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ब्लॉगिंग करते हो गए आज छह साल

Posted On 12:15 am by विनीत कुमार | 12 comments

"विनीत, आपकी शर्ट की साइज क्या है? प्लीज, आप ऐसा मत कीजिए मेरे साथ..मैं ऐसे मौके पर अपने को बहुत हारा हुआ और एक हद तक अपमानित महसूस करता हूं. हम ब्लॉगरों को आप बोलने के लिए बुला ही लेते हैं सो काफी है. हम बस इस बात के भूखे हैं कि लोग हिन्दी में नए तरीके से, नए मिजाज से जो कुछ भी लिखा जा रहा है, उसे सुनें-पढ़ें...बताइए न, 40 या 42. पूछने से यही दिक्कत है..खैर, आप आ जाइएगा समय पर."

एक संस्था में बोलेने जाने के पहले वहां की एक अधिकारी ने जब शर्ट की मेरी साईज पूछी तो मैं इस तरह झेंप गया कि उतनी शर्म चड्डी की साइज पूछने पर न आए..ऐसे समय में पता नहीं क्यों मैं अपने को रोक नहीं पाता, बहुत ही कमजोर और किसी न किसी रुप में अपमानित महसूस करता हूं. मुझे कहीं से इस बात का एहसास नहीं हो पाता कि कोई मेरे सम्मान में,स्नेह में, प्यार में ये सब कर रहा है..कॉलेज में मीडिया की कक्षाएं लेते हुए जब भी ऐसी स्थिति बनती है कि कोई मुझे शिक्षक दिवस पर उपहार देने की कोशिश करता है, किसी मौके पर कुछ खिलाना चाहता है, ऐसा लगता है कि तत्काल धरती फटे और मैं समा जाउं..ये संस्कार ब्लॉग से ही आए हैं शायद और वैसे भी पिछले कुछ महीने से मैं इस गहरी पीड़ा से गुजर रहा हूं कि जैसा और जो कुछ चल रहा है, ऐसा अगर लंबे समय तक चलता रहा तो यकीन मानिए, मैं अपने भीतर की उस आग को खो दूंगा जिसे बड़ी जतन से साल-दर-साल ब्लॉगिंग करते हुए सहजने की कोशिश करता रहा..उस दौर से जब हमें लिखने के पैसे नहीं मिलते थे, हमारे पास लैपटॉप या कोई और साधन नहीं थे लेकिन मजाल है कि किसी दिन पोस्ट न लिख पाउं. मेरी ब्लॉग पर अति सक्रियता को देखकर कुछ लोग कहा भी करते, अभी जोश है, बाद में भूल जाओगे कि तुम कभी ब्लॉगिंग भी किया करते थे. लेकिन नहीं, टेढ़े-मेढ़े, अपने को बचाते रहने की कोशिश के बीच ब्लॉग लिखना जारी है. हां, इस बीच ये जरुर हुआ है कि लेआउट पर जाकर सेटिंग से लेकिन कम्पोजिंग में ज्यादा जहमत होने की वजह से फेसबुक पर माइक्रो ब्लॉगिंग ज्यादा हो गई है..लेकिन जब कभी सोचता हूं कि क्या आनेवाले समय में ब्लॉगिंग एकदम से छूट जाएगा तो लगता है कि तो फिर बचेगा क्या ? खैर, ये सब करते-कराते, देखते-देखते छह साल गुजर गए.

