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अब तक के इतिहास में बहुत झोल है। जिसको जो मन में आया है लिख दिया। पुराने जमाने में पैसे लेकर और अब कोई पैसे देकर लिखवा लिया। किसी को कहा गया देश का इतिहास लिखने तो उसने राजा की जीवनी लिख दी और देश को उतना ही तक बताया जहां तक कि राजा के पैर पड़े। बाकियों के बारे में गोल है। किसी को मन में आया तो धर्म को ही इतिहास बता दिया और राजा को ईश्वर की संतान घोषित कर दिया। अब नतीजा ये हुआ कि राजा भ्रष्ट भी हो जाए तो भी उसके विरोध में कोई आवाज नहीं उठानी है....और इस बीच राजा को जो मन हुआ, अपने बारे में लिखा, लिखवाया।
एक शैक्षणिक परिषद् से झोल रहित इतिहास लिखवाने की कोशिश भी की जाती है तो पुस्तक न होकर बमगोला हो जाती है और अचानक से पूरा देश सुलगने लग जाता है। मध्ययुग के बारे में लिखा तो इतने राजाओं के मरने और जीनें की तारीखें जड़ दी कि बंदा उसी को याद करते-करते पस्त हो जाए। इतने बेटे-पोतों के रिलेशन्स जोड़ दिए कि ध्यान रखते-रखते आदमी तबाह हो जाए।
कुल मिलाकर अब तक का लिखा गया इतिहास इतना अटपटा, बेतरतीब, पक्षपाती और आंख फोड़ने पर समझ बनानेवाला है कि इसे निष्पक्ष, तटस्थ, विश्वसनीय और सेक्यूलर नहीं कहा जा सकता। उपर से इतना झेल है कि- दिन पढ़ो, रात सफा, रात पढ़ो दिन सफा। कोई इन्टरेस्ट ही पैदा नहीं होता।
अब इतिहास में ये सारी बातें कहां से आए जिसमें तटस्थता भी हो, सच कहने का साहस भी हो, किसी के दबाब में आकर न लिखा गया हो और पढ़ने में मजा भी आए। आज की तारीख में सिर्फ और सिर्फ मीडिया में दम है कि वो इन सब गुणों से लैस इतिहास लिखे और जो इतिहास मीडिया लिखेगी वो सबसे फ्रेश इतिहास होगा।
मीडिया द्वारा लिखे गए इतिहास में तटस्थता भी है, साहस भी है, मनोरंजन भी है, नयापन भी है और जानने-समझने के लिए आंख फोड़ने की जरुरत भी नहीं है। मीडिया ने इतिहास लिखने में ऐसा क्या कर दिया, आइए जानते हैं।
सबसे पहले बात करते है विषय और घटनाओं की। मीडिया ने इतिहास लिखने के क्रम में विषय और घटनाओं के जिक्र में भारी उलटफेर की है। अब तक के इतिहास में जितने शासकों, देशों के बनने की लम्बी फेहरिस्त है उससे आज की ऑडिएंस को क्या लेना-देना है। जो शासक मर गए उनके बारे में जानकर अपना भेजा फ्राई क्यों करना है। न तो वो हमारे कोई रिश्तेदार थे और न ही उन्होंने हमारे नाम से कोई प्रोपर्टी छोड़ रखी है। इस मिजाज से सोचें तो इतिहास का बड़ा हिस्सा बेमतलब का है, कूड़ा है और जो अपने मतलब का है उसे फेंको। सो मीडिया इतिहास में फ्रेशनेस लाने के लिए इतिहास के एक बड़े हिस्से को फेंकना जरुरी समझती है।
अच्छा, जब वो बड़े हिस्से को फेंकेगी तो उसके बदले में तो कुछ न कुछ डालना होगा न। मीडिया की प्रतिभा यहीं पर काम आती है। वो पकाउ विषयों की जगह मजेदार विषयों को शामिल करती है जिसमें मनोरंजन भी हो, आंखें भी न फोड़नी पड़े और तटस्थता का तो कोई सवाल ही पैदा हो। आइए एक बार इसके द्वारा बनाए गए चैप्टरों पर गौर कर लें-
अध्याय १
- चुम्बन लेने और मना करने का इतिहास
( वाल्यावस्था से शिल्पा रिचर्ड गैरी विवाद तक)
- चुम्बन शैली का तुलनात्मक अध्ययन
(प्लेजर की अधिकता और भारतीय और पाश्चात्य दृष्टिकोण)
- चांटा जड़ने और खाकर बिलखने का इतिहास
( सिनेमा, फैशन शो और क्रिकेट के विशेष संदर्भ में)
द्रौपदी युग से भज्जी-श्रीसंत युग तक
- गालियों का उद्भव, विकास, प्रयोग की अनिवार्यता और ऐतिहासिक महत्व
(दुर्जन शैली से मां-बहनवाद तक)
अध्याय २
- इज्जत, बेइज्जत और बलात्कार का इतिहास
(कौरव-सभा से लेकर बिग बॉस प्लस
अधेड़ी औरत से दुधमुंही बच्ची की चीख तक)
- सार्वजनिक वस्त्र मोह-मुक्त का इतिहास
( चंदनवन से रैप शो तक)
- स्त्री-देह सौन्दर्य औऱ कम वस्त्रों का अन्तर्संबंध
( कंचुकी काल से बिकनी काल तक)
- लिंग आकर्षण का सामाजिक इतिहास
( शूर्पनखा काल से जिगिलो काल तक)
अध्याय ३
- अपराध की दुनिया का आकर्षक इतिहास
( करने से लेकर बताने तक)
- नाजायज संबंधों का संक्षिप्त इतिहास
( हरम कल्चर से लेकर कोहली कल्चर तक)
- संभोग स्थलों का मार्मिक इतिहास
( परकोटे से लेकर डांस बार और फ्लाइ ओवर तक)
- यौन दुर्बलता, सुस्ती और गैरमर्दांनगी से मुक्ति का इतिहास
( शीलाजीत से लेकर वियग्रा तक का वैज्ञानिक विश्लेषण)
अध्याय ४, ५, ६ उपसंहार और संदर्भ-सामग्री की चर्चा कल होगी।
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उस लड़की पर से मेरी नजर हट ही नहीं रही थी। गुलाबबाई नाटक के लिए देर हो रही थी, फिर भी मन चाह रहा था कि उसका पीछा करुं, देखूं कहां तक जाती है। तेरह मिनट में जानने समझने की जो जी-तोड़ कोशिश मैंने की वो आपके सामने है -
सिर से पैर तक काले बुर्के में ढंकी, सिर्फ दो आंखें दिखाई दे रही थी। मेट्रो की सीट पर मैं उससे थोड़ी दूर बैठा था। इतनी दूर कि पास बैठी अपनी दोस्त से क्या बात कर रही है, कुछ भी सुनाई नहीं दे रहा था। मुझे उसकी बात सुनने की इच्छा सिर्फ इसलिए होने लगी थी कि जब उसने अपने पैर दूसरे पैर के उपर रखे तो मेरी नजर बुर्के से हुए उघार एक पैर पर चली गई। वही जाना-पहचाना रंग, स्काई ब्लू। हां वो स्काई ब्लू रंग की जिंस पहने थी।
मुस्लिम लड़कियां जिंस पहनती है, ये किसी के लिए भी आश्चर्य की बात नहीं हो सकती। दिल्ली क्या छोटे शहरों में भी पहनने लगीं हैं। लेकिन उपर से बुर्का पहन लेने पर मेरी दिलचस्पी बढ़ती गई। क्योंकि समाज के लाख खुलापन होने की दलीलों के सुनने के बाद भी मुझे लगता है कि सारी लड़कियां जिंस नहीं पहन सकती। जिसमें तो कई संकोच से पहनना ही नहीं चाहती और कईयों के घरवाले भी मना कर देते हैं। जिंस ये जानते हुए कि और कपड़ों से ज्यादा सुविधाजनक है, खासकर के भीड़-भाड़ वाले इलाकों में जाने के लिए, कहीं कुछ फंसने का डर नहीं बावजूद इसके कई लड़कियां पहनने में शर्माती है। हमारे साथ की कुछ लड़कियां तो जिंस को चरित्र से जोड़कर देखने लग जाती थी। एम के दौरान मैं और मेरे दोस्त प्रणव ने एक-दो को कहा भी था कि एक बार जिंस पहनकर देखो, बहुत अच्छी दिखोगी। लेकिन उसका सीधा जबाब होता- हम सलवार सूट में ही ठीक हैं। बहुत कहने पर एक ने खरीदी भी तो बताया कि कुछ दिन घर में ही पहन लूं, आदत नहीं है न। फिर बताया कि आस-पास बाजार जाती है पहनकर, लोग घूर-घूरकर देखते हैं। एक-दो मम्मी की सहेलियों ने कहा कि- ये तो जिंस में ज्यादा ठीक लगती है, बेकार में तम्बू की तरह सलवार-सूट तान लेती है। तब जाकर एमए फाइनल में जिंस स्वाभाविक तरीके से पहनने लगी। अब शादी के बाद एक कोचिंग इन्सटीच्यूट में पढ़ाती है। फोन करके बताती है कि अब वो फार्मल ट्राउजर पहनने लगी है।
हमारे यहां, आज से पांच साल पहले की बात बताता हूं, जब कोई कह देती कि इस बार दशहरा में जिंस खरीदनी है तो घर के बाहर फुर्सत में बैठी औरतें कहतीं- फलां बाबू की लड़की को हवा लग गया है, जीन पैंट पहनेगी...। यानि जिंस के साथ लड़की की चाल-चलन को लम्बे समय तक जोड़कर देखा जाता रहा है।
ये कहना बेमानी ही होगा कि कोई जिंस पहन ले तो वो केवल उससे प्रोग्रेसिव हो जाती है। कई लड़कियां आपको मिल जाएगी जो जिंस पहनकर मंगलवार का व्रत करती है, एमए के हर पेपर के पहले किरोड़ीमल कॉलेज के मंदिर के आगे हाजरी लगाती है। पेपर कैसा रहा, इसका जबाब देने के पहले कहती है- सब भगवान के हाथ में है और हमें हिदायत दिए फिरती है कि तुम इन सलवार-सूट पहनने वाली लड़कियों को नहीं जानते, बस उपर से मासूम बनी फिरती है। लड़कियों की ड्रेस को लेकर सबकुछ इतना गड्डमड्ड हो गया है कि सबसे सही लगता है कि कपड़े देखकर किसी के बारे में कोई राय पहले से मत बनाओ। क्योंकि विद्या भवन में रोज स्वीवलेस पहनकर आनेवाली एक दोस्त को एक दिन देर रात तक इंडिया गेट पर तफरी करवा दी तो अगले दिन से उसके बाबूजी लेने और छोड़ने आने लगे।
....तो भी कपड़ा पहनने के पहले उसे लेकर कॉन्फीडेंस का होना जरुरी है। कोई लड़की जिंस पहनकर पचास बार, राह चलते अपने को निहारे तो वो कितनी एवनार्मल लगने लगेगी, आप समझ सकते हैं।
बुर्केवाली लड़की जो जिंस पहने थी, उसके बारे में क्या कहा जाए। जिंस पहनना उसकी इच्छा, उसकी अपनी मर्जी और चलती फैशन में शामिल होने की बात हो सकती है। जिंस वो अपने मन से पहन सकती है। लेकिन बुर्का भी अपने मन से पहनी होगी, इस बात पर मुझे भरोसा नहीं था और यही जानने के लिए मेरा मन उसका पीछा करने को कर रहा था...
मैं थोड़ा ठीठ बनते हुए अच्छी-खासी सीट छोड़कर हैंडल पकड़कर उसके सामने खड़ा हो गया। कान उसके मुंह की तरफ और चेहरा दूसरी तरफ।....लड़की खिलखिलाकर बातें किए जा रही थी। लग ही नहीं रहा था कि किसी बंदिश की सतायी हुई हो और उसी क्रम में बोले जा रही थी। मामूजान अगर रिदिमा के घर जिंस में देख लेते तो....फिर ठहाके। साथ वाली लड़की ने जोड़ा, तो हलाल कर देते।...फिर दोनों के ठहाके।॥बातचीत से पता चला कि वो दोनों अपनी दोस्त रिदिमा की वर्थ डे पार्टी से लौट रही है। रिदिमा ने उसे सख्त हिदायत दे रखी थी कि...अगर मजारवाला चोला( सलवार सूट) पहनकर आयी तो पीछे कुत्ता छुड़वा दूंगी, तभी उसे जिंस पहनकर आना पड़ा था। दोनों लड़कियां जिंस पहनने की मजबूरी और उपर से बुर्का डालने की मजबूरी के साथ चांदनी चौक आते ही एक दूसरे को कोहिनी मारते हुए, कान में फुसफुसाते हुए स्टेशन की तरफ उतर गयी। जाते हुए एक बार मेरी तरफ पलटकर देखा, उसके देखने के अंदाज से मैंने समझा कि कह रही है-
अजब फ्रस्टू लोग होते हैं, बुर्केवाली को भी नहीं छोड़ते।...
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सरकार के बदलने के साथ ही दूरदर्शन की स्क्रीन के रंग भले ही कभी कुछ घट-बढ़ जाए, कुछ गाढ़ा या फीका हो जाए लेकिन एक बात कॉमन बनी रहती है और वो ये कि दूरदर्शन की आवाज और उसकी टोन सत्ता के पक्ष में ही होती है। इसलिए कई बार लगता है कि दूरदर्शन जनमाध्यम न होकर किसी राजनीतिक पार्टी विशेष के अजान देने का भोंपा है।...और जिसकी टेंडर बदलती रहती है। शुरुआती दौर से लेकर अब तक की सत्तारूढ़ पार्टियों ने दूरदर्शन का जितना बेजा इस्तेमाल किया है, जनता की आवाज को दबाने के चक्कर में अपनी आवाज इतनी तेज कर दी है कि कोई चाहे तो इस पर शोध कर सकता है। कई बार तो इन पार्टियों ने अपने वर्चस्व को कायम रखने के लिए दूरदर्शन का इस्तेमाल प्राथमिक स्तर पर किया है।
जबकि व्यवहार के स्तर पर किसी भी जनमाध्यम को सत्ता के प्रतिरोध में ही अपनी बात करनी चाहिए। अगर सरकार वाकई जनता के पक्ष में काम कर रही है तो उसके पास दसियों और माध्यम हो सकते हैं औऱ हैं जिसे लेकर अपने नाम की डंका बजा सकती है लेकिन आम आदमी के लिए जंतर-मंतर के इलाके और दूरदर्शन जैसे माध्यमों पर पूरा-पूरा अधिकार होना जरुरी है।
प्राइवेट चैनल्स जब अपने को जनसमाज का माध्यम बताते हैं तो सुनकर भौंडा-सा लगता है। हमारे सामने उसकी छवि कुछ ऐसे ही बनती है जैसे कि कोई भेडिया दिनभर शिकार कर लेने के बाद शाम को मुंह में तिनका खोंस लेता है। शुरुआती दौर से मीडिया की जो छवि आम लोगों के बीच बनी है कि ये हमेशा सच के साथ होगा, न्यूज चैनल उस मानसिकता को, उस मान्यता को चप्पल,चड्डी और शैम्पू के विज्ञापनों के साथ भुनाने लगी है। जनता ने इस रवैये को लेकर असहमति जतानी शुरु कर दी है। कभी तीन-चार दिन पहले ही अपने अनिल रघुराज ने वाकायदा आंकड़े सहित इस बात को सामने रखा कि हिन्दी चैनलों की व्यूअरशिप घट रही है। इसकी एक बड़ी वजह है कि लोगों की मानसिकता तेजी से बदल रही है और उन्होंने समझना शुरु कर दिया है कि विज्ञापन बटोरने के चक्कर में चैनल कुछ भी दिखा सकते हैं। मुंशीजी ने अपने हिसाब से बहुत सही समय पर चोट मारा है। ऐसा करके वो प्राइवेट चैनलों के विरोध में अच्छा-खासा जनादेश खड़ी कर लेंगे। न्यूज चैनलों से खार खायी ऑडिएंस जरुर कुछ कदम साथ चल लेगी। (लेकिन,यही बात जब दूरदर्शन करने लग जाता है तो प्राइवेट चैनलों से कुछ कम भौंड़ा नहीं लगता। क्योंकि दूरदर्शन को लेकर ऑडिएंस ने आम आदमी का माध्यम और सत्ता के माध्यम के बीच फर्क करना शुरु कर दिया है। इसे आप मीडिया लिटरेट होना भी कह सकते हैं।)
ये बात भी तय है कि वो कुछ कदम चलने के बाद औऱ आगे नहीं बढ़ेगी, ऐसा नहीं होगा कि थोड़ा और बढ़कर दूरदर्शन पर पहुंच जाएगी क्योंकि जो ऑडिएंस आज प्राइवेट न्यूज चैनलों से खार खा चुकी है वो पांच-दस साल पहले ही दूरदर्शन से उचटकर यहां तक पहुंची थी और अगर एक सर्वे कराकर ये पूछा जाए कि- हम मानते हैं कि प्राइवेट चैनल खबर के नाम पर जो कुछ भी दिखा रहे हैं, वो बकवास है तो भी अगर आपको ये कहा जाए कि दूरदर्शन और किसी भी प्राइवेट न्यूज चैनले के बीच आपको चुनना हो तो आप किसे चुनेंगे तो देखिएगा कि क्या नतीजे सामने आते हैं। मैं कोई घोषणा करने की स्थिति में नहीं हूं लेकिन ज्यादातर जनता कल्चर के नाम पर बिकनी, क्रिकेट,सिनेमा देख लेगी। जीएस के नाम पर घोटालों और स्टिंग को देख लेगी लेकिन खबरों के नाम पर दूरदर्शन का राजनीतिक आलाप, बयानबाजी और पीठसहलाउ पॉलिटिक्स की फुटेज उनसे नहीं देखी जाएगी। जिस बात को मैं लिख रहा हूं उसका अंदाजा सारे प्राइवेट न्यूज चैनल्स बहुत पहले से लगाकर अपनी दुकान लिए बैठे हैं। नहीं तो देखिए न, करीब तीन महीने में एक न्यूज चैनल कैसे हमारे सामने खड़े नजर आते हैं और देखते ही देखते उन पर दिखायी जानेवाली खबरों के रेफरेंस दिए जाने लगते हैं। मतलब साफ है कि प्राइवेट न्यूज चैनलों से उब चुकी जनता चेंज के लिए हर नए चैनलों को आजमाती है, उस पर कुछ दिन टाइम देती है लेकिन इस उम्मीद से लौटकर दूरदर्शन पर नहीं आती कि शायद यहां अब कुछ बेहतर हुआ होगा। अगर बेहतर हुआ भी है तो उसकी रफ्तार इतनी धीमी है कि ऑडिएंस की उम्मीद के आगे पिद्दी साबित होती है। इसलिए असंतुष्ट ऑडिएंस को खुश करने की गुंजाइश से दूरदर्शन बहुत पीछे छूट चुका है जबकि प्राइवेट न्यूज चैनल आए दिन प्रयोग करते नजर आते हैं। कोई ऑडिएंस भोपाल में बैठकर बतोलेबाजी करता नजर आता है तो ये चैनल उन्हें भी प्रतिभा पुत्र मानकर दस-दस मिनट तक दिखाते हैं। ऑडिएंस को तरजीह दिए जाने की वजह से ही इन चैनलों के प्रति लोगों का मन उब जाने के बाद भी मोह बना रहता है कि पता नहीं कब उसकी तस्वीर दिखा दी जाए। जबकि दूरदर्शन के कैनन में इनका कोई सेंस ही नहीं है।
नकार के बावजूद बार-बार पुचकार की शैली में सारे न्यूज चैनल हमारे सामने आते हैं और हम उन्हें माफ कर देते हैं कि- जाने दो अपना ही भाई है औऱ अगर दूरदर्शन को लेकर ऐसा नहीं करते तो इसकी एक बड़ी वजह ये भी है कि अफसरों, अधिकारियों और नेताओं की तरह ये भी हमसे बहुत दूर चला गया है, हमारी पहुंच, पकड़, जरुरत औऱ अभिरुचि से दूर, बहुत दूर। अब हममें वो भाव भी नहीं रह गया कि लोग इसे चाचा नेहरु का चैनल मानकर देखें और उनके सपनों से इसे जोड़कर देखें।
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टीआरपी को प्ले गेम और न्यूज चैनलों को सांप, सपेरे दिखाए जाने पर मुंशीजी भले ही उन पर अपनी भड़ास निकाल लें लेकिन दूरदर्शन में भी इतनी काबिलियत नहीं है कि वो न्यूज चैनलों के सामने खड़ी करके कहें- देखो इसे कहते हैं न्यूज चैनल।
न्यूज चैनल खबर के नाम पर जो कुछ भी दिखा रहे हैं और उससे मुंशीजी की जो असहमति हैं, अगर हम भी उनके साथ हो लें तो भी इस बात पर तो हम कभी राजी नहीं होंगे कि प्राइवेट न्यूज चैनल जो कुछ कर रहे हैं, दूरदर्शन ने इससे हटकर बहुत बेहतर काम किया है। ये सही है कि दूरदर्शन ने ऑडिएंस को कभी सांप-सपेरे की खबरें नहीं दिखाया, स्वर्ग की सीढ़ी के दर्शन नहीं कराए, महादेव से नहीं मिलवाया, शराबी बकरे को नहीं दिखाया,नाश्ते में ढ़ाई किलो तम्बाकू खाती बकरी नहीं दिखाए तो भी ऐसा कुछ बेहतरीन काम नहीं कर दिया कि मुंशीजी उसे लेकर उदाहरण के तौर पर न्यूज चैनलों के सामने रख सकें और कहें कि- इसकी खबरों से सीखो और इसी की राह पर चलो।
मुंशीजी मीडिया को दुरुस्त, पारदर्शी और सामाजिक विकास का माध्यम बनाने के नाम पर प्राइवेट न्यूज चैनलों को जब-तब लताड़ भी दें तो भी उनके पास कोई ऐसा विजन साफ नहीं है जिसे वो उनके सामने रख सकें। अगर ऐसा होता तो देश की ऑडिएंस इतनी भी नासमझ नहीं है कि फ्री टू एयर चैनल दूरदर्शन को छोड़कर प्राइवेट न्यूज चैनलों को देखे। मुंशीजी क्या किसी भी सूचना एवं प्रसारण मंत्री के पास इस बात की विजन होती कि बदलते समाज में लोगों की अभिरुचि क्या है और उनके बीच सामाजिक मसलों, बदलते परिदृश्यों और खबरों की सच्चाई को कैसे दिखाना है तो आज खर- पतवार चैनलों के बीच दूरदर्शन गुम नहीं हो जाता। दरअसल मुंशीजी और इनके पहले के भी लोग खबरों की तटस्थता की बात कहते आ रहे हैं। ये सरकारी महकमें जिसे खबरों की तटस्थता बता रहें हैं,वो दरअसल काफी हद तक खबरों को लेकर निष्क्रियता, बेपरवाह और खबरों के नाम पर खानापूर्ति वाला रवैया रहा है। नहीं तो क्या कारण है कि प्राइवेट न्यूज चैनल महीने भर में ही एक स्टिंग ऑपरेशन कर देते हैं। (ये अलग बात क इसमें से कुछ स्टिंग ऑपरेशन फर्जी साबित हो जाते हैं। तो भी आप उनके एफर्ट को नकार नहीं सकते।)जबकि दूरदर्शन ऐसा कुछ भी नहीं कर पाता।
दूरदर्शन के पास लम्बा अनुभव रहा है। चाहता तो वो इसका बेहतर इस्तेमाल कर सकता था और मुंशीजी जिस सामाजिक विकास का पाठ न्यूज चैनलों को पढ़ा रहे हैं उसकी शुरुआत दूरदर्शन से ही शुरु हो तो ज्यादा बेहतर है। हालांकि दूरदर्शन का मैं कोई सीरियस ऑडिएंस नहीं हूं लेकिन बीच-बीच में देखकर इतना जरुर जानता हूं कि दूरदर्शन पर सामाजिक विकास के नाम पर सरकार की योजनाओं को विज्ञापन के अंदाज में पेश करने के अलावे कभी भी उसने आलोचनात्मक तरीके से पक्ष ऑडिएंस के सामने नहीं रखा. नहीं तो आप ही बताइए, देशभर में इतने क्राइम होते हैं, कानून की धज्जियां उड़ाई जाती है। आम आदमी की तो छोडिए अफसर और नेता तक इसमें शामिल होते हैं। इतना होने पर भी दूरदर्शन को कोई ऐसी खबर नहीं मिलती, कोई ऐसा आइडिया सामने नहीं आता कि वो इन सब चीजों का पर्दाफाश कर सके. ऐसी खबरों को खोजने लग जाएं तो आप हैरान रह जाएंगे कि फीता काटनेवाली खबरों और विमान से उतरती हुए मिनिस्टरों की फुटेज थोक भाव में दूरदर्शन की स्क्रीन पर बिखरे पड़े होते हैं।
जिस मीडिया को मुंशीजी आम आदमी के लिए होने की बात कर रहे हैं, दरअसल हमारे सामने एक स्थापना दे रहे हैं कि प्राइवेट न्यूज चैनल आम आदमी के पक्ष में नहीं है जबकि दूरदर्शन और आकाशवाणी ऐसा कर रहे हैं। इससे बड़ी भारी गलतफहमी पैदा हो रही है और वो ये कि सरकार की मीडिया को आम आदमी की मीडिया मान लिया जा रहा है। सच्चाई तो यही है कि इस दूरदर्शन में भी आम आदमी वैसे ही गायब है जैसे अब बनने वाली सरकारी योजनाओं में और लागू होनेवाले तरीकों में....और अगर दूरदर्शन पर कभी-कभार आम आदमी की तकलीफें आ भी जाती है तो वहीं तक जहां तक के लिए सरकार जिम्मेवार न होकर अप्रत्यक्ष रुप से आम आदमी ही जिम्मेवार होते हैं और जो अज्ञानता, गरीबी, बेरोजगारी और अंधविश्वास जैसे आदिम समस्याओं के कारण होते हैं।..और ऐसा दिखाने में सरकार का ही पक्ष मजबूत होता है क्योंकि इसे फिर अगले पांच साल बाद दिखानी होती है कि देखो वोटरों, तुम्हारी आज से पांच साल पहले हालत ऐसी थी... और पांच साल बाद खाद के जोर से लहलहाते हुए पंजाब के खेतों को दिखाकर बताना कि अब ऐसी हो गयी है। देश के चोट खाए और घिसे-पिटे चेहरे दूरदर्शन पर आकर एनजीओ की तरह इस्तेमाल हो जाते हैं। ये खबरें सचमुच इनकी तस्वीर बदलते हैं ऐसा मानने के लिए थोड़ा वक्त दीजिए।
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हिन्दुस्तान में लोकतंत्र की बहाली हो जाने के बाद भी कांग्रेस मुनादी करवाने और नगाड़े बजवाने वाली राजतंत्र की परम्परा को छोड़ नहीं पायी है। कांग्रेस की संतान एनएसयूआई भी उसी के नक्शे कदम पर चल रही है।
डीयू में एनएसयूआई की स्टूडेंट यूनियान है। एस यूनियन क्या कहिए, जिस तरह से चुनाव जीते जाते हैं इसे आप ऐसे कहिए कि एनएसयूआई की सत्ता है। एनएसयूआई ने पिछले एक साल में स्टूडेंट के फेवर में क्या किया है ये तो सर्वे और बैठकर विश्लेषण करने का मसला है लेकिन फिलहाल उसने जो किया है उसे आपके सामने पेश कर रहा हूं।
करीब तीन-चार महीने पहले एनएसयूआई या डीयू स्टूडेंट यूनियन के लोगों ने पूरे डीयू कैंपस को नो टोबैको जोन घोषित कर दिया, जिसके मुताबिक कैम्पस के भीतर कोई भी बंदा सिगरेट,बीड़ी, गुटखा, खैनी और ऐसी दूसरी चीजों का प्रयोग नहीं करेगा। जो बंदा ऐसा करते हुए पकड़ा गया उसे जुर्माने के तौर पर 200 रुपये देने होंगे। अगर आपका कभी डीयू कैंपस आना होता है तो आप देखेंगे कि जगह-जगह बड़े-बड़े होर्डिंग लगाए गए हैं जिसमें 200 रुपये लिखकर हथकड़ी बनायी गयी है।
ये होर्डिंग तो उनके लिए है जो अंग्रेजी समझ सकते हैं और सिगरेट पीते हैं। कैंपस में ऐसे भी लोग हैं जो अंग्रेजी नहीं समझते लेकिन बीड़ी या फिर सिगरेट पीते हैं, उनके लिए जरुरी है कि मुनादी करायी जाए। इसलिए बड़े ताम-झाम से इसकी घोषणा की गयी। मणिशंकर अय्यर को बुलाया गया. वो खुद मेट्रो से यूनियन ऑफिस तक पैदल चलकर आए जिसकी चर्चा मीडिया में की गयी. जि दिन वो आए थे मैं यूनियन ऑफिस के पास से गुजरा था। मैंने देखा कि खूब सारी कुर्सियां सफेद कवर के साथ लगी है और लगभग सारे चैनलों और अखबारों की गाडियां वहां लगी है। ओबी वैन से कैंपस पटी पड़ी है। क्या रिक्शावाले और क्या स्टूडेंट सब भीड़ लगाए थे। मैंने ये जानने के लिए कि इस मुनादी की बात आम आदमी को समझ में आयी है कि नहीं, एक रिक्शेवाले से पूछा-क्या भइया, काहे का इतनी भीड़ है। रिक्शेवाले का जबाब था कि- साहब एगो बड़का नेता आए हैं और बोल रहे हैं कि आगे से हिआं कोई सिकरेट, बीड़ी नहीं पीएगा, जो पीएगा उसको जुर्माना भरना पड़ेगा। यानि एनएसयूआई की मुनादी का असर आम आदमी तक फैल चुका था।
नो टोबैको जोन अभियान के तहत ये भी बात की गयी कि कोई भी दुकानदार या कैंटीन ये सब कुछ नहीं बेचेगा और जो ऐसा करते पकड़े गए तो उन्हें भी जुर्माने के तौर पर भारी रकम चुकानी पडेगी।
उसके बाद से लोगों का सिगरेट पीना कितना कम हुआ , पता नहीं लेकिन लोगों को गरिआते जरुर सुना- घंटा कर दिया है सालो ने, दो रुपये की सिगरेट के लिए खैबरपास जाना पड़ता है।
इस मुनादी का वाकई में कितना असर हुआ है ये जानने के लिए मैं बीच-बीच में गुमटियों में जाकर सिगरेट मांगता रहा लेकिन लोगों ने साफ कहा-साहब बहुत रिस्की काम है यहां सिगरेट बेचना, कौन जोखिम मोल ले। सुनकर बहुत अच्छा लगता। लेकिन,
परसों जब मैं सोशल वर्क डिपार्टमेंट के पासवाली गुमटी में कोक पीने गया तो देखा कि एक बंदा सिगरेट ले रहा है। सिगरेट कौन-सी थी देख नहीं पाया लेकिन बंदे ने कहा, एक सिगरेट में दो रुपये ज्यादा लोगे। दुकानदार ने बिल्कुल ही साफ शब्दों में कहा- देना भी तो पड़ता है साहब. मैं उस बंदे के पीछे गया और बोला- क्यों भाई, दुगुने दाम पर सिगरेट क्यों खरीदते हो। अचानक से पूछने पर वो घबरा गया और पूछा- आप रिपोर्टर हैं। मैंने कहा-नहीं पास के हॉस्टल में रहता हूं, बस ऐसे ही पूछ लिया। देखा दुकानदार भी थोड़ा सकपका गया था।
कल रात के करीब डेढ़ बजे जोरों से भूख लगी और मैं कुछ खाने पासवाले हॉस्टल की कैंटीन में चला गया। वहां एक बंदा आया और कोल्ट ड्रिंक मंगवाने के बाद सर्विस ब्आय से बोला- तुमसे कुछ और भी मांगे थे न। थोड़ी देर बाद लड़का हाथ में सिगरेट दबाए हुए पहुंचा। लौटने पर अंकलजी यानि गार्ड साहब ने सामने बीड़ी का एक छल्ला छोड़ा।
इधर पन्द्रह दिनों पहले कैंपस में होर्डिंग लगी है- थैंक्स फॉर कीपिंग कैंपस फ्री जोन। नीचे-
दिल्ली यूनिवर्सिटी, दिल्ली पुलिस औऱ वर्ल्ड लंग फाउंडेशन के लोगो चमक रहे हैं।
खूब झक-झक सफेद पर ब्लू रंग और लाल रंग से लिखे सारे शब्द पता नहीं क्यों मुझे बहुत भौंडे लग रहे हैं, एक-एक शब्द बेहया और बाहियात लग रहे हैं। मन बार-बार पूछ रहा है कि है कोई यहां जो गारंटी देगा कि- आगे से मुझे ये शब्द ऐसे नहीं लगेंगे।
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भौको मत, एम्.फिल हो जाने दो

