.

कौन पढेगा रामायण

Posted On 7:20 am by विनीत कुमार | 2 comments

मुझे पता है कि सरायवाले सरजी लोगों को जब पता चलेगा तो हमें बहुत गरियायेगें। लेकिन ये बात सही है कि जो प्रोजेक्ट उनलोगों ने मुझे दिया था, परसों उसे जमा करने के बाद अब ऐसा लग रहा है कि गया में पिंडदान कर आया हूं, बहुत हल्का महसूस कर रहा हूं।
जब तक मैंने आजतक में इन्टर्नशिप की, कई लोगों ने दारु-बीड़ी पर बहुत बार बुलाया, अपने बीच इतना अपनापा हो गया कि लगा कि ये मेरे बहुत अपने हैं। दारु-बीडी के लिए पैसे कम पड़ जाएंगे तो इनकी खातिर बीए की सर्टिफिकिट के उपर लाख-दो लाख रुपये का लोन भी ले सकता हूं। फ्रशटेट होकर जब भी हम रात की ड्रॉप इनके घर की ले लेता तो रात में सोते समय इनका लोअर तक पहन लेता और जिनके घर में पत्नियां होती, सिरहाने पर दूध रख देती और मेरा दोस्त चुपके से बेडरुम में खिसक लेता और पीछे से भाभीजी भी, ये कहकर अभी आती हूं....चल देती है। ये अलग बात है कि सुबह-सुबह ही ब्लैक कॉफी के साथ गुड मार्निग बोलते हुए आती। इन भाभियों से इतना प्यार मिलता कि मैं सोचता साल-दो सा तो मजे से काटा जा सकता है। सरायवाले सरजी इन्हीं के बूते जब मैंने निजी टेलीविजन की भाषिक संस्कृति पर काम करने का मन बनाया तो विशेष संदर्भ आजतक रखा और पूरा प्रोजेक्ट आजतक की भाषिक संस्कृति पर करने का मन बनाया और आपलोगों ने इसकी सहमति भी दे दी।
प्रोजेक्ट मिलने के दो महीने तक मैं आजतक में ही था, तबतक दो कोई परेशानी नहीं हुई, आराम से सारे स्क्रिप्ट देखता, लोगों से बातचीत करता और लोग भी समझते ही ये बंदा कुछ हटकर करेगा। चैनल के न्यूज डायरेक्टर नकवी सर को मेल भी किया कि सर मैं आजतक की कुछ पुरानी स्क्रिप्ट देखना चाहता हूं। सहयोगी गीता मैम ने बताया कि तुम्हें बसंत वैली जाना पड़ेगा, मैंने कहा कि कोई बात नहीं चला जाउंगा। इधर चैनल के अच्छे- अच्छे प्रोड्यूसरों से बात हो चुकी थी. एंकर से भी जो काम करते हुए अक्सर मेरी पीठ पर हाथ फेर दिया करते थे। सबकुछ इतना आसान लगता था कि अगर मैं आजतक पूरी किताब लिख दूं तो इसे थॉमसन प्रेस छाप देगा। लोग आपस में बात भी करने लगे थे कि ये जो इन्टर्न है न, आजतक पर ही रिसर्च कर रहा है।
इन्टर्नशिप करता रहा और सराय के प्रोजेक्ट के लिए मटेरियल भी जुटाता रहा। लग रहा था अंत तक जरुर कोई अजूबे का काम हो जाएगा। मेरी बड़ी इच्छा थी कि काम के अंत में आजतक के कुछ लोगों से बात करूं जिसे बाद में इंटरव्यू की शक्ल में तैयार कर सकूं। कहानी कुछ और ही बनी।
