आपको याद होगा, आपके दोस्त या फिर खुद आप ही जब एम.फिल्.या फिर पीएच.डी. कर रहे होते थे, तो आज से एक साल पहले तक समर्थन के नाम पर कोई नहीं होता था, कुछ नहीं होता था...घिसते-पिटते गुरुजी के रहमो-करम पर कहीं कुछ पढ़ाने को मिल गया सो मिल गया। बाकी कहीं कोई हिसाब नहीं बना तो रह गए। अगर आप मुझ जैसे फैमिली से आते हैं जहां का सूत्र वाक्य है- पैसे जितना चाहिए ले लो लेकिन अक्ल मत मागों और हां ये तुम्हारा मामला कब तक निपट जाएगा। मतलब कि कब तक घर में माल आने लगेगा। अब कौन समझाए कि एम.फिल्. करने और माल आने से दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं है।...अगर सचमुच आपके साथ यही स्थिति रही होगी तो आप रिसर्च के साथ जरुर कई दूसरे काम किए होंगे या फिर करना चाहते होंगे..क्योंकि घर में भी जबाब देना पड़ता है भई...नहीं तो एक दिन घरवाले ही जबाब दे देंगे। खैर अब आपको रिसर्च के दौरान इस तरह की माथा-पच्ची नहीं करनी होगी।
हमारी सरकार चाहती है कि देश के विश्वविद्धालयों में हो रहे रिसर्च की क्वालिटी में सुधार हो और इसके लिए जरुरी है कि रिसर्चर को कुछ आर्थिक सुविधाएं मिले। बात भी सही है कि आप कविता तो लिख नहीं रहें हैं कि भूखे रहकर कई दिनों तक चूल्हा रोया जैसा कुछ लिख लेंगे। आप रिसर्च कर रहे हैं यानि एक तरह से मानव संसाधन खड़ी कर रहे हैं।...और ऐसे में आपको दिमागी स्तर पर उन्नत होने के साथ-साथ पेट के स्तर भी संतुष्ट रहना होगा। और सरकार की तरफ से कुछ बजीफा मिल जाने से कम से कम भूख के स्तर पर नहीं लड़ना होगा।....आपके भीतर एक ही साथ कई अच्छे भाव आ जाएंगे। आत्मसंतोष, आत्मसम्मान और सरकार के प्रति श्रद्धा कि चलो अबकि जो सरकार आई हैं वो कम से कम हम रिसर्चर की बदहाली से वाकिफ है...भले ही उसने कभी खुद रिसर्च का बीड़ा नहीं उठाया हो। तो अब जो देश में रिसर्चर की जमात पैदा होगी वो बेरोजगारों की फौज नहीं होगी बल्कि सम्पन्न(जब तक रिसर्च कर रहे हैं तब तक) रिसर्चर की खेप तैयार होगी। ये अलग मसला है कि सरकार इस खेप का क्या करेगी और इतने रुपये लगाकर कराए गए रिसर्च का क्या होगा।....आप सीना तानकर कह सकेंगे कि दिन थोड़े ही काट रहे हैं, सरकार पैसे दे रही है और हम काम कर रहे हैं। अपने को बेकार समझने का बोध जाता रहेगा और सिस्टम के प्रति अनुराग भी पैदा होगा। सरकार के लिए ये दोनों बातें अच्छी रहेगी। और वैसे भी अगर देश का नौजवान खुश है और सरकार को आत्महत्या और धरना प्रदर्शन की धमकियां नहीं दे रहा है तो फिर कहीं कोई परेशानी ही नहीं है।...और जहां तक सवाल बीच-बीच में विश्वविद्धालय में हंगामा मचाने का है तो फिर गाइड किस दिन काम आएंगे।....उनसे हर दो-तीन महीने में लिखवाकर देना होगा कि वे आपके काम से खुश हैं...