Posted On 2:30 am by विनीत कुमार | 4 comments

रात मे जब माता जागरण के पोस्टर के ऊपर मै दुनिया को बदल देने वाली पोस्टर लगता तो मिरांडा हौस के आगे बहुत सारे काले कुत्ते भौकने लगते, बहुत दूर तक मुझे दौडाते । कभी छिल जाता, कभी गिर जाता और सारे पोस्टर बिखर जाते। मै रोते हुये कहता, क्यो भौकते हो, विचारधारा छुड़वा दोगे क्या, एम्.फिल मे हो जाने दो। एक बार तो हॉस्टल से आटे की लाई बनाकर ले गया था और कुत्ते के चक्कर मे सब गिर गयी। दुबारा बनाकर पोस्टर लगाने मे चार बज गये थे।
दिन मे हमलोग कोई भी पोस्टर नही लगते। शर्म आती। एक- दो बार लगाया तो कुछ लोग मजे लेने लग गये। कहने लगे, भइया कहते हो पत्रकार बनोगे तो चिपकाकर बनते है पत्रकार क्या। आम तौर पर हमलोग हॉस्टल मे होनेवाले या कभी-कभी कॉलेज मे होने वाले सेमिनार या फ़िर कार्यक्रमों के पोस्टर लगते। दिन मे लगाने का मतलब था की लोगो को साफ पता चल जाता की ये बन्दा किस मास्टर या विचार का पक्ष लेता है। कुछ लोगो से हमेशा खुन्नस रहती, लगाते देख लेते तो जरुर फाड़ देते। वैसे भी डी यू मे पोस्टर लगाने का काम जितनी तेजी से होता है, उतनी ही तेजी से फाड़ने का भी होता है। कई कारण थे की हमलोग रात मे ही पोस्टर लगाते।
और हमपर कुत्तों का भौकना जारी रहता। अपने दोस्तो को बताता तो कहते आप माता जागरण वाली पोस्टर के ऊपर लगाते है न, इसलिये भौकते है। मत लगाया कीजिये उनके उनपर और ठहाके लगते। कुछ कहते, कुत्तों को आपके विचार से परहेज है, रात क्या दिन मे भिलगाये तो कुछ कुत्ते भौकेंगे। फ़िर कुत्ता मेताफर मे बदल जाता।
जब मै सेंट जेविअर्स मे था तो मेरे बहुत सारे दोस्त बच्चो को तुइशन देते, मै भी लेकिन जितने पैसे हमे मिलते उतने से अपना काम चलता नही, कोई भी टाइम से पैसे देते नही । कोई फैमिली रोने-गाने लग जाती की इस महीने ऐसा हो गया, ये हो गया, वो होगा, आप देख ले। हमलोग प्रोफेशनल थे नही, उनकी बातों पर विश्वास कर लेते। सो हमलोगों ने तै किया की कॉलेज फेस्ट के अलावे हमलोग बहुत सारे इवेंट कराते है, स्पोंसर खोजते है और बस जो पैसे बचेंगे, सब बराबर-बराबर बाँट लेंगे। अपनी सर्कल मे बहुत सारे बिजनेसमैन के लड़के थे और २-४ सुंदर दोस्त.बस क्या था अभिव्यक्ति नाम से हमलोगों ने प्रोग्राम कराया। फैशन शो, भाषण, कोरेओग्रफी और भी बहुत कुछ। कई ठरकी लाला ने मेरी दोस्तो के साथ जाने से मोटी रकम दे दी थी। बात करते हमसे और देखते उनकी तरफ़। बाहर आकर लड़किया कहती- कुत्ता साला, एक बार प्रोग्राम स्पोंसर कर दो, बाकी भाड़ मे जाओ। उसी समय हमलोगों ने नियम बनाया था की सारा काम हमलोग ख़ुद करेंगे और उसके पैसे रख लेंगे। पोस्टर लगाने का काम मैंने भी लिया था। .....यहाँ हमलोग शाम को लगते, जब दिन की क्लास्सेस खत्म हो जाती.दिन मे समय ही नही होता की पोस्टर लगते।
लेकिन यह जो कुत्ते भौकते वो ग्वायर हॉल के कुत्तों की तरह नही थे। ये सारे फादर के कुत्ते होते, जिन्हें वो शाम को कैम्पस मे छोड़ देते। इन्हे आप मार भी नही सकते। कुछ किया नही की भौकने लगते और फ़िर फादर चिल्लाते- ये बॉय , मत मारो। । बड़ी परेशानी होती, साथ मे बिस्कुट रखता और देता तो नही खाते। मै कहता- क्यो पेट पर लात मारते हो भाई। बाद मे बहादुर को २५-५० देकर काम कराना पड़ता .वो भी फादर से ज्यादा कुत्ते की प्रशंसा करता। कुत्ते की बफदारी के हजारो किस्से। किसी तरह काम करके रात मे लौटता तो कालोनी के कुत्ते भौकते।
समय और अनुभव के साथ-साथ कुत्तों से निबटने के तरीके जानता गया लेकिन अब कुत्तों मे सिर्फ़ भौकने और काटने बाले कुत्ते शामिल नही है, कई दुसरे किस्म के कुत्तें भी शामिल है। बचपन मे मेरी दीदी जब दर्जी के पास जाती और वापस आकर कहती- लाखानमा बहुत कुत्ता आदमी है , अब नही जायेंगे उसके पास नाप देने तो बात समझ मे नही आती की लाखानमा तो दरजी है, आदमी है वो कुत्ता कैसे हो सकता है..लेकीन आज जब कोई लड़की चैंबर से झल्लाते हुये निकलती है और कर कहती है- बॉस है, कुत्ता है साला, अब कुत्ता कहने से तो सब समझ जाता हू।
इधर हॉस्टल मे अमित सिर से मार खाया कुत्ता बाहर घूम रहा है। दुसरे कमजोर कुत्ते को एक भाई पाइप से फ्रूटी पिलाता है और शाम से एक नया कुत्ता टहल रहा है, लोग बता रहे है , ये हॉस्टल अथॉरिटी के रिश्तेदार है......
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जब मेनका के कूलीग शाप देते हैं

