सरदार वल्लभ भाई पटेल की दुनिया की सबसे बड़ी मूर्ति बनवाने की नरेन्द्र मोदी की घोषणा और शिलान्यास की जितनी व्याख्या और आलोचना हो रही है, उससे कई गुना ताकतवर ढंग से और लगभग एक उबाउ सामग्री की शक्ल में "स्टैच्यू ऑफ यूनिटी" के विज्ञापन उन तमाम चैनलों पर तैर रहे हैं, जो इस तरह की नरेन्द्र मोदी की स्ट्रैटजी की जमकर आलोचना कर रहे हैं. इस आलोचना के कई सिरे खुल रहे हैं जिसे हमारे एंकर रवीश कुमार स्यूडो काल से लूडो काल की सेक्लुरिज्म की संज्ञा देते हैं. हम इन बहसों में विस्तार में न जाएं तो भी एक बात स्पष्ट है कि बात कांग्रेस के पाले में रहकर की जा रही हो या फिर बीजेपी के, दोनों के हिसाब से सरदार वल्लभ भाई पटेल को स्वतंत्रता सेनानी और कद्दावर नेता के रुप में दिखाया-बताया जा रहा है और इस एजेंड़े पर देश की दोनों बड़ी पार्टियां( जनाधार के बजाय रियलिटी शो करने में भी) एक ही बिन्दु पर खड़े नजर आते हैं.
मैं इतिहास का न तो विद्यार्थी हूं और न ही इतिहास में मेरी कोई गति रही लेकिन इतना जरुर है कि इतिहास का जो-जो टुकड़ा मीडिया और संचार को छूता है, कोशिश रहती है कि उन सिरे को भी समझने की कोशिश की जाए. इसी क्रम में जब मैं अपनी पहली किताब मंडी में मीडिया लिख रहा था और आकाशवाणी के रुप में पहले चंद लोगों की कोशिशें और बाद में एक पब्लिक ब्राडकास्टिंग माध्यम के रुप में इससे गुजरने का मौका मिला तभी ऐसी बहुत किताबों और दस्तावेजों से गुजरने का मौका मिला जो लिखी तो गई थी बड़ी ही श्रद्धाभाव से और कहीं न कहीं सरकार को उपकृत करने की भी मंशा से जिसके बार में वक्त गुजरता है के लेखक और कमरे भर से शुरु हुए दूरदर्शन से जुड़े रहे विद्याधर शुक्ल ने इंटरव्यू की शक्ल में हुई फोन पर की बातचीत में कहा कि आपको आकाशवाणी या दूरदर्शन पर ऐसी कई किताबें मिलेंगी जिससे गुजरने के बाद आपको लगेगा कि आकाशवाणी और दूरदर्शन की ऑफिस के एचआर के कागज नत्थी कर दिए हैं. उसका आप क्या कीजिएगा.
इसी कड़ी में मुझे रासबिहारी शर्मा की लिखी एक किताब "आकाशवाणी" मिली. रासबिहारी शर्मा की किताब प्रकाशन विभाग से छपी है. हम पूरी किताब पर बात न भी करें तो इसी सरदार वल्लभ भाई पटेल की बतौर प्रथम सूचना एवं प्रसारण मंत्री के रवैये की चर्चा करें तो हमें ये समझने में दुविधा नहीं होगी कि आखिर क्यों नरेन्द्र मोदी को सरदार वल्लभ भाई पटेल पसंद हैं. रासबिहार शर्मा ने लिखा है-
देश के स्वतंत्र होने के पूर्व आकाशवाणी पर संगीत कार्यक्रम प्रायः तवायफों और मिरासियों द्वारा प्रस्तुत किए जाते थे. बहुत से लोग नहीं चाहते थे कि इतनी उत्कृष्ट कला ऐसे लोगों द्वारा प्रस्तुत की जाए जिनका निजी जीवन अच्छा न हो. देश के स्वतंत्र होने के बाद जब सरदार वल्लभभाई पटेल ने सूचना मंत्री का पद संभाला तो उन्होंने निर्देश जारी किया कि जिनके निजी जीवन सार्वजनिक रुप से अफवाहें जुड़ीं हों, उन्हें प्रसारण की अनुमति न दी जाए. इस आदेश पर तात्कालिक परिणाम यह हुआ कि नाचने-गानेवाली लड़कियां, जिन्हें 'बाईजी' कहा जाता था, रेडियो पर कार्यक्रम देने से रोक दी गई. उनकी जगह नए-नए कलाकार आने लगे.
