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आज ट्विटर पर दिनभर कविता कृष्णन और मधु किश्वर के बीच तूफान मचा रहा. कविता कृष्णन ने हैशटैग #selfiewithdaughter पर आपत्ति दर्ज करते हुए इस बात का विरोध तो किया ही कि जो नरेन्द्र मोदी अपने ही राज्य की महिला का पीछा करवाते रहे हों, उन्हें अपनी बेटी के साथ सेल्फी भेजने का क्या तुक है ? लिहाजा ये व्यक्ति भरोसे लायक नहीं है लेकिन इसके साथ #LameDuck का जब इस्तेमाल किया तो तूफान मच गया.

कविता कृष्णन को एक के बाद एक गालियां पड़नी शुरु तो हुई हीं, साथ ही ट्विटर पर अति एक्टिव और नरेन्द्र मोदी का लगातार पक्ष लेती रहीं मधु किश्वर भी मैंदान में उतर आईं. किश्वर ने कमान थोड़ी पीछे से खींची और वामपंथ, माओवाद से शुरु करते हुए कृष्णन के साथ व्यक्तिगत स्तर पर जवाब देना शुरु किया. उसके बाद के जो जवाबी हमले शुरु हुए कि वो आज की प्राइम टाइम की स्टोरी तक की नींव साबित हुई. अब स्थिति ये है कि टेलीविजन चैनलों से लेकर अखबारों तक की वेबसाइट पर ये स्टोरी फ्लैश हो रही है और सोशल मीडिया पर ट्रेंड तो हो ही रही है.

इंडिया टुडे जो कि पहले हेडलाइंस टुडे हुआ करता था, उस पर टाइम्स नाउ की टीआरपी और बूम का दवाब साफ दिख रहा है. #lalitgate से टाइम्स नाउ को जो बढञत मिली है, सभी चैनलों को बहुत पीछे छोड़ दिया है. लिहाजा उसने अपनी स्टूडियो में कविता कृष्णन और मधु किश्वर को एक साथ बुलाया और बातचीत क्या ? शो का ढांचा ही इस तरह रखा कि बैठकर बात करने के बजाय खड़े होकर तसल्ली से तू-तू मैं-मैं, उंगली-हाथ नचा-नचाकर एक-दूसरे पर पिल पड़ सकें.
हम जैसे दर्शक जब इस शो को देख रहे थे जिसके टीवी की आधी रिमोट सास-बहू सीरियलों में अटकी रहती है, लगा ही नहीं कि हम देश की दो प्रमुख फेमिनिस्ट को देख-सुन रहे हैं..ऐसा लग रहा था कि गोपालपुर, मौजपुर की दो आंटी इस बात पर लड़ एक-दूसरे को मां-बहन की गालियां दे रही है कि रात में कचरे की पॉलिथीन मेरे दरवज्जे पर क्यों फेंक दी ?
टेलीविजन आपको थोड़ा आक्रामक बनाता है, आपकी पर्सनालिटी को शार्ट टेम्पर्ड करता है. ये आप पैनलिस्ट की कुर्सी पर बैठते हुए महसूस करेंगे लेकिन जब कुर्सी ही न हो और आपको खड़े होकर मुकाबला करना हो तब आपकी पर्सनालिटी को पूरी तरह डैमेज करके बेहद औसत और काफी हद तक घटिया शक्ल दे देता है. राहुल कंवर ने जो कुछ भी किया, वो एंकर का सस्तापन है, ये हम सब जानते हैं लेकिन कविता कृष्णन और मधु किश्वर, सिर्फ अंग्रेजी में बोलते रह जाने से सभ्य तो नहीं कहलाए जा सकते न ?

