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अबकी बार लगता है बालगोपाल की यूनिफार्म 84 कोस के पेंडिग झंड़े और कांवडिया इन्डस्ट्री के बच गए कपड़े से बनी है. पूरी दिल्ली की दूकानें  इस बार कृष्ण जनमाष्टमी के मौके पर बालगोपाल की यूनिफार्म से अटी पड़ी है लेकिन खास बात है कि ज्यादातर जगहों पर इसका रंग दकदक पीले से खिसककर थोड़ा और गाढ़ा यानी भगवा हो गया है. विंडो 7 या 8 में जो रंग दिए गए हैं, अगर आप हल्दी पीले या लेमन यलो से कर्सर आगे की ओर बढ़ाएंगे तो रंग भगवा की तरफ बढ़ता चला जाएगा. मुझे याद है कि मंदिरों में ज्यादातर कृष्ण की पोशाक का रंग पीला ही हुआ करता है. कहीं-कहीं राधा रानी से जोड़ी मिलाने के फेर में सफारी सूट जैसा दोनों का एक ही रंग यानी मरुन या रानी कलर( लाल). क्या ये अचानक है कि अब धीरे-धीरे हर तीसरे हिन्दू प्रतीक पोशाक का रंग भगवा के आसपास होने लग गए हैं. हम बचपन में देवताओं के जो पर्यायवाची याद किया करते थे उनमें से एक रंग के आधार पर भी पर्याय हुआ करता था. मसलन- 

नीलांबर,श्वेताबंर,पितांबर आदि..अब रंगों की बहुलत बहुत तेजी से खत्म हो रही है. याद कीजिए राम जन्मभूमि के राम की पोशाक का रंग- भगवा. इससे पहले यानी बाबरी मस्जिद ध्वंस की तैयारी के पहले मैंने किसी भी मंदिर में राम की पोशाक का रंग भगवा नहीं देखा. रामानंद सागर के रामायण यानी दूरदर्शन मार्का राम के भी पोशाक उपर और नीचे अलग हुआ करते थे. हां ये जरुर है कि वनवास गमन में राम सहित सीता और लक्ष्मण के पोशाक भगवा हो गए थे. लेकिन उससे पहले या बाद में नहीं.

अब जबकि ऐसे रंग महज उत्सवों के प्रतीक भर नहीं रह गए हैं, उनका राजनीति से गहरा संबंध बनता जा रहा है..क्या ऐसा नहीं है कि हिन्दू उत्सवों के बीच से रंगों की ये तेजी से खत्म होती बहुलता दरअसल सारे त्योहारों को एक खास रंग में रंगकर मनाने की प्रक्रिया का शुरुआती दौर है. संभव है आज इन पोशाकों को पहनकर बच्चे बालगोपाल कम, बाल तोगड़िया, बाल सिंघल और बाल मोदी ज्यादा दिखें और धीरे-धीरे उनके हाथ में माखन की जगह त्रिशूल और चक्र आ जाए जैसे होली में वाशर की पिचकारी हाथों से छिटककर कब उसमें कब स्टेनगन,एके 47 आदि( प्लास्टिक की ही सही) थम गए, पता ही नहीं चला. आप राह चलती लड़कियों,बुजुर्गों पर इन पिचकारियों से धार मारने के दौरान उसके चेहरे की एक्सप्रेशन पर गौर कीजिएगा. लगेगा कि हर सफेद झकझक, या दूसरे रंग की साफ पोशाक पहनी लड़की, बुजुर्ग वैसे ही है जैसे बटालिक सेक्टर पर खड़े हमारे सैनिकों को उसके पार के लोग दिखाई देते हैं.

बुरा मत मानिएगा, लेकिन घोर नास्तिक होते हुए भी बच्चे जब फैन्सी ड्रेस कॉम्पटीशन और कृष्ण जनमाष्टमी के दौरान रब्बड नॉट रबर लगी धोती और कुर्ते पहना करते हैं तो बहुत स्वीट लगा करते हैं लेकिन इस पेंडिंग और बचे रंगों से बने कपड़े में ऐसे लगेंगे जैसे कि नरेन्द्र मोदी के पुराने कुर्तों से काटकर उनकी यूनिफार्म सिल दी गई हो. सच पूछिए तो कृष्ण जन्माष्टमी में इस भगवे रंग का कोई काम ही नहीं है. ये इस त्योहार के लिए गैरजरुरी रंग है. पिछले साल तक तो टीवी पर के बालगोपाल पीले रंग में ही थे, अक्षरा( ये रिश्ता क्या कहलाता है) के बालगोपाल भी. इस साल देखते हैं कल सास,बहू और साजिश और सास बहू और बेटियां के खास एपीसोड में किस रंग में दिखाए जाते हैं ?
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आप अपना इस्तीफा खुद लिख कर मेल के जरिए देंगे या फिर मैनेजमेंट ने आपके लिए जो इस्तीफा पहले से तैयार किया हुआ है, उस पर हस्ताक्षर करेंगे? ‘आजादी का जश्न’ पर दर्जनों पैकेज और विशेष रपट बनाने वाले नेटवर्क-18 के तीन सौ से ज्यादा मीडियाकर्मियों को सोलह अगस्त के दिन यही दो विकल्प दिए गए थे। वैसे तो इसके चैनलों ने मंदी की मार पर विशेष रपट प्रसारित करते हुए सोलह अगस्त को ‘काला शुक्रवार’ और ‘ब्लड बाथ डे’ जरूर कहा, लेकिन अपने संस्थान के बारे में एक पंक्ति की खबर नहीं दी, जो कि स्वाभाविक ही है!
संस्थान की ओर से किसी भी तरह के आधिकारिक बयान न दिए जाने के बावजूद मीडियाकर्मियों के बीच यह बात प्रसारित होती रही कि ऐसा घाटे की भरपाई, खर्च में कटौती और आने वाले समय में अंग्रेजी, हिंदी और बिजनेस चैनल के अलग-अलग काम के लिए रखे गए मीडियाकर्मियों के बजाय एक ही से सबके लिए काम लेने की योजना है। इसका मतलब है कि अभी तक अगर एक खबर या कार्यक्रम के लिए सीएनएन आइबीएन, आइबीएन 7 और सीएनबीसी आवाज के लिए अलग- अलग रिपोर्टर-प्रोड्यूसर लगाए जाते रहे हैं, तो अब उसकी जरूरत नहीं है। ऐसा होने से समूह के भीतर काम के स्तर पर हिंदी-अंग्रेजी और बिजनेस चैनल का विभाजन खत्म हो जाएगा। इधर मुख्यधारा मीडिया की गहरी चुप्पी के बीच नेटवर्क-18 के इस रवैए को लेकर सोशल मीडिया पर चर्चाएं छिड़ीं और कुछ इस तरह जोर पकड़ा कि वर्चुअल स्पेस का प्रतिरोध नोएडा फिल्म सिटी में सीएनएन आइबीएन कार्यालय के आगे धरना-प्रदर्शन के रूप में तब्दील हो गया। उसमें इस मामले को इस तरह भी देखने की कोशिश की गई कि ऐसा करने के पीछे नरेंद्र मोदी के पक्ष में माहौल बनाने का राजनीतिक एजेंडा हो। ऐसा इसलिए कि मुकेश अंबानी का नरेंद्र मोदी को खुला समर्थन मिलता रहा है और उनकी कंपनी ने इस समूह में करीब सोलह सौ करोड़ रुपए निवेश किए हैं। बहरहाल, इस कयास में कितना दम है, इसे नेटवर्क-18 समूह की ओर से प्रसारित सामग्री और खबरों को लेकर संपादकीय रवैए के विश्लेषण से जोड़ कर समझना श्रमसाध्य काम है।
सोलह अगस्त को नेटवर्क-18 में भारी पैमाने पर जो छंटनी हुई, उसका मजमून पिछले साल ही तैयार किया जा चुका था। करीब पांच सौ करोड़ रुपए के कर्ज में डूबी, लड़खड़ाती राघव बहल की कंपनी नेटवर्क-18 ने तीन जनवरी को प्रेस विज्ञप्ति जारी कर अचानक घोषणा की कि वह कर्ज मुक्त होकर न केवल इस देश की सबसे अमीर नेटवर्क कंपनी हो गयी है, बल्कि इस बीच उसने इक्कीस सौ करोड़ रुपए से ज्यादा लगा कर इटीवी का भी अधिग्रहण कर लिया है। प्रेस विज्ञप्ति के शुरू के तीन पैरै तक यह बिल्कुल समझ नहीं आता कि यह करिश्मा कैसे हुआ, लेकिन आगे कंपनी ने विस्तार से बताया है कि उसका रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड की सहयोगी कंपनी इंफोटेल के साथ व्यावसायिक समझौता हुआ।
इन्फोटेल ब्रॉडबैंड से जुड़ी कंपनी है, जो 4-जी के जरिए अपना विस्तार पैन इंडिया कंपनी के तौर पर करेगी। आने वाले समय में इंटरनेट के जरिए लाइव टीवी की लोकप्रियता तेजी से बढ़ने की स्थिति में दोनों को इसका सीधा लाभ मिलेगा। इन्फोटेल नेटवर्क-18 की सारी सामग्री का इस्तेमाल करेगी और इधर नेटवर्क-18 को इंटरनेट, मोबाइल, टीवी के बाजार में घुसने में मजबूत कंपनी का साथ मिलेगा। इन दोनों के बीच नरेंद्र मोदी के वर्चुअल स्पेस को लेकर दावे और जनाधार के आसपास देखने की कवायद को लेकर कयास और तेज होंगे। इस करार के दौरान इन दोनों कंपनियों की ओर से नेटवर्क-18 के भविष्य को लेकर जो बातें कही गर्इं, वे कम दिलचस्प नहीं हैं।
प्रेस विज्ञप्ति में कंपनी के सर्वेसर्वा राघव बहल का कहना था कि नेटवर्क-18 के लिए यह गर्व का विषय है कि हम पूरी तरह कर्जमुक्त हैं और अब पैसे की चिंता छोड़ कर हमारा पूरा ध्यान सिर्फ सामग्री के स्तर पर अपने को मजबूत करने पर है। उधर रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड ने अपनी ओर से जारी प्रेस विज्ञप्ति में कहा कि कंपनी को राघव बहल और उनकी टीम पर पूरा भरोसा है, इसलिए इसके साथ किसी भी तरह की छेड़छाड़ नहीं की जाएगी।
समूह की व्यवस्था किसी तरह बाधित न हो, इसके लिए कंपनी ने सीधे निवेश के बजाय स्वतंत्र रूप से एक ट्रस्ट का गठन करके किया है, जो कंपनी का लाभ देखते हुए उसके दबाव में नहीं होगा। इन दोनों प्रेस विज्ञप्तियों के हिसाब से देखें तो तीन सौ से ज्यादा लोगों की रातोंरात हुई छंटनी के पीछे न तो रिलायंस इंडस्ट्रीज की कोई भूमिका है और न नेटवर्क- 18 ने घाटे की भरपाई के बजाय सूचना और सामग्री संग्रह के तरीके में बदलाव के लिए ऐसा किया है। यह अलग बात है कि नेटवर्क-18 दूसरे मीडिया समूहों की तरह ही ट्राई के उस निर्देश को छंटनी का आधार बनाता जान पड़ रहा है, जिसके तहत एक घंटे में बारह मिनट से ज्यादा विज्ञापन न दिखाए जाने की बात कही गई है। इसे अक्तूबर 2013 तक हर हाल में लागू किया जाना था, मगर अब उसे दिसंबर 2014 तक टाल दिया गया है। मीडिया समूहों का तर्क है कि उनके कुल राजस्व का नब्बे फीसद विज्ञापन से आता है और अगर यह कम होता है तो भारी नुकसान का सामना करना पड़ेगा, जिसके लिए वे तैयार नहीं हैं। यह अलग बात है कि दस साल पहले बने इस बारह मिनट के प्रावधान की जम कर धज्जियां उड़ाई जाती रही हैं और इस बीच टीवी चैनलों ने विज्ञापन के वे तमाम फार्मूले और फार्मेट खड़े कर लिए हैं, जो अवधि के दायरे में नहीं आते हैं।
करार के बाद दोनों कंपनियों की प्रेस विज्ञप्ति और सोलह अगस्त को की गई छंटनी को आमने सामने रख कर देखें तो यह स्पष्ट है कि नेटवर्क-18 खुद को इन्फोटेल के लिए ‘कंटेंट प्रोवाइडर’ के रूप में बदलने की कोशिश में है। ऐसे में उसका कॉरपोरेट मीडिया संस्थान के बजाय इन्फोटेल लाइव टीवी का धंधा चमकाने के लिए डाटाबेस कॉरपोरेट कंपनी के फार्मूले पर काम करना स्वाभाविक है। संभव है कि नेटवर्क-18 अपने ढांचे को समेट कर और छोटा करे (बंगलुरु ब्यूरो खत्म करना उसी की एक कड़ी है) और मीडिया का काम डेस्क तक सिमटता चला जाए। यानी मीडिया का पुराना साइनबोर्ड लगा कर यह समूह भीतर- भीतर अपने धंधे को तेजी से बदल रहा है। इस नए धंधे में पहले के मुकाबले काम तो कम नहीं होंगे, लेकिन लोगों की जरूरत कम कर दी जाएगी। वह सामग्री और विश्लेषण के स्तर पर सिकुड़ता चला जाएगा। ऐसा होने से भाषाई अस्मिता और क्षेत्रीय पत्रकारिता का चरित्र बुरी तरह प्रभावित होंगे और इटीवी की भूमिका, जिसकी पहचान क्षेत्रीय और विविध स्तर की पत्रकारिता की रही है, डैमेज कंट्रोल से अधिक नहीं रह जाएगी। इस बीच रिलायंस इंडस्ट्रीज ने क्रॉस मीडिया ओनरशिप को लेकर संभावित झंझटों को बेहतर समझा है। हालांकि सितंबर, 2011 में सरकार ने इससे संबंधित विधेयक लाने की घोषणा की तो थोड़ी-बहुत सुगबुगाहट के बाद यह मामला थम गया। मगर इसने इस रणनीति को अभी से अपना लिया है कि आने वाले समय में एक ही उद्योग घराने का कई दूसरे धंधों के साथ मीडिया संस्थान चलाना मुश्किल हो, इसके पहले ही स्वतंत्र प्रतिष्ठान खड़ा करने से बेहतर है पहले से साख अर्जित किए मीडिया संस्थान में निवेश करना। गौर करें तो दोनों वही कर रहे हैं, जिसके लिए उन्होंने करीब डेढ़ साल पहले मसविदा तैयार किया था। मगर व्यावसायिक रणनीति की यह पूरी बहस क्रॉस मीडिया ओनरशिप के चोर दरवाजे और जो कॉरपोरेट बादशाह है, वही मीडिया मुगल भी है और संभवत: वही लोकसत्ता का निर्धारक भी, में न जाकर मीडिया की नैतिकता पर आकर टिक गई है, जो कि अप्रासंगिक है।
(मूलतः जनसत्ता में प्रकाशित)
खेद एवं टिप्पणी- जनसत्ता में प्रकाशित लेख में ट्राय की जगह सेबी और साल 2013,14 की जगह 2012 छपा है. ये दोनों चूक मेरी ओर से हुई है, इसके लिए माफी. लेख प्रकाशित होने तक नेटवर्क 18 से 60 और लोगों की छंटनी हो गई है. 
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आज के तमाम अखबारों में मुंबई की फोटो जर्नलिस्ट के इस बयान की साफ-साफ और विस्तार से चर्चा है जिसमे उसने कहा है कि रेप के बाद जिंदगी खत्म नहीं हो जाती, वो जल्द ही काम पर वापस लौटेगी. इलाज की प्रक्रिया से गुजर रही इस युवा पत्रकार के साहस की कहानी ठीक वैसी नहीं है जैसा कि पीड़िता मानकर बलात्कार की शिकार हुई लड़की को मीडिया पेश करता आया है. इस बयान के पहले उसने पुलिस से शिकायत करके जो साहस और एक नागरिक होने की जिम्मेदारी का परिचय दिया है, उसकी कहानी ऐसी दर्जनों घटनाओं से बिल्कुल जुदा है..उसके बाद जिंदगी के प्रति यकीन को लेकर इतनी विकट परिस्थिति में भी ऐसा जीवट बयान...न्यूज चैनलों को इसके कुछ मायने समझ आते भी हैं या बिल्कुल सपाट है ?

