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मीडिया के लोग भगवान नहीं होते

Posted On 1:16 pm by विनीत कुमार | 2 comments

एनडीटी के प्रोग्राम हमलोग में आशुतोष (आइबीएन7) ने कहा कि ये तो लोगों का बड़प्पन है कि वो हमें भगवान मान रहे हैं और उम्मीद करते हैं कि हमसे कोई गलती नहीं होगी, नहीं तो हम भी इंसान हैं और हमसे भी गलतियां होती है। आशुतोष अपनी बातों से बिल्कुल स्पष्ट कर दे रहे थे कि हम भी और इंसानों की तरह की इंसान ही हैं। यानि जिस तरह से दूसरे प्रोफेशन-प्रशासन,न्याय,मेडिकल औऱ यहां तक की राजनीति के लोग गलतियां करते हैं उसी तरह मीडिया के भी लोग करते हैं। मीडिया की बदलती कार्यशैली को समझने के लिए इस बात पर गौर करना बहुत जरुरी है कि मीडिया के लोगों ko भी आम आदमी की तरह की समझा जाए।
आशुतोष के तो हम पहले से ही कायल हैं लेकिन इस तरह के ईमानदारीपूर्वक वक्तव्य से समझिए मुरीद ही हो गए।आशुतोष ने जो बात कही है उसमें साफ संकेत हैं कि गड़बड़ी हम पाठकों के सोचने में है। हम ही मान लेते हैं कि मीडिया जो कुछ भी दिखाती है वो सब सच है। शहरों में और पढ़े-लिखे लोगों के बीच तो थोड़ी बहस भी होती है कि नहीं जी, सब सच कहां होता है, काफी कुछ क्रीएटेड होता है लेकिन गांव के अपढ़ लोग मीडिया में दिखाए गए एक-एक बात को सच मान लेते हैं। अगर आप उनके सामने तर्क करते हैं तो वो आपसे सीधे कहेंगे कि- चलिए आपकी बात मान लेते हैं कि बहुत कुछ अपने से लिख दिया होगा लेकिन एक बात बताइए कि मर्डर और रैप का फोटू भी अपने से ले लिया होगा। ये कैसे संभव है कि मर्डर हुआ नहीं और चैनल दिखा दे।
हिन्दुस्तान में एक बड़ा तपका ऐसा है जो मीडिया में दिखायी गयी हर खबरों को सच मानता है,चैनल को समाज का bada सच मानता है। उन्हें उन बारीकियों से कोई लेना-देना नहीं होता कि कहां-कहां और किस तकनीक को लेकर मैनुपुलेशन हुआ है, कहां चीजें रीक्रिएट की गयी हैं। टेलीविजन की खबरें, हमारे औऱ आपके द्वारा लगातार सवाल खड़े किए जाने के बावजूद उनके लिए एक मूल्य की तरह है। आप लाख समझाने की कोशिश करें कि- नही मीडिया की सारी खबरें सच नहीं होंती तो भी वो इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं होते। कई अर्थों में टेलीविजन औऱ न्यूज चैनलों के कंटेंट उनके लिए मूल्य होते हैं। बात-बात में वो आपसे कहें कि इंडिया टीवी ने साफ-साफ दिखाया है, आजतक ने इस पर खुलासा कर दिया है।
टेलीविजन के लोग भी इस बात को बेहतर तरीके से समझते हैं कि उनके चैनल को और उनके द्वारा दिखायी जानेवाली खबरों को ऑडिएंस किस रुप में लेती है। अगर आप चैनलों के दावों aur उनके पंचलाइन पर गौर करें तो आपकों अंदाजा लग जाएगा कि अधिकांश चैनल सच को स्टैब्लिश करते हैं, सच ही उनकी साख है। आप लाख तर्क दे दीजिए, आए दिन तकनीक का विकास कर लीजिए, खबरों को प्रभावशाली बनाने के लिए नाट्य रुपांतर कर लीजिए लेकिन मीडिया के साथ सच का संबंध सबसे बड़े मूल्य के ऱुप में जुड़ा है। इस बात को अगर मीडिया के लोग खुद भी मानने से गुरेज करें तो भी आम ऑडिएंस को तरह से सोचने में वक्त लगेगा।
इसलिए अगर आशुतोष साफ-साफ शब्दों में कहते हैं कि हम ईश्वर नहीं हैं और हमसे भी गलतियां हो सकती है तो एक तरह ऑडिएंस की मानसिकता को बदलने की बात कर रहे हैं। यह जानते हुए कि मीडिया की गलती बाकी के प्रोफेशन की गलतियों से बिल्कुल अलग है औऱ सबसे बड़ी बात तो यह कि इससे प्रभावित होनेवाले लोगों और शामिल होनेवाले लोगों की संख्या और प्रोफेशन के लोगों से बहुत अधिक है। अब बदलना दर्शकों को ही होगा,चैनलों को नहीं।
आशुतोष की बात से तो हमने यही समझा है। लेकिन इस बीच मीडिया यह दावा करना छोड़ दे कि वो जो कुछ भी दिखा रही है सौ फीसदी सच है तो दर्शकों को आशुतोष की बात मान लेने में बहुत सहुलियत होगी....और इधर जिस तरह मेरे बॉस ने समझाना शुरु किया था कि मीडिया के लोग औरों से हटकर होते हैं तो फिर मजा आ जाए। हम ऑडिएंस इस बात को आसानी से मान लेंगे कि मीडिया के लोग भी गलतियां करते हैं और वो जो कुछ भी दिखाते हैं, सौ फीसदी सच नहीं होता।
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चैनल में, बॉस ने कहा था

Posted On 10:50 am by विनीत कुमार | 3 comments


याद कीजिए, जब आपने चैनल या अखबार ज्वॉयन किया था तो आपके बॉस ने आपसे क्या कहा था। अगर सभी लोग बॉस की बात को याद करते हैं तो इससे मौजूदा मीडिया के बारे में अच्छी-खासी समझ बन सकती है।
मैं अपनी बात बताता हूं, आगे आपलोग भी अपनी बात जोड़ देंगे।बॉस ने कहा था कि ये मीडिया है, यहां सरकारी नौकरी की तरह १० से पांच की ड्यूटी नहीं होती। यहां समय काम के हिसाब से तय होता है न कि समय के हिसाब से काम। इसलिए कई बार काम करते हुए तुम्हें १२ घंटे १४ घंटे भी लग सकते हैं और तुम्हें काम खत्म करके ही जाना होगा।
मीडिया के लोगों के लिए कोई होली-दीवाली नहीं होती। होली-दीवाली दुनिया के लिए होती है और हम उनके लिए ही कार्यक्रम बनाते हैं। मैंने भी देखा था कि सिर्फ चैनल के स्क्रीन पर त्योहार होते, चैनल के भीतर नहीं। तुम्हें यह सोचकर काम नहीं करना है कि आज तो होली है, छुट्टी नहीं होनी चाहिए। मैं भी चाहूं तो छुट्टी ले सकता हूं लेकिन देखो, तुम्हारे सामने खड़ा हूं.
पत्रकार का कोई अलग से जीवन नहीं होता। उसे खबरों में ही जीना होता है, अखबारों के साथ दिन की शुरुआत होती है और चैनलों के साथ खत्म होती हैं रातें। इसलिए तुम्हें खबरें खानी होंगी, खबरें पीनी होगी, खबरें ही सपने होंगे। सब खबर के भीतर ही जीना होगा। रेग्युलर टीवी देखो, नहीं है तो खरीदो।
यू नो न्यूज इज योर माइ बाप। तुम्हें आगे बढ़ना है, मीडिया में कुछ हटकर करना है इसलिए छोटी-छोटी चीजों को नजरअंदाज करो। ऑफिस में लगे कि ये वर्किंग कल्चर को खराब कर रहा है, उसकी खबर हमें दो। जो ऑफिस में सड़न पैदा करता हो, उसकी रिपोर्ट हमें दो। जो तुम्हें ज्यादा काम करने पर बहकाता हो, उसकी खबर दो। तुम समझदार हो, एमए, एम फिल् करके आए हो, तुम सारी चीजें बेहतर तरीके से समझते हो।
पैसे-वैसे की चिंता मत करो। मीडिया में संघर्ष है, अभी तुम्हें पैसे भी बहुत कम मिल रहे हैं लेकिन ये मत भूलो कि तुम एक बहुत बड़े मिशन पर लगे हो। तुम्हारा काम आम आदमी का नहीं है। तुम्हारे पास जो पॉवर है, प्रेस्टिज है वो अच्छे-अच्छे पैसेवालों के पास नहीं है। इसलिए पैसे को लेकर बहुत टेंस होने की जरुरत नहीं है। बाकी तुम समझदार हो ही।
....कुछ इसी तरह के वाक्यों के साथ मैंने चैनल में अपनी नौकरी की शुरुआत की थी। उस समय हमें बहुत पैसे नहीं चाहिए थे, काम चाहिए था। बिजी होना चाहता था, लम्बे समय के डिप्रेशन से उबरना चाहता था। मेरी तरह कई दोस्त थे और उन्होंने तो इंटर्नशिप के लिए आकाशवाणी औकर दूरदर्शन में पैसे तक दिए थे। इसलिए मैं शुरुआत के दिनों में खुश था। बाद में क्या हुआ, ये बात फिर कभी।
बॉस ने हमसे जो कुछ भी कहा उससे आप मीडिया को लेकर अंदाजा लगा सकते हैं। खुद ही तय कर सकते हैं कि इसमें कितनी सच्चाई है और आज सही अर्थों में इसकी क्या स्थिति है. बाकी आप खुद भी जोर देकर याद करें कि आपके बॉस ने पहले दिन क्या कहा था।
आगे पढिए, चैनल के छोड़ने के दिन क्या कहा था बॉस ने।
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डीयू में भेदभाव जारी है

Posted On 8:18 pm by विनीत कुमार | 0 comments

कटऑफ लिस्ट को लेकर डीयू के हंसराज कॉलेज के हिन्दी विभाग में क्षेत्रीयता के आधार पर भेदभाव करने का मामला सामने आया है। हंसराज कॉलेज से पास आउट हुए छात्रों का आरोप है कि हिन्दी विभाग में पर्सेंटेज को लेकर भारी गड़बड़ी है। विभाग की कोशिश है कि हिन्दी भाषी राज्य बिहार के लोग यहां नहीं आएं इसलिए उसने बड़ी चतुराई से कटऑफ लिस्ट जारी किया है। इस बात में कितनी सच्चाई है ये अलग मसला है लेकिन कटऑफ लिस्ट में जो पर्सेंटेज तय किए गए हैं और उसके पीछे जो तर्क दिया जा रहा है, वो अजीबोगरीब और हैरत में डालने वाले जरुर हैं।

विभाग ने बीए हिन्दी ऑनर्स में एडमीशन लेने के लिए जो पहली लिस्ट जारी की है उसमें पर्सेंटेज ६५ और ७० है। यानि ६५ प्रतिशत कोर वालों के लिए और ७० प्रतिशत सेलेक्टिव वालों के लिए। यहां तक तो मामला ठीक बनता है लेकिन आगे की बात जरुर चौंकानवाली है।विभाग ने आरबीएच हिन्दी के लोगों के लिए ८० प्रतिशत तय किया है। आरबीएच का मतलब है राष्टभाषा हिन्दी। पूरे देश में बिहार ही एक ऐसी जगह है जहां इंटरमीडिएट में हिन्दी को राष्टभाषा हिन्दी के नाम से पढ़ाया जाता है। इसे सबको पढ़ना अनिवार्य होता है। यहां के अलावे आरबीएच बोलकर हिन्दी नहीं पढ़ाई जाती। विभाग द्वारा इस आरबीएच हिन्दी के लोगों के लिए ८० प्रतिशत करने का मतलब है कि बिहार के लोगों को हंसराज के हिन्दी विभाग से दूर रखा जाए। छात्रों का तर्क है कि एक तो ये कटऑफ ही गलत है क्योंकि आरबीएच हिन्दी में किसी को ८० प्रतिशत आया ही नहीं है. हिन्दी में किसी को ८० प्रतिशत आया भी होगा तो या तो वो देश के दूसरी जगहों के होंगे या फिर सीबीएससीइ बोर्ड के. जिन लोगों ने बिहार बोर्ड की पढ़ाई की है, उनके ८० प्रतिशत नंबर नहीं आए। यानि वो एडमीशन की दौड़ से बाहर है। जबकि देश के दूसरे हिस्से के लोग या फिर दूसरे बोर्ड के लोग ६५ या ७० प्रतिशत नंबर लाकर भी एडमीशन के काबिल हैं।

छात्रों को गुस्सा इस बात पर आ रहा है कि जब विभाग ने बाकियों के लिए ये प्रतिश तय किया है तो फिर आरबीएच के लोगों के लिए ८० प्रतिशत तय करने का क्या मतलब है। यानि विभाग सीधे-सीधे बिहार के लोगों को न रोक पाने की स्थिति के बाद भी चतुराई से को बाहर कर देना chaahta है। दूसरे विषयों में हिन्दी को लेकर भेदभाव का मामला तो कई बार देखने में आया है। दिल्ली के कॉलेजों में हिन्दी के मुकाबले अंग्रेजी को बेहतर साबित करने और हिन्दी के लोगों को गयागुजरा मानने की बात तो सामने आयी है. करीब दो साल पहले इस बात को लेकर डीयू के हिन्दी विभाग में काफी हंगामा भी हुआ। लेकिन हिन्दी का हिन्दी के स्तर पर भेद किए जाने का ये मामला, मेरी नजर में पहली बार सामने आया है।इस मामले में जब छात्रों ने विभाग के लोगों से बात की तो विभाग का जबाब था कि- ऐसा इसलिए किया गया है कि आरबीएच हिन्दी पढ़कर जो लोग आते हैं उनका सिलेबस बहुत ही कमजोर है, इसलिए अधिक पर्सेंटेज तय करना स्वाभाविक है, इसमें कहीं कोई गड़बड़ी नहीं है। जबकि इसी बात को लेकर छात्रों का तर्क बिल्कुल अलग है.
छात्रों का कहना है कि देश के किस बोर्ड की सिलेबस कमजोर है और कहां की नहीं, यह तय तरने का जिम्मा यूजीसी को है न की किसी कॉलेज के विभाग को। औऱ फिर बिहार की हिन्दी का सिलेबस क्या अगरतल्ला और मिजोरम से भी कमजोर है, क्या देशभर की हिन्दी में सबसे कमजोर सिलेबस बिहार की ही है, ऐसा हो ही नहीं सकता। हंसराज के पुराने छात्र इस लचर तर्क मानते हैं और सिरे से खारिज करते हैं। दो साल पहबले एमए पास हुए हंसराज के एक छात्र का यहां तक कहना है कि मेरे बाद हिन्दी विभाग में बिहार के बहुत ही कम लोगों को हिन्दी विभाग में बीए के लिए लिया गया. और लिया भी गया तो वे बिहार बोर्ड के नहीं थे। क्या विभाग के लिए सिर्फ हिन्दी ही कमजोर है, बाकी विभाग के लोगों ने तो ऐसा कोई भी तर्क नहीं दिया। ऐसा जान-बूझकर किया जा रहा है, तर्क चाहे जो भी दिए जाएं।छात्र इसके खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करने के लिए तैयार हो रहे हैं और अगर इनके द्वारा बताई गयी बात सचमुच में सही है तो दिल्ली विश्वविद्यालय के लिए वाकई बहुत शर्मनाक स्थिति है।

बिहार क्या, देश के किसी भी हिस्से से पढ़कर आए लोगों के साथ इस तरह का भेदभाव जायज नहीं है। केन्द्रीय विश्वविद्यालय होते के नाते इसे मानक रुप तय करने और मानने ही होंगे। छात्रों की बातों की सच्चाई के साथ हम उनके साथ हैं और किसी भी स्तर पर भेदभाव किए जाने के खिलाफ हम उनका जमकर विरोध करते हैं।
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हिन्दी मीडिया में मीडिया से जुड़े लोगों की खबरें नहीं होंती। जो इंसान पूरी दुनिया के लिए खबरें बना रहा हो, पूरी दुनिया की खबर ले रहा हो, पूरी दुनिया को खबर कर रहा हो, उसके लिए अखबारों में या फिर टेलीविजन में कोई स्पेस नहीं है। हिन्दी अखबारों में न तो इसके लिए कोई कॉलम है जहां ही इनसे जुड़ी बातों का जिक्र हो। इनके मनोभावों, स्थितियों और परेशानियों की चर्चा हो औऱ न ही टेलीविजन चैनलों के भीतर ऐसे कोई कार्यक्रम हैं जहां उनके बारे में बताया जाता हो, हम दर्शकों को सूचित किया जाता हो। मीडिया के लिए काम करनेवाले लोग मीडिया के बीच से सिरे से गायब हैं। उनकी खबर खुद मीडिया भी नहीं लेती।
कल मैंने एक इंटरटेनमेंट चैनल से एकमुश्त ३० लोगों को निकाले जाने की खबर अपने ब्लॉग पर लिखा। कई फोन आए, कुछ लोगों नें मेल भी किया। सबका एक ही सवाल कि आपने न्यूज चैनल का नाम ही नहीं लिया। आखिर, हमें भी तो पता चले कि किस चैनल ने ऐसा काम किया है। एक कमेंट में यहा तक कहा गया कि आपमें इतना भी साहस नहीं है कि आप चैनल का और उनके कर्ता-धर्ता का नाम लिख सकें। बिना चैनल का नाम लिए पूरी बात कह जाने पर इस तरह की टिप्पणी का आना स्वाभाविक ही है। यह अलग बात है कि मैंने अपनी बात इतने साफ ढंग से कर दी थी कोई भी अंदाजा लगा लेगा कि किस चैनल और प्रोडक्शन हाउस के बारे मे बात की जा रही है। बाद में अनिल रघुराजजी की टिप्पणी से तो सब साफ हो जाता है। खैर,
मैंने गौर किया कि जितने भी फोन और मेल इस जानकारी के लिए मेरे पास आए, उनमें से ज्यादातर लोग किसी न किसी रुप में मीडिया से जुड़े हैं। कुछ लोग मीडिया में बहुत सक्रिय भी हैं। लेकिन वो अंदाजा नहीं लगा पा रहे थे कि किस चैनल के बारे में बात की जा रही है। एक मेल में यहां तक लिखा था कि- इस तरह की बातें मीडिया के भीतर इतनी हो रही है कि अंदाजा लगाना मुश्किल हो रहा है, आप स्पष्ट करें। मीडिया के भीतर एक बड़ी सच्चाई है कि सूचना के स्तर पर एक trainee तक को यह पता होता है कि कौन किस पैकेज पर कहां जा रहा है औऱ किस चैनल के लिए जा रहा है और वहां जाने पर वो किस रुप में काम करेगा। यह बात मैं अपने अनुभव से कह रहा हूं। लेकिन इसी मीडिया के भीतर यह जानकारी नहीं है कि किस तीस चैनल के लोगों की छंटनी की गयी। यह मीडियाकर्मियों के अधिकार का मामला है जिसकी जानकारी लोगों को नहीं मिल पायी। इससे आप अंदाजा लगा सकते हैं कि सूचना समाज के नाम पर और खबरों की बाढ़ के बीच कौन सी खबरें तैर रही हैं और कौन सी खबरें परे धकेल दी जातीं हैं।