और इन सबके बीच बाउजी यानी आलोकनाथ जिनके संस्कार को लेकर कुछ महीने पहले सोशल मीडिया पर जोक्स ट्रेंड होने शुरु हुए थे और उसके बाद कई चैनलों पर प्राइम टाइम में स्टोरी भी हुई थी, वो सिगरेट भी अगरबत्ती से सुलगाते हैं, पत्नी को भी बेटी बोलते हैं टाइप..उन्होंने ट्विटर पर कविता कृष्णन को bitch कहा. इन दिनों मीडिया की मौज है, छप्पर फाडकर खबरें आ रही हैं और वो भी बिना किसी लागत की लेकिन दर्शक इन पर्सनॉलिटी के रवैये को देखकर तार-तार हो जा रहा है.
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लीजिए, हमने आपको आज से दस तीन पहले ही कहा था कि ललित मोदी मामले में खबरें जिस तरह से आकार ले रही है और एक के बाद एक नाम सामने आ रहे हैं, बहुत संभव है कि जल्द ही मीडिया से जुड़े लोगों के नाम भी आएंगे..ऐसा इसलिए कि मीडिया तो मोहल्ले में होनेवाले क्रिकेट तक ( याद कीजिए एफएम चैनल के कॉन्टेस्ट मोहल्ला क्रिकेट लीग) का प्रायोजक होता है और वहां भी उसकी गर्दन घुसी रहती है तो इतने बड़े मामले में वो इससे मुक्त कैसे                                                                                       रह सकता है ? ...और देखिए

अब प्रभु चावला का नाम खुलेआम मीडिया में आने शुरु हो गए हैं और वो भी उसी इंडिया टुडे ग्रुप ने ट्विट किया है जहां से उन्हें २जी स्पेक्ट्रम मामले में इनका नाम आने के बाद साख मिट्टी में मिलती नजर आयी. उसके बाद वो सीधी बात की तर्ज पर तीखी बात शुरु की लेकिन अपनी धार पूरी तरह खो चुके और अब दि न्यू इंडियन एक्सप्रेस के सर्वेसर्वा हैं.



हालांकि ये मामला अभी बहुत ही शुरुआती स्तर पर है लेकिन अपने बचाव में एबीपी न्यूज को जो कुछ कहा, उससे इतना तो स्पष्ट है कि ललित मोदी के प्रति उनका सॉफ्ट कॉर्नर है और कुछ
नहीं तो दोस्ती निभाने के अंदाज में अपनी बात रख रहे हैं..प्रभु चावला पर आरोप है कि उन्होंने भारत से ललित मोदी को जाने में मदद की.
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माफ कीजिएगा, मैं इनका ऑपरेशन करके अपने पेशे का अपमान नहीं कर सकता. मैं आपके हालात, इनके और कुंवारेपन के बारे में जान चुका हूं इसलिए मैंने इनका ऑपरेशन नहीं किया..आप घबराए नहीं.- फिल्म मास्टरजी( १९८५) का संवाद पहली पत्नी के एक बच्चे को जन्म देने और गुजर जाने के बाद राधा( श्रीदेवी) से दूसरी शादी करके अपनी पत्नी बना लिए जाने के वाबजूद मास्टरजी( राजेश खन्ना) राधा को लेकर कभी सहज नहीं रहे. हमेशा इस बात पर शक किया कि पता नहीं ये मेरे बेटे के साथ न्याय कर पाएगी या नहीं और इसलिए उनदोनों के बीच कभी पति-पत्नी के संबंध नहीं बन पाए. राधा को बार-बार जिस फ्रेम में शामिल किया जाता है, फिल्म देखते हुए आपको कृष्णा सोबती की मित्रो मरजानी का ध्यान आएगा. जीवन से बेहद असंतुष्ठ एक स्त्री लेकिन मास्टरजी को विश्वास दिलाने के लिए परिवार नियोजन योजना के तहत अपना ऑपरेशन कराने के लिए भरतपुर तक चली जाती है लेकिन डॉक्टर ऑपरेशन नहीं करते.

