टेलीविजन के प्राइम टाइम में होनेवाली बहसों के लिए राजनीतिकों ने व्यंग्य और उपहास में ही सही मीडिया द्वारा दूसरी संसद चलाने की कोशिश कहते आए हों लेकिन अक्सर चैनल ऐसी कोशिशें करते दिखाई देते हैं..प्राइम टाइम की बहसों से गुजरते हुए अक्सर आप महसूस करते होंगे कि जब देश के सारे कार्यालय, मंत्रालय और विभाग बंद होते हैं, टीवी स्क्रीन पर एक अलग बहस के लिए अलग संसद, छानबीन के लिए अलग एजेंसियां और फैसला सुनाने के लिए अलग से अदालत बैठ जाती है. दिलचस्प है कि ये असल की संसद की तरह मौनसून और ग्रीष्मकालीन सत्रों में बंटकर नहीं, वर्किंग डे और वीकएंड में बंटकर चलती रहती है..कई बार तो ये सुबह के सात बजे से भी शुरु हो जाती है..
यानी पूरा मामला इस बात पर निर्भर करता है कि देश के नागरिक जिन मुद्दों पर राय जानने,सुनने और समझने के लिए संसद के सत्रों का लंबा इंतजार करें, उससे पहले ही चैनल कैसे उन्हें नागरिक से दर्शक में शिफ्ट करके उसके इस इंतजार पर संसद शुरु कर सकता है..ऐसा करते हुए टेलीविजन के इस संसद में मुद्दों के साथ-साथ दर्शक पर पकड़ बनाए रखने की कोशिश, बाजार,प्रायोजक और टीआरपी को लगातार साधे रखने की कवायदें जारी रहती है.
"टेलीविजन संसदः कितनी खबर,कितनी राजनीति" का ये सत्र इन संदर्भों को शामिल करते हुए एक खुले विमर्श को प्रस्तावित करता है जिसके केन्द्र में ये बात प्रमुखता से शामिल होगी कि ये सब करते हुए टेलीविजन व्यंग्य के लिए इस्तेमाल किए गए मेटाफर "दूसरा संसद" की कैसी शक्ल पेश करता है और इसमे संसद की राजनीति से कितनी अलग राजनीति शामिल होती है ?
ऐसा करते हुए वो मीडिया की अपनी मूल आत्मा से कितना दूर चला जाता है और संसद और राजनीति के गलियारों में चलनेवाली बहसों को कितना सही संदर्भ में पेश कर पाता है क्योंकि यहां उसके लिए संसद में शामिल लोगों की तरह "एलेक्ट्रॉरेल पॉलिटिक्स" नहीं करनी होती बल्कि अपनी बैलेंस शीट और मीडिया फ्लेवर को भी बचाए रखना होता है..प्राइम टाइम में सास-बहू सीरियलों, क्रिकेट ,सिनेमा और रियलिटी शो में एन्गेज दर्शकों को इसका हिस्सा बनाना होता है..यानी पिक्चर ट्यूब की इस संसद में कई चीजें शामिल करने औऱ साधने होते हैं..विमर्श के इन तमाम सिरे से गुजरना एक दिलचस्प अनुभव होगा.
पुष्कर,संपादक मीडियाखबर डॉट कॉम ने इन पूरे मसले पर बातचीत के लिए राजनीति और टेलीविजन के उन भारी-भरकम चेहरों के बीच मुझे सत्र मॉडरेट करने की जिम्मेदारी दे दी है, थोड़ा नर्वस हूं..आपलोग होंगे तो थोड़ी हिम्मत बंधेंगी.
आपको याद होगा हमने पांच दिन पहले न्यूज एक्सप्रेस के रिपोर्टर नारायण परगईं को लेकर एक पोस्ट प्रकाशित की थी- "मिलिए न्यूज एक्सप्रेस के इस बेहया रिपोर्टर से". इस पोस्ट में हमने उस पीटूसी की वीडियो लिंक सहित स्टिल काटकर लगायी थी जिसमे ये रिपोर्टर एक गरीब,लाचार और अपने से कम उम्र और वजन के दिखनेवाले एक शख्स के कंधे पर बैठकर उत्तराखंड में आी बाढ़ से तबाही को लेकर सरकार की नाकामी की भर्त्सना कर रहा था..वो बता रहा था कि सरकार इस घटना को लेकर संवेदनशील नहीं है..लेकिन ऐसा बोलते और रिपोर्टिंग करते हुए वो ये नहीं समझ पा रहा था कि वो कैमरे के सामने जो कुछ भी कर रहा है और पत्रकारिता के नाम पर दर्शकों के आगे जो परोसने जा रहा है, वो मानवाधिकार का सीधा-सीधा उल्लंघन है..कोई थोड़ी सी भी सख्ती और सतर्कता बरते तो इस पर कानूनी कार्रवाई हो सकती है. इस वीडियो को फेसबुक पर लोगों द्वारा लगातार साझा किए जाने और पोस्ट लिखकर आलोचना किए जाने का असर हुआ कि चैनल ने इस रिपोर्टर की अपने यहां से छुट्टी कर दी. मतलब ये जनाब अब न्यूज एक्सप्रेस की स्क्रीन पर नजर नहीं आएंगे. मीडियाखबर डॉट कॉम ने इस बात की पुष्टि करते हुए पोस्ट लगायी है-
गरीब के कंधे पर चढ़कर पीटूसी करने वाले नारायण परगईं की न्यूज़ एक्सप्रेस से छुट्टी
एक तरह से देखें तो चैनल अपने स्तर पर जो सजा दे सकता था, दिया लेकिन उसके निकाले जाने से ऐसे मीडियाकर्मियों की करतूतें खत्म हो जाएगी,इसे लेकर आश्वस्त नहीं हुआ जा सकता. लाइव इंडिया के प्रकाश सिंह के मामले में हमने देखा कि जब उमा खुराना फर्जी स्टिंग ऑपरेशन के मामले में न केवल चैनल ने उसे बाहर का रास्ता दिखाया( हालांकि ये काम चैनल ने खुद अपना बचाव करने और तत्कालीन संपादक सुधीर चौधरी के पूरे मामले से पल्ला झाड़ लेने का ज्यादा था) बल्कि कानूनी कार्रवाई होने के बाद भी मीडिया इन्डस्ट्री ने उसे दोबारा से अपना लिया औऱ तो और वो नवीन जिंदल का मीडिया सेल तक पहुंच गया. मतलब ये कि जिस पद से प्रकाश सिंह को चैनल से निकाल-बाहर किया गया था, आगे उसकी तरक्की ही होती गई..इसका सीधा मतलब है कि मीडिया इन्डस्ट्री से लेकर राजनीति में ऐसे लोगों को शह दिए जाने, पचाने और पालने-पोसने के पूरे स्कोप होते हैं.. कानूनी प्रावधानों और मीडिया एथिक्स से अलग पूरा मामला इस बात पर आकर टिक जाता है कि वो अपने दम पर कितना रसूख रखता है.
नारायण वरगाही की फिलहाल तो छुट्टी हो गई है लेकिन अगर उसकी नेटवर्किंग भी प्रकाश सिंह की तरह ही होगी तो आप देखेंगे कि किसी दूसरे चैनल या नेता का मीडिया सलाहकार बनकर अभी से कहीं ज्यादा बेहतर स्थिति में है.इसे आप इस तरह से भी समझ सकते हैं कि मीडिया इन्डस्ट्री में एक तरफ तो ऐसे दागदार लोगों को शह देने और पचाने की परंपरा रही है और अगर मीडिया एथिक्स और नियमन से जुड़े संस्थान इन पर उंगलियां उठाने का काम करे तो उल्टे संस्थान ही कटघरे में खड़े कर दिए जाते हैं. इसे आप प्रकाश सिंह से आगे जाकर जी न्यूज के संपादक और बिजनेस हेड सुधीर चौधरी की 100 करोड़ की कथित दलाली और इस संबंध में हुई गिरफ्तारी के संबंध में देख सकते हैं कि कैसे उसने एनबीए को ही घसीटने की कोशिश की और जो मामला एक बड़े संदर्भ से जुड़ा था वो धीरे-धीरे इतना पर्सनल होता चला गया कि सुधीर चौधरी अब पहले की तरह चैनल पर सरोकार का डंका बजाते नजर आ रहे हैं..
मतलब ये कि एकबारगी तो ये दिखाई देता है कि इस तरह के प्रतिरोध का तत्काल असर होता है लेकिन बाद में आगे चलकर फिर वही स्थिति बन जाती है..फिलहाल हम इस बात पर उम्मीद जाहिर कर सकते हैं कि लोगों के वीडियो शेयर किए जाने और स्टेटस अपडेट करने का असर ये है कि एक ऐसे मीडियाकर्मी को चैनल ने अपने से अलग किया जो पत्रकारिता क्या सामान्य जीवन में भी सभ्य व्यवहार का अभ्यस्त नहीं रहा और इनके लिए ये तर्क भी प्रस्तावित नहीं किया जा सकता कि ये चूक भर थी..आप ही बताइए न, किसी इंसान के कंधे पर चढ़कर पीटूसी की जानी चाहिए या नहीं, ये किसी को कौन सी मीडिया क्लास में सीखानी पड़ेगी ?
फिल्म रांझणा में सिर्फ जेएनयू नहीं है. उसमे बनारस है, अलीगढ़, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय है, एक छटांक लखनउ, थोड़ा इलाहाबाद ,साईनबोर्ड में काशी है और इन सबके बीच ग्रेवी बनकर दिल्ली तो है ही..ठीक उसी तरह जैसे फिल्म दिल , दोस्ती,एटसेट्रा में सिर्फ डीयू नहीं था लेकिन इतना डीयू तो जरुर था कि आप इसे डीयू कैंपस पर बनी फिल्म कह सकते थे..तो इस हिसाब से आप रांझणा को देखने के बाद इतना जेएनयूजरुर पाते हैं कि फिल्म की बाकी एंगिल से हटकर सिर्फ उस पर अलग से बात कर सकें.
फिल्म देखकर निकलने के साथ ही एफबी टाइमलाइन पर जैसे ही मैंने कुछ स्टेटस अपडेट किए, अलग-अलग तरह के कमेंट आने शुरु हो गए जिनमे एक कमेंट ये भी था कि मेरे एक संघी मित्र को इस फिल्म को लेकर खासा उत्साहित और स्टेटस अपडेट करते देख रहा हूं, संघियों को ये फिल्म रास आ रही है, इसका मतलब ये जरुर घटिया फिल्म होगी.
जेएनयू के संदर्भ को लेकर बनाई जा रही फिल्म देखकर अगर संघियों का उत्साह बढ़ रहा है तो इसका साफ मतलब है कि इसमे वामपंथी पार्टियों की जमकर आलोचना की गई होगी या उनका मजाक उड़ाया गया होगा ? कंमेंटकर्ता के लिखने का आशय भी यही था शायद..लेकिन अगर जेएनयू का मतलब सिर्फ वामपंथी पार्टियों की मौजूदगी( भले ही आलोचना और उपहास के संदर्भ में ही क्यों न हो) है तो इसमे आरएसएस और दूसरे दक्षिणपंथी ब्रिगेड को खुश होने के बजाय माथा पीट लेने की बात है कि उनके लगातार सुलगते,उबलते रहने के ,अच्छी संख्या में वन्दे मातरम् के नारे लगाते रहने और संकल्प लो,सुदृढ़ बनो जैसी गतिविधियों के चलाते रहने के बावजूद जेएनयू वामपंथी पार्टियों के पर्याय के खांचे से खिसककर उनकी तरफ नहीं बढ़ा. ऐसे में ये संघियों के लिए खुश होने की बात है या फिर मुरझा जाने की, ये सवाल आप उन संघी मित्रों से करें जिनका उत्साह छलक-छलककर फेसबुक तो कभी आपसी बातचीत में प्रकट हो रहा है.