एक तरह से ये जानने की कोशिश की बंदा कहीं सरकार यानि मेरे खिलाफ तो नहीं जा रहा। अब आप ही बताइए कि सरकार के वजीफे से इतनी तरह की समस्याओं का हल निकल आता है तो फिर दिक्कत कहां से है।...अब बात रह गयी माल के लिए दौड़ने की।...तो बीच-बीच में आपको एहसास होगा या कराया जाएगा कि आप स्कॉलरशिप के लिए नहीं बल्कि वृद्धा पेंशन के लिए दौड़ रहे हैं। भई तो इसमें बुरा माननेवाली कौन-सी बात है, आप एम.फिल्, पीएच.डी. कर रहे हो विश्वविद्धालय के हिसाब से बूढ़ तो हो ही गए और जब तुम्हारे अब्बू और नानी को दौड़ने में परेशानी नहीं होती और शर्म नहीं आती तो तुम्हारी तो अभी दौड़-भाग करने की उम्र ही है और फिर शर्म करोगे तो लेक्चरर किस मुंह से बनोगे।
इंडिया 20-20 वर्ल्ड कप जीत गई। इस जीत की खुशी को सारे चैनलों ने दिखाया और पूरी रात तक दिखाएंगे, अभी ये सबसे बिकाऊ खबर है। सारे एंकर और रिपोर्टर से लेकर ट्रेनी तक काफी खुश थे।...कुछ समय के लिए वे भूल गए कि उनकी कितनी बत्ती लगाई जाती है। एंकर और रिपोर्टर तो सारे चैनलों में दिखे और खूब उत्साहित होकर बताते हुए दिखे कि ...कैसे भारत की टीम ने पाकिस्तान की टीम को पटकनी दी।....लेकिन ट्रेनी भी उतना ही खुश था....ये हम कैसे कह सकते हैं..ये सवाल आपके मन में इसलिए उठ रहा होगा क्योंकि या तो आपने उस समय देश के सबसे तेज चैनल को नहीं देखा या फिर देखा भी होगा तो पता नहीं कर पाए होगें कि इसमें कौन-सा बंदा या बंदी ट्रेनी या इन्टर्न है।....वैसे भी ट्रेनी या इन्टर्न में कोई अलग से दुम तो नहीं लगा होता कि आप देखते ही पहचान जाते और जो कि बाद में ट्रेनिंग के दौरान खत्म हो जाता है।....लेकिन यकीन मानिए कुछ ट्रेनी थे....वे भी अपने सीनियर कॉरसपोन्डेन्ट के साथ नाच रहे थे।ये इम्प्रेशन जमाने के लिए कि सर हम टेप इन्जस्ट कराने और शॉट कटाने के साथ-साथ नाच भी सकते हैं, आपका चैनल जितनी तेजी से बदल रहा है हम अपने को उतनी ही तेजी से बदल रहे हैं सर....आप जिस स्टेप पर नाचेंगे, हम भी उस स्टेप पर धमाल मचा देंगे सर। और तो और वे सारे कॉपी डेस्क के लोग, विडियो एडीटर और वो कैमरामैन जो सबकी तस्वीरें तो खींचता है लेकिन खुद कभी तस्वीर की शक्ल में नहीं आता। चैनल की डिक्शनरी में ये अभागे लोग हैं क्योंकि ये दस-दस साल तक काम करते रह जाते हैं लेकिन स्क्रीन पर नहीं आते।..मोटी सैलरी और बाकी चीजें तो अपनी जगह पर है लेकिन कोई भी बंदा जब इलेक्ट्रानिक मीडिया में काम करने आता है तो उसके मन में ग्लैमर तो कमोवेश जरुर होता है।...मैं खुद भी जब ट्रेनी के तौर पर काम करता था तो अक्सर बॉस को अहसास कराते हुए कि मैं टैलेंटेड बंदा हूं, अच्छा बोल सकता हूं, शक्ल भी ठीकठाक है,, कहा करता था कि सर मुझे भी रिपोर्टिंग के लिए भेजा करें और फिर इसमें बुरा क्या है । 