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डिस्‍क्‍लेमर : संस्मरण के तौर पर मोहल्ला लाइव के दो साल पूरे होने पर जो लिख रहा हूं, उसके पीछे मोहल्ला या अविनाश की कोई प्रशस्तिगाथा या उसके बहाने अपने को चमकाने की नीयत नहीं है। ध्येय है तो बस इतना कि कुकुरमुत्ते की तरह हर दस मिनट में मौज में आकर ब्लॉग बनने और फिर कुछ ही दिनों बाद उत्साह खत्म हो जाने की स्थिति में उसके मर जाने के बीच कैसे मोहल्ला ने अपनी एक अलग पहचान बनायी, सैकड़ों लोगों को ब्लॉग लेखन की तरफ प्रेरित किया और लोगों ने इसके जरिये ब्लॉग को जाना, इसे रेखांकित करना है। मेरी जगह कोई दूसरा चाहे तो वो मोहल्ला को लेकर तटस्थ इतिहास जरूर लिखे लेकिन मैंने लेखन की दुनिया में इसके जरिये अपने को लगातार सक्रिय किया है तो माफ कीजिएगा, भावुकता को त्यागकर मैं इसके बारे में नहीं लिख सकता इसलिए मोहल्ला के बारे में मेरे लिए लिखना संस्मरण का हिस्सा होगा, इतिहास का नहीं। आपको पूरी छूट है कि आप मेरी भावना के बीच तर्कों की चिमनी लगाकर इसके पक्षों की ठोक-पीट करें लेकिन इस तर्क पर मैं आगे भी लिखूंगा कि भावुकता पर अधिकार सिर्फ कवियों का नहीं है, एक ब्लॉगर भी यदा-कदा भावुक हो सकता है : विनीत कुमार
मोहल्ला लाइव को मैं थोड़ा फ्लैशबैक में ले जाकर देखना चाहता हूं, जिससे कि मुझे अपने अनुभव और भावनात्मक लगाव के बारे में कहने का दायरा बढ़ सके। सच पूछिए तो उस फ्लैशबैक के बिना मोहल्ला लाइव को मैं याद ही नहीं रख सकता और न मेरे से याद किया जा सकेगा।
साल 2006-07 के कथादेश सम्मान में मेरे बचपन के साथी और अब युवा आलोचक राहुल (कार्यालयी नाम राहुल सिंह है) ने मंडी हाउस में मेरा परिचय अविनाश से कराया। अविनाश तब एनडीटीवी में थे। राहुल ने मेरे बारे में उन्हें जो कुछ भी बताया, उसके पीछे उसकी सदिच्छा इतनी भर थी कि अविनाश के लिए अगर संभव हो सके, तो वो मेरे लिए कहीं इंटर्नशिप के बारे में बात करें, कुछ सहयोग करें। अविनाश के लिए मैं कोई पहला मीडिया न्यूकमर नहीं था, जिसे लेकर वो बहुत सीरियस होते और वैसे भी मीडिया के भीतर का ढांचा इतना बदल चुका है कि चैनल के जिन चेहरों को हम तोप समझते हैं, उनके लिए अपनी नौकरी भी बचाये रखनी बहुत बड़ी बात है। और वैसे भी पढ़ने-लिखने और अलग तरीके से सोचनेवाले लोग इस तरह की बातों पर कम ही ध्यान देते हैं। खैर, अविनाश ने तब मुझसे सिर्फ इतना ही कहा – मोहल्ला देखिएगा कभी मौका मिले तो।
मुझे अपनी कोशिश पर इंटर्नशिप मिल गयी थी और थोड़े समय की धक्का-मुक्की, फटेहाली के बाद मामूली ही सही नौकरी भी। मीडिया में एक तरह से रमने लगा था कि यूजीसी जेआरएफ परीक्षा में पास हो गया और उसी दिन ये साफ हो गया कि पांच साल तक दिल्ली में रहने-खाने और अपने मन की लिखने की कोई समस्या नहीं होने जा रही है। चैनल की नौकरी छोड़ने में हमने बहुत वक्त नहीं लिया। लेकिन जिस दिन चैनल की नौकरी छोड़ी थी, उसकी अगली सुबह पांच बजे उठते हुए बहुत अजीब महसूस कर रहा था। एक खास किस्म का खालीपन और बेरोजगारी भी। जब तक सारी चीजें प्रोसेस नहीं होती, पैसे मिलने की निश्चिंतता के बावजूद एक किस्म का निकम्मापन तो था ही। मैंने ठीक उसी सुबह मोहल्ला को पहली बार खोला था। उत्साह में उस पर दिनभर समय दिया और अगली सुबह तय किया कि मुझे भी अपना ब्लॉग बनाना चाहिए। मन में एक हुलस थी कि मोहल्ला पर मेरा भी कुछ लिखा आये लेकिन तब वहां इतने बड़े-बड़े दिग्गजों के नाम होते थे कि ऐसा सोचना अश्लील होता।
