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इन दिनों टेलीविजन संसद में थाली विमर्श जोरों पर है. ऐसे जैसे कभी पूरी राजनीति राम जन्मभूमि मंदिर-मस्जिद विवाद की तरफ लप्प( झुकना) जाती है तो कभी मोदी बयान पर कल्टी खाने लगती है. इस थाली की सियासत की अपनी कहानी है जो हमारे ट्विट और एफबी स्टेटस की तरह जल्द ही गुम हो जाएंगे..लेकिन इस थाली शब्द के दिन-रात कान में गूंजते रहने के बीच क्या हम पांच रुपये या 12 रुपये की थाली की कल्पना से खिसककर एक ऐसी थाली की कल्पना के बजाय सीधे किचन में बनाने घुस सकते हैं, जिनकी दोस्ती-यारी,प्यार-मोहब्बत में खिलाने पर कोई कीमत न हो और अगर दिन-दशा खराब होने लगे तो जीने लायक पैसे मिल जाएंगे. इसी तुक्का-फजीहत में अपने तैयार की शनिवारी थाली. हमारे रेगुलर पाठकों के लिए भारी-भरकम विमर्श के बीच ये निहायत ही बकवास पोस्ट लगे लेकिन क्या पता इनसे कुछ जो आए दिन संतनगर,बुराड़ी,पांडवनगर में अकेले हडिया हिलाते-डुलाते रहते हैं, उन्हें इस शहर में यारबाजी का एक विकल्प मिल जाए, बस इसी नीयत से-

शनिवारी थालीः बैचलर्स किचन की खास पेशकश




खाद्य सामग्रीः कढ़ी, भात( चावल नहीं), आलू भुजिया, पापड़, खीरे की सलाद

कढ़ी के लिए 100 सौ ग्राम चने की दाल और 25 ग्राम मूंग डाल लें और 10 मिनट तक पानी में भिगोंकर रखें. बरसात का मौसम है सो बेसन की जगह तुरंत दाल पीसी हुई इस्तेमाल करना ज्यादा सही होगा. दस मिनट बाद इसे मिक्सर ग्राइंडर में अच्छी तरह पीस लें. पीसने के पहले दो चम्मच पानी दाल में मिलाएं.

इस पीठ्ठी से सात-आठ छोटे-छोटे पकौड़े तलकर एक तरफ रख लें. बाकी में सौ ग्राम के करीब दही मिलाएं, साथ में रंग आने लायक हल्दी और स्वाद के हिसाब से नमक और एक भगोने में सारी सामग्री डाल लें. मिक्सर पॉट में जो पीठ्ठी लग रह जाए उसे भी पानी से धोकर इस भगोने में डाल दें ताकि बिल्कुल भी कुछ बर्बाद न हो. भगोने की सामग्री को ब्लेंडर से अच्छी तरह मिला लें ताकि ये तरल बिल्कुल हल्का हो जाए.

इधर कड़ाही गर्म करें और दो चम्मच सरसों का तेल डालें और गर्म होने तक इंतजार करें. गर्म होते ही इसमे करी पत्ता( बालकनी के गमले से), तेजपत्ता( पुष्कर की मां ने दुमका से लाकर एक साल पहले दिए थे सो अभी तक चल रहा है), काली सरसों, दस दाना जीरा, एक लाल मिर्च के दो टुकड़े( इससे बहुत प्यारा रंग खिलकर आता है कढ़ी में) डाल दें. इसके बाद तरल को कडाही में डाल दें और खौलने तक इधर दूसरा काम करें.

तब तक एक छोटे से खीरे के छिलके उतार लें और फ्रेंच पोटेटो आकार में काट लें. एक टुकड़ा नींबू मिलाएं और एक चुटकी नमक ताकि पानी छोड़ने पर आपको खाने के आखिर में दो-चार बूंद सिरका पीने में मजा आए. एक भगोने में दो मुठ्ठी चावल डालें, अच्छे से धोकर पानी के साथ भात बनने के लिए चढ़ा दें. आमतौर पर बैचलर्स कूकर में चावल बनाना पसंद करते हैं लेकिन इससे उसके कार्बोहाइड्रेटस उसी में रह जाते हैं और लंबे समय तक ऐसा खाने से कब्ज और मोटापे की शिकायत हो सकती है. सो समय हो तो चावल भगोने में बनाए और बाबा नागार्जुन का भात और रघुवीर सहाय की चित्रित स्त्री की तरह माड़ पसाने का अभ्यास करें. बिल्कुल अलग स्वाद मिलेगा. दोनों चूल्हें पर कढ़ी और चावल पकते रहेंगे.

दो मंझोले आकार के आलू काटें. जैसे मैकडी में पोटेटो फ्रेंच मिलते हैं, उसी तरह और अच्छे से धोकर चूल्हा फ्री होने का इंतजार करें. कढ़ी उबलने लगी होगी तब तक. इसे लगातार चलाएं और जमने न दें. करीब दस मिनट तक चलाएं और फिर उतारकर एक ग्राम हींग डालकर थोड़ी देर के लिए ढंक दें. कढ़ी तैयार. उधर चावल भी तैयार हो गया होगा तो माड निकालकर अलग कर लें. भात भी तैयार.

अब कहाड़ी में थोड़ा जीरा, एक हरी मिर्च डालें और लाल हो जाने पर कटे आलू डाल दें. पांच मिनट इंतजार करें और फिर सिर्फ नमक और हल्दी डालें. डीयू के हॉस्टल में लाल मिर्च और धनिया के पाउडर भी डालते हैं, आप चाहें तो डाल सकते हैं. मैं तो हल्दी नमक के अलावे कुछ नहीं डालता.

इस बीच एक पापड़ निकाल लें और दोनों तरफ बटर की लेप चढ़ा दें. और तब उसे आग पर सेकें. बटर लगाकर आग पर सेंकने से तलकर पापड़ खाने जैसा मजा भी मिलेगा और पकाकर खाने के सोंधेपन का जबकि शरीर में तेल की मात्रा कम जाने से केलेस्ट्रॉल की समस्या भी नहीं. पकाते समय ही अपने मिजाज के अनुसार इसे शेप दें. बांसुरी की तरह लंबी, त्रिभुज या फिर जैसे मैंने दोसे की तरह डबल फोल्ड कर दिए हैं वैसे. फोल्ड करने से पापड़ लंबे समय तक कुरकुरे रहते हैं और आप बिल्कुल आराम से बाइट ले सकते हैं. चूल्हे पर आपकी भुजिया भी तैयार हो गई होगी जिसे आप एक छोटी प्लेट फंसाकर तेल पूरी तरह निकल जाने पर दूसरे बर्तन में डाल सकते हैं. आपकी सारी सामग्री तैयार है और बस क्राकरी निकालकर शनिवारी थाली सजानी है. थाली सजते ही फेसबुक के लिए बारी-बारी से सबकी तस्वीरें उतारें और फिर खाना शुरु कर दें. पहले अपलोड करने लगेंगे तो आधी से ज्यादा चीजें अपने मूल स्वाद से बिदक जाएगी.
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मैं तो तंदूरी मुर्गी हूं यार, कटाके ले सइयां अल्कोहल से की जगह भोले भंडारी तो हैं मस्तमौला,टिका ले मत्था ठंडई चढ़ाके या फिर जुम्मे के दिन किया चुम्मे का वादा, लो आ गया अब जुम्मा, चुम्मा दे दे की जगह पिछले सावन में मांगी थी मन्नत,लो आ गया अब सावन-सावन, कांवर-कांवर ले ले, कांवडिया कांवर ले ले. गाने में सब कुछ जस का तस रखते हुए सिर्फ बोलभर बदल देने से जो सांस्कृतिक माल भारतीय संस्कार और परम्परा का पतन कर रहा था, कुछ लोगों के लिए चट से वो धर्म के विस्तार का हिस्सा बन जाता है. ये अलग बात है कि इसकी ट्यून मिक्सिंग इतनी स्मार्टली की जाती है कि दूर से आप सुने तो आपको कटका ले सइयां अल्कोहल से ही बजने का भान होगा. कमलानगर, डेरावलनगर,नत्थपुरा सहित दिल्ली के बाकी इलाकों में बीचोंबीच सड़क बिछाकर जो आए दिन माता जागरण आप देखते-सुनते हैं,वो ऐसे ही उदाहरण हैं.

जब आप मैं तो तंदूरी मुर्गी हूं यार, कटाके ले सइयां अल्कोहल से की जगह भोले भंडारी तो हैं मस्तमौला,टिका ले मत्था ठंडई चढ़ाके जैसी बीट पर उसी तरह झूमने लगते हैं जैसे कि हम हॉस्टल की फ्रेशर पार्टी में झूमते आए हैं. हमारा झूमना आपको सांस्कृति पतन का हिस्सा लगता रहा और आपका झूमना धार्मिक परंपरा का विस्तार. ऐसे में सवाल तो है कि न कि आप इस झूमने के बीच बचाना क्या चाहते हैं ? क्या मुर्गी की जगह भोले और अल्कोहल की जगह ठंडई कर देने से आपकी नवधा भक्ति की भजन परंपरा बची रह जाती है .

संस्कृति के इन उत्पादों को धर्म और संस्कार का हिस्सा मान लेना( अभी आप धर्म और संस्कार की व्याख्या छोड़ दीजिए, आस्था-अनास्था का सवाल भी) दरअसल पॉपुलर संस्कृति को न समझ पाने की भारी गड़बड़ी यहीं से शुरु होती है. ऐसा करके हम कंटेंट के कुछ हिस्से पर केन्द्रित होकर बाकी के हिस्से को पूरी तरह नजरअंदाज कर देते हैं. हमें धर्म और संस्कार का विस्तार दिखाई देता है जबकि वो पॉपुलर संस्कृति के उद्योग का विस्तार होता है. अब जिस डीजे/ गवैये टीम को अल्कोहल की जगह ठंडई और मुर्गी की जगह भोले बाबा कर देनेभर से उतने ही माल मिलते हैं, उसे भला बदलने में क्या हर्ज है ? जिस कार्टून नेटवर्क और अमेरिका की एनीमेशन कंपनियों को डोरेमान,पोकेमान,वेन्टन के बदले छोटा भीम, बाल हनुमान प्रसारित होने पर उतना ही मुनाफा है तो भारतीय दर्शकों को ऐसा करने में उसे क्या जाता है? लेकिन क्या बतौर मीडिया और संस्कृति के अध्येता के नाते हम इसमे संस्कार औऱ परंपरा का विस्तार खोजने लगने की कवायद से इस पूरे संस्कृति उद्योग को समझ पाते हैं बल्कि संस्कृति से अर्थशास्त्र,मार्केटिंग, पैकेजिंग आदि माइनस करके हम सही समझ बना पाते हैं ?

अभी थोड़ी देर पहले  राहुल देव ने अपनी वॉल पर मेट्रो में सफर कर रहे एक ऐसे युवक के बांह की तस्वीर लगायी जिसने संस्कृत के श्लोक गोदवाए हुए थे. हालांकि ये श्लोक भी गलत-सलत हैं जिसकी तरफ कविताजी (DrKavita Vachaknavee ) ने ध्यान दिलाया. खैर, राहुल देव इस युवक के इस काम से इतने अभिभूत हैं कि हमलोगों को शाबासी देने की अपील कर रहे हैं क्योंकि इसने सुरुचि, संस्कार और साहस( अनुप्रास अंलकार) का परिचय दिया है. इसे साहस और संस्कार के बजाय पॉपुलर संस्कृति का हिस्सा मानने पर राहुल देव का मुझसे प्रश्न है कि- विनीत, यह 'पॉपुलर कल्चर' और पॉपुलर हो जाए तो क्या बेहतर न होगा...