16-18 घंटे अगर (8 घंटे बतौर शिफ्ट के नाम पर और बाकी समय सीखने के नाम पर) दे रहे हैं तो हर कोई चाहेगा कि लोग उसके काम के साथ-साथ उसे भी देखें और जाने।...इस लिहाज से जो बंदे शक्ल के कारण, आवाज की वजह से या फिर कोई और कारण से स्क्रीन पर आने से रह गए...उन सबको आजतक ने लाइव दिखाया और वो भी नाचते हुए...इसे कहते हैं आइडिया...बिग कॉन्सेप्ट। जिसके लिए रिपोर्टर हमेश लात-जूते (बात के) खाता है। पचासों मीडियाकर्मी जब एक साथ अपनी-अपनी सीट छोड़कर नाचने लग जाते हैं तो लगता है कि कोई नहीं है व्यस्त, सब हैं मस्त। ये है गधा जनम मिटाने का नायाब तरीका...पूरा आजतक का स्टूडियो क्रिकेटमय हो जाता है।.....अब वो वाला थकेला अंदाज गया कि दूरदर्शन इंडिया की जीत की खबर ऐसे दिखाए कि लगे पढ़नेवाला पाकिस्तान की हार से ज्यादा दुखी है या फिर वो अंदाज कि भई कोई जीते, हमें क्या और वैसे भी हमें तो तटस्थ रहना है।....लेकिन नहीं अब ऐसा नहीं चलेगा, चैनल भी भारत की को सिलेब्रेट करेगा तभी तो ये लाइव चैनल है। चैनल भी खालिस भारतीय है भई...इसे थोडे ही विदेशी नीतियों के हिसाब से चलना है कि वैलेंस बनाकर चले।....कपिल का तो शैम्पेन के बिना गला ही सूख रहा था, सीधा कहा कि कुछ लाओ भाई और पहले जो कुछ भी लिया था, उसी के दम पर बोले कि आज हममे से कोई प्रोड्यूसर के हिसाब से नहीं चलेगा..कोई ब्रेक नहीं होगा और न ही कोई विज्ञापन। आज सिर्फ मस्ती होगी, सिर्फ मस्ती।.....यहां तक तो सारा मामला सही है....सब चकाचक है.....चक दे इंडिया है। लेकिन मान लीजिए कोई हैदराबाद जैसे विस्फोट की खबर हो या फिर कोई हादसे की खबर और इसे लेकर एंकर और मीडियाकर्मी जार-जार रोने लगे, कोई रिपोर्टर बलात्कार की खबर की कवरेज न देकर एफआईआर दर्ज कराने लग जाए तो जरा आप ही बताइए कि इन सारे मीडियाकर्मियों को सिरफिरा घोषित करने में चैनल को कितना वक्त लगेगा।
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अगर आपको हिन्दी साहित्य में और खासकर साहित्य पढ़कर पढ़ाने में थोड़ी-सी भी रुचि है तो डीयू के आर्ट्स फैकल्टी में विवेकानन्द (मूर्ति) के आसपास के इलाके में आपको नियमित नहीं तो कभी-कभार जरुर बैठना चाहिए।....ये हिन्दी जगत के लोगों के लिए विधान सभा है। यहां आपको करीब चार तपके के लोग मिल जाएंगे- जिसे विश्लेषण की सुविधा के लिए चार उपशीर्षकों में बांट सकते हैं- (1) अविकसित(2) अर्धविकसित (3) विकसित और (4) पूर्ण विकसित लेकिन बेकार। अब जरा स्थितयों के अनुसार प्रवृतियों का विश्लेषण कर लिय़ा जाए।
जो स्टूडेंट या रिसर्चर सीधे विभाग में आया है, इससे पहले उसके पास डीयू में दो-तीन साल काटने का अनुभव नहीं है...वो सारे अविकसित लोग हैं। इस लिहाज से एम.फिल् कर रहा जे.आर.एफ. होल्डर भी बीए कर रहे स्टूडेंट से गया गुजरा है।...इसे पता ही नहीं चल पाता कि लाल तार, केसरिया तार और तिरंगे तार के कनेक्शन्स कहां से जुड़े हैं और पावर ग्रिड कहां है, कहां से बिजली की सप्लाई है जिससे कि वो जगमगाएगा।
