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मूलतः प्रकाशित नया ज्ञानोदय मई 09
सिनेमा के जिस गाने के दम पर पूरी दुनिया का दिल जीता जा सकता है, ऑस्कर जीते जा सकते हैं, तो फिर उसी गाने के बूते देश की जनता का मन और लोकसभा चुनाव क्यों नहीं? अपने चुनावी विज्ञापन के लिए,स्लमडॉग मिलेनियर के गीत ‘जय हो’ की कॉपीराइट खरीदनेवाली राजनीतिक पार्टी की इस समझदारी पर आप चाहें तो हंस सकते हैं, अफसोस जाहिर कर सकते हैं कि मौजूदा राजनीति में लोकतंत्र के सच और मनोरंजन की फंतासी में कोई फर्क नहीं रहने दिया गया है। आप चाहें तो इसके विरोध में विपक्षी दल की पैरॉडी में शामिल हो सकते हैं जहां जय हो के बदले भय हो की बात की जा रही है, जहां चतुर्दिक विकास और जय हो के लोकतंत्र का पर्दाफाश करते हुए भूख,गरीबी,मंदी औऱ आतंकवाद के बीच लथपथ एक लाचार लोकतंत्र दिखाया जा रहा है लेकिन इस बात से इन्कार नहीं कर सकते कि टेलीविजन औऱ राजनीतिक विज्ञापनों के गठजोड़ से लोकतंत्र की राजनीति की जो शक्ल उभरकर सामने आ रही है, वह प्रत्याशी,पार्टी कार्यकर्ता और मतदाता के सीधे हस्तक्षेप से बननेवाले लोकतंत्र से बिल्कुल अलग है। इसे आप चाहें तो वर्चुअल डेमोक्रेसी या फिर पिक्चर ट्यूब से पैदा हुआ लोकतंत्र कह सकते हैं जहां मतदाता के तौर पर हम सबकी सक्रियता का अर्थ इस बात से है कि कि ज्यादा से ज्यादा टेलीविजन देखें,उस पर बननेवाली राजनीतिक पार्टियों और प्रत्याशियों की छवियों को समझें,विज्ञापन के चिन्हों पर गौर करें और इस आधार पर राजनीतिक समझ तैयार करें। पिछले दो-तीन सालों से टेलीविजन की संवादधर्मिता बढ़ी है इसलिए चाहें तो फोनो के माध्यम से सवाल-जबाब कर सकते हैं। ऐसा करते हुए हम वर्चुअल डेमोक्रेसी की गतिविधियों में शामिल होते हैं और इस स्तर पर अपने को सक्रिय मतदाता मानते हैं। सामाजिक-राजनीतिक गतिविधियों में सीधे हस्तक्षेप के बजाय माध्यमों के स्तर पर सक्रिय होने की इस स्थिति को आर्मन्ड ने “क्राइसिस ऑफ पब्लिक कल्चर” के रुप में विश्लेषित किया है।( आर्मन्ड मैटेलार्टः1991,पेज न-196, एडवर्टाइजिंग इंटरनेशनलः दि प्राइवेटाइजेशन ऑफ पब्लिक स्पेस,राउट्लेज,11 न्यू फीटर लेन,लंदन EC4P 4EE)।
टेलीविजन की ताकत इस बात में है कि वह हमें बिना किसी धक्का-मुक्की वाले चुनावी रैलियों में शामिल हुए, बिना किसी पार्टी के पक्ष में नारे लगाए ,किसी प्रत्याशी के लिए हाय-हाय किए बिना और चुनावी वायदों पर वाह-वाह किए बिना ही हमें सजग मतदाता औऱ नागरिक होने का अहसास कराता है। यह,एक सुरक्षित औऱ सुविधाजनक मनोदशा में हमें राजनीति से जुड़ने का अवसर मुहैया कराता है। टेलीविजन में इस बात की क्षमता है कि यह “मास वोटर/ऑडिएंस”( अलग-अलग मनस्थिति और विचारधारा के लोग,एक-दूसरे से अपरिचित किन्तु माध्यम के स्तर पर एकजुट होनेवाले लोग) को छोटे-छोटे टुकड़ों में विभाजित करने का काम करता है जिससे कि लक्ष्य-मतदाता के रुप में राजनीतिक विज्ञापनों का असर उन पर हो सके। टेलीविजन की यही ताकत राजनीतिक पार्टियों को अपने पक्ष में विज्ञापन करने के लिए उकसाती है औऱ आज नतीजा यह कि देश की अधिकांश राजनीतिक पार्टियां और प्रत्याशी टेलीविजन के माध्यम से लोकतंत्र की राजनीति करना चाहते हैं। यहां आकर टेलीविजन “सरोगेट पार्टी वर्कर” के रुप में काम करने लग जाता है।( रॉबर्ट एग्रनॉफः1977,दि न्यू स्टाइल इन इलेक्शन कैम्पेन्स,दूसरा संस्करण,पेज न-4-6,हॉलब्रुक प्रेस-बॉस्टन)।
दूसरी बात, यह जानते हुए भी कि मनोरंजन के पॉपुलर रुपों,फिल्मी गीतों,संवादों,हस्तियों और छवियों को स्क्रीन पर उतारकर स्वयं टेलीविजन राजनीतिक पार्टियों के पक्ष में हमसे वोट मांगने का जो काम कर रहा है, इसका सरोकार हमारी जमीनी हकीकत औऱ जरुरतों को समझने से नहीं है, राजनीतिक पार्टियां अपने पक्ष में विज्ञापन करके विकास के नाम पर जो कुछ भी दिखा रही हैं उसकी कल्पना हम और आप सिर्फ राम राज्य के मिथक के भीतर ही रहकर सकते हैं, आज विपक्षी दल, विकास को जय हो का लोकतंत्र के रुप में दिखाए जाने से परेशान हैं, इससे ठीक पहले के लोकसभा चुनाव में उसने भी साम्प्रदायिकता, बेरोजगारी और असुरक्षा के उपर इंडिया शाइनिंग का मुलम्मा चढ़ाया था, समाचार चैनल भी जो मतदाता के रुप में हमें सबसे ताकतवर साबित करने में जुटे हैं, इनका मकसद भी टीआरपी के पास आकर ठहर जाएगा, वाबजूद इसके हम टेलीविजन पर यह सब लगातार देख रहे हैं। हमारे पास इन सबों को गैरजरुरी और प्रवंचना साबित करने के कई आधार हैं लेकिन वाबजूद इसके हम टेलीविजन की इन गतिविधियों से घिरे रह जाते हैं और देश की एक बड़ी आबादी इसे ही समझदारी का आधार मानती है। इसका सबसे बड़ा कारण है कि राजनीति सहित बाकी सामाजिक मसलों पर जब हम विचार करते हैं तब हमारी हैसियत एक नागरिक या मतदाता की होती है जबकि टेलीविजन पर उससे जुड़े विज्ञापनों को देखते हुए हमारी भूमिका एक दर्शक में बदल जाती है। हम दर्शक होने की सुविधा से अपने को मुक्त नहीं कर पाते हैं और एक हद तक हमारी समझ टेलीविजन में शामिल रंगों,आकृतियों,प्रस्तुति और ध्वनियों के आधार पर बननी शुरु होती है और हम इसे बाकी के कार्यक्रमों के रुप में ही देखना शुरु करते हैं। यहां आकर विचारधारा औऱ मुद्दों की जगह पार्टी के चिन्ह ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाते हैं। कांग्रेस के विज्ञापन में हाथ( आओ तुम्हें दिखाएं इस हाथ की करामात,आजतकः9.07 बजे रात,21 मार्च और बीजेपी के पहचान है,अभिमान है के विज्ञापन में कमल बार-बार बिजली की तरह चमकता है,इंडिया टीवी,8.14 बजे,29 मार्च। राजनीतिक विज्ञापनों और टेलीविजन का हमारे इस बदले रुप का भरपूर लाभ मिलता है और वे धीरे-धीरे नागरिक जरुरतों और सवालों की शिफ्टिंग, दर्शक की पसंद-नापसंद के रुप में करते चले जाते हैं। राजनीति विज्ञापन छवि निर्माण का काम दर्शक की इसी स्थिति के भीतर करता है। मसलन असल जिंदगी में लालकृष्ण आडवाणी के स्वास्थ्य की स्थिति क्या है,राजनीतिक विज्ञापन को इससे कोई खास मतलब नहीं है. उसे बस कुछ ऐसे विजुअल्स चाहिए जिसमें वे एक स्वस्थ और प्रभावी प्रत्याशी लगें क्योंकि टेलीविजन पर मतदाता/दर्शक हर हाल में अपने भावी प्रधानमंत्री को स्वस्थ, मजबूत और प्रभावी राजनीतिक व्यक्तित्व के रुप में देखना चाहते हैं। राजनीतिक पार्टियों द्वारा विज्ञापन पर करोंड़ों रुपये खर्च करने के पीछे का एक ही उद्देश्य होता है कि वह नागरिक की जरुरतों और दर्शक की पसंद,छवि और वास्तविकता के बीच में घालमेल कर दे ताकि उसे मुद्दों और मतदाता के प्रति जबाबदेही से हटकर छवि आधारित लोकतंत्र की राजनीति करने में सुविधा हो ।
माध्यम और राजनीतिक विज्ञापनों की अनिवार्यता की राजनीति के बीच से मुद्दों के बजाय छवियों को स्थापित करने की वड़ी वजह यही है कि राजनीति पार्टियां देश के मतदाताओं का दिल पहले दर्शक के स्तर पर जीतना चाहती हैं उसके बाद इसकी डिकोडिंग मतदाता के रुप में करना चाहती है। इस संदर्भ में रिचर्ड किरवी की मान्यता को समझना जरुरी है। किरवी,चुनाव में मुद्दों के नहीं होने को समस्या के बजाय एक बदलाव की स्थिति मानते हैं। उनके अनुसार अब किसी भी चुनाव में मुद्दे के मुकाबले- प्रत्याशी, नेता और राजनीतिक पार्टी का मूल्य ज्यादा है। इसलिए चुनाव अब मुद्दों के आधार पर की जानवाली राजनीति के बजाय छवि,रणनीति और चाल आधारित प्रतियोगिता है। मतदाता अब मुद्दों से ज्यादा छवि से प्रभावित होते हैं.( विलियम लीज, क्लीन, जैलीः 1990,सोशल कम्युनिकेशन इन एडवर्टाइजिंगः पर्सन,प्रोडक्ट्स एंड इमेज ऑफ वेल विइंग, पेज नं-309,राउट्लेज,11 न्यू फीटर लेन,लंदन EC4P 4EE)। बीजेपी की पंचलाइन- मजबूत नेता,निर्णायक सरकार में कहीं कोई मुद्दा नहीं है। यहां पूरी तरह एक प्रत्याशी की छवि को स्थापित करने की कोशिश है। यानी लोकतंत्र की राजनीति, विज्ञापनों और टेलीविजन की दुनिया में छवि निर्माण और नियंत्रण का खेल है। ऐसा होने से लोकतंत्र की राजनीति के भीतर एक प्रबंधन की शोली तेजी से पनप रही है जिसे कि अब पॉलिटिकल मार्केटिंग के अन्तर्गत विश्लेषित किया जाने लगा है। यहां भी उपभोक्ता व्यवहार के आधार पर सर्वे कराए जाते हैं और फिर रणनीति और विज्ञापन बनाए जाते हैं। उपभोग के लोकतंत्र की तरह यहां भी विज्ञापन के जरिए मतदाताओं को राजनीतिक पार्टी और प्रत्याशी के पक्ष में रिझाने के काम किए जाते हैं।( गैरी माउसरः1988,मार्केटिंग एंड पॉलिटिकल कैम्पेनिंगःस्ट्रैटजी एंड लिमिट्स,पेज नं-2 बेलमांट,बॉड्सवार्थ)।
आगे भी जारी....
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न्यूज 24 की रिपोर्टर शैलजा सिन्हा ने लगभग दस लोगों से ये सवाल किया कि चुनावी महौल में नेता लोग मुद्दों पर बात न करके एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाने में लगे हैं। कभी मनमोहन सिंह आडवाणी के बारे में कुछ कहते हैं तो कभी आडवाणी मनमोहन सिंह के बारे में कुछ कहते हैं। आप इस बारे में क्या सोचते हैं?
लड़कों के हॉस्टल(ग्वायर हॉल,दिल्ली विश्वविद्यालय)में मौजूद डूसू की एक्स प्रेसीडेंट रागिनी नायक सहित बाकी लोगों ने कहा कि ऐसा नहीं होना चाहिए। नेताओं को चाहिए कि वे मुद्दों पर बात करें। लोगों का मानना रहा कि गरीबी,आतंकवाद,आर्थिक मंदी सहित ऐसे दर्जनों मुद्दें हैं जिस पर की बात की जानी चाहिए लेकिन आज मुद्दा आइपीएल बन गया है,एक-दूसरे को भला-बुरा कहना और कोसना बन गया है। एक मीडिया स्टूडेंट होने के नाते मेरी अपनी जो समझदारी बनी उसे मैंने कुछ इस तरह रखा-
देखिए,इसमें पूरा मामला जो है जिस डेमोक्रेसी या लोकतंत्र की बात कर रहे हैं ये इमेज बिल्डिंग की डेमोक्रेसी है। ये छवि बनाने,बिगाडने,करप्ट और इन्जस्ट करने की डेमोक्रेसी है। इसलिए आज छवि इतना ज्यादा जरुरी हो गया है। मुद्दों पर राजनीति हो ही नहीं रही है और जैसे-जैसे अन्य माध्यमों का विकास होगा,मुद्दे की राजनीति खत्म हो जाएगी। आप देखिए कि क्यों करोड़ों रुपये लगाकर इतने विज्ञापन बनाए जा रहे हैं? क्यों वर्चुअल स्पेस जेनरेट किया जा रहा है? उसमें आडवाणी की कहें या राहुल गांधी की कहें,ऐसी छवि बनायी जो रही है जो जोश से लवरेज है। वो रातोंरात हिन्दुस्तान को बदल देने का जज्बा रखता है। लेकिन दूसरी तरफ ये भी देखिए कि वही इंडिया शाइनिंग करोड़ों रुपये लगाने के बाद भी पिट जाता है। जब तक इस इमेज बिल्डिंग की डिकोडिंग पर्सनल लाइफ में वोटर टू वोटर नहीं होगा,एक ऑडिएंस को जब तक मतदाता के रुप में कन्वर्ट नहीं करेंगे,ये इमेज बिल्डिंग आधारित डेमोक्रेसी जो बन रही है,ये बुरी तरह पिट जाएगी। इसलिए
मुद्दों का नहीं होना जैसा कि मेरे कुछ दोस्तों ने कहा,कोई बड़ी समस्या नहीं है। आनेवाले समय में सारे मुद्दे गायब हो जाएं,कोई बात नहीं। जरुरत सिर्फ इस बात की है कि आप जो छवि बना रहे हैं, टेलीविजन के जरिए,विज्ञापन के जरिए,उसकी डिकोडिंग मतदाता के सामने हो जाए बस।