इधर वामपंथी पार्टियां अगर रांझणा देखकर लौट चुकी है तो इस सवाल पर सिरे से विचार करे कि क्या इस फिल्म और आनंद राय के खिलाफ मोर्चागिरी की जाए, पर्चे लिखे जाएं और सरेआम पूतले फूंके जाएं कि आपने जेएनयू को इस तरह रिड्यूस करके पेश क्यों किया ? अव्वल तो कभी यहां की वामपंथी पार्टियों ने सत्ता में आने के लिए यहां के किसी भी मुख्यमंत्री के साथ ऐसी घिनौनी साजिश नहीं रची( ये अलग बात है कि जिस जेनएयू को क्रांतिकारियों की फैक्ट्री के रुप में देखा-समझा जाता रहा और हाल ही में जिसे लेकर प्रोफेसर अपूर्वानंद ने ये कहते हुए कि जब दिल्ली में आवाज लगाए जाने पर कोई नहीं आएगा तो जेएनयू आ जाएगा, अनूठा कैंपस है, पिछले दस सालों में राजनीति को कभी भी इस विश्वविद्यालय से खतरा महसूस नहीं हुआ), उसे आपने इस तरह से कैसे दिखा दिया ? खालिस राजनीति और आंदोलन के स्तर पर अगर इस फिल्म पर सवाल खड़े किए जाएं तो एक झटके में इस निष्कर्ष तक पहुंचा जा सकता है कि आनंद राय को जेएनयू को लेकर कोई गहरी क्या बेसिक समझ तक नहीं है और वो अकेले ऐसे फिल्म निर्देशक नहीं हैं जिन्हें दुर्भाग्य से राजनीति की भी समझ नहीं है. मटरू की बिजली का मंडोला बनाकर विशाल भारद्वाज ने खासा परिचय पहले दे दिया है बल्कि इस फिल्म को देखने के बाद तो वामपंथ का एक स्वतंत्र संस्करण"कैंपस का वामपंथ" पर अध्ययन-अध्यापन की जरुरत पड़ती दिखाई देती है. खैर
आनंद राय ने जिस चश्मे से जेएनयू को देखा है उसकी फ्रेम भले ही अनुराग कश्यप जैसी थोड़ी ठोस हो लेकिन दोनों ग्लास चुलबुल पांडे की निकालकर लगाया लिया या यों भी कह सकते हैं कि उन्होंने इसके लिए आंख से कहीं ज्यादा कान को निर्देशन के काम में लगाया है. कुछ नहीं तो दो-चार साल के एडमिशन और एलेक्शन की फुटेज देख लेते, रिपोर्ट पढ़ लेते, पर्चे-पोस्टर जुटा लेते तो जेएनयू उन्हें देश का बेहतरीन विश्वविद्यालय के बजाय मैला आंचल का मेरीगंज नहीं लगता. इस फिल्म को देखते हुए मुझे तो मैला आंचल की शुरुआती पंक्तियां बरबस याद आ गयी और फिर हिन्दू कॉलेज में डॉ रामेश्वर राय के लिखाए नोट्स- गांव में ये खबर आग की तरह फैल गई कि मलेटरीवालों ने बहरा चेथरु को गिरफ्फ कर लिया है और लोबिन लाल के कुएं से बाल्टी खोलकर ले गए..आशय ये कि मेरीगंज, एक ऐसा गांव जो अतिश्योक्ति,किंवदंतियों और अफवाहों में जीता है. आनंद राय के रांझणा में मेरीगंज के ये तीनों तत्व पुरकस ढंग से मौजूद हैं..साफ लगता है कि उन्होंने जेएनयू को जानने के बजाए, इससे संबंधित जानकारियों की आउटसोर्सिंग की है..पूरबिया भाषा में कहूं तो लग्गी से घास काटने की कोशिश. ये कुछ मुद्दे हैं जिस पर चाहें तो जेएनयू के वामपंथी साथी पर्चे तैयार कर सकते हैं. लेकिन
उनके ऐसा किए जाने से जेएनयू जिस तरह सिनेमा में आया है, उसकी प्लास्टर जहां-तहां से बहुत जल्द ही झड़ जाती है और लगता है कि या तो ये दुनंबरिया सीमेंट का इस्तेमाल है या फिर रात मारे प्लास्टर और सुबह फहराए झंड़ा टाइप से पन्द्रह अगस्तिया कार्रवाई है. जैसा कि बाकी सुधी फिल्म समीक्षक इस पक्ष में तर्क दे रहे हैं कि दरअसल उनका उद्देश्य जेएनयू की राजनीति को गहरे जाकर दिखाना नहीं रहा है..ठीक बात है, जब गहरे नहीं दिखाना है तो क्या उथले में उसे इस तरह उथला कर देंगे कि जिस विश्वविद्यालय की राजनीति समझ को लेकर साख है, वो दो घंटे बीस मिनट में ऐसे भरभराकर गिर जाएगी. अगर आनंद राय ने इस कैंपस को बारीकी से पकड़ा होता तो अव्वल राजनीतिक पार्टी के नाम पर सिर्फ ऑल इंडिया सिटिजन पार्टी जो कि अपनी पूरी मौजूदगी में वामपंथी पार्टी से छिटककर बनी स्वतंत्र पार्टी ही नजर आती है के अलावे यूथ फॉर एक्वालिटी, एबीवीपी, समाजवादी पार्टी की छात्र इकाई भी दिखाई देते...और एनएसयूआई जो कि डीयू की तरह ही धीरे-धीरे प्रभाव बढ़ा रहा है, उसकी मौजूदगी अदने एक झंड़े दिखाकर न कर दिया होता..पिछले दो-तीन सालों से विजयादशमी के मौके पर महिषासुर को लेकर जो नई किस्म की दलित राजनीति हो रही है, उस पर भी ध्यान जाता. यहीं पर आकर आपको लगता है कि राय साहब ने ये कहानी भी लगता है जेएनयू के किसी पुराने चावल से सुनी है,घटनाएं भले ही हाल के डाल दिए हों..उतना काम तो गूगल सर्चइंजन से भी किया जा सकता है. अब जेएनयू मतलब वामपंथी पार्टी का जो पर्याय उन्होंने गढ़ा, ये उनके वामपंथ के पुराने प्रेम की वजह से था या मीडिया में जेएनयू इसी तरह दिखता है, इस कारण..ये एक अलग मसला है. बहरहाल
हड़बड़ी और पन्द्रह अगस्तिया प्लास्टर चढ़ाए जाने के कारण बीच-बीच से जो झड़ता है, उससे जेएनयू की वो तस्वीर निकलकर आती है जो कि नए प्लास्टर से शायद ढंक जाती..अव्वल तो ये कि ये जेएनयू में ही संभव है कि कुंदन जिसके पास वहां के किसी भी स्कूल की आइडी नहीं है, चाय बेचता है लेकिन राजनीति में न केवल सक्रिय है बल्कि छात्रों द्वारा पूरी तरह अपना लिया जाता है.उसे बराबर से अधिक का महत्व दिया जाता है क्योंकि उसके पास अपनी समझ है. कुंदन के अपना लिए जाने में उसका ब्राह्मणवाद पर गहरी आस्था और अपनी वेद-पुराण से लोगों को डराते-धमकते रहने की स्वीकारोक्ति जितना कुंदन को उत्तर-आधुनिक ब्राह्मण बनाता है, उससे कहीं ज्यादा जेएनयू की वामपंथी पार्टी को उत्तर आधुनिक वामपंथी पार्टी जिसमे जाति, सामंतवाद, ब्राह्मणवाद और यहां तक कि स्त्री के प्रति महीन किन्तु आदिम नजरिया के जस के तस बने रहने के बावजूद प्रगतिशील होने के स्कोप बचे हते हैं एक तस्वीर ये भी है कि उस खाटी डाउन-डाउन के नारे,पोस्टर बैनर के बीच भी कैंपस का परिवेश कुछ इस तरह से है कि झाडू लगानेवाली से लेकर,चाय पहुंचानेवाले छोटू की भी अपनी एक पहचान, महत्व और सम्मान है यानी जेएनयू में कुछ बेसिक बची हुई दिखाई देती है.
इस राय साहब के उखड़े हुए प्लास्टर से जो चीजें झांकती है वो दूसरी तरह की दिक्कत और सवाल पैदा करते हैं और ये सवाल राजनीतिक,वैचारिक स्तर के विमर्शों में उलझने के बजाय सीधे उस दिए जानेवाले तमगे पर चोट करती है कि अगर जेएनयू में वामपंथ है, प्रगतिशीलता है और यही कारण है कि जो भी यहां आता है वो जिंदगी और समाज को लेकर नए किस्म से सोचता है तो फिर जोया का मुस्लिम होने के कारण मुस्लिम से ही शादी करने का आग्रह कैसे बचा रह जाता है. बचपन में हिन्दू कुंदन को इसी बिना पर रिजेक्ट किए जाने पर जेएनयू में अकरम से प्रेम होने और बाद में उसके पंजाबी दलजीत होने पर नस काटने की जरुरत क्यों पड़ जाती है ? दूसरी तरफ, दलजीत जो न केवल जेएनयू छात्रसंघ का नेता है बल्कि अपनी स्वतंत्र पार्टी जिसकी वैचारिकी वामपंथ की है दिल्ली का मुख्यमंत्री तक बनने की सोचता है, क्यो जोया से अपनी जाति और धर्म छुपाता है ?..और स्त्री को लेकर उसका नजरिया तो आप ऑपरेशन टेबल तक पहुंचने तक देख ही रहे होंगे..हां अगर आप इससे निकालकर अभय देओल अलग कर लें तो वो इन दिनों जी टीवी पर कनेक्टेड हम तुम के जरिए स्त्रियों के प्रति अपनी ठस्स समझ दुरुस्त करने में लगे है. हां फिल्म में अरविंद गौड़ का अस्मिता थिएटर ग्रुप जो जेएनयू का स्पोक्स पर्सन बनकर सामने आता है, उसने न केवल जेएनयू की बल्कि खुद अपनी और मंजे रंगकर्मियों की टोली होने के सबूत को काफी हद तक धुंधला किया.
मतलब ये कि राजनीतिक स्तर पर जेएनयू में जो एक चौड़ी सड़क दिखाई देती है( हालांकि ऐसा बाकी पार्टियों के शामिल न किए जाने के कारण है), बनारस में प्रेम की जो गली खुलती ही नहीं है, प्रेम की वो गली सड़क बनकर मौजूद तो है लेकिन जाति-धर्म वहां भी बनारस-अलीगढ़ की चट्टान बनकर क्यों खड़ा है ? अच्छा जो जेएनयू चायवाले,झाडूवाली,आसपास के समुदाय के प्रति इतना संवेदनशील होने के लिए प्ररित करता है, वहीं से आयी जोया अपने घर में उन तमाम सामंती ढांचे में कैसे सहज हो जाती है ? मतलब ये कि आनंद राय ने जो सुनी-सुनाई कहानी की प्लास्टर चढ़ाने की कोशिश इस फिल्म में की है, उसकी एक परत राजनीतिक संदर्भों को तो छूती-झाड़ती है ही जिस पर चाहें तो हम दलील दें कि राजनीति में ये सब सब चलता है लेकिन जाति, परंपरा, धर्म, सामंतवादी नजरिया..इन सबों को लेकर जो जैसा घर से लेकर जाते हैं, वैसा ही रह जाता है, उसका क्या करेंगे ? और ये वो सवाल हैं जो जेएनयू की पूरी अवधारणा और "अनूठे कैंपस" को झटके में कटघरे में लाकर खड़ी कर देते हैं. जाहिर है, ऐसा ठीक इसी तरह होता नहीं है लेकिन फिल्म में राजनीति को सतही स्तर पर दिखाए जाने के बावजूद व्यवहार के स्तर पर ये मजबूती से स्थापित तो हो जाता है और तभी
मतलब ये कि राजनीतिक स्तर पर जेएनयू में जो एक चौड़ी सड़क दिखाई देती है( हालांकि ऐसा बाकी पार्टियों के शामिल न किए जाने के कारण है), बनारस में प्रेम की जो गली खुलती ही नहीं है, प्रेम की वो गली सड़क बनकर मौजूद तो है लेकिन जाति-धर्म वहां भी बनारस-अलीगढ़ की चट्टान बनकर क्यों खड़ा है ? अच्छा जो जेएनयू चायवाले,झाडूवाली,आसपास के समुदाय के प्रति इतना संवेदनशील होने के लिए प्ररित करता है, वहीं से आयी जोया अपने घर में उन तमाम सामंती ढांचे में कैसे सहज हो जाती है ? मतलब ये कि आनंद राय ने जो सुनी-सुनाई कहानी की प्लास्टर चढ़ाने की कोशिश इस फिल्म में की है, उसकी एक परत राजनीतिक संदर्भों को तो छूती-झाड़ती है ही जिस पर चाहें तो हम दलील दें कि राजनीति में ये सब सब चलता है लेकिन जाति, परंपरा, धर्म, सामंतवादी नजरिया..इन सबों को लेकर जो जैसा घर से लेकर जाते हैं, वैसा ही रह जाता है, उसका क्या करेंगे ? और ये वो सवाल हैं जो जेएनयू की पूरी अवधारणा और "अनूठे कैंपस" को झटके में कटघरे में लाकर खड़ी कर देते हैं. जाहिर है, ऐसा ठीक इसी तरह होता नहीं है लेकिन फिल्म में राजनीति को सतही स्तर पर दिखाए जाने के बावजूद व्यवहार के स्तर पर ये मजबूती से स्थापित तो हो जाता है और तभी
क्रांति,बदलाव, प्रतिरोध,सरोकार राजनीति ही नहीं उससे बहुत पीछे जाकर व्यक्तिगत स्तर के निजी संबंधों और स्वार्थों में जाकर टक्कर मारते हैं. वो दर्शक को झटका देते हैं कि आप जिसे राजनीति का हिस्सा समझ रहे हो, दरअसल वो दो लोगों के बीच का आपसी मामला है जिसे कि क्रांति की लपटों में तब्दील करके पेश किया जा रहा है और यहीं पर आकर फिल्म इस कैंपस को जातिवाचक विश्वविद्यालय में तब्दील कर जाता है. जेएनयू की सारी विशिष्टता, स्वतंत्र व्यक्तित्व का निर्माण और जीवटता चैरिटी की जिकजैक में जाकर फंसने-उलझने लग जाती है. ऐसे में जो लोग मार्क्सवाद का मशीनी पाठ करने के अभ्यस्त रहे हैं, उन्हें कई ऐसी बारीकियां फिर भी नजर आ जाएगी जो इसके भीतर बचे रहने के संकेत देंगे लेकिन प्रगतिशीलता और जातिवाद की कॉकटेल, चैरिटी और सामतंवाद की टूटी-फ्रूटी..इसका क्या किया जाए ?