अच्छे पैकेज के चक्कर मे कुछ में कुछ ने बीएजी या फिर कोई दूसरा चैनल ज्वायन कर लिया। एक सरजी अब समय पर अपना ज्ञान दे रहे हैं। एक-दो की पत्नी प्रैग्नेंट है। एक-दो ने उपहास उड़ाते हुए कहा कि क्या भईया, आजतक की भी कोई भाषा है।
कुछ रिपोर्टर्स से बातचीत करने के लिए उनके साथ स्पॉट पर गया, शुक्र है स्टोरी कवर करके लौटते वक्त उन्होंने समय दे दिया।
सबसे ज्यादा परेशानी हुई उनसे बातचीत करने में जिनसे लगता था कि इनसे तो कभी भी बातचीत हो जाएगी। वीडियोकॉन के खूब चक्कर लगवाए औऱ तब जाकर बात हो पाई। और उनके इंतजार में न जाने कॉफी पर कितने पैसे खर्च किए। कुछ साथवाली लड़कियां जो अब वहां बतौर इम्प्लाय काम करती है, मेरी तरफ नफरत और हमदर्दी से देखती थी। पहले तो वो सोचती थी कि इन्चर्शिप खत्म होने पर भी छिछोरापन नहीं गया,हमलोगों को टेबने अभी भी आ जाता है। लेकिन एक-दो कहती-बेचारा बहुत मेहनती लड़का है..लगता है अभी भी कहीं कुछ नहीं हुआ है, नौकरी देनेवाली मैडम से बात करने आया होगा। सीनियर मिलते और पूछते...क्या विनीत तुम्हारा अभी तक तुम्हारा कहीं कुछ नहीं हुआ। जो मेरे दोस्त बन चुके थे, इग्नोर कर देते और रात में फोन करके माफी मांगते- स़ॉरी दोस्त, तुम तो अंदर की कहानी जानते ही हो। एक-दो राय भी देते कि इस सराय के छोटे से वजीफे से क्या होगा, मेरे भैया के साथ पोरपटी टीलिंग का काम करोगे। एक ने सलाह दी कि लुधियाना से लाकर ऊन बेचो,अच्छी कमाई है। इन सबके बीच सच्चाई ये रही कि मैं जि चैनल में काम करता रहा, आजतक वाले उसे नहीं देखते, शायद इसलिए मैं उन्हें बेरोजगार दिखता और एक जो जानते भी हैं उन्होंने कहा कि तुम वहां काम करके क्या छिल लोगे।
खैर.इन सबके बीच मैंने प्रोजेक्ट पूरा किया। छपवाने गया पटेल चेस्ट तो एक बंदा जो अपनी नहीं बल्कि अपनी गर्लफैंड का काम करवा रहा था, वो लेडिस बैठकर कैडवरी भकोस रही थी, मेरा आजतक पर प्रोजेक्ट देखकर थोड़ा-बहुत इम्प्रेस होती इसके पहले ही बंदे ने बहुत जोर से, गर्लफ्रैंड को सुनाते हुए बोला- आपका ये रामायण कौन पढ़ेगा। मैं गुस्से का घूंट पीकर रह गया और सदन सर, दीपू सर, रवि , रविकांत और राकेश का चेहरा याद आ गया और मंसूरी और जबलपुर में अधिकारी होने की ट्रेनिंग ले रहे हैं, उनकी बात याद आ गयी, यार विनीत आजतक पर काम खत्म होने पर एकबार जरुर दिखाना।..........
कई लोग तो अच्छे पैकेज के चक्कर में बीएजी या फिर दूसरे चैनलों
| | edit post