आज से चार दिन पहले एनडीटीवी इंडिया के कार्यक्रम विनोद दुआ लाइव में अपूर्वानंद(प्राध्यापक और समाजशास्त्री,डीयू ) ने विज्ञापन आधारित राजनीति पर चिंता जताते हुए कहा कि- हमारी चिंता इस बात की है कि इस तरह की राजनीति से राजनीतिक व्यक्तियों से आम जनता का संवाद धीरे-धीरे खत्म हो ता चला जाएगा जो कि किसी भी लोकतंत्र के लिए चिंता पैदा करनेवाली स्थिति है।
यह बात साफ है कि विज्ञापन और टेलीविजन के जरिए लोकतंत्र की जो शक्ल बन रही है वो पार्टी कार्यकर्ता,प्रत्याशी और मतदाता के सीधे हस्तक्षेप से बनने वाले लोकतंत्र से बिल्कुल अलग है। इसे मैंने टेलीविजन,राजनीतिक विज्ञापन और छवि निर्माण का लोकतंत्र पर लेख लिखने के क्रम में( नया ज्ञानोदय के लिए) पिक्चर ट्यूब से पैदा लोकतंत्र या वर्चुअल डेमोक्रेसी कहा है जहां राजनीतिक रुप से सक्रिय होने के स्तर पर हमारी भूमिका बस इतनी भर है कि हम ज्यादा से ज्यादा टेलीविजन देखें,उनके चिन्हों को समझें औऱ एहसास करें कि हम सक्रिय मतदाता या नागरिक हैं।
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अपने ब्लॉग पर पोस्ट लिखे मुझे छ दिन हो गए। ब्लॉग खोलकर देखा तो सोचा- बाप रे,छ दिन जब हो गए. मेरे साथ ऐसा पहली बार हुआ है कि मैं दिल्ली में हूं,कमरे में लिखने की सारी सुविधा है,फिर भी छह दिनों तक कुछ लिखा ही नहीं। अब ऐसा भी कुछ नहीं था कि मैं कोई पहाड़ तोड़ रहा था। आमतौर पर ब्लॉगरों की राय होती है कि वे फुर्सत में होते हैं, तभी ब्लॉगिंग करते हैं। मेरे साथ थोड़ी दूसरी स्थिति है। मैं फुर्सत में होता हूं तो चाहे जो कुछ भी कर लूं लेकिन ब्लॉगिंग नहीं करता. बहुत ही व्यस्त समय में ब्लॉगिंग करता हूं। जब खूब अच्छी पढ़ाई चल रही होती है,प्रिंट के लिए डेडलाइन होती है कि इतने दिनों में देना है, ऐसे समय में ब्लॉगिंग करता हूं। व्यस्त होने की स्थिति में मेरा सब कुछ रेगुलर हो जाता है, लोगों से चैट करने से लेकर ब्लॉगिंग करने तक।
लेकिन अबकि बार स्थिति दूसरी हो गयी। व्यस्त तो रहा,अपनी पीएचडी का कुछ काम भी किया,नया ज्ञानोदय के लिए मर-गिरकर लेख भी लिख दिया,लोगों से चैटिंग भी की,फेसबुक पर लिखी रवीश की सस्ती शायरी का जबाब भी दिया जिसे कि मेरी एक दोस्त दूतरफी चुतियापा कहती है,सब कुछ किया लेकिन ब्लॉगिंग नहीं की। मन करता है कि कोई हमसे सवाल करे- छ दिन तक तुम्हें ब्लॉगिंग नहीं की, मन नहीं किया कि कुछ लिखें, कैसे रह गए तुम छह दिनों तक.
मन किया,एक-दो नहीं,बहुत बार किया। अभी लिखने बैठा तो पांच ड्राफ्ट पड़े थे,सबके सब अधूरे। किसी पोस्ट की पांच लाइन,किसी की चार लाइन,किसी की दो लाइन,एक की तो सिर्फ शीर्षक ही। मैं चाहता तो अब तक ये पांचों पोस्ट प्रकाशित हो गयी होती। मैं लिखता औऱ फिर मिटा देता। मैंने बहुत कोशिश करके इसे नहीं प्रकाशित होने दिया, बहुत दबाना पड़ा इसके लिए अपने को।
पिछले दिनों जब मैं अपने दोस्तों सहित बाकी के लोगों से मिला तो सबने यही कहा- यार बहुत लिखते हो तुम,इतना क्यों लिखते हो। ये बात किसी ने तारीफ में नहीं कही। किसी ने मेरी तुलना राजकिशोर औऱ आलोक पुराणिक से करनी शुरु कर दी तो किसी ने कहा- क्या-क्या पढ़े तुम्हारा लिखा। एक ने कहा- तुम लिख देते हो और जब चर्चा होती है तो लोग पूछते हैं- विनीत की फलां पोस्ट पढी तुमने, मैं कहता हूं नहीं. यार,जबरदस्ती एक प्रेशर क्रिएट करते हो,लिखते हो तो पढ़ना पड़ता है। अच्छा, लिखते हो तो लिखो, उसे दीवान(सीएसडीएस,सराय का हिन्दी चिट्ठा मंच)पर मत डाला करो। इन सब लोगों की बात मुझे थोड़ी लग गयी। मुझे सबसे ज्यादा ये बात लगी कि मेरी तुलना किसी से की जाने लगी है, वो भी कंटेंट को लेकर नहीं, लिखने को लेकर। ये किसी भी स्ट्रग्लर राइटर के लिए खतरनाक स्थिति होती है। मैंने मन को मजबूत किया औऱ सोचा,अब कम लिखा जाए।
आज दोपहर,आनंद प्रधान सर से चैटबॉक्स पर बात हो रही थी। फेसबुक पर उन्होंने अपने एक स्टूडेंट के सवाल को चस्पाया है कि इस लोकसभा चुनाव के बाद मीडिया की क्रेडिबलिटी खत्म हो जाएगी। ऐसा इसलिए कहा कि खबर है कि अखबारों में पैसे लेकर खबरें औऱ प्रत्याशियों के इंटरव्यू छापे जा रहे हैं। मैंने कहा- सर मैं इसी के उपर पोस्ट लिखना चाह रहा हूं। उन्होंने कहा- हजार शब्द का एक लेख ही लिख दो,शाम तक। मैंने अभी-अभी उन्हें वो लेख मेल कर दिया। पोस्ट फिर भी लिखना नहीं हो सका. आज की पोस्ट का विषय तो प्रिंट के लिए चला गया।
इन दिनों जब मैं कुछ-कुछ प्रिंट के लिए लिखने लगा तो लगा कि ब्लॉगिंग छूट जाएगी। जब लिखने के पैसे मिल रहे हैं तो फिर मुफ्त में क्यों ब्लॉग पर जान देता रहूं। लेकिन मैंने महसूस किया कि मैं प्रिंट के लिए लाख लिखूं, जब तक पोस्ट नहीं लिख लेता,तब तक बेचैनी बनी रहती है। मैंने सोचा, आज उसी वजह को आपके सामने रख दूं।
क्यों है ऐसा, दिन-दिनभर रिसर्च की थीसिस और लेख लिखते रहने के बाद भी ब्लॉग लिखने की छटपटाहट क्यों बनी रहती है। कई बार मैंने महसूस किया है कि जिस दिन मैं पोस्ट लिखने बैठता हूं और कोई कहता है इस मसले पर लेख लिखो तो उसके बाद भी मैं पोस्ट लिखता हूं। इसे हिन्दी समाज ब्लॉगिया जाना कहता है। अगर बीमारी है तो इलाज के लिए सोचना होगा। क्या कोई डॉक्टरी इलाज संभव है। तब उस हरकत का भी इलाज होगा, जब बछड़ा,रस्सी तोड़कर मां के पास जाने के लिए छटपटा जाता है। सात महीने की नन्हीं अपनी मां को देखते ही दूसरे की गोद से उस पर कूद जाती है,खुशी का भी इलाज कराना होगा, जब मेरे पापा की पेट पर फुटबॉल खेलने के लिए मचल उठती है।
लिखने के मामले में,मैं शुद्ध रुप से ब्लॉगिंग की पैदाइश हूं। ब्लॉग पर मैंने लिखना सीखा। यही आकर समझा कि बेमतलब का लिखना कैसा होता है। खट-खट टाइप करते हुए यहीं मॉनिटर पर कभी प्रेमचंद के अक्श दिखाई दिए तो कभी लिख-लिखकर कागज फाड़ते हिन्दी रचनाकारों की कतार दिख गयी। अभी तक मेरा मन नहीं कहता कि तुम्हें कोई बीमारी हुई है और अगर तुम्हें फिर भी लगता है कि कि बीमारी है तो उसका एक ही इलाज है- पहले की तरह ही लिखो,लिखते रहो।
पाठकों,मेरे दोस्तों मुझे जीवन में स्वस्थ रहना है, ये मेरे लिए सबसे बड़ी चुनौती है औऱ स्वस्थ रहने के लिए मुझे लिखते रहना होगा। अब तुम्हारे जो जी में आए कहो- मुझे लिखना है,मुझे झेलने के अलावे कोई उपाय है तो खोज लो प्लीज।.
