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मोहल्लालाइव पर एक पोस्ट के जरिए वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार राजकिशोर को बिका हुआ बताया गया। राजकिशोर के बारे में लिखा गया कि वो विभूति-प्रसंग पर विभूति नारायण राय के पक्ष में हस्ताक्षर अभियान चला रहे हैं। जिस विभूति के विरोध में देश के सैंकड़ों लेखक और लिटरेचरप्रेमी खड़े हैं,वो उनके बचाव के लिए खुलकर सामने आ गए हैं। राजकिशोर ने इस पोस्ट की प्रतिक्रिया में आज मोहल्लालाइव पर एक पोस्ट लिखी है और इन सारी बातों का जबाब देने के बजाय पाठकों से अतिरिक्त सहानुभूति बटोरने की कोशिश की है। राजकिशोर की बातों का कोई भी तार्किक आधार नहीं है। लिहाजा उनकी इस पोस्ट से भावुक तो हुआ जा सकता है लेकिन उनके डीफेंस में आने की स्थिति नहीं बनती। एक पाठक की हैसियत से जिसने की साढ़े तीन रुपये लगाकर जनसत्ता खरीदी और उनके लेखों को पढ़ा,मैं अपनी असहमति दर्ज करता हूं। ये जितना राजकिशोर के एक पाठक की असहमति है,उससे कहीं ज्यादा एक उपभोक्ता का अधिकार। कमेंट की शक्ल में ये मोहल्लालाइव पर मौजूद है लेकिन यहां बतौर पोस्ट आपके सामने-
राजकिशोरजी,
आपके अलावा बाकी लोगों को भी मैंने शुरु से ही उनके बारे में जानने से कहीं ज्यादा पढ़ना पसंद किया है। अगर मुझे लगा कि इन्हें पढ़ जाना चाहिए। एक हद तक मैंने उसी आधार पर उनके प्रति धारणा भी बनायी। फिलहाल इस बहस में न जाएं कि एक घोर सामंती भी मुक्ति की अगर रचना करे तो आप उसके प्रति कैसी धारणा बनाएंगे,इस पर फिर कभी।
आपकी मेहनत,काबिलियत,लगातार अपने को खराद पर घिसकर कमाने की आदत पर न तो हमें पहले कभी शक था और न ही अभी है। आप या कोई भी जीवन में रोजी-रोजगार के लिए किस तरह के माध्यमों का चुनाव करता है,ये उसका व्यक्तिगत फैसला है। संभव है इस देश में जूते गांठकर या फिर लॉटरी,शेयर की टिकटें और फार्म बेचकर कविताएं लिख रहा हो,कहानियां लिखता हो। इसलिए आप इस बहस में इन बातों को शामिल न करें,बहुत होगा तो इससे हम पाठकों पर आपके प्रति भावुकता, संवेदनशीलता या सहानुभूति का रंग पहले से और गाढ़ा होगा। आप ही नहीं हिन्दी पत्रकारिता और साहित्य में कमोवेश सभी लोग इसी तरह से आगे बढ़ते हैं,उसी तरह का जीवन जीते हुए आगे जाते हैं।..लेकिन आपके इस हवाले से कहीं भी ये साफ नहीं होता कि आप सिद्धांतों के बजाय मूल्यों को जब चुनते हैं तो उसका आधार क्या हुआ करता है? माफ कीजिएगा,बहुत ही बेसिक बातें जब अवधारणा की शक्ल में गढ़ी जाने लगती है तो बेचैनी महसूस होती है। हम आपसे वो मानसिक प्रक्रिया की व्याख्या नहीं जानना चाह रहे जिसके तहत आप सिद्धांतों औऱ मूल्यों को अलग कर पाते हैं, फिर सिद्धांतों को साइड रहने को कहते हैं और मूल्यों का अंगीकार करते हैं।
जिस पोस्ट में आपको बिका हुआ बताया गया और कहा गया कि आप विभूति नारायण के पक्ष में हस्ताक्षर करवा रहे हैं,आपने आज की पोस्ट में कहीं एक लाइन में भी इसका खंडन किया कि नहीं आप ऐसा कुछ नहीं कर रहे हैं? और अगर कर रहे हैं तो उसके पीछे मूल्यों की वो कौन सी ताकतें हैं जो आपको विभूति के पक्ष में खड़े होने के लिए ज्यादा प्रेरित करती है। जिसके आगे सिद्धांत दौ कौड़ी की चीज बनकर रह जाती है? आपने इस मुद्दे पर सीरियसली( महसूस भले ही कर रहे हों) बात करने के बजाय हम पाठकों पर इमोशनल अत्याचार कर गए। कब तक हिन्दी समाज के बाकी लोगों की तरह उद्धव की ज्ञान की गठरी को भावना के आगे दो कौड़ी की चीज करार देते रहेंगे,ज्ञान की गठरी के आंधी में तब्दील होने और फिर कोरी भावुकता,छद्म की टांट उड़ने की भी तो कहानी बताया करें।
राजकिशोरजी,माफ कीजिएगा,अनुभव और समझदारी के स्तर पर मैं आपके आगे बहुत ठिगना हूं लेकिन इतना जरुर समझ पाता हूं कि कोई भी लेखक या पत्रकार किसी घोषणा के तहत नहीं लिखता कि वो कोई सिद्धांत गढ़ने जा रहा है। लिखते वक्त उसके सामने मूल्य ही सक्रिय रहते हैं जो मूल्य वगैरह बातों को बकवास मानते हैं उनके आगे संपादक की डिमांड,मानदेय आदि। लेकिन लिखते हुए वो मूल्य या फिर डिमांड एंड सप्लाय का लेखन एक समय के बाद एक सैद्धांतिक आकार तो ले ही लेता है न। अब ये सिद्धांत किसी भी लेखक के चुनाव करने या न करने का मसला नहीं रह जाता। ये एक ठोस आधार के तौर पर पाठकों के सामने काम करने लग जाते हैं। अब जो लेखक कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो का भावानुवाद,उसके सांचे में ही कविता,कहानी,उपन्यास लिखते हुए विचारों की वरायटी गढ़ रहा हो,उसकी बात थोड़ी अलग जरुर है.इसमें भी सिद्धांत का एक आधार तो जरुर बनता है जो कि उसे बाकी के लोगों से अलग करता है।
आपको पढ़ते हुए बहुत मोटी बात है जो कि किसी भी आपके रोजमर्रा लेख और रोजमर्रा पाठक के पढ़ने के दौरान समझ आ जाती है आप स्त्री मामले को लेकर काफी संजीदा है। आप भले ही इसे सिद्धांत न मानें लेकिन आपको देखने-समझने का एक सैद्धांतिक आधार स्त्री लेखन तो है ही न। अब आपको यहां आकर बताना होगा कि आपने किस मूल्य के तहत( सिद्धांत को तो पहले ही खारिज कर चुके है) विभूति-प्रसंग में जो कुछ भी हुआ,उसे आप किस मूल्य के तहत देखते हैं,उसके पक्ष में हैं? ये बहुत ही सपाट बात है जिसके लिए मुझे नहीं लगता कि आपको आरोपों की फेहरिस्त जुटाकर मामले को भटकाने की जरुरत होगी। वैसे लेख की शक्ल में तो पाठक कुछ भी पढ़ ही लेगा लेकिन यहां आकर आपको इसे लेख का मुद्दा नहीं एक सवाल के तौर पर लेना चाहिए।..सबकुछ छोड़कर और अंत में प्रार्थना की मोड में आ जाना तो हिन्दी समाज की आदिम प्रवृत्ति है ही जिससे आप भी न बच सकें।
आपसे सवाल करने की हैसियत मेरी बस इतनी है कि कई मर्तबा आपके लेख के लिए मैंने साढ़े तीन रुपये की जनसत्ता खरीदी है और मैंने जिस लेखक के लिए पैसे खर्च किए हैं,उनसे ये जानने का अधिकार तो रखता ही हूं। हिन्दी में ये बदतमीजी समझी जाएगी लेकिन बाजार की भाषा में ये एक उपभोक्ता अधिकार है।
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नहीं रहे गिरदा..

Posted On 3:46 pm by विनीत कुमार | 7 comments

इस अल्सायी और मेरे लिए लंबे समय से ह्रासमेंट में धकेलती आयी  दुपहरी में अविनाश ने जैसे ही बताया कि गिरदा नहीं रहे तो सोने-सोने को होने आयी आंखों में बरबस आंसू आ गए। अविनाश ने उनकी उन तस्वीरों की ताकीद की जिसे कि हमने दून रीडिंग्स के दौरान देहरादून में लिए थे। हमें एकबारगी अपनी गलती का एहसास हुआ कि हम क्यों एक ऐसे फोटो पत्रकार साथी के भरोसे रह गए जिन्होंने हमें इस बिना पर ज्यादा तस्वीरें नहीं लेने दी कि वो सब दे देंगे और दूसरा कि जो भी तस्वीरें ली उसे आज दिन तक भेजी नहीं। हम गिरदा की तस्वीरें खोजने की पूरी कोशिश में जुटे हैं।
गिरदा के बारे में न तो हमें बहुत अधिक जानकारी है और न ही वो जो अब तक गाते आए हैं,उसकी कोई गहरी समझ। कविता और गीत के प्रति एक नकारात्मक रवैया शुरु से रहा है इसलिए इसकी जानकारी मं शुरु से बाधा आती रही है। सुबह के विमर्श और तीन घंटे के लिए मसूरी से लौटने के बाद पेट में हायली रिच खाना गया तो न तो कुछ और सुनने की इच्छा हो रही थी और न ही कुछ कहने की। हम कुर्सी में धंसकर सोना चाहते थे,बैठना नहीं। तभी गिरदा दूसरे सत्र में मंच पर होते हैं। ये वो सत्र रहा जिसमें कि गिरदा सहित बाकी लोगों ने उत्तराखंड के लोगों के दर्द को गाकर या कविता की शक्ल में हमसे साझा किया। गिरदा ने जब गाना शुरु किया तो लगातार भीतर से आत्मग्लानि का बोध होता रहा। दो तरह की पनीर,करीब 80-90 रुपये किलो के चावल,रायता और तमाम रईसजादों का खाना खाकर जब हम जंगली साग रांधने(पकाने) की बात गिरदा के स्वरों में सुनने लगे तो ऐसा होना स्वाभाविक ही था। गिरदा के गीत सुनकर हमें उबकाई आने लगी। हमारा जिगरा इतना बड़ा तो नहीं कि लोगों के दर्द को सुनकर अपना सुख और प्लेजर को लात मार दें लेकिन उस समय जो खाया था,उसकी उबकाई हो जाती और फिर गिरदा को सुनता,तब उन गीतों के साथ न्याय हो पाता। गिरदा के गाने की जो आवाज थी,वो इतनी बारीक लेकिन दूर तक जानेवाली,इतनी दूर जानेवाली कि देहरादून,मसूरी की पहाडियों में जो वीकएंड,हनीमून मनाने आते हैं, गरीबी और भूखमरी पर विमर्श करने आते हैं,कॉर्पोरेट की टेंशन लेकर यहां चिल्ल होने आते हैं,उन सबके कलेजे में नश्तर की तरह चुभती चली जाए। वो अपने गीतों में हद तक लोगों के बेशर्म होने का एहसास भरते। गिरदा को सुनने से तिल-तिलकर मरते हुए गीतकार के सामने से गुजरने का एहसास होता जिसका हर अंतरा,हर मुखड़ा सुनने के बाद कब्र और नजदीक होती जाती। मफल्ड ड्रम की हर बीट जैसे मुर्दे को कब्र के नजदीक ले जाती है। उनको सुनने से ऐसा लगता था कु दूर कोई पहाड़ की तलहटी में ऐसा शख्स गा रहा है जिसके पेट तीर से छलनी हो और गले में खून जमा हुआ है।


डेढ़  से दो घंटे की सेशन में गिरदा को सुनकर हम सचमुच पागल हो गए थे। छूटते ही हमने तय किया कि उनके कुछ गीतों की हम अलग से रिकार्डिंग करेंगे। लोग उनकी सीडी,कैसेट निकालने की बात कर रहे थे लेकिन उसमें उलझनें जानकर हमने तय किया था कि कुछ नहीं तो रिकार्ड करके यूट्यूब पर डाल देंगे। मैं तब अकेले गिरदा के पास गया और कहा कि ऐसा कुछ करना चाहते हैं। वो बच्चे की तरह खुश हो गए। साथ में अविनाश भी ऐसा करने में बहुत उत्साह दिखाया। लेकिन हम दिल्ली आते-आते तक ऐसा नही कर सके। उस रात डिनर में गिरदा अपनी मौज में थे।  शेखर पाठक,पुष्पेश पंत और दिल्ली से गए तमाम साहित्यकारों के बीच वो उफान पर थे..सब तरह से। लेकिन हम उनका कोई भी गीत रिकार्ड न कर पाए।

