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"इसकी कोई पहचान नहीं है-जब आप अपनी बेटी का रिश्ता तय करने जाते हैं और जैसे ही आपने यहां का नाम बताया-आपका काम वहीं खत्म। पहचान सिर्फ कमाई से नहीं बनती है,रहन-सहन भी कोई चीज हैं,यहां के लोगों का रहन-सहन ठीक नहीं है।" इस इलाके का एक बुजुर्ग जितनी ईमानदारी और आसानी से दिल्ली के हिस्से के बारे में बात करता है,दिल्ली में बहुत कम ही लोग और बहुत कम ही ऐसे इलाके होंगे जहां ऐसी बातें की जाती है। दिल्ली के लोग अपने उन मोहल्ले को भी इलाके की सबसे पाश कॉलोनी बताते हैं जहां पहुंचने के लिए फोर व्हीलर डेढ़ किलोमीटर पहले ही छोड़ देनी पड़ती है,जहां के लोगों की आधी गृहस्थी सड़कों पर तैरती है और जहां पूरा का पूरा परिवार एक बेपर्द जिंदगी जीता है। ऐसे में एक ईमानदार जुबान से दिल्ली के बारे में सुनना कुछ और ही किस्से बयान करता है। एनडीटीवी के कैमरे और रवीश कुमार की नजर से देखी गयी इस दिल्ली में काफी हद तक बयान की ये ईमानदारी बरकरार रहती है।

शुरुआत में नाम से ऐसा लगता है कि पॉपुलरिटी के चक्कर में इसे चैनल ने शरद जोशी के उपन्यास और सबटीवी पर दिखाए जानेवाले सीरियल लापतागंज का कॉन्सेप्ट मारकर कुछ अलग बनाने की कोशिश की है। लेकिन रिपोर्ट को देखते हुए ये भ्रम टूटता है कि ये सबटीवी का लापतागंज नहीं है बल्कि एनडीटीवी का अपना बनाया और खोजा गया लापतागंज है। इसमें कुछ-कुछ,कहीं-कहीं समान है तो वो है रवीश कुमार की स्क्रिप्ट में शरद जोशी का वो अंदाज जो व्यंग्य और बिडंबना के बीच से होकर शहर को समझना चाहता है। जो दिल्ली की ब्रांडिंग के नाम पर सरकारी उछल-कूद पर हंसता है और मनमोहन सिंह की ब्रांड इंडिया स्ट्रैटजी से कहीं ज्यादा आम नागरिकों की जुगाड़तंत्र से इम्प्रैस होता है।

एनडीटीवी इंडिया पर दिल्ली का लापतागंज नाम से रवीश कुमार की ये स्पेशल स्टोरी पहाड़गंज की उस कहानी को बयान करती है जिसे देखते हुए दिल्ली की सारी परिभाषाएं एक-दूसरे से गड्डमड्ड होने लगती है। ऐसा लगता है कि दिल्ली की चमक को ग्लोबल स्तर पर स्टैब्लिश करने में लाखों के खर्चे पर लगाए कीऑस्क का कोई भी असर यहां नहीं है। इसका इतिहास अभी भी फटे हुए पोस्टर की तरह जहां-तहां से फड़फड़ा रहा है। ये दिल्ली के नाम पर बहुत ही ठीठ किस्म का इलाका है जो कि इस शहर की परिभाषा को बदलने के लिए अपनी ठिठई लिए पेश आता है। सालों से चाकू की धार लगानेवाले शख्स की तस्वीर लेकर रोज पचासों विदेशी उसे ग्लोबल कर जाते हैं लेकिन वो आज दिन तक कनॉट प्लेस से आगे तक नहीं गया।

इस रिपोर्ट में पहाड़गंज को समझने के लिए रवीश कुमार ने तीन फोकल प्वाइंट तय किए हैं। एक है सिटी स्पेस के तहत पहाड़गंज का लोकेशन, दूसरा टूरिज्म,बाजार और विदेशी सैलानियों का पैश्टिच बनता ये इलाका और तीसरा इस इलाके में जीनेवाले लोगों की अपनी आदतों को उनके घरों में घुसकर जानने की कोशिश। पूरी रिपोर्ट इन्हीं तीन फोकल प्वाइंट के बीच घूमती है और इन तीनों स्तरों पर ये अपार्टमेंट और मॉल में जीनेवाली दिल्ली,कॉमनवेल्थ को लेकर नाज करनेवाली दिल्ली,आधी जिंदगी के सड़कों और गाड़ियों में एफएम की बड़बड़ाहट के बीच पस्त होती दिल्ली और दुनिया के बेहतरीन शहरों में इसे शामिल करनेवाले लोगों से व्यवस्त दिल्ली से अपने को कैसे अलग करती है,उसे समझने की कोशिश करती है। इस पहाड़गंज में ग्लोबल और अर्वन कहलाने के लिए बेचैन दिल्ली से अलग उन चिन्हों को खोजने की कोशिश की है जिसके भीतर आज भी मोहल्ला कहलाने की फितरत मौजूद है। इसे न तो सरकार से किसी अलग मार्का लगवाने की जरुरत महसूस होती है और न ही किसी नए चमकते शब्दों से खुद को पुकारे जाने की ललक। लेकिन एक ठसक है कि दुनिया उसके पास आती है। शायद यही वजह है कि अपनी शक्ल-सूरत में ये जितना लोकल है,अपनी शर्तों पर उतना ग्लोबल भी। रिपोर्ट ये सारी बातें विस्तार से बताती है।

रिपोर्ट बताती है कि अगर आप बदलते वक्त के साथ दिल्ली को समझना चाहते हैं तो पहाड़गंज के घरों की छतों पर खड़े हो जाइए। एक तरफ जामा मस्जिद,दूसरी तरफ दूर से दिखता राष्ट्रपति भवन का गुंबद और बगल से गुजरती नयी-नवेली मेट्रो। शहर का पूरा नजारा एक लाइव हिस्ट्री की तरह आपके सामने है। लेकिन फिर सवाल भी है कि इस नजारे के बीच खुद पहाड़गंज क्या है? रवीश इसे बचे-खुचे मोहल्ले का नाम देते हैं। जहां के घरों की दीवारें एक-दूसरे से सटी हुई है,बिजली के तार इलाके की धमनियों के रुप में बहुत ही उलझे और कॉम्प्लीकेटड हैं। इन गलियों में अभी भी घोड़े आजाद मन से घूमते नजर आते हैं। ऐसे इलाके में रहने का सबसे दिलचस्प नजारा होता है कि आप एक ही साथ कई गतिविधियों को,कई लोगों को कुछ-कुछ करते हुए देख सकते हैं। अपार्टमेंट कल्चर में जहां प्रायवेसी के नाम पर हम भारी कीमतें चुकाते हैं वहीं इन इलाकों के बीच पब्लिक एक्टिविटीज के बीच जीना अटपटा नहीं लगता।

रिपोर्ट का दूसरा फोकल प्वाइंट बहुत ही जबरदस्त है। जिस किसी का भी कभी दिल्ली आना हुआ है उन्हें पता है कि पहाड़गंज इस बात के लिए सबसे ज्यादा मशहूर है कि यहां सस्ते में रहने का ठिकाना मिल जाता है। जिस किसी विदेशी सैलानी को सस्ते में और सबसे करीब से हिन्दुस्तान को देखना हो तो उसके लिए पहाड़गंज पहली प्रायरिटी होती है। होटल के बगल से ही हिन्दुस्तान की सही तस्वीर दिखाई देने लग जाती है। इस इलाके में करीब साढ़े छ सौ होटल हैं और हर होटल पैदा होते ही अपने को इन्टरनेशनल कहने लग जाता है। नवरंग होटल के मालिक श्याम विज का मानना है कि बाहर से आनेवाले लोग दो पैग मारकर बड़े आराम से इस शहर को देखने निकल लेते हैं। पचास कमरे के इस होटल का कोई भी कमरा कभी भी खाली नहीं रहता। इसकी वजह सिर्फ इतना भर नहीं है कि यहां मात्र 100 रुपये में कमरा मिल जाता है बल्कि इन कमरों में कईयों के दोस्त पहले यहां रहकर गए होते हैं। दीवारों पर कुछ-न-कुछ तस्वीरें बनाकर जाया करते हैं जिसे कि बाद में उसे खोजते हुए लोग वापस आते हैं। इसलिए इसकी दीवारों की पुताई नहीं करायी जाती। इस तरह हर कमरे के साथ एक इन्टरनेशनल किस्सा जुड़ा होता है। इन होटलों के बीच एक ग्लोबल स्तर का 'म्यूजिम फॉर रिमेम्वरेंसट'बनता चला जाता है। नवरंग की छत पर टाइटेनिक की हीरोईन केट वेन्सलेट की बनाई बाघ की पेंटिंग है,यहीं स्मोकिंग पार्क की शूटिंग हुई। ये इलाका बिना टस से मस हुए अपने मिजाज से ग्लोबल होता चला जाता है।

रिपोर्ट का दिलचस्प पहलू है कि उसने इसके भीतर के बननेवाले बाजार को सही संदर्भों में समझा है। रिपोर्ट के मुताबिक यहां के लोकल दुकानदारों ने विदेशी पर्यटकों की जरुरतों को देश के पर्यटन विभाग से भी ज्यादा बेहतर तरीके से समझा है। जि गलियों में कभी किराना की दुकानें हुआ करती थी,आज वो पूरा का पूरा हैंडीक्राफ्ट के बाजार में तब्दील हो गया है। मामूली कीमतों पर बिकनेवाली यहां की चीजें भारत में बनी और यहां से खरीदकर ले जाने का एहसास पैदा करती है। यहां अपने तरीके के विज्ञापन जन्म लेते हैं। चमड़े के विदेशी जैकेट पहनने से स्कीन खराब होती है इसलिए-be indian,buy indian. ग्लोबल स्तर के पैश्टिच यहीं से बनने शुरु होते हैं जहां विदेशी पहले तो यहां की चीजें इस्तेमाल करता है फिर डमरु बजाकर शिव का भक्त हो जाता है। इनके हाथों और शरीर पर काठ,चाम,जूट,रंगों से बनी देशी चीजें हैं तो दूसरी तरफ माचीस की डिबिया जैसे घरों में रहनेवाले लोग भी तमाम तरह की मल्टीनेशनल कंपनियों की सुविधाओं(प्रोडक्ट के स्तर पर)में जीते हैं।