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संगति का असर किस पर नहीं होता है,चाहे वो हमारी-आपकी जैसी ऑडिएंस हो या फिर न्यूज 24 जैसे चैनल। दिन-रात जिस महौल में हम काम कर रहे होते हैं, उसका असर हमारे काम करने और सोचने तरीके पर तो पड़ता ही है। न्यूज 24 सहित देश के बाकी चैनल लंबे समय से प्राइम टाइम में रियलिटी शो, लॉफ्टर चैलेंज और टीवी सीरियलों से जुड़ी खबरें दिखाते आ रहे हैं। कभी आनंदी के घर में मातम की खबर,कभी नन्हे हंसगुल्लों की खबर तो कभी बिग बॉस के घर से संभावना के निकलने की खबर। देश की ऑडिएंस के उपर इन कार्यक्रमों का क्या असर हुआ है,होता है,इसका विश्लेषण एक स्तरीय नहीं है और न ही इतना आसान ही कि हम किसी निष्कर्ष तक पहुंच सकें. लेकिन न्यूज चैनलों पर इन कार्यक्रमों का असर साफ देखा जा सकता है। टेलीविजन के इन कार्यक्रमों के शब्दों के प्रयोग से लेकर इसके फार्मेट की कॉपी करने के पीछे की वजह साफ है कि न्यूज चैनल खबरों को प्रस्तुत करते समय और कार्यक्रम बनाते समय इन्हीं मनोरंजन प्रधान चैनलों के आस-पास होकर सोचते हैं। कुछ नया करने के लिए खाद-पानी की तलाश वो इन्हीं चैनलों के बीच से करते हैं। आज रात( 17अप्रैल,9 बजे) न्यूज 24 के कार्यक्रम आइपीएल का बिग शो देखकर कुछ-कुछ ऐसा ही लगा।
न्यूज चैनलो के पास कुछ भी दिखाने और किसी भी रुप में दिखाने के पीछे का सबसे बड़ा तर्क होता है कि देश की ऑडिएंस वही सब कुछ देखना चाहती है जिसे कि हम दिखा रहे हैं। भाषा को सरल से सरल बनाने का मासूम तर्क आज इतने जोर पर है कि हर दो लाइन की खबर को पेश करने के क्रम में कभी क्रिकेट में घुस जाते हैं,कभी रियलिटी शो में। सिनेमा के शब्दों,डॉयलॉग औऱ मुहावरे का प्रयोग वो लंबे अर्से से तो कर ही रहे हैं। देश के तमाम न्यूज चैनल्स ऑडिएंस की भाषा-क्षमता को लेकर एक निष्कर्ष पर पहुंच चुके हैं कि खबर की अपनी कोई भाषा नहीं होती या फिर भाषा में खबर बताए नहीं जा सकते, उसे हर हाल में सिनेमा,रियलिटी शो और क्रिकेट की ओर रुख करना ही पड़ेगा। फिलहाल मैं इस बहस में बिल्कुल नहीं जाना चाहता कि देश की ऑडिएंस क्या देखना चाहती है और क्या दिखाया जा रहा है। ऑडिएंस के आगे हम भी वैसे ही मजबूर हैं जैसे कि न्यूज चैनल। अगर वो यही सब कुछ देखना चाहती है तो फिर हम और आप कौन होते हैं बोलनेवाले कि- नहीं,ये नहीं वो दिखाओ। माफ कीजिएगा मैं उन मीडिया समीक्षकों की तरह बात नहीं कर सकता जो कि मीडिया आलोचना के नाम पर गाइडलाइन तय करने लग जाते हैं कि ये दिखाओ,वो दिखाओ, ये जाने-समझने बिना कि देश की ऑडिएंस उन्हें तबज्जो देती भी है या नहीं, न्यूज चैनलों की तो बात बहुत बाद में आती है। मेरा सवाल क्या दिखाया जाए या कया नहीं से बिल्कुल अलग है।
अक्सर हम कंटेंट का बहस छेड़कर बाकी मुद्दों से बिसर जाते हैं जबकि कंटेंट के अलावे भी कई ऐसे मुद्दे हैं जिन पर कि हमें बात करनी चाहिए। हमें इस पर भी बात की जानी चाहिए कि टेलीविजन किसी भी खबर या घटना को कैसे दिखा रहा है और उसका अर्थ क्या है। इधर न्यूज चैनलों के तेजी से बदलते रवैये को देखकर ये साफ और बहुत जरुरी लगने लगा है कि कंटेंट के साथ-साथ औऱ कई बार तो इससे पहले ही इस मसले पर बात को किसी खबर को दिखाया कैसे जा रहा है।
न्यूज 24 के आठ एंकर आइपीएल की अलग-अलग टीमों की टीशर्ट पहने स्टूडियो में बैठे हैं। जो जिस टीम की टीशर्ट पहने बैठा है,उसे उस टीम की तरफदारी करनी है। मसलन आशीष चढ्ढा नाम का न्यूज एंकर राजस्थान रॉयल की टीशर्ट पहने बैठा है तो उसे राजस्थान रॉयल की तरफदारी करनी होगी। इसी तरह चेन्नई टीम की टीशर्ट पहनी अंजना कश्यप को चेन्नई टीम की सपोर्ट में अपनी बात रखेंगी। इस तरह चैनल के आठ एंकर,आइपीएल की आठों टीमों के पक्ष में अपनी बात रखेंगे। चैनल ने बिग बॉस की कॉपी की है। एक-एक करके सारे एंकर एक कुर्सी पर आकर बैठते हैं, बिग बॉस की आवाज में कोई सवाल कर रहा होता है और एंकर उसका जबाब दे रहे होते हैं। इसे आप खबरों के जरिए तमाशा या फिर तमाशा के भीतर खबर कहिए, ये आप पर निर्भर करता है। इनमें से कोई भी एंकर निष्पक्ष नहीं होगा। आप भूल जाइए कि चैनल की स्क्रीन पर चैनल के एंकर को देख रहे हैं, आप देख रहे हैं टीम के प्रतिनिधि को।
15 वें लोकसभा चुनाव ने आइपीएल सीजन-2 की हवा निकालकर रख दी। अबकी बार आइपीएल पहले के मुकाबले कई गुना ज्यादा आग लगाने के मूड में था। गांव-गांव में क्रिकेट का बुखार फैलाने की योजना में था। यह जानते हुए भी कि भारत जैसे बड़े लोकतंत्र में चुनाव से बड़ा कोई पर्व,चुनाव से बड़ा कोई दूसरा खेल साबित कर पाना आसान काम नहीं है। न्यूज चैनल इस मिजाज को समझते हुए दिन-रात राजनीतिक खबरें प्रसारित करते रहे, कई शक्लों में, कई अंदाजों में। लेकिन देखते ही देखते 18 अप्रैल नजदीक आ गया,आइपीएल शुरु होने का दिन। अब सारे चैनलों को इसमें फूंक मारना जरुरी लगने लगा। इसी फूंक मारने की हरकत में न्यूज 24 पर आइपीएल का बिग शो प्रसारित किया गया।
दुनिया को पता है कि जिस कॉन्सेप्ट को लेकर आइपीएल की शुरुआत की गयी,वो कॉन्सेप्ट बुरी तरह पिट चुकी है। दक्षिण अफ्रीका जाकर आप बंगाल,पंजाब और राजस्थान के होने का भाव पैदा कर सकेंगे,असल में ये संभव नहीं है। ये बात न्यूज चैनल भी जानते हैं लेकिन उनके पास प्रसार का तंत्र है। वो जब अमेरिका को लोकल जैसा दिखा सकते हैं तो फिर ग्लोबल स्तर पर जा चुके राजस्थान,पंजाब,बंगाल को लोकल क्यों नहीं। सारे चैनलों के लिए ऐसा कर पाना बहुत मुश्किल काम नहीं है। यूट्यूब,गूगल सर्च इंजन और चुनावी कवरेज के पैसे बचाकर चैनल आएपीएल में फूंक मारने का काम तो कर ही सकते हैं।
एक ऑडिएंस के नाते,दिमाग में इस सवाल का उठना जायज है कि कॉन्सेप्ट के स्तर पर पिट चुके इस आइपीएल के आगे न्यूज चैनल किस बात की तुरही बजाने में लगे हैं। दक्षिण अफ्रीका में होनेवाले खेलों में लोकल फ्लेवर डालने के लिए क्यों बेचैन जान पड़ रहे हैं। जिस टीशर्ट को आप और हम दक्षिण अफ्रीका के मैदानों में खिलाडियों को पहनकर दौड़ते हुए देखेंगे, उसे नोएडा की स्टूडियों में,एंकर को पहनाकर क्यों बिठाए हैं। क्या ये सबकुछ ऑडिएंस के लोकल-लोकल का एहसास पैदा करने के लिए। पहली बार कितनी मुनादी की थी इस आइपीएल ने कि वो देश के भीतर क्रिकेटिज्म पैदा करेंगे। बंगाल को बैंग्लोर से प्रतिस्पर्धा दिखाया, एक-दूसरे को वैसा ही बताया जैसा कि भारत-पाकिस्तान की टीम को बताया जाता है। लेकिन अबकी बार सबके-सब दक्षिण अफ्रीका में है। क्या वहां भी राजस्थान को चेन्नई के विरोध में देखना इतना ही आसान है, व्यावहारिक तौर पर कम से कम ऑडिएंस के लिए तो नहीं ही। ऑडिएंस घर बैठे,अफ्रीका के मैंदान में खेलते हुए राजस्थान,बंगाल के बीच के फर्क को समझे, न्यूज 24 जैसा चैनल सरोगेट टीम वर्कर का काम कर रहा है। लेकिन क्यों, जाहिर है आइपीएल के पिट चुके कॉन्सेप्ट को बचाने के लिए नहीं ही,तो फिर.....