इस पत्रकार के बयान से देश की न जाने उन कितनी लड़कियों/स्त्रियों के बीच आत्मसम्मान और जीवन के प्रति अनुराग का भाव पैदा हुआ होगा जो अपने साथ इस तरह की हुई घटना को लेकर मानसिक पीड़ा से गुजरती रहीं है. फेसबुक पर से गुजरते हुए भी लगा कि उसके इस बयान से मीडिया द्वारा बना और घिस दी गई छवि से कितनी अलग एक लड़की की छवि बनती है. इस खुशी को साझा करते हुए स्वर्णकांता( Swarn Kanta) ने लिखा-

"आज सुबह सुबह अखबार की इस लाइन पर नजर पड़ते ही...मन सुकून से भर गया...जी ने चाहा उसका माथा चूम लूं...
"बलात्कार से जीवन खत्म नहीं हो जाता." ये लाइन किसी समाज सेविका या कार्यकर्ता ने नहीं खुद पीड़िता ने बोला है...मुंबई गैंग रेप की शिकार पीड़िता ने...
शुक्र है, कुछ बदलाव तो आ रहे हैं."  

लेकिन इसी खबर को लेकर जब न्यूज 24 पर थोड़ी देर के लिए रुका तो देखा कि उसके रवैये में किसी भी तरह का फर्क नजर नहीं आया है. आज से दो दिन पहले उसने जिस तरह से आसाराम बापू की शिकार हुई 15 साल की लड़की(आरोप के आधार पर) को दिखाने के लिए 16 दिसंबर की पुरानी स्टि्ल्स का इस्तेमाल किया जिससे वो लड़की निरीह,लाचार और बेबस नजर आती है, वही स्टिल्स मुंबई की इस फोटो पत्रकार के लिए भी इस्तेमाल किया.

सवाल फिर वही है जो 15 साल की लड़की को दिखाने-बताने के दौरान हमने उठाए थे कि अगर वो अपने साथ हुई इस घटना की एफआइआर दर्ज कराती है तो उसकी तस्वीर घुटने में सिर छिपाए, शर्म से गड़ जानेवाली क्यों होनी चाहिए ? ठीक उसी तरह 22 साल की एक फोटो जर्नलिस्ट अगर अपने साथ हुई इस घटना की न केवल शिकायत दर्ज कराती है बल्कि अपनी जिंदगी के बेहद ही नाजुक मोड़ पर खड़ी होने पर भी जिंदगी के खत्म न हो जाने और वापस जल्द ही काम पर लौटने की बात करती है तो चैनल को ये अधिकार किसने दिया कि उसे वो उसी तरह शर्म से गड़ी, घुटने में सिर छुपाए,दिखाए. एंकर को ये अधिकार किसने दिया कि वो इस वॉल के आगे खड़े होकर घटना को लेकर तथ्यात्मक बात करने के बजाय रायता फैलाए ? यकीन कीजिए, ऐसे चैनल और मीडिया स्त्री मुक्ति और स्वतंत्रता के नाम पर चाहे जितनी पैकेज बना ले, इनकी जीन में सामंती और मर्दवादी सोच कूट-कूटकर भरे हैं जो कि बहुत साफ दिखाई देते हैं. इनकी पूरी मानसिकता इस बात से अटी पड़ी है कि स्त्री हर हाल में लाचार और कमजोर होती है. कहीं ऐसा तो नहीं कि तमाम सकारात्मक बदलावों के बीच भी चैनल स्त्री को अपने इस साहसिक,जीवट रुप में देखने के लिए तैयार नहीं है ? कहीं ऐसा होने पर उसे अपनी दूकान बंद होती तो नजर नहीं आती ?