देहरादून की होटल में देर रात हमने उनके लिए सिर्फ इतना लिखा- गिरदा ने हमें पागल कर दिया


तीन घंटे की थकान लेकर जब हम वापस होटल अकेता के सेमिनार हॉल में दाखिल हुए, तब गिरदा ने अपना जादू-जाल फैलाना शुरू ही किया था। गिरदा अपने गानों में उत्तराखंड के भूले-बिसरे चेहरों और यादों को फिर से अपनी आवाज के जरिये सामने लाते हैं। वो जब भी गाते हैं, उनकी आवाज पहाड़ी जीवन के संघर्षों को दर्शाती है। इन्होंने फैज की कई कविताओं का अनुवाद भी किया है। गिरदा ने जब हमें सुनाया कि चूल्हा गर्म हुआ है, साग के पकने की गंध चारों ओर फैल रही है और आसमान में चांद कांसे की थाली की तरह टंगा है, तो बाबा नागार्जुन आंखों के आगे नाचने लग गये। यकीन मानिए आप गिरदा को सुनेंगे तो पागल हो जाएंगे। मैं दिल्ली आते ही उनके गाये गीतों का ऑडियो लोड करता हूं।
लेकिन,हम उस दिन से लेकर आज दिन तक कोई ऑडियो अपलोड नहीं कर पाए। जब अब तक नहीं किया तो क्या कर पाएंगे? सोचता हूं तो लगता है कि हम गिरदा के कुछ गाने अगर रिकार्ड करते तो क्या खर्चा जाता। गिरदा तो हमसे लगातार बस बीड़ी मिलती रहने की शर्त पर गाने को तैयार थे..
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पीपली लाइव "इन्क्वायरिंग माइंड" की फिल्म है। हममें से कुछ लोग जो काम सोशल एक्टिविज्म, आरटीआई, ब्लॉग्स,फेसबुक,ट्विटर  के जरिए करने की कोशिश करते हैं,वो काम अनुषा रिजवी,महमूद फारुकी और उनकी टीम ने फिल्म बनाकर की है। इसलिए हम जैसे लोगों को ये फिल्म बाकी फिल्मों की तरह कैरेक्टर के स्तर पर खुद भी शामिल होने से ज्यादा निर्देशन के स्तर पर शामिल होने जैसी लगती है। फिल्म देखते हुए हमारा भरोसा पक्का होता है कि सब कुछ खत्म हो जाने के बीच भी,संभावना के बचे रहने की ताकत मौजूद है। इस ताकत से समाज का तो पता नहीं लेकिन खासकर मीडिया और सिनेमा को जरुर बदल जा सकता है। ऐसे में ये हमारे समुदाय के लोगों की बनायी गयी फिल्म है। इस फिल्म में सबसे ज्यादा इन्क्वायरिंग मीडिया को लेकर है,किसानों की आत्महत्या और कर्ज की बात इस काम के लिए एक सब्जेक्ट मुहैया कराने जैसा ही है।

 फिल्म की शुरुआत जिस तरह से एक लाचार किसान परिवार  के कर्ज न चुकाने, जमीन नीलाम होने की स्थिति,फिर नत्था(ओंकार दास) के आत्महत्या करने की घोषणा से होती है, उससे ये जरुर लगता है कि ये किसान समस्या पर बनी फिल्म है। लेकिन आगे चलकर कहानी का सिरा जिस तरफ मुड़ता है,उसमें ये बात बिल्कुल साफ हो जाती है कि ये सिर्फ किसानों की त्रासदी और उन पर राजनीतिक तिगड़मों की फिल्म नहीं है। सच बात तो ये है कि ये फिल्म जितनी किसानों के कर्ज में दबकर मरने और आत्महत्या के लिए मजबूर हो जाने की कहानी है,उससे कहीं ज्यादा बिना दिमाग के, भेड़चाल में चलनेवाले इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के बीच से जर्नलिज्म के खत्म होने और जेनुइन पत्रकार के पिसते-मरते जाने की कहानी है। ये न्यूज चैनलों के एडीटिंग मशीन की उन संतानों पर बनायी गई फिल्म है जो बताशे चीनी के नहीं,खबरों के बनाते हैं। न्यूज चैनल्स किस तरह से अपनी मौजूदगी,गैरबाजिव दखल और अपाहिज ताकतों के दम पर पहले से बेतरतीब समाज और सिस्टम को और अधिक वाहियात और चंडूखाने की शक्ल देते हैं,फिल्म का करीब-करीब आधा हिस्सा इस बात पर फोकस है। लेकिन

 मेनस्ट्रीम मीडिया( यहां पर न्यूज चैनल्स) ने इसे किसान पर बनी फिल्म बताकर इसके पूरे सेंस को फ्रैक्चर करने की कोशिश की है। मंहगाई डायन को अपने काम का जान खूब निचोड़ा,संसद के अधिवेशन को इससे जोड़ा लेकिन वो इस फिल्म में मीडिया ऑपरेशन और ट्रीटमेंट के दिखाए जाने की बात को सिरे से पचा जाते हैं। इसकी बड़ी वजह है कि दुनिया की आलोचना करनेवाले चैनलों की आलोचना सिनेमा या नए माध्यम करें,ये उसे बर्दाश्त नहीं। चैनल्स इस बात को पचा नहीं सकते इसलिए वो फिल्म में मीडिया चैनल्स की बेशर्मी की बात को पचा गए। साथ ही जमकर आलोचना के लिए भी चर्चा नहीं कि तो उसकी भी बड़ी वजह है कि उनके पास ये कहने को नहीं है कि बनानेवाले को चैनल की समझ नहीं है। वो निर्देशक की बैकग्राउंड को बेहतर तरीके से जानते हैं। फिल्म "रण" (2010) की तरह तो इस फिल्म के विरोध में दिखावे के लिए ही सही पंकज पचौरी की पंचायत नहीं बैठी और न ही आशुतोष(IBN7) का रंज मिजाज खुलकर सामने आया। हां अजीत अंजुम को अपने फैसले पर जरुर अफसोस हुआ कि पहले बिना फिल्म देखे जो उऩ्होंने इसे बनानेवाले को सैल्यूट किया और फाइव स्टार दे दी,अब फेसबुक पर लिखकर भूल सुधार रहे हैं कि-बहुत से सीन जबरन ठूंसे गए हैं , ताकि टीवी चैनलों के प्रति दर्शकों के भीतर जमे गुस्से को भुनाया जा सके . दर्शक मजे भी लें और हाय - हाय भी करें . लेकिन अतिरंजित भी बहुत किया गया है । इन सबके बीच हमें हैरानी हुई एनडीटीवी इंडिया और उसके सुलझे मीडियाकर्मी विजय त्रिवेदी पर जिन्होंने पीपली लाइव को लेकर सैंकड़ों बोलते शब्दों के बीच एक बार भी मीडिया शब्द का नाम नहीं लिया। छ मिनट तो जो हमने देखा उसमें सिर्फ किसान पर बनी फिल्म पीपली लाइव स्लग आता रहा। हमें हैरानी हुई आजतक पर जिसने "सलमान को छुएंगे आमिर,वो हो जाएगा हीरा" नाम से स्पेशल स्टोरी चलायी लेकिन एक बार भी पीपीली लाइव के साथ चैनल शब्द नहीं जोड़ा( गोलमोल तरीके से मीडिया शब्द,वो भी व्ऑइस ओवर में)। न्यूज चैनलों की जब भी आलोचना की जाती है,वो इसमें मीडिया शब्द घुसेड़ देते हैं ताकि उसमें प्रिंट भी शामिल हो जाए और उन पर आलोचना का असर कम हो। ये अलग बात है कि खबर का असर में अपने चैनल का नाम चमकाने में रत्तीभर भी देर नहीं लगाते। इस पूरे मामले में पीपली लाइव फिल्म देखकर न्यूज चैनलों की जो इमेज बनती है वो इस फिल्म की कवरेज को लेकर बननेवाली इमेज से मेल खाती है। ऐसे में फिल्म के भीतर चैनल्स ट्रीटमेंट को पहले से और अधिक विश्वसनीय बनाता है। हमें अजीत अंजुम की तरह जबरदस्ती ठूंसा गया बिल्कुल भी नहीं लगता। हां ये जरुर है कि..

घोषित तौर पर मीडिया को लेकर बनी फिल्म "रण"की तरह पीपली लाइव ने मीडिया पर बनी फिल्म के नाम पर स्टार न्यूज पर दिनभर का मजमा नहीं लगाया, IBN7 को स्टोरी चलाने के लिए नहीं उकसाया,  आजतक को घसीटने का मौका नहीं दिया। लेकिन ये रण से कहीं ज्यादा असरदार तरीके से न्यूज चैनलों के रवैये पर उंगली रखती है। रण पर हमारा भरोसा इसलिए भी नहीं जमता कि उसमें चैनलों की आलोचना के वाबजूद तमाम न्यूज चैनलों से एक किस्म की ऑथेंटिसिटी बटोरी जाती है। जिस चैनल संस्कृति की आलोचना फिल्म रण करती है,वही दिन-रात इन चैनलों की गोद का खिलौना बनकर रह जाता है और सबके सब विजय मलिक( अमिताभ बच्चन) के पीछे भागते हैं। नतीजा फिल्म देखे जाने के पहले ही अविश्वसनीय और मजाक लगने लगती है। फिल्म के भीतर की कहानी इस अविश्वास को और मजबूत तो करती ही है,हमें रामगोपाल वर्मा की मीडिया समझ पर संदेह पैदा करने को मजबूर करती है। स्टार न्यूज पर दीपक चौरसिया के साथ टहलते हुए अमिताभ बच्चन भले ही बोल गए हों कि उन्होंने इस फिल्म के लिए चैनल को समझा,लगातार वहां गए लेकिन फिल्म के भीतर वो एक मीडिया प्रैक्टिसनर के बजाय क्लासरुम के मीडिया उपदेशक ज्यादा लगे। चैनल ऑपरेशन को जिसने गोलमोल तरीके से दिखाया गया, विजय मलिक चरित्र को जिस मीडिया देवदूत के तौर पर स्टैब्लिश किया है,ऐसे में ये फिल्म चैनल की संस्कृति की वाजिब आलोचना करने से चूक जाती है। इस लिहाज से कहीं बेहतर फिल्म शोबिज(2007) है जिसकी बहुत ही कम चर्चा हुई।
न्यूज चैनलों को लेकर लोगों के बीच जो बाजिव गुस्सा और अजूबे की दुनिया के तौर पर जो कौतूहल है उस लिहाज से सिनेमा में चैनलों को शामिल किए जाने का ट्रेंड शुरु हो गया है। फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी से लेकर शोबिज,मोहनदास,रण,एलएसडी और अब पीपली लाइव हमारे सामने है। दूसरी तरफ मीडिया पार्टनरशिप के तहत रंग दे बसंती,देवडी,गजनी,फैशन,कार्पोरेट जैसी तमाम फिल्में हैं जिसे देखते हुए सिनेमा के भीतर के न्यूज चैनल्स पर बात की जा सकती है। लेकिन इन सबके बीच एक जरुरी सवाल है कि न्यूज चैनलों के मामले में सिनेमा ऑडिएंस रिएक्शन को,चैनल संस्कृति को और आलोचना के टूल्स को कितनी बारीकी और व्यावहारिक तरीके से पकड़ पाता है? इस स्तर पर पीपली लाइव की न्यूज चैनलों की समझ बाकी फिल्मों से एकदम से अलग करती है।