Posted On 11:53 pm by विनीत कुमार | 6 comments

इन दिनों हमारा हॉस्टल दो धड़ों में बंट चुका है- एक कुत्ता प्रेमी और दूसरा कुत्तों का दुश्मन। जो लोग कुत्ता प्रेमी हैं उन्हें माना जा रहा है कि वो मेनका के कूलीग हैं और कोई बड़ा प्रोजेक्ट मिल गया है नहीं तो जो देखने से ही जल्लाद लगता है, उसमें गांधी कहां से बस जाएंगे। मेस-टेबल पर चिकन की हड्डियां जैसे चूसता है, कोई भी देखकर बता देगा कि- बंदा किसी जमाने में जरुर राक्षस रहा होगा। इधर जिन्हें कुत्तों से नफरत है, उनके बारे में खुली टिप्पणी की जा रही है कि भाई साहब देह तो धारण कर लिए हैं मनुष्य का लेकिन बाकी हैं सचमुच के राक्षस। बताइए, इस निरीह जीव को मारने से उन्हें क्या मिल जाएगा।...हॉस्टल मिल गया नहीं तो ये भी कुत्ते की तरह, इससे भी बदतर इधर-उधर भटकते फिरते तब समझ में आता।
कहानी यों है कि हमारे हॉस्टल में पता नहीं दो कुत्ते कहां से घुस आए। शुरु में किसी ने नोटिस नहीं ली। दोनों कुत्ते भी नई जगह के कारण सहमे-सहमे से रहते। लोकिन दो-चार दिन हो जाने पर उनमें भी कॉन्फीडेंस आ गया। वो भौंकने लगे, आपस में खेलने लगे और तो और इधर कोई बंदा कमरे पर आयी अपनी दोस्त के लिए खाना ले जाए तो भौंकने लगे. गर्माहट वहीं से शुरु हुई कि- स्साले, कमरे पर खाना ले जाने से वार्डन तो कुछ कहता ही नहीं है, ऑथिरिटी कुछ करती ही नहीं है और ये दो कौड़ी का कुत्ता हम पर भौंक रहा है।... और थाली रखकर वहीं पर दिया एक चप्पल। पहली बार हमने महसूस किया कि ये कुत्ता वाकई में लोगों के लिए परेशानी पैदा कर सकता है।
दूसरे कुत्ते की हालत बहुत अच्छी नहीं है, बीमार-बीमार सा रहता है। आप उसे कितना भी भगाइए, नहीं भागेगा। अब लोगों को गुस्सा इस बात पर आ रहा है कि- ये भगाने पर भी नहीं भागता।
एक भाई साहब ने अपने कमरे की नयी मैट दे दी है, बैठने के लिए। उस पर वो आराम से पड़ा रहता है। हमारे-आपके भगाने और डांटने की चिंता नहीं करता।
परसों मैंने देखा कि वो पेस्ट्री खा रहा है और पड़ोसी की आयी गर्लफ्रैंड उसे पुचकार रही है। अल्ले,ले, मेरा बेबी, मेरा डॉगी। अपने दोस्त को बता रही थी- हाउ स्वीट। तुम्हारे हॉस्टल के लोग इसे मारते क्यों हैं, कितना प्यारा है। एक भाई साहब जो कुत्ते को लेकर अभी तक तय नहीं कर पा रहे थे कि क्या करें, ये सीन देखकर एकदम से बिफर गए- वाह रे पशु प्रेम। यहां लड़के दिन-दिनभर फांका में काट रहे हैं और मैडम को कुत्ते पर प्यार आ रहा है,पक फ्लावर का असर है भाई। खुन्नस खा गए और साइड में आकर गोला बनाना शुरु कर दिया- अरे सीवान भाई, इस कुत्ते का जल्द ही कुछ करना होगा, नहीं तो हमलोगों का.....।
उधर से बिंदास मेरा जूनियर साथी निकला और तपाक से पड़ोसी को बोला- क्या सर भाभीजी मॉडल टाउन से लेकर आई है।..पड़ोसी आंखे तरेरते हुए कोई भद्दी-सी गाली निकालता, इसके पहले ही ध्यान आ गया कि गर्लफ्रैंड आयी हुई है,गलत इंप्रेशन जाएगा। कुछ बोला नहीं। सटाक से अपनी दोस्त को अंदर बुलकर दरवाजा बंद कर लिया। साथी का इतने से मन भरा नहीं था। उसने दरवाजा नॉक किया औऱ कहा- सॉरी सर, आप बुरा मान गए। मैं तो पूछ रहा था कि- कुत्ता जो पेस्ट्री खा रहा था, भाभीजी मॉडल टाउन से लायी थी, बहुत अच्छा होता है। मैंने तो सोचा कि बची होगी तो कुछ जूनियर पर रहम हो जाता, आप तो समझ गए कि मैं कह रहा हूं कि इस कुत्ते को मॉडल टाउन से लायी है। है सम्भव, आप ही बताइए।
चप्पल से मार खाया कुत्ता वाटर कूलर के नीचे दुबककर बैठ गया था। मैंने जैसे ही टैप दबाया- भों-भों करने लगा और इस चक्कर में दो लीटर की भरी बोतल मेरे हाथ से रगड़ खाते हुए गिर गयी। देखा उंगली से तेज खून बह रहा है। संभलते हुए कमरे की तरफ बढ़ा तो गॉशिप शुरु हो गई है । लोग शुरु हो गए हैं कि-ये चुटकुनमा कौन सी शिक्षा दिया है अपनी गर्लफ्रैंड से कि उसको छोड़कर कुत्ते से....ससुरे में दम ही नहीं है। और फिर ठहाके। ऐसे मौके पर लोगों को मसखरई करने में देर नहीं लगती और देखते ही देखते हॉस्टल फ्लैंग भसोड़ी मंच में तब्दील हो जाता है।
मेरी उंगली से अभी भी खून बह रहा था। एक की नजर पड़ गयी और ठहाके लगाते हुए कहा- क्या विनीतजी, आपको भी कुत्ते ने काट लिया क्या, आप तो लिटरेटर के आदमी है, पशु प्रिय व्यक्ति होगें। बताइए न, कैसे कटा.
पूरी बात बताने के बाद कुत्ते के विरोध में प्वाइंट और मजबूत हो गया कि- यही हाल रहा तो कोई सीढ़ी से फिसल कर मर जाएगा। वो खुश भी हो रहे थे कि कुत्ता विरोधी दस्ते में एक और बंदा शामिल हो गया। मुझे गुस्सा तो कुत्ते पर आ ही रहा था, लेकिन जिस तरह बाकी लोग दौड़ा-दौड़ाकर मारते हैं, मेरे से नहीं हो पाता।
सारा मामला रफा-दफा हो गया। लेकिन दो-तीन कहानियां बन गयी-
रुम पर खाना ले जाने से कुत्ते भौंकते हैं। जरुर वार्डन ने छोड़ रखा है हमलोगों के लिए। उनको भी औकात में लाना पड़ेगा।
चुटकुनमा अपनी गर्लफ्रैंड के साथ दिन काट रहा है, उससे कुछ होता हवाता नहीं है। कुत्ते को भगाओ ताकि भाभाजी का ध्यान हम सब पर जाए।
विनीतजी कमजोर आदमी हैं ,उन पर मरियल कुत्ता भौंकता है। अच्छा हुआ पता चल गया। अब देखिए इलेकसन में क्या होता है इनका। होली में बहुत पैरॉडी बनाए थे हमलोगों पर।
..अभी एक घंटे भी नहीं हुए होगें. कमरे में पढ़ रहा था कि पता चला कि अमित सर के कमरे में कुत्ते ने सू सू कर दिया है। लोगों ने कहना शुरु कर दिया कि अब तो कुत्ते की मौत आयी समझो। अमितजी से पंगा लिया है।
अमित सर बहुत मजबूत आदमी हैं। खूब खाते हैं, खूब जिम करते हैं, खूब पढ़ते हैं औऱ मौका होने पर खूब मारते हैं. बीच-बीच में उनका मारने का बहुत मन होता है। नहीं कुछ इश्यू बना जिसमें कि मारा जाए तो किसी की सेल्फ तोड़ देगें, किसी का कूलर और फिर कितने का है, पूछकर पैसे दे देंगे।
उन्हें जैसे ही पता चला कि कुत्ते ने उनके यहां सू सू कर दिया है, बहुत खुश हुए और निकाली रड और शुरु हो गए। कुत्ते के दुश्मन उनका हौसला आफजायी कर रहे थे और कुत्ता प्रेमी, शाप दे रहे थे-इस आदमी को नरक में भी जगह नहीं मिलेगी,बेजान को सता रहा है। तभी पीछे से किसी ने मुझे झकझोरते हुए कहा- महाराज, लगता नहीं कि आप लिटरेटर के स्टूडेंट हैं, कुत्ता मार खा रहा है और आप कुछ कर नहीं रहे। जेएनयू में तो इतने में जीबीएम बैठ जाती।.. मैं कुत्तों से जुड़ी पुरानी यादों में खो गया था। पढिए अगली किस्त में-
मत भौंको मुझ पर अभी तो एम.फिल् भी नहीं हुई है।.....
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इस बाजारवादी दौर में भी जबकि अधिकांश मीडिया हाउस कॉरपोरेट से गलबइयां किए घूम रहे हैं, लालाओं से समझौते कर हम पर रौब झाड़ रहे हैं, ऐसे में ये माद्दा सिर्फ जनसत्ता में ही हो सकता है कि अपनी फ्रंट पेज पर आइपीएल की धमाकेदार शुरुआत की तस्वीरें न छापकर नाटक की तस्वीर छापे।

कल के लगभग सारे अखबारों में आइपीएल से जुड़ी खबरें थी। फ्रंट पेज पर मैच के पहले डेढ़ घंटे तक चली कल्चरल इवेंट से जुड़ी तस्वीरें थी। तस्वीरों के मामले में हिन्दी अखबार भी एक दिन के लिए अंग्रेजी अखबारों से होड़ लेने लगे थे। ऐसे में जनसत्ता ने इन सबसे अलग-थलग दिल्ली के पुराने किले में हुए नाटक की तस्वीर छापी। इस तस्वीर को अब तक राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय और उसके कलाकार काटकर अपनी फाइलों में दबा लिए होंगें। एक- दो कलाकार जिनकी तस्वीर अभी तक कम ही छपी होगी, लोगों को दिखाते फिर रहे होंगे कि देखो, अखबार में मेरी तस्वीर छपी है और वो भी जनसत्ता में। नाटक, साहित्य और कला से जुड़े लोगों के लिए जनसत्ता में तस्वीर छपना बड़ी बात है। क्योंकि हिन्दी में ये अकेला अखबार है जो कि मौज में आकर कुछ भी नहीं छापता। इसकी हर खबर और तस्वीर के छापने के पीछे एक ठोस संपादकीय दृष्टिकोण और तर्क हुआ करते हैं।...इधर नाटक के डायरेक्टर ने जनसत्ता की इस तस्वीर को स्कैन करवाकर बेबसाइट या फिर और कहीं भेज दिया होगा। लेकिन अभी तक मुझे जानकारी नहीं है कि इस तस्वीर के उपर जैसी मेरी नजर गई है, शायद इन लोगों को भी गई होगी।

तस्वीर के नीचे अखबार ने लिखा है-

दिल्ली के पुराने किले में शुक्रवार को राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय द्वारा मंचित नाटक- 1957एक सफरनामा- का एक दृश्य

देखिए यहां नाटक का नाम ही गलत है। 1857की जगह 1957छापा गया है। पहले तो इसे मैं प्रूफ की गलती मानकर नजरअंदाज कर गया लेकिन इस पर बात तो होनी ही चाहिए कि ये खबर आम खबर नहीं थी, हमारे-आपके लिए हो भी जाए तो जनसत्ता के लिए तो बिल्कुल भी नहीं। क्योंकि जब पूरी मीडिया आंखों पर आइपीएल को बिठाए घूम रही थी जिसके बारे में पाठक भी देखना और पढ़ना चाह रहे थे इसने रीडरशिप पर ध्यान न देकर अपने संस्कार पर ध्यान दिया है जिसे कि वो पिछले पच्चीस साल से सहेजता चला आ रहा है। ऐसा करने से पाठक भले ही दूर होता जाए लेकिन अगर संस्कार और आइडियोलॉजी बची रह जाती है तो इस बात की उम्मीद तो रहेगी कि जब अपनी ऑइडियलॉजी के लोग होंगे तो हार्ड कोर रीडरशिप होगी। संख्या कम हो लेकिन रीडरशिप हार्डकोर हो तो ज्यादा दिक्कत नहीं है। जनसत्ता को वैसे भी फ्लोटेड रीडर्स की जरुरत नहीं है कि जब कहीं कोई पत्रकारिता की इंट्रेंस देनी हो या फिर ज्युडिश्यरी में जाने के लिए हिन्दी सुधारनी हो तो कुछ दिन जनसत्ता पढ़ लिए और बाद में ऑफर के चक्कर में दूसरे अखबार के हो लिए। ऐसे पाठक जनसत्ता से दूर रहें तो ही अच्छा है। बाकी के अखबार इस पॉलिसी पर हंस सकते हैं। कल की ही तस्वीर को देखकर कह सकते हैं- हंसुआ के ब्याह में खुरपी के गीत। दुनिया मांग रही है क्रिकेट लेकिन ये दे रहे हैं नाटक। दुनिया आइपीएल की बीट पर नाचना चाह रही है लेकिन ये है कि नाटक का आस्वादन कराने पर तुले हुए हैं।

पाठक होने की हैसियत से जनसत्ता के इस नजरिए के हम कायल हैं कि कोई तो बाजार की मार के आगे घुटने नहीं टेक रहा। अखबार की दिली इच्छा है कि मशीन कल्चर और पैशटिच कल्चर के आगे नाटक भी जिंदा रहे। वाकई ये साहसिक कारवाई है लेकिन ऐसा करने में जनसत्ता खुद भी सचेत नहीं रह पाती।

1857की जगह 1957छापने को प्रूफ की गलती मानने से पहले हमें इस स्तर पर तो सोचना ही होगा कि ये लाइन कितनी आंखों से होकर गुजरी होगी। क्या किसी को इस बात का खटका नहीं लगा कि 1957मे ऐसी कौन सी बात हो गई कि एनएसडी ने सफरनामा बना डाला। आप नाटक का शीर्षक ही गलत छाप रहे हैं औऱ वो भी पहले पेज पर। नियमित पाठक जो कि हिलनेवाली नहीं है वो फिर भी इसे प्रूफ की गलती मानकर पचा जाएगी जैसा कि मैंने कल करने की कोशिश की। लेकिन जरा सोचिए अकबार की ये कतरन कितने लोगों के हाथ में जाएगी। अब तक तो एनएसडी से फोन आ जानी चाहिए थी कि- अजी आपने तो नाटक का नाम ही गलत छापा है, आपका क्या भरोसा। लीजिए एक और संस्था ने आपके संपादकीय कौशल का मजाक उड़ा दिया और एक पाठक तो लिख ही रहा है इस पर।

अगले दिन यानि की आज इसी नाटक को लेकर पूरी रिपोर्ट है। यानि अखबार के लिए अभी भी ये नाटक जरुरी खबर है।....क्यों जरुरी है इसका संकेत पूरी रिपोर्ट में है क्योंकि अंबिका सोनी तक आने की बात थी, ८० लाख रुपये वाला है ये प्रोजेक्ट ( नाटक नहीं, अखबार की भाषा में प्रोजेक्ट) और लड़खड़ा गया है। पैसे की बर्बादी हुई है और इस पर जनसत्ता को तो लिखना ही चाहिए। लेकिन यहां भी विरोधाभास है। कल अखबार को ये खबर इतनी जरुरी लगी कि इसने फ्रंट पर इसकी तस्वीर छापी। लेकिन आज कैसे कह दे कि ये जरुरी नहीं था इसलिए आज इसे और जरुरी बताकर इसे दूसरे एंगिल से इसकी चीरफाड़ करना ज्यादा जरुरी समझा। ये अगर सिलसिला-सा बन जाए और बात एनएसडी की कार्यशैली पर आ जाए और देखते ही देखते एनएसडी की सभ्यता समीक्षा होने लग जाए। बताया जाने लगे कि कैसे यहां अब वो बात नहीं रह गयी है और नाटक ने नाम पर यहां टेलीविजन सीरियल्स और फिल्मों की रेप्लिका तैयार किए जाते हैं।...चैनलों में खूब बाइटें आने लगे और जनसत्ता के समझदार पत्रकार टॉक शो में बैठे। होने को तो इस खबर को लेकर कुछ भी हो सकता है। आइपीएल में कोई अखबार मैच फिक्सिंग को लेकर स्टिंग चलाए इससे पहले एनएसडी वाला मामला जनसत्ता की झोली में जा गिरेगी। जो कि लागत और मेहनत दोनों के हिसाब आइपीएल के मुकाबले आसान काम है। अब आप ही देखिए न, एक ही रिपोर्ट में कितना कुछ ढूंढ निकाला अखबार ने। इब्राहिम अल्काजी की बेटी द्वारा ही उनके मान्यताओं और विश्वासों की धज्जियां उड़ाने से लेकर निर्देश देने और अस्सी लाख रुपये निष्फल होने तक की पीडा जिसकी ओपनिंग बड़े ही दार्शनिक तरीके से होती है-

बात शीर्षक से ही शुरु करें-

१८५७- एक सफरनामा- इतिहास दोहराने की असफल कोशिश

शीर्षक से आपको अंदाजा लग जाएगा कि जनसत्ता ने कल जिस खबर को प्रमुखता से लिया, दरअसल उसमें दम नहीं है। नाटक में कोई जान नहीं है। रिपोर्ट बताती है कि रंगमंच के जो भी आयाम होते हैं, प्रायः सब पर असफल रहा है ये नाटक।

आगे कि दार्शनिक पंक्तियां-

इतिहास को दोहराने की भावुक जिद अक्सर कई मुश्किलें पैदा करती है। अपनी स्थापना के स्वर्ण जयंती वर्ष में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय दिल्ली के ऐतिहासिक पुराना किला में नाटकों के मंचन की उस परंपरा को दुहरा रहा है जिसे करीब ३४ वर्श पूर्व इब्राहिम अलकाजी ने शुरु किया था।.....इतिहास दुहराया नहीं जाता, रचा जाता है।

लीजिए अब जनसत्ता भी नई चीजों की डिमांड करने लगी है जो कि खुद परंपरा और लम्बे अनुभव के लोगों की कायल रही है। नए पाठकों और लेखकों के लिए खुश होने की बात है कि जनसत्ता अपनी टेस्ट बदलने जा रही है। इस रिपोर्ट को पढ़कर तो कुछ ऐसा ही लगता है।

आगे पढ़िए- .....नाटक में जो ड्रेस डिजाइन किया है उसमें दो रोटी के लिए तड़पते किसान-मजदूर लांड्री से ताजा धुले कपड़े पहने हुए हैं जिन पर पसीने और धूल का एक भी धब्बा नहीं है।

रिपोर्ट में जो असहमति है कुछ ऐसी ही असहमति हुई थी दूरदर्शन पर गुलजार का गोदान देखकर। कहीं से नहीं लग रहा था कि ये होरी के बैल हैं। लगता था कि सुविधा के लिए बैल यूपी से न लाकर हरियाणा से लाए गए हों।....और रुपा, सोना की ऐसी ड्रेस की कॉन्वेंट जाती लड़कियां भी पहनने के लिए मचल पड़े।

नाटकों में ये सब अटपटापन कोई नई बात नहीं है जिसे कि जनसत्ता अपनी रिपोर्ट में एक नाटक के तहत बांधकर छाप रहा है। मैले-कुचैले कपड़े और घिसे-पिटे चेहरे नाटकों से गायब हैं। लेकिन जहां निगेटिव इमेज बनानी हो और त्रुटियों की फेहरिस्त लम्बी करनी हो वहां ये सब लिखना जनसत्ता को जरुरी लगा।

इन्हीं त्रुटियों को गिनाने में -

....स्वयं इब्राहिम अलकाजी इस परंपरा के खिलाफ थे कि नाटकों के प्रदर्शन के समय किसी अफसर या राजनेता को मंच पर बुलाया जाए। अब उन्हीं की बेटी अमाल अल्लाना राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के अध्यक्ष के रुप में अपने पिता अलकाजी की परंपरा को बदल रही है।

जनसत्ता के इस शुद्धतावादी रवैये से हमें बड़ी पुलक होती है कि चाहे कुछ भी हो जाए, लेकिन ये अखबार बिना किसी समझौते के काम करेगी, सबकुछ शुद्ध देगी और परम्परा जो कि बड़ी मशक्कत के बाद हमें मिली है उसे सहेज कर रखेगी।

लेकिन सब कुछ जनसत्ता की सोच के हिसाब से शुद्ध रह जाए तब न। ...और मैं अपने इस मन का क्या करुं जो ये मान रही है कि कल की १९५७ वाली गलती को सिर्फ प्रूफ रीडिंग की गलती न मानो, ये तो वर्तनी में ही शुद्ध नहीं रह सका....आगे तो।....नाटक पर एनएसडी पर लगाई जानेवाली झाड़ कहीं कल की गलती का कॉन्फेशन तो नहीं है, तो कहो कलाकारों तुम भी कि- एक लाइन सही से छाप सकते नहीं और बात करते हैं शुद्धता की। जोश में तस्वीर के नीचे लिखा न देखकर कुछ नहीं बोले तो इसका मतलब क्या है कि आज रिपोर्ट में अपना पांडित्य हम पर झाडोगे, पहले बेसिक तो दुरुस्त कर लो।