जाहिर है, जब हम राजनीति के हिस्से को आनंद राय की सुनी-सुनाई बातों का फिल्माई संस्करण मान रहे हैं तो इस हिस्से को भी उसी खाते में डाल दें लेकिन असल जिंदगी में जो संदर्भ पहले इसी सिनेमा की तरह दिखाई दिए, यानी सिनेमा बनने से ठीक पहले हूबहू वैसे ही जिसे कल तक हमने पसीना चुंहचुहाते देखा नहीं, उसमे शामिल हुए थे और अब अचानक से हम उन सबके दर्शक हो गए और वो अभिनेता, इस सच का क्या किया जाए ? 16 दिसंबर की दिल्ली की गैंग रेप घटना पर जेएनयू छात्र संगठन के विहाफ पर जिन चेहरों को जंतर- मंतर पर नारे लगाते देखे और जिनकी तस्वीर इंडियन एक्सप्रेस में देखे, अब वो चेहरे एक्टिविज्म के एक्टर बनकर रुपहले पर्दे पर हैं, इसकी व्याख्या कैसे की जाए ?
जेएनयू को एक विश्वविद्यालय नहीं, अवधारणा और विचार के रुप में देखने की काबिलियत तो हममे से कईयों के पास है और इसके अचानक से शहर के बीचोंबीच आ जाते हुए देखने की तीक्ष्ण दृष्टि भी लेकिन जिस कैंपस की राजनीति की चौड़ी सड़क, पर्सनल इच्छाओं और आकांक्षाओं की गली वहीं पर जाकर खुल जाती है जहां से कि उनका सदा से न केवल विरोध रहा है बल्कि उन्हें खत्म करना ही आखिरी मकसद भी...आनंद राय साहब के प्लास्टर झाड़ दिए जाने के बावजूद भी जेएनयू की दीवारों पर ये सवाल तो फिर भी बचे ही रहेंगे न कि - थक चुके, हार चुके और काफी हद तक उब चुके पूंजीवाद को प्लेजर की नयी प्लेट सजाने के अलावे प्रतिरोध की राजनीति आखिर क्या कर रही है और यहां रहकर जिस जाति,धर्म,सामंती रवैया ध्वस्त करने की मुठ्ठियां तानकर नारे लगाए...ध्वस्त तो उनमे से कुछ नहीं हुआ, न ही पूंजीवाद बल्कि वो सबके सब संस्कृति उत्पाद का हिस्सा बनकर नए किस्म की रिसाइक्लिंग प्रोसेस में समाती गयी.
वैसे तो मीडिया की बेशर्मी और मानवता, सरोकार को कलंकित करते रहना कोई घटना न होकर रुटीन का हिस्सा रहा है. अब आए दिन ये उसकी रुटीन में शामिल हो गया है कि कैसे मानवता का,सरोकार का, न्यूनतम स्तर की भी आदमियत का गला घोंटकर पैसे उगाही और मंडी को चमकाने के काम किए जाएं. उत्तराखंड में आयी बाढ़ से तबाही के संदर्भ में हम इसे इन दिनों रोज देख ही रहे हैं. लेकिन
न्यूज एक्सप्रेस चैनल के संवाददाता नारायण वरगाही ने जो कुछ किया है, वो मानवता औऱ सरोकार के दायरे से हटकर बाकायदा कानूनी कार्रवाई की मांग करता है...आप में से जिन लोगों को नारायण पर आस्था है, धक्का लगेगा कि ऐसे भी किसी हायवान का नाम नारायण हो सकता है ? इस हरकत के लिए उन्हें चैनल से तत्काल निलंबित किए जाने और पत्रकारिता के पेशे से चलता कर देने के अलावे शायद ही कोई दूसरी सजा हो. कायदे से प्रावधान ये होनी चाहिए कि नारायण पर वो तमाम धाराएं लगायी जाए जो मानवाधिकार के हनन के अन्तर्गत आते हैं.
इस संवाददाता ने अपने से आधी उम्र और वजन के गरीब,लाचार एक शख्स के कंधे पर चढ़कर न केवल पीटूसी दिया बल्कि वो शख्स बड़ी मुश्किल से आगे बढ़ता रहा और ये बेशर्म उस पर चढ़कर टहल्ला मारता रहा. वो उत्तराखंड सरकार का पर्दाफाश करने निकला है लेकिन इस वीडियो को देखकर किसका क्या औऱ कितना पर्दाफाश हो रहा ये इस संवाददाता को पता नहीं है. ये उसकी उस दासप्रथा के समर्थन का सूचक है जहां हाथ में माइक आते ही बाकी पूरे जमाने को अपना गुलाम समझता है.
अगर ये दलील दी जाए कि संवाददाता अगर खुद पानी में चलकर पीटूसी देता तो दिक्कत होती तो अव्वल ये बेशर्मी के अलावे और कुछ नहीं है. सवाल है कि ऐसी जगह से पीटूसी देने की जरुरत क्यों पड़ गयी और दूसरा कि अगर आप वीडियो को ध्यान से देखें तो पानी इतना भी अधिक नहीं है कि किसी शख्स क्या, दूसरी किसी भी चीज पर चढ़कर दी जाए..बहुत ही आसानी से बिना किसी पर सवार हुए ये काम किया जा सकता था. लेकिन
न्यूज एक्सप्रेस के इस संवाददाता ने जो ये घटिया हरकत की है वो किसी मजबूरी के तहत नहीं बल्कि बाकी संवाददाताओं से अलग दिखने, फैशन के तहत किया गया है. आप गौर करें तो उत्तराखंड और यहां तक कि दिल्ली में भी बाढ़ के नाम पर जो भी खबरें दिखाई जा रही है, इस तबाही के बीच भी चैनल और उनके संवाददाता अपने फैशन औऱ अलग दिखने की हरकत से बाज नहीं आते. आजतक पर अंजना कश्यप जैसी संवाददाता जहां वोटिंग करती नजर आयी तो इधर न्यूज एक्सप्रेस का ये बेशर्म उससे कहीं चार कदम आगे निकलकर सीधे एक कमजोर शख्स के कंधे पर से ही पीटूसी करने लगा. इस वीडियो को देखने के बाद आपको लगता है कि मीडिया के भीतर इंसानियत तो छोड़िए बेसिक दिमाग भी बचा है कि इस तरह की हरकतें करने का क्या अंजाम हो सकता है ? इस तरह के फैशन के तहत पीटूसी करने से हम संवाददाता से कितने गहरे जुड़ पाते हैं, इस सवाल को तो छोड़ ही दीजिए, दर्शक इस मीडिया को कितनी हिकारत की नजर से देखता है और बिना किसी छानबीन के सहज ही अंदाजा लगा लेता है कि वो किस घटिया सोच और स्ट्रैटजी से पत्रकारिता के नाम पर गंध मचाने का काम कर रहा है ?
इस वीडियो में तो सिर्फ संवाददाता दिखाई दे रहा है लेकिन क्या कैमरामैन ने भी यही काम किया और वो भी किसी लाचार और कमजोर के कंधे पर चढ़कर शूट किया..मीडिया के इन घिनौने चेहरे पर सिर्फ विमर्श करने का नहीं बल्कि उस पर लगातार उंगली उठाते रहने का समय है..नहीं तो एक दिन सत्ता, कार्पोरेट और अपने टुच्चे स्वार्थ के आगे मीडिया के ऐसे लोग इस समाज को हमारे जीने लायक नहीं रहने देंगे.
वीडियो लिंक- http://www.facebook.com/photo.php?v=4774292447554
मूलतः प्रकाशित- मीडियाखबर डॉट कॉम
सैंकड़ों सड़ी रही लाशों, हजारों भूखे-प्यासे और अधमरे लोगों को लेकर गंभीरता से कवरेज न करने और अपनी छवि दुरुस्त बनाए रखने की नियत से उत्तराखंड सरकार ने जो विज्ञापन जारी किए थे और इसके लिए वहां के क्षेत्रीय चैनलों को करीब 1 करोड़ 14 लाख के जो विज्ञापन जारी किए थे, अब उन विज्ञापनों पर रोक लगा दी गई है. सरकार ने सूचना कार्यालय को पत्र लिखकर बाकायदा निर्देश दिया है कि इन विज्ञापनों पर रोक लगायी जाए और इससे संबंधित सारी जानकारियां मुहैया करायी जाए.
उत्तराखंड में हजारों लोगों की मौत और सड़ रही लाशों,गांव के गांव तबाह हो जाने और उनका नामोनिशान नहीं रहने के बीच हमने आपको अपनी पिछली पोस्ट "उत्तराखंड सरकार ने फेंके टुकड़े, टीवी चैनलों ने जुबान बंद कर ली" में बताया था कि कैसे मीडिया वहां मौजूद होने के बावजूद सिर्फ इमारतों खासकर मंदिरों के ढहने की खबर दे रहा है जबकि इन्हीं मंदिरों के बीच इंसानों की लाशों के ढेर लगे हैं और इन पर कोई खबर नहीं हो रही है. इसके पीछे सरकार की ओर से मीडिया की तरफ फेंके गए टुकड़े का असर था. कल उत्तराखंड सरकार और प्रशासन के बीच हुई बैठक में इन सारे सवालों पर गंभीरता से विचार हुआ और उन्हें ये संकेत मिले कि विज्ञापन दिए जाने के बावजूद इस विपरीत परिस्थिति में सरकार की साफ-सुथरी या मनमुताबिक छवि बनाए रखना आसान नहीं है. पैसे लेकर मुख्यधारा मीडिया तो फिर भी मैनेज हो जाएगा लेकिन वर्चुअल स्पेस पर सोशल मीडिया और दूसरे मंच जो काम कर रहे हैं, उन्हें साधना आसान काम नहीं है. लिहाजा लाखों खर्च करने के बावजूद अगर सरकार अपनी छवि बचाए रखने में नाकाम रही है तो इससे बेहतर है कि दूध की मक्खी निगलकर भी ये घोषणा करे कि ऐसे विज्ञापन नहीं दिखाए जाएंगे.
सरकार ने ये जो फौरी कदम उठायी है, उसका निश्चित रुप से स्वागत किया जाना चाहिए कि देर ही सही, उन्हें ये बात समझ आयी कि अब मीडिया का मतलब वहां के चमकानेवाले कुछ क्षेत्रीय चैनल ही नहीं है, मीडिया वो भी है जो सीधे-सीधे दिखाई नहीं देते लेकिन अपना काम करते हैं बल्कि कई बार इन टेंट-तंबूवाले मीडिया संस्थानों से कहीं ज्यादा कायदे से करते हैं. इस घटना को आप मुख्यधारा मीडिया की हार और उसके बेआबरु होने के रुप में भी देख सकते हैं जबकि दूसरी तरफ सोशल मीडिया की तासीर बनी रहने के रुप में भी. इस बात से बिल्कुल इन्कार नहीं किया जा सकता कि उत्तराखंड से प्रकाशित सांध्य दैनिक लोकजन टुडे ने अपना खासा असर दिखाया गया और सरकार के इस नतीजे तक पहुंचने में उनकी बड़ी भूमिका रही है लेकिन ये अखबार तब तक नोटिस में नहीं था जब तक कि वर्चुअल स्पेस ने इसे नए सिरे से उठाया नहीं. इससे एक बात तो साफतौर पर निकलती है कि अगर लोकजन जैसी क्षेत्रीय स्तर की पत्रकारिता मुस्तैदी से खड़ी रहे और उसकी जानकारी वर्चुअल स्पेस पर सक्रिय लोगों को मिलती रहे तो राष्ट्रीय स्तर के,क्षेत्रीय स्तर के मैनेज हो जानेवाले मीडिया संस्थानों के बावजूद मीडिया का स्वर जिंदा रहेगा.
दूसरी तरफ, इस पूरी घटना से ये बात खुलकर सामने आयी है कि लोकजन टुडे जैसे क्षेत्रीय अखबारों के बीच दर्जनों राष्ट्रीय स्तर के चैनल लगातार उत्तराखंड को लेकर रिपोर्टिंग कर रहे थे लेकिन किसी भी इन चैनलों ने इस अखबार की खबर को फॉलोअप नहीं किया और देशभर के दर्शकों को नहीं बताया कि असल में वहां हो क्या रहा है ? उल्टे वो धीरे-धीरे उत्तराखंड से शिफ्ट होकर दिल्ली में बाढ़ की आशंका की खबर पर टूट पड़े और इसी में टीआरपी से लेकर सरकार की ओर राजस्व की गुंजाईश देखने लगे. करोड़ों रुपये की स्ट्रक्चर के बीच अगर लोकजन टुडे और व्यक्तिगत स्तर पर सक्रिय वेबसाईट और ब्लॉग अगर इस खबर को प्रमुखता से उठाकर सरकार पर दवाब बना सकते हैं तो आप अंदाजा लगा सकते हैं कि करोड़ों के तामझाम वाले ये मीडिया खबर और पत्रकारिता के नाम पर क्या कर रहे हैं और अगर ये वाकई पत्रकारिता करने की दिशा में सक्रिय हो जाएं तो किस तरह का प्रभाव पैदा कर सकते हैं ?