चैनल की नौकरी ने अपनी औकात को बहुत कमतर करके देखने की आदत डाल दी थी, नहीं तो हिंदू कॉलेज से एम ए और डीयू से एम फिल किया कोई शख्स इतनी समझ और हौसला तो रखता ही है कि वो खुलकर एक बेहतर मंच पर अपनी बात रख सके। बहरहाल, अगली सुबह हमने अपना ब्लॉग बनाया। अविनाश से हम जैसे लोगों का संपर्क करने का बस एक ही जरिया था – मोहल्ला की वॉल पर राइट हैंड साइड में ब्लू रंग का एक चैट बॉक्स हुआ करता था। अविनाश से हम जैसे न्यूकमर को बात करनी होती थी, तो वहां वो अपना मोबाइल नंबर या मेल आइडी छोड़ देते और बाद में अविनाश फोन या मेल से या तो उनसे संपर्क करते या फिर वहीं बक्से में जवाब देते। हंसिएगा मत प्लीज, जब पहली बार बतौर मोहल्ला के मॉडरेटर अविनाश ने उस चैट बॉक्स पर जवाब देते हुए लिखा था कि आप अपना नंबर दीजिए तो यकीन मानिए मैं घंटों नशे में झूमता रहा। मैंने बाद में बात की और कहा कि मैंने भी अपना ब्लॉग बनाया है और चाहता हूं कि हिंदी समाज के भीतर की सडांध को सामने लाऊं। अविनाश को मेरी ये बात जज्बाती लगी होगी और मुझे हिंदी विभाग का जानकर राय दी कि सड़ांध क्या, आप कुछ क्षणिकाएं ही लिखिए तो हिंदी समाज को कुछ आनंद मिल सके। मुझे तब थोड़ा बुरा भी लगा था लेकिन इस देश में एक औसत हिंदी के विद्यार्थी की इससे अलग छवि नहीं है। …तो भी मैं अपने ब्लॉग पर लगातार लिखता रहा और अविनाश उन्हें शायद कभी-कभार पढ़ते रहे होंगे।
मोहल्ला को लेकर क्रेज उसमें छपी सामग्री को लेकर तो था ही, हम जैसे लोगों के बीच एक और भी उत्‍साह था कि किसके ब्लॉग का लिंक मोहल्ला पर लगा है। ऐसा करके मोहल्ला हिंदी के बेहतरीन ब्लॉग की सूची तो बना ही रहा था, पाठकों को एकमुश्त मतलब के जरूरी ब्लॉगों से परिचय करा ही रहा था, लेकिन इससे भी ज्यादा कि वो अपनी तरफ से एक तरह की मान्यता प्रदान कर रहा था कि हजारों ब्लॉगों के बीच कौन-कौन से ब्लॉग हैं, जिसे कि पढ़ा जाना चाहिए? तभी जब मोहल्ला पर मेरे ब्लॉग का लिंक अविनाश ने लगाया तो भीतर एक अलग किस्म का आत्मविश्वास और लेखक के करीब कुछ हो जाने का गुरूर पैदा हुआ। ये गुरूर किसी अखबार में छपने से रत्तीभर भी कम नहीं बल्कि ज्यादा ही था। दिमागी रूप से हम आश्वस्त हो चले थे कि हम ठीक-ठाक लिखने लगे हैं। ऐसा इसलिए कि चैनलों में कॉपी लिखते वक्त अच्छा-खराब का पैमाना बहुत ही पॉलिटिकल और स्टीरियोटाइप का होता। जिस कॉपी को एक शख्स सही कहता, वही दूसरे को कूड़ा लगता और एक खास किस्म की कुंठा अपने लिखे को लेकर पनपने लगी थी। ब्लॉग पर आकर उस कुंठा ने अपने को एक संभावना के तौर पर विकसित किया। मोहल्ला पर जाकर आज भी देखें तो जो लिंक लगे हैं, वो अपने दौर के महत्वपूर्ण ब्लॉग हैं, जिनमें से कई सक्रिय भी हैं।
