्ड की कोठियों की तरह बने भव्य मंदिर कर ही रहे हैं. उनका काम इससे अलग है और ये बताना भी कि इसका हमारे जीवन, पर्यावरण, सोचने के तरीके, संसाधनों के दुरुपयोग से किस तरह है.

लेकिन मीडिया और अकादमिक दुनिया दोनों मिलकर इस सिरे से बात न करके उन्हीं जालों को विस्तार देते हैं जो आगे चलकर धर्म और आस्था के नाम पर एक ऐसे समाज को पनपने देने में सहयोग कर रहे हैं जिसके भीतर हम जैसों को तो छोड़िए खुद उनके जीने लायक भी नहीं रह जाएगा..और ये संकट सिर्फ वैचारिकी का नहीं है. िइसका संबंध ठोस रुप से हमारे जीने की बुनियादी जरुरतों और प्राकृतिक साधनों से है. हवा में पटाखे जलाने, रंगों और बिजली का अत्यधिक इस्तेमाल करने से जो जहरीली गैस, हवा और ध्वनि का प्रसार हो रहा है, क्या उसका असर सिर्फ नास्तिकों पर होगा और जो श्रद्धा में आकंठ डूबे हैं, उन्हें प्रदूषण छोड़ देगा ? आज जो ये चैनलों के लोग फेसबुक पर रावण चलने-जलाने की तस्वीरें चमका रहे हैं, उन्हें तो अभी लग रहा है कि लोगों के बीच सिलेब्रेटी होने की ठसक पैदा कर रहे हैं कि वो कितने करीब से चीजों को देख पा रहे हैं लेकिन असल में वो कितने जड़ और दुर्भाग्य से ऐसे पेशे से जुड़े हैं जिस पर सिर्फ पेट भरने की जिम्मेदारी नहीं है, भूखे पेट के पक्ष से भी सोचने का है..लेकिन नहीं, वो उनके भूख के बारे में सोचेंगे, इससे पहले उनके बीच की शुद्ध हवा, पानी और परिवेश छीन ले रहे हैं.

मैं झारखंड़ से हूं. पांच साल रांची के संत जेवियर्स कॉलेज में पढ़ते हुए देर रात झुंड़ में आए उन्हीं आदिवासियों, कलाकारों को उनके घर तक छोड़ने का जब-तब मौका मिलता रहा जिन्हें बेहद पिछड़ा करार देकर दिल्ली में देखता हूं लाखों रुपये सेमिनार पर फूंके जाते हैं. मुझे ऐसे सेमिनारों के कर्णधारों पर बेहद ही अफसोस और कभी-कभी घृणा भी होती है कि ये सच से कितने दूर होकर चीजों को देख रहे हैं. त्योहार, परंपरा और संस्कृति के नाम पर यही आदिवासी अपने जंगल, जमीन और परिवेश को पर्यावरण की दृष्टि से कितने वैज्ञानिक ढंग से सोचते हैं, ये हमारे आपके-बूते की चीज नहीं है.. उनके त्याहारों में ये शामिल ही है कि सामान्य दिनों के मुकाबले प्रकृति और और कैसे जीवन का जरुरी हिस्सा के रुप में देखा-समझा जाए. हमारे अधिकांश त्योहार भी पौराणिक मान्यताओं और विश्वासों की बहस से थोड़ी देर अलगाकर देखें तो पर्यावरण और साफ-सुथरे वातावरण को विस्तार देने का ही थी लेकिन उन सबसे काटकर अब ये सिर्फ और सिर्फ प्रदूषण पैदा करने की फैक्ट्री में तब्दील होता चला गया.