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एक जमाना रहा है जब लोगों को धर्म की बात जल्दी समझ में आती थी और इसी के इर्द-गिर्द सारे काम होते रहे। शासन, संधर्ष, लड़ाई, कत्ल और बदलाव की बातें। आज लोगों को धर्म से ज्यादा मीडिया की बात समझ में आती है। और सारे काम इसी के इर्द-गिर्द हो रहे हैं- प्रवचन, योग, करप्शन और राजनीत।
लोगों को ऐसे आप कुछ बताएं समझाएं तो भले ही समझ में न आए लेकिन वही बात जब मीडिया करती है तो तुरंत समझ में आ जाती है। इसे आप मीडिया की असर कहें या फिर एक दौर मान लें।
जिन लोगों की मानसिकता का विकास इस तर्ज पर हुआ है कि सारी चीजें धर्म के अधीन है औऱ इसलिए मीडिया भी।सब कुछ का एक दौर होता है, एक समय के बाद वो चीजें अपने-आप खत्म हो जाती है उनके हिसाब से मीडिया लोगों के बीच प्रभावी है इस बात से ज्यादा महत्वपूर्ण है कि मीडिया का एक दौर है बस। बाकी ऐसा कुछ भी नहीं है कि लोग मार प्रभावित हुए जा रहे हैं। असल चीज है धर्म। अगर ये बचा रह गया तो इसके आसपास चक्कर काटनेवाली चीजें भी लम्बें समय तक बची रहेगी। लेकिन इसका भी एक दौर है, एक समय के बाद धर्म के आगे ये खत्म हो जाएगी। ये सनातनी नजरिया मीडिया को बस कुछ समय का मेहमान मानकर चलता है, सबकुछ बदलने के बीच अगर कुछ शाश्वत है तो सिर्फ उनके ये विचार कि सबकुछ का एक दौर होता है।
धर्म की पगडंडी पर चलकर कितना विकास हो पाएगा, आम आदमी की तकलीफें दूर हो सकेंगी इसका मुझे कोई अनुभव नहीं है। क्योंकि न तो मैंने कभी धर्म को अपनाकर देखा है और न ही इसको लेकर कोई प्रयोग किए हैं। इसलिए मेरे लिए ये दावा करना असंभव होगा कि धर्म के रास्ते पर चलने से इंसान की सारी तकलीफें दूर हो जाएगी।( धर्म जिसके लिए मासूम जलाए जाते हैं, धर्म जिसे बचाए जाने के लिए बच्ची के साथ बाल्तकार जरुरी हो जाता है, धर्म जो एक दूसरे के जान लेने पर नफरत की फसलें तैयार करने में लग जाता है।)
लेकिन मीडिया को लेकर ये दावा कर सकता हूं कि आप और हम जिसे बिकी हुई मीडिया कहते हैं, फ्रैक्चरड मीडिया कहते हैं, बदहवाश परेशान और बौखलाई हुई मीडिया कहते हैं जिसमें काफी हद तक सच्चाई भी है। इन सब के बावजूद आज का समाज मीडियामय होना चाहता है। सनातनियों की तरह धर्म को शाश्वत औऱ मीडिया को कुछ समय का मेहमान भी मानें तो भी इतना तो सच है कि बदलाव की गुंजाइश मीडिया के प्रयोग से है।
इतनी बात तो उन बीजेपी नेताओं को भी समझ में आने लगी है जो कि अब तक धर्म को मूल मानकर राजनीति करते रहे। धर्म को लेकर उनकी श्रद्धा इतनी अधिक रही है कि उसके बूते चलनेवाली राजनीति खत्म भी हो जाए तो भी धर्म तो बचा रहेगा औऱ कभी न कभी इसका फायदा मिलेगा, इस विश्वास के साथ सींचते रहे। आज वो भी मीडिया के दौर में या यों कहें कि दौड़ में शामिल हो गए हैं। मीडिया ने उन्हें भी अपनी तरफ खींच , उन्हें भी मीडिया लिटरेट कर दिया, तकनीकी स्तर पर दुरुस्त कर दिया जैसे बाबाओं को किया है और जो आज लेपल माइक लगाकर प्रवचन करते नजर आ रहे हैं। एक तरह से कहें तो आज मीडिया ने धर्म से लेकर राजनीति तक को अपनी शर्तों पर जीने के लिए विवश कर दिया है।....औऱ देखिए कि और फिलहाल वो भी रिलीजियस फैक्टर से दूर हो गए। राजनीति के खंभों पर धर्म का भोंपा लगाने के बजाए टीवी और माइक लगाने लग गए। इसे आप मीडिया के पॉपुलर होने और समाज की डिसाइडिंग फैक्टर के तौर पर समझ सकते हैं।
एनडीटीवी की खबर के मुताबिक बीजेपी ने यूपीए सरकार के विरोध में मंहगाई टीवी लायी है जिसमें वाकायदा मनमोहन सिंह कोष से खाने के लिए लोन लेने की बात बता रहे हैं और रिकवरी के लिए लालू प्रसाद को लगाया है। इसी तरह से सोनिया गांधी और बाकी नेताओं को शामिल किया है। बीजेपी ने पूरी की पूरी मीडिया मेटाफर का इस्तेमाल किया है। नहीं तो लालू को रिकवरी के लिए क्यों लगाते। मीडिया की तरह मंहगाई टीवी को भी पता है जो आदमी मुर्गी के लिए भैंस इतना चारा रिकवर कर सकता है वो लोन की रकम क्यों नहीं। ये बात साफ है कि पिछले छ महीने में मंहगाई दर जितनी तेजी से बढ़ी है वो यूपीए की सरकार के लिए आनेवाले लोकसभा चुनावों में परेशानी का सबब बन सकती है और परेशानी का सबब बनाने के लिए उसकी विरोधी पार्टी जी-जान से जुटी है। मंहगाई टीवी जिसके तहत लोग अपनी बात आकर सीधे-सीधे कर सकते हैं, ये उसी एंजेंडे का एक्सटेंसन है। इस बात पर बहस करना और बात को खींचना जरुरी नहीं है क्योंकि इतना सब लोग जानते-समझते हैं।
लेकिन समझने वाली बात ये हैं कि जिस पार्टी के कार्यकर्ताओं के हाथों में अब तक भगवा झंड़े रहे, जिसकी धाह ( गर्मी) की वजह से बीच-बीच में कमल भी कुम्हलाता रहा, जिसकी ललाट पर जय श्रीराम का पट्टा बंधा रहा, आज उनके हाथों में महंगाई टीवी की लेबल लगी माइक है। पार्टी कार्यकर्ता अपनी पुरानी आदत के हिसाब से उसे भी जब-तब लहराते नजर आ रहे हैं। जिस बात के लिए अबतक हमारे रिपोर्टर साथियों को लताड़ते रहे, दुत्कारते रहे आज उनकी ही नकल करते हुए बड़े ही फूहड़ तरीके से बाइट लेते फिर रहे हैं। मीडिया ने इन नेताओं का हुलिया बदल दी है। अब न तो वो नेता ही लग रहे हैं और न ही पत्रकार जो कि वो है ही नहीं। एक अविश्वसनीय कैरेकेटर, जिन्हे देखकर घृणा भी होती है, तरस भी आती है कि पॉलिटिक्स तुमसे क्या न करवाए और खुशी भी होती है कि जिस मीडिया को तुम गरिआते रहे, उस पर आए दिन नकेल कसने की कवायदें करते रहे, आज उन्हीं के वेश में आ गए। कबीर याद आते हैं मुझे-
लाली मेरे लाल कि, जित देखूं तित लाल
लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल।
अभी तुममें इतनी समझदारी नहीं आयी है कि तुम मीडिया को बदल सको। आज अगर वो थोड़ा भटक गयी है तो वो भी अपनी शर्तों और सहुलियतों के लिए, तुमसे डरकर तो बिल्कुल भी नहीं और अगर अपने मतलब के लिए मीडिया का बेजा इस्तेमाल करने की ये हरकत पॉलिटिकल ट्रेंड में बदल दिए, इसी तरह के भौंडे प्रदर्शन करते रहे तो दुत्कारने की प्रक्रिया उल्टी हो जाएगी और राह चलते मीडिया तुमसे कहती फिरेगी....
हंहंहंहं, ये चलाएंगे देश, पहले रिपोर्टर बनने की हसरत पूरी हो जाए तब न। अभी तो देखा ही मीडिया का असर, तब भी देखिएगा कि कैसे मजबूत होता है मीडिया का दौर।
आगे पढ़िए, राजनीति और स्वार्थ से हटकर कैसे चल रहा है बीकानेर में शीशपाल का रेडियो और कैसे शीशपाल गढ रहे हैं, सूचना क्रांति का सही और नया अर्थ।।।।
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शुरुआती दौर में जब हिन्दी दुनिया के लोग ब्लॉगिंग कर रहे थे तब मामला शेयरिंग का, मन की बात करने का भले ही रहा होगा लेकिन बाद में ब्लॉगों के कलेवर को देखते हुए साफ होने लगा कि नहीं, ये सिर्फ ब्लॉगिंग करने नहीं आए हैं। ब्लॉगिंग तो उनके लिए गेटपास भर है। ब्लॉग को लेकर वो बहुत सीरियस हैं वो इसे सिर्फ माध्यम के तौर पर नहीं ले रहे, उनके लिए ये एक औजार है। बहुत पैसा कमाना न भी रहा तो पॉपुलरिटी, ठसक और लोगों के बीच अपना प्रभाव बनाना तो जरुर रहा है। लेकिन, माफ कीजिएगा कि शुरुआती दौर में हिन्दी समाज जितना ही संतोषी रहा है, बाद में उसकी कामना और जल्दी-जल्दी पाने की इच्छा इतनी तेज होती गई, उसकी रफ्तार इतनी बढ़ गई कि आज वो हर पोस्ट के पीछे एक ठोस मतलब ढूंढ़ता, फिरता है।
पहली कोशिश तो ये होती है कि पोस्ट का ढांचा कुछ ऐसा हो, भाषा कुछ ऐसी हो, लिखावट में कुछ ऐसी शिष्टता हो कि अखबार उसे ज्यों का त्यों उठाए और छाप दे। कुछ दिनों के बाद उसके नाम से चेक अपने-आप पहुंच जाए।
दूसरी स्थिति कुछ ऐसी बने कि जब भी कोई अखबार ब्लॉग पर कोई स्टोरी करे तो उसके विचार को शामिल करे और ऐसा तभी संभव है जबकि ब्लॉगर खालिस ब्लॉगर न होकर सेलिब्रिटी ब्लॉगर बन जाए। इसके लिए लोग जो कुछ भी कर रहे हैं उसे आप सब जानते हैं।
तीसरी और बाकी की स्थितियों पर बात करें इसके पहले दोनों स्थितियों पर विचार कर लें। जब भी कोई ब्लॉगर उपर की दोनों स्थितियों के हिसाब से पोस्टिंग करनी शुरु करता है वो ये भूल जाता है कि वो ब्लॉगिंग कर रहा है और उसके पाठक का मिजाज अखबार के मिजाज से अलग है और उसकी पोस्ट पिट जाती है।जबकि कभी-कभार वो अखबारों के लिए उम्दा कच्चे माल के तौर पर काम आती है। इन सब के बीच शायद ही कोई ब्लॉगर जो कि अखबारों में छपता है नहीं सोच पाता कि वो अखबार की शर्तों से किस तरह से बंधता चला जा रहा है। कोई अच्छा ब्लॉगर है इसका सीधा पैमाना मान लिया गया है कि अखबारों में उसकी तस्वीर छपती है कि नहीं, उसकी राय ली जाती है कि नहीं और कहीं किसी अखबार से लिखने की ऑफर मिली या नहीं। जिस ब्लॉग को असहमति का धारदार वैकल्पिक माध्यम होना चाहिए था, आज वो भी मुख्यधारा की मीडिया में शामिल हो गया औऱ इसे वो उपलब्धि मान रहा है। अविनाश भाई के साथ जो कुछ भी हुआ वो इसी मानसिकता का नतीजा है।
हिन्दी ब्लॉगिंग करते हुए किसी ने इतनी ताकत पैदा की ही नहीं कि वो अखबार और मुख्यधारा की मीडिया की शर्तों पर लिखने के बजाए सारे ब्लॉगर खुद मिलकर ब्लॉग के उपर एक पत्रिका निकालें और उसे मुख्यधारा की मीडिया के सामने लाकर खड़ी कर दें।
ब्लॉग को लोगों ने बहुत सतही तौर पर लिया और अगर नहीं भी लिया तो अपने कारनामों से सतही तौर पर कर दिया।ब्लॉगिंग करते हुए जिसे उसने उपलब्धि मान लिया दरअसल वो एक पराधीन मानसिकता का नूतन संस्करण है जहां आप ऑफिस के बॉस का उपहास करते हुए भी, सिस्टम को गरिआते हुए भी परोक्ष रुप से उसे स्वीकार कर लेते हैं। सही बात तो ये है कि आज हमारे बीच ऐसा कोई ऐसा स्पेस नहीं बचा है जहां अपने मन की बात लिख सकें।
ब्लॉग की दुनिया में इसकी बड़ी गुंजाइश थी और एक स्तर पर अभी भी है लेकिन लोग इसे आगे बढ़ने के पहले ही इतने प्रोफेसनली लेने लग गए कि ब्लॉग ने अपनी चमक, प्रकृति और साहस ही खो दिया। लोग इसे बेबसाइट बनाने में लग गए। एक पोस्ट के पीछे दुनिया भर के लिक्स देने लग गए। आपको देखते ही समझ में आ जाएगा कि लगता है ये बहुत जल्द ही मेनस्ट्रीम की मीडिया में इमर्ज कर जाएंगे। इसलिए जब आपको मेनस्ट्रीम की मीडिया में इतनी इमर्ज हो जाने की छटपटाहट है तो फिर ब्लॉगिंग की शर्तें नहीं बल्कि मेनस्ट्रीम की शर्तें लागू होंगी।
कुछ ऐसे भी लोग ब्लॉगिंग कर रहे हैं जिनके लिए पोस्ट लिखने में और लेख लिखने में कोई खास फर्क नहीं है। माध्यम भर का फर्क है और कुछ भी नहीं। जो मटेरियल उनके पास है उसे देखते हुए साफ लगता है कि या तो इसकी खपत उनके ऑफिस में नहीं हुई या फिर पोर्टल बनाने की मानसिकता से हमारे सामने ठेल रहे हैं। जबकि एक बार गंभीरता से विचार करें तो ब्लॉग इससे कहीं आगे की चीज है। कोई भी बंदा जब कुछ भी लिख रहा होता है तो उसके पास उस विषय को लेकर किसी अखबार या चैनल से ज्यादा प्राइमरी सोर्सेज होते हैं। खबरें भी होती है तो उसमें मानवीय संवेदना के स्वर होते हैं। वो चैनलों से कहीं आगे की चीज है और ब्लॉग की दुनिया में इसका स्वागत होना चाहिए लेकिन प्रोफेशनल होने की मार के कारण चीन, तिब्बत औऱ इराक पहले याद आ जाते हैं और गली में देर से हुए फैसले के काऱण पागल हुई औरत बाद में या फिर याद आती ही नहीं है।
मुझे कोई अधिकार नहीं है किसी की पोस्ट पर कमेंट्स के अलावे कोई व्यक्तिगत राय मढ़ने की, पर, ब्‍लॉगलिखी अब जनसत्ता में नहीं आएगी जैसी पोस्ट पढ़ने को मिलती है तो बात समझ में आ जाती है मेनस्ट्रीम की मीडिया के साथ ब्लॉगर के गलबइंया करने से ब्लॉग झंझट, किचकिच और कलह का माध्यम बनकर रह जाता है। कितना कुछ किया जा सकता है ब्लॉग के जरिए लेकिन नहीं, आए दिन अदालती फैसले सुनाने, एक-दूसरे के खिलाफ फरमान जारी करने और विरोध में कारवाइयां करने के अलावे कुछ मतलब का नहीं हो पाता। मतलब का ये भी हो सकता है जब इससे बौद्धिक क्षमता का विकास हो। लेकिन यहां तो आलम ये है कि सामने वाले को पाखंडी, इगोइस्ट और मक्कार साबित करके ही दम लेना है।
अविनाश भाई के मामले में जनसत्ता ने जो फैसला लिया है, उसके बारे में कुछ न ही कहना बेहतर होगा क्योंकि एक बार बोलकर देख चुका हूं। अब बार-बार यूनिवर्सिटी में जाकर अपने बारे में सफाई देने की हिम्मत मुझमें नहीं है। थानवीजी ने अविनाश भाई के संदर्भ में जो कुछ भी तर्क दिया है वो उनकी जगह पर सौ फीसदी सही ही होगा कि-
रविवारी संस्‍करण के प्रभारी संपादक ने जो एक पैरा संपादन करते वक्‍त निकाल दिया, उसे आपने अपने ब्‍लॉग “मोहल्‍ला” में “मजाक” करार दिया है और “कड़ी आपत्ति” दर्ज की है (स्त्रियां जो ब्‍लॉग लिख रही हैं)
मैं तो इस बात पर खुश हो ले रहा हूं कि अविनाश भाई ने जो संपादकीय कारनामें को मजाक करार दिया इसके बहाने काफी हद तक मठाधीशी का भी मजाक उड़ाया जान पड़ता है, अविनाश भाई इसे कहें या न कहें और संभवत जनसत्ता के तिलमिलाने और फरमान जारी करने की बड़ी वजह यही हो।
इस मामले में ब्लॉग ने अखबार की औकात बता दी है। जो मामला ब्लॉग के न रहने पर दरद न जाने कोई सा रहता उसे अविनाश भाई ने जनसत्ता के प्रति असहमति जाहिर करके ब्लॉग के जरिए सार्वजनिक कर दिया। इस पूरे प्रकरण में ब्लॉग का सही अर्थ स्थापित हुआ है और एक ब्लॉगर की हैसियत से हमारे लिए गर्व की बात है। मेनस्ट्रीम की मीडिया से ब्लॉग को ज्यादा असरदार, धारदार, बेबाक और स्वाभिमान का माध्यम साबित करने के लिए अविनाश भाई को एक कॉलम गंवानी पड़ी तो भी कोई बात नहीं। ब्लॉग के इतिहास के लिए ये स्वाधीनता दिवस है। कॉलम तो फिर भी मिलते रहेंगे, यहां नहीं तो कहीं और सही।
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....तो कल रात ११ बजे रात से सुबह ४ रात तक चली बहस के बाद ये घोषित किया गया कि हनुमानजी भी ओबीसी थे और जिनको भरोसा है कि वो अभी भी हमारे बीच हैं तो मान लीजिए कि वो हमारे सामने ओबीसी के रुप में मौजूद हैं।

ओबीसी आरक्षण को लेकर बिना सिर -पैर की चली बहस में एकबारगी तो मेरा मन उबने लगा कि क्या ये सीनियर लोग विमर्श के नाम पर झेला रहे हैं लेकिन जब एक भाई ने क्रीमीलेयर में आने के कारण हमें भी बाबाजी यानि ब्राह्मणों की कोटि में रख लिया तो मुझे भी रस आने लगा कि बैठकर सुनूं तो आगे भाई लोग क्या-क्या तय कर रहे हैं। अच्छा मुझे इस बात की भी उम्मीद जगने लगी कि जिन लोगों को धन-दौलत होने के वाबजूद भी अन्य पिछड़ा होने की पीड़ा सताती है उसके लिए भी यहां राहत की बात की जा रही है।

तमाम घोषणांओं में हनुमानजी वाली घोषणा सबसे बेजोड़ रही। एक सीनियर जो कि हमेशा पेट्रोल छिड़कर जान दे देने की बात करते रहे थे, आज बहुत खुश थे। लोग चाह रहे थे कि उन्हें उदास किया जाए, थोड़ा दुखी किया जाए कि इतना घिसने के बाद जब रिजर्वेशन लागू हो भी गया तो क्रेडिट कोई और बटोर रहा हौ, अखबार में कहीं उसका कोई नाम नहीं, किसी भी चैनल ने उनकी बाइट नहीं ली। वो फिर भी इस बात पर खुश हो रहे थे कि- जाने दो, हमरा कोई नाम लेनेवाला नहीं तो कोई बात नहीं, हम जो चाहते थे आखिर वो तो हुआ न। फायदा तो हमलोगों को मिलेगा न। हां अब बस नेता और लेखक को जो रिजर्वेशन का लाभ नहीं मिलेगा, उसके लिए फाइट करनी है, सरकार पर दबाव बनानी है कि लोकसभा चुनाव आने के पहले कोई कमेटी गठित हो जाए और कुछ ठोस निर्णय लिए जाएं।

लेकिन, सच्चाई ये है कि आज अगर मीडिया किसी की नोटिस नहीं लेता तो उसके होने पर दसों उंगलियां उठती है। मसलन कोई अपने को लेखक कहे और मीडिया ने कभी उसकी तस्वीर या हिन्दी दिवस पर विचार या बाइट उसके नहीं दिखाए, छापे तो वो लेखक हो ही नहीं सकता। उसी तरह कोई अपने को कवि माने और होली में किसी चैनल ने उसे ये कहते हुए नहीं दिखाया कि- डॉक्टर मरे नर्स पर और मरीज मरे फर्श पर, ये है जी अपना देश, ये है जी देश की हालत तो समझिए कि वो कवि है ही नहीं। ठीक उसी तरह सरकार का कोई फैसला आए और उस पर उसका बयान ही नहीं लिए जाएं तो उसे नेता कैसे मान लिया जाए। इस मामले में मीडिया नपुंसक होने से बचाता है।