तेजी से एक प्रोमोशन और मजबूत पैकेज के लिए एक चैनल से दूसरे चैनल में जाने की घटना मीडिया के लोगों के लिए वाकई में कोई बड़ी बात नहीं है। लेकिन इसके साथ ही ३० लोगों की छंटनी भी कोई बड़ी बात नहीं है। उसे भी आसानी से पचाया जा सकता है। हिन्दी मीडिया के भीतर इस तरह की खबरों को लेकर जो अभ्यस्त मानसिकता तेजी से पनप रही है वो मीडिया के लिए कितना खतरनाक है इस बात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि तमाम तरह के शोषणों के वाबजूद मीडिया के बीच से प्रतिरोध का कोई स्वर सुनाई नहीं देता। अधिकारों के लिए यूनियन औऱ संगठन की बात तो बहुत आगे की चीज है। किसी मीडिया हाउस पर हमला या आरोप लगा हो तो यह काम भी आ जाए लेकिन व्यक्तिगत स्तर पर किसी मीडियाकर्मी के साथ कोई गड़बड़ी होती है तो यह काम आएगी इसे विश्वसनीय ढ़ंग से नहीं कहा जा सकता।
जून के मीडिया मंत्र अंक में पुष्कर पुष्प ने जब यह छापा कि एक पत्रकार ने आजीज आकर अपने बॉस के उपर थूक दिया तो लगा कि चलो कुछ तो पत्रकारों की हिम्मत बंधी होगी। लेकिन इसे आप प्रतिरोध का स्वर नहीं कह सकते। यह असहाय हो जाने की स्थिति को संकेतित करता है। मैं अपनी तरफ से इस बात की कोई घोषणा नहीं करता कि प्रतिरोध के स्तर पर हिन्दी मीडिया के पत्रकार असहाय हो गए है। ऐसा कहने का न तो मेरे पास कोई अधिकार है और न ही यह घोषित करने का दावा। लेकिन इतना तो जरुर कहा जा सकता है कि दुनिया भर के लोगों को नागरिक अधिकारों का पाठ पढानेवाले मीडियाकर्मी अपने लिए इतने चुप क्यों रह जाते हैं। इसके पीछे जो मजबूरी इनकी है वही मजबूरी बाकी नागरिकों के साथ भी है तो फिर जागरुक समाज होने का दावा कहां बचा रह जाता है।

क्या यह स्थिति कुछ ऐसी है कि एक मल्टीनेशनल के एक दिन में दर्जनों जूते बनानेवाला मजदूर चप्पल के अभाव में फटी बिबाइयां लिए घूम रहा है। एक किसान जो लहलहाती फसलों के बीच मंत्रालय के लिए अपनी फोटो खिंचवाता है और दो जून की रोटी के लिए पछाड़ खाकर गिरता-पड़ता रहता है। क्या अधिकारों के स्तर हिन्दी मीडिया के पत्रकारों की स्थिति भी कुछ ऐसी ही है। जो सिर्फ सिर झुकाए स्क्रिप्ट तैयार करते हैं, पैकेज काटते हैं और अन्याय होते देख सामान्य से ज्यादा उंची आवाज में हमें सचेत करते हैं। क्या इन शब्दों में, इन पैकेजों में उनका कोई स्वर नहीं होता।
अगर ऐसा है तो फिर इनके अधिकारों का क्या होगा। महीनों पांच हजार, छः हजार की नौकरी करनेवाले मीडियाकर्मी कब तक देश की क्रांति के लिए पृष्ठभूमि चैयार करते रहेंगे। कब तक डबल शिफ्ट करते हुए शोषण और उत्पीड़न के विरोध में पैकेज तैयार करते रहेंगे। दुनिया के नागरिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए सरकार है, स्वयंसेवी संगठन हैं, प्रेस हैं और न्यायालय है लेकिन इनके लिए। जाहिर है व्यावहारिक स्तर पर,,,,,,,

चैनल का नाम अब भी नहीं दे रहा क्योंकि मेरी पोस्ट और अनिल रघुराज की टिप्पणी से सब स्पष्ट है
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हिन्दी मीडिया का काला अध्याय

Posted On 5:09 pm by विनीत कुमार | 5 comments


एक प्रोडक्शन हाउस ने हाल ही में खोले गए अपने हिन्दी इंटरटेन्मेंट चैनल से एकमुश्त ३० स्थायी मीडियाकर्मियों की छंटनी कर दी औऱ अब ये सारे के सारे सड़क पर आ गए हैं। हाउस ने छंटनी करने के एक दिन पहले तक उन्हें नहीं बताया कि उन्हें नौकरी से निकाला जा रहा है। छंटनी के दिन उनसे सीधे कहा गया कि अब हमें आपकी जरुरत नहीं है।

हिन्दी टेलीविजन के इतिहास में पहली ऐसी घटना है जहां एक साथ ३० लोगों को बिना पूर्व सूचना के काम से बाहर निकाल दिया गया। यह कानूनी तौर पर गलत तो है ही साथ ही मीडिया एथिक्स के हिसाब से भी गलत है। वाकई हिन्दी मीडिया के इतिहास का यह काला अध्याय है और हम ब्लॉग के जरिए इसका पुरजोर विरोध करते हैं।

मीडिया संस्थानों से पत्रकारों को निकाल-बाहर करने की यह कोई पहली घटना नहीं है। इसके पहले भी कई चैनलों से बड़े-बड़े अधिकारियों को आपसी विवाद या फिर चरित्र का मसला बताकर निकाल-बाहर किया गया है। लेकिन टेलीविजन के इतिहास में शर्मसार कर देनेवाली शायद ये पहली घटना है जब एक ही साथ तीस मीडियाकर्मियों को जरुरत नहीं है बताकर निकाल दिया गया। इनमें नीचे स्तर से लेकर प्रोड्यूसर लेबल तक के लोग शामिल हैं। हाउस अगर निकालने की वजह सबके लिए व्यक्तिगत स्तर पर बताती है तो इसके लिए उसे काफी मशक्कत करनी पड़ेगी। संभव है कि अगर ये सारे लोग मिलकर कोर्ट का दरवाजा खटखटाएं तो प्रोडक्शन हाउस पर भारी पड़ जाए।
हाउस ने इतनी बड़ी छंटनी की है इसका बड़ा आधार हो सकता है कि वो इसके जरिए अपने वित्तीय घाटे को पूरा करना चाह रही हो। उसे इन कर्मियों के वेतन का बोझ उठाना भारी पड़ रहा हो। उसकी स्थिति शायद ऐसी नहीं बन रही हो कि वो अधिक मैन पॉवर का खर्चा उठा सके। वैसे भी बाजार में इस प्रोडक्शन हाउस के शेयर की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। जिस हाउस के शेयर १०४ रुपये तक गए थे, आज वो लगातार गिरकर ३३ रुपये पर आ गया है। इससे इसके वित्तीय स्थिति का अंदाजा साफ झलक जाता है। लेकिन एक बड़ी सच्चाई यह भी है कि मीडिया सेक्टर बिजनेस के बाकी सेक्टर से अलग है। एक तो मीडिया अभी भी शुद्ध बिजनेस की शक्ल में सामने नहीं आ पाया है औऱ अगर भीतर से हो भी गया हो तो आम जनता के बीच इसकी छवि बिजनेस की नहीं बन पायी है। एक हद तक मीडियाकर्मी भी पूरी तरह से बिजनेस के हिसाब से मीडिया में काम करने के लिए अपने को तैयार नहीं कर पाए हैं। अधिक पैकेज और पद को लेकर वो चैनल बदल लेते हों तो भी। इसलिए अगर चैनल को घाटा भी होता है तो भी एक हद तक उसे मीडिया इथिक्स फॉलो करना अनिवार्य है। यह मीडिया इथिक्स कई मामलों में बिजनेस प्रोफेशनलिज्म से अलग है।

....औऱ फिर इस हाउस के प्रमुख की पृष्ठभूमि खुद भी एक पत्रकार की रही है। उन्होंने भी पत्रकार की हैसियत से इस स्थिति में तनाव जरुर झेले होंगे। एक पत्रकार के मनोभावों को समझने की क्षमता उन्हें है, इस बात की तो उम्मीद की ही जा सकती है। इसके साथ ही इतने बड़े चैनल में बड़ा निवेश करने और उसके नफा-नुकसान पर संतुलित ढंग से कदम उठाने का तरीका भी उन्हें बखूबी आता ही होगा। हम उनसे उन लालाओं की तरह के हरकतों की उम्मीद नहीं करते जो कि अपने फायदे के लिए अपने कर्मचारियों को ही दूहने लग जाए। चाहे वो मशीन पर काम करनेवाले कर्मचारी हों चाहे डेस्क पर काम करने वाले मीडियाकर्मी।चैनल की वित्तीय स्थिति अगर पहले से दिनोंदिन खराब होती जा रही है औऱ उसे नियंत्रण में लाए जाना जरुरी है। इस नियंत्रण के लिए यह भी जरुरी है कि साधनों में कटौती की जाए लेकिन क्या इसका मतलब यह है कि साधनों में कटौती के नाम पर सबसे पहली गाज वहां के मीडियाकर्मियों पर गिरायी जाए। जो संस्थान करोंड़ों रुपये की लागत से चैनल खोलने का माद्दा रखता है उसे उसके नफा-नुकसान की स्थिति में संयमित रहने का कौशल जरुर आना चाहिए। उसे इस बात की पूरी चिंता होनी चाहिए कि हमारे यहां काम करनेवाले लोग किस हद तक कम्फर्ट हैं।कटौती के सौ तरीके हैं औऱ हो सकते हैं। और इन सबके वाबजूद भी अगर चैनल के पास कटौती के और कोई रास्ते नहीं बचते हैं और अपने कर्मियों को निकालना जरुरी हो जाता है तो इसके दो या तीन महीने जो कि पेपर पर लिखा होता है, पहले बताना चाहिए ताकि लोग अपना विकल्प तलाश लें।

दरअसल जितनी हड़बड़ा से चैनल लांच किए जा रहे हैं औऱ महीने-दो-महीने बाद जिस तरह से उसके परिणाम सामने आ रहे हैं उससे साफ लगता है कि चैनल के लोग कंटेंट पर भले ही रिसर्च कर लेते हों कि क्या चलाया जाए कि टीआरपी आसमान छूने लग जाए, पहले के सारे चैनल ध्वस्त हो जाएं लेकिन इस बात पर काम नहीं होता कि कितने लोगों को किस काम के लिए रखना है, उनसे कितना काम लेना है। शुरुआत में आंधी-तूफान की तरह लोगों को भर्ती किए जाते हैं लेकिन बाद में जब चैनल की स्थिति अच्छी नहीं बनती तो फिर किसी न कीसी बहाने से निकालते चले जाते हैं। चैनल को इस मामले में बाकी के बिजनेस की तरह पहले से तय करना होगा और काम करनेवाले लोगों को एश्योर करना होगा कि वो सेफ हैं। नहीं तो लोगों के बीच जो असंतोष पनपेगा, उसका सीधा असर चैनल पर दिखेगा।

अभी इस चैनल ने प्रोड्यूसर लेबल के लोगों की छंटनी की है, हो सकता है इसका प्रभाव बड़े अधिकारियों पर भी पड़े और वो आगे के लिए अपने विकल्प तलाशने लग जाएं या फिर चैनल उन्हें भी चलता कर दे। ऐसे में पूरी मीडिया पर क्या असर होगा, यह वाकई चिंता का विषय है।जिन तीस लोगों को निकाल-बाहर किया गया है, संभव है वो किसी तरह की कारवाई नहीं करें। अपने जीवन का एक छोटा सा हादसा मानकर कहीं और जाने की कोशिश में लग जाएं। एक आदत के तौर पर इसे पचा जाएं। उनके लिए कोई यूनियन भी नहीं है क्योंकि पर्सनल लेबल पर अपने को ब्रांड बनाने के फेर में मीडियाकर्मियों खासकर टेवीविजन के लोगों ने यूनियन फार्म करना जरुरी नहीं समझा। लेकिन इसके साथ ही दूसरे चैनल भी यही रवैया अपनाने लग जाएं। मसलन इस चैनल की सिस्टर न्यूज चैनल ही ऐसा ही करने लग जाए तो फिर मीडिया में काले अध्यायों की भरमार होगी और जिसे हटाने के लिए कोई नहीं आएगा, शायद मीडियाकर्मी भी नहीं। इसलिए इस तरह के हादसों को होने से रोकना अभी से ही बहुत जरुरी है।
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हिन्दी के बौखलाए मसीहा

Posted On 6:35 pm by विनीत कुमार | 1 comments





हाय री हिन्दी, हमने तुम्हें इतने जतन से संभाले रखा लेकिन अंत में इन दुष्टों ने तुम्हें बाजार के कोठे पर बिठा ही दिया, तुम्हें पूंजीवाद के कसाईयों के हाथों बेच ही दिया, मीडिया पर रिसर्च कर-करके अपवित्र कर ही दिया, तुम्हें वर्जिन नहीं रहने दिया हिन्दी। हाय मैं क्या करुं, क्या-क्या नहीं किया तुम्हें बचाने के लिए , कौन-कौन से वाद नहीं झोंकें, तुम्हें शुद्ध रखने के लिए। इतना शुद्ध की बाजार की कभी काली छाया तुम्हारे उपर न पड़ने पाए।

...ये चित्कार है हिन्दी के एक बौखलाए हुए मसीहा की। एक ऐसे मसीहा की जिन्हें आज से साल-सवा साल पहले तक लगता रहा कि गोला बनाकर ज्ञान बांचने से हिन्दी को शीर्ष पर बैठाया जा सकता है, हिन्दी के जरिए शीर्ष पर बैठा जा सकता है, गोला कल्चर से वो हिन्दी जगत में क्रांति ला देंगे लेकिन यही गोला असफलता और हताशा की मार में जब टूटकर, छितराकर मलवे के रुप में इधर-उधर बिखरता नजर आ रहा है, इस गोले का केन्द्र खिसकता जान पड़ रहा है तो अब बिल-बिलाकर जहां तहां भकुआ रहे हैं। अपने जिन औजारों और तिकड़मों से वो खुद को हिन्दी की दुनिया में अजर-अमर होने का ख्बाव देखते रहे, जब उन औजारों का उल्टा असर उन पर पड़ा तो उसी औजार से हिन्दी को बचाने की प्रवंचना करने में लगे हैं। दुनिया को हिन्दी बचाने की हांक लगानेवाले ये मसीहा अप्रत्यक्ष रुप से अपने समर्थन में कुछ भीड़-भाड़ जुटाने में जुटे हैं।

लेकिन इसके लिए उन्होंने बौद्धिकता का रास्ता अपनाने के बजाए बल्ली मारान के उन दुकानदारों का रवैया अपनाना ज्यादा जरुरी समझा, शायद वो इसी में समर्थ हों, जो अपने माल पर से मक्खी उड़ाने के बजाय पड़ोस वाले दुकानदार के माल के बारे में कहते-फिरते हैं कि- अजी उसके यहां तो अरब की मक्खियां बैठती हैं, अपने यहां तो फिर भी देशी ही हैं, लोकल। औऱ जब दुकानदार इसी अरब को मतलब की जगह बताकर अपना माल इत्मिनान से बेचने में जुटा है तो वो बौखलाए हुए हैं।

आज २२ जून, जनसत्ता में संजय कुमार झा के लेख शोध का दायरा में इस मसीहा के विचार कुछ इसी तरह की मानसिकता को पुष्ट करते हैं। इससे आपको उनकी बौखलायी मानसिकता का अंदाजा तो लग ही जाएगा, साथ ही इस बात की भी समझ बढ़ेगी कि बौखलाने पर इंसान की समझदारी कैसे जाती रहती है।

संजय कुमारजी ने जो लेख लिखा है उसमें यह बताने का प्रयास किया है कि दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में शोध कर रहे रिसर्चर का विषय को लेकर मिजाज पहले से काफी बदला है। उनका रुझान पुराने और घिसे-पिटे विषयों के बजाय मीडिया, सिनेमा और नए माध्यमों की ओर बढ़ा है। मेरे हिसाब से विजुअल लिटरेचर को लेकर लोग पहले से बहुत अधिक कॉन्शस हुए हैं। हालांकि संजय कुमार ने विषयों को लेकर दोनों तरह के लोगों के विचार हम पाठकों के सामने रखे हैं। एक उनके विचार जो हिन्दी के भीतर मीडिया, सिनेमा और कल्चर के अध्ययन को ही नाजायज मानते हैं। उनके हिसाब से अव्वल ये साहित्य है ही नहीं तो फिर उनका हिन्दी में अध्ययन क्यों किया जाए और दूसरा उनकी भी जो बदलते समय के साथ नए विषयों पर शोध करने और करवाने के लिए उत्साहित हैं।