आजतक जैसे चैनल की सफलता औऱ देखते ही देखते देश का चेहरा हो जाने के पीछे की कहानी की जब भी चर्चा होती है( हालांकि आज ये चेहरा तो बिल्कुल भी नहीं है और अगर विजिविलिटी है तो उसके बेहतर डिस्ट्रीब्यूशन के कारण) तो उसमें एस.पी.सिंह की उस पत्रकारीय समझ को खासतौर से रेखांकित किया जाता है जिसमें वो क्षेत्रीय अखबारों को न केवल प्रमुखता से लेते रहे बल्कि छोटी से छोटी खबरों में छिपी गुंजाईश को भी पकड़ते रहे. अब इसके ठीक उलट है. ब्रांड पोजिशनिंग और तामझाम के बीच मीडिया संस्थानों ने ऐसा करना न केवल लगभग बंद कर दिया है बल्कि बिजनेस और मार्केटिंग के स्तर पर इतने अधिक मैनेज हो गए हैं कि ऐसा करना उनके पेशे का हिस्सा ही नहीं रह गया है.
कल देर दोपहर से जब न्यूज चैनलों ने सवा सौ लोगों के मरने के अटके आंकड़े से खिसककर सीधे हजार के आंकडे पर कूदने लगे तब हमने एफबी टाइमलाइन पर लिखा था कि लगता है सरकार विज्ञापन प्रसारित करने पर रोक लगाने जा रही है- "आज न्यूज चैनलों को देखना इसलिए भी दिलचस्प है कि वो नींद से जागे बेओडे की तरह अचानक से बड़बड़ाने लगे हैं और काफी कुछ वो सच बोल रहे हैं जिस पर सप्ताह भर से कुंडली मारकर बैठे थे. अब हजार से उपर मरनेवालों की संख्या रुपक अलंकार बनकर स्क्रीन पर तैरने लगा है...भक्ति संगीत के टी सीरिज कैसेट की जगह चैनल बदनाम हुआ डार्लिंग तेरे( विज्ञापन) के लिए टाइप की सीडी उफान पर है. हर चैनल इस हजार पर आकर टिका है, मार गोले दाग रहा है. कल तक वस्तुस्थिति को लेकर वो जितने चुप्प थे, अब उतने ही अतिरेकी हो जाएंगे.. अब सबों को धर्मशाला,अस्पताल और बाकी जगहों की याद आने लगी है. लगता है उत्तराखंड सरकार ने विज्ञापन वापस लेने का इरादा बना लिया है." अब देखिए तो सबकुछ ठीक वैसा ही हुआ है.
अब गर्दन की नसें फुलाकर न्यूज 24 से लेकर इंडिया न्यूज जैसे चैनल और आजतक जिसने की बाढ़ की तबाही के बीच रिपोर्टिंग को "वोटिंग फॉर डिजास्टर प्लेजर" में तब्दील कर दिया था, खबरें दिखा-बता रहे हैं. उन खबरों में कहीं से स्वाभाविकता नहीं है. सवाल अब भी है कि अगर आप बाढ़ की कवरेज के लिए वोट पर पैनलिस्ट को बिठाकर यमुना की सैर करोगे तो पानी की जगह क्या फंसे हुए इंसान दिखाई देंगे. जाओ कभी शहादरा,सीलमपुर,भजनपुरा की गलियों में और देखो फंसी हुई जिंदगी के बारे में, बाढ़ की तबाही और मुश्किलें वहां दिखाई देगी..लेकिन नहीं उत्तराखंड हो या दिल्ली...विज्ञापन मिले इससे पहले उस स्थायी मानसिकता के शिकार हो जाना है जहां खबर या तो विज्ञापन( स्वंय चैनल का) बनकर आते हैं या फिर सस्ती सी डी ग्रेड की हॉरर फिल्में. जिंदगी को लेकर गंभीरता दोनों में से कहीं नहीं है.
उत्तराखंड सरकार ने जब फेंके टुकड़े,चैनलों ने जुबान बंद कर ली
Posted On 1:04 am by विनीत कुमार | 10 comments
उत्तराखंड में आयी बाढ़ से तबाही में मरनेवालों की संख्या हजारों में है लेकिन टेलीविजन स्क्रीन पर ये संख्या सवा सौ के आंकड़े तक जाकर सिमट गयी है. इक्का-दुक्का करके ये संख्या बढ़ रही है लेकिन अब हरियाणा सरकार के पानी छोड़े जाने के कारण यमुना के जलस्तर बढ़ने पर खबर उत्तराखंड में बाढ़ की जगह दिल्ली में शिफ्ट होती जा रही है. जाहिर है उत्तराखंड में जिस बड़े पैमाने पर तबाही हुई है, उसके मुकाबले दिल्ली में आशंका ज्यादा है, दुर्घटनाएं बहुत ही कम लेकिन टीवी स्क्रीन पर अब दिल्ली ही दिल्ली है और देखते रहिए, एकाध दिन के भीतर उत्तराखंड गायब ही हो जाएगा.
जो लोग उत्तराखंड की खबर पर लगातार नजर बनाए हुए हैं, उन्हें ये सब किसी चमत्कार से कम नहीं लग रहा होगा और ऐसे में टीवी चैनलों की इस पूरी ट्रीटमेंट को किसी रियलिटी शो या आइपीएल के पैटर्न से अलग नहीं मान रहे होंगे लेकिन इस चमत्कार के पीछे के सच को जानने के बाद आप इन चैनलों और सरकार के घिनौनपन पर अफसोस जाहिर करने के अलावे कुछ नहीं कर सकते. आपको ये समझने में बिल्कुल परेशानी नहीं होगी कि पैसे के दम पर मरनेवालों की संख्या न केवल घटायी जा सकती है बल्कि आदमी के मरते जाने के बीच सिर्फ मंदिरों,घाटों,गुंबदों के ध्वस्त होने की खबर को लीड स्टोरी बनाकर पूरे उत्तराखंड को देवताओं की रियल इस्टेट में तब्दील किया जा सकता है..इस राज्य की ऐसी तस्वीर पेश की जा सकती है कि जो भी तबाही हुई है वो निर्जीव मंदिरों, पत्थरों से जुटाए चबूतरों और हिन्दू धर्मस्थानों की हुई है, इनके बीच इंसान कहीं नहीं है. पिछले तीन-चार दिनों से पावरोटी की तरह भसकरकर गिरती इमारतों के बीच आपके मन में भी कभी तो सवाल आया होगा कि इनमें रहनेवाले लोगों का क्या हुआ होगा..लेकिन नहीं.अगर आप ये सब जानने की कोशिश करेंगे औऱ वो भी न्यूज चैनलों के जरिए तो आपको बहती धार में शिव की मूर्ति के टिके रहने के अलावे कोई दूसरी फुटेज नहीं मिलेगी. इसकी वजह ये बिल्कुल नहीं है कि जब उत्तराखंड में हजारों की जानें जा रही है तो नोएडा फिल्म सिटी के मीडियाकर्मी सीसीडी में बैठकर कॉफी पी रहे हैं, दर्जनों मीडियाकर्मी वहां मौजूद हैं लेकिन उन्हें पूरी तरह निर्देशित कर दिया गया है कि चाहे कुछ भी दिखाओं, लोगों को मत दिखाओ. ऐसा करने के लिए चैनलों के मुंह में लाखों रुपये पहले से ठूंस दिए गए हैं.
उत्तराखंड से प्रकाशित लोकजन टुडे( सांध्य दैनिक) के अभिषेक सिन्हा ने इस संबंध में विस्तार से रिपोर्टिंग की है जिसे कि अखबार ने शर्म करो सरकार शीर्षक से प्रकाशित किया है. अभिषेक सिन्हा ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि जब उत्तराखंड के लोग बिना पानी के, खाना के, छत के भटक रहे हैं, मरने की स्थिति में थे तो वहां कि सरकार ने इन बुनियादी सुविधाओं पर पैसे खर्च करने के बजाय क्षेत्रीय चैनलों का पेट लाखों रुपये देखकर भरने का काम किया. रिपोर्ट के मुताबिक इस दौरान सरकार ने क्षेत्रीय चैनलों को अपना मुंह बंद रखने के लिए कुल 1 करोड़ चौदह लाख के विज्ञापन दिए. मरनेवालों की संख्या और भारी तबाही की वस्तुनिष्ठ रिपोर्टिंग न करने के बदले सरकार का गुणगान करने के लिए कुल चार विज्ञापनों का प्रसारण शुरु हुआ जिसे कि बाद में दो को बंद कर दिया गया. ऐसी आपदा के बीच सरकार का काम विज्ञापन के पीछे पानी की तरह पैसे बहाने का नहीं होना चाहिए था लेकिन छवि निर्माण की राजनीति के बीच उसे ये काम ज्यादा जरुरी लगा और लोगों की वाजिब चिंता करना नहीं. नतीजा, हमारे सामने है...
टेलीविजन स्क्रीन पर चली रही खबरों पर थोड़ी सावधानी से नजर डालें तो सहज ही अंदाजा लग जाता है कि उत्तराखंड में बाढ़ की खबर पूरी तरह मैनेज है. ऐसा कैसे हो सकता है कि इतनी बड़ी-बड़ी इमारतें, धार्मिक स्थान और मंदिर स्वाहा होते जा रहे हों और मरनेवालों की संख्या एक-दो करके बढे. इंडिया न्यूज से लेकर एबीपी,आजतक,इंडिया टीवी जैसे चैनल क्यों लगातार सिर्फ हिन्दू धार्मिक स्थलों के टूटने,तबाह होने ी खबर दिखाते आ रहे हैं और पूरे उत्तराखंड को इस तरह से दिखा-बता रहे हैं जैसे कि यहां हिन्दुओं के तीर्थ स्थल के अलावे कुछ है ही नहीं. तथ्यात्मक रुप से ये अगर सही है कि विज्ञापन देने का काम सिर्फ क्षेत्रीय चैनलों को किया गया, राष्ट्रीय चैनलों को नहीं तो ये अटकलें लगाना कि वो भी मैनेज हैं, सही नहीं होगा. लेकिन बिजनेस के लिहाज से देखें तो खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग बदलता है कि कहावत यहां ज्यादा सटीक बैठती है. राष्ट्रीय स्तर के चैनलों के ब्यूरो के बीच जब ये खबर लगी कि क्षेत्रीय चैनलों को सरकार की छवि बेहतर करने और बाढ़ की खबर को मैनेज करने के लिए लाखों रुपये बांटें जा रहे हैं तो बेहतर है कि ये काम हमें पहले ही शुरु कर देने चाहिए. वैसे भी चैनलों के लिए राजनीतिक पार्टियां लोकतंत्र का हिस्सा बाद में, बिजनेस क्लाइंट पहले है. इधर, दिल्ली में लगातार बाढ़ की तबाही बताकर खबरें तेज करने के पीछे की रणनीति हो सकती है कि पूरे देश में दिल्ली और बाढ़ को इस तरह से पोट्रे करो कि सरकार सांसत में पड़ जाए. जाहिर है जिस तरह आज चैनलों ने वोट में बिठाकर लाइव रिपोर्टिंग की है, आजतक जैसे चैनल ने यमुना से लाइव जैसे फैशन परेड अपने संवाददाताओं से कराए हैं, उसके पीछे पैनिक माहौल पैदा करके सरकार को इस मनोदशा में लाना है कि वो भी उत्तराखंड सरकार जैसी रणनीति अपनाए. जाहिर है, दिल्ली में फिलहाल उत्तराखंड जैसी स्थिति नहीं होने जा रही है..ऐसे में जैसे ही दो-तीन दिनों के भीतर स्थिति सामान्य होगी, उल्टे चैनल लगातार कवरेज का असर की पट्टी चलाकर क्रेडिट लेने से नहीं चूकेंगे.
गौर करें तो राष्ट्रीय चैनल उत्तराखंड में जहां क्षेत्रीय चैनलों की देखादेखी आप ही मैनेज हो रहे हैं तो वहीं दिल्ली की खबर पर शिफ्ट होकर उस मध्यवर्ग की आंडिएंस का ध्यान अपनी ओर खींचने में लगे हैं जिनका सरोकार दिल्ली जैसे शहर से उत्तराखंड के मुकाबले ज्यादा है. इस शहर के साथ किसी भी खबर के जुड़ने का मतलब खबर का राष्ट्रीय होना है तो वही दूसरी तरफ सरकार की अंटी से झटकने के अवसर भी..मौत की रेलमपेल के बीच भी चैनल किस तरह संवेदना और तथाकथित अपने सरोकारों का धंधा करते हैं, दर्द,कराह,चीख के बीच से राजस्व पैदा करते हैं, ये सब जानकर आप अपने चौथा खंभे के प्रति उतनी ही हिकारत करेंगे, उतनी ही नफरत करेंगे जितना कि हिन्दी सिनेमा के खलनायक को देखकर करते हैं.
अपूर्वानंद ने आज( 16 जून 2013 जनसत्ता के अपने स्तंभ "अप्रासंगिक" में एक प्रभावशाली संपादक और एक लोकप्रिय चिंतक( हम जैसे लोग व्यक्तिवाचक संज्ञा की लत के शिकार रहे हैं तो जरुर चाहेंगे कि वो सर्वनाम को अपदस्थ करके इसी नाम से प्रयोग किए जाते,खैर) के संदर्भ को शामिल करते हुए जेएनयू के संदर्भ में जो कुछ भी लिखा है, वो अपने ढंग का सच है. नामांकन फार्म भरने के पहले ऐसे लेखों की सख्त जरुरत होती है, देशभर के छात्र ऐसे लेखों को खोज-खोजकर पढ़ते हैं.