बहस में शामिल लोगों ने इसी बात का हवाला देते हुए उसके नेता होने पर ही उंगली उठा दी। एक ने कहा- महाराज आप तो छुठभइए नेता भी नहीं हो पाए कि कम से कम ओबीसी के बड़े नेता के सरकार में आने पर रोड़, नाला का टेंडर ले सकें। अपने नाम से एकाध पेट्रोल पम्प करवा सकें। कुछ नहीं तो लेटर पैड पर लिखवाकर कॉन्वेंट में नाम लिखवा सकें और बता रहे हैं कि हम नेता हैं। तथाकथित ओबीसी के प्रभावी नेता कहलाने के लिए परेशान हो रहे भाई भी जोश में आ गए और कहने लगे- तुम सब स्साले नमकहराम हो, हमरे जगह तुमलोगों को होना चाहिए था जो मुकर जाने में एक मिनट का भी समय नहीं लगाते हो। यहां पर कोई भी ऐसा आदमी नहीं है जिसके लिए हम पॉलिटिक्स के प्रभाव से काम नहीं आए हैं। किसी को कोई एतराज हो तो बताए। सबसे पहले एतराज तो हमें ही हो गया और बड़ी जोर से चिल्लाने का मन किया लेकिन दो बज रहे थे, मुझे बहुत नींद आ रही थी सो धीमे से कहा- मेरे लिए क्या किया आपने सर, जरा बताएं तो। थोड़े सकपकाए और कहा, चलो एक को छोड़ दिया, इसको तो ठीक से जानते भी नहीं है। लेकिन इसने हमें कभी कुछ करने को भी तो नहीं कहा। इसकी बात छोड़कर और कोई क्लेम करे तो सही। बस फिर क्या था, सब टूट पड़े- पहला शब्द अपनी-अपनी रुचि से गाली का इस्तेमाल करते हुए कि बता क्या किए हो मेरे लिए और तथाकथित ओबीसी के नेता एक-एक करके बताने लगे-

कुल छ लोग थे, मुझे छोड़कर। पहले वाले के बारे में कहा कि तुम एकबार फंस गए थे, एम्स में और हमको फोन किए थे। तुमको डॉक्टर का नं ही नहीं मिल रहा था, बोलो हम डॉक्टर सहित कम पैसा में काम करवा दिए थे कि नहीं। भाई ने कहा-हां करवाए थे।

दूसरे भाई साहब को एहसास कराते हुए कहा कि- एक बार पटेल चेस्ट में मारपीट कर लिए थे। मामला थाना-पुलिस तक चली गई थी, हम लग भीड़कर सेटस कराए थे कि नहीं। दूसरे बंदे ने कहा- हां करवाए थे।

तीसरे की तरफ बढे और कहा- पिछली बार तुमरे पास कोचिंग लायक पैसा नहीं था और तुम एक चांस मिस नहीं करना चाह रहे थे। तुम चाह रहे थे कि न हो तो कोचिंग का ही नोट्स मिल जाए तुमको। काहे कि वही सबकुछ क्लास में भी बताता है लेकिन जो लड़का कोचिंग कर रहा था वो इस बात के लिए तैयार ही नहीं था। ऐसे में हम प्रेशर बनाकर तुमरा काम करवाए थे कि नहीं। तीसरे ने सिर हिलाते हुए हुए कहा कि - हां नोट्स तुम दिलवा दिए थे।

चौथे की तरफ हिकारत भरी नजर से देखते हुए कहा कि- हमको पता था कि तुम इधर काम हुआ और उधर बिसर जाओगे, तुमरे साथ मिट्टी का असर है। हमको पहले ही सब बोलता था कि इई ऐसा समाज से आता है जहां के बारे में कहा जाता है कि पहले गेहुंवन सांप मिले और इलोग तो सांप को छोड़कर इसको मारो लेकिन हम फिर भी मदद कर दिए कि चलो अपना ही सब्जेक्ट का है और आज हमें ही चैलेंज कर रहा है। जब चित्रा साफे मना कर दी थी कि कुछ नहीं हो सकता- हमारे-तुम्हारे बीच, हमलोग के बीच ऐसा कुछ है भी नहीं और डूसू ऑफिस के सामने दुत्कार के भगाई थी और तुम कंधा खोजते फिरते थे तो कौन गया था उसके सामने। रस्ता रोककर साफ कह दिया था कि देख लो हमरा भाई अगर तुमरे बिन कलपता है तो तुम भी डीयू में चैन से एमए नहीं कर पाओगी। भूस गए, चाय-कॉफी तक मामला सेट कर के आए थे।

पांचवे की तरफ बिना नजर मिलाए बोलने लगा- हद बेशर्म आदमी हो तुम भी जी। कर-धरके गिनानने का मन नहीं करता है। तुमरे मां-बाबूजी को अपना चच्चा-चाची बोलकर हॉस्टल के गेस्ट हाउस में सात दिनों तक रुकवाए, सेवा सत्कार किए, भतीजा से कम नहीं किए और आज तुमही हमसे हिसाब मांग रहा है।

सब आदमी का मुंह लटक गया था। इसलिए नहीं कि उनके पास जबाब देने के लिए कुछ बचा नहीं था, बल्कि एस अकेले नेता ने सबको नगा कर दिया था। आज जो सब ब्रांडेड जींस-पैंट बैठकर फटेहाल नेता के सामने चौड़ा हुए जा रहे थे, देखते ही देखते सब फुस्स हो गए। मन इस बात को लेकर कचोट रहा था कि अब इसको सही में नेता मानना पड़ जाएगा और दूसरी बात ये कि किसी को भी नहीं लगता था कि इसे सारे एहसान जो कि हम पर किए अभी तक याद है।

लेकिन नेता छठे की तरफ देखकर कुछ बोलता इसके पहले ही वो जो कि हमसे दो क्लास पीछे है पहले ही महौल बनाने में जुट गया। पहली ही लान में कहा- आप बहुत बोल लि अब हमको बोलने दीजिए-

हमको पता है आप भी हमें एम्स का हवाला देंगे तो सुनिए- ये सही बात है कि मैंने आपको मदद के लिए फोन किया था लेकिन आपने कहा कि पाता करके बताते हैं। फिर कुछ देर बाद आपने कहा कि फोन ही नहीं मिल रहा है। तब हमने आपको कहा कि रहने दीजिए हम देखते हैं। और आप और नेता, फोटो कॉपी, चाय और फोन के नाम पर सौ-दौ सो कितनी बार मांग चुके हैं आपको ये बात तो याद नहीं रही। हम आपकी तरह नहीं हैं कि याद रखते। हमको पता ही नहीं था कि मदद के नाम पर आप आपसे में ही नेतागिरी कर रहे हैं।

आप तो हद गिरे हुए आदमी निकले। आप जितना कुछ गिना दिए, एकबार फिर से सोचिए कि दोस्ती यारी में इतना कौन किसके लिए नहीं करता। आपने ने जो कुछ भी किया उतनी तो जान-पहचान सबको होती है, मौके-मौके की बात है। गांव-देश से कोई दूर रहता है इसका मतलब ये नहीं है कि कोई अनाथ होकर जीता है। आपके यहां का तो पानी पीने का भी मन नहीं करेगा। कल को कहेंगे, तुमको तो दिल्ली में साफ पानी भी मय्यसर नहीं था, हम पहली बार पिलाए थे, हद हैं महाराज आप भी। ....और हनुमानजी को लेकर चौड़ा हो रहे हैं। अगर हनुमानजी ओबीसी थे भी तो कभी सोचे कि फारवर्ड ने उन्हें हमेशा लंगोट पहनाकर रखा। यहां तक तो आप सोच नहीं पाए, आप सोच भी नहीं सकते, चले हैं नेतागिरी करने।...

इतना सुनना था कि पांचों बंदे की बांछें खिल गई, पहली बार उन्हें जूनियर की योग्यता पर भरोसा हुआ। इधर नेताजी का चेहरा स्याह हो गया था। फोटो कॉपी के नाम पर पैसे लेनेवाली बात उनके मन को लग गई थी। लेकिन पांचों का मिजाज बन आया था और सबकुछ छोड़कर विमर्श का मुद्दा निकल आया कि चार बजे सुबह में कोक कहां मिलेगी....गला बहुत सूख रहा है।

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जरा पुरुष विमर्श हो जाए

Posted On 11:20 pm by विनीत कुमार | 4 comments

शायद स्त्री-विमर्श के पुरोधा राजेन्द्र यादव भी नहीं चाहेंगे कि जिन स्त्रियों को उन्होंने अपने विमर्श में जगह दी, आज वो ही स्त्रियां स्त्री-विमर्श के नाम पर उन्हें काट खाने के लिए दौड़े। उनकी भी इच्छा नहीं होगी कि स्त्री-विमर्श के नाम पर कोई पुरुषविहीन समाज बने। इसलिए अब जरुरी है कि स्त्री-पुरुषों के बीच कॉर्डिनेशन की बात की जाए। बहन, बेटी, पत्नी और मां बनकर जिन स्त्रियों ने पुरुषों के आदत बिगाड़ दिए हैं, उन्हें जरुरत से ज्यादा लाड़-प्यार दिया है अब वो उन्हें दुरुस्त करें। स्त्री-विमर्श तो हो ही रहा है, अब थोड़ा पुरुष विमर्श चलाया जाए।
(प्रतिष्ठित कथाकार ममता कालिया का वक्तव्य)
जिन लोगों को स्त्री-विमर्श के नाम पर जो कुछ हो रहा है उन्हें देखते हुए घुटन होती है, चिढ़ होती है उन्हें सबकुछ ढकोसला लगता है और उसकी आलोचना के लिए बड़ी शिद्दत से रेफरेंस ढूढते-फिरते हैं उनके हिसाब से ममता कालिया ने उनके पक्ष में ही बात कही है। उन्हें लग सकता है कि ममता कालिया उनके साथ हैं। क्योंकि वो इसका अर्थ कुछ अलग तरीके से निकालते हैं-
एक तो ये कि स्त्रियां बहुत लम्बे समय से एक ही विमर्श को चलाते-चलाते बोर हो गईं हैं इसलिए जरुरी है कि टेस्ट बदलने के लिए अब पुरुष विमर्श चलाना चाहती है।
दूसरा ये भी कि स्त्रियों को अपनी औकात का पता चल गया है। घिस-घासकर, घसीटकर अगर वो विमर्श चला भी ले तो बिना पुरुषों के बिना घर और जीवन चलाना मुश्किल है।
स्त्रियों के लिए पुरुष के साथ होने का मसला उसके पसंद-नापसंद पर निर्भर नहीं है बल्कि उसकी नियति है, मजबूरी है कि वो पुरुषों के साथ एडजेस्ट होकर रहे।
तीसरा मतलब ये भी हो सकता है कि स्त्रियां विमर्श करने के लिए पैदा नहीं हुईं हैं, घर-परिवार और अपना जीवन चलाने के लिए, बच्चे पैदा करने के लिए पैदा हुईं हैं और इन सब कामों के लिए पुरुषों का होना जरुरी है। विमर्श बिना पुरुष सहयोग के हो भी जाए तो भी बाकी के ये सारे काम बिना उसके सहयोग के संभव ही नहीं है।
....और ये भी कि विमर्श चलाते-चलाते अब स्त्रियां थक चुकी है, अब वो और पुरुषों के खिलाफ बयानबाजी नहीं कर सकती। वो विमर्श चला भी रही हैं और इधर थक भी रहीं हैं। विमर्श की प्रक्रिया फिर भी धीमी है जबकि थकने की प्रक्रिया फिर भी उससे बहुत तेज और इस थकी हुई अवस्था में पुरुष ही काम में आएंगे।
इधर स्त्री-विमर्शकार ममता कालिया के इस वक्तव्य को स्त्री-विरोधी, आर्य समाजी सोच, नास्टॉलजिया की शिकार मानकर सिरे से खारिज कर सकती है। जिन स्त्रियों की मुठ्ठी अभी-अभी तनी है वो इस तरह के बुजुर्ग सलाह को मानना क्या, सीधे हम ऐसी बातों की परवाह नहीं करते बोलकर इसे नजरअंदाज कर सकती है। लेकिन तब वो ममता कालिया के इस वक्तव्य के बाद राजेन्द्र यादव ने जो कुछ भी कहा उसे पुरुष समाज और स्त्री-विमर्श से जुड़े लोग और भड़केंगे-
राजेन्द्र यादव ने सीधे-सीधे बेबाक किन्तु ढलती उम्र की वजह से विनम्र होते हुए कहा-
अगर स्त्रियों के सुधार में पुरुषों की एक पीढ़ी को स्त्रियां काट भी लें तो क्या बुरा है। मैं तो ममताजी का शुक्रगुजार रहूंगा। ये काम भी पुरुषों का शहादत ही माना जाएगा।
राजेन्द्रजी की इस बात पर तो दोनों लोग बजर राउंड की तरह एक साथ गरम हो जाएंगे।
पितृसत्तात्मक पुरुष वर्चस्ववादी समाज पर आस्था और भरोसा रखनेवाले लोगों का कहना होगा कि-
राजेन्द्रजी पर बुढापे का असर साफ दिख रहा है। उन्हें अपनी जिंदगी में जो कुछ भी लिखना-पढ़ना, बोलना और बटोरना था उसे तो उन्होंने कर लिया, अब हमलोगों की जिंदगी हलाल करने पर क्यों तुले हैं।
अच्छा राजेन्द्रजी प्रगतिशील मानसिकता के होते हुए भी मोक्षकामी इंसान है इसलिए जीवन के उत्तरार्द्ध में कुछ ऐसा कर जाना चाहते हैं कि सीधे बैकुंठ। उन्हें इस तरह के शब्दों से परहेज भले ही है लेकिन फैसिलिटी के मामले में कोई समझौता नहीं करना चाहते हैं।
राजेन्द्रजी के वक्तव्य को हिन्दी के इतर समाज ने अगर सुना होगा जो कि ऑडिएंस के हुलिए को देखकर संभव है, उनके दिमाग में ये बात जरुर आ रही होगी कि इस बंदे को किसने ये अधिकार दे दिया कि वो पुरुषों की एक पीढ़ी को महिलाओं से कटवाए। हिन्दी के हम युवा इस बात पर आस्था के वशीभूत होकर राजी हो भी जाएं तो भी हिन्दी के बाहर के लोगों को राजेन्द्रजी ने ऐसा क्या दे दिया है कि वो इस बात को मान लें।...हिन्दीवाले अगर बात मान भी ले तो इससे क्या फर्क पड़ जाता है। हिन्दी के बाहर तो राज इनका नहीं ही चलता है न।
इधर, राजेन्द्रजी पर बरसने के लिए स्त्री-विमर्शकार के हाथ में एक असरदार शब्द तो हाथ में लग ही गया है। शहादत शब्द ही राजेन्द्रजी पर गरम होने के लिए पर्याप्त है। वो सीधे सोच सकते हैं कि इतने दिनों तक स्त्री के पक्ष में बात करने के बाद भी राजेन्द्रजी पुरुष वर्चस्वादी मानसकिता से उबर नहीं पाए हैं। अब उन्हें शहादत का शौक लगा है और अलौकिक मुक्ति की इच्छा रखने लगे हैं। हम खूब समझते हैं, अंत तक आते-आते वो पुरुष समाज को यही मैसेज देना चाहते हैं कि- हे पुरुषों, मैंने स्त्रियों के पक्ष में जो कुछ भी किया जिससे हम तुम्हारे विरोधी भी दिखने लगे, अब इस तरह के कामों की वैलिडिटी खत्म हो गई है, अब मैं तुम्हारे साथ हूं।॥और आज मैंने जो कुछ भी कहा उसे तुम कॉन्फेशन स्टेटमेंट के तौर पर समझो।
यानि ममता कालिया और राजन्द्र यादव ने अपने-अपने तरीके से इस बुद्धिजीवी समाज को असहमत होने के लिए पर्याप्त सामग्री दे दी है। सच पूछिए तो उनके लिए भला ही किया है क्योंकि बिना असहमति के बुद्धिजीवी होना ऑलमोस्ट नामुनकिन है। आस्था और सहमति तो पुरानी पड़ गई और इसके बूते सिर्फ सभा, संगोष्ठी हो सकती है, विमर्श की ताकत इसमें कहां है जी।
पोस्ट की कच्ची सामग्री- ११ अप्रैल २००८, हिन्दी भवन
मौका- शीला सिद्धान्तकर स्मृति समारोह
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पापा, आपकी इन्कम कितनी है

Posted On 2:22 am by विनीत कुमार | 5 comments

ओबीसी आरक्षण लागू होने पर सरकार ने बताया कि इससे सामाजिक स्तर पर समानता आएगी और आपने मान भी लिया। देखिए सरकार के कानून को सीधे-सीधे मान भी लें तो जाति जैसा मामला हमारे मिजाज और मूड की चीज है, ये हमारे संस्कार में मिले हैं। इसे हम भला एक झटके में कैसे छोड़ दें। जाति कोई चीनी तो है नहीं कि आरक्षण में घुल जाए और पूरे समाज को समरस और मीठा कर जाए। टैम लगता है भाई और जाति जैसे मामले में जितना टैम लगे उतना ही मामला चोखा बनता है।

आरक्षण को लेकर मैं कोई गंभीर बहस में पड़ना नहीं चाहता, जो काम पिछले चौबीस घंटे से अखबार और चैनल कर रहे हैं वो काम मैं भी क्यों करने लग जाउं। मैं तो बस रिजर्वेशन लागू होने की घोषणा के चौबीस घंटे के भीतर हुए तीन घटनाओं का जिक्र करना चाहता हूं। तो लीजिए एक-एक करके-

मेरे विभाग में लेक्चररशिप की लाइन में कितने ओबीसी हैं, उंगलियों पर इनकी गिनती शुरु हो गई है। अभी ये काम स्टूडेंट ही कर रहे हैं। जब सब तरफ से सही आंकड़ा निकल आएगा तो बात हाइकमान तक पहुंचा दी जाएगी। इस आपरेशन के तहत एक-दो लोगों को लेकर लोगों को झटका भी लगा। जिसे अभी तक फारवर्ड समझ कर खिलाया-पिलाया जाता रहा, ओबीसी को लेकर जिनके साथ गोलाबंदी करते रहे आज वो ओबीसी निकला। दरअसल सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद उसके चेहरे पर जो चमक आयी उसे वो रोक नहीं पाया, उसे वो नैचुरल ही रहने दिया और इस चक्कर में अच्छा-खासा फ्रैंड सर्किल गंवा बैठा। अब ये कहा जाने लगा है कि- अच्छा, ओबीसी है तभी तो सारी बातें चुपचाप सुनता रहा, कभी किसी बात पर चूं से चां तक नहीं किया। बीच-बीच में हमको शक होता रहा कि इसका कोई भी लक्षण फारवर्ड वाला नहीं है,कोई अकड़ नहीं है, गिरगिराता फिरता है। लेकिन हम देह की कमजोरी समझकर नजरअंदाज करते रहे। आज वही हुआ जिसको लेकर मन में खटका लगा रहा। तब वो सारी बातें इधर से उधर करता होगा जो कि हमलोग ओबीसी को लेकर बोलते रहे।

शाम को एक भाई ने बड़ी ही बेचैनी से, बधाई देते हुए फोन किया, यार सुप्रीम कोर्ट भी न, अब रिजर्वेशन दिया ही है तो उसमें क्रीमीलेयर वाला लोचा क्यों लगा दिया। क्यों कह दिया कि ढ़ाई लाख से ज्यादा जिनकी आमदनी होगी, उनके बाल-बच्चों को रिजर्वेशन नहीं मिलेगी। अच्छा, ये बताओ तुम्हारे पापा की इन्कम कितनी होगी। देखने से तो नहीं लगता कि तुमलोग ढाई लाख में गुजारा कर लेते होगे। साले, सेठ जो ठहरे। मैंने हंसते हुए बताया-सवा दो लाख। उसने कहा-तू झूठ बोल रहा है, सच-सच बता न। मैंने कहा कि ढाई लाख से बहुत ज्यादा है लेकिन फिर भी मुझे इसका फायदा मिलेगा। क्योंकि बिजनेस में कुछ भी फिक्स तो है नहीं किसी-किसी साल बहुत घाटा भी लग जाता है, फैशन बदल जाते हैं और बहुत सारा माल पैंडिंग पड़ जाता है, तब तो हम सर्टिफिकेट बनवा सकते हैं न लो इन्कम की और वो भी पक्की। उसका मन बैठ गया और कहने लगा-तुम्ही लोग लो बेटे मजा, उधर पैसे का भी और इधर रिजर्वेशन का भी। लेकिन कहो कुछ, हो तुम बहुत ही कमीने, कोई भी बात साफ-साफ नहीं बताते, सबकुछ घुमा-फिराकर जैसे सबसे ज्यादा खतरा तुमको हम्हीं से है।