इमरजेंसी को लेकर वर्चुअल स्पेस से लेकर मेनस्ट्रीम मीडिया में इंदिरा गांधी और संजय गांधी को लेकर जो स्टोरी चल रही है, उसमे कल से परिवार नियोजन वाले मसले को भी प्रमुखता से शामिल किया जा रहा है जिसमे तत्कालीन सरकार के उन निर्देशों का हवाला दिया जा रहा है जिसमे कहा गया था कि इस प्रोजेक्ट को सफल बनाने में जिसने आनाकानी की, उसकी तनख्वाह तक काट ली जाएगी. संजय दुबे( Sanjay Dubey) ने सत्याग्रह डॉट कॉम पर एक स्टोरी भी लगायी है जिसमे विस्तार से बताया है कि आपातकाल के दौरान संजय गांधी के सिर पर नसबंदी का ऐसा जुनून क्यों सवार हो गया था कि वे इस मामले में हिटलर से भी 15 गुना आगे निकल गए? इस दौरान ६२ लाख लोगों की नसबंदी हुई और जिनमे करीब दो हजार लोगों की जान चली गईं. इस मामले में संजय गांधी हिटलर से भी १५ गुना आगे निकल गए. इसी कड़ी में एक दूसरी स्टोरी प्रकाशित की है जिसमे रुखसाना और परिवार नियोजन की विस्तार से चर्चा है. रुखसाना को संजय गांधी ने मुस्लिम समुदाय के लोगों को ज्यादा से ज्यादा तादाद में नसबंदी के लिए राजी करने का काम सौंपा था. इसके बाद उन्होंने कहर ढा दिया.


इन सबकी चर्चा अखबारी रिपोर्ट से लेकर तेजी से लिखी जा रही घटना आधारित किताबों में मिलेंगी लेकिन जब हम मास्टरजी फिल्म के डॉक्टर के संवाद से गुजरते हैं तो इस बात की उम्मीद जगती है कि उस जोर-जबरदस्ती के दौर में भी स्वविवेक से काम लेनेवालों की संख्या रही होगी और उन्होंने लोगों की बेहतरी का हवाला देकर सरकारी दमन के आगे अपने पेशे की ईमानदारी को प्रमुखता दी..आप कह सकते हैं ये तो सिनेमा की बात है, फिक्शन है लेकिन है तो ये भी सांस्कृतिक पाठ ही और जब आप टीवी के युद्धिष्ठिर को फिल्म संस्थान का उद्धारक मान ले रहे हैं ऐसे में इमरजेंसी के फीचर और रिपोर्ट से छूट गए ऐसे संदर्भों को तो शामिल कर ही सकते हैं. इससे कुछ नहीं तो कम से कम दमन के बीच भी विवेक के बचे रहने का आत्मसंतोष तो होता ही है. हां ये जरुरी है कि फेमिनिज्म एंगिल से इस फिल्म को देखा जाए तो आपको झोल ही झोल नजर आएंगे और फिल्म पर वही पितृसत्ता हावी नजर आएगी.. और क्या पता, संजय गांधी के रवैये को जायज ठहराने का इस फिल्म पर आरोप भी लग जाए.
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चालीस साल पहले की वो सुबहः

ये दिलचस्प संयोग है कि आज से चालीस साल पहले मेरे जैसे देश के हजारों मीडिया-साहित्य के छात्रों ने जब आंखें खोली होगीं तो उन्हें सबसे पहले ये खबर सुनने को मिली होगी कि अब ऑल इंडिया रेडियो पूरी तरह ऑल इंदिरा रेडियो हो गया है और मैंने जब आंखें खोली तो सात दिन पहले ऑर्डर की गई किताब ठीक इसी दिन मिली जब हवा में इमरजेंसी का नया संस्करण घुला है..आखिर देर रात हम राजनाथ सिंह का ये बयान सुनकर ही तो सोए थे कि ये एनडीए की सरकार है, इस तरफ नए मंत्रियों से इस्तीफा नहीं लिया जाता.  ( संदर्भ- #lalitmodigate)