हम जेएनयू को आत्मीय लगाव और फैंटेसी की निगाह से देखें तो ऐसे हजारों तत्व सामने आएंगे जो इसे "अनूठा परिसर" साबित करने में रत्तीभर भी कसर नहीं रहने देंगे. निस्संदेह ये प्रतिभाशाली के लिए कई बार अंतिम शरणस्थली बनकर सामने आता है. देखने का ये तरीका बिहार-उत्तर प्रदेश के लगभग उपेक्षित और हाशिए पर जा चुके किसी भी विश्वविद्यालय या कॉलेज पर भी लागू होने से इस तरह के नतीजे तक पहुंचे जा सकते हैं..हां ये जरुर है कि इन विश्लेवविद्यालयों को इस निष्कर्ष तक पहुंचाने में हम 16 दिसंबर से बहुत पीछे जाना होगा. मसलन पटना यूनिविर्सिटी के लिए तो इमरजेंसी तक. लेकिन ऐसे नतीजों को वस्तुनिष्ठ शक्ल देने के पहले ये बहुत जरुरी है कि इन निष्कर्षों को डिकन्सट्रक्ट करके भी देखा जाए.
अपूर्वानंद अपने पूरे लेख में जिस जेएनयू को एक रुपक के रुप में देख रहे हैं, क्या ये रुपक भर है या फिर जिस परिवेश में हम उस जेएनयू को जी रहे हैं, उस रुपक को एक ब्रांड की शक्ल और मार्केटिंग के सिरे से भी समझने की जरुरत है? साहित्य में जो रुपक है, मार्केटिंग में वो ब्रांड के नाम से जाना जाता है.दोनों में समानता इस स्तर पर होती है कि अगर आपने रुपक के तहत आपने किसी चीज का विश्लेषण कर दिया तो फिर वो सवालों के घेरे से बाहर आ जाता है( चांद का मुंह टेढ़ा है जैसे अपवाद फिर भी हैं) और बाजार में जो ब्रांड है वो पहली ही रणनीति में ग्राहकों को सवालों के घेरे से अलग कर देता है. मसलन, नाईकी के जूते आपको ये पूछने की इजाजत नहीं देता- पैर काटेंगे तो नहीं, टिकाउ तो है न, पानी में खराब तो नहीं हो जाएंगे ? बहरहाल
आखिर ऐसा क्या है कि वहां के मेस में होनेवाली रात की बहसों जब कि टेबल कई बार चावल-दाल से सने होते हैं, वो वक्ता भी सहज रुप से तैयार हो जाता है जो कि बाकी जगहों पर जाने के लिए दुनियाभर के तामझाम करता है. बुद्धिजीवियों की तो लंबी फेहरिस्त है लेकिन इरफान खान से लेकर मनोज वाजपेयी खुले टीले में अपनी बात करने के लिए न केवल तैयार बल्कि लालायित रहते हैं. इस संदर्भ में मैंने पहले भी पोस्ट लिखी थी. अगर हम इन सवालों पर थोड़ी मेहनत करें तो हम जेएनयू की उस टैबू को बेहतर समझ सकेंगे जिसके तले न केवल वहां के छात्र बल्कि बाहर के लोग भी एन्डोर्स होते हैं. ये "अपूर्वानंद के जेएनयू रुपक" से बिल्कुल अलग "जेएनयू की ब्रांड इमेज" का मसला ज्यादा है जिस पर अलग से बात होनी चाहिए. मैंने एक नहीं कई बार देखा है, राह चलते वहां के दो-चार छात्रों से बात कर ली गई और फिर स्क्रीन पर फ्लैश होने लग गया- जेएनयू स्कॉलर ने किया इसका विरोध, जेएनयू फलां के खिलाफ. आज अगर अपूर्वानंद 16 दिसंबर की घटना को जिस अंदाज और संदर्भ में याद कर रहे हैं तो उसमें सिर्फ उस वक्त का वर्तमान शामिल नहीं है, उसमें वह इतिहास भी शामिल है जो कि पटना, लखनउ और इलाहाबाद जैसे किसी भी दूसरे विश्वविद्यालय के हिस्से में मौजूद है लेकिन चूंकि उसमे वर्तमान की घटनाओं के साथ छौंक नहीं लगायी जा सकती इसलिए उनसे कोई सुने न सुने, ये सुनेंगे की उम्मीद नहीं लगायी जा सकती. इस "ब्रांड जेएनयू" के कोई न सुनने पर इसके सुनने के अंदाज पर भी गौर करें.
पहले इसी 16 दिसंबर की घटना से. जाहिर है जेएनयू के पोस्टर्स बनाने में जितना दक्ष,अभ्यस्त और तत्पर है, बाकी के संस्थान बहुत ही पिछड़े..ये भी जाहिर है कि कौन उसके आंदोलनों और हांक से प्रेरित होकर जंतर-मंतर, इंडिया गेट, राष्ट्रपति भवन जाता है, ये भी पता करना थोड़ा मुश्किल है. लेकिन सवाल ये है कि अपूर्वानंद जैसे स्तंभकार जो अपनी बातों को हम जैसे हड़बड़िया ब्लॉगरों के मुकाबले ठहरकर,बारीकी से अपनी बात रखने में यकीन करते हैं, जेएनयू को एक संस्थान के बजाय एक रुपक, एक अवधारणा, एक विचार और परिवेश बताने से पहले इस सिरे से भी सोचने की जरुरत पैदा तो करते ही हैं कि बाकी लोगों की सक्रियता को इस व्यक्तिवाचक संज्ञा के आगे तिरोहित कर देने या फिर "रेस्ट ऑफ जेएनयू" जैसी शक्ल देने के क्या मायने निकलकर आते हैं ? 16 दिसंबर की घटना में जेएनयू-डीयू तो छोड़ दीजिए, हजारों ऐसे लोग गए थे जिनका कि इस परिसर से न तो कोई लेना-देना है और न ही सीधे-सीधे पढ़ाई-लिखाई( पाठ्यक्रम संबंधित)..क्या ऐसे सारे लोग "जेएनयूमय" होकर वहां पहुंचे थे. अपूर्वानंद का आशय अगर संख्याबल से है तो जेएनयू को हमेशा सिलेब्रेट करना चाहिए कि वो हमेशा आगे रहेगा. लेकिन इसी 16 दिसंबर की एक घटना को शामिल करें तो एक दूसरे संदर्भ भी उतने ही जरुरी हो जाते हैं.
पूरा मीडिया, दर्जनों चैनल कॉन्सटेबल की मौत को प्रदर्शनकारियों के हमले से हुई मौत के रुप में दिखा-बता रहा था. जाहिर है, ऐसे में जेएनयू के लोग क्रांतिकारी नहीं प्रशासन की ओर से हुडदंगिए करार दिए गए. मामला चलता रहा, प्रशासन कठोर होती रही. इसी बीच डीयू के एक छात्र योगेन्द्र सिंह ने बयान दिया कि वो अचेत हो जाने के समय कॉन्सेटबल के न केवल पास था बल्कि उसने ही लोगों को बताया और हॉस्पीटल तक साथ गया..उसे वहीं बाहर रोक लिया गया. योगेन्द्र की इस कोशिश को मीडिया ने पहले तो बहुत अधिक महत्व नहीं दिया लेकिन पहली बार जब एनडीटीवी इंडिया ने इसे दिखाया, योगेन्द्र की पूरी बातचीत को प्रसारित किया तो बाकी चैनलों पर दो दिन तक यही खबर चलती रही.
नतीजा जो प्रशासन जेएनयू और तथाकथित उससे प्रेरित होकर आनेवाले लोगों को हुडदंगिए मान रही थी, थोड़ी नरम क्या कहिए हारा हुआ नजर आने लगी. दुर्भाग्य से दिल्ली पुलिस और प्रशासन के इस चेहरे पर वर्तिका नंदा जैसी मीडिया आलोचक ने इसे "दिल्ली पुलिस के चेहरे पर ममता" का झलकना व्याख्यायित किया.
इस संदर्भ को शामिल करने का ये आशय बिल्कुल नहीं है कि अपूर्वानंद से सवाल किए जाएं कि क्या आपको योगेन्द्र की इस पूरी पहल पर कुछ नहीं लिखना चाहिए था या फिर जब आप "अनूठा कैंपस" जैसा लेख लिख रहे हैं तो उसे व्यक्तिवाचक संज्ञा और बाकी लोगों को उस व्यक्तिवाचक संज्ञा के भीतर जातिवाचक संज्ञा में तब्दील देने के पहले नहीं सोचना चाहिए था ? हर लेखक का अपना चुनाव और प्राथमिकता होती है, जाहिर है वो वैसा ही लिखेगा. जब पूरा फेसबुक प्रदेश मोदी-आडवाणी विवाद में लिथड़ा होता है, तब मैं अपने रेडियो के मरम्मत हो जाने औऱ चश्मे का पावर घट जाने की खुशखबरी साझा करता हूं. लेकिन जब ठहरकर गंभीरता से कोई बात करने का मूड किसी का बने तो जरुरी है कि उस मूड में भी एक व्यापकता हो.
एक और घटना. डीयू में पढ़नेवाले हममे से कई लोग जानते हैं कि हिन्दी विभाग से एम.फिल् कर रही कनकलता के साथ उसके मकान-मालिक ने जाति जान लेने पर क्या किया और घटना की जानकारी होने पर वर्चुअल स्पेस की सक्रियता की बदौलत ये मामला कैसे मीडिया तक पहुंचा. घटना के 13-14 दिन बाद ही सही सक्रियता खुलकर सामने आयी और न केवल उन्होंने कनकलता सहित उनके साथ के लोगों को भावनात्मक रुप से साथ दिया बल्कि आइटीओ पर सबके साथ विरोध प्रदर्शन किया. मीडिया में आने से तब मामला बढ़ चुका था.लिहाजा जेएनयू छात्र संगठन भी बैनर सहित पहुंचे. हम सब अपने-अपने तरीके से इस मामले को आगे ले जाने और इस पर बात करने के लिए संपर्क करने में लगे थे. जो भी और जितनी खबर मीडिया में आ सकती थी,आयी लेकिन जेएनयू की तरफ से, यहां तक कि मीडिया की तरफ से वो जेएनयू छात्र संगठन की पहल हो गई थी. हम डीयू के उन छात्रों का चेहरा याद कर रहे थे जो एक एसएमएस,फोन कॉल पर अपना सारा काम छोड़कर आए थे.
इतनी बात तो अपूर्वानंद भी जानते हैं कि वो जिस माहौल में जेएनयू को अनूठा कैंपस करार दे रहे हैं, उसकी वायनरी डीयू का बनना तय है. इस माहौल में बिना इसकी बायनरी के इस लेख को नहीं देखा जा सकता..और जिसका नतीजा होगा कि हम जैसे सतही लोग इस रुपक के भीतर की व्यापकता को समझे बिना दो ब्रांड़ों की आपाधापी के बीच से ही अर्थ खींचने की कोशिश करेंगे. ये तो अच्छा है कि एक डीयू का प्रोफेसर जेएनयू को ऐसे ताज से नवाज रहे हैं, ये अधिक ऑफ बीट मार्केटिंग किन्तु ज्यादा अपीलिंग पैटर्न है. लेकिन उस जमीन पर भी तो बात करनी होगी जहां इस ब्रांड के अपने मायने बनते-बदलते हैं.
जेएनयू के छात्र संस्थान से, अधिकारी से सीधे चुनौती लेते दिखाई देते हैं. जाति और लिंग के खिलाफ खुलकर सामने आते और विरोध करते दिखाई देते हैं. ये अलग बात है कि आरक्षण के समर्थन में यूथ फॉर एक्यूअलिटी के ब्रिगेड न केवल गाड़ी भर-भरकर एम्स के आगे नारे लगाने जाते रहे, प्रोफेसर से सेंत-मेत करते रहे बल्कि खुलकर चुनाव भी लड़ा. उसी जेएनयू में जाति आधारित लोकतंत्र बनने की प्रक्रिया भी चरम पर पहुंची. हम जिनके साथ सालों से भक्तिकाल, मनोहरश्याम जोशी, भारतीय अर्थव्यवस्था के जानकार की हैसियत से घूम रहे थे, उस वक्त हमारा ज्ञान इजाफा किया गया कि अरे ये तो कुर्मी है, कहार है, कायस्त या धोबी है. इतना अनूठा कैंपस कहां मिलेगा आपको ? उस वक्त अगर मैं आरक्षण के विरोध में धरना देनेवाले और यूथ फॉर एक्वलिटी को ही जेएनयू की असल आवाज करार देनेवालों की संख्या गिन पाता तो आपको इसी तरह के एक नए निष्कर्ष की तरफ ले जाता- मार्क्स की स्थली इतनी जातिवादी क्यों है ?