....और तीसरी घटना जब मैं पड़ोस के हॉस्टल में मेल चेक करने गया तो वहां हमारे एक परिचित मिल गए और देखते हुए हुलसते कहा- अरे भाई साहब, हम तो आप ही जैसे लोगों को खोज रहे थे, चलिए हमारे साथ कंप्यूटर रुम। वहां मैं गया तो देखा कि लोक सभा की साइट खुली हुई है और वो हमसे जानना चाह रहे थे कि लोकसभा औऱ राज्य सभा के कुल कितने एमपी ओबीसी से हैं। उनका कहना था कि एक बार पता तो चल जाए उसके बाद देखिए कैंपस में कैसे लोगों को फाड़ देगें। अभी इ लोग आदमी पहचाना ही नहीं है।

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कल तक आपने पढ़ा कि हिन्दी मीडिया का कलेजा इतना बड़ा नहीं है कि वो अपने मीडियाकर्मियों को रिसर्च के लिए प्रोत्साहित करे और न ही देश के विश्वविद्यालयों ने ऐसी कोई व्यवस्था की है कि अनुभवी पत्रकार चाहे तो साल-दो साल मीडिया प्रैक्टिस छोड़कर रिसर्च के काम में लगे। अब आगे-
हिन्दी वाले जब साहित्य पढ़कर मीडिया में आते हैं और अब जब मीडिया पर रिसर्च करने का मन बना रहे होते हैं तो उनके सामने कुछ बुनियादी परेशानियां सामने आती है। जैसे- हिन्दी में तो ढ़ंग का मटेरियल है ही नहीं जिससे कि मीडिया के प्रति समझ बन सके। कुछ किताबें लिखीं भी गई हैं तो इस प्रयास से कि इसे पढ़कर बस डिप्लोमा की परीक्षा में पास हुआ जा सकता है। कुछ बड़े लोगों ने लिखा भी है तो उसमें कहीं कोई रेफरेंस नहीं है। किताब के अंत में किताबों की सूची तो है लेकिन चैप्टर के भीतर ये साफ ही नहीं हो पाता है कौन सी बात वो खुद कह रहे हैं और कौन सी बात को बतौर रेफरेंस इस्तेमाल कर रहे हैं। इतना उलझन और अस्पष्ट मामला होता है कि वाकई हिन्दी अंग्रेजी पर भारी पड़ने लग जाती है। इन किताबों से गुजरते हुए ऐसा लगता है कि जिस किसी ने भी इस किताब को लिखा है वो ये मानकर चल रहा है कि जिस भी पाठक को ये किताब हाथ लगेगी वो नौसिखुए किस्म का होगा और चाहे कुछ भी लिख दिया जाए,वो पचा जाएगा। मार उसमें भी साहित्य की अवधारणा ठूंसे जा रहे हैं। ऐसी ही किताबों को देखकर मैं अक्सर कहा करता हूं कि हिन्दी के बाबा हमारे नहीं पढ़ने की वजह से विद्वान हो गए हैं, अगर हम भी उनकी तरह कुछ पढ़ लें तो कई चीजें खुद-ब-खुद साफ हो जाएगी। वो उन लोगों का नाम लेने से बचते हैं जिनकी पंक्तियों को उठाकर उन्होंने अनुवाद किया है। शायद इसलिए कि ऐसा करने से उनकी आभा कम हो जाएगी। अपवाद में दो-तीन लेखक हैं जिनसे मैंने बहुत कुछ सीखा-समझा है, वो यहां शामिल नहीं हैं।
दूसरी बड़ी परेशानी हिन्दीवालों के सामने है, जो कि उनकी खुद की बनायी हुई है वो ये कि मीडिया के जो बेसिक शब्द हैं,जिसे आप पारिभाषिक शब्दावली भी कह सकते हैं,उसकी बिल्कुल समझ नहीं है। उसे या तो वो अंग्रेजी का हिन्दी का मतलब निकालकर समझ लेते हैं,अपने मन से अर्थ लगा लेते हैं या फिर उसमें भी कोई भारी-भरकम कॉन्सेप्ट खोंस देते हैं जिसकी बिल्कुल भी जरुरत नहीं होती। जरुरत होती है तो बस इस बात की कि वो एक-दो बार किसी मीडिया प्रोफेशनल से इस मामले में बात कर लें या फिर सप्ताह भर जाकर चैनल के अंदर खुद ही जाकर समझ लें।
तीसरी परेशानी है, अंग्रेजी में कमजोर होने की। अंग्रेजी में कमजोर होना कोई शर्म की बात नहीं, इसे प्रयास से दूर किया जा सकता है लेकिन दिक्कत इस बात की है कि जो संस्कार उन्होंने ग्रहण किए हैं उसके अनुसार अंग्रेजी हिन्दी की जूती है और इसे वो सम्मान नहीं दे सकते। अंग्रेजी में अपनी कमजोरी को दूर करने के बजाए अंग्रेजी को बार-बार गरियाकर जस्टिफाय कर लेते हैं। हिन्दी का स्वर इतना तेज कर लेते हैं कि अंग्रेजी न जानने की कुंठा उसके भीतर दब जाए औऱ तब वो घसीट-घसीटकर रिसर्च पूरी करते हैं। ये अलग बात है कि इतना सबकुछ कर लेने के बाद भी वो अंग्रेजी के आतंक से मुक्त नहीं हो पाते और कभी किसी जूनियर से या फिर कभी कम दाम पर अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद कराते-फिरते हैं।
आप लाख ड़ंका पीटते रह जाइए कि हमारी हिन्दी बहुत समृद्ध है और किसी दूसरी भाषा की ओर ताकने की जरुरत नहीं है लेकिन इतनी समझदारी तो लानी ही होगी कि भाषा के समृद्ध होने के बावजूद विद्वानों ने मीडिया और कल्चरल स्टडीज पर नहीं लिखा है तो आपको अंग्रेजी की तरफ तो जाना ही होगा। एक स्तर पर तो समझदारी आपको उसी भाषा में लिखी गई सामग्रियों से ही मिलेगी।
हांलांकि हिन्दी समाज अब इस बात की चिंता किए वगैर कि अंग्रेजी पढ़ने से हमारी गरिमा कम होगी,हमारे विद्वानों के बजाए अंग्रेजी के विद्वानों के कोटेशन्स ज्यादा इस्तेमाल होने लगेंगे तो भी अंग्रेजी पढ़ने लगे हैं लेकिन इसकी रफ्तार बहुत धीमी है औऱ कुछ गिने-चुने विश्वविद्यालयों में ऐसा हो पाया है। वो अपने हिन्दी के बाबाओं की बाट जोहते रहते हैं कि कब ये इस मुद्दे पर कुछ लिखें और उनका नाम हम अपनी थीसिस में डालें।
क्योंकि देश के हिन्दी विभाग में एक बड़ी सच्चाई है कि रिसर्चर अपनी रिसर्च कितने ऑथेंटिक ढ़ंग से करता है इस सवाल के साथ ज्यादा जरुरी हो जाता है कि अपने विद्वानों को खुश कर पाया है कि नहीं। इसलिए आप देखेंगे कि थीसिस में कई ऐसे नाम भी आ जाएंगे, कई ऐसे किताबों को शामिल कर लिया जाएगा जिसका कि विषय से कोई लेना-देना ही नहीं है।
इसलिए हिन्दी समाज के लिए मीडिया में रिसर्च करते हुए जो परेशानियां सामने आती हैं, काफी हद तक वो वाकई में परेशानी है लेकिन परेशानी का बड़ा हिस्सा इस बात पर टिका होता है कि हिन्दी समाज अपनी मानसिकता से उपर उठ नहीं पाता। रिसर्च के टॉपिक को जितने साफ ढ़ंग से मीडिया को साहित्य से अलगा देता है, काम करते वक्त ऐसा नहीं कर पाता। इसलिए डिशक्शन के बिन्दु टेलीविजन के होते हुए भी रेफरेंस नवजागरण के एक्सपर्ट के याद आ जाते हैं।
हिन्दी मीडिया रिसर्च की ये दुनिया जब तक रिसर्च के स्तर पर अपने को साहित्य से अलग नहीं कर लेती,तब तक न तो उसके द्वारा किए गए रिसर्च को मान्यता मिल पाएगी, न तो इससे मीडिया को कोई लाभ होगा और न ही एकेडमिक स्तर पर मीडिया रिसर्च एक मतलब के काम के तौर पर स्थापित हो पाएगा।...और आनेवाली मीडिया रिसर्च की पीढ़ी शायद हमसे ज्यादा उबकर-चिढ़कर लिखे, क्योंकि आप तो उसका विषय भी छिन ले रहे हैं. तब तो कहेंगे कि न कि- सीनियर ने सब नरक कर दिया, मीडिया रिसर्च के नाम पर कागजी कतरन जमा किए हैं बस।।।.
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कल तक आपने पढ़ा कि हिन्दी के लोग साहित्य और मीडिया को एक मान लेते हैं और मीडिया के उपर साहित्य के प्रतिमान फिट करने लग जाते हैं। साहित्य के लोगों को बाजार और पूंजीवाद से शुरु से ही विरोध रहा है और आज मीडिया भी इसकी ही उपज है इसलिए वो मीडिया का भी सीधे-सीधे विरोध करने लग जाते हैं। अब आगे-
हिन्दी के लोग जब भी मीडिया पर बात करते हैं तो उनके दिमाग में कुछ गिने-चुने शब्द, विचार या अवधारणा होते हैं। वो शब्द और विचार जो किसी भी कवि को जनपक्षधर बताने के काम आ सकते हैं और अवधारणा जिसके बूते ये सिद्ध किया जा सके कि मीडिया लेट कैपिटलिज्म की उपज है। ये हमें पैसिव ऑडिएंस बनाता है। इसमें प्रस्तुत विचार औऱ जीवन शैली दरअसल कुछ ही लोगों के विचार और जीवन शैली होते हैं और बाकी की जनता इसे फॉलो करती है। ग्राम्शी के शब्दों में कहें तो ये कल्चरल हेजमनी यानि सांस्कृतिक वर्चस्व है। साहित्य को मार्क्सवादी नजरिए से पढ़नेवाले लोगों के लिए इस अवधारणा के तहत मीडिया का विश्लेषण करने के लिए खूब सामग्री मौजूद है। अब कुछ हद तक हिन्दी में भी और अंग्रेजी में तो है ही।... और आप मीडिया पर हुए तमाम रिसर्च को उठाकर देख लीजिए लोग इसकी बाकी चीजों पर बात न करके मीडिया को लेट कैपिटलिज्म या आवारा पूंजी का सुपुत्र मानकर इसकी निंदा करने लग जाते हैं। इनके हिसाब से मीडिया में कोई भी ऐसा एलीमेंट नहीं है जिससे की समाज को बेहतर किया जा सके। वो अब भी मीडिया में बिल्बर श्रैम के मॉडल की तलाश करते-फिरते हैं जिसे कि नेहरु युग में मीडिया और संचार मॉडल के तौर पर अपनाया गया था। जिसके अनुसार इस बात को बार-बार स्थापित करने की कोशिश की गई कि मीडिया को हर हाल में सामाजिक विकास के लिए कार्य करना चाहिए। लेकिन आज के हिन्दी रिसर्चर अब भी इस बात को ज्यों के त्यों पकड़कर बैठे हैं। वो इस बात को समझ ही नहीं पाते या समझना ही नहीं चाहते कि ये तब कि स्थितियां है जब मीडिया का संचालन पूरी तरह सरकार के हाथों में रही। उस सरकार को जिसके लिए मीडिया को बनाए रखने के लिए किसी तरह की कंपटीशन से नहीं गुजरना पड़ा। वो मीडिया का काम उसी तरह करती है जैसे एक वेलफेयर स्टेट में नाली, पानी सड़क और इसी तरह दूसरे जनहित के कार्य। जिसके लिए सरकारी खजाने से रुपये निकाले जाते हैं और टैक्स के जरिए जिसे उगाहाया जाता है।
आज जो मीडिया हमारे सामने है उस पर न जाने कितने दबाव हैं। समय, बाजार, पूंजी, प्रतिस्पर्धा, दूसरे से बेहतर और जल्दी करने के दबाव तो हम जैसे लोगों को साफ दिखाई देता है इसके अलावे मैंनेजमेंट के स्तर पर सैंकड़ों दबाव होंगे जिसे कि नजदीकी से समझना हमारे लिए आमतौर पर आसान नहीं होगा। तो भी उपरी तौर पर भी हम जितना दबाव समझ पा रहे होते हैं, हिन्दी के लोग रिसर्च करते समय इन सारी बातों को पूरी तरह नजरअंदाज कर जाते हैं। एक आम आदमी या अनपढ़ आदमी बिना कुछ ज्यादा सोचे-समझे मीडिया को गरिआये तो बात समझ में आती है। हांलांकि उन्हें भी मीडिया लिटरेट करना हमारा ही काम है, उन्हें बताना हमारी जिम्मेवारी है कि ऑडिएंस के स्तर पर सक्रिय होकर हम मीडिया को कितना कुछ बदल सकते हैं। लेकिन अगर एमए करने के बाद कोई एमफल् और पीएचडी के स्तर पर इसी मानसिकता और मीडिया के प्रति इसी समझदारी को लेकर मैंदान में उतरता है तब उसके रिसर्च करने और न करने का कोई मतलब नहीं रह जाता है। ये अलग बात है कि उन्हें तो भी एमफिल् या पीएचडी की डिग्री अवार्ड कर दी जाएगी। क्योंकि देशभर में सैंकडों ऐसे विषयों पर पीएचडी अवार्ड की जाती है जिसके बारे में अगर रिसर्चर से पूछा जाए कि इसे करने के बाद आपने कौन सी नई स्थापनाएं दी या फिर आपकी पीएचडी का एप्लीकेशन क्या है तो कुछ भी नहीं बता पाएंगे। उसकी तो बात ही छोड़ दीजिए। सच्चाई ये है कि मीडिया को प्रोडक्शन, कन्जम्पशन,रीप्रोडक्शन,पॉलिटिकल इकोनॉमी और कल्चरल डिस्कोर्स के तहत देखने और विश्लेषित करने की समझ पूरे हिन्दी समाज में विकसित नहीं हुई है।
मीडिया पर रिसर्च करनेवाला हिन्दी समाज लेटस्ट या नया काम या नए तरीके से काम करने के नाम पर उनलोगों का विरोध करता दिखाई देता है जो आकाशवाणी की परिकल्पना महाभारत काल से मानते आ रहे हैं और नारद को भारत का पहला व्यवस्थित रिपोर्टर मानते हैं। बहुत हुआ तो जो लोग अखबार की पत्रकारिता और उनकी शर्तों को टेलीविजन और बाकी मीडिया के साथ घालमेल कर देते हैं उससे अलगाने का काम करते हैं लेकिन वो भी इस बात की चर्चा कभी नहीं करते कि जो मीडिया हमारे सामने पनप रहा है उसका स्पेस से और आए दिन बनते-घिरते सामाजिक अवधारणाओं से क्या संबंध है। सीधे-सीधे शब्दों में कहें तो मीडिया जिस आर्टिकुलेशन या पैश्टिच कल्चर को तेजी से अपना रहा और आगे बढ़ रहा है, उसकी खोज-खबर हिन्दी समाज का रिसर्चर नहीं लेता।
इसकी एक वजह तो ये भी है उसके उपर से हिन्दी साहित्य की मान्यताओं का दबाव हटता नहीं, उसके दिमाग से ये बात जाती ही नहीं कि साहित्य में जिन विद्वानों के विचार सबसे ज्यादा हिट रहे उन्हें मीडिया में काम करते हुए कैसे छोड़ दें या फिर उनको ओवरटेक करके कैसे आगे बढ़ जाएं। जबकि सच्चाई ये है कि हिन्दी के, साहित्य के बड़े-बड़े बाबाओं के विचार के मुताबिक अगर रिसर्च किए जाते हैं तो मीडिया का नरक होते देर नहीं लगेगी और अगर किसी ने इन विचारों को ओवरटेक किया तो इन बाबाओं के विचार पिटते देर नहीं लगेंगे। तरीके से अगर इनका विश्लेषण किया जाए तो बात समझ में आ जाएगी कि विद्वानों ने विद्वता के नाम पर कितना कच्चा-कच्चा और अधकचरा हमारे सामने रख दिया है।
इस संबंध में बात करते हुए मेरी पहली पोस्ट पर मिहिर ने टिप्पणी की है, उसे यहां रखना जरुरी है-
miHir pandya ने कहा…
असल में एक फांक है या बन गई है मीडिया और उसके ऊपर होने वाली रिसर्च में. जो मीडिया में कार्यरत हैं वे शायद उसपर आलोचनात्मक नज़रिये के साथ काम नहीं कर सकते और अध्यनरत विद्यार्थी अब भी मीडिया के 'फर्स्ट हैण्ड' अनुभव से बाहर हैं. और ऐसे में आपका दोहरा अनुभव काम आता है।
मिहिर की बात में दम है लेकिन इसे पूरी तरह एज इट जी नहीं माना जा सकता . मिहिर के हिसाब से मीडिया में काम करनेवाले लोग उतने आलोचनात्मक तरीके से नहीं लिख सकते। ऐसा नहीं है। आप पुण्य प्रसून की राइटिंग को उठाकर देख लीजिए। मीडिया के भीतर की पॉलिटिक्स को छोड़ दे तो आपको पढ़कर लगेगा कि इस आदमी ने किताब ब्रेकिंग न्यूज में जो बात कही है उससे आपको अंदाजा लग जाएगा कि मीडिया में काम करते हुए भी कितने बेबाकी तरीके से लिखा-कहा जा सकता है। रवीश कुमार के लेखों को देखिए कितना सधे हुए तरीके से लिखते है और जिस मानवीय संवेदना की बात हिन्दी समाज उठाता है वो सारे एलीमेंट वहां मौजूद है। हां, लेकिन ये हमारी-आपकी तरह रिसर्च नहीं कर सकते। क्योंकि देश की यूनिवर्सिटी ने ऐसी कोई व्यवस्था नहीं की है कि कोई पत्रकार साल-दो साल की छुट्टी लेकर कोई रिसर्च करे और यूनिवर्सिटी इस काम के लिए फेलोशिप दे। हिन्दी मीडिया का भी कलेजा इतना बड़ा नहीं है कि वो अपने चैनल के पत्रकारों को रिसर्च करने के लिए प्रोमोट करे।
लेकिन मिहिर ने हिन्दी में मीडिया पर रिसर्च करनेवालों के संबंध में जिस 'फर्स्ट हैण्ड' की बात की है उसका तो प्रावधान है ही। थोड़ी सी कोशिश करके कोई भी रिसर्चर मीडिया के किसी भी चैनल में इन्टर्नशिप तो कर ही सकता है। महीने-दो महीने में इतना तो समझ ही जाएगा कि चैनलों में काम कैसे होते है, मीडिया कल्चर है क्या और स्पेस का क्या महत्व है। एमफिल् के दौरान इसके लिए पर्याप्त समय होता है लेकिन कोई पहल तो करे। तब यकीन मानिए, इन्टर्नशिप कर लेने के बाद कोई भी हिन्दी रिसर्चर इतने बचकाने ढंग से दुराग्रही होकर मीडिया पर रिसर्च नहीं करेगा और उसके काम की नोटिस मीडियाकर्मी भी लेंगे जो कि मीडिया रिसर्च का जरुरी उद्देश्य है।
आगे पढ़िए- मानसिकता बदलने में ही रह जाते हैं हिन्दी के लोग
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मीडिया पर जुल्म मत कीजिए

