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करीब पैंतीस मिनट के इंतजार के बाद जिस ऑटो रिक्शा ने मेरी बताई जगह पर जाने के लिए हामी भरी, साथ में अपनी शर्त भी रख दी- आईटीओ से जाएंगे, हमें जमना घाट पर कुछ सामान देना है, सुबह के अर्घ्य के लिए..

रास्ते में अचानक फुल वॉल्यूम में केलवा के पात पर, हो दीनानाथ( शारदा सिन्हा ) और मारवौ रे सुगवा धनुख से( अनुराधा पौडवाल) बजाती हुई गाड़ी सर्र से गुजर जाती और हम थोड़े वक्त के लिए नास्टैल्जिक हो जाते..घर में कभी किसी ने छठ किया नहीं है लेकिन घाट पर से नारियल का गोला लेकर मां के साथ लौटना हर बाहर भीतर तक भिगो देता है.. समझ गया अब शारदा सिन्हा की खुदरा-खुदरा आवाज के बीच एकमुश्त लव-गुरु और जिएं तो जिएं कैसे, बिन आपके टाइप के गाने में कोई मजा बचा नहीं है..लिहाजा कान से इपी निकालकर, समेटकर वापस बैग में रख लिया.

आईटीओ पहुंचते ही मेरी नीयत बदल गई. आधी रात में कंबल लपेटकर बैठे, ओढ़कर अध-मरी स्थिति में अपने डीयू-जेएनयू के दोस्तों को लांघकर गुजरने की हिम्मत नहीं हुई. नजदीक जाते ही दीनानाथ, मौका मिलेगा तो हम बता देंगे जैसे गीत-गाने बहुत पीछे रह गए थे और अब कान में बेहद स्पष्ट, दमदार एक ही आवाज सुनाई दे रही थी- अपनी कुर्सी के लिए जज्बात को मत छेड़िए..
आइटीओ मेट्रो से सटे करीब दो दर्जन छात्रों से घिरा एक शख्स अपनी रौ में डफली पर थाप देते हुए गा रहा था..आज रात दिल्ली में चारों तरफ से गानों की आवाज आ रही है..आप बहुत कोशिश करेंगे तो बीच-बीच में एकाध शब्द पकड़ में आ जाएंगे लेकिन आइटीओ की सड़कों पर ( जो कि अखबारों के दफ्तर से भरा इलाका है, रात ) पिछले सोलह-सत्रह दिनों से वही गीत, वही कविता, वही सारे शब्द बहुत साफ सुनाई दे रहे हैं जो कि पाठ्यक्रम से, क्लासरूम से जो कवि और कविता एक-एक करके खिसकाए जाने लगे हैं या तो पाठ्यक्रम में होकर भी चुटका-कुंजी के ठिकाने लगा दिए गए हैं, वो इन दिनों आइटीओ की सड़कों पर अपने वास्तविक अर्थ में मौजूद हैं. कला की जो परिभाषा आर्ट गैलरी में जाकर कैद हो जा रही है वो आधी रात गए लैम्पपोस्ट की रोशनी में अपनी जरूरत खुलकर राहगीरों को बता दे रही है..
थोड़े वक्त के लिए आप भूल जाइए कि ये जिस बात को लेकर यूजीसी का, मानव संसाधन विकास मंत्रालय और केन्द्र सरकार का जिस बात को लेकर विरोध कर रहे हैं, वो किस हद तक जायज है. आप सत्ता और सरकार के ही पक्ष में खड़े रहिए, हितकारी तो यही है. लेकिन आधी रात को जो गतिविधियां यहां चल रही होती है( स्वाभाविक रूप से दिन में भी होती हैं), उनसे गुजरने पर आप महसूस करेंगे कि ये उपरी तौर पर भले ही विरोध है, आपको ये भी राष्ट्र का अपमान नजर आए लेकिन जिस जुनून के साथ यहां गीत गाए जाते हैं, कविता की जो पंक्तियां लिखी-टांगी और दोहराई जाती है, संप्रेषण के लिए जिन पारंपरिक तरीके का इस्तेमाल किया जा रहा है, उन सबसे गुजरने के बाद एकबारगी आपको जरूर लगेगा कि कला की, कविता की हिफाजत असल में ऐसे ही मौके और जगहों पर संभव है.
बात-बात में जो हमारी संस्थाएं, अलग-अलग प्रदेश की सरकार करोड़ों रूपये विज्ञापन और पीआर प्रैक्टिस पर झोंक देती हैं, आप अपनी बात रखने के इनके तरीके पर गौर करेंगे तो पाएंगे कि प्रतिरोध का असल अर्थ, अपनी बात लोगों तक पहुंचाने का सही जरिया वो शब्द ही है जिन पर कि हम धीरे-धीरे बहुत कम यकीं करने लगे हैं. कविता को निबटाकर जुमले,नारे और विज्ञापन की पंचलाइन पर उतर आए हैं. ऐसे प्रतिरोध शब्दों के प्रति यकीन की तरफ लौटने की कार्रवाई है, कविता की जरूरत और कला को आर्ट गैलरी के कैदखाने और ड्राइंगरूम की हैसियत से बाहर निकालकर ठहरकर सोचने के लिए है...बाकी ये हमारी-आपकी तरह के कोजी कमरे का मोह त्यागकर सड़क किनारे जैसे-तैसे सोए पड़े हैं, इनकी मांगे पूरी होती है तो सुविधा उठाने के काबिल इनसे पहले हम-आप होंगे.
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0 Response to 'सड़कों पर क्रिएटिविटी है,कविता है और कई-कई सपने:'

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