क्या जवाब दूं ? लेकिन इतना तो जरुर कह सकता हूं बिल्कुल पॉपुलर हो जाए और आपकी कामना ठीक-ठीक निशाने पर बैठती है तो बल्कि जल्दी हो जाए लेकिन क्या पॉपुलर संस्कृति के कोई भी घटक इसी तरह कामना भर से पॉपुलर होते हैं और इस बीच अगर श्लोक की जगह इंडियन फक्कर पॉपुलर होने लग जाए तो संस्कार की कामना करनेवाले लोगों के हाथ में होता है कि वो ऐसा होने से रोक लें( अब तो शिवसेना भी ऐसा करने में नाकाम हो जाती है). दरअसल पॉपुलर ढांचे के भीतर इस तरह की कामना संस्कृति के मौजूदा रुप को खंडित करके देखने जैसा है और एक तरह से स्वार्थलोलुप नजरिया भी जबकि ये काम इस तरह से करता नहीं है. दूसरी बात

राहुल देव जिस कामना से इसके पॉपुलर होने की बात कर रहे हैं क्या वो कामना ऐसे पॉपुलर घटक से पूरी होती है या फिर वो उसी तरह से गंड़े-ताबीज जैसा एक उत्पाद बनकर रह जाता है जिसकी दूकान आसाराम बापू जैसे दागदार महंत धर्म के नाम पर चला रहे हैं. हमें पॉपुलर कल्चर की व्याख्या करते समय ये बात बारीकी से समझनी होती है कि इसके कंटेंट का संबंध इसकी विचारधारा के प्रसार से हो ही, जरुरी नहीं है. तन्त्रा की टीशर्ट पर गणेश के बड़े-बड़े छापे और ओsम की स्टीगर चिपकाए कनॉट प्लेस में दर्जनों विदेशी मिल जाएंगे जिन्हें बिल्कुल अर्थ पता नहीं है. चाइनिज भाषा में गोदना करवाए टिपिकल जाट घूमते मिल जाएंगे..लेकिन क्या इन सांस्कृतिक उत्पादों का उनकी विचारना से कोई संबंध हैं ? ऐसे में इस हद तक तो प्रसन्नचित्त हुआ जा सकता है कि देखो हमारे धर्म, संस्कार की चीजें सांकेतिक उत्पाद बनकर बाजार में तैर रहे हैं लेकिन इससे संस्कार का भी प्रसार होगा, इस तरह की कामना से मुक्त होकर ही हम पॉपुलर कल्चर को समझ सकते हैं. अब जो लोग देशभर में खोंमचे टाइप से मंदिर के खोलने में ही धर्म का विस्तार देखते हैं, उनकी तो बात ही अलग है.( हम यहां धर्म को लेकर निजी राय और इसे व्यक्तिगत आस्था बनाम धंधा होने की बहस से अलग रख रहे हैं) 

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ताप्ती गुहा ठाकुरता ने अपनी बात रखने के पहले ही ये स्पष्ट कर दिया था कि वो बंगाल के दुर्गा पूजा को लेकर कोई धार्मिक इतिहास प्रस्तुत नहीं करने जा रही है. उसके तुरंत बाद ही दुर्गा पूजा के लिए पूजा प्रोडक्शन शब्द प्रयोग करने( जो कि अंत तक बना रहा) से ये स्पष्ट हो गया कि वो दुर्गा पूजा को लेकर एक ऐसे अध्ययन की बात कर रही है जो कला( और वो भी अभिजन,स्थायी और विमर्श का नहीं) के उद्योग से संबंधित है, जिसका करीब चालीस करोड़ रुपये का कारोबार है, जिससे करीब 2000 लोगों का करिअर जुड़ा है और जिसमे बाजार,ब्रांड,मार्केटिंग,स्पांसरशिप के वो तमाम दांव-पेंच शामिल हैं जो किसी भी दूसरे उत्पाद को लेकर होते हैं. और इन सबके बीच खुद कोलकाता को एक ब्रांड शहर बनाने में इस पूजा कितना और किस तरह से काम में लाया जाता है, ये भी जानना उतना ही दिलचस्प है जिससे अध्ययन का एक सिरा सिटी स्पेस की तरफ भी बढ़ता जाता है.

 ठाकुरता ने इसे कोलकाता से बिल्कुल अलग-थलग तीन पूजा प्रोडक्शन से जुड़े आर्टिस्ट की केस स्टडी को शामिल करते हुए विस्तार से बताया कि कैसे ये तीनों, अपने-अपने स्तर पर ब्रांड निर्माण और स्थापना के काम में लगे रहे हैं, जिन्हें कला कहा भी जाए,ये अपने आप में विवादास्पद है खासकर तब जब उनमे से एक के काम( पंडाल और मूर्ति) के प्रमुख स्पांसर आइटीसी( आमार सोनार बांगला) के होने के बावजूद टेरिक ऑबराय को ये पता नहीं कि ये किनका काम है और वो नाम किसी जातिवाचक संज्ञा में तब्दील हो जाता है. पूजा प्रोडक्शन के माध्यम से ठाकुरता ने अपार श्रद्धा, परंपरा और संस्कृति का हिस्सा माने जाते रहनेवाले दुर्गा पूजा के बीच ब्रांड पोजिशनिंग,पैकेजिंग,स्पॉन्सर्स द्वारा कला को परिभाषित करने के दुस्साहस आदि पर बड़े ही दिलचस्प ढंग से अपनी बात कही. इस विषय पर आनेवाली उनकी किताब जिस पर कि वो पिछले बारह साल से काम कर रही हैं और जिसका कि हमें बेसब्री से इंतजार है, मार्केटिंग, विज्ञापन और उपभोक्ता संस्कृति में दिलचस्पी रखनेवालों के लिए एक जरुरी किताब होगी.

वैसे तो संस्कृति के उद्योग बनने और अपने उसी मिजाज से काम करने को लेकर थ्योडोर अर्डोनो की संस्कृति उद्योग से लेकर हर्बर्ट मार्कूजे और अब सिल्वरस्टोन की सैद्धांतिकी को पढ़ते आए हैं लेकिन पॉपुलर संस्कृति और दृश्यगत संस्कृति( visual art) के अध्ययन की पाठ सामग्री के रुप में ठाकुरता का ये कम बेहद दिलचस्प है और एक नए किस्म के नजरिए का विकास है कि जिसे अभी तक हम संस्कृति,परंपरा,लोक व्यवहार आदि के अन्तर्गत विश्लेषित करते आए हैं, उसे अगर रिलाएंस और टोएटा जैसे दूसरे हजारों ब्रांड के विश्लेषित करने के औजार से समझने की कोशिश करें तो कितना कुछ अलग,नया और दिलचस्प हो जाता है..मीडिया अध्ययन के लिए संयोग से ये काम पहले हो चुका है.


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वैसे तो शुभ्रांशु चौधरी की किताब- let's call him basu( उसका नाम वासु नहीं) माओवादी दुनिया को समझने के लिए बेहरीन किताबों में से एक है. किताब की सबसे खास बात है कि हार्ड कोर फील्ड रिपोर्टिंग का हिस्सा होते हुए, तथ्यात्मक होते हुए भी इतनी लिरिकल है कि आपको इसे राग दरबारी और मैला आंचल जैसी क्लासिकल उपन्यास की तरह बीच में छोड़ने का मन नहीं करेगा. शुभ्रांशु ने बीहड़ जंगलों, पठारों और कई अंधेरी रातों की यात्रा करके जो कुछ हमारे सामने पेश किया है, वो तथ्यात्मक होकर भी अपने मिजाज में किस्सागोई का सुख देता है. लेकिन
इस किताब को मीडिया और रिपोर्टिंग की जरुरी किताब के रुप में भी पढ़ा जाना चाहिए. पन्ने दर पन्ने ये किताब बताती है कि इस देश में मेनस्ट्रीम मीडिया पत्रकारिता के नाम पर क्या कर रहा है जिसमे निजी मीडिया के साथ-साथ पब्लिक ब्रॉडकास्टिंग तक शामिल है. निजी मीडिया जो आए दिन सरकार और उसकी नीतियों से असहमत और उसे लेकर गरजता-दहाड़ता दिखाई देता है वो दंतेवाड़ा जैसी जगह में कैसे सरकार की एक मशीनरी और उसकी नीतियों का हिस्सा बनकर रह जाता है. शुभ्रांशु ने एक जगह ये भी स्पष्ट किया है कि जिस तरह की बात और रिपोर्टिंग हमने इस किताब के जरिए की है, वो बीबीसी में रहते हुए संभव नहीं था. ऐसे में आप जब इस पूरी किताब से गुजरेंगे तो मीडिया को लेकर ऐसे कई मिथक ध्वस्त होते चले जाएंगे जो सालों से पालकर रखे हैं. जिनमे से एक ये भी है कि आकाशवाणी की पहुंच और लोगों के बीच इसकी जबरदस्त पकड़ के बीच शुभ्रांशु का एक वाजिब सवाल भी है कि- सन 2001 की जणगणना के अनुसार देश में 27 लाख गोंड़ी भाषी हैं केवल 14000 लोग संस्कृत बोलते हैं. लेकिन फिर भी ऑल इंडिया रेडियो में संस्कृत में कई बुलेटिन प्रसारित किए जाते हैं और गौंडी का एक भी नहीं.

आंतकवाद,माओवाद से लेकर भ्रष्टाचार जैसे गंभीर मुद्दों पर फील्ड की रिपोर्टिंग के बजाय एडीटिंग मशीन पर पैकेज बनाए जाने की आपाधापी के बीच शुभ्रांशु की ये विकट फील्ड रिपोर्टिंग कई उन तथ्यों को सामने लाती है जो कि मुख्यधारा मीडिया में स्थापित मान्यताओं का हिस्सा बन गए हैं. मसलन उनकी किताब बताती है कि ईमानदार अधिकारी के प्रति एक माओवादी क्या राय रखता है- "हमें पुलिस पर हमला करने के आदेश नहीं थे लेकिन पुलिस के हमारे उपर हमले जारी रहे. मुझे एक निर्भीक पुलिस अफसर आज भी याद है,डीआईजी अयोध्या नाथ पाठक. जब तक वे रहे उन्होंने हमारी नाक में दम कर दिया. उनके बाद कोई ऐसा अफसर नहीं आया". सोनू की आवाजा में आदर का भाव साफ सुनाई दिया.

कॉमरेड सोनू जिस पुलिस अधिकारी की बात कर रहा है, वो अधिकारी माओवादियों को लेकर कुछ इस तरह की राय रखते हैं- "माओवादी सच्चे और समर्पित लोग हैं. ये भोले-भाले लोगों को नहीं मारते, " भोपाल में घर पर हुई एक मुलाकात में सेवानिवृत पाठक ने मुझसे एक मुलाकात में कहा था. उन्होंने बताया था, "मैंने उनकी कमजोर नस टटोलने की बहुत कोशिश की- लेकिन वे साधारण आदमियों की तरह नहीं हैं. आम तौर पर हर आदमी या तो धन या शबाब पर नीयत खराब कर लेता है- फिर उसे आसानी से नियंत्रित किया जा सकता है. लेकिन ये लोग बिचलित नहीं होते. अगर उनके साथ लड़ना है तो उनकी तरह होना होगा और उनकी तरह सोचना होगा." इसी तरह एक और वाक्या का जिक्र-
चाय पर दंतेवाड़ा के पुलिस प्रमुख राहुल शर्मा ने कहा "सबसे बड़ी समस्या है कि आदिवासी को लालच नहीं है.अगर वे लालची होते तो समस्या का जल्दी हल हो जाता." "हमें गांवों में टीवी दे देना चाहिए, तो यह समस्या जल्दी हल हो जाएगी." यह बात मैंने पहले भी सुनी थी. मेरे पत्रकारिता के गुरु और लातिनी अमेरिका के विशेषज्ञ जॉन रेट्टी की राय थी कि "जो कुछ अमरीकी सेना सालों से नहीं कर पायी,टोवी ने कर डाला.इसने सातिन अमरीका की संस्कृति की आदिवासी संस्कृति का विनाश कर दिया, और उसकी सामूहिक शक्ति की लड़ाई का भी."

इस तरह के प्रसंग, संदर्भ और उदाहरण किताब में कई जगहों पर हैं बल्कि ये कहा जाए कि पूरी किताब की टेक्सचर इन्हीं प्रसंगों से बनी है जो परस्पर एक दूसरे से धुर-विरोधी ध्रुवों पर खड़ी होकर इकठ्ठी किए जाने के बावजूद इस बेचैनी को शामिल करती है कि जैसा और जिस तरह से मेनस्ट्रीम मीडिया ने देश के मुद्दों की शक्ल लाखों-करोड़ों लोगों के सामने पेश की है, दुनिया वैसी नहीं बल्कि उससे बिल्कुल अलग है. ये टेक्सचर किताब को जितना विश्वसनीय बनाते हैं उतना ही पत्रकारिता में तटस्थता की अनिवार्यता को भी रेखांकित करते हैं. कहीं से आपको नहीं लगेगा कि शुभ्रांशु जैसे मेनस्ट्रीम मीडिया एक पार्टी( कभी सरकार की तो कभी कार्पोरेट की) खड़ा होकर बात करते हैं ने किया है. वो ऐसे मीडिया से अपने को निकालकर स्पष्ट रुप से एक पत्रकार के रुप में निखरते हैं.  यहीं पर आकर आप ये बात शिद्दत से महसूस कर पाते हैं कि हमारा मीडिया पाठक और शर्मा जैसे पुलिस अधिकारी जैसा भी ईमानदार नहीं जो कार्रवाई तो आदिवासियों और माओवादियों के विरोध में करते हैं लेकिन उन्हें अपनी पूरी बातचीत में सही-सही संदर्भों में प्रस्तुत करते हैं. यहां मीडिया सरकार और सत्ता से कहीं ज्यादा क्रूर और निकम्मा नजर आने लगता है. हां, इन सबके बीच अगर आप किताब के हिन्दी संस्करण से गुजरते हैं और आरएसएस के स्वयंसेवक का अनुवाद संत देखते हैं तो वैचारिक स्तर पर नहीं भी तो भी ये जरुर लगेगा कि स्वयंसेवक तो इतना लोकप्रिय है, अलग से संत शब्द का प्रयोग करने की क्या जरुरत है ?

पूरी किताब अगर कोई मीडियाकर्मी पढ़ता है, मीडिया के छात्र पढ़ते हैं तो ये उन सबसे की गई एक अपील सी लगेगी कि पत्रकारिता की मूल जमीन फील्ड की रिपोर्टिंग है न कि लुटियन जोन,आइटीओ से जारी प्रेस रिलीज के वाक्य-विन्यास बदलकर और संबंधित व्यक्ति की बाइट नत्थी करके नोएडा फिल्म सिटी में पैकेज तैयार कर देना. किताब की ये लाइन हमेशा याद रह जानेवाली है- जिसकी झोपड़ी जलाई गई, उससे तो पूछते हो कैसा लग रहा है, कभी उससे भी पूछो जिसने जलाई है.

