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दीपिका,

बेहद तकलीफ से लिख रहा हूं. ये सही है कि हम बोतल की गर्दन पर लिखा सही दाम कभी नहीं देखते.क्यों देखें, जो गांव जाना ही नहीं है, उसका रास्ता जानकर क्या हासिल हो जाएगा ! लेकिन इसका मतलब ये भी नहीं है कि हर बखत( जब भी टीवी देखना होता है) हम तुम्हारी गर्दन ताड़ते रहते हैं. हम उन फ्रस्टुओं में से नहीं हैं कि जो पूरी दुनिया को तिल नजर आता है, हम छूकर कहें कि चींटी रेंग रही थी, सो हटा दिया. इस कुंठा को ढोकर क्या हासिल कर लेंगे ?https://www.youtube.com/watch?v=YRIJoBprqNM


ये सही है कि हमारे एक अंकल( धर्मवीर भारती ) ने एक बार लिख दिया था- इन फिरोजी होंठों पर बर्बाद मेरी जिंदगी और इसके पहिले भी हमारे बाबा लोगन नख-सिख वर्णन करके सिधार गए..लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि हम नई पीढ़ी के लोगों में कोई सुधार नहीं हुआ है. हम इस तरह से तुमको किराना दूकान की रैक की तरह अलग-अलग बांटकर नहीं देखते. सच कहें, यकीन करोगी..जब भी तुम स्क्रीन पर आती हो, हम बस तुम्हें देखते हैं. क्या देखते हैं, उसका आज तलक मेरे पास जवाब नहीं है. कोई पूछ देगा बता ही नहीं सकेंगे कि क्या देखते हैं ? ऐसे में तुम बार-बार बोलती हो कि गर्दन क्यों देख रहे हो तो बुरी तरह हर्ट हो जाता हूं. लगता है हम तुमसे अनुराग रखते हैं औ तुम उसे जबरिया इव टीजिंग में कन्भट करने पर तुली हो. तुम्हारी सिनेमाई भावना करोड़ो में बिक जाती है लेकिन हम भकुआए टीवी दर्शक की भावना बिकती नहीं इसका मतलब ये तो नहीं कि इसका कोई मोल नहीं है. हम अनुराग रखते हैं तो रखते हैं..इसको अलग से बेगरिआने( गिनने) की कभी जरूरत महसूस नहीं हुई.

हम साहित्य का छात्र रहा हूं. एक से एक माटसा मिले जो लड़की के शरीर के एक-एक अंग की उपमाओं की थोक भाव में सप्लाय करते थे. व्यावहारिक जीवन में किसी की आंख बताते हिरणी जैसी, किसी की चाल..लेकिन कम्प्लीट किसी को सुंदर नहीं बताते..हम भुचकुलवा सब पूरा बीए-एम में इसी तरह अलगे-अलगे सबका ब्यूटी खोजने में खेप दिए..लगा नेहरु प्लेस की तरह सैमसंग की मॉनिटर, आइबीएम की सीपीयू, लॉजिटेग की माउस और टीवीएस की कीबोर्ड एस्बेंल करके पीसी बना लेंगे. हम गलत थे. ऐसा अनुराग में थोड़े ही न होता है.

तुम नई-नई सिनेमा में आयी औ एकदम से भांग के माफिक कपार पर चढ़ गई..अब कोई तुम्हारा रंग दबा हुआ कहके उतार दे, सिनेमा में रोल थर्ड क्लास बताके उतार दे, असंभव है..तुमको देखे तो पहली बार उ खंडित-खंडित सौन्दर्य का कॉन्सेप्ट दिमाग से निकला और लगा नहीं..शारीरिक अंगों के अलावा उसकी चेष्टाएं भी सौन्दर्य पैदा करती है..ऐसे में हमारे बाबा-अंकल जो शारीरिक सौष्ठव के जो प्रतिमान बनाके सिधारे, उ सब नहीं भी है तो भी सौन्दर्य संभव है बल्कि और मजबूती से. उसी को आजकल गेस्चर,ऑरा, अपीयरेंस सब बोला जाता है..तो हम तुममे सबसे ज्यादा गौर से देखे एनर्जेटिक अपीयरेंस. ऐसा लड़की जो तार-तार मिजाज को भी सितार बना दे औ फी मन करे तो खुदै ही तार छेड़ो नहीं तो इ कुछ न कुछ ऐसा बोल जाएगा कि अपने आप भीतर कोमल स्वर और वर्जित स्वर का विभाजन होके राग मालकोश बजने लगा. इ कोकवाला विज्ञापन में भी ऐसा ही हुआ है.

तु हमको उपर लाख गर्दन ताड़ने का आरोप लगावो, हट्ट तो हुए ही हैं बुरी तरह औ ज्यादा इस बात से भी कि जो इव टीजिंग का घिनौना काम हम कर ही नहीं रहे हैं, उ इललेम हम पर लगा रही हो और इ बात पर भी कि हम क्या सोचके तुमको औ तुम क्या अलाय-बलाय सोचती हो..हम सपने में भी तुमको लेके ऐसा नहीं सोच सकते हैं..देखेंगे तो ऐसे कोना-भुजड़ी( टुकड़ों-टुकड़ों में) करके तुम्हारा सिरिफ गर्दन.. तुम्हारा टीवी स्क्रीन पर होना छह सौ पचास एमजी का क्रोसिन होना है जो असल जिंदगी का बोखार उतारकर राहत देता है. तुम्हारा होना सौन्दर्य होना है..बाकी सब मचउअल्ल मामला है.