अभी कुछ ही दिनों पहले P7 के लांचिंग प्रोग्राम में एंकरों के रैंप पर चलने को लेकर काफी हंगामा हुआ था औऱ इसे पत्रकारिता जगत का अपमान समझा गया था। किसी ने उन पत्रकारों के प्रति संवेदना जतायी थी कि वो मजबूर थे, ऐसा करने के लिए। आज न्यूज 24 ने किसी न किसी रुप में वही बातें दोहरा दी। अभी चुनावी महौल है, चैनल बार-बार घोषणा कर रहा है कि वो आम आदमी के साथ है, मतदाता के साथ है,जब-तब चैनल के माई-बाप नेताओं की क्लास लेते नजर आते हैं, देश के आम आदमी के लिए। लेकिन आज आठ एंकरों को आठों टीमों का प्रतिनिधि बनाकर दिखाए जाने पर यही भरोसा जमेगा कि- देश का चैनल,आम आदमी के साथ या फिर देश के उन पूंजीपतियों के साथ जो आम जनता का खून चूसने के लिए और महीन औजार इजाद करने में जुटे हैं। कहीं ये नेताओं से भी बदतर तो नहीं,नेताओं के आगे-पीछे भ्रष्ट होने की भनक तो लगती है, इनकी तो वो भी नहीं। उल्टे जब भी ये अपने उपर के हमले को लोकतंत्र की हत्या होने की बात करते हैं, हम भावुकतावश इनके साथ हो लेते हैं। ये किसके साथ हैं,कहना मुश्किल है।...
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हमारे कुछ ब्लॉगर साथियों को एग्रीगेटर पर भरोसा नहीं है,हमारे उपर भरोसा नहीं है, जो वो लिख रहे होते हैं,उस पर भरोसा नहीं है इसलिए वो लगातार ऐसा कर रहे हैं। उन्हें लगता है कि जो भी लोग ब्लॉगिंग कर रहे हैं वो एग्रीगेटर से वाकिफ नहीं हैं,उन्हें लगता है कि जो ब्लॉगिंग कर रहे हैं वो अपनी पोस्ट लिखने के बाद किसी का कुछ नहीं पढ़ते,उन्हें लगता है कि अगर औरों का पढ़ते भी हैं तो शायद मेरी पोस्ट नहीं पढ़ते। शायद इसलिए वो नई पोस्ट लिखते ही मेल जारी करते हैं। एक लाइन में पोस्ट की इन्ट्रो देकर पूरी पोस्ट पढ़ने का अनुरोध करते हैं। कईयों की प्रस्तुति तो विज्ञापननुमा होती है कि अगर आप उनकी पोस्ट नहीं पढ़ रहे हैं तो बहुत बड़ी चीज मिस कर रहे हैं। आप क्यों हरेक पोस्ट के बाद मेल करते हैं।
आपको क्यों लगता है कि आपकी पोस्ट इतनी अलग,यूनिक है कि दुनियाभर के लोगों को इसे पढ़ना चाहिए। ये अहं की पराकाष्ठा है। आपको क्यों लगता है कि आपने इतनी बेकार पोस्ट लिखी है कि किसी की उस पर शायद नजर ही नहीं गयी हो और चलता कर दिया गया हो,आत्मविश्वास की इतनी अधिक कमी, ब्लॉगिंग तो आत्मविश्वास से लवरेज लोगों के लिए है,ऐसे में तो हिट नहीं मिलने पर भी आप बहुत परेशान होते होंगे। इतनी बड़ी दुनिया है, कोई न कोई आपको लगातार पढ़ रहा होगा, इतनी छटपटाहट क्यों मची रहती है। क्यों बेचैन रहते हैं कि मेरी पोस्ट,कमेंट से लद जाए।
चलिए,आपके अनुरोध पर,आपके मेल पर हमने पोस्ट पढ़ भी ली। फिर आप पूछते हैं, कैसी लगी। अच्छी लगी तो क्या चाहते हैं कि ब्लॉग की दुनिया में मुनादी करवा दें कि फलां की पोस्ट मुझे बहुत अच्छी लगी या फिर ये चाहते हैं कि अपने पैसे लगाकर जनसत्ता में आपके नाम इश्तहार छपवा दें। ब्लॉगिंग को स्वाभाविक क्यों नहीं रहने देना चाहते आप? जो लोग भी ब्लॉगिंग कर रहे हैं,मैं मानकर चलता हूं कि उनके बीच पढ़ने-लिखने की पर्याप्त भूख है,उस भूख को बढाने के लिए हमारे-आपके जैसे कोई उत्प्रेरक की जरुरत नहीं है।
मैं खुद ब्लॉगर कम्युनिटी से हूं और ब्लॉगरों को लेकर कहीं कोई कुछ हल्के ढंग से कहता है तो मैं लड़ पड़ता हूं लेकिन एक बड़ी सच्चाई है कि कुछ ब्लॉगर, ब्लॉगिंग कर रहे लोगों को एक ऐसी जमात में ढकेलने में लगे हैं कि उसे इरिटेटिंग समाज का हिस्सा मान लिया जाएगा। हम लाख सह्दय होते हुए जैसे अनचाहे फोन कॉल,मैसेज,बैंकों और मोबाइल के प्लानों को सुन-सुनकर परेशान हो जाते हैं,यही हाल अब ब्लॉगरों द्वारा भेजे गए एसएमएस और मेल का है। जब भी जीमेल खोलिए दर्जन भर मेल पड़े हैं। सब में एक ही बात,इसे पढ़िए,उसे पढ़िए। हम ब्लॉगिंग भीतर की बेचैनी को कम करने के लिए कर रहे हैं,हल्का होने के लिए कर रहे हैं, इस माध्यम के जरिए रोजमर्रा की हलकान को कम करने की कोशिश कर रहे हैं, अब इससे भी बेचैनी होने लगे तब तो दिक्कत है।
आप खुद महसूस कीजिए न कि आपके बिना बताए लोग आकर आपके ब्लॉग की तारीफ करते हैं, पोस्ट पर कमेंट करते हैं,अखबार या पत्रिका में छापने की बात करते हैं तो कितना अच्छा लगता है, कितने स्वाभाविक तरीके से आप खुश होते हैं। लेकिन नहीं,इसे पता नहीं लोग शेयर बाजार बनाना चाहते हैं या फिर आजादपुर सब्जी मंडी की मार मेल पर मेल भेजे जा रहे हैं। अभी तो थोड़ी कम परेशानी लग रही है लेकिन नेट पर आपके नाम से लोग उतने चिढ़ेगे,जितना की एक सेल्समैंन के कॉलबेल बजाने पर चिढ़ते हैं, तब मानवता और आदर्श की बड़ी-बड़ी बातें धरी की धरी रह जाएगी और हम तुरंत लतखोर जमात के लोग करार दिए जाएंगे।
मुझे पता है कि कोई हमें कहे कि इतनी सी बात को लेकर इतना ज्ञान क्यों दे रहे हो या तो बिना पढ़े डिलीट करो या फिर स्पैम की व्यवस्था करो। लेकिन मैं सिर्फ इतना कहना चाहता हूं कि ब्लॉग पर अच्छा-बुरा,महान,घटिया जो मन में आए लिखा जाए लेकिन पोस्ट लिखकर फेरी लगाने का काम न हो तो बेहतर होगा। ऐसा करने से लोग बेहतर चीजों को भी बिना पढ़े डिलीट कर देते हैं,डिफैमिलिएशन का ये रवैया ब्लॉगिंग के लिए सही नहीं होगा।
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फोन पर वो लगभग गुस्से में थे। गुस्सा शब्द इस्तेमाल करने से वो भाव पैदा नहीं हो रहा जो भाव मैं उनसे बात करते हुए महसूस कर रहा था। इसके लिए अपनी तरफ शब्द इस्तेमाल करते हैं,बमके हुए थे, कबड़ गए थे या फिर बमककर फायर हो गए थे...जो भी हो,कथादेश में गिरि यानी उऩके बारे में कुछा लिखा गया है, लोगों द्वारा फोन पर ये बताए जाने के बाद वो ऐसे ही कुछ हो गए थे। फोन पर तो हमें कुछ बोलते बना ही नहीं कि क्या कहा जाए,बाहर थे सो इतना ही कहा-आप ध्यान से पढ़िए,ऐसा कुछ नहीं लिखा है आपके बारे में और वो तो आपके लिए है भी नहीं,वो तो गिरीन्द्र के बारे में लिखा है जो उनसे फेसबुक पर बात हुई थी। कथादेश में सिर्फ गिरि छपा देखा तो मन में खटका हुआ था कि कहीं झमेला न हो जाए, बेकार में निगेटिव पब्लिसिटी न हो जाए। अब मेरे दिमाग में एक ही सवाल बार-बार आ रहा था कि किसी को प्यार से पुकारने में भी झमेला हो सकता है? किसी को प्यार से पुकारने में भी कन्फ्यूजन हो सकता है। खैर,रात में दोबारा फोन करके डीटेल में सबकुछ बताया और साथ में कहा भी कि आप मेरे से बड़े हैं,आप हमें भइया क्यों कहेंगे,तब जाकर मामला नार्मल हुआ।

