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हम भी बात कलेंगे. पापा,हम भी बात कलेंगे. मम्मी हमको भी हैलो बोलना है. हम हैलो बोलके फोन वापच कल्ल देंगे. विनीत चाचा छे हम भी बात कलेंगे. हैलो, विनीत चाचा..क्या कल्ल लहे हैं आप ? मैं बाबू, मैं होमवर्क कर रहा हूं और तुम क्या कर रहे हो ? हम कुच नहीं कल्ल लहे हैं..अरे बाबू, दो फोन. कोई फोन करता है तो तुम चाटने लग जाते हो उसको, इधर दो..नय,हम भी बात कलेंगे, हम भी,हम भी,हम भी, मम्मी हम भी.

सुबह सात बजे से लेकर रात के ग्यारह-साढ़े ग्यारह बजे जब भी घर फोन करो, क्षितिज की ये आवाज कॉलर ट्यून की तरह पीछे से सुनाई देती है. कई बार हम उसकी इस आदत पर झल्ला जाया करते हैं. ठीक उसी तरह जैसे किसी बूढ़े-बुजर्ग की मोबाईल में सेवा देनेवाली कंपनी या घर का कोई शरारती बच्चा अपने मन से "चिकनी चमेली" या "हलकट जवानी" की कॉलर ट्यून लगाता देता है और वो झल्ला उठते हैं. कई बार बहुत ही जरुरी बात करनी होती लेकिन वो शुरु हो जाता- हम भी बात कलेंगे. भैय्या, भाभी, मां उसकी इस आदत से अक्सर परेशान होकर कहते- रुको, जब क्षितिज सो जाएगा तब दोबारा कॉल करते हैं. रुको, दूसरे मोबाईल से कॉल करते हैं, दूसरे कमरे में जाकर कॉल करते हैं, घर से बाहर निकलते हैं तो कॉल करते हैं.....मेरी मां कहती- ये क्षितिज नहीं, ठाकुरबाड़ी का घंटा है, कभी भी फोन करो तो पहिले इसको हिलाना पड़ेगा. मां कहती, रुको तुमको भी भेज देते हैं विनीत चाचा के पास,रहना वहीं. हम सब कोई नहीं रहेंगे. बोलो, जाएगा ? उसकी आवाज आनी बंद हो जाती. मैं यहां दिल्ली में बैठकर अनुमान लगा रहा होता- बेचारा,पिद्दी सा बच्चा डर गया होगा. मां और दादी से दूर होकर भला कहां जी पाएगा ? पापा तो अक्सर उसे इस तरह से डराते कि मुझे खुद भी डर लगा रहता है कि बड़ा होने पर क्षितिज से उसकी क्लास टीचर उनकी तस्वीर दिखाकर पूछेगी कि ये कौन है तो कहीं वो पापा की तस्वीर देखकर ये न कह दे- टेर्ररिस्ट( आतंकवादी).

पिछले दो दिनों से उसकी कॉलर ट्यून बजनी बंद हो गयी है. इन दो दिनों में मैंने कम से कम बारह से चौदह बार भैय्या,भाभी,मां और पापा से बात की होगी. पीछे से कोई आवाज नहीं. एकदम ही सन्नाटा. हम जो भी बात करते वो लोग सुन रहे होते और मां को बार-बार ऐं,ऐं नहीं बोलना पड़ता. क्षितिज की पीछे से कोई आवाज न आने से लगता है जैसे जमशेदपुर शहर का सबस बड़ा शोर वही है.

कल पापा का फोन आया.कैसे हो, क्या सब चल रहा है और फिर धीरे-धीरे बात क्षितिज तक चल गयी. उसकी हरकतों पर बात करते हुए लग रहा था कि अब वो रो देंगे. बदमाशिए बहुत करता है. बहुत मना करते रहे लेकिन मानता कहां है, पैर में चक्करघिन्नी लेकर घूमता है. एक मिनट स्थिर नहीं. अब बस जब दूकान जाने लगते हैं तो बेड पर पड़े-पड़े रोता है- बाबा हम भी तलेंगे,हम भी जाएंगे..हमको भी ले तलिए. मेरे पापा के भीतर भावनाओं की बहती एक नदी है जिसे मां ने सालों पहले सरस्वती घोषित कर दिया है और मैं भी उसे लुप्त नदी मानकर बैठ गया था..लेकिन इधर कुछ महीनों से देखता हूं कि वो नदी बिना शोर किए बहती चली जा रही है, फिर से पानी का सोता फूटा है या फिर हम उस तह तक जाकर समझ नहीं सके, पता नहीं लेकिन उस सोते से मुझे कई बार फोन पर ही हहाती हुई सी आवाज सुनाई देती है. खैर,

क्षितिज, जिसे कि मैंने उसकी दो साल की आयु में सिर्फ एक बार देखा है. दुबला-पतला, अपनी मां की ही तरह सुंदर,बड़ी-बड़ी आंखें और रग-रग में बदमाशी भरी हुई. आप पूरे घर को सजा-सवांर दें, झाडू-पोछा मार दें, उसे उस सजे-संवरे घर को "घटनास्थल", "दंगाक्षेत्र" में तब्दील करने में दस मिनट भी नहीं लगेंगे. उसका मन करेगा तो उन तस्वीरों के आगे भी अपनी धार छोड़ सकता है जिसके आगे मां गंगाजल चढ़ाया करती है. बहुत बदमाश है, बहुत बदमाश की जयकार से घर गूंजता रहता. दीदी, मां,भाभी सबके सब एक सुर से उसके इस यश का गान करते और बीच-बीच में बेचारे को पुरस्कार( धमाधम) भी मिलते. मैं चुपचाप देखता रहता, मुस्कराता रहता. मेरी किताबें पलटता रहता और नामवर सिंह की "दूसरी परंपरा की खोज" के पन्ने पलटते हुए जोर से बोलता- ए,बी,छी,डी.मन किया कि उसकी इस हरकत को कैमरे में कैद कर लूं,नामवर सिंह से इस पर प्रतिक्रिया लूं या फिर यूट्यूब पर इसकी वीडियो डालकर लोगों के कमेंट्स का इंतजार करुं. दिनभर मेरे बैग में पता नहीं क्या-क्या खोजता रहता और कुछ निकालकर कहता- दीदी, ये क्या है ?

भाभी मुस्कराती देख पूछती- आपको गुस्सा नहीं आता है इसकी बदमाशी देखकर ? मैं कहता नहीं तो और उल्टे उसे जो जैसे बिगाड़ रहा होता, करने देता. हां देर रात जब वो जोर-जोर से रोता तो जरुर मन करता कि पुरस्कार दूं. वैसे मैं भाभी को इतना जरुर कहता- इसकी वीडियो बनाकर किसी हेल्थड्रिंक कंपनी को दे दें, आपको वो बहुत पैसे देगा. इतनी एनर्जी कहां से आती है इसमे. बिल्कुल भी सोता नहीं, दिनभर हमलोगों के पीछे-पीछे डोलता फिरता है. मैं दिनभर में उसे दो-चार बार अचानक गोद में उठाता और जोर से किस करके वापस जमीन पर उतार देता..वो अवाक सा रह जाता फिर अपने कालजयी कर्म में लग जाता.

भाभी ने जब फोन पर बताया कि क्षितिज का पैर टूट गया है तो ये सब सोचकर मन उदास हो गया. वो अपनी मां के साथ लुकाछिपी खेल रहा था. कहां घुस गया,पैर में क्या लग गया कि अचानक से फिसलकर घिर गया. पहले तो मामूली दर्द मानकर सहज करने की कोशिश की लेकिन फिर डॉक्टर ने बताया कि पैर ही टूट गए हैं. हालांकि ये कोई बड़ी बात नहीं है, महीने-दो महीने में सबकुछ पहले की तरह सामान्य हो जाएगा और उसकी कॉलर ट्यून से फिर से मुझे परेशानी होगी लेकिन अभी उस बेचारे को कितनी बेचैनी होती होगी, कहीं आ-जा नहीं सकता. किसी के पीछे लग नहीं सकता और जो उसे जितनी चॉकलेट दे,संतोष करना होगा..अपनी दीदी खुशी और सौम्या से लड़ नहीं सकेगा.

अब घर बात करते हुए पीछे से कोई शोरशराबा नहीं होता है. आप जिससे बात करना चाहें, वो आसानी से बात करेंगे..हम भी बात कलेंगे की जिद और आपकी बातचीत में दखल देनेवाला कोई नहीं मिलेगा. क्षितिज अपने बिस्तर पर लेटा होता है, रोता है, मां से हमेशा पास रहने की जिद करता है. लेकिन शांत होकर क्षितिज ने घर में जो सन्नाटा पैदा किया है, उससे घर के लोगों के बीच अजीब किस्म की बेचैनी हो गई है. वो दूकान जाते वक्त अक्सर पापा के पैर पकड़कर ही खड़ा हुआ करता- बाबा, हम भी तलेंगे और पापा मां या भाभी से गोद लेने कहते. कभी प्यार से पुचकारकर वापस बिस्तर पर बिठा देते. अब फोन पर बस इतना ही कहते हैं- बहुत चंचल है. कैसे कहें कि रोज दूकान पहुंचने में लेट करनेवाला क्षितिज बाबा के समय पर पहुंच जाने पर भी समय पहले से कहीं ज्यादा खराब कर रहा है ? कैसे कहें कि उसका हम भी तलेंगे कि जिद और उनकी झल्लाहट के बीच एक लत पकड़ती जा रही थी..और इसके बिना बाबा और पोता दोनों बेचैन है.

क्षितिज की ढेर सारी तत्वीरें मेरे मोबाइल में थी. स्क्रीन खराब होने की स्थिति में, एक भी तस्वीर सेव नहीं कर पाया..बहुत मन था कि इस पोस्ट के साथ उसकी कोई प्यारी सी तस्वीर लगाउं लेकिन फोटो खींचने पर रोनेवाले क्षितिज की तस्वीर हम नहीं डाल पा रहे..
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आज दि टाइम्स ऑफ इंडिया के पहले पन्ने का आधा हिस्सा "लाइव इंडिया" चैनल के विज्ञापन से रंगा है. अपने मीडियाकर्मियों का खून चूसनेवाला चैनल आज देशभर में रक्तदान कराने और उसका लाइव प्रसारण का काम करने जा रहा है. इस चैनल से कोई पूछनेवाला नहीं है कि तुम जो महीनों अपने मीडियाकर्मियों का वेतन नहीं देते, सालों से बारह हजार-चौदह हजार में बैल की तरह पीसते हो, तुममे ये नैतिक अधिकार कहां से आ गया कि रक्तदान शिवि लगवाओ, उसका प्रसारण करो.

दर्शकों की नजर में आने और सस्ती लोकप्रियता हासिल करने का ये कितना घिनौना और घटिया तरीका है, इसका अंदाजा आप इसी से लगा सकते हैं कि जिस चैनल में सालों से वहां काम करनेवाले लोगों का हक मारा जाता रहा,चैनल के पूर्व सीइओ सुधीर चौधरी जोड़-तोड़ से बाकी लोगों को उसी हाल में काम करते रहने,मैनेजमेंट से सांठ-गांठ करके खुद ही कुर्सी बचायी रखी और शोषण की चक्की में सब पिसते रहे, आज वही चैनल रकतदान शिविर लगाने जा रहा है. कोई चैनल के मालिक और मुखिया से पूछे तो सही कि क्या वहां के मीडियाकर्मियों के शरीर में इतना खून बचा भी है कि वो दान कर सकें ?

एक, दूसरा ये कि चैनल की इतनी साख है कि हम औऱ आप जैसे लोग रक्तदान करेंगे तो वो सही जगह पहुंच पाएगा ? मुझे याद है रॉटरी क्लब जैसा संगठन जिसक कि दुनियाभर में साख है, रक्तदान के समय एक फ्रूटी और एक फल देने के बाद वापस हमें ऐसा कुछ भी नहीं देती जिससे कि प्रामाणित हो सके कि हमने रक्तदान किया है. ऐसे में लाइव इंडिया रक्तदान करनेवालों के साथ क्या करेगा ? कहीं ये खून इसलिए तो नहीं बचा रहा कि आगे उसे पीने की किल्लत न हो जाए ?

आपको नहीं लगता कि मीडिया और चैनलों के बीच इस तरह की चोचलेबाजी इसलिए शुरु हुई है कि क्योंकि वे अपने मूल काम "रिपोर्टिंग और उसका प्रसारण" को या तो बिल्कुल ही महत्व नहीं देते या फिर उनके भीतर दलाली का धंधा इस कदर बढ़ गया है, कार्पोरेट से लेकर सरकार तक उसमें इस तरीके से आकंठ डूबे हैं कि जरुरी मुद्दों पर खबर नहीं कर सकते. ऐसे में चैरिटी के जरिए लोगों के बीच अपनी पकड़ और पहचान बनाए रखना चाहते हैं. ये काम देश में सालों से होता आ रहा है. व्यापारी और सेठ पहले तो जमकर इस देश को लूटते हैं, मुनाफे के लिए तमाम तरह के धत्तकर्म करते हैं और फिर धर्मशाला,प्याउं और मंदिर बनवाते हैं. कार्पोरेट दलाल मीडिया इसी फार्मूले पर काम करने लग गया है.