इ एगो चरन्नी सीसी के चक्कर में कहां अपनी गर्दन टिकाकर रूपक अलंकार के बखेड़ा में पड़ गयी..अब इ सब कुच्छो नहीं देखते हैं..पैसा-कौड़ी से कुछ लेना-देना है हमको..न तुमसे हाथ मिलाना है औ न अजय सर( Ajay Brahmatmaj) की तरह सटके फेटू घिचाना है. हमको बस तुमको उस बबली-जबली अंदाज में बस देखते रहना है औ उ भी शारीरिक रूप में नहीं, आंगिक चेष्टाओं के रूप में.

सच बोले, हमको कोक-शोक पीते नहीं हैं औ अबकी लगाके 122 बार बोल चुकी को बोतल की गर्दन पर दाम देखने लेकिन तब्बभी हम उ सब कुछ नहीं देखके एक ही बात का इंतजार में इ विज्ञपन देखते हैं- पागल नहीं तो.. इहै एक लाइन पूरा जान ला देता है विज्ञापन में. नहीं तो पैसा फूंक के नाला के पानी के रंग का इ कोढ़ा-कपार किसको पीना रहता है. संभव हो सके तो इ गर्दन ताड़े-बाला बात कहके मालिक से हटवा दो न, वेवजह का अपने उपर इल्जाम जैसा लगता है. एगो बात औ रह ग गया. हियां दिल्ली में पियास से मार गला रेगिस्तान हो गया है औ तुम हुआं बम्बै में बैठके पहिले अपने हड़हड़ाके कोक पीती हो औ फिर डांटने दबारने लग जाती हो. बिना पिए भी तो सब बात बोल सकती हो या फिर सिर्फ पीकर औ बिना कुछ बोले भी तो कोक बेच सकती हो. इ भी देख लेना तनी.
तुम्हारा
मीसिकंस( मीडिया सिलेबस कंटेंट सप्लायर)
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हजार-दो हजार की रकम की चेक पर साइन करते वक्त पापा ऐसे कराह उठते कि जैसे अपनी पूरी मिल्कियत एक ऐसे नालायक लौंड़े के नाम करने जा रहे हों जो पूरी की पूरी एकाध दिन में कविता, कहानी, उपन्यासों की किताबों पर लुटाकर हाथ झाड़कर खड़ा हो जाएगा और बीच सड़क पर बोकराती छांटने लगेगा-
जिंदगी में पैसा-वैसा कुछ नहीं है, असल चीज है इमोशनल थस्ट. पैसा अगर ये कर पा रहा है तो वेल एंड गुड और अगर नहीं कर पा रहा है तो उड़ा दो. वैसे ये थस्ट पूरी होती है मैला आंचल जैसे उपन्यास पढ़ने और खरीदकर बांटने से. ऐसे में मैला आंचल उपन्यास नहीं, विचारधारा है.

पापा जब चेक के कर्मकांड जिसमे तारीख डालने से लेकर, रकम की कई स्तरों पर जांच तक शामिल होती तो निगाहें इतनी गहरी टिकी होती कि हमने कभी यूजीसी-जेआरएफ की बहुविकल्पीय वस्तुनिष्ठ सवालों के आगे भी न डाले होंगे. इस चुस्त निगाहों की देखरेख में जबरदस्त सुंदर लिखावट जैसे कि मां की मूंगाकोटा साड़ी का फूलदार पल्लू कागजों पर उतर आया हो. रोशानाई को मोतियों की शक्ल में ढलते हमने पापा के हाथों जी-भरकर देखा है. लेकिन इस सुंदर लिखावट और चुस्त निगाहों के बीच तल्लीनता से रचे जिस सौन्दर्य का विस्तार होता, उसी के बीच एक खास किस्म के काईयांपन की कछारें भी पनपती नजर आती और तभी मेरे भीतर उनका वो काईंयापन धकियाकर सौन्दर्य को धीरे-धीरे दरकिनार कर देता. ऐसा लगातार होता रहा.

कॉलेज तक आते-आते पापा मुझे पूंजीवाद के प्रतीक पुरुष लगने लगे और उनकी दी गई राशि/चेक सीएसआर का हिस्सा. लिहाजा भीतर प्रतिरोध के स्वर पनपने शुरु हो गए और एक टीनएजर फैंटेसी आकार लेने लगा- किसी दिन इससे सौ गुणा रकम की चेक काटकर इऩ्हें दूंगा बल्कि चेक काटूंगा भी उनके ही सामने. उनकी तरह इत्मिनान से नहीं. एकदम घसीटा मारकर ताकि कोई भी राइटिंग देखकर ही अंदाजा लगा ले कि इसकी जिंदगी में दस-बीस लाख कोई मायने नहीं रखता और इतनी व्यस्तता होती है कि ठीक से लिखने का सामय तक नहीं होता. एकाध भूल हो तो हो सही, पापा को मिर्ची लगे तो लगे अपनी बला से.

जिंदगी में आज पहली बार अपने नाम चेकबुक मिली और वो भी बारह ततबीर( झंझट) के बाद. हाथ में लेते ही लगा- पहली चेक तो पापा के नाम ही बनता है, वही इमोशनल थस्ट वाला चक्कर. मन तो किया कि सीधे पांच करोड़ की कांटू, घर जाने पर उनके हाथों में पकड़ाउं और आगे अमिताभ बच्चन की केबीसी की डायलॉग ठेल दूं..छूकर देखिए, कैसा महसूस कर रहे हैं. फिर अकाउंट की प्रकृति के अनुसार चेकबुक की हैसियत देखी तो समझ आया, दस लाख से ज्यादा की काट नहीं सकते. खैर कोई बात नहीं. केबीसी डायलॉग की गुंजाईश यहां भी है. तो मैं आपको दे रहा हूं पूरे दस लाख. लेकिन हमारे और आपके बीच गेम अभी यहीं खत्म नहीं हुआ है. इसे मैं अपने पास रख ले रहा हूं और अगली बार जब घर आया तो आपको दूंगा पूरे पांच करोड़ की चेक... हां, ये जरूर है कि वो इस रकम को मजाक के बदले संस्कार से जोड़ देगे- रक्खो, अपने पास, हम हराम का एक रुपया नहीं लेते, जिसकी कमाई का साधन ही गलत हो, उसके लिए रुपया ढेला-पत्थर है.( सिकंस इमानदारी और एपेशेवर होकर भला पांच करोड़ रुपये कहां से लाएगा ?) 