लेकिन जहां-जहां संजय कुमारजी ने अपनी राय देने की कोशिश की है वहां यह साबित हो जाता है कि वो भी इस तरह के विषयों पर शोध होने देने के पक्ष में नहीं हैं। वो भी हिन्दी को शुद्धतावादी नजरिए से देखने के अभ्यस्त नजर आते हैं। संजयजी ने एक पत्रकार की हैसियत से अपनी बात रखी है और उनकी बात को उनकी ही हैसियत के हिसाब से देखा जाएगा। वो चाहें तो लगातार लिखकर इस तरह के विषयों पर शोध होने के विरोध में माहौल तैयार कर सकते हैं, अब वो कितना वैधानिक होगा ये अलग मसला है। इसलिए संजय की बात को हम यहीं रोकते हैं क्योंकि वो सीधे-सीधे हस्तक्षेप करके विषय में फेरबदल नहीं कर सकते।

हम बात उन टीचरों की करना चाहते हैं जो रिसर्च कमेटी में शामिल होते है, इंटरव्यू में शामिल होते हैं, एक साक्षात्कार देने वाले बंदे के दांत से पसीना निकाल देते हैं, उनसे इतना सवाल करते हैं कि वो पीएच।डी कर लेने के बाद भी उसका सही-सही जबाब नहीं दे पाएगा। उससे वो सब कुछ पूछते हैं जिन्हें वो सवाल के तौर पर वाक्य के रुप में बना सकते हैं। अगर कोई बंदा रिसर्च के लिए मीडिया के विषय चुनता है तब तो उसे साहित्य का पथभ्रष्ट मानकर औऱ ही ज्यादा सवाल करते हैं। आप उसे सवाल करना न कहकर जलील करना कह सकते हैं। वो इन विषयों पर कुछ इस तरह से रिएक्ट करते हैं कि गोया ये कोई विषय न होकर व्यक्ति हो औऱ जिनसे उनकी अपनी खुन्नस निकालनी हो,इन विषयों के प्रति दुराग्रह, तंग नजरिया और हिकारत उनके चेहरे से साफ झलकती है। लेकिन इन सबके वाबजूद बंदा जबाब देता है और चयनित होता है। आज जो टीचर इस तरह के विषयों पर शोध किए जाने से प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहे हैं वो परास्त मानसिकता की बौखलाहट है और कुछ भी नहीं।


जिस मसीहा ने असहमति के नाम पर यह कहा है कि- इसका सबसे खतरनाक पहलू यह है कि इन शोधों के जरिए यह स्थापित करने का प्रयास किया जा रहा है कि पॉपुलर कल्चर में जो भी है, वह अच्छा ही अच्छा है। कायदे से इन प्रसंगों पर किए गए शोध में पॉपुलर कल्चर की खामियों पर भी चर्चा होनी चाहिए। लेकिन शोधार्थी ऐसा करते हैं, इसमें संदेह है। कुछ शिक्षकों का कहना है कि ऐसा इसलिए है कि शोधार्थियों पर इस बात का दबाव होता है कि वे अपने शोध में ऐसा कुछ ना लिखें जो बाजारवादी सोच के खिलाफ हो। संजयजी की चतुरता देखिए कि उन्होंने पूरे लेख में इस बात का विरोध करने वाले केवल एक ही बौखलाए मसीहा का नाम लिया, बाकी को कुछ कहकर अपना काम चला लिया। अगर नाम ही देना था तो या तो फिर पूरे का या फिर किसी का भी नहीं।

संजयजी की इस काबिलियत के दो मायने निकलते हैं। एक तो है कि एक का नाम लेकर वो इस पूरे मामले को तमाशे की शक्ल में बदलना चाहते हैं जिससे कि आम पाठक मजे लें या फिर ऐसा लिखकर संजय एकमुश्त के बाकी बाबाओं से रार नहीं लेना चाहते। जिस मसीहा का उन्होंने नाम लिया है वो पहले भी अलग-अलग मसलों पर हिन्दी विभाग के खिलाफ बोलते आए हैं इसलिए यहां भी नाम आ जाए तो कोई हर्ज नहीं है, इससे उनकी निरंतरता और प्रतिबद्धता पर औऱ ढंग से मुहर लगेगी। लेकिन बाकियों को जो कुछ की श्रेणी में रखा है उन्हें अभी भी खुलकर सामने में हिचक आ रही हो, अपने को तैयार नहीं कर पाए हों कि वो खुलकर सामने आएं। ऐसा भी हो सकता है कि विशेषज्ञता किसी और क्षेत्र में होने के वाबजूद इन विषयों में भी हाथ आजमाने की कोशिश में हों और भविष्य को देखते हुए खामख्वाह अपना काम खराब नहीं करना चाहते हों। इसलिए संजयजी से कहा होगा कि विरोध में बोल तो दूंगा लेकिन नाम मत लेना। संजयजी को इस ग्रांउड पर माफ किया जा सकता है, जब रॉ ही मिलावटी मिला है तो फिर फाइनल कहां से प्योर देंगे।

अब संयोग देखिए कि मीडिया और पॉपुलर कल्चर के लिए संजयजी ने जिन दो विषयों को उदाहरण के तौर पर पेश किया है वो सीधे-सीधे मेरे रिसर्च के काम से जुड़ें हैं। संजयजी ने लिखा है कि- टेलीविजन की भाषा और एफ एम चैनलों के बीच अंतर पर पीएचडी हो रही है। एफ एम पर मैंने एम फिल में काम किया है और टेलीविजन की भाषा पर पीएचडी कर रहा हूं। इस विषय के बारे में संजयजी ने शिक्षकों की जो राय रखी है वो यह कि-फिल्म टेलीविजन और या एफ एम रेडियो के जिन प्रसंगों पर शोध किए जा रहे हैं, क्या उन्हें साहित्य की श्रेणी में रखा जा सकता है। क्या इन विषयों पर शोध को बढ़वा देना हिन्दी विभाग का काम है।....

...आगे संजयजी ने लिखा है कि दरअसल इन लोगों की चिंता यह है कि यह सब बाजार के इशारे पर किया जा रहा है। संजयजी ने जिस मसीहा का वाकायदा नाम लिया है, सबसे पहले तो वो मेरी तरफ से उन्हें शुक्रिया का संदेश पहुंचाएं कि उन्होंने अपने रिसर्चर के काम के अलावे हम जैसे लोगों के काम को भी पढ़ा। वरना हिन्दी क्या, कई विभाग के लोग अपने ही स्टूडेंट का काम पढ़ते तक नहीं। इस मसीहा जैसे लोग हिन्दी में दो-चार हो -जाएं तो रिसर्चर की पीड़ा ही खत्म हो जाए जो बहुत मेहनत से काम करने के बाद पछताते-फिरते हैं कि बेकार में इतनी मेहनत से काम किए, गाइड ने पल्टा तक नहीं। हम उनकी बौद्धिक क्षमता के भी कायल हैं जो बिना रिसर्च पूरा हुए पता लगा ले रहे हैं कि हम क्या निष्कर्ष निकालेंगे। लेकिन उनसे कहिएगा कि हम रिसर्च कर रहे हैं किसी कम्पनी का प्रोजेक्ट नहीं बना रहे, जहां सबकुछ पहले से तय है।

संजयजी प्लीज एक और बात के लिए धन्यवाद दीजिएगा कि- हम दुष्टों में उन्होंने इस योग्यता को देख लिया कि हम हिन्दी को बाजार के लिए तैयार कर रहे हैं या फिर हम बाजार के हिसाब से तैयार हो रहे हैं। वरना अभी तक तो हिन्दी के लोग अपने भिखमंगई लुक के लिए विश्वविख्यात हैं ही औऱ उस जड़ता के शिकार भी की हम झोला ढोते-ढोते मर जाएंगे, गोला बनाते-बनाते मिट जाएंगे लेकिन रोजी-रोजगार के लिए अपने को तैयार नहीं करेंगे।संजयजी, जाते-जाते एक सवाल आप जरुर पूछिएगा उस बौखलाए मसीहा से कि- क्या वो जो कुछ भी कह रहे हैं, हिन्दी और हिन्दी विभाग को जिस रुप में बनाना चाह रहे हैं क्या उसके केन्द्र में वाकई छात्र हित है या फिर उनकी व्यक्तिगत कुंठा, फ्रसट्रेशन और नो डाउट उनकी बौखलाहट।।

आगे पढ़िए- क्यों बौखलाए हिन्दी के मसीहा
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मीडिया को इस बात की जानकारी पहले से थी। पूरी बात सुनने के पहले,अधूरे वाक्य के बीच में ही उधर से जबाब आता- हॉ, हॉ पता है, कल है न। हमारे सर ने भी बताया कि अधिकांश मीडिया को फैक्स कर दिया गया है,मेल भी किया गया है। लेकिन टेलीविजन चैनलों में दूरदर्शन और सहारा के अलावा हमें कोई नहीं दिखा। बीच-बीच में कैमरे के फ्लैश चमकते तो हमने अंदाजा लगाया कि अखबार से लोग आए होंगे। लेकिन आज हिन्दी-अंग्रेजी सहित देश के चार बड़े अखबारों में खोजा तो कहीं कोई खबर नहीं थी।
हमारे साथ जुड़े कई लोगों को मीडिया के इस चरित्र पर हैरानी हो रही थी, अफसोस हो रहा था औऱ कुछ कह रहे थे, सब ढ़ोंग पालते हैं ये मीडियावाले। एक बार गड्डे से प्रिंस को बचाने में मदद कर दी, जसिका लाल मामले में महौल तैयार कर दिया तो उसे अभी तक विज्ञापन करके उलजुलूल खबरें दिखायी जा रही है औऱ दावा करते हैं कि हम आदमी के पक्ष में काम कर रहे हैं, हम देश का चेहरा दिखा रहे,बकवास करते हैं, सब के सब। मेरे साथ के लोग जिसे मीडिया की बशर्मी कह रहे थे उसे मैं मीडिया की मजबूरी समझ रहा था और कोशिश कर रहा था कि उनकी सफाई में कुछ कहूं।
आमतौर पर डीयू, जेएनयू कैंपस में यूनिट लगाकर दिन-दिनभर लोगों की बाट जोहते रिपोर्टर्स आपको मिल जाएंगे। देश के किसी भी कोने में कोई हलचल हो, कोई फेरबदल हो औऱ इस मामले में देश के युवाओं से राय जाननी हो, इन रिपोर्टरर्स के लिए सबसे आसान होता है कि कैंपस की राह पकड़ लें। दो-चार हैप किस्म के लड़के-लड़कियों को पकड़ लें, उनका मन हो चाहे नहीं हो, उस मामले में उनको कोई जानकारी हो चाहे नहीं हो, बोलना चाहते हों या नहीं हो लेकिन चार-पांच मिनट की ब्रीफिंग के बाद उन्हें उस मसले पर कुछ बोलने के लिए मिन्नतें करने लगेंगे। अनचाहे ढंग से दी गई उनकी बाइट देश के युवाओं की सोच बन जाती है।
सवाल भी ऐसे-ऐसे कि- क्या आपको नहीं लगता कि धोनी का करियर बॉलीवुड की कमेस्ट्री की वजह से गड़बड़ रहा है, आपको लगता है कि राहुल गांधी ही देश के युवाओं के सही विकल्प हैं, क्या गांगुली को क्रिकेट से संन्यास ले लेने चाहिए। लड़कियों के लिहाज से कितनी सेफ है दिल्ली, आपको क्या लगता है। स्टिरियो टाइप के वो सारे सवाल ये आपसे पूछते हैं जिसे कि असाइनमेंट डेस्क पर अपने बॉस के साथ तय करके आते हैं या फिर रास्ते में ड्राइवर से डिस्कश करके तैयार करते हैं. मुझे तो कई बार इस मामले में ड्राइवर ज्यादा काबिल लगा है। इस बाइट, अपनी पीस टू औऱ आइडिया के बूते उन्हें लगता है कि आज उन्होंने कोई तीर मार लिया है और अगर इसी तरह की स्टोरी करते रहे तो जरुर गोयनका अवार्ड मिल जाएगा। बाइट के लिए लोगों के बीच रिरियाते हुए कोई बंदा इसे देखता है तो एक घड़ी को जरुर मीडिया में जाने का अपना इरादा बदल लेगा। प्रोफेसर्स तो कहते हुए गुजर ही जाते हैं कि- ये भी बेचारे क्या करें, इनका पेशा ही कुछ ऐसा है।
लेकिन इन्हीं रिपोर्टरों को कल जब डीयू, जेएनयू और जामिया मिलिया औऱ इग्नू के दौ सौ से भी ज्यादा स्टूडेंट्स, टीचर्स औऱ मानवाधिकार के लिए संघर्ष कर रहे लोग पुलिस हेडक्वार्टर पर विरोध प्रदर्शन किया तो उन्हें इसमें कोई स्टोरी नहीं दिखी। यह जानते हुए कि ये लोग क्या यहां सड़कों पर उतर आए हैं, ये जानते हुए कि जिस लड़की के साथ जातीय उत्पीड़न हुआ है वह भी डीयू कैंपस की ही छात्रा है उन्हें चलाने के लिए कुछ नहीं मिला। अब मीडिया के हमारे सारे दोस्त बेशर्मी तो कर गए लेकिन सफाई हमें देनी पड़ गयी।
देखिए, हुआ क्या होगा कि जो लोग डेली रुटीन रिपोर्टर के तौर पर कैंपस को कवर करते हैं, उन्हें लगा होगा कि ये तो कैंपस में कुछ हो ही नहीं रहा। विरोध प्रदर्शन करनेवाले लोग तो आइटीओ जा रहे हैं। इन रिपोटरर्स के लिए लोग से ज्यादा मायने लोकेशन रखते हैं। इसलिए कल की स्टोरी को कवर करने की जिम्मेवारी उन पर नहीं थी। उनकी जिम्मेवारी कैंपस में होनेवाली गतिविधियों को कवर करने की है। इसलिए गलती उनलगों की है जिन्होंने प्रदर्शन कैंपस में न करके आइटीओ पर किया। आप इन कैंपस रिपोर्टरों को दोष नहीं दे सकते।
अच्छा, जब ये स्टोरी कैंपस की है ही नहीं,पुलिस मुख्यालय की है तो फिर ये जेनरल स्टोरी है। जेनरल स्टोरी ऐसी कि डीयू में रिसर्च करनेवाली एक लड़की को उसके मकान-मालिक ने सिर्फ इसलिए पीटा कि उसे पता चल गया था कि वो दलित है। घर खाली करने के लिए कहा और यह धमकी कि नहीं खाली करोगे तो सामूहिक रेप करेंगे इसलिए दी कि वो दलित है। एक जेनरल स्टोरी के हिसाब से दिल्ली जैसे बड़े शहर में कौन सी बात है, ऐसा तो आए दिन होता रहता है,दिल्ली के लोग और खुद मीडिया भी इस तरह की घटनाओं की अभ्यस्त हो चुकी है। अब गली-गली में ऐसा होता रहे तो मीडिया थोड़े ही सभी खबरों को चलाएगी। मीडिया तो सेलेक्टेड स्टोरी उठाएगी और उसके जरिए लोगों में इस बात की जागरुकता पैदा करेगी कि आगे से ऐसी कोई घटना न हो। कल के विरोध-प्रदर्शन की अगर मीडिया ने कोई खोज-खबर नहीं ली,45 दिनों से मकान के लिए भटक रही कनकलता और उसके भाई-बहनों की मीडिया ने कोई सुध नहीं ली तो इसमें नया क्या है औऱ 6 मई को दलित एक्ट लग जाने के बाद भी ग्रोवर परिवार को 20 मई को जमानत मिल जाती है तो इसमें आश्चर्य क्या है। किसे नहीं पता कि दिल्ली पुलिस कई मामलों में आरोपियों को सहयोग करती आई है, इसमें आश्चर्य क्या है।
मुझे नहीं लगता कि अगर मीडिया ने कल के प्रदर्शन और इस पूरे मामले को नहीं उठाया तो कोई बशर्मी है और अगर बेशर्मी कह भी रहे हैं तो मीडिया की मजबूरी भी कम नहीं हैं,उनके पास ऐसा करने के ठोस तर्क हैं। इसलिए मीडिया को लेकर हाय-तौबा मचाने की जरुरत नहीं हैं। अपने तरफ से इतनी सफाई तो पर्याप्त है।
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जातीय उत्पीड़न के खिलाफ संघर्ष कर रही कनकलता और उसके परिवार वालों को आज एक बड़ी सफलता मिली है। दिल्ली पुलिस ने उत्तर-पश्चिम के एसीपी चन्द्रहास यादव को जांच अधिकारी के पद से हटा दिया है। ध्यातव्य है कि एसीपी यादव पर आरोपी ग्रोवर परिवार को बचाने का आरोप है।


आज पुलिस मुख्याल्य में "पीपुल्स एक्शन अगेन्सट दलित एट्रोसिटीज" के प्रतिनिधिमंडल से बात करते हुए दिल्ली पुलिस के संयुक्त सचिव श्री आर.आर.मीणा ने बताया कि अब कनकलता के मामले की छानबीन डीसीपी उत्तर-पश्चिम डॉ सागरप्रीत हुडा करेंगे। डॉ हुडा ने प्रतिनिधि मंडल को आश्वस्त करते हुए ये कहां कि भारतीय दंड संहिता की धारा १६४ के तहत कनकलता का वक्तव्य दर्ज किया जाएगा। उन्होंने यह वादा भी किया कि इस मामले में अबतक जो भी कारवाई हुई है उसकी रिपोर्ट ४८ घंटे के भीतर "पीपुल्स एक्शन अगेन्सट दलित एट्रोसिटीज" और पीड़िता को दे दी जाएगी।