न्यूज 24 से कुछ नहीं तो एक बार तो पूछा ही जा सकता है कि जो लड़की समाज में होनेवाले तमाम संभावित भेदभाव,उपहास और यातना को नजरअंदाज करके फिर से जीने और काम पर लौटने की बात बिस्तर पर पड़े-पड़े कर रही है, उसकी यही छवि होगी कि शर्म और अपमान से, हथेलियों से आंख ढंक ले ?
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कुछ दिनों पहले म.गां.अं.वि. वर्धा से सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी का मेल आया कि आगामी होनेवाले ब्लॉग कार्यक्रम में आपको मुख्य वक्ता और पैनलिस्ट के रुप में आना है. लिखा- आपको कार्यक्रम की जानकारी तो होगी ही, नहीं तो हायपर लिंक पर चटकाकर देखे जा सकते हैं. इन दिनों इंटरनेट पर न के बराबर आने से अपडेट नहीं हो पाया था. खैर, इस विश्वविद्यालय ने जब इलाहाबाद में पहली बार ऐसा आयोजन कराया था तो मैं उसका हिस्सा था. तब ब्लॉग नया-नया था और हम तकनीकी रुप से काफी कमजोर भी थे. दूसरी बार हम आमंत्रित नहीं थे जो कि स्वाभाविक ही था. आगे जो संदेश हमें भिजवाए गए उसने बेहतर स्पष्ट किया कि- विनीत जैसे लोगों को बुलाने से दिक्कत हो सकती है. खैर, इस बात ये इतना अस्वाभाविक हुआ कि न केवल हमें बुलाया गया बल्कि मना करने की स्थिति में ये भी कहा कि आप नहीं आ पा रहे हों तो अपने कुछ उन लोगों के नाम सुझाएं जिन्हें लेकर आपको लगता है कि बुलाया जाना चाहिए. इस पर हम कुछ अपनी बात करते कि आयोजक ने एक लंबी सी पोस्ट तान दी जिसकी अंडरटोन है कि ऐसे कैसे संभव हैं कि हम बुलाएं और आप न आएं. शीर्षक ऐसे उत्तर-आधुनिक डाले गए कि धुंआधार हिट्स मिले, अपनी ही पीठ पर कोड़े मारकर हिट्स बटोरु- सेमिनार फ़िजूल है: विनीत कुमार 

मुझे इस बात का रत्तीभर भी अंदाजा नहीं था कि जिस ब्लॉग कार्यक्रम को यज्ञ करार देकर अपनी-अपनी आहुति देने की डंका पिटी जा रही हो, उसके शुरु होने के एक महीने पहले ही पहली आहुति मेरी ही दे दी जाएगी. हम सच में ऊब गए हैं ब्लॉग सम्मेलनों,सेमिनारों,परिचर्चा की दालमखनी से.हमे ये शादी-ब्याह,गोदभराई,जनेऊ में जाने जैसा झेल काम लगता है.( गिनती के दो-चार में ही जाकर). फिर अगर किसी संस्था का कभी न बुलाना,कभी बुलाना जितना स्वाभाविक और उनकी मर्जी है, उतना ही स्वाभाविक और जाने से मना कर देना वक्ता की भी..अब इसे लेकर इस तरह चाबुक मारने की क्या जरुरत है. लिहाजा, अपनी चुप्पी तोड़ते हुए मुझे सिद्धार्थजी को लिखना जरुरी लगा-

सिद्धार्थजी, अगर मुझे इस बात का अंदाजा पहले से होता कि आपके दो राउंड फोन किए जाने के दौरान हुई बातचीत को इस तरह से लिपिबद्ध करेंगे तो मैं आपको इतनी मेहनत करने देने के पहले सारी बातें खुद ही विस्तार से लिखकर मेल करता लेकिन आपकी तत्परता ने ऐसी स्थिति आने नहीं दी. आपने कुल तीन बार जो फोन किए,वो तीनों बार बातचीत करने की स्थिति नहीं थी. एक बार भारी बारिश में फंसा, दूसरी बार बस के लिए भागता हुआ और तीसरी बार चोरी में वॉलेट गंवाकर घर में थोड़ा परेशान लेकिन मैंने बिना किसी दुराव-छिपाव के अपनी बात रखी. खैर, इससे मेरी वैचारिकी में बिल्कुल भी फर्क नहीं पड़ता और मैं सचमुच इस तरह के आयोजन के सीधे-सीधे खिलाफ न भी कहें तो अपने को दूर रखता हूं.

आपको मेरे इलाहाबाद आने का प्रसंग बेहतर याद है और मुझे उतना ही दूसरे सम्मेलन में न बुलाए जाने की आपके विश्वविद्यालय की वाजिब वजह कि विनीत जैसे लोगों को बुलाने से दिक्कत हो सकती है. मैं नहीं समझ पाया कि वर्धा विश्वविद्यालय जो अपने पुलिसिया रवैया के लिए कुख्यात रहा है, इस बार इतना लोकतांत्रिक कैसे हो गया कि आप न केवल बार-बार आग्रह करके मन बदलने की बात कर रहे हैं बल्कि मेरे न आने की स्थिति में मुझसे ये भी पूछ रहे हैं कि आप कुछ उन नामों का सुझाव दें जिन्हें बुलाया जा सके. सिद्धार्थजी, शुरुआत के एक-दो ब्लॉग सम्मेलनों और कार्यक्रमों में मैंने जरुर हिस्सा लिया और उसकी अपनी वजह भी रही..पहली तो ये कि तब ये बिल्कुल नया था और हम रवि रतलामी जैसे लोगों से तकनीकी रुप से कुछ अतिरिक्त सिखना चाहते थे.हालांकि अभी भी सीखा जा सकता है लेकिन ये बाद शिद्दत से महसूस करता हूं कि ब्लॉग लेखन के लिए जितनी तकनीकी समझ की जरुरत होती है, वो काम चलाने लायक कर ले पा रहा हूं.
दूसरा कि हमने ये बात ऐसे एक-दो कार्यक्रमों में जाने के बाद अंदाजा लगा लिया कि बात चाहे जो भी और विषय चाहे जैसे भी रखे जाएं, आखिर तक आते-आते उसकी दालमखनी( मां की दाल) ही बन जाती है. हम ठहरे दीहाड़ी चाहे वो पढ़ाने को लेकर हो या फिर पत्रिकाओं में लिखने या उन चैनल की परिचर्चाओं में शामिल होने की जिसकी चर्चा आपने मेरी तारीफ में उपर की है. हम इन कार्यक्रमों के अभ्यस्त नहीं हो पाए. मुझे बेहद अफसोस है कि मैंने जिस शालीनता और भावनात्मक अंदाज में अपने न आने की वजह बतायी, आपने उसे ऐसी शाब्दिक अभिव्यक्ति दी कि जैसे कोई कंसपिरेसी का हिस्सा हो.आपका दूसरे ब्लॉग सेमिनार या सम्मेलन में मुझे न बुलाना और बैकडोर से संदेश भिजवाना जितना स्वाभाविक था, उससे कहीं ज्यादा स्वाभाविक तो ये है न कि आपने मना करने के ठीक बाद पूछा- आपके पास समय नहीं है या फिर आना ही नहीं चाहते और मैंने बड़ी स्पष्टता से कहा- आप यही समझ लीजिए कि हम आना ही नहीं चाहते. आपने बात आगे बढ़ाई और मैंने ब्लॉग के पूरे परिदृश्य को लेकर इसके पीछे की वजह बतायी कि मैं ब्लॉग के इस विकसित रुप के बीच सम्मेलन किए जाने या जुटने के सैद्धांतिक रुप से पक्ष में नहीं हूं..मेरे मना करने के बाद आपने खुद ये प्रस्ताव रखा कि कल आपको फोन करता हूं, शायद आपका मन बदले. आपने फोन किया और आखिर-आखिर तक हमने यही कहा कि नहीं मुझे रहने दें

हमारी बातचीत इस बिन्दु पर आकर खत्म हो गयी कि आपकी इस संबंध में जो भी राय है, उसे आप हमें लिखकर भेजेंगे और साथ ही आप कुछ उन ब्लॉगरों के नाम सुझाएंगे जिन्हें लेकर आपको लगता है कि उन्हें बुलाया जाना चाहिए. ये बेहद स्वाभाविक है. मेरे पास जब कभी फिल्म पर, साहित्यिक पत्रिका में लिखने के संदेश आते हैं मैं बहुत ही सहज भाव से मना कर देता हूं कि मैं अलग से आपके लिए कुछ नहीं लिख सकता..आगे वो कुछ लोगों के नाम बताने की बात करते हैं और हमें लगता है तो बता देते हैं. इसे मैं साझेदारी का हिस्सा मानता हूं. मुझे लगा कि आप मेरे ब्लॉग सम्मेलन संबंधी राय के भेजे जाने का थोड़ा वक्त देंगे लेकिन आपकी तत्परता आपको रोक नहीं पायी..कोई बात नहीं.

मैं अब भी मानता हूं कि ब्लॉग की असल ताकत, पहचान और क्षमता वर्चुअल स्पेस पर लिखे जाने की सक्रियता से है. शुरुआत में इसकी संभावना को लेकर दालमखनी बनते थे और अभी दस साल भी नहीं हुए कायदे से कि चुनौतियों पर चर्चा शुरु हो गई. मुझे लगता है कि हम साहित्य की वही बासी बहसें यहां लाकर पटक दे रहे हैं. दूसरा कि पता नहीं कौन-कौन से मनीषी रातोंरात पैदा हो गए जो ब्लॉग का विभाजन साहित्यिक और साहित्येतर करने लग गए. वैसे इस क्षेत्र में जहां किताबों की अग्रिम बुकिंग करने पर इतिहास में नाम दर्ज करने की परंपरा शुरु की जा सकी हो तो कुछ भी संभव है. मैं इन सबको बिल्कुल भी बेकार, वाहियात कहने के बजाय इससे अपने को अलग रखने की कोशिश करता आया हूं. मुझे सच में उन महंतों,मठाधीशों के आगे ब्लॉग को लेकर अपनी बात रखने में दिक्कत रही है जो इसे हर हाल में साहित्यिक मानकों के खांचे में फिट होता देखना चाहते हैं.

इन सबके बीच निश्चित रुप से वर्धा विश्वविद्यालय कई संभावनाओं और वैचारिकी को आगे बढ़ाने की नियत से ये कार्यक्रम कर रहा हो लेकिन मेरी अपनी समझदारी बस इतनी है कि जिस विश्वविद्यालय ने प्रतिरोध की आवाज को, उसकी जमीन को लगातार कुचलने का काम किया है, वो ब्लॉग जैसे उन्मुक्त माध्यम पर कार्यक्रम करवाने का कितना नैतिक अधिकार रखता है. दूसरी तरफ मीडिया विश्लेषण,मंच और संगोष्ठी के नाम पर इस विश्वविद्यालय में क्या होता आया है,ये हम सबसे छुपा नहीं है. वक्त-वेवक्त हममे से कई लोग इस पर लगातार लिखते-बोलते आए हैं. फिलहाल इस बहस में न जाते हुए भी इसमें न आने की बात कहनेवाले को दाएं-बाएं करके घसीटने की कोशिश करे, ये किसी भी लिहाज से सही नहीं है. आपलोग हमें लगातार पढ़ते आए हैं, याद करते हैं, मेरे लिए ये काफी है और जहां तक वहां आकर लाभान्वित होने और जो वर्चुअल स्पेस से वंचित हैं, उनकी समझदारी की बात है तो देखिए ब्लॉगिंग के मामले में मैं प्रेमचंद को याद करना चाहूंगा- बिना मरे स्वर्ग नहीं जाया जा सकता( हालांकि हम इस स्वर्ग-नरक की मान्यता को नहीं स्वीकारते). ब्लॉगिंग के प्रति बेहतर समझ व्याखायान और भाषणों से नहीं, खासकर जो करने के बजाय इसी से लाभान्वित होना चाहते हैं, इसमे गहरे उतरकर ही संभव है और इसके लिए जरुरी नहीं कि हम ब्लॉगर शरीरी रुप से मौजूद ही हों. असल में वर्धा विश्वविद्यालय ब्लॉग के ढांचे/ठठरी को लेकर चिंतित है और हम उसकी लगातार आत्मा बचाए रखने की कामना करते रहेंगे. आत्मा को खत्म करके आप चाहे जो भी सम्मेलन,समारोह और चिंतन शिविर करा लें,इसका विकास संभव नहीं है. क्या पता ये चुनौती और संभावनाओं से जुड़े सवाल इसी कृत्य से निकलकर आते हों.