 एनडीटीवी इंडिया एयरसेल से गंठजोड़ करके बाघ बचा रहा है, टोएटा से हाथ मिलाकर कोस्टल एरिया बचा रहा है, कोक के साथ मिलकर स्कूल का बाथरुम दुरुस्त करने में लगा है और लोगों से मार धुंआधार अपील कर रहा है कि स्कूल जाइए. पहाड़ बचाने में जुटा है ताकि आप भविष्य में उस पर चढ़कर माउंटेन ड्यू पी सकें. खाने के पोषक तत्व को बचा रहा है. कभी किंगफिशर के साथ टाइअप करके एनडीटीवी गुडटाइम चैनल शुरु किया था और तब एनडीटीवी जितना टीवी स्क्रीन पर नहीं दिखता था, उससे कहीं ज्यादा शराब के ठेके  में पड़े गत्ते पर लिखा मिलता था. सीएनएन ग्रुप प्रायोजित रुप से सिटिजन जर्नलिज्म कर रहा है, यंग लीडर का अवार्ड दे रहा है, जीवन बीमा कंपनियों से सांठ-गांठ करके उद्यमियों को पुरस्कार दे रहा है तो इधर आजतक को रह-रहकर देश से भ्रष्टाचार दूर करने का दौरा पड़ता है और बक्सा-पेटी लेकर सड़कों पर उतर आता है. लाफ्टर शो को लंगड़ी मारने के लिए चुटकुला और हास्य कविता के कार्यक्रम करवाता है. वो सबकुछ बचा रहा है, सबकुछ बना रहा है लेकिन न तो खबरों को बचाने में,पत्रकारिता को बचाने में उसकी दिलचस्पी है और न ही मीडिया को. जिस दिन कंपनियों,ठेकेदारों,बिल्डरों के चश्मे से पैसे का सोता फूटना बंद हो जाएगा,सारी चैरिटी खत्म.

 ये सब बस इसलिए क्योंकि इनमें से कुछ मीडिया संस्थानों को अपनी मदर कंपनी के मूल धंधे को बढ़ाना होता है या फिर जिन मीडिया संस्थानों का सिर्फ मीडिया का ही धंधा है,उन्हें रीयल एस्टेट, फाइनाइंस और दूसरे ऐसे क्षेत्र की कंपनियां मिल जाती है कि वो उनसे जुड़े धंधे को लेकर कैम्पेन शुरु करते हैं और बाजार पर उनकी पकड़ बनाने में हद तक मदद करते हैं. ये सब वो अपनी सुविधा,मुनाफे और धंधे को चमकाने के लिए करते हैं. सुनेत्रा चौधरी( एनडीटीवी 24x7) ने इलेक्शन बस 2009 के अनुभव को लेकर किताब लिखी है- A BUS, 2 GIRLS,15 THOUSAND KILOMETRES,715 MILLION VOTES !!!. इसमें संस्मरण की शक्ल में डॉ. प्रणय राय की एक बात शामिल की है- सुनेत्रा, अब हमारा एक फाइव स्टार होट से टाइअप हो गया है और तुम्हें देश के किसी भी हिस्से में जहां-जहां उसकी चेन है, रुकने में दिक्कत नहीं होगी. 

कार्पोरेट,हॉस्पीटल, रियल एस्टेट का ये गठजोड़ इसलिए भी कि मीडिया संस्थानों को हराम की सुविधा मिल सके और बदले में वो उन्हें और उनके प्रोमोशनल इवेंट को खबर की शक्ल में दिखाते रहें. रियल एस्टेट औऱ बिजनेस की अधिकांश खबरें और उन पर पलनेवाले चैनल इसी बिना पर फल-फूल रहे हैं. और ये सारी बातें सिर्फ हम नहीं कह रहे, मीडिया में भ्रष्टाचार के सवाल पर बोलते हुए आज से तीन साल पहले राजदीप सरदेसाई ने खुलेआम कहा था- आप सिर्फ न्यूज चैनलों की बात क्यों कर रहे हैं, मनोरंजन और बिजनेस चैनलों की तरफ भी नजर घुमाइए, आपको पेड न्यूज का नया नजारा दिखेगा..आप कुछ मत कीजिए, चैनलों पर जो विज्ञापन आते हैं, उन्हें ध्यान में रखिए और फिर बिजनेस से जुड़ी खबरें देखिए..आप पाएंगे कि उन कंपनियों के चेयरमैन,सीइओ और डायरेक्टर को इस अंदाज में पेश करते हैं जैसे कि समाज के हीरो वही हैं. राजदीप ने कभी दूरदर्शन और पब्लिक ब्रॉडकास्टिंग का मजाक उड़ाते हुए और वो भी दूरदर्शन की ही परिचर्चा में कहा था कि जरुरी नहीं कि हर बुलटिन प्रधानमंत्री से ही शुरु हो..सही बात थी लेकिन प्रधानमंत्री को रिप्लेस करके जिनके चेहरे चमकाने का काम मीडिया कर रहा है, उनकी कितना अकाउंटबिलिटी है, कितनी साख है, इस पर भी तो बात होनी चाहिए. आज आप उन्हें हीरो की तरह पेश कर रहे हैं, कल वो कंपनी बंद करके चल देंगे, सैंकड़ों लोग सड़क पर आ जाएंगे, आप उनके बारे में खबरें प्रसारित करेंगे ? आप कहते हैं समाज करप्ट हो रहा है लेकिन इस करप्ट होते समाज के बीच मीडिया किन लोगों को बढ़ावा दे रहा है, कभी गौर करेंगे ? जो चैनल चलाता है, वही फर्जी लेन-देन में जेल चला जाता है औऱ उसका चैनल सरकार और व्यवस्था पर भ्रष्टाचार को लेकर स्टोरी चला रहा है..ये हद नहीं है क्या ?

मुझे यकीन है कि पिछले चार-पांच सालों से मीडिया खबर दिखाने-बताने के धंधे को छोड़कर एक्टिविज्म और चैरिटी में कूद पड़ा है, सरकार इसे गंभीरता से नहीं लेने जा रही है क्योंकि अभी तक सरकार को सीधे-सीधे इससे कोई दिक्कत नहीं है..लेकिन सूचना और प्रसारण मंत्रालय बीच-बीच में ये सवाल उठाती है कि आपको लाइसेंस न्यूज चैनल का मिला है और आप मनोरंजन चैनलों जैसा कार्यक्रम दिखा रहे हैं, ठीक उसी तरह सवाल किए जाने चाहिए कि आपको लाइसेंस खबरों का धंधा करने के लिए मिला है, ये आप चैरिटी का काम क्यों कर रहे हैं ?

अगर किसी ने लाइव इंडिया को केस स्टडी बनाकर वहां हुए और हो रहे मानवाधिकार के उल्लंघन के मामले पर गौर करे तो आपको ये चैनल कम,बूचड़खाना ज्यादा जान पड़ेगा. दर्जनों मीडियाकर्मियों का हक मारा जा रहा है,मारा गया है. जिन शर्तों पर उनसे काम करवाया जाता है, वो बंधुआगिरी से कम बदतर नहीं है. आए दिन असुरक्षा के भाव ने उनके स्वाभिमान को बुरी तरह कुचल दिया है. आप इनसाइड स्टोरी करेंगे तो शायद नाम बताने की शर्त पर वो जुबान खोलें और कहें कि जितने पैसे चैनल इस तरह के भौंडे प्रोमोशन के लिए कर रहा है, उतने पैसे कार्यक्रम बनाने और एचआर पर करे तो चैनल की स्थिति सुधर सकती है.

लाइव इंडिया ने लाखों रुपये देकर दि टाइम्स ऑफ इंडिया के पहले आधे पन्ने पर समरुद्धा जीवन ग्रुप के सीएमडी महेश मोटेवर की तस्वीर छपवायी है, आप पाठकों से अपील है कि इस तस्वीर को नजर में बसा लें, वो देश में किस-किस तरह के महान और समाज सेवा का काम करते हैं, नजर में रखें..ऐसे ही तारनहार कल को तर्क देंगे कि हमने तो मीडिया के जरिए समाज को बदलने की कोशिश की लेकिन जब हमे इससे करोड़ों का नुकसान होने लगा तो आखिर हम भी कब तक बर्दाश्त करते, मजबूरी में बंद करना पड़ा. पस्त सरकार और जर्जर व्यवस्था के बीच जो थोड़ा भला होगा, इन्हीं चैनलों और मीडिया के बूते और मीडिया का भला तभी तक होगा जब तक उसे धनपशु मिलते रहें इसलिए जरुरी है कि इस देश में पशुओं से कहीं ज्यादा धनपशुओं की सेवा की जाए.
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हीरोईन फिल्म देख ली. मैं भीतर से डरा हुआ हूं कि इस फिल्म के बाद मधुर भंडारकर की हालत रामगोपाल वर्मा जैसी न हो जाए. उनकी तरह ही मधुर की फिल्म से शॉट्स,डायलॉग के होने-न होने के तर्क तेजी से खत्म हो रहे हैं और कहीं वे सिनेमा बनाने के लिए सिनेमा न बनाते रह जाएं. हीरोईन में इसकी शुरुआत हो चुकी है. देखते हुए मुझे बार-बार ग्वायर हॉल हॉस्टल की सब्जियों की ग्रेवी की याद आ रही थी. चाहे मटर पनीर हो, मलाई कोफ्ता,अंडा करी या फिर चिकन या मछली ही क्यों न हो, सबों की ग्रेवी एक ही होती..बस अलग से दो पीस मछली के या कोफ्ता डाल दिए जाते. मधुर भंडारकर ने भी ऐसा ही करना शुरु कर दिया है. 

हीरोईन, फैशन से आगे और अलग नहीं बढ़ पाती है बल्कि कार्पोरेट, फैशन की राइम्स पढ़ती हुई डर्टी पिक्चर में जा धंसती है. कोई बारीकी नहीं, कोई गंभीर रिसर्च नहीं. एक लापरवाह परीक्षार्थी की तरह भंडारकर ने इसे हम दर्शकों के बीच परोस दिया कि हमने तो सारी पढ़ाई पहले ही कर ली है, अब अलग से परीक्षा की तैयारी क्या करनी ? सिनेमा के भीतर सिनेमा बनते हुए "तरन्नुम जान" को लेकर उम्मीद जगी थी कि शायद चमेली से आगे की कोई चीज देख सकेंगे लेकिन उसमें तपन दा को इस टिपिकल तरीके से दिखाया गया कि फिल्म के भीतर फिल्म देख न सके और रिलीज ही नहीं हो सकी. आप कह सकते हैं कि जब कार्पोरेट,फैशन इन्डस्ट्री और वॉलीबुड की लाइफ स्टाइल और उसकी बिडंबना एक सी है तो आखिर कितना नया और अलग दिखेगा ? लेकिन फिर तो इस देश में मजदूर,किसान, निम्न मध्यवर्ग..सबों की स्थिति एक सी ही है तो फिर रोटी,जंजीर से लेकर पीपली लाइव तक दर्जनों फिल्में बनाने की क्या जरुरत है ? 

इन सबके बावजूद इस फिल्म को वॉलीबुड से कहीं ज्यादा "मीडिया की छवि" कैसी बनाई गयी है, इसके लिए देखनी चाहिए..मैंने कभी कथादेश के मीडिया विशेषांक में एक लेख लिखा था- सिनेमा का नया खलनायक मीडिया, ये बात इस फिल्म में मजबूती से दिखाई देती है..सिनेमा के लोग चर्चा में बने रहने के लिए,पब्लिसिटी के लिए मीडिया का इस्तेमाल किस तरह से करते हैं और खुद भी होते हैं,ये अलग से समझने की जरुरत नहीं है लेकिन हिन्दी सिनेमा उसे लगातार एकतरफा ढंग से पोट्रे कर रहा है..रण,शोबिज जैसी फिल्में तो इसकी नकारात्मक छवि को बताने के लिए ही बनी है..बाकी पा,पीपली लाइव जैसी कम से कम दर्जन भर फिल्में हैं जिनमें मीडिया खलनायक की भूमिका में दिखाया-बताया गया है. 

मीडिया के चरित्र खासकर समाचार चैनलों से गहरी असहमति रखने के बावजूद महसूस कर रहा हूं कि अब कुछ ज्यादा हो रहा है..ये एकतरफा हो रहा है और अगर ये आगे भी होता रहा तो संभव है कि कोई "मीडिया पॉजेटिव" को लेकर फिल्म बनाए.

सिंगल स्क्रीन थिएटर या सिनेमाहॉल  में सिनेमा देखना का अपना सुख है. पीवीआर,मल्टीप्लेक्स में फिल्में देखते वक्त लोग इतने चुप्प रहते हैं मानो स्क्रीन पर कोई फिल्म नहीं चल रही, लाश जल रही हो और दर्शक दाह-संस्कार के लिए जुटे हों. सिंगल स्क्रीन में अधिकांश लोग कुछ न कुछ बोलते हैं..आपको शायद ये शोर लगे लेकिन मैं जब भी बत्रा,अंबा,लिबर्टी जैसे सिनेमाहॉल में फिल्में देखता हूं तो लगता है मैं चारों तरफ हुडदंगिए दर्शकों से नहीं,सिनेमा समीक्षकों से घिरा हूं. सभ्य समाज से आनेवाले दर्शकों को ऐसी टिप्पणी परेशान कर सकती है कि सिर्फ टनाका माल होने से काम नहीं चलता है वेवो, प्यार पाने के लिए बहुत कुछ खोना पड़ता है, बहुत कुछ छोड़ना पड़ता है..तुम सोचोगी कि एकै साथ अर्जुनवा को भी पटाए रखें और उसको मोहरा बनाके डायरेक्टर को चूतिया बनाकर एक के बाद एक फिलिमो साइन करते रहें तो बाकी पब्लिक चूतिया नहीं है...