मुझे पता है कि गलती से इस चेक को अगर पापा ने जमा कर दिया तो बाउंस होने और उसके बाद की कानूनी कार्रवाई होने से मुझे कोई रोक नहीं सकता. लेकिन फिर टीनएज की मेरी उस थस्ट का क्या और फिर शुद्ध हवाबाजी इतना सोच-समझकर थोड़े न की जाती है.
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तुम तो छौंड़ी ( लड़की ) की तरह छोटी-छोटी बातों पर भी रोने लग जाते हो, हैंडल बिद केयर मटीरियल हो तुम. पागल हो क्या , मैं कहां रो रहा हूं, फोन पर तुम्हें कैसे पता चल जाता है कि मैं रो रहा हूं, नौटंकी..मजे ले रही हो. 
क्यों, तुम जिस पेस में बात करते हो, मुझे अंदाजा नहीं लग जाता है कि तुम्हारी आंखें भर आयी होंगी. उसकी छोड़ो न, मुझे तो नैतिक को बिस्तर पर पड़े देख इस बात पर सोचकर कि अक्षरा पर क्या बीतती होगी, आंखें छलछला जाती है, जगिया ने जिस तरह आनंदी को डिच किया, देखकर मन कचोटने लग जाता है..और तभी टीवी सीरियल पर पढ़ी सारी थीअरि, आंग्स, एमसी रॉबी, कूहन के तर्क थोड़े वक्त के धुंधले हो जाते हैं और मां हावी हो जाती है. बचपन से मां के साथ टीवी और सिनेमा देखते रहने का बड़ा नुकसान ये है कि मैं इसके तमाम तरह के धत्कर्म और व्यावसायिक हितों के समझने के बावजूद देखते वक्त मां हो जाता हूं. चरित्रों के हिसाब से मनोभाव बदलते हैं और उसी तरह से सब चेहरे पर आने-जाने लग जाते हैं. प्लीज, तुम इसे मेरी पर्सनालिटी का हिस्सा मत समझो, "मां सिंड्रोम से शिकार एक लड़के" के रूप में लो. मन करे तो एक रोगी की तरह कहो- इसे मां हो गया है.

किला जीतने जैसी योजना बनानेवाली मेरी दोस्त पिछले चार साल से मिलने की योजना बना रही है कि हम किसी दिन दिनभर के लिए मिलेंगे, खूब गप्पें करेंगे, कॉफी पिएंगे, पुराने दिनों को याद करेंगे और लोगों को भी बुलाएंगे..वो दिन अभी तक आया नहीं लेकिन फोन पर वही सारी बातें होती रहतीं..पता है, अच्छा लगता है तुमसे बात करना, गांव की किसी औरत से बात करने का एहसास होता है, लगता ही नहीं किसी तीस-इक्कतीस साल के लड़के से बात कर रही हूं. मुझसे बात करने के पीछे की वजह जब भी उससे सुनता हूं तो एक सवाल को लेकर बार-बार अटक जाता हूं- मेरे भीतर मेरी मां इतनी गहरी धंस गयी है कि कोई बात करे तो उसे ये भी न लगे कि वो लड़के से बात कर रही है ? मां को मेरे भीतर इतना अधिक नहीं होना था. लगता है मां से 19 साल से दूर रहकर जो कुछ भी किया, वो कुछ भी अलग नहीं बन पाया. मेरे करीब जितने लोग आए, सबने मेरी मां से मिले भी मुझमे उसे ही देखा. ओफ्फ, भीतर मां का इतना अधिक भी क्या चले जाना कि अपनी घिसकर पहचान बनाने की जद्दोजहद का कोई मायने न रह जाए.

मां ने शुरु से अपनी जिंदगी में कुछ सपाट सूत्र पकड़ लिए और उसी को लेकर जीती रही. मसलन, जो होता है अच्छे के लिए होता है. जो जैसा करेगा, विधाता उसको वैसा ही भोगने के लिए छोड़ देता. कोई पेट से सीखकर कुछ नहीं आता है, सब यहीं सीखना होता है, सब आदमी एक तरह का है, किसी की गांड़ में जट्टा नहीं लगा है. मां ने कभी दास कैपिटल नहीं पढ़े, इपीडब्ल्यू के पन्ने नहीं पलटे, न्यू यार्कर शब्द नहीं सुना इसलिए एक हद तक उसे अधिकार है कि वो इसी तरह की सपाट समझ के साथ जीती रहे..और इस समझ के साथ जिंदगी के कितने आंधी तूफान झेल गयी. नाजों से पली, नाना की सबसे प्यारी और अधिकारों के साथ जीनेवाली मां हवेलीनुमा घर के खंड़कर में बदल जानेवाले पापा के घर में उसका कभी दम नहीं घुटा. मैं सोचता हूं कि उसके साथ जिंदगी के ये सपाट सूत्र नहीं होते और हम जैसों की तरह इगो, स्टेटस, इमोशनल क्राइसिस जैसे चमकीले, रेडीमेड भावों में जाकर फंस जाती तो कितनी मुश्किल हो जाती उसके लिए. पिछले पच्चीस साल से जिस मां को देखता आया हूं, लगता है इसका एक हिस्सा भी हमारी जिंदगी में पड़ जाए तो छटपटाकर रह जाएं लेकिन मां, वही एक सपाट सूत्र वाक्य के साथ झेल जाती है- ठाकुरजी के घर देर है, अंधेर नहीं..जिस तरह से सब मिलके सताता है न, दीनानाथ सब देख रहे हैं उपर से.