ये आठ के ठाठ है बंधु

Posted On 2:15 am by विनीत कुमार | 5 comments

दिल्ली में आए पांच साल हो गए, अभी तक दिल्ली की ठंड का मुंहतोड़ जबाब देने के लिए एक भी स्वेटर नहीं है। आपसे मांग नहीं रहा हूं और न ही ये कह रहा हूं कि मेरे लिए कुछ चंदा कीजिए, कुछ मत कीजिए बस ये पोस्ट पढ़ लीजिए और वैसे भी मांगने की गलती मैं दिल्ली में कभी नहीं करता। कुछ भी मांगोगे तो यूरो की तरह राय ही मिलेगी।
शुरु के दो साल तो इस शेखी में कट गए कि हिन्दू कॉलेज का स्टूडेंट हूं, सीनियर ने पुराने सेशन के स्वेट शर्ट आधे दाम पर दे दिए और बाद में आपस में बतियाते कि साले को बनाया चुतिया, नाम लिखाया है 2002 में और स्वेट शर्ट दे दिया 2000 का। एकाध बार एक-दो लेडिस ने पूछा भी कि विनीत तुम तो उस समय कॉलेज में थे भी नहीं तो फिर ये स्वेट शर्ट कैसे। क्या बताता कि पैसे बचाने के लिए आधे दाम पर लिए हैं। फिर सोचता बाहर कौन जानता है कि मैं कब से हिन्दू कॉलेज में पढ़ रहा हूं। और अच्छा ही रहेगा कि लोग पुराना हिन्दुआइट समझकर पल्टी नहीं खाएंगे। एक दो लेडिस जो कि अब बाल-बच्चेदार और जिम्म्दार हो गयी है, मिलने भी आती है तो अपने पति या फिर ननद के साथ। पति के साथ आने पर उससे उतनी ही मीठे से बात करती है जितने मीठे से तीन साल पहले मुझसे बात करती थी और अपने पति को तब कजिन या बुआ का लड़का बताती थी। खैर, एक बार उसने कहा कि फेंको तुम ये अपनी पुरानी स्वेट शर्ट, मैं तुम्हारे लिए मम्मी से बोलकर बड़ा प्यारा सा स्वेटर बनवा दूंगी, बस तुम वनिता का बुनाई विशेषांक वाला अंक खरीद लेना। वैसे भी वो खुद तो बुन सकती नहीं थी, अल्ट्रा मॉर्डन होने के चक्कर में ये सब सीखा कहां था।
नयी-नयी ब्याही मेरी दीदी को मुंह दिखाई में खूब पैसे मिले थे और उसका उसने ढेर सारा ऊन खरीद लिया था । बार-बार फोन करके कहती अपना साइज बताऔ न, तुम्हारे लिए भी एक स्वेटर बना दूंगी। मैं अब दीदी के हाथ का कटोरी वाले डिजाइन की स्वेटर क्यों पहनता. शेखी मारते हुए कहता, दीदी अब तुम ये सब की चिंता मत करो, यहां दिल्ली में तुम्हारी भाभी संभाल लेगी। दीदी को धक्का लगता और तुनककर बोलती, ठहर तेरे पैसे बंद करवाती हूं।
दो साल तो उस पुराने स्वेट शर्ट में कट गए। गजब का कॉन्फीडेंस होता उस हिन्दू के स्वेट शर्ट को पहनकर। नाइकी और रिवॉक के शोरुम तक बिना हिचक के टहल आता। एक-दो बार मैकडी भी गया था।