गिरीन्द्र को मैं प्यार से गिरि कहता हूं,वो मुझे भइया कहता है। ये भइया संबोधन,लड़कियों के उच्चारण भय्या से बिल्कुल अलग होता है। पहले मुझे लगा कि संस्कारवश मुझे ऐसा कहता है इसलिए मैंने टोका भी लेकिन बाद में देखा कि ये संस्कार से ज्यादा लगाव का मामला है तो मैंने कुछ नहीं कहा। वैसे भी पच्चीस साल तक लोगों को भइया-भइया बोलते मेरी जीभ घिस गयी,बदले में दोनों कानों को सिर्फ नसीहतें,आदेश और फटकार ही नसीब हुए तो अब गिरि से भइया सुनने से कानों को राहत मिलती है,सो मैं कुछ कहता नहीं।
आपका किसी से लगाव होता है तो अमूमन पहला काम करते हैं कि उसके नाम को कुछ अपने अंदाज में बदल देते हैं या कोई नया नाम देते हैं। प्रेमी-प्रेमिकाओं के मामले में सिनेमा के जरिए आप सैंकड़ों उदाहरण जुटा सकते हैं। जिस लड़की के मां-बाप ने कुछ और नाम रखे हैं, उसका लड़का दोस्त कुछ अलग नाम से बुलाता है। कई बार तो सेंटी सीन इसी आधार पर बनते हैं कि वो हमें स्वीटी नाम से बुलाता रहा,लेकिन अब...। गांवों में जिस स्त्री का पति पहले मर जाता है तो वो चूड़ी फोड़ते हुए चिल्लाती है- राजा रे राजा, अब हमरा मलकिनी के कहतै रे राजा,छः साल के बेटे को अपनी ओर खींचती है,फिर...राजा रे राजा,अब ऐकरा(इसको)धन्नू(असली नाम धीरज) के कहतै रे राजा। अपने भावों को, प्यार-लाड़,दुलार को जाहिर करने के लिए नाम का बदलना या अपने हिसाब से कोई नया नाम देना आम बात है। कई बार इसी से मूड़ का पता चलता है,महौल औऱ हालात का पता चलता है। कई बार लड़की जब सर्टिफिकेट के नाम से बुलाती है,तब समझ जाइए कि पास में उसका बाप-भाई मौजूद है या फिर वो ऐसी जगह पर है जहां उसकी नोटिस ली जा रही है। मूड़ खराब होने की स्थिति में अपनी ओर से दिया गया नाम लेना आसान नहीं होता,गुस्से को जाहिर करने का संकेत ही होता है कि उसे सर्टिफिकेट के नाम से बुलाया जाए और सुनकर अटपटा लगे।
बचपन में हमारे कई नाम होते हैं,यानी हमारे कई पर्यायवाची शब्द होते हैं,एक ही बच्चे के आधे दर्जन नाम। उसकी हर अदा को लेकर एक नाम,उसके हर ऐब को लेकर एक नाम। दोस्तों की ओर से दिए गए नाम,मां,बाप,पड़ोस,मौसी,चाची औऱ बुआ-फुआ की ओर से दिए गए नाम। इसलिए नाम की कई श्रेणियां बनतीं। पुकरुआ नाम यानी जिस नाम से पुकारा जाता हो,दुलरुआ नाम जिसे कि आमतौर पर मां-बाप रखते हैं,घऱेलू नाम जिसे कि आसपास के लोग जानते-पुकारते हैं। असली नाम जो कि स्कूल में दर्ज होता है। नाम रखने की एक और कोटि होती। गांव-घर में कईयों के यहां बच्चा पैदा होते ही या कुछ दिन के बाद मर जाता,बहुत दिनों तक बच्चा होता ही नहीं,मन्नतें मांगनी पड़ती जिसको मांगल-चांगल बच्चा कहते। ऐसी स्थिति में उसके नाम प्रेम और भावुकता के आधार पर नहीं सुरक्षा के लिहाज से रखे जाते,एकदम हेय समझे जानेवाले नाम जैसे फेकुआ(फेका हुआ),नेटवा(नाक की गंदगी),अघोरी(जो हमेशा गंदा,श्मशान में रहता है)। ऐसे नाम रखने के पीछे की समझ होती कि इससे भगवान को भी घृणा हो या फिर उसे लगे कि ये बच्चा मां-बाप के लिए मामूली है और मारने के लिहाज से नजरअंदाज कर जाए। कुछ लोगों के नाम अपभ्रंश करके बुलाए जाने लग जाते हैं जिसे लोग अपने नसीब का नाम मान लेते हैं। अब दिल्ली दूर नहीं फिल्म में घसीटाराम(नसीब के घिस जाने पर)अपने नाम का तर्क इसी आधार पर बताता है।
इसलिए आप देखते होंगे कि बचपन में आपसे पूछा जाता होगा-आपका क्या नाम है और आप जबाब देते होंगे-रिंकू,चिंटू,मन्नू,मुन्नी,सुल्ली,बेबी या फिर फेकू तो आपसे दुबारा पूछा जाता होगा- ये तो घर का नाम है,असली नाम क्या है। असली नाम माने स्कूल का नाम। तब आप मेहनत-मशक्कत करके बताते होंगे-धीरज,राजेश,सुभाष,माधुरी,रजनी,अर्चना आदि-आदि। मतलब ये कि घर के नामों में भावुकता या अपनापा झलकने पर भी इसे असली नाम नहीं माना जाता क्योंकि जीवन भावुकता से नहीं,व्यावहारिकता से चलती है, इसलिए इसके लिए असली नाम चाहिए होते हैं,यानी स्कूली नाम। जब हम बड़े होते हैं तो एक अदब आने लग जाती है,इगो सेंस पैदा होता है, हम चाहते हैं कि लोग हमें अपने असली नाम से पुकारे,अकेले में गर्लफ्रैंड जानू,तानी पार्टनर कह ले लेकिन समाज में असली नाम ले,मां-बाप भी ऐसा ही करे। इसलिए कई बार बड़े हुए बच्चे पिंकू,झुनकी कहने पर तुनक जाते हैं- मां अब हम बड़े हो गए हैं, सबके सामने आप ये नाम बोलती हैं, अच्छा नहीं लगता। पड़ोस की लड़की के घर का नाम स्कूल में दोस्तों को बता दो तो वो शर्म से पानी-पानी हो जाती है। मेरी एक लड़की दोस्त ने मजाक में कहा करती है आगे से जहां तुम हमको टिनिया बोले तो चार जूता मारुंगी.ये अलग बात है कि शहर में उसका ये नाम उसे अपनापा-सा लगता है।
बड़े होकर हम चाहते है कि कोई हमारा दुलरुआ नाम न ले,पुकारु नाम न ले,घरेलू नाम न ले, इससे हमारे बड़े होने का एहसास खत्म होता है,हमारा कद छोटा होता है, हमारे बैग्ग्राउंड का पता चल जाता है, जिसे कि हम धो-पोछकर खत्म कर देना चाहते हैं। लेकिन यहां का तो झमेला ही अलग है- एक ही नाम लिया गिरि जिसके लिए ये दुलरुआ नाम है, वो इतरा रहा है,खुश हो रहा है और दूसरा जिसका कि असली नाम है,बबमकर फायर है। अब किसी को है हिम्मत कि कहे-भइया नाम में क्या रखा है।
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वो अपने टिस्स के हॉस्टल(टाटा इन्स्टीट्यूट ऑफ सोशल साइन्सेज,मुंबई)का कमरा छोड़कर,एनेक्जायटी डिस्ऑर्डर की स्थिति में,एम.फिल् कर रहे एक सीनियर दोस्त के कमरे में दसों दिनों तक पड़ा रहा। चुपचाप,गुमसुम,बिना किसी को कुछ बताए, किसी बात पर अपनी प्रतिक्रिया जाहिर किए बगैर...। अगर उसी के शब्दों में कहूं तो