आखिरी बात, अपूर्वानंद सहित जेएनयू को रुपक की तरह देखनेवाले साथियों को यहां क्रांति,प्रतिरोध और बदलाव की जो फसल पैदा होती दिखती है, एक बार उस पैदावार और तैयार फसल पर भी निगरानी डालने की जरुरत है. हमने ऐसे दर्जनों साथियों को एम ए,एमफिल् के दिनों में डाउन-डाउन करते देखा, आज डीयू के टीचर इन्चार्ज के आगे जितनी उपर उंगलियां और हाथ डाउन-डाउन करते देखे थे, उससे कई गुना सिर नीचे झुकाते, तलहथी रगड़ते देखता हूं. अपने भीतर को मरते देखता हूं..आप इसे प्रैक्टिकल होना कह सकते हैं और शायद जरुरी भी है. लेकिन ये कलाकारी तो जेएनयू के ही लोग कर सकते हैं न कि कैंपस में प्रतिरोध का पाठ क्योंकि वो इतना जरुर जानते हैं कि अकादमिक दुनिया में इसके लिए स्पेस नहीं है( शुरु होने जा रहे हैं बहुत सारे बीए स्तर के पाठ्यक्रम, उसके बाद जेएनयू के अंदाज और चरित्र पर अलग से विश्लेषण दिलचस्प होगा) तो ये सब करना जोखिम नहीं बल्कि ब्रांडिंग और अवसर उगाही की प्रक्रिया है. सवाल बकवास लगे फिर भी, पिछले पांच सालों मे जेएनयू के लोगों का डीयू में तदर्थ औऱ अतिथि प्रवक्ता बनकर पढ़ाना बढ़ा है, यहां के चार साला पाठ्यक्रम से लेकर दुनियाभर की बातों को लेकर हंगामा मचा हुआ है, वो डाउन-डाउन करनेवाले हाथ कहां चले गए ? लेकिन नहीं, इस सवाल पर सोचेंगे कि जूते उसी डीयू से पढ़े लोगों पर पड़ेगी कि सब धीरे-धीरे सिस्टम के कल-पुर्जे बन गए.
प्रतिरोध की जो वैलिडिटी पीरियड होती है, उस आलोक में अपूर्वानंद के इस रुपक और वहां से निकलनेवाले छात्रों पर एक तुलनात्मक अध्ययन तो बनता है. उन कारणों पर भी अध्ययन जरुरी है कि आखिर क्यों जो काम, कम संख्या में ही सही योगेन्द्र जैसे लोग करते हैं, वो कोर्स खत्म होने पर भी धक्के खाते रह जाते हैं और क्यों जेएनयू के छात्र यूथ फॉर एक्टविटी में सक्रिय रहते हुए भी मार्क्सिज्म को उतना ही अधिकारपूर्ण ढंग से एन्ज्वॉय करता है..आपको लगेगा- ये रामप्यारी और मुसद्दीलाल के चाय बेचे जाने के बीच का फर्क है. एक अपने को सबसे घटिया,सबसे रद्दी चाय बोलकर अपनी ब्रांडिंग करता है और दूसरा पी लो बाबूजी- एक कप मारोगे तो पूरी दास कैपिटल पढ़ने तक की उर्जा बनी रहेगी. हम इस ब्रांड के सवाल के साथ ये बिल्कुल नहीं पूछने जा रहे कि ऐसी जमीन तैयार करने में कौन किस तरह लगा है और इस ब्रांड फेनोमेना में कैसे असल में रद्दी होकर भी वो जेएनयू हो जाता है ? आखिरी क्यों अमेरिका,इटली,इंग्लैंड जैसे देश के शासकों के दिन-रात कोसे जाने के बावजूद अरमानी,बर्साचे,रैडो को भारत में ही अपना बाजार,मुनाफा और भविष्य दिखाई देता है ? जेएनयू के लिए डीयू और देशभर के विश्वविद्यालय कहीं वही भारत की तरह तो नहीं ?
उम्र बढ़ने के साथ-साथ चश्मे की पावर प्वाइंट का घटते चले जाना, सुखद आश्चर्य के साथ ही भ्रम पैदा करती है. ऐसा लगता है कि दिन-रात टीवी औऱ लैप्पी स्क्रीन और अब टच स्क्रीन पर भी जो हम आंखें गड़ाए रखते हैं, उससे निकलनेवाली किरणें आंखों में जाकर विटामिन में तब्दील हो जाती हैं. जैसे मां जब आए दिन नसीहतें देने कि ठीक से खाना पीना, खाली पढ़ाई-लिखाय कम्पूटर नहीं है लैफ में, शरीर है त सबकुछ है, अभी आंख बचाके रखोगे,तब न बुढ़ापा में मेरी तरह पोता-पोती को हंसते-खेलते देख सकोगे अब थककर जैसे आशीषों में बदलती चली गई कि हे ठाकुरजी,इ बुतरु तो मेरी बात मानेगा नहीं, आंख का जोति रहने दीजिए इसका...और लगता है इधर दस-बारह दिन सिलिंडर न होने के चक्कर में मुसल्ली,ओट और सैलेड खाया न, उसने भी अपना असर दिखा दिया..:)
वैसे दिनभर के लिए चश्मे को दूकान पर छोड़कर, बिना चश्मे के बौखना एक अलग किस्म का अनुभव रहा. लगा शरीर का एक हिस्सा हम कहीं औऱ डिपोजिट कर आए हैं. अगर आप चश्मा पहनते हैं तो चश्मे के ढीले न होने पर भी आपकी आदम में शुमार हो जाती है, हाथ से उसे उपर करते रहने की. जैसे जो लड़की शार्ट टॉप या टीज पहनती है, उसकी आदत पड़ जाती है, समय-समय पर पीछे से खींचकर नीचे करने की..बिना चश्मे के एक अलग ही दुनिया हो जाती है. आप दुनिया देख नहीं रहे होते हैं, उसका अंदाजा लगा रहे होते हैं. सामने से आती लड़की में आपको एम की क्लासमेट, चैनल की कोलिग, कैंपस की जॉकिंग मेट दिखाई देने लगती है. वो दूर से शाहिद कपूर के लिए हाथ हिलाती है और आप आप बेवजह अपने लिए समझकर हाथ हिलाने लग जाता हैं. वो किसी और को प्लाइंग किस्स दे रही होती है और आप जमा करने के लिए अपनी टिफिन आगे कर देते हैं. अंदाज की ये दुनिया वाकई बहुत दिलचस्प लेकिन तकलीफदेह होती है. आपका अन्तर्मन में शरीर की एकइन्द्री के कम काम करने पर बाकियों पर बोझ बनने लग जाती है. दिमाग को ज्यादा चौकस रहना होता है. मेरे जैसा आदमी तो दिमाग की स्विच ऑफ करके खालिस भावना में बहने लग जाता है. कोई बात नहीं, रिम्मी नहीं थी तो क्या हुआ, लग तो वैसी ही रही थी न.
अच्छा, आपकी इस छोटी सी जिंदगी में उलाहने देनेवाले कुछ लोग हमेशा आपके आसपास होते हैं. आपको जिंदगी के आखिर तक नहीं पता चलेगा कि वो आपसे चाहते क्या हैं ? थोड़े दुबले हुए नहीं कि क्या जी, मेहनत ज्यादा पड़ रही है, थोड़ा गेन किया नहीं कि- अरे आप ही का ठाठ है, दू कलास पेलिए और सरकार का माल गटकिए. हमलोगों को तो 12 घंटे की घिसाई. ऐसे लोग चश्मा साथ न होने की स्थिति में आदतन दूर से हांक लगाते है जैसे आप अंडमान निकोबार में बैठकर मछली पकड़ रहे हों और दिल्ली में उनके होने से आवाज आप तक जा नहीं रही हो या फिर आप टंकी पर चढ़े हों और बसंती, वीरू और मौसी नीचे हो. आप फिर अतिरिक्त दिमाग को सक्रिय करते हैं और मैं फिर भावनात्मक होकर एक्स को एक्स समझने की कोशिश किए बगैर बाई की कल्पना करने के साथ ही उसके संदर्भों में खो जाता हूं. वो चिल्लाते हुए नजदीक आ जाता है और हमें होश नहीं रहता. अचानक नोटिस बोर्ड पिन की तरह चुभती उसकी बात आपको लगती है- हां, त बड़ा आदमी हो गए हैं तो काहे ल हम जैसे टटपूंजिया को चिन्हिएगा..भई बड़ा आदमी का तो लच्छन ही है देख के अनदेखा करना, आप कुछ गलत थोड़े ही कर रहे हैं.
हम और आप उन्हें ये समझाने की कोशिश करते हैं, बिना चश्मे के दूर की चीजें साफ नहीं दिखाई देती लेकिन वो फिल्म दोस्ताना टाइप की डायलॉग मारने से बाज नहीं आते- इतना भी किसी का आंख कमजोर नहीं होता कि वो चार साल साथ रहे हॉस्टलर को भूल जाए..अगर वो चश्मे के न होनेवाली मजबूरी को सुन भी ले तो दूसरी नोटिस बोर्ड पिन- हां त बुढ़ारी में देखे कि कैंपस में ढेरे तितली है, चश्मा लगाके घूमेंगे त शायद काम न बने, बिना चश्मा के रहेंगे त न आपको भी सब लौंड़ा-छौंड़ा टाइप का समझेगी. आप और हम ऐसे लोगों से कुछ भी बोलने की स्थिति में नहीं होते हैं. बस इस बात पर आकर टिक जाते हैं- यार, किसी इंसान का दिमाग इतना एक्ट्रा वर्जिन होता है कि आठ साल पहले जैसे बोला और सोचा करता था, आज भी वही का वही है.
ऐसे उलाहनाबाजों से पिंड छूटने के साथ ही चश्मे का पावर घटने की खुशी में हम आर्टस फैक के छोले-कुलचे खाने का जो मूड बनाया था, वो तो झंड़ हो जाती है लेकिन तभी कुछ अलग और इतना अलग होता है कि कुलचे को गोली मारकर सीधे हंसराज कॉलेज के सामने की राउलपिंडी के छोले-भटूरे की तरफ भागते हैं.
मामला कुछ इस तरह बनता है. ट्राउजर ऑल्टरेशन के लिए हम जिस शोरुम में जाते हैं, वो इतना गौर कर चुकी होती है कि मैं चश्मा लगाकर आया हूं और उसे ठीक-ठीक याद भी रह जाता है. अगली बार, एक घंटे बाद वो देखती है कि मेरे चेहरे पर चश्मा नहीं है. वो अपने को रोक नहीं पाती है और पूछ बैठती है- एक्सक्यूज मी सर, आपने अपनी स्पेक्टस कहीं छोड़ तो नहीं दी, आप एक घंटे पहले तो पहनकर आए थे. फर्ज कीजिए कि चश्मा पहनेवाला मैं न होकर कोई लड़की होती और टोकनेवाला शरुम की वो लड़की न होकर लड़का होता तो ? तो होता ये कि लड़की के मन में ये बात बैठ जाती कि इस शोरुम के लड़के चीप है, ताड़ते हैं. उसे क्या मतलब मेरी स्पेक्ट्स से..मैं पहनूं या फेंक दूं. अब नहीं आना है इस शोरुम में. लेकिन
लेकिन टोकनेवाली लड़की थी और जिसे टोका था वो लड़का..लिहाजा,मुझे बेहद अच्छा लगा. मुझे हंसराज के अपने साथी और टीचर इन्चार्ज राजेश की याद आ गयी. वो जब भी मीडिया और साहित्य पर कोई कार्यक्रम करते तो अपने प्रिसिंपल के लिए एक लाइन जरुर बोलते- प्रिसिंपल सर अक्सर वीऑन्ड द लिमिट और एक्सपेक्टेशन जाकर मेरी मदद करते हैं. उस शोरुम की लड़की के लिए मन ही मन मैंने वो लाइन दुहरा दी और बहुत प्यार से थैंक्स कहा..फिर मन न माना तो पूछ ही लिया- आप कस्टमर को इतना गौर से देखती हो कि किसका चश्मा छूट गया ? बिल्कुल सर, आप मेरे लॉएल कस्टमर हो, अभी तो मार्केट में हो, याद कर सकते हो कहां छूटी है. घर जाने पर परेशान होते, आना पड़ता.
हां, ये बात तो है. थैंक्स अगेन फॉर द कन्सर्न वट मैं अपना चश्मा कहीं भूला नहीं हूं, ग्लास बदलने दिया है.
अबकी बार न उसकी तरफ से कोई शब्द थे और न ही मेरी तरफ से..बस भीतर ही भीतर कुछ घुल रहा था- हर चौराहे पर हमें केयरिंग इतना प्यारा क्यों लगता है ?
मूलत: प्रकाशित- जनसत्ता; 14 जून 2013
इसमे
दो राय नहीं है कि दिल्ली सरकार ने तिपहिया वाहन पर किसी भी तरह के पोस्टर नहीं
लगाने और "कलर कोड" जारी करने की जो बात उठाई है,
वह राजनीति से प्रेरित और आम आदमी पार्टी
के प्रचार अभियान को हतोत्साहित करने के लिए है. वरना दिल्ली सरकार के नुमाइंदों
को बेहतर पता है कि तिपहिया के अलावा सड़क, संस्थान और सार्वजनिक
स्थलों की जानकारी देनेवाले सरकारी बोर्ड और सूचना पट्ट भी किस तरह पोस्टरों से रंग
दिए जाते हैं. कभी विश्वविद्यालय और कॉलेज परिसरों के
आसपास मेट्रो और सार्वजनिक स्थलों की बोर्ड को लेकर मुआयना करें तो अंदाजा लगाया
जाएगा कि कैसे नियमों की सरेआम धज्जियां उड़ाकर सरकारी पार्टी के लोग पोस्टर
चिपकाने का काम करते हैं.