फिर कोठारी हॉस्टल के लोगों ने जोड़-तोड़ करके स्वेट शर्ट छपवाया। मैं भी लगा था उसमें। मेरी नियत होती कि पैसा भी कम खर्चा हो और सोसाइटी में स्टेटस भी बनी रहे और ये हॉस्टल के स्वेट शर्ट से ही संभव था। पीछे लिखा रहता हॉस्टलर और हमलोग पहनकर कैंपस में अपने को तोप समझते। एक बार भद्द पिटी थी पेज थ्री पार्टी और दो-तीन के टोकने पर आरती भाभी की शाल ओढनी पड़ी थी औऱ बताना पड़ा कि जी तबीयत ठीक नहीं है। फिर भी दो साल कट गए। लेकिन तब तक कॉलेज या हॉस्टल के स्वेट शर्ट से थोड़ा मोहभंग हो गया था।
अगले साल थोड़ा दिमाग भिड़ाया और कॉम्युनिटी प्रोग्राम के तहत स्वेटर या गरम कपड़े खरीदने की योजना बनायी। अपने मिजाज के चार लोग जुटे और पांच-पांच सो रुपये पूल किया और गर्मी में ही सात स्वेटर आधे दाम पर खरीदे। और खूब बदल-बदलकर पहना। अपन दो बंदे हिन्दी के थे, सो हमेशा ध्यान रखते कि एक दूसरे का मैच न हो। सबसे मौज में ये साल काट लिया और मनाता रहा कि सालोभर ठंड पड़े तो भी दिक्कत नहीं है।
इस साल ठंड गिर चुकी है। लेडिस अब भी आती है लेकिन स्वेटर पर कभी बात नहीं होती, स्वेट शर्ट भी इधर-उधर हो गए। साझा में जो स्वेटर खरीदा था, उसकी दुर्गति हो गयी। एक बंदा एचडीएफसी में लगा है, सो हॉस्टल छोड़ते समय दानवीर कर्ण की भूमिका में तीन स्वेटर दान कर गया। एक को एमपीपीसीएस में नौकरी लगी है, सारे पुराने कपडे सहित दो स्वेटर एनजीओ को दान कर दिया। बाकी के दो स्वेटर हिन्दी वाला बंदा ये कहकर पचा गया कि पिछले साल मैं पहना था तो अबकी तुम कैसे पहन सकते हो।...मैं अपने कवर्ड को चकचक रखने के चक्कर में एक भी स्वेटर नहीं रखा था।
कल ही एक मित्र आए थे, रात में मीडिया की ड्यूटी बजाकर। लेकिन बहुत खुश थे। बात छेड़ दी कि भाई हजार रुपये जो लिए थे उसे लौटा दो। कैश न हो तो क्रेडिट कार्ड से एक स्वेटर ही खरीद दो...उसने कहा. ... स्वेटर क्या चलो कोट ही खरीद देता हूं, दिसम्बर में मेरी शादी है, वहां भी काम आएगा। खूब भटका कमलानगर। कोट-पैंट देखते ही मुझे टीटीइ, वकील या फिर एंकर याद आने लगते। मैंने कहा भइया मुझे ठंड काटनी है, काहे का कोट-पैंट के चक्कर में पड़े हो। शादी के समय तो हॉस्टल में मैनेजमेंट के बंदे वाले भी दे देंगे, स्वेटर ही खरीद दो। उसने कहा तो फिर ठीक है, चलो और चन्द्रावल की ओर बढ़ने लगा और ठेके पर पहुंचकर एकदम से बोला। साले.....बड़ी मुश्किल से तुम्हारे भाई को ढंग की लड़की मिली है, शादी तय हुई है और तुम स्वेटर के पीछे जान हलाल किए हो और फिर दो चमचमाता हुआ पीले रंग का डिब्बा लेकर बोला, देखो आज मना मत करना। मीडिया से हैं, तुम्हारे हॉस्टल वार्डन से हम निबट लेंगे और फिर हमारा-तुम्हारा तो साइज एक ही है न। मैं गरियाता, लेकिन कान में बस एक ही आवाज सुनाई पड़ रही थी.......