लेकिन इन टिप्पणियों से गुजरते हुए आप समझ पाते हैं कि जिन फिल्मों में संवाद और अर्थ तेजी से मर रहे हैं,ध्वस्त हो रहे हैं, उनके बीच ऑडिएंस कैसे संप्रेषण की संभावना खोज पाती है. संभव है कि ऐसी ऑडिएंस निखत,शुभ्रा और राजीव मसंद की रिव्यू पढ़कर सिनेमा देखने नहीं आती और पीवीर की ऑडिएंस की तरह मन ही मन उससे सिनेमा का मिलान करती हो लेकिन "स्टडी विफोर वॉचिंग" के बिना भी वो कदम-दर-कदम टिप्पणी करने से बाज नहीं आती..ये एक किस्म की लाइव समीक्षा होती है और अगर कोई इसी नीयत से मल्टीप्लेक्स,ओडियन,वेव और पीवीआर को छोड़कर टिपिकल सिनेमाहॉल में जाकर इन टिप्पणियों को नोट करे तो बड़ी ही दिलचस्प स्टडी निकलकर सामने आएगी..कोई बॉलकनी,डीसी की अलग से और रीयल स्टॉल,नीचे की अलग-अलग नोट कर सके तो टिकट में महज पच्चीस रुपये की फर्क के बीच कई स्तरों पर फर्क समझ सकता है.

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लप्रेक( लघु प्रेम कथा)

निखिल ! हां नीलिमा. एक बात बता,ये अपने पीएम अंकल हमारी तरह ही हनी सिंह के बिग फैन हैं क्या ?

 क्यों क्या हुआ ? नहीं,वैसे ही पूछ रही हूं,मुझे लगा तो. देख न जबसे उसकी एल्बम "इन्टरनेशनल विलेजर" आयी है न, हम जैसी तो डीजे में बाकी किसी बिट्स पर हिलते तक नहीं और इसी बीच बजा दे कोई "प्यार तेनू करदे गबरु" फिर मजाल है कि हमारे पैरों को थिरकने से कोई रोक दे ? मुझे तो लगता है, अंकल ने हनी सिंह से ही एन्सपायर 
होकर ये एफडीआई वाला बीट शुरु किया न..और देख कैसे विपक्षी पार्टी से लेकर देश की जनता वावली हुई जा रही है.

 तुम उनके प्रतिरोध औऱ असहमति को थिरकना कहोगी नीलिमा ? तुम तो मस्ती में थिरकती हो लेकिन जनता मजबूरी और तकलीफ में विरोध कर रही है..

ओह,तूने मेरे कहने का सही से मतलब समझा नहीं. जैसे अपना हनी सिंह कह रहा है कि विलेजर का मतलब सिर्फ होरी महतो,धनिया,झुनिया और गोबर नहीं होता है..अब विलेजर भी ग्लोबल हो रहा है, इन्टरनेशनल हो रहा है..एफडीआइ से हमारे विलेजर्स ऑब्लिक किसान भी ग्लोबल होंगे..महिन्द्रा की ट्रैक्टर पर चढ़कर "न्यू बैलेंस" जूते पहनकर गीयर दबाएंगे. रोट्टी खाने के पहले हाथ धोएंगे तो ट्यूबल के पास टे हेग्यार की घड़ी खोलकर घड़ी रखेंगे. यार आदिदास( तू कालिदास का भाई न समझ लेना इस कंपनी के मालिक को) की महरून टीशर्ट में जब वो खेतों से मूली उखाड़गे तो कितने क्यूट लगेंगे न वो..और फिर प्यूमा की वॉटल ग्रीन टीशर्ट में वॉलमार्ट के एजेंटों से डील करेंगे. 

निखिल,पता है..अपने किसानों को इस तरह देखकर स्साले वॉल मार्टवाले भी टेंशन में आ जाएंगे..और ये तेरे फ्रेंड वैभव, लक्की, विकास सिंह सेल में खरीदी हुई टीशर्ट पहनकर चौड़े हुए फिरते हैं, अपने को राउडी राठौर समझते हैं, सब ऐंवें, टिल्ली-टिल्ली हो जाएंगे उनके सामने. मैं तो अभी से ही एक्साइटेड हूं खेतों में काम करते वक्त आदिदास, वालमार्ट में प्यूमा की टीशर्ट पहने..आह, हमारे यंग फार्मरस कितने कूल दिखेंगे न ? देखना तब नवाजउद्दीन को भी समझ आ जाएगा कि एक अकेला वही बिचली अड़ान से निकला हीरो नहीं है और एक अकेले अनुराग कश्यप का विजन नहीं है, कई और भी खोज सकते हैं नवाज जैसे हीरो..

ओह नीलिमा, तुम कहां की बात कहां जोड़ने लग जाती है. इतनी सीरियस इश्यू को ऐसे डायल्यूट करोगी ? क्या खेती सिर्फ युवा किसान ही करते हैं, कभी जाकर देखा है तुमने कि कितने बुजुर्ग खून लगाते हैं इसके पीछे. कमऑन निखिल, इसमें गलत क्या है ? क्या तुम नहीं चाहते कि हमारे विलेजर्स प्लस फारमर्स भी हमारी तरह ग्लैमरस दिखें,वही सब पहने और खाएं जो हम पहनते-खाते हैं..तुम तो बड़े इक्वलिटी की बात करते हो फिर यहां क्या एक्सक्लूसिव न रहने का खतरा हो रहा है ? बुजुर्ग होते हैं तो वो आदिदास नहीं फैब इंडिया के कुर्ते पहनेंगे पर दिखेंगे तो चटकीले ही. तुझे याद है डीडी पर गुलजार की तहरीरः मुंशी प्रेमचंद आयी थी. अपना होरी,गोबर,रुपा,झुनिया खादी इंडिया के कपड़ों में कैसे झक्कास दिख रहे थे. अगर गुलजार ने उन्हें फैब इंडिया के कपड़े पहनाए होते तो आय एम डैम श्योर कि कोई यकीन भी नहीं करता कि ये प्रेमचंद के गोदान के कैरेक्टर हैं या फिर अनुराग के गैंग्स ऑफ बासेपुर के. हां,इस बात पर तुम अंकल से शिकात कर सकते हो कि ऐसा करके हम मेट्रो के यंगस्टर्स की फैशन और लाइफ स्टाइल एक्सक्लूसिव नहीं रह जाएगी. जब हमारे विलेजर्स वाल मार्ट से डील करेंगे तो क्या सिर्फ उनसे पैसे ही लेगें, उनकी कल्चर और लाइफ स्टाइल भी तो एडॉप्ट करेंगे न.

 निखिल,कितना अजीब और एक्साइटिंग है न सबकुछ इस देश में. अब तक फारमर्स जो दिन-रात तेज धूप और बारिश में फसलें उगाकर न जाने कितने किलोमीटर जाकर इन्हें बेचते आए हैं, अब वो उस धूप से सीधे एसी में होंगे और ये बीबीए,एमबीए के लाखों स्टूडेंटस एसी कमरों में बिजनेस औऱ धंधे के गुर सीखते हैं वो मुरैना,बक्सर और भटिंडा की धूल-धक्कड भरी सफेद दाग की शिकार सड़कों के किनारे कंपनी की छतरी लगाकर वाइ वन गेट वन, टू थाउजेंड की रिचार्ज पर सिम फ्री और पानी साफ करने की मशीन बेचेंगे..जो हो निखिल, वट एटलिस्ट, आइ वना सी द होल सर्कस ऑफ दिस ग्रेट डेमोक्रेसी..

निखिल,तू भी कुछ बोल न..मैं क्या बोलूं ? कुछ भी..

कुछ भी क्यों नीलिमा, बोलूंगा तो तुम फिर कहोगी कि तू ज्ञान देने लग गया, पर तुम्हें नहीं लग रहा कि तुम कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो की लिखी एक-एक लाइन की इतनी बुरी तरह से मजाक उड़ा रही हो जितनी कि हमारे सहीपंथी यानी राइटिस्ट भी नहीं उड़ाते. तुम्हें कभी होश भी होता है कि तुम रौ में क्या-क्या बोल जाती हो ? तुम्हारे लिए ये सब सर्कस है..

निखिल ! मैं जानती थी तू फिर से शुरु हो जाएगा, स्साला तू कभी सार्केजम समझने के लिए तैयार ही नहीं होता यार..तुझे एक-एक सीरियस टोन में ही चाहिए होती है..हद हो गई यार.


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आज ब्लॉगिंग करते हुए कुल पांच साल हो गए. आज ही के दिन मैंने मेनस्ट्रीम मीडिया की मामूली( सैलरी के लिहाज से) नौकरी छोड़कर अकादमिक दुनिया में पूरी तरह वापस आने का फैसला लिया था. ब्लॉगिंग करते हुए साल-दर-साल गुजरते चले जा रहे हैं लेकिन मैं इस रात को और अगली सुबह को अक्सर याद करता हूं जब हम उस आदिम सपने से बाहर निकलकर कि बड़ा होकर पत्रकार बनना है, आजतक में काम करना है वर्चुअल स्पेस पर कीबोर्डघसीटी करने लग गए.

ब्लॉगिंग के जब भी साल पूरे होते हैं, मैं फ्लैशबैक में चला जाता हूं. मैं अपने पीछे के उन सालों को उसी क्रम में याद करने लग जाता हूं. इतनी जतन और सावधानी से जैसे कि इसके पहले की कोई तारीख या दिन मेरी जिंदगी के लिए कोई खास मायने नहीं रखते. इससे ठीक एक महीने पहले मेरा जन्मदिन आता है और हर बार घसीट-घसाटकर बीत जाता है. पिछले दो बार से तो हॉस्पीटल में और अबकी बार तो इतना खराब कि मैं शायद ही अपने जन्मदिन को याद करना चाहूंगा. दिनभर मयूर विहार के घर को छोड़ने और कचोटने में बीत गया. ये सच है कि हमारी मौत की तारीखें मुकर्रर नहीं होती लेकिन कुछ तारीखें ऐसी जरुर होती है जो अक्सर जिंदगी के आसपास नाचती रहती है और मौत जैसी ही तकलीफ देती रहती है. शायद इन तारीखों में से मेरे जन्मदिन की एक ऐसी ही तारीख है. खैर,

अपने जन्मदिन को लेकर मैं जितना ही शिथिल,बेपरवाह और लगभग उदास रहता हूं, ब्लॉगिंग की तारीख को लेकर उतना ही उत्साहित, संजीदा और तरल. मैं धीरे-धीरे अपने जन्मदिन की तारीख को खिसकाकर 19 सितंबर तक ले आना चाहता हूं ताकि 17 अगस्त के आसपास मौत जैसी तकलीफ नाचनी बंद हो जाए. मुझे अक्सर लगता है कि मेरी असल पैदाईश इसी दिन हुई. जिस विनीत को आप जानते हैं, वो इस तारीख के पहले आपके बीच नहीं था. वो पहले साहित्य का छात्र था, किसी चैनल का ट्रेनी थी, रिसर्चर था, मां का दुलारा बेटा था, पापा का दुत्कारा कुपुत्र था, बिहार-झारखंड छोड़कर हमेशा के लिए दिल्ली में बसने की चाहत लिए एक शख्स था. वो कदम-कदम पर प्रशांत प्रियदर्शी, ललित, गिरीन्द्र, शैलेश भारतवासी जैसे को परेशान करनेवाला ब्लॉगर नहीं था. वो बात/मुद्दे पीछे पोस्ट तान देनेवाला ब्लॉग राइटर नहीं था. मैं कभी-कभी सोचते हुए गहरे हताशा से भर जाता हूं कि मेरी पहचान किस हद तक सीमित है कि अगर मैंने अदना सा ये ब्लॉग शुरु नहीं करता तो जितने लोग मुझे अब जानते हैं, बमुश्किल उनमें से दस फीसद लोग मुझे जान रहे होते. इतना ही नहीं, चाहे जितने भी लोग किसी न किसी रुप में मेरे आसपास हैं उनमें से आधे से ज्यादा लोग ब्लॉगिंग न करने पर नहीं होते. सुख-दुख,छोटी-बड़ी दुनियाभर की न जाने कितनी सारी बातें मैं उनसे साझा करता हूं. लंबे समय तक जीमेल से उनसे चैट होती रही है इसलिए अब वे इस मंच से छूट भी गए हैं तो भी फोन करते हुए रत्तीभर भी ख्याल नहीं आता कि हम जबलपुर फोन कर रहे हैं कि गिरीन्द्र अब पूर्णिया चला गया है कि पीडी जब किस्सा सुनाना शुरु करता है तो कब चेन्नई से उठाकर पटना की जलेबीनुमा सड़कों और उतनी ही घुमावदार यादों की तरफ लेकर चला जाता है. मैं इन सबसे बिना पूछे रिश्तेदारी क्लेम करने लग जाउं तो आज इस देश का कोई भी ऐसा शहर/कस्बा नहीं है जहां कोई दोस्त न मिल जाए. मुझे तो अब देश के किसी भी कोने में जाने में हिचक ही नहीं होती..लगता है, मुसीबत आने पर उस शहर में ब्लॉगर तो होगा. हम इस अर्थ में अतिजातिवादी हो गए हैं और ब्लॉग नाम की जाति की तलाश और उम्मीद से पूरे देश में भटकते रहते हैं. अब तो फेसबुक ने पहले से भी ज्यादा मामले को आसान कर दिया है.