मां के दीनानाथ, ठाकुरजी( जिसमे कई ब्रांड के देवता एक साथ शामिल हैं, आप कृष्ण की मूर्ति हटाकर साईं बाबा को लगा दें तो वही दीनानाथ हो जाएंगे, वो कहती भी है कि हमको नहीं पता है कि इ लकड़ी-पत्थर के देउता क्या किसी का करेंगे, बाकी आदमी जात का भाव जिंदा रहता है इसी बहाने सो कम है ) के प्रति अगाध प्रेम ने कभी मुझे भक्ति की ओर नहीं खींचा बल्कि उसे चिढाने के लिए इन सबों के साथ खूब छेड़छाड़ किए. चढ़ावे में जहां वो पांच के सिक्के चढ़ाती, मैं उसे रखकर पचास पैसे डाल देता. जहां वो हनुमान की तस्वीर लगाती, बगल में जूही चावला की लगा देता..मां बस इतना कहती- सब तो हमको पागल समझता ही है, झांट भरके तुम भी हमको ऐसा ही समझते हो, हनुमानजी नहीं हैं कि करेजा चीरकर दिखा दें, क्या बीतता है लेकिन इ जान लो, इ सब अपने लिए नहीं करते हैं, तुम्हीं पिल्लू भर के बुतरू के लिए. इतना कहकर वो चूही चावला की तस्वीर पर भी रोली का टीका लगा देती. हंसी तो छूटती भीतर से लेकिन ग्लानिबोध इतना अधिक होता कि मन भारी हो जाता और बस इतना कह पाता- इसको काहे लगाती है, इ तो नाच-गाना करके हम लौंड़ों का चरित्र बर्बाद करती है. मां बस इतना कहती- जे भी करती है, पेट के लिए करती है.तुम्हारी तरह माय-बाप का ही खाके, उसी के लिए कब्र नहीं खोदती है न और तब जूही चावला पर अक्षर छिड़क देती. हिन्दी साहित्य के जो होनकार शोधार्थी सगुण-निर्गुण भक्ति का स्पष्ट विभाजन करते हुए प्रवृत्तियों की जो लिस्ट जारी करते हैं, मां की इस भक्ति के आगे उन्हें झामा मार जाएगा. शायद यही वजह है कि पूजा-पाठ से जबरदस्त चिढ़ होने के बावजूद मां की इस पूजा ने मुझे मां से कभी दूर नहीं किया बल्कि

सैद्धांतिक और प्रगतिशील नजरिए के तहत उसकी कई बातें, आदतें और जीवन के मायने गलत हैं लेकिन हर बात के पीछे एक तर्क मुझे उसकी तरह खींचता रहा. एक खास आकर्षण मां के प्रति बना रहा. पहले से आश्वस्त होता कि इसके लिए भी उसके पास एक तर्क है और उस तर्क के साथ सहमति-असहमति का पुच्छल्ला न भी जोड़े तो सुनने की इच्छा तो बनी ही रहती..

"तो सुने हैं कि तुम्हारे ये जो कृष्णजी हैं, उन पर भी लड़की के साथ जोर-जबरदस्ती का मामला बन गया था, अभी कृष्ण कथा पर एक लेख पढ़ रहे थे तो पता चला." मां पूरे धैर्य से सुनती और जब तक रिएक्ट नहीं करती जब तक कि कोई सस्ती भाषा के प्रयोग शुरु न कर दूं. इ कोई बात हुआ, दुनिया उसको भगवान मानकर पूजता है और उ रहे लड़किए में लसफसाए. अब मां नहीं रूकती-

कृष्ण भगवान तुमरी लड़की भगा के ले गए, उसको छेड़े जो तुम्हारा पेट का पानी नहीं पच रहा है. उसको भक्ति में मन हुआ तो गई..काहे जय श्री कृष्णा टीवी पर आंख गड़ाकर देख रहे थे तब नहीं सूझ रहा था कि कृष्णजी के पीछे कैसे सब चमोकन जैसा गोपी सब सट रही थी, किसी देवी-देउता के बारे में बिना ठीक से जाने खिल्ली नहीं उड़ाना चाहिए. लड़की जात के मन किया तो गई इसमे भगवानजी क्या करें ? चलो, तो इसका मतलब ये हआ कि कल को हम भी किसी लड़की से लव-शव करेंगे तो जात का मामला नहीं फसाओगी न..
मां उसी रौ में बोलती- जब लड़की को दिक्कत नहीं होगा औ तुम्हारा करेजा उसके साथ जुड़ा जाएगा तो हम बूढ़ी आदमी घडीघंट बजावे बीच में पड़ेंगे. जिंदगी तुम दोनों का, देखना अपना. हम सब तो बस मुंहठकुआ( प्रतीक रूप में) रहेंगे.

घोर संघी, भापपाई माहौल में पली-बढ़ी मां के हर बात के पीछे के तर्क, दूसरों को सुनने की अद्भुत क्षमता और उन कर्मकांड़ों के बीच से भी प्रगतिशील रेशे के पनपने की गुंजाईश ने वक्त के बदलते-बढ़ते जाने के बावजूद मेरे आगे कभी कम पढ़ी-लिखी, आउटडेटेड होने का आभास होने नहीं दिया. उसे होली, दीवाली पर फोन करना उत्साहित नहीं करता लेकिन वेलेंटाइन डे की सुबह ही- हैप्पी वेलेंटाइन डे विनीत और मैं उसी तपाक से सेम टू यू कहता हूं और साथ में ये जोड़ते हुए, ये वेलेंटाइन हम जैसे कुपुत्र को विश करने के लिए नहीं होता, जाओ पापा को कहो ओल्ड स्पाइस लगाकर गालों पर जिलेट रेजर सरकाएं ताकि खटारापन छिटक जाए और हां रात में उनके लिए सत्तू की लिट्टी जरुर बनाना. अपने स्तर से वो खुशी, दैनिक जागरण और स्टार प्लस के दम पर उतना अपडेट होने की जरूर कोशिश करती है जिससे कि मुझे लगे कि मेरी मां भी जमाने की चाल को समझती है.