सिद्धार्थजी,आपके शब्दों में एक तरफ हम जैसे लोगों के आने से मना करनेवाले लोग हैं तो दूसरी तरफ ऐसे लोगों की भारी संख्या है जो अपने पैसे से टिकट कटाकर आने के लिए तैयार हैं. हमें इन स्थितियों के बीच हमेशा की तरह लिखने दें. इस देश में ब्लॉग के नाम पर आए दिन कार्यक्रम होते रहते हैं, लोग अक्सर दिल्ली आते रहते हैं, मेरे फोन पर न पहचाने जाने के आरोप मढ़कर भी जाते हैं..हमें कभी कुछ अजीब और भारी नहीं लगता..हम ब्लॉगरों के लिए ये पुरस्कार है.हमारे लिए तिरस्कार,अपमान,व्यंग्य और उपहास सब ग्राह्य है. कल तक गैरब्लॉगर करते थे, बिना संदर्भ को समझे और आज आप जैसे लोग संदर्भ बदलकर ऐसा कर रहे हैं..क्या फर्क पड़ता है ? बस ये है कि लिखने के प्रति यकीन बना रहे..अपनी तमाम असहमतियों के बावजूद हमारे लिखे को पढ़ने की ललक बनी रहे, हमारे लिए काफी है..हम जैसे कुछ नहीं भी शामिल होते हैं तो क्या हो जाता है,वर्चुअल स्पेस पर तो हम मौजूद हैं ही जैसा कि पहले भी रहे हैं.उम्मीद करता हूं कि मेरी इस टिप्पणी को, मेरे न आने को एक व्यक्तिगत फैसले के रुप में लेंगे और जो आड़ी-तिरछी मेरी समझ है, उसे जगह देंगे..हां ये है कि आपने अपनी पोस्ट में अपने लिए(मेरी तरफ से) सर का प्रयोग किया है तो ऐसा लग रहा है कि मैं कोई गुहार लगा रहा हूं.हर वाक्य के साथ सर तो नहीं ही कही थी. लिप्यंतरण में कई बार निजी समझदारी भी शामिल हो जाती है. खैर

( इस पोस्ट के लिखे जाने के बाद सिद्धार्थजी ने हमें वो पुरानी बातचीत इनबॉक्स की है जो ये प्रस्तावित करता है कि उन्होंने हमें पहले भी बुलाया था लेकिन हम अपने स्वास्थ्य की वजह से जा नहीं पाए थे. ऐसे में न बुलाए जाने की बात तथ्यहीन है. हम इस बुलाए जाने के मुद्दे को खींचना नहीं चाहते, बावजूद इसके जरुरत पड़ी तो वो संदेश भी लगाउंगा कि जिसमे बुलाने से दिक्कत है और इस पर आयोजक से बात करके बुलाने के लिए कहनेवाली बात शामिल है और सच में उनके ऐसा करने के एकाध ही दिन बाद सिद्धार्थजी का मेल आ गया)

आपलोगों का
विनीत 



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हिन्दी के नाम पर जो मठाधीश आए दिन दालमखनी बनाते फिरते हैं, हिन्दी दिवस के मौके पर सेल अप टू फिफ्टी पर्सेंट से भी बड़े बैनकर के तले बैठकर इसके प्रसार के बजाय इसके गायब होने, अशुद्ध हो जाने का मातम मनाते हैं, छाती कूटते हैं..डॉ. श्याम रुद्र पाठक भारतीय भाषा को लेकर लगातार सक्रिय रहने,अनशन करने, गिरफ्तारी और प्रशासन के रवैये के प्रति ऐसे अंजान बने फिर रहे हैं जैसे कि ये उनके हिस्से का मुद्दा नहीं है..वैसे तो हिन्दी के मठाधीश मुनिरका से लेकर अमेरिका, टिंडा से लेकर भटिंडा तक सारे विषयों पर अपनी दखल और दक्षता रखते हैं लेकिन पाठक के साथ पिछले कुछ महीने से जुल्म ढाहे जा रहे हैं, उस पर कहीं कोई चर्चा नहीं. मुझे गैंग्स ऑफ बासेपुर का एक डायलॉग याद आता है- तुमलोग खा कैसे लेते हो..भूख कैसे लग जाती है ?

डॉ. श्याम रुद्र पाठक भारतीय की तमाम भाषाओं को लेकर अपनी जो भी मांग कर रहे हैं और जिसके लिए महीनों से अनशन करते आए हैं, संभव है कि भाषा के प्रति उनकी समझ से अपनी असहमति हो सकती है लेकिन क्या इस सवाल पर बात नहीं होनी चाहिए कि पाठक की मांग को लेकर वही सरकार इतनी क्रूर क्यों है जो कि अब से एक महीने बाद उसी के नाम पर लाखों रुपये लुटाने जा रही है ? आपको चौक-चौराहे की भीड़ और शोर से एलर्जी है, तापमान के बीच अपनी बात रखने की आदत नहीं है..आपसे कोई कुछ ये सब करने नहीं कह रहा लेकिन एक काम तो आपके हाथ में है ही न कि आप पाठक के भाषा को लेकर किए जा रहे इस आंदोलन को अपने विमर्श के दायरे में शामिल करें, उसे बहस और विचार का मुद्दा बनाएं. कोई आपको उनका कार्यकर्ता और पिछलग्गू बनने नहीं कह रहा लेकिन हिन्दी समाज के बीच इस भावना का प्रसार तो कर ही सकते हैं कि एक शख्स है जो अपनी तमाम बेहतरीन जिंदगी और सुख-सुविधा की संभावना के रहते हुए भी एक ऐसे मुद्दे पर लड़ रहा है जिसकी मोटी कमाई हिन्दी पब्लिक स्फीयर हम खाते आए हैं.. हिन्दी के बाहर के लेखकों,चिंतकों को पढ़ते हुए अक्सर प्रभावित होता हूं लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में कहीं न कहीं ये भाव काम कर रहा होता है कि मैं जो ये सब कर रहा हूं, उससे हिन्दी की दुनिया में विमर्श का दायरा बढ़ रहा है या नहीं..ऐसे में पाठक साहब ने एक पहल की है तो उससे पूरी तरह निस्संग रह जाना मुझे कम से कम रचनात्मकता और प्रतिरोध की जमीन बचाए रखने के लिहाज से बहुत ही घटिया हरकत लगती है.

हिन्दी समाज में आप चाहे कुछ भी कर लें, बहुत थोड़े वक्त में ही मुद्दे गायब होकर व्यक्ति आधारित आक्षेप और असहमति का दौर शुरु हो जाता है और ऐसा इसलिए भी कि न दिखने के बावजूद यहां गुर्गेबाजी चलती है..लेकिन डॉ पाठक के संदर्भ में हालांकि ये उनका संदर्भ न कहकर भारतीय भाषा का संदर्भ कहा जाना चाहिए तो ये तो आपकी बड़ी सुविधा है कि वो ऐसे किसी गुर्गेबाजी से नहीं आते, फिर भी...कहीं ऐसा तो नहीं कि रचना के व्यक्तित्व और कृतित्व को दो अलग दुनिया माननेवाले लोग मुद्दे पर लिखने औऱ मुद्दे के लिए लगातार लड़ते रहने को भी दो अलग दुनिया मानते हैं और वो पाठक पर तभी चर्चा करेंगे जब वो भारतीय भाषा को लेकर चार खंड़ों में अपनी रचना प्रकाशित करवाएंगे या फिर अभी जो कुछ भी उनके साथ हो रहा है, उसके रचना की शक्ल में टेबुल पर आने तक का इंतजार करेंगे.

इधर फैशन और आयोजन के स्तर पर ही सही,देखता हूं कि लोग खालिस हिन्दी की बात न करके देश की दूसरी भाषाओं को भी शामिल कर रहे हैं. कभी-कभार में अशोक वाजपेयी भी बांग्ला,तमिल,तेलगू...के रचनाकारों की चर्चा करते हैं और आयोजनों में शामिल होते हैं लेकिन आयोजन से थोड़ा हटकर जैसे ही ये मामला सड़कों पर आकर करने और उसके लिए आवाज उठाने पर आती है, एक गहरी चुप्पी चारो तरफ पसरी है. हम इस संदर्भ ये बिल्कुल नहीं चाहते कि पाठक को प्रतीक पुरुष बनाकर स्थापित किया जाए, पूजा जाए लेकिन भारतीय भाषाओं का जो संदर्भ अभी तक आयोजनों में शामिल रहा है, उसे एक लंबे विमर्श का हिस्सो बनाया ही जा सकता है..लोगों को ये तो बताया ही जा सकता है कि क्योंकि एक भाषा के एकाधिकार के बजाय छोटी-छोटी कई औऱ तमाम भाषाओं का मौजूद रहना, हमारे रोजमर्रा के कामकाज में बने रहना जरुरी है.

माफ कीजिएगा, फिलहाल डॉ. श्याम रुद्र पाठक की सहमति,सहयोग और उनके पक्ष पर बात करने की जो भी कोशिशें हुई है, उसका एक सिरा उन्हें महज हिन्दी से जोड़कर देखे जाने के रुप में है जबकि वो तमाम भारतीय भाषाओं के संदर्भ में बात कर रहे हैं. ऐसे में सद्इच्छा के बावजूद इस बात का खास ख्याल रखना बेहद जरुरी है कि वो सिर्फ और सिर्फ हिन्दी की बात नहीं कर रहे हैं. सिर्फ हिन्दी तक सीमित करना एक नए किस्म के मठाधीशी चश्मे से चीजों को देखना और उनकी इस कोशिश को रिड्यूस कर देना है.

