लोग रुपया-दो रुपये बचाने के लिए आज के बजाय कल से ही एसएमएस भेजे जा रहे हैं। लिखकर बता रहे हैं कल एसएमएस करना मंहगा होगा। उनके एसएमएस भेजे जाने से हमें कोई तकलीफ नहीं है। वैसे भी रेडीमेड मैसेज को पढ़ने के पहले ही डिलिट कर दिया करता हूं। उसकी भाषा में कहीं कोई पर्सनल फीलिग्स नहीं होती। कई बार तो जिस एसएमएस को आपकी गर्लफ्रैंड ने भेजा है, थोड़ी देर बाद उसी को आपका दोस्त भेज देता है। एक-दो बार तो जीजू या मामू लोग भी वही मैसेज भेज देते हैं। वही बाजारु सेंटी सा मैसेज या फिर हिन्दी पढ़नेवालों की भाषा में कहूं तो छायावादी टाइप की उपमानों से लदी-फदी भाषा में एसएमएस। ऐसी हिन्दी पढ़ने की आदत छूट सी गई। चैनल में गलती से भी कोई ऐसी हिन्दी लिख देता तो बॉस चिल्लाने लगते- कहां से ये खर-पतवार आ गए हैं, अरे भइया पढ़नेवाली हिन्दी लिखो। इसलिए नए साल के मौके पर जब ऐसे एसएमएसों की बाढ़ आती है तो कुछ-कुछ ऐसा लगता है जैसे सालभर से लाला की दुकान में धूल खा रहे रंग के डिब्बों या फिर बची-खुची राखियों की खपत होली और रक्षाबंन के दिन हो रही है।
मजे की बात देखिए कि जो लोग भी इस तरह की गरिष्ठ हिन्दी में एसएमएस भेजा करते हैं उन्हें न तो हिन्दी से कोई विशेष लगाव है और न ही उन्हें इस तरह की हिन्दी की कोई समझ है। रोजमर्रा की जिंदगी में ऐसी हिन्दी का प्रयोग भी नहीं करते। दो लाइन टाइप करने से बचने के लिए कहीं से भेजे गए एसएमएस को सेंड टू ऑल वाले ऑप्शन मे जाकर सबको ठेल देते हैं।
पर्व-त्योहार के मौके पर या फिर नए साल पर एसएमएस भेजने के पीछे तर्क यही होता है कि हम आपको इस मौके पर याद कर रहे हैं, मिस कर रहे हैं, आपके साथ शुभ और भला हो इसकी कामना करते हैं। लेकिन सच पूछिए तो सेंड टू ऑल भेजते समय क्या भेजनेवाले को उन सारे लोगों की याद आती है जिन्हें वो एसएमएस भेज रहे हैं। मेरे सहित आप भी बहुत पहले समझ गए होंगे कि इसमें फीलिग्स-विल्गिंस वाला कोई चक्कर नहीं है, बस औपचारिकता है। एक साल पहले से लगने लगा कि ये मसखरई से ज्यादा कुछ भी नहीं है। फिर सोचा, इसे निक्कमापन ही समझना चाहिए कि दो लाइन नहीं लिख पा रहे हों और तब कॉमन मैसेज सबको भेजे जा रहे है।
मुझे अभी किसी ने एसएमएस किया कि तुम मेरे लिए स्पेशल हो, सबसे अलग हो, तुम्हें ऐसे मौके पर याद करती हूं॥ब्ला,ब्ला। लेकिन उसमें कोई संबोधन नहीं, मेरा कहीं कोई नाम नहीं। उसका नाम भी ऐसा कि जैसे ऑफिस में औपचारिकता के साथ लिया जाता है। डेजिग्नेशन के साथ आर्गेनाइजेशन का नाम।
आप सोचिए कि अगर उस एमएस के पहले मेरा नाम होता औऱ अंत में सिर्फ उसका नाम बाकी कोई परिचय नहीं तो ये एसएमएस कितना पर्सनल होता, कितने गहरे इसके अर्थ होते लेकिन ऐसा होने से साफ हो गया कि ये सिर्फ मुझे ही नहीं भेजा गया है। थोड़ी देर बाद तो ये और भी पक्का हो गया जब तीन लड़कियों सहित दो लड़को ने यही एसएमएस भेजे।
मुझे याद है जब भी मैं घर जाता हूं और पापा या भैय्या के साथ दूकान पर बैठता हूं तो शहर के रईस समझे जानेवाले लोग कहते हैं, बीस साड़ी। भैय्या पूछते हैं क्या रेंज होगा। उनका सीधा-सा जबाब होता है, बस देने-लेने के काम के लिए चाहिए। उसके बाद स्टॉफ अंदर से गठ्ठर निकालता है, उन साडियों को सेल्फ में नहीं रखते। पापा का कहना है इसे डिस्प्ले क्या करना। इसमें पसंद-नापसंद की तो कोई बात होती नहीं, जिसे भी खरीदना होता है, वो साफ कहता है, देने-लेने के काम के लिए चाहिए औऱ फिर एक ही तरह की बीस-पच्चीस जितनी चाहिए ले जाता है। इन साडियों को खरीदते समय रईस दो ही बात बार-बार पूछते हैं, रंग तो नहीं जाएगा न और दूसरा कि पांच मीटर तो है न, बाकी कुछ भी नहीं। दाम तो पहले से ही उनके मुताबिक होता है।