पीपली लाइव चैनल संस्कृति की आलोचना के लिए किसी चैनल से अपने को ऑथराइज नहीं कराती है। हां ये जरुर है कि फिल्म की जरुरत के लिए एनडीटीवी 24x7 और IBN7 का सहयोग लेती है। ये फिल्म रण की तरह विजय मलिक के इमोशनल स्पीच की बदौलत चैनल के बदल जाने का भरोसा पैदा करने की कोशिश नहीं करती है। न ही रामगोपाल वर्मा की तरह पूरब( रीतेश देशमुख) को खोज लेती है जिसके भीतर एस पी सिंह या प्रणव रॉय की मीडिया समझ फिट करने में आसानी हो। मोहनदास( 2009) का स्ट्रिंगर दिल्ली में आकर चकाचक पत्रकार हो जाता है। लेकिन ये फिल्म ट्रू जर्नलिज्म का उत्तराधिकारी चुनकर हमें देने के बजाय चैनल को कैसे बेहतर किया जाए,ये सवाल ऑडिएंस पर छोड़ देती है। इस फिल्म के मुताबिक नत्था की संभावना शहर में है लेकिन राकेश जैसे पत्रकार की संभावना कहां है,इसका जबाब कहीं नहीं है। फिल्म, ये सवाल चैनल के उन तमाम लोगों पर छोड़ देती है जिन्होंने इसे एस संवेदनशील माध्यम के बजाय चंडूखाना बनाकर छोड़ दिया है। फिल्म को लेकर जिस इन्क्वायरी माइंड की बात हमने की, चैनल को लेकर ये माइंड हमें फिल्म के भीतर राकेश( नवाजउद्दीन) नाम के कैरेक्टर में दिखाई देता है। राकेश( नवाजउद्दीन) नंदिता( मलायका शिनॉय) से जर्नलिज्म को लेकर दो मिनट से भी कम के जो संवाद हैं,अगर उस पर गौर करें तो चैनल इन्डस्ट्री पर बहुत भारी पड़ती है। ये माइंड वहीं पीप्ली में ट्रू जर्नलिज्म करते हुए मर जाता है। ऐसे में ये फिल्म मोहनदास और रण के चैनल्स से ज्यादा खतरनाक मोड़ की तरफ इशारा करती है जहां न तो दिल्लीः संभावना का शहर है और न ही कोई उत्तराधिकारी होने की गुंजाइश है। फिल्म की सबसे बड़ी मजबूती कोई विकल्प के नहीं रहने,दिखाने की है।
कुमार दीपक( विशाल शर्मा) के जरिए हिन्दी चैनल की जमीनी पत्रकारिता के नाम पर जो शक्ल उभरकर सामने आती है,संभव है ये नाम गलत रख दिए गए हों लेकिन चैनल का चरित्र बिल्कुल वही है। अजीत अंजुम जिसे जबरदस्ती का ठूंसा हुआ मान रहे हैं,इस पर तर्क देने के बजाय एक औसत ऑडिएंस को एक न्यूज चैनल के नाम पर क्या और कैसी लाइनें याद आती हैं,इस पर बात हो तो नतीजा कुछ अलग नहीं होगा। नंदिता के चरित्र से जिस एलीट अंग्रेजी चैनलों का चरित्र उभरकर सामने आता है,वो राजदीप सरदेसाई की अपने घर की आलोचना से मेल खाती है। वो बार-बार नत्था के अलावे बाकी लोगों को कैमरे की फ्रेम से बाहर करवाती है। फ्रेम से बाहर किए गए लोग समाज से,खबर से हाशिए पर जाने पर की कथा है। ये अंग्रेजी जर्नलिज्म की सरोकारी पत्रकारिता है।  ऐसे में ये बहस भी सिरे से खारिज हो जाती है कि ये महज हिन्दी चैनलों की आलोचना है। हां ये जरुर है कि अंग्रेजी चैनल को ज्यादा तेजतर्रार और अपब्रिंग होते दिखाया गया है। इन सबके वाबजूद जिस किसी को भी ये फिल्म चैनलों की जरुरत से ज्यादा खिंचाई जैसा मामला लग रहा है,उसकी बड़ी वजह है कि इस फिल्म ने चैनलों की पॉपुलिज्म सडांध को बताने के लिए कॉउंटर पॉपुलिज्म मेथड अपनाया। उसने उसी तरह के संवाद रचे,शब्दों का प्रयोग किया,जो कि चैनल खबरों के नाम पर किया करते हैं। चैनल को अपने ही औजारों से आप ही बेपर्द हो जाने का दर्द है।
प्राइवेट न्यूज चैनलों को पिछले कुछ सालों से जो इस बात का गुरुर है कि वो देश चलाते हैं,उनमें सरकार बदलने की ताकत है,वो सब इस फिल्म में ऑपरेट होते दिखाया गया है। कई बार सचमुच पूरी मशीनरी इससे ड्राइव होती नजर आती है लेकिन जब चैनलों की हेडलाइंस खुद सलीम साहब(नसरुद्दीन शाह) की भौंहें के इशारे से बदलती हैं तो फिर खुद चैनल को अपनी सफाई में कुछ कहने के लिए नहीं बचता।

चैनल के लिए गंध मचाना एक मेटाफर की तरह इस्तेमाल होता आया है। लेकिन फिल्म में ये गंध अपने ठेठ अर्थ गंदगी फैलाने के अर्थ में दिखाई देता है। नत्था के पीपली से गायब हो जाने की खबर के बाद से मौत का जो मेला लगा था,वो सब समेटा जाने लगता है। सारे चैनल क्र्यू और उनकी ओबी वैन धूल उड़ाती चल देती है। उसके बाद गांव को लेकर फुटेज है। ये फुटेज करीब 10-12 सेकण्ड तक स्क्रीन पर मौजूद रहती है- चारो तरफ पानी की बोतलें,गंदगी,कचरे। पूरा गांव शहरी संस्कार के कूड़ों से भर जाता है।...फिल्म देखने के ठीक एक दिन पहले मैं नोएडा फिल्म सिटी की मेन गेट के बजाय बैक से इन्ट्री लेता हूं। मुझे वहां का नजारा पीपली लाइव की इस फुटेज से मेल खाती नजर आती है। बल्कि उससे कई गुना ज्यादा जायन्ट। दिल्ली या किसी शहर में जहां हम गंदगी के मामले में किसी को भी ट्रेस करके कह नहीं सकते कि ये गंदगी फैलानेवाले लोग कौन है,नोएडा फिल्म सिटी के इस कचरे की अटारी को देखकर आप बिना कुछ किए उन्हें खोज सकते हैं? बल्कि थोड़ा टाइम दें तो काले कचरे की प्रेत पैकटों को ट्रेस कर सकते हैं कि कौन किस हाउस से आया? इस तरह पूरी की पूरी फिल्म लचर व्यवस्था के लिए जिम्मेदार कौन के सवाल से जूझने और खोजने का नाटक करनेवाले चैनलों को सेल्फ एसेस्मेंट मोड(MODE) की तरफ ले जाती है। अब अगर महमूद फारुकी कहते हैं कि हम फिल्म तो बनाने चले थे किसान पर लेकिन बना ली तो पता चला कि हमने तो मीडिया पर फिल्म बना दी- तो ऐसे में चैनल के लोग इसे एक ईमानदार स्टेटमेंट मानकर ऑडिएंस को भरमाने की जगह किसान के बजाय मीडिया एनलिसिस नजरिए से फिल्म को देखना शुरु करें तो शायद इस फर्क को समझ पाएं कि होरी महतो के मर जाने और नत्था के मरने की संभावना के बीच भी कई खबरें हैं,कई पेचीदगियां हैं।
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फिल्म पीपीली लाइव के इस शो में इन्टर्वल के दौरान पीवीआर साकेत के पर्दे पर लुई फिलिप,बिसलरी और अल्सायी हुई लड़की के साथ पल्सर के विज्ञापन नहीं आते हैं।..और न ही एक तरफ फुफकारती हुई डंसने पर आमादा नागिन और दूसरी तरफ सुर्ख लाल पानी से भरी बोतल जिसे दिखाकर सरकार हमारे बीच चुनने के टेंशन पैदा करना चाहती है। म्यूजिक बंद करने की अपील के साथ पर्दे के आगे मंच पर माइक लिए हमारे सामने होते हैं महमूद फारुकी और दानिश हुसैन। वो हमें जो वजह बता रहे होते हैं जिससे जेब में पड़ी पूरी टिकट के वाबजूद आधी फिल्म निकल गयी थी। हमने जो समझा वो साफ तौर पर ये कि मीडिया की आलोचना और उसे कोसने की एक परंपरा तो विकसित हो चली है लेकिन डिस्ट्रीव्यूशन के निर्मम खेल की तरफ लोगों का ध्यान नहीं गया है। इस पर बात किया जाना जरुरी है,महमूद हैं तो अब बात क्या पूरी फिल्म बनायी जा सकती है,जैसी डिमांड रख सकते हैं। हम सिनेमा और मीडिया के कंटेंट में ही फंसे हैं जबकि डिस्ट्रीव्यूशन कैसे कंटेंट और एडीटोरियल के आगे बेशर्मी से दांत निपोरने लग जाता है,इसे हमने महसूस किया। बहरहाल,

महमूद और दानिश फिल्म के छूट गए हिस्से को जिस तरह से बता रहे थे,वो फिल्म देखने से रत्तीभर भी कम दिलचस्प नहीं था। दोनों के लिए एक लाइन- अब तो फिलम भी बना दी लेकिन दास्तानगोई की आदत बरकरार है,सही है हजूर। उनके ऐसा करने से हम पहली बार पीवीआर में होमली फील करते हैं,एकबारगी चारों तरफ नजरें घुमाई तो दर्जनों परिचित पत्रकार,सराय के साथी,डीयू और जेएनयू के सेमिनार दोस्त दिख गए। आप सोचिए न कि पीवीआर में दो शख्स जिसमें एक बिना माइक के ऑडिएंस से बातें कर रहा हो और किसी के खांसने तक कि आवाज न हो,कैसा लगेगा? लौंडों के अठ्ठहास करने,पीवीआर इज वेसिकली फॉर कपल के अघोषित एजेंडे, एक-दूसरे की उंगलियों में उंगलियां फंसाकर जिंदगी सबसे मजबूत गांठ तैयार करने की जगह अगर ये सिनेमा पर बात करने की जगह बन जाती है तो कैसा लग रहा होगा? सच पूछिए तो महमूद से लगातार मेलबाजी करके इसी किसी अलग "इक्सक्लूसिव" अनुभव की लालच में पड़कर मैं और मिहिर मार-काट मचाए जा रहे थे। एक तो अपनी लाइफ में ये पहली फिल्म रही जिसकी टिकट खुद बनानेवाला नाम पुकारकर भाग-भागकर दे रहा था और हमारी बेशर्मी तब सारी हदें पार कर जाती है जब हम अपनी आंखें सिर्फ महमूद पर टिकाए हैं कि देख रहें हैं न हमें,हम भी हैं। हमें अनुराग कश्यप के साथ बहसतलब की पूरी सीन याद आ गयी,जहां अनुराग सिनेमा जिस राह पर चल पड़ा है,बदल नहीं सकता। ये राह लागत की नहीं डिस्ट्रीव्यूशन की है,की बात करते हैं। फिर सारी बहस इस पर कि सिनेमा समाज को बदल सकता है कि नहीं? पीपली लाइव देखने के दौरान जो नजारा हमने देखा उससे ये बात शिद्दत से महसूस की कि समाज का तो पता नहीं लेकिन कुछ जुनूनी लोग धीमी ही सही अपने जज्बातों को, ड्रीम प्लान को आंच देते रहें तो सिनेमा को तो जरुर बदल सकते हैं। इन सबके बीच अनुषा रिजवी( फिल्म की डायरेक्टर) बहुत ही कूल अंदाज में पेप्सी के साथ चिल्ल हो रहीं होती हैं। महमूद के मेल के हिसाब से सचमुच ये फैमिली शो था, अनुभव के स्तर पर सचमुच एक पारिवारिक आयोजन। लोग घर बनाने पर दिखाते हैं,बच्चे पैदा होने पर बुलाते हैं। उऩ्होंने फिल्म बनाने पर हम सबको बुलाया था।

इन्टर्वल के बाद फिल्म शुरु से पहले दोनों ने हमें जो कुछ बताया और जो बातें हमें याद रह गयी उसमें तीन बातें बहुत जरुरी है। पहली तो ये कि नत्था के आत्महत्या करने की योजना के बीच उनके बच्चों पर जिस किस्म के दबाब बनते हैं वो दबाब कम्युनिस्ट परिवार में पैदा होनेवाले बच्चे ज्यादा बेहतर तरीके से समझ सकते हैं। दूसरा कि शुरुआत में तो ये फिल्म हम किसान-समस्या पर बनाने चले थे लेकिन मैं और अनुषा चूंकि मीडिया बैग्ग्राउंड से हैं तो फिल्म बनने पर पता चला कि अरे हमने तो मीडिया पर फिल्म बना दी। फिर हमें दिलाया गया वो भरोसा कि अगर आप इस फिल्म में मीडिया ट्रीटमेंट देखना चाहते हैं तो असल कहानी अभी ही शुरु होनी है। मतलब कि मैं जिस नीयत से फिल्म देखने गया था,उसकी पूरी होने की गारंटी मिल गयी।..औऱ तीसरी और सबसे जरुरी बात डिस्ट्रीव्यूशन और मल्टीप्लेक्स के बीच का कुछ-कुछ..।( ये महमूद के शब्द नहीं है,बस भाव हैं)। ये कुछ-कुछ जिसके भीतर बहुत सारे झोल हैं जिसका नाम लेते ही धुरंधर लिक्खाड़ों की कलम गैराजों में चली जाती है और जुबान मौसम का हाल बयान करने लग जाते हैं। इन्टर्वल के बाद फिल्म शुरु होती है..