Posted On 1:26 am by विनीत कुमार | 4 comments

हिन्दीवालों के बीच आजकल तेजी से फैशन चल निकला है-मीडिया और सिनेमा के उपर रिसर्च करने का। डीयू में ये फैशन तेजी से पॉपुलर हो रहा है इसकी वजह तो समझ में आती है लेकिन देश के दूसरे हिस्सों में जहां का हिन्दी समाज मीडिया को जमकर गरियाता है वो भी इन दिनों मीडिया पर रिसर्च करने की कसरतें करने में जुटा है। डीयू की वजह मुझे तात्कालिक या अवसरवादी लगती है जबकि बाकी जगहों पर ये मुझे मानसिकता का सवाल लगता है।
परसों की ही बात लीजिए न। देश के बाढ़ प्रभावित इलाके से एक भायजी आए। हिन्दी से पीएचडी कर रहे हैं और मीडिया पर अलग से कोर्स। कोर्स के मुताबिक उन्हें किसी एक विषय पर लघु शोध-प्रबंध लिखना है। उन्होंने विषय लिया है- टेलीविजन का टीनएजर्स पर प्रभाव।....और मदद के नाम पर उन्हें मुझसे कुछ किताबों की सूची,काम करने के तरीकों और ऐसे ही मिलते-जुलते विषय पर कुछ मेरा लिखा-पढ़ा है तो वो सबकुछ चाहिए थे।
मैंने कहा- सेल्फ में देख लीजिए जो किताबें आपको काम की लगे उसकी आप फोटो कॉपी करा लें। पच्चीस मिनट तक जो मैं बता सकता था, बता दिया कि कैसे आपको काम करना है और जहां तक मेरे लिखे-पढ़े मटेरियल का सवाल है, ये लीजिए टेलीविजन के विज्ञापनों पर किया गया मेरा काम, जिसमें हमनें महिलाओं और बच्चों पर इसके प्रभाव को दिखाया है।
इस बातचीत के क्रम में उनसे जो फीडबैक मिली वो मैं आपके सामने रख रहा हूं।
अंग्रेजी किताबों के नाम पर उन्होंने कहा कि इसे आप छोड़ ही दीजिए, हिन्दी में हो तो कुछ बताइए।
अंग्रेजी आती नहीं लेकिन इसे सीखने के लिए प्रतिबद्ध हूं।
दूसरी बात, जब मैंने उनसे पूछा कि आप टेलीविजन के प्रोग्राम्स तो रिकार्ड कर रहे होंगे न, ताकि आप उसकी स्क्रिप्ट, प्रस्तुति, अंदाज, प्रोडक्शन, लेआउट आदि मसलों पर बात कर सकेंगे। उनका जबाब था कि इस हिसाब से तो अभी तक हमने सोचा ही नहीं है। मैंने कहा, ऐसा कीजिए आप दस दिन तक कम से कम प्राइम टाइम में रोज टीवी देखिए, प्रोग्रामों की स्क्रिप्ट नोट कीजिए, रोज फुटनोट बनाइए। उनका कहना था, टीवी कभी-कभार देखना होता है।
तीसरी बात, जब मैंने कहा, सारी किताबें तो आपको मिलेगी भी नहीं। ऐसा कीजिएगा, आप इंटरनेट से कुछ मटेरियल डाउनलोड कर लीजिएगा या फिर आप अपना इमेल आइडी दे दें, मैं ही खोजकर कामलायक चीजें भेज दूंगा। उनका जबाब था, जी मैं नेट पर कभी बैठा ही नहीं।
मैं नहीं कहता कि उनके जैसे देश भर में हिन्दी से एमए करनवालों को मीडिया पर रिसर्च करने का अधिकार नहीं है या फिर उन्हें इस पर रिसर्च करनी ही नहीं चाहिए। मेरा शुरु से जोर इस बात पर रहा है कि जब भी आप मीडिया पर रिसर्च कर रहे हों, आप उसकी प्रकृति और उसकी अनिवार्यताओं को ध्यान में ऱखकर रिसर्च करें, साहित्य के भोथरे औजार और साहित्य की दुनिया में हिट हो गए विद्वानों के विचारों को मीडिया में जबरदस्ती थोपने की कोशिश न करें। इसे जबरदस्ती साहित्य का ही अंग न मान लें। क्योंकि एक तो आपके मानने से ऐसा होगा नहीं, दूसरा साहित्य का रिसर्च मीडिया रिसर्च नहीं है, उल्टे आपकी थीसिस, रिसर्च पेपर ठीकठाक मीडियाकर्मी के हाथ लग गई तो जरुर कहेगा- मीडिया पर जुल्म मत कीजिए, रहने दीजिए उसे बिना रिसर्च के ही। आपके इस रिसर्च से हमें कोई दिशा नहीं मिलेगी, आपकी तरह दूसरे हिन्दीवालों पर भी गुस्सा आएगा और एक हद के बाद घृणा भी। तब तो और भी जब आप रिसर्च के पहले ही मान बैठे हैं-टीवी समाज को भ्रष्ट कर रहा है, बच्चे इससे बर्बाद हो रहे हैं,ऐसे में आप लेख लिखिए, मीडिया पर रिसर्च मत कीजिए।
आगे पढ़िए- यही हाल है देश के बाकी हिन्दी वालों का और
मीडिया रिसर्च कुंठा से बचने जैसा कुछ है
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एमए या फिर एम फिल् करने के बाद जो लोग डीयू से एम फिल् या पीएचडी करने की बाट जोह रहे हैं उन्हें खून के आंसू रोने पड़ सकते हैं। उन्हें नए सत्र में रजिस्ट्रेशन कराने के लिए कम से कम छ महीने तक का इन्तजार करना पड़ सकता है।

कल की खबर दि टाइम्स ऑफ इंडिया के मुताबिक आनेवाले छ महीने में डीयू एम फिल् या पीएच डी के लिए कोई भी लिखित परीक्षा या इंटरव्यू नहीं कराने जा रही है। अखबार को मिली जानकारी के हिसाब से रजिस्ट्रेशन के पहले यूजीसी एम।फिल् और पीएचडी में रजिस्ट्रेशन की पूरी प्रक्रिया को रिवाइव करेगी, उस पर नए सिरे से विचार करेगी और जरुरी समझा गया तो उसमें कुछ जरुरी संशोधन भी करेगी। इस संबंध में यूजीसी विश्वविद्यालय को कुछ जरुरी निर्देश भी दे सकती है जिसमें इन्ट्रेंस की भी बात शामिल हो सकती है।

डीयू में अभी तक इन दोनों कोर्सों में रजिस्ट्रेशन के लिए लिखित परीक्षा का प्रावधान नहीं रहा है। एम।फिल् में फिर भी पिछले तीन सालों से लिखित परीक्षा का आयोजन होता रहा है लेकिन पीएचडी के लिए सिर्फ इंटरव्यू का प्रावधान रहा है।

खबर है कि यूजीसी ने ऐसा कदम इसलिए उठाया है कि रिसर्च के लिए जो वो स्कॉलरशिप दे रही है उसका बेहतर उपयोग किया जा सके और ये तभी संभव है जबकि रिसर्च के लिए काबिल लोग चुने जाएं। नहीं तो अभी तक कुछ हद तक लोग इसे वेतन वृद्धि और नौकरी पाने के जरिए के रुप में इस्तेमाल करते आ रहे हैं। चुनाव प्रक्रिया अगर दुरुस्त तरीके से होती है तभी ढंग के रिसर्च हमारे सामने आएंगे और रिसर्च के लिए दी जानेवाली राशि का बेहतर उपयोग हो सकेगा।

हाईअर स्टडी और रिसर्च की गुणवत्ता में सुधार के स्तर पर देखें तो यूजीसी का निर्णय वाकई स्वागत योग्य है। इससे न केवल रिसर्च की गुणवत्ता में सुधार होगा बल्कि जो लोग गंभीरता से रिसर्च वर्क में लगे हैं उनके काम का भी महत्व बढेगा और उनकी स्थापनाओं को गंभीरता से लिया जाएगा। विश्वविद्यालय में रिसर्च के नाम पर जो चलताउ ढंग से थीसिस लिखी जा रहे है उस पर रोकथाम लगेंगे।....और जो लोग रिसर्च में आकर भी इसे सेकेण्डरी वर्क मानकर काम करते हैं उनकी नकेल भी कसी जा सकेगी औऱ ज्यादा से ज्यादा वो ही लोग इस फील्ड में होंगे जो वाकई रिसर्च करना चाहते हैं और आगे चलकर एकेडमिक्स में अपना करियर बनाना चाहते हैं। यूजीसी के इस कदम को अगर गंभीरता से समझा जाए तो रिसर्चर और यूनिवर्सिटी दोनों पक्षों को फायदा है।

लेकिन तत्काल अगर पूरी स्थिति पर विचार किया जाए तो स्थिति बहुत ही संकटपूर्ण है। जो लोग आनेवाले महीने-दो महीने में पीएचडी की इंटरव्यू में शामिल होनेवाले थे और जून के बाद एम फिल् की प्रवेश परीक्षा में शामिल होनेवाले थे उनके साथ समस्या है कि अब वो क्या करें। छ महीने तक इंतजार करने का मतलब है कम से कम एक साल की बर्बादी। क्योंकि यूजीसी के कहे अनुसार अगर छ महीने में दुबारा प्रक्रिया शुरु हो भी जाती है तो भी लिखित परीक्षा और इंटरव्यू होने में कम से कम दो से तीन महीने लग जाएंगे और फाइनली डीयू की आइडी कार्ड हाथ में आते-आते सालभर का समय लग ही जाएगा। फिर इस बात की भी गारंटी नहीं है कि छ महीने बाद प्रक्रिया शुरु हो ही जाए।

अच्छा, इच्छुक सारे लोगों का एडमीशन होना नहीं है इसलिए उन्हें किसी दूसरे फील्ड में जाने के लिए नए सिरे से विचार करना होगा। और इसमें भी समय लगेगा। फिर किसी एक विषय से एमए या एम फिल् करने के बाद अचानक से दूसरे फील्ड में जाना भी आसान बात नहीं है। यूजीसी की इस घोषणा के आने के पहले ही जेएनयू जैसे कुछ बेहतर विश्वविद्यालयों में अप्लाई करने की तारीख समाप्त हो चुकी है। सबसे बड़ी बात है कि स्टूडेंट को इस बात का बिल्कुल भी अंदाजा नहीं था कि डीयू या फिर यूजीसी अचानक से ऐसी कोई घोषणा कर देगी। अपने करियर और भविष्य को लेकर जब स्टूडेंट बात कर रहे हैं तो उनके बीच एक अजीब सी निराशा और असंतोष का भाव है। वो खुद भी चाहते हैं कि इतना समय और साधन लगाकर जब वो रिसर्च करते हैं तो उसकी मार्केट वैल्यू हो, यूजीसी पूरी प्रक्रिया को दुरुस्त करे लेकिन स्टूडेंट को इसकी खबर पहले मिलनी चाहिए थी। पर्याप्त समय ताकि वो इस दौरान बेहतर तरीके से करियर को लेकर प्लान कर सकें।

सबसे बड़ी परेशानी तो डीयू के उन स्टूडेंट्स की है जो हॉस्टल में रह रहे हैं। अभी तक होता ये आया है कि मई-जून तक एम ए के इग्जाम्स या फिर एम फिल् का वायवा खत्म हो जाने के बाद महीने-दो महीने तक आगे की तैयारी करते। इस दौरान वो गेस्ट स्टेटस पर हॉस्टल में रहते। जिनका आगे की कोर्स में एडमीशन हो जाता उनका हॉस्टल भी कॉन्टीन्यू हो जाता। उन्हें रिसर्च के लिए रजिस्ट्रेशन कराने में और रहने में कोई खास परेशानी नहीं होती। लेकिन डीयू और यूजीसी इस नई रणनीति की वजह से हॉस्टलर्स बुरी तरह परेशानी में पड़ जाएंगे। इतने लमबे समय तक गेस्ट स्टेटस पर रहने नहीं दिया जाएगा, उन्हें हॉस्टल खाली करना पड़ेगा और दोबारा हॉस्टल में आने में कम से कम साल-डेढ़ साल लग जाएगें। उनका पूरी सेटअप तितर बितर हो जाएगा। फिर इस बात की भी कोई गारंटी नहीं है कि उन्हें दोबारा हॉस्टल मिल ही जाए।

एक बार स्टूडेंट प्वाइंट ऑफ व्यू से देखें तो डीयू और यूजीसी की ये रणनीति भविष्य के लिए भले ही रिसर्चर और विश्वविद्यालय के पक्ष में हो लेकिन फिलहाल स्टूडेंट्स को अच्छी खासी परेशानी झेलनी पड़ सकती है। करियर के स्तर पर भी और रहने के स्तर पर भी। इसलिए जरुरी है कि यूजीसी इस मामले को देखते हुए कोई विकल्प या बीच का रास्ता निकाले जिससे की स्टूडेंट्स का साल-डेढ़ साल का कीमती समय बर्बाद होने से बच जाए।

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बिना भड़ासी, मोहल्ला सूना

Posted On 4:05 pm by विनीत कुमार | 3 comments

कल तक आपने पढ़ा कि भड़ास और मोहल्ला के बीच हुए बतकुच्चन के करीब एक महीने बाद अविनाश भाई ने अनिल रघुराज और भड़ासियों को डेडीकेट करते हुए लिखा कि-

कही अनकही बातों की अदा है दोस्ती

हर रंजो-ग़म की दवा है दस्ती अब आगे पढ़िए-

आप सोच रहे होगें कि इस पूरी घटना के हुए करीब महीना भर होने जा रहा है और उस पर लिख अब रहा हूं, कहीं कोई मुद्दा तो नहीं सुलगा रहा। तब तो अविनाश भाई के बारे में भी आप कुछ ऐसा ही सोच रहे होंगे क्योंकि उन्होंने भड़ासियों और अनिल रघुराज को शेर डेडीकेट करके फिर से मुद्दा जिलाने का काम कर रहे हैं। लेकिन नहीं यहां पर आप मेरे बारे में और अविनाश भाई दोनों के बारे में गलत सोच रहे हैं। हम जो लिख रहे हैं औऱ अविनाश भाई ने डेडीकेट किया उसे मेरी मां की भाषा में रह-रहकर जुंगार छूटना कहते हैं। जुंगार छूटने का मतलब है कि किसी चीज को लेकर बार-बार परेशान होना, याद करना, उसके लिए बेचैन होना, चाहकर भी भुला नहीं पाना। जैसे मैं चाहकर भी मोहल्ला के साथ अपनी यादें, अविनाश भाई की हौसला आफ़जाई भुला नहीं पा रहा हूं। बार-बार मन मथता है कि आखिर क्यों किया अविनाश भाई ने ऐसा मेरे साथ और अगर उनका भाई भी मोहल्ला छोड़कर भड़ास में ही बना है तो क्या उससे मुझे रिलीफ मिल जाती है और अविनाश भाई की ओर से तर्कपूर्ण जबाब...ब्ला ब्ला, ब्ला।

उसी तरह अविनाश भाई को भी मन मथता है। अच्छा तो था कि इधर भड़ास घर-फूंक मस्ती में लिख रहा था और इधर मोहल्ला पर हम एक इलीट संतुलन बनाए हुए थे। कुछ इधर के लोग उधर लिख रहे थे और कुछ उधर के लोग इधर लिख रहे थे। बीच-बीच में आर्थिक नगरी से अनिल रघुराजजी के यहां से भी मटेरियल आ जाता। ये सारा झमेला उनलोगों का खड़ा किया हुआ है जो भड़ास और मोहल्ला की तुलना करने लग गए। सिर्फ तुलना ही नहीं करने लग गए बल्कि मोहल्ला को भड़ास जैसा ही कुछ बताने लगे। भड़ास बुरी चीज है, वो लोगों को पॉलिटिकली करेक्ट करने के चक्कर में माय-बहिन पर भी उतर आते हैं जबकि मोहल्ला तर्क से लोगों को दुरुस्त करने का पक्षधर रहा है। अगर लोग मोहल्ला को भड़ास जैसा समझने लगें तो इसमें न केवल बदनामी है बल्कि इससे भी बुरी बात है कि लोगों की नजर में मोहल्ला पर जो गंभीर मनन-चिंतन चलता है उसका भी प्रभाव खत्म हो जाता है। ये तो सीधे-सीधे ऑडियोलॉजी पर हमला है इसलिए इनसे दूर रहना ही बेहतर होगा। इतना दूर कि भड़ास की ओर से चलनेवाली हवा मोहल्ला तक पहुंच ही नहीं पाए। और इसके लिए जरुरी है कि मोहल्ला के चारो ओर बाड़ लगाए जाएं।

मोहल्ला ने बाड़ लगाने शुरु कर दिए। एक-एक घर को ठोक-बजाकर देखा कि कहीं ये आनेवाले समय में भड़ासी तो नहीं हो जाएगा और जहां लगा कि हां ये हो सकता है, उसे निकाल बाहर किया। ये अलग बात है कि उसमें कुछ लोग अब भी रह गए जो भड़ास में रहते हुए भी मोहल्ला के मिजाज के हैं। यानि निकाल-बाहर करने में मिजाज को खास वरीयता दी गयी। लेकिन बाड़ लगाने के चक्कर में मोहल्ला ने अपनी चौखट इतनी छोटी कर ली कि लोगों को निहुरकर( झुककर) जाना पड़ता है और जो निहुर नहीं पाता है वो मोहल्ला के चारो ओर चक्कर लगाकर लौट आता है और इधर आप देख रहे होंगे कि मोहल्ला तो सेफ हो गया लेकिन मोहल्ला की चहल-पहल मोहल्ला की बांडरी वॉल के बाहर आ गयी।

अविनाश भाई चहल-पहल के बीच रहने वाले इंसान हैं। उन्हें आदमी से बहुत प्यार है। प्यार करने के लिए भी और मन नहीं लगने पर, प्यार करते-करते उब जाने पर लड़ने के लिए भी। इसलिए वो सेफ मोहल्ला से बाहर आकर चहल-पहल के बीच अनिल रघुराज को याद करते हैं, भड़ासियों पर व्यंग्य करते हैं। ये भी अपने तरह का, अलग किस्म का प्यार है। अब आपको हमसे खुन्नस हो रही होगी। जो लोग इस पोस्ट को इस मिजाज से पढ़ना शुरु किया होगा कि आज भी अविनाश के खिलाफ पढ़ने को मिलेगा वो थोड़े मायूस भी हो रहे होंगे। लेकिन आप मायूस न हों, मैं कह रहा हूं न कि अविनाश भाई ये सारे काम भी अपने स्वार्थ के लिए ही कर रहे हैं। वो बिना लड़े रह नहीं सकते, बिना मुद्दा छेड़े रह नहीं सकते, बिना बतकुच्चन किए जी नहीं सकते। नहीं तो क्या जरुरत पड़ी थी भड़ासियों को शेर डेडीकेट करने की। एक तो भड़ासी अपने आप में ऐसा आइटम है जिसे भड़भड़ाने के लिए बस हवा की जरुरत होती है और अविनाश भाई की तरफ से हवा मुहैया हो जाए तो फिर सेफ मोहल्ला के बाहर के लोगों के दम पर गुलजार है।

एक बात पर और गौर करिए। लोगों ने जब मोहल्ला को भड़ास जैसा ही कहना शुरु कर दिया तो अविनाश भाई को मोहल्ला का दामन मसकता नजर आने लगा। उन्हें लगने लगा कि अरे, इतने मजबूत फैब्रिक से बनी विचारधारा और उससे बना ब्लॉग कैसे मसक सकता है। इसलिए उन्होंने तुरंत उसका कलेवर बदला और गाजा को सलाम करने लगे, तिब्बत के मसले पर बात होने लगी, कुछ संगीत भी पेश किए गए जिसे पेश करना भड़ासियों के संस्कार में ही नहीं है। जिस दिन वो ऐसा करने लग गए उस दिन से वो अपनी पहचान खो देंगे, भड़ासी रह ही नहीं जाएंगे। इसलिए भड़ासी सबकुछ जानते हुए भी चाहकर भी मोहल्ला का मुकाबला नहीं कर सकते। इस स्तर पर मोहल्ला को अलग दिखाने में भड़ासियों का भी योगदान कबूला जाना चाहिए।... तो मामला साफ हो गया। भड़ासी रहेगा उसी टपोरी, अघोरी और भड़भडिया अंदाज में और मोहल्ला गंभीर, संतुलित अंदाज में।

लेकिन जब मुझे जुंगार छूटा और निकाल दिए जाने पर भी मोहल्ला पर गया तो देखा कि अविनाश भाई को पहले से जुंगार छूटा हुआ है। और पोस्ट लिखी है-

ऑटो के पीछे क्‍या है
उर्फ बेनाम कवियों की लोकप्रिय शाइरी अनिल रघुराज और भड़ासियों के लिए

यानि भड़ासियों को दुत्कार भी दिया तो भी उनकी बातें, उनकी याद आती रहती है और मन करता है कि कभी हम भी भड़ासी बन जाएं। तब मन की स्वाभाविक इच्छाएं प्रयासजन्य विचारों को बहुत पीछे धकेल देती है।... और वैसे भी हम लाख कोशिश कर लें, फर्श पर से जूतों के निशान मिटाए जा सकते हैं लेकिन जिंदगी से इतिहास के निशान नहीं। ये निशान बार-बार बयां करता है कि भड़ास और मोहल्ला दो जरुरी ब्लॉग हैं और ये दोनों इतिहास के निशान हैं। दोनों के लिए एक-दूसरे के मन में जुंगार छूटता रहता है तो बेहतर ही है, सुखद भी है और हिन्दी ब्लॉगिगं के लिए जरुरी भी।

दलील और अंत में एक अपील-

अविनाश भाई, मोहल्ला, भड़ास और अपनी भावनाओं को आपके सामने रखने के पीछे कोई खेमेबाजी करना मेरा मकसद नहीं रहा है। न ही अविनाश भाई को गलत साबित कर अपने हाथ में होलीस्टिक थामने का इरादा। कुछ साथियों की टिप्पणियों से लगा कि वो मेरे प्रति सहानुभूति रखते हैं। उनके शब्दों को पढ़कर लगता है कि अगर मैं मिल जाउं तो मेरी पीठ सहलाकर कहेंगे कि जाने दो, हौसला रखो। ये कोई इस तरह का मसला नहीं था। मेरे प्रति प्लीज बेचारा नजरों से न देखें। मैंने अपने मन को बहुत कड़ा करके ऐसा लिखा है और वो भी अगर अविनाश भाई भड़ासियों के लिए ऑटो के पीछे क्या है, नहीं लिखते तो बात आयी गयी हो गयी थी। मैं इस पूरे मसले को राइटिंग प्रैक्टिस के तौर पर लिख रहा हूं और प्रयोग कर रहा हूं कि मैं घटनाओं को लेकर कितना तटस्थ रह पाता हूं। अविनाश भाई के प्रति मेरे मन में कोई कड़ुवाहट नहीं और स्वाभिमान के साथ सम्मान का भाव बना हुआ है। पीछे की पोस्ट के लिंक्स नहीं दे रहा क्योंकि इसके बाद लिंक आगे की होनी चाहिए, पीछे के नहीं, हमेशा पीछे लौटना फायदेमंद नहीं होता।.....