कुछ महीने बाद मोहल्ला ने नियमित लेखकों की एक सूची जारी की और लिखा कि ये सब मोहल्ला के नियमित लेखक होंगे और मुझे भी मेल किया कि आपको भी इस सूची में शामिल कर रहे हैं। मुझे नहीं पता कि तार सप्तक में शामिल होनेवाले दिवंगत कवियों को तब कितनी खुशी मिली होगी लेकिन मोहल्ला के लेखक समुदाय में शामिल होने पर हम कल्पना कर पा रहे थे कि कैसा लगता है जब किसी को बतौर लेखक या रचनाकार माना जाने लगता है। बड़े-बड़े दिग्गज नामों के बीच मेरा भी नाम छपा था उस सूची में मोहल्ला पर और हम आज भी उस खुशी को याद करते हुए ठीक-ठीक शब्द नहीं दे पा रहे हैं। चैनल के मेरे कई दोस्त, जो कि मीडिया की नौकरी छोड़ने के बाद मुर्दा मान चुके थे, मेरा वहां नाम देखकर फोन किया था, जिसमें आश्चर्य के साथ उलाहना शामिल थे – तू इतना बड़ा आदमी बन गया, ग्रेट यार और एक बार बताया तक नहीं।
चैनल के लोगों के बीच मोहल्ला की एक खास पहचान थी। उस दौरान मोहल्ला पर जो पोस्टें आयीं हैं, अगर उससे गुजरें तो आपको अंदाजा लग जाएगा कि देश के कई अखबार के संपादकीय पन्ने शर्म से डूबकर अपने को छपने से इनकार क्यों नहीं कर देते या फिर किसी अखबार ने मोहल्ला की रोज की पोस्टों को सीधे अखबार के संपादकीय पन्ने पर आउटसोर्सिंग पैटर्न पर छापना क्यों नहीं शुरू किया? अविनाश ने जब बतौर मोहल्ला लेखक मुझे घोषित कर दिया, तो मेरे भीतर पहली बार लिखने को लेकर एक तरह की जिम्मेदारी आ गयी और तब मैं दनादन पोस्टें लिखने लगा। मैंने इससे पहले कभी भी किसी अखबार या पत्रिका के लिए कोई लेख नहीं लिखे थे। नौकरी या इंटर्नशिप के दौरान जो भी जहां लिखा, उसे मैं इससे अलग मानता हूं। तभी मैं मोहल्ला को याद करता हूं, तो लगता है कि अगर हमने यहां से लिखना शुरू नहीं किया होता या इस पर लिखने का चस्का नहीं लगता, तो शायद हम अच्छा-बुरा, पाप-पुण्य के तराजू से अलग हटकर इतना न लिख पाते। मेरे साथ के कई दोस्त हिंदुस्तान, भास्कर, जागरण जैसे अच्‍छा पेमेंट देनेवाले अखबारों में लिखते और मुझे भी सलाह देते कि फोकट में मोहल्ला के लिए लिखने का क्या फायदा? पोस्ट पढ़कर लगता है कि काफी मेहनत से लिखते हो, अविनाश भी मेहनत से लगाते हैं तो उसे अखबार के लिए दिया करो। कहो तो हम बात करते हैं अपने यहां। मैं हंसकर टाल देता। मेरे साथ के साहित्यकार साथी तब साहित्य की सरोकारी पत्रिकाओं में जगह कब्जाने में लगे थे और उभरते, उगते, युवा जैसे अलंकारिक उपसर्गों के साथ छपने लगे थे। हमने उधर कभी तब कोशिश नहीं की थी लेकिन मोहल्ला पर लिखने की गति जारी थी।
हमने अखबारों या पत्रिकाओं में अलग से लिखने में सिर नहीं खपाया क्योंकि मेरे लिए एक बार लिखे को दोबारा संशोधित करके लिखना लगभग असंभव है। मोहल्ला पर हम जो भी लिखते, वो अविनाश के गंभीर संपादन के बाद छप जाता और हम खुश हो लेते। लिखकर पैसा कमाने की नीयत शुरू से नहीं रही। दो-चार बार ऑफिसों या सेमिनारों में अपने अखबारी, सरोकारी और साहित्यिक लेखक साथियों के साथ गया और उन्होंने जब मेरा परिचय कराना शुरू किया तो इसके पहले उन्होंने ही कहा – अरे, इनको बहुत अच्छे से जानता हूं… या फिर मोहल्ला में लिखते हैं ये, कौन नहीं जानता। बाद में कुछ लोगों ने मेरे बारे में बताते हुए सम्मान से जोड़ना शुरू किया – ये मोहल्ला में लिखता है।