नत्था के घर के आजू-बाजू मीडिया,चैनल क्र्यू का जमावड़ा। आप पीपली लाइव से इन सारे 6-7 मिनट की फुटेज को अलग कर दें और सारे चैनलों को उसकी एक-एक कॉपी भेज दें। आजमा कर देखा जाए कि उनकी क्या प्रतिक्रिया होती है? और हां इस क्रम में रामगोपाल वर्मा के पास एक सीडी जानी बेहद जरुरी है जिससे कि वो समझ सकें कि मीडिया की आलोचना भाषणदार स्क्रिप्ट के दम पर नहीं उसके ऑपरेशनल एटीट्यूड को बस हमारे सामने रख देनेभर से हो जाती है। इस अर्थ में ये फिल्म किसी डायरेक्टर या प्रोड्यूसर से कहीं ज्यादा एक ऐसे "इन्क्वायरिंग माइंड' की फिल्म है जो सीधे तौर पर सवाल करता है कि क्यों दिखाते रहते हो ये सब? अकेले नत्था थोड़े ही आत्महत्या करेगा,करने जा रहा है..जो कर चुके उसका क्या? यही पर आकर फिल्म चैनल की पॉपुलिज्म संस्कृति से प्रोटीन-विटामिन निचोड़कर काउंटर पॉपुलिज्म के फार्मूले को मजबूती से पकड़ती है और नतीजा हमारे सामने है कि आज हर तीन में से दो शख्स फोन करके,चैट पर,फेसबुक स्टेटस पर यही सवाल कर रहा है कि आपने पीपली लाइव देख ली क्या? महमूद फारुकी ने हमसे दो-तीन बार कह दिया कि जब तक आप इस फिल्म को पूरी न देख लें,तब तक इस पर न लिखें। इसलिए फिल्म पर अलग से..

फिल्म खत्म होती है और हम धीरे-धीरे एग्जिट की तरफ खिसकते हैं। अनुषा,महमूद,दानिश सबके सब तैनात हैं लोगों से मिलने के लिए। एक-एक से हाथ मिलाना,गले मिलना और विदा करना। हमसे हाथ मिलाते हुए फिर एक बार-फिल्म अगली सुबह देखकर ही लिखना,ऐसे मत लिख देना।
तेज बारिश के बीच मेट्रो की सीट पर धप्प से गिरने के बाद सामने एक मुस्कराहट। चेहरा जाना-पहचाना। थोड़ी यादों की बार्निश से सबकुछ अपडेट हो जाता है। वो कहते हैं- क्या फिल्म बना दी पीपली लाइव, क्या नत्था की जो समस्या है,वही आखिरी समस्या है एक किसान की? न्यूज चैनलों की आलोचना कर रहे हो तो बताओ न यार कि हम क्या करें? मालिक कहता है कि रिवन्यू जेनरेट करो तो हम क्या करें? फिर बीबीसी की पत्रकारिता को आहें भरकर याद करते हैं, जहां हैं वहां के प्रति अफसोस जाहिर करते हैं।...देखो न मेरे दिमाग में एक आइडिया है, आमिर को बार-बार फोन कर रहा हूं,काट दे रहा है? ओह..एक चैनल के इनपुट हेड का दर्द,वो भी आज ही के दिन मेरे हिस्से आना था। महमूद साहब,ये आपने क्या कर दिया कि जिस टीवी चैनल के इनपुट हेड ने हमें खबर के नाम पर बताशे बनाने और आइडियाज को चूल्हे में झोंक देने की नसीहतें दिया करते थे, वो भी आइडियाज ग्रस्त हो गए? आप और अनुषा टीवी में आइडियाज क्यों ठूंसना चाहते हैं? सबके सब आइडियाज के फेर में ही पड़ जाएंगे तो फिर बताशे कौन बनाएंगे?