पिछले पांच साल की तरफ पलटकर देखता हूं तो लगता है इसी ब्लॉगिंग ने मेरे भीतर कितना साहस, कितने सारे जिद्दी धुन भर दिए हैं. सोचिए न, संत जेवियर्स कॉलेज,रांची के स्कूल जैसी सख्ती भरे माहौल से निकलकर आया ग्रेजुएट, हिन्दू कॉलेज दिल्ली में आकर सबकुछ नए सिरे से समझने की कोशिश करता है. बनने से पहले उसके भीतर की कई सारी चीजें टूटती है, चटकती है..इसी जद्दोजहद में कब पैसे कमाने की जरुरत होने लगी,पता तक नहीं चला. ये वो समय था जब जोड़-तोड़,चेला-चमचई, अग्गा-पिच्छा को आगे बढ़ने का एकमात्र रास्ता बताया जा रहा था. हम एक बेहतर लेखक,पत्रकार,रिसर्चर बनने के सपने लेकर,ट्रेनिंग लेकर तैयार हुए थे और अब हमें बने रहने और सफल होने के लिए निहायत अव्वल दर्जे का हरामी,कमीना, चाटुकार,सेटर बनना था. ऐसे में मुझे गहरी उदासी के बीच भी अपने ब्लॉग पर बेइतहां प्यार उमड़ता है- हुंकारः हां जी सर कल्चर के खिलाफ.

कभी-कभी तो मैं सोचकर कांप जाता हूं कि अगर मैंने ब्लॉगिंग न की होती तो देश-दुनिया और समाज को देखने का तरीका मेरा कितना अलग होता. अलग अभी जिस तरह से देख पा रहा हूं, उससे . नहीं तो जमाने के हिसाब से तो अधिकांश लोगों की तरह ही होता. हम हर शख्स को अकादमिक चश्में में कैद करके देखते- वो ब्राह्मण है, वो राजपूत है, वो भूमिहार है, ओबीसी है,दलित है. उसकी गर्लफ्रैंड एससी है, जान-बूझकर पटाया है कि कोई नहीं तो कम से कम एक की तो नौकरी पक्की हो जाए. उसका गाइड यूपी का है, बनारस-बनारस कार्ड खेला है. वो हरियाणा का है, वो जाट है, ये लड़की ओबीसी है..ब्ला,ब्ला. इस अकदामिक चश्मे से जो कि जाहिर तौर पर तमाम तरह के वैचारिक खुलेपन और देरिदा,फूको,ल्योतार की किताबों को सेल्फ में सजा लेने और वैल्यू लोडेड वर्ड्स के बीच-बीच में झोंकते रहने के बावजूद अलग से कुछ समझ नहीं आता. पूर्ववर्ती साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों के डिब्बाबंद विचार बस क्लासरुम और आगे चलकर उत्तर-पुस्तिकाओं/थीसिस तक में जाकर सिमट जाती है, मुझे लगता है इस ब्लॉग ने ही मुझे लोगों को,चीजों को इस चश्मे से देखने से मना कर दिया. इसे ऐसे कह लें कि अकादमिक दुनिया की वो बारीकी मेरे भीतर पैदा ही नहीं होने दी जिसमें इस तरह के भेदभाव को बरतते हुए भी ज्ञान की बदौलत प्रगतिशील होने के कला सीख-समझ सकें. ब्लॉगिंग ने एक ही साथ हमें साहसी और ठस्स बना दिया.

साहसी इस अर्थ में कि जब हम अपनी लैपटॉप पर घुप्प अंधेरे में बैठकर किसी भी मठाधीश पर लिख रहे होते हैं तो दिमाग में रत्तीभर भी ख्याल नहीं आता कि वो मेरा किस हद तक नुकसान करेंगे ? बस एक किस्म का इत्मिनान होता है कि इस कमरे तक किसी की पहुंच नहीं है और अगर हो भी तो तब तक हम अपनी बात तो कह लेंगे. दुनिया की व्यावहारिकता से पूरी तरह निस्संग तो नहीं लेकिन हां एक हद तक इसने हमें पूरी तरह उसमें लिथड़ने से बचा लिया..आज हम ब्लॉगिंग करते हुए अच्छा चाहे खराब जो कि बहुत ही सब्जेक्टिव मामला है, वो हो पाए जो कि खालिस रिसर्चर होते हुए शायद कभी नहीं हो पाते..इसने हमारे भीतर वो अकूत ताकत पैदा की है कि हम किसी भी घटना और व्यक्ति के प्रति असहमत होने की स्थिति में लिख सकते हैं, प्रतिरोध जाहिर कर सकते हैं. निराला, बाबा नागार्जुन, मुक्तिबोध, प्रेमचंद, रेणू जैसे  अपने पुराने साहित्यकारों में अस्वीकार का जो साहस रहा है, अभिव्यक्ति के खतरे उठाने का जो माद्दा रहा है, वो उनकी रचनाओं के पढ़ने के बाद क्लासरुम और अकादमिक दुनिया से नहीं, इसी ब्लॉगिंग से थोड़ा-बहुत ही सही अपने भीतर संरक्षित रह पाया.

और ठस्स इस अर्थ में कि इसने मेरे भीतर वो कभी कलात्मक बोध पैदा नहीं होने दिया जिसका इस्तेमाल हम भाषिक सौन्दर्य विधान पैदा करने के बजाय उस झीने पर्दे की तरह करते जो हमें स्टैंड राइटिंग के बजाय मैनेज्ड राइटिंग की तरफ ले जाता. हम सिर्फ उन्हीं रचनाओं,लेखकों और मूर्धन्यों के बारे में लिखते जो हमारी जेब की सेहत और बौद्धिक छवि दुरुस्त करने के काम आते. मतलब हम चूजी राइटर होने से बच गए और इससे हुआ ये कि हमारे हिस्से कई ऐसे मुद्दे,कई ऐसे लोग आ गए जो मेनस्ट्रीम मीडिया की डस्टबिन में फेक दिए गए थे, जो अकामदिक दुनिया में सिरमौर करार दे दिए गए थे, जो मीडिया में मसीहा नाम से समादृत थे. हमने लेखन के नाम पर ठिठई ज्यादा की है और ये सब बस इसलिए कि ब्लॉग नाम की एक चीज हमारे पास थी और जिसके उपर किसी की सत्ता नहीं थी. ये अलग बात है कि अब इस विधा में भी एक से एक लड़भक और लड़चट लोग आ गए हैं. मैं तो अपने उन पुराने ब्लॉगर साथियों को याद करता हूं जो अपनी भाषिक खूबसूरती के साथ ऐसी धज्जियां उड़ाते थे कि पायजामे का सिला बुश्शर्ट तक को पता न चले. हम इस अकेले ब्लॉग की बदौलत( आर्थिक रुप से जेआरएफ की बदौलत) लंबे समय तक सिस्टम का कल-पुर्जा,चेला-चपाटी बनने से बचते रहे. नहीं तो हम कभी ब्लॉगर नहीं, चम्पू या फिर जमाने पहले ही एस्सिटेंट/ एसोशिएट पदनाम से सुशोभित हो गए होते.

कई बार कुछ घटनाएं,कुछ प्रसंग बहुत ही ज्यादा मन को कचोटती है. लगता है किससे कहें. मोबाइल की टच स्क्रीन पर उंगलियां सरकने लग जाती है. फिर हम उसे साइड कर देते हैं जैसे कि किसी पर यकीन न हो और फिर एक नई पोस्ट लिख देते हैं. कौन ऐसा पात्र खोजने जाए जो ठीक-ठीक मेरी मनःस्थिति को समझ सकेगा,लाओ यहीं उतार दो. आप जो मुझे लगातर पढ़ते हैं न, कई बार वो मेरे मन की कबाड़ है, उचाट मन को उचटने न देने की कवायद. उसमें न तो रिपोर्टिंग है, न खबर है, न कथा है और न ही साहित्यिकता. उसमें वो सब है,जिससे हम छूटना चाहते हैं, जिसके छूटते जाने पर भारी तकलीफ होती है.

अपने इस ब्लॉग के एक कोने में अक्सर मेरी मां होती है. न्यूज बुलेटिन की तरह खेल,राजनीति,मनोरंजन की तरह एक अनिवार्य सेग्मेंट. वो मां जो अक्सर मजाक में कहा करती है- तुमको पैदा तो किए लेकिन चीन्हें( पहचानना) बहुत बाद में. वो इसके जरिए मुझे रोज चीन्ह रही है. जमशेदपुर के चार कमरे की फ्लैट में, बालकनी में बैठकर गुजरती बकरियों,गाड़ियों और डॉगिज को देखते हुए. प्रभात खबर,हिन्दुस्तान,जागरण में छपी मेरी पोस्टों से गुजरते हुए. मुझे लगता है कि अगर मैं ब्लॉगिंग नहीं कर रहा होता तो मां के इस कोने को कहां व्यक्त कर पाता. कौन माई का लाल मेरी इस "बिसूरन कथा" को छापता. बचपन की मेरी उन फटीचर यादों को अपने अखबार और पत्रिकाओं के पन्ने पर जगह देता.

हम सबके बीच साग-सब्जी-दूध-फल-गाड़ी-मोटर के बाजारों के बीच अफवाहों का भी एक बड़ा बाजार है. ये बाजार बिना किसी ईंधन के अफवाहों से गर्म रहता है. इसी बाजार में अक्सर अटकलें लगती हैं. इन्हीं में  ये अटकल अक्सर लगती रही है- ये कुछ दिन का खेल है, देखिएगा लाइफ सेट होते ही ब्लॉग-स्लॉग सब छोड़ देगा. अरे देख नहीं रहे हैं, जनसत्ता,तहलका में लिखने और चैनल पर आने के बाद से कितना कम हो गया है लिखना ? बनने दिए एस्सिटेंट प्रोफेसर, सब ब्लॉगिंग पर बरफ जम जाएगा. इन अटकलों का हम क्या कर सकते हैं ? वैसे भी अफवाहें और अटकलें जब तक जिंदा रहे, उसी शक्ल में जिंदा रहे तो अच्छा है. उनका रुपांतरण घातक ही है..लेकिन

इतना तो जरुर है कि हम ब्लॉगिंग तो तभी छोड़ सकते हैं न जब मीडिया में किसी घटना से गुजरने के बाद उबाल आने बंद हो जाएं. आसपास की चीजों के चटकने के बाद भीतर से कुछ रिसने का एहसास खत्म हो जाए. मां के फोन पर यादों की गलियों में गुम होने बंद हो जाए..जब तक ये होते रहेंगे, आखिर विचारों के कबाड़ और कचोट को कहां रखेंगे. यहीं न. ऐसे में तो हम बस इतना ही कह सकते हैं न कि हमारी निरंतरता भले ही टूटती-अटकती रहे लेकिन तासीर बनी रहे, मैं अपनी कोशिश तो बस इतनी ही कर सकता हूं और अटकलों के बाजार के बीच आप मेरे लिए यही कामना कर सकते हैं, बाकी का क्या है ?

मेरे इस ब्लॉग में और ब्लॉगिंग करते हुए कई संबंध दर्ज है, कईयों से जुड़ने के संबंध और कईयों से जुड़कर अलग होने के संदर्भ. कुछ हमारे रोज के टिप्पणीकार हुआ करते थे, अब वे भूले-बिसरे गीत की तरह बनकर रह गए हैं. कुछ हमारे लेखन के बीच अचानक से संदर्भहीन हो गए हैं. अगर किसी रात मैं उन तमाम पुरानी पोस्टों को एक-एक करके पढ़ना शुरु करुं तो ऐसा लगेगा कि हम किसी कस्बे से गुजर रहे हैं जहां कभी हमारी गली हुआ करती थी, अब वो किसी का मकान हो गया है. जिसके साथ कभी हम अक्सर लुकाछिपी खेला करते थे वो हमारी पकड़ से छूट गए हैं. ये इतिहास जैसा प्रामाणिक न होते हुए भी, उससे कम दिलचस्प नहीं है. देर रात उन सबको याद करना कभी पागलपन लगता है और कभी हाथ गर्दन की तरफ बढ़ते हैं कि कोई दुपट्टा रखा होगा कि हम भभका मारकर रोने से पहले ही उसे अपने मुंह में ठूंस लें. संभावनाओं का ऐसा एल्बम सच में कितना दिलचस्प है न. !
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आज वीडियोकॉन टावर,झंडेवालान में "आजतक" समाचार चैनल का आखिरी दिन है. इसके बाद से ये चैनल बल्कि टीवी टुडे नेटवर्क कंपनी नोएडा में बनी अपनी दैत्याकार बिल्डिंग में शिफ्ट हो जाएगी. आजतक के इन्टर्न के तौर पर मैंने इस इलाके में कोई तीन महीने गुजारे. ढेर सारी यादें हैं, ढेर सारी कसक,सपने, उम्मीदें, तमीज और बदतमीज होने की प्रक्रिया से गुजरना हुआ. लिहाजा लप्रेक( लघुप्रेम कथा) लिखे बिना अपने से रहा नहीं गया. तो आप भी पढ़िए. टीवी टुडे के अधिकारियों से अपील और उम्मीद है कि इसमें वो किसी भी तरह की वैधानिक पेंच न खोजने लगेंगे- विनीत

नीलिमा, चल न आज शाम वीडियोकॉन टावर चलते हैं. वीडियोकॉन टावर, अचानक ? लेकिन हमने आज शाम तो बर्फी की प्लान बनायी  थी न. तूने मीडियाखबर पढ़ा नहीं क्या ? क्यों क्या हो गया ? अरे आज वीडियोकॉन में आजतक का आखिरी दिन है. आखिरी दिन यानी हमारे टीनएज के सपनों की ठिकाने के बदल जाने की जगह. याद है, जब भी हम करोलबाग की तरफ से गुजरते थे,मैं तुम्हें दूर से ही वीडियोकॉन टॉवर के उन फ्लोर की तरफ उंगली से इशारा करके बताता था- इसी पर आजतक की ऑफिस है. हम मास कॉम करेंगे और उसके बाद यहीं काम करेंगे और थोड़े ही वक्त के लिए सही, किया भी. हां-हां याद है निखिल..और सोच न तू इस बिल्डिंग को लेकर कितना पागल रहता है अब भी. हमें जाना होता है सीपी और तू बीच में ही उतरकर इसके पास से गुजरता है. बिल्डिंग की मेन गेट पर तेरी आंखें ऐसे जाकर धंस जाती है कि खोदकर किसी न किसी परिचित को ढूंढ निकालेगी.