[ आगे भी जारी... ]
मूलतः प्रकाशितः- मोहल्लाlive
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बाटा के जूते का इससे मजबूत और भावनात्मक स्तर पर विज्ञापन शायद ही पहले कभी हुआ हो। देश के गिने-चुने सरोकारी और समाज के हक के लिए लड़नेवालों में से रंगकर्मी अरविंद गौड़ ने बाटा कंपनी के जूते को ऐतिहासिक जूता करार दे दिया है। एक रंगकर्मी के दिमाग में मार्केटिंग और विज्ञापन की इतनी बारीक समझ हो सती है,सोचकर हैरानी भी हो रही है और अंदर से भय भी कि आनेवाले समय में रंगकर्म बाकी चीजों की तरह ही कार्पोरेट की जूती बनकर रह जाएगा। इस साल कोटेक महिन्द्रा के नाटक फेस्टीवल में जब मैंने पहला नाटक देखा,वहां नाटक देखनेवाले लोगों के तबके को देखा, तब भी यही बात महसूस कर रहा था कि नाटक जो कभी कम से कम खर्चे या लगभग मुफ्त देखी जानेवाला माध्यम रहा है,अब वो सामान्य लोगों की पहुंच से बाहर हो जाएगा। लेकिन अरविंद गौड़ के निर्देशन में आज से जिस नाटक "दि लास्ट सैल्यूट" का मंचन होने जा रहा है,वो इससे भी कहीं खतरनाक कहानी की ओर ईशारा करते हैं।


मोहल्लाlive कल से ही इस नाटक को इतिहास रच देने के तौर पर रेखांकित करता आ रहा है। अंडरटोन ये है कि विश्व पटल पर इतनी बड़ी घटना हो गयी लेकिन उसे सर्जनात्मक रुप से लोगों के सामने लाने का काम भारत की पवित्रभूमि में हो रहा है। ऐसे में भारत,यहां के रंगकर्मी और खासकर अरविंद गौड़ इतिहास रचने का काम कर रहे हैं। चूंकि इतनी बड़ी रिस्क के साथ महेश भट्ट ने पैसा लगाया है,प्रोडक्शन किया है तो उन्हें कम बड़ा योद्धा साबित नहीं किया जा सकता? बहरहाल,मोहल्लाlive पर इसकी प्रशस्ति में छपी पोस्ट को पढ़ने के बाद ऐसा संयोग बना कि हम कल ही शाम राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की तरफ से गुजरे और तब हमने देखा कि वहां दि लास्ट सैल्यूट की बहुत बहुत पोस्ट/कीऑस्क लगी है। 

विश्वास कीजिए,उस पोस्टर में जो सबसे आकर्षित करनेवाली बात थी वो ये कि ठीक कोने में,बहुत ही बड़ी साईज में एक जूता बना है जो कि शान से सिर ताने खड़ा है और नीचे डार्कब्रैग्ग्राउंड होने की स्थिति में सफेद रंग से लिखा है- बाटा। इस नाटक के औऱ भी कई स्पांसर हैं लेकिन सबों के लोगो और नाम बहुत छोटे हैं। बाटा के इस जूते और पोस्टर में खास बात ये है कि जूते की साईज उतनी ही बड़ी है जितनी बड़ी कि बाटा कंपनी अपने शोरुम पर बोर्ड लगाने के लिए छपवाते हैं और पोस्टर की खास बात ये कि उसने जूते को उसी डार्क ब्राउन रंग और बैग्ग्राउंड के साथ एकाकार किया है,जिस रंग का पोस्टर है। ऐसा करने से जूता अलग से दिखने के बजाय उस नाटक का ही हिस्सा बल्कि एक चरित्र के तौर पर दिखाई देता है। जिनलोगों को भी ये घटना याद है कि 14 दिसंबर 2008 को बगदादिया टीवी के पत्रकार मुंतजिर अल जैदीने जार्ज बुश पर जूता फेंका था और तब हंगामा मच गया था,उनके मन में पहला सवाल यही उठेगा कि क्या वो जूता बाटा का था? 