मेरे लिए ब्लॉगिंग शुरु से ही एक खास किस्म की जिद का हिस्सा रहा है. मुझे नहीं पता कि पाठ्यक्रम के खपाने के लिए देशभर में ब्लॉगिंग पर जो दर्जनों किताबें लिखी गई और लिखी जा रही है..कौन-कौन सी सीमाओं और शर्तों के बीच इसे बांधा जा रहा है लेकिन मुझे अभी भी लगता है कि दुस्साहस ही इसकी आत्मा है, रचनात्मकता और बाकी चीजें इसके बाद आती है. अब जिस तरह से लोगों ने इसे चमचई और टीटीएम का जैसा अखाड़ा इसे बना दिया है, ब्लॉग के पुराने दौर को याद करता हूं तो हर दूसरा ब्लॉगर सामनेवाले के लिए तेल नहीं रिंगगार्ड लेकर खड़ा नजर आता था..तू खुजला,मैं मलूंगा..यकीन मानिए, जिस ब्लॉग ऐसे दर्जनों छुईमुई, दंभी मठाधीशों जिनके कि एक शब्द लिख देने भर से पूरी भारतीय संस्कृति खतरे में पड़ जाया करती है, उन्हें सहने की ताकत दी, उन्हें इस बात का शिद्दत से एहसास कराया कि सिर्फ साल-दर-साल भकोसते रह जाने से कोई बड़ा पत्रकार या साहित्यकार नहीं हो जाता और न ही लेखन कोई आलू-प्याज की खेती है कि एक समय करो और बाकी कोल्ड स्टोरेज में रखकर उसकी कमाई खाओ. ब्लॉगिंग ने ऐसे गाथा गानेवाले आत्मश्लाघियों को कुछ नहीं तो इतना असंतोष और खतरा तो पैदा कर दिया कि महान से महान और कालजयी से कालजयी रचना और गंभीर से गंभीर पत्रिकाओं में छपते रहने के बावजूद ब्लॉग की दुनिया में अगर आपकी दखल नहीं है तो ये बहुत संभव है कि आप एक बड़ी दुनिया के लिए जातिवाचक संज्ञा हैं. ये अकारण नहीं है कि शुरुआती दौर में जो महंत,धीर-गंभीर मुद्रा में साहित्य सेवा में लगे लोग ब्लॉगरों को दमभर कोसते थे, अब वे हम जैसे सतही लेखन करनेवाले से कहीं ज्यादा सक्रिय और धड़फड़ाते नजर आते हैं. जिस ब्लॉग को उन्होंने अपनी अक्षमता और नासमझी में नक्कारा, आज उसी में हाथ-पैर मार रहे हैं..ये अपनी दुनिया में भले ही तीसमार खां रहे हों लेकिन हम ऐसे वर्चुअस स्पेस शिशुओं को गोड-गांड फेंक-फेंककर खेलते देखते हैं तो भीतर ही भीतर हंसी आती है.

इनमे से कई लोग नवरात्रा के आर्डर के लड्डू टाइप से इसके इतिहास और प्रासंगिकता पर आनन-फानन में कुछ लिखकर टांग देते हैं और अगर किसी सरोकारी पत्रिका के लिए लिखा है तो उसकी सॉफ्ट कॉपी की लिंक ठेलनी शुरु कर देते हैं. ऐसे वक्त मुझे बेहद संतोष होता है कि हमारे साथ एक ऐसा जिया हुआ इतिहास है, जिसके एक-एक संदर्भ और परिप्रेक्ष्य के हम गवाह रहे हैं और जब चार साल-पांच साल बाद कोई नउसिखुआ महंत उस पर लिख रहा होता है तो लेखन के नाम पर कैसा चोपा मार रहा होता है..हम ब्लॉगिंग करते हुए कभी भी इस खुशफहमी में नहीं रहे कि एक हाथ में क्रांत की मशाल और एक कंधे पर प्रतिरोध की गठरी लेकर कोई दुनिया बदलने निकले हैं लेकिन ये बात मैं बार-बार महसूस करता हूं कि अगर मैंने ब्लॉगिंग नहीं की होती तो शायद मैं चीजों के प्रति बेबाकी से नहीं लिख पाता..लोगों के बीच के प्रोपगेंडा को समझ नहीं पाता..चमचई और प्रोफेशल स्तर की कमजोरी की कॉकटेल को समझ नहीं पाता. आज मुझे बहुत कुछ ऐसा है जो बिल्कुल अच्छा नहीं लगता और मैं उसका हिस्सा नहीं बनना चाहता, गर ब्लॉगिंग न करता तो शायद इतने स्पष्ट रुप से फैसले लेने की क्षमता और हिम्मत नहीं जुटा पाता. छह साल की इस ब्लॉगिंग ने मुझे बेहद मजबूत और लुम्पेन टाइप के लोगों के प्रति ज्यादा क्रिटिकल बनाया है, दूसरी तरह इस बात के लिए बेहद ढीठ कि कुछ भी हो जाए, लिखना नहीं छोड़ना है..आमतौर पर थोड़ी सी हील-हुज्जत हुई नहीं कि अहं को टिकाकर बैठ गए और देखते ही देखते कट लिए. अगर उन्होंने ब्लॉगिंग की होती तो शायद मेरी ही तरह हो जाते.