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अब तक आपने पढ़ा कि और ब्लॉग की तरह यशवंत दा के कहने पर भड़ास पर भी लिखने लगा। और इस तरह से मैं मोहल्ला, हल्ला बोल और भड़ास पर पोस्ट भेजता रहा। कल मैंने राकेश सर के ब्लॉग हफ्तावार का जिक्र किया था, माफ करें उन्होंने मुझे हफ्तावार के लिए नहीं सफर के लिए लिखने कहा था और दो पोस्ट मैंने उस पर भी लिखी है। अब आगे.....
भड़ास पर अमूमन मैं वो सारी पोस्ट्स भेजता जो कि मैं अपने ब्लॉग पर लिखता। भड़ास के लिए कोई अलग से पोस्ट नहीं लिखता। जबकि बोलहल्ला और मोहल्ला के लिए अलग से लिखता। वो सारी पोस्ट बोल हल्ला और मोहल्ला की जरुरत के मुताबिक होती। जनसत्ता के लोगों से मेरा कुछ झमेला हो गया और उनका व्यवहार मुझे कुछ अटपटा सा लगा सो मैंने उन सारी बातों को लेकर एक पोस्ट लिखी और उसी पोस्ट को ऊड़ास पर भी डाल दिया। बाद में इसे लेकर कुछ हंगामा भी हुआ। यशंवत दा ने मॉडरेटर की ओर से कसने के बजाय ब्लॉगर के लिए सेल्फ डिसीप्लीन में होने की बात कही। उसके बाद से मैंने भड़ास पर कोई पोस्ट नहीं डाली। क्योंकि भड़ास के ज्यादातर लोग मीडिया से जुड़े हैं और मैं अक्सर मीडिया के खिलाफ बोल जाता हूं। ये अलग बात है कि जो भी बोलता हूं वो अनर्गल नहीं होता। मीडिया से जुड़े लोग भी इस बात को शिद्दत से महसूस करते हैं। उनकी भी मजबूरी है कि वो खुलेआम इसकी आलोचना नहीं कर सकते।
उस घटना के बाद मैंने मोहल्ला पर भी कुछ नहीं लिखा। हां आशीष की बात मैं टाल नहीं पाया और दो-तीन पोस्ट बोल हल्ला पर लिखे। अपने मन मुताबिक, अपनी मर्जी की पोस्ट। इसी बीच मैं लम्बे समय के लिए बीमार हो गया। बीमारी भी ऐसी कि ठीक होने के बाद भी सीधे बैठने में तकलीफ होती। करीब दस-बारह दिनों तक कोई पोस्ट नहीं लिख सका, पढ़ सका। तभी मेरे कुछ दोस्त जिन्हें कि मैंने ब्लॉग पढञने की लत लगा दी है, बताया कि ये तुम्हारे मोहल्ले पर क्या हो रहा है।
पता चला, भड़ास ने मनीषा पांडेय के संबंध में अपशब्द का इस्तेमाल किया है। इधर इस मामले में अविनाश भाई भी कूद गए हैं और बात में मामला मोहल्ला वर्सेज भड़ास बन गया। मोहल्ला पर आया तो देखा, मार-काट मची है, किसी की सदस्टता को अविनाश भाई रद्द कर रहे हैं तो कोई खुद अपने को मोहल्ला से अलग होने की घोषणा कर रहा है। मैं हमेशा की तरह एक पोस्ट अविनाश भाई की ओर ठेलता, इसके पहले मैंने पूछ लिय कि एक पोस्ट भेज रहा हूं आप उसे दुरुस्त करके पोस्ट कर देंगे। अविनाश भाई ने कहा, अभी मत भेजिए हम अभी गाजा को सलाम कर रहें हैं। और वैसे भी हम मोहल्ला पर किसी दूसरे ब्लॉग पर प्रकाशित पोस्ट नहीं पब्लिश करेंगे। ( मोहल्ला पर लिखे कई दिन हो गए थे सो मैंने सोचा कि जो पोस्ट मैं गाहे-बगाहे पर लिख रहा हूं उसी को मोहल्ला पर भी दे दूं।)
इतना तो मैं पहले से जानता था कि मोहल्ला के लिए मुझे अलग से लिखना है और मोहल्ला जब किसी मुद्दे पर बात कर रहा होता है तो बात एक सीरीज में चलती है। मैंने भी अविनाश भाई की बात को उचित समझा।
लेकिन दो दिन बाद जब मैंने अपना डैशबोर्ड देखा तो मोहल्ला गायब था। मुझे हैरानी हुई और मैंने तुरंत अविनाश भाई को मेल किया। मेल करने पर बताया कि -हां क्योंकि दोनों जगह नहीं रहा जा सकता। थोड़ी आपत्ति मुझे इस बात पर हुई कि दो जगह क्या अब तक तो चार-चार जगहों पर लिख रहा था और मेरी तरह कई लोग भी ऐसा ही कर रहे थे,तब तो कोई आपत्ति नहीं हुई। लेकिन इससे भी ज्यादा अफसोस मुझे इस बात को लेकर हुआ कि अविनाश भाई ने मुझे तय करने का मौका ही नहीं दिया कि मैं कहां रहना चाहता हूं। एक तो ब्लॉग की दुनिया में ऐसा होना ही नहीं चाहिए कि अगर आप एक जगह लिख रहे हैं तो दूसरी जगह न लिखें। हां ये हो सकता है कि कोई कितनी भी जगह लिखे लेकिन जहां वो लिख रहा है वहां की जरुरत और मिजाज के हिसाब से लिखे।...तो भी अविनाश भाई ने अपनी तरफ से बिना कोई सूचना के मोहल्ला से मुझे हटा दिया। जबकि भड़ास को लेकर स्थिति पहले जैसी है। इस बात के आधार पर अपने आप घोषित हो गया कि मैं भड़ासी हूं। मैं उसी मानसिकता का आदमी हूं जो एक स्त्री को बाजार में निशाना बनाता है, मैं वही हूं जो बेबाक लिखने के नाम पर लम्पटई करने लग जाता है। यानि आज अगर एक भड़ासी ने किसी स्त्री को लेकर अपशब्द कहें हैं तो कल को मुझमें भी इस बात की संभावना है कि मैं भी ऐसा ही करुंगा। ....और इस बात को अविनाश भाई ही क्यों कोई भी भला, इज्जतदार आदमी बर्दाश्त कैसे कर सकता है। कायदे से तो उसे ब्लॉग की दुनिया से निकाल फेंकना चाहिए, अविनाश भाई ने तो फिर भी मामला मोहल्ला तक ही रखा।
यही मानसिकता दूसरे स्तरों पर जब लोग लागू करने लग जाते हैं तो हमें परेशानी हो जाती है। एक बिहारी के गड़बड़ करने पर पूरे बिहारियों के उपर शक की सुई घुमने लग जाती है। एक बढ़ी हुई दाढ़ी के आतंकवादी के पकड़े जाने पर दाढ़ी रखनेवाली पूरी कम्न्युटी को शक के घेर में ले लिया जाता है। आखिर हमारी मानसिकता का विकास इसी स्ट्रक्चर में तो होता है और जब हम ही इसके शिकार हो जाते हैं तो हाय-हाय मचाने लग जाते हैं।
....और इस पूरे प्रकरण में मेरी एक धारणा चरमरा कर रह गयी कि- ब्लॉगिंग में व्यक्तिगत स्तर पर पहचान बनाने की पूरी गुंजाइश है ।लेकिन नहीं जैसे ही आप किसी कम्युनिटी ब्लॉग में लिखने लग जाते हैं आपकी पहचान उसके मॉडरेटर के साथ जुड़ जाती है और फिर रस्साकशी मॉडरेटर के बीच शुरु हो जाती है जहां ब्लॉगर की हैसियत बहुत छोटी मान ली जाती है या फिर हो जाती है।
ये पूरी कहानी रही कि कैसे अंतर्जाल की पहचान और आपसी संबंध धीरे-धीरे राग-विराग में फंसते चले जाते हैं जो कि हिन्दी ब्लॉगिंग के लिए निश्चित तौर पर खतरनाक स्थिति है। हिन्दी ब्लॉगिंग करनेवाला कोई भी शख्स ऐसा होते नहीं देख सकता। अविनाश भाई भी नहीं। तभी तो महीने भर बाद भड़ास और मोहल्ला की गुत्था-गुत्थी औऱ अनिल रघुराज के नाराज होकर मोहल्ला से चले जाने के बाद उन्होंने उनके नाम पैगाम लिखा-
कही अनकही बातों की अदा है दोस्ती
हर रंजो-ग़म की दवा है दोस्ती
इस ज़माने में कमी है
पूजा करने वालों की
वरना इस ज़माने में ख़ुदा है दोस्‍ती
अविनाश भाई ने इसके पीछे जरुर कोई गूढ़ अर्थ देखा होगा, हम इसे पैगाम मान रहे हैं। आगे पढ़िए भड़ासी बिना सूना है मोहल्ला
इसे भी पढ़े तो अच्छा होगा-
जब तब याद आता है मोहल्ला
मेरी पोस्ट मसक जाती और अविनाश भाई झांकने लगते
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अभी तक आपने पढ़ा कि एक अनुभवी और बुजुर्ग ब्लॉगर होने के नाते अविनाश भाई ने हम जैसे नौसिखुए ब्लॉगर को बराबर उत्साहित किया। यही वजह रही कि मोहल्ला से भावनात्मक स्तर पर जुड़ा रहा। (जब तब याद आता है मोहल्ला ) अब आगे पढ़िए।

इधर मैं दनादन पोस्ट लिखता रहा और उधर अविनाश भाई का इसके उपर कुशल संपादन होता रहा। कई बार तो संपादन इतनी बखूबी से होता कि हमें यकीन ही नहीं होता कि इसे मैंने लिखा है। मेरी मोटी अभिव्यक्ति को वो इतना महीन बना देते कि मजा आ जाता। ऐसी गाइडेंस किसी ट्रेनी या इन्टर्न को मिल जाए तो कुछ ही दिनों में बहुत ही बेहतर स्क्रिप्ट लिख सकता है। लेकिन कई बार मेरी लेखनी बीच से मसक जाती और उसमें अविनाश भाई की छवि झांकने लग जाती।

एक बार की बात है। नीलिमा ने अपने ब्लॉग लिंकित मन पर एक शोध लेख सीरीज में शामिल किया। ये लेख वाक् पत्रिका में भी प्रकाशित हो चुका है। बल्कि वाक् में प्रकाशित होने पर उसे हम पाठकों तक रखा। मुझे लगा कि नीलिमा ने जो ये शोध लेख लिखा है उसकी व्यापक पहुंच हिन्दी समाज तक होगी। हिन्दी पढ़ने-लिखनेवाले लोग भी जान सकेंगे कि आखिर ब्लॉग इतना महत्वपूर्ण कैसे है। मैं इस लेख को ब्लॉग का एक ऐतिहासिक संदर्भ मानता हूं। शायद इसलिए जब इसे पूरे लेख में नीलिमा ने मोहल्ला जैसे चर्चित ब्लॉग का एक बार भी नाम नहीं लिया तो मुझे अटपटा-सा लगा। अच्छा-बुरा जो भी है मोहल्ला का नाम इसमें आना चाहिए। इस बात को लेकर नीलिमा के लेख से मेरी असहमति हो गयी । लाख दलीलों के बावजूद असहमति ज्यों की त्यों बनी है। मैं अभी भी नहीं पचा पा रहा हूं कि बिना मोहल्ला का नाम लिए कोई कैसे ब्लॉग के बारे में बात कर सकता है। मैंने इस पर एक प्रति लेख लिखने का मन बनाया और सोचा कि इसे मोहल्ला पर ही डालना बेहतर होगा। लेख सॉरी पोस्ट मैंने अविनाश भाई को ड्राफ्ट की शक्ल में भेज दी और आवश्यक संशोधन करने की बात भी कही। अब देखिए बात कहां बिगड़ गयी। अविनाश भाई संपादन कला में दक्ष हैं। उनसे बेहतर भला कौन जान सकता है कि किस शब्द का, व्यक्ति के उपर क्या असर हो सकता है। पोस्ट लिखने के क्रम में जब मैंने मसिजीवी लिखा तो उन्होंने अपनी तरफ से ब्राइकेट में नीलिमा का पति जोड़ दिया। मुझे लगा ऐसा लिखना जरुरी नहीं था। दोनों को एक दूसरे से जोड़े बिना भी लोग समझते हैं। दोनों की स्वतंत्र पहचान है। साथ में पोस्ट की भूमिका के तौर पर लिखा भी कि विनीत ने ये पोस्ट मुझे कल ही भेजा था। मैंने इस पर विचार किया लेकिन बाद में उसकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मानते हुए पोस्ट कर रहा हूं। मोहल्ला पर पोस्ट करते हुए भले-बुरे की पूरी जिम्मेवारी मेरे उपर आ गयी। कुछ हद तक कोहराम भी मची। मुझे इस बात का बिल्कुल भी बुरा नहीं लगा। क्योंकि अगर कोई बंदा या बंदी मेरी एक पोस्ट से नाराज हो जाते है, संबंध खराब कर लेते है तो उसे ब्लॉगिंग छोड़ देना चाहिए। ब्लॉग की दुनिया में इतनी स्पेस तो हमेशा बची रहनी चाहिए कि कोई भी किसी की बात को लेकर अपनी ओर से सहमति या असहमति दर्ज कर सके। बेहतर स्थिति तो यही है कि ब्लॉग के पचड़े और किचकिच को असल जिंदगी में घुसने न दें, पोस्ट से आपस के संबंध तय होने न दें। ये अलग बात है कि हिन्दी ब्लॉगिंग इस बात के लिए मानसिक रुप से अभी तैयार नहीं हुआ है या कह लें अभी उतना मैच्योर नहीं हुआ है। इसलिए आप देखेंग कि पोस्ट के आधार पर ही लोगों में बातचीत तक बंद हो जाती है और कभी-कभी गाली-गलौज भी।बहरहाल।

अविनाश भाई के संपादन से एक ओर मेरी पोस्ट निखर जाती तो दूसरी ओर मैं जो कहना चाहता उसके अतिरिक्त कुछ और भी संदर्भ पैदा हो जाते। ऐसे समय में पता नहीं क्यों मुझे लगता कि मैं इस्तेमाल कर लिया गया हूं। ऐसा कहकर अपने को मैं मासूम घोषित नहीं कर रहा लेकिन कहीं न कहीं खटका बना रहता कि मैं तो बस इतना ही कहना चाहता था, इसे और आगे ले जाने की तो जरुरत थी नहीं। यहां अविनाश भाई पर कोई आरोप नहीं बल्कि मैंने देखा है कि कॉम्युनिटी ब्लॉग का हर मॉडरेटर दूसरों की पोस्ट को अपने को पॉलिटिकली करेक्ट घोषित करने के स्तर पर इस्तेमाल कर जाता है। कभी कुछ शब्द जोड़कर तो कभी कुछ इमेज डालकर या फिर अपने ढंग से पोस्ट को प्रकाशित करके। आमतौर पर हम ब्लॉगर इस बात को लेकर सावधान नहीं होते कि हमसे कॉम्युनिटी ब्लॉगर अपने यहां लिखने का, सदस्यता लेने का अनुरोध करते हैं बाद में हमारी इस संख्या को पावर प्रॉस्पेक्ट के तौर पर इस्तेमाल करते हैं। कभी-कभी किसी पार्टी के कार्ड होल्डर की तरह डिसीप्लीन करने की कोशिश करते हैं। मॉडरेटर के इस चरित्र पर अलग से लिखने और शोध करने की जरुरत है।

जो भी हो, मोहल्ला से मेरी पहचान बन रही थी। मैं नया-नया ब्लॉग की दुनिया में शामिल हुआ था। मेरे भीतर ये गलतफहमी कहिए या फिर कुछ हद तक सच्चाई कि बड़े ब्लॉग पर लिखने से लोग हमें जल्दी जानने लगेंगे। कई बार ऐसा हुआ भी कि लोग मेरे ब्लॉग पर की पोस्ट को याद न रखकर , जो पोस्ट मैंने मोहल्ला पर लिखे उसे याद रखा। ये तो बाद में जब लोगों ने मेरी पोस्ट को पढ़ना शुरु किया तो मैंने महसूस किया कि एक स्तर के बाद पाठक ब्लॉग का नाम देखकर नहीं आते और न ही ब्लॉगर का नाम देखकर आते हैं। पोस्ट के कंटेट पर ही लोग भरोसा करते हैं और उसी के आधार पर लोग पोस्ट भी पढ़ते हैं। नहीं तो ऐसा नहीं होता कि मेरी कई पोस्ट मोहल्ला से ज्यादा गाहे-बगाहे पर पढी जाती।

मैं क्या लिखता हूं, कैसा लिखता हूं इस पर बात करने के लिए पाठक पूरी तरह आजाद हैं। जिसको मन होता है गरियाते हैं, जिनको मन होता है दाद भी देते हैं। जब मैं दूसरे ब्लॉगरों से मिलते-जुलते मसलों पर लिखता हूं तो वो लिखने के लिए आमंत्रित भी करते हैं और जिनकों लगता है कि मैं उनके मिजाज का ब्लॉगर हूं तो हवा भी देते हैं। अपने यहां लिखने के लिए आमंत्रित भी करते हैं।

ऐसी ही बात होती रही। मुम्बई से आशीष ने बोल हल्ला पर लिखने कहा, लिख दिया। दिल्ली से राकेश सर ने हफ्तावार में लिखने कहा लिख दिया। कईयों से वादा किया कि लिखूंगा आपके लिए भी। इसी बीच गुड़गांव के ब्लॉगर्स मीट में यशवंत दा से भेट हो गयी और भंड़ास पर लिखने कहा। उस समय मैंने साफ कहा कि अलग से लिखने का तो समय नहीं मिल पाएगा। यशवंत दा ने साफ कहा कि कोई बात नहीं, मीडिया से जुड़ी जो पोस्ट हो उसे भड़ास पर भी भेज दो। मैं वैसा ही करता लेकिन बाद में जनसत्ता विवाद को लेकर मैंने भड़ास पर भेजना बंद कर दिया। और अब सिर्फ अपने ब्लॉग के अतिरिक्त बोल हल्ला के लिए लिखता हूं।.....लेकिन अविनाश भाई के हिसाब से अब भी भड़ासी हूं और शायद ये भी एक वजह हो सकती है मोहल्ला से निकाल बाहर करने की। पढ़िए मेरी अगली पोस्ट में....क्रमशः

नोटः- असहमति का आलेख, अच्छा होता कान पकने न देती नीलिमा मोहल्ला के स्टोर रुम में है। रात बहुत हो रही है। मैं खोज पाने में असमर्थ हूं कि आपको लिंक दे दूं।

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