पुलिस मुख्यालय में आज आला अधिकारियों के साथ प्रतिनिधि मंडल की हुई बातचीत में यह तथ्य साफ तौर पर निकलकर सामने आया कि एसीपी उत्तर-पश्चिम चन्द्रहास यादव ने ग्रोवर परिवार के साथ आपराधिक सांठ-गांठ करके कनकलता के साथ हुए जातीय उत्पीड़न के इस मामले को पूरी तरह दबाने की कोशिश की। प्रतिनिधि मंडल को यह बताया गया कि ग्रोवर परिवार के खिलाफ ६ मई को ही अनुसूचित जाति/जनजाति ( उत्पीड़न निरोधक) अधिनियम के तहत मामला दर्ज कर लिया गया है। ऐसे में ग्रोवर परिवार के सदस्यों की गिरफ्तारी न होना चंद्रहास यादव औऱ दिल्ली पुलिस की भूमिका पर सवाल खड़ा करती है।


दिल्ली पुलिस के संयुक्त सचिव श्री मीणा ने प्रतिनिध मंडल को यह आश्वस्त किया कि दिल्ली उच्च न्यायालय में अगली सुनवाई के दौरान दिल्ली पुलिस आरोपी ग्रोवर परिवार के सदस्यों की जमानत का पुरजोर विरोध करेगी। प्रतिनिधि मंडल में दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षक अपूर्वानंद, इग्नू की विमल थोराट, एनसीडीएचआर के पॉल दिवाकर, जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष संदीप औऱ कनकलता शामिल थी।


ध्यान रहे विगत ३ मई को कनकलता औऱ उसके भाई-बहनों की जाति जान लेने के बाद मुखर्जीनगर, दिल्ली में उनके मकान-मालिक ओमप्रकाश ग्रोवर और उनके परिवार के सदस्यों ने कनकलता और उनके भाई-बहनों के साथ गाली-गलौच और मारपीट की थी।


कनकलता के साथ हुए जातीय उत्पीड़न में पुलिस की संदिग्ध भूमिका और अब तक आरोपी ग्रोवर परिवार के सदस्यों की गिरफ्तारी न होने के विरोध में "पीपुल्स एक्शन अगेन्सट दलित एट्रोसिटीज" के बैनर तले आज दौ सौ से भी अधिक छात्रों, शिक्षकों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने पुलिस मुख्यालय पर धरना दिया।

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सुरक्षा के नाम पर देश के किसी भी हिस्से या इलाके को पुलिस छावनी में तब्दील करने में प्रशासन को बहुत अधिक वक्त नहीं लगता। उसके लिए यह डेली रुटीन का काम है। वैसे भी इतने बड़े देश में आए दिन कुछ न कुछ होता ही रहता है जहां कि छावनी बनाने की जरुरत पड़ जाती है।
डीयू में इन दिनों एडमीशन को लेकर भारी भीड़ चल रही है, क्या लड़के,क्या लड़किया। भीड़ इतनी कि दिन के समय पैदल चलना भी आसान नहीं होता। देशभर के लोग एडमीशन के लिए यहां आते हैं। नौजवानों की इतनी बड़ी भीड़ आपको देश के किसी दूसरे विश्वविद्यालय में नहीं दिखेगी। इसलिए यह जरुरी है कि यहां सुरक्षा व्यवस्था बहुत चौकस रहे और इसके लिए यह भी जरुरी है कि पूरे कैंपस को छावनी में बदल दिया जाए। शाम के समय अगर इधर से गुजरना हो तो आपको स्टूडेंट से ज्यादा खाकी बर्दीवाले दिख जाएंगे।
इतनी भारी लड़को की भीड़ के बीच लड़कियों को यह भरोसा दिलाना जरुरी है कि आपके साथ कानून है, पुलिस है। आपके साथ कुछ गलत नहीं होगा,पुलिस-प्रशासन की ओर से बैनर और होर्डिंगों की संख्या बढ़ती जा रही है। पुलिस बड़े तफसील से बताती है कि अपने को बचाने के लिए, आपके साथ छेड़खानी की कोई घटना न हो जाए इसके लिए क्या-क्या करना चाहिए। आपको यहां आकर किस तरह से सतर्क रहने की जरुरत है। साथ में चारो तरफ बिखरी लेडिज पुलिस उनके बीच भरोसा पैदा करने के लिए तैनात होती है।
पुलिस की सुरक्षा औ उसके विज्ञापनों को देखते ही आपको अंदाजा लग जाएगा कि यहां एडमीशन फार्म भरने आया हर लड़का, स्टूडेंट होने के पहले एक मनचला है,संभावित रेपिस्ट है औऱ किसी भी लड़की के साथ गलत कर सकता है। इसलिए सुरक्षा के नाम पर पुलिस उन लड़कों को मां-बहन की गालियां भी दे देती है तो चुपचाप सुन लेनी चाहिए क्योंकि यह सब देश की लड़कियां की सुरक्षा के लिहाज से ही किया जा रहा है।
इतनी भारी सुरक्षा के बीच किसी को भी एहसास हो जाएगा कि यहां कोई पुरुष क्या, पुरुष नाम का कोई परिंदा भी पर नहीं मार सकता। सुरक्षित महौल से ज्यादा भरोसे का वातावरण बनाया जाता है। विज्ञापन, मीडिया और छावनी के जरिए। लेकिन, इन सबके बावजूद यह सच है कि पुलिस के रहते छेड़छाड़ की घटनाएं कम होती हैं लेकिन ऐसा भी नहीं है कि घटनाएं होंगी ही नहीं, इसकी गारंटी पुलिस अभी तक नहीं दे सकती। इतना सबकुछ के बावजूद पुलिस की इस सुरक्षा व्यवस्था में सेंध लगती है और छेड़खानी की घटनाएं होती हैं। ऐसा क्यों।
इसकी एक बड़ी वजह है कि आमतौर पर हर भीड़भाड़ वाले इलाके के लिए पुलिस की नजर नें हर लड़का मनचला है,लड़कियों को छेड़ने की नीयत से टहलनेवाला है लेकिन अगर सचमुच में किसी लड़की को कोई छेड़ देता है तब वो मनचला नहीं, नादान छोरा हो जाता है। जिसे यह सब पता ही नहीं होता कि जो कुछ भी वह कर रहा है,वो कानूनी तौर पर गलत है और इसके लिए उसे सजा भी हो सकती है।

उसे तो दिन-दुनिया के बारे में ठीक से पता तक नहीं। अभी जवानी का जोश है, मौज-मौज में कुछ कर बैठा। पुलिस को यह साबित करने में कि जो कुछ भी हुआ है वह छेड़खानी का मामला न होकर एक मामूली घटना है, जरा भी वक्त नहीं लगता। इसलिए उसे उपर-उपर चलताउ ढंग से रफा-दफा करने में बहुत मुश्किल नहीं होती। कल की जनसत्ता ने तो बतौर लिखा कि छेड़खानी के मामले में दोषी को दिनभर थाने में बिठाकर रखने के बाद छोड़ दिया जाता है। यानि उस वह सजा नहीं दी जाती जिसे वो अने विज्ञापनों में प्रचारित करती है, जिसे लिखकर आनेवाली लड़कियों को आश्वस्त करती है।


दिनभर की चिकचिक के बीच छेड़खानी का यह मामला पुलिस के लिए मनोरंजन का साधन है जिसे उसके भीतर रस पैदा होता है। लेडिज पुलिस के रहते बीच-बीच में दखल देकर यह पूछने में कि अच्छा बता, छोरे ने छेड़खानी के नाम पर क्या-क्या किया, मजा आता है। वह उस पूरी घटना में छोटी किताबों के साहित्य का मजा लेना चाहता है, उसे मन ही मन फिल्माना चाहता है। उसके लिए यह सब चूहल का विषय है। इसलिए ऐसे समय में उसे उस लड़के पर न तो गुस्सा आता है और न ही लड़की के प्रति हमदर्दी ही जगती है। उसे सिर्फ और सिर्फ सुख मिलता है।


फुर्सत के समय अपने कूलिग से गप्प मारने का एक दिलचस्प औऱ अश्लील( तब तो वो अश्लील बना देता है) प्रसंग होता है। उसे छोरे से प्यार सा हो जाता है। देखने से कतई वो छोरा नहीं लग रहा था कि उसने कोई गलती की होगी, बल्कि मुझे तो वो लड़की ही ४२० लग रही थी। जिसके साथ छेड़खानी होती है वो तनकर खड़ी होती है, सबकुछ बताती है। भाई उसके मुंह से तो जुबान ही नहीं फूटती, मने तो कइयों को देखे हैं।


ऐसे में पोस्टर के शब्द कि- छेड़खानी से बचिए और उसके होने के आंकड़े मजबूत होते हैं तो गलत क्या है।


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ब्लॉगर साथियों से एक अपील

Posted On 1:00 am by विनीत कुमार | 4 comments

साथियों, कनकलता के मामले में अखबारों,टेलीविजन चैनलों के अलावा ब्लॉग के जरिए भी आपको लगातार सूचनाएं मिलती रही हैं। आपके सामने सबकुछ स्पष्ट है कि किस तरह से कनकलता के मकान-मालिक और उसके परिवारवालों ने उसकी जाति जान लेने पर कि वो दलित है,कनकलता औऱ उसके भाई-बहनों को बुरी तरह पीटा। कनकलता औऱ उसकी बहन को सामूहिक बलात्कार की धमकियां दी और उसके भाईयों को अपनी बहू के साथ छेड़छाड़ करने के खिलाफ फर्जी केस बनाने की कोशिश की। पुलिस ने भी इनकी शिकायत दर्ज करने के बजाय इसी बात को दुहराया और समझौते कर लेने के लिए दबाब बनाती रही।
आज इस घटना के हुए 45 दिनों से ज्यादा हो रहे हैं लेकिन कनकलता और उसके भाई-बहनों के साथ हुए इस जातीय उत्पीड़न को प्रशासन की ओर से गंभीरता से नहीं लिया गया है। मकान-मालिक और उनके परिवार वाले आज भी बेखौफ घूम रहे हैं। उन पर इस बात का कोई भी असर नहीं हो रहा है कि उन्होंने गैरमानवीय कार्य किया है। उल्टे उनकी दादागिरी बढ़ती ही जा रही है। तभी तो वापस उस घर में सामान ले जाने के लिए गई कनकलता को मकान-मालिक ने साफ कहा कि- आगे से कोई सामान यहां से नहीं जाएगा और कनकलता का आधा सामान आज भी उस 165 नं, घर के दूसरे तल पर बंद है।
घटना के शुरुआती दौर में पुलिस ने बार-बार समझौते के लिए दबाब बनाए और अब भी तेजी से कोई भी कारवाई करने में नाकाम रही है। इसे आप कनकलता को न्याय दिलाने में पुलिस की दिलचस्पी का न होना या फिर दोषी मकान-मालिक को समर्थन देने के रुप में देख सकते हैं।

साथियों,
पुलिस के इस टालमटोल रवैये और मकान-मालिक की बढ़ती दादागिरी के खिलाफ अब सड़कों पर उतरने के अलावा हमारे पास कोई दूसरा चारा नहीं है। हमनें तय किया है कि कनकलता के पक्ष में हम अपनी आवाज सड़कों पर बुलंद करेंगे। हम कनकलता के पक्ष में अब उन-उन जगहों पर जाकर आवाज उठाएंगे जहां से हमें अब तक न्याय की गारंटी मिलती रही है औऱ जो वक्त के साथ-साथ कोरे आश्वासन में बदलती चली जा रही है। हम मांग करते हैं कि-

ओमप्रकाश ग्रोवर तथा उसके परिवार के सदस्यों पर अनुसूचित जाति/जनजाति(अत्याचार निवारण)अधिनियम 1989 की धारा 3 के तहत अबिलंब मुकदमा दायर किया जाए और उकी त्वरित सुनवायी की जाए।
कनकलता और उसके भाई-बहनों के साथ हुए जातीय उत्पीड़न के मामले को रफा-दफा करवाने में सक्रिय रुप से शामिल मुखर्जीनगर थाने की एसएचओ श्री इंदिरा शर्मा और एसपी. उत्तर पश्चिम चंद्रहास यादव को बर्खास्त किया जाए तथा उनके विरुद्ध अनुसूचित जाति/जनजाति(अत्याचार निवारण)अधिनियम 1989 के धारा 4 के तहत मामला दर्ज किया जाए
कनकलता और उसके भाई-बहनों के खिलाफ दर्ज फर्जी मुकदमा तत्काल वापस लिया जाए।।


आप ब्लॉगर साथियों से अपील है कि आप हमारे इस मिशन में शामिल हो। इस अपील के नीचे नाम सहित टिप्पणी करें, संभव हो तो बताए गए स्थान और समय के मुताबिक आकर हमारा साथ दें। औऱ जो ब्लॉगर साथी समाचार पत्र,न्यूज चैनल या फिर मीडिया के अन्य माध्यमों से जुड़े हैं वो इस पोस्ट को खबर के तौर पर आगे प्रसारित करें।
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आज सुबह जेएनयू के पेरियार हॉस्टल के आगे खड़ा था। देखा,चार-पांच लोग खड़े हैं और उबाल से कह रहे थे, ऐसे कैसे हो सकता है और वो भी दिल्ली में। भाई साहब घटना के घुए चालीस दिन हो गए है अभी तक पुलिस कुछ नहीं कर पाई है। कनकलता के साथ हुए जातीय दुर्व्यवहार को लेकर कल रात जेएनयू में छोत्रों के बीच बैठक थी जिसकी सूचना पोस्टर और अखबार में छपे रिपोर्ट को हॉस्टल के नोटिस बोर्ड पर लगाया गया था। लोग उसे पढ़कर अपनी-अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहे थे।

कनकलता के साथ पिछले 3 मई को उसके मकान मालिक ने जाति के नाम पर जो दुर्व्यवहार किया और पुलिस ने भी इस मामले में कोई दिलचस्पी नहीं दिखायी, इन सब के बारे में बगल में दो पेज में सारी बातें चिपकी हुई थी। मैं बस किनारे चुपचाप देख रहा था कि लोग इस घटना को लेकर किस तरह से रिएक्ट करते हैं.
लोगों ने जब पढ़ा कि कनकलता डीयू की स्टूडेंट हैं तो उन्हें और आश्चर्य हुआ कि अरे,डीयू में पढ़ रहे लोगों के साथ ऐसा किया. दूसरे ने कहा, मुझे तो लगता था कि दिल्ली में लोग जात-पात मानते ही नहीं औऱ फिर खुद मुखर्जीनगर के सारे मकान-मालिकों को कहां पता होता है कि कौन किस जाति का है। ये तो हद हो गया। तीसरे ने कहा, मैंने पहले भी कुछ-कुछ तो पढ़ा था इस बारे में लेकिन सोचा कि अब तक तो मकान-मालिक के खिलाफ कारवाई हो गयी होगी। चौथे ने थोड़े जोश में कहा- हमें कुछ करना चाहिए। थोड़ी देर तक सबकी और देखते रहे, दूसरे ने भी कहा- हां हमें कुछ न कुछ तो जरुर करना चाहिए। मैं खड़ा देखकर मन ही मन खुश हो रहा था कि लोगों की संवेदना अब भी मौजूद है। हमसे रहा नहीं गया और मैंने पोस्टर के निचले हिस्से पर उन्हें देखते हुए उँगली रख दी, जहां लिखा था-
विरोध प्रदर्शन
19 जून 2008, प्रातः 11 बजे
पुलिस हेडक्वार्टर, आइटीओ
नई दिल्ली
मैंने उन सबसे पूछा- तो आ रहे हैं न आप।
सबका एक साथ जबाब था- जरुर...
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अब के पापा ज्यादा सहज होते हैं