किताब की कवर पेज पर विद द माओइस्ट इन छत्तीसगढ़ लिखा देखकर संभव है कि दूसरे लोग तो छोड़िए, रक्षासूत्र लाल धागा बांधकर पीटूसी करने और करने की तैयारी में लगे सैकड़ों छात्र इस किताब को पलटना तक जरुरी नहीं समझेंगे लेकिन अगर वो ऐसा करने का साहस और तत्परता जुटा पाते हैं तो ये बात बात गहराई से समझ सकेंगे कि चंद अवधारणाओं को अधकचरे तथ्यों के बीच तैरनेवाले मीडिया के बरक्स फील्ड में उतरकर तथ्यों को जुटाने से पत्रकारिता की तस्वीर कितनी बदल जाती है. अगर शुभ्रांशु के पास इस किताब से संबंधित कच्ची सामग्री जो कि किताब का हिस्सा नहीं बनने पाई है ( जाहिर है, सैकड़ों पन्ने में होगें) तो उससे एक अलग किताब निकल सकती है जो ये प्रस्तावित करेगी कि न्यूजरुम/एडीटिंग मशीन को अंतिम सत्य मानकर किए जानेवाले मीडिया धंधे से अलग पत्रकारिता का मिजाज कैसा होता है ? मीडिया संस्थानों और पत्रकारिता के नाम पर करोड़ों रुपये की दूकान चलानेवाले मीडिया स्कूलों ने रिपोर्टिंग का मतलब जो माइक लगाकर मैंगो फेस्टीबल कवरेज तक समेट दिया है, ये किताब इस बड़ी जालसाजी पर सेंध लगाएगी. आज की मीडिया दुनिया में ऐसे एक उदारहरण की जरुरत तो है ही. 


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ऐतिहासिक चरित्रों को लेकर इन दिनों मनोरंजन चैनलों का आपस में जो मुशायरा चल रहा है, जीटीवी पर प्रसारित जोधा-अकबर उसी की कड़ी है. ओमपुरी की व्ऑइस ओवर में इस सीरियल को लेकर ऐतिहासिक होने का दावा न करने और मौजूदा समाज सामाजिक-सांस्कृतिक गतिविधियों को समझने की कोशिश जैसी घोषणा से ही ये स्पष्ट है कि ये सीरियल मुगल सम्राट अकबर और तत्कालीन भारतीय राजनीति को तथ्यात्मक और गंभीरता से प्रस्तुत करने के बजाय इसकी दिलचस्पी केवल उन प्रसंगों,घटनाओं और चरित्रों में है जो कि दर्शकों को सास-बहू सीरियल देखने का सुख दे सके. वैसे भी महाराणा प्रताप को लेकर सोनी टीवी ने ऐतिहासिकता से पिंड़ छुड़ाने का काम जब पहले ही कर दिया हो तो ऐसे में जीटीवी का इसमे सिर्फ ट्विस्ट ही पैदा करना रह जाता है.

गौर करें तो पौराणिक चरित्रों के जरिए सास-बहू सीरियलों और कार्टून नेटवर्क( रानी लक्ष्मीबाई जैसे चरित्र के बचपन को शामिल करते हुए) के दर्शकों को एकमुश्त खींचने की कोशिश के बाद टीवी सीरियलों का एक दूसरा दौर है जहां अब ऐतिहासिक चरित्रों को एक-एक करके पेश किया जा रहा है..और इस तरह से एक ही चरित्र के तीन संस्करण अब हमारे सामने हैं- एक तो जो इतिहास में दर्ज हैं, दूसरा जिसका दूरदर्शन या सिनेमाई संस्करण है और तीसरा जो अपने बाहरी कलेवर में ऐतिहासिक होते हुए भी पूरी ट्रीटमेंट और काफी हद तक प्रस्तुति में सास-बहू सीरियलों के नजदीक है.

 महाराणा प्रताप में अमिताभ बच्चन की तर्ज पर जोधा अकबर में ओमपुरी जब इसके पूरी तरह ऐतिहासिक नहीं होने की घोषणा करते हैं तो इसका साफ संकेत है कि इन चरित्रों को अब ऐसे दर्शकों के बीच खिसकाकर ले जाया जा रहा है जिसकी दिलचस्पी रियलिटी शो की टशन, सास-बहू सीरियलों की फैमिली कन्सपीरेसी और संजय लीला भंसाली की रोमांटिक-भव्य सेट में है. नहीं तो क्या कारण है कि अकबर का जो भारतीय इतिहास में व्यापक संदर्भ रहा है वो यहां एक ऐसे शासक के रुप में मौजूद है जैसे कि वीर-जारा या मैं हूं न का शाहरुख खान. ऐतिहासिकता की छौंक बस इतनी है कि इस शाहरुख-अकबर को रिझाने और अपने करीब बनाए रखने की रानियों के बीच ऐसी होड़ मची है जैसे कि कभी उतरन में वीर के लिए तपस्या और इच्छा के बीच. अकबर महान के रंगमहल और यहां तक कि बेडरुम का माहौल ऐसा है जैसे जीटीवी के एक ही सीरियल का कई हिस्से के कतरन एक साथ ठूंस दिए गए हों. यही आकर आप मौजूदा सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश को समझने जैसे ओमपुरी के स्पष्टीकरण का अर्थ समझ पाते हैं जो कि समाज की नहीं वस्तुतः टीवी स्क्रीन की मौजूद स्थिति से गुजरना है.

जोधा-अकबर को देखकर एकबारगी तो आपको लगेगा कि इसमे टीवी से लेकर सिनेमा के बाकी सारे तत्वों का मजा एक साथ है लेकिन जब कभी आपको कॉलेज छोड़िए, स्कूल की इतिहास की किताबों के पन्ने याद आएंगे तो लगेगा- ये न तो इतिहास है, न ही उसकी संस्कृति, न ही उसकी कहीं समझदारी है तो फिर जब सास-बहू और कार्टून चैनलों के दर्शकों के लिए ही कुछ करना था तो उसी में कुछ प्रयोग क्यों नहीं, इतिहास को जाया करने की क्या जरुरत थी ?


स्टार- 2

मूलतः प्रकाशित, तहलका( हिन्दी)

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गुवाहाटी में हुई यौन उत्पीड़न की घटना आपको याद है न ! पिछले साल 9 जुलाई की शाम एक टीनएज अपने दोस्तों के साथ बर्थ डे पार्टी मनाकर रेस्तरां से लौट रही थी कि कोई बीस लोगों ने उसे चारों तरफ से घेर लिया था जिनमे से तीन ने तो उसके कपड़े तक फाड़ डाले और जिस बर्बरता का नमूना पेश किया,आपने न्यूज चैनल,अखबार,यूट्यूब जैसे दूसरे माध्यमों से देखा होगा. करीब सप्ताहभर तक इस घटना की खबर मेनस्ट्रीम मीडिया में किसी न किसी रुप में बनी रही जबकि घटना के अगले दिन की लगभग सारे चैनलों की प्राइम टाइम बहस इसी को लेकर हुई थी. अखबारों की हेडलाइन भी.

इस पूरी घटना में असम के एक चैनल न्यूजलाइव के रिपोर्टर गौरव ज्योति नेओग का नाम बार-बार सामने आया और अन्ना समूह के अखिल गोगोई ने आरोप लगाया था कि इस संवाददाता ने न केवल ऐसा करने के लिए लोगों को उकसाने का काम किया बल्कि इसकी पूरी वीडियो शूट किया और इधर चैनल ने लड़की के विरोध में जाकर मोरेल पुलिसिंग का काम किया. तहलका,अंग्रेजी के लिए रत्नदीप चौधरी ने जब स्टोरी की तो साफ लिखा कि न्यूज लाइव ने अपनी स्टोरी में लड़की के चरित्र को डिग्रेड करके लगभग एकतरफा स्टोरी प्रसारित किया.( Guwahati molestation case verdict pricks many uncomfortable questions).   मेनस्ट्रीम मीडिया में न्यूजलाइव के इस संवाददाता की धीरे-धीरे प्रमुखता से इस तरह से खबर आने लगी कि शुरुआती दौर में चैनल ने सफाई देने की कोशिश भले ही की हो लेकिन जल्द ही उसे बर्खास्त कर दिया. इससे हुआ ये कि देशभर में गुस्से से उबल रहे लोगों के बीच ये चैनल निशाने पर आने से बच गया. इधर जो थोड़ी बहुत कसर रह गई थी, उसे तथाकथित मीडिया को साफ-सुथरा और बेहतर बनाने के लिए बनायी गई सेल्फ रेगुलेशन वाली संस्था बीइए ने पूरी कर दी.

17 जुलाई को प्रेस विज्ञप्ति जारी करते हुए बीइए ने बताया कि गुवाहाटी मामले की जांच के लिए तीन सदस्यीय (वरिष्ठ टीवी एंकर दिबांग, बीइए के सचिव एनके सिंह और आईबीएन 7 के प्रबंध संपादक आशुतोष) जांच समिति गठित की गई है। यह समिति वहां जाकर पता लगाएगी कि इस पूरे मामले में क्या वाकई किसी मीडियाकर्मी की भूमिका शामिल है। जरूरत पड़ने पर वह निर्देश भी जारी करेगी कि ऐसे मामलों में पत्रकारिता-धर्म का किस तरह से निर्वाह किया जाना चाहिए? 

बीइए की इस पहल पर गौर करें तो यह समझना मुश्किल नहीं है कि गौरव ज्योति, गोगोई और न्यूज लाइव चैनल का जो मसला पूरी तरह कानूनी दायरे में आ चुका था, उसके बीच वह अपनी प्रासंगिकता स्थापित करने की कोशिश में लग गई। आमतौर पर मीडिया की आदतन और इरादतन गड़बडि़यों को नजरअंदाज करने वाली संस्था बीइए अगर ऐसे कानूनी मामले के बीच अलग से जांच समिति गठित करने और रिपोर्ट जारी करने की बात करती है तो इसके आशय को गंभीरता से समझने की जरूरत है। बीइए अपना नाम चमकाने और न्यूजलाइव को लोगों के गुस्से से दूर रखने के अलावे किसी भी दूसरे उद्देश्य से इस तीन सदस्यीय कमेटी का गठन नहीं किया था,ये बात लगभग सालभर बाद और स्पष्ट हो गई जब इस संवाददाता को लेकर हमें चौंकानेवाली खबर मिली.



इधर लगातार हमारे पास ये खबर आ रही थी कि न्यूजलाइव ने अपने इस संवाददाता को दोबारा अपने चैनल में जगह दे दी है. हमने असम में अपने सूत्रों से फोन पर बातचीत करके ये कन्फर्म किया कि ये खबर सही है और ये शख्स वहां काम कर रहा है. ये वही संवाददाता है जिसे लेकर आज से सालभर पहले चैनल दाएं-बाएं कर रहा था और ये भी बात उठी थी कि जब वो छुट्टी पर था तो इस घटना की कवरेज क्यों करने चला गया था ? चैनल ने उस समय इस संवाददाता से पल्ला झाड़ने के लिए जो-जो तर्क दिए, उसकी तह में जाएंगे तो आपको मीडिया का बहुत ही घिनौना रुप सामने आएगा लेकिन फिलहाल हम बातचीत को दूसरे सिरे से देखते हैं.

ये बहुत संभव है कि गौरव ज्योति कि इस पुनर्नियुक्ति पर सवाल खड़ी करने की स्थिति में उल्टे सवालकर्ता से ही सवाल किए जाएं कि जब कोर्ट ने इसे बाइज्जत बरी कर दिया है( हालांकि अभी तक ये पूरी तरह स्पष्ट नहीं हुआ है, सूत्र बताते हैं कि मामला अभी भी चल रहा है.) तो फिर आपको क्या दिक्कत है और फिर चैनल किसको रखे, किसको हटाए,ये उसका निजी फैसला है. इस पर सवाल करना बेतुकी बात है. लेकिन

क्या बीइए और उसकी जांच कमेटी के सदस्यों आशुतोष,एन.कें.सिंह और दिबांग से भी सवाल करना बेतुका है कि जब आपने 17 जुलाई को इस मामले में जांच कमेटी गठित करने के बाद रिपोर्ट देने की बात कही थी, उसका क्या हुआ? रिपोर्ट तो छोड़िए, आपको ये पता भी है कि वो संवाददाता दोबारा उसी चैनल में चला गया जिस पर कि यौन उत्पीड़न को बढ़ावा देने और शूट करने के आरोप लगे थे ? जहां तक मुझे जानकारी है उस वक्त तो बीइए ने कमेटी गठित करने की बात प्रेस रिलीज जारी करके सार्वजनिक की लेकिन इस संवाददाता के दोबारा वापस उसी चैनल में काम करने को लेकर कुछ भी नहीं कहा. अगर संवाददाता दूध का धुला भी है तो क्या ये बात बीइए की जांच से स्पष्ट हुई है और अगर ये सब कोर्ट के ही विचाराधीन है तो उस वक्त जब ये पूरा मामला पूरी तरह कानूनी हो चुका था तो इसमे अलग से बीइए को बीच में पड़ने की क्या जरुरत थी ? तब दिबांग ने बड़ी शान से इस कमेटी में ट्वीट होने की बात ट्वीट किया था लेकिन उसके बाद इस संवाददाता के वापस जाने की बात पर कहीं कुछ नहीं. अगर आप ये सवाल करते हैं तो आपको ये समझने में मुश्किल नहीं होगी कि जिस तरह सरकारी तंत्र किसी भी घटना के तुरंत बाद जांच कमेटी गठित करने और मुआवजा देने की घोषणा में तत्परता दिखाता है, ठीक उसी तरह मीडिया के सेल्फ रेगुलेशन के ये अड्डे जांच कमेटी गठित करने की बात करके करते हैं. बाद में इसे पलटकर देखना और सार्वजनिक करना जरुरी नहीं समझते क्योंकि इन संस्थाओं का काम किए पर पर्दा डालने से ज्यादा नहीं है.