हम जब से दिल्ली को समझना शुरु करते हैं,गृहस्थी के बारे में सोचना शुरु करते हैं-आंखों में 800-1000 स्क्वायर फीट के फ्लैट का खांचा फिट हो जाता है। उस कार्पेट एरिया में बार्बी डॉल से खेल रही बच्ची होती है और टाटा स्काई प्लस पर सीरियल रिकार्ड करती पत्नी। हम बॉलकनी में आनेवाले कबूतरों को भगा रहे होते हैं। दिल्ली सरकार को गौरैयों को बचाने के लिए हमसे अपील करनी पड़ जाती है कि आप बॉलकनी में थोड़ा पानी रख दिया करें।..लेकिन पहाड़गंज और पुरानी दिल्ली में रहनेवाले लोग इन कबूतरों और गौरेयों को आवाज देकर बुलाते हैं। दिल्ली-6 में इस मस्सकली के बुलाए जाने की संस्कृति पर पूरा का पूरा गाना निसार है।..यहां 20 कमरे में पांच सौ लोग रहते हैं। हमें सुनकर हैरानी होती है कि कैसे रह लेते होंगे। लेकिन हमारे उपर ही मजाक उड़ाता एक बड़ा सच है कि हम जैसे लोग जिनके बारे में आम मुहावरा है- बाप मर गया जाड़ा से और बेटा खोजे एयरकंडीशन,दिल्ली में रहकर प्रायवेसी चाहते हैं,ग्रीनरी चाहते हैं खुला-खुला चाहते हैं वहीं दिल्ली के आठवीं शताब्दी के शासक तोमरवंश के वंशज इन्ही माचिस की डिबिया माफिक घरों में रहते हैं,इन्हीं दड़बेनुमा घरों में उनके सपने,उनके बच्चे,उनकी गृहस्थी फैलती है और उन्हें दिक्कत नहीं होती,इन सबकी उन्हें आदत पड़ गयी है। अगर थोड़ी-बहुत तकलीफ होती भी है तो इतिहास को अपनी अंटी में खोसकर चलने की गुरुर के सामने ये फीका पड़ जाता है।

हमें कान के बहरे और अक्ल से पैदल पैदल मानकर स्टोरी करनेवाले बाकी चैनलों के कार्यक्रम से ये स्पेशल स्टोरी अलग है। ये ऑडिएंस पर भरोसा करके बनायी गयी स्टोरी है. इसमें हमें एक ही साथ डॉक्यमेंटरी,टीवी रिपोर्ट,फीचर का भी मजा मिलता है और टुकड़ो-टुकड़ो में दिल्ली-6,रंग दे बसंती,चांदनी चौक टू चाइना और देवडी जैसी फिल्मों से मिलती-जुलती फुटेज देखने का सुख भी। न्यूज चैनल के ऐसे ही कार्यक्रम से टेलीविजन की भटकी और विक्षिप्त हुई ऑडिएंस एक बार फिर से जुड़ती है और इसी से दूरदर्शन की नास्टाल्जिया में फंसे लोगों के आजाद होने की संभावना भी बढ़ती है। लोगों के साथ मोहल्लावाला की हैसियत से रवीश कुमार का बात करने का अंदाज हमें टच करता है,हां ये अलग बात है कि उनकी बाकी की स्टोरी के मुकाबले इसमें प्रजेन्टेशन के स्तर पर लिक्विडिटी थोड़ी कम है। बीच-बीच में कुच अटकने और फंसने का एहसास होता है।..तो भी कॉमनवेल्थ के पहले-पहले तक ऐसी स्टोरी दिल्ली के और इलाकों को लेकर बने तो ये नए किस्म का इतिहास होगा।..एक ऐसा इतिहास जो कि किताबों की कथा से अलग लोगों की जुबानी और कैमरे की पकड़ के बीच से सहेजी गयी हो।

नोट:- फेसबुक पर इस स्टोरी के बारे में मेरे लिखे जाने पर कुछ लोगों ने अफसोस जाहिर किया कि वो इसे मिस कर गए। इसके जवाब में रवीश कुमार ने लिखा- इसे आप शनिवार सुबह साढ़े दस बजे, रविवार शाम साढ़े पांच बजे और रविवार रात साढ़े दस बजे भी देख सकते हैं। आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतज़ार रहेगा..

रिपोर्ट का ऑडियो वर्जन सुनने के लिए चटकाएं- एनडीटीवी इंडिया की खोज-दिल्ली का लापतागंज
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अब इस सहजन पर भी बबाल

Posted On 2:47 pm by विनीत कुमार | 9 comments


अब हमें क्या पता था कि हमारी इस एक लाईन पर भी लोगों को बबाल काटने का मसाला मिल जाएगा। इसमें भी सिनेमा,चरित्र,मर्दानगी का नुस्खा और मेरे बदजात होने के चिन्ह खोज लेगें। मन किया सो लिख दिया। इस मौसम में सचमुच बहुच मन करता है सहजन खाने का। मुझे याद है कि मार्निंग स्कूल होने पर दोपहर के वक्त मां इसे रोज बनाया करती। हम सारी सब्जी खा जाते और भात धरा का धरा रह जाता। मां कहा करती- भात जैसे दिए थे वैसे ही छोड़ दिया और सारा मुनगा खा गया। जब तक आम का मौसम न आ जाता,तब तक हम बच्चे मुनगा और इमली-पुदीना की चटनी के लोभ से ही दोपहर का भात लेकर खाने बैठते। इस सहजन जिसे कि जब तक बिहार में रहा मुनगा ही कहता के साथ बचपन की कई सारी यादें जुड़ी है। दिल्ली में तो नसीब नहीं होता। 40-60 रुपये किलो हैं,खरीदने का खरीद भी लें लेकिन बनाएंगे कहां? कोई तैयार ही नहीं है कि मुनगा की सब्जी खिलाए। पीजी वीमेंस कॉलेज के आगे लटकता और बाद में सूखता देखता हूं तो मन कचोटता है। एक दो बार हॉस्टल स्टॉफ से कहा भी कि आपलोग तोड़ते क्यों नहीं लेकिन दिल्ली में लोग हरी सब्जियों का कद्र ही नहीं जानते।..इन सारी बातों को याद करते बज पर सिर्फ इतना ही लिखा- सहजन खाने का मन करता है कि देखिए कैसे-कैसे लोगों ने अपने ज्ञान बघार दिए। अरविंद शेष ने तो चैट बॉक्स पर आकर पूरी एक फिल्म की घटना बता दी कि-फिल्म का नाम याद नहीं है, नहीं तो बताते आपको सहजन का असर क्या होता है। राजेश खन्ना हीरो थे। हीरोईन शायद श्रीदेवी थी। कहीं से मंगवा के खाइए और देखिए क्या होता है। जो होता है, उसका इस्तेमाल फिल्म के नाम करने के कारण जावेद अख्तर ने उस फिल्म का गीत लिखने से इंकार कर दिया था

अब इतना पढ़ा ही है तो बाकियों ने भी क्या लिखा वो भी पढ़ ही लीजिए-
vineet kumar -
सहजन खाने का मन है...

Manisha Pandey - इतनी सड़ी चीज खाने का मन भी किसी को कैसे हो सकता है ?Mar 23

vineet kumar - ये आपके लिए सड़ी हो सकती है,मेरे लिए तो कब्रिस्तान में भी कोई खाने बुलाए तो चला जाउं..EditMar 23

Manisha Pandey - तुम्‍हारा भगवान ही मालिक है। रब खैर करां !Mar 23

Prashant Priyadarshi - हम तो सहजन शब्द सुन कर ही तृप्त हो गए.. मुझे बहुत पसंद है मगर विरले ही कभी दिखा है यहाँ मुझे.. :(1:48 am

Sanjeet Tripathi - bhaiya hamara to mann kabhi khud se na ho Munaga ya sahjan khane ko, apne idhar ise Munaga kahte hain1:42 pm
neelima sukhija - बाय द वे यह सहजन क्या होता है1:49 pm
Sanjeet Tripathi - ye hai sahjan
http://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B8%E0A4%B9%E0%A4%9C%E0%A4%A81:59 pm

neelima sukhija - ओके, पंजाबी में हम इसे संवाजना कहते हैं, अजीत जी ही बता सकते हैं कि सहजन कब और कैसे पंजाब में आते आते संवाजना बना। इसके फूलों से मेरी सासू मां बड़ी अच्छी सी सब्जी बनाती हैं और फलियों से मम्मी आचार। दोनों ही ठीक ही ठाक होते हैं मनीषा इतनी भी बुरे नहीं होते। कोई बात नहीं विनीत अबकि सर्दियों में घर जाना तो अम्मा को बता देना। वैसे भी इस सीजन में तो शायद ही मिलेगा,हां सूखा हुआ कहीं मिल सकता है.2:06 pm

arvind shesh - विनीत बाबू, अभिये इतने ठंढाए गए कि सहजन की जरूरत महसूस होने लगी...
कोई बात नहीं, गरम दूध ले सकते हैं। उसमें अगर गुड़ मिला लें, तो उसका असर तुरंत महसूस होगा, बिल्कुल सहजन की तरह...
:)2:35 pm
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21 मार्च बीत गया। बिस्मिल्ला खां के जन्मदिन को मीडिया ने याद नहीं किया। मन कचोटता रहा.समय का दवाब और अलग से न लिखने की काहिली में मैं बज और फेसबुक पर सिर्फ इतना ही लिख सका-

हमें बिस्मिल्ला खां को इतनी जल्दी नहीं भूलना चाहिए था।..कहीं कोई मीडिया कवरेज नहीं। IPL तेजी से खबरों को ध्वस्त करता जा रहा है।..ऐसे होती है खबरों पर बादशाहत और ऐसे ही धीरे-धीरे होती है सरोकारी पत्रकारिता की हत्या। इस लिखे की प्रतिक्रिया में बनारस से अफलातून ने लिखा-अरविंद चतुर्वेदी ने उन पर एक अच्छी पोस्ट लिखी है।देखी? भन्नाया हुआ था और लग रहा था कि हर उस शख्स को कोड़े और चाबुक मारुं जो बात-बात में सांस्कृतिक धरोहर की बात करता है। पढ़ने से ज्यादा खोजने का मन कर रहा था कि किसने लिखा है और किसने नहीं। लपेटे में आ गया गिरीन्द्रजिसे कि हम गिरि कहा करते हैं।

हमने चैट बॉक्स पर लगभग लताड़ते हुए अंदाज में लिखा- तुम्हें बिस्मिल्ला खान के बारे में लिखना चाहिए था गिरि। गिरि को हमने ऐसा इसलिए कहा कि ब्लॉग की दुनिया में वो उन गिने-चुने शख्स में से है जो कि विरासत,धरोहर,संस्कृति और यादों की पूंजी के प्रति सचेत है। उसकी कीबोर्ड में छूटने का दर्द छिपा है और शब्दों में लगातार खोते जाने की तड़प। हमें क्या पता कि उसके मन में भी यही बात पहले से कचोटती रही कि उसने क्यों नहीं लिखा? लेकिन न लिखने की जो वजह बतायी वो कम मार्मिक नहीं है। बहरहाल अंत में उससे रहा नहीं गया और एक पोस्ट लिख दी-शहनाई खामोश नहीं हुई है दोस्त
(सपने में बिस्मिल्ला खान से बातचीत)