Posted On 12:10 pm by विनीत कुमार | 3 comments

पापा चलो न खेलने, ममा नहीं जा रही। चार साल के बच्चे को अपने पापा का बांह खीचते हुए आप आसानी से देख सकते हैं। उसका मन करेगा तो वो अपने पापा को बुद्धू भी कह देगा, यह भी कह देगा कि सिगरेट मत पियो पापा, कैंसर हो जाएगा, पड़ोस की निमी आंटी कहती है तुम्हारे पापा में एटीट्यूड बहुत है, आदि-आदि। चार साल के बच्चे को अपने पापा से इतना कुछ कहने को होता है कि पापा अगर दिनभर बैठकर सुने तो भी समय कम पड़ जाए।
आप बच्चे की इस बात को यह कहकर टाल जाते हैं या फिर प्रशंसा करते हैं कि मेरी बेटी या बेटा बहुत बोलता है और आप उसके कुछ उदाहरण पेश कर देते हैं। आपका ध्यान इस बात पर जाता ही नहीं कि बच्चा हमेशा किन-किन मुद्दों पर बात करने लगा है। अगर आप एक सूची बनाएं और अपने बचपन के दिन को याद करें तो आपको हैरानी होगी कि अपने बच्चे की उम्र में जब आप थे तो ७० से ८० प्रतिशत बातें नहीं करते थे। पापा आपसे कुछ पूछते थे तब आप बात करना शुरु करते थे। कुछ लोगों के मामले में हो सकता है कि कॉम्युनिकेशन गैप इतना होता हो कि लोग बच्चे से सीधा न पूछकर अपनी पत्नी से पूछते हैं- निकी ने खाना खा लिया, आजकल होमवर्क ठीक से करती है या नहीं, गाली देना तो नहीं सीख लिया, ड्रेस जो खरीदी थी वो पसंद आया, वगैरह, वगैरह। जो सवाल उन्हें सीधे अपने बच्चों से करने चाहिए वो अपनी बत्नी से करते हैं। लेकिन उन लोगों की संख्या बढ़ी है जो सीधे अपने बच्चों से सवाल पूछते हैं, उनके साथ खेलते हैं, उनकी बातों को सुनते हैं, साथ में टीवी देखते हैं। एक लाइन में कहें तो शेयर करते हैं। ऐसा होने से पिता और बच्चों के बीच संवाद की स्थिति आज से बीच-पच्चीस साल पहले से बहुत बेहतर हुई है। संवाद की बेहतर स्थिति होने से बच्चों का अपने पापा से नजदीकियां पहले से ज्यादा बढ़ी है।
हो सकता है मेरी ये धारणा सब पर लागू नहीं होती, कुछ के मामलों में गलत भी हो सकती है लेकिन अपने अनुभव से मैंने देखा है वो यह कि हम बचपन में पापा के सामने इतने सहज नहीं हो पाते थे जितना कि आज के बच्चे। हो सकता है दूसरे क्लास के बच्चों में ऐसा नहीं हो लेकिन मैं जिस क्लास से आता हूं, आज उसी क्लास के बच्चे अपने पापा से दुनिया-जहां भर की बातें बड़ी सहजता से करते हैं। चार साल की खुशी मेरे भैय्या से बड़े ही सहज ढंग से कहती है- सलमान बहुत चीप है, दस के दम में बहुत ही गंदे-गंदे सवाल करता है, शाहरुख तो फिर भी अच्छी-अच्छी बातें करता है। हो सकता है ये बात उसने किसी और से सुनी हो लेकिन जितनी सहजता से वो अपने पापा को बताती है, हमें संवाद को लेकर बदलाव साफ नजर आता है।
आप प्रयोग के स्तर पर एक सूची बनाएं तो आपको इस बात का अंदाजा लग जाएगा। आपका बच्चा आपसे क्या नहीं बोलता है, किन मुद्दों पर बात नहीं करता है, क्लास के किन बच्चों या टीचर की नकल करके नहीं दिखाता है। वो आज इस बात का फर्क ही नहीं करता कि कौन सी बात अपने पापा से कहनी चाहिए और कौन-सी बात अपने दोस्तों से। ऐसा नहीं है कि उसमें समझदारी की कमी है, बल्कि आज वो अपने पापा को अपने से बहुत नजदीक पाता है। वो बीच-बीच में यह भी कह देता है, पापा गीला टॉवेल बेड पर मत रखो, ममा डांटेंगी। अपने बच्चों से आज से बीस-पच्चीस साल पहले ये सब सुनना मेरे अनुभव से इतना सहज नहीं था। अव्वल तो ये कि ममा भी पापा को डांट सकती है।
आज के पापा ने अपने को बच्चों के सामने अपने को दोस्त के तौर पर प्रोजेक्ट करना शुरु कर दिया है जो कि जरुरी भी है। इस बदलाव के कई कारण हो सकते हैं औऱ हो सकता है कई पापा अभी भी ऐसा इसलिए नहीं करते कि उन्हें लगता है कि ऐसा करने से बच्चों के बीच उनका प्रभाव कम जाएगा, बच्चे उनकी बात नहीं सुनेंगे। लेकिन ऐसा करने का दूसरा पक्ष ये भी है कि बच्चों के बीच सहज रहने से उन्हें अनुशासन के डंडे से दुरुस्त करने के बजाए भावनात्मक स्तर पर नियंत्रित करना ज्यादा आसान और बेहतर होता है। पढ़े- लिखे आधुनिक शैली में जीनेवाले पापा ये भी सोचते हैं कि इन बच्चों से दिनभर में एक-दो घंटे ही तो मिलना होता है, उस पर भी अगर इनके साथ सख्ती से पेश आया जाए तो ये डर से भले ही मेरी बात मानें लेकिन दिल से मेरे लिए सम्मान नहीं होगा। जैसे-जैसे बड़े होते जाएंगे, भावनाच्मक स्तर पर दूर होते चले जाएंगे। इसलिए बेहतर है कि इनके साथ संवेदना के स्तर पर संबंध बनाए जाएं। पत्नी के कामकाजी और व्यस्त होने की वजह से पापा अपने बच्चों को नहलाने लग गए हैं, जूते के फीते बांधने लगे हैं औऱ कभी-कभी ब्रेकफास्ट भी बनाने लगे हैं। इन घरेलू काम में शामिल होने की बजह से बच्चों से उनकी नजदीकियां पहले से बढ़ी है जो कि अच्छी बात है। और वैसे भी अब वो जमाना लद गया कि बच्चे को अनुशासित करने के नाम पर आप उसे बेरहमी से पीटते रहो और सरकार का कानून नाक बजाकर सोता रहे। ऐसा करने पर आपके खिलाफ कारवाई हो सकती है।
इसलिए अच्छा लगता है जब चार साल का कोई बच्चा मॉल में आपका हाथ खींचकर ले जाता है और कहता है, है न पापा बहुत सुंदर।
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माइ पापा स्ट्रांगेस्ट

Posted On 10:44 am by विनीत कुमार | 2 comments

अपने पापा की तरह ईमानदार और गउ मत होना, बहुत कष्ट होगा। जब भी पापा के पुराने जानकार लोगों से मिलना होता है, यही राय देते हैं। बड़े अफसोस के साथ बताते हैं कि तुम्हारे पापा की ईमानदारी उन्हें ले डूबी, नहीं तो आज फ्लैट नहीं होता, महल होता, महल। वैसे, आदमी तो वो हीरा हैं हीरा। पापा की ईमानदारी को ये लोग ऐसे प्रोजेक्ट करते मानो यह उनके लिए सबसे बड़ी ऐब है।

छोटे से लेकर अभी तक पापा के सामने मेरे पड़ने की हिम्मत नहीं होती, मैं बहुत डरता हूं. अभी भी घर जाता हूं, जोर-जोर से गाने गाता हूं और जैसे ही देखता हूं कि पापा आ रहे हैं, तुरंत चुप हो जाता हूं. मां से दुनिया जहां की कहानियां सुनता-सुनाता हूं लेकिन पापा के आते ही चुप हो जाता हूं। बाद में पता चला कि पापा मेरे इस व्यवहार से अपसेट हो जाते हैं। मां से कहते कि- ये हमसे बात नहीं करना चाहता, ऐसे तो खूब हंस-हंसकर बतियाता है लेकिन जैसे ही मैं आता हूं, चुप हो जाता है। पापा को लगता मैं उन्हें इग्नोर करता हूं। ऐसा जानने के बाद मैं उनके सामने भी बैठने की कोशिश करता लेकिन समझ ही नहीं पाता कि- क्या बात करुं? जिनसे मैं घर में जब तक रहा,यानि बोर्ड तक डरता रहा, उनके सामने वैसे ही कई मुद्दे खत्म हो गए थे बात करने के और अब बहुत सारे मुद्दों पर लगता है, उनसे शेयर नहीं किया जा सकता।
पापा मुझे लेकर कुछ ज्यादा ही सख्त थे। मेरी परवरिश इतनी सख्ती से हुई है कि मैं बचपन से ही बहुत डरा-डरा रहता। कोई कुछ पूछता तो मैं एक बार में तो कोई जबाब ही नहीं दे पाता। मुझे ऐसी बातों पर डांट या मार पड़ जाती जिसके बारे में आज सोचता हूं तो हंसी भी आती है और अपने उपर तरस भी आता है कि कैसे मैं कुछ नहीं कर पाता था। कभी पापा से मार खाने से बच भी जाता तो मेरे से बड़े दो भइया और तीन दीदी..। इनमें से किसी न किसी की नजर मेरी गलती पर पड़ ही जाती. उन लोगों का मूड होता तो खुद ही पीट देते, नहीं तो केस पापा के पास रेफर कर देते. मारते हुए मुझे याद है, पापा को कभी टेंशन नहीं होती कि- मैं क्यों गलतियां करता हूं. बड़े इत्मीनान से मारते और इसे उन्होंने डेली रुटिन में शामिल कर लिया था।
मेरे से बड़े पांच भाई बहन थे। दिनभर में किसी न किसी से खुन्नस हो ही जाती। कोई कुछ करने कहता और मैं खिसक जाता. दीदी रंगीन धागे के लिए दौड़ाती और मैं मना कर देता या फिर भइया बुलाकर कहते कि- ये बात बताना मत औऱ मैं जाकर सबसे पहले बता देता। कई बार तो एक ही केस के लिए पापा सहित दो-तीन और से पिट जाता. पापा तो मारते ही लेकिन उसमें बाकी जिस-जिसका मामला फंसता, सब हाथ आजमाते।
मैं पापा का लास्ट एडीशन हूं। पापा को लगता, जितना कुछ ठोंक-पीट करनी है, इसकी ही कर लो। वैसे भी भइया लोग को वो मार नहीं पाते। क्योंकि मेरे दोनों भइया बारी-बारी से दुकान में उनका साथ देते, उनका काम हल्का कर देते। मेरे बारे में पापा की राय थी कि- अगर ये पढना चाहता है तो इसे मोहल्ले के बाकी बच्चों से अलग रहना होगा, मुझे एक ही साथ राजा हरिश्चन्द्र होना होगा, गांधी होना होगा, महात्मा बुद्ध होना होगा,पापा होना होगा.
जिस बदमाशी को करने में शरीर और ताकत का इस्तेमाल होता, मैंने कभी भी वैसी बदमाशियां नहीं की। मैं अलग किस्म की बदमाशियां करता।
पापा के चले जाने पर उन्हीं के अंदाज में मां से चश्मा मांगता, खाना मांगता,उनकी नकल करता, आप कला की दृष्टि से उसे मिमकरी कह सकते हैं और संस्कार के लिहाज से मजाक उड़ाना। पापा दूसरे वाला अर्थ लेते औऱ फिर.... दीदी के साथ पढ़ने जाता और दीदी के क्लास के सबसे बोतू लड़के के साथ नाम जोड़कर चिढ़ाता। इन सबमें ऐसा कुछ भी नहीं था कि मुझे बदमाश करार दिया जाए। अच्छा, बच्चों की बदमाशी में जो सबसे जरुरी बात शामिल है वो है कि वो सामान बहुत बर्बाद करता है। लेकिन मेरी ट्रेनिंग थोड़ी अलग ढग से हुई थी।
तब स्कूल की अपनी कांपियां नहीं होते थे। पापा हमें कांपी देते और हरेक पेज पर नम्बर लिख देते। कांपी जब भर जाती तो उसे चेक करते। बाकी के समय में तो कोई परेशानी नहीं होती लेकिन बरसात में पिटने के सीन बन जाते। मैं चाहकर भी अपने को रोक नहीं पाता औऱ स्कूल से लौटते हुए और बच्चों की करह नाव बनाकर छोटे से नाले में तैराता। होड़ लगने पर कभी-कभी पांच-पांच पेज तक फाड डालता जिसकी सजा कभी-कभी बरसात के बाद भी मिलती।
भाई-बहनों से पिटते देख मेरी मां अक्सर कहती- इन कसाइयों के बीच इसको कोई बचने नहीं देगा, कैसे गाय-गोरु की तरह सब इसे मारता है। पापा को मारते देखती तो चुप रहती लेकिन जब ज्यादा ही पीटते तो सीधे रसोई से जाकर हंसिया लाती औऱ मुझे आगे करके पापा से कहती- काट दीजिए दो टुकड़ा, न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी। तब पापा मुझे छोड़ देते। पापा के मारने के साथ खास बात थी कि वो मारने के बाद पुचकारते नहीं थे, रोता हुआ छोड़ देते थे। उनका मानना था कि ऐसे में मार का असर खत्म हो जाता है। आज तीन साल की खुशी को देखता हूं- एक तो भाभी या भैय्या उसे मारते नहीं जो कि सबसे अच्छी बात है लेकिन जिस दिन तरीके से डांट दिया तो उस दिन उसकी तकदीर खुल जाती है. डांट के बाद तत्काल बाद डेरी मिल्क और फिर नीचे जाकर रिलांयस फ्रेश से जो चाहे वो। अपनी सारी इच्छा वो इस दौरान पूरी कर लेती है।
आज जब मैं अपने बचपन के बारे में सोचता हूं तो एकदम से दो फांक दिखाई देते हैं। एक पापा सहित घर के बाकी लोगों द्वारा मेरे प्रति सख्त कारवाई औऱ दूसरी तरफ मां का मेरे लिए हमेशा बीच-बचाव। इसलिए बहाना चाहे जो भी हो, प्रशंसा के शब्द मां के लिए पहले निकलते हैं। मां आज भी कहती है- बचपन में तुम्हें सौतेले बेटे का प्यार मिला है।
इतना सब होने पर भी मैं यह तो नहीं कह सकता कि मुझे लेकर पापा के मन में कोई खोट थी। वो चाहते थे कि दुनिया की सारी अच्छाईयां मेरे भीतर हो और जो कि संभव नहीं था। पापा इसी बात पर नाराज होते. झूठ जल्दी बोलता नहीं था, मन ही नहीं करता। जब पूछते तेल की शीशी का ढक्कन किसने खुला छोड़ा, मैं कहता- हमने छोड़ा तो कभी-कभी मुझे देखते रह जाते औऱ गुस्सा आने पर भी मेरी तरफ प्यार से देखते, फिर कहते. सच बोले हो, अच्छी बात है लेकिन गलती तो किया ही है औऱ एकाध हाथ दे देते। मां कहती कि- क्यों राजा हरिशचन्द्र बनने लग जाते हो, बोल देते नहीं जानते हैं. मां की सारी बातें मानने के बाद भी मैं नहीं जानते हैं, कभी कह नहीं पाता। शायद मैं ऐसा कहकर पापा को दुखी नहीं करना चाहता था और मेरे पूरे बचपन की यही एक सीन है जिसे याद करके लगता है कि- तब भी पापा मुझे बहुत प्यार करते थे।
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आठ साल की बच्ची ने मुनिरका रेडलाइट पर बांह पकड़कर हिलाया तब मेरा ध्यान टूटा। भइया, भइया कहा और फिर गुलाब के फूलों का एक गुच्छा मेरी तरफ बढ़ाते हुए कहने लगी- ले लीजिए न भइया, ले लीजिए न। सिर्फ दस रुपये लेंगे आपसे, सिर्फ दस रुपये। मुनिरका रेडलाइट पर ऐसा आए दिन होता है, यह कोई नयी बात नहीं थी जो मेरे साथ हुई थी। आम तौर पर छः साल
से दस साल तक की लड़कियां गुलाब के फूलों का गुच्छा लिए आपसे खरीदने की जिद करती हुई दिख जाएगी।
मैंने उस लड़की से कहा, क्या करुंगा इन फूलों को लेकर, ये तो बर्बाद हो जाएंगे। फिर तुम्हारे फूल भी तो मुरझाए हुए हैं औऱ हॉस्टल ले जाते-जाते एकदम से और बासी हो जाएंगे। इसके लिए तुम्हें दस रुपये क्यों दे दूं। वैसे भी लम्बे समय से जेएनयू आता-जाता रहा हूं। 615 और 621 नं की ब्लूलाइन बसों में डीटीसी पास दिखाने पर कनडक्टर मान जाते हैं। मेरे दोस्त कहते आप डीयू की आइडी निकालकर अलग से रख लीजिए और सिर्फ पास दिखा दीजिएगा,पूछेगा तो बता दीजिएगा, यहीं जेएनयू में हैं। लेकिन यह झूठ बोलने की नौबत नहीं आयी, पास दिखाने से ही दस रुपये बच जाते। जब से जेआरएफ हुआ है,मेरा पास नहीं बनता और मुझे पैसे लगाकर वहां से आना होता है। मैं सोचने लगा कि कितनी मुश्किल से दस रुपये बचाया करता था और आज कह रही है कि दस रुपये का फूल खरीद लीजिए।
मैंने फिर कहा- अच्छा, तुम ही बताओ, मैं क्या करुंगा, तुम्हारे इस फूल को लेकर। आठ साल की उस लड़की ने बड़े ही सपाट ढंग से जबाब दिया, अपनी गलफेंड को दे दीजिएगा। मुझे एकदम से हंसी आ गयी और समझ में भी आ गया कि क्यों यहां दिनोंदिन फूल बेचनेवाली लड़कियों की संख्या बढ़ती जा रही है। मन ही मन सोचा, कोई गलफेंड तो है नहीं और अगर हो भी तो इस फूल को देने से रह भी नहीं जाएगी, हो सकता है मुंह पर फेंककर मार दे। मेट्रो का काम होने के कारण अच्छा-खासा जाम था, मैं एसी कार में बैठा था, कोई परेशानी नहीं हो रही थी, उस लड़की को जाम तक बात में फंसाए रखना चाहता था. मैंने कहा- तो क्या तुमसे सब गलफेंड के लिए ही फूल खरीदते हैं। लड़की ने कहा- नहीं कोई-कोई बायफेंड के लिए भी खरीदती है। अबकि मुझे और जोर से हंसी आ गयी।। तो ये बात बताओ, तब तुम सिर्फ जवान लोगों को ही पकड़ती होगी। लड़की का जबाब था- ऐसा नहीं है, बूढ़े को भी खरीदने कहते हैं। उसे तुम क्या कहकर खरीदने कहती हो- लड़की ने कहा- कहते हैं कि खरीद लो, भगवान के आगे मथ्था टेककर चढ़ा देना। औऱ वो न मानें तो-
तो क्या भइया, अंत में सबको यही कहते हैं, फूल खरीदने कौन कह रहा है तुमसे, पास में रोटी है,छोले खरीदने के लिए पांच रुपये दे दो, मेरा भाई बहुत भूखा है। फ्री में कार में बैठा था, सोचा चलो ये समझूंगा कि भाड़ा लगाकर आए हैं और मैंने उस लडकी के हाथ में दस रुपये धर दिए। इस बीच ग्रीन सिग्नल हो गया था औऱ हमारी गाड़ी आगे बढ़ गयी. लड़की तेजी से मेरी तरफ बढ़ी और आवाज दिया- भइया, आपने फूल तो लिया ही नहीं। मैंने भी जोर से कहा- कोई नहीं, किसी और को बेच देना, मैं लेकर क्या करुंगा।
मेरे साथ ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। आप यों कहिए कि इस तरह से थोड़ी देर के लिए भावुक होकर मैंने कई बार छोटे बच्चों को पैसे दिए हैं। कभी पास बैठे लोगों को एहसास कराने के लिए कि- तुमसे हम बहुत अच्छे हैं, संवेदना मरी नहीं है हमारी, कभी खुश होने पर और कभी मानवता के नाते।
दिल्ली के तीन जगहों पर स्थायी तौर पर मैं ऐसा करता आया हूं। बाराखंभा रोड के रेडलाइट पर, रामकृष्ण आश्रम मेट्रो के पास और मुनिरका रेडलाइट पर। इन तीनों जगहों पर लम्बे समय से आता-जाता रहा हूं।
मीडिया की पढ़ाई करते समय मैं रोज बाराखंभा रोड़ से गुजरता। कभी पैदल, कभी बस और कभी एक-दो धनी लड़की दोस्त की कार से। पैदल गुजरता तो नहीं देता, धक्के लगने की गुंजाइश होती, कार में होता तो लड़कियों पर प्रभाव जमाने के लिए कि देखो, आदमीयत है हममे औऱ जब इनका ख्याल रख सकता हूं तो फिर....। ये अलग बात है कि मेरी दोस्त इस हरकत को मीडिल क्लास मेंटलिटी मानती और ताने मारकर कहती- झारखंड छूटा नहीं है, तुम्हारा। शीशे खोलता तो मना करती- एसी चल रही है, शीशा मत खोलो,कभी कहती, बहुत गंदे हैं ये लोग। लेकिन मैं तब और खोलता। बाराखंभा के जो बच्चे होते, वो पैसे मांगने के पहले बांह में पत्थर का टुकड़ा दबाते और दोनों को सटाकर बजाते- मैं निकला,गड्ड़ी लेके औऱ फिर समय होने पर हमसे और हमारी दोस्त से एक- दो लाइन जोड़कर गाते। मुझे मजा आता। एक दिन बस में बैठा। बहुत खुश था,इंटरनल में मुझे सबसे ज्यादा नंबर आए थे। बस में बच्चे आए और फिर शुरु हो गए- मैं निकला। रोज वो यही गाना गाते लेकिन मुझे अलग-अलग मनःस्थिति में होने के कारण अलग-अलग मजा मिलता। मैंने उस दिन उन्हें पचास का नोट पकड़ाया और जब बच्चे मुझे चालीस रुपये लौटाने लगे तो मैंने कहा रख लो। लेडिस सीट की तरफ बैठी दो लड़कियों ने एक-दूसरे को कोहनी मारी और ठहाके मारकर हंसने लगी। शायद मुझे बेउडा समझा। मैं सिर्फ इतना सुन पाया कि- नया-नया गिरा है, दिल्ली में।