छह साल पीछे पलटकर देखता हूं तो लगता है एक दुनिया है जो सिर्फ और सिर्फ मेरी अपनी दुनिया है..जिसमे कई दूसरे चरित्र तो हैं लेकिन उसका मुख्य किरदार मैं खुद हूं..मेरी इस दुनिया में भाषिक अभिव्यक्ति के नाम पर काफी कुछ बेहद बचकाना, पर्सनल, एकाकीपन लिए है लेकिन अच्छा है कि ये सिर्फ मेरी लिखावट नहीं बल्कि वो छोटे-छोटे प्रसंग हैं जिन्हें लिखता नहीं तो शायद बुरी तरह परेशान हो जाता, आपसे साझा नहीं करता तो रहा नहीं जाता..ये मेरे अकेले की अटारी है जिस पर चढ़कर मैंने हाफिज मास्टर की तरह खूब बतकही की है..अब बस हमेशा यही लगता है कि इस अटारी की आवाज शोर के बीच गुम हो जाए तो गम नहीं लेकिन आगे बढ़ते हुए पीछे के जितने सालों की तरह नजर डालं, कभी ये न लगे कि आग ठंडी पड़ती जा रही है....

यार ललित, ये तुम्हारा ब्लॉग इतना नक्कारा है कि पिछले साल के दोनों में से किसी भी एक वायदे को पूरा नहीं कर पाया. तुमने कहा था कि अगले साल अपने ब्लॉग के जन्मदिन तक अपनी क्रेडिट कार्ड बनवा लोगे ताकि डोमेन के पैसे होस्ट को इससे ट्रांसफर कर सको और दूसरा कि अकेले नहीं रहोगे..हमने दोनों में से कुछ नहीं किया और देखो इस बार भी अपनी बेशर्मी दिखा दी..ललित इस साल माफ कर दो, अगली साल तक अकेले का तो पता नहीं लेकिन क्रेडिट कार्ड को लेकर जरुर सक्रिय रहूंगा. शुक्रिया दोस्त, आप हर साल मेरे ब्लॉग का जन्मदिन आने से चार साल पहले याद दिलाते हो कि चार दिन बाद ये डोमेन एक्सपायर हो जाएगा और हर बाद उत्साह बढ़ाते हैं- हम तुम्हारे हुंकार को जिंदा रखेंगे.
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देखियो जरा इस बैन की लौ.. को. इस रंडी से टिकट मांग रहा है. इस चूतिए को पता नहीं है कि रंडी से कुछ और मांगी जाती है..उसके बाद एक-दूसरे की हथेली पर जोर से मारते हुए ठहाके का दौर.

लंबे इंतजार के बाद जब सामने से डीटीसी 234 आती दिखाई दी तो मैं जिस बदहवासी में बस में घुसा ( वैसे भी इत्मिनान से चढ़ने जैसी कोई स्थिति होती भी नहीं) उतनी ही बदहवासी से बिना ये देखे कि कौन है, टिकट काटनेवाले की सीट के आगे बीस के नोट बढ़ा दिए. जब उसने नोट लेने के लिए हाथ नहीं बढ़ाए और न ही टिकट काटने की कोई हरकत की तो मैं गौर से देखने लगा. एक लड़की बैठी थी. 

इन दिनों डीटीसी में जो नई बहाली हुई है, उसमे हम उम्र लड़कों के साथ-साथ लड़कियों की भी काफी हुई है..इनमे से कई डीटीसी की लाइनवाली समीज और ब्लू सलवार यूनिफार्म के बजाय नार्मल कपड़े में होती है. ऐसे में कंडक्टटर की सीट पर लड़की का होना स्वाभाविक ही था..लेकिन पीछे से तीन बार उसके लिए रंडी शब्द और मेरे टिकट मांगने पर देखियो बैन की लौ..का इस्तेमाल उस स्कूली छात्र ने किया तो मन कैसा-कैसा हो गया..पता नहीं क्यों लगा कि कल को यही लड़के 16 दिसंबर जैसी घटना को अंजाम देंगे.