 वो गलत हो सकती है, बस एहसास करा दीजिए आराम से, कन्विंस हो जाएगी. ठीक ही कहते हैं, यही होता है न पढ़ा-लिखा आदमी का अक्कल-बुद्धि. इसका नतीजा ये हुआ है कि हम इस बेहद क्रूर, दुरुह और उलझी-फंसी दुनिया में भी जाने-अनजाने, घोर नास्तिक होने का दावा करते हुए भी मां के सपाट सूत्र वाक्यों के सहारे जीने की कोशिश करने लग जाते हैं. मां से थोड़ा पॉलिश्ड होकर, मसलन घिसेंगे तो चीजें मिलेगी कैसे नहीं, मेहनत करेंगे तो होगा कैसे नहीं. इस सपाट सूत्र वाक्य के बीच मां के ठाकुरजी, दीनानाथ कभी नहीं आते लेकिन नाउम्मीदी के बीच भी यकीन बचा ही रह जाता है..हां जिंदगी के बेहद निजी हिस्से में ये सब अपनाते हुए बुरी तरह लड़खड़ा जाते हैं, मार खा जाते हैं और तब बेहद गुस्सा आता है- तुम मेरे साथ, मेरे भीतर इतनी अधिक क्यों आ गयी मां. मेरे भइया लोग तो ऐसे नहीं हैं. बेहद मैच्योर, प्रैक्टिकल, पैसे और अवसर को जिंदगी का अंतिम सत्य माननेवाले लोग. कायदे से तो मुझे उनसे ज्यादा बड़े शहर में, ज्यादा बड़ी भीड़ के बीच जीना है, तुम मेरे भीतर कम होती तो अच्छा होता.

जिंदगी की आपाधापी, थकान और समय की किल्लत की वजह से खाना बनाने का मन नहीं करता..चायना वॉल, वर्कोज की लीफ पर नजर जाती है, मोबाईल उठाकर ऑर्डर देने का मन बनाता ही हूं कि तुम बीच में आ जाती हो- बाहर का अलाय-बलाय खाने से अच्छा है आदमी घर में माड-भात खा ले, कुछ नहीं तो चार रोटी बनाकर दही के साथ खा ले. दही न हो तो अचार के साथ ही और मैं मशीन की तरह बस वही करने लग जाता हूं...और इसी तरह जिंदगी में कभी हैंगआउट, चिल्लआउट शब्द घुस नहीं पाए. रसोई में होता हूं तो तुम्हारे साथ होता हूं. वॉशिंग मशीन छोड़कर लिनन की शर्ट हाथ से धोते वक्त कपड़े फीचते होते हुए तुम होती हो. किसी से तारीफ और जिस बात के लिए तारीफ सुनता हूं वो तुम्हारे हिस्से चला जाता है. मैं तो कहीं होता ही नहीं हूं. इतना भी क्या गहरे धंस जाना कि जब भी किसी लड़की से दो-चार मुलाकात होती है, बात होती है, सीरियस होता हं, तुम मूल पाठ बनकर हाजिर हो जाती हो, वो लड़की प्रूफ रीडिंग के लिए मौजूद टेक्सट और मैं खुद प्रूफ रीडर.. मुझे प्रूफ रीडर तो नहीं बनना था न मां, तुम तो ये कहकर इत्मिनान हो लेती हो- तुम जिसके साथ खुश रहोगे, हम भी खुश रहेंगे लेकिन भीतर जो धंस गयी हो, वो कितना परेशान करता है मुझे, इसका अंदाजा है तुम्हें. हमारे अस्मितामूलक विमर्श की कैसे बत्ती लग जाती है, इसे समझती हो तुम और तुम मेरे लिए, मेरी पढ़ाई के लिए पूरे घर से पंगे लेती रही, चट्टान तक खड़ी रही, पापा को जल्लाद तक घोषित कर दिया लेकिन मेरे भीतर तुम्हारे धंस जाने से सालों से एक इंडिविजुअल के बनने की कोशिशों का कैसे फलूदा निकलता है, कभी सोचा है इस पर ?

( सोचा था, जिस टूम्बकटू को रोज जीता हूं, जिसका रोज कुछ न कुछ रोज भीतर जाता रहता है, उस पर आज कलेंडरी लेखन न करुं लेकिन एफएम रेडियो और टेलीविजन के बीच फैली दुनिया ऐसा करने कहां देती है ) 


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अबे स्साले ! क्या कर रहा है तू ? भरी अल्सायी दुपहरी में जबकि हम हॉस्टल की कढ़ी-चावल ठांसकर लेटे-लेटे 9x पर जिया जले देख ही रहे थे कि फोन उठाने पर उधर से किसी ने बोला. मन तो किया कि उसी वक्त दो चमाट दूं कि जिस बदतमीजी से बात शुरु की थी. लेकिन आगे कहा-

अबे, मैं बोल रही हूं मनीषा. बेदखल की डायरी. ये ब्लॉगिंग का वो चरम दौर था जब आप किसी से पहले कभी मिले न हों या बातचीत नहीं हुई हो और पहचानने में अटक रहे हों तो वो अपने ब्लॉग का नाम बताते और तब आप कहते- अच्छा, मनीषा..हां बोलिए न, कैसी हैं आप और उधर से जवाब मिलता-

मैं ठीक हूं, भोपाल से दिल्ली आयी हूं. हम मिल सकते हैं ? और तब ब्लॉगर का जो भरत-मिलाप होता कि मत पूछिए. कभी लगता ही नहीं कि हम एक-दूसरे से पहली बार मिल रहे हैं. सबकुछ जाना पहचाना सा. एक-दूसरे की पसंद-नापसंद, खाने से लेकर पढ़ने तक..मना करने का जल्दी सवाल ही नहीं उठता..तो इसी विधान के तहत हमने कहा- हां क्यों नहीं. आप विश्वविद्यालय मेट्रो स्टेशन पहुंचने से पहले फोन कीजिएगा, मैं आ जाउंगा.