कल प्राइम टाइम में वो सारे चैनल जो भाजपा और रिलांयस इन्डस्ट्रीज के या तो मातहत हैं या एहसानों से लदे हैं, वसुंधरा राजे के हस्ताक्षर किए पेपर पर बवाल मचने और अच्छे दिन की सरकार के बुरी तरफ फंस जाने पर स्टोरी करने के बजाय इसी इमरजेंसी पर दनादन स्टोरी करते रहे. बात-बात में ब्रेकिंग न्यूज की लत के शिकार चैनलों को वर्तमान को दरकिनार करते हुए इतिहास के प्रति इतनी मोहब्बत कम ही देखने को मिलते हैं. नहीं तो यदि ललित मोदी-वसुंधरा राजे और इंदिरा गांधी की इमरजेंसी पर स्टोरी करते तो उन्हें तुलना करते हुए बहुत कुछ साम्य दर्शन हो जाते..ये मीडिया का वो दौर है जहां सरकार के निर्देश और धंधे इतने व्यवस्थित हो गए हैं कि इमरजेंसी के लिए किसी एक दिन की घोषणा की जरुरत नहीं रह जाती..वो अब एक प्रक्रिया का हिस्सा हो चुका है..देर रात तक जिस तरह चैनल के एंकर दहाड़ रहे थे कि इंदिरा गांधी ने इस तरह मीडिया पर कब्जा किया, कल की पीढ़ी ये सवाल नहीं करेंगे कि जब पूरा देश ये जानना चाह रहा था कि ललित मोदी-वसुंधरा राजे प्रकरण में जब एनडीए सरकार की साख पूरी तरह मिट्टी में मिल जा रही थी, उस वक्त नरेन्द्र मोदी क्यों चुप्पी साधे रहे और इस पर आप अधिकांश मीडिया ने एक लाइन की स्टोरी भी क्यों नहीं की ? और तो और एनडीए सरकार को इन दिनों राज्यसभा टीवी क्यों इतना खटक रहा है..राममाधव की बयानबाजी और उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी मामले में राज्यसभा टीवी कवरेज को जिस तरह जबरदस्ती घसीटा जा रहा है, वो सरकार की मंशा को काफी हद तक साफ कर देता है. विस्तार से पढ़ने के लिए चटकाएं-http://www.thehindu.com/news/national/under-attack-rajya-sabha-tv-says-its-not-government-mouthpiece/article7347640.ece  खैर

ऑल इंडिया रेडियो के ऑल इंदिरा रेडियो की कहानी को लेकर सेवंती निनन ने भी अपनी किताब through the magic window  में विस्तार से लिखा है लेकिन इंडियन एक्सप्रेस की पत्रकार कोमी कपूर ने अपनी किताब the emergency: a personal history में इसे और विस्तार से लिखा है. ये अलग बात है कि देशभर में जिस तरह से कांग्रेस विरोधी माहौल है, उसके बीच कोमी कपूर की किताब कपूर का असर करेगी, बाकी का काम अरुण जेटली की लिखी भूमिका कर देगी. लेकिन ऐतिहासिक संदर्भों को समझने के लिए ये एक जरुरी किताब तो है ही.
 वो लिखती हैं कि इंदिरा गांधी के बेटे संजय गांधी को इस बात की कोफ्त थी कि जयप्रकाश नारायण और आंदोलन को क्यों कवर किया जा रहा है और इंदिरा गांधी की रैलियों को क्यों नहीं दिखाया-बताया जा रहा है. संजय गांधी ने इस पर तत्कालानी सूचना एवं प्रसारण मंत्री इंदर कुमार गुजराल से बहसबाजी भी की. संजय गांधी को इस बात से नाराजगी थी कि २० जून १९७५ इंदिरा गांधी की वोट क्लब रैली की लाइव कवरेज क्यों नहीं हुई..गुजराल ने समझाने की कोशिश भी की कि बिना डायरेक्टर जनरल की अनुमति के इस तरह से राजनीतिक रैलियों की कवरेज नहीं की जा सकती लेकिन संजय गांधी ने बात नहीं मानी और ये मामला प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी तक चला गया.