 और तू भी तो नीलिमा. वॉलेट में चाहे जितने पैसे हों, किसी न किसी बहाने इस बिल्डिंग में लगी आइसीआइसीआइ की एटीएम मशीन से पैसे निकालने लग जाती है. वैसे तो मैंने एक्सिस और एसबीआई के अलावे किसी दूसरे बैंक की एटीएम से पैसे निकालने कहता हूं तो साफ मना कर देती है- यार निखिल, अपने एक-एक रुपये मेहनत से आते हैं यार, क्यों दूसरी मशीन से निकालकर बीस-पच्चीस बर्बाद करेगा? निखिल, मैं इस बिल्डिंग की एटीएम मशीन से पैसे कहां निकालती हूं बल्कि उन यादों की रिवीजन करती हूं जब दिन में चार-पांच बार मिनी स्टेटमेंट निकाला करते थे फिर भी हिसाब नहीं लगा पाते थे कि आखिर डेढ़ हजार रुपये गए कहां ?

 तू एक ब्लैक कॉफी के लिए भी कह देता था तो सौ रुपये निकालती थी एटीएम से. अपना लो बजट का प्यार भी तो यही डेवलप हुआ न. ऐसे में इतना तो बनता है न कि रुककर पैसे निकाल लूं. मतलब तू यहां पैसे निकालने नहीं,सजदा करने आती है, हा हा. सही है. निखिल, लेने लगा  न मजे. अच्छा फिर तू बता. मैं जब भी कहती हूं कि दिल्ली प्रेस वाली सड़क से चलो, ज्यादा भीड़-भाड़ रहती है, इस साइड..मना क्यों कर देता है ? क्यों कहता है कि उधर गाड़ियां इतनी रफ्तार से चलती है कि टक्कर लगने का डर बना रहता है, जैसे कि दिल्ली में हम बाकी जगह पगडंडियों पर से होकर जाते हैं. ओह नीलिमा, वो तो इसलिए कि इधर से मेट्रो शार्टकट पड़ती है. मेट्रो शार्टकट पड़ती है लेकिन जब आइटेन में होते हो तब भी तो. जहां खिलौनेवाली बाइक का क्रॉस करना मुश्किल हो वहां अपनी गाड़ी अटक जाती है, आसान कहां होता है ? मेरी तो छोड़ लेकिन फिर तू क्यों सामने के पार्क में चक्कर लगाने लग जाती है और बेचैन हो जाती है जैसे कि तेरी इयर रिंग गुम हो गई हो ?

 नीलिमा, अब छोड़ न. इतनी बहानेबाजी से तो अच्छा है न, क्या हम ये एक्सेप्ट नहीं कर सकते कि हमदोनों इस वीडियोकॉन टावर को बहुत मिस्स करते हैं. होगा ये जमाने के लिए भीड़भाड़ का इलाका और एक-दूसरे की मारकाट मचानेवाली ऑफिस लेकिन अपने लिए ये कभी ऐशगाह थी बिल्डिंग. प्यार,करिअर और थोड़े पैसे सब तो यही उगे थे,खिले थे,बढ़े थे. हम इससे गुजरते कहां है, इस कोशिश में होते हैं कि इसे ज्यादा से ज्यादा अपने भीतर भर लें ताकि सात-आठ दिनों तक यादों की रसोई में,धीमी आंच में पकते रहें ख्याल.

 नीलिमा,नीलिमा..यार तू ऐसे आंखों में आंसू लेकर वीडियोकॉन टावर को याद करोगी ? क्या हुआ ? कुछ नहीं निखिल. ये वही पार्क है जहां मैं आकर बहुत रोई थी, उस कमीने प्रोड्यूसर की एटीट्यूड पर जो मुझे बुरी तरह घूरता था और हमें सुनाते हुए कहा था- अरे, लड़कियां मीडिया में सक्सेस होने के लिए किसी भी हद तक जा सकती है...स्साली सब प्रोस्टी.. मैंने उसी दिन तय कर लिया था कि मुझे नहीं रहना मीडिया में, नहीं बनना एंकर..लेकिन तूने इस पार्क में आकर घंटों समझाया था और एक ही बात कई बार कही- तुम मीडिया छोड़कर मठ जाकर संतई भी करोगी न नीलिमा तो जमाने का नजरिया नहीं बदल सकती. तुम अपने को बना-बदल सकती हो, इन कमीने को नहीं. चुपचाप काम करती हो..पता नहीं तुम्हारी बात का असर था या फिर माहौल कुछ ऐसा बना कि मैं उस दिन के बाद से सिर्फ एंकरिंग के बजाय प्रोडक्शन,पैकेजिंग सबमें दिलचस्पी लेने लगी.

तुम्हारी शिफ्ट खत्म हो गई थी, तुम वापस घर चले गए थे नाइट शिफ्ट में थककर और सुबह आते ही मेरी बकवास और रोना-धोना सुनकर..मैंने उस दिन ऑफिस में बहुत काम किया था लगातार और एक बात कहूं- तीन बार सौ-सौ रुपये निकाले थे इसी एटीएम से और तीन बार कॉफी पी थी. तुम्हारी बातें ब्लैक कॉफी के साथ घुलकर मिंट सा असर कर रही थी. तुम्हारी रोज की आदत थी कि शिफ्ट खत्म होते ही मुझे मेल करने की और हमेशा की तरह उस दिन भी तुमने मेल किया था-

 नीलिमा, मुझे लगता नहीं कि मैं मीडिया की इस वाहियात दुनिया में ज्यादा दिनों तक टिक पाउंगा. मेरी सारी काबिलियत,सारा पढ़ा-लिख इस बात पर आकर टिक गया है कि कमीने और हरामी लोगों के बीच मैं कैसे और बड़ा कमीना बन सकता हूं जबकि मेरी पूरी ट्रेनिंग एस.पी.सिंह से और बेहतर,माथुर साहब से और धारदार लिखने-सोचने और कम से कम कल्पना करने की तो रही ही है. शायद ये मेरा आखिरी दिन हो. मैं मेल पढती जा रही थी और भीतर ही भीतर रोती जा रही थी कि पास बैठे त्रिपाठी सर को अंदाा न लगे कि मुझे कुछ हुआ है. मैं उस दिन कई बार वाशरुम गई और अजीब सा सन्नाटा पाया. लेडिज वॉशरुम के बाहर कोई खड़ी होती,आहट पाकर मुझे इम्बैरेस लगता कि क्या सोच रही होगी कि ये लड़की इतनी देर अंदर क्या करती है लेकिन तुम खड़े होते तो इत्मीनान रहता कि निखिल को इन सबसे फर्क नहीं पड़ता. तुम्हें दिन में ही फोन किया था,ये जानते हुए कि नाइट शिफ्ट करके के बाद तुम थककर सो गए होगे लेकिन तुमने पहली ही बार में फोन उठा लिया था- हां नीलिमा बोलो,सब ठीक तो है न ?

नहीं निखिल,कुछ भी ठीक नहीं है. तुम मुझे चील-कौव्वे के बीच अकेला छोड़कर क्यों जाना चाहते हो और कितनी बड़ी बकवास की है तुमने मेरे साथ..खुद जाने का फैसला ले लिया और मुझे स्त्री विमर्श का ज्ञान देते रहे. तुमने गलत किया निखिल,एक्चुअली यू आर चिटर. यार, क्या सोचकर इतना घटिया मजाक किया मेरे साथ ? तुम चुपचाप सुनते रहे और आखिर में बस इतना कहा- काम ज्यादा है क्या ? श्मशान वाली मंदिर में आ सकती हो जहां हम लंच के बाद जाया करते हैं. मंदिर में तुम फिर ज्ञान देने लगे थे और कहा था- तुम्हारे लिए मीडिया छोड़ना, एक सपने से छूटना है, उससे हमेशा से दूर हो जाना है..याद करो न मीडिया की वो डमी शूट- कैमरामैन निखिल के साथ मैं नीलिमा, दिल्ली आजतक..

क्या तुम इसे यूं ही छोड़ दोगी ? नो, नेवर.. लेकिन मेरे लिए मीडिया छोड़ना,सपने का छूटना नहीं है, उसकी शिफ्टिंग भर है. मैं तुम्हारी तरह स्क्रीन पर पीटीसी न देकर भी अक्सर कहूंगा- कैमरापर्सन नीलिमा के साथ मैं निखिल, जिंदगीभर...है न नीलिमा..तुमने तब आगे कोई जवाब नहीं दिया था और जाड़े की मासूम दुपहरी में मुझसे लदकर सो गयी थी. पुजारी ने हमेशा की तरह यही समझा- ये मीडिया भी गजब की चीज है, अच्छे-भले मासूमों की नींद,चैन और रात छीन लेते हैं.
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 सच में, हसीना खाला की तरह मैं भी चाहे कितनी भी सड़ी गर्मी हो,सोते वक्त देह पर रजाई या कंबल डाले बिना सो नहीं सकता. दिनभर की थकान और मानसिक तनाव को जब खूंटी पर टांगने और आले पर रखने की कोशिश करता हूं तो उसकी एवज में शरीर के उपर इन रजाई और कंबल का बोझ साथ रख लेना जरुरी लगता है. इतना जरुरी कि शायद मैं उसके बिना दिनभर की थकान और आदिम तनाव को रात के सोते वक्त अपने से अलग कर ही नहीं सकता..

मैं यशोदा सिंह की "दस्तक" से पंक्ति दर पंक्ति गुजरता हूं और जिसे रविवार के दिन के उजाले में पढ़ना शुरु किया था और देर रात से शुरु होनेवाले सोमवार पर जाकर खत्म कर देता हूं. सॉरी, खत्म मैं नहीं करता बल्कि उसके आगे हसीना खाला की कहानी खत्म हो जाती है. शायद जिस मुकाम पर जाकर हसीना खाला सुकून पाती है, यशोदा नहीं चाहती कि वहां से उठाकर हसीना खाला को आगे भी चलने को कहे,जहमत उठाए.

 रविवार के इस पूरे दिन मैं पुरानी दिल्ली के उन इलाकों-ठिकानों में भटकता-अटकता रहता हूं जहां नजरअंदाज और नजर के बीच गहरा फासला है. हम जिस भीड़-चिल्ल-पों, हो-हल्ले के बीच फंसी-दुबकी संवेदना से महरुम रह जाते हैं, यशोदा हमें बार-बार खींचकर ले जाती है. रविवार के दिन दिनभर दरियागंज मार्केट में चक्कर काटते हुए, एयरलाइंस की चम्मचें, इय़र बड मीडिया और कल्चरल स्टडीज पर किताबें छांटते हुए जो थकान होती है और इन पैरों पर खीझ भी कि ओटोवाले को कहूं- जा,मेरे इन दोनों पैरों को डीयू पहुंचा आ, बाकी इनके भाई-बहन, हाथ-गला-मुंह-कान पीछे से आएंगे, कुछ-कुछ वैसा ही महसूस कर रहा हूं. नींद से आंखे बोझिल है लेकिन कीबोर्ड पर उंगलियां "मियां की दौड़ मस्जिद तक" के फलसफे के मानिंद एक ढर्रे में दौड़ रही है. अबकी बार आंखों को तकिए पर गिर जाने कह रहा हूं और उसके बाकी भाई-बहन बिस्तर पर पीछे से आएंगे.

 यशोदा की दस्तक में हसीना खाला पुरानी दिल्ली के एक-दूसरे से बिल्कुल कटे और निस्संग परिवारों के बीच अपने को टेलीफोन या बिजली की तार की तरह जोड़े रखती है जिसका एक के घर से गुजरने के बावजूद कोई गंभीर अर्थ नहीं है लेकिन उनका न गुजरना कई आगे वाले घरों के लिए गैरमौजूदगी. हम इसे पढ़ते हुए अपने शरीर को इसी तरह एक-दूसरे से अलग,नितांत महसूस करते हुए भी अनिवार्य रुप से जुड़ा पाते हैं और जिन कारणों और जरुरतों से जुड़ा है वो है हसीना खाला. मेरे डॉक्टर साथी और भइया ऐसी लाइनें पढ़कर क्रेक और मेंटल घोषित करने में दस मिनट भी नहीं लाएंगे शायद. लेकिन वेवजह के बीच वजह बनती हसीना खाला की तरह ही तो हम और हमारा समाज जिंदा है और जीता है.

 रात के इस सन्नाटे में तुरंत-तुरंत पढ़कर उठने पर भला किसमें यशोदा जैसा लिखने की होड़ न मचे लेकिन लेखन कायनात तो है नहीं कि बस दस मिनट की कीबोर्ड की किटिर-पिटिर से आ जाए. वक्त लगेगा, खूब सारा वक्त..और भी क्या गारंटी कि आ ही जाए.