दरअसल पोस्टर ने बाटा के जूते को इस रुप में शामिल किया है कि वो नाटक की घटना का हिस्सा जान पड़ता है। मुझे नहीं पता कि नाटक के इस पोस्टर को डिजाइन करने में अरविंद गौड़ जैसे सरोकारी रंगकर्मी की क्या भूमिका रही होगी लेकिन जन-मजदूर,हक,संघर्ष,पूंजीवाद के खिलाफ सालों से बात करते रहनेवाले अरविंद गौड़ की आंखों में ये पोस्टर अभी तक चुभा नहीं कैसे,इस बात को लेकर हैरानी जरुर होती है।
मुझे पता है कि मेरी ये पोस्ट पढ़ने के बाद कुछ लोग हमें मिट्टी का लोंदा जानकर ये दलील देने की कोशिश करेंगे कि आज अगर दूसरी बाकी विधाओं और कला की तरह नाटक को जिंदा रहना है तो उसे बाजार से हाथ मिलाने ही होंगे,समझौते करने ही पड़ेंगे। ऐसे में अरविंद गौड़ निर्देशित नाटक "दि लास्ट सैल्यूट" का स्पांसर बाटा है तो क्या दिक्कत है? एक हद तक सचमुच इस बात में कोई दिक्कत नहीं है लेकिन क्या इस नाटक का स्पांसर बाटा सिर्फ इसलिए हो जाना चाहिए क्योंकि इसमें जूता फेंकना ही सबसे बड़ी घटना है और वो भी बुश पर। फेसबुक पर हमने सटायर करते हुए जब लिखा कि-बुश पर जूते मारने की दास्तान पर मंचित होनेवाले नाटक दि लास्ट सैल्यूट जिसके निर्देशक अरविंद गौड़ है का प्रायोजक बाटा है। एनएसडी में जो पोस्टर लगी है उसमें बाटा का जूता उसी तरह शान से और बड़े साइज में है जैसे बाटा की साइन बोर्ड में होते हैं। इंडिया में भी पी चिदंबरम पर जरनैल सिंह ने जूते फेंके थे,उस पर नाटक बनने पर कौन स जूता कंपनी स्पांसर होगी,एनी गेस? तो कई लोगों ने उसी व्यंग्य के अंदाज में जूते कंपनियों के नाम गिनाने लगे? 

अरविंद गौड़ से हमारा सवाल सिर्फ इतना भर है कि क्या उन्हें एक ऐतिहासिक घटना को अपने हित में एक जूते कंपनी के लिए प्लेटफार्म बनाने देने का अधिकार है? क्या अरविंद गौड़ को इस बात का अधिकार है कि मुंतजिर अलग जैदी ने बुश की नीतियों और रवैये के खिलाफ जो प्रतिकार किया,अपना विरोध दर्ज किया,उसे बाटा की झोली में डाल दें। माफ कीजिएगा,मैं यहां पर आकर अरविंद गौड़ से कहीं बेहतर रिबॉक कंपनी को मानता हूं जिसने अपने विज्ञापन में ये कहीं नहीं शामिल किया कि जरनैल सिंह ने जो जूते पी चिंदमबरम पर फेंके थे,वो उसकी कंपनी के बनाए जूते थे। मतलब जो जूता देश के गृहमंत्री से टक्कर ले सकता है,वो धूप-बरसात,सड़क के पत्थरों और धूल से क्यों नहीं? मुझे यकीन है कि कल को रिबॉक अगर इस चूकी हुई क्रेडिट को भुनाने की कोशिश करे तो अरविंद गौड़ जैसे ही सरोकारी रंगकर्मी इसके खिलाफ नाटक का मंचन करेंगे।..ऐसे में ये सवाल जरुर बनता है कि बाटा के जूते को दि लास्ट सैल्यूट की पोस्टर में बतौर एक चरित्र क्यों शामिल किया गया?

