"यू ऑर श्यो अबाउट दिस ? आय एम श्यो अबाउट अस एंड आइ डोन्ट वॉन्ट टू हाइड एनिथिंग मोर"…
ऑनलाइन शॉपिंग वेंचर मिन्त्रा डॉट कॉम ने बोल्ड इज बियूटिफुल के तहत लेसबियन पर आधारित देश का पहला विज्ञापन जारी किया तो देखते ही देखते सोशल मीडिया पर ये वीडियो वायरल हो गई. ये स्वाभाविक ही था क्योंकि एक तरफ दुनियाभर में समलैंगिकता को लेकर अलग-अलग दृष्टिकोण से बहस चल रही हो और भारत जैसे देश में बहस का आधार नैतिकता और संस्कृति रही हो वहां ये विज्ञापन इस संबंध को बेहद स्वाभाविक और साहसिक तरीके से डिफेंड करता है. लिहाजा, एक-एक करके इस पर देश के प्रमुख समाचारपत्रों, वेबसाइट ने फीचर प्रकाशित किए.
इस विज्ञापन में घर से बाहर रहनेवाली जिन दो स्त्री के आपसी रिश्ते को बेहद खुलेपन और सामाजिक रुप से स्वीकार करने की साहस तक दिखाया गया है, इस पर दूसरे कई एंगिल से बहस हो सकती है लेकिन दो अलग-अलग पृष्ठभूमि से आनेवाली स्त्री के पारिवारिक पसंद-नापसंद को ध्यान में रखकर संतुलन बनाने की जो कोशिशें दिखाई जाती हैं, वो बेहद दिलचस्प है. आपको पूरे प्रसंग में चेतन भगत के लिखे उपन्यास और उस पर बनी फिल्म टू स्टेट्स का ध्यान हो आएगा.. विज्ञापन में अपनी मेट की इच्छा और पसंद पर शॉर्ट हेयर कट रखनेवाली महिला उसकी मां के आगे उसी की तरह दिखने की कोशिश में उसका कुर्ता पहनती है, उनके लिए कॉफी बनाने की बात करती है..
लेकिन हर मोर्चे पर उनके नापसंद किए जाने की संभावना के बाद निराश हो जाती है..और यही वो बिन्दु है जहां माता-पिता के इन चीजों के पसंद-नापसंद किए जाने की संभावना के बीच इस समलैंगिक रिश्ते, बोल्ड इज बियूटिफुल और तब मिन्त्रा डॉट कॉम की प्लेसिंग की जाती है..यानी महिलाओं की ऐसी दुनिया जो फैशन के स्तर पर चुनाव करते वक्त भले ही अपने या अपनी मेट के माता-पिता की पसंद का ख्याल करती हो लेकिन जिंदगी के फैसले लेते वक्त खुद की और एक-दूसरे को अंतिम सत्य मानती हैं. यहां आकर मिन्त्रा के प्रोडक्ट से ज्यादा उसे इस्तेमाल करनेवाले चरित्र यूनिक दिखाए जाते हैं. इस विश्वास के साथ कि यदि दर्शक ने इस छवि को अपना लिया तो प्रोडक्ट उसके पीछे-पीछे अपने आप चले आएंगे.
गौर करें तो समलैंगिकता के इस सवाल से थोड़ा हटकर पिछले साल के कुछ उन विज्ञापनों पर गौर करें तो दूरदर्शन के आदिम विज्ञापनों ने आधुनिक स्त्री, कुशल और स्मार्ट पत्नी-बहू और मां की जो छवि स्थिर कर दिए थे, उन्हें ध्वस्त करते नजर आते हैं. दूरदर्शन पर सालों से प्रसारित विज्ञापनों में वो स्त्री आधुनिक और कुशल है जो पति की शर्ट की कॉलर पर घिसनेवाली टिकिया में अठन्नी-सिक्के बचा लेती है, छुन्नू-मुन्नू के धब्बे लगे कपड़े के दाग छुड़ाना जानती हैं, रोहन को ऐसे साबुन से नहलाती है कि कभी बीमार नहीं होता. ऐसी हेल्थड्रिंक देती हैं कि हमेशा टॉप करता है, गर्लचाइल्ड के लिए ऐसी सेनेटरी नैपकिन चुनती है कि वो दिनभर टेंशन फ्री रहती हैं..अादि-आदि.
इस हिसाब से देखें तो पिछले कुछ सालों से प्रसारित विज्ञापनों ने तथाकथित इन आधुनिक लेकिन स्त्रियों को घर के कामकाज से मुक्त एक ऐसी दुनिया की ओर ले जाते हैं जहां वो चूल्हें-चौके, साफ-सफाई के काम से मुक्त है. वो पत्नी के पहले बॉस है और पति उसके मातहत काम करता है( संदर्भ एयरटेल), वो ऐसा जीवनसाथी चुनती है कि उसके साथ-साथ पिछली शादी से हुई पांच-छह साल की बेटी को भी अपना लेता है( तनिष्क जूलरी), वो आत्मविश्वास से इतनी लवरेज है कि एक दिन ऐसे मुकाम पर पहुंचेगा कि होनेवाला जीवनसाथी खुद चलकर आएगा( फेयर एंड लवली). ऐसे विज्ञापनों की संख्या तेजी से बढ़ रही है जहां स्त्रियां खुलेपन और हैसियत के मामले में बहुत आगे जा चुकी है जिसे सामाजिक स्तर पर हासिल करने में पता नहीं कितने साल लग जाएं.