करीब एक घंटे के भीतर मनीषा मेरे ग्वायर हॉल के उसी प्यारे से कमरे( 63) पर थी. जैसा लिखती रही थीं, वैसा ही अंदाज. बिल्कुल बिंदास. पोस्ट पढ़ने के दौरान मैंने अपनी तरफ से नसीहत ठेल दी थी कि धुंआ-धक्कड़ का काम छोड़ दीजिए लेकिन घर आए मेहमान के स्वागत में ऑमलेट के साथ माल रोड़ से क्लासिक लेने चला गया था. सिगरेट पीने से लोगों को अक्सर मना करता हूं लेकिन पिलाने का एक अजीब सा शौक है. मनीषा मेरे कमरे की एक-एक चीजें निहार रही थी और सबसे ज्यादा नजर जाकर अटक गयी थी मेरी किताबों पर..अचानक पूछा- अच्छा, यहां किताब खरीदनी हो तो कहां जाना होगा ? सौभाग्य से तब स्पीक मैके कैंटीन के आगे बुकशॉप की बेहतरीन दूकान मौजूद थी.

मैंने कहा- आप सचमुच जाना चाहती है ? उन्होंने सिगरेट का धुंआ मेरे मुंह पर फेंकते हुए कहा- हां, मैं क्या मजाक कर रही हूं ? पता नहीं, उस अंदाज में ऐसा क्या था कि मुझे बेहद अच्छा लगा. किताबों के प्रति उनका नशा और सिगरेट के धुएं और नशे पर शायद भारी पड़ गया हो. मनीषा जितनी देर मेरे कमरे पर जिस अंदाज में रही, मुझे अपनी बैचमेट के एक-एक करके चेहरे याद आ गए जिनकी पैदाईश दिल्ली में हुई थी, डीयू से ही ग्रेजुएट और एमए थी लेकिन हम लड़कों के हॉस्टल आने के नाम पर अजीब सी मुख मुद्रा कर लेती. उनमें एक खास किस्म का संकोच होता. मनीषा का खुलापन और बिंदास अंदाज बेहद अच्छा लगा. हम जैसे और जिस कपड़े में थे चल लिए उनके साथ आर्टस फैक की बुकशॉप.

बुकशॉप पहुंचते ही मनीषा भूल चुकी थी कि उनके साथ मैं भी हूं. बेतहाशा किताबें देखती-छांटती जा रही थी और दनादन कहे जा रही थी- इसे दे दो भइया. किताबों की खरीदारी कोई साड़ी-ब्लॉउज की खरीदारी नहीं होती कि झोंक में खरीद लो, पसंद न आए तो ननद, देवरानी को टिका दो या फिर देने-लेने के काम आ जाएगी. किताबें खरीदने के लिए एक खास किस्म की समझ होती है. उसके पढ़ने और खरीदने के पहले ही उसके बारे में जानकारी होने/रखने की ललक. मनीषा ने ढेर सारी किताबें खरीदी और कुछ के बारे में कहा कि वो मंगा दें. विनीत तुम अपने पास रख लेना और मुझे भेज देना. किताबों की दुनिया में खोई मनीषा को याद आया कि एक पर्स भी खरीदनी है..तो मतलब अगला पड़ाव कमलानगर.

लड़कियों की दूकान पर पहुंचकर मैं पैसिव नहीं हो जाता और शर्माता तो बिल्कुल भी नहीं. बचपन से दीदीयों के साथ जाते रहने से लेडिज शॉप कभी अटपटा लगा नहीं. लिहाजा, मनीषा पर्स, क्लिस, हेयरबैंड देखने लगी तो किताबों से कहीं ज्यादा उत्साह से बताने लगा- ये लीजिए, अच्छी लगेगी, ये ठीक है, आपको शूट करेगी..छोटी-मोटी चीजों की खरीदारी और उनकी तरफ से तारीफ पाकर कि तुम हम लड़कियों के साथ बहुत ही कम्पटेबल हो, फुलकर कुप्पा हो जाने के बाद गोलगप्पे पर टूट पड़े और तब वापस मनीषा को विश्वविद्यालय मेट्रो जाकर शी ऑफ. पहली बार किसी से मिलना इतना अच्छा होता है क्या और जरा भी न लगे कि हम एक-दूसरे को जानते नही. लिखने की दुनिया इसी मामले में तो खास है कि हम एक हद तक कितना कुछ जान लेते हैं और वो भी तब जब आप फार्मल लेखन न करके ब्लॉगिंग कर रहे हों. बहरहाल

मनीषा वापस भोपाल चली गयी. बुक स्टोरवाले ने दो दिन बाकी किताबें ला दीं और मैंने कई बार मनीषा से भोपाल का पता पूछा. पता नहीं, उन दिनों उनकी दुनिया कैसी बन-बदल रही थी, पता दिया नहीं. कहा- जल्द ही मिलना होगा. इस बीच ये किताबें हॉस्टल के कमरे से निकलकर माल अपार्टमेंट की रैक पर सजी. माल अपार्टमेंट से मयूर विहार 686, फेज-1. वहां से निकलकर वहीं 221, एक साल बाद आउट्रमलाइन की 1589 में और अब इस घर में. चार साल से इस किताब को मैंने पता नहीं कितनी बार अलग किया है कि ये मनीषा की किताबें हैं, इसे उन्हें देनी है और फिर कुछ दिनों बाद मिक्स हो जाती है. कल फिर अलग किया है.