गिरि की पोस्ट पढ़ने के बाद मुझसे भी नहीं रहा गया लेकिन अपनी स्थिति भी यही कि पोस्ट लिखूं कि जल्दी से जल्दी अपनी रिसर्च की रिपोर्ट लिखूं। जमाने से खाली रहनेवाला शख्स इन दिनों इतना बदनसीब है कि कायदे से बिस्मिल्लाह साहब को याद नहीं कर सकता। मैंने बस इतना किया कि कभी यतीन्द्र मिश्र की कही गयी बात को जो कि उन्होंने बिस्मिल्ला खान पर लिखी अपनी किताब के लोकार्पण के मौके पर कही थी,कमेंट बॉक्स में डाल आया। माफ करेंगे,यहां भी यही कर रहा हूं। संभव हो तो आप अपनी तरफ से कुछ बेहतर लिखें-
अपनी ही पोस्ट का लिखा एक हिस्सा यहां उठाकर चेंप दे रहा हूं खां साहब की याद में- शहनाईवादक उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ां की जिंदगी पर "सुर की बारादरी"नाम से यतीन्द्र मिश्र ने किताब लिखी है। ये दरअसल उस्ताद से यतीन्द्र की हुई बातचीतों और मुलाकातों की किताबी शक्ल है जिसे आप संस्मरण और जीवनी लेखन के आसपास की विधा मान सकते हैं। किताबों पर विस्तार में बात न करते हुए यहां हम फिर उस्ताद बिस्मिल्ला खां के उस प्रसंग को उठा रहे हैं जो कि हमारे ख़्वाबों को पुनर्परिभाषित करने के काम आ सके। बकौल यतीन्द्र मिश्र-

तब उस्तादजी को 'भारत रत्न'भी मिल चुका था। पूरी तरह स्थापित और दुनिया में उनका नाम था। एक बार एक उनकी शिष्या ने कहा कि- उस्तादजी,अब आपको तो भारतरत्न भी मिल चुका है और दुनियाभर के लोग आते रहते हैं आपसे मिलने के लिए। फिर भी आप फटी तहमद पहना करते हैं,अच्छा नहीं लगता। उस्तादजी ने बड़े ही लाड़ से जबाब दिया- अरे,बेटी भारतरत्न इ लुंगिया को थोड़े ही न मिला है। लुंगिया का क्या है,आज फटी है,कल सिल जाएगा। दुआ करो कि ये सुर न फटी मिले।.
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जाहिर है जब सिनेमा के शीर्षक में ही सेक्स शब्द जुड़ा हुआ हो तो उसके भीतर की कहानी आध्यात्म की नहीं होगी। लेकिन ये भी है कि फिल्म LSD(लव,सेक्स,धोखा)सिर्फ और सिर्फ सेक्स की कहानी नहीं है और न ही अब तक की हिन्दी सिनेमा की ग्रामेटलॉजी पर बनी प्यार और धोखे की कहानी है। प्रोमोज के फुटेज से कहीं ज्यादा इन तीनों शब्दों ने फिल्म के प्रोमोशन के फेवर में काम किया हो लेकिन अगर सामान्य ऑडिएंस इन तीनों शब्दों के लालच में आकर फिल्म देखने जाती है तो संभव है कि उन्हें निराश होना पड़े। ले-देकर सुपर मार्केट के सीसीटीवी कंट्रोल रुम की करीब 40-45 सेकंड की सीन है जो फिल्म शीर्षक में जुड़े सेक्स शब्द को सीधे तौर पर जस्टीफाई करती है जहां आदर्श(राजकुमार यादव) और रश्मि(नेहा चौहान)को सेक्स करते हुए दिखाया गया है,सीन का एक बड़ा हिस्सा ब्लर किया हुआ है। इंटरनेट पर आवाजाही करनेवाले लोगों के लिए ये सीन कोई अजूबा नहीं है। हां ये जरुरी है कि फिल्म के भीतर कई ऐसे मौके और घटनाएं हैं जहां कभी प्यार तो कभी धोखा की लेबलिंग में सेक्स एम्बीएंस पैदा करने की मजबूत कोशिशें हैं। लेकिन इस पकड़ने के लिए बारीक नजर और गहरी समझ की जरुरत पड़ती है जो सामान्य ऑडिएंस के लिए मेहनत का काम लगे।

इस सिनेमा की खासियत है कि सिर्फ नाम से ही एक धारणा बन जाती है कि फिल्म के भीतर क्या होगा,नाम और पोस्टर देखकर ही थिएटर के बाहर ही हम फाइनल एंड तक पहुंच जाते हैं कि फिल्म की कहानी क्या होगी। लेकिन दिलचस्प है कि फिल्म देखते हुए धारणा एकदम से टूटती है। अंत क्या कुछ मिनटों बाद समझ आ जाता है कि इन तीनों शब्दों में दिलचस्पी लेनेवाले लोगों के लिए ये फिल्म लगभग धोखे जैसा साबित होती है जबकि जो लोग इन तीन शब्दों को अछूत और'हमारी फैमिली अलाउ नहीं करेगी' मूल्यों को ढोते हुए इसे नहीं देखते हैं तो समझिए कि उन्होंने एक 'रिच फिल्म'को मिस कर दिया। खालिस मनोरंजन और ऑडिएंस की हैसियत से थोड़ा हटकर अगर आप फिल्म और मीडिया स्टूडेंट की हैसियत से इस फिल्म को देख पाते हैं तो ये आपकी सिनेमा की समझ को रिडिफाइन करने के काम जरुर आएगी।

सिनेमा बनानेवालों ने जिस तरह से बॉक्स ऑफिस,कमाई,मार्केटिंग,पॉपुलरिटी आदि मानकों को ध्यान में रखकर सिनेमा का एक फार्मूला गढ़ लिया है,कमोवेश उन तमाम सिनेमा को देखते हुए ऑडिएंस ने भी सिनेमा के भीतर से मनोरंजन हासिल करने का एक चालू फार्मूला गढ़ लिया है। ये फार्मूला कई बार तो बहुत ही साफ तौर पर दिखाई देता है लेकिन कई बार सबकॉन्शस तरीके से। इसलिए LSD के बारे में ये कहा जाए कि इसने बने-बनाए हिन्दी सिनेमा के फार्मूले को तोड़ने की कोशिश की है तो ऐसा कहना उतना ही सही होगा कि इस सिनेमा को देखते हुए ऑडिएंस के मनोरंजन हासिल करने का फार्मूला भी टूटता है। जिस तरह से फिल्म शुरु होते ही घोषणा कर दी जाती है कि इसमें वो सबकुछ नहीं है जो कि बाकी के सिनेमा शुरु से देखते आए हैं और न ही ये उन फिल्मों की उस अभ्यस्त ऑडिएंस के लिए हैं। अगर आप नैतिकता, फैमिली इन्टरटेन्मेंट,ढिंचिक-ढिंचिक गानों की मुराद लेकर इस फिल्म को देखने जाते हैं तो आपकी सलाह है कि घर पर रहकर आराम कीजिए। हिम्मत जुटाकर लव और धोखे की कहानी देखने जाना चाहते हैं तो भी रहने दीजिए। अगर सेक्स के लोभ में जा रहे हैं तो वही 40-45 सेकंड की सीन है जिसके लिए आप इतनी मशक्कत क्यों करेंगे? आप इस फिल्म को तभी देखने जाइए जब आप फिल्म देखने के तरीके और बनी-बनायी आदत को छोड़ना चाहते हैं,आपको सिनेमा के नयापन के साथ-साथ इस बात में भी दिलचस्पी है कि 'हाउ टू वाच सिनेमा?'

सिनेमा की कंटेट पर बात करें तो नया कुछ भी नहीं है। तीन कहानी है और ये तीनों कहानियों से सिनेमा तो सिनेमा हिन्दी के टीवी सीरियल अटे पड़े हैं। पहली कहानी फिल्म स्कूल के एक स्टूडेंट राहुल(अंशुमन झा)की है जो डिप्लोमा के लिए आदित्य चोपड़ा और दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे से प्रेरित होकर एक फिल्म बनाना चाहता है और इसी क्रम में उसे श्रुति(श्रुति) से अफेयर हो जाता है। श्रुति को पाने के लिए वो उसकी फैमिली तक एप्रोच करता है, अपने सिनेमा की सिक्वेंस में उसके बाप की मर्जी से रद्दोबदल करता है और बाप को भी उसमें शामिल करता है। श्रुति की शादी तय हो जाने की स्थिति में दोनों भागकर शादी कर लेते हैं। बाद में श्रुति का बाप दोनों को कॉन्फीडेंस में लेकर वापस अपने घर बुलाता है लेकिन रास्ते में ही उसकी शह पर उसका भाई दोनों के टुकड़े-टुकड़े करके दफना देता है। राहुल और श्रुति का बैग्ग्राउंड अलग है और इस फिल्म को देखते हुए हमें डीयू में हुई ऐसी ही एक घटना की याद आती है। दूसरी कहानी सुपर मार्केट की है जहां सुरक्षा के नाम पर लगे सीसीटीवी कैमरे के फुटेज को चैनलों के हाथों बेचा जाता है,उससे ब्लैकमेलिंग की जाती है। यही रश्मि और आदर्श के बीच अफेयर होता है और उसी सीसीटीवी कंट्रोल रुम में रश्मि अपनी दोस्त श्रुति की मौत की खबर सुनकर हाइपर इमोशनल होती है और आदर्श के साथ सेक्स के स्तर पर जुड़ती है। यहां पर आकर फिल्म का ट्रीटमेंट जरुर नया है। आदर्श इस पूरे सीन को एमएमएस का रुप दे रहा होता है जो कि बाद में इन्टरनेट पर सुपरमार्केट स्कैंडल के नाम से देखा जाता है।..और तीसरी कहानी टीवी जर्नलिस्ट प्रभात(अमित सियाल)और उसका सहारा लेकर मीडिया के भीतर स्टिंग ऑपरेशन को लेकर की जानेवाली तिकड़मों को लेकर है। प्रभात संजीदा टीवी पत्रकार है और वो प्रोफेशन की शर्तों के बीच भी इंसानियत को बचाए रखना चाहता है। इस क्रम में वो मेरठ में नंगी लड़की की तस्वीर नहीं दिखा पाता है और अपनी बॉस से जब-तब ताने सुनता है। वो कास्टिंग काउच की शिकार डांसर मृगनयना/नैना विश्वास(आर्य बनर्जी)को सुसाइड करने से बचाता है। प्रभात के स्टिंग ऑपरेशन से देश की सरकार गिर चुकी है और जो कहानी वो सिनेमा में बताता है वो तहलका की कहानी के करीब है। तहलका को स्टिंग ऑपरेशन का ब्रांड के तौर पर स्थापित किया जाता है। इसी क्रम में वो नैना का बदला लेने के लिए पॉप स्टार लॉकी लोकल(हेनरी टेंगड़ी)का स्टिंग ऑपरेशन करता है। इस हिस्से में मीडिया की जो छवि बनायी गयी है वो फिल्म 'रण'में पहले से मौजूद है। सुपर मार्केट पर जो स्टोरी है वो दरअसल मधुर भंडारकर की एप्रोच का ही विस्तार है जो सिटी स्पेस में नए-नए प्रोफेशन के बीच के खोखलेपन को समेटती है। इसलिए ये फिल्म कंटेंट के स्तर पर अलग और बेहतर होने के बजाय ट्रीटमेंट के स्तर पर ज्यादा अलग है। सिनेमा के तीनों शब्द एक क्रम में अपनी थीसिस पूरी न करके वलय बनाते हैं और कहानी एक जगह सिमटकर आ जाती है। कहानी फिर वहां से अलग-अलग हिस्सों में बिखरती है इसलिए ये सीधे-सीधे फ्लैशबैक में न जाकर रिवर्स,फार्वर्ड में चलती है जो कि हम अक्सर काउंटर नोट करते हुए करते हैं। हां ये जरुर है कि डायलॉग डिलिवरी में कहीं कहीं ओए लक्की लक्की ओए का असर साफ दिखता है।