हम आप हिन्दी के महंतों से सिर्फ इतनी ही अपील करते हैं कि या तो उनकी इन कोशिशों और उनके साथ हो रही यातना को विमर्श के केन्द्र में लाएं या फिर इतनी बेशर्मी पैदा करें कि हिन्दी दिवस तक आते-आते हिन्दी के नाम का लिफाफा लेते वक्त आपके हाथ न कांपने पाए.

तस्वीरः साभार,संजीव सिन्हा एवं अभिषेक श्रीवास्तव की एफबी वॉल
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क्या यार, डा मिलानो, क्लार्क्स, हाइ डिजायन से इतने दहशत में आ गए कि एरिक हॉब्सबाम, नोम चोम्सकी और एडवर्ड सईद जैसे लोगों की किताबें इस तरह लुटा रहे हो ? क्यों वैसे आम दिनों में बिना डिस्काउंट के इन्हें नहीं खरीदेगा कोई ?

सी, बेसिकली दे ऑर शटिंग डाउन दिस शॉप, दे विल नॉट टेल यू बट द फैक्ट इज कि रिलांयस इज नो मोर इन्टरेस्टेड इन बुक्स बिजनेस. मे बी दे ऑर नॉट गेटिंग द प्रॉफिट लाइक पेट्रोलियम ऑर मोबाइल इन्डस्ट्री..ही ही ही ही..हें,हें,हें. सर्विस ब्ऑय की तरफ फेंके गए मेरे सवाल और मजाक को एक सरदारजी ने तुरंत ही रिस्पांड किया..उनकी गर्लफ्रैंड या पत्नी( कन्फर्म नहीं) इंग्लिश फिक्शन वाले सेक्शन में पूरी तरह डूबी हुई थी और सरदारजी ऐंवे टाइप से विंडो शॉपिंग की मुद्रा में चट रहे थे.इसी बीच मेरे वाक्य से लगा कि चलो कोई मुल्ला मिला है जिसके साथ टाइमपास किया जा सकता है..लेकिन खजाने में लगे हाथ,निगाहें और और मन भला कहां सरदारजी को बोर होने से बचाते सो मैंने मुस्कारते हुए थैंक्स ए लॉट कहा और बाकी शहरीदां के अंदाज में एक्स क्यूज मी कहकर आगे बढ़ गया..


इस बीच सर्विस ब्ऑय रैपिडेक्स से अंग्रेजी की पूरी ताकत समेटते हुए मेरी तरफ बढ़ा और कहा- सर, इट इज गुड चांस टू बाई बुक्स..यू कैन लीव टीशर्ट और जींस बट यू शुटनॉट मिस दिस ऑपौरचूनिटी..अच्छा, मैंने मुस्कराते हुए कहा और उस सजे-धजे कंपनी की ड्रेस में अपने दुधिया मालदाह बोलकर रोज राह चलते मेरी हाथ खींच लेनेवाले खगड़िया के भइया की छवी खोजने लगा.( उन पर विस्तार से फिर कभी)..कहां के हो जी..लगा कि ये बताने में संकोच करेगा इससे पहले इन्हें बता दो कि मैं कहां से हूं सो पहले मैंने ही बताया. वो मेरे काफी करीब आ गया और धीरे से कहा- अब अपने तरफ के हैं तो सब किलियरे कर देते हैं आपको..असल में इ किताब-उताब का धंधा इ मॉल में चलेवाला नहीं है..एतना भाड़ा-बुत्ता खर्चा करके अदमी फेमिली के साथ आता है त खाएगा-पिएगा,घूमेगा-फिरेगा कि किताबे में आंख फोड़ेगा..नौकरी-चाकरी के चक्कर में तो इ सब किया ही है जवानी में..अब शौख-मौज के समय में भी इहै सब..मैं समझ गया कि ये पूरी बतरस के मूड में है और ऐसी हाइ-फाइ जगह में अंग्रेजी के बाद लोग सीधे वज्जिका,मगही और कुडुक-मुंडारी पर उतर आते हैं तो हमारे साथ के कुछ लोग इसे इंडियन चूतियापा कहते हैं. खैर,

नोम चोमस्की,एडवर्ड सईद,रॉबिन जेफ्री की सेल्फ में रखी किताबें देखने के बाद मैं इस शख्स के साथ और ज्यादा बातचीत नहीं कर सकता था..हमारे पास मात्र 45 मिनट थे और फिर शीप ऑफ थीसिस के लिए तेजी से हॉल के अंदर भागना था..इस बीच जितनी किताबें छांटी-खरीदी जा सकती थी, जुट गए. बहुत सारी ऐसी किताबें जिसके लिए मैं लंबे समय तक इंतजार करता रहा कि फ्लिपकार्ट पर थोड़ी कीमतें खिसके, कुछ तो उपलब्ध नहीं है के खाते में थी. मैं तो सिर्फ इस बात से खुश और हैरान हो रहा था कि एम्बीएंस मॉल,गुंडगांव में जहां चारों तरह जींस,जूते,एपेरल पर लगी भारी सेल के बड़े-बड़े पोसटर के बीच चीजें दिखाई नहीं दे रही है, उन सबके बीच मैं इन लेखकों की किताबें साफ-साफ देख सकूंगा. दूसरा कि जो किताबें मशहूर,टिपिकल बुक शॉप तक में कई बार नहीं मिलती, वो यहां हो सकती है ?

हम जैसे पाठकों के लिए जिसकी फिक्शन में न के बराबर दिलचस्पी है, सिर्फ थीआरि और क्रिटिसिज्म पसंद है, कई बार बहुत राहत और फायदे मिल जाते हैं..खासकर इन चमकीली जगहों पर. अधिकांश लोग फिक्शन, जीवन सुधार टाइप, चेतन भगत और उनके टाइप के लेखकों की किताबों के आगे लिथड़ रहे थे जबकि पॉलिटी, हिस्ट्री, बिजनेस एंड इकॉनमी की सेल्फ के आगे सन्नाटा था. देखना शुरु किया तो लगा कि इस तरह से एक-एक किताब देखने से बेहतर है कि जाकर काउंटर पर सीधे कहूं- इस पूरी सेल्फ की बोली लगा दूं, एकमुश्त कितने में दे सकते हैं सब ? भले इस पागलपन में मेरा बैंक अकाउंट हांफने लगे और आखिर में जाकर दम भी तोड़ दे..लेकिन मुझे पर भयानक नशा सा छा गया था..यार एडवर्ड सईद की किताब कल्चर एंड एम्पीयरलिज्म सत्तर प्रतिशत छूट पर कोई कैसे बेच सकता है और जब बेच रहा है तो बाकी के चारों तरफ घिरे लोग कद्दू छिल रहे हैं खड़े होकर इतनी देर से..पहले भी ऐसे ही कई छिलकर गए होंगे..लगा, इसी तरह की दूकान अगर डीयू या जेएनयू कैंपस के आसपास होती तो चेतन भगत टाइप की किताबें तो गंधा रही होती जबकि इन सेक्शन के आगे मेला लगा होता और सेल्फ पर किताबें नहीं एक इत्मिनान सी पंक्ति लेटी होती- इट्स ओवर नाउ, ले गए सब कद्रदान. क्या स्पेस के बदल जाने के हिसाब से रीडिंग कल्चर को समझा जा सकता है ?

आमतौर पर कमलानगर और बहुत हुआ तो कनॉट प्लेस को ही हम जैसे लोग शॉपिंग के लिए अंतिम ऐशगाह मानकर उसी तरह चक्कर लगाते रहते हैं जैसे कि जीवन केन्द्र में पानी और टेलीफोन बिल जमा करने के लिए..उसके लिए एम्बीएंस मॉल की ये दूकान किसी बड़े झटके से कम नहीं थी..ये उसी तरह का झटका था जब मेरा भूतपूर्व दोस्त राहुल( राहुल सिंह,युवा आलोचक) प्रिया सिनेमावाली ओम बुक्स में लगी सेल में कुकरी शो के किताबों के बीच अनिया लुंबा कि पोस्ट कलोनियलिज्म की किताबें निकालकर थै-थै करने लग जाता था और मैं उसी कुकरी शो की किताबें पलटते हुए भाभी को दें कि दीदी को..ठगा सा हो जाता..बहरहाल

रॉबिन जेफ्री की सेलफोन नेशन देखकर हम जिस रिलांयस की इस शॉप में घुसे थे, हमें बिल्कुल भी अंदाजा नहीं था कि वहां मैं इस कदर रम जाउंगा कि अपने दर्जनों दोस्तों की फेसबुक टाइमलाइन पर द शिप ऑफ थीसियस के लिए "ऑफ्टर वॉचिंग दिस फिल्म,आय एम स्पीचलेस" पढ़ने के बावजूद उसे छोड़ सकते हैं.इन किताबों के बीच अपने काम की किताबें खोजने के लिए हम पीवीआर की मंहगी टिकट किसी को दान कर सकते हैं..हम तो बस फिल्म देखने आए थे यहां और ये सोचकर कि आज की शाम की ये एक उपलब्धि होगी लेकिन बुरा मत मानिएगा, हमें फिल्म के पहले ही जो खुशी मिल रही थी..उसे हम कई दिनों तक सहेजकर रखेंगे..मैं सालों से फोन और चैट के जरिए बात करते रहे पीडी यानी मशहूर मर्मस्पर्शी पोस्ट लिखनेवाले ब्लॉग प्रशांत प्रियदर्शी से मिल रहा था, पंकज से पहले छोटी सी मुलाकात थी और दिवांशु बहुत प्यारा लगते हुए भी आधे घंटे में ही हाय-बाय तक करना पड़ गया था..मुझ पर नजरें गड़ाए थे, एकटक मुझे देख रहे थे बल्कि पीडी ने तो यां तक कहा- तुम्हारे चेहरे पर से खुशी फूट-फूटकर बाहर निकल रही है..तुम बातचीत में कभी भी इतने खुश नजर नहीं आए..मैं बार-बार इसके लिए इन तीनों को बारी-बारी से क्रेडिट दे रहा था और उनकी खुशी दोहरी हो रही थी कि चलो जो बंदा गुंडगांव में घुसते ही कार्पोरेट सिटी, ओटोवाले की चिरकुटई और वेवजह की शो ऑफ के कारण थोड़ा उदास हो गया था, शाम होते ही इतना खुश हो गया और ये खुशी आखिर तक बनी रही.