कितनी बार कहा- मनीषा, आपकी किताबें मेरे पास है. कई बार इस बीच मिलना हुआ लेकिन कभी पहले से निर्धारित नहीं, अचानक. मैंने मजाक में कहा भी कि अब देखिए मैं किसी दिन आप पर पोस्ट लिख दूंगा. हम डीयू के हॉस्टलर्स की आदिम आदत बन चुकी है सेमेस्टर के बाद किताबों की सेल्फ नए सिरे से जंचाने की तो दो दिन से लगे हैं इसी में और इसी बीच मनीषा की किताबें. लगा, बहुत मजाक हो गया..अब पोस्ट लिख ही देनी चाहिए.

मुझे पता है, पोस्ट पढ़कर जरूर कहेंगी- अबे ढक्कन, मैं तेरे पास आकर ले लेती यार, क्यों लिख दी पोस्ट तुमने.

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लड़की के साथ यौन हिंसा और बलात्कार एक बात है और दलित लड़की के साथ बलात्कार दूसरी बात है. ये विभाजन स्पष्ट रूप से आपको हरियाणा में लगातार हो रही घटना के मामले में दिख जाएगा. दलित लड़कियां बलात्कारियों की शिकार होने के साथ उस समझ और जाति की भी शिकार हो जाती है जिसमें दलित शोषण के अन्तर्गत ये सब स्वाभाविक मान लिया जाता है. नहीं तो क्या कारण है कि जिन विश्वविद्यालयों, शैक्षणिक संस्थानों, कॉलेजों और मंचों से स्त्री हिंसा के नाम पर हजारों की भीड़ सड़कों पर उतर आती है, हरियाणा में दलित लड़कियों के साथ हो रही एक के बाद एक घटना हमें सुलगाने के बजाए इस जुमले की तरफ धकेल देती है- हरियाणा में तो ये सब कॉमन है. आप बनारस आगाह करने जा सकते हैं, कभी हरियाणा नहीं..
Photo: 23 मार्च 2014 को हरियाणा के हिसार जिले के भगाणा गांव से चार दलित लड़कियों को दबंग जाट बिरादरी के लोगों ने अपहरण कर लिया और फिर लगातार उनके साथ दो दिनों तक सामूहिक बलात्कार करते रहे. इस घटना के विरोध में अप्रैल से ही लोग जंतर-मंतर पर बैठे हैं, लड़कियों का पीड़ित परिवार वापस भगाणा लौटना नहीं चाहते. उन्हें डर है कि कभी भी उनके साथ कुछ भी हो सकता है. लेकिन
ये वही जंतर-मंतर का इलाका है जहां 16 दिसंबर की घटना को लेकर शहर का मध्यवर्ग उमड़ पड़ा था लेकिन आज वो पूरी तरह नदारद था. कुछेक लोगों को छोड़ दें तो आंदेलन और जला दो मिटा दो के नारे लगानेवाले चमकीले चेहरे दूर-दूर तक दिखाई न दिए. असल में मध्यवर्ग किसी भी आंदोलन को चमकीली शक्ल में तब्दील होने तक इंतजार करता है. अगर मुद्दे चमकीले हो गए तो उसमे शामिल हो जाता है और जो मुद्दे बेहद सादे और जमीनी स्तर से जुड़े हैं, वो उनके मतलब का नहीं होता. हरियाणा में एक के बाद एक दलित स्त्रियों के साथ यौन हिंसा और बलात्कार की घटनाएं सामने आ रही हैं, दुर्भाग्य से वो मध्यवर्ग के हिसाब से चमकीली नहीं है नहीं तो इसी जंतर-मंतर पर हमने बिंदास टीवी औऱ रेडियो मिर्ची द्वारा प्रायोजित स्लट वॉक में हजारों की भीड़ देखी थी और एक से एक चैनल और अखबार के लोग कवरेज के लिए आए थे.

23 मार्च 2014 को हरियाणा के हिसार जिले के भगाणा गांव से चार दलित लड़कियों को दबंग जाट बिरादरी के लोगों ने अपहरण कर लिया और फिर लगातार उनके साथ दो दिनों तक सामूहिक बलात्कार करते रहे. इस घटना के विरोध में अप्रैल से ही लोग जंतर-मंतर पर बैठे हैं, लड़कियों का पीड़ित परिवार वापस भगाणा लौटना नहीं चाहते. उन्हें डर है कि कभी भी उनके साथ कुछ भी हो सकता है. लेकिन
ये वही जंतर-मंतर का इलाका है जहां 16 दिसंबर की घटना को लेकर शहर का मध्यवर्ग उमड़ पड़ा था लेकिन आज वो पूरी तरह नदारद था. कुछेक लोगों को छोड़ दें तो आंदेलन और जला दो मिटा दो के नारे लगानेवाले चमकीले चेहरे दूर-दूर तक दिखाई न दिए. असल में मध्यवर्ग किसी भी आंदोलन को चमकीली शक्ल में तब्दील होने तक इंतजार करता है. अगर मुद्दे चमकीले हो गए तो उसमे शामिल हो जाता है और जो मुद्दे बेहद सादे और जमीनी स्तर से जुड़े हैं, वो उनके मतलब का नहीं होता. हरियाणा में एक के बाद एक दलित स्त्रियों के साथ यौन हिंसा और बलात्कार की घटनाएं सामने आ रही हैं, दुर्भाग्य से वो मध्यवर्ग के हिसाब से चमकीली नहीं है नहीं तो इसी जंतर-मंतर पर हमने बिंदास टीवी औऱ रेडियो मिर्ची द्वारा प्रायोजित स्लट वॉक में हजारों की भीड़ देखी थी और एक से एक चैनल और अखबार के लोग कवरेज के लिए आए थे.