 यकीनन हम हसीना खाला की तरह आज क्या कभी भी इत्मीनान नहीं हो सकते क्योंकि हमने अपनी आपाधापी जिंदगी के बीच से कतर-ब्योतकर कुछ हिस्सा लोगों के बीच बिखेरने के बजाय जीवन बीमा कंपनियों और म्युचुअल फंड की मुंह में ठूंस आए हैं. जिसे लेकर, देखकर हम दावा करते हुए उसकी तरह इत्मीनान हो लें कि- इसके भीतर एक टुकड़ा मैं हूं, मैं यानी हसीना खाला. बावजूद इसके पता नहीं इस दस्तक में ऐसा क्या है कि मैं पुरानी दिल्ली के उन्हीं इलाकों से गुजरते हुए( पन्ने दर पन्ने) रश्क करने लग जाता हूं जहां पांच मिनट डीटीसी की बस या ऑटो रुक जाए तो इरिटेशन होती है. लेकिन अब है कि मुझे अपनी सोसायटी की चौड़ी सड़के वाहियात लगने लगी है,मैं अपने बिस्तर पर बिछी झकझक बेडसीट उठाकर मिट्टी में सानकर गंदला करके बिछाना चाहता हूं, मैं हर चीजों में रस्सी-पेंच-कील की जोड़ चाहता हूं और तो और अपने भीतर हसीना खाला को खोजने की हास्यास्पद कोशिश करता हूं और खुश होता हूं-
 हां, मैं भी सड़ी गर्मी में कंबल ओढ़कर सोता हूं, मैं भी औरतों के बीच घुसकर बतियाता हूं और मुझे भी आलमारियों में कपड़े सहेजकर रखना, फर्श को आइने की तरह चमकाना अच्छा लगता है..जरुरत पड़ने पर काज-बटन भी लगाना और हां दाल बघारते वक्त पतीले में जो झुन-झुन की आवाज आती है तो लगता हमारी दाल नहीं घुघरुवाली पायल बनकर तैयार हो गई,मैं खुश हो जाता हूं.

 प्रभात सर, आपका बहुत-बहुत शुक्रिया. स्नेह, लाड़ और थोड़ी बहुत उम्मीद से ये किताब मुझे भेंट करने के लिए. आप कहेंगे कि मैं प्रतिक्रिया देने के बजाय यशोदा से मुकाबला करते हुए प्रतिफिक्शन लिखने बैठ गया और उदय प्रकाश के सान्निध्य का दूसरा दावेदार बनने के लिए मचल रहा हूं. लेकिन यकीन मानिए, फिलहाल मैं इस पर किसी भी तरह की आलोचनात्मक टिप्पणी नहीं कर सकता. इसके लिए फिर कभी दिन के उजाले में तैयारी होगी. फिलहाल तो हम इस खुमारी में पड़कर हसीना खाला की तरह वही टेडीवियर सी मुलायम भइया की दी हुई रजाई ओढ़कर सोने की कोशिश/ नाटक कर सकते हैं.( जाहिर है इस मुलायम/कॉटन/फाइन मटीरियल की कमीनी आदत को कोसते हुए) कानों में हसीना खाला के वो वाक्य लिए- पति-पत्नी( इसे मैं थोड़ी अल्टर करके ब्ऑयफ्रैंड और गर्लफ्रैंड कर दे रहा हूं बस) के बीच से हक शब्द हटा दें तो फिर बचता क्या है ? सुबह होते ही पता नहीं ये 'हक' शब्द बिस्तर पर पड़ा मिले या फिर निर्वात में गुम हो जाए. 

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आपको सोचकर कभी हैरानी नहीं होती कि जो हिन्दी समाज अपने स्वभाव और चरित्र से उत्सवधर्मी रहा है, हिन्दी दिवस के मौके पर इतना मातमी क्यों हो जाता है ? सालभर तक हिन्दी की रोटी/ बोटी खाने-चूसनेवाले मूर्धन्य साहित्यकार हिन्दी दिवस के मौके पर सभागार में घुसते ही ऐसी शक्ल बना लेते हैं जैसे निगम बोध घाट पर किसी कालजयी का दाह-संस्कार करके लौटे हैं. उनके माथे पर चिंता की रेखाएं कुछ इस तरह खींची रहती है कि जैसे किसी बच्चे ने बहुत ही बर्बर तरीके से अपनी मां की आइलाइनर बर्बर तरीके से चला दी हो..हाय हमारी हिन्दी मर रही है, कुछ सालों की मेहमान है, यही हाल रहा तो लोग खोजते नहीं मिलेंगे कि इसकी संतानें कहां गई ?

 आपको कभी साहित्यकारों के इस रवैये पर खुन्नस नहीं आती. साहित्यकार तो छोड़िए हिन्दी विभाग के उजाड़ मल्टीप्लेक्स में रहते हुए भी हजारों-लाखों में तनख्वाह पानेवाले उन हिन्दी अफसरशाहों के प्रति जो या तो विभागाध्यक्ष है, या तो डॉक्टर साहेब है, या तो टीचर इन्चार्ज है, सीनियर मोस्ट है, सुपरवाइजर है, गाइड है या कमेटी का अध्यक्ष है. कोरा हिन्दी का प्राध्यापक नहीं है जिसका काम हिन्दी का प्रसार करना, विस्तार देना है. प्रूफ रीडिंग,टाइपिंग, अनुवाद में दिन-रात सिर कूटनेवाले हिन्दी की दुर्दशा पर किलसते हैं तो बात फिर भी समझ आती है लेकिन जो इसी हिन्दी से दुनिया के वो तमाम ऐशोआराम की चीजें जुटा ले रहे हैं जिसके लिए अगर वीपीओ और मल्टीनेशनल कंपनियों में काम करें तो सतरह से अठारह घंटे तक इस कदर काम करनी पड़े कि हिन्दी क्या अपनी ही दशा-दुर्दशा पर रोने-बिलखने का समय न मिल पाए. आपको नहीं लगता कि हिन्दी का बाजार तभी तक है, जब तक इसमे रोने-कलपने,चीखने-चिल्लाने,आंसू बहाने,हर बदलाव को नकारने और मानव विरोधी करार देने की गुंजाईश है. हिन्दी में कुछ लिखा-पढ़ा जाता रहे इसके लिए जरुरी है कि देश में बददस्तूर गरीबी,लाचारी,भूखमरी बनी रहे. जब समाज से कच्चा माल ही नहीं रहेगा जिससे कि हमारी भावनाएं जागृत होती है, हमारे भीतर की जमी हुई संवेदना पिघलती है तो फिर लिखना-बोलना कैसे संभव हो सकेगा ? ऐसे में ये सबकुछ हिन्दी समाज के लिए समस्या कम, रचना के उपादान ज्यादा हैं.

आप किसी भी हिन्दी के सेमिनार में चले जाइए, बातचीत की शुरुआत ही बाजार के विरोध से होती है. समस्या के केन्द्र में एक ऐसा बाजार होता है, जिसे कि उखाड़ फेंकने के साथ ही सारी चीजें अपने आप दुरुस्त हो जाएगी. इस बाजार ने ही एक ही साथ हिन्दी, साहित्य और साहित्यकारों का जीना हराम कर दिया है और तिल-तिलकर मारता जा रहा है. अगर बाजार इतना ही खराब है, गैरमानवीय है तो हिन्दी समाज ने उससे विलग होने के लिए किस स्तर के प्रयत्न किए हैं ? जहां-तहां बाजार से प्रभावित हुए बिना अगर सादगी को थोड़े वक्त के लिए ढोया भी है तो वो वैचारिक समझ का हिस्सा है या फिर अभाव का क्रंदन, समझना मुश्किल नहीं होता. अगर ऐसा नहीं है तो फिर प्रत्येक हिन्दीसेवी और हिन्दीप्रेमी का साल-दर-साल के भीतर उसी तरह से मेकओवर कैसे हो जाता है जैसे कि मार्केटिंग और मैनेजमेंट में तरक्की पानेवाले कर्मचारी का. इस हिन्दी प्रेमी के लिए भी आखिर तरक्की औऱ विकास का पैमाना भी वही सबकुछ क्यों है जो किसी दूसरे धंधे में लगे लोगों के लिए होते हैं और जिसका नियामक बाजार है. बाजार की गोद में गिरे बिना न तो हुलिए में बदलाव संभव हो पाता है और न ही समृद्ध कहलाने के स्टीगर उन पर लग पाते हैं.

हम ये बिल्कुल भी नहीं कहते कि जो हिन्दी के काम में किसी न किसी रुप में लगा है, वो अतिरिक्त नैतिकता के बीच दबे-फंसे रहकर फटेहाल बना रहे. दुनिया की उन सारी चीजों का परित्याग कर दे जिसका संबंध भौतिक सुख से है. एक तो ऐसा करने की न तो जरुरत है और न ही चाहकर कर सकता है. सेमिनारों और कक्षाओं में भले ही बाजार के विरोध में घुट्टी पिलायी जाती रही हो लेकिन आसपास का जो परिवेश बनता है, जिस माहौल में बाजार के विरोध में बतायी-समझायी जाती है, उसकी अंडरटोन भी यही होती है कि बाजार के विरोध में भी आप तभी बात कर सकते हो जब आपने बाजार को साध लिया है या फिर बाजार ने आपको अपनाया लिया है. बाजारविरोधी बयान भी वही बुद्धिजीवी और साहित्यकार जारी करते हैं जो बाजार के दुलरुआ हैं.

यहां बाजार का मतलब लक्स,निरमा, कामसूत्र,हन्ड्रेड पायपर्स और स्कोडा की खरीद-बिक्री होनेवाली जगह भर से नहीं है. उन सभाओं,संगोष्ठियों और कक्षाओं से भी है बल्कि ज्यादा उसी से है जहां विचारों की दुकानें सजती है. जहां इन सबके विरोध में बोलना एक सांस्कृतिक उत्पाद भर है जिसकी गुणवत्ता ग्रहण करने या जीवन में शामिल करने से नहीं "परफार्म " करने भर से है. ऐसे भाषण और व्याख्यायान सहित कोई एक ऐसी चीज होती है जिसका संबंध बाजार से अपनी असहमति जताते हुए उससे अलग खड़े होकर जीने से होती है ? अव्वल तो जब हम सीधे बाजार का विरोध करते हैं तो जरुरत और हावी होने के लिए उपभोग करने के फर्क को खत्म कर देते हैं और दूसरा कि हम इतिहास की व्यावहारिक सच्चाई से काटकर एक यूटोपिया रचने की कोशिश में लग जाते हैं और ये सबकुछ जाहिर है परफार्म करने के स्तर पर ही. कुछ समझदार से दिखनेवाले साहित्यकार/आलोचक इसके लिए बाजार के साथ वाद जोड़ देते हैं और सुधारकर कहते हैं, हम बाजार नहीं बाजारवाद का विरोध करते हैं. ये अलग बात है कि ऐसा करने से भी हिन्दी समाज के बीच बन रहे परिवेश में कुछ खास फर्क नहीं पड़ता.

बाजार को एक हअुआ की तरह खड़ा करके हिन्दी और साहित्य की पूरी बातचीत को उसमें डायल्यूट कर देना फिर भी बहुत ही आसान तरीका है जबकि सुनने और उससे गुजरनेवाला शख्स ये समझ रहा होता है कि ऐसे सेमिनारों और लेखों का जीवन के धरातल पर कोई गंभीर अर्थ नहीं रह जाता. शायद यही कारण है कि बीए प्रथम वर्ष के हिन्दी छात्र तक को ये समझने में मुश्किल नहीं होती कि उसे साहित्य पढ़कर करना क्या है ? हिन्दी विभाग के जिन खादानों में वो सात साल-आठ साल चीजों को कोड़-कोड़कर शोध प्रपत्र और लेख लिखता है, वो जानता है कि इसका बाजार कहां है और क्या कैसे करना है ? ऐसे में हिन्दी भाषा में लिखी गई सामग्री का बड़ा हिस्सा विश्वसनीय नहीं रह जाता. बड़ी सामग्री जिनमे से कि महान और कालजयी जैसे शब्दों से अलंकृत भी है, उसकी कोई साख नहीं रह जाती. हिन्दी का रोना अगर आप रोते हैं तो भाषाई स्तर पर उसके भ्रष्ट और खत्म होने का रोने के बजाय इस बात पर रोइए कि भाषाई शुद्धता और व्याकरणिक प्रांजलता के बावजूद समाज के बीच उसकी पकड़ क्यों नहीं है ? मेरे ख्याल से इसमें साख का सवाल अनिवार्य रुप से जुड़ा है. साहित्यकारों की छोटी-छोटी क्षुद्रता, देशभर में सरकारी,अर्धसरकारी हिन्दी अधिकारियों के धत्तकर्मों ने इस हिन्दी को जितना कमजोर और लिजलिजा किया है, उतना व्याकरणिक दोष से अटे पड़े वाक्यों ने नहीं और न ही सतही और स्तरहीन लेखन ने.

दूसरा कि हिन्दी का एक बड़ा कोना है जहां सीधे-सीधे बाजार नहीं है लेकिन वहां भी कुछ कमाल का नहीं हो रहा है ? साहित्य अकादमी, हिन्दी अकादमी, राज्य स्तर की अकादमियां, हिन्दी संरक्षण के लिए देशभर में फैले सैंकड़ों संस्थान क्या सीधे-सीधे बाजार की मार के शिकार हैं. साहित्य अकादमी क्या उन प्रकाशकों और वितरकों के अधीन है जो बाजार में किताब पहुंचाएंगे तो उनकी किताबें बिकेंगी, साहित्यकारों के प्रति माहौल बनेगा और नहीं तो सड़ता रह जाएगा. ये सब एक जमाने में मजबूत संस्थाएं रही थी और सिर्फ प्रकाशन के स्तर पर नहीं, वितरण और लोकप्रियता के स्तर पर भी. इसे कुछ मठाधीशों ने जान-बूझकर अपने तात्कालिक सुख और स्वार्थ के लिए खत्म किया. जब तक संभावना रही और अब भी थोड़ी बची है, लूटते हैं और जब बहुत अधिक गुंजाईश नहीं बचती है तो फिर बाजार का हअुआ खड़ी कर देते हैं. साहित्य अकादमी और हिन्दी अकादमी के पास करोड़ों रुपये की बजट होती है जिससे कि हिन्दी को भाषा के स्तर पर ही नहीं बल्कि उसके जरिए सामाजिक प्रक्रिया को हिन्दी सहित देश की दूसरी भाषाओं के जरिए व्यक्त किया जा सके लेकिन क्या ऐसा हो पाता है ? निजी प्रकाशकों सहित बाजार के दूसरे अवयवों का दवाब होता है और ये इन संस्थानों को पटकनी देने की कोशिश में लगे रहते हैं, ठीक बात है..लेकिन क्या कभी ऐसी संस्थाएं पलटकर अपने को तैयार कर पाती है ? सारी कवायदें शाल और कुछ लाख रुपये सहित अदना कांसे पीतल,तांबे के मिलनेवाले पुरस्कारों के पीछे की राजनीति में उलझकर रह जाती है. वही युवा रचनाकार बेहतर है जिनमें चेले-चमचे-चपाटी बनने के नैसर्गिक गुण मौजूद हैं.