( संदर्भः गोवाहाटी की घटना को लेकर मैंने जनसत्ता में एक लेख लिखा था- "जिसकी निष्ठा खुद कटघरे में हो". इस लेख में हमने बताया था कि बीइए जैसी संस्था ने ऐसा कोई पहली बार नहीं किया है, पहले भी कर चुका है और आत्महत्या के लिए उकसाने के मामले को दस दिन के अंदर आधी-अधूरी रिपोर्ट में निबटा दिया. आप चाहें तो पूरे मामले को विस्तार से जानने के लिए वो लेख भी पढ़ सकते हैं.)  
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तरियानी छपरा, बिहार के उस अस्पताल के आगे काले पत्थर पर बाकायदा रेफरल अस्पताल लिखा था. मतलब एक ऐसा अस्पताल जहां दूसरे छोटे अस्पतालों के मरीज के गंभीर होने पर यहां भेजे जाने और बेहतर इलाज की सुविधा हो. इसका उद्घाटन तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव के हाथों हुआ था लेकिन जब हम इस अस्पताल को देखने गए तो उस वक्त नीतिश कुमार की सरकार थी. अखबारों,पत्रिकाओं और यहां तक कि नेशनल टीवी चैनलों पर उनके सुशासन का डंका बज रहा था. लेकिन

इस सुशासन में इतनी खुली जगह और विस्तार के बीच बना कोई अस्पताल इस हालत में भी हो सकता है, इसकी किसी भी हाल में कल्पना नहीं की जा सकती थी. चारों तरफ सिर्फ झाड़ियां और लत्तड. खिड़की के कांच तो छोड़िए, कई फ्रेम तक गायब. हम किसी तरह हॉस्पीटल के अंदर घुसे. अंदर भी जहां-तहां झाड़ियां उगी हुई. लगा हम पहले लोग हैं जो जमाने बाद इस हॉस्पीटल के अंदर आने की हिम्मत जुटा पा रहे हैं. और लग रहा था जैसे तरियानी छपरा की घनी आबादी के बीच कोई अजूबा तालाश ले रहे हों. लेकिन

जब और अंदर गए तो देखा कि एक-एक करके कई कमरे में पशुओं का चारा यानी पुआल तह लगाकर रखे हुए हैं. हम हर कमरे से गुजरते हुए बाहर लिखे को पढ़ रहे थे- एक्सरे कक्ष, प्रसूति गृह,शल्य चिकित्सा कक्ष आदि. नीचे सारे कमरे से गुजरने के बाद सीढ़ियों से उपर चढ़े. वहां सारे कमरे खाली और बिल्कुल ढहने की स्थिति में थे. कईयों में तो पीपल, नीम और बरगद के पेड़ उग आए थे. दीवारों के प्लास्तर बुरी तरह झड़ गए थे और कमरे के आगे का लिखा भी आधा-अधूरा ही रह गया था. लेकिन शराब की बोतलें, ताश के बिखरे पत्ते,सिगरेट और बीड़ी के टुकड़े देखकर समझते देर नहीं लगी कि ये जगह कुछ लोगों के लिए अड्डे के रुप में इस्तेमाल किया जाता रहा है. यानी इतने बड़े अस्पताल की इमारत का इस्तेमाल दो ही काम के लिए रह गया था- पशुओं के लिए चारा रखने और सिगरेट,शराब पीने और ताश खेलने के लिए.

इमारत के आसपास कुछ बच्चे अपने पशुओं के साथ नजर आए और हमने उनसे बात करने की कोशिश की. हमलोगों का हुलिया( बड़े-बड़े बाल और बढ़ी दाढ़ी) देखकर तो वे घबरा ही गए और समझ लिया कि ये बाहर के लोग हैं लेकिन उनमे से एक की मां ने बताना शुरु किया- बाबू, इ अस्पताल ठीक से शुरुए नहीं हुआ. बाकी इ है कि लंबे समय तक आगे टेबुल लगाके डॉक्टर साहब बैठते थे लेकिन कोई डॉक्टर इ इलाका में टिकना ही नहीं चाहता है. सबके सब शहर( मुजफ्फरपुर) में ही रहना चाहता है.

दूसरी बार हम राकेशजी( राकेश कुमार सिंह, मीडियानगर के संपादक) और अहमदाबाद से आगे विजेन्द्र के साथ इस अस्पताल में गए. विजेन्द्र ने बाहर से ही कैमरा रोल इन पर किया हुआ था और मैं धीरे-धीरे गुजरते हुए इस अस्पताल के बारे में तत्काल जो लग रहा था, बोलता जा रहा था. विजन्द्र ने इसे शूट करके कुल 8 मिनट की एक छोटी सी रिपोर्ट बनायी थी- ए डेड हॉस्पीटल. कोशिश यही थी कि इसी तरह इस इलाके के बाकी सार्वजनिक संस्थानों पर रिपोर्ट बनायी जाएगी और गांव के मुखिया को दिखाया जाएगा लेकिन ये काम भी अधूरा रह गया. हां हमने मिलकर इन सब चीजों की चर्चा जरुर की और बताया कि देखिए आपके यहां इस अस्पताल की क्या हालत है लेकिन इस पर कोई संतोषजनक प्रतिक्रिया नहीं मिली.

नीतिश कुमार के सुशासन के बीच आखिर कोई एक अस्पताल जानवरों का चारा रखने और शराबियों-जुआरियों का अड्डा बनकर भला कैसे रह सकता है ? इस सिरे से अगर सोचना शुरु करें तो बहुत संभव है कि ये तरियानी  छपरा के किसी एक अस्पताल का हाल नहीं होगा. हो सकता  है कि वहां इसी तरह चारा नहीं रहते होंगे लेकिन इलाज की व्यवस्था होगी, ये दावे के साथ नहीं कहा जा सकता. छपरा में मिड डे मील से 22 बच्चों की सही समय पर इलाज न होने से जान जाने की घटना इस आशंका की पुष्टि करती है.

करीब दस दिन रहकर हम तरियानी छपरा से वापस दिल्ली आ गए और जितना हो सका, वहां के स्थानीय लोगों के बीच मीडिय वर्कशॉप किया..लोगों से जो फीडबैक मिले उसमे इतना जरुर था कि गांव में हरकत आ गयी है और आपलोग जो कर रहे हैं, उसकी चर्चा हो रही है. सत्ता पक्ष के लोग थोड़े घबराए हुए भी हैं कि ये लोग आकर क्या कर रहा है ? इसकी कुछ झलक तो हमें मुखिया से बात करते वक्त भी मिल गई थी. बहरहाल,
मैं कभी इस तरह से गांव नहीं गया था और रहा तो बिल्कुल भी नहीं. गांव मेरे लिए सिर्फ प्रेमचंद और रेणु साहित्य को पढ़ने के बाद बनी एक कल्पना भर में था. लेकिन दस दिन बिताने के बाद लगा कि यहां तो मीडिया का कहीं भी दूर-दूर तक नामोनिशान नहीं है. बस कुछ घरों में अखबार आता है औऱ कुछ के घरों में लौकी की लत्तड के बीच छप्पर पर डिश टीवी टंग गए हैं. सड़कें बेहद खराब बल्कि है भी नहीं ठीक से. ऐसे में अगर कोई थोड़ा भी बीमार होता है तो मौत से फासला बहुत ही कम होता होगा.

दिल्ली आने के बाद तरियानी छपरा मन में अटक गया. वहां के लोगों से जो हमारे वर्कशॉप में शामिल हुए थे, बातचीत होती रही और उसी क्रम में वहां कुछ लोगों की हत्या की खबर मिलने लगी. हत्या के पीछे की वजह और तरीके बिल्कुल फिल्म गैंग्स ऑफ बासेपुर की तरह. इधर टीवी पर लगातार नीतिश के चारण में खबरें जारी रहती. बीच-बीच में बिहार के अखबारों के इंटरनेट संस्करण पर नजर दौड़ाता तो सुशासन की कहानी जारी रहती. मीडिया का मन जब इतने से नहीं माना तो एक के बाद एक सर्वश्रेष्ठ मुख्यमंत्री का खिताब देने लग गए.

पिछले दो साल से तरियानी छपरा के लोगों से संपर्क टूट गया है लेकिन मिड डे मील की खबर जब लगातार टीवी चैनलों पर तैरते देखा तो ये सब फ्लैशबैक की तरह याद आने लगे. फेसबुक पर अपडेट करने के बाद भी लगा कि ऐसे अस्पतालों,इलाकों की अलग से लगातार बात होनी चाहिए. इस सिरे पर खबरें होनी चाहिए कि आखिर क्यों ऐसे इलाके सिर्फ चुनाव और मौत के ही खबर बनते हैं. इधर चार-पांच सालों से डेवलपिंग जर्नलिज्म की एक नयी दूकान शुरु हुई है. इस दूकान से कितना भला हो रहा है अलग बात है लेकिन मेनस्ट्रीम मीडिया पहले से कहीं ज्यादा इत्मिनान हो गया है कि उसका काम खबर के नाम पर डॉक्यूमेंटरी बनाने का नहीं है, ये कम इस डीजे( डेवलपिंग जर्नलिज्म)वाले कर रहे हैं. लेकिन क्या कारण है कि सालभर जब वो इन खबरों को पूरी तरह नजरअंदाज करते हैं लेकिन दुर्घटना के वक्त पत्रकारिता तो छोडिए किसी एनजीओ की तरह हरकत में आ जाते हैं. पत्रकारिता की लंगोट एनजीओ की चड्डी बनकर फिट है बॉस हो जाती है. जाहिर है बच्चे की मौत के बीच ये सवाल अप्रासंगिक लगे क्योंकि हम फौरी घटना,कार्रवाई के अभ्यस्त हो चले हैं लेकिन इस देश में जिन करोड़ों की जान इन वेटिंग बना दी गई है, उस पर भी तो इसी फौरी कार्रवाई के बीच ही रहकर सोचा जाएगा न .

( ये तस्वीर राकेशजी ने मुहैया करायी है और उस 8 मिनट की रिपोर्ट खोजने में भी लगे हैं. उम्मीद है इन्टरनेट की रफ्तार और बिजली की हालत दुरुस्त होते ही हमें भेज देंगे) 

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बिहार के छपरा में मिड डे मील से 22 बच्चों की मौत और मधुबनी में दर्जनों बच्चे के बीमार होने की खबर के बीच मेनस्ट्रीम मीडिया की ममता उफान पर है. ममता का ये सागर गति पकड़े इसके पहले सियासत और सिस्टम के टीले से जा टकराती है और फिर सब कांग्रेस-बीजेपी की दालमखनी बनकर रह जाती है. ये सब देखना इतना असह्य और घिनौना लगा कि रहा नहीं गया और लगातार फेसबुक पर स्टेटस अपडेट करता गया. अलग-अलग समय में सरकारी और निजी अस्पतालों को लेकर मेरे अपने अनुभव रहे हैं जिन्हें आपसे टुकड़ों-टुकड़ों में ही सही, साझा करना जरुरी लग रहा है-




1)
रात के दो बजे मेरी मरी हालत देखकर और लगा कि बचने की बहुत ही कम संभावना है, पुष्कर Pushkar Pushp) को समझ ही नहीं आ रहा था कि क्या करें? जनवरी की ठंड, मुझे पकड़कर वो खुद भी रोने लगा- तुम्हें कुछ नहीं होगा, तुम्हें कुछ नहीं होने देंगे. अचानक भागकर अपने कमरे में गया और मेट्रो हॉस्पीटल की वो पर्ची ले आया जहां वो पहले गया था. मेट्रो हॉस्पीटल,नोएडा का वैसे बहुत नाम है.
टैक्सी आ गयी और वो हमे लेकर वहां गया. एडमिट हुए. चार घंटे तक कोई डॉक्टर नहीं आया. बस तामझाम और स्लाइन चढ़ाने का काम. बिल करीब नौ हजार बन गए थे तब तक और दुनियाभर की जांच. डॉक्टर का कुछ भी पता नहीं था. पेनकिलर से थोड़ी राहत हुई थी लेकिन ईलाज के नाम पर कुछ भी नहीं हुआ था. सुबह नौ बजने को आए और तब भी किसी डॉक्टर का अता-पता नहीं देखा तो हारकर हमने तय किया कि अब घर चलते हैं और वहां से तय करेंगे क्या करना है ? हम बस सलाईन और पेनकिलर के करीब नौ हजार रुपये देखकर बेहद उदास,हताश होकर घर वापस हो रहे थे..इस हॉस्पीटल के शहरभर में किऑस्क लगे हैं, विज्ञापन आते हैं. कभी आपने किसी निजी अस्पताल में खासकर ऐसे बड़े अस्पताल की गड़बड़ी की खबर मीडिया में देखी-सुनी है. एक स्तर पर इनकी हालत सरकारी अस्पतालों से भी बदतर होती है लेकिन खबर नहीं बनने पाती. लोगों के जेहन में मीडिया ने बिठा दिया है कि इलाज निजी अस्पताल में ही होते हैं, सरकारी अस्पताल में तो रिपोर्ट तैयार होती है बस. ऐसे में लगातार सरकारी अस्पतालों की आलोचना करके मीडिया निजी अस्पतालों के पक्ष में माहौल ही तैयार करता है.


