शिक्षक और छात्र के भावनात्मक संबंध( हालांकि इसकी बेतहाशा धज्जियां उड़ती रही है और जारी है, फिर जो थोड़ा-बहुत बचा है) के बीच और जिसे कि अलग से व्यक्त करने के लिए शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता रहा हो, देश के प्रधानमंत्री का घुस आना क्या इतना ही स्वाभाविक है ? यदि आपको ये सवाल अटपटा लगता है तो इसका मतलब है कि आपको संबंधों के बीच के स्पेस और उस स्पेस के हथिया लिए जाने की राजनीति समझने में न दिलचस्पी है और न ही आपको ऐसा किया जाना अनैतिक ही नहीं, अमानवीय भी लगता है. आप इसे इसी रूप में ले रहे हैं कि घर के अभिभावक को किसी के भी कमरे में, किसी दो के बीच की बातचीत, अंतरंग पलों के बीच घुस आने का हक है, इसे किसी भी हाल में गलत ढंग से नहीं लिया जाना चाहिए. संभव है कि आप श्रद्धावश अपने प्रधानमंत्री या सांसद को ऐसा करने का मौका भी दें. लेकिन
आपको नहीं लगता कि स्पेस के सिकुड़ते जाने और जगह की भारी किल्लत होते जाने के बीच हम संबंधों के मामले में हम उतने ही ज्यादा खुल रहे हैं, पहले से ज्यादा व्यापक संदर्भ में संबंधों को समझ रहे हैं. हमें अब ये बात समझ आने लगी है कि आठ साल-दस साल के हमारे घर के बच्चे हैं तो उनकी भी अपनी प्रायवेसी है, उन्हें भी अपने तरीके के लोग, दोस्त चुनने का हक है और रोज का कुछ वक्त और साल के कुछ दिन अपने तरीके से बिताने की उसी तरह की आजादी है, जितना ही हम वयस्क लोगों को है..आप अगर इस समझदारी के साथ उन्हें स्पेस देते हैं तब तो ठीक है लेकिन संस्कारित किए जाने, नैतिकता का पाठ पढ़ाने के नाम पर अगर आप दिन-रात उनके पुच्छल्ले बन जाएंगे और घड़ी-घड़ी दुहाई देते फिरेंगे कि हम ये सब आपके भले के लिए कर रहे हैं तो यकीन मानिए यही बच्चे बड़ी ही बेशर्मी से आपसे स्पेस की मांग करेंगे, कुछ वक्त अपने तरीके से बिताने की बात करेंगे और आखिर में ये भी जोड़ देंगे कि अब मैं बच्चा/बच्ची नहीं हूं, प्लीज.
कहानी बस इतनी है कि बच्चों की दुनिया अब उतनी सपाट रही नहीं है कि जिसे हम वयस्क जैसे और जिस हिसाब से चाहें ड्राइव कर दें. लोहे-लक्कड़ के कबाड़ को हमने विकास का नाम दिया है और जितनी उनकी ज्यादा कॉम्प्लीकेटेड हो गयी है. ऐसे में वो मां-बाप के अलावा टीचर को सिर्फ ज्ञान और संस्कार का जरिया नहीं समझता बल्कि उसे एक ऐसे शख्स के रूप में लेता है जिससे वो जो चाहे, जैसे चाहे शेयर करे.. अच्छा होता मोदी सरकार इस शिक्षक दिवस को "शेयरिंग डे"( अंग्रेजी से परहेज है तो अन्तर्मन दिवस) के रूप में मनाने की बात करती ताकि इस दिन बच्चे अपने मन की कोई भी बात खुलकर अपने पसंदीदा शिक्षक से कर पाते. आज के बच्चों को ज्ञान, संस्कार से कहीं ज्यादा शेयर करने, उन्हें सुनने की जरूरत है. हंसते-खेलते और बिंदास दिखते ये स्कूली बच्चे मन के स्तर पर कितने बंद, बीमार और दबे होते हैं, शायद इसका अंदाजा न तो मोदी सरकार को है और न ही भाषण देने के लिए आतुर स्वयं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी साहब को. 364 दिन के भाषणनुमा क्लासरूम से ये बच्चे तो वैसे ही उबे, हारे होते हैं, एक दिन तो शेयर करने के दिन होते. लेकिन
इन सारी बातों की उम्मीद हम एक ऐसे प्रधानमंत्री और उनकी सरकार से नहीं कर सकते जो खुद "ब्रांड पोजिशनिंग" के बिजनेस फार्मूले से यहां तक आया हो. ये फार्मूला साफ-साफ कहता है कि पहले अपने को मदर ब्रांड के रूप में स्थापित करो और फिर धीरे-धीरे उन सभी क्षेत्र में सिस्टर ब्रांड पैदा करके घुस जाओ, जो तुम्हारा इलाका नहीं रहा हो. मसलन अगर टाटा कंपनी पर आप यकीन करते हैं और उसकी बनायी ट्रक को मजबूत मानते हैं तो केबल, बाल्टी और फोर व्हीलर को क्यों नहीं ? आप देखते हैं, ब्रांड की पूरी राजनीति इसी तरह काम करती है. चुनाव के दौरान वोटर को खुलेआम कहा गया- आप जो वोट देंगे वो सीधे मुझ तक आएंगे यानी आप बीजेपी को नहीं मोदी को वोट दे रहे हैं और इस तरह एक बार बहुमत हासिल करके जब नरेन्द्र मोदी ब्रांड बन गए तो अमित साह से लेकर जोगी आदित्यनाथ जैसे दागदार भी सिस्टर ब्रांड होते चले गए. अब ऐसा होगा कि ब्रांड मोदी ने जिस पर हाथ रख दिया, वो ब्रांड.
