माफ कीजिएगा, मैं इनका ऑपरेशन करके अपने पेशे का अपमान नहीं कर सकता. मैं आपके हालात, इनके और कुंवारेपन के बारे में जान चुका हूं इसलिए मैंने इनका ऑपरेशन नहीं किया..आप घबराए नहीं.- फिल्म मास्टरजी( १९८५) का संवाद पहली पत्नी के एक बच्चे को जन्म देने और गुजर जाने के बाद राधा( श्रीदेवी) से दूसरी शादी करके अपनी पत्नी बना लिए जाने के वाबजूद मास्टरजी( राजेश खन्ना) राधा को लेकर कभी सहज नहीं रहे. हमेशा इस बात पर शक किया कि पता नहीं ये मेरे बेटे के साथ न्याय कर पाएगी या नहीं और इसलिए उनदोनों के बीच कभी पति-पत्नी के संबंध नहीं बन पाए. राधा को बार-बार जिस फ्रेम में शामिल किया जाता है, फिल्म देखते हुए आपको कृष्णा सोबती की मित्रो मरजानी का ध्यान आएगा. जीवन से बेहद असंतुष्ठ एक स्त्री लेकिन मास्टरजी को विश्वास दिलाने के लिए परिवार नियोजन योजना के तहत अपना ऑपरेशन कराने के लिए भरतपुर तक चली जाती है लेकिन डॉक्टर ऑपरेशन नहीं करते.
इमरजेंसी को लेकर वर्चुअल स्पेस से लेकर मेनस्ट्रीम मीडिया में इंदिरा गांधी और संजय गांधी को लेकर जो स्टोरी चल रही है, उसमे कल से परिवार नियोजन वाले मसले को भी प्रमुखता से शामिल किया जा रहा है जिसमे तत्कालीन सरकार के उन निर्देशों का हवाला दिया जा रहा है जिसमे कहा गया था कि इस प्रोजेक्ट को सफल बनाने में जिसने आनाकानी की, उसकी तनख्वाह तक काट ली जाएगी. संजय दुबे( Sanjay Dubey) ने सत्याग्रह डॉट कॉम पर एक स्टोरी भी लगायी है जिसमे विस्तार से बताया है कि आपातकाल के दौरान संजय गांधी के सिर पर नसबंदी का ऐसा जुनून क्यों सवार हो गया था कि वे इस मामले में हिटलर से भी 15 गुना आगे निकल गए? इस दौरान ६२ लाख लोगों की नसबंदी हुई और जिनमे करीब दो हजार लोगों की जान चली गईं. इस मामले में संजय गांधी हिटलर से भी १५ गुना आगे निकल गए. इसी कड़ी में एक दूसरी स्टोरी प्रकाशित की है जिसमे रुखसाना और परिवार नियोजन की विस्तार से चर्चा है. रुखसाना को संजय गांधी ने मुस्लिम समुदाय के लोगों को ज्यादा से ज्यादा तादाद में नसबंदी के लिए राजी करने का काम सौंपा था. इसके बाद उन्होंने कहर ढा दिया.
इन सबकी चर्चा अखबारी रिपोर्ट से लेकर तेजी से लिखी जा रही घटना आधारित किताबों में मिलेंगी लेकिन जब हम मास्टरजी फिल्म के डॉक्टर के संवाद से गुजरते हैं तो इस बात की उम्मीद जगती है कि उस जोर-जबरदस्ती के दौर में भी स्वविवेक से काम लेनेवालों की संख्या रही होगी और उन्होंने लोगों की बेहतरी का हवाला देकर सरकारी दमन के आगे अपने पेशे की ईमानदारी को प्रमुखता दी..आप कह सकते हैं ये तो सिनेमा की बात है, फिक्शन है लेकिन है तो ये भी सांस्कृतिक पाठ ही और जब आप टीवी के युद्धिष्ठिर को फिल्म संस्थान का उद्धारक मान ले रहे हैं ऐसे में इमरजेंसी के फीचर और रिपोर्ट से छूट गए ऐसे संदर्भों को तो शामिल कर ही सकते हैं. इससे कुछ नहीं तो कम से कम दमन के बीच भी विवेक के बचे रहने का आत्मसंतोष तो होता ही है. हां ये जरुरी है कि फेमिनिज्म एंगिल से इस फिल्म को देखा जाए तो आपको झोल ही झोल नजर आएंगे और फिल्म पर वही पितृसत्ता हावी नजर आएगी.. और क्या पता, संजय गांधी के रवैये को जायज ठहराने का इस फिल्म पर आरोप भी लग जाए.
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