इन एसएमएस को पढ़ते हुए मुझे कुछ-कुछ वैसा ही लगता है। हिन्दी सहित दूसरी भाषाओं के भी कुछ शब्द महज शुभकामनाएं देने औऱ लेने के लए गढ़ लिए गए हैं या फिर पहले से मौजूद हैं तो उसे फिक्स कर लिया गया है। नहीं तो इसमें कुछ भी नहीं है, न तो भेजनेवालों की तरफ से ही कोई भाव है और न ही पढ़कर किसी भी तरह के भाव जगते हैं। लेकिन ऐसे ही एसएमएस जब करीबी लोग भेज देते हैं तो लगता है कि हमें लेने-देनेवाले शब्दों के बीच ठेल दिया,पराएपन का एहसास होने लगता है।
लेने-देने के लिए खरीदी-बेची जानेवाली साडियों के रंग तो नहीं जाते क्योंकि आमतौर पर सेंथेटिक साडियों के रंग नहीं जाते जबकि इन सेंथेटिक एसएमएस के रंग ही नहीं चढ़ते।
एक बार मेरी मां को बहुत ही नजदीक की रिश्तेदार ने ऐसी ही साड़ी दी। पापा देखकर झल्ला गए, उनकी बहन ऐसा भी कर सकती है। मां से कहा, रीता ने तुम्हें लेने-देनेवाली साड़ी दे दी है, इसे मत पहनो, उसकी बेटी की शादी होगी तो यही साड़ी दे देंगे। मां भावुक किस्म की इंसान है, तुरंत सेंटी हो जाती है। उसने साफ कहा-भौजी ऐसा नहीं कर सकती है, इतना शौख से मेरे लिए खरीदी होगी, नहीं पहनेंगे तो बुरा लगेगा। मां ने वो साड़ी पहनने के लिए निकाल ली। पहले दिन तो मीरी दीदी के यहां गयी। वहां लोगों ने टोका कि - चाची आप तो हमेशा सूती साड़ी पहनते थे, आज क्या हो गया। उसके बाद सबने कहा भी कि एकदम से रद्दी साड़ी है। धोने के बाद साड़ी घुटने तक आ गयी। मां अब उस बुआ से बहुत कम बातचीत करती है। साफ कहती है, इतना नजदीक होकर हमरे साथ लेने-देनेवालों जैसा बर्ताव किया।
कल से अंधाधुन भेजे जानेवाले एसएमएस और उसके शब्दों पर गौर करुं तो कई लोगों पर लेने-देनवाला मुहावरा फिट बैठता है औऱ मैं भी मां की तरह सेंटी होकर उसे पढ़ता हूं लेकिन क्या मैं उसकी तरह इम्मैच्योर हूं कि ये जानते हुए भी कि इनलोगों ने मेरे लिए लेने-देनेवाले शब्दों का इस्तेमाल किया है औऱ वो भी इसतर्क के साथ कि कल नेटवर्क जैम होगा, एसएमएस के दाम अधिक होंगे, उनसे बात करना कम कर दूं। नहीं, मैं चाहकर भी मां जैसा कुछ नहीं कर सकता।
मजे की बात देखिए कि जो लोग भी इस तरह की गरिष्ठ हिन्दी में एसएमएस भेजा करते हैं उन्हें न तो हिन्दी से कोई विशेष लगाव है और न ही उन्हें इस तरह की हिन्दी की कोई समझ है। रोजमर्रा की जिंदगी में ऐसी हिन्दी का प्रयोग भी नहीं करते। दो लाइन टाइप करने से बचने के लिए कहीं से भेजे गए एसएमएस को सेंड टू ऑल वाले ऑप्शन मे जाकर सबको ठेल देते हैं।
पर्व-त्योहार के मौके पर या फिर नए साल पर एसएमएस भेजने के पीछे तर्क यही होता है कि हम आपको इस मौके पर याद कर रहे हैं, मिस कर रहे हैं, आपके साथ शुभ और भला हो इसकी कामना करते हैं। लेकिन सच पूछिए तो सेंड टू ऑल भेजते समय क्या भेजनेवाले को उन सारे लोगों की याद आती है जिन्हें वो एसएमएस भेज रहे हैं। मेरे सहित आप भी बहुत पहले समझ गए होंगे कि इसमें फीलिग्स-विल्गिंस वाला कोई चक्कर नहीं है, बस औपचारिकता है। एक साल पहले से लगने लगा कि ये मसखरई से ज्यादा कुछ भी नहीं है। फिर सोचा, इसे निक्कमापन ही समझना चाहिए कि दो लाइन नहीं लिख पा रहे हों और तब कॉमन मैसेज सबको भेजे जा रहे है।