देर रात लैप्पी स्क्रीन पर लौटने पर सौरभ द्विवेदी की फेसबुक स्टेटस पर नजर गयी। लिखा था- पीपली लाइव जरूर देखिए, प्रेमचंद की कहानी कफन जैसा ट्रैजिक सटायर है ये फिल्म, सिर्फ एक बात के सिवा, इसमें अनुषा रिजवी ने अपने एनडीटीवी संस्कारों के तले दबकर दीपक चौरसिया सर नुमा कैरेक्टर के बहाने हिंदी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की कुछ ज्यादा ही खिंचाई की है। फिल्म का अंत खासा मानीखेज है। सौरभ अपने दीपक सर नुमा कैरक्टर के बहाने इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की खिंचाई से थोड़े आहत हैं और एनडीटीवी का संस्कार थोड़ा परेशान करता है। काश,ये संस्कार खुद एनडीटीवी में ही बचा रह जाए और संस्कार में दबकर ही कुछ और कर जाए। आधी फिल्म और जींस की जेब में पड़ी पूरी टिकट के गुरुर में पूरी की पूरी पोस्ट लिखी जा सकती है लेकिन मिहिर देर रात जागा हुआ है, पोस्ट लिखने के बजाय ट्विटर से मन बहला रहा है, महमूद के प्रति मैं खिलाफत करना नहीं चाहता।..तो एक बार फिर पीपली लाइव समग्र देखने की तैयारी में...
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विभूति छिनाल प्रसंग में सुधीर सुमन की ओर से फोन पर अविनाश को धमकी देने के बाद से मैंने तय कर लिया कि मुझे इस बहस से अपने को अलग कर लेना है। इस प्रसंग में नामवर सिंह की चुप्पी मुझे लगातार हैरान कर रही थी इसलिए इस पर लिखना जरूरी समझा और मोहल्ला लाइव पर लिखा। अशोक वाजपेयी ने जनसत्ता में उस बात को आज उठाया है। सुधीर सुमन ने जिस तरह से अविनाश को फोन करके धमकाया, जिसे लिखने के बाद फिर जिस तरह के कमेंट आने शुरू हुए, उसे देखते हुए मुझे अपनी तरफ की एक कहावत याद आयी – भइया से पार न पाये तो भौजी को पछाड़े। हालांकि ये कहावत अपने आप में स्त्री-विरोधी है लेकिन स्त्री को जैसा कि पितृसत्तात्मक समाज पुरुष से कमजोर और लाचार मानता आया है, (इस मुहावरे को स्त्री विरोधी मानते हुए) उस अर्थ में हुआ ये कि जब विभूति नारायण को लेकर खुलकर विरोध करने की बात आयी, राज्य की हिंसा का खुलेआम समर्थन करने पर अगले दिन देश के किसी भी हिंदी बुद्धिजीवी ने अखबार में लेख या वर्चुअल स्पेस पर पोस्ट लिखकर विरोध नहीं जताया लेकिन जब बेशर्मी से राठौर के अंदाज में हंटर साहब ने माफी मांग ली तो एक-एक करके तथाकथित महान, प्रतिबद्ध और पार्टीलाइन को ब्रह्म वाक्य माननेवाले लेखक उनके विरोध में जुटने लगे। वो विरोध भी हंटर साहब से कहीं ज्यादा इस तीन-चार दिन के प्रकरण में जो हंटर साहब के आजू-बाजू मुद्दे और विरोध में लोग आये थे, उनकी बात को कुचलने के लिए लोग जमा हुए।
इस क्रम में सुधीर सुमन ने अविनाश को भोपाल प्रसंग की याद दिलायी, दो-तीन बेनामी दम-खम के साथ मैदान में उतरे और एक-दूसरे पर लगे कीचड़ उछालने। इस बीच जानकीपुल पर स्थापित नाम हस्ताक्षर अभियान में शामिल होते रहे। सुधीर सुमन की भाषा में जो तल्खी अविनाश को हड़काते हुए दिखी, हम इंतजार ही करते रहे कि वो भाषा हंटर साहब के विरोध में भी उठते। मैंने तब सुधीर सुमन को संबोधित करते हुए कमेंट किया कि सुधीरजी, आपको जो कहना है कहिए, लिखिए… बस इतनी अपील है कि यहां मसला विभूति नारायण राय की बेशर्मी और उसके लिए इस्तीफे की मांग है, न कि अविनाश, आप मुद्दे को डायवर्ट मत कीजिए। हमें लगा कि अब लोगों के लिए ये मुद्दा स्त्री सम्मान की खुलेआम धज्जियां उड़ाने, उसकी भर्त्सना करने और दंडित करने के बजाय एक-दूसरे को पॉलिटिकली करेक्ट और इनकरेक्ट साबित करने का हो गया है। ये बचपन की उस हरकत की याद दिलाती है जब हममें से कोई गू मख जाता (गू पर पैर पड़ जाना) तो बाकी बच्चे हमें चिढ़ाएं, हमें अपने समुदाय से अलग कर दें, हम तत्काल दो-तीन को छू देते, फिर वो किसी और को। … और इस तरह कोई भी कंचन नहीं बचता, सबमें गू मखने का बोध पैदा हो जाता और चुप मार जाते। यहां भी उसी शैली में जिस बात का विरोध किया जाना चाहिए, वो धीरे-धीरे गायब होने लग गया है। वैसे भी हिंदी समाज में, जिसमें कि मैं खुद भी शामिल हूं, तात्कालिकता को बहुत ही ओछी चीज मानते हैं।
हिंदी समाज अतीत के भारी-भरकम बोझ को फिर भी उठाने को तैयार रहता है, भविष्य के लिए फिर भी जतन से खाई, पहाड़ सब खोदने को तैयार रहता है लेकिन तात्कालिक मामलों से अपने को दूर रखता है। मैं सोचता हूं कि जितनी बातें अब अखबारों में बुद्धिजीवियों की जुबानी आ रही है, वही बात जब गिनती की महिला लेखिकाओं के कपिल सिब्बल से मिलने वक्त आतीं तो कुछ अलग किस्म का असर होता। उन पर विचारधारा का मुलम्‍मा न चढ़ता, अपने हित के गुणा-गणित की चिंता से मुक्त होकर लिखा जाता तो हिंदी समाज की जीवंतता खुलकर सामने आने पाती। बहरहाल, मैं इस मसले पर चुप हो गया, सुधीर सुमन वाली पोस्ट में लिखा भी कि सब अपनी-अपनी चमकाने में लगे हैं, मुद्दे से किसी को कोई लेना-देना नहीं है। बीच-बीच में विभूति-छिनाल प्रसंग की उत्तर कथा नाम से एक पोस्ट लिखने की हुलस उठती-बैठती रही… मोहल्ला पर झांकना उसी तरह जारी रहा, जिस तरह से एक जवान लौंडा दिनभर में चार से पांच बार अपनी जुल्फी और दाढ़ी की बढ़ती साइज निहारने के लिए आईने देखा करता है।
मैं मोहल्ला लाइव का कट्टर पाठक/लेखक हूं, एक-एक चीजें नजर से होकर गुजरती है, ये जानते हुए भी अविनाश ने देर रात मुझे एक कमेंट फारवर्ड किया – विनीत कुमार का फैन said: मोहल्ला के नियमित लेखक विनीत कुमार इस मुद्दे पर कुछ नहीं लिख रहे हैं! नामवर सिंह जैसे अप्रासंगिक वृद्ध और संन्यास ले चुके आलोचक के ऊपर प्रवचन के अतिरिक्त उन्होंने कुछ नहीं लिखा। उनकी तलवार की धार जैसी तीखी भाषा में एक लेख इस मुद्दे पर आना ही चाहिए। किसी भी पाप्युलर इश्यु पर उनका राय न देना खटकता है। उनके नियमित पाठक के रूप में हमें उनके स्‍टैंड का इंतजार रहता है। उम्मीद है, विनीत कुमार जल्द ही अपने पाठकों के सामने हमेशा की तरह बोल्ड एंड ब्यूटीफुल तेवर में सामने आएंगे। उम्मीद है उनकी कलम रवींद्र कालिया के पास गिरवी नहीं पड़ी होगी।
कमेंट पढ़कर एकबारगी तो जोर से हंसी आयी! सबसे ज्यादा इस पर कि हाय, मेरा मासूम पाठक नामवर सिंह को वृद्ध और संन्यास ले चुका मानता है। अपनी जानकारी बढ़ाये और पता करे कि बाबा अभी भी कहां-कहां जमे हुए हैं? फिर अविनाश की नीयत के बारे में सोचा कि ये हमें फिल्म रिलीज होने के पहले ही (पीपली लाइव) नत्था की शक्ल में देखना चाहते हैं, जो अपने आप ही घोषित करे कि वो आत्महत्या करना चाहता है। फिर मैं एक तमाशे में तब्दील हो जाऊं। मैं बेनामियों को भी अपनी ही तरह हांड़-मांस का इंसान मानता हूं। आप खुद ही इन लाइनों को पढ़िए न बेनामी – इस कमेंट पर कौन न मर जाए? जिससे कोई पाठक इस कदर मोहब्बत करता है, उसे और क्या चाहिए? उसके हाथ चूमने को जी करता है। उसके आगे राष्ट्रपति सम्मान, गोयनका अवार्ड, आइटीए अवार्ड सब मद्धिम और कसैले पड़ जाते हैं। ये जानते हुए कि बेबाक और तत्काल लिखने के अपने खतरे हैं, लिखना जरूरी है। जिसे भी अपने प्रकाशकों से रॉयल्टी, कमेटियों से टोकन मनी के बजाय पाठकों का प्यार पाना है, उसे हर हाल में ऐसा लिखना होगा। मेरे प्रिय पाठक, मैं मन से, विचार से, विश्वास से आपका प्यार चुनता हूं। मुझे अहं न होते हुए भी भरोसा है कि अगर मेरे लिखने में कुछ बात होगी तो मेरा लेखन किसी भी पत्रिका, संपादक या व्यक्ति का मोहताज नहीं होगा। आप हम पर वही भइया से पार न पाये तो भौजी को पछाड़ें वाला फार्मूला लागू करना चाहते हैं तो कोई बात नहीं।
ऐसे समय में मुझे पता नहीं कि हंटर साहब के साथ क्या होगा, कालियाजी को बने रहना चाहिए या जाना चाहिए, लोग तय करें – लेकिन हां, एक अदने से ब्लॉगर का मनोबल जरूर बढ़ा है, उसकी कसमें और मजबूत हुई हैं कि वो जमाने के चलन से अलग हटकर पाठक का प्यार चुनेगा, लेखन को कभी भी सरसराकर आगे बढ़ने और लोहा-लक्कड़ (जिसे दुनिया समृद्धि कहती है) जुटाने का जरिया नहीं बनाएगा।
लेकिन मेरे पाठक, तुमसे एक शिकायत जरूर रहेगी कि तुमने अपने जिस ब्लॉग लेखक पर भरोसा किया, उसी के दामन में दाग खोजने की कोशिश की। सोचो न, तुमने लिखा कि उम्मीद है कि विनीतजी की कलम कालियाजी के पास गिरवी नहीं पड़ी होगी। अब तुम ही बताओ न, पच्चीस-पचास की कलम होती तो गिरवी रख भी दी होती। लेकिन पचास हजार रुपये का लैपटॉप (इसमें अलग से कीबोर्ड की कीमत पता नहीं – इसलिए पूरा दाम लिखा) भला कालियाजी के यहां गिरवी कैसे रख दूं? जिसे मैंने बड़े जतन से खरीदा, जिसके कागज को कोर्ट में जमानत के मामले में नहीं जाने दिया, उसे मैं कालियाजी के पास धूल खाने के लिए कैसे रख दूं? आपने जिस लेखक की मंशा और भरोसे पर शक किया, उससे ये कैसी मोहब्बत है कि चाहते हो वो कालियाजी के खिलाफ खुलकर सामने आये और उसका आगे से उस पत्रिका में लिखना बंद हो जाए? मुझे हैरानी होती है कि तुम्हारा कलेजा कितना कमजोर है? तुम हमसे मजे लेने के मूड में हो शायद। लेकिन यकीन करो कि किसी पत्रिका में छपने, नहीं छपने से कोई लेखक नहीं मर जाता है। मैं पांचजन्य और रामसंदेश जैसी पत्रिकाओं को छोड़कर कहीं भी छपूंगा।
लेखक मरता है, अपनी विश्वसनीयता के खत्म हो जाने से, पाठकों के बीच सेटर कहलाने से, जुगाड़ी वाली छवि बन जाने से। मुझे अगर ऐसे होकर लेखक घोषित होना औऱ भीतर से मर जाना होता तो मैं डेढ़-दो फीट की लंबी पोस्ट आये दिन लिखने के बजाय, छपवाने की जुगाड़ में लग जाता। संभव है, तुम मेरी इस भावुकता पर ठहाके लगा रहे होगे कि लपेट लिया न। लेकिन लगाओ ठहाके, मैं इसे अपनी नीयत सार्वजनिक करने का एक बहुत ही सूफीयाना मौका मानता हूं। तुम मुझे लगातार पढ़ते हो तो ये भी पढ़ा होगा कि – हंस की संगोष्ठी से लौटने के बाद जहां हंटर साहब, आलोक मेहता का मामला गप्प, भसोड़ी और मसखरई में तब्दील में होने को थी, बाकी वेबपोर्टल के संपादकों की तरह तुम्हारा लेखक भी आधी रात तक जागा रहा, कुछ उनलोगों के प्रतिरोध में लिखा, नया ज्ञानोदय में हंटर साहब के “छिनाल” शब्द पर सवाल खड़े किये। लिटरेचर के तौर पर सबसे पहले किया, तब तो तुम्हारे हाथों में पत्रिका शायद आयी भी नहीं होगी। ये सब लिखते वक्त उसकी उंगलियां सही-सही कीबोर्ड पर जा रही थी, कांप नहीं रही थी क्योंकि ये पहला मौका नहीं था जब उसे कुछ लिखने पर गंवाना पड़ता। वो वर्धा का टुकड़ा जिसे कि लोग हंटर साहब के हरम का सुख कहते हैं, ठुकरा चुका है। इसके पहले वो एक विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम तैयार करने का आनंद त्याग चुका है। इसके पहले वो हिंदी के बाबाओं के सान्निध्य सुख से वंचित (अच्छा ही लगा) हो चुका है। तुम मुझे नाहक ही अपने को महान साबित करवाने पर तुले हुए हो।
मैं, बाकी लोगों की तरह आज भी और भविष्य में भी हंटर साहब, रवींद्र कालिया की संपादन नीति, चमकानेवाले बुद्धिजीवी जमात के प्रति प्रतिरोध में खड़ा हूं, रहूंगा। संभव है कि तुम्हें ये प्रतिरोध कई बार साफ दिखाई न दे। ऐसा इसलिए कि कई नामचीन लोगों की आक्रामक चौंधियायी चमक के आगे तुम्हें इस लेखक की मौजूदगी दिखाई न देती है। संभव हो, हो-हल्ला और हुड़दंगी शैली के प्रतिरोध के बीच ये लेखक नदारद मिले। लेकिन वो हमेशा प्रतिरोध में खड़ा रहेगा, पोटैटो एक्टिविस्ट बनकर नहीं, कीबोर्ड पर बिना थरथरानेवाली उंगलियों को लेकर। जो सवाल तुमने खड़े किये जो कि मेरे लिए एक घिनौनी गाली ही है, वही सवाल कभी प्रखर युवा आलोचक रंगनाथ सिंह ने भी उठाये थे। मेरी पीठ पर राजेंद्र यादव का नाम चस्‍पां कर दिया था। पोस्ट लिखने के बाद शाम को फोन करके पूछा था कि आप हंस में नहीं लिखते क्या? उसे इस बात का अफसोस हुआ था कि बिना वहां छपे ही उसने मेरे ऊपर लेबल चस्‍पांये थे। मैंने तब भी कहा था कि मेरी पीठ को एमसीडी की दीवार मत बनाओ। आज फिर कहता हूं, हम जो प्रयोग कर रहे हैं, जो कोशिशें कर रहे हैं, वो आपसे ही मजबूत होनी है। जिस दिन इस लेखक ds कीबोर्ड से चारण लाइन लिखा जाने लगेगा, वो लिखना बंद कर देगा… अपनी उंगलियों को न तो नाड़े की तरह हिलने देगा और न ही किसी के नापाक विचारों की काई को अपने ऊपर जमने देगा।
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भी हम ये बात सोच ही रहे थे कि अभी तक न्यूज चैनल के एंकर्स कॉमनवेल्थ के शेरु का छापावाली टीशर्ट पहनकर एंकरिंग क्यों नहीं कर रहे कि देखता हूं वो टीशर्ट पहनने के बजाय कॉमनवेल्थ की बाट लगाने में जुट गए। एंकरों को टीशर्ट में देखने की उम्मीद इसलिए कि अब ये एक चलन-सा बन गया है। न्यूज24 ने तो कभी आइपीएल की सभी टीमों की ड्रेस पहनाकर अपने एंकरों की लाइन लगा दी थी स्क्रीन पर। आइपीएल का बिग शो नाम दिया था तब,बिग बॉस और आइपीएल की कॉकटेल परोसी थी जो कि हमें रास न आयी थी। कॉमनवेल्थ को लेकर होनेवाले घोटाले की कहानी साठ दिन बाकी रहने के दिन से शुरु हुई। इसके पहले अधिकांश चैनल आकाओं की बाइट,उनकी प्रसन्न मुद्रा और इस खेल के जरिए इंडियननेस पैदा करने के काम में जुटे रहे। बीच-बीच में जो कहानी दिखाई-बताई भी तो वो भी सिर्फ अधूरी तैयारियों को लेकर,गड़बड़ियों को लेकर नहीं। ऐसे में, आज सारे चैनलों पर कॉमनवेल्थ को लेकर जो घोटाले दिखाए जा रहे हैं वो न तो इन खबरों की फॉलोअप है और न ही उसके पीछे लगातार लगे रहने के कारण कोई खोजी किस्म की पत्रकारिता के तहत इन घोटालों का खुलासा हो पाया। चैनलों पर जिस तरह की खबरें आ रही हैं,उसे देखते हुए मुझे कहीं से भी नहीं लगता कि चैनल के लोग कभी इस तरह के घोटाले को लेकर स्टोरी करने की बात सोच रहे होंगे। वो क्या सोच रहे होंगे,इसकी चर्चा आगे। फिलहाल,

  अब जबकि चैनलों ने इस घोटाले को लेकर लगातार खबरें चलानी शुरु की जिसमें कि बारीकियों के बजाय कुछ लोगों को टांग देने भर का मूड ज्यादा है, हिन्दी मीडिया के वरिष्ठ टेलीविजन पत्रकार और इस साल गोयनका अवार्ड से सम्मानित अजीत अंजुम न्यूज चैनलों के इस काम पर लट्टू हुए जा रहे हैं। उनके लिए इस घोटाले की खबर का दिखाया जाना उन उदाहरणों में से है जिसे लहराकर हमारे बीच किल्ला ठोंक दावे कर सकते हैं कि देखो तुमलोग न्यूज चैनलों को कोसते फिरते हो,कितना बड़ा काम कर रहा है ये। इसी मुग्धता की चपेट में आकर उन्होंने फेसबुक के वॉल पर लिखा-

टीवी चैनल और अखबार कलमाड़ी एंड कंपनी के काले कारनामों और घोटालों का लगातार खुलासा कर रहे हैं . मीडिया को गैरजिम्मेदार मानकर दिन रात कोसने वालों आलोचकों और निंदकों को कम से कम इस मामले में मीडिया की तारीफ करनी ही चाहिए . मीडिया इस मामले में अपना काम कर रहा है अगर सरकार भी करने लगे तो गेम्स खत्म होते होते कलमाड़ी एंड कंपनी को सलाखों के पीछे भी जाना पड़ सकता है . क्या लूट मचा रखी है इन सबने..