अरविंद गौड़ जैसे देश के किसी भी रंगकर्मी,कलाकार,समाजसेवी या लेखक से ये सवाल इसलिए भी पूछा जाना चाहिए क्योंकि इन्होंने अपनी जमीन,पहचान( बाजार की भाषा में कहें तो ब्रांडिंग) इन्हीं सारी बातों का विरोध करते हुए बनायी है। देश के लोगों ने अगर इन्हें एक पहचान दी है तो उसमें कहीं न कहीं उनकी भी हिस्सेदारी शामिल है।..इसलिए ये बाकी लोगों की तरह बाजार से,कार्पोरेट से,पूंजीपति घरानों और कंपनियों से उसी तरह हाथ नहीं मिला सकते,जिस तरह कोटेक महिन्द्रा के साथ हाथ मिलाकर फ्रेमवर्क नाट्योत्सव और जयपुर लिटरेचर फेस्टीबव आयोजित कराता है। अगर वो ऐसा करते हैं तो फिर उन्हें वो जमीन छोड़नी होगी जहां से वो सरोकार का दावा करते हैं,समाज के बुनियादी ढांचे को बदलने की बात करते हैं। आखिर हम ये बात कैसे बर्दाश्त कर लें कि जो शख्स समाज की दुनियाभर की सडांध,कार्पोरेट की अंधी नीतियों और बाजार के खिलाफ बात करता आया हो और देखते ही देखते हमारा प्रवक्ता बन गया हो,आज वही उसके पक्ष में जाकर,उसके साथ गलबहियां करने लग जाए। 

अरविंद गौड़ की अगर यही इच्छा है कि उनके नाटक को बाटा(आज नाटक में अगर जूता है तो), किर्लोस्कर( नाटक में जहर की सीन होने पर) जैसी कंपनियां स्पांसर करे तो उन्हें अपने सारे दावों के साथ ये भी घोषित करना होगा कि उनका नाटक दरअसल एक ब्रांड प्रोमोशन का हिस्सा है,इसे आप खाटी सरोकार से जोड़कर देखने की भूल न करें। विज्ञापन कंपनियां हमानी तमाम अनुभूतियों को अगर एक कंपनी की पंचलाइन या सिग्नेचर ट्यून तक जकड़कर रख देना चाहती है,ऐसे में अरविंद गौड़ भी वही काम कर रहे हैं तो उन्हें फिर सरोकारी होने पर मिलनेवाली सुविधा और शोहरत को इन्ज्वाय करने का क्या हक है? बेहतर हो कि वो बाजार से ही अपने लहलहाने के खाद-पानी लेते रहें और सरोकार की जमीन छोड़ दें।

हम ये बात कैसे मान लें कि अरविंद गौड़ के इस नाटक की पोस्टर में जो चेहरा खुलकर सामने आया है वो कार्पोरेट की स्ट्रैटजी से अलग है। मीडिया की उस रणनीति से अलग है जो कि सरोकार के नाम पर सरकार और कार्पोरेट की करोड़ों की दलाली का काम कर रहा है। इन दिनों एनडीटीवी और कोका कोला का स्कूल बनाने औऱ बच्चों को पढ़ाने का संयुक्त अभियान चल रहा है। एनडीटीवी पर धुंआधार विज्ञापन आ रहे हैं। इससे पहले चैनल ने टोएडा के साथ मिलकर पर्यावरण बचाने को लेकर अभियान चलाया था। क्या ये बात एनडीटीवी को पता नहीं है कि इस देश में पर्यावरण को कौन दूषित कर रहा है और कौन पानी के संकट को भयानक तरीके से बढ़ा रहा है। लेकिन वो उन्हीं कपंनियों के साथ मिलाकर अभियान चला रहा है,जो कि इसके लिए जिम्मेवार है। कई बार तो लगता है कि इस देश को कानून नहीं,लोगों के इमोशन्स चलाते हैं। आखिरी तभी तो ऐसे जिम्मेवार और अपराधियों का विरोध करने के बजाय लोग इनके फेंके जानेवाले टुकड़ों के पक्षधर हो जाते हैं। अरविंद गौड़ नाटक के बहाने एनडीटीवी और कोका कोला से क्या अलग कर रहे हैं? माफ कीजिएगा,मुझे न तो नाटक की बारीकियों की गहरी समझ है और न ही कला की..इसलिए इसे बचाने के लिए मैं बाकी जानकार लोगों की तरह विह्वल नहीं हो सकता।

..लेकिन इतना जरुर जानता हूं कि अरविंद गौड़ अपने नाटकों में जिन चीजों को बचाने की बात करते हैं,वो अगर सिर्फ पटकथा लेखन और संवाद में खूबसूरती पैदा करने के लिए नहीं है तो अरविंद गौड़ के नाटक को बचाने से कहीं ज्यादा जरुरी है कि वो बचाए जाएं जिसके बचाने की बात वो लगातार सालों से करते आए हैं। ऐसे में, आज अरविंद गौड़ अगर अपने नाटकों में झांककर देखें तो खुद ही उसके विरोध में नजर आएंगे।
खेद- तब मेरे पास कैमरा नहीं था कि मैं दि लास्ट सैल्यूट के उस पोस्टर की  तस्वीर ले सकूं जिसका कि मैंने जिक्र किया है। अभी कुछ घंटे में उधर जाना हुआ तो वो तस्वीर जल्द ही मुहैया कराता हूं।


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