(2) दूसरी श्रेणी में वो लोग हैं जो विभाग की विकास -प्रक्रिया से जुड़ चुके हैं लेकिन कन्फ्यूजन अभी भी बरकरार है।...ये कन्फ्यूजन विषय, विकल्प, शोध-निर्देशक से लेकर तार के रंगों को लेकर भी है। उन्हें पावर हाउस, सर्किट और सप्लाई सबकुछ का आइडिया है लेकिन इनकी परेशानी थोड़ी दूसरी किस्म की है।.....ये विद्वान होकर पढ़ाना चाहते हैं ,हमारे आपके जैसे नहीं कि भनक लगी नहीं कि फलां जगह सीट खाली है ,जुगाड़ लगाने से काम बन सकता है और भिड़ गए। ये ऐसे लेक्चरर बनना चाहते हैं कि जब ये क्लास लें तो हिन्दी सहित दूसरे विषय और विकल्प के लोग टूट पड़े इनको सुनने के लिए ....खिड़कियों तक पर चढ़ जाएं। इनकी ये नैसर्गिक इच्छा लगभग सारे टीचरों से कुछ-कुछ बटोर लेने के लिए विवश करती है।...लेकिन ऐसा करते वक्त ये भूल जाते हैं कि ठंड़ा-गरम एक साथ मिला देने से सिस्टम शॉट कर जाने का खतरा बना रहता है।....बहरहाल अपनी नजर में ये सेक्यूलर हैं, सही मायने में रिसर्चर लेकिन लोगों ने इन्हें बत्तख नाम दिया है।
(3) इस कोटि के रिसर्चर औरों की अपेक्षा ज्यादा सम्मानीय हैं। इनके पास डीयू का लम्बा अनुभव है, पॉवर हाउस, सर्किट, विषय और दूसरी जरुरी बातों के मामले में कॉन्सेप्ट बिल्कुल क्लियर है।...ये एकेश्वरवाद को मानते है। इनके मुताबिक सारे मास्टरों के पास जाने से इन्फेक्शन का खतरा बना रहता है ।......और फिर रिसर्चर में और....में कुछ फर्क भी तो है भाई...क्यों भटकते फिरे।....इस कोटि के लोगों में अगर नेट या जे.आर.एफ. नहीं भी है तो कोई बात नहीं, शक्ति का सोता लगातार फूटता रहता है जो इन्हें बल देता है । फिर इनके हिसाब से नेट- जे.आर.एफ. कुक्कुर-बिलाय का भी निकल जाता है, असल चीज तो है चिंतन।...तो ये चिंतनधारी लोग हैं, अभाव में भी खुशहाल..भविष्य इनका है।
(4) वस्तुस्थिति के हिसाब से सबसे बदतर स्थिति में पूर्ण विकसित लोग हैं। क्योंकि इनके पास न तो सीखने के लिए कुछ बचा है और न ही बदलने की कोई गुंजाइश। अपने तरक्की के दौर में इन्होंने अपना जौहर तो खूब दिखाया था, दो तीन कॉलेजों में बतौर गेस्ट लेक्चरर के रुप में पढ़ाया भी । लेकिन अब ये श्रीहीन हो गए। क्योंकि विभाग में जो नया सॉफ्टवेयर आया है उनके हिसाब से ये अनपढ़ हैं। अब इनके लिए विभाग प्रौढ़ शिक्षा की व्यवस्था कराए। पहले वाला जमाना भी गया कि जब जूनियर्स इन्हें घेरे रहते थे। अब तो हर तरह से ये श्रीहीन हैं....और जूनियर्स को हसरत भरी नजर से देखते हैं और थोड़ी इर्ष्या और थोड़ा अफसोस से कहते हैं - तुम्हीं लोगों का अच्छा है जी।....