अव्वल तो ये कि फिल्म को देखते हुए कहीं से नहीं लगता कि हम वाकई कोई फिल्म दे रहे हैं। स्क्रीन पर कैमरे का काउंटर लगातार चलता है,एक तरफ बैटरी का सिबंल है और ठीक उसके नीचे सिकार्डिंग और लाइट स्टेटस। जिन लोगों ने मीडिया में काम किया है उन्हें महसूस होगा कि वो पूरे रॉ शूट से काम के फुटेज का काउंटर नोट करने के लिए वीटीआर में टेप को तेजी से भगा रहे हैं। श्रुति,रश्मि और नैना की कहानी को देखते हुए आपके मुंह से अचानक से निकल पड़ेगा- अरे,ऐसा ही तो होता है,यही तो हमने वहां नोएडा में भी देखा था। फुटेज का जो कच्चापन है जिसमें कि कई बार कुछ भी स्टैब्लिश नहीं होता लेकिन दिखाया जाता है वो संभव है कई बार असंतोष पैदा करे कि इतना तो हम भी कर लेते हैं,इसमें नया क्या है? लेकिन यही से सिनेमा के डीप सेंस पैदा होते हैं। कई अखबारों और चैनलों ने तो कहा ही है कि इस फिल्म की खूबसूरती इस बात में है कि कहीं से नहीं लगता कि किसी भी कैरेक्टर ने सिनेमा के लिए अपने चरित्र को जिया है बल्कि वो स्वाभाविक रुप से ऐसै ही हैं। मुझे लगता है कि इसमें ये भी जोड़ा जाना चाहिए कि ये सिनेमा हमें रिसाइकल बिन में फेंके गए फुटेज से सिनेमा बनाने की तकनीक औऱ समझ पैदा करती है। ऐसा लगता है कि यहां वीडियो एडीटर गायब है लेकिन असर को लेकर कही भी कुछ अनुपस्थित नहीं है।
बीच-बीच में पर्दे का ब्लैक आउट हो जाना,दूरदर्शन की तरह रंगीन पट्टियों का आना,तस्वीरों का हिलना जिसमें कोई कहता है इसका सिग्नल खराब है,इसमें चोर मामू और मामू चोर दिखता है,ये सबकुछ हमें उन दिनों की तरफ वापस ले जाता है जहां से हमने सिनेमा को देखना शुरु किया,खासकर दूरदर्शन पर सिनेमा को देखना शुरु किया। इसमें दूरदर्शन की ऑडिएंस का इतिहास शामिल है। संभवतः हमलोग वो अंतिम पीढ़ी हैं जिसने कि दूरदर्शन पर धुंआधार फिल्में देखी जिसे कि LSD ने पकड़ा है,नहीं तो लगता है ये इतिहास यही थम जाएगा।

कुल मिलाकर ये फिल्म जिसमें कि न गाने हैं,न कोई शोबाजी है ऑडिएंस को 'सिनेमा लिटरेट' करने का काम करती है। एक गहरा असर छोड़ती है कि अच्छा सिनेमा को ऐसे भी दिखाया जा सकता है/अच्छा ऐसे भी देखा जा सकता है? हां ये जरुर है कि सिंगल स्क्रीन में देखनेवाली ऑडिएंस को ये सिनेमा मनोरंजन के स्तर पर निराश करे या फिर ये भी संभव है कि वो थियेटर से ये कहते हुए निकले- चालीस सेकेंड के सीन में ही पूरा पैसा वसूल हो गया,हम तो यही देखने आए थे,बाकी तो सब पहिले से देखा हुआ था। ऐसे में ये फिल्म सेक्स के नाम पर फुसफुसाहट पैदा करने से बाहर निकालती है।
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रेणु का नाम याद करते ही कैथरीन हैन्सन का नाम अपने आप याद हो आता है। रेणु की जिस भाषा और प्रयोग पर हम जैसे लोग फिदा है,कुछ लोग इसे हिन्दी मानने के नाम पर नाक-भौं सिकोड़ने लग जाते हैं,कैथरीन ने उसका व्यावहारिक विश्लेषण करते हुए सीरियस रिसर्च किया है। आज कैथरीन सीएसडीएस आ रही हैं जिन्हें सुनना अपने आप में दिलचस्प होगा। रविकांत ने माफी मांगते हुए दीवान पर अभी-अभी मेल जारी किया है-

दोस्तो,
देर से सूचना के लिए माफ़ी माँगता हूँ. आज 4 बजे शाम को कैथरीन हैन्सन सराय-सीएसडीएस मे
एक प्रस्तुति देंगी. उनका विषय है:
Passionate Refrains: The Theatricality of Urdu on the Parsi Stage

आप ज़रूर तशरीफ़ लाएँ.

प्रस्तुति-सार

पारसी रंगमंच के असरात हिन्दी सिनेमा पर साफ़ हैं - चाहे हम कहानी की बात करें या विधाओं की,या फिर स्टार भूमिकाओं की.नव-गठित फ़िल्म उद्योग को चलाने के लिए ज़रूरी तकनीकी महारत,पूंजी,और मानव संसाधन भी पारसी रंगमंच ने ही मुहैया कराए.इस पेशकश में हम ख़ास तौर पर भाषा,ख़याल और भाव-भंगिमा को लेकर पारसी शैली के अवदान पर चर्चा करेंगे. इंदरसभा के ज़माने से ही पारसी थिएटर ने उर्दू ग़ज़लों का इस्तेमाल रूमानी ड्रामों/दृश्यों के लिए किया.सवाल ये भी है कि इस नाट्य-शैली में उर्दू,नाटक के माध्यम के रूप में, अंग्रेज़ी और गुजराती पर भारी कैसे पड़ती है? वह भी बंबई जैसी जगह पर? इस विश्लेषण में उन उर्दू मुंशियों के योगदान को परखने की भी कोशिश होगी जिन्होंने अभिनेताओं,प्रबंधकों और मालिकों के साथ मिलकर एक विशिष्ट पारसी-उर्दू शैली की रचना की. इन सबमें उर्दू शायरी और हिन्दुस्तानी संगीत-नृत्य का एक अनोखा संगम हुआ जिसने नये नाटकों की अपील में चार चाँद लगाए, औरत उन्हें व्यावसायिक तौर पर भी सफल बनाया. मंच में आती तब्दीलियों और मेलोड्रामा के लिए ज़रूरी अदायगी की माँग को पूरा करने का काम उर्दू-प्रशिक्षित अभिनेता बेहतर कर पाते थे. इस पर्चे में आग़ा हश्र कश्मीरी कृत ऐतिहासिक रूपक यहूदी की
लड़की और उसके 1955 के फ़िल्मी संस्करण का हवाला देते हुए सोहराब मोदी की ऐतिहासिक शैली को भी रेखांकित किया जाएगा.

वक्ता-परिचय:

प्रोफ़ेसर कैथरिन हैन्सन का नाम रेणु और पारसी थिएटर के विद्यार्थियों के लिए नया नहीं
है.उनकी कुछ अहम किताबें व आलेख:

2009 "Staging Composite Culture: Nautanki and Parsi Theatre in Recent
Revivals," South Asia Research, 29(2): 151-68.

2006 “Ritual Enactments in a Hindi ‘Mythological’: Betab’s Mahabharat in
the Parsi Theatre,” in Economic and Political Weekly of India (Mumbai),
December 2, 2006, 4985-4991.

2005 A Wilderness of Possibilities: Urdu Studies in Transnational
Perspective, edited and introduced by Kathryn Hansen and David Lelyveld.
New Delhi: Oxford University Press.

2005 Somnath Gupt, The Parsi Theatre: Its Origins and Development,
translated and edited by Kathryn Hansen. Calcutta: Seagull Books.


शुक्रिया
रविकान्त
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बाजार भी कमाल की चीज है। कल तक जिस बीड़ी जलइएले.. गाती हुई,नंगी कमर को मटकाती हुई लड़की को देखकर देश के ठुल्ले तक अपने को रोक नहीं पाए,उस गाने का ऐसा असर कि अच्छों-अच्छों पर ठरक चढ़ जाए,आज उसी गाने के दम पर भक्ति पैदा करने के दावे किए जा रहे हैं। हिन्दी सिनेमा के पॉपुलर और सुपरहिट गानों की पैरोड़ी बनाकर मंदिरों,माता जागरण से लेकर पान की दूकान और चूडी-बिन्दी बेची जानेवाली दूकानों में बजाने का काम सालों से होता आया है। ऐसी पैरोड़ी बनाने में टी-सीरिज को महारथ हासिल है। गोरी हो कलइयां को बाबा के दुअरिया,पहुंचा दे हमें भइया,कांटा लगा,हाय लगा को भोले बाबा मिला,हाय मिला-हाय मिला और आंख है भरी-भरी को भक्त है दुखी-दुखी गाया-बजाया जाता है तो हमें जरा भी हैरानी नहीं होती। बल्कि हमने उसी परिवेश में रहकर अपने को धार्मिक पाखंड़ों से अलग किया है। हैरानी इस बात को लेकर हुई कि बीड़ी जलइएले गाने की पूरी पैरॉडी BIG 92.7 एफ.एम. पर सुनाई दिया। इसके पहले हमने ऐसी पैरॉडी किसी भी एफ.एम.चैनल पर नहीं सुनी।