मैंने उस लड़की को सॉरी बोलते हुए, उसके बाद वाली सीट पर बैठे कंडक्टर की तरफ बीस का नोट बढ़ाया और माल रोड तक के लिए टिकट मांगी. कंडक्टर ने हमें लड़की से टिकट मांगते हुए देख लिया था. ऐसे में जब मैं उससे टिकट मांगने गया तो मुस्कराने लगा- क्या सर, चक्कर खा गए..मैं बुरी तरह अपसेट हो गया था लेकिन कुछ कहा नहीं. कंडक्टर ने समाज सेवा के नाम पर इतना जरुर किया था कि जो उसकी अकेले की सीट होती है, उसे उस लड़की को दे दिया था ताकि उसके बगल की सीट खाली न रह जाए..क्योंकि उसके तो माथे पर लिखा था कि वो रंडी है..भला इतने बड़े-बड़े अक्षरों में ये शब्द लिखा देख कोई कैसे बैठ सकता था. भेदभाव, छुआछूत का पालन सामाजिक रुप से हो इसके लिए कंडक्टर ने अपने विशाल ह़दय का परिचय दिया था.

अपनी सीट पर आकर बैठा था कि करीब सात-आठ स्कूली लड़कों का हुजूम रंडी और बैन की लौ दो शब्दों को पकड़कर ठहाके लगाते रहे...ऐ भाई, चल हम इस रंडी से मांगते हैं, पूछते हैं देगी..फिर ठहाके..भाई साहब को तो मना कर दिया. एक मन किया इन्हें पास बुलाकर समझाउं कि क्या कर रहे हो ? किसी की उम्र 16 से ज्यादा नहीं होगी. नौवी-दसवीं के बच्चे. आखिर में एक को कहा- ऐसे ही बात करते हैं, तुम्हें पता है कि वो क्या है जो इस तरह के शब्द इस्तेमाल कर रहे हो और मेरे लिए लगातार गाली..अगर पलटकर मैं तुम्हें पीटना शुरु करुं तो ?

ये ले भाई, इस बस में गांधीजी बैठ्ठे हैं..फिर ठहाकों का दौर..अंकलजी, बस की सवारी करते हो तो तसल्ली से बैठे और तसल्ली से उतर जाया करो, ज्यादा नूलेज झाडोगे तो अपनी भी ठीक से झड़ती है, डाल देंगे. हमदोनों के लिए अपशब्दों का प्रयोग करते जब वो ऊब से गए तभी अगली स्टैंड पर एक दूसरा लड़का किसी दूसरे स्कूल का चढ़ा. सब उस पर पिल गए.

कहां से आ रहा है ? स्कूल से..अबे चूतिये, स्कूल ड्रेस पहन रखी है तो स्कूल से ही आ रहा होगा, ये तो पता ही है.फिर ठहाके. किस क्लास में है ? ग्यारहवीं. अच्छा ये बेल्ट कितने में ली ? तीस रुपये. तभी एक लड़का उसकी बेल्ट की बक्कल खोलकर देखने लग गया और बक्कल से हाथ नीचे की तरफ सरकाने लगा..मेरे लिए अब बर्दाश्त करना मुश्किल हो गया था. वो बेहद दुबला-पतला कमजोर सा लड़का रुंआसा सा हो गया था. बाकी बस में बैठे लोगों की एक अलग दुनिया थी..इन सबसे बेफिक्र..तभी उस लड़की ने एक की कॉलर पकड़ी- अरे हरामी, कुत्ते का जना, आदमी को ही हैवान..स्साले हम तुम्हें रंडी नजर आते हैं, ये साहब( मेरी तरफ देखकर) बैन के लं..और ये लड़का, इससे तू मस्ती करेगा..खड़ा होता है रे हरामी तेरा, उतर तेरी मैं औकात दिखाती हूं..इस अकेली मजबूत आवाज से बस के बाकी लोगों के बीच हलचल शुरु होने लगी थी.( कहानी -डीटीसी 234)
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मूलतः प्रकाशितः तहलका

