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मैंने उस वक्त जितनी बार दीपक चौरसिया को देखा, नौकिया ग्यारह सौ के साथ ही देखा. दो-दो फोन लेकिन वही. पुण्य प्रसून के साथ भी मामूली मोबाईल. शम्स ताहिर खान के मोबाईल पर तो कभी नजर ही नहीं गई. वो अपने जीवन में, अपनी शैली में वैसे भी बेहद सादगी पसंद इंसान है. मयूर विहार फेज वन का वो इलाका जिसे अब सेल्फीप्रधान मीडियाकर्मचारी लो स्टेटस की जगह मानते हैं, बड़े आराम से आपको घूमते-टहलते मिल जाएंगे. जिस वक्त ये लोग नोकिया ग्यारह सौ और उसके आसपास की मोबाईल से अपना काम करते, उसी वक्त बाजार में एक से बेहतरीन मंहगे मोबाईल मौजूद थे. ब्लैकबेरी की जबरदस्त क्रेज थी लेकिन  मामूली मोबाईल इनका खुद का चुनाव था, कहीं कोई मजबूरी नहीं.

ये देश के वो मीडियाकर्मी हैं जिन्हें राह चलते लोग पहचानते हैं. आप इनकी स्टोरी-एंकरिंग की क्वालिटी का विश्लेषण न भी करें तो भी सिलेब्रेटी टीवी चेहरे हैं. पूरे देश में इन्हें लोग जानते-पहचानते हैं. हमने कभी भी इन तीनों को न तो सिलेब्रेटी जैसा व्यवहार करते देखा और न ही कभी किसी सिलेब्रेटी के पीछे दौड़ लगाते. हां ये जरूर है कि तीनों अपनी सेल्फ को लेकर कॉन्शस रहनेवाले लोग.  अब मुझे नहीं पता कि ये कौन सा मोबाईल रखते हैं लेकिन हां इतना तो जरूर है कि इस सेल्फी सर्कस में कभी दिखाई नहीं दिए. स्मार्टफोन होंगे भी तो वो इनकी पत्रकारिता का एक हिस्सा होगा, न कि सत्ता के आगे लोट जाने की चटाई.

मैं 2007-08 की अपनी इन्टर्नशिप, ट्रेनी औऱ नौकरी के दिनों को याद करता हूं और आज इस नजारे से गुजरता हूं तो क्लासरूम में अपनी ही कही बात से लड़खड़ाने लग जाता हूं- पत्रकारिता करने के लिए बहुत अधिक संसाधन नहीं चाहिए, एक मामूली मोबाईल जिससे तस्वीर ली जा सके, रिकॉर्डिंग हो सके और टाइपिंग हो सके बस..इसके आगे आप जो भी करेंगे वो संचार क्रांति का हिस्सा होगा, उससे सूचना क्रांति कभी नहीं आएगी.