वैसे तो धर्म,पाखंड और भक्ति की राह दिखानेवाले बाबा और धार्मिक अड्डे पहले से ही कई तरह के दावे करते रहे हैं लेकिन ये दावा पहली बार है कि बीड़ी जलइए गाने के बीच से भक्ति का सोता फूट सकता है। ये वही समाज है जहां स्त्री की हर निगाह,उसकी एक-एक हरकत धार्मिक कामों में बाधा पैदा करती रही है लेकिन धर्म का बाजार के साथ का ये गठजोड़ ही है जो उसके भीतर ऐसी कॉन्फीडेंस पैदा करता है कि जिस गाने को सुनकर शराब,कबाब और शवाब की तरफ मन स्भाभाविक तरीके से भटक जाया करता है,आज उस गाने से बीड़ी या सिगरेट जलाने के बजाय 'मातारानी'के लिए ज्योत जलाने का मन करने लग जाता है। गाने को गाते हुए अदाओं में चूर बिल्लो रानी का ध्यान न आकर मातारानी शेरोवाली का ध्यान आएगा। ये हम नहीं कह रहे हैं,गाने की पंक्तियों में ये बात शामिल है। धर्म और बाजार के गठजोड़ से पैदा ये धर्म का नया संस्करण है। एफ.एम चैनलों पर मनोरंजन और इस पैरोडी से लिस्नर और भक्त के बीच का एक कन्वर्जेंस।

इस देश मैं और संभव है कि इस दुनिया से बाहर भी धर्म का एक ऐसा संस्करण तेजी से पनप रहा है जिसने कि बाजार से,बॉलीवुड से,टीवी सीरियल से,रियलिटी शो से गठजोड़ करके अपने को रिडिफाइन किया है। धर्म के इस नए संस्करण से भक्ति कितनी और किस स्तर की पैदा होती है ये तो इसमें जो लोग शामिल होते हैं और हैं वही बता सकते हैं लेकिन इतना जरुर हुआ है कि बाजार ने अपनी ताकतों के दम पर धार्मिक पाखंड़ों के इस दायरे को जरुर बड़ा किया है. उन लोगों को खींचकर इस दायरे में लाने की जरुरी कोशिश की है जो आया तो अपने बाजार की हैसियत से है लेकिन आने के बाद से उसके दावे बाजार के छोड़कर धार्मिक होने के हो जाता है। ये धर्म और बाजार का फ्यूजन का दौर है कि जो बाजार के भरोसे जिंदा है उसे धार्मिक होते देर नहीं लगता और जो धार्मिक(भीमानंद सहित रोजमर्रा की जिंदगी से उकताए लोग)हैं उन्हें बाजार की तमाम तरह की सुविधाओं के बीच रहते हुए भी धार्मिक कहलाने की छूट मिल जाती है। ऐसा होने से धर्म,मूल्य,आस्था और अनास्था के सारे सवाल फैन कल्चर की तरफ मुड़ जाते हैं और सारा मामला स्टाइल और च्वाइस का हो जाता है। इससे धर्म की बात सुनकर भी धार्मिक होने का कम्पल्शन खत्म हो जाता है। दूसरी तरफ धर्म के भीतर प्लेजर और इंटरटेन्मेंट पैदा होने की गुंजाइश तेजी से बढ़ती है। अब ये अलग बात है कि धर्म के नाम पर दूकान चलानेवाले बाबाओं को खुशफहमी होती रहे कि उनके भक्तों की संख्या बढञती रहे,इधर बाजार भी इत्मिनान होता रहे कि चलो जिस धर्म की पताका त्याज्य और संयम पर टिकी रही है उसे हमने उपभोग तक लाकर खड़ा कर दिया।..इन दोनों में किसका दायरा बढ़ा है और कौन पिट रहा है,ये फैसला आप पर।

बीड़ी जलइए जिगर से पिया की नवरात्र के मौके पर पैरॉडी सुनने के लिए चटकाएं-
बीड़ी जलइएले से भक्ति
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जनतंत्र डॉट.कॉम पर मध्यप्रदेश सरकार के विज्ञापन दिखने शुरु हो गए है। ये संभव है कि बहुत जल्द ही हिन्दी की साईटों और कुछेक ब्लॉगों पर मध्यप्रदेश सहित दूसरे राज्यों के सरकारी विज्ञापन दिखने लग जाए। इसके साथ ही मौके-मौके पर डीएवीपी और तमाम मंत्रालयों की ओर से जो विज्ञापन टेलीविजन और प्रिंट मीडिया में जारी किए जाते हैं वो सारे विज्ञापन इन्हें भी मिलने शुरु हो जाए। चुनाव के दौरान अब तक राजनीतिक पार्टियां विज्ञापन का जो पैसा आर्कुट जैसे सोशल साइटों पर लुटाती रही है,अब वो हिन्दी की साईटों के लिए भी अपना खजाना खोल दे? इस तरह विज्ञापन के लिहाज से हिन्दी वेबसाइट और ब्लॉग मेनस्ट्रीम मीडिया की बराबरी में खड़े हो जाएंगे और सिर्फ खड़े नहीं होगें बल्कि आनेवाले समय में उन्हें कड़ी चुनौती भी दे सकेंगे।

आपको ये सब पढ़ते हुए जरुर लग रहा होगा कि अभी एक विज्ञापन मिला नहीं कि हमें हिन्दी वर्चुअल स्पेस पर विज्ञापन की संरचना को लेकर शास्त्र गढ़ने का कीड़ा काट गया। लेकिन यकीन मानिए उदाहरण तो बस इसी तरह इक्के-दुक्के ही मिल सकेंगे लेकिन इस तरह सरकारी विज्ञापन का आना इस बात का संकेत करता है कि हिन्दी के वर्चुअल स्पेस को अब सीरियसली लिया जाने लगा है। इसके कंटेंट को लेकर असर चाहे जो भी हो लेकिन इन्हें ये बात समझ आने लगी है कि यहां भी विज्ञापन देने से पब्लिसिटी और इमेज बिल्डिंग की गुंजाईश है। दूसरी बात ये कि अब तक हिन्दी वर्चुअल स्पेस में तमाम तरह के अच्छे कंटेंट और कमिटमेंट के साथ मटीरियल देने के बाद भी मामला रिवन्यू मॉडल पर जाकर अटक जाता रहा है। अभी तक किसी भी साइट को( जो कि संस्थागत नहीं हैं)पैसे के स्तर पर मुक्ति नहीं मिली है। ऐसा नहीं हो पाया है कि वो इस तरफ की चिंता किए बगैर लगातार काम करता रहे। एक अकेले भड़ास4मीडिया को इस दिशा में थोड़ी सफलता जरुर मिली है। लेकिन उनके पास भी कोई ठोस रिवन्यू मॉडल है,इसका खुलासा उनकी तरफ से नहीं ही हुआ है। बीच-बीच में विस्फोट के न चला पाने,फिलहाल काम रोक देने को लेकर आ पोस्ट पढ़ते ही आए हैं। बाकी की साइटों का कमोवेश यही हाल है।

इधर ब्लॉगरों की बात करें तो उनकी स्थिति भी बहुत बेहतर नहीं है। शुरुआती दौर में गूगल एडसेंस से उम्मीद जगी थी औऱ लगा था कि घर बैठे लिखकर भी दाल-रोटी का जुगाड़ किया जा सकता है. मेरे जैसे लोगों को तो तीन-तीन हजार शब्दों के शोधपरक लेख लिखने पर कभी पांच सौ और अधिकांश बार सामाजिक जिम्मेदारी के तहत लिखने की बात ने प्रिंट मीडिया के प्रति पहले ही मोह मंग कर दिया। इसलिए ब्लॉग में दिमागी तौर पर ही तैयार होकर उतरे कि बस लिखने के लिए लिखना है,पैसे की बात नहीं सोचनी है। लेकिन यहां एक वाकई बड़ा सवाल है कि इस फील्ड में जो कोई भी सिर्फ लिखकर जीवन चलाना चाहता है,उसके पास किस तरह का रिवन्यू मॉडल हो? गूगल एडसेंस का तो अंग्रेजी कंटेंट पर जोरदार असर दिखता है लेकिन हिन्दी में लिखनेवालों का चातक पक्षी जैसा हाल है। गूगल की बूंद इतनी धीरे टपकती है कि घड़ा भरने में अर्सा लग जाए और कुछ तो गिरने के पहले ही सूख जाए। एक स्थिति जरुर बनती है कि जब हिन्दी वर्चुअल स्पेस में घरेलू स्तर के विज्ञापनों का चलन बढ़ जाए तो एक ठोस मॉडल सामने आ सकेगा। घरेलू स्तर का संबंध जो ब्लॉग या साइट जिस क्षेत्र या पेशे को फोकस करके चलाए जा रहे हैं वहां के विज्ञापन आने शुरु हो जाएं।

ये मोटे तौर पर तीन स्तरों पर संभव है। एक तो ये कि अगर ब्लॉग या साईट मीडिया,मार्केटिंग,आर्ट जैसे मसलों से जुड़े हो तो उसे उस प्रोफेशन में आनेवाले संस्थानो,उत्पादों,सेवाओं के विज्ञापन मिलने शुरु हों। दूसरा कि जहां से ब्लॉग या साइट संचालित है वहां के बाजार के विज्ञापन मिलने लगे। हर शहर का अपना एक बाजार और विज्ञापन एरिया होता है। ये बात थोड़ी अटपटी जरुर लग सकती है कि वर्चुअल स्पेस तो ग्लोबल है तो फिर लोकल विज्ञापनों की बात क्यों की जा रही है? ऐसा इसलिए कि साइट या ब्लॉग का ग्लोबल रीडर होने के साथ-साथ लोकल रीडर भी होता है और अगर उस पर लोकल स्तर के विज्ञापन होते हैं तो उसका सीधा असर दिखाई देगा। तीसरा कि स्थानीय स्तर पर जो भी गतिविधियां आनी शुरु होती है उसके विज्ञापन उन्हें मिलने लग जाएं। बुकफेयर,ट्रेडफेयर,एग्जीविशन और सेमिनारों को लेकर जो विज्ञापन अखबारों,एफ.एम रेडियो और लोकल केबल ऑपरेटरों को दिए जाते हैं वो इन्हें भी मिलने शुरु हो जाएं। एक तरीका ये भी है कि कई इवेंट को साइट या ब्लॉग वेबपार्टनर की हैसियत से काम करे।

इन सब बातों पर विचार करना इसलिए जरुरी है कि जिन देशों में वर्चुअस स्पेस में विज्ञापनों के जरिए जो मजबूती आयी है उसका मॉडल कमोवेश यही रहा है जिसमें कि सब्सक्रिप्शन तक शामिल है। भारत में फिलहाल सब्सक्रिप्शन वाली बात जमेगी नहीं। नंबर 1 जर्नलिस्ट ने इस दिशा में पहल जरुर की थी कि पैसे लेकर ऑनलाइन पत्रकारिता पढ़ाई जाए लेकिन हारकर उसे साइट को इन्स्टीट्यूट का रुप देना पड़ा। इसलिए आज अगर जनतंत्र को मध्यप्रदेश सरकार की ओर से सरकारी विज्ञापन मिल रहे हैं तो इसका मतलब है कि एक रिवन्यू मॉडल तैयार होने की गुंजाईश बन रही है। फिलहाल इसका बिजनेस इफेक्ट जितना भी हो लेकिन उससे कहीं ज्यादा सायको इफेक्ट होगा और बाकी की एजेंसियां और संस्थान इसके प्रभाव में आएंगे।