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जो स्टूडेंट या रिसर्चर सीधे विभाग में आया है, इससे पहले उसके पास डीयू में दो-तीन साल काटने का अनुभव नहीं है...वो सारे अविकसित लोग हैं। इस लिहाज से एम.फिल् कर रहा जे.आर.एफ. होल्डर भी बीए कर रहे स्टूडेंट से गया गुजरा है।...इसे पता ही नहीं चल पाता कि लाल तार, केसरिया तार और तिरंगे तार के कनेक्शन्स कहां से जुड़े हैं और पावर ग्रिड कहां है, कहां से बिजली की सप्लाई है जिससे कि वो जगमगाएगा।
(2) दूसरी श्रेणी में वो लोग हैं जो विभाग की विकास -प्रक्रिया से जुड़ चुके हैं लेकिन कन्फ्यूजन अभी भी बरकरार है।...ये कन्फ्यूजन विषय, विकल्प, शोध-निर्देशक से लेकर तार के रंगों को लेकर भी है। उन्हें पावर हाउस, सर्किट और सप्लाई सबकुछ का आइडिया है लेकिन इनकी परेशानी थोड़ी दूसरी किस्म की है।.....ये विद्वान होकर पढ़ाना चाहते हैं ,हमारे आपके जैसे नहीं कि भनक लगी नहीं कि फलां जगह सीट खाली है ,जुगाड़ लगाने से काम बन सकता है और भिड़ गए। ये ऐसे लेक्चरर बनना चाहते हैं कि जब ये क्लास लें तो हिन्दी सहित दूसरे विषय और विकल्प के लोग टूट पड़े इनको सुनने के लिए ....खिड़कियों तक पर चढ़ जाएं। इनकी ये नैसर्गिक इच्छा लगभग सारे टीचरों से कुछ-कुछ बटोर लेने के लिए विवश करती है।...लेकिन ऐसा करते वक्त ये भूल जाते हैं कि ठंड़ा-गरम एक साथ मिला देने से सिस्टम शॉट कर जाने का खतरा बना रहता है।....बहरहाल अपनी नजर में ये सेक्यूलर हैं, सही मायने में रिसर्चर लेकिन लोगों ने इन्हें बत्तख नाम दिया है।
(3) इस कोटि के रिसर्चर औरों की अपेक्षा ज्यादा सम्मानीय हैं। इनके पास डीयू का लम्बा अनुभव है, पॉवर हाउस, सर्किट, विषय और दूसरी जरुरी बातों के मामले में कॉन्सेप्ट बिल्कुल क्लियर है।...ये एकेश्वरवाद को मानते है। इनके मुताबिक सारे मास्टरों के पास जाने से इन्फेक्शन का खतरा बना रहता है ।......और फिर रिसर्चर में और....में कुछ फर्क भी तो है भाई...क्यों भटकते फिरे।....इस कोटि के लोगों में अगर नेट या जे.आर.एफ. नहीं भी है तो कोई बात नहीं, शक्ति का सोता लगातार फूटता रहता है जो इन्हें बल देता है । फिर इनके हिसाब से नेट- जे.आर.एफ. कुक्कुर-बिलाय का भी निकल जाता है, असल चीज तो है चिंतन।...तो ये चिंतनधारी लोग हैं, अभाव में भी खुशहाल..भविष्य इनका है।
(4) वस्तुस्थिति के हिसाब से सबसे बदतर स्थिति में पूर्ण विकसित लोग हैं। क्योंकि इनके पास न तो सीखने के लिए कुछ बचा है और न ही बदलने की कोई गुंजाइश। अपने तरक्की के दौर में इन्होंने अपना जौहर तो खूब दिखाया था, दो तीन कॉलेजों में बतौर गेस्ट लेक्चरर के रुप में पढ़ाया भी । लेकिन अब ये श्रीहीन हो गए। क्योंकि विभाग में जो नया सॉफ्टवेयर आया है उनके हिसाब से ये अनपढ़ हैं। अब इनके लिए विभाग प्रौढ़ शिक्षा की व्यवस्था कराए। पहले वाला जमाना भी गया कि जब जूनियर्स इन्हें घेरे रहते थे। अब तो हर तरह से ये श्रीहीन हैं....और जूनियर्स को हसरत भरी नजर से देखते हैं और थोड़ी इर्ष्या और थोड़ा अफसोस से कहते हैं - तुम्हीं लोगों का अच्छा है जी।....
अब यह मानी हुई बात है कि जिस विधा या विचार का संरक्षक /पिता बाजार है वह विधा और विचार कभी अनाथ नहीं होंगे। लोग उसे खूब पुचकारेंगे, सराहेंगे औऱ "बाजार " की आदर्श संतान कहकर उसके जैसा बनने की कोशिश करेंगे। आदर्श संतान बनने की कोशिश अब हिन्दी साहित्य से जुड़े लोग लगातार कर रहे हैं। साहित्यिक मठों की अब तक की मान्यता रही है कि जो साहित्य बहुत पॉपुलर है, बहुत बिकाऊ है, वह घासलेटी साहित्य है और मठाधीशों की भाषा में इसके रचनाकार साहित्य के नाम पर बनियागिरी करते आए हैं। वे यूथभ्रष्ट रचनाकार हैं। उनके लिए बौद्धिक और साहित्य की दुनिया में प्रवेश निषेध होनी चाहिए। ऐसा करना तथाकथित मान्यता प्राप्त और स्थापित साहित्यकारों का पहला कर्तव्य है। इस पूरे विधान में मेरे हिसाब से खूब खपने, बिकने और पॉपुलर होने के बावजूद ये साहित्यकार कहलाने के लिए छटपटाते रहे।....और दूसरी तरफ मान्यता प्राप्त साहित्यकारों से गुहार लगाते रहे कि भइया मान जाओ..जरा थोड़ा-थोड़ा डोल जाओ और हमें भी बौद्धिक दुनिया में जगह दे दो।....लेकिन विधि का विधान..ये गंभीर साहित्यकार जो कि होने के लिए जरुरी है, नहीं माने।समय बदला, देवदास उपन्यास पर ऐश और शाहरुख की तस्वीरे छपीं और अब कामायनी, कनुप्रिया का आर.आर.पी. (रीडर्स रेटिंग प्वाइंट) बढ़ाने के लिए एक चर्चित स्तंभकार ने मल्लिका की तस्वीर छापने का सुझाव रखा तो महाशय बिलबिला उठे और एक पत्रिका के माध्यम से फ्रशट्रेशन विमर्श ही चला डाला। ........इधर तथाकथित घासलेटी साहित्यकारों को नया मंच मिला।..बाजार नाम की एंटीबॉयोटिक से हिन्दी की कुंठा दूर हुई और हिन्दी जगत में साहित्यकार कहलाने की छटपटाहट भी जाती रही।....इस छटपटाहट की काफी हद तक शिफ्टिंग हुई है। अब छटपटाहट है और पॉपुलर होने की, बिकने की और खपने की । और वैसे भी साल-डेढ़ साल में कोई बंदा '"ग्रेट इंडियन" कहलाने लगे, उसके लिए टेलीविजन, बाजार और जनता जब पलकें , प्लेटफार्म, स्टेज और टेन्ट लगाए -बिछाए रहे तो फिर चिंता किस बात की है। तब क्यों चाहिए साहित्यकार का तमगा ? और तब कोई क्यों न करे साहित्य की नकदी फसल उगाने की दिहाड़ी कोशिश। कोई लाख चिल्लाते रहे कि - ये साहित्य नहीं है, धोखा है , प्रवंचना है, असली के नाम पर अश्लीलता है, भाषाई खिलवाड़ है, बंद करो ये सब ...मैं इसका विरोध करता हूं।कीजिए विरोध, जमकर कीजिए ....मैं भी देखता हूं कि हवाई यात्रा, लम्बी कारों और "जांचा-परखा" भोजन से आप अपने आपको कब तक दूर रख पाते हैं, कौन सी विचारधारा आपको बांध पाती है ? मान्यता प्राप्त साहित्यकारों की नजर में भले ही ये भौंडापन है लेकिन यकीन मानिए साहित्य और दिल-दिमाग खोल देने की रेंज और वैराइटी इनके पास है, ये कभी मात नहीं खाएंगे। पंच सी ( क्रिकेट, क्राइम, सिनेमा, सिलिब्रिटी और समारोह) पर भरपूर आइटम है। पत्नी पर है, पॉलिटिक्स पर है, प्रेमी पर है, इश्क पर , इतंजार पर.....मतलब किस पर नहीं है ? यानि साहित्य की नकदी फसल के लिए "बहुफसली कृषि "। और खास बात है कि सबकुछ में मजा, हंसी- ठहाके यानि खालिस मनोरंजन। अब आप ही बताइए पॉपुलर जनता के पॉपुलर मूड को कहां से रास आएगा ....आदर्श जड़ित बोर, थकेला और कोरे सिद्धांत से लदा-फदा साहित्य...वो साहित्य जो अंगूठी के चक्कर में हाथ काटकर झोला रख लेने वाले समाज को अब भी त्याग और संतुलन का पाठ पढ़ाने में लगा है।.....जनता तो भागेगी ही, चटपटे चूरन साहित्य की तरफ।
मठों द्वारा मान्यता प्राप्त साहित्यकारों के मन में उम्मीद की एक किरण पाठक है। इनका मानना है कि - अजी चलिए, आपके तो पाठक-श्रोता "रिलॉयवल" नहीं हैं, घंटे- आध घंटे हंस भी लें , टी.आर.पी. बढ़ा भी दें तो भी लम्बे समय के लिए "आस्वाद का संस्कार" ग्रहण नहीं कर पाएंगे और फिर इनका कोई क्लास है ....ये तो मात्र "मास" हैं, एक दूसरे से अपरिचित और इनका दिमाग भी तो फाजिल है।
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मठों द्वारा मान्यता प्राप्त साहित्यकारों के मन में उम्मीद की एक किरण पाठक है। इनका मानना है कि - अजी चलिए, आपके तो पाठक-श्रोता "रिलॉयवल" नहीं हैं, घंटे- आध घंटे हंस भी लें , टी.आर.पी. बढ़ा भी दें तो भी लम्बे समय के लिए "आस्वाद का संस्कार" ग्रहण नहीं कर पाएंगे और फिर इनका कोई क्लास है ....ये तो मात्र "मास" हैं, एक दूसरे से अपरिचित और इनका दिमाग भी तो फाजिल है।
इन्टर्नशिप के दौरान सबसे तेज चैनल के कार्यक्रम "हंसोड-दंगल" के ऑडिशन के लिए जाना हुआ। करीब सवा सौ से ज्यादा लोगों ने ऑडिशन दिया। अगर सुविधा के लिए इन्हें पांच वर्गों में बांट दिया जाए तो लॉफ्टर चैलेंज के प्रत्येक परफार्मर के ऊपर 20-25 बैठेंगे। यानि प्रत्येक 20-25 लोग उनके कलाकारों की तर्ज पर अपने को प्रस्तुत कर रहे थे। ये आंकड़ा है एक कार्यक्रम का, एक शहर का। बाकी पर भी सर्वेक्षण संभव है। इस तरह से एक पूरी की पूरी पीढ़ी है जो कविता रचना और नकदी साहित्य पर आधारित "रियलिटी शो" के हिसाब से अपने को तैयार कर रही है।.....अब आप ही बताइए जनाब कि क्या इनका कम प्रभाव है ? बल्कि अब तो ये आपको ही नसीहत देने को मूड़ में हैं कि कहां कॉलेजों के तिकड़मों और विश्वविद्यालयों की पॉलिटिक्स में फंसे हो भइया....कुछ क्रिएटिव करो, कुछ मतलब का लिखो। यू नो समथिंग टची .....जिससे तुम्हारा फ्रशट्रेशन भी जाता रहेगा और माल भी आता रहेगा।