फिल्म तो बेहतरीन थी ही..काफी देर तक जैसे भीतर कुछ जम जाने जैसी चीज समा गई हो लेकिन टिकट की कीमत पर हम थोड़े इस खुशी पर सौ प्रतिशत खुशी की मुहर लगाने में ना-नुकुर कर रहे थे कि किताबों पर मिली छूट ने इस कचोट को खत्म कर दिया..मुझे नहीं पता कि ये कितना पॉलिटिकली करेक्ट होगा कि भकुआ की तरह मैं इस छूट को सिलेब्रेट कर रहा हूं लेकिन हां एक पाठक-दर्शक,एक उपभोक्ता और एक संभले हुए खरीदार, मिडिल क्लास के इस बच्चे के लिए जश्न की शाम तो थी ही न..बस ये है कि स्टडी टेबल पर इन किताबों को देख रहा हूं तो लग रहा है- एडवर्ड,नोम चोमस्की की किताबों पर 70 % छूट के चिपके बड़े स्टीगर अच्छे नहीं लग रहे, इसे जितनी जल्दी हो सके, उखाड़ दूं..ये बिना सेल के भी उतने ही प्यारे और जरुरी लगते हैं.
  
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रियल एस्टेट, कोयले,ठेकेदारी के धंधे के बीच दैनिक भास्कर समूह का अखबार और वेबसाइट चलाना किस तरह की पत्रकारिता को बढ़ावा देना है, ये उसकी वेबसाइट पर रोजाना लगनेवाली तस्वीरों और गंभीर आपराधिक, संवेदनशील मानवीय पहलुओं से जुड़ी खबरों को को सरोगेट पोर्न खबर में तब्दील किए जाने के रुप में देखा जा सकता है. इस समूह का पत्रकारिता तो छोड़ ही दीजिए, धंधे के चमकाने के लिए खबर छापने के तरीके इस हद तक गिर चुका है कि जेएनयू की घटना को लेकर किसी भी स्तर पर संवेदनशील होने के बजाय दालमंडी के उस दल्ले की भाषा में पेश किया जिस पर सिर्फ शर्मसार होने और लानतें भेजने से काम नहीं चलेगा. इस वेबसाइट और दैनिक भास्कर पर कानूनी स्तर पर सख्ती से पेश आने की जरुरत है. कानून और मानवाधिकार के अलग-अलग संगठन इस मामले को गंभीरता से लें, इसके साथ ही ये भी जरुरी है कि दैनिक भास्कर डॉट कॉम जैसी वेबसाइट को सामाजिक स्तर पर बहिष्कार हो और इसके प्रतिरोध में लगातार सक्रिय हुआ जाए.

तीन दिन पहले जेएनयू,नई दिल्ली के बीए थर्ड इयर के एक छात्र ने अपनी ही क्लासमेट पर कुल्हाडी और कट्टे से वार करने उसकी हत्या करने की कोशिश की और लड़की अस्पताल में जिंदगी और मौत से जूझ रही है. इधर लड़के में इतना भी साहस नहीं बचा था और इतना बड़ा कायर निकला कि वो अपनी वार से तड़पती हुई लड़की को देख सके, उसकी मौत का जश्न मना सके इससे पहले ही जहर खाकर इस दुनिया से कट लिया. दैनिक भास्कर की वेबसाइट ने अपनी ट्रैफिक हिट्स बढ़ाने के लिए इस पूरी खबर को पोर्न फ्लेवर देने की नियत से खबर का शीर्षक दिया-

"बदले के लिए करना चाहता था मर्डरःसेक्स तक कर चुकी थी गर्लफ्रेंड, पर बाद में उड़ाने लगी मजाक"

वर्चुअल स्पेस पर हमारे कुछ वरिष्ठ पत्रकार आए दिन व्याकरणिक दोष खोजने और उसके दुरुस्त होने की स्थिति में ही पत्रकारिता के स्वर्णकाल आगमन के संकेत देखते हैं, उन्हें इस वाक्य में शायद कोई व्याकरणिक दोष न दिखे लेकिन क्या इस शुद्ध वाक्य से पत्रकारिता बची रह जाती है ? क्या इस वाक्य के साथ ये सवाल लगातार नहीं उठाए जाने चाहिए कि हम पत्रकारिता के नाम पर क्या बचाना चाहते हैं ?

आत्महत्या कर चुके लड़के और जिंदगी-मौत से जूझ रही लड़की के बीच किस तरह के संबंध रहे हैं, उनके बीच आपसी व्यवहार को लेकर किस तरह की पेंचीदगियां रही है, ये बात अभी तक साफ नहीं हो पायी है..ऐसे में जाहिर है कि दैनिक भास्कर को किसी भी स्तर पर जजमेंटल होने की जरुरत सिर्फ और सिर्फ इस खबर को लंफगाछाप पोर्न स्टोरी में तब्दील करने के अलावे कुछ नहीं रही होगी. लेकिन इससे भी बड़ा सवाल है कि क्या देश के सबसे बड़े अखबार समूहों में से एक माने जानेवाले इस अखबार की वेबसाइट पर अगर स्त्री और पुरुष के बीच के संबंध को अभिव्यक्त करने की जरुरत पड़ती है तो उसकी यही भाषा होगी ? हमारे कुछ साथी इस शीर्षक पर आपत्ति दर्ज करके इसका विरोध कर रहे हैं जो कि जायज है लेकिन भारतीय प्रेस परिषद् को चाहिए कि इसके संपादक/मॉडरेटर के आगे अन्तर्वासना डॉट कॉम की कोई एक स्टोरी सामने रखे और तब पूछे कि इस पोर्न वेबसाइट से किस स्तर पर आपकी वेबसाइट अलग है और अगर नहीं है तो आपको लोकतंत्र का चौथा खंभा चलाने की लाइसेंस क्यों दी जाए और आप पर क्यों न कानूनी कार्रवाई हो ? ये सवाल किसी भी हद तक जाकर सेल्फ रेगुलेशन और मीडिया एथिक्स में ले जाकर बात करने की नहीं है..ये बात पूरी तरह एक न्यूज वेबसाइट के भीतर पोर्न वेबसाइट चलाने की रिवन्यू मॉडल, मानसिकता, व्यवहार और ऑपरेशनल एटीट्यूड का है. दैनिक भास्कर से फेसबुक पर कई लोग सवाल कर रहे हैं कि ऐसा लिखने के पहले क्या उसने सोचा कि उस लड़की के साथ आगे समाज क्या करेगा ? ये बेहद की संवेदनशील समाज होने के बजाय गलत मीडिया समूह से पूछा जा रहा है क्योंकि पोर्न साइट चलानेवाले के आगे इस तरह के सवाल उनके लिए सिर्फ अट्टाहास का हिस्सा बनकर रह जाता है. आप किसी भी पोर्न वेबसाइट पर जाते हैं तो वहां उन संबंधों के साथ भी शारीरिक संबंध की स्टोरी और वीडियो होती है जो कि सामाजिक रुप से,नैतिक रुप से और नागरिक समाज के हिसाब से घोर आपत्तिजनक है लेकिन इनके मॉडरेटर से ऐसे सवाल नहीं किए जा सकते. इन्हें सिर्फ और सिर्फ कानूनी स्तर पर सख्ती से निबटाया जा सकता है.

फिर ऐसा भी नहीं है कि दैनिक भास्कर डॉट कॉम ने इस तरह की घटिया हरकत कोई पहली बार की है. इस शीर्षक से तो आप सहज रुप से समझ ही रहे हैं कि मालिक की बढ़त के लिए पत्रकार की कुर्सी पर बैठा व्यक्ति दिमागी रुप से कितना सड़ चुका है, इससे पहले भी वो लगातार इस तरह का काम करता आया है और अगर चित्रों के साथ के कैप्शन को शामिल कर लें तो ये उसकी रुटीन का हिस्सा है.

2 फरवरी 2010 को इस वेबसाइट ने ऐसी ही खबर की थी. वेबसाइट के मुताबिक मुताबिक खबर थी कि- एक बर्थडे पार्टी में जाते समय एमी ने ऐसी ड्रेस पहनी कि बस देखने वाले फटी आंखों से देखते रह गए। अखबार की साइट ने इसके लिए शीर्षक दिया- फिर छलका एमी का 'यौवन'। यौवन का सिंग्ल इन्वर्टेड कॉमा में रखा गया जिसे कि तस्वरे देखकर आप समझ जाएंगे कि ऐसा क्यों हैं? अखबार के लिहाज से ये शब्द एमी की अवस्था को बताने के लिए नहीं बल्कि उसके उभार को बताने के लिए है। आगे खुद साइट ही इसकी पुष्टि करता है- सेक्सी सिंगर एमी ने अपनी वार्ड रोब से ऐसी ड्रेस निकाली जिसने एक कंधे को नग्न ही छोड़ दिया था। अब इस ड्रेस से एमी के स्तन कैसे बाहर न छलक पड़ते तस्वीर देखकर ये अंदाज तो लगाया ही जा सकता है। 


पोस्ट लिखने के कुछ ही घंटे बाद इस स्टोरी की लिंक हटा दी गई और दो-चार दिन बाद ही दैनिक भास्कर भोपाल से हमे फोन किया गया जिसमे लंबी बातचीत के दौरान हमसे वेबसाइट को बेहतर और साफ-सुथरा बनाने के लिए राय मांगी जा रही थी लेकिन बात करते वक्त ही हमें अंदाजा हो गया था कि ये मेरी लिखी पोस्ट को इगो सटिस्फाय करने का मामला मान रहे हैं और जिसे की बातचीत करके संतुष्ट किया जा सकता है. उसके बाद ये वेबसाइट गंभीर मुद्दे और तस्वीर के नाम पर लगातार इस तरह की हरकत करता रहा है.