आप देशभर के किसी कॉलेज में चले जाइए और हिन्दी विभाग के बारे में बात कीजिए. संभव है कि अब यहां लोग मल्टी-डिसीप्लीन, विमर्श और दुनिया-जहान की बातें करने लगे हैं जिससे कि हिन्दी मतलब सिर्फ कविता-कहानी-हवा-हवा-धुआं-धुआं है का मुल्लमा छूट रहा है लेकिन इसके साथ ही इसकी जो मजबूत छवि बन रही है वो ये कि यहां सिर्फ और सिर्फ चेला-चमचा संस्कृति है, बीए-एम के तक अभिव्यक्ति की आजादी की घुट्टी पिलायी जाती है और फिर उस घुट्टी को दास मानसिकता में बदल जाने के लिए घसीटा जाता है. आप हिन्दी पर बात करते हुए इससे संबद्ध संस्थानों,विभागों और लाभ के पदों को छोड़कर बात कर ही नहीं सकते क्योंकि हर कोई भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के योगदान और मुक्तिबोध की सभ्यता समीक्षा के जरिए हिन्दी को नहीं जा रहा होता है. वो हमारे-आपके जैसे हिन्दी सपूतों और वयोवृद्ध महंतों के जरिए ही राय कायम करता है.

आप कुछ मत कीजिए, सिर्फ एक सूची बनाइए कि सालभर में हिन्दी के प्रसार के नाम पर सरकारी, अर्धसरकारी और दूसरे संगठनों के जरिए कितने करोड़ रुपये खर्च किए जाते हैं और उन खर्चे से क्या फैक्ट फाइंडिंग रिपोर्ट आती है. आपको अंदाजा लग जाएगा कि ये चंद लोगों की ऐशगाह बनकर रह जाता है. ऐसे चंद लोगों के लिए हिन्दी एक भाषा नहीं ऐशगाह है जो 364 दिनों तक इसे नोचने-खसोटने के काम आते हैं और एक दिन पूरी दुनिया को उघाड़कर दिखाने के कि देखो इस भाषा की क्या हालत हुई है ? मेरे ख्याल से कम से कम शर्म न सही नहीं लेकिन इतनी अक्लमंदी तो दिखानी ही चाहिए कि अपने ही हाथों से नोची-खसोटी गई हिन्दी के घाव "हिन्दी दिवस" के मौके पर दिखाने बंद कर दें.कुछ न हो तो इस दिन सभागार में घुसने से पहले एक कफन लेकर पहुंचें जिसकी कीमत सम्मान में मिले शॉल से पन्द्रह से बीस गुणा कम होते हैं. आखिर हमें भी तो बुरा लगता है न कि जिस हिन्दी को हमने मुक्तिबोध,नागार्जुन,रेणु को ध्यान में रखकर पढ़-लिख रहे हैं, उसकी अर्थी इतने सादे ढंग से क्यों सजायी जा रही है ?
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जहां तक मुझे याद है असीम त्रिवेदी के जिन कार्टूनों को लेकर विवाद हो रहा है, उसी मिजाज के कार्टून्स की प्रदर्शनी उन्होंने जंतर-मंतर पर चल रहे अन्ना आंदोलन के दौरान लगायी थी. कुछ कार्टून्स उन्होंने प्रदर्शनी के तौर पर लगाए थे और उनकी पोस्टकार्ड बनाकर लोगों को बांट रहे थे. इसी क्रम में एक कार्टून उन्होंने मुझे भी दिया था..और पिछले दिनों के एक कार्यक्रम को लेकर शिकायत भी की थी आपलोगों ने हमें बहुत ही गलत ढंग से ट्रीट किया. हमदोनों की बातचीत बीच-बीच में थोड़ी तल्ख हो जा रही थी. लिहाजा अरविंद गौड़ ने उनकी तरफ से कहा- विनीत, ये बहुत ही भावनात्मक जुड़ाव के साथ काम कर रहे हैं, बहुत ही संवेदनशील तरीके से देश और समाज के मुद्दे को हमारे सामने रख रहे हैं. ऐसे में लोगों की तरफ से पर्याप्त प्रोत्साहन नहीं मिलता तो थोड़ी तकलीफ होती है. फिर मेरे संबंध में उन्होंने असीम से भी यही बातें दोहरायी और कहा- आपदोनों एक ही तरह से काम कर रहे हैं इसलिए मतभेद होने के बावजूद कभी मनभेद न रखें. धीरे-धीरे माहौल हल्का होता चला गया और बात चाय पीने-पिलाने पर आ गयी. असीम ने उस दिन( 27 जुलाई) चाय क्या पिलाई, बारहदड़ी का हुक्का या बीरबल की खिचड़ी थी, करीब सवा घंटे लग गए एक कप चाय आने और पीने-पिलाने में. खैर, इस बीच मैं उनके बनाए सारे कार्टून्स देखता रहा और छोटी सी इस प्रदर्शनी को लेकर लोगों के बीच किस तरह की प्रतिक्रिया है, जानने-समझने की कोशिश करने लगा.

मुझे अच्छा लग रहा था असीम के साथ के लोग सादा कागज लोगों को मुहैया करा रहे थे और चार-पांच साल के बच्चे तक उन पर अपने तरीके से ड्राइंग कर रहे थे. उन्हीं में से कोई भगत सिंह स्केच कर रहा था तो कोई अन्ना की टोपी. मैंने सारे कार्टून्स को करीब से देखे. उन सारे कार्टून्स में वही सारी बातें थी जो मंच से अन्ना आंदोलन के कार्यकर्ता और शामिल लोग कह रहे थे. सरकार को उसी तरह से पोट्रे किया गया था जिस तरह से अन्ना, अरविंद केजरीवाल सहित कुमार विश्वास और बाकी लोग कहते आए हैं. अगर सरकार की छवि खराब करने और उसे वेवजह बदनाम करने की नीयत से असीम ने कार्टून बनाए थे तो उन्हें 25-26 जुलाई को ही गिरफ्तार कर लेना चाहिए था. उनकी गिरफ्तारी अब जाकर हुई है तो इसके दो मायने हैं. एक तो ये कि बाकी मामले की तरह ही इस मामले में भी सरकार की सुस्ती बरकरार रही और उसे बहुत बाद में इन कार्टूनों पर नजर गई और दूसरा कि अगर उनकी गिरफ्तारी अब जाकर हुई है और खासकर उन दो कार्टूनों को लेकर( एक जिसमें कि अशोक स्तंभ के शेर की जगह भेड़िए को दिखाया गया है और दूसरा कि संसद की जगह कमोड दिखाया गया है) तो इस पर हमें थोड़ा ठहरकर सोचना चाहिए. ये सिर्फ और सिर्फ मौजूदा सरकार का विरोध नहीं है बल्कि उस संसदीय व्यवस्था के प्रति हिकारत का भाव है जिसके भीतर लोकतंत्र के होने के दावे किए जाते हैं और जो संवैधानिक प्रावधान के अन्तर्गत है. इसका सीधा मतलब है कि असीम इस व्यवस्था को उसी तरह से देख रहे हैं जिस तरह से कि हिन्दी साहित्य में नई कविता के कवियों ने आजाद भारत को देखा था और मोहभंग की स्थिति में लिखा था- ये आजादी झूठी है, आधी पीढ़ी भूखी है.

आजादी जिसे कि एक मूल्य के रुप में प्रस्तावित किया गया और उसे संवैधानिक स्तर पर सुनिश्चित किए जाने के बावजूद अगर उसके न होने पर रचनाकार इसके प्रतिरोध में कविताएं लिखते आए हैं तो फिर असीम को इस बात की छूट मिलनी चाहिए कि वो जिन संस्थाओं के भीतर आजादी और लोकतांत्रिक मू्ल्यों को बचाए रखने की बात की जाती है, उसके विफल होने की स्थिति में अपनी असहमति जताते हुए कार्टून बनाएं. जो लोग अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को परम सत्य मानते हैं और होनी भी चाहिए, उनके लिहाज से असीम त्रिवेदी के ये कार्टून किसी भी रुप में गलत नहीं है. लेकिन सवाल है कि क्या आजादी,लोकतंत्र के क्षरित होने की स्थिति में और इनसे जुड़ी संस्थाओं के विफल होने की स्थिति में एक तरह का रवैया अपनाया जा सकता है और उसी मिजाज में उसकी अभिव्यक्ति की जानी चाहिए ?

साहित्य और अवधारणाओं के बीच जीनेवाले थोड़े ही सही लेकिन एक तबका राष्ट्र जैसी किसी भी तरह की अवधारणा को नहीं मानता, नेशन स्टेट यानी राष्ट्र राज्य की अवधारणा को पूरी तरह खारिज करता है और ये प्रस्तावित करता है कि भौगोलिक रुप से अगर इसे मान भी लें तो सामाजिक-सांस्कृतिक रुप से इसे इस तरह सीकचे में बांध नहीं सकते. लेकिन क्या वे इसी अंदाज में संवैधानिक प्रावधानों को खारिज कर सकते हैं ? असीम के कार्टून और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का संबंध इसी से जुड़ा है. मेरे ख्याल से असीम के कार्टून्स में जो बात मैंने खासतौर पर गौर किया, वो ये कि जिस व्यवस्था के तहत ये देश चल रहा है, वो सही नहीं है. उन कार्टूनों में उन्होंने सरकार की जो आलोचना की वो तो अपनी जगह पर सही है लेकिन जिस तरह से राज्य के अंगों को दिखाया-बताया, सरकार के बदल जाने पर भी उनके प्रति असहमति बनी रहती. ये सही है कि संसद में जिस तरह के नजारे हमें आए दिन देखने को मिलते हैं, उसे देखते हुए असीम के कार्टून्स से अलग कोई छवि हमारे जेहन में नहीं उभरते. लेकिन उसे उसी रुप में व्यक्त कर देना उन प्रावधानों के अनुकूल है जो किसी भी संप्रभु राज्य के बने रहने के लिए जरुरी हैं ? अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता वाले तर्क के लिहाज से सोचें तो कुछ भी लिखने-पढ़ने-बोलने और रचने की आजादी होनी चाहिए लेकिन उसी ढांचे को गिरा देने की आजादी क्यों जिससे ये सुनिश्चित होता है कि हमारी आजादी बनी-बची रहने की संभावना है. क्या संसद स्थायी रुप से कमोड है, सौ फीसद कचरा है या फिर अशोक स्तंभ के शेर भेड़िए हैं ? 

इन सवालों पर मैं गौर से सोचना शुरु करता हूं तो अरविंद गौड़ की वो बात फिर से याद आती है कि- असीम जैसे लोग बहुत ही भावनात्मक ढंग से काम करते हैं और अगर लोग उन्हें इसी रुप में नहीं लेते तो थोड़ी तकलीफ होती है. मैं इसे थोड़ा पलटकर-बदलकर कहूं तो शायद गलत नहीं होगा. असीम जिस वक्त संसद को कमोड और अशोक स्तंभ के शेर के मुख को भेड़िए के मुख की शक्ल दे रहे थे, मुझे नहीं लगता कि उनके भीतर एक बार भी ये ख्याल नहीं आया होगा कि सार्वजनिक होने पर हंगामा मच जाएगा ? हम जब चैनलों पर,मीडिया पर पोस्टें लिखते हैं, लेख लिखते हैं तो पूरी तरह तो नहीं लेकिन मोटे तौर पर अंदाजा लग जाता है कि इसे लेकर क्या होगा ? कायदे से इसी साल के जुलाई महीने में जिन कार्टूनों की प्रदर्शनी उन्होंने लगायी थी, हंगामा मच जाना चाहिए था लेकिन उस वक्त ऐसा कुछ नहीं हुआ. इसकी एक वजह तो ये हो सकती है कि इस प्रदर्शनी को अलग से देखने के बजाय अन्ना आंदोलन का ही हिस्सा मान लिया गया और दूसरा कि इसके पहले भी "कार्टून अगेन्सट करप्शन" पर पाबंदी लगने औऱ चर्चा में आने के बाद मामला आया-गया हो गया तो लगा अब इसे तूल देने की जरुरत नहीं है. इधर असीम कार्टून के जरिए जो संदेश लोगों तक प्रसारित करना चाह रहे थे, वो बहुत ही प्रभावशाली ढंग से प्रसारित हो रहा था. करीब डेढ़ घंटे तक रुकने पर मैंने खुद भी देखा कि लोग चारों तरफ से उन कार्टून्स को घेरे हुए थे और पूछताछ कर रहे थे. असीम सहित आलोक दीक्षित और उनके साथी सबों को बहुत ही प्यार से सब बता रहे थे. मतलब कार्टून के जरिए वो जो कुछ भी संदेश देना चाह रहे थे, वो अपने स्तर से जा रहा था. लेकिन

मीडिया में इन कार्टूनों की चर्चा ठीक उसी तरह से नहीं हो रही थी, जिस तरह से पाबंदी लगने के दौरान हुई थी. ऐसे में संदेश प्रसारित होने के बावजूद पब्लिसिटी के स्तर पर इन कार्टूनों को असीम की निगाह में शायद कोई असर नहीं रहा हो. लिहाजा, अतिरेक( इक्सट्रीम) में जाने के अलावे असीम ने कोई दूसरा रास्ता नहीं देखा. अरविंद गौड़ जिसे उसी भाव से न लिए जाने पर तकलीफ होने की बात कर रहे थे, वो दरअसल नोटिस न लिए जाने की बैचानी में विस्तार होता दिखाई देता है और चर्चा में आए ये दोनों कार्टून्स कहीं न कहीं इसी की परिणति है.