2)

मेनस्ट्रीम मीडिया ये बहुत पहले मान चुका है कि सरकारी अस्पताल का काम पोस्टमार्टम रिपोर्ट देना और मृत्यु प्रमाण पत्र देना भर है, इलाज करना नहीं. ऐसे में विपदा में जो ममता के सागर पिक्चर ट्यूब से निकलकर हम तक बहते हैं, वो बहुत ही घिनौना लगता है.


3) 

कमाल खान ने श्रवास्ती के पूर्व विधायक भगवती बाबू पर ईमानदारी की मिसाल बताते हुए, गरीबीसे मौत होने को लेकर मार्मिक रिपोर्ट बनायी.जाहिर है रिपोर्ट का एक पक्ष ये बताता है कि कैसे भगवती बाबू ने गरीबी में लेकिन ईमानदारी के साथ जीवन जिया लेकिन दूसरा पक्ष बेहद ही क्रूर है. पहले उन्हें सरकारी अस्पताल में दाखिल किया गया लेकिन बाद में सुधार न होने पर निजी अस्पताल में और उनके पास सिर्फ पांच हजार रुपये थे और पैसे के अभाव में उनकी जान चली गई. भगवती बाबू अचानक नहीं मरे, पर्याप्त वक्त था जिसमें कई लोग आगे आते लेकिन उस सरकारी अस्पताल की कुव्यवस्था को लेकर कोई छानबीन नहीं हुई और न ही उस निजी अस्पताल पर सवाल उठाए गए कि पैसे के आगे उसने कैसे मरीज की जान जाने दे दी ?http://khabar.ndtv.com/video/show/news/282560


4)

मीडिया सर्किल के लोग बड़े शान से बताते हैं फलां को रॉकलैंड में, चिलां को मेदांता में,ढिमकाना को फार्टिस में देखने जाना है या मेको यहां एडमिट होना पड़ा. ऐसे किसी भी अस्पताल का नाम लेते मैं कभी नहीं सुनता जिनकी फुटेज वो चलाते हैं, जिनके विज्ञापन चलाते हैं, वहां का ही नाम लेते हैं. उन्हें पता है कि फुटेज चलाने लायक और इलाज कराने लायक दो अलग-अलग अस्पताल होते हैं. उन्होंने अपने को इस अस्पताल से अलग कर लिया है. शायद ही कभी पलटकर यहां स्टोरी की तलाश में जाते होंगे लेकिन जैसे ही मौत की खबर आती है, सबके भीतर ममता और करुणा का सागर उमड़ पड़ता है. ममता की ये बांध फिर झटके में टूटकर सिस्टम की ओर लपकती है और सारा कुछ कांग्रेस-बीजेपी की दाल-मखनी बनकर रह जाता है. पहले जब भी किसी बड़े व्यक्ति के इलाज होने या मौत होने की खबर आती थी तो राम मनोहर लोहिया, सफदरजंग,एम्स का नाम आता था लेकिन अब मेदांता,रॉकलैंड,फोर्टिस.आपको क्या लगता है, ये सिर्फ नाम बदल जाने का मामला भर है.


5)


मेरे रुम पार्टनर की उंगली कटकर बस अलग नहीं हुई थी, अटककर रह गई थी. हम उन्हें लेकर पहले तो पहुंचे डीयू हेल्थ सेंटर लेकिन उन्होंने सीधे हिन्दूराव भेज दिया. हम वैसे तो हिन्दूराव से पहले कई बार गुजर चुके थे और एक बार एडमिट भी लेकिन हमें पहली बार पता चला कि यहां की क्या हालत है ?
अंदर जो चढ़कर त्वाडी,थारे,मैनु टाइप से बात कर ले रहा हो, उसे पहले एटेंड कर लिया जाता और जो सामान्य तरीके से अपनी बात बताता,कोई पूछने-जाननेवाला नहीं. खैर, खून लगातार बह रहा था और एटेंडेंट ने बताया कि टांके लगेंगे.हम डॉक्टर का इंतजार करने लगे..और इंतजार करते-करते कब एक ऐसे शख्स ने चीनी की बोरी की तरह पार्टनर की उंगल की सिलाई कर दी, पता ही नहीं चला. वो तो जब उनके चीखने की आवाज आयी तो हम अंदर गए और देखा तो वो शख्स खींचकर धागा तोड़ रहा है. हमने कहा, रहने दीजिए.जब हमें पहले पता होता कि आप ही रफ्फूगिरी करोगे तो खुद ही कर लेते.
हिन्दूराव उत्तरी दिल्ली के बेहतरीन सरकारी अस्पतालों में से है.



6)

पप्पू की छत गिरने से परिवार के कुल 6-7 सदस्यों की एक ही साथ मौत हो गई थी. हम भटक रहे थे गुरुतेग बहादुर अस्पताल में. कहीं कोई बतानेवाला नहीं,किसी डॉक्टर की जुबान तक नहीं खुल रही थी. कब पोस्टमार्डम करेंगे, कब रिपोर्ट बनेगी, डेड बॉडी कब परिवारवालों पुलिस को सौंपी जाएगी, कुछ अता-पता नहीं. चारों तरफ कोहराम..आधी रात में हॉस्पीटल के आगे सिर्फ रोने-चीखने की आवाजें.किसी की कोई सुननेवाला नहीं. इस चीख में जो कुछ एप्रेन पहने लोगों की जुबान जो सुनाई देती थी वो सिर्फ- बैन की लौड़़ी..सुबह के छह बज गए.मरे हुए लोगों की डेथ रिपोर्ट तैयार करने में फिर भी सब अस्पष्ट था और बाकी जो मरीज रो-बिलख रहे थे, उनकी कहानी तो अलग ही है. लेकिन इन अस्पतालों की स्टोरी आपको कितनी बार दिखती है. मैक्स,फॉर्टिस,एपोलो के चमकीले विज्ञापनों के आगे इन अस्पतालों पर कितनी बार आपको गंभीरता से कुछ भी जानने-समझने का मौका मिलता है ? नहीं मिलेगा, क्योंकि हर चैनल के किसी न किसी उन चमकीले अस्पतालों से टाइअप होते हैं जिनके विज्ञापन आप स्क्रीन पर देखते हैं और वहां उनका इलाज हो जाता है या नहीं तो मेडीक्लेम है ही. बाकी नीचे स्तर के कर्मचारी मरें तो मरें अपनी बला से.


7)

रात के करीब ढाई बजे थे. हम जीबी पंत अस्पताल में घंटेभर से भटक रहे थे. हम उस शख्स की तलाश में थे जिसे कि जीबी रोड में गोली मारी गई थी. जीबी रोड जाने पर हमें जानकारी मिली थी कि हां ऐसी घटना तो हुई थी, पार्किंग के ठेके को लेकर और वो बंदा इसी अस्पताल में एडमिट होगा. हम भटकते रहे, पुलिस स्टेशन में पता किया. बताया,यहां तो ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है. आखिर में हॉस्पीटल के आगे मेरे साथ कैमरामैन को देखकर एक व्यक्ति ने पूछा- आपलोग इंडिया टीवी से आए हैं. हमने कहा- इंडिया टीवी से तो नहीं लेकिन टीवी से आए हैं..फिर वो शख्स हमे उसके पास ले गया. डॉक्टर जिस हालत में उसकी इलाज कर रहे थे, वो मरीज जैसे जिंदगी लौटने का और डॉक्टर उसके मरने का इंतजार कर रहे थे. स्थिति अब भी कुछ खास बदली नहीं है. हां बेडों की संख्या बढ़ाए जाने के किऑस्क जरुर लग गए हैं. चैनलों को बिहार के अस्पताल अगर जर्जर नजर आ रहे हैं तो देखिए जाकर महानगर,मेट्रो दिल्ली का अस्पताल, आपको लगेगा ही नहीं कि हम अंतिम शरणस्थली माने जानेवाले शहर के अस्पताल में मौजूद हैं. लालवाली-पीलीवाली-नीलीवाली रंगों से,नामों से नहीं अस्पताल में इलाज और दवाएं चल रही हैं..और हंसी आ रही थी अभी न्यूज24 पर रोहिणी के स्कूल की मिड डे मील को लेकर रिपोर्ट देखकर..ठेकेदार बताने में डर से हकला रहा है और रिपोर्टर तब भी स्टैंड के साथ अपनी बात नहीं रख पा रहा है.


8)


कोई 15 दिन पहले अपने एक प्रोफेसर को देखने एम्स जाना हुआ. एम्स घुसते ही एकबारगी आपको पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन और अस्पताल के बीच का फर्क खत्म होता नजर आएगा. लगेगा यहां भी हर 10-15 मिनट में बिहार,यूपी,एमपी से एक ट्रेन आती है और सवारी घर न जाकर यहीं रुक जाते हैं. चीख रहे,कराह रहे लोग, सीमेंट की बोरी बिछाकर लोगों की टूटी-बिखरी आधी गृहस्थी वहीं पड़ी थी. देखकर और उनमे से कुछ से बात करने पर लगा कि बीमार लोग कम सरकार और व्यवस्था ज्यादा है. पटना, बक्सर,छपरा,भटिंडा में बैठे डॉक्टर मरीज की पर्ची पर जैसे ही रेफर्ड टू एम्स लिखते होंगे, मरीज को लगता होगा, बस पर्ची कटाकर अमृत घोंट लेनी है. लेकिन

यहां एक दूसरे नरक का प्रवेश द्वार खुला होता है. आखिर एम्स भी कितनों को संभालें और फिर मरीज बीमार हो तब न, जब पूरा का पूरा देश ही बीमार है तो उसमे एम्स किस हद तक सुधार सकता है ? हमारे रिपोर्टर सुबह से चैनल माइक चमकाकर चार साल-पांच साल के बच्चे से पूछ रहे हैं- रोज यही खाना मिलता है, अस्पताल का हाल दिखा रहे हैं, लेकिन हादसे के बदले हालात पर कितनी रिपोर्टिंग हो रही है इस देश में ? ऐसा लगता है चैनल के भीतर रिपोर्टर की मीटिंग संपादक नहीं यमराज लेते हैं जो सिर्फ और सिर्फ मौत होने पर खबर फॉलोअप करने के आदेश जारी करते हैं. लगभग मैनेज हो चुका मीडिया क्या इन सबके बीच किसी भी तरह से जिम्मेदार नहीं है ? क्या जब वो नीतिश कुमार को सर्वश्रेष्ठ मुख्यमंत्री के ताज से नवाजता है तो इसके पहले वहां के स्कूल,अस्पताल,पुलिस चौकी का जायजा ले चुका होता है ? पूछिए ये सवाल मीडिया से, शायद ही जवाब होंगे उनके पास..तो जब आज उसी चैनल को मिड डे मील खराब, अस्पताल जर्जर, प्रशासन लापरवाह नजर आते हैं तो सर्वश्रेष्ठ मुख्यमंत्री करार देने के पीछे कौन से मानक काम करते हैं ? आपको बात बुरी लगे तो लगे लेकिन यकीन मानिए इस तरह की घटनाओं में कहीं न कहीं मीडिया भी उतना ही जिम्मेदार है जितना कि वो स्वयं सरकार को बता रहा है..उसने अपने भीतर के विपक्ष को मारकर सरकार के आगे लोटने का काम किया है और आगे भी करेगा.