Photo: लड़की के साथ यौन हिंसा और बलात्कार एक बात है और दलित लड़की के साथ बलात्कार दूसरी बात है. ये विभाजन स्पष्ट रूप से आपको हरियाणा में लगातार हो रही घटना के मामले में दिख जाएगा. दलित लड़कियां बलात्कारियों की शिकार होने के साथ उस समझ और जाति की भी शिकार हो जाती है जिसमें दलित शोषण के अन्तर्गत ये सब स्वाभाविक मान लिया जाता है. नहीं तो क्या कारण है कि जिन विश्वविद्यालयों, शैक्षणिक संस्थानों, कॉलेजों और मंचों से स्त्री हिंसा के नाम पर हजारों की भीड़ सड़कों पर उतर आती है, हरियाणा में दलित लड़कियों के साथ हो रही एक के बाद एक घटना हमें सुलगाने के बजाए इस जुमले की तरफ धकेल देती है- हरियाणा में तो ये सब कॉमन है. आप बनारस आगाह करने जा सकते हैं, कभी हरियाणा नहीं..

भगाणा( हरियाणा ) में चार दलित लड़कियों के साथ हुए बलात्कार को घटना कहकर चर्चा करना बेमानी होगी. ये दरअसल हरियाणा में सालों से दलित स्त्रियों के साथ चल रहे बलात्कार वर्कशॉप का एक घिनौना नमूना है. जब आप इसे घटना कहते हैं तो इसके साथ सालों से चल रहे उस वर्कशॉप पर पर्दा पड़ जाता है जहां यह बेहद ही मामूली ढंग से देखा जाता है. यकीन न हो तो अखबार की पुरानी फाइलें उठाकर देख लें, दलित स्त्रियों/लड़कियों के साथ बलात्कार की पूरी सीरिज मिलेगी और दबंग गुंडे दोषियों के खिलाफ होनेवाली कार्रवाई पर गौर करेंगे तो लगेगा कि प्रशासन और बलात्कारियों की जुबान में बहुत ज्यादा फर्क नहीं है.

8 मई 2010 को हमलोग मिर्चपुर( हरियाणा) में 12 वीं कक्षा में पढ़ रही सुमन के खाक हो चुके कमरे में थे. सुमन की सिविक्स की किताब के पन्ने को समेटते हुए जिसमे कि हमारा संविधान का अध्याय छपा था, जनसत्ता के पत्रकार अरविंद शेष की दो अलग-अलग आंखे अलग-अलग भाव व्यक्त कर रहे थे, एक में गाढ़े आंसू थे और दूसरे में धधका देनेवाला गुस्सा.

21 अप्रैल 2010 को मिर्चपुर के दबंग जाति के लोगों ने दलितों के कुल 18 घरों में आग लगा दी थी. एक पैर से लाचार दलित लड़की सुमन के साथ उन्होंने दुष्कर्म किया और बाहर से कुंडी लगाकर जलती गैस सिलेंडर बाहर से फेंक दिया. सुमन कमरे में तड़प-तड़पकर मर गयी. बाहर के कमरे में पड़े उनके पिता पर हमला किया गया और आग लगा दी गई. दोनों बेटी-बाप की मौत हो गई. जले घर के बाहर लड़की की तख्ती पर सुमन की दीदी ने जब पूरा हाल हमें सुनाया तो लगा हम किस मुल्क में रहते हैं और दलित विमर्श के नाम पर विश्वविद्यालयों में आखिर कर क्या रहे हैं ? पता नहीं हम कौन सी शोध प्रविधि पर बहस कर रहे होते हैं लेकिन यहां तो दलितों को सीधे जिंदा जला दिया जाता है.

हमें महा खाप पंचायत में किसी तरह का सवाल नहीं करने दिया गया. उल्टे चारों तरफ से घेर लिया गया कि तुम दिल्लीवाले पत्रकार हमें तालिबानी बोलते हो..सबकी जान अटक गयी थी जबकि वहीं दैनिक भास्कर, अमर उजाला और बाकी के अखबार के प्रतिनिधि पत्रकार आराम से नाश्ते के साथ खाप के समर्थमन में और सुमन के साथ जो हुआ, वो कोई गुनाह न होकर दलित की ही गलती की बात सुन रहे थे. बाद में मिर्चपुर की इस घटना के साथ जो औऱ जैसा व्यवहार हुआ, हमें तभी अंदाजा लग गया कि हरियाणा में दलित स्त्रियों के साथ बलात्कार की पृष्ठभूमि तैयार हो गई है

आप करते रहिए इस बात पर थै-थै कि अस्मितामूलक विमर्श के तहत अब दलित विमर्श-स्त्री विमर्श और साहित्य पाठ्यक्रम का हिस्सा हो गया. मुझे तो ऐसे पाठ्यक्रम पर बेहद अफसोस होता है जो खुलेआम सड़कों पर होनेवाले संघर्ष, बहस और मुठभेड को एसाइनमेंट, पावर प्वाइंट प्रेजेंटेशन और इन्टरनल एस्सेमेंट का हिस्सा बनाकर इसकी धार को मार देने का काम करते हैं. देशभर में होनेवाले सेमिनार सर्टिफिकेट बटोरने के धत्कर्म बनकर रह जाते हैं. ये सिलेबस विमर्श कम सड़कों पर लड़ी जानेवाली हक की लड़ाई की मॉर्चरी है, शवगृह है.
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