वेबसाइट ने चित्र में उभार के हिस्से पर लाल रंग का बड़ा सा दिल बनाया और इस स्टोरी के साथ "फिर छलका एमी का यौवन" कैप्शन लगाकर अपलोड कर दिया. तब इसके विरोध में इसी तरह से वर्चुअल स्पेस और सोशल मीडिया के लोग सक्रिय हुए थे. जाहिर है इसने ये सब किसी पत्रकारीय चूक के तहत नहीं बल्कि बाकायदा उस घटिया बिजनेस स्ट्रैटजी के तहत किया था और आगे भी करता रहा. अंदरखाने की खबर तो ये भी है कि बाकी के प्रतिस्पर्धी वेबसाइट दैनिक भास्कर की इस वेबसाइट को अपना आदर्श मानते हैं जिसकी  झलक नवभारत टाइम्स की वेबसाइट में मिलती रहती है. हिट्स के हिसाब से बिजनेस मिलने की दुष्टता से इन वेबसाइटों के भीतर पोर्न वेबसाइट का ऐसा बिजनेस मॉडल पनप रहा है जो न्यूज वेबसाइट की आड़ में अपना धंधा चमका रहा है. कायदे से अगर इन वेबसाइटों को लेकर रिसर्च किए जाएं तो संभव है कि ये नतीजे सामने आएं कि जो लोग पोर्न वेबसाइट पर अपना समय बिताते आए हैं, वो अब इन्हें रेगुलर विजिट करते हैं. इसका मतलब है कि ये न्यूज वेबसाइट पोर्न वेबसाइट देखने की इच्छा रखनेवाली ट्रैफिक को अपनी तरफ खींचने का काम कर रही है और जब मामला फंसता है तो उसे बड़ी खूबसूरती से चूक बताकर निकल जाते हैं. लेकिन

चूंकि वेबसाइट और वर्चुअल स्पेस का मामला अखबार और टेलीविजन को दुरुस्त करने से अलग है और इसमे इस पेशे से जुड़े लोगों के अलावे कई दूसरे पेशे और सरोकार से जुड़े लोगों की सक्रियता,भागीदारी और हस्तक्षेप सीधे-सीधे है, ऐसे में ये बेहद जरुरी है कि दैनिक भास्कर डॉट कॉम की इस हरकत के खिलाफ माहौल बनाए जाएं, उसकी इस बिजनेस स्ट्रैटजी को कुचला जाए, कानूनी स्तर पर कार्रवाई हो, इसके लिए लगातार दवाब बनाए जाएं, दंड़ित किया जाए..और इधर इस वेबसाइट को उन तमाम मोर्चे पर कमजोर किया जाए जहां उसने अपने चोर दरवाजे खोल रखे हैं..मीडिया रेगुलेट करनेवाली संस्थाओं की स्पष्ट जिम्मेदारी बनती है कि न्यूज वेबसाइट की लाइसेंस लेकर पोर्न वेबसाइट चलानेवाली ऐसी वेबसाइट पर लगाम लगाए. ये वैसे बेहद टेढ़ा काम है क्योंकि भास्कर समूह जितना बड़ा मीडिया समूह है, उससे कई गुना कार्पोरेट समूह जिसके धंधे के हाथ कई कोने में फैले हैं और मीडिया का ये धंधा एक तरह से उन सब पर पर्दा डालने के लिए हैं..फिर भी अगर इस देश में दर्जनों बालू माफिया के खिलाफ एक अधिकारी खड़ी हो सकती है तो खबरों की मिलावट और पोर्न धंधे की तरफ पत्रकारिता को धकेलने वाले मीडिया समूह के खिलाफ तो खड़ा हुआ ही जा सकता है.



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रिंकी ! मेरी हिन्दी तो अच्छी नहीं है लेकिन वी आ प्राउड ऑफ यू. टाइम्स नाउ पर अर्णव जब टूटी-फूटी हिन्दी में रिंकी से बात कर रहे थे वो मानव हिन्दी व्याकरण और रचना के हिसाब से दोषपूर्ण होने के बावजूद सीधे मन को छू जानेवाली बातचीत थी.  अंडर-14 के लिए फुटबॉल खेलनेवाली झारखंड रिंकी और बेहद ही प्यारी बच्ची और अर्णव की बातचीत को अलग से गौर करने की जरुरत है और ये समझने की मांग करती है कि कैसे टीवी एंकर के ठीक से हिन्दी न बोलने और इस प्यारी बच्ची के अंग्रेजी न जानने के बावजूद दर्शकों के बीच कितने अर्थपूर्ण संदेश प्रसारित हुए. अर्णव ने 13 साल की रिंकी( फुटबॉल खिलाड़ी) को जिस तरह से रिस्पांस दिया और अपनेपन से बातचीत की, बहुत ही कम समय में वो उनसे पूरी तरह खुल गई और इस तरह से झारखंड के अधिकारियों, व्यवस्था और ग्राम पंचायत ऑफिस में गाली दिए जाने और बेइज्जत किए जाने की बात करने लगी जैसे शाम को घर लौटने पर कोई बच्ची अपने पिता से शिकायत करती है. इधर अर्णव ने भी उतनी ही आत्मीयता से उसे सुना, मुस्कराते रहे, अपनी कमजोर हिन्दी के लिए सॉरी बोलते रहे और बहुत प्रयास से कॉन्फीडेंस के लिए पहले भरोसा फिर हिम्मत का प्रयोग किए. आत्मविश्वास तक न पहुंचने के बावजूद भी अर्थ अधूरा नहीं रह गया था क्योंकि बाकी चीजें उनके चेहरे और बॉडी लैंग्वेज से स्पष्ट हो जा रही थी. आमतौर पर टीवी जो अपने सारे अर्थों को बोलकर, स्क्रीन को अखबार जैसे बड़े-बड़े अक्षर छापकर व्यक्त करना चाहता है, वहां उसे ऐसी ही फुटेज देखने की जरुरत है कि कैसे हम एक विजुअल माध्यम में अर्थ के कुछ हिस्से को तस्वीरों के भरोसे छोड़ सकते हैं भले ही वो मजबूरी में ही क्यों न हो.

मीडिया इन्डस्ट्री और राजनीति उद्योग के लोगों के बीच अर्णव को लेकर ये नाराजगी हमेशा से रही है कि वो किसी की सुनते नहीं हैं, बोलने नहीं देते और इतने अटैकिंग हो जाते हैं कि जैसे ये कोई न्यूजरुम की डिबेट नहीं, अपनी कचहरी चला रहे हों जहां न खाता न बही, जो अर्णव गोस्वामी कहे वही सही होता है. ओपन मैगजीन ने तो इन पर बाकायदा कविता तक छापी है. लेकिन

बातचीत के दौरान रिंकी अचानक से रुक जाती थी. जाहिर है उसे टीवी पर बोलने का अभ्यास क्या, शायद पहली-दूसरी बार ही इस माध्यम से अपनी बात रख रही थी सो ऐसा स्वाभाविक ही था लेकिन जितनी देर वो रुक जा रही थी, अर्णव उतनी देर मुस्करा रहे होते..और बोलो रिंकी, अपनी बात कहती रहो. टाइम्स नाउ के न्यूजआवर में ये और बोलते रहो के शब्द कभी किसी को मय्यसर होते हैं ?

मैंने छुटभैय्ये टाइप के ऐसे दर्जनों रिपोर्टरों, कुछ डी ग्रेड के चैनल के एंकरों को देखा है कि वो संबंधित व्यक्ति से इस तरह से सवाल करते हैं जैसे कि वही उनके मालिक-मुख्तियार हों और जवाब देनावाल चाकर. मैं यहां दिल्ली में बैठे-बैठे झारखंड की इस प्यारी रिंकी जो झाड़ू लगाने का काम करती रही है, खेतों में घंटों मेहनत करती रही है.. के बारे में सोच रहा हूं कि आज बल्कि कई दिनों तक उसे कितना अच्छा लगेगा कि देश के इतने चर्चित टीवी एंकर ने उनसे कितनी आत्मीयता से बात की..दोस्त की तरह, बड़े भाई की तरह और शाम को थके होने के बावजूद एक पिता की तरह..ये अंदाज और कला टीवी के दो-चार चेहरे को छोड़कर बाकी में सिरे से गायब है.

हम ऐसे मौके पर आंखों के छलछला जाने से अपने को रोक नहीं पाते. एक तो झारखंड(ओरमांझी) के वो बच्चे, साधनों से पूरी तरह महरुम जिन्हें लगातार तकलीफें दी जाती रही..जब वो फुटबॉल खेलने स्पेन जाने के लिए पासपोर्ट बनवाने ऑफिस गई तो गालियां दी गई, बेइज्जत किया गया और यहां तक कहा कि वो अंग्रेज सब तुमको बेच देगा. इस बात पर भी दुत्कारा गया कि ये क्रिकेट नहीं फुटबॉल खेलते हैं. लेकिन रिंकी जैसी कुल 18 लड़कियों इन तमाम तरह के उपहास को बर्दाश्त करके न केवल वहां गई बल्कि दुनियाभर के कुल दस टीमों के बीच गास्टिज कप के लिए तीसरे स्थान रही और कांस्य जीतकर देश वापस आयी..मुझे उस वक्त उन दैत्याकार बिल्डिंगों में अपने बच्चे को पढ़ने भेजनेवाले अभिभावक और कुछ आठ घंटे के भीतर सचिन से लेकर चेतन भगत तक बनाने की जुगत का ध्यान आया, उन पर एक-एक दिन में हजारों रुपये खर्च करना याद आया, जिनकी छोटी-छोटी चीजें एक्सलेंट हो जाती है लेकिन पता नहीं इससे देश की छाती कितनी चौड़ी होती है और इधर ये बच्चे खेतों में काम करके, गालियां सुनकर हमसे-आपसे कहवा जाते हैं- हमें तुम पर गर्व है.

तुक्का-फजीहत के लिए विख्यात अर्णव के इस शो से इस किस्म की भावुकता पैदा हो सकती है, शो देखने के मिनटों तक मैं यही सोचता रहा और टेलीविजन की उस ताकत पर ठहरकर अंदाजा लगाने लगा कि जिसे हमारे दर्जनों एंकरों और संवेदनहीन संवाददातों ने झौं-झौं बक्से में तब्दील कर दिया है वो हमें सही अंदाज में पेश आने पर कितना प्रभावित कर सकता हैं..दिग्गजों की पैनल के बीच अंत-अंत रिंकी को अर्णव ने जिस तरह से जोड़े रखा, कैलिफोर्निया के कोच से बात करायी- कैसी हो रिंकी और हम ठीक हैं, आप कैसे हैं सर जैसे संवाद एक अंग्रेजी स्क्रीन पर तैर रहे तो आप यकीन कीजिए, अपनी भारी-भरकम व्यावसायिक पैंतरेबाजी और तिकड़मों के बीच भी चैनल घड़ीभर के लिए बेहद संवेदनशील और मानवीय होता नजर आया..कुछ नहीं तो बीच-बीच में इस एहसास का बचा रहना जरुरी ही तो है..आखिर हम जैसे दर्शक जो घंटों आंखें फाड़े रहते हैं, आखिर हमारा भी मन कभी इसके लिए अच्छा लिखने का तो होता ही है.
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लगता है IBN7 जैसे चैनल साख के साथ-साथ रिपोर्टिंग की बेसिक समझ भी धो-पोछकर पी गए हैं. जेएनयू की घटना पर IBN7 की रिपोर्ट और इसके संवाददाता की पीटूसी देखकर गहरी हताशा से मन भर गया. पूरी रिपोर्ट में इस घटना को सुरक्षा के मामले से जोड़कर दिखाया गया. एंकर संदीप चौधरी ने भी अपने अतिनाटकीय अंदाज में सुरक्षा के सवाल को पूरे दमखम से उठाने की कोशिश की और इधर रिपोर्टर ने रही-सही कसर पूरी कर दी. अब जानिए कि उन्होंने क्या कहा-