सवाल है कि असीम या कोई भी दूसरे कार्टूनिस्ट जब कार्टून बनाते हैं, क्या इस बात से परिचित नहीं होते कि वो इसे किसी नैसर्गिक प्रतिभा की अभिव्यक्ति के तहत नहीं बना रहे हैं. जो कुछ भी बना रहे हैं, उसका सामाजिक-सांस्कृतिक और संवैधानिक संदर्भ है. इसकी मल्टी रीडिंग होगी और इस बात पर सोचना होगा कि ये कहीं संवैधानिक प्रावधानों के खिलाफ तो नहीं चला जाता ? ये बात बहुत थोथी लग सकती है और निरा आदर्श का पाठ लग सकता है कि अभिव्यक्ति की आजादी के तर्क के पहले इस एंगिल से सोचा जाना चाहिए लेकिन अगर सरकार और न्यायपालिका प्रावधानों का खतरा जैसे ढाल बनाकर अक्सर ऐसे मामलों का निपटारा करती है तो फिर इन कार्टूनों के समर्थन में बात करना भी उससे अलग नहीं है न.

लेकिन मुझे तो हैरानी हो रही है कि जिस असीम के कार्टून बनाए जाने पर एक ही साथ लोकतंत्र से लेकर संसद तक के भीतर की कई चीजें टूटती और चटकती नजर आती है( फैसले लिए जाने के तर्क पर गौर करें तो) तो फिर ये जो सांसद इसके समर्थन में खड़े हो रहे हैं, विपक्षी पार्टियां समर्थन कर रही है, उससे संविधान और संसद के किन प्रावधानों का बचाव हो रहा है ? अगर सरकार इस पूरे मामले को राजनीतिक रंग दे रही है तो विपक्ष सहित बारीक दिमाग रखनेवाला बुद्धिजीवी समाज इसे अलग कोई दूसरा रंग कहां चढ़ा रहा है ? आखिर वो भी तो संविधान को अपनी दुर्गा और सरस्वती( एम एफ हुसैन के संदर्भ में रवैये पर गौर करें तो) से नीचे ही रख रहा है. वो भी तो भक्त फिर भी हो सकता है( राजनीति भर के लिए ही सही) लेकिन नागरिक नहीं.
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मीडिया को लोकतंत्र का चौथा खंभा माननेवाले और उसके प्रति उसी भाव से आस्था रखनेवाले हमारे मीडिया श्रद्धालु पाठकों को ये सुनकर शायद झटका लगे कि वो देश के जिन तीन बड़े और लोकप्रिय अखबार को खबर और उसकी विश्सनीयता के लिए पढ़ते आए हैं वे कोयले के धंधे में भी शामिल हैं. उसी कोयले के धंधे में जिसके भीतर करोड़ों रुपये के घोटाले होने की बात सामने आने पर पिछले दस दिनों से संसद में हंगामा मचा हुआ है. सरकार से लगातार इस बात की मांग की जा रही है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के इस्तीफा दिए बगैर संसद में किसी भी तरह की कार्यवाही संभव नहीं है. मीडिया इसे रोज प्राइम टाइम के तमाशे की शक्ल में पेश करता आ रहा है और एक तरह से कहें तो ऐसा माहौल भी बना रहा है कि सचमुच इस्तीफे के अलावे कोई दूसरा रास्ता नहीं है. लेकिन

आज प्रभात खबर, दैनिक भास्कर और लोकमत अखबार के संबंध में जो खबर आयी है, उससे गुजरने के बाद सबसे पहले और बुनियादी सवाल मन में आ रहा है कि क्या समाचार चैनल जो पिछले पन्द्रह दिनों से कोलगेट( कैग की रिपोर्ट के बाद कोयला घोटाले से संबंधित) की खबर को डेली रुटीन का हिस्सा मानकर प्राइम टाइम में इससे जुड़ी खबरें दिखा रहा है, बहसें हो रही है, आज इन अखबारों के कोयला धंधे पर बात करेगा ? क्या जिस तरह से वो सरकार पर इस्तीफे की मांग को लेकर दबाव बनाने से लेकर विपक्षी पार्टियों की राजनीति के लिए स्पेस तैयार कर रहा है, आज इन अखबारों की ऐसे दलाली के धंधे के पीछे की सक्रियता को हम दर्शकों के सामने रखेगा ? जिस नैतिकता के आधार पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से इस्तीफे की मांग की जा रही है, उसी आधार पर गर्दन की नसें फुलाकर टीवी चैनलों से लेकर सेमिनारों में मीडिया की नैतिकता पर बात करनेवाले  इन अखबारों के संपादक हरिवंश( प्रभात खबर), लोकमत( कुमार केतकर) और श्रवण गर्ग( भूतपूर्व लेकिन आबंटन इनके कार्यकाल में ही हुआ होगा) से इस्तीफे और पत्रकारिता के पेशे से अलग हो जाने की मांग की जा सकती है ? चैनल इस बात पर बहस करा सकता है कि ऐसे संपादकों को अपने पद पर बने रहने का क्या अधिकार है जब उसका अखबार मुनाफे के लिए दलाली और ठेकेदारी के धंधे में लगा हुआ है ?

खबर है कि कोयला ब्लॉक की ठेकेदारी और मुनाफे में  इन तीनों अखबारों की मदर कंपनी/सहयोगी कंपनियां शामिल है. दैनिक भास्कर की कंपनी डीवी पावर लिमिटेड ने छत्तीसगढ़ में कोयले के ब्लॉक लिए वहीं प्रभात खबर की अपनी कंपनी उषा मार्टिन लिमिटेड ने झारखंड में कोयले जैसे मुनाफे के धंधे में हाथ डाला. इधर मराठी अखबार लोकमत की जेएलडी यावतमल्ल लिमिटेड ने छत्तीसगढ़ में कोयले के धंधे में अपनी हिस्सेदारी सुनिश्चित की. मतलब साफ है कि ये कंपनियां कोयले के जरिए बिजली और दूसरे उर्जा निर्माण, स्टील और दूसरे धंधे में अपनी दखल मजबूत करना चाहती है. 

इन शूरवीर संपादकों का ये तर्क शायद कुछ लोगों को प्रभावित करे कि हमारा काम अखबार के कामकाज को देखना है न कि उसकी मदर कंपनी कौन-कौन से और क्या-क्या धंधे में लगी है, उस पर नजर रखना. लेकिन फिर सवाल ये भी उठते हैं कि जब आपको इतना भी नहीं पता तो फिर अखबार को आंदोलन और डंके की चोट पर अपनी बात कहने का दावा कैसे कर सकते हैं ? दूसरा कि अगर आपको ये सब पता है बावजूद इसके चुप्पी साधे हैं तो इसका साफ मतलब है कि आपके नाक के नीचे से दलाली का साम्राज्य विकसित हो रहा है और आप वेवजह मीडिया की नैतिकता की कंठी-माला लिए घूम रहे हैं ? एक तीसरी बात ये भी हो सकती है कि संपादक दूसरे पदों पर काम करनेवाले मीडियाकर्मियों की तरह ही एक कर्मचारी है और वह अपने संस्थान के खिलाफ नहीं जा सकता. बिल्कुल सही बात है और पद को बनाए रखने के लिए व्यावहारिक भी. लेकिन कोई इन संपादकों से पूछे तो सही कि तब आप किस नैतिक साहस के तहत मीडिया सेमिनारों और टेलीविजन पर होनेवाली मीडिया नैतिकता की बहस में गर्दन की नसें फुला-फुलाकर न केवल सरोकारी पत्रकारिता करने का दावा करते हैं बल्कि दागदार मीडियाकर्मियों पर फैसला सुनाने का काम करते हैं. अगर आपने 2जी स्कैम मामले में बरखा दत्त से लेकर वीर सांघवी के घेरे में आने और उनकी साख में बट्टा लग जाने के बाद होनेवाली टेलीविजन बहसों को देखा होगा तो लोकमत के संपादक कुमार केतकर और दैनिक भास्कर के तत्कालीन संपादक श्रवण गर्ग छाए रहे. श्रवण गर्ग ने तो आगे जस्टिस काटजू के बयान पर यहां तक कहा था कि तो फिर हम छोड़ देते हैं ये काम, सरकार और जस्टिस काटजू ही मीडिया चलाएं, दर्जनों चैनल चलाएं.

इससे ठीक पहले साल 2007 में हुए पेड न्यूज मामले में प्रभात खबर के प्रधान संपादक हरिवंश मीडिया के मसीहा बनकर अखबारों और चैनलों पर छाए रहे. ये अलग बात है कि पेड न्यूज मामले में प्रभात खबर का भी नाम आ चुका है. इसके बाद इसी साल मार्च- अप्रैल महीने में निर्मल बाबा धोखाधड़ी मामले में हरिवंश तमाम चैनलों पर पाखंड विनाशक संपादक-पत्रकार की हैसियत से छाए रहे. इन अखबारों से जुड़े इन तीनों संपादकों ने अपनी छवि इस तरह से निर्मित करने की कोशिश की है कि मीडिया मंडी में तमाम तरह की उठापटक और बिकवाली होती रहने के बावजूद इनका दामन न केवल बिल्कुल साफ-सुथरा है बल्कि दूसरे के दामन दागदार होने पर फैसला सुनाने का महान काम भी इन्हीं का है.

सवाल ये नहीं है कि इस खबर के आते ही हम अखबार का सार्वजनिक विरोध करने के बजाय इनसे जुड़े संपादकों/ मीडियाकर्मियों पर पिल पड़ें. सवाल है कि इनके संस्थान जब तमाम तरह के उल्टे-सीधे धंधे जिसका कि एकमात्र ध्येय धन की उगाही है में सक्रिय हैं तो फिर इनके भीतर ये नैतिक साहस कहां से बचा रह जाता है कि वो दूसरे मीडियाकर्मियों और संस्थानों पर फैसले सुनाने का काम करें. इसका साफ मतलब है कि ऐसा वे अपने ही संस्थान के धंधे को मजबूत करने के लिए करते हैं. दूसरा कि ये कैसे न समझा जाए कि वे सरकार, राज्य, प्रशासनिक अधिकारियों और संगठन के जिन फैसले का विरोध करते हैं, उनके पीछे अपने संस्थान को लाभ पहुंचाना नहीं रहता है और संपादक के पद पर एक तरह से मालिक के जमूरे बनकर काम करते हैं. नमूने के तौर पर सामाजिक प्रतिबद्धता की पैकेजिंग कर देते हों, ये अलग बात है.

कोयले की ब्लॉक लेने से जुड़ी इस खबर को पढ़ने के बाद क्या ये बात अलग से बताने-समझाने की जरुरत रह जाती है कि इन मीडिया संस्थानों की मदर कंपनी ने इसके लिए वे तमाम कर्म-कुकर्म और हथकंडे अपनाए होंगे, जो कोई ठेकेदार, राजनीतिक या रसूकदार अपनाता है ? मीडिया संस्थान ने अपने लोकतंत्र के चौथे खंभे की ताकत का इस्तेमाल ऐसे धंधे को चमकाने के लिए नहीं किया होगा, कर रहा है या आगे भी करेगा ? सरकार की नाकामी और उसके भीतर का भ्रष्टाचार तो फिर भी तमाम तरह के मीडिया मैनेजमेंट के बावजूद मसककर सामने आ जाता है लेकिन इन मीडिया संस्थानों की वो तमाम हरकतें जिनकी प्रकृति राजनीति और कार्पोरेट में सक्रिय संगठनों और संस्थानों से अलग नहीं है, उसका क्या ? आज हिन्दुस्तान टाइम्स ने इन तीन अखबारों के लेकर खबरें प्रकाशित की है. हमें जानकारी मिली और इसके लिए अखबार का शुक्रिया अदा करें लेकिन ये खबर भी पत्रकारीय कर्म का हिस्सा है या फिर मदर कंपनियों की टकराहट और प्रतिस्पर्धा की प्रतिध्वनि, ये कौन जानता है ? उपर से हम जो अखबार बनाम अखबार का मामला देख रहे हैं क्या वो उतना ही  ठेके और उद्योग के धंधे में लगी दो मदर कंपनी के बीच की टकराहट नहीं है जिसमें कि मीडिया कहीं नहीं है ?
खैर, इस खबर का शायद आगे भी विस्तार हो लेकिन फिलहाल ये न मानने की गुंजाईश नहीं रह जाती है कि इस देश में जितने भी धंधें हैं, मीडिया के हाथ और गर्दन उसमें सक्रिय है और इसलिए जितने भी घोटाले सामने आएंगे, उसमें अनिवार्यतः किसी न किसी मीडिया संस्थान का जिक्र आएगा. कोई चाहे तो घोटाले-दर-घोटले मीडिया संस्थानों की लिस्ट बनाकर शोध कर सकता है.

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