सरदार पटेल के ऐसा करने के पीछे तत्कालीन समाज का एक नैतिक आग्रह जरुर रहा हो लेकिन इस आग्रह के कारण संगीत की एक बहुत बड़ी लोकप्रिय विधा खो रही थी, इस पर ध्यान नहीं दिया गया. 1952 में जब जॉ. केसकर सूचना प्रधानमंत्री बने तो संगीत कार्यक्रमों की एक निश्चित रुपरेखा तैयार की गई.
जो लोग अस्मितामूलक विमर्श और सब्लार्टन हिस्ट्री में दिलचस्पी रखते हैं, उन्हें ये अलग से बताने की जरुरत नहीं है कि पटेल के इस फैसले का क्या आशय बनता है और ऐसा करके उन्होंने न केवल एक जनवादी कला बल्कि एक उस जनसमुदाय को माध्यम की मुख्यधारा से बेदखल कर दिया जिसका मुरीद जमाना लंबे समय से रहा है बल्कि ये वही समुदाय रहा है जिनके पास घराने के लोग तहजीब सीखने भेजा करते थे.
अब जबकि नेहरु के बरक्स पटेल को खड़ा करने की एक नई कवायद जाहिर है नरेन्द्र मोदी की तरफ से शुरु हुई है और फिजा में ये बातें भी तैरने लगी है जो कि मोदी का ही वर्जन है कि पटेल को वाकायदा प्रधानमंत्री होना चाहिए था..प्रधानमंत्री तो दूर, एक मीडिया के छात्र होने के नाते हम तो ये कहना चाहते हैं कि क्या इस समझ के साथ पटेल को देश का प्रथम सूचना एवं प्रसारण मंत्री होना चाहिए था और उन्होंने ऐसा करके जो किया वो स्थिर होकर सोचें तो सही है ?
नायकों को खड़े करने और स्थापित को ध्वस्त करने की इस आपाधापी के बीच क्या ये सवाल नहीं है कि जब देश की ये राजनीतिक पार्टियां अपने तरीके से विज्ञापनों के लिए इतिहास के चेहरे का इस्तेमाल कर रही हैं, कि आप इन इतिहास के चेहरे को इस नजरिए से नहीं देखा जाना चाहिए कि जिस मंत्रालय से वो जुड़े, उसमें क्या और कैसे-कैसे फैसले लिए ?
माफ कीजिए, आपको जितना मन करे, पटेल के कद को उंचा करें..टीवी पर मिक्स वेज बनना-बनाना जारी रहेगा लेकिन नरेन्द्र मोदी विज्ञापन में जिस किसान-मजदूर से औजार का लोहा देकर योगदान देने की बात कर रहे हैं, मैं एक छात्र की हैसियत से अपनी कलम की निब बराबर भी लौहा नहीं दूंगा..इसलिए नहीं कि मैं इस तरह की मूर्ति, पाखंड और स्वयं नरेन्द्र मोदी से घोर असहमति रखता हूं बल्कि मैं बतौर सू. एवं. प्र. मंत्री पटेल के इस रवैये से घोर असहमति रखता हूं..हम ऐसे मंत्री की दुनिया की सबसे बड़ी मूर्ति कभी नहीं चाहता, उनकी मूर्ति मेरे भीतर ही बहुत पहले खंडित हो चुकी है.