उन्होंने कहा कि ये घटना जेएनयू की सुरक्षा और चेकिंग व्यवस्था पर सवाल खड़ी करती है. यहां पर सुरक्षा के बैरिकेट लगे होते हैं और सुरक्षाकर्मी भी तैनात होते हैं, ऐसे में ये कैसे संभव है कि एक छात्र क्लासरुम में इतने सारे हथियार( कट्टा,कुल्हाडी,चाकू आदि) लेकर घुस जाए और सुरक्षाकर्मी को पता न चले. अब आप ही सोचिए कि एक तरफ तो ये रिपोर्ट गला फाड़-फाड़कर बताती है कि ये छात्र और जिस छात्रा पर हमला किया, दोनों क्लासमेट थे और एक समय दोनों के बीच गहरी दोस्ती थी और दूसरी तरफ इसके रिपोर्टर इसकी चेकिंग की बात कर रहे हैं. अब आप ही बताइए कि ये संभव है कि जेएनयू या किसी भी विश्वविद्यालय में छात्र क्लासरुम में जाते हैं तो उसके पहले सुरक्षाकर्मी सबकी तलाशी लें और पता करें कि कौन क्या लेकर क्लासरुम में घुस रहा है ? फिर जिस रिपोर्ट में बैरिकेट और चेकिंग की बात की गई है वो मेनगेट पर होती है और बाकी एक-एक,दो-दो सुरक्षागार्ड जो कि मेनगेट पर बाहरी लोगों को बिना आइडी या अंदर रहनेवाले छात्रों के परिचितों से बिना सहमति के जाने नहीं देते और जहां-तहां फैले सुरक्षागार्ड छात्रों को जंगलों आदि में अंदर जाने से रोकते हैं. मैंने ये तो कभी नहीं देखा कि हर स्कूल के आगे सुरक्षाकर्मी तैनात हैं और वो चेकिंग कर रहे हैं. ऐसी कल्पना करना सिरे से पागलपन है. तो फिर रिपोर्टर को इतनी सी बेसिक बात क्यों समझ नहीं आ रही है कि ये सुरक्षा का मामला नहीं बल्कि जेएनयू कैंपस के भीतर खुलेपन,आपसी साझेदारी और व्यक्तित्व के विकास को लेकर जो दावे होते आए हैं, ये घटना उसमें सेंधमारी करती है न कि सुरक्षा व्यवस्था पर. ऐसे ही रिपोर्टर और चैनल मामले को रिड्यूस करते हैं और रिपोर्टिंग के नाम पर मुनिरका के सवाल को अमेरिका पर जाकर पटक आते हैं. अब इससे होता ये है कि पूरा मामला सुरक्षा व्यवस्था और उसके सवाल पर जाकर अटक जाता है और कार्रवाई के नाम पर कुछ और सुरक्षाबल पुलिसिया गश्त बढ़ा दी जाती है. मीडिया में बाइटबाजी शुरु हो जाती है जबकि इस तरह की घटना जेएनयू क्या किसी भी दूसरे शिक्षण संस्थान के संदर्भ में व्यापक चिंतन और सुलझे तरीके से समस्याओं की तह में जाने और उसे कम करने की मांग करता है.

आइबीएन7 और उसके रिपोर्टर को इस पर खबर करने के पहले इस परिसर की संस्कृति के बारे में बुनियादी समझ होनी चाहिए कि ये पूरे देश के उन गिने-चुने कैंपस में से है जहां रात जितनी गहरी होती है, माहौल उतना ही गुलजार और रौशन होता है. दर्जनों बार डीयू के हॉस्टल से रात के तीन बजे गंगा ढाबा पर परांठे खाने के लिए जाते वक्त मुझे कभी भी इस कैंपस में असुरक्षा बोध महसूस नहीं हुआ. सुरक्षा को लेकर रिपोर्टिंग तब जायज होती जबकि कोई बाहर का शख्स आकर कट्टा-कुल्हाडी मार जाता. यहां तो पूरा मामला क्लासमेट के बीच का है और ऐसे में सवाल ही बेतुका है कि चेकिंग क्यों नहीं हुई ? चैनल जरा बताएगा क्या कि ऐसी कौन सी व्यवस्था हो कि क्लास जाने के पहले सारे छात्रों को क्राइम पेट्रोल दस्तक के चश्मे से देखकर सबकी तलाशी ली जाए. है संभव ?

चैनलों के भीतर समझदारी और रिपोर्टिंग के नाम पर कैसी दालमखनी पकती है और हमारे न्यूज चैनल कितने भोथरे होते जा रहे हैं, ऐसे ही मौके पर दिख जाता है. मामला पूरी तरह इस कैंपस की तेजी से बदलती आवोहवा और परिवेश को लेकर है और जाकर अड़ा दिया सुरक्षा पर. उन बारीकियों,अन्तर्विरोधों पर एक लाइन बात नहीं कि आखिर ऐसे कौन से रेशे इस विश्वविद्यालय में पसर रहे हैं जो 16 दिसंबर की दिल्ली सामूहिक बलात्कार की घटना पर जंतर-मतर पर प्रतिरोध में सक्रिय होते हैं, खुद जेएनयू के भीतर शहर के हजारों लोंगों को अपने में समेटकर लाता है,वो प्रतिरोध का प्रतीक विश्वविद्यालय बनकर मीडिया में पहचान कायम करता है और छह महीने बाद उसी विश्वविद्यालय में इसके ठीक विपरीत रेशे नजर आते हैं जो उसी के आसपास खतरनाक घटना को अंजाम देता है.

ये तो एक घटना है जो हमें लड़के की आत्महत्या और लड़की के उपर जानलेवा हमले के रुप में दिखाई दे गया लेकिन ऐसे कई आंशिक मौत, सरोगेट मर्डर एटेम्प्ट भीतर पल रहे हों और जिसे हम और आप ब्रांड जेएनयू के आभामंडल के कारण नहीं देख पा रहे हैं. आज से कोई कुछेक साल पहले संत जेवियर्स कॉलेज,रांची में दिनदहाड़े कैंपस में एक छात्र ने चाकू मारकर हत्या ही कर दी थी और उस वक्त भी मीडिया ने सुरक्षा का मामला ऐसा बनाया कि ब्रांड जेवियर के भीतर दूसरे संदर्भों में इस घटना के देखे जाने की व्याख्या नहीं हो सकी.

जेएनयू एक ऐसा विश्वविद्यालय रहा है जो किसी लड़की के मना करने, किसी लड़के के संबंध टूटने पर नहीं, प्रतिरोध की लगातार आवाज उठाते रहने के बावजूद कहीं कुछ न बदलने की हताशा में लोग आत्महत्या कर लेते थे( हालांकि ये भी हाइप ही है). क्या ऐसी घटनाओं की व्याख्या इस रुप में नहीं होनी चाहिए कि जेएनयू अपने आसपास के परिवेश के दवाब से छात्रों को जूझने की ट्रेनिंग देने में विफल हो रहा है, वो छात्रों के भीतर उन व्यापक संदर्भों का विस्तार देने में हार जा रहा है जिसके कारण उसकी ब्रांडिंग होती रही है ?

क्या इसकी एक व्याख्या भी हो सकती है कि यहां अगर लैंग्वेज कोर्स को छोड़ दें तो बाकी के कोर्स के लिए लोग सीधे एमए.एमफिल् या पीएचडी के लिए आते हैं और अधिकांश छोटे शहरों,कस्बों से आते हैं..जिनमे से कई पहले इस तरह लड़के-लड़की आपस में खुलकर बात तक नहीं किए होते हैं और यहां आकर उनके भीतर लगातार एक कुंठा का विस्तार होता है. वो संबंध में न आ पाने की स्थिति में,दोस्ती न हो पाने की स्थिति में हताशा होते हैं और धीरे-धीरे उनका व्यवहार देश के उन्हीं विश्वविद्यालयों के छात्रों की तरह होता चला जाता है, जिससे लगातार अलग होने और बेहतर होने के दावे जेएनयू करता आया है. खुलेपन के लिए विश्वविद्यालय ने कई प्रयोग किए है, ज्यादातर सराहनीय हैं लेकिन इनके बीच जो हताशा, जो कुंठा जो सेंसलेस एप्रोच पनप रहा है, उसे लेकर विश्वविद्यालय के क्या अध्ययन हैं..क्या मीडिया और चैनलों में इस सब पर बात नहीं होनी चाहिए ? माफ कीजिएगा, देश और दुनिया के मुद्दे पर मुठ्ठी तानकर खड़े होनेवाले यहां के छात्रों को इस पर गहराई से सोचने की जरुरत है कि क्रांति के जयघोष के बीच उनके बीच कुछ लोग क्यों इस परिवेश से इतने अलग-थलग पड़ जा रहे हैं कि जहर पीने और हत्या करने के इरादे के अलावे कुछ कहीं सूझता नहीं. तब जेएनयू के भीतर की सामूहिकता और उसका बोध कहां चला जाता है ? हर तरह के माइंड सेट के लोगों के बीच भी साझेदारी करने और भरोसा करने का यकीन क्यों तेजी से खत्म होता चला जा रहा है? जेएनयू के लिए चिंता एक छात्र के आत्महत्या करने और एक छात्रा की जान लेने की कोशिश भर तक नहीं है बल्कि उससे कहीं ज्यादा इसके भीतर इस सामूहिकता-बोध के खत्म होने और भीड़ में भी अकेले होने के एकाकीपन का है और संभव है कि ऐसे एक नहीं कई लोग हों.

रांझणा फिल्म जब आयी थी और जिस तरह से जेएनयू को जिस तरह से पेश किया गया, हममे से कई लोगों को उससे घोर आपत्ति हुई..इस पर लंबी चर्चाएं चली(वर्चुअल स्पेस पर) लेकिन करीब दो महीने बाद ही घटी ये घटना उस फिल्म को जस्टिफाय करती नजर आती है बल्कि हमारे कुछ फिल्मकारों, क्राइम पेट्रोल दस्तक, वारदात जैसे कार्यक्रमों के प्रोड्यूसरों के दिमाग तेजी से दौड़ने शुरु हो गए होंगे कि खासा पॉपुलर कच्ची सामग्री हाथ लगी. लेकिन ये वही नाजुक मौके हैं जब मीडिया में किसी भी दूसरी आपराधिक घटना को टीवी सीरियल की शक्ल में पेश किए जाने से अलग ठहरकर, संजीदा तरीके से उसके भीतर की खदबहादट को पकड़ने की जरुरत है. इस घटना को सुरक्षा में लापरवाही के बजाय लिटमस पेपर के रुप में ली जाने की सख्त जरुरत है.

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