मुझे अभी किसी ने एसएमएस किया कि तुम मेरे लिए स्पेशल हो, सबसे अलग हो, तुम्हें ऐसे मौके पर याद करती हूं॥ब्ला,ब्ला। लेकिन उसमें कोई संबोधन नहीं, मेरा कहीं कोई नाम नहीं। उसका नाम भी ऐसा कि जैसे ऑफिस में औपचारिकता के साथ लिया जाता है। डेजिग्नेशन के साथ आर्गेनाइजेशन का नाम।
आप सोचिए कि अगर उस एमएस के पहले मेरा नाम होता औऱ अंत में सिर्फ उसका नाम बाकी कोई परिचय नहीं तो ये एसएमएस कितना पर्सनल होता, कितने गहरे इसके अर्थ होते लेकिन ऐसा होने से साफ हो गया कि ये सिर्फ मुझे ही नहीं भेजा गया है। थोड़ी देर बाद तो ये और भी पक्का हो गया जब तीन लड़कियों सहित दो लड़को ने यही एसएमएस भेजे।
मुझे याद है जब भी मैं घर जाता हूं और पापा या भैय्या के साथ दूकान पर बैठता हूं तो शहर के रईस समझे जानेवाले लोग कहते हैं, बीस साड़ी। भैय्या पूछते हैं क्या रेंज होगा। उनका सीधा-सा जबाब होता है, बस देने-लेने के काम के लिए चाहिए। उसके बाद स्टॉफ अंदर से गठ्ठर निकालता है, उन साडियों को सेल्फ में नहीं रखते। पापा का कहना है इसे डिस्प्ले क्या करना। इसमें पसंद-नापसंद की तो कोई बात होती नहीं, जिसे भी खरीदना होता है, वो साफ कहता है, देने-लेने के काम के लिए चाहिए औऱ फिर एक ही तरह की बीस-पच्चीस जितनी चाहिए ले जाता है। इन साडियों को खरीदते समय रईस दो ही बात बार-बार पूछते हैं, रंग तो नहीं जाएगा न और दूसरा कि पांच मीटर तो है न, बाकी कुछ भी नहीं। दाम तो पहले से ही उनके मुताबिक होता है।
इन एसएमएस को पढ़ते हुए मुझे कुछ-कुछ वैसा ही लगता है। हिन्दी सहित दूसरी भाषाओं के भी कुछ शब्द महज शुभकामनाएं देने औऱ लेने के लए गढ़ लिए गए हैं या फिर पहले से मौजूद हैं तो उसे फिक्स कर लिया गया है। नहीं तो इसमें कुछ भी नहीं है, न तो भेजनेवालों की तरफ से ही कोई भाव है और न ही पढ़कर किसी भी तरह के भाव जगते हैं। लेकिन ऐसे ही एसएमएस जब करीबी लोग भेज देते हैं तो लगता है कि हमें लेने-देनेवाले शब्दों के बीच ठेल दिया,पराएपन का एहसास होने लगता है।
लेने-देने के लिए खरीदी-बेची जानेवाली साडियों के रंग तो नहीं जाते क्योंकि आमतौर पर सेंथेटिक साडियों के रंग नहीं जाते जबकि इन सेंथेटिक एसएमएस के रंग ही नहीं चढ़ते।
एक बार मेरी मां को बहुत ही नजदीक की रिश्तेदार ने ऐसी ही साड़ी दी। पापा देखकर झल्ला गए, उनकी बहन ऐसा भी कर सकती है। मां से कहा, रीता ने तुम्हें लेने-देनेवाली साड़ी दे दी है, इसे मत पहनो, उसकी बेटी की शादी होगी तो यही साड़ी दे देंगे। मां भावुक किस्म की इंसान है, तुरंत सेंटी हो जाती है। उसने साफ कहा-भौजी ऐसा नहीं कर सकती है, इतना शौख से मेरे लिए खरीदी होगी, नहीं पहनेंगे तो बुरा लगेगा। मां ने वो साड़ी पहनने के लिए निकाल ली। पहले दिन तो मीरी दीदी के यहां गयी। वहां लोगों ने टोका कि - चाची आप तो हमेशा सूती साड़ी पहनते थे, आज क्या हो गया। उसके बाद सबने कहा भी कि एकदम से रद्दी साड़ी है। धोने के बाद साड़ी घुटने तक आ गयी। मां अब उस बुआ से बहुत कम बातचीत करती है। साफ कहती है, इतना नजदीक होकर हमरे साथ लेने-देनेवालों जैसा बर्ताव किया।
कल से अंधाधुन भेजे जानेवाले एसएमएस और उसके शब्दों पर गौर करुं तो कई लोगों पर लेने-देनवाला मुहावरा फिट बैठता है औऱ मैं भी मां की तरह सेंटी होकर उसे पढ़ता हूं लेकिन क्या मैं उसकी तरह इम्मैच्योर हूं कि ये जानते हुए भी कि इनलोगों ने मेरे लिए लेने-देनेवाले शब्दों का इस्तेमाल किया है औऱ वो भी इसतर्क के साथ कि कल नेटवर्क जैम होगा, एसएमएस के दाम अधिक होंगे, उनसे बात करना कम कर दूं। नहीं, मैं चाहकर भी मां जैसा कुछ नहीं कर सकता।