दिलचस्प है कि ऐसे विज्ञापनों की जब खेप आती है तो विज्ञापन जिसे बाजार की चालबाजी कहकर नजरअंदाज किया जाता रहा है, उसे खींचकर विमर्श की चौखट तक लाया जाता है. इन पर एक के बाद एक स्त्री विमर्श और सशक्तिकरण के फॉर्मूले फिट किए जाते हैं और इस सुकून के साथ निष्कर्ष तक पहुंचा जाता है कि ऐसे विज्ञापनों से आनेवाले समय में सामाजिक स्तर पर भी स्त्रियों की स्थिति मजबूत होगी. विज्ञापन में जो स्त्री छवि एक्सक्लूसिव है, वो असल जिंदगी में दिखने लगेगा और तब इसके तार स्वाभाविक रुप से लोकतंत्र के साथ जुड़ जाएंगे. लेकिन
विज्ञापन में स्त्री छवि एकरेखीय और हमेशा आगे की तरफ नहीं बढ़ती. वो बार-बार पीछे की ओर लौटती है. इतना पीछे कि समलैंगिक संबंध को सहज माननेवाली स्त्री के बरक्स ऐसी स्त्री छवि शामिल की जाती है जो न केवल टिपिकल अरेंज मैरिज में यकीन रखती हैं बल्कि अपने ही जीवनसाथी के साथ उस संकोच के साथ पेश आती है जिससे भारतीय सिनेमा के दर्शक छोड़ न,कोई देख लेगा..क्या कर रहे हो, मां-बाबूजी आते ही होंगे जैसे संवादों और सुहागरात के बिस्तर से उतरकर धरती में समा जानेवाले शर्मीलेपन से बड़ी मुश्किल से मुक्त हुआ है.
कोका कोला की विदाई सीरिज विज्ञापन में आलिया भट्ट जो कि अपनी अब तक की सारी फिल्मों में बिंदास और खुलेपन के लिए टीनएजर्स के बीच पॉपुलर है, एक ऐसी ब्याहाता की छवि लिए शामिल है जो अपने पति के साथ तभी सहज हो पाती है जब वो उसकी पसंद-नापसंद जाहिर करने की बात करता है..और तब एयरटेल,तनिष्क,फेयर एंड लवली और अब मिन्त्रा ने विज्ञापन में स्त्री की जो छवि बनाई, उससे धड़ाम से गिरकर वहां पहुंचती है जहां "पिया वही जो कोक मन भाए" की जमीन तैयार है. अब आप कर लीजिए विज्ञापन के जरिए स्त्री की खुलती नई दुनिया की बात.
मूलतः प्रकाशित- लाइव इंडिया पत्रिका
मूलतः प्रकाशित- लाइव इंडिया पत्रिका
https://taanabaana.blogspot.com/2015/08/blog-post.html?showComment=1438452203803#c3049598256034357626'> 1 अगस्त 2015 को 11:33 pm बजे
विनीत जी पिछ्ले कुछ दिनों से फ़ेसबुक पर आपका अनुसरण कर रहा था| वहाँ भी मित्र बनाने की अर्जी दो तीन बार भेजने की कोशिश करी,परंतु आपके मित्रों की संख्या आपके फ़ेसबुक खाते की सीमा पार कर चुका है,जिस वजह से मेरी अर्जी आप तक पहुँच ही नही सकी | वहाँ भी आपके कई लघु लेख पढ़ा,बहुत खुशी हुई की इस विज्ञापन एवं बाज़ारीकरण के दौर में भी कोई वास्तविक तर्कों को पेश कर रहा है | पहली बार आपके ब्लॉग का कोई पोस्ट पढ़ा,'विज्ञापन एवं उसके सामाजिक प्रभाव' साथ ही 'विज्ञापनओं पर समाज के प्रभाव' का बहुत ही सुंदर चित्रण देखने को मिला | बहुत सी बातें थी जो पहली बार में दिमाग़ के उपर के हिस्से को छूते हुए निकल गयी शायद दुहराने के क्रम में समझ में आ जायें | अपने आप को इस लायक तो नही समझता हूँ की आपके लिखे लेखों पर कोई तर्क पेश करूँ परंतु लेख पढ़ने के बाद लगा,लिखता हूँ| एक लेखक को इससे और हौसला मिलता है, और इसके प्रभाव स्वरूप हम जैसे लोगों को पढ़ने के लिए सीखने के लिए कुछ अच्छी चीज़ें मिल जाती हैं |