ये आठ के ठाठ है बंधु, तब सुलगेगी चिंगारी
| | edit post

मरद का बच्चा होकर लौटा हूं

Posted On 2:06 am by विनीत कुमार | 3 comments

आज ही टाटानगर से दिल्ली गिरा हूं, मरद का बच्चा होकर, जैसा कि एक भाई साहब ने बस में बहस के दौरान बताया कि आप खालिस मरद का बच्चा हो। नहीं तो दिल्ली में लोग बत्तख, बोक्का और एक लेडिज दोस्त चंपक तक कहकर बुलाती है। लिखने को बहुत कुछ है लेकिन काम का प्रेशर बहुत ज्यादा आ गया है, दो-चार दिन का समय दीजिए। गाहे-बगाहे फिर से रेगुलर हो जाएगा। आप इसे विज्ञापन न समझें...एक कमिटमेंट के रुप में लें और मन हो तो आप भी कहें खालिस ब्लॉगर है।...सच्ची मैंदान छोड़कर भागेगा नहीं ।
| | edit post

जनता समझेगी...घंटा

Posted On 5:03 pm by विनीत कुमार | 7 comments

दिवाली में घर जाने की पूरी कोशिश करता हूं। इस दिन हमारे यहां नफा, नुकसान और सम्पत्ति का हिसाब-किताब लगाया जाता है। मां कहती कि तुम नहीं रहते हो तो पन्द्रह लाख का साफ नुकसान समझ में आता है। वो तब कहती जब मैं बताता कि जब पढाई खत्म हो जाएगी तो टीवी में फोटो आनेवाली नौकरी लगेगी। फोटो आने पर इतना तो मिलेगा ही। लेकिन अब फोटो नहीं आएगा तो भी दस लाख तो रखा हुआ है। दीदी लोग भले ही पराया धन है लेकिन हम तो घर की ही सम्पत्ति हैं न। मेरे घर में सब कुछ बर्दाश्त किया जा सकता है लेकिन नुकसान कभी नहीं, भारी नुकसान होने पर तो हमने रिश्तेदारों में से एक-दो हार्टफेल होते भी देखा है। मैं नहीं चाहता कि मेरे कारण हंसता-खेलता परिवार उजड़ जाए। सो यही सब विचार करके सोचा कि घर चले ही जाने में भलाई है।
सरकारी वजीफा बहुत दौड़ने पर मिला था सो सोचा कि एक बार एसी में बैठकर जाया जाए, हम भी देखे कैसा लगता है। बहुत बाबओं, साहित्यसेवियों और पत्रकारों को छोड़ते समय ट्रेन खुलने के पहले तक एसी में बैठा था लेकिन चलती ट्रेन में एसी का अनुभव नहीं रहा है। अच्छा ,बार-बार मन में कोहराम तो मच ही रहा था कि बहुत पैसा लग जाएगा टिकट में लेकिन फिर सोचा कि जाने दो एक ही बार न, कहने को तो नहीं रहेगा कि पच्चीस साल के हो गए लेकिन अभी तक एसी में सफर नहीं किए हैं। फिर सोचा स्लीपर में बहुत कांय-कांय होता है, एसी में ढ़ंग से कुछ लिख-पढ़ भी लेंगे और एसी अनुभव पर कहीं कुछ लिख दिया और छप-छुप गया तो फिर पैसा वसूल। यही सब सोचकर आती-जाती दोनों तरफ का एसी थ्री का टिकट ले लिया ।
लेकिन भैय्या जब अपनी नसीब ही घोड़े की लीद से लिख दी गई हो तो फिर एसी क्या ट्रेन में बैठने के लिए जगह मिल पाना भी मुश्किल है। टिकट कटाकर, एटीएम से करीब तीन हजार रुपये निकालकर कि दो साल बाद घर जा रहा हूं, खाली हाथ जाना ठीक नहीं रहेगा। मां भी अक्सर कहा करती है कि भले आकर पैसा ले लेना लेकिन परदेस कोई खाली हाथ नहीं लौटता, कुछ लेकर आना। सो घरजाने की वैसे ही तैयारी में था जैसे गुड़गांव की फैक्ट्री में काम कर रहा बिहारी मजदूर करता है। सोचा शाम को घर के लिए