9)


साल 2008 में हमलोग दस दिनों के लिए तरियानी छपरा,बिहार गए थे. वैसे तो ये मीडिया वर्कशॉप था जिसमे वहां के स्थानीय मुद्दे को लेकर लोग डॉक्यूमेंट्री फिल्में, रिपोर्ट आदि बना रहे थे. मेरा काम वहां के स्कूली बच्चों के बीच स्थानीय मुद्दे को लेकर अखबार निकालने का था और कैसे उसके लिए ये काम करना होगा, ये सब बताने-समझाने का था. लेकिन
भटकते-भटकते हम पहुंचे तरियानी छपरा के उस अस्पताल में जहां पूरे अस्पताल में सिर्फ जानवरों का चारा भरा था. वहां के कुछ दबंग लोगों ने इस अस्पताल को पूरी तरह अपने कब्जे में ले लिया था. ये जानते हुए कि पूरे अस्पताल में चारा ही होगा जब नीचे ऐसा है तो..फिर भी हम डेढ़ घंटे तक वहां एक-एक कमरे से गुजरे. प्रसूति गृह,एक्सरे सब कमरे के आगे इस तरह लिखा था लेकिन सब उजाड़ और चारे से भरा. सब देखकर बेहद गुस्सा आया और फिर अचानक आंख में आंसू आ गए और सचमुच बाहर की सीढियों पर बैठकर रोने लग गया.
अगले दिन राकेशजी ( Rakesh Kumar Singh) के साथ कैमरे और बाकी दूसरी चीजें लेकर गए और कोई सात मिनट की एक छोटी सी रिपोर्ट बनायी. तब मेरे पास न तो अपने लैपटॉप थे, न कैमरा और न ही कुछ और..सो सारी चीजें उन्हीं के पास रह गई.
उन्होंने वहां की बहुत सारी तस्वीरें लीं और शायद अभी भी हो. मैंने उनके ब्लॉग हफ्तावार पर बहुत खोजा, मिली नहीं.. उम्मीद है राकेशजी इस स्टेटस को पढ़कर वो रिपोर्ट और तस्वीर साझा करें.
ये प्रसंग मुझे बस इसलिए याद आ गया कि आज चैनलों पर बिहार में अस्पताल की दुर्दशा पर चर्चा हो रही है..ये क्या कोई एक दिन में हुआ है, ये उसी समय से होता आया है जब बिहार को मीडिया प्रूव सुशासन का राज्य बताया जाता रहा है, पहले से तो स्थिति खराब थी ही. 


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जब भी मैं नरेन्द्र मोदी को लेकर न्यूज चैनलों पर गदहे की लीद फैलते और एंकरों की ओर से उसे मथते देखता हूं और इधर सोशल मीडिया के तुर्रमखां को उसके नाम पर खो-खो,कबड्डी खेलते देखता हूं मुझे नलिन मेहता की किताब इंडिया ऑन टेलीविजन का अध्याय 7 यानी Modi and the camera: the politics of television in the 2000 gujrat riots का ध्यान आ जाता है. मोदी पर बात करने के बीच इस अध्याय को शामिल करना बेहद जरुरी है और तब आप समझ सकेंगे कि जिस गुजरात नरसंहार को लेकर नरेन्द्र मोदी ने अपनी ब्रांड इमेज( एपको जैसी कंपनी को करोड़ों रुपये देकर) दुरुस्त करने की कोशिश की और धीरे-धीरे मामले को इस तरह ट्विस्ट किया कि अब सब मोदी बनाम कांग्रेस हो गया है, दरअसल इस पूरे प्रसंग में मीडिया बिल्कुल पूरी तरह छूट गया.

आप जैसे ही मोदी बनाम कांग्रेस या मोदी और बीजेपी के अन्तर्कलह को बहस का मुद्दा बनाते हैं,एक बड़ा संदर्भ आपके हाथ से निकल जाता है. मसलन नरेन्द्र मोदी,गुजरात नरसंहार और इसके पीछे उसका मीडिया मैनेजमेंट के बीच क्या कभी उन मीडियाकर्मियों की जुबान को शामिल करते हैं, जिन्होंने उस समय और अभी भी गुजरात को कवर किया और करते आ रहे हैं. एक शो सिर्फ इस बात पर हो कि उस वक्त किस-किस ने गुजरात कवर किया था और उनके किस तरह के अनुभव रहे थे.

नलिन मेहता अपने इस अध्याय में जब लिखते हैं कि इस दौरान चैनल के मालिक को लाइव कवरेज किए जाने के कारण गिरफ्तार कर लिया गया, कैमरामैन को बुरी तरह पीटा गया, कई राष्ट्रीय चैनल के संवाददाताओं पर जुल्म ढाहे गए, नरेन्द्र मोदी ने खुलेआम एक के बाद एक अपने भाषण में कहा कि टेलीविजन नेटवर्क गुजरात की छवि को गंदला करने और यहां के लोगों को बलात्कारी और हत्यारा बनाने में लगे हैं और इससे गुजरात की अस्मिता को खतरा है( chief minister Narendra Modi, in speech after speech,sought to paint the national media as the villain of the piece. the televison networks had 'besmirch(ed) Gujratis as rapists and murderers',he declared) तो इससे आप सहज अंदाजा लगा सकते हैं कि वो इस न्यूज मीडिया को लेकर क्या राय रखते थे. और आपको क्या लगता है कि ऐसा उन्होंने सिर्फ भाषणों में बोलकर छोड़ दिया. नलिन मेहता ने आजतक,एनडीटीवी जैसे चैनलों और बरखा दत्त जैसी मीडियाकर्मियों का बाकायदा नाम जिक्र करके बताया है कि इन सबों के साथ नरेन्द्र मोदी की सरकार ने क्या किया और कैसे कुचलने में कोई कसर नहीं छोड़ी ?

तब टेलीविजन नया था और स्वयं नरेन्द्र मोदी को इस बात का अंदाजा नहीं था कि उसका इस कदर असर होगा कि दुनियाभर में मेरी और गुजरात की छवि मुसलमानों के साथ भेदभाव करनेवाले के रुप में इस कदर बनेगी कि हमारे लिए हत्यारा जैसे शब्द का प्रयोग किया जाने लगेगा. इसमे अमेरिकी टेलीविजन भी सक्रिय होंगे. लेकिन जब इस टेलीविजन ने अपना असर दिखाना शुरु किया तो नरेन्द्र मोदी को भी अपनी लीला रचने में( कुचलने के अलावे दूसरे स्तर पर भी) समय नहीं लगा. मसलन उसी साल नबम्वर में नरेन्द्र मोदी ने इस नरसंहार मामले को धोने-पोछने के लिए गुजरात गौरव यात्रा किया तो उसी मीडिया को मैनेज करने की कोशिश की और अब तो खुले तौर पर वे इसमे कामयाब है, जिन्हें जमकर कुचलने की कोशिश करते रहे.

दिल्ली से 30 पत्रकारों के लिए इस यात्रा को कवर के इंतजाम किए गए, नरेन्द्र मोदी तब अपने भाषण गुजराती में ही दिया करते थे लेकिन इसमें उन्होंने गुजरातियों से माफी मांगते हुए हिन्दी में दिया और कहा कि ऐसा वे टेलीविजन बंधु के लिए कर रहे हैं ताकि पूरी दुनिया के लोग उनके भाषण को सुन सके( 'so the whole world should hear his speech') जाहिर है जब पूरी दुनिया में नरेन्द्र मोदी की छवि मुस्लिमों का हत्यारा के रुप में बन रही थी तो उनके संत होने की छवि भी पूरी दुनिया के बीच की बननी थी. इस काम में टेलीविजन ने जमकर मदद किया. इस बीच नरेन्द्र मोदी को लेकर खबरें आती रहीं, कोर्ट में सुनवाई को लेकर फुटेज दिखाए जाते रहे और उपरी तौर पर तल्खी दिखने के बावजूद इन न्यूज चैनलों की तासीर काफी हद तक कम होती चली गई. बीच-बीच में ये खबर जरुर सुनने को मिले कि आजतक के फलां रिपोर्टर पर हमला किया, कैमरे तोड़ दिए, चैनल बैन कर दिया लेकिन नरेन्द्र मोदी न केवल चुनाव जीते बल्कि देखते-देखते इसी मीडिया में उसकी छवि विकास पुरुष के रुप में बनती चली गई. ये जरुर है कि इसी गुजरात कवरेज से कई टेलीविजन चेहरे एकाएक चमके और इन्डस्ट्री में काफी तरक्की कर गए. जैसे उनके लिए ये नरसंहार वरदान बनकर आया हो.

लेकिन आज अगर गुजरात में किसी के कैमरे तोड़े नहीं जाते, किसी रिपोर्टर पर हमले नहीं होते या किसी चैनल को बैन नहीं किया जाता तो इसका मतलब क्या निकाला जाए, नरेन्द्र मोदी इस 12-13 सालों में पहले से बहुत ही ज्यादा उदार हो गए हैं या फिर मीडिया की कमान संपादक के हाथों खिसककर उस बैलेंस शीट पर जाकर खिसक गया है जहां मोदी और गुजरात सामाजिक-राजनीतिक स्तर की बहस का मुद्दा नहीं है, लूडो की गोटियां हैं जिन्हें बारी-बारी से लाल करनी है या फिर स्क्रीन की टैटो जिन्हें दर्शकों के आगे गर्म करने दागनी है ? आज जो सारे चैनलों पर नरेन्द्र मोदी बनाम कांग्रेस चल रहा है और इसी के इर्द-गिर्द सेकुलरिज्म,हिन्दुत्व और सांप्रदायिकता के छल्ले बनाए जा रहे हैं क्या ये सिर्फ इन दो राजनीतिक पार्टियों के बीच बनाम खेल है, जिस मीडिया को पहले नरेन्द्र मोदी ने बुरी तरह कुचलने की कोशिश की, कुचला वो मीडिया नरेन्द्र मोदी का बनाम नहीं हो सकता था ? अगर क्रांग्रेस औऱ इस देश के मतदाताओं के अपने सेकुलरिज्म है तो मीडिया के भीतर या उसके अपने सेकुलरिज्म नहीं है या नहीं होने चाहिए. आज टीवी चैनल जो नरेन्द्र मोदी को कांग्रेस का भारी दुश्मन( दुश्मन न भी कहें तो प्रतिपक्ष ही सही) बता रहा है क्या खुद मीडिया के लिए वो उतने ही बड़े दुश्मन नहीं रहे हैं ?

आप जब भी इस सिरे से सवाल को समझने की कोशिश करेंगे तो सहज रुप से समझ सकेंगे कि मीडिया नरेन्द्र मोदी और उसकी सरकार से शुरुआती दौर में मारपीट, घमकी,डंडे खाने के बाद धीरे-धीरे मैनेज होता चला गया( अब तो नरेन्द्र मोदी मीडिया के लिए बाकायदा एक क्लाइंट है), वो अपने मोर्चे पर इस मीडिया विरोधी से अपनी लड़ाई बहुत पहले हार चुका है और अपनी इस हार को उन उलजुलूल बहसों में उलझाकर धारदार होने का भ्रम पैदा कर रहा है जिसके भीतर उसके सिर्फ और सिर्फ अर्थशास्त्र पनप रहे हैं. तब आप कहेंगे कि जो मीडिया खुद अपने मोर्चे पर हार चुका है, वो भला किस निष्कर्ष तक हम दर्शकों को ले जाएगा ? तो आखिर उसने किया क्या है ?

किया ये है  कि करीब दो-दो घंटे तक लाइव फुटेज चला रहा है और नरेन्द्र मोदी की फील्डिंग और मीडिया मैनेजमेंट ने सोशल मीडिया पर ऐसे हजारों तुर्रमखां पैदा कर दिए हैं, जिन्हें इसमें कहीं कोई दिक्कत नजर नहीं आता. आखिर मीडिया की कंसेंट मेकिंग थीअरि ऐसे ही तो काम करती है. चूंकि हमारे यहां राजनीतिक घटनाओं के इतिहास लेखन के अलावे मीडिया को लेकर इतिहास लेखन की परंपरा नहीं है तो इस सिरे से सब हवा-हवा हो जाता है लेकिन नलिन जैसे लोग आगे इस पर गंभीरता से काम करेंगे शायद.