हम मीडिया की कक्षाओं में अक्सर पढ़ाते हैं, अब खबरों की प्रकृति तेजी से बदल रही है. पहले की तरह नहीं है कि कोई खेल की खबर है तो वो आखिर तक खेल की ही रहेगी..उसमे थोड़े ही वक्त में बिजनेस और फिर राजनीति शामिल हो जाएगी और इस तरह वो हाइब्रिड बीट की खबर हो जाएगी. चैनल बाकी खबरों के साथ ऐसा करके दिखाते भी हैं लेकिन इस तरह के त्योहारों और धार्मिक पाखंड़ों में वो एकतरफा ही बने रहते हैं. अघर वो ऐसा न करके खबर की शिफ्टिंग करें, होली-दीवाली पर रंग और पटाखे की खपत के आंकड़े देने के साथ-साथ बाजार-दूकान सजने के पहले दिन से प्रदूषण बढ़ने की खबर, शहर को नरक और कूड़ाघर में तब्दील होने की खबर दें तो यकीन मानिए वो बहुत ही मजबूती से लोगों के बीच ये राय कायम कर सकेंगे कि धर्म के नाम पर हम जो कुछ भी कर रहे हैं दरअसल वो हम अपने लिए ही अर्थी साजने का काम कर रहे हैं..मतलब ये कि मीडिया में जो पर्यावरण कभी गंभीर मुद्दा नहीं रहा, वो ऐसे मौके पर एक अनिवार्य रिपोर्टिंग का हिस्सा बनकर सामने आ सकता है..लेकिन नहीं, हम उम्मीद किससे कर रहे हैं..उन्हीं मीडियाकर्मियों से जो बाबाओं को चैनल पर बुलाते हैं तो टीवी शो के लिए लेकिन लगे हाथ पूजा, सगाई और फ्लैट खरीदने के शुभ दिन भी पूछ लेते हैं और वाशरुम ले जाने के बहाने हाथ भी दिखला लेते हैं..
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आप कहते हैं हमारा मीडिया मैनेज्ड है, बिका हुआ है. राज्य टीवी से आए ज्ञानेन्द्र पांडेय ने तो यहां तक कहा कि संपादक दलाल हो गए हैं और वो अपने मालिकों के लिए टिकटों के लिए काम करते हैं..इस बात पर जो आगे चर्चा हुई और हमलोगों ने भी इसे ब्राक मीडिया के सुर्खियों में शामिल क्या तो अगले दिन के सत्र में दस फीसदी ठीक है, कहकर दुरुस्त किया. ये सारी बातें अपनी जगह ठीक है. लेकिन इस दिन के लिए अखबार निकालने के दौरान जो सवाल मेरे मन में बार-बार आता रहा, वो ये कि आप मीडिया को कितना आजाद और तटस्थ रहने देते हैं ? आप क्यों चाहते हैं को वो आपके इशारे, आपकी इच्छा और सुविधा के हिसाब से लिखे-बोले ? मैं तो बार-बार यही सोच रहा था कि ये अखबार तो सिर्फ कार्यशाला में हो रही बातचीत को छाप रहा है और पढ़े-लिखे, डिग्रीधारियों के बीच जा रहा है. इसमे अगर राजनीतिक खबरें आने लगे, स्थानीय मुद्दे उठाए जाने लगे और व्यवस्था की आलोचना होने लगे तब लोग क्या-क्या करेंगे ? ऐसे में आपका ये भ्रम बार-बार टूटेगा, छिजेगा कि पढ़े-लिखे समाज का बड़ा हिस्सा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और असहमति को गंभीरता से लेता है या उसे बचाए रखने की कोशिश में शामिल हैं.

अखबार की हार्ड कॉपी हमने किसी को भी फ्री में नहीं दी. सिर्फ दो प्रति विभाग को. बाकी टीम के लोगों के लिए. हम पैनड्राइव में इसकी प्रति लेकर घूमते थे. जिसे चाहिए, तुरंत ट्रांसफर कर लो..लेकिन फ्री की कॉपी न देने का अलग दवाब बना रहा जबकि हम जानते थे कि हमारे प्रशिक्षु पत्रकारों ने अपनी आइसक्रीम और कुलचे के पैसे बचाकर इस अखबार के लिए किया है, अगर फ्री में बांटने लगें तो अखबार लोगों के पैरों के नीचे होंगे..
इधर हमने पूरी तरह अपने मुताबिक छापने की कोशिश की. ये विभाग का अखबार नहीं था और न ही किसी तरह का हमने कॉलेज से सहयोग लिया था इसलिए हम औपचारिक खबरों को न छापने के लिए आजाद थे. हम सारे वक्ताओं को शामिल भी नहीं करते..जिनकी बात लगती कि लोगों के बीच जानी चाहिए, बस उन्हें ही जगह देते. बाद में स्पेस का दवाब बढ़ता गया तो प्रमोद जोशी, हिन्दुस्तान की पूरी बातचीत को एक छोटे  से बॉक्स में डालना पड़ गया, कईयों की बात रह गयी.