आज जब इस तमाशे से गुजरता हूं तो लगता है कि जिन संसाधनों से बेहतरीन वैकल्पिक पत्रकारिता की जा सकती है, स्टोरी की लागत में कटौती की जा सकती है, उसे इन मीडिया कर्मचारियों ने कितनी बुरी तरह टीटीएम के काम में लगा दिया. ऐसे नजारे देखने के बाद भी आपके मन में सवाल रह जाते हैं कि आखिर मीडिया को लेखकों का पुरस्कार लौटाना, प्रतिरोध में सरकार से असहमत होते हुए अपनी बात कहना क्यों रास नहीं आता ? आखिर जिस चेहरे के साथ सेल्फी खिंचाने के लिए वो लंपटता और मवालियों की हद तक जा सकते हैं, आखिर वो अपने इस प्रतीक पुरूष की छवि ध्वस्त होते कैसे देख सकते हैं ? #मीडियामंडी
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जी न्यूज के दागदार संपादक सुधीर चौधरी को 16 दिसंबर 2012 में हुए दिल्ली गैंगरेप की पीडिता के दोस्त का इंटरव्यू के लिए साल 2013 का रामनाथ गोयनका सम्मान कल दिया गया. ये सम्मान सुधीर चौधरी के उस पत्रकारिता को धो-पोंछकर पवित्र छवि पेश करती है जिसके बारे में जानने के बाद किसी का भी माथा शर्म से झुक जाएगा.
पहली तस्वीर में आप जिस महिला के कपड़े फाड़ दिए जाने से लेकर दरिंदगी के साथ घसीटने,बाल नोचने के दृश्य दे रहे हैं, ये शिक्षक उमा खुराना है. इन पर साल 2007 में लाइव इंडिया चैनल ने स्टिंग ऑपरेशन किया और लोगों को बताया कि ये महिला शिक्षक जैसे पेशे में होकर छात्राओं से जिस्मफरोशी का धंधा करवाती है. चैनल ने इस पर लगातार खबरें प्रसारित की.
नतीजा ये हुआ कि दिल्ली के तुर्कमान गेट पर बलवाईयों ने इस महिला को घेर लिया..कपड़े फाड़ दिए और मार-मारकर बुरा हाल कर दिया. पुलिस की सुरक्षा न मिली होती तो इस महिला की जान तक चली जाती. बाकी देश के लाखों लोगों की निगाह में ये शिक्षक ऐसी गुनाहगार थी जिसका फैसला लोग अपने तरीके से करने लग गए थे. लेकिन
जल्द ही पता चला कि चैनल के रिपोर्टर प्रकाश सिंह ने कम समय में शोहरत हासिल करने के लिए जिस स्टिंग ऑपरेशन को अंजाम दिया था वो पुरी तरह फर्जी है. उस वक्त चैनल के प्रमुख यही सुधीर चौधरी थे और उन्होंने अपने रिपोर्टर को क्रिमिनल बताते हुए साफ-साफ कहा कि इसने हमें धोखे में रखा और इस खबर की हमें पहले से जानकारी नहीं थी. चैनल एक महीने तक ब्लैकआउट रहा. प्रकाश सिंह थोड़े वक्त के लिए जेल गए..फिर छूटकर दूसरे न्यूज चैनल और आगे चलकर राजनीतिक पीआर में अपना करिअर बना लिया और इधर खुद सुधीर चौधरी तरक्की करते गए.
इस फर्जी स्टिंग ऑपरेशन के देखने के बाद जनता ने शिक्षक उमा खुराना के साथ जो कुछ भी किया, उसकी कोई भरपाई नहीं हुई..अब वो कहां हैं, क्या करती हैं, किस हालत में है इसकी मीडिया ने कभी कोई खोजखबर नहीं ली लेकिन अब जबकि सुधीर चौधरी को महिलाओं के सम्मान के लिए ये अवार्ड मिला है तो कोई जाकर उनसे अपने चिरपरिचत अंदाज में पूछे कि आपको ये खुबर सुनकर कैसा लग रहा है तब आपको अंदाजा मिल पाएगा कि महिलाओं का सम्मान कितना बड़ा प्रहसन बनकर रह गया है. 
बाकी जी न्यूज के इस दागदार संपादक पर बोलने का मतलब देशद्रोही होना तो है ही. ‪#‎मीडियामंडी‬
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करीब पैंतीस मिनट के इंतजार के बाद जिस ऑटो रिक्शा ने मेरी बताई जगह पर जाने के लिए हामी भरी, साथ में अपनी शर्त भी रख दी- आईटीओ से जाएंगे, हमें जमना घाट पर कुछ सामान देना है, सुबह के अर्घ्य के लिए..

रास्ते में अचानक फुल वॉल्यूम में केलवा के पात पर, हो दीनानाथ( शारदा सिन्हा ) और मारवौ रे सुगवा धनुख से( अनुराधा पौडवाल) बजाती हुई गाड़ी सर्र से गुजर जाती और हम थोड़े वक्त के लिए नास्टैल्जिक हो जाते..घर में कभी किसी ने छठ किया नहीं है लेकिन घाट पर से नारियल का गोला लेकर मां के साथ लौटना हर बाहर भीतर तक भिगो देता है.. समझ गया अब शारदा सिन्हा की खुदरा-खुदरा आवाज के बीच एकमुश्त लव-गुरु और जिएं तो जिएं कैसे, बिन आपके टाइप के गाने में कोई मजा बचा नहीं है..लिहाजा कान से इपी निकालकर, समेटकर वापस बैग में रख लिया.