टिस्स में सबसे ज्यादा विजिवल लड़का,ऐसा कैसे कर सकता है, सोचता हूं तो ताजुब्ब होता है। लेकिन इन सबके बीच ये भी एक सच है कि कभी शराब को नहीं छूनेवाला,सिगरेट को जिसने कभी हाथ तक नहीं लगाया और उस दिन पूरी की पूरी बोतल पी गया, कितना पानी या सोड़ा मिलाया पता नहीं, आठ सिगरेट एक के बाद एक पी गया, कितनी कश मारी और कितने को फिल्टर तक आने पर भी कश खींचता रहा, कुछ भी याद नहीं। बस इतना याद करता हूं कि अगर मैं ट्रेन से सफर करने जा रहा हूं और चढ़ने के पहले ही लड़खड़कर गिर जाउं तो मेरी जिंदगी का सबसे बेहतरीन दिन होगा। मरने की स्थिति में इसके लिए न तो कोई जिम्मेवार होगा औऱ न ही बच जाने की स्थिति में आत्महत्या के प्रयास में फिर से मौत को दोहराने जैसी जिंदगी जीनी पड़ेगी। भैय्या, सबकुछ भूल जाने की स्थिति में मैं अब भी इस बात को याद करता हूं, ऐसे जैसे कि ये मेरे साथ घटित हुआ है या फिर इसका कुछ न कुछ हिस्सा अभी भी किस्तों में जी रहा हूं। ये एक टिस्स से महीने भर में सोशल वर्क की डिग्री लेकर दुनिया में समाज बदलने के जज्बे को लेकर संस्थान से बाहर आनेवाले छात्र का सच है।