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यूटीबी बिंदास का शो “बेग बॉरो स्टील, सीजन 10” रियलिटी शो की भीड़ से अलग शो है. ये जरुर है कि गौर करें तो प्रतिभागी को जो टास्क दिए जाते हैं, वो आपको एमटीवी रोडीज में भी थोड़ी-बहुत हेर-फेर के साथ मिल जाएंगे या फिर जिसने स्टूडेंट ऑफ द इयर फिल्म देखी हो, दो-चार टास्क वहां से भी याद आ जाएंगे. लेकिन शो की खास बात सिर्फ टास्क को लेकर नहीं है.
सबसे अलग बात तो ये कि इस शो के एपीसोड देखने के क्रम में अंग्रेजी-हिन्दी के उन मुहावरे को आप फिर से याद कर सकेंगे जिन्हें कि या तो हम-आप भूल चुके हैं या फिर इस्तेमाल में नहीं लाते. हर टास्क एक मुहावरे पर आधारित होता है. ऐसे में इसे आप मुहावरे के विजुअलाइजेशन का शो कह सकते हैं. दूसरी बात जो कि नाम से ही स्पष्ट है कि इसमे प्रतिभागी को चाहे कोई भी काम दिए जाएं, उसके लिए उन्हें अनजान लोंगे से या तो भीख मांगनी होती है, उधार लेना होता है या फिर चोरी करनी होती है.यानी एक ऐसी जिंदगी जिसमें अपना कुछ भी नहीं होता फिर भी जीने की शैली विकसित करनी होती है.
ये ठीक बात है कि ये सब फन और कॉन्टेस्ट भर के लिए है लेकिन ऐसा करते हुए प्रतिभागी हिन्दुस्तान के उन-उन इलाकों में चले जाते हैं और यूटीवी बिंदास पर बैल,गोबर,मटके, पगडंडी और धूल-धूसर वो ग्रामीण तक शामिल हो जाते हैं जिनकी मनोरंजन चैनल क्या न्यूज चैनलों में भी गुंजाईश घटती जा रही है..आपको शहरी कॉन्वेंटी युवा पर फोकस इस चैनल पर अनपढ़-मटमैले कपड़े में खटारा बसों में धक्के खाते लोगों के बीच अंजिरा वॉट जैसी अंग्रेजीदां लड़की को देखना हैरान कर सकता है लेकिन एक ही देश की दो अलग-अलग संस्कृति के बीच उन बिन्दुओं से गुजरने हुए ग्लैमर और हाशिए के समाज को लेकर दो दुनिया की पहचान भी मिलेगी. संभव है आपको एमटी के शो साउंड ट्रिपन के लिए भटकती स्नेहा खनवलकर का ध्यान आ जाए.
 यहीं पर आकर प्रतिभागी को दिए टास्क से कहीं ज्यादा परिवेश और टेलीविजन से बेदखल कर दिए हिन्दुस्तान के हिस्से के टेस्ट चेंजर के रुप में ही सही, बचे रहने का संतोष होगा और बीच-बीच में चैनल के रवैये पर अफसोस और गुस्सा भी आएगा. मसलन आपको तब बहुत ज्यादा गुस्सा आएगा जब अंजिरा को सजा के रुप में बैंडिट क्वीन की पोशाक पहनने के लिए कहा जाएगा. बच्चों के बीच घुलती-मिलती अंजीरा अचानक उनसे जब ये बार-बार दोहराने कहेगी- एप्पी फ्रेश अच्छी ड्रिंक है..आप तब उस ग्रामीण परिवेश से छिटकर इस सवाल पर टिक जाएंगे कि पूरे शो में जब चैनल के लोगो से ज्यादा बड़ी एप्पी की बोतल स्क्रीन पर चिपकी ही है तो अलग से ये एप्पी मंगलाचरण करवाने की क्या जरुरत थी ?
मूलतः प्रकाशितः तहलका,हिन्दी
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अच्छे भले शरीर का
अचानक कटे पेड़ के माफिक
बिस्तर पर गिर जाना,
चहकते चेहरे का एक गुमसुम
पोटली में बदल जाना
आंखों की नीली-सफेद वृत्तियों पर
सपेने के बजाय उदासी का तैरने लग जाना
मिट जाना सुबह और शाम के फर्क का
एक-एक करके सारे संबंध औ संबोधन
लगने लग जाते हैं किनारे
जैसे तालाब में पत्थर के डूबने के साथ ही
तरंगों की चकरियां ओझल होती चली जाती है
सचमुच बीमार होने की इस भाववाचक संज्ञा का होना
कितना नकारात्मक है !

तब हम अपने हाथ पर छूने का
आंखों के ठीक-ठीक देखे जाने का,
दिल-दिमाग के चुस्त रहने का भरोसा नहीं कर पाते
हम एक टूटे-बिखरे खिलौने के मानिंद
अक्सर खोजने लगते हैं भावना की एक पेचकस
जो भावों की ढीली पड़ी पेंच को कसता चला जाए
और जितनी जल्द हो सके झुठला ला सके
इस नाकारात्मक शब्द को.

क्या करते हैं हम बीमार होने पर वैसे
कीबोर्ड पर किटकिटाती उंगलियां लग जाती है
टेबलेट छिलने में, चम्मच में सिरप उड़ेलने
आंखे एक्सपायरी डेट पढ़ने में और कान
सांसों की आवाजाही सुनने में
और मन ?

और मन इन सबसे अलग भावों की वो पेचकस न मिलने पर
उदास नहीं होता है
वो तब लग जाता है नए सिरे से
इसी बिखरे खिलौने के बीच संबंधों को खोजने में
वो तब कलेजे में खोज निकालता है एक मां,
भाग-भागकर काढ़ा बनाती बहन, डांट-डपट करता भाई
और नसीहतों के पुलिंदे फेंकते पापा
लेकिन ये बहुत देर तक थोड़े ही न टिक पाते हैं अपने इसी रुप में
वो जल्द ही बंट जाते हैं मुक्तिबोध के मैं और वह में
बिखरे खिलौने जैसा शरीर वह हो जाता है
और ये सब मिलकर मैं
और ये खुद में खुद को खोजने की कोशिश
अनवरत तब तक चलती रहती है
जब तक थर्मामीटर का पारा गिरकर सामान्य पर
न अटक जाए
उगलियां कीबोर्ड पर फिर से न थिरकरने न लग जाए
सुबह और शाम का फर्क दो ध्रुवों में बंटा न दिखने न लग जाए
इस पूरी प्रक्रिया में हम सच में कितना प्यार करने लगते हैं खुद से
कितनी ममता आती है खुद पर,कितना लाड़ होता है अपने पर
उन बिखरे समय को समेटते हैं, उन भावों को जमा करते हैं
जो सामान्य दिनों पर अटक जाता हैं दूसरों पर, जाया कर देते हैं दूसरों पर लेकिन
इस मैं और वह में कैसे बारी-बारी से हम बनते हैं जायसी के आशिक
और कबीर के राजाराम भरतार.

ये सब चलता है बीमार होने के उसी नकारात्मक भाववाचक संज्ञा के भीतर
जब सारे संबंध और संबोधन तालाब के छल्ले की तरह किनारे लगने लगते हैं
औपरचारिक होने की जिद में फंसे के बीच हम एक मुद्दा भर बनकर चर्चा में होते हैं
सोचिए तो कितना खूबसूरत है न बीमार होने की पीड़ा के बीच इस बीमार शब्द का होना
जब शुरु होते हैं भीतर के कई प्रोजेक्ट जिसे हमने बहुत पहले
पता नहीं किस नाउम्मीदी में,किसके भरोसे
अधूरी छोड़कर निकल आए थे.
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क्या किसी प्रेम कहानी की शुरुआत नागार्जुन की कविता "अकाल और उसके बाद" से और हाथ से,पेंटिंग की हुई एक पत्ती को पेड़ पर अटकाने की तमन्ना पूरी कर लेने के साथ खत्म हो सकती है ? एचडी और एम पी थ्री प्लेयर के जमाने में मरफी रेडियो बार-बार इतने स्पष्ट रुप से आ सकता है कि हम उसे आखिर तक एक चरित्र के रुप में याद रखते हैं, अखबारों की भीड़ और मारकाट की प्रतिस्पर्धा के बीच अब भी स्टेट्समैन एक बुद्धिजीवी और एलिट समाज की अभिरुचि को रेखांकित कर सकता है और खबरिया चैनलों के पैकेजों के बीच रेडियो के समाचार आप्तवचन करार दिए जा सकते हैं ? फिल्म लुटेरा देखने के दौरान अगर आप इन सवालों से बार-बार टकराते हैं तो यकीन मानिए ये सारी चीजें सिर्फ वायवीय कल्पना पैदा करने या फिर आजादी के ठीक बाद जमींदारी प्रथा खत्म होने के दौरान के ऐतिहासिक परिवेश रचने भर के लिए काम में नहीं लाए गए है. ये फिल्म पर्दे पर ईसवी सन् टांकने के बावजूद अतीत में लौटने की नहीं बल्कि रखड़ खा रहे वर्तमान के बीचोंबीच स्पीड ब्रेकर लगाने का काम करती है..और तब आप नार्गाजुन की कविता से लेकर हाथ से बनी पत्ती को चढ़कर उंचे पेड़ पर टांकने का अर्थ ले पाते हैं.

फिल्म की कहानी जैसे-जैसे आगे बढ़ती है वैसे-वैसे ये कविता, ये रेडियो, ठूंठ होते पेड़,बार-बार मचोड़कर गुस्से से फेंके गए कागज के अर्थ का न केवल विस्तार होता है बल्कि ये स्वयं कहानी के पात्र और परिवेश बनते चले जाते हैं. ऐसे में अगर आप कहानी के मानव पात्रों को हटा भी देते हैं तो एक स्वतंत्र कहानी बनती दिखती है और ये कहानी हमे जीवन शैली के उन सांस्कृतिक अतीत की ओर ले जाती है जिसे कि हम रफ्तार देती जिंदगी के बीच या तो छोड़ते चले जा रहे हैं या फिर छूट जाना ही स्वाभाविक लगने लग जाता है.

फिल्म की सबसे खास बात है कि मौजूदा दौर में जिन-जिन चीजों को गैरजरुरी, चमकदार न होने के वजह से हाशिए पर धकेलते जाते हैं वो सबके सब फिल्म में एक मिशन में लगा दिए जाते हैं. ऐसा करते हुए फिल्म इत्मिनान का परिवेश तो रचती ही है साथ ही अपनी रफ्तार में भी काफी धीमी हो जाती है. हमारे साथी जो फिल्म का धीमा हो जाना ऐब की तरह देखते हैं, उन्हें ये फिल्म निराश करने के बजाय उनकी इस आदत पर फिर से विचार करने को मजबूर करेगी. पर्याप्त धैर्य, कबाड़ करार दी गई चीजें या फिर उन्हें एंटिक बना दिए जाने की दोनों स्थितियों के बीच ये उन्हें स्वाभाविक बनाती है और ये स्वाभाविकता ही इस फिल्म को बिल्कुल अलग कर देती है. मसलन फेसबुक और व्हाट अप के बीच जहां एसएमएस भी पुराना पड़ गया है, वहां नींव की कलम से पूरी किताब लिखते हुए दिखाना( जिस बहाने हम भले ही सोनाक्षी सिन्हा की बेहद खराब हिन्दी हैंडराइटिंग देख लेते हैं), करोड़ों रुपये की मूर्ति और एंटिक चीजों की चोरी करने के बीच नायक वरुण का पूरी फिल्म में पेंटिंग सीखने के लिए तत्पर रहना, नायिका पाखी का लिखने को जिंदगी की सबसे बड़ी चीज मानना ये दरअसल पूरी फिल्म को साहित्य और कला की उस बहस की ओर ले जाती है जिसे हम रोमैंटिसिज्म और हिन्दी में छायावाद और उसके बाद के कालखंड़ में पढ़ते-लिखते आए हैं. ये जीवन में लोहे-लक्कड-कबाड और फ्लैट के पीछे जान देने के बीच सांस्कृतिक पूंजी( culture capital) को बचाने की जद्दोजहद है. एक लिखकर जिंदा रहना चाहती है और एक पेंटिग करके जिंदगी बचाना चाहता है. लौंग्जाइन्स के काव्य के उद्दात्त तत्व से लेकर क्रोचे का अभिव्यंजनावाद...आपको पूरी फिल्म में पाश्चात्य काव्यशास्त्र और कला के सिद्धांत की बहसें याद आएंगी..और इन बहसों के बीच से आप बार-बार इस सवाल से टकराएंगे- हमारे जीवन में साहित्य और कला की क्या उपयोगिता है और हो सकती है ?

वैसे तो नागार्जुन की कविता की पंक्तियों- कई दिनों तक चूल्हा रोया,चक्की रही उदास के अलावे कला और साहित्य को लेकर न तो कोई विमर्श है और न ही उसका जिक्र लेकिन इस फिल्म में इनके परिप्रेक्ष्य में बातचीत करने की पर्याप्त गुंजाईश है और तब एक हद तक ये निष्कर्ष भी निकाला जा सकता है कि जिन्हें कला,साहित्य और ठहराव और जिंदगी के कुछ कोने का धीमा भी होना जरुरी है जैसी चीजों में यकीन और दिलचस्पी नहीं है, उन्हें ये फिल्म बिल्कुल भी पसंद नहीं आएगी. लंबे समय तक हिन्दी फिल्म का मतलब जेनरेटर की तरह भड़-भड़ होना और मेट्रो की तरह स्पीड पकड़ लेने की अभ्यस्त रही ऑडिएंस को ये फिल्म ऊब पैदा करती हुई जान पड़ेगी लेकिन इसके धीमे होने और मद्धिम होने के बीच से हम जिन सवालों,स्थितियों और मनोभावों से गुजरते हैं वो इधर की फिल्मों में शायद ही मयस्सर होते हैं और तभी लगता है कि ये ऑडिएंस को काफी हद तक "सिने-साक्षर" करती चली जाती है. इस पूरी फिल्म की अंडरटोन सिनेमा को कैसे देखा जाना चाहिए और सिनेमा किस तरह का हो है. इन दोनों बातों के बीच सबसे दिलचस्प पहलू है कि इसने दर्शकों की काबिलियत पर भरपूर भरोसा किया है. हिन्दी समाचार चैनलों की तरह सबकुछ की व्ऑइस ओवर नहीं है और न ही स्क्रीन को अखबार बनाने की कोशिश. जो बातें सीन और फ्रेम के जरिए व्यक्त हो जा रही है, उसके लिए संवाद रोक दिए गए हैं. कम संवादों के बीच इन फ्रेम्स और सीन अपने अर्थ का विस्तार कर पाते हैं और तब दर्शक उनसे अर्थ ग्रहण कर पाते हैं. इससे सिनेमा की उम्र बढ़ी है. नहीं तो बैग्ग्राउंड म्यूजिक, अत्यधिक, संवादों. तेजी से स्लाइड शो की तरह बदलते दृश्यों के बीच सिनेमा तिल-तिलकर मर रहा है और ऐसा लगता है कि जैसे तकनीक के आगे निर्देशक ने हथियार डाल दिए हों. इस फिल्म के निर्देशक विक्रमादित्य मोटवाने ने इसके आगे हथियार डालने के बजाय इसकी अनुपस्थिति के बीच के कौशल को फिर से स्थापित करने की बेहतरीन कोशिश की है.