कुछ-कुछ खरीद लूंगा और यही सब विचार करते आंख लग गई। उठा और जब हाथ-मुंह धोकर वापस आया तो देखा कि बटुआ अपनी जगह पर नहीं है। अपनी जगह क्या, कहीं भी नहीं है। खूब खोजा, नहीं मिला। अंत में वार्डन आए, बाकी लोग आए, उपदेशों का एक लम्बा दौर चला कि तुम्हें हमेशा सचेत रहना चाहिए। पैसा ऐसे नहीं रखना चाहिए, तुम्हें किसी पर शक है वगैरह-वगैरह। अंत में यह कहकर मामले को रफा दफा किया गया कि चलो जो हुआ सो हुआ, आगे से ध्यान रखना। लेकिन जब मैंने पैसे के साथ दो बैंकों के एटीएम खोने की बात बताई, और यूनिवर्सिटी आईकार्ड के बारे में सोचा तो अपने क्लर्क का चेहरा घूम गया । जब मैं उससे कहूंगा कि दोबारा कार्ड बना दें, खो गया है तो सीधे बोलेगा..एफआईआर की फोटो कॉपी कहां है। ऐसे देखेगा कि मैं किसी का रेप करके आ रहा हूं और कार्ड उसी हलचल में कहीं गिर गया। बैंको से तो निपट लूंगा लेकिन यूनिवर्सिटी में पांच साल बिताने के बाद भी अपने क्लर्क से पार पाना मुश्किल है।
यही सब विचार कर रात में ही दौड़ा एफआईआर कराने। दो घंटे की मशक्कत के बाद एफआईआर की कॉपी मिली जिसमें साफ लिखा था कि बटुआ कहीं गुम हो गया । चोरी शब्द का प्रयोग कहीं नहीं था। मुझे पूरे एफआईआर में सिर्फ यही एक लाइन समझ में आयी। बाकी लग रहा था कि शिवप्रसाद सितारेहिंद के जमाने की हिन्दी जिसे पता नहीं लिखनेवाला वो पुलिस अधिकारी भी समझता भी है या नहीं या सालों से लिखने की आदत हो गयी है इसलिए लिखता आ रहा है। पेपर थमाते समय उस बंदे ने कहा भी कि आप बिल्कुल परेशान न हों, पढ़ने-लिखने वाले हैं आराम से पढिए-लिखिए, आपका पर्स तो नहीं ही मिल पाएगा। भूल जाइए, मान के चलिए कि किसी को दान कर दिया।....मन ही मन थोड़ा ज्यादा पावर की गाली निकालते हुए बुदबुदाया। हां बे स्साले। यही मनवाने के लिए तो सरकार तुझे पैसे दे रही है। खैर...
दोस्तों ने दौड़-भागकर अपनी और मेरी दोनों की औकात के मुताबिक स्लीपर टिकट का इंतजाम करवा दिया है, कल के लिए। मैं जानता हूं दिवाली के एक दिन बाद जब घर पहुंचूगा तो मां साफ कह देगी कि इससे बढ़िया मत ही आते, अब क्या बचा है, सब तो हो हवा गया। लेकिन ये भी जानता हूं कि ब्लॉग से दुगुना जब जोड़-जाड़कर बताउंगा कि अपना चार-पाच हजार का नुकसान करके भी तुम्हारा नुकसान नहीं होने देने के लिए आया हूं तो बोलेगी, जाने दो जिसके नसीब में था ले गया, अच्छा है एतना ही होके रह गया, कुछ हो-हा जाता तो। और जहां तक सवाल पैसे की है तो मन में मंसूबा बंधा है कि एफआईआर की हिन्दी के बहाने पूरे कानून व्यवस्था और सरकार द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली हिन्दी पर एक विस्तार से एक लेख लिखूंगा कि जब हम पढ़े -लिखे लोग साहब आपकी हिन्दी नहीं समझ पाते तो देश की अनपढ़ जनता क्या समझेगी...घंटा...और इसके भी कुछ पैसे तो मिल ही जाएंगे।....बाकी तो वक्त के साथ बड़ा से बड़ा जख्म भर जाता है...साली ये बटुआ क्या चीज है।
| | edit post