रामकृष्ण आश्रम के पास के बच्चे पैसे बड़े ही कलात्मक औऱ जोखिम तरीके से मांगते। जैसे ही रेडलाइट होती, तीन बच्चे आ जाते जिनके हाथ में बहुत ही छोटा लोहे का छल्ला होता। पहले एक उसके भीतर से गुजरता और उसके बाद एक ही साथ हो गुजर जाते. एक ढोल बजाता और फिर दो लोग छल्ले से बाहर- भीतर करके नाचने लगते। मैं एकटक देखता रहता। ये नजारा देखने के लिए मैं झंडेवालान जहां मुझे अपनी ऑफिस के लिए उतरना होता, वहां न उतरकर यहां उतरता और फिर यह सब देखकर पैदल जाता। बच्चे मुझे पहचान गए थे और दूर से ही चिल्लाते- रिपोटर भैय्या आ गए, बाकी लोग सुनते और उन्हें कुछ भी समझ में नहीं आता।
पुरुलिया से गुजरते हुए एक लड़की हारमोनियम पर रवीन्द्र संगीत गाती और मैं तब भी पांच-दस पकड़ा देता। एक दिन बैठकर मैंने इस बारे में सोचा औऱ पाया कि मैं उन बच्चों को कभी पचास पैसे भी नहीं देता जो मेरे सामने यह कहते कि भैय्या, कुछ खाने के दे दो, बहुत अधिक भावुक भी नहीं होता उन्हें देखकर, जबकि गाने-बजाने, कुछ करतब दिखानेवाले बच्चों को पचास रुपये तक बड़ी आसानी से दे देता। तो क्या मैं ऐसा इसलिए करता हूं कि मुझे लगता है, ये मेरे जाति-बिरादरी के लोग हैं।
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भरोसा तोड़नेवालों की जमात

Posted On 3:27 pm by विनीत कुमार | 9 comments

किताबों, टीचरों, घर के लोगों और समाज के कुछ अच्छे लोगों के बताने और समझाने के बाद आप भरोसा करना सीखते हैं,लोगों की मदद करना सीखते हैं। यह जानते हुए कि ये दुनिया बड़ी घाघ है, आप पर इनकी बातों का इतना असर होता है कि आप संभव होने पर लोगों की मदद कर देते हैं। लेकिन समाज में एक जमात ऐसा भी है जो आपके इस भरोसे को तोड़ता है औऱ तब आप गुस्से में सिर्फ इतना कह पाते हैं कि- आगे से मैं कसम खाता हूं कि किसी की भी मदद नहीं करुंगा। मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ है। फिलहाल तो बहुत गुस्सा बहुत आ रहा है, कसम भी खाने का मन हो रहा है लेकिन अगर लिखने के बाद अगर गुस्सा कम हो जाए तो कसम खाने के बदले एक पोस्ट लिखने के पीछे ये दिलचस्प घटना भर रह जाएगी। तो पढ़िए और राय दीजिए, हमारी इस पोस्ट पर
मैं उस लड़के को पहले से नहीं जानता था, न तो उसका नाम सुना था और न ही मैंने उसे कभी देखा था। आज से छः दिन पहले मेरी एक दोस्त ने फोन करके बताया कि तुम्हारे पास एक लड़के को भेज रही हूं, बेचारा बहुत परेशान है, चार-पाच दिनों के लिए दिल्ली में रहना चाहता है, इसकी मदद कर दो। मैंने अपनी दोस्त से इतना ही भर कहा कि अभी मत भेजो, मैं पता करता हूं कि हमारे यहां गेस्ट रुम खाली है कि नहीं, उसके बाद भेजना। आमतौर मैं किसी को अपने कमरे में रखना नहीं चाहता, एक तो रोज की रुटीन खराब होती है, उसे समय देना पड़ता है और सबकुछ अस्त-व्यस्त हो जाता है। इसलिए बेहतर होता है कि किसी के आने पर गेस्ट रुम एलॉट करा लूं, भले ही रोज के सौ रुपये देने पड़े।
दोस्त से ये सब बातें हो ही रही थी कि ड्राइवर उसका सारा सामान मेरे कमरे में पहुंचा गया और पीछे से वो लड़का भी आ गया। मैं समझ गया कि मेरी सहमति-असहमति जाने बिना मेरी दोस्त ने उसे आने को कह दिया था। खैर,
उस लड़के जो मेरी बात हुई उसके मुताबिक वह मेयो कॉलेज अजमेर का स्टूडेंट है। वहां हॉकी का कैप्टन है। इस बार बारहवीं की परीक्षा दिया है और अब डीयू में एडमीशन लेने चाहता है। उसकी हॉकी प्रैक्टिस छूट न जाए इसलिए वह कैंपस के आसपास ही रहना चाहता छा। मैंने उसे सारी स्थिति समझा दी और बताया कि रोज के सौ रुपये देने होंगे। उसने यस सर कहा। मेरी दोस्त का ड्राइवर उसे यह कहकर साथ ले गया कि सुबह से कुछ खाया नहीं है मैं इसे कुछ खिलाकर लाता हूं, तब तक आप इसके नाम से रूम एलॉट करवा दो। मैंने कहा ठीक है औऱ एक बार फिर पूछ लिया कि बताओ- कितने दिनों के लिए एलॉट करना है। उसने कहा, भैया सात दिनों के लिए करा दीजिए। वैसे भी सात दिनों से ज्यादा हमारे यहां कोई रुक नहीं सकता है। मैंने नीचे आकर सात सौ रुपये जमा किए और उसके लिए कमरा बुक करा आया।
थोड़ी देर बाद वह आया और अपना सामान ले जाकर गेस्ट ऱुम में शिफ्ट हो गया। मैंने उसे मेस हॉल, कम्प्यूटर रुम, टॉयलेट और बाकी चीजें दिखा दी और कहा, बाकी किसी भी चीज की जरुरत हो, मेरे पास आ जाना। एक दिन बीत गया वह दुबारा मेरे कमरे में नहीं आया। वापस जाकर गेस्ट रुम में देखा तो कमरा लॉक था। मुझे कुछ अटपटा-सा लगा। सोचा शहर में नया-नया है, कहां चला गया। मैंने अपनी दोस्त को फोन किया।
मेरी दोस्त ने बताया कि वह अपना सारा सामान लेकर वहां से चला गया है, अब वह वहां नहीं रहेगा। आपको हैरानी होगी जानकर, उसने जो वजह बतायी। उसका कहना था कि कमरे में एक छिपकली थी और डरकर उसने खाली कर दिया। मैं मेयो कॉलेज में कई बार रुका हूं, वहां भी बहुत सारी छिपकली है औऱ फाइव तक के बच्चे आराम से रहते हैं। मुझे लगा, ये कोई वजह नहीं है। मैंने उस लड़के से बात करने की कोशिश की। उसने बताया कि मेरी मम्मा मुझे लेने आ गयी थी औऱ मैं चला आया। मैंने कहा- ममा, लेकिन तुम तो मेयो से आए थे न। उसने कहा हां, लेकिन ममा ग्रेटर नोएडा से लेने चली आयी और मैं आ गया। मेरा घर यही है।
मैंने उस समय उससे सिर्फ इतना ही कहा कि- चले गए लेकिन एक बार मुझसे मिलकर तो जाना चाहिए था, चाबी तो दे देनी थी। उसने कहा, ध्यान नहीं रहा सर। मैं आपको कल पक्का चाबी दे जाउंगा। उसके थोड़ी ही देर बाद मेरी दोस्त का फोन आया और उसने बताया कि वो तो चाबी देकर आया है। मैंने पूछा- कहां, उसने कहा, कांऱटर पर। मैं समझ गया कि ये हॉस्टल में रुकने को होटल में रुकना समझ रही है औऱ ये सब अपनी तरफ से कह रही है। मैंने उसे बताया कि हॉस्टल में चाबिय़ां कांउटर पर नहीं, ऑफिस में जमा कराना होता है जो कि मैं कराउंगा। उसके बाद उसने कहा, अच्छा चलो मैं पता करती हूं।
इस घटना के हुए दो दिन हो गए। मेरी दोस्त ने कोई फोन नहीं किया और न ही उस लड़के ने कोई फोन ही किया मुझे चिंता हुई कि क्या बात है, कुछ गड़बड़ तो नहीं है। मुझे थोड़ डर भी लगा क्योंकि आते ही उसने ड्राइवर के माध्यम से जानना चाहा था कि यहां वो किसी लड़की को ला सकता है कि नहीं। मैंने फिर जानना चाहा कि, चाबी कब तक पहुंचा रहा है।
फिर फोन किया, लड़के ने कहा कि सर आज पूरी कोशिश कर रहा हूं पहुंचाने की औऱमैं दिनभर उसका इंतजार करता रहा। अपने सात सौ रुपये की बात तो मैं भूल चुका था, मुझे चिंता इस बात की हो रही थी कि चाबी आ जाए बस। मेरी दोस्त के फोन करने पर, पता करती हूं और फोन रख दिया।
पिछले दो दिनों से मेरा दोस्त मुन्ना बीमार है, हॉस्पीटल लाने-ले जाने के चक्कर में मैं दुबारा पता करना भूल गया कि चाबी का क्या हुआ। आज सुबह ध्यान आया कि अरे, आज तो आखिरी दिन है , कल से तो ऑफिस वाले किसी और को कमरा एलॉट करेंगे तो मैंने तुरंत अपनी दोस्त को फोन किया-
यार क्या हुआ चाबी का, मैं तो परेशान हो गया हूं, प्लीज कमरे की चाबी दिलवा दो। उसका जबाब था- अरे, तुम्हें चाबी अभी तक नहीं मिली, दो दिनों से तुम्हारा कोई फोन नहीं आया तो मैंने सोचा कि मामला निबट गया होगा, अभी पता करती हूं। रुको फोन करके बताती हूं।
दोबारा फोन करने के बाद उसने कहा- विनीत मैंने लड़के के पापा को तुम्हारा नंबर दे दिया है, वो तुमसे बात कर लेंगे औऱ फिर जो बात होगी, हमें बताना।
लड़के के पापा ने फोन किया और कहा कि बेटा, मैंने अपने लड़के को खूब डांटा है। आज तो मैं बाहर हूं, ड्राइवर भी नहीं है, कल दस बजे तक दे दूं तो चलेगा। मैंने कहा- अंकलजी मैं तो आपकी मदद करके बुरी तरह परेशान हो गया हूं, आपको जो उचित लगे कीजिए लेकिन कल से किसी दूसरे के नाम से कमरा बुक होगा। उन्होंने कहा कि- मैं आज के लिए पूरी कोशिश करता हूं।
दोबारा फोन करके मैंने यही बात अपने दोस्त को बताया। उसने कहा- विनीत उनसे कहो कि चाबी घर में ही है न, हम आकर ले जा रहे हैं। मैं किसी आदमी को भेजती हूं, तुम टेंशन मत लेना। चाबी ले लेना बस, पैसे मैं दे दूंगी, तुम्हारे जेब से जाने नहीं दूंगी। मैंने उसकी बात का भरोसा किया औऱ निश्चिंत हो गया। लेकिन,
अभी दो घंटे पहले मेरी दोस्त का फोन आया और उसने फिर पूछा कि- विनीत कमरा तो कल सुबह तक के लिए बुक है न, तो चाबी कल सुबह दें दे तो कोई प्रोब्लम तो नहीं है। कल ही किसी आदमी को भेज देती हूं लाने के लिए। मैंने उससे कहा-तुम इसे सीरियसली नहीं रही हो, तुम इसे होटल समझ रही हो, जबकि तुम्हें पता नहीं है कि आगे से मुझे किसी के लिए रुम बुक कराने में कितनी परेशानी होगी। उसने कहा- कोई बात नहीं मैं आज ही किसी को भेजती हूं।
दस मिनट बाद फिर फोन आया औऱ उसने कहा- ऐसा है कि लड़के के पापा से मेरी ढंग से बात हुई है। उन्होंने कहा है कि- कल दस बजे से दस मिनट भी ज्यादा नहीं होगा, पक्का। मैं सोचती हूं कि जब वो कल चाबी पहुंचाने आ ही रहे हैं तो मेरे आदमी भेजने का कोई मतलब ही नहीं है। दस बजे तो चाबी आ ही जाएगी। औऱ वैसे भी तुम्हें चाबी आठ बजे शाम के पहले तो मिलेगी नहीं, ऑफिस में जमा भी नहीं करा पाओगे। ठीक है, परेशान मत होना, औऱ हां जब चाबी पहुंचाने आएं तो अपने सात सौ रुपये उनसे जरुर मांग लेना।
मेरे ही कमरे में, मेरे बिस्तर पर पड़ा मेरा दोस्त मुन्ना, पूरी बात को सुन रहा था और इस बीच अंदाजा लगा लिय कि मामला क्या है। उसने बस एक ही बात कही- सर, आपको दोस्ती के नाम पर इजी केक की तरह इस्तेमाल किया गया है। जहां-तहां इंसानियत मत झोंका कीजिए, वेवकूफ करार दिए जाएंगे। इतना कहकर उसने करवट बदल ली.
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गणेश अब पुरानी जिंदगी में लौटकर नहीं जाना चाहता। आमिर को गाते-गाते इसलिए आंसू आ गए कि उसके पापा ऑटो चलाते हैं। तुलसी यानि स्मृति इरानी की आंखे इसलिए छलछला गयीं कि वो समझ ही नहीं पा रही है कि यहां से निकलने के बाद स्लम से आए इन बच्चों का क्या होगा?
रियलिटी शो की एक तस्वीर ये भी है। अभी तक लोग टीवी को जितना देखते आए हैं, उससे कई गुना ज्यादा उसकी आलोचना करते आए हैं, उसे कोसते आए हैं। चेलीविजन स जुड़े लोग भी इस बात को समझते हैं क्योंकि उनका बचपन भी यही सब सुनते गुजरा है कि- टीवी मत देखो, पढ़ाई करों, टीवी से आंखे खराब हो जाती है, टीवी देखने से बच्चे बर्बाद हो जाते हैं। टीवी औऱ उसके कार्यक्रमों की आलोचना सांस्कृतिक विकृति से लेकर उपभोक्तावाद, बाजारवाद और पूंजीवद की जादुई लीला, न जाने कितने तरीके से की जाती रही है। इस मामले में टेलीविजन इतना सहज माध्यम है कि कोई जैसे चाहे इसकी आलोचना करे. किसी भी छोर से इसकी शुरुआत कर सकता है और अंत में ये साबित कर सकता है कि टीवी वाहियात चीज है। हर आदमी के पास इसकी बुराई में कहने के लिए कुछ न कुछ तथ्य मौजूद हैं. भले ही वो दे-चार लोगों को देखते ही देखते करोडपति और सिलेब्रेटी क्यों न बना दें।
इललिए आप देखेंगे कि टीवी कार्यक्रमों को आकर्षक बनाने के साथ-साथ अपनी छवि लगातार सुधारने में जुटा है।
ये है जलवा का गणेश, राखी सावंत की चिल्लड पार्टी, लिटिल चैम्पस का आमिर और वूगी-वूगी की मदर्स स्पेशल की मां जिसका पति सूनामी में मारा गया इसकी योजना की कड़ी हैं। ये है जलवा ने तो बार-बार इस बात की घोषणा भी की है कि ये आम आदमी का शो है। यानि देश का वो आम आदमी जिसे कि आज से दो-चार साल पहले स्टूडियो का चौकीदार आस-पास फटकने तक भी नहीं देता और आज वो सिलेब्रेटी है। गणेश जब अपने स्लम जाता है तो लोग उसका ऑटोग्राफ लेने के लिए घेर लेते हैं। आमिर पूरे इलाके का उदाहरण बना हुआ है। देश की उन मांओं को बल मिलता है कि 35 साल की कल्पना पति की मौत हो जाने के बाद भी इसलिए यहां डांस कर रही है क्योंकि एयर फोर्स में काम करनेवाला उसका पति उसे अक्सर कहा करता था कि- देखो मैं सुबह जा रहा हूं और अगर दोपहर और उसके बाद कभी नहीं लौटा तो तुम रोना मत, जिंदगी हमेशा मुस्कराने का नाम है।
रियलिटी में शो में इस तरह के कंटेस्टेंट की संख्या बढ़ रही है। इससे कार्यक्रमों की अपनी ब्रांड इमेज तो बनती ही हैं साथ ही लोगों का भरोसा भी बनता है कि यहां स्टेटस को लेकर भेदभाव नहीं है। सा,रे, ग,म की पूनम अभी तक आपको याद होगी। लखनउ की पूनम जो कि रेडियो और अपनी मां से सुन-सुनकर सारेगम के फाइनल रांउड तक पहुंचती है। उसके पापा नहीं है और न ही कोई दूसरा सहारा। मां-बेटी बड़ी मुश्किल से ट्युशन पढ़कर अपना गुजरा कर रही थी।
इस तरह से जिस तपके के कंटेस्टेंट को शो में शामिल किया जाता है, उनके साथ-साथ उस हालात में जी रहे करोड़ों लोग उसके साथ अपने-आप जुड़ जाते हैं। उनके सपने जुड़ते चले जाते हैं कि जब गणेश, पूनम, कल्पना और आमिर तो फिर हम क्यों नहीं। यानि बदहाली में जी रहे लोग जिनके भीतर हुनर है, निराशा और फ्रस्ट्रेशन में जीते हैं, ये रियलिटी शो उनके बीच एक सपना पैदा करता है, एक संभावना को जन्म देता है कि तुम भी सिलेक्रेटी की पांत में आ सकते हो। ये अलग बात है कि एक बड़ी सच्चाई है कि सबके सब ऐसा नहीं हो सकते। दस करोड़ के सपनों के बीच कोई एक सफल होगा।
लेकिन रियलिटी शो के लिए एक संख्या भी पर्याप्त है क्योंकि उदाहरण के लिए बस एक व्यक्ति चाहिए। ऐसे अगर आप सोचने लगेंगे तो आपको बात समझ में आ जाएगी कि राम तो एक ही हुए,हुए भी इस पर भी शक है तो भी। सब जानते हैं कि कोई दूसरा राम हो ही सकता, तो भी अपने को लगातार बेहतर करने की कोशिश और उनकी जीवनी पढने की कोशिश तो सभी करते हैं। इस हिसाब से सोचने पर आप देखेंगे कि रियलिटी शो उन तमाम पैटर्न को फॉलो करती है जिसके भीतर हम और आप जीते हैं, लेकिन गौर नहीं करते। जिंदगी जीते हुए और रियलिटी शो देखते हुए फर्क सिर्फ इतना ही होता है कि असल जिंदगी में हम अपनी स्थितियों के हिसाब से सोचते हैं जबकि रियलिटी शो देखते हुए दूसरों या फिर सफल हुए लोगों के हिसाब से सोचते हैं। यही तो है टीवी का मायाजाल। झूठ भी नहीं लेकिन सही भी तो नहीं।...।
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हम कनकलता के साथ नहीं हैं। इस बात की जानकारी अभी हमें दो घंटे पहले मिली। जुबां पे सच, दिल में इंडिया रखनेवाले चैनल ने बताया कि यूनिवर्सिटी के किसी भी स्टूडेंट ने कनकलता का साथ नहीं दिया। जिसमें हम सब भी शामिल हैं।
पहले तो व्आइस ओवर में बताया गया कि इस पूरे मामले में यूनिवर्सिटी का कोई भी स्टूडेंट खुलकर सामने नहीं आया। उसके बाद लगातार फ्लैश चलाया गया कि युनिवर्सिटी के किसी भी स्टूडेंट ने साथ नहीं दिया। ब्लॉग की खबर से अगर इस खबर को जोड़कर देखें तो यह एक बड़ा अन्तर्विरोध है। २९ मई को अपूर्वानंद सर ने मोहल्ला पर लिखा-
आपको यह सूचना देना आवश्यक है कि कनक और उसके भाई-बहनों ने इस अन्याय के ख़िलाफ़ लड़ाई छोड़ी नहीं है। कि उनके माता पिता ने उन्हें समझौते की आसान राह पकड़ने का उपदेश नहीं दिया है। कि उनके साथ विनीत, मीनाक्षी, मुन्ना जैसे उनके मित्र खड़े हैं, जो दलित नहीं हैं, लेकिन ख़ुद को इस लड़ाई के लिए जिम्मेदार समझते हैं।
कनकलता एक छात्रा है! एक दलित है! एक नागरिक है!