जब आप पुराने साहित्य बारहमासा पढ़ेगे, यहां तक कि छायावाद और अंग्रेजी में रोमैंटिसिज्म पढ़ेंगे जिसका एक हिस्सा नेचर प्रेजिंग पोएट्री है तो वहां एक मूलभूत सिद्धांत काम करता है कि मानवीय दशा के अनुसार ही प्रकृति दिखाई देती है. मतलब नायक-नायिका खुश तो प्रकृति भी खुश, उदास तो वो भी उदास.लेकिन इस फिल्म में आपको प्रकृति का या तो बिल्कुल तटस्थ,उदासीन या फिर खलरुप दिखेगा, यहां तक कि डलहौजी जैसी खूबसूरत जगह में भी. प्रकृति के इस रुप को देखकर आपको जयशंकर प्रसाद की कामायनी की याद आएगी..साहित्य और कला के ऐसे प्रसंगों के याद आने से एक किस्म का उत्साह भी होता है और एक तरह से कचोट भी कि जिन चीजों को पिछले दस सालों से बदरंग,बोरिंग,उदास और उबाउ कहकर इसके खिलाफ वोकेशनल की मार्केट तैयार की गई, वो आज कैसे धीरे-धीरे और एक-एक करके उस माध्यम में लौट रहा है, जिन पर करोड़ों रुपये के दांव लगे हैं. एक कॉलेज और विश्वविद्यालय जब साहित्य, कला और सैद्धांतिकी को गंभीरता से पढ़ने-पढ़ाने का रिस्का नहीं उठा पा रहा हो, ऐसे में सिनेमा के जरिए इन सबका मौजूद होना, बहस में आना इसके स्थायी महत्व और जीवन में इसकी जरुरत को मजबूती से रेखांकित करता है. क्या जिसने इस घोर कर्मशियल फिल्म में बाबा नागार्जुन की कविता अकाल और उसके बाद घुसा दी, उन्हें पता नहीं होगा कि कॉन्वेंट स्कूलों से पढ़कर आयी हमारी जेड जेनरेशन की ऑडिएंस ने हिन्दी को कुनैन की गोली की तरह लिया है, वो इसे कितना समझेगी..लेकिन बाजार के जरिए ही इसकी स्वीकार्यता का विस्तार तो कर रहे हैं न ? और फिर अगर हमारी जिंदगी से ये कविताएं, साहित्य और कला के विमर्श गायब हो जाएं तो हम कैसे समझ सकेंगे कि जिस पाखी रॉय चौधरी का प्रेमी उसके बाप को धोखा दिया और जान चली गई, अपने दोस्त की जान ले ली और जिसे वो स्वयं सोचती है कि जान से मार डाले, वो आखिर तक क्यों उसके प्रेम की बारीकियों को समझ लेती है ? क्या जिंदगी की ये बारीकियां मैनेजमेंट और पीआर कोर्स करके समझी जा सकती है ?

फिल्मों को लेकर अच्छी,खराब,सो-सो,पैसा वसूल, तीन मिर्ची..टाइप से कैटेगराइज करने की जो कवायदें शुरु हुई है तो सच पूछिए ऐसी फिल्मों के लिए जो ये तरीका अपनाते हैं और इसे ही विमर्श का हिस्सा बनाते हैं, वो सिनेमा के लिए "विशेषण की बहुलता" की मांग करती है. विशेषण की इस बहुलता में हां,न,अच्छी,बुरी,सो-सो,टाइम पास जैसी वनलाइनर कमेंट के बजाय अपनी कहानी और ट्रीटमेंट के अनुरुप ही पैसेज-दर-पैसेज चर्चा की मांग करती है..जो सिनेमा की इस तरह की चर्चा में दिलचस्पी में यकीन रखते हैं, उनके लिए ये एक बेहद ही खूबसूरत फिल्म है और जो घर में कूकर में राजमा-चावल चढ़ाकर आए हैं और लौटने की जल्दी है( सिर्फ अवधि के स्तर पर नहीं,दिमागी प्रबंधन के स्तर पर भी) उनके लिए तो पुलिसगिरी सेम डे,सेम टिकट पर है ही..:)     
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A 2 Z चैनल के एंकर और संवाददाता मालिक के बेहूदे फरमान से खासा परेशान हैं. उन्होंने इसका खुलकर विरोध किया है लेकिन स्थिति में कोई बदलाव नहीं आए हैं. उल्टे मालिक को इस बात की खुशफहमी है कि देर-सबेर बाकी के चैनल उन्हें फॉलो करेंगे.

जैसा कि पहले भी हमने आपसे ये बात साझा की थी और इस संबंध में वीडियो भी जारी किया था कि इस चैनल के मालिक ने एंकरों और संवाददाताओं को हिदायत दी है कि वो जब भी नेताओं का नाम लें तो उसके साथ जी का इस्तेमाल करें. जैसे मोदीजी, जयराम रमेशजी. मीडिया एथिक्स की तो छोड़िए, मालिक के इस फरमान से एंकर और संवाददाता को खबर पढ़ने और प्रेषित करने में दिक्कत हो रही है. वो जी बोलते समय सहज नहीं रह पाते या फिर कई बार अटक भी जाते हैं. इस संबंध में फेसबुक पर लगातार प्रतिक्रिया का आना जारी है जिसमें ये भी कहा जा रहा है कि ये सब आनेवाले चुनाव को ध्यान में रखते हुए किया जा रहा है. बहरहाल

फेसबुक के साथ इन दिनों अच्छी बात है कि मीडिया के कई पुराने और सालों से मुख्यधारा मीडिया से जुड़े रहे लोग न केवल सक्रिय हैं बल्कि वो हम जैसे नए लोगों की बातों को गंभीरता से सुनते भी हैं और जरुरत के हिसाब से रिस्पांड भी करते हैं. इसी क्रम में हमने इस स्थिति को आजतक के पूर्व समाचार निर्देशक और टेलीविजन के अनुभवी वरिष्ठ पत्रकार कमर वहीद नकवी की फेसबुक टाइमलाइन पर साझा किया तो उन्होंने बहुत ही स्पष्ट शब्दों में अपनी बात कही -

"किसी समय हिन्दी अखबारों में नाम के आगे श्री/सुश्री/श्रीमती आदि लगाने की परंपरा थी, जिसे संभवतः 70 के दशक में छोड़ दिया गया और इन आदरसूचक सम्बोधनों को पूरी तरह त्याग दिया गया. लेकिन नाम के बाद 'जी' लगाने की" कभी कोई परंपरा नहीं थीआधुनिक पत्रकारिता की रीति-नीति के अनुसार न तो श्री लगाया जाना चाहिए और न ही जी लगाया जाना चाहिए. ऐसा करना पत्रकारिता की गरिमा के विरुद्ध है."

जाहिर है इनके कथन से ये स्पष्ट है कि मीडिया का जो पैटर्न आज से चालीस साल पहले ही खत्म हो गया हो, प्रचलन में नहीं रहा, उसे दोबारा शुरु करना पुराने पैटर्न की तरफ लौटने के बजाय इसे हास्यास्पद स्थिति में धकेलना है. एक हद तक फॉर्मेट के स्तर पर बनी तटस्थता को भंग करना है. लेकिन चैनल के मालिक को पत्रकारिता की इस बुनियादी समझ से कोई लेना-देना नहीं है और न ही इस बात की रत्तीभर भी समझ है. अगर ऐसा होता तो वो इस पर विचार करने के बजाय इस खुशफहमी में न रहते कि देरसबेर बाकी के चैनल भी इन्हें फॉलो करेंगे.


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मीडिया में चंपूगिरी और इस इन्डस्ट्री को चंडूखाना बनाने के लिए बहुत अधिक काबिलियत की जरुरत नहीं होती बल्कि इसके ठीक उलट जितने बड़े चम्मच रहें,वो उतने ही कायदे से ये काम कर सकता है. ये भी है कि अगर इस इन्डस्ट्री में आए लोगों को टीटीएम( ताबड़तोड़ तेल मालिश) करके ही अपनी जगह बनानी है तो इसकी शुरुआत किसी भी चैनल से की जा सकती है. इसका एक नमूना ए टू जेड चैनल में प्रसारित हो रही खबरों के तरीके को लेकर समझा जा सकता है.

कहा जा रहा है कि चैनल में आए नए-नए एक शख्स की शह पर वहां के आका ने अपने एंकर और रिपोर्टरों को ये फरमान जारी किया है कि वो जिस किसी भी नेता का जिक्र करेंगे, उसके साथ जी लगाएंगे. जैसे मोदीजी, आडवाणीजी, जयराम रमेशजी आदि. हमने जब बुलेटिन में इस तरह के प्रयोग सुने तो न केवल बेहूदा लगा बल्कि चैनल में बैठे उस शख्स की मानसिक बुनावट पर तरस भी आयी. पत्रकारिता( जिसे कि न्यूज चैनलों के लिए जितनी जल्दी संभव हो, प्रयोग बंद कर देने चाहिए) का मूलभूत नियम ये कहता है कि किसी भी नाम के साथ अतिरिक्त सम्मानसूचक शब्द का प्रयोग नहीं किया जाता. ये सिर्फ शाब्दिक प्रयोग का मामला नहीं बल्कि खबरों और उनसे जुड़े लोगों के प्रति अपनी तटस्थता बनाए रखने का सांकेतिक प्रयोग भी है. जिन लोगों ने चैनलों में इन्टर्नशिप की है और सम्मान में ऐसा किया भी है तो संभवतः उनकी ये गलती जरुर दुरुस्त की गई होगी. हमारे साथ के ही कुछ लोग अपनी विचारधारा के प्रभाव में आकर कुछ व्यक्तियों के लिए जी शब्द का प्रयोग किया करते थे जिसे कि कॉपी एडीटर न केवल दुरुस्त करते बल्कि दो-तीन बार कर देने पर झाड़ लगा देते. लेकिन एटूजेड न्यूज पर ये नया सिलसिला शुरु हुआ है और ये काम आज ही कल में हुआ है.

लेकिन हमारे दूसरे स्रोत का इस मामले में दूसरा ही तर्क है. उनका कहना है कि ये काम जमालउद्दीन के इशारे पर नहीं, खुद मालिक की तरफ से की गई हरकत का नतीजा है जिसके संकेत ये भी हैं कि नेताओं से कैसे नजदीकी बढ़ायी जाए.

वैसे तो खबरों की दुनिया में एटूजेड का कहीं कोई नाम नहीं है. बीच-बीच में इस चैनल की जो थोड़ी बहुत चर्चा हुई वो इसलिए कि बताया गया इसमें प्रवचन कारोबारी आसाराम बापू का पैसा लगा है और दूसरा कि जब सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने इस चैनल की स्कैनिंग करनी शुरु की तो चैनल ने खबर के बड़े स्लॉट में यही पाखंड-अंधविश्वास आदि के कंटेंट चलाए थे जबकि लाइसेंस खबरिया चैनल की मिली हुई है.

इस जी जी किए जाने के पीछे अंदरखाने से खबर आ रही है कि हाल ही में भोपाल से कोई जमालउद्दीन इस चैनल के अस्सिटेंट न्यूज हेड बनकर आए हैं, मालिक विजय कपूर ने ये आदेश संभवतः उन्हीं के इशारे पर दिया है. बहुत ही कम समय में ये चैनल के भीतर अपनी उटपटांग बातों और हरकतों के लिए खासे चर्चित हो रहे हैं. भोपाल में पीटीआई के संवाददाता थे और बडबोलेपन के शिकार लोगों के बीच ये हांकने में कभी नहीं चूकते कि उनका अहमद पटेल जैसे लोगों के साथ उठना-बैठना है. मिजाज से छुटभैय्ये नेता जमालउद्दीन चैनल को दरअसल सी ग्रेड की राजनीति का अड्डा बनाना चाहते हैं और ये जी-जी थिरेपी उसी की एक कड़ी है. अब इस बात में किस हद तक सच्चाई है ये अलग बात है पर इतना जरुर है कि उनकी इस हरकत से वहां समाचार पढ़ रहे लोग खासा परेशान हैं और जिसका असर स्क्रीन पर साफ दिखाई दे रहा है.

ये बात समझने में मुश्किल नहीं है कि इस देश में जो भी चैनल प्रसारित हो रहे हैं, उनका कोई न कोई राजनीतिक और कार्पोरेट एजेंडा है लेकिन ऐसे एजेंडे इस घिनौन रुप में हमारे सामने आएंगे, ये परेशान करनेवाली स्थिति जरुर है. ये न केवल चैनल और उसके लिए निर्देश जारी करनेवाले लोगों के मानसिक स्तर पर अफसोस जाहिर करने का मामला है बल्कि सीधे-सीधे तौर पर पत्रकारिता की बुनियादी शर्तों की खुलेआम धज्जियां उड़ाने का भी है. अब देखना है कि इस चैनल के दर्शक इस जी-जी प्रयोग को किस रुप में लेते है ?
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