अजीत अंजुम इससे पहले भी मीडिया और न्यूज चैनलों के पक्ष में अपनी वॉल पर लिखते आए हैं। उनके ऐसा लिखने के पीछे न्यूज चैनलों का पक्ष लेने से कहीं ज्यादा मीडिया आलोचकों को उकसाना और उनकी औकात बताने की नीयत ज्यादा रही है। अगर ऐसा नहीं होता तो वो जरुर न्यूज चैनलों के पक्ष में जो बात लिखते हैं उसका मजबूत आधार होता। उकसाने की उऩकी इस आदत को हम कई बार मारकर बर्दाश्त कर लेते लेकिन अबकी बार जो उन्होंने कॉमनवेल्थ घोटाले को दिखाए जाने पर न्यूज चैनलों को अपनी तरह से क्रांतिकारी होने का बिल्ला बांटने लगे तो हमेशा रहा नहीं गया। हमने फेसबुक पर इसका जबाब देना जरुरी समझा। जो जबाब हमने वहां दिया,उसकी स्क्रीन शॉट तस्वीर की शक्ल में यहां लगा दे रहा हूं। लेकिन पूरी बात थोड़ा और विस्तार देकर रखना जरुरी है।  
 अजीत अंजुम जिस बिना पर न्यूज चैनलों पर लट्टू हुए जा रहे हैं उसके जबाब में एक ऐसी ऑडिएंस जो लगातार टेलीविजन तो देखती है लेकिन भीतर के खेल तक उसकी पहुंच नहीं है, वो भी यही कहेगा कि- रहने दीजिए,हमारी अक्ल घास चरने नहीं गयी है। सौदा पटा नहीं तो घोटाले की खबर दिखाने लग गए, नहीं तो अभी शेरु के छापेवाली टीशर्ट पहनकर एंकर तो एंकर चैनल के सारे रिपोटर्स पीटीसी देते नजर आते। क्या घोटाला कोई एख दिन में हुआ है। इतने-इतने प्रेस कॉन्फ्रेंस हुए,कॉमनवेल्थ की मसाल को लेकर जो कार्यक्रम आयोजित हुए,उन सब में से किसी के दौरान कुछ गड़बड़ होने की भनक आपको नहीं मिली। पूरी दिल्ली इस खेल के नाम पर खोद दी गयी,जो टाइल्स तीन महीने पहले लगे थे,उसे दोबारा और उससे कहीं ज्यादा घटिया लगाए गए। मैंने खुद अपनी आंखों से देखा कि डीयू कैंपस में जो डिवाइडर दोपहर को लगाए हैं,शाम तक धाराशायी हो गए। एफएम चैनलों ने बार-बार बताया कि रॉ मटीरियल बड़े पैमाने पर लोग अपने घरों में ले जा रहे हैं। जितने पत्थर सड़कों पर काम के लिए गिराए गए वो सबके सब चाय-समोसे की रेड़यों के आगे बैठने के काम आने लगे। ये कोई एक दिन का घोटाला नहीं है, इसके पीछे लंबी और शुरु से कहानी है। कभी किसी चैनल ने पता करने की कोशिश की कि जो भी कन्सट्रक्शन चल रहे हैं,उसकी एक्सपेक्टेड लागत और जो लगे हैं उसके बीच कितना का फर्क है। वो साठ दिन पहले तक सिर्फ अधूरे काम,कब पूरे होंगे पर स्टोरी करते रहे। ये एक सॉफ्ट स्टोरी बनकर रह गयी।
न्यूज चैनलों के भीतर वाकई सरोकार है( मैं इसे मौके-मौके पर उमड़ आनेवाली चीज मानता हूं) तो उसका काम सिर्फ घोटाले की खबर को हम तक लाना नहीं है। उसका काम घोटाले के अंदेशे से भी हमें अवगत कराना है। अगर उऩ्हें लगता है कि वो घोटाले की खबर दिखाकर कोई बहुत बड़े सरोकार का काम कर रहे हैं। उऩके ऐसे घोटाले की खबर दिखाए जाने से भविष्य में ऐसे घोटालों पर लगाम कसे जा सकेंगे  तो माफ कीजिएगा ऐसे घोटाले सीरियल और आरुषि हत्याकांड की खबर जैसा मजा तो दे सकते हैं जिनमें सस्पेंस और थ्रिलर एलीमेंट होते हैं,लेकिन इन खबरों से घोटालों पर लगाम नहीं लगेगा,न अभी न कभी भी। क्योंकि एक तो इन घोटालों मे तथ्यों की अनदेखी करके जल्दी से जल्दी इसे एक रोचक धारावाहिक कथा में बदल देने की चैनलों की छटपटाहट होती है और दूसरा गदहे के सिर से सिंघ गायब हो जाने की पुरानी आदत इसके असर को खत्म कर देती है। अजीतजी,आप बता सकते हैं कि संसद में नोटो की जो गड्डियां लहाराई गयी थी और अपने सबसे काबिल टीवी पत्रकार ने हमसे कहा था कि हमारे पास इसके पीछे की पूरी कहानी की सीडी है,हम इसे फिलहाल देशहित में रख रहे हैं,ब्रॉडकास्ट नहीं कर रहे,उस सीडी का क्या हुआ? वो किस मरघट में स्वाहा कर दी गयी। अजीतजी आप बता सकते हैं कि अगर चैनल सचमुच इतना सरोकार रखते हैं तो सबसे करप्ट रीयल स्टेट दुनिया की खबर, पानी के पीछे माफिया की खबर, एफसीआई के भीतर भयंकर गड़बड़ियों की खबर,वीपीओ में हिला देनेवाली करप्शन, मल्टीनेशनल कंपनियों के दलालों की खबर हम तक क्यों नहीं पहुंचाते? आखिर ऐसा क्यों है कि जो राजदीप सरदेसाई,शायद आप भी ये मानते हैं कि अब दिनभर प्रधानमंत्री और राजनेताओं के चेहरे ही टेलीविजन स्क्रीन की खबर बने,जरुरी नहीं। इसे टीआरपी के लिहाज से भी अलग कर देते हैं, जब अपने को सरोकार से जुड़ा होनेवाला साबित करना हो तो इन्हीं नेताओं को कटघरे में शामिल करके क्रांति का बिल्ला बांटने-लगाने लग जाते हैं। आखिर सरोकारी पत्रकारिता सिर्फ राजनीतिक खबरों के बीच से ही क्यों पनपती है?  क्या बाकी के सेक्टर में कोई गड़बड़ियां नहीं है,क्या उसमें करप्शन नहीं है,क्या वो खबर नहीं है? ऐसा इसलिए कि आपलोगों को राजनीतिक लोगों की बाट लगाने के बाद भी उन्हें मैनेज करने का पुराना अभ्यास है, उनकी बत्ती लगाकर भी कल को आप उन्हें मैनेज कर लेंगे लेकिन कार्पोरेट की बत्ती लगाकर बाद में साधने की कला अभी आपने सीखी नहीं। एक बार हाथ से गया सो गया। फ्यूचर में सीख लें तो शायद वहां के घोटाले की भी खबर देने लग जाए। सब है,तब आप टीआरपी की दुहाई देंगे,लोग किसान,भूखमरी की बातें नहीं देखना चाहते। हमें हैरानी होती है कि जब हम वाकई सरोकारी खबरों की बात करते हैं तब आप टीआरपी की दुहाई देने लग जाते हैं और जब हम न्यूज चैनलों की स्टोरी को स्ट्रैटजी मानते हैं तो उसे आप सरोकारी पत्रकारिता का लेबल चस्पाने लग जाते हैं।

सच्चाई आप भी जानते हैं,टुकड़ो-टुकड़ों में कुछ-कुछ हम भी कि लालाओं के पैसे से एक का माल दो किया जा सकता है,दो का चार,एक सरोकार से जुड़ा संवेदनशील समाज नहीं। दिलीप मंडल दो मंचों से ये कह भी चुके हैं कि जिन मीडिया संस्थानों में करोड़ों रुपये लगे हों,वहां के मालिक जब बोर्ड की मीटिंग में बैठते हैं तो आपको क्या लगता है कि मूल्य,सरोकार,नैतिकता,जागरुकता की बात करते होंगे? राजदीप ने तो उदयन शर्मा की संगोष्ठी में लगभग समर्पण ही कर दिया कि हम विज्ञापन और कंपनियों के आगे विवश हैं। संपादकों में न बोलने की ताकत नहीं रह गयी। अब आप अकेले इस किस्म की पत्रकारिता को सरोकारी पत्रकारिता का नाम दे रहे हैं तो आगे क्या कहें? सच बात तो ये है कि ऑडिएंस ने अब आपलोगों से इस तरह की उम्मीद और मांग करना छोड़ दिया है। वो मानकर चलने लगी है कि ये एक किस्म का धंधा है। आपसे अपील है कि इस तरह की बातें करके उन्हें कन्फ्यूज न करें।

अब देखिए- इस घोटाले की उत्तर कथा क्या होगी? ये महज मेरा अनुमान है. जिस खेल के पीछे शीला दीक्षित और उनकी टीम ने महीनों लगाया उसे वो चैनलों के हाथ का झुनझुना कभी नहीं बनने देगी। अभी दो-चार दिन और बजा लेने दीजिए। जब उऩका मन भर जाएगा,भीतर के सारे विकार बाहर आ जाएंगे ( इसे अरस्तू ने काथार्सिस( विरेचन) कहा था) तब नए सिरे से फ्रेश मूड में आक्रमक तरीके से कॉमनवेल्थ फेवर का काम होगा। तब सारे चैनलों को कुछ-कुछ टुकड़े फेंक दिए जाएंगे। चैनल के भीतर जो अभी सरोकारी पत्रकारिता का गूलकोज-पानी चढ़ा है,उसके बदले सरकार का चढ़ेगा। वो कॉमनवेल्थ के पक्ष में खड़े होते जाएंगे।
अजीतजी, लेकिन आप चिंता बिल्कुल न करें। आपके न्यूज चैनलों के पत्रकार तब भी सरोकारी पत्रकार ही कहलाएंगे। आपने जो उन्हें क्रांतिकारी पत्रकार के बिल्ले बांटे हैं,उनकी भी तो इज्जत रखनी है। आखिर खबर का असर वाला चालू फार्मूला किस दिन काम आएगा?  सारे चैनलों पर लिखा आएगा- खबर का असर, शीला सरकार आयी हरकत में,कॉमनवेल्त से सारी गड़बड़ियों का सफाया,अब कहीं कोई खोट नहीं। ऐतिहासिक होगा कॉमनवेल्थ, शीला की अपील- देशहित में दें हमारा साथ।..चैनल की तरफ से अपील- आपने हमें घोटाले के वक्त देखा,अब देखिए जब हम इस खेल से घोटाले को जड़ से खत्म कर दिया। खबर का असर- सुधर गया सबकुछ, न्यूज इज बैक,खबर हर कीमत पर,दिल में सच,जुबां पे इंडिया।..देखते रहिए.