२६ जून को इंदिरा गांधी और संजय गांधी ने इंदर कुमार गुजराल से स्पष्ट कहा कि वो जेपी आंदोलन को ज्यादा तूल न दें, कम से कम दिखाएं, उमड़ी भीड़ की कवरेज न दें आदि..आदि..लेकिन उसके तुरंत बाद ही २६ जून की सुबह पीएमओ के ज्वाइंट सेक्रेटरी पी एन बहल ऑल इंडिया रेडियो की न्यूजरूम में आए और चार्ज ले लिया. उन्होंने डायरेक्टर जनरल को एआइआर की एक टीम गठित करने की बात कही जो कि इंदिरा गांधी के संदेशों को रिकार्ड करके कार्यक्रम बनाएगी और आठ बजे सुबह न्यूज बुलेटिन के बदले ये कार्यक्रम दिखाया जाएगा.
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वैसे तो फैशन औऱ लाइफ स्टाइल का बड़ा हिस्सा बाजार की चलन से डिसाइड होता है जिसके लिए टेलीविजन,अखबार,सिनेमा और अब एफएम चैनल भी दूत का काम करते हैं..देखते-देखते हमारे खाने-पीन,पहनने का अंदाज बदल जाता है..मैं खुद भी ग्रेजुएशन तक जिस मट्टीमार बैग्गी ट्राउजर पहनकर डॉ. कामिल बुल्के शोध संस्थान जाया करता था, अब उन्हीं ट्राउजर को देखकर हंसी आती है और लगता है कि जब मेरी उम्र साठ साल( अगर तब तक जी गया तो) हो जाएगी तब भी ये ट्राउजर आ जाएंगे बल्कि एक ही में दोनों पैर,बाकी एक की मजे से झोले सिलवा लूंगा...और बताइए ऐसी ढीली-ढाली ट्राउजर-जींस को ब्ऑयफ्रैंड जींस नाम दिया जा रहा है. खैर,
अब फैशन में मेडिकल साइंस और हेल्थ केयर की साझेदारी भी शुरु होने लगी है. एफएमसीजी प्रोडक्ट में तो ये शुरु से रहा है और एक से एक कीड़े,वैक्टीरिया आदि के कैरेक्टर गढे गए लेकिन अब ये पोशाकों तक अपनी बात ले जाकर कह रहे हैं और होते-होते अब बात स्कीनी जींस तक आ गई.
हालांकि अब हम इस बात से मुक्त हैं कि बिल्कुल टाइट स्कीनी जींस जिसमे कि प्रवक्ता पद के आवेदन हेतु जो हम बैंक-दर-बैंक जाकर ड्राफ्ट बनवाते हैं, वो भी न प्रवेश कर सके, पहनते हैं और हमें कोई नहीं कहता- छी..लड़कियोंवाली जींस पहनकर घूम रहा है..हम दिल्ली की इसी सड़ी गर्मी, ४५ डिग्री तापमान में भी थ्री डिग्री लुक के साथ शहर में घूम रहे हैं..मुझे याद है बीए सेकण्ड इयर में जब मैंने पहली बार स्कीन जींस पहनी थी जो कि रांची जैसे शहर में बिल्कुल कॉमन नहीं था तो लोगों के बीच कानाफूसी शुरु हो गई थी..लड़का चाल-चलन से गड़बड़ा गया है..हमको तो शक है कि विपरीती लिंगी को पसंद भी आएगी भी कि नहीं..
लेकिन हेल्थ केयर की मार देखिए कि हम सालों से जिस स्कीनी जींस को पहनते आए, मौउगा, देह पर खाली दू गो संतरा नय है, बाकी पीछे से एकदम लड़की हो गया है जैसे ताने सुनने के वाबजूद कमर से बांधे और टांगों से चिपकाए रहे, उसी स्कीनी जींस के बारे में कहा जा रहा है कि इससे "asphyxiation"नाम की बीमारी की पूरी संभावना है..गूगल पर जब इसके बारे में विस्तार से पढ़ा तो समझ आया कि ऐसा होना स्वाभाविक ही है क्योंकि जिस जींस से एक बैंक ड्राफ्ट तक न गुजर पाता हो, वहां से हवा गुजरना कितना मुश्किल है और ऐसे में इस बीमारी से आगे चलकर चलने-फिरने तक में दिक्कत हो सकती है..पक्षाघात तक हो सकता है..और भी बहुत कुछ..
लेकिन ऐसा है कि ये स्कीनी जींस मुझे हद से ज्यादा पसंद है...सो पैरलॉसिस अटैक भी हो तो भी इसी जींस को पहनकर घर में लेटे-पड़े रहेंगे..एक दर्जन चीजें तो पहले ही छोड़ चुका हूं और अब ये जान से प्यारी स्कीनी जींस भी..नो वे.
पूरी स्टोरी के लिए चटकाएं- http://www.thequint.com/WaterQooler/skinny-jeans-wont-but-must-die
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