यह एक उस छात्र का सच है जिसने तीन साल तक मीडिया की पढ़ाई की, अखबारों में जमकर लिखा, आजतक में 45 दिनों तक आर्थिक खबरें लिखीं,दिल्ली की समस्याओं पर "जनपथ" जैसे कार्यक्रमों में अपनी रुचि से जाता रहा...हर बार एक नए विचारों के साथ,एक नयी बहस के साथ और एक नए अंदाज में हमसे टकराता रहा,घंटों विडियोकॉन टावर के नीचे चार रुपये की मूंगफली पर हमें दुनियाभर की नसीहतें देता रहा और अंत में कहता आया- भैय्या,आप तो मेरे से बड़े हैं,आप बेहतर जानते हैं। ये उस साथी का सच है जो एक समय में मीडिया के जरिए समाज को बदलने के लिए नहीं तो कम से कम बेहतर करने के लिए बेचैन रहा और बाद में और अधिक योगदान देने की नीयत से किसी चैनल में नौकरी करने के बजाय,एमए करने सीधे टिस्स मुंबई चला गया। वहां जाकर वो लगातार मीडिया के उन माध्यमों पर काम करता रहा, वर्कशॉप में जाता रहा जो कि कम लागत में लोगों को जागरुक कर सके, कभी सामुदायिक रेडियो को समझने, एक महीने के लिए अहमदाबाद चला जाता,कभी हैदराबाद तो कभी "सेवा" के लोगों के साथ वैकल्पिक मीडिया को लेकर प्रोजेक्ट पर काम करने लग जाता। मैं उससे एक ही बात कह पाता- तुम जितना काम करते हो और वो भी अलग-अलग जगहों पर जाकर,मेरे लिए तो काम करना तो दूर, सिर्फ वहां चला जाउं तो ही बहुत है। फोन पर तो कम ही लेकिन ऑनलाइन होने पर एक ही बात कहता- एक बार समाज को लेकर सोचिेए तो आप भी कर लेंगे। हमेशा भीतर एक आग, कुछ करने की छटपटाहट,एक ही बात- दिल्ली लौटूंगा भईया,और बेहतर होकर, और जोरदार तरीके से। आज वो बताता है कि उसे लो ब्लडप्रेशर हो गया है और वो दो दिनों तक हॉस्पीटल में भर्ती रहा। ये टिस्स में पढ़ रहे उस छात्र का सच है जो कल कहीं भी जाएगा तो बीस-पच्चीस लोगों के लिए गाइडलाइन तय करेगा कि समाज को बेहतर बनाने के लिए क्या करने चाहिए, जैसा कि संस्थान का दावा है। वो पढ़ाई के जरिए सिर्फ बेहतर इंसान बनने नहीं गया, बेहतर इंसान बनाने की समझ विकसित करने गया। आज वो देर रात कह रहा है, चैट करते हुए कितना कहूं,क्या कहूं भइया और फिर उसने फोन ही कर दिया। उखड़ी हुई आवाज,बार-बार बातों का टूटता क्रम और भीतर से एक डर भी कि कहीं आसपास कोई है तो नहीं,बात करते हुए अब रो देगा कि तब।
भइया, ऐसी जगहों पर आकर हमारा कितना बड़ा मिथक टूटता है,हम छोटे शहरों से आकर डीयू में पढ़ते हैं,टिस्स में पढ़ते हैं,मन के भीतर औऱों से अलग और फिल्टर्ड होने का भाव होता है। हम यहां आकर जातिवाद को खत्म करना चाहते हैं,सामाजिक भेदभाव को दूर करना चाहते हैं। दुनिया हम जैसे लोगों को गरियाती है कि मोटी रकम देकर पढ़ने के बाद लोगों के खून चूसकर जमा किए पैसे को सैलरी के तौर पर लेगा और कहता है कि समाज बदलेंगे। गुस्सा तो बहुत आता रहा कि लोगों को ऐसा कहने का क्या अधिकार है लेकिन अब लगता है कि लोगों को गरियाने का पर्याप्त अधिकार है। वो क्यों न गरिआएं, हम किसकी स्थिति सुधारने में लगे हैं। किसके बीच से जातिवाद खत्म करना चाहते हैं,कौन-सा सामाजिक भेदभाव दूर करना चाहते हैं, किसके लिए गाइडलाइन तय करने की ट्रेनिंग ले रहे हैं, अपने लिए या फिर उन गरीबों के लिए, देश की गटर में पैदा होकर दम तोड़नेवालों के लिए जो कल एनजीओ में जाने पर वो हमारी भाषा तक नहीं समझेंगे।..औऱ हमारे लिए जाति,भेद,उंच-नीच,ब्राह्मण-राजपूत, सब कुछ पहले से तय भेदभावों के आधार पर चलता रहेगा।