दि हिन्दू(11 मार्च 2010) ने खबर जारी किया है कि यूके के साथ-साथ अब यूएस में भी इंटरनेट पर के विज्ञापन ने टेलीविजन के विज्ञापन को पीछे छोड़ दिया है। यानी कि जितने विज्ञापन टेलीविजन को मिला करते हैं उससे कहीं ज्यादा विज्ञापन ऑनलाइन साइटों को मिलने लगे हैं। इसका मतलब ये है कि विज्ञापन के लिहाज से यूके में इंटरनेट पहला माध्यम हो गया है जबकि टेलीविजन दूसरा माध्यम। ONLINE AD SPEND SET TO OVERTAKE PRINT:mercedes bunz की छपी इस आर्टिकल में स्पष्ट किया गया है कि सितंबर के महीने में यूके में जो रिपोर्ट जारी करके बताया गया था कि टेलीविजन के विज्ञापन से इन्टरनेट पर का विज्ञापन कहीं ज्यादा है,यही कहानी अब यूएस में भी हो गयी है। आउटसेल के सर्वे में बताया गया है कि 2010 में वहां की कंपनियां 119.6$ विलियन ऑनलाइन और डिजिटल विज्ञापनों पर खर्च करने जा रही है जबकि प्रिंट माध्यमों पर 111.5$ विलियन। ये आंकड़े बताते हैं कि इन दो बड़े देशों में विज्ञापनों को लेकर माध्यमों की प्रायरिटी बदली है।..ऐसे मैं भारत की क्या स्थिति है इसे भी समझने की जरुरत है। एक तो वर्चुल स्पेस पर विज्ञापन की संभावना और दूसरा उसके भीतर हिन्दी साइटों और ब्लॉगों में विज्ञापन की गुंडाईश। इस मामले में प्राइट वाटरहाउस कूपर(2009)
की रिपोर्ट क्या कहती है..पढ़िए आगे।..
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वर्चुअल स्पेस में मर्द लेखकों की एक ऐसी जमात है जो कि देश और दुनिया के तमाम मसलों पर लिखने का अधिकार रखते हैं। जाहिर है इन तमाम मसलों में स्त्रियां भी शामिल हैं। बल्कि स्त्रियों पर लिखते हुए अधिकार इतना अधिक है कि उनका लेखन विमर्श से कहीं ज्यादा गार्जियनशिप या कहें तो डिक्टेटरशिप का हिस्सा बनता चला जाता है। अब लेखन का ये मिजाज इस मुद्दे को लेकर औरों से अधिक ठोस और ज्यादा जानकारी को लेकर होता है या फिर मर्द होने की वजह से इसका आकलन अभी उनके खित्ते में ही छोड़ दिया जाए तो बेहतर होगा। फिलहाल इस मुद्दे पर बात करें कि वो जब स्त्री के सवालों पर लिखता है तो वो अपने लेखन से क्या करना चाहता है? इस क्रम में विश्लेषण के बिन्दुओं की एक लंबी फेहरिस्त बन सकती है। पूरा का पूरा एक शोधपरक लेख लिखा जा सकता है कि -आखिर क्यों मर्द लेखक करते हैं वर्चुअल स्पेस में स्त्री विमर्श? लेकिन हम यहां ऐसा कुछ भी नहीं करने जा रहे हैं। हम बस ये समझने की कोशिश में हैं कि वो क्यों अपने रोजमर्रा की जिंदगी के कई छोटे-बड़े अनुभूत सत्य को नजरअंदाज करके स्त्री सवालों को प्रमुखता से पकड़ता है? दूसरा कि उसका ये स्त्री-विमर्श किन स्त्रियों को संबोधित है? मेरे दिमाग में ये दोनों सवाल उनकी ही हरकतों को झेलते हुए,पोस्टों और कमेंट्स को पढ़ते हुए आए हैं।

वर्चुअल स्पेस में लिखनेवाले मर्द लेखकों(मर्द शब्द इसलिए कि वो लेखन के जरिए संवाद से कहीं ज्यादा लीड करने में भरोसा रखता है)की इस जमात में दर्जनों ऐसे लेखक हैं जिनकी पत्नियों को,उनकी बेटियों को,बहनों को ये नहीं पता कि उसका मर्द संबंधी उसके बारे में क्या लिखता है? लेखन की दुनिया में दिन-रात उसकी बेहतरगी की चिंता में डूबा रहता है। वो चाहता है कि हम मर्दों की तरह ही स्त्रियों को भी खुलकर जीने और अपनी बात रखने का अधिकार मिले। लेकिन वो आए दिन इन मर्द लेखकों से जरुर पछाड़ खाकर गिरती है,उसके रवैये से लगभग रोज चोटिल होती है और शिकस्त होकर अपने स्त्री होने और उसके मर्द होने के बीच के फासले को समझना चाहती है। लगातार बेटी जनने पर उसकी पत्नी को रह-रहकर बेहोशी छा जाती है। होश आने पर बस एक ही चिंता में दहाड़े मारकर रोती है,फिर गुमसुम हो जाती है कि उसकी सास उसे जीने नहीं देगी। मर्द लेखक अपनी पत्नी के भीतर इतना भी मनोबल पैदा नहीं कर पाता कि तुम्हें किसी से डरने की जरुरत नहीं है। वो मर्द एक अच्छा भाई साबित करने के लिए अपनी बहन के लिए ज्यादा से ज्यादा दहेज देकर शादी रचा सकता है लेकिन अगर उस शादी के बाद ससुराल में प्रताड़ना झेलनी पड़ जाए तो एडजस्ट करने की नसीहत के आगे वो और कुछ नहीं दे सकता। आजाद ख्याल का पैरोकार ये मर्द लेखक पैरों पर चलने के साथ ही बेटी को स्लीवलेस फ्रॉक या टॉप पहनाता है लेकिन चौदह की उम्र होते ही हमारे घर में लड़कियों को जींस अलाउ(allow)नहीं है जैसे मुहावरे में जकड़कर रह जाता है। वर्चुअल स्पेस में आते ही ये मर्द लेखर साड़ी,बिन्दी चूड़ी पहनने,न पहनने के जरिए स्त्री-विमर्श को समझने में जुट जाता है। इस मर्द लेखक के पाले में जीनेवाली स्त्रियों को ये बिल्कुल भी पता नहीं होता कि उसका ये मर्द संबंधी आए दिन स्त्रियों के लिए जो पाठ निर्मित कर रहा है वो उसके जीवन का अनुभूत सत्य है या फिर रोजमर्रा की जिंदगी के विकृत अनुभवों से बटोर-बटोरकर बनाए गए नियम जिसे कि वो वर्चुअल स्पेस पर आकर कठोरता से लागू करना चाहता है। अगर ऐसा नहीं होता तो मुझे नहीं लगता कि स्त्री-विमर्श का उनका दायरा साड़ी,बिन्दी और चूड़ी तक आकर सिमट जाता।

आजाद मानिसकता के दावे करने और तंग मानसिकता के साथ जीवन जीने के बीच से जो पाठ निर्मित होते हैं वो किसी भी विमर्श के लिए संकीर्णतावादी सोच से ज्यादा खतरनाक होते हैं। जो आजाद ख्याल जीवन में नहीं है वो पाठ के स्तर पर लाने से लिजलिजा हो जाता है और ये पाठ न तो साथ जीनेवाले संबंधियों के काम का होता है और न ही विमर्श को आगे ले जाने के काम आता है। संबंधियों पर अगर इस पाठ को लादे जाएं तो आजादी का कुछ हिस्सा उनके हाथ लग जाएगा जो कि मर्द लेककों के हित में नहीं है और विमर्श में इसे शामिल कर लिया जाए तो एक अध्याय ये भी निर्मित होता चला जाएगा कि स्त्री-विमर्श के भीतर स्त्री-बेडियों को कैसे बनाया जा सकता है? दूसरी स्थिति ये भी है कि एक मर्द लेखक वर्चुअल स्पेस में स्त्री को लेकर,उसके चरित्र और पोशाक को लेकर जो कुछ भी लिख रहा है वो समाज की उन स्त्रियों के लिए आंय-वांय है,कूड़ा-कचरा है। उनके इस लिखे से उन पर रत्तीभर भी असर होनेवाला नहीं है क्योंकि ये स्त्रियां स्त्री-विमर्श का पाठ निर्माण लिखकर नहीं बल्कि असल जिंदगी में जीकर निर्मित कर रही होती है। तो फिर ऐसे पाठ का काम क्या है? ले देकर इस पाठ को उन स्त्रियों पर जबरिया लादने की कोशिश की जाती है जो कि अपने अनुभवों से स्त्री-विमर्श का पाठ रचने में लगी है। ये स्त्रियां वर्चुअल स्पेस को संभावनाओं की वो दुनिया मानती हैं जहां से कि अपने हिस्से के लिए बेहतरगी के कुछ सूत्र तलाश कर सके। ऐसे में उस पुराने लिटररी बहस में न जाकर भी कि अनुभूत सत्य ही विमर्श को सही दिशा में ले जा सकता है,इतना तो समझा ही जा सकता है कि वर्चुअल स्पेस में इस स्त्री के लिखने में और उस मर्द लेखक के लिखने में फर्क है। ये फर्क उसकी नियत और सरोकार को लेकर है।



एक मर्द लेखकर जब अपनी पोस्ट के साथ स्त्री या उसके आसपास के शब्दों को जोड़ता है और तीन घंटे बाद ही उसे हिट्स मिलने शुरु होते हैं तो दोपहर होत-होते हुलसकर लिंक भेजता है। बर्दाश्त नहीं होता तो फोन करके बताता है कि आज उसकी पोस्ट सबसे ज्यादा पढ़ी जा रही है। इस मनोदशा में वो आजाद और तंग मानसिकता से अलग एक ऐशी मानसिकता में जीना शुरु करता है जो कि स्त्री क्या किसी भी विमर्श का हिस्सा नहीं हो सकता। वर्चुअल स्पेस में स्त्री उसके लिए एक फार्मूला भर है। ये फार्मूला हर गिरते हुए ब्लॉग,लगातार हताश होती पोस्टों को जिलाए रखने के काम आती है। रीयल वर्ल्ड में स्त्री शब्द चाहे उन्हें भले ही परेशान करता हो लेकिन वर्चुअल स्पेस में ये राहत का काम करता है। जाहिर है हम ऐसे तंग उद्देश्यों के लिए स्त्रियों के सवालों पर बात करनेवाले से और कुछ ज्यादा की उम्मीद नहीं कर सकते।