किसी भी शहर में अलग-अलग सूचनाओं के लिए जो होर्डिंग और "कीऑस्क" लगाए जाते हैं वे महज सूचना का हिस्सा नहीं होते. उसकी अपनी एक स्वतंत्र पहचान, संस्कृति और भाषा होती है. इन पर मनमाने ढंग से पोस्टरों के चिपकाए जाने से न केवल लक्ष्य सूचनाएं बाधित होती है, बल्कि देखकर ही एक अराजक संस्कृति के पसरने का बोध होता है. उत्तरी दिल्ली के मुकर्जीनगर इलाके में प्रशासनिक सेवाओं के कोचिंग संस्थानों के बड़े-छोटे पोस्टरों के अलावे कहीं कुछ आसानी से दिखाई ही नहीं देते. जिनके अपने मकान है, उसके लिए उन्हें पैसे मिलते होंगे और जो नगरपालिका के होर्डिंगों की जगहें हैं, उसके लिए भी शायद पैसे चुकाने होते होंगे. टेलीफोन से लेकर बिजले के खंभे; सार्वजनिक बोर्ड और इमारतों पर जो पोस्टर और बैनर लगाए जाते हैं; सार्वजनिक शौचालय की दीवार बाहर से दिखाई नहीं देती, उस पर सरकार ने कब कार्रवाई की है ? ये कोचिंग संस्थान देश के आइएस-आइपीएस पैदा करने के दावे करते हैं और देखिए कि कैसी अराजकता और सूचना के स्तर पर अपने संस्थान के आगे दहशत फैलाने का काम करते हैं.
दिल्ली
विश्वविद्यालय में चुनाव और दाखिले के समय पोस्टर चिपकाने की ये हरकतें इस हद तक
बेहूदी हो जाती है कि दीवार की एक इंच जगह भी कोरी दिखाई नहीं देती और न ही सड़क
का रंग काला दिखाई देता है. बदहवाश सा एक ही उम्मीदवार के एक ही जगह सैंकड़ों
पोस्टर चिपका दिए जाते. लिहाजा तीन-चार साल पहले विश्वविद्यालय प्रशासन
ने "डेमोक्रेसी वॉल" नाम से परिसर की दीवारें निर्धारित की और निर्देश
दिया कि इसके अलावे कहीं और पोस्टर नहीं लगने चाहिए. लेकिन कुछ समय बाद सब पहले
जैसा. कमोवेश
यही हाल पूरे शहर का है.
हर
संस्थान, विभाग, सार्वजिनक
स्थलों को बताने-समझाने के लिए उनके खास रंग के बोर्ड और सूचना पट्ट रहे हैं. मसलन
दिल्ली में ब्लू और लाल साथ देख कर ही आप दिल्ली पुलिस की बोर्ड का अंदाजा लगा
लेते हैं, हरे-पीले
से सीएनजी का बोध होता है. सिर्फ हरे और सफेद से वन
विभाग का. लेकिन अब ये रंग अपने खास संदर्भ और अर्थ खो
दे रहे हैं. तिपहिए वाहन पर "आप" के पोस्टर की छोड़िए, दिल्ली पुलिस के वाहनों पर एयरटेल के विज्ञापन चिपके हैं. कई बार बसों पर
बड़े विज्ञापन बोर्ड लगे होते हैं या फिर विज्ञापनों से एक तरह से ढंकी होती है.
रिहायशी कॉलोनियों के बोर्ड पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों से लेकर उन सारे ब्रांडों के
होर्डिंग लगे होते हैं, जिनमें कॉलोनी के नाम इतने छोटे होते
हैं कि पढ़ने में न केवल मुश्किल होती है बल्कि इन ब्रांड "सिग्नेचर
कलर" के आगे खो जाते हैं.
हर
शहर की एक पहचान होती है, जो उसके साइनबोर्ड से लेकर सूचनापट्ट आदि से भी
प्रेषित होती है. इस तरह के पोस्टर और होर्डिंग उस शहर की इस पहचान को बाधित करते
हैं. देश के किसी भी हिस्से में कुछ लोग रंगों के आधार पर संस्थानों के बोर्ड, संकेतों को पहचानते हैं, क्योंकि वे पढ़ नहीं सकते.
अगर सभी बोर्ड में वोडाफोन या एयरटेल के लाल, बैकों के ब्लू, लाल, सफेद और रियल इस्टेट के सीमेंट-हरे रंग के होंगे तो वे रंगों के आधार पर
पहचान पाने में अक्षम हो जाएंगे.
सरकार
अगर आम आदमी पार्टी के बहाने इन सब बारीकियों को ध्यान में रखते हुए कोई ठोस कदम
उठाने जा रही है और उसके पास स्पष्ट रणनीति है कि शहर में बैनर और पोस्टरों के
लगाए जाने को लेकर क्या तरीके और प्रावधान हों, तो
इसका स्वागत किया जाना चाहिए. ऐसे में आम आदमी पार्टी को भी ऑटो के पीछे पोस्टर
चिपकाने से बाज आना चाहिए, वहीं थोड़ी-सी वह जगह होती है,
जहां पारदर्शी प्लास्टिक लगा होता है और पीछे चल रहा व्यक्ति
भी यह देख सकता है कि ऑटो में बैठी सवारी के साथ कुछ गलत तो नहीं हो रहा. यह
सुरक्षा की दृष्टि से भी जरुरी है. आम आदमी पार्टी को सरोकारों के दावे के बीच इस
पर भी विचार
करने की जरुरत है. दूसरी ओर, दिल्ली
सरकार को उन पोस्टरों पर भी गौर करना चाहिए जो शर्तियां ईलाज से लेकर मर्दांनगी
बढ़ाने, यौवन लौटाने और जोश बढ़ाने के झूठे दावे करते
नजर आते हैं.
तस्वीर
1 साभार- द इंडियन एक्सप्रेस
इस खालीपन में झाड़ियों का उगना अच्छा है स्तब्ध( लप्रेक)
Posted On 11:50 pm by विनीत कुमार | 1 comments
जानती हो, जब मैं इस दिल्ली शहर की एक-एक इंच पर लोगों को अरमानों के दड़बे बनाते, उसके लिए मरते-भागते देखता हूं तो सोचता हूं शहर के लिए जिस स्पेस की उम्मीद हम करते हैं, वो खालीपन बनकर मेरे भीतर घुस गया है, इतना खालीपन की वो जैसे कब्रिस्तान बनकर पसर रहा हो धीरे-धीरे मेरे भीतर.
तुम ऐसा क्यों कहते हो स्तब्ध ? क्या तुम मुझसे खुश नहीं हो, अपनी जिंदगी से नहीं, उस सिली से नहीं जो दिन-रात तुम्हें खोजती रहती है ? तुम्हारे ऑफिस जाने पर जैसे वो आधी सी हो जाती है ? स्तब्ध जब भी तुम ऐसे बात करते हो न, मैं भीतर से डर जाती हूं. मुझे लगता है कहीं मैं ही..
रिक्तिका, प्लीज ! कुछ तो रहने दो मेरे भीतर भी यकीन कि मैं जो और जैसा महसूस करुं, तुम्हें एक दोस्त की हैसियत से बता सकूं ? कहां तो तुम दि हिन्दू, एक्सप्रेस के एक-एक लेख पर घंटों बहस करने लग जाती हो और अंत-अंत तक अपने को सही साबित करने में लगी रहती हो और कहां जब मैं जैसा फील करता हूं, वैसा ही तुमसे शेयर करना चाहता हूं तो टिपिकल सीरियलवाली पत्नियों की तरह शुरु हो जाती हो ? मैं रामकपूर नहीं हूं रिक्तिका. मैं स्तब्ध हूं स्तब्ध. तुम्हारा वो स्तब्ध जो तुमसे जितना लड़ता है, तुम्हें उस पर उतना ही क्रश होता है...एंड लिसन, तुम भी रिक्तिका हो, मैं नहीं चाहता कि पांच औंस भी तुम्हारे भीतर प्रिया भाभी का आ जाए. मैं तो बस इस सवाल पर तुमसे डिस्कस करना चाहता था कि असल में हम अपनी जिंदगी से चाहते क्या हैं ?
देखो न, जब हमारे साथ के लोग मनकंट्रोल डॉट कॉम क्लिक करते हैं तो हम सैन सेरिफ में आंखें गड़ाए होते हैं. जब लोग छुट्टियों के लिए माइट्रिप की बेस्ट डील टटोल रहे होते हैं तो हम फ्लिपकार्ट पर बेस्टसेलर की बढ़ी छूट की संभावना देख रहे होते हैं. वीकएंड में लोग पीवीआर,वेब के लिए मार करते हैं तो हम आलमारी से झाड़कर फिर एल्विन टॉफ्लर पढ़ने लग जाते हैं. स्टेक्स और प्रोपर्टी पर बात करनेवाले अपने कोलिग को कीड़ा करार देते हैं. सबकी पत्नियां मासी,बूआ,जीजा,ताई पता नहीं किस-किसके यहां शादी,पार्टी में जाकर रिश्तेदारी भंजाते हैं तो हमें अपना ये छोटा सा किराये का घर ही सबसे खूबसूरत लगता है. लोगों के बच्चे पैदा होते नहीं, डॉक्टर ने बस एक्सपेक्टेड बताया नहीं कि चिल्ड्रेन प्लान के पीछे पड़ जाते हैं और सिली चार साल की हो गी, चार हजार की भी फ्यूचर प्लान नहीं. हम अपनी बहसों में अक्सर कहा करते हैं कि ये सब जुटा लेने से भी थोड़े ही लोगों को शांति मिल सकती है पर देखता हूं कि उनके भीतर हमारी तरह कम से कम खालीपन तो नहीं है न. मुझे तो लगता कि हम कहीं अलग जीने की कोशिश में पाखंड़ तो नहीं कर रहे ?
बस स्तब्ध,बस . तुम्हें नहीं लग रहा कि अब तुम भी उसी टिपिकल पति और बाप की तरह बात कर रहे हो जिसे तुम अक्चर ब्लैक टी पीते हुए कोसते आए हो. कहां तो तुम खालीपन पर बात कर रहे थे और अपने भीतर इतना कुछ भरकर जीते हो ? तुमने बल्कि हमदोनों ने इसलिए न ऐसी जिंदगी चुनी कि सामने दिखाई देनेवाली चीजों के मुकाबले कई बड़ी चीजें हमारे भीतर रह जाए. हम कम से कम दूसरों की शर्तों पर जिएं. ये जिंदगी किसी की किस्त बनकर न रह जाए..फिर इसे लेकर इतना क्षोभ क्यों ? नहीं स्तब्ध, तुम्हें अपने ये सब बिल्कुल भी नहीं भरना है. इसके भरने से लाख गुना अच्छा है तुम्हारे भीतर कब्रिस्तान का खालीपन. उसके भीतर झाड़ियां उगेगी तो कम से कम क्रिटिकल तो बने रहोगे न, अपने भीतर समतल जमीन न पनपने तो स्तब्ध. तुम इस खालीपन के साथ ही मुझे प्यारे और हॉट :) लगते हो. जिस दिन तुम्हारे भीतर ये सब भरता गया, तुम भीतर से बहुत तंग हो जाओगे..बस ध्यान रखना, तुम्हारे इस खालीपन में कोई और आकर प्लॉट न काट ले.
टेलीविजन पर जिया खान की आत्महत्या पर खबरों और पैनल डिस्कशन की ओवर सप्लाय देखकर मुझे अफने एम ए के शिक्षक प्रो. नित्यानंद तिवारी की बात बार-बार याद आ रही है. भक्तिकाल औऱ अज्ञेय का इनसे बेहतर शिक्षक मुझे कभी नहीं मिले. पद्मावत पढ़ाते हुए नागमति के विरह वर्णन जिसमे कि राजा रत्नसेन सिंघलद्वीप की राजकुमारी पद्मावत के लिए नागमति को छोड़कर चला जाता है, वे कहते- जिंदगी हर हाल में जिया जा सकता है..इसी बात को वो मैला आंचल पर लिखते हुए दूसरे ढंग से कहा है- किसी का मरना सार्थक होता है और किसी की जीना. भगतसिंह मरकर सार्थक हुए और गांधी जीवित रहकर. असल चीज है जीवन की सार्थकता. मुझ जैसे मीडिया और पॉपुलर कल्चर के छात्र के लिए सार्थकता अक्सर गले में अटकती रही है लेकिन उनकी ये बात अक्सर याद आती है.
अब देखिए न, जिया खान ने चाहे जिस भी मजबूरी में आत्महत्या की हो लेकिन नित्यानंद सर का ये कथन इस सवाल की तरह ले तो जाता ही है न कि क्या किसी भी हाल में जिया नहीं जा सकता था. तमाम सहानुभूति के बीच कानून इसकी व्याख्या अपराध के रुप में करेगा लेकिन न्यूज चैनल ने इस अपराध से काटकर इसे न केवल हायपर इमोशनल मामला बना दिया है बल्कि सीधे-सीधे बॉलीवुड पर भी सवाल खड़े किए हैं. यहां परिस्थितियां ऐसी है कि कोई भी कभी भी आत्महत्या कर ले. मेरे ख्याल से तब तो अनुराग कश्यप जैसे लोगों को ये काम बहुत पहले कर लेना चाहिए था. मुझे जिया खान क्या किसी के भी मौत का अफसोस होता है, दिमाग पर असर भी होता है लेकिन इस खबर की रुख इस तरह भी क्या कर देना कि आत्महत्या एक एडवेंचरस और ग्लैमरस इवेंट लगने लगे.