लेकिन हमने एक ही अंक निकालने के बाद देखा कि दोस्ती-यारी, औपचारिकता और बड़े-छोटे का संबंध जोड़कर ही सही, दवाब बनने शुरु हो गए. एक कॉलेज के शिक्षक ने अगले दिन भी जब अपनी कोई तस्वीर अखबार में नहीं देखी तो बिफरते हुए कहा- ये तो "यलो जर्नलिज्म है". हमलोग सुबह से इतना काम कर रहे हैं और आपने एक भी तस्वीर नहीं छापी. उन्होंने अपनी तस्वीर न छापे जाने के लिए जब यलो जर्नलिज्म यानी पीत पत्रकारिता का इस्तेमाल किया तो मुझे हंसी से कहीं ज्यादा अफसोस हुआ. लगा हम शब्दों को लेकर कितने लापरवाह और बर्बर समझ रखते हैं. कितने बड़े शब्द को इन्होंने कैसे रिड्यूस कर दिया ? इसी तरह हमारी ब्राक मीडिया टीम के प्रशिक्षु पत्रकारों से कुछ-कुछ बोलने और बच्चा-बच्चा बताकर दवाब बनाने की कोशिश करने लगे. लोगों की पूरी ट्रीटमेंट में कहीं से भी उन्हें एक उभरते मीडियाकर्मी होने का एहसास पैदा होने नहीं देना था.

तीन दिन का अखबार निकालना हमारे लिए लोगों को जानने का लिटमस पेपर जैसा रहा. हम बेहतर समझ पाए कि लोग किस तरीके से चीजों को लेते हैं. जो वो बड़े सदर्भों, सरोकार और समाज की दुहाई देते हुए चीजों का समर्थन और विरोध करते हैं, उसके पीछे उनकी कितनी तंग और पर्सनल कन्सर्न काम करते हैं. हम इस अखबार के लिए उनसे कुछ भी मांग नहीं रहे थे, किसी से एक रुपया लिया नहीं, विज्ञापन छापने का सवाल ही नहीं था. बस मीडिया के छात्रों को प्रिंट मीडिया के बीच व्यावहारिक समझ विकसित करनी थी..लेकिन इसी में हमने देखा कि लोग कैसे अपने तरीके से चीजों को मैनेज करने की कोशिश में जुट जाते हैं.

एक दूसरा वाक्या..जब हमने सख्ती से कहा कि हम किसी को भी अखबार फ्री में नहीं देते- आप हमसे इसकी सॉफ्ट कॉपी ले लीजिए तो उनका जवाब था- आप हमसे सौ,दो सौ बल्कि इस पूरे अखबार को निकालने में जितने पैसे खर्च हो रहे हैं, ले लीजिए लेकिन एक कॉपी तो चाहिए ही चाहिए. इससे खुश हुआ जा सकता है और फैलकर चौड़ा भी कि ये है इस अखबार की क्रेज लेकिन गौर करें तो क्या उनकी इस हरकत के पीछे खड़-खड़े खरीदन लेने या पैसे की ठसक दिखाकर कुछ भी, किसी भी तरह चीजों के हासिल करने की मानसकिता सामने नहीं आ जाती ?