दूसरा कि हर मर्द के लिए फैशन का मतलब एक नहीं हो सकता। जरुरी नहीं कि सबों के चेहरे की चमक ऑफ्टर शेव और इमामी हैंडसम लगाकर ही बनी रहती हो। एक जमात ऐसा भी है जो कि बौद्धिकता के टूल्स जिसमें कि तमाम तरह के विमर्श शामिल है उन्हें अलग और चमकीला दिखने का एहसास कराता है। उनके लिए यही विमर्श कॉस्ट्यूम्स का काम करते हैं। स्त्रियों पर लिखते हुए ब्लॉगवाणी की टॉप पोस्ट में आनेवाले मर्द लेखक अपने चेहरे की चमक इसके जरिए ही बरकरार रखने की कोशिश में हैं।..तीसरी स्थिति उन मर्द लेखकों की है जिनमें कि कमेंट्स करनेवाले लोग भी शामिल हैं। वो स्त्री शब्द के प्रयोग से कुछ साझा करने या फिर डोमेस्टिक लेबल से लेकर पब्लिक डोमेन तक की समस्याओं पर बात करना नहीं चाहते,वो इसमें सब्सटीट्यूट पोर्नोग्राफी का सुख बटोरना चाहते हैं। इसे समझने के लिए बहुत अधिक मशक्कत करने की जरुरत नहीं। स्त्री के मसले पर लिखी गयी किसी भी पोस्ट में मर्द लेखकों के कमेंट पर गौर करें तो आपको उसकी इस मानसिकता का अंदाजा लग जाएगा। ये तब भी होगा जब वो किसी स्त्री-पोस्ट की तारीफ में बात कर रहे होंगे और तब भी हो रहा होगा जब वो लानतें भेज रहे होंगे।

अब जिस वर्चुअल स्पेस में एक स्त्री अपने अनुभवो को,समस्याओं को,तकलीफों और गैरबराबरी को सामने ला रही है,उसी स्पेस में ये मर्दवादी लेखक इन तमाम तरह की कुंठाओं और सहज सुख की तलाश कर रहे हैं। इस पर बार-बार विमर्श का लेबल चस्पाए जा रहे हैं। ऐसे में लेखक का फर्क सीधे-सीधे स्त्री के स्त्री होने और मर्द के मर्द होने को लेकर नहीं है बल्कि फर्क इस बात को लेकर है कि दोनों का इस स्पेस का इस्तेमाल अलग-अलग मतलब के लिए है। इसलिए वर्चुअल स्पेस में स्त्री सवालों को लेकर जो कुछ भी लिखा जा रहा है उसमें सामंती सोच,कुंठा और फ्रस्ट्रेशन का एक बहुत बड़ा हिस्सा शामिल है। इसी समय प्रतिकार में ही सही एक स्त्री जब जबाब देती है तो उसे सरोगेट प्लेजर का एहसास होता है। ऐसे में ये लेखन जितना प्रत्युत्तर की मांग करता है उससे कहीं ज्यादा इग्नोरेंस की मांग करता है। हमें चस्पाए गए लेबलों की जांच करनी होगी और इन मर्दवादी लेखकों के तात्कालिक सुख की मानसिकता को हतोत्साहित करना होगा।

नोट-(जिन मर्द लेखकों की चर्चा हमने उपर की,ये बहुत संभव है कि उनमें मैं खुद भी शामिल हूं।
मूलतः प्रकाशित- चोखेरबाली
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राहुल महाजन से मेरा क्या लेना-देना है भला? ये डिम्पी गांगुली कौन है,आज से तीन सप्ताह पहले मुझे कुछ भी पता नहीं था। लेकिन आज राहुल महाजन ने जैसे ही उसे ये कहते हुए अंगुठी पहनायी diamand is forever सो love is forever,मेरी आंखों में आंसू छलछला गए। फेसबुक पर मैंने ये लाईनें लिखते हुए साथ में जोड़ा-कुछ मीठा खाने का मन हो रहा है।

ये बात भला किसे पता नहीं है कि टेलीविजन पर की एक-एक अदाएं,एक-एक अंदाज,एक-एक धागा प्रायोजित है। चेहरे पर उठने वाले भाव,हंसी-ठहाकों,दर्द-आंसू,शरारत और शोक के रेट पहले से तय है। राहुल महाजन बिना प्रायोजित होकर प्यार का इजहार नहीं कर सकते। जिंदगी का शायद सबसे खूबसूरत लम्हें को भी वो बाजार से गुजरे बिना महसूस नहीं कर सकते। अपनी होनेवाली पत्नी के लिए प्यार हमेशा के लिए के पहले हीरा है सदा के लिए(डीबीयर्स)का विज्ञापन करना पड़ जाता है। लेकिन ये सब जानते-समझते हुए भी हम टेलीविजन देखते हुए हमेशा उतने अधिक कॉन्शस नहीं रह जाते कि हमारी फीलिंग्स(जिसे कि वर्डसवर्थ ने स्पॉन्टेनीयस ओवरफ्लो ऑफ इमोशन कहा है)तर्कों में जाकर जकड़ जाए।

हम बाजार की रणनीति,मुनाफे की राजनीति और टीआरपी की तिकड़मों की सोच के साथ कैद होकर ही टेलीविजन देखें,ऐसा अक्सर नहीं हो पाता। अब जो लोग इस नीयत से ही टेलीविजन देखने बैठते हैं कि इसे दस-पन्द्रह मिनट देखना है और फिर दमभर कोसना है,टेलीविजन को लेकर सारी धारणाएं अदना एक रियलिटी शो के एपीसोड,सीरियल या फिर एक बुलेटिन देखकर बनानी है,फिलहाल मैं उनकी बात नहीं कर रहा। लेकिन मेरी अपनी समझ है कि टेलीविजन से सबसे पहले हम अभिरुचि और इमोशन के स्तर पर जुड़ते हैं। आलोचना और उसमें दुनियाभर की थीअरि अप्लाय करने की स्थिति बाद में आती है।

दि टेलीविजन हैंडबुक(राउट्लेज,2009,इंडियन एडीशन)में मीडिया लिटरेसी पर बात करते हुए जॉन्थन बिगनेल ने कहा भी है कि हम मीडिया के स्तर पर इसलिए अपने को साक्षर बनाना/बताना चाहते हैं क्योंकि हम ये साबित करना चाहते हैं कि टेलीविजन जो कुछ भी हमें दिखा रहा है,उसका हम पर उसी रुप में असर नहीं हो रहा है जिस रुप में वो असर पैदा करना चाहता है। नहीं तो इसलिए कई बार होता है कि जो कई कार्यक्रम सरोकार से जुड़े नहीं होते हैं,जिसका कि सामाजिक स्तर पर बहुत ही बुरा असर होता है,अभिरुचि और इमोशन के स्तर पर हम उससे जुड़ जाते हैं। बाद में हम इसकी जमकर आलोचना करते हैं। हमारी आलोचना के स्वर तो पब्लिक डोमेन में सामने उभरकर आ जाते हैं लेकिन हमारी अभिरुचि का सही आकलन नहीं होने पाता। हमारे इसी दोहरे चरित्र को लेकर टेलीविजन के लोगों को एक मुहावरा मिल जाता है कि लोग जो देखते हैं उसे ही तो हम दिखाते हैं। सच्चाई ये है कि तमाम तरह की विसंगतियों के वाबजूद टेलीविजन पर मौजूद संबंधों,इमोशन और फीलिग्स के मौके से हम जुड़ते ही हैं। संबंधों पर आधारित सीरियल्स और अब रिश्तों पर आधारित रियलिटी शो हमारी इसी नाजुक रेशे को पकड़ने की कोशिश करते हैं। शायद यही कारण है कि समाज में बौद्धिकता का यदि विस्तार हुआ है तो टेलीविजन पर इमोशन्स और रिलेशनशिप से जुड़े कार्यक्रमों की आंधी-सी चल रही है। यकीन मानिए टेलीविजन से जिस दिन इमोशन और रिलेशनशिप गायब होने लग जाएंगे,इसकी दूकान बैठ जाएगी। स्थिति ये है कि अब हम बिना रिश्ते और बिना संवेदनशील हुए घर-मोहल्ले के भीतर तो जी लेंगे(नहीं तो कोशिश तो जरुर करते हैं) लेकिन टेलीविजन पर यही स्थिति हम बर्दाश्त नहीं कर पाएंगे। टेलीविजन के बने रहने के लिए रिश्तों की इस नाजुक डोर को टच करते रहना जरुरी है।

फैमिली टेलीविजन के कॉन्सेप्ट पर विस्तार पाता इस देश का टेलीविजन अब भले ही फैमिली के साथ बैठकर देखने लायक न रह गया हो लेकिन इसके जरिए रीयल लाइफ को ज्यादा से ज्यादा पिक्चर ट्यूब में लाने की कोशिशें जरुर तेज हुई हैं। हर रियलिटी शो जो कि शुरुआती दौर पर एक पार्टिसिपेंट को चुनता है,अंत तक आते-आते उसके कई रिश्तेदार टेलीविजन स्क्रीन पर कतार में लाकर खड़े कर दिए जाते हैं।

इधर एनडीटीवी इमैजिन पर राहुल के स्वयंवर की तैयारी जोर-शोर से चल रही थी। अगर आप टेलीविजन सैद्धांतिकियों को थोड़ी देर के लिए कपार पर चढ़कर न बोलने देते हों तो आपने भीतर कई तरह के भाव डूबते-उतरते हैं। सोच का एक सिरा सीधे संस्क़ति से टकराता है और मेरी तरह की समझवाला इंसान इसे टेलीविजन का कन्सट्रक्टिव एप्रोच मानता है। हां आप तर्क दे सकते हैं कि तीन लड़कियों में बाकी की दो लड़कियों पर जो बीत रही होगी,उसका आपको अंदाजा है?..तो याद कीजिए बिहार,यूपी या फिर देश के किसी ऐसे हिस्से की उन घटनाओं को जहां सिमटी,सकुचायी लड़की चार-पांच पुरुषों के आगे आती है,धीरे चाय-पानी बढ़ाती है. मर्दवादी सवालों का जवाब देती है और अंत में खारिज कर दी जाती है। फिर दूसरे रिश्ते के लिए इस क्रम को दोहराती है। और हमेशा पहले से ज्यादा छीजती और कुंठित होती चली जाती है। टेलीविजन खारिज की गयी इन लड़कियों में सिलेब्रेटी एम्बीएंस पैदा करता है। दूसरी तरह राहुल महाजन के जीवन की जो वास्तविक छवि रही है,मेरी अपनी समझ है कि अगर उसे टेलीविजन का सहारा नहीं मिला होता तो न तो चैनल और न ही बाजार उन पर लाखों रुपये का दाव लगाकर स्वयंवर रचाता। टेलीविजन ने राहुल की डिस्गार्ड इमेज को बिल्डअप किया है और ये लगातार रिश्तों की डोर को छुते हुए,सहेजते हुए। अब इन लड़कियों को जेनरलाइज करती हुई गिरजा व्यास ऐसे तमाम रियलिटी शो को बंद करने की बात करती है तो ऐसे में हमें शो में शामिल लड़कियों की डेमोग्राफी पर भी बात करनी होगी।