ब्रांड पोजिशनिंग की ये राजनीति मार्केट में अपनी मोनोपॉली कायम करने के लिए ऐसे-ऐसे सेक्टर में घुस आती है जिसका कि पहले से उसे कोई लेना-देना नहीं होता. मसलन आपने कभी सोचा होगा कि तेल निकालनेवाली कंपनी रिलांयस सब्जी भी बेचेगी और आम-लीची के बागान तक खरीदकर धंधा करेगी. लेकिन अब लिस्ट बनाइए तो दस में कम से कम चीन से चार चीजें ऐसी आप इस्तेमाल करते हैं जो इनके होते हैं यानी आपकी जिंदगी में ये ब्रांड काबिज हो गया है.
चूंकि नरेन्द्र मोदी ब्रांड पोजिशनिंग कोई उत्पाद के लिए नहीं कर रहे बल्कि राजनीति के लिए खुद को ही ब्रांड में तब्दील किया है, ऐसे में उनके मामले में ये काम राजनीति, सेवा,संस्कृति, संस्कार जैसे ऐसे शब्दों के साथ घुल-मिलकर आ रहे हैं ताकि ये कहीं से धंधे का हिस्सा न लगकर राष्ट्र के विकास का अनिवार्य पहलू लगे. नहीं तो जो देश का प्रधानमंत्री है उसे उतने ही अधिकार से शिक्षक दिवस में, उतने ही अधिकार से परवरिश और उन सामाजिक पहलुओं पर दिशा-निर्देश देने का अधिकार नहीं मिल जाता जो कि स्वाभाविक रुप से सोशल इंजीनियरिंग और सामाजिक गतिविधियों का हिस्सा है और जिसके निर्वाह में पूरी प्रक्रिया काम करती है, रातोंरात की हवाबाजी नहीं.
अब जबकि उन्होंने बतौर प्रत्याशी बहुमत हासिल कर लिया है तो ऐसे में वो उसी ब्रांड पोजिशनिंग स्ट्रैटजी के तहत शिक्षक, अभिभावक, आदर्श भाई होने की अतिरिक्त छूट जिसे पाखंड कहना ज्यादा सही होगा, हासिल करना चाहते हैं जैसे ब्रांड अपने कमतर कंपनियों को कुचलकर स्पेस खत्म करता है. शिक्षक दिवस के मामले में क्या ये सवाल नहीं है कि छात्र और शिक्षक के बीच संबंध चाहे जो भी रहे हों, जबरिया घुसकर एक स्वाभाविक संबंध के बीच के स्पेस को पहले के मुकाबले और खत्म कर रहे हैं ? नहीं तो एक बार इस व्यावहारिक पक्ष पर गौर करें तो अंदाजा लग जाएगा कि प्रधानमंत्री क्या, इस दिन छात्र प्रिंसिपल छोड़कर इतिहास, अंग्रेजी, हिन्दी या सोशल साइंस के शिक्षक के साथ वक्त बिताना चाहता है, उनकी बात सुनना चाहता है, जिसके हाथ में देने के लिए और न ही बिगाड़ने के लिए कुछ है. मोदी की भाषण देने की ये ललक ऐसे शिक्षक को बौना बनाने के अलावा कुछ नहीं करेगी. छात्रों से पसंद की बहुलता का ये हक एक झटके में छीन लेगी.
रही बात भाषण के जरिए संस्कार देने की तो जनाब जब आपने विकास का पूरा पैमाना ही ज्यादा से ज्यादा प्रोडक्ट और सर्विसेज के इस्तेमाल किए जाने पर लाकर टिका दिया है और एक सफल व्यक्ति होने का आधार ही अपनी गाड़ी, अपना घर और मजबूत बैंक बैलेंस हो गया है तो आपके इस भाषण से कॉमिक रिलीफ भले ही मिल जाए लेकिन छात्र के पैर उसी प्लेटफॉर्म की तरफ बढ़ेंगे जहां से इस कबाड़ जुटाने को सफल होने का पर्याय बनाया जाता हो..फिर जबरिया अगर आज ये आपका ज्ञान सुन भी लें तो उन्हें आपके प्रति भला सम्मान कैसे पैदा हो सकेगा कि जो शख्स खुद देशा का पैसा पानी की तरह बहाकर, कार्पोरेट और पूंजीपतियों के दम पर सत्ता तक पहुंचा है, उसकी सादगी के पाठ में कितनी दरारें होंगी. सादगी और संस्कार के पाठ का असर उसके जीने में है, किऑस्क बनाकर चमकाने में नहीं.
कुल मिलाकर बात सिफत बस इतनी है कि शिक्षा की दुनिया वैसे भी कारोबार की दुनिया पहले से ही विलीन होती जा रही है जहां शिक्षक सिर्फ सिकंस( सिलेबस कंटेंट सप्लायर) बनकर रह गया है..ऐसे में ब्रांड नरेन्द्र मोदी का हर क्षेत्र, पेशे और संबंध के आदर्श पुरुष बनने की उत्कंठा ऐसे सिकंस को और पराजित, बौना और टीटीएम का शिकार बनाएगी.. माफ कीजिएगा, हमने देश चलाने के लिए सांसद और उनके मार्फत प्रधानमंत्री चुना था, अपनी जिंदगी की छोटी-छोटी बातों को तय करनेवाला मालिक-मुख्तयार नहीं, हम इतने गार्जियनों के बीच घिरकर नहीं जी सकते.
तस्वीर, साभारः ओपन मैगजीन, 28 अगस्त 2014