टीवी चैनलों में जब भी किसी घटना या मोदी टाइप की रैली की धुंआधार एकतरफा कवरेज होती है, मैं फेसबुक पर लगातार स्टेटस अपडेट करने लग जाता हूं- अगर आप मीडिया को बहुत करीब से जानना-समझना चाहते हैं तो हम जैसे सिलेबस कंटेंट सप्लायर की क्लासरुम के भरोसे मत रहिए, आज लगातार पांच घंटे टीवी देखिए.आपको ज्यादा चीजें समझ आएगी. अखबार निकालने के अनुभव को मैं इसी बात की कड़ी के रुप में जोड़ना चाहूंगा- अगर आप लोगों की नब्ज को समझना चाहते हैं, वो कैसे मीडिया को लेते और अपने एजेंड़े शामिल होते देखना चाहते हैं तो कुछ मत कीजिए, दो-तीन दिन अखबार निकालिए.

मीडिया मंडी है, धंधा है, पैसे का खेल है..अब लगता है फिक्की-केपीएमजी,प्राइस वाटरकूपर्स, ट्राय और सेबी की रिपोर्ट, चैनलों की बैलेंस शीट और कंटेंट को देख-समझकर बता पाना फिर भी आसान है लेकिन मीडिया की आलोचना के लिए जुटाए गए तमाम तरह के औजारों के बीच लोगों को समझने के लिए ये काम बेहद जरुरी है. मुझे लगता है कि मीडिया की जब हम आलोचना कर रहे होते हैं तो एक किस्म से लोगों को क्लीनचिट भी दे दे रहे होते हैं लेकिन नहीं..अगर आप में से कुछ लोग अखबार निकालने का काम करते हैं और आपके जो अनुभव इस दौरान बने उसके दस्तावेज तैयार करते हैं तो एक नई चीज निकलकर आएगी.

ये बहत संभव है कि मेरे ये तर्क आपको फिर से वहीं ले जाए जैसा कि हमारे मीडिया के महंत आए दिन हमे समझाने में लगे होते हैं कि जब लोग देख रहे हैं, पढ़ रहे हैं तो तुम्हें क्या दिक्कत है ? लेकिन नहीं, ये वही तर्क नहीं है. ये तर्क के बजाय वो संकट है जहां आपने लगातार ऐसे मीडिया को फॉलो किया, उसके हिसाब से सोचना शुरु किया और उसके इतने अभ्यस्त हो गए कि अब जब कोई आपको अपने पैसे, समय और मेहनत लगाकर भी कुछ पढ़ने को उपलब्ध करा रहा है तो आप उसे मैनेज करने की कोशिश करते हैं..दरअसल हम जिस परिवेश में जी रहे हैं वहां निरपेक्षता और असहमति दो बेहद ही जरुरी लेकिन खोते जा रहे शब्द और प्रैक्टिस है..हम दर्जनों मीडिया कार्यशाला में शामिल और दीक्षित होने के बीच इसे बचा नहीं पाते हैं तो हम मैनेज्ड मीडिया के किसी न किसी तरह वाहक ही होंगे. लेकिन इन सबके बीच लगातार आ रहे मेल और अखबार की पीडीएफ कॉपी की मांग ये भी साबित करती है कि आप थोड़ा सी भी पैटर्न तोड़ने की कोशिश करें, कुछ अलग लिखने-प्रोड्यूस करने की कोशिश करें, लोगों की उम्मीद, उत्साह और जिज्ञासा खुलकर सामने आने लगती है..संभावना शायद इसी रुप में सक्रिय होती है.

( नोटः- पिछले 7-10 अक्टूबर तक दिल्ली विश्वविद्यालय की आर्ट्स फैकल्टी में अदिति महाविद्यालय और हिन्दी विभाग, डीयू के तत्वाधान में चार दिवसीय मीडिया कार्यशाला का आयोजन किया गया. इस दौरान हमारे कॉलेज भीमराव अंबेडकर कॉलेज, डीयू के मीडिया छात्रों ने ब्राक मीडिया नाम से रोजना एक अखबार निकाला. इसमे सिर्फ और सिर्फ कार्यशाला से जुड़ी बातचीत शामिल होती. अखबार के निकाले जाने के बीच सूत्रधार के रुप में मेरी जो भूमिका रही और जो अनुभव हुए, ये पोस्ट उसी पर आधारित है) 
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