लेकिन ये सब सोचते हुए जब टाइम्स नाउ की तरफ बढ़ता हूं तो वहां अलग ही मार-काट मची हुई है। the way we live: reality television नाम के इस कार्यक्रम में एक्सपर्ट लगभग दहाड़ने के अंदाज में अपनी बात रखती है. जिस महिला को बच्चा पालना डिस्टर्विंग लगता है,वो दस महीने के बच्चे के साथ खिलवाड़ कर रही है। वो राखी सावंत का रेफरेंस देती है और सारे फुटेज पति,पत्नी और वो के दिखाए जाते हैं। जिस बच्चे की मां ने चैनल को अपना बच्चा लोन पर देती है,उसकी शिकायत की लंबी फेहरिस्त है। टेलीविजन पर इस तरह के रिश्तों का रेशा बुनना उसे खल जाता है। जिसे मां होने का एहसास ही नहीं है वो बच्चे के साथ क्या जस्टिफाय कर पाएगी। आधे घंटे की इस बहस में टेलीविजन और रियलिटी शो में इन रिश्तों को बाहियात और गैरमानवीय करार दिया जाता है। लेकिन निष्कर्ष के तौर पर एंकर का कहना है कि तो कुल मिलाकर बात यही है कि हर बात के दो पहलू हैं,ये आप पर निर्भर करता है कि आप चीजों को कैसे लेते हैं?

रिश्तों की इस नाजुक डोर से आजकल सबसे ज्यादा उलझा हुआ है यूटीवी बिंदास का इमोशनल अत्याचार। आप जिस लड़की के साथ इतने गरीब हो गए कि हग और स्मूच तो बहुत छोटी बात,आप ने वो सब किया जो कि आप अपनी गर्लफ्रैंड के साथ बड़े ही अधिकार से करते हैं। बाद में आपको पता चलता है कि आप अन्डर कैमरा ऑब्जर्वेशन हैं और इसकी सीडी आपकी गर्लफ्रैंड देख रही है। यही हाल एक लड़की के साथ भी हो सकता है? चैनल का दावा है कि वो रिश्तों के बीच का जो खोखलापन है उसे उजागर कर रहे हैं। यानी रिश्तों का स्टिंग ऑपरेशन।..तो रीयल लाइफ में खोखले होते जा रहे रिश्तों की पहचान का जिम्मा भी टेलीविजन ने ही ले लिया है।

अवणिका गौड़ के भीतर आनंदी का कैरेक्टर इतना रच-बस गया है कि वो कलर्स पर बिंगो खेलने आने पर भी अविनाश(जगदीसिया)को बिंद के तौर पर ट्रीट करती है। बार-बार राजस्थान की परंपरा का हवाला देती है और उसे ही पहले सब करने को कहती है। छवि और चरित्रों का इतनी तेजी से घालमेल रामायण के बाद इधर पिछले दो सालों में सबसे ज्यादा हुआ है।

यानी टेलीविजन पर संबंधों और रिश्तों की डबल फग्शनिंग जारी है। एक जहां टेलीविजन कैरेक्टर रीयल लाइफ में भी टेलीविजन के होते जा रहे हैं और दूसरा टेलीविजन पर बने रिश्ते को सामाजिक तौर पर स्वीकार कर लिया जा रहा है। ये रियलिटी शो नहीं है,ये मैरिज ब्यूरो भी नहीं है। इसमें मुनाफे का गेम तो जरुर शामिल है लेकिन ये समाज को डिकन्सट्रक्ट करके नए सिरे से देखने की कोशिशें हैं जिसमें संभव है कि कुछ बनता-बनता भी दिखायी दे रहा है। ऐसे कार्यक्रम एक हद तक सामंती ढांचे को ध्वस्त करने में एक हद तक काम कर रहे हैं। अब देखना ये है कि इसका असर सामंती ढांचे से कहीं ज्यादा तो नहीं पड़ जा रहा?
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दिल्ली यूनिवर्सिटी के जो हॉस्टलर सालभर आइएस,प्रोफेसर,वकील, सीइओ और साइंटिस्ट जैसी शख्सीयत बनने के लिए किताबों में आंखे गड़ाए रहते हैं,सेमिनार के पर्चे तैयार करते-करते तबाह रहते हैं और अपने को इन सबके लिए सबसे बड़ा दावेदार मानते हैं,होली आते ही उनकी दावेदारी एकदम से बदल जाती है। इस दिन उनका मिजाज एकदम से बदला-बदला सा होने को आता है। इसे आप फाल्गुनी हवा का असर कहें या फिर हील-हुज्जत करके जुटाई गयी ठंडई का,लेकिन सच ये है कि कॉलेज,कचहरी और मल्टीनेशनल कंपनियों के बीच सालभर में किसी भी दिन दावेदारी बनायी जा सकती है। लेकिन होली के दिन की दावेदारी को वो किसी भी तरह से मिस नहीं करना चाहते। ये एक दिन की लेकिन सबसे महत्वाकांक्षी और मजबूत दावेदारी होती है दूल्हा बनने की। जिस पीजी वीमेन्स और मेघदूत हॉस्टल से वो नजर लड़ाते या बचाते हुए गुजर जाते हैं होली के दिन उनकी इच्छा होती है कि वो अपनी बारात इन लड़कियों के हॉस्टल में ले जाएं।..और यहीं से देश के बाकी विश्वविद्यालयों से अलग किस्म की होली मनाने की बुनियाद पड़ जाती है।


मैं पिछले करीब चार साल से देख रहा हूं। जिस रेडी या ठेले पर एक आम मेहनतकश चीकू या खरबूजे बेचने का काम करता है,मानसरोवर हॉस्टल के रेजीडेंट उसी पर अपने मनोनित दूल्हे को सवार करते हैं। कई तरह की मालाएं(फूल से बनी मालाओं के अलावे भी) पहने वो इन दोनों गर्ल्स हॉस्टल की तरफ कूच करते हैं। इसी तरह से ग्वायर हॉल के लोग अपनी तरफ से एक दूल्हा मनोनित करते हैं। हमें हंसी आती है लेकिन पिछली बार हमने सबसे बुजुर्ग हॉस्टलर को सर्वसम्मति से मनोनित दूल्हा बनाया और लड़कियों के हॉस्टल के आगे पहुंचते ही सीनियर सिटिजन जिंदाबाद के नारे लगाने शुरु किए। इसी तरह से जुबली हॉल औऱ कोठारी हॉस्टल के लोग अपने-अपने मनोनित दूल्हे को लेकर इन हॉस्टलों की तरफ कूच करते हैं।

आज से चार साल पहले उतनी भीड़ नहीं होती,बहुत ही कम लोग हुआ करते। बॉलकनी और मुंडेर पर लड़कियां भी कम आती। लेकिन धीरे-धीरे ये एक रिवायत सी बनती चली गयी कि इस दिन दूल्हे को मनोनित करना है और फिर गर्ल्स हॉस्टल के आगे उसे प्रोजेक्ट करना है। पिछले दो सालों से लड़कियों ने भी गर्मजोशी दिखानी शुरु की है। भीड़-भाड़ देखकर मौरिसनगर थाना भी चौकस हो जाया करता है।दर्जनों की संख्या में पुलिस तैनात कर दिए जाते हैं। लेकिन इन पुलिसवाले के चेहरे पर इस दिन के अलावे शायद ही कभी सार्वजनिक जीवन में हंसी आती होगी। हॉस्टल की सारी लड़कियां भाभी हो जाती है,पूरबिया के हॉस्टलरों के लिए भौजी। जोर से नारे लगते हैं..हम आए हैं तूफान से कश्ती निकाल के,इस भैय्या को रखना भौजी संभाल के। मनोनित दूल्हा हाफ बाजू की शर्ट पहनने पर भी उसे औऱ मोड़ता है,पूरा दम लगाकर बॉडी को मछळी जैसा आकार देना शुरु करता है। जो पत्ते-झाड़ हाथ लग जाए उसे अदा के साथ लड़कियों के आगे करता है...बॉलकनी से लड़कियां हो-हो करना शुरु करती है। मेघदूत की लड़कियां,दो साल का अनुभव है अपना कि हॉस्टल और कमरे के सारे कचरे हमारे उपर फेंका करती है जिसे कि बुजुर्ग किस्म के रेसीडेंट उपहार समझकर अपनी देह पर गिरने देते। फिर बाल्टी-बाल्टी पानी। चूंकि लड़कियों को हॉस्टल से बाहर निकलना नहीं होता है इसलिए लड़कों के पूछे जाने पर कि कबूल है,कबूल है..वो जोर से चिल्लाती हैं,हां कबूल है। कबूलनामें के बाद फिर आधे घंटे तक हुडदंगई।


फिर वापस हॉस्टल की लॉन में पहुंचकर,अपनी-अपनी बौद्धिक क्षमता से मसखरई करने और कथा गढ़ने का दौर शुरु। वो आपको देखकर सेंटिया गयी, मनोनित दूल्हे का बयान कि जो बॉडी आज दिखाए हैं न कि उसको बार-बार सपना आएगा। सामूहिक स्तर पर प्रपोज करने का जो काम होली के दिन यहां के स्टूडेंट करते हैं,वो शायद ही वेलेंटाइन डे के दिन भी हुआ करता है। यहां गांव और कस्बे की होली से कई मायनों में अलग किन्तु एक खास किस्म की लोकधर्मिता पैदा होती है। लॉन में पसरे लोग अलग-अलग थाली में नहीं खाते,जिसको जिस थाली तक हाथ पहुंच जाए वहीं से शुरु। खाने के बाद बाथरुम में इस बात को लेकर टेंशन नहीं कि टॉबेल और साबुन लेकर पहुंचे भी हैं या नहीं। जो मिला उसी से निचोड़ लो,उसी से पोछ लो।...दूल्हे के तौर पर सुबह तो लगता है कि दावेदारी बदल गयी लेकिन उसके बाद दिनभर लगता है कि किसी को किसी भी चीज को लेकर दावेदारी रह ही नहीं गयी। एक ही लाइन कानों में गूंजते हैं..बुरा मान गए दोस्त,फिर मान गए तो क्या कर लोग और फिर दमभर ठहाके। ये खुशी न तो फसल के पकने की,फगुआ के चढ़ने की बल्कि सिर्फ इस बात की कि हम घर से दूर होकर भी दमभर खुश होने की कोशिश करते हैं,सफल होते हैं।
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