स्टार प्लस का नया शो जूनियर मास्टर शेफ एकबारगी आपको उम्मीद जगाता है कि इस देश के बच्चे सिर्फ मैगी और नॉर सूप से पेट नहीं भरते बल्कि खुद भी हाथ जलाकर खाना बनाना जानते हैं. समाज का एक बड़ा वर्ग जो इन्हें पिज्जा-बर्गर जेनरेशन कहकर दुत्कारने का काम करता है, उन्हें इस शो से गुजरने के बाद ऐसे जुमले इस्तेमाल करने के पहले संभलना होगा.

रियलिटी शो देखने के दौरान जो सास-बहू सीरियलों का रोना-धोना मिस करते हैं, उन्हें ये शो निराश नहीं करेगा. चैनल ने वक्त-वेवक्त दर्शकों के आंसू छलक जाने के भरपूर इंतजाम किए हैं. अपनी इसी कोशिश में उसने 12 साल के सिद्धार्थ जैसे प्रतिभागी को भी शामिल किया गया है जो अपनी मां के साथ इडली,सांभर बड़ा और शेक के ठिए संभालने का काम करता है. जिसके पिता के बारे में पूछते ही नहीं है के साथ वही सब शुरु हो जाता है जो सारेगम लिटिल चैम्पस, इंडियन आयडल जूनियर जैसे रियलिटी शो का पैटर्न बन चुका है.

लेकिन इन तमाम कोशिशों के बीच चैनल का ध्यान देश के उस बाल श्रम कानून की तरफ नहीं गया जिसके अनुसार 14 साल से कम उम्र के बच्चों से न केवल काम लेना अपराध है बल्कि प्रोत्साहित और ग्लैमराइज करना भी. देश में न जाने कितने लाख ऐसे बच्चे हैं जो छोटू बनकर चाय, बर्गर,पैटिज सर्व करते और देर होने पर ग्राहक की लताड़ झेलते हैं. ऐसे में चैनल को चमकाने और सीएसआर के लिए सिद्धार्थ जैसे एकाध चेहरे को शामिल करके चैनल हम दर्शकों और उन पर क्या एहसान कर रहा है, हम समझ सकते हैं.

दूसरी तरफ साभ्रांत बच्चों की ऐसी खेप है जो यहां नहीं होते तो किसी और रियलिटी शो में होते, गिटार बजा रहे होते, डांस क्लास ज्वायन कर लिया होता. उनके लिए खाना बनाना न तो किसी मजबूरी, न ही आदत और न ही रोजी-रोटी का हिस्सा है. वो स्क्रीन पर देखकर ही साफ झलक जाता है. उपर से जजों के जो कमेंट दिए जा रहे हैं, वो उन्हें उसी तरह निराश करते हैं जैसा कि किसी दूसरे रियलिटी शो की परफार्मेंस के दौरान. चैनल का ये तर्क हो सकता है कि ऐसे शो के जरिए वो बच्चों के बीच कुकिंग के प्रति चार्म पैदा करने का काम कर रहा है लेकिन जिस निजी चैनल और टेलीविजन ने पिछले बीस-पच्चीस साल से बच्चे को एक गिलास पानी तक उठाने का शउर नहीं सिखाया, वो अब अचानक से बाकायदा खाना बनाने की प्रतियोगिता करा रहा है, ये स्वाभाविकता पैदा नहीं करता ? इन दो परस्पर विरोधी बैग्ग्राउंड से आनेवाले बच्चे के बीच इस शो को देखें तो सास-बहू सीरियल फ्लेवर ज्यादा है. वैसे भी पिछले दस सालों में तमाम रियलिटी शो ने बच्चों के बीच के बचपन को सोखकर उसे इतना अधिक मैच्योर बना दिया है कि अब दूसरी किसी भी कलाबाजी और प्रदर्शन की तरह ये आश्चर्य नहीं होता कि दस साल-बारह साल के बच्चे इतनी बेहतरीन कुकिंग करते हैं.