आगे भी जारी.....
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इलेक्सन के एक दर्जन नारे

Posted On 1:28 am by विनीत कुमार | 7 comments


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1.
खिला कमल है आर्कुट पर,
वोट न डालो चिरकुट पर
(जनहित में जारी)

2. लालूजी,लालूजी क्या हुआ आपको
कुर्सी के चक्कर में सटा लिए सांप को
(बिहार की जनता)

3. तूफां आए या आ जाए आंधी
कभी न आएगा कोई गांधी
(सोनिया का फैसला)

4. भाजपा के शासन में
चावल पैंतीस रुपये बोरी होगा
जागो रे प्रजा दुखारी
धान के खेत में चोरी होगा
( विदूषक)

5. जनता की आस्था का, खुलेआम व्यापार होगा
लालकृष्ण के राज में,श्रीराम का अवतार होगा
( विपक्षी पार्टियों का अनुमान)

6. सौगंध राम की खाते हैं
मंदिर वही बनाएंगे
वोट मांगने लेकिन तब भी
मस्जिद में भी जाएंगे।
(बीजेपी की चुनावी घोषणा)

7. सरकार व्यस्त है नैनो में
झाकों नेता हमरी नयनों में
(कारविहीन देश की जनता)

8. स्विस बैंक काला धन
अपने देश में लाएंगे
काला-केसरिया फेंट-फेंटकर
उजला उसे बनाएंगे।
(बीजेपी कार्यकर्ता की योजना)

9. देश का पीएम कैसा हो
ऑडियो टेप जैसा हो
मनमोहन सिंह को लाएंगे
पलट-पलटकर बजाएंगे।
(कांग्रेस की योजना)

10. अमर सिंह को है आनंद
मिल गए उनको देवानंद
फिलिम पर्दे पर जब आएगा
होम मिनिस्टरी मिल जाएगा
( सपा कार्यकर्ता हैं निश्चिंत)

11. कांग्रेस,बीजेपी गो अवे
कम अगेन अनगर डे
बहनजी नाउ वॉन्ट्स टू प्ले
(यूपी पाठ्यक्रम की नयी राइम्स)

12. राजनीति के खेल में
सब उल्टा हो जाता है
मुन्नाभाई एमबीबीएस का भी
यहां तेल हो जाता है।
( राजनीति का सच)

( सारे नारे स्वरचित है। ये किसी भी राजनीति पार्टी से वित्त प्रदत्त नहीं है।)
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कहीं ये अश्लील तो नहीं

Posted On 11:27 am by विनीत कुमार | 14 comments


शोरुम के आगे लगी प्लास्टिक की एक कठपुतली की हिप पर हाथ फिराते हुए उस लड़के ने कहा- क्या सामान है!आगे साथ चल रही दो लड़कियों ने जल्दी से पीछे मुड़कर देखा कि कहीं पीछे से कोई मनचला उस पर कमेंट तो नहीं कर रहा। तब तक उसके साथ के दूसरे लड़के ने हाथ फिराते हुए कहा- सचमुच यार। लड़कियां समझ गयी कि ये उसे नहीं कहा जा रहा है बल्कि कठपुतलियों को देखकर कहा जा रहा है,सच्चाई ये भी है कि हमें देखकर कठपुतलियों को कहा जा रहा है। लेकिन सीधे-सीधे वो उनसे बहस करने के बजाय इतना ही कहा- फ्रस्टू है स्साला। अपने इलाके की लड़कियां होती तो शायद कहती, घर में मां-बहन नहीं है क्या।

कमलानगर में दो दूकानें ऐसी हैं जहां गार्मेंट से ज्यादा उनके यहां कठपुतलियां हैं,ये मुहावरा हो सकता है लेकिन वाकई उनके यहां बहुत सारी कठपुतलियां हैं औऱ सबों को वो फैशन के हिसाब से ड्रेस पहनाकर शोरुम के आगे लगाए रहते हैं। एक शो रुम है बेसमेंट में है, उसके उपर कलर प्लस और किलर का शोरुम है। यहां कम से कम बीस-पच्चीस कठपुतलियां तो जरुर होगी। अक्सर इन्हें बहुत छोटे कपड़े पहनाकर आगे लगाते हैं,स्कर्ट या फिर शार्ट पैंट। बदलते फैशन की झलक इस शोरुम से गुजरते हुए आपको आसानी से मिल जाएंगे। लड़कियों और कठपुतलियों को एक-दूसरे से जोड़कर लड़को को आपस में कोहनी मारते हुए,ठहाके लगाते हुए और कमेंट करते हुए सबसे ज्यादा यही देखता हूं।

एक शोरुम प्रेम स्टुडियो के सामने है। उस शोरुम में भी करीब 15-20 से बीस कठपुतलियां हैं। इन दिनों देखा कि सबों को हल्के पिंक कलर की नाइट शूट पहना रखा है। एक तो नाइटी, दूसरा कि प्रिंटेड कुर्ते और नीचे ढीला पायजामा। सबों का स्टफ बिल्कुल ट्रांसपेरेंट। एक बार साथ घुमते हुए पोल्टू दा ने कहा- सोने की चीज को पहनाकर इन लड़कियों को दुकानदार ने खड़ा क्यों कर रखा है,सही चीजें सही जगह पर ही होनी चाहिए। फिर वही ठहाकें।

मुझे याद है कि जब भी घर जाता हूं और दूकान पर बैठने का मौका मिलता है, आसपास के दूकानदार कठपुतलियों के कपड़े को शटर गिराकर बदलते हैं। अव्वल तो वो रात में ही बदलते हैं। लेकिन दुकानदारों में एक बेचैनी होती है कि जो आइटम नया-नया आया है उसे जल्दी से जल्दी से डिस्प्ले कर दो। उनका मानना होता है कि डिस्प्ले करने के दिन कुछ न कुछ वो आइटम तो बिकता ही है। अगर आइटम दोपहर को आया है तो ऐसी स्थिति में वो शटर नीचे गिरा देते हैं, फिर साइड में ले जाकर इन कठपुतलियों के कपड़े बदलते हैं। ये बहुत कॉमन है। मैंने कभी नहीं देखा कि वो पब्लिकली उनके कपड़े बदलते हों।

एक बार पास के एक दूकान में काम करनेवाले लड़के को कहते सुना- गजब ठरकी है स्साला बुढ़वा, हमसे कह दिया कि इस साड़ी का मैचिंग ब्लाउज लेकर आओ औऱ आए तो देखा कि कठपुतलिए पर हाथ फिरा रहा है। एक मानसिकता ये भी है। हमारे शहर में दिल्ली की तरह हाट लगता है,दिनों के नाम के हिसाब से इनके नाम होते हैं। इसमें से एक हाट का नाम होता है मंगला हाट। शहर में जिन लोगों के स्थानीय दूकान हैं,वो अपने पेंडिग माल के साथ दूकान के किसी एक-दो स्टॉफ को भेज देते हैं। इस हाट में चाहे कुछ भी कितना ही घटिया सामान ले जाओ, बिक जाएंगे। लड़के माल के साथ-साथ कठपुतलियां भी ले जाते हैं लेकिन वो पूरे नहीं होते। बस उपर का हिस्सा। एक तो लाने,ले जाने में परेशानी और फिर मंहगे भी होते हैं, हाट में इतनी धक्का-मुक्की होती है कि अगर गिर जाए तो बिजली-बत्ती गड़बड़ा जाती है। मंगला हाट में आमतौर शहरी लोग सिर्फ सब्जियों औऱ छोटी-मोटी चीजें खरीदने जाते हैं,वहां से कपडे,बर्तन,जूते जैसी चीजें नहीं खरीदते। इसे खरीदनेवाले कस्बों से आए लोग होते हैं। झुंड की झुंड लड़कियां, इन्हीं कस्बों और आसपास के गांव से आयी लड़कियां। लड़के जब ठीक-ठाक कपड़े बेच लेते हैं तब जोश में आ जाते हैं फिर लड़कियों को देखकर चिल्लाते हैं- ये लो,ये लो सामान के लिए बढ़िया सामान,बाजिब दाम में सामान के लिए सामान। हाट-बाजार में लगानेवाली हांक पर गौर करें तो उसका एक बड़ा हिस्सा ग्राहकों पर किया जानेवाला व्यंग्य होता है,दूकानदार चुटकी लेते नजर आते हैं।

कठपुतलियों को लेकर मसखरई औऱ लड़कियों पर फब्तियां कसे जाने के लिहाज से देखें तो 360 का सर्किल पूरा हो जाता है जिसमें किसी न किसी रुप में बाजार में शामिल अलग-अलग लोग आ जाते हैं, सामान बेचनेवाले दूकानदार से लेकर खरीदार तक,ये कहते हुए कि...स्साला अब ऐसी कठपुतली बनने लगा है कि लगता है सच्चोमुच्चो कोई लड़की खड़ी है और परपोज कर रही है
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