इस पर टिप्पणी देते हुए अरुण आदित्य ने लिखा-
Arun Aditya said...
विनीत, मुन्ना और मीनाक्षी बधाई के पात्र हैं। सब को इनका हौसला बढ़ाना चाहिए। अपूर्वानंद जी को भी एक सही मुद्दा उठाने के लिए साधुवाद।
२९ मई को अपूर्वानंद सर ने मोहल्ला पर जो पोस्ट लिखी है, दरअसल वो जनसत्ता के बिलंबित में आए लेख का ब्लॉग प्रस्तुति है। उस लेख भी उन्होंने इसी बात को दोहराया कि कई मित्र उनेके साथ खड़े हैं जो दलित नही हैं। ये अलग बात है कि वहां किसी का नाम नहीं लिया गया.
उसके बाद कनकलता को लेकर कुछ मीटिंग रखी गयी जिसमें डीयू के कुछ स्टूडेंट अपनी इच्छा और मानवीयता के स्तर पर उसमें शामिल हुए और पिछले महीने भर से किसी न किसी रुप में उसके साथ रहे। उसकी बातों को लिखते रहे, उठाते रहे। इस संबंध में जो कुछ भी लिखा गया सब मोहल्ला और गाहे बगाहे पर मौजूद है। लोग लगातार अपने कमेंट्स से डीयू के इन छात्रों का हौसला बढ़ाते रहे और आगे कारवाई करने के लिए प्रेरित करते रहे।
इसी क्रम में रवीश कुमार ने मोहल्ला पर एक पोस्ट लिखी -कनकलता, बीमार लोगों की है ये दिल्‍ली! औऱ उसमें कनकलता को व्यावहारिक सलाह भी दिया कि-
दिल्ली विश्वविद्यालय में बराबरी के लिए संघर्षरत युवाओं को बुलाया जाए। कहा जाए कि अब ज़रा लड़ो तुम। वो नहीं आएंगे। वो आज कल न्यूज़ चैनलों में ईमेल करने लगे हैं। वो जान गये हैं कि किनके लिए कौन आता है।
रवीश सर की इस बात से मुझे गहरी असहमति हुई और मैंने तुरंत लिखा कि-
विनीत कुमार said...
अपने सामान को उसी छत पर रहने दो। सड़ जाने दो उसे, उनकी सोच के साथ साथ। कपड़े, बर्तन, किताबें और कुछ यादें। इनकी कोई ज़रूरत नहीं।...ऐसा करना जरुरी है।लेकिन, इसी विश्वविद्यालय में कुछ ऐसे लोग भी हैं सर जो चैनलों में ईमेल करने की आदत से मुक्त हैं,कुछ, करना जरुरी भी नहीं समझते और जाहिर तौर पर वो कनकलता के साथ हैं।
ब्लॉग पर कनकलता के बारे में लगातार लिखा जाता रहा। कमेंट्स करके लोग उसके साथ जुड़ते चले गए। कई लोगों ने उससे, हम डीयू के लोगों से सम्पर्क करना शुरु कर दिया। अभी भी मेल और फोन लगातार आ रहे हैं।
और इधर डीयू के छात्र अपने स्तर से जो कुछ भी कर सकते थे करने लगे थे। कम से कम लोगों को बताने लगे थे औऱ माहौल बनने लगा था कि आगे कुछ ठोस कारवाई करनी है। इस मामले में विभाग के रीडर अपूर्वानंद सर बड़ी गंभीरता से, बड़ी तेजी से काम करने लग गए जिसका असर हमें साफ दिखने लगा है। हमलोगों को भरोसा होने लगा जो कि अब और अधिक मजबूत होता जा रहा है कि कनकलता को उसका अधिकार मिलेगा। ग्रोवर परिवार ने जिस तरह से उसके साथ किया है, हमसब उसे सजा दिलाने में कामयाब होंगे।
लेकिन आज जब मैंने एनडीवी इंडिया के स्पेशल रिपोर्ट में जो कि कनकलता के उपर थी देखा तो सन्न रह गया। पहले तो रिपोर्टर द्वारा ये कहा गया कि- डीयू के कोई भी स्टूडेंट कनकलता के मामले में खुलकर सामने नहीं आए। फिर लगातार फ्लैश चलाया गया कि यूनिवर्सिटी के किसी स्टूडेंट ने साथ नहींम दिया। मुझे तो यही समझ में नहीं आ रहा था कि खुलकर सामने आना क्या होता है। अगर इसका मतलब नारेबाजी करना और सड़क जाम करना है तो हां सचमुच में ऐसा किसी ने कुछ नहीं किया। लेकिन अपने-अपने स्तर से जितने भी स्टूडेंट थे वो काम कर रहे थे। अपने रिसर्च के काम को छोड़कर कनकलता के साथ थे, अपना खर्चा चलाने के लिए रिकॉर्डिंग का काम रोककर कनकलता के साथ थे, घर न जाकर कनकलता के साथ थे, घटना के जानने पर दिन में दो बार फोन करके पूछनेवाले लोग साथ थे कि हमें क्या करना है। लेकिन आज, ये सबके सब कनकलता के साथ नहीं हैं। ऐसा हम नहीं कहते बल्कि जुबां पे सच औऱ दिल में इंडिया रखनेवाले लोग कहते हैं।

मुझे पता है देश की जनता इस नेशनल चैनल को ज्यादा सच मानेगी क्योंकि इसके पास संसाधनों की ताकत है, ज्यादा लोगों तक इसकी पहुंच है। ब्लॉग तो हिन्दी समाज ने अभी-अभी सुनना ही शुरु किया है। लेकिन ये बात मन को बहुत कचोटती है कि आंख के सामने की सारी घटना को, जिसके एक-एक स्टेप को हमने देखा, चैनल उसे कैसे नाटकीय औऱ गैरजिम्मेदाराना तरीके से दिखाया। इसी चैनल के कितनी सुध ली थी कनकलता की, लोग जानते हैं। रिपोर्टर ने खुद कहा कि एक महीने बाद हम वहां पहुंचे। अब कोई सवाल करे कि एक महीने क्यों, पहले क्यों नहीं। है कोई जबाब इनके पास। इन्हें तो घटना के तुरंत बाद फॉलो अप करना चाहिए था। लेकिन आज ये दोष एक ही साथ कई लोगों पर मढ़ रहे हैं।
आज कनकलता के साथ वो लोग हैं जो कल तक इसे परिवार का मामला बताकर पल्ला झाड़ ले रहे थे। आज डूसू की अध्यक्ष अमृता बाहरी है जो मीडिया के साथ पहुंचने पर कनकलता को मदद करने के लिए एक्टिव हो जाती है। जो तुरंत फोन लगाती है कि सर, एक छोटा-सा काम है, एक एम्।फिल। की स्टूडेंट को हॉस्टल से बाहर निकाल दिया गया है। उसे भले ही पता नहीं हो कि कनकलता को हॉस्टल से नहीं बल्कि मकान-मालिक ने जातीय आधार पर पीटा है और मारकर बाहर निकाला है। लेकिन कोई बात नहीं उसके लिए छोटा काम ही है और आश्वासन भी है कि हो जाएगा। उसके साथ वो लोग हैं जो कल तक कौन झंझट में पड़े बोलकर, तमाशा देखकर वापस लौट आए थे। उसके साथ आज वो लोग हैं जो छात्र अधिकारों के लिए लड़ने के वाबजूद भी दलित एंगिल होने की वजह से लौट आए थे। उसके साथ वो लोग है जो नियमित रुप से विवेकानंद की मूर्ति के पास बैठते हैं, मुद्दों की तलाश में रहते हैं। लेकिन इस फिसले मुद्दे में पिछड़ जाने पर भी आज साथ हैं। आज उसके साथ वोलोग भी शामिल हैं जो अपने समाज का पोस्टर बंटबाते फिरते हैं। आज कनकलता अकेली नहीं है। अकेली तो तब भी नहीं थी,जब वो अकेली महसूस कर रही थी। तब भी डीयू के स्टूडेंट उसका हौसला बढा रहे थे, अपने साथ होने का विश्वास दिला रहे थे। ये अलग बात है कि वो स्टूडेंट थे, भावुक, संवेदनशील और वादों के घेरों से मुक्त। जिसे सिर्फ इतना लगा था हमारी दोस्त, हमारी सहपाठी और हमारी यूनिवर्सिटी की लड़की के साथ ऐसा हुआ है औऱ हमें चुप नहीं रहना है। वो बाइट के देने के लिए, अपना नाम चमकाने के लिए परेशान सो कॉल्ड प्रैक्टिकल लोग नहीं थे।
इन सबके बीच प्रतिबद्ध अपूर्वानंद सर हैं, ईमानदार सामाजिक कार्यकर्ता संजीव हैं जो कि घटना के दिन भी धरने पर बैठने के लिए तैयार थे और जिन्हें इस पर हल के बजाए अपना नाम चमकानेवाले लोगों ने मना कर दिया था। इनके असर से मौके पर उग आए लोगों का असर जरुर कम होगा। एनडीटीवी की इस घोषणा के बाद भी कि युनिवर्सिटी के वो भावुक छात्र औ रिसर्चर हैं जो कनकलता को आनेवाले समय में दलित स्कॉलर, सोशल एक्टिविस्ट और दूसरों के लिए तत्पर व्यकित्व के रुप में देखना चाहते हैं। औऱ निश्चित रुप से मीडिया भी जो अगली बार तरीके से होमवर्क करके आएगी।
कनकलता को अब अपने साथ-साथ दूसरों के लिए भी संघर्ष शुरु कर देनी चाहिए क्योंकि उसे तो न्याय मिलना तय ही है...अब देश की हजारों-हजार कनकलता के लिए काम करना जरुरी है।
और अंत में मौके पर उग आए, बाइट देने के लिए बेताब भाईयों से अपील है कि अगर आप मामले को तरीके से नहीं जानते तो उस पर चुप ही मार जाइए। बात हो रही है कनकलता के साथ हुए दुर्व्यवहार की और आप मार झोंके जा रहे हैं, एकता, मिली-जुली संस्कृति, पता नहीं क्या-क्या वैल्यू लोडेड शब्द। अगर आप सचमुच चाहते हैं कि ऐसी घटनाएं न दोहरायी जाए तो बेहतर होगा एक मेधावी छात्रा के पीडित छात्रा के रुप में पहचान बदल जाने के पहले से सक्रिय हो जाएं। सेंकने के लिए और भी मुद्दे मिल जाएंगे। यहां वक्श दीजिए प्लीज।।.
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वोडाफोन का हचपपी लोगों की मदद करके हैप्पी टू हेल्प होता है। बच्ची की टाई छूटने पर पहुंचाकर, थूक से डाक टिकट छिपकाकर वो लोगों की खूब मदद करता है। हैप्पी उसके संस्कार में है औऱ यही संस्कार आजकल आपको डीयू कैंपस में देखने को मिल जाएंगे।
दिल्ली विश्वविद्यालय में एडमीशन फीवर शुरु हो गया है। कैंपस में हूं इसलिए इसका सीधा असर देख और समझ पाता हूं. हर कॉलेज के आगे बड़े-बड़े स्टॉल लगे हैं। इंस्टीट्यूट के, कोल्डड्रिंक के औऱ सबसे ज्यादा मोबाईल कंपनियों के। हर दस कदम पर आपको किसी न किसी चैनल या अखबार के लोग घूमते-खोजते और परेशान होते दिख जाएंगे। जो जहां से है उसकी टीशर्ट पर कुछ न कुछ लिखा है। औऱ सबके उपर एक वाक्य लिखा है- मे आई हेल्प यू। वोडाफोनवालों की टीशर्ट पर हचपपी बना है और लिखा है हैप्पी टू हेल्प। इन दिनों डीयू कैंपस हेल्पिंग कल्चर में जी रहा है। हर पांच कदम पर आपको कोई न कोई हेल्प करने के लिए तैयार खड़ा है। हैल्प करने के लिए लोगों को इतना बेताब होते पहले कभी नहीं देखा।
कल अपने गाइड से मिलने गया था. चार-पांच दिनों से कहीं चलना-फिरना हुआ नहीं था सो सोचा, पैदल ही मार लूं। दस दूना बीस रुपये की आमदनी भी हो जाएगी। हॉस्टल से सर के पास तक पहुंचने में पांच कंपनियों की मदद का शिकार हो गया। उनके स्टॉल से गुजरता तो उन्हें लगता कि वो हमारी तरफ ही आ रहे हैं और फिर एक ही सवाल पूछते कि आर यू स्टूडेंट सर औऱ फिर शुरु हो जाते. उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं होता कि मैं इधर क्यों आया हूं, क्या काम है, जल्दी में हूं,रुकने का मन नहीं कर रहा। स्टूडेंट हूं तो भी मुझे एडमीशन नहीं लेने हैं,ये सब कुछ भी जानना नहीं चाह रहे हैं।
सीधा यह कि सर दिस इज स्पेशली फॉर कैंपस पीपुल। ये स्टूडेंट ऑफर है सर। औऱ फिर बताने लग जाते कि क्या-क्या फायदे हैं इस स्कीम को ले लेने से।
कोई इंस्टीट्यूट वाले मिल जाएंगे और फिर एमबीए के पैकेज,मैनेजमेंट के पैकेज और ऑफर आदि की बात करने लग जाएंगे। आपसे ये भी नहीं जानना चाहेंगे कि आप किस चीज की पढाई कर रहे हो औऱ ये आपके काम का है भी कि नहीं। आप कुछ बोलेंगे इसके पहले कि वो आपको ढेर सारे ब्राउसर पकड़ा देंगे, या तो उसे आप पढ़िए या फिर सड़कों पर फेंक दीजिए, इससे उनको कोई खास फर्क नहीं पड़ता। वो मशीन की तरह मूढ़ होकर आपको थमाते चले जाएंगे। कई बार तो एक ही संस्थान या कंपनी के लोग इतनी नजदीकी पर स्टॉल लगाते हैं कि रास्ते में जाते हुए आपको कई बार एक ही सामग्री बार-बार मिल जाएगी। मैं उसे बर्बाद नहीं करना चाहता इसलिए हाथ में ही रखता हूं और दोबारा देने पर कहता हूं- नहीं है मेरे पास। कुछ तो मुस्करा देते हैं लेकिन कुछ कहते हैं, कोई बात नहीं सर, दोस्तों को दे दीजिएगा।
शाम को पांच से छः के बीच अगर आप कैंपस से गुजरते हैं तो आपको कॉलेजों के आसपास की जमीन दिखायी नहीं देगी, वहां पोस्टरों का अंबार लगा होता है। ब्राउसर फैले होते हैं जिसे कि हम और आप जैसे लोग पढ़कर या फिर बिन पढ़े फेंक देते हैं। ऐसी स्थिति यहां डूसू चुनाव के समय होती है, जब गाडियों पर चढ़कर लोग अपनी पार्टी या फिर प्रत्याशी की पोस्टरें अंधाधुन उड़ाते हैं। थोड़ी देर के लिए अगर आप सड़कों पर फैले इन पोस्टरों पर गौर करेंगे तो आपको एहसास हो जाएगा कि ये पोस्टर और संस्थानों के ब्राउसर लोगों को जानकारी देने के लिए नहीं छापे जाते बल्कि शक्ति प्रदर्शन के लिए बांटे जाते हैं, फैलाए जाते हैं। आपको इन कंपनियों और संस्थानों पर भरोसा होने लग जाए कि जब ये लाखों रुपये पोस्टरों पर खर्च कर देती है तो फिर इसकी हैसियत कितनी होगी। संस्थानों के प्रति आपका भरोसा बढ़ता है.
दूसरी तरफ एक कंपनी के मुकाबले जब दूसरी कंपनी दुगने स्तर से पोस्टरें बांटना शुरु करती है तो सारा मामला बाजार की प्रतिस्पर्धा में बदल जाती है. आपको लगने लग जाएगा कि दिन में किस तरह का एक बर्बर माहौल बना होगा। लोग मदद करने की आपाधापी में, पोस्टरें बांटने की होड़ मचाए होंगे। अपनी कंपनी को सामने वाली कंपनी से बेहतर दिखाने की मारकाट शैली विकसित हुई होगी।
इस पूरे सीन में सूचना के लिए पोस्टर और मदद के लिए हेल्प और मदद करने पर खुश होनेवाले संस्कार गायब होते जाते होंगे, इन सबका अंदाजा आप सिर्फ शाम को कॉलेज के आगे बिखरे पोस्टरों के ढेर से लगा सकते हैं। ये पोस्टर जो कि सुबह के लिए सबसे बड़ी सूचना बनने की दौड में थे शाम को सूचनाविहीन कूड़े के ढेर में तब्दील हो गए हैं। आप इसे लेट कैपिटलिज्म का कचरा कह सकते हैं जो दूसरों की मदद के लिए बेताब तो है लेकिन शाम तक खुद ही लाचार हो जाते हैं,अर्थहीन हो जाते हैं,कुछ-कुछ पोस्टरों की तरह, ब्राउसर के माफिक।.।
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कठपिंगल हमारे बीच नहीं रहे