आईटीओ पहुंचते ही मेरी नीयत बदल गई. आधी रात में कंबल लपेटकर बैठे, ओढ़कर अध-मरी स्थिति में अपने डीयू-जेएनयू के दोस्तों को लांघकर गुजरने की हिम्मत नहीं हुई. नजदीक जाते ही दीनानाथ, मौका मिलेगा तो हम बता देंगे जैसे गीत-गाने बहुत पीछे रह गए थे और अब कान में बेहद स्पष्ट, दमदार एक ही आवाज सुनाई दे रही थी- अपनी कुर्सी के लिए जज्बात को मत छेड़िए..
आइटीओ मेट्रो से सटे करीब दो दर्जन छात्रों से घिरा एक शख्स अपनी रौ में डफली पर थाप देते हुए गा रहा था..आज रात दिल्ली में चारों तरफ से गानों की आवाज आ रही है..आप बहुत कोशिश करेंगे तो बीच-बीच में एकाध शब्द पकड़ में आ जाएंगे लेकिन आइटीओ की सड़कों पर ( जो कि अखबारों के दफ्तर से भरा इलाका है, रात ) पिछले सोलह-सत्रह दिनों से वही गीत, वही कविता, वही सारे शब्द बहुत साफ सुनाई दे रहे हैं जो कि पाठ्यक्रम से, क्लासरूम से जो कवि और कविता एक-एक करके खिसकाए जाने लगे हैं या तो पाठ्यक्रम में होकर भी चुटका-कुंजी के ठिकाने लगा दिए गए हैं, वो इन दिनों आइटीओ की सड़कों पर अपने वास्तविक अर्थ में मौजूद हैं. कला की जो परिभाषा आर्ट गैलरी में जाकर कैद हो जा रही है वो आधी रात गए लैम्पपोस्ट की रोशनी में अपनी जरूरत खुलकर राहगीरों को बता दे रही है..
थोड़े वक्त के लिए आप भूल जाइए कि ये जिस बात को लेकर यूजीसी का, मानव संसाधन विकास मंत्रालय और केन्द्र सरकार का जिस बात को लेकर विरोध कर रहे हैं, वो किस हद तक जायज है. आप सत्ता और सरकार के ही पक्ष में खड़े रहिए, हितकारी तो यही है. लेकिन आधी रात को जो गतिविधियां यहां चल रही होती है( स्वाभाविक रूप से दिन में भी होती हैं), उनसे गुजरने पर आप महसूस करेंगे कि ये उपरी तौर पर भले ही विरोध है, आपको ये भी राष्ट्र का अपमान नजर आए लेकिन जिस जुनून के साथ यहां गीत गाए जाते हैं, कविता की जो पंक्तियां लिखी-टांगी और दोहराई जाती है, संप्रेषण के लिए जिन पारंपरिक तरीके का इस्तेमाल किया जा रहा है, उन सबसे गुजरने के बाद एकबारगी आपको जरूर लगेगा कि कला की, कविता की हिफाजत असल में ऐसे ही मौके और जगहों पर संभव है.
बात-बात में जो हमारी संस्थाएं, अलग-अलग प्रदेश की सरकार करोड़ों रूपये विज्ञापन और पीआर प्रैक्टिस पर झोंक देती हैं, आप अपनी बात रखने के इनके तरीके पर गौर करेंगे तो पाएंगे कि प्रतिरोध का असल अर्थ, अपनी बात लोगों तक पहुंचाने का सही जरिया वो शब्द ही है जिन पर कि हम धीरे-धीरे बहुत कम यकीं करने लगे हैं. कविता को निबटाकर जुमले,नारे और विज्ञापन की पंचलाइन पर उतर आए हैं. ऐसे प्रतिरोध शब्दों के प्रति यकीन की तरफ लौटने की कार्रवाई है, कविता की जरूरत और कला को आर्ट गैलरी के कैदखाने और ड्राइंगरूम की हैसियत से बाहर निकालकर ठहरकर सोचने के लिए है...बाकी ये हमारी-आपकी तरह के कोजी कमरे का मोह त्यागकर सड़क किनारे जैसे-तैसे सोए पड़े हैं, इनकी मांगे पूरी होती है तो सुविधा उठाने के काबिल इनसे पहले हम-आप होंगे.
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साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाकर और उनका समर्थन करनेवाले लोगों ने देश का नाम खराब किया है. देश को अहिष्णु बताकर दुनिया के सामने उसकी इज्जत कम की है. #प्रतिरोध कार्यक्रम के जरिए इन्होंने दुनिया के आगे एक पाखंड रची है जो कि सीधे-सीधे सरकार के,राष्ट्र के और इस देश की जनता के खिलाफ है..

राष्ट्र की इस खराब हुई छवि को पहले की तरह बेहतर करने, पहले की तरह विशाल हृदय का देश और सरकार बताने के लिए #मार्चफॉरइंडिया का आयोजन किया गया. जिस भाषा और भाव के साथ इसकी पहल की गई है, हम जैसे आंख चीरकर, टकटकी लगाए बेहतर कल की उम्मीद करनेवाले लोग लगभग आश्वस्त हो गए थे कि पुरस्कार लौटाकर जिनलोगों ने इस देश का अपमान किया है, उन्हें आज ये एहसास हो जाएगा कि वो गलत हैं..साहित्य अकादमी का वापस करना, देश की अखंड संस्कृति पर चोट करना है..लेकिन

#मार्चफॉरइंडिया में एनडीटीवी की महिला पत्रकार के साथ बदतमीजी की, अपशब्दों का प्रयोग किया.
हम उम्मीद करते हैं ये देश और दुनिया के बाकी लोग इसे महिला का अपमान न मानकर एक कांग्रेसी चैनल की मीडियाकर्मी को सही रास्ते पर लाने के रूप में लेगा. हम उम्मीद करते हैं कि इससे राष्ट्र का अपमान नहीं हुआ होगा..ऐसी स्थिति में मीडियाकर्मी को फेसबुक पर अपनी बात अपडेट करने, संस्थान को बताने के बजाय चुप मार जाना चाहिए था..मीडिया के पेशे में इतना सब होना तो आम बात है.
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