स्टार- डेढ़
चैनल- स्टार प्लस

समय- शनि-रवि, रात 9 बजे
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सोशल मीडिया और ऑनलाइन एक्टिविज्म पर एलिजाबेथ लॉश को सुनना बेहद दिलचस्प अनुभव रहा. उन्होंने वर्चुअल स्पेस के लिए "डेटा बेस्ड सिनेमा" का प्रयोग किया और बहुत ही ह्यूमरस अंदाज में ऐसा प्रयोग किए जाने के तर्क को साझा किया. वो इस तरह से कि आप इसे पूरे ब्रह्मांड से गुजर जाते हो, जहां जब मन करे हैश-टैग कर देते हो और आपके पास हमेशा एक मेटा डेटा होता है. इन सबके बीच से कई कहानियां साथ चलती रहती है. बल्कि पूरे सत्र के दौरान हैश-टैग्स का ऐसे मजाकिए अंदाज में इस्तेमाल किया कि जो लोग इस सत्कर्म में अतिसक्रिय हैं, उन्हें एक घड़ी को ये भी लगेगा कि वो गंभीरता और नेट एक्टिविज्म के नाम पर क्या कर रहे हैं ?

"The Metadata is the Message: Social Media and the Rhetorics of Online Activism" पर विस्तार से चर्चा करते हुए उन्होंने इस बात को मजबूती से रेखांकित किया कि हम नेट एक्टिविज्म के नाम पर अक्सर पीड़ित के पक्ष में और आरोपी के विरोध में खड़े तो होते हैं, उस पर एक के बाद एक सामग्री प्रसारित और हैश-टैग करते हैं, अच्छी बात है कि इससे कई ऐसी चीजें उघड़कर लोगों के सामने आ जाती है जो कि शायद मेनस्ट्रीम मीडिया के जरिए न आ पाएं लेकिन इसका दूसरा पक्ष ये भी है कि अपनी इस आपाधापी में हम पीड़ित करने का एक और संस्करण अपने इस नेट एक्टिविज्म के जरिए कर डालते हैं. तब हमारा ज्यादा से ज्यादा जोर इस बात पर होता है कि कैसे इसे लोगों की नजर में, उनकी प्राथमिकता में लाया जाए.

एलिजाबेथ जब ऑनलाइन एक्टिविज्म के संदर्भ में ये बात कह रहीं थी तो एक तरह से मुख्यधारा मीडिया के जो बुनियादी चरित्र हैं, उसके लक्षण ऑनलाइन एक्टिविस्टों में भी मौजूद होने की बात की तरफ इशारा था. और ये हम हिन्दी वर्चुअल पब्लिक स्फीयर में भी आसानी से देख पाते हैं. स्वघोषित मसीहे की शक्ल में हम वर्चुअल स्पेस पर किसी मुद्दे को लेकर एक्टिव तो हो जाते हैं लेकिन जिससे संबंधित हम अपनी बात रखनी शुरु करते हैं, सामग्री का प्रसारित करते हैं, हम उसकी पॉलिटिकली करेक्टनेस की बारीकियों में नहीं जाते और सद्इच्छा से उसे और गहरे रुप में पीड़ित कर जाते हैं. दूसरी बात कि कई बार उस मुद्दे को इतना संकुचित कर देते हैं कि वो मोहल्लेबाजी बनकर रह जाती है. सवाल-जवाब सत्र के दौरान नुपुर( मुझे उनके संबंध में कोई जानकारी नहीं है) ने बहुत सही कहा कि जैसे ही हम हैश-टैग्स पॉलिटिक्स में शामिल होते हैं, कई बार लोग हमारे खिलाफ ही खड़े हो जाते हैं जिसे कि हमने प्रतिरोध के रुप में खड़ा किया क्योंकि इस दौरान सारा जोर विश्लेषण से छिटककर मौजूदगी पर आकर टिक जाता है.