Posted On 2:25 am by विनीत कुमार | 8 comments

घर में कोने से कटी हुई कोई चिट्ठी आती तो मैं उसे पकड़ने और पढ़ने से बहुत ड़रता, उसमें किसी के मौत की खबर होती। इसलिए जब भी हम भाई-बहन कोई चिट्ठी( हिन्दी या अंग्रेजी में) लिखते तो मां जरुरी चेक करती कि कहीं कोने से फटे हुए कागज पर तो इनलोगों ने कोई चिट्ठी तो नहीं लिख दी है।
घर तो बहुत पहले छूट गया। अब मौत की खबर आती भी है तो टेलीफोन से या फिर मेल के जरिए। पढ़ने और सुनने में अभी भी बहुत लगता है। आज भी वही हुआ।
चार दिनों से बुखार जिसमें कि कमजोरी अब भी बरकार है के बाद जब बहुत हिम्मत जुटाकर दोस्त के सो जाने पर अभी उसके लैपटॉप पर बैठा तो अचानक बहुत बड़ा झटका लगा। कठपिंगलजी पर क्लिक किया तो देखा ब्लॉग ही गायब है। यानि कठंपिंगलजी अब हमारे बीच नहीं रहे। इतनी रात गए जबकि मैं बिल्कुल बीमार और अकेला हूं( जागते हुए) , पढ़कर बहुत सदमा पहुंचा।
मोहल्ला पर मेरी पोस्ट पढ़कर जब कठपिंगलजी ने मुझे साला कहा था तो मैंने उनके लिए बिलटउआ और अवतारी शब्द का प्रयोग किया था। बलटउआ यानि जिसको कोई बर्बाद न करे, बल्कि अपनी करतूतों से आप ही बर्बाद हो जाए।॥ और अवतारी वो जो किसी खास मकसद के लिए इस धरती पर मनुष्य रुप में अवतार लेते हैं और पूरी हो जाने पर विलीन हो जाते हैं। कठपिंगल ऐसे ही ब्लॉगर थे।
कठंपिंगलजी को किसी ने बर्बाद नहीं किया बल्कि छिटपुट ढंग से इधर-उधर लकड़ी करने के बात खुद ही मनोबल खो बैठे और चल बसे।
अवतारी तो इसलिए लिए कि उन्हें दो पोस्ट लिखनी थी- एक यशवंत पर और दूसरी अविनाश पर। उन दोनों पोस्टों से हम मनुष्यों को जो भी बताना-समझाना चाहते थे, हम समझ लिए उसके बाद वो आंख मूंद लिए। अभी तक इतना चमत्कारी ब्लॉगर मैंने नहीं देखा। गजब का ओज रहन भइया... भगवान ओके आत्मा को शांति दे।
मेरी मां कहती है कि मरने के बाद आदमी देवता हो जाता है। उस हिसाब से धरती से ज्यादा मारामारी उपर है। ऐसे में उनको रहने लायक जगह-ठौर मिल जाए। मां ये भी कहती है कि जो मर जाए उसकी शिकायत नहीं करनी चाहिए, सो मां की बात तो माननी ही पड़ेगी, कोई शिकायत नहीं। वैसे भी जो इस दुनिया में है ही नहीं, उससे शिकायत कैसी।
लेकिन कठपिंगलजी, आपकी आत्मा को शांति मिले इसके लिए मैं दो-तीन काम कर रहा हूं।
एक तो ये कि मैं सारे ब्लॉग से अपनी सदस्यता समाप्त करता हूं। तकनीक के मामले में कच्चा हूं इसलिए कई बार कोशिश करने के बाद भी मैं अपना नाम हटा नहीं पाया और आपके साथ-साथ औऱ भी लोगों को घेरने का मौका मिल गया। ये जरुरी भी है क्योंकि कल को मेरे जिस गुरु ने बालात्कार करने की कोशिश की है, क्या पता उसमें उसके गलबइंया चेले का भी नाम न जुड़ जाए। कोर्ट-कचहरी से बहुत ड़रता हूं, शरीर से कमजोर आदमी हूं, दो ही दिन में टें बोल जाउँगा। बिना पीएच।डी किए मरना नहीं चाहता। गाइड से वादा कर चुका हूं।
दूसरा कि मेरे लिखने की वजह से इससे पहले कि कनकलता का मामला कोई और मोड़ ले ले, विमर्श गाली-गलौज में बदल जाए, उसकी तकलीफों के उपर बौद्धिकता का मुल्लमा चढ़ जाए, मैं कनकलता के मामले को ब्लॉग के स्तर पर यहीं रोकता हूं। व्यक्तिगत स्तर पर जितना कर सकूंगा, आगे मेरा प्रयास जारी रहेगा।
तीसरा कि आपने मेरी आंखें खोल दी। आप पहले ब्लॉगर मिले जिन्होंने खुले दिल से मेरी आलोचना की और बाद में इस परंपरा का विकास हुआ। बहुत कम लोग होते हैं जो ऐसा कर पाते हैं। लेकिन मरने के बाद भी एक शिकायत करुंगा कि आप कौन से अवतार थे, पता नहीं चल पाया। साहित्य का छात्र रहा हूं, इन सब चीजों पर आस्था न रहते हुए भी जानकारी के लिए छटपटाता रहता हूं। बिना पहचान के आप हमारे बीच रहे, ब्लॉग जगत में एक कलंक थोप गए। आपको तो फिर भी अवतारी जानकर कुछ नहीं बोले, सबके साथ ऐसे कैसे चलेगा। खैर,
आप जहां भी रहें, सुखी रहें। भगवान आपकी आत्मा को शांति दे। कोशिश कीजिए कि जल्दी किसी योनि में पहचान सहित पैदा लें ताकि आलोचना का माहौल बना रहे। सिर्फ ध्यान रखिएगा कि गाली देनेवाली योनि में पैदा न ले लें।
आपके अलावे किसी को कोई जबाब नहीं दे रहे हैं, काहे कि सब लोग अभी यहीं है, नाम सहित मौजूद हैं, इसलिए उनके साथ भावुक होने के बजाय तार्किक होने में भलाई है।
राम नाम सत्य है
राम नाम सत्य है
राम नाम सत्य है
राम नाम सत्य है
राम नाम सत्य है....
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दलितों का इतना ईमानदार विरोधी मुझे अभी तक नहीं मिला था। अपने डीयू कैंपस में तो फिर भी रिजर्वेशन के आधार पर किसी को नौकरी लग जाती है तो कुछ लोग गरियाते हैं, कोटे से हैं सो हो गया, वरना आता-जाता कुछ थोड़े ही न है। उनके गरियाने के वाबजूद भी मैंने उन्हें कई दलितों को समय पर मदद करते देखा है। परीक्षा के समय किताबें देते देखा है और यूजीसी का फार्म भरते समय पैसे देते देखा है। एक दो बार तो जो लोग दलित के नाम पर जिसे गरियाते हैं, उसी को मौके पर हॉस्पीटल पहुंचाते भी देखा है। ऐसी हालत में आप उन्हें दलितों का ईमानदारी विरोधी नहीं कह सकते हैं।लेकिन आजकल एक मुहावरा चल निकला है न कि- जो कहीं नहीं है, वो ब्लॉग पर है और जो कहीं नहीं होता वो ब्लॉग पर हो जाता है। दलित विरोधी के मामले में कुछ ऐसा ही हुआ है।....और ये ब्लॉग की महिमा ही देखिए ही हमें दलितों का धुरविरोधी मिल गया, खालिस औऱ ईमानदार विरोधी मिल गया।
कनकलता के मामले पर जब ब्लॉग पर चर्चा शुरु हुई, मोहल्ला और गाहे-बगाहे दोनों पर तब उसे लेकर एक सकारात्मक माहौल बना। तमाम अन्तर्विरोधों के वाबजूद कई ब्लॉगर एक साथ सामने आए। लोग कनकलता और उसके परिवार को लेकर संवेदनशील हुए, उनके पक्ष में खड़े होने की बात की। कई कमेंट्स से तो ऐसा लगा कि हम इस मसले पर उनसे जिस भी तरह की मदद चाहेंगे वो हमें करेंगे। उन्होंने कमेंट के दौरान अपना पता छोड़ा, मेल आइडी छोड़ी। कुछ लोगों ने व्यक्तिगत तौर पर फोन करके, मेल करके कनकलता से सम्पर्क करने की कोशिशें की, उसका मनोबल बढ़ाया। ऐसा करने से उसके लिए संघर्ष कर रहे हमलोगों का भी हौसला बढ़ा औऱ हम ब्लॉग के जरिए भी न्याय मिलने की उम्मीद करने लगे। इसी बीच ब्लॉग की दुनिया में एक पुरुष ब्लॉगर ने अवतार लिया। अबतक ब्लॉगर को मैं इस तरह से लिंग भेद करके नहीं देखता था लेकिन इनके साथ ऐसा जोड़ना बहुत जरुरी है क्योंकि जिस हिम्मत का काम वो कर रहे हैं उसकी क्रेडिट अब तक पुरुषों को ही मिलता आया है। लोग कमेंट पर कमेंट किए जा रहे हैं, कनकलता और दलितों के पक्ष में और बिल्कुल स्पष्ट कर दे रहे हैं ये मामला सिर्फ मकान-मालिक और किरायेदार के बीच का नहीं है, फिर भी ये अवतारी पुरुष लीला किए जा रहे हैं। अब अवतार लिया है तो लीला करना इनकी मजबूरी है। इनका कहना है कि कनकलता के बारे में हम जो कुछ भी लिख रहे हैं वो एक झूठी कहानी है औऱ सारा मामला एकपक्षीय है। वो हमें इस बात की भी राय दे रहे हैं बल्कि कहिए कि ललकार रहे हैं कि हम मकान-मालिक से जाकर पूछें और पता करें कि असल में मामला है क्या। इस भाई साहब जिनके ब्लॉग का नाम दृष्टिकोन है लगातार कनकलता के विरोध में बातें किए जा रहे हैं औऱ मकान-मालिक के पक्ष में तर्क दिए जा रहे हैं। उनका कहना है कि दिल्ली में कोई भी मकान ११ महीने के लिए देता है और जब ये कांट्रेक्ट खत्म हो गया होगा तो मकान-मालिक ने घर खाली करने को कहा होगा औऱ फिर झगड़े हुए होंगे, इसे जबरदस्ती दलित उत्पीड़न और जातिगत दुर्व्यवहार का नाम दिया जा रहा है। अब इनको क्या समझाया जाए कि जब हमने कनकलता का हादसानामा मोहल्ला पर जारी किया था, उसी समय दुसरी ही पंक्ति में साफ कर दिया था कि जब उसने मकान-मालिक से कांट्रेक्ट की बात की और कहा कि हमलोग दे-तीन साल यहां रहेंगे तो मकान-मालिक ने साफ कहा था कि हमसे आपलोगों को कोई दिक्कत नहीं होगी। इसके पहले भी हमने कोई कांट्रेक्ट नहीं बनवाया, आप आराम से रहो। भाई साहब ने शायद इसे नहीं पढ़ा है और पढ़ा भी होगा तो भी नजरअंदाज कर गए होंगे। दृष्टिकोन साहब जिस कांट्रेक्ट की रट बार-बार लगाए जा रहे हैं औऱ ११ महीने की बात कर रहे हैं, थोड़ी देर के लिए उनकी बात मान भी ली जाए, जो कि मानने लायक है ही नहीं तो भी कनकलता २००७ की जनवरी से रह रही थी औऱ रहते हुए उसे सवा साल होने जा रहे थे। मारपीट की घटना ३ मई २००८ को हुई। अगर मकान-मालिक को घर खाली ही कराना था तो सितंबर-अक्टूबर में ही कराना चाहिए था लेकिन नहीं कराया था। अब यहां मानवता वाला एंगिल मत झोकिएगा कि इस नाते उसने और दिनों के लिए मौका दिया। क्योंकि अगर मकान-मालिक में आदमियत होती तो सवा साल के बाद भी इतनी बुरी तरह बेईज्जत नहीं करता, पीटकर उल्टे पुलिस केस नहीं बनाता। भाई साहब ये सब तब हुआ जब उसे कनकलता की जाति का पता चला। अफसोस की बात देखिए कि ये भाई साहब सिर्फ कनकलता के मामले को लेकर हमसे असहमत नहीं है बल्कि इनका विरोध हमारे दलित समर्थन में होने से भी है। इसका नमूना भी इन्होंने हमारे ब्लॉग पर दिया है। ३१ मई की रात, ग्वायर हॉल, डीयू में एक कमजोर छात्र के पीटे जाने की घटना पर जब हमने पोस्ट लिखी तो भाई साहब ने टिप्पणी रही - अच्छा हुआ वो कमजोर छात्र दलित नहीं था, नहीं तो आप वहां भी दलित विमर्श करने लग जाते। इसका आप क्या अर्थ लगाते हैं। भाई साहब के हिसाब से तो दलितों के पक्ष में बात करने का मतलब हो-हल्ला मचाना है जो कि उन्होंने बहुत पहले ही साफ कर दिया था। इन सबके वाबजूद मुझे अच्छा लग रहा है कि इस डेमोक्रेटिक स्पेस में जहां कि सबको अपनी बात करने का हक है, एक भाई साहब बड़ी बहादुरी के साथ दलित-विरोधी, मानव-विरोधी विचार हमारे सामने रख रहे हैं। है आपमें इतनी हिम्मत, बीस-बीस दिन की ट्रेनिंग के बाद भी ऐसा करने में अच्छे-अच्छों के पसीने छूट जाते हैं जी।।..
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