जिया खान जैसी लाखों लड़कियां है जिनके ब्रेक अप होते हैं, जिनका ब्ऑयफ्रैंड डिच करता है, इन्डस्ट्री में काम क्या, मुफ्त में मीडिया,मेडीकल और कार्पोरेट में इन्टर्नशिप तक करने को नहीं मिलती. आप चले जाइए नोएडा फिल्म सिटी. किसी भी न्यूज एंकर, प्रोड्यूसर की जिंदगी को करीब से देखिएगा तो आपको लगेगा इनकी जिंदगी में फ्रस्ट्रेशन के अलावे कुछ बचा ही नहीं है. नौकरी तो छोड़िए, लाखों लड़कियां सिर्फ पढ़ना चाहती है, उसकी हसरत जींस पहनने की है, वो पड़ोस के लड़के से बात करना चाहती है लेकिन सब पर पाबंदी है. इस देश में करोड़ों लड़कियों के एकमुश्त आत्महत्या करने के सहज बहाने उपलब्ध हैं, खोजने नहीं पड़ेंगे. लेकिन वो जी रही हैं..लड़ रही हैं, जद्दोजहद कर रही हैं क्योंकि जिंदगी के आगे कुछ भी ऐसा नहीं है कि जिसके लिए इसे खत्म कर दिया जाए.
चैनलों को लग रहा है कि ऐसा करके वो एक मानवीय पहलू पर बात कर रहे हैं लेकिन यकीन मानिए ये न सिर्फ तमाशा का हिस्सा है बल्कि एनबीए,बीइए( जिन पर कभी यकीन ही नहीं होता फिर भी) और आइबी मिनस्ट्री की मीडिया मॉनिटरिंग सेल गौर करे तो किसी के आत्महत्या की खबर को इस तरह दिखाना किसी भी एंगिल से सही नहीं ठहराया जाएगा. मुझे हैरानी हो रही है- स्क्रीन पर महिला वक्ताओं की कतार लगी है लेकिन कोई भी इस एंगिल से बात नहीं कर रहीं कि आप जिया खान की आत्महत्या के बहाने जो मेल चाउज्म परोस रहे हो,ये गलत है. इस दुनिया से गुजर चुकी एक अदकारा को आप इस मसाले के साथ पेश कर रहे हो ये स्त्री के खिलाफ जाकर चीजों को पेश करना है, लेकिन नहीं..कुछ भी नहीं.
जिया खान अगर ग्लैमर की दुनिया से न होकर राजनीति से होती तो अब तक शहीद करार दे दी जाती और देश के किसी हिस्से में उसके नाम पर सड़क,चौक या पार्क बनाने या नाम बदलने की घोषणा हो जाती. लेकिन जिया खान क्या कोई भी शख्स जब आत्महत्या करता है तो तमाम मानवीय पहलुओं और संवेदना के छूते जाने के बावजूद अपराध का हिस्सा होता है. ऐसा करते हुए कोई बच जाए तो जो सजा,जिल्लत और जलालत झेलनी पड़ती है वो मौत से भी बदतर हो सकती है. चैनलों को चाहिए कि वो इसे ग्लैमराइज करने के बजाय आत्महत्या,उसकी कोशिशें कितनी तकलीफदेह है इस पर बात करे. कानूनी प्रावधानों को शामिल करे औऱ बताए कि ऐसा करना कितना बड़ा अपराध है न कि उसकी फिल्मों की फुटेज काट-काटकर अपराध की इस घटना को सास-बहू और साजिश जैसी पैकेज बनाए. अभी टीवी पर इसे लेकर जिस तरह की खबरें चल रही है वो दर्शकों में फैंटेसी पैदा करती है, वो भाव नहीं कि जिंदगी कितनी खूबसूरत चीज है और इस 25 साल की लड़की ने अपने आत्मविश्वास की कमी के पीछे कैसे दो मिनट में खत्म कर लिया.
तुम्हें मुझसे शादी नहीं करनी चाहिए थी सौन्दर्य( लप्रेक)
Posted On 9:15 pm by विनीत कुमार | 4 comments
सौन्दर्य, ये लो तुम्हारी कॉल. किसका फोन है केतकी ? नाम और फोटो स्क्रीन पर डिस्प्ले हो रहा है, देख लो..वो तो पता है बट लैंडलाइन की आदत अभी गयी नहीं है, ही ही ही ही..
हां, डियर. कैसे हो ? और क्या सब चल रहा है, सब मजे में न ? पागल हो गई है क्या तू ? कैसे भूल जाउंगा अपनी जान को ? तुम इस तरह पैनिक होती हो तो मैं परेशान हो जाता हूं. खैर छोड़, कैसी चल रही है तेरी यूपीएसी की तैयारी ?..अरे बस कहने को है शादी,शादी.ऐसे ही है. मुझे तो अभी भी लगता है कि तेरे साथ मैं ज्यादा खुश था. तुझे कहा तो था कि छोड़ ये सिविल-विवल. कर ले शादी. तू मानी ही नहीं. अच्छा सुन, केतकी ने खाना निकाल दिया है. मैं तेरे को डिनर के बाद कॉल करता हूं. तू सो तो नहीं जा रही है न ? हां-हां, तू तो देर रात जगनेवाली बंदी है. चल फिर, करता हूं डिनर बाद.
क्या हुआ केतकी,तुमने इस तरह मुंह क्यों बना लिया ? फोन करती है तो क्या..मेरा मतलब है मना कर दूं कि मत किया कर..यहां केतकी उबले अंडे बनकर मेरे सामने होती है. छोड़ न जान, चल डिनर करते हैं.
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केतु,कुछ तो बोल न यार. मैं ही तब से बक-बक किए जा रहा हूं.
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सौन्दर्य, तुम्हें मुझसे शादी नहीं करनी चाहिए थी. तुम अपनी लाइफ में खुश थे, मैंने आकर सब खराब कर दिया. तुम्हारी आजादी छीन ली. कल को उसके यूपीएसी क्वालिफाइ करने पर तुम्हें लगेगा कि मैं तुम्हारी जिंदगी में नहीं आती तो तुम भी आइएस,आइपीएस होते.
धत्त, पागल. मुझे डिस्टिक्ट का मजिस्ट्रेट थोड़े ही बनना है, मुझे तो अपनी रानी का चपरासी बनना है,बोले तो पीउउउन.
सौन्दर्य के ओठों को सिकोड़कर हाथ अभी केतकी के कंधे की तरफ बढ़ाए ही थे कि उसने बुरी तरह झिड़क दिया. मुझे नहीं करना डिनर और डिनर के बाद क्यों, अभी ही कर लो न जी भर के बातें. मैं कौन सा मरी जा रही हूं..गाड़ी उठाओ और जाओ उसके पास दाल-भात और चोखा खाने. क्या कहते हो- तेरे हाथों में अमृत बसता है जान. कितने घटिया इंसान हो तुम..मैं भाग-भागकर ऑफिस से आती हूं कि कहीं सौन्दर्य पहले ऑफिस से आ गया होता अकेले चाय पीते वक्त मुझे मिस्स करेगा और तुम या तो वही सड़ी सी सब्जी-दाल-भात खाकर सीधे दस बजे पहुंचते हो या फिर उसी से फोन पर चिपके होते हो. तुम जैसे लड़के शादी के लिए बने ही नहीं हो यार,तुम नहीं समझ सकते एक लड़की की फीलिग्स क्या होती है ? और वो..उसे एक पैसे की पानी है आंख में कि जब शादी हो गई है तो शाम को क्यों टांग फंसाने जाएं किसी की गृहस्थी में ?
बस केतकी बस. हो गया. मैंने तुम्हारी राम कहानी सुनने के लिए उसे डिनर के बाद फोन करने नहीं कहा था. अच्छा था कि पहले बात कर ही लेता. तुम इतनी सिनिकल क्यों हो जाती हो उसे लेकर यार ? अगर वो फोन करती है, मेरा मतलब है दिनभर पढ़ने के बाद एक मैं ही तो हूं जिससे कि वो सब शेयर कर पाती है, मुकर्जीनगर के जंगले में और किससे बात करेगी वो ?
देखो सौन्दर्य ! मुझे नहीं पता कि तुम कितने सालों से दुनिया को चूतिया बना रहे हो, पर मेरे सामने ठीक सेन्टेंस का इस्तेमाल करो. करती है, खाती है, पढ़ती है बोलते हो तो मेरा जी जलता है. बंद करो ये बकवास...
केतकी आखिर दिक्कत क्या है तुम्हें ? तुमने कभी उसे नजदीक से समझने की कोशिश की है ? एक बार करो, तुम्हें मेरे बाद वो तुम्हें अपने सबसे करीब और सच्चा दोस्त लगेगा. जानती हो, जब हमदोनों लिव इन में, सॉरी मेरा मतलब है रुमी थे और उसे पता चला कि मेरी शादी लगभग तय हो गयी है और लड़की का नाम केतकी है तो उसने एक शाम इमोशनल होकर कहा था- यार, अपनी शाम तो तुम छिनकर ले चले जाओगे पर मैं खुश हूं. ये बताओ, तुम केतकी को क्या कहोगे- केतु, केकी,केत, कतकी या फिर वही सीरियल के रेडीमेड संबोधन- जान,डियर, जानू,वेबी..और फोन कॉल आने पर जब तू मेट्रो में फंसा होगा- हां, हैलो..हां बोल मेरी टम्बकटू, अरे चुड़ैल तुझे किसने छेड़ दिया, तू तो निगल जाती है लोगों को, जैसे मुझे निगल जाती है रात को ?
बोल न सौन्दर्य क्या बोलेगा ?
जानती हो केतकी- जब वो ये घर छोड़कर जा रही था न, एक-एक सामान को काटर्न में डालती और फिर निकालकर रख देती- रहने देते हैं यार, केतकी तुरंत-तुरंत शादी करके आएगी तो झाडू खरीदेगी, पहली ही सुबह उठेगी तो क्या डस्टबिन खरीदेगी ? ये नॉनस्टिक रहने देती हूं..वो अपने मायका से लेकर आएगी लेकिन तू वो सब निकालने मत देना, अपनी फ्लैट में शिफ्ट होना तब निकालने कहा उसे नई चीजें. मैं तो घर में बस रहने लग गया था. किचन की सारी चीजें, ट्वायलेट का सबकुछ और यहां तक कि दीवारों की खूंटियां सब उसने अपनी पसंद से खरीदकर लगायी थी और तुम्हारे आने के तीन दिन पहले सब छोड़ गई. वो तुमसे कभी मिली नहीं. यूपीएससी मेन्स के चक्कर में शादी में आ नहीं सकी और इन्टरव्यू की ट्रामा से निकल नहीं पायी..अब कहती है- फाइनल होने पर ही केतकी को मुंह दिखाउंगी..और एक बात कहूं केतकी. मेरी पहनायी जिस रिंग को तुमने चूमते हुए कहा था- कितनी प्यारी पसंद है आपकी सौन्दर्य, वो भी उसी की पसंद थी. रिंग क्या, मैं जिस दड़बे में और जैसे रहता था,देखती तो शादी क्या, दो घंटे भी साथ नहीं बिता पाती.
वो मेरे बिना दिल्ली में कभी रही नहीं..उसे अकेले कभी नींद आती नहीं. वो इतनी इन्ट्रोवर्ट है कि किसी से बात नहीं करती.ऐसे में अगर वो मुझे रोज शाम फोन करके बात करती है तो इसमें कौन सा पहाड़ टूट जाता है?
सिर्फ बात, सिर्फ बात सौन्दर्य ? जिसे इस बात कि बेसिक समझ नहीं है कि हसबैंड-वाइफ शाम को थककर जब घर आते हैं,ठीक उसी वक्त फोन करना किसी भी एंगिल से समझ नहीं है, उसे मैं कैसे मान लूं कि उसे लोगों की भावनाओं की समझ है और रिश्तों को निभाना आता है ?
वो हमारी-तुम्हारी तरह प्रैक्टिकल नहीं है केतु, वो हायपर इमोशनल है. वो बस इतना जानती है कि उसे सौन्दर्य से रोज शाम दिनभर की बातें शेयर कर देनी है बस..केतकी जहां उसके रोज के फोन आने को आज आर या पार की लड़ाई बनाने पर आमादा थी, वहीं आज सौन्दर्य ने ही मन ही मन ठान लिया था कि अनुस्वार के साथ बिताए वो पांच साल की वो सारी नाजुक घटनाओं और संदर्भों का जिक्र करे जो उसे करीब से समझने में मदद करे..पर ये सब कहते हुए भी वो उसके लिए स्त्रीलिंग के बजाय पुल्लिंग क्रियाओं का इस्तेमाल नहीं कर पा रहा था जिसे उसने महज मजाक-मजाक में आज से पांच साल पहले शुरु किया था..खासकर मेट्रो से गुजरते हुए एम्प्रेशन झाड़ने के लिए कि वो इस दिल्ली शहर में गर्लफ्रैंड विहीन नहीं है.