एलिजाबेथ जिस संजीदगी से विजुअल्स, वर्चुअल, साउंड, मीडिया और वर्चुअल एक्टिविज्म के बारे में, उसके भीतर सौदर्यबोध और प्रामाणिकता के सवाल पैदा होने को लेकर बात कर रही थी, मैं सुनते हुए साथ-साथ ये भी सोच रहा था कि अकादमिक दुनिया में खासकर हम जिस परिवेश में अकादमिक होने की बात करते हैं कि अधिकांश चीजें सतही, उथली और पाश्चात्य और सांस्कृतिक प्रदूषण का हिस्सा मानकर चलता कर दिया जाता है जबकि राजनीति, एजेंड़े, मैनिपुलेशन और प्रोपेगेंडा के बड़े स्तर के काम इन्हीं सब के बीच से होकर गुजरते हैं.

ये तो एक बात हुई, दूसरी बात जिसे कि मैंने सुनने के दौरान व्यक्तिगत स्तर पर महसूस किया कि वर्चुअल स्पेस और उसकी पॉलिटिक्स पर इतनी गंभीरता से बात करते हुए,सालों से उस पर काम करते हुए भी वो कुछ उन चीजों को अभी भी उतने ही महत्व से स्वीकार कर रही थीं जो कि एक अध्येता वर्चुअल स्पेस पर या तो गैरहाजिर है या कभी-कभार आता या प्राथमिक स्तर तक की समझ रखता है. मसलन उनसे जब एक श्रोता ने वर्चुअल स्पेस की सामग्री की विश्वसनीयता पर सवाल किया तो उन्होंने बहुत ही स्पष्ट रुप से जवाब दिया कि ऑथेंटिसिटी को परखने के लिए विधायिका,कानून से लेकर मेडिकल साइंस सब पहले से मौजूद हैं और उन्हें काम में लाया जाना चाहिए. मुझे तो जब मेरे स्टूडेंट्स फुटेज दिखाते हैं तो मैं पहला ही सवाल करती हूं- इसका स्रोत क्या है, इसका संदर्भ क्या है ? मुझे पॉप म्यूजिक की समझ नहीं है लेकिन अगर कोई इससे जुड़ी वीडियो मुझे दिखाता है तो मैं उसके संदर्भ औऱ आशय तक जाने की कोशिश जरुर करुंगी. मतलब ये कि एलिजाबेथ अध्ययन और ज्ञान के लिए उन परंपरागत तरीकों को बराबर से महत्व देती है.

मैं जब भी अपने मीडिया छात्रों को फेसबुक पर सक्रिय देखता हूं तो अच्छा लगता है कि वो एक ऐसी दुनिया से जुड़ रहे हैं जहां निरंतर मौजूदगी से हम जैसे सिलेबस मटीरियल सप्लायर की जरुरत और निर्भरता कम होगी लेकिन उन्हीं मुद्दों पर बात करते हुए लगातार आतंकित और निराश भी होता हूं कि इस क्रम में वो उतने ही उत्तर-साक्षर होते जा रहे हैं जिनके ज्ञान हासिल करने के बीच से पूरी की पूरी प्रक्रिया गायब होती चली आ रही है यानी सूचना के स्तर पर जानकार होते हुए भी संदर्भ और विश्लेषण के स्तर पर अपेक्षाकृत काफी कमजोर( ये कोई निष्कर्ष न भी हो तो एक चलन तो जरुर बनता जा रहा है)

वर्चुअल स्पेस को लेकर लगातार गंभीर काम कर रही एलिजाबेथ लॉश सचमुच मार्शल मैक्लूहान की उस पूरी अवधारणा की एक वायनरी खड़ी कर रही है जहां माध्यम ही संदेश है के मजाय मेटाडेटा के मैसेज होने का छद्म हमारे सामने हैं. वो हंसती हुई कहती है- मुझे समझ नहीं आता कि लोग इतने सारे डेटा लेकर क्या करेंगे( एक खास किस्म की बॉडी एक्सप्रेशन जिसका अभिप्राय ये कि ऑनलाइन एक्टिविज्म और मेटाडेटा के जरिए बॉडी और डोले-सोले बनाने की कवायद चल रही है शायद.
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