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हिंदी लिटरेचर की दुनिया में कहीं-कोई पत्ता हिला नहीं कि मीडिया नामवर सिंह से बयान लेने दौड़ पड़ते हैं। नामवर सिंह से बयान लेने का मतलब है कि उस मसले पर हिंदी समाज क्या सोचता है, इसका प्रतिनिधित्व हो जाता है। बाकी पीछे या अलग से कोई कहे, असहमत हो जाए, ये सब नक्कारखाने में तूती की आवाज बनकर रह जाती है। हिंदी संगोष्ठी की ग्रामेटलॉजी भी कुछ इस तरह से बनी है कि अगर आयोजन को सफल बनाना है तो बाकी कोई आये या न आये – नामवर को बुला लो। हिंदी की दुनिया में नामवर एक जरूरी हस्ताक्षर होने से कहीं ज्यादा ब्रांड सिंबल हैं, जिनकी डिमांड पूरी तरह बाजार के पैटर्न पर है। हालांकि ऐसी ब्रांडिंग करना आसान काम नहीं है, कई रचनाकार तो जिंदगी भर ठेले लगाते-लगाते ही पस्त हो जाते हैं। जैसे ठंडा मतलब कोका कोला, हर चिपकाने वाली चीज फेवीकॉल, हर वनस्‍पति घी डालडा, सर्दी में हर सूंघने-रगड़नेवाली चीज विक्स के नाम से बेची-खरीदी जाती है, फिर उस नाम के, पैटर्न के आजू-बाजू कई उत्पाद बाजार में आ जाते हैं। वो कहीं न कहीं मदर ब्रांड की इमेज को कैरी करते हैं, कम दाम में भी वही असर के दावे के साथ।
नामवर सिंह हिंदी में ग्राहकों/पाठकों/श्रोताओं की इसी मानसिकता का प्रतिनिधित्व करते हैं। हिंदी समाज में लिखनेवालों का एक वर्ग यही पाइरेटेड नामवर हैं जो कि मदर ब्रांड इमेज को कैरी करते हैं। हिंदी में नामवर का वर्चस्व बाजार के इसी फार्मूले की तरह है। जिस तरह बाजार में उत्पाद अपने ब्रांड को लेकर चौकस रहता है, उसी तरह हिंदी समाज में नामवर सिंह का नाम है। ऐसे में बाजार में ब्रांड के वर्चस्व और उसके कायम रखने के तरीके और नामवर सिंह का ब्रांड, वर्चस्व और कायम रखने के तरीके में कोई अंतर नहीं है। लेकिन सालों से ब्रांड और बाजार के फार्मूले पर नामवर सिंह को इस्तेमाल में लानेवाले मीडिया और साहित्यिक मंचों पर लांच करते रहनेवाले लोगों ने विभूति-छिनाल प्रसंग में जिसे कि वर्चुअल स्पेस में हंटर साहब की कोतवाली जुबान के तौर पर भी जाना जाने लगा है, नामवर सिंह को इस मसले पर ब्रांड के तौर पर सामने लाने की कोशिशें नहीं की। नहीं की इसलिए कि अगर की भी होगी और उन्होंने मना भी कर दिया होगा तो भी कहीं भी ये लाइन नहीं आयी कि इस मसले पर उन्होंने कुछ भी बोलने से मना कर दिया।
चैनलों में बाइट लेने के जो बंधे-बंधाये चालू फार्मूले हैं, उस हिसाब से भी नामवर सिंह का बोलना जरूरी है लेकिन कहीं कुछ भी नहीं। यहां मौके के बीच ब्रांड पिट गया या फिर उसे मैदान में उतरने ही नहीं दिया गया। ऐसा करके (मीडिया, मंच और खुद नामवर सिंह भी) बेवजह झंझटों से मुक्त होने के मुगालते में भले ही हों, लेकिन हिंदी मतलब नामवर सिंह जो पंचलाइन बनी रही है, वो ध्वस्त होती है। इस पूरे प्रकरण से आप ये भी समझ सकते हैं कि कई बार बाजार खुद भी अपने ही बनाये फार्मूले से मुकर जाता है और नये फार्मूले की खोज में भटकने लग जाता है। विभूति नारायण के मामले में नामवर सिंह की चुप्पी कुछ इसी तरह से है। हिंदी का पढ़ा-लिखा समाज फिर भी समझता है कि हिंदी का मतलब सिर्फ नामवर सिंह नहीं होता लेकिन समाज का एक बड़ा तबका जिसके लिए नामवर एक हिंदी ब्रांड है, वो उन्हें यहां न देखकर हैरान है।
दूसरी बात, नामवर सिंह ने हिंदी समाज के भीतर अपनी ब्रांडिंग उन मल्टीनेशनल कंपनियों की तरह बनायी है, जो कान खोदने की बड से लेकर इंटरनेशनल हाइवे पर दौड़नेवाली कार/जेट तक बना सकती है और बना रही है। अपने यहां आप इसे टाटा कंपनी को ध्यान में रखकर सोच सकते हैं। नामवर एक ऐसे ब्रांड हैं, जो अपभ्रंश के विकास से लेकर उत्तर-उपनिवेशवाद, इतिहासवाद तक बात कर सकते हैं। उनके यहां विचारों का उत्पाद इन्हीं मल्टीनेशनल कंपनियों के फार्मूले पर होता है। यह अकारण नहीं है कि हर कविता संग्रह, कहानी संग्रह, उपन्यास, संस्मरण, आलोचना तो उनकी मदर ब्रांड ही है पर बोलने-लिखने के लिए रचना उत्पादकों का तांता लगा रहता है। नामवर सिंह ने इसके लिए कट्टरता की हद तक (रचनाकर्म के साथ-साथ मार्केटिंग मैनेजमेंट तक) मेहनत की है। ऐसे में होता ये है कि जहां किसी एक उत्पाद का नाम चमक गया और कंपनी ने उसकी इमेज को दूसरे उत्पाद के साथ रिस्टैब्लिश कर दिया तो दूसरा, फिर तीसरा, फिर चौथा, फिर पांचवां इसी तरह से सारे उत्पाद चमकने लग जा सकते हैं। अब अगर अमूल बटर बेहतरीन है तो अमूल चीज खराब कैसे हो सकती है, ये बात कनज्‍यूमर के दिमाग में कंपनी स्टैब्लिश कर देती है। नामवर सिंह ने अपने अथक परिश्रम से यही किया है, इसलिए वो हिंदी में एक यूनिवर्सल ब्रांड के तौर पर उभरे हैं। ये अलग बात है कि इलाहाबाद की राष्ट्रीय संगोष्ठी में इस ब्रांड इमेज को भुनाने में उनकी भारी भद पिटी थी। इस हालत में अब जबकि पूरा हिंदी समाज विभूति-छिनाल प्रसंग को लेकर सुलगा हुआ है और हिंदी का सबसे बड़ा ब्रांड चुप्प है तो हम मानकर चल रहे हैं कि बाजार का एक बड़ा फार्मूला ध्वस्त हुआ है।
लेकिन, अभी-अभी मोहल्ला लाइव के मॉडरेटर ने एक पोस्ट के इंट्रो में लिखा है कि ऐसा इसलिए है कि विभूति नारायण जिस विश्वविद्यालय के कुलपति हैं, नामवर सिंह इसी विश्वविद्यालय के कुलाधिपति हैं। अब ऐसे में वो कैसे बोल सकते हैं। ब्रांड का फार्मूला कहता है कि ऐसे नाजुक मौके पर जबकि अपने ही हाउस के किसी उत्पाद में शिकायत आ जाती है तो वो इसे बाजार से वापस ले लेता है, इससे उसकी बाजार में साख घटने के बजाय बढ़ती है। नोकिया के मोबाइल, बैटरी, सोनी के लौपटॉप, मारुति की गाड़ियां इसी बिना पर बाजार से वापस लिये जाते हैं। ऐसे में बाजार का फार्मूला बताता है कि नामवर सिंह को चुप रहने के बजाय उन्हें खुलकर सामने आना चाहिए और बाजर से इस घटिया, नाक कटानेवाले उत्पाद को वापस ले ले। कोई दूसरी लांच करने की बात करे। इस मोर्चे पर भी नामवर की ब्रांड ध्वस्त होती है। अब आइए हिंदी मान्यताओं पर जो कि बाजार से थोड़ा अलग है।
हिंदी में जड़ जमा चुके उन दो शब्दों पर, जिसके बिना एक पन्ने की कहानी से लेकर सात खंडों की रचनावली और रचनाकारों तक को विश्लेषित नहीं किया जा सकता। ये शब्द है – सफल और सार्थक। हिंदी की पूरी बहस इस बात पर टिकी होती है कि आप सफल तो हैं लेकिन क्या सार्थक भी हैं? जाहिर है हम बाजार के फार्मूले की बात करते हुए हिंदी के इस फार्मूले को नजरअंदाज नहीं कर सकते। नामवर सिंह एक सफल आलोचक-रचनाकार हैं। रचनाकार भी क्योंकि स्वयं नामवर आलोचना को रचना मानते हैं। लंबे समय तक हम नामवर सिंह को सफल होने के साथ-साथ सार्थक मानते आये हैं। उन्होंने हिंदी की उन गुत्थियों को बहुत ही साफ-सधे हुए शब्दों में, बहुत ही कम पन्ने खर्च किये किताबों, जो कि हैंडीबुक्स हैं, के माध्यम से सुलझाया। अपभ्रंश जैसे बोरिंग मुद्दे पर ऐसी किताब लिखी कि उसे पढ़ते हुए रचना का सुख मिलता रहा है, छायावाद अपने आप में इतना चिपचिपा (संश्लिष्ट) है कि झमेला हो जाता है, उसे बहुत ही रोचक शैली में हमारे सामने रखा। कुल मिलाकर नामवर सिंह ने कॉलेजों में पढ़ रहे अब तक लाखों लोगों का बेड़ा पार किया, एक साफ समझ पेश की है। लेकिन जो नामवर सिंह लगभग सभी मुद्दों पर बात करने का माद्दा रखते हैं, जिनकी पहचान ही ओवरऑल आलोचक के तौर पर है, वो अपने परिवेश के सामयिक मुद्दे पर कितनी बात करते हैं? यहां मुद्दे गिनाने की जरूरत नहीं है। इसे आप घटनाक्रम के हिसाब से आसानी से समझ सकते हैं। वो खाप-पंचायत पर क्या रुख रखते हैं, ऑनर कीलिंग के मामले पर क्या स्टैंड हैं, कहीं जान-समझ नहीं सकते। अभी उनसे लाभान्वित एक शिष्य ने सालों से ऑडियो वर्जन में कही गयी बातों को लिखित रूप दिया है। ये किताबें नामवर सिंह की उस छवि को तोड़ने के काम थोड़ी देर तक तो आ सकते हैं कि इन्होंने सालों से कुछ लिखा नहीं लेकिन उसमें सामयिक मुद्दे कितने शामिल हैं, इसे देखना दिलचस्प होगा।
दिलीप मंडल ने हवाला दिया है कि सामयिक मसलों पर चुप मार जानेवाले नामवर सिंह ने हाल में जाति आधारित जनगणना के सवाल पर बोला भी तो कहीं से उसमें लंबे समय तक प्रगतिशील मूल्यों को बरतनेवाले शख्सियत के बयान की झलक नहीं है। ये उस किस्म का बयान है जैसे कोई समर्थ, समृद्ध और ठसकवाला शख्स अपनी जाति (रामविलास शर्मा का जाति शब्द नहीं) में पैदा होने का कर्ज जातिगत उत्थान के लिए चुकाने की तत्परता दिखाता है।
आज नामवर सिंह इतने बड़े मसले पर चुप हैं। उनके प्रगतिशील तरकश में एक भी वो मारक तीर नहीं है जो कि इस बेहूदेपन को ध्वस्त करके अपने मूल्यों को बचा सके। ऐसे में अगर आप सार्थकता के सवाल को यहां रखें, हिंदी के लोगों के पास तो कोई उपाय भी नहीं है, अभी तक जब वो इसी से सारी चीजें देखते-समझते आये हैं तो फिर यहां क्यों नहीं, तो नामवर सिंह को लेकर एक नये किस्म की धारणा बनती, विकसित होती है। इस धारणा का तेजी से प्रसार जरूरी है। इधर बाजार-ब्रांड-मार्केट मैनेजमेंट अभी भी इसे कैरी करता है, तो हम मानकर चल रहे हैं कि ये ब्रांड भी मिलावट के वाबजूद बाजार पर काबिज है। साहित्य की दुनिया में भी कुछ खांटी नहीं रह गया। घी, तेल, दूध, सब्जी की तरह अब साहित्य और हिंदी का सबसे बड़ा ब्रांड मिलावटी हो गया। हम अभिशप्त हैं मिलवाटी उत्पादों के इस्तेमाल के लिए?
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हिंदी लिटरेचर की दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक मंच कही जानेवाली पत्रिका हंस की संगोष्ठी में जो नजारा हमने देखा, उससे एक साथ कई चीजें तार-तार हो गयीं। इस संगोष्ठी को मैं अपनी याददाश्त बरकरार रहने तक लोकतंत्र के मूल्यों की सरेआम धज्जियां उड़ानेवाली संगोष्ठी के तौर पर याद रखूंगा। ये मैंने अपने अकादमिक जीवन में पहली बार देखा कि किसी संगोष्ठी में वक्ता अपनी बात कहने के तुरंत बाद ही दर्शकों की चिंता किये बगैर मंच से नीचे उतरकर फील्डिंग करने लग गये। मंच की कुर्सियां एक-एक करके खाली होने लग जाती हैं। मंच संचालक का मंच, उस पर स्थापित लोगों और माहौल से पकड़ फिसलकर चुप्पी की नाली में जा गिरती है। वो विश्वरंजन की स्टेपनी के तौर पर आये विभूति नारायण राय से लाख अपीलें करते हैं कि मंच पर बने रहें लेकिन हजारों छात्रों को अनुशासन का पाठ पढ़ानेवाले, फैकल्टी को ठोक-पीटकर अपने काम लायक बनानेवाले विभूति नारायण इसकी परवाह किये बगैर सीधे गेट की तरफ बढ़ते हैं। सभागार में बैठी ऑडिएंस इसे सीधा-सीधा अपना अपमान मानती है और हंगामा मच जाता है। उनकी सिर्फ इतनी ही मांग होती है कि हमने आपको इतनी देर तक बैठकर सुना, हमारे पास कुछ सवाल हैं, आप उन सवालों के जवाब दिये बगैर नहीं जा सकते। जाहिर है महीनों से महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय में जो कुछ भी चल रहा है, उसे लेकर कई सवाल बनते हैं



जिन ऑडिएंस ने अगस्त महीने के नया ज्ञानोदय में उनका इंटरव्यू पढ़ा होगा, वो सवाल करना चाह रहे होंगे कि आखिर आपने किस अधिकार से कह दिया कि हमारी लेखिकाओं में अपने को एक-दूसरे से ज्यादा से ज्यादा छिनाल साबित करने की होड़ है। उपन्यास का नाम ‘कितनी बिस्तरों पर कितना बार’ होना चाहिए, बताया। ये मसला पॉपुलरिटी स्टंट बोलकर नजरअंदाज करने का नहीं बल्कि उनसे जबाबतलब करने का है। ये मामला उनके इस्तीफे की मांग तक जा सकता है। सामूहिक तौर पर माफी मांगने पर जा सकता है। ये एक ऐसे विश्वविद्यालय के वीसी की भाषा कैसे हो सकती है, जहां वेब पर हिंदी के पन्ने तैयार करने के लाखों रूपये के ठेके दिये जाते हैं, हिंदी शब्दकोश के विस्तार के लिए दर्जनों आदमी काम पर लगाये जाते हैं, जहां एमए स्त्री अध्ययन का अलग से कोर्स चलाया जा रहा हो? इन सारे सवालों को अगर ये कहकर नकारा भी जाता कि सेमिनार में जो कहा है, उससे सवाल करें तो भी विभूति नारायण राय को इस सवाल का जवाब तो देना ही पड़ता कि आप स्टेट मशीनरी के कुचक्र को ताकतवर बताकर किसी न किसी रूप में उसको डीफेंड क्यों कर रहे हैं? उनसे ये सवाल तो किया ही जाता कि आप संगोष्ठी, अकादमिक और कोतवाली की भाषा के फर्क को किस रूप में लेते हैं? लेकिन विभूत नारायण ने किसी का मान नहीं रखा। न मंच का, न संचालक का, न हंस का। पूरी संगोष्ठी में प्रेमचंद सिर्फ बैनर पर ही छपा रह गया, किसी की जुबान से एक बार भी प्रेमचंद नहीं निकला। नहीं तो जिन मूल्यों को सहेजने की कोशिशें और दावे हंस के मंच से किया जाता रहा है, उन तमाम मूल्यों को ठोकर मारकर विभूति नारायण ने छितरा दिया – होरी के वंशजो, इसे तुम एक-एक करके चुनो, समेटो। इस पूरे रवैये से आप अंदाजा लगा सकते हैं कि किस माहौल के भीतर वर्धा विश्वविद्यालय की फैकल्टी काम करती है? ये सोचते हुए भी सिहरन होती है कि वहां के स्टूडेंट किस जम्‍हूरित के शिकार हैं, कैसे अपनी असहमति के स्वर को रख पाते होंगे? विश्वविद्यालय की जो कुछ खबरें अब तक हमारे सामने आयी हैं, हमारे भीतर एक उसी किस्म की बेचैनी पैदा होती है, आज विभूति नारायण को सुनते हुए ये बेचैनी और बढ़ गयी जो बेचैनी हमें मिर्चपुर में सुमन और उसके बाप को जिंदा जला देने की खबर से हुई थी। इस गहरी रात में, ये लाइन लिखते हुए मैं वर्धा के छात्रों से मिलने के लिए बेचैन हो रहा हूं। एक अकेला शख्स लोकतंत्र की ताकत पाकर किस हद तक अलोकतांत्रिक, अमर्यादित हो सकता है, इसका नमूना आज हमें लाइव देखने को मिला।

लोकतंत्र की धज्जियां तब भी भयानक स्तर पर उड़ायी गयीं, जब आलोक मेहता जैसा पत्रकार (जिनके पत्रकारीय कर्म को अगर पीआर, लॉबिइंग की परिभाषा के हिसाब से समझें तो वो इसके ज्यादा करीब होगी) हेमचंद्र पांडे के मामले में हत्या की अगली सुबह कहता है कि वो नई दुनिया के लिए काम नहीं करता था, उसका इससे कोई संबंध नहीं था – पता नहीं किस हैसियत से अपने को डीफेंड करने के लिए मंच पर काबिज होने की कोशिश करता है। स्वामी अग्निवेश ने जब माओवादियों और सरकार के बीच बातचीत की पहल के संदर्भ में अपनी बात शुरू की, तभी पत्रकार हेमचंद्र का नाम आया और उन्होंने नई दुनिया अखबार का नाम लिया कि उसके संपादक ने इससे अपना पल्ला झाड़ लिया। एक तरफ सेकंड लास्ट की सीट पर बैठे आलोक मेहता पर लोगों की नजर गयी और मोहल्लालाइव के मॉडरेटर ने कहा कि संपादक खुद यहां बैठे हैं, उन्हीं से पूछ लिया जाए। आलोक मेहता की तरफ से एक शख्स बोलने की अनुमति लेने की चीट लेकर राजेंद्र यादव के पास जाता है और उन्‍हें बोलने की अनुमति मिल जाती है।
आलोक मेहता तीन-चार मिनट तक दायें-बायें करते हैं। पीछे बैठे लोग उनसे मुद्दे यानी हेमचंद्र पर बात करने के लिए कहते हैं। (आलोक मेहता की वॉयस डिलीवरी आमतौर पर बहुत सॉफ्ट है। ये चैनल में सॉफ्ट स्टोरी या इंटरटेनमेंट की खबरों के लिए बहुत ही परफेक्ट है। मीडिया इंडस्ट्री में ऐसे पत्रकारों की पूरी की पूरी एक जमात है, जिनकी आवाज को ऐसी स्टोरी के वीओ (वॉयस ओवर) के लिए काम में लाया जा सकता है। बहरहाल…) ऑडिएंस के दबाब के बीच आलोक मेहता का स्वर अचानक से ऊंचा होने लग जाता है और धीरे-धीरे अंदाज के स्तर पर विभूति नारायण के स्वर के साथ एकाकार हो जाता है। ये कोई चैनल की बहस नहीं थी, जिससे कि आप एंकर पर तोहमत जड़कर मुक्त हो जाएं कि वो कहते ही हैं मामले को गर्म करने के लिए। ये एक विमर्श का मंच था, जिस पर कि इरा झा ने अपनी रिपोर्टिंग की बातें शेयर की, आदित्य निगम ने स्टेट लेजिटिमेसी की बात गंभीरतापूर्वक रखा, रामशरण जोशी अपनी क्षमता के अनुसार जितना बेहतर कर सकते थे, कोशिश की। लेकिन आलोक मेहता की आवाज अचानक से रामलीला मैदान की हो जाती है। अगर मैं गलत मिलान कर रहा हूं तो संभव है कि नई दुनिया के पत्रकार भाई इसे चैंबर में किसी पत्रकार से बात करने के अंदाज से इसका मिलान कर सकते हैं।
आलोक मेहता ने जो तर्क दिया वो न केवल कमजोर और लचर था बल्कि मनोहरश्याम जोशी, राजेंद्र माथुर की परंपरा से अपने को जोड़कर उनकी बराबरी में अपने को खड़ा करने की कोशिश की। कहा कि नाम बदलकर अगर हेमचंद्र ने लिखा तो वो इतने महान तो हैं नहीं कि पता कर लेते। उन्होंने अपने को इस बिना पर जस्‍टीफाइ करने की जबरदस्ती की कि ऐसा पहले भी हुआ है। ऑडिएंस का धैर्य कंट्रोल से बाहर होने को आया। वो सीधे-सीधे उनसे जबाब चाह रही थी। लेकिन जो आलोक मेहता दो मिनट बोलने का समय मांग रहे थे, उऩ्हें दो घंटे भी बोलने को दिया जाता तो भी कुछ न बोलते। गोल-मोल बातें करके बीच में अपने को बिग शॉट साबित करने की कोशिश आलोक मेहता की वाचन शैली का हिस्सा है। ऐसा करते हुए मैं दसियों बार देख चुका हूं। लेकिन पत्रकार बिरादरी के बीच शायद ही कोई सवाल कर पाता है। यही काम उन्होंने पिछले दिनों उदयन शर्मा की याद में हुई संगोष्ठी के मामले में किया। बात हो रही थी पेड न्यूज की और बयान दिया कि वो बिहार के मुजफ्फरपुर जैसी जगह में पत्रकारिता कर चुके हैं। उन्हें दोस्तों की नसीहतें याद आती, सुरक्षा को लेकर चौकस होने की बात करते कि उन्होंने मेले से लोहे की एक खुरपी खरीदी थी। बहरहाल…
अभी तक हमने किसी भी पत्रकार को इस तरह सार्वजनिक रूप से बेआबरू होते नहीं देखा है। ऑडिएंस के वाजिब गुस्से से आप इस बात का अंदाजा लगा सकते हैं कि सत्ता के गलियारों में चमकनेवाले सफल पत्रकार और होते हैं और जो लोगों के दिलों पर राज करते हैं, वो और ही पत्रकार होते हैं। ऐवाने गालिब जैसे भरे सभागार में हमें एक शख्स भी ऐसा नहीं मिला, जिसने ये कहा कि अरे बैठ जाइए, मेहता साहब को बोलने दीजिए। ये अलग बात है कि उसी सभागार में आलोक मेहता के कूल्हे के नीचे काम करनेवाले नई दुनिया के पत्रकार भी मौजूद थे और मीडिया की नामचीन हस्तियां भी। एक भी स्वर, एक भी हाथ आलोक मेहता के पक्ष में न सही, बोलने देने के आग्रह के लिए नहीं उठे। ये नजारा तत्काल कई चीजें एक साथ साफ कर देता है। आप इस घटना से अंदाजा लगा सकते हैं कि क्या स्थिति है? आलोक मेहता मंच से बार-बार कहते हैं कि मैं मानता हूं कि पत्रकारिता का पतन हुआ है। पीछे से आवाज आती है – पत्रकारिता का नहीं आपका पतन हुआ है। सत्ता के साथ टांग पर टांग चढ़ाकर पत्रकारिता करने से पत्रकार की हैसियत क्या रह जाती है, ये समझने के लिए इस घटना से बेहतर नमूना शायद ही कभी आपको देखने को मिले होंगे।
मंच संचालक ने कार्यक्रम शुरू होते ही सारे वक्ताओं से अनुरोध किया कि आपलोग अपनी बात संक्षेप में रखें ताकि सवाल-जबाब के लिए ज्यादा से ज्यादा समय मिल सके। विभूति नारायण ने भी ये कहते हुए कम बोला कि सवाल-जवाब के दौरान नयी बातें सामने आएगी लेकिन जब एक-एक करके वक्ता मंच से खिसकते चले गये तो सवाल किससे किया जाता?
यह एक गैरलोकतांत्रिक किस्म की संगोष्ठी थी, जिसमें कि एक बड़े पढ़ने-लिखनेवाले वर्ग का सीधा-सीधा अपमान हुआ। जिन मूल्यों, जिन फ्लेवर को बचाने के लिए इस तरह की संगोष्ठियां आयोजित की जाती हैं, वो इस गोष्ठी में बुरी तरह छितरा गया। राजेंद्र यादव की तरफ कैमरा बढ़ता है। वो उदासी से जवाब देते हैं – अब किसके लिए कर रहे हो, जिनका लेना था वो तो गए… “वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति” पर बात करने जुटे लोग बहुत कुछ खत्म